Book Title: Atmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Atmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
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श्री आत्मारामजी और हिन्दी भाषा
संक्षिप्त जैन इतिहास इत्यादि अनेक उपयोगी तत्त्वों का समास है, थोड़ी हिंदी भाषा जाननेवाले को भी जैन धर्म के मंतव्यों का बोध हो जाता है, आस्तिक नास्तिक की चर्चा और ईश्वरक" के खंडन-मंडन की युक्तियें तो जन साधारण को मोहित करती हैं, विद्वान भी प्रेम से पढ़ते और गद्गद् गिरा से प्रशंसा करते हैं, ६०० पृष्ठ का एक दलदार ग्रंथ है, मानो, गागर में सागर भरने समान इस में जैन धर्म के तत्त्वों का संग्रह-आदर्श है।
__ जैन धर्म के तत्त्वों का बोध व प्रचार हिंदी ग्रंथोद्वारा होता देखकर इन महात्मा जैसे समर्थ विद्वान के हृदय में अन्यान्य हिंदी में ही ग्रंथ रचने की सोत्साह भावना का उत्पन्न होना स्वाभाविक है । आप ने एक और ग्रंथ रचा, नाम रखा "अज्ञानतिमिरभास्कर" सचमुच ही यह ग्रंथ 'अज्ञान' के तिमिर (अंधकार ) को दूर करने में 'भास्कर'-सूर्य है, यह ग्रंथ बड़े मार्के का है, इस में वेद, पुराण, स्मृति, उपनिषदादि शास्त्रविहित अश्वमेध, गोमेध आदि यज्ञों पर समीक्षा, सांख्य, जैमनीय, बौद्ध और नैयायिक आदि मतों की मुक्ति पर समीक्षा, स्वामी दयानंद सरस्वतिविरचित सत्यार्थप्रकाश में जैन धर्मोपरि किये गये आक्षेपों का खंडनरूप प्रत्युत्तर और जैन धर्म की उत्पत्ति आदि अनेक अपूर्व विषय लिखे हैं । हमें विश्वास है जो जिज्ञासु निष्पक्ष होकर इस ग्रंथ को पढ़ेगा, वह अवश्य सत्यासत्य का निर्णय कर सन्मार्ग पर आजावेगा । यह ग्रंथ है कर्ता की योग्यता और अपरिमित विद्वत्ता का नमूना ।
हम श्री आत्मारामजी महाराज की प्रशंसा करें, यह स्वाभाविक है; परंतु दूसरे धर्म वा संप्रदाय के प्रतिष्ठित और प्रसिद्ध विद्वान् भी प्रशंसा करें, तो वास्तविक प्रशंसा है, इस बात की साक्षीरूप एक पुरातन पत्र है, जो वेदामतानुयायी एक पंडित, राजा-महाराजों की सभाओं में विजयपताकाधारी, योगजीवानंदस्वामी परमहंस सन्न्यासी साधु ने श्री आत्मारामजी महाराज को लिखा था और अपना अभिप्राय प्रकट किया था कि “निरपेक्ष बुद्धि के द्वारा विचारपूर्वक जो देखा तो वो लेख इतना सत्य, निष्पक्षपाती मुझे दिख पड़ा कि मानो एक जगत् छोड़ दूसरे जगत् में आन खड़े हो गये । आबाल्यकाल आज ७० वर्ष से जो कुछ अध्ययन करा व वैदिक धर्म बांधे फिरा, सो व्यर्थ-सा मालूम होने लगा। " जैनतत्त्वादर्श" और · अज्ञानतिमिरभास्कर' इन दोनों प्रथों को तमाम रात्रि-दिन मनन करता व ग्रंथकर्ता की प्रशंसा करता बठिंडे में बैठा हूं, आज मैं आप के पास इतना मात्र स्वीकार कर सकता हूं कि प्राचीन धर्म, परमधर्म अगर कोई सत्य धर्म होवे तो जैन धर्म था, जिस की प्रभा नाश करने को वैदिक धर्म व षट्शास्त्र व ग्रंथकार खड़े भये थे; परंतु पक्षपातशून्य होकर यदि कोई
[श्री आत्मारामजी
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