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पंन्यास श्री ललितविजयजी
आप मेडतानिवासी पुष्करणा ब्राह्मण थे और आप ने श्री स्वर्गस्थ आचार्यदेव के पास सत्यसनातन धर्म की शिक्षा ली थी और जब आचार्यदेव ने संवेग दीक्षा ली तब आप ने भी संवेग दीक्षा ली थी और आप के ही शिष्य बने थे । ढुंढकपने में आप अमरसिंहजी के समुदाय में रामबक्षजी के शिष्य थे।।
एक दिन जीरा की स्थानकवासी संप्रदाय की एक प्रसिद्ध श्राविका आप के पास आई । वह प्रायः श्री आत्मारामजी महाराज साहब तथा उनके शिष्यों को गालियां दिया करती थी. आ कर श्री लक्ष्मीविजयजी से बातें करने लगी। बातों २ में उसने कहा कि क्या कहा जाय ? अगर कोई ओसवाल का बच्चा साधु रहता तो धर्म परिवर्तन न करता, किन्तु आप तो ब्राह्मण ठहरे और आप के गुरु क्षत्रिय ठहरे, इस तरह से अलग ही पंथ चला दिया, मुखपत्ति खोल दी, हाथ में तिरपणी ले ली, अब क्या रह गया ? - श्री लक्ष्मीविजयजी ने कहा "बाई ! यदि क्षत्रिय और ब्राह्मण होना ही दोष है तो भगवान महावीर भी तो क्षत्रिय थे और उनके परम शिष्य गौतमस्वामी भी ब्राह्मण ही थे।"
बिचारी सुनकर लज्जित हो गई । ऐसी २ घटनायें स्थानकवासीपना छोड़ने के बाद अनेको हुई; सत्य की खोज करनेवाले तो सत्य तक पहुँच कर ही दम लेते हैं।
सम्बत् १९५५ की बात है। वर्तमान आचार्यदेव मेरे परमोपकारी गुरुमहाराज श्रीमद्विजयवल्लभसूरीश्वरजी ने पट्टी, जिला लाहौर में चौमासा बिताकर शतलज पार करते हुए जीरा (फीरोज़पुर) में पदार्पण किया। उस समय प्रधानरूप से आप श्री जी बाबाजी महाराज श्री कुशलविजयजी महाराज, श्री हरिविजयजी महाराज, श्री सुमतिविजयजी महाराज, इन वृद्ध साधुओं के साथ थे और तपस्वी श्रीशुभविजयजी महाराज, श्रीलब्धिविजयजी महाराज एवं मेरे उपकारी वृद्ध भ्राता श्री विवेकविजयजी महाराज और मैं (मुनि ललितविजय) भी आपके साथ थे। सारे नगर में उत्साह तथा प्रेम का सागर हिलोरे भरने लगा, गाजेबाजे के साथ नगर में पधारना हुआ । - लाला राधामलजी जीरा के पुराने तथा धनी श्रावकों में से थे, साथ ही स्वर्गस्थ आचार्यदेव श्री आत्मारामजी महाराज साहेब के बालमित्रों में से भी थे। सारे जुलूस में उन्हें न देखकर सब आश्चर्य में थे, किन्तु बात कुछ और ही थी। शताब्दि ग्रंथ ]
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