Book Title: Atmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Atmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
View full book text
________________
गुणाकरसूरिकृत श्रावकविधिरास छंडवि धंधउ इय घरह कइयइ संजम लेसुः समरसि लग्ग वि कइय हुं फेडिसु कम्मकिलेसु
॥४३॥ ॥ भास ॥ नितु नितु सहगुरु पाय वंदिजए, संभलउ साविया सीख तुम्ह दिजए; गलह उह्वाल ए तिन्नि वारा जलं, लेविण गलण ए तुम्ह अइ नीसलं ॥ ४४ ॥ सेस काले विबे वार जल गा(ल)उ मीठ जल खार जल जीव मा मेलहो; राखउ सूखतउ तुम्हि संखारउ, वत्थह धोवण गलिय जलि कारउ ।। ४५ ॥ दुद्ध दहि तेल घृत तक ढंकविधरउ माखीय पमुह तिहि जीव मा पडिमरउ; सोधवि धन्न रंधन पीसउ दलउ पउंजि बे वार ए चुहलि घर ऊखलउ ॥ ४६॥ जाणवि जीव जो इंधण जाल ए, अट्टमी चउदसी पमुह तिहि पाल ए; जीवदय सार जिणवयण जो संभरइ, जयण पालति नरनारि ते भव तरइ ।। ४७॥ पक्खि चउमासि संवच्छरी खामणा, सुगुरु पासंमि दुचरिम आलोयणा; करइ जो आउ पजंत आराहणा, तासु परलोय गइ होइ अइ सोहणा ॥४८॥ एम जो पालए ए वर सावय-विही, अट्ठ भवमाहि सिव सुख सो पाविहिः रास पदमाणंद सूरि सीसहि कीयउ, तेरइगहत्तरइ एह ललियंग उ ॥ ४९ ॥ जो पढइ सो सुणइ जो रमइ जिणहरे, सासणदेवि तासु सानिधि करइ; जाम ससि सूर अरु मेरु गिरि नंदणं, तां जयउ तिहुयणे एह जिणसासणं ॥ ५० ॥
-इति श्री श्रावकविधि संपूर्ण । लि० पुरोहित लक्ष्मी (ना) रायण (सं. १९८४ ) ३-१६ नवीन प्रत प्राचीन प्रत से नकल नं. २३२९ श्री मुक्तिकमल जैन मोहन ज्ञान मंदिर, बड़ोदा.
म यह रास कविराज धनपाल ने श्री श्रावकविधि प्राकृत में रचा । ॥ है और श्रीमान् मुक्तिकमल जैन मोहनमाला पुष्पं १७ में छपा । है उसका यह भाषा में किया गया अनुवाद है
-संपादक.
[ श्री आत्मारामजी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org