Book Title: Atmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Atmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
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कुछ इधर उधरको महाराज साहब ने फरमाया " भाई भगवतदेव का मन्दिर बनवाना सम्यक्त्व की निर्मलता का कारण है और सम्यग्दृष्टि जीव स्वर्ग में ही जाता है। पांचवें श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामी का बचन है कि, " सम्मदिद्धिजीवो विमाणवजन बंधए आउं।" इसलिये ऐसे पवित्र काम के करनेवाले जीव का स्वर्ग में जाना शास्त्रसिद्ध है।"
प्रश्नकार ने हंस कर पूछा " महाराज मन्दिर के लिये गधा ईंटें लाता है, उसे पड़ा कष्ट उठाना पड़ता है, वह भी किसी न किसी देवलोक में जाता ही होगा!"
यह प्रश्न हाला कि भलमनसाही का न था, तो भी स्वर्गस्थ ने बड़ी शान्ति रक्खी और उससे कहा कि “भाई, तुम मन्दिर को नहीं मानते और मन्दिरजी के बनवाने में भी पुण्य नहीं मानते, किन्तु साधु को दान देने में तो पुण्य मानते हो!"
प्रश्नकार ने कहा " विलाशक, साधु को दान देने से मनुष्य को स्वर्ग और मोक्ष मिलता है।"
गुरु महाराज ने कहा "ठहरो ! शान्तिपूर्वक सुनो और गौर करो:-एक साधु ने कुछ दिनों तक उपवास किये । पारणे का दिन आया। तुमने साधु महाराज को घर बुलाकर दूध वौराया । तुम को बड़ी खुशी हुई। तुमने बड़ा पुण्य बांधा, तुमको ऊँचा स्वर्ग मिलेगा। मगर दूध देनेवाली भैंस को भी तो सर्ग मिलना चाहिये !"
जबाब सुनकर प्रश्नकार खामोश हो गया और मनोमन लज्जित भी हुआ।
पटियाला में लाला सीमूमल नाम के एक ढूंढिया श्रावक रहा करते थे। वे ढूंढक पंथ के कट्टर अनुयायी थे और महाराज साहब के संवेगी दीक्षा लेने के कारण उनसे बड़े नाराज़ थे।
एकवार वे दूसरे शहर में गए और उन्हों ने वहाँ कहा "आत्मारामजी सब जगह तो जाते हैं, किन्तु पटियाला में नहीं आते हैं ! डरके मारे इधर आने का नाम भी नहीं लेते । यदि आ जायँ तो उनकी इजत बीच बाजार में उतार लूँ।"
- स्वर्गीय आचार्यदेव को यह बात मालूम हुई। उन दिनों आप का विराजना उधर ही था, पटियाला विहार के रास्ते में पड़ता भी था, आप पटियाला को ही चल पड़े। ६८.
[श्री आत्मारामजी
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