Book Title: Laghu Siddhant Kaumudi Part 01
Author(s): Vishvanath Shastri, Nigamanand Shastri, Lakshminarayan Shastri
Publisher: Motilal Banrassidas Pvt Ltd
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवरदराजप्रणीता लघुसिद्धान्तकौमुदी (पाणिनीय-व्याकरण-प्रवेशिका) उपेन्द्रविवृतिसहिता, सूत्राणां भाषानुवादेन प्रश्नपत्रसंग्रहेण च युता परमोपयोगिपरिशिष्टविशिष्टा च। विवृतिकारः पण्डित श्रीविश्वनाथशास्त्री प्रभाकरः प्रिंसिपल श्रीसरस्वती संस्कृत कालेज, खन्ना, पंजाब परिशिष्टकारः कविकान्तः श्रीनिगमानन्दशास्त्री सूत्रभाषानुवादकारः श्रीलक्ष्मीनारायणशास्त्री BEAUTHURARISHRARH मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली : वाराणसी : पटना Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवरदराजप्रणीता लघुसिद्धान्तकौमुदी (पाणिनीय-व्याकरण-प्रवेशिका) उपेन्द्रविवृतिसहिता, सूत्राणां भाषानुवादेन प्रश्नपत्रसंग्रहेण च युता परमोपयोगिपरिशिष्टविशिष्टा च । विवृतिकारः पण्डित श्रीविश्वनाथशास्त्री प्रभाकरः प्रिंसिपल श्रीसरस्वती संस्कृत कालेज, खन्ना, पंजाब परिशिष्टकारः कविकान्तः श्रीनिगमानवशास्त्री सूत्रभाषानुवादकारः श्रीलक्ष्मीनारायणशास्त्री मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली : वाराणसी : पटना Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ © मोती लाल बनारसी वा स भारतीय संस्कृति साहित्य के प्रमुख प्रकाशक एवं पुस्तक विक्रेता मुख्य कार्यालय : बंगलो रोड, जवाहर नगर, दिल्ली-७ शाखाएं : १. चौक, वाराणसी-१ (उ० प्र०) .. २. अशोक राजपथ, पटना-४ (बिहार) (सर्वाधिकार सुरक्षित हैं) बारह संस्करण बिक चुके हैं पुनर्मुद्रण : दिल्ली, १९८१ मूल्य MLBD Rs.18/भारत सरकार द्वारा उपलब्ध किये गये रियायती मूल्य के कागज पर मुद्रित । श्री नरेन्द्रप्रकाश जैन, मोतीलाल बनारसीदास, बंगलो रोड, जवाहर नमर, दिल्ली-७ द्वारा प्रकाशित तथा श्री शान्तिलाल जैन, श्री जैनेन्द्र प्रेस, ए-४५, फेज-१, इंडस्ट्रियल एरिया, नारायणा, नई दिल्ली-२८ द्वारा मुद्रित । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ( सप्तम संस्करणे) संस्कृत गौरव विश्वभर की समस्त प्राचीन भाषाओं में संस्कृत का सर्वप्रथम और उच्च स्थान है। विश्व-साहित्य की पहली पुस्तक ऋग्वेद इसी भाषा का देदीप्यमान रख्न है, भारतीय संस्कृति का रहस्य इसी भाषा में निहित है, संस्कृत का अध्ययन किये बिना भारतीय संस्कृति का पूर्ण शान कभी सम्भव नहीं है । संस्कृत भाषा का साहित्य अनेकों श्रमूल्य ग्रन्थरस्नों का सागर है, इतना समृद्ध साहित्य किसी भी दूसरी प्राचीन भाषा का नहीं है और न ही किसी अन्य भाषा को परम्परा अविच्छिन प्रवाह के रूप में इतने दीर्घ काल तक रहने पाई है। अति प्राचीन होने