Book Title: Atmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Atmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
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श्री आत्मारामजी और हिन्दी भाषा इस देश में कहीं भी, कोई न जानता था ।
होता है साधु कैसा, जिनधर्म का दुलारा ॥ ऐसे विकट समय में अनेक आपत्तियें और विरोध का सामना करना और जैनधर्म के सच्चे स्वरूप का प्रचार करना इसीमाई के लाल की हिम्मत थी । आप संस्कृत प्राकृत के प्रखर विद्वान थे, व्याकरण, न्याय, तर्क आदि शास्त्रों के भी अभ्यासी और पारगामी थे। संस्कृत में ग्रंथ रचते, तो पंडित विद्वान लोग ही पठनपाठन का लाभ उठाते, विचारे थोड़ीबुद्धि-हिंदी भाषा मात्र जाननेवाले तो. वंचित ही रहते । वह थे द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के ज्ञानी, उन्हें निश्चय हो गया था कि जैनधर्म के तत्त्वोंका प्रकाश-ज्ञान सर्व साधारणजनता हिंदी भाषा के ग्रंथोद्वारा ही शीघ्रतर प्राप्त करसकती है। यह है उनकी समयज्ञता का चिह्न । उन्हें पंडितों में अपनी वाह-वाह-प्रशंसा कराने का मोह न था, उन्हें तो लगी थी धून जैनधर्म के तत्त्वों को शीघ्रतर प्रकाश में लाने की, यही उनकी प्राज्ञता और दूरदर्शिता थी।
जैन श्वेतांबर संप्रदाय में सब से पहिले हिंदीभाषा के ग्रंथ लिखने का श्रेयः इन्ही महात्मा को है। आप ने हिंदी भाषा में ग्रंथ लिखकर न केवल धर्म का उद्धार किया और हमारी आत्मा को प्रकाश दिखाया, किंतु उन्हों ने हिंदी भाषा के विकास और उन्नति में महान सहयोग दिया है। महाराज साहब के लिखे हुए हिंदी के ग्रंथ विक्रम संवत् १९४० के लगभग प्रकाशित होने प्रारंभ हुए, यह वह समय था जब हिंदी भाषा में गद्य की कोई शैली निश्चित न थी। श्रीभारतेंदु बाबू हरिश्चंद्रजी तथा राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद इत्यादि महानुभाव हिंदीगद्य को रूप देने की चेष्टा कर रहे थे। केवल साहित्यिक रूप देना उतना कठिन न था जिनना गद्य की शैली को स्थिर करना और उसे धार्मिक स्वाध्याय, तत्त्व, चर्चा और दार्शनिक तत्त्वों के निरूपण योग्य बनाकर जन साधारणमें सुबोध बनाए रखने की चेष्टा करना । यह आचार्य महाराज का ही स्तुत्य कार्य है। आज हिंदी-गद्य का स्वरूप स्थिर है, वह काफी विकसित हो चुका है, अतः हम सुगमता से नहीं समझ सकते कि भाषा-शैली को रूप देना प्रारंभ में कितना कठिन कार्य था, और इन महात्मा के सामने कितनी कठिन समस्यायें उपस्थित थीं।
उस समयतक धार्मिक ग्रंथ संस्कृत प्राकृत में थे, और जो भाषा में अनुवादित थे, वे भी छंदबद्ध पद्य में थे, क्योंकि गद्य का न प्रचार था न कोइ स्थिर शैली, महती समस्या थी संस्कृत ग्रंथों के स्वाध्याय की परिपाटी को बनाये रखना । इसी कारण पूज्यश्री आत्मारामजी महाराज ने संस्कृत के मूल शब्दों को महत्ता दी, और संस्कृत न जाननेवाले पाठकों के लिये
[श्री आत्मारामजी
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