Book Title: Atmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Atmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
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नधापकाचवे
नमः अर्हयः।
[लेखकः श्री वासुदेवशरण अग्रवाल M. A, Curator Curzon Museum-मथुरा ]
अखंड समाधि और आत्म-संयम के सनातन आदर्श की प्रतिष्ठा करनेवाले तीर्थकर प्रभुओं को हमारी प्रणामाञ्जलि अर्पित हो। भगवान् कृष्ण ने मथुरापुरी में जन्म लेकर जिस योग की निष्ठा को अपने जीवन में मूर्तिमान् किया, उसी अविचल निष्ठा के सूत्र को हम जैन तीर्थङ्करों के जीवन में पिरोया हुआ पाते हैं । सृष्टि के आदि से ऋषियों ने इसी तप के आदर्श को सदा अपने सामने रक्खा था । हमारा चित्त दिव्य आनन्द से गद्गद् हो जाता है जब हम पढ़ते हैं:
भद्रमिच्छन्त ऋषयः स्वर्विदः, तपोदीक्षामुपनिषेदुरग्रे ।
ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं, तदस्मै देवा उप संनमन्तु ॥ अर्थात् ऋषियों ने चाहा कि प्रजाओं में सब प्रकार कल्याण हो, इसी लिए उन्हों ने सर्व प्रथम तप और दीक्षा की उपासना की। उनके तप से ही राष्ट्र में बल और ओज उत्पन्न हुए । इसलिए हे विद्वानो ! आओ और तपस्वियों को प्रणाम करो। यही कारण है कि हम आज जिनेन्द्र तपस्वियों के पुण्यश्लोक चरित्रों के प्रति अपनी प्रणामाञ्जलि का समर्पण करते हैं। ... तप में सृष्टि करने की सामर्थ्य होती है। हम कह सकते हैं कि प्राचीन अर्हतों के अखण्ड तप ने जिस उदात्त धर्म को आलोकित किया उसके अप्रतिहत विकास में अनेक विलक्षण इतिहासों की सृष्टि हुई, जब धर्म, दर्शन, साहित्य, कला और आचार का नवीन उन्मेष हुआ।
तान्दि प्रथ]
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