Book Title: Atmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Atmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
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कुछ इधर उधरयो । ... स्वर्गस्थ आचार्य महाराज साहब के संस्मरण बड़े ही सुन्दर तथा शिक्षाप्रद हैं। हो भी क्यों न ? महात्मा पुरुषों की प्रत्येक घटनाएं कुछ न कुछ महत्व रखती हैं । भावनगर की एक घटना है । यह आचार्य श्री विजयकमलमूरिजी ने खंभात में मुझे सुनाई थी।
आचार्यदेव का विराजना भावनगर में था । आप का यह नियम था कि शौच बहुत दूर, मील डेढ़ मील तक पधारते थे, इसके साथ ही आप कभी अकेले-बिना किसी साधु के बाहर नहीं निकलते थे।
प्रातःकाल का समय था । मुनिवृन्द के साथ आप शौच पधारे थे। समुद्र के किनारे की ओर उस दिन पधारना हुआ था। आप किनारे २ बहुत आगे चले गये थे । जब उधर से लौटे तो दूर से आप ने देखा कि मुनि श्री कमलविजयजी तथा श्री जयविजयजी किसी वस्तु के ऊठाने में लगे हुए हैं।
बात यों थी कि रात में समुद्र की लहर आई थी, उसके साथ ही लकड़ी के दो लहे बह कर किनारे आ गये थे, उनके बीच दैवयोग से एक गधा फँस गया था और वह उन दोनों लहों के बीच पड़ा तड़फड़ा रहा था । उक्त दो मुनिगण एक लठे को हटा कर उसे बचाने की चेष्टा कर रहे थे ।
गुरु महाराज निकट आये, बेचारे पंचेन्द्रिय की दशा देख जी भर आया । इन दोनों साधुओं से लठा उठाया नहीं पाता था। " हटो, इधर आओ" आप ने जोशभरे स्वर से कहाः “ पकड़ो यह तिरपणी और डंडा।"
उक्त दोनों महानुभाव हट गये। आप ने चोलपट्टा कसकर काछिये सा बना लिया। वह पहला ही दिन था जब आप ने चोलपट्टा घुटनों से ऊँचा किया था। लहे के पास पहुँचे । दो तीन बार उस के बोझ को आजमाया और अंत में उठा कर इतने जोर से फेंका कि तीन साढ़े तीन हाथ दूर जाकर गिरा । आफत में फंसा हुआ गधा बंधनमुक्त हुआ, उछल करके चट्ट से बाहर हुआ, थोडी दूर तक दौडा किन्तु पेट में पानी भर गया था, गिर पड़ा। और मुख मार्ग से पानी निकल गया, धूप लगी, चंगा हो गया और चलता बना।
एक बार की बात है आप उन दिनों जंडियाला गुरु में विराजमान थे । आपने अब तक संवेग दीक्षा नहीं ली थी, स्थानकवासी दंग ही थे किन्तु आप के विचार मुखपत्ति बांधने के विरुद्ध हो गये थे।
[ श्री आस्मारामजी
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