पर भी इस भाषा की सर्जन-शक्ति कुण्ठित नहीं हुई, इसका धातुपाठ नित्य नये शन्दों के गड़ने में समर्थ रहा है। - अनेकों प्राचीन एवं अर्वाचीन भाषाओं की यह जननी है। श्राज भी भारत की समस्त भाषाएँ इसी वात्सल्यमयी जननी के स्तन्यामृत से पुष्टि पा रही हैं। पाश्चात्य विद्वान् इसके अतिशय समृद्ध एवं विपुल साहित्य को देखकर श्राश्चर्य-चकित रह गये हैं। उन लोगों ने वैज्ञानिक ढंग से इसका अध्ययन किया और गम्भीर गवेषणाएँ की हैं-एवं साथ में विश्व की दूसरी प्राचीन-भाषाओं का मन्थन करके ये यदि 'भाषा-विज्ञान' ऐसे अपूर्व शास्त्र का आविष्कार कर सके हैं तो इसका श्रेय संस्कृतभाषा के ही गम्भीर अध्ययन को है। समस्त भारतीय भाषाओं को जोड़नेवाली कही यदि कोई भाषा है तो वह संस्कृत ही है। "हजारों वर्ष विक्रम-पूर्व से लेकर ईसपी बारहवीं शताब्दी तक यह भारत की सर्व साधारण बोल-चाल की भाषा (राष्ट्र भाषा ) रही है।" इसमें अनेकों प्रबल प्रमाण दिये जा सकते हैं। आज मी गम्भीर रूप से विचार किया जाय तो स्वतन्त्र भारत को राष्ट्रभाषा होने के समस्त गुए संस्कृत में ही विद्यमान हैं। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ( २ ) पाणिनीय व्याकरण किसी भी भाषा की सुरक्षा एवं उसके मौलिक ज्ञान के लिए-व्याकरण की परम श्रवश्यकता होती है। बिना व्याकरण के भाषा प्रायः विशृङ्खल और अपूर्ण रहती है। सर्वप्रथम इस चीज को देवों ने अनुभव किया और अपनी भाषा को व्याकृत करने के लिए देवराज इन्द्र से प्रार्थना की, तब इन्द्र ने वाणी को ब्याकृत किया जैसा कि तैत्तिरीय-संहिता में लिखा है "वाग वै पराच्यव्याकृताऽवदत्, ते देवा इन्द्रमब्रुवन् – इमां, नो वाचं व्याकुर्विति । - - तामिन्द्रो मध्यतोऽवक्रम्य व्याकरोत्” (तै. सं. ६ । ४ । ७) बस, यहीं से व्याकरण की परम्परा का आरम्भ होता है, तात्पर्यतः संस्कृतभाषा के व्याकरण का निर्माण बहुत प्राचीन काल में आरम्भ हो गया था, अनेक श्राचार्यों ने व्याकरण की रचना की, ( महर्षि पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में पिशलि, काश्यप, गार्ग्य, गालव, चाक्रवर्मण, भारद्वाज, शाकटायन, शाकल्य, सेनक और स्फोटायन नाम के दस व्याकरण - प्रवक्ता पूर्वाचार्यों का उल्लेख किया है ) किन्तु अन्त में यह संस्कृतव्याकरण परिवर्धित परिमार्जित होता हुआ पाणिनीय - शब्दानुशासन के रूप में प्रकट हुआ । पाणिनीय व्याकरण विश्व के समस्त व्याकरणों में श्रेष्ठ, सर्वाङ्गपूर्ण एवं वैज्ञानिक शैली से लिखा गया माना जाता है, इसे देखकर पाश्चात्य विद्वानों के श्राश्चर्य चकित हृदय से निकले उद्गारों को पढ़कर इसकी महत्ता और गौरव विशेष रूप से समझ में आता है N ( १ ) " पाणिनीय व्याकरण मानवीय मस्तिष्क की सबसे बड़ी रचनाओं में से एक है" ( लेनिन ग्राड के प्रोफेसर टी० शेरवाल्सकी । ( २ ) " पाणिनीय व्याकरण की शैली अतिशय प्रतिभापूर्ण है और इसके नियम अत्यन्त सतर्कता से बनाये गये हैं" ( कोल ब्रुक ) ( ३ ) " संसार के व्याकरण में पाणिनीय व्याकरण सर्वशिरोमणि है यह मानवीय मस्तिष्क का अत्यन्त महत्वपूर्ण श्राविष्कार है" ( सर W. W. हण्टर ) ( ४ ) " पाणिनीय व्याकरण उम्र मानव मस्तिष्क की प्रतिभा का श्राश्वर्यंतम नमूना है जिसे किसी दूसरे देश ने आजतक सामने नहीं रखा" ( प्रो० मोनियर विलियम्स ) पाणिनीय व्याकरण की मूलभूत पुस्तक है 'अष्टाध्यायी' । इसमें ग्राठ अध्याय हैं, प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं, प्रत्येक पाद में ३८ से २०० तक सूत्र हैं। इस प्रकार अध्याय में आठ अध्याय बत्तीस पाद और सब मिलाकर लगभग ३६५५ सूत्र ..... Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। अष्टाध्यायी पर महामुनि कात्यायन का विस्तृत वार्तिक ग्रन्थ है और स्त्र क्या बार्तिकों पर भगवान् पतजलि का विशद विवरणात्मक ग्रन्थ महाभाष्य है। संक्षेप में सूत्र, वार्तिक एवं महाभाष्य तीनों सम्मिलित रूप में पाणिनीय व्याकरण कहलाता है और सूत्रकार पाणिनि, वार्तिककार कात्यायन एवं भाष्यकार पतञ्जलि तीनों व्याकरण के त्रिमुनि कहलाते हैं। भगवान् पाणिनि का परिचय और समय "त्रिकाण्ड शेष” कोष में पाणिनि के छह नाम पाये जाते हैं—पाणिनि, अाहिक, . दाक्षीपुत्र, शालकि, पाणिन और शालातुरीय। इनमें पाणिन और पाणिनि दोनों गोत्र-व्यपदेशज नाम हैं। "अाहिक" पाणिनि का मूल नाम प्रतीत होता है किन्तु प्रसिद्ध सर्वत्र गोत्र नाम (पाणिनि ) से ही हुई । महाभाष्यकार पतञ्जलि भी स्थानस्थान पर इसी नाम से स्मरण करते हैं__"कथं पुनरिदं भगवतः पाणिनेराचार्यस्य लक्षणं प्रवृत्तम्"। "सर्वे सर्वपदादेशा दाक्षीपुत्रस्य पाणिनः" । 'दाक्षीपुत्र' नाम मातृनामज है और शालकिनाम पितृनामज है जिससे यह समझा जाता है कि पाणिनि के पिता का नाम 'शल? या शलङ्क था। 'शालातुरीय' नाम अमिजन हेतुक है। ____ इस छोटी सी नामावलि से यह निष्कर्ष निकलता है कि पाणिनि का गोत्र-प्रवत्तक . मूल पुरुष कोई पाणिन् अथवा पणिन् नाम का व्यक्ति था। पेता का गोत्रमाल पाणिन् और मूल नाम शलङ्क या शलङ्क था । माता का नाम दाक्षी था और वह दक्ष-कुल में उत्पन्न हुई थी। आहिक पाणिनि का मूल नाम था और पाणिनि का अभिजन ( पिता-पितामहादि परंपरागत निवासस्थान ) 'शलातुर' ग्राम था । इसी अभिप्राय से "गणरत्नमहोदधि' ग्रन्थ में शालातुरीय शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है-"शलातुरो नाम ग्रामः सोऽभिजनोऽस्यास्तीति शालातुरीयस्तत्र भवान् पाणिनिः" इससे स्पष्ट है कि शलातुर ग्राम पाणिनि के पूर्वजों का निवासस्थान है और पाणिनि का जन्मस्थान भी वही है। बाद में पाणिनि किसी अन्य स्थान में रहे हों यह बात दूसरी है। यह शलातुर ग्राम रावलपिएडी से भागे पश्चिमोत्तर सोमाप्रान्त में ( जो अब पाकिस्तान में है ) 'अटक' स्टेशन से १५ मील की दूरी पर स्थित श्रोहिन्द उत्खण्ड या उद्भाण्ड ) ग्राम से साढ़े तीन मील पश्चिमोत्तर दिशा में विद्यमान है और प्राककल 'लाहुर' नाम से प्रसिद्ध है । (शलातुर शब्द ही बदला हुआ सलातुर = हलाथुर = हलाहुर = लाहुर बन गया है-ऐसा गवेषकों का मत है )। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- कुछ लोग वृहत्कथा के आधार पर पाणिनि की शिक्षा पाटलिपुत्र में हुई मानते हैं. और कात्यायन को पाणिनि का सहाध्यायी मानते हैं, किन्तु ये दोनों ही बातें सर्वथा असंगत प्रतीत होती हैं। उस जमाने में शलातुर = लाहुर से उठकर एक बालक पढ़ने के लिए सैकड़ों कोस की दूरी पर स्थित पाटलिपुत्र = पटनानगर में जाय-यह बात संभव नहीं जान पड़ती, विशेषतः तब जब कि समीप में ही 'ता"शिला' जैसा विशाल विश्वविद्यालय रहा हो और वही प्रदेश उस समय विद्याकेन्द्र मी रहा हो । ऐतिहासिकों.का निश्चित मत है कि अवश्य ही पाणिनि की शिक्षा तक्षशिक्षा में ही हुई थी, बाद में अपने शान की वृद्धि के लिए अथवा अपने विचारों के ..प्रचार के अभिप्राय से वे अन्यत्र गये हो और पाटलिपुत्र में उनके प्रणीत शास्त्र की परीक्षा हुई हो, यह दूसरी बात है। ___ 'प्राचार्य पाणिनि अत्यन्त संपन कुल के थे, उन्होंने अपने शन्दानुशासन को पदनेवालों के लिए भोजन आदि प्रबन्ध भी अपनी ओर से कर रखा था'। इस बात को युधिष्ठिर ची मीमांसक महामान्य के 'पोदनपाणिनीयाः' उदाहरण से सिदध करते हैं। प्रतीत होता है कि भगवान् पाणिनि के कुलपतित्व में एक बहुत बड़ा प्राचार्यकुल अथवा विद्यापीठ रहा होगा, जिसमें हजारों विद्यार्थी अध्ययन करते होंगे, किन्तु महान् खेद का विषय है कि इतने बड़े विश्व-विख्यात उद्भट विद्वान् का जीवनहत्तान्त प्रामाणिक रूप में कुछ भी उपलब्ध नहीं है। जो भी कुछ उपलब्ध है वह सब अनुमान और अनुश्रुतियों पर आधारित है। किंवदन्ती है, कि उनकी मृत्यु एक सिंह के द्वाग हुई-सिहो व्याकरणस्य कत्तुरहरत्प्राणान् प्रियान् पाणिनेः।" (पञ्चतन्त्र)। . समय . पाणिनि के समय के संबन्ध में कोई स्पष्ठ प्रमाण उपलब्ध न होने के कारण कुछ अनुमानों के आधार पर ही विचारक लोग निर्णय करते हैं ! यह निर्णय भी सबका एक नहीं है। कुछ पाश्चात्य तथा तदनुयायी भारतीय विद्वान् पाणिनि का समय गौतम बुद्ध के बाद मानते हैं। "कुमारः श्रमणादिभिः" इस सूत्र में श्रमण शब्द को वे उद्धृत करते हैं और कहते हैं कि यह शब्द बुद्ध के बाद ही · बौद्ध मिक्षुओं के लिए प्रयुक्त हुा । वहीं से पाणिनि ने लिया जब कि बुद्ध का समय ईसवी पूर्व छठी शताब्दी है तो बौदधमत-प्रचार के अनन्तर दो सौ वर्ष बाद अर्थात् ई० पू० चौथी शताब्दी. पाणिनि का समय माना जा सकता है। दूसरा प्रमाण वे बोग यह देते हैं कि “इन्द्र-वलय भवशर्वकद-मृड-यव-यवन-मातुलाचार्या Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णामानुक्” इस पाणिनि-सूत्र में यवन शब्द का ग्रहण है, उनका भाव यह है कि सिकन्दर के आक्रमण के बाद ही भारतीय लोग यवनों से परिचित हुए। सिकन्दर का आक्रमण ३२४ ई० पू० हुअा तो पाणिनि इससे बाद ही हुए होंगे। किन्तु दूसरे गंभीर विचारक इन युक्तियों को सर्वथा खोखली मानते हैं। क्योंकि श्रमण शब्द संन्यासी के अर्थ में गौतम बुद्ध से बहुत पहले "शतपथ ब्राह्मण" में प्रयुक्त हुअा है “अत्र पिता अपिता भवति माता अमाता लोका अलोका देवा अदेवाः श्रमणोऽश्रमणः तापसोऽतापास' इति । और संन्यास की प्रथा भी अर्वाचीन नहीं है, बुद्ध से बहुत पूर्व उपनिषदों में याज्ञवल्क्य का प्रव्रजन-प्रसङ्ग अति प्रसिद्ध है। __दूसरे भारतीय लोग सिकन्दर के आक्रमण के बहुत पहले यवनों से परिचित थे। महाभारत में यवन सैनिकों के लड़ने का प्रसङ्ग है। भगवान् श्रीकृष्ण के साथ काल यवन का युद्ध तो अतिशय प्रसिद्ध ही है। युधिष्ठिर जी मीमांसक का यह मत है कि अति प्राचीन काल में यवन-जाति भारत के समीप ही बसती थी। बाद में ये लोग यूनान में जाकर बसे । इसके अतिरिक्त सिकन्दर से दो सौ वर्ष पहले ई० पू० ५२२ में हखमी वंशोत्पन्न यवन 'डेरीयस' प्रथम ने भी भारत के पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त पर अाक्रमण किया था। यह इतिहास तो प्रसिद्ध ही है। महामहोपाध्याय शिवदत्त पाणिनि को नन्द के समानकालिक मानते हैं और नन्द को राजतरंगिणी और वाराही-संहिता के गणना के अनुसार २१५३ कलि-गतान्द में हुआ मानते हैं, किन्तु ऐतिहासिक लोग नन्द का प्रामाणिक समय २४५३ कलिगतान्द अर्थात् ई० पू० सातवीं शताब्दी मानते हैं और इसीको पाणिनि का वास्तविक समय कहते हैं । कि तु भण्डारकर और गोलस्टुकर ने पाणिनि का समय ५० ईस्वी के कुछ पूर्व निश्चित किया है और श्री वासुदेवशरण अग्रवाल अनेक ऐविद्यासिक तथ्यों के आधार पर ई० पू० पांचवीं सदी के मध्य को पाणिनि का समय म्पनते हैं। उनका कथन है कि "पाणिनि ने लगभग ४४०-४३० ई० पू० के बीच अपने प्रद की रचना करने के बाद पाटलीपुत्र की यात्रा की होगी, उस समय उनकी आयु लग भग ५० वर्ष की मानी जाए तो उनका जन्म ४८० ई० पू० के लगभग ठहरता है। अष्टाध्यायी' जैसे शास्त्र की रचना ४० वर्ष की आयु से .५० वर्ष की आयु तक सिद्ध होनी संभव है। उसके लिए आवश्यक बुद्धि-परिपाक, गम्भीर चिंतन, दीर्घकालीन सामग्री-संकलन एवं स्वानुभव के आधार पर साधिकार विश्लेषण -ये सब बातें श्रायु Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के इसी भाग में प्रायः संभव होती है । उनके जीवन-काल की अवधि लगभग ७० वर्ष मानने से पाणिनि का समय ४८०-४१० ई० पू० अनुमानित होता है।" वार्तिककार कात्यायन पाणिनि के सूत्रों पर अनेक वार्तिक पाठ लिखे गये, पर सबमें कात्यायनों का वार्तिक पाठ ही प्रसिद्ध वार्तिक ग्रन्थ है । यह पाणिनीय व्याकरण का महत्त्वपूर्ण अंग है। इसके बिना. पाणिनीय व्याकरण अधूरा है। कात्यायन का यह वार्तिक पाठ स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में उपलब्ध नहीं है। महाभाष्य में ही विशेषतः इन वात्तिकों की उपलब्धि होती है। कात्यायन का दूसरा नाम 'वररुचि' है, कात्यायन उनका गोत्रज नाम है । कतनामक गोत्र-प्रवर्तक मूलपुरुष के वंश में कात्यायन वररुचि का जन्म हुअा। यह बात कात्यायन नाम से सिद्ध हो जाती है ओर महाभाष्य के प्रथम आह्निक में "यथा लौकिकवैदिकेषु" इस वार्तिक पर "प्रियतद्धिताः दाक्षिणात्या यथा लोके वेदे चेति प्रयोक्तव्ये यथा लौकिक वैदिककेष्विति प्रयुञ्जते” इस पतञ्जलि-वचन से यह स्पष्ट है । श्राचार्य कात्यायन दाक्षिणात्य थे। ऐतिहासिकों का मत है कि कात्यायन का समय ३५० ई० पू० है। महाभाष्यकार पतञ्जलि पाणिनीय व्याकरण पर महाभाष्य एक अति विस्तृत व्याख्या है। व्याकरण जैसे दुरूह और शुष्क विषय को भी भगवान् पतञ्जलि ने ऐसी सरल-सरस-प्राञ्जल भाषा में वर्णन किया है कि कोई भी सहृदय व्यक्ति इसकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकता। यह ग्रन्थ व्याकरण का सार-सर्वस्व है। महाभाष्यकार पतञ्जलि ने अपने परिचय के सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखा किन्तु महाभाष्य में पतजलि के दो नाम पाए जाते हैं-गोनीय और गोणिकापुत्र । इससे यह स्पष्ट है कि वे गोनर्द' प्रदेश के रहने वाले थे और उनकी माता का नाम 'गोणिका' था। कुछ लोग गोनद प्रदेश काश्मीर में मानते हैं और कुछ लोग पूर्व में गोंडा प्रदेश को गोनर्द कहते हैं। पतञ्जलि को कई जगह शेषावतार, फणाभृत् आदि नामों से भी स्मरण किया गया है। प्रतीत होता है कि उनके ये नाम सहस्रमुखी प्रतिभा और सहस्रविध प्रवचनशैली के कारण पड़े हैं। महाभाष्य में एक उदाहरण है "इह पुप्यमित्र याजयामः” इससे पतञ्जलि का राजा पुष्यमित्र के यज्ञ में ऋत्विक् होना सिद्ध होता है। पतञ्जलि के समय के सम्बन्ध में महाभाष्य में कुछ ऐसे संकेत मिल जाते हैं, जिनसे हम कुछ निश्चय कर सकते हैं:-"इह पुष्यमित्रं याजयामः" इस उदाहरण के साथ ही दूसरा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण "पुष्यमित्रो यजते" भी यह सिद्ध करता है कि पतञ्जलि राजा पुष्यमित्र के समानकालिक थे । पुष्यमित्र के सम्बन्ध में ऐतिहासिकों का निश्चित मत है कि यह समय ई० पू० दूसरी शताब्दी ( ई० पू० १५० ) है तो फिर महाभाष्यकार पतञ्जलि का समय ई० पू० १५० ही कहा जा सकता है। किन्तु महामहोपा याय पं० गिरिधर शर्माजी चतुर्वेदी पाणिनि, कात्यायन, पतञ्जलि-इन तीनों के समय के सम्बन्ध में अपना मत प्रकट