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हँसते हँसते उत्तर दिया |
पंन्यास श्री ललितविजयजी
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यह सामने की दूकानें किस की हैं ? "
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यह हैं तो मेरी ही ! कहिए, क्या इन्हें खरीदना है ?
लालाजी ने
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'हाँ, खरीदना है तभी तो पूछते हैं । " वर्तमान आचार्यदेव ने कहा ।
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'दाम इनका बहुत है, आप दे न सकेंगे !"
"नहीं, नहीं, ऐसा न कहो, मैं जहां तक समझता हूं, दाम चुका सकता हूं !" " कहिए तो सही ! लंगोटी में कितने दमड़े हैं, जिनसे दाम चुकायेंगे ?" लालाजी का पूछना था ।
" भाई ! यहां तो धरा ही क्या है ? हमारे पास तो धर्मलाभ है, क्या यह कम मूल्य है ?" वर्तमान आचार्यदेव ने कहा ।
" तो भले, इन दुकानों की जमीन को मैं आचार्यदेव के चरणों में अर्पित कर रहा हूं, जो चाहें सो करें । " लालाजी ने प्रसन्नतापूर्वक आज्ञा दे दी । शताब्दिनायकः
आचार्यदेव स्वर्गवासी हो गए। कुछ वर्षों बाद वर्त्तमान आचार्यदेव समुनिवृन्द लुधियाना पहुँचे | सारे नगर में जुलूस बड़े उत्साह से निकला, सहस्रों आदमी उसमें सम्मिलित हुए । लुधियाना का हृदय खुल गया था । सब लोग इस जुलूस में थे, किन्तु लाला रामदित्तामल का कहीं पता तक न था ।
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वर्तमान आचार्यदेव उपाश्रय में पधारे। लगभग ३ बजे दिन को लालाजी आए, नमस्कार करने को झुके और कुछ कह भी न पाये थे कि हिम्मत का बांध टूट गया " हा ! आत्मारामजी !" मात्र कह सके। फूट फूट कर रोने लगे । उनका रोना देख उपाश्रय की दीवालें तक रो उठीं । फिर किसी तरह उन्हें सान्त्वना देकर गुरुदेव ने शान्त किया। यह सम्वत् १९५६ की बात है (यह घटना भी मेरी देखी हुई है) ।
मंदिर बनकर तय्यार हुआ, प्रतिष्ठा में भी आप को बुलाया गया। उस समय उनसे कहा गया " यदि आप कुछ चाहें तो दे सकते हैं ! "
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जो कुछ 'खर्च हो, उसका चौथाई मेरा । पचास हज़ार, लाख जो कुछ क्यों न हो । उसका चौथाई मेरा माना जाय । " लालाजी ने उत्तर दिया, सब स्तब्ध थे ।
शताब्दि ग्रंथ ]
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