Book Title: Atmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Atmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
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स्वर्गवासी गुरुमहाराज का अपूर्ण रहा हुआ अंतिम ध्येय हानले आदि विद्वान् काम कर रहे थे । गुरुमहाराज इन के काम से परिचित थे जैसा कि " तत्त्वनिर्णयप्रासाद " से स्पष्ट प्रकट होता है। संभव है इन में से कोई विद्वान् महाराजजी से मिले भी हों । हार्नले ने अपने शङ्कासमाधान के निमित्त महाराजजी से पत्रव्यवहार किया था ।
इन्ही दिनों भारत सरकार संस्कृत, प्राकृत आदि के हस्तलिखित ग्रन्थों के सूचीपत्र तय्यार करा रही थी जिन में से पाटण, खंभात आदि के सूचीपत्र अतीव महत्त्व रखते हैं।
इधर चिकागो से महाराज साहिब के नाम अखिल धर्मसभा में संमिलित होने के लिये निमन्त्रण आया और भाई वीरचन्द गान्धी महाराज के प्रतिनिधि बनकर वहां गए ।
ये सब घटनाएं इस बात की द्योतक हैं कि महाराजजी ऐतिहासिक दृष्टि की महत्ता को भली प्रकार समझते थे और वे इस के विरोधी न थे। इन को दिखाई दे रहा था कि केवल श्रद्धालु दृष्टि इस समय पर्याप्त न होगी, क्यों कि भारतवर्ष का संसार के इतर देशों के साथ घनिष्ठ संबन्ध होता जा रहा था । इस दशा में भारतवर्ष अथवा जैन समाज सांसारिक परिस्थिति के प्रभावों से मुक्त नहीं रह सकता था । लेखक ने अपने पिताजी तथा अन्य गुरुजनों के मुख से सुना है कि महाराजजी के विचार बड़े उदार
और प्रगतिशील थे। वे कदापि संकुचित नहीं थे। गुरुमहाराज को विश्वास था कि केवल ऐतिहासिक दृष्टि से सम्यक्त्व में हानि नहीं आ सकती । सम्यक्त्व में हानि का कारण आत्म-निर्बलता है । ऐतिहासिक दृष्टिवाला पुरुष जैनधर्म के सिद्धान्तों को निर्दोष पाल सकता है । वीरचंद गांधी के चारित्र ने इस बात को सिद्ध कर दिया था ।
पूर्वोक्त कथन के आधार पर यह बात निःसन्देह कही जा सकती है कि महाराजजी के हाथों में सरस्वती मन्दिर केवल श्रद्धालु दृष्टि पर न चलता-उस में ऐतिहासिक दृष्टि को यथोचित स्थान मिलता । सरस्वती मन्दिर एक प्रकार से नये और पुराने विचारों का संगम होता जहां नये विचार पुराने विचारों से और पुराने विचार नये विचारों से
पाते। ऐसी संस्था जैनमत सम्बन्धी विद्याभ्यास तथा अनुसन्धान के लिये न केवल भारतवर्ष में ही, कदाचित् शान्तिनिकेतन तथा भाण्डारकर इन्स्टिटयूट की भांति संसारभर में आदर्शरूप हो जाती । यहां देश देशान्तरों के प्रौढ़ और अनुभवी विद्वान् जैन धर्म तथा साहित्य का विशेष रूप से परिशीलन करते और इस की सहायता से मानव जीवन की जटिल समस्याओं पर प्रकाश डालते ।
एक विद्वान् का कथन है कि सच्ची यूनिवर्सिटी अथवा रिसर्च इन्स्टिटयूट के प्राण तो पुस्तक संग्रह है । महाराजजी भी इस विचार से सहमत प्रतीत होते हैं क्यों कि गुजरांवाला नगर में जहां वे सरस्वती मन्दिर खोलने का भाव रखते थे वहां पं० बेलीराम मिश्र सं० १९३१ से शास्त्रों की प्रतिलिपि करने पर नियुक्त थे । मिश्रजी के लिपिकृत पचासों ग्रन्थ अम्बाला, अमृतसर, पट्टी, जीरा आदि भंडारों में विद्यमान हैं। प्रति
[ श्री आत्मारामजी
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