Book Title: Atmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Atmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
View full book text
________________
anta कहां हैं
( पंडित भागमल्ल मौद्गलायन बी. ए. )
आज श्वेतांबर जैन समाज में श्री आत्मानन्द जन्म शताब्दि की धूम है। सभी कहते हैं: “शताब्दि होगी, चलेंगे और गुरुमहाराज की जयन्ती एक दूसरे से बढ़कर मनायेंगे"। फिर कुछ महिनों तक शताब्दि के उत्सव को स्मरण कर उसको चर्चा होती रहेगी । “जी हां; शताब्दि हो चुकी । भारतवर्ष के कोने कोने से भाविकजन (श्रावक) सपरिवार पधारे। भोजन का प्रबंध बहुत ही सुंदर था। अमुक महानुभाव का व्याख्यान बड़ा ही रोचक, विद्वत्तापूर्ण और प्रभावशाली था। मुनिमंडल के दर्शनों का भी अपूर्व लाभ मिला । शताब्दि बड़ी सफलता से मनाई गई-" ऐसी २ बहुत-सी बातें सुनने में आयेंगी।
परंतु वस्तुस्थिति की ओर हमारा ध्यान बहुत कम जायगा। शताब्दि की सफलता का अनुमान इन उपरी बातों से नहीं लगाना चाहिये । चमकनेवाली प्रत्येक वस्तु स्वर्ण ही नहीं होती। हमें इस मृगतृष्णा में अपने ध्येय को नहीं भूल जाना चाहिये। हमें विचारना चाहिये कि १०० वर्ष पहले हम कहां थे और अब कहां हैं ? फिर हमारा अंतरात्मा हमें बतावेगा कि हमारा यह सारा प्रयास सफल हुआ या नहीं?
जब स्वर्गवासी श्री विजयानंदजी महाराज का जन्म हुआ उस समय पंजाब की क्या दशा थी। मंदिरों पर ताले पड़े हुये थे। भगवान् की पूजा-अर्चा की विधि कोई नहीं जानता था । जैनधर्म का सच्चा स्वरूप क्या है इसका किसी को भान न था । इस समय पंजाब में स्थान स्थान पर भव्य और गगनचुंबी देव-मंदिरों पर जैनध्वजायें-पताकायें-फहरा रही हैं । प्रातःकाल बड़े उत्साह और प्रेम से पूजा-प्रक्षाल किया जाता है, प्रभावनायें भी बांटी जाती हैं । हां, ठीक है । परंतु यदि हम अपने दिल पर हाथ रक्खेंगे तो अंतरात्मा की बहुत धीमी-सी आवाज से यही उत्तर मिलेगा कि हम वास्तव में धमें से बहुत दूर जा रहे हैं। अपने पूर्व पुरुषाओं की अपेक्षा हमारा धर्मज्ञान शून्य, श्रद्धा कम, संघशक्ति निर्बल और विवेक नहीं के बराबर है।
स्वर्गवासी सूरिमहाराज को जब पालीताणा में आचार्यपदवी दी जा रही थी तब यह कहा जाता था कि यह पदवी ३०० वर्ष के पश्चात् हुई है । अर्थात् ३०० वर्ष तक समाज की नैया का कोई कर्णधारआचार्य ही न था । इस आचार्य-रहित जैनसंसार की दशा भी सर्वथा संतोषप्रद थी, परंतु आज तो हमारे
[श्री आत्मारामजी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org