Book Title: Atmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Atmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
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श्री. बनारसीदास जैन
हुआ था, परन्तु खेद है कि महाराज साहिब इस भावना को अपने जीवन में पूर्ण न कर सके । इस से भी अधिक खेद की बात यह है कि महाराजजी को स्वर्गवास हुए चालीस वर्ष हो चुके हैं और उनकी यह अन्तिम भावना अभीतक अपूर्ण ही रही है । यद्यपि उनके शिष्य तथा श्रावक उन में अनन्य और अखण्ड भक्ति रखते हैं जैसा कि उनके जन्म शताब्दि महोत्सव से प्रकट हो रहा है । .... ऐसा प्रतीत होता है कि सरस्वती मन्दिर से गुरुमहाराज का आशय जैन यूनिवर्सिटी (विश्वविद्यालय ) या जैन रिसर्च इन्स्टिटयूट ( विद्याभवन ) से था जो अखिल भारतीय या कम से कम पंजाब प्रान्तीय हो; क्यों कि वे स्वयं अपने शब्दों में कहते है कि " यह काम पंजाब में गुजरांवाला में हो सकता है। " यदि महाराज साहिब का भाव विश्वविद्यालय या विद्याभवन से न्यून संस्था का होता तो वे केवल एक ही नगर का नाम न लेते । उनका आशय स्कूल या कालेज की कोटि की संस्था का नहीं था क्यों कि ऐसी एक ही संस्था से देश या प्रान्तभर का काम नहीं चल सकता था ।
लेखक ने अपने एक लेख में बतलाया है कि धार्मिक साहित्य का पठन-पाठन दो दृष्टियों से हुआ करता है-(१) श्रद्धालु दृष्टि से और (२) ऐतिहासिक या तुलनात्मक दृष्टि से। जैन साहित्य का पठन-पाठन भी इन दो दृष्टियों से हो रहा है । एक ओर श्वेताम्बर सम्प्रदाय के बहुत से साधु, यति और श्रावक तथा दिगम्बर सम्प्रदाय के भट्टारक और पण्डित लोग श्रद्धालु दृष्टि से इस का अध्ययन कर रहे हैं। दूसरी ओर श्वेताम्बर सम्प्रदाय के कुछ साधु और श्रावक तथा दिगम्बर सम्प्रदाय के पठित श्रावक अर्थात् बाबू लोग ऐतिहासिक दृष्टि से इस का अध्ययन कर रहे हैं । पाश्चात्य देशो में तो इस का अध्ययन इसी दृष्टि से हो रहा है ।
यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इस युग में ऐतिहासिक और तुलनात्मक दृष्टि का ही साम्राज्य है । जो संस्था इस दृष्टि से अध्ययन करने के लिये खोली जाय उस में इष्ट साहित्य के प्रकाशित तथा अप्रकाशित पुस्तकों का पूर्ण संग्रह और साथ अन्य उपयोगी सामग्री का होना नितान्त अनिवार्य है।
इस उपर्युक्त कथन का समर्थन श्रीयुत मोहनलाल दलीचंद देशाई के इन शब्दों से होता है-" प्राचीन काळथी चाल्या आवता धर्म तरफ जोवानी अनेक दृष्टिओ होय छ । आजना जमानामां ऐतिहासिक दृष्टि प्रधानपद +भोगवे छ । ” .. महाराज साहिब के समय में जैन साहित्य पर ऐतिहासिक दृष्टि से काम होने लग गया था । योरप में वेबर तथा याकोबी और भारत में ब्यूलर, भाण्डारकर, पीटर्सन,
* " आत्मानन्द "--जनवरी फरवरी, सन् १९३१ पृ० १९ । ... + “ जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास " वि० सं० १९८९ । पैरा १०७२, १०८२ । शताब्दि प्रय]
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