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पंडित भागमल मौद्गलायन
सौभाग्य से अकेले उपगच्छ में सात आचार्य तो विद्यमान होंगे ही। लोग कहते हैं: क्या यह कम उन्नति हैं ? " हां मैं फिर कहूंगा कि यह लक्षण उन्नति के नहीं हैं। यह बातें हमें सन्मार्ग और शुद्ध जैनधर्म से बहुत दर ले जा रही हैं ।
हमारे पितामहों ने निर्जन और दुरुहस्थानों में ऐसे सुंदर और चमत्कारी मंदिर बनाये, जिनके एक कोट की मरम्मत कराना भी हमें असंभव प्रतीत होता है। जैनसमाज की जो प्रतिष्ठा राजदर्बार में १०० वर्ष पहले थी वह अब नहीं है । एक २ आचार्य ने अपने बल और समय का सदुपयोग कर के वह अंथरत्न रचे जिन्हें देखकर बड़े २ प्रतिभाशाली विद्वान् भी मंत्रमुग्ध की तरह रह जाते हैं। उन्हों ने अपनी अकाद्य युक्तियों से बादियों का मुंह मोड़ दिया । अकेले श्री विजयानंदसूरि महाराज का कार्य क्या कुछ कम है ! उनके समय में पुस्तकालयों और मुद्रणालयों के यह साधन इतने सुलभ नहीं थे जितने आजकल है। उनको वह सुविधायें कहो प्राप्त थीं जिनका उपयोग आजकल हो रहा है। फिर भी उनको ख्याति अखिल विश्व में फैल गई। उनकी विद्वता की गुंज सात समुंदरपार अमरीका तक पहुंची । उन्हें चिकागो सर्व धर्म परिषद् से निमंत्रण भी आया । उनके स्वयं वहां न जा सकने के कारण श्री वीरचंद राघवजी गांधी को जैनधर्म प्रतिनिधि बनाकर भेजा गया । श्री गांधीजी की प्रतिभा को देखकर उनके गुरुमहाराज की जो प्रशंसा और श्लाघा इस अवस्था में प्राप्त हुई वही क्या कम है ? परंतु यह मानना होगा कि यदि आचार्य महाराज स्वयं वहां जा सके तो निःसंदेह समस्त संसार उनको भूमंडल के श्रेष्ठतम विद्वान् कहकर पूजने लगता । उस एक महारथी ने पाश्चात्य संसार को जैनधर्म का श्रद्धालु और प्रेमी बना दिया और आज ! आज इमपर चारों ओर से आक्षेप होते हैं और हम इन सप्त महारथियों के रहते भी अपनी रक्षा नहीं कर सकते ।
पूर्वाचार्यों ने अपने उपदेश से सहस्रों अजैनों को जैन बना दिया । इस के विरुद्ध आज हमारे भाई भी हम से विमुख होते जा रहे हैं और अजैन-हिंदुधर्म को ही क्यों ? मुसलमानों और क्रिस्तानों की गोद में आश्रय ले रहे हैं। जो कभी अहिंसा धर्म के पूजारी थे आज हिंसा में ही अपना श्रेय समझ रहे हैं । आज हम अपनी प्राचीनता, पवित्रता और प्रमाणिकता का विधास भी लोगों को नहीं दिला सकते | आज हमारे सर्वोत्कृष्ट सिद्धांत ' अहिंसा परमो धर्मः अहिंसा परमो धर्मः के कारण ही हमें भीरु और भारतवर्ष को भीरु और कायर बनानेवाले बताया जाता है और हम समय की बलिहारी' कहकर सब कुछ चुपचाप सहन कर रहे हैं।'
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खान-पान का विवेक तो अब जाता ही रहा । हम २२ अभक्ष्य ' का नाम सुनते ही छिः । इस में भी कोई सार है ? " कह उठते हैं। हम समझने लगे हैं:
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ज़ाहिद शराब पीने से काफिर बना मैं क्यों ? क्या डेढ़ चुल्लू पानी में ईमान बह गया ?
यही बस नहीं । परन्तु मैं अपनी त्रुटियों की इस सूची को लंबा करके आप का दिल दुखाना नहीं चाहता, आप के रंग में भंग डालना नहीं चाहता। मैं केवल इतना ही चाहता हूं कि आप क्षणभर के लिये सोचें कि हम कहां है ?
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