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मुनिश्री आत्मारामजी तथा चिकागो सर्वधर्म परिषद् स्वरूप कुरूढियों के अन्दर छिप चुका था, जैन लोग अपने कईएक बुरे रिवाजों के कारण बदनाम हो चूके थे जिसका थोड़ा-सा परिचय उस समय के कवियों की कृतियों से होता है ) अनेकों कष्ट सहन कर स्वयं विद्यालाभ किया तथा प्रायः हरएक धर्म के धर्म प्रन्थों का अध्ययन कर अपने प्रतिस्पर्धी धर्मों का डंके की चोट खंडन कर के जैनधर्म का शुद्ध स्वरूप लोगों को समझाया । शास्त्रभण्डारों का उद्धार किया, पंजाब में अनेकों गगनचुम्बी मन्दिरों को स्थापन किया जब कि आर्यसमाज के बानी दयानंदजी पंजाब में मूर्ति के खण्डन में प्रचार कर रहे थे । पाश्चात्य देशों में जैनधर्म का डंका बजवाया-आदि अपने स्वल्प जीवन में किस निर्भीकता तथा प्रेम से अपना सारा जीवन जैनधर्म के उद्धार में लगा दिया यह देखते हुवे स्वतः उनके पवित्र चरणों में शिर झुक जाता है । उनके जीवन का पाश्चात्य देशों में जैनधर्म के प्रचार करने का जो एक प्रधान संकल्प था खेद है कि उनके पीछे जैन समाज ने उस ओर लक्ष्य ही नहीं दिया। जिस पौधे को श्रीगुरुदेव की प्रबल इच्छा से श्रीयुत वीरचंद गान्धी ने पाश्चात्य देशों में यथेष्ट रूप में लगाया था, खेद है कि जैन समाज ने उनके पीछे उसको निर्मल पानी से यथेष्ट रूप में नहीं सींचा जिस के कारण वह अब मृतप्रायः हो रहा है। श्रीगुरुदेव की जन्म शताब्दि के ऊपर अगर जैन समाज के नेतागण इस ओर अपना ध्यान आकर्षित करेंगे तो वह श्री गुरुदेव के एक सच्चे उद्देश्य को सफल बना सकेंगे।
* इस लेख में श्री गुरुदेव के ऊर्दु जीवन तथा स्वामी विवेकानंद के जीवन से सहायता ली गई है इसलिये मैं उनके लेखकों का कृतज्ञ हैं।
शताब्दि ग्रंथ
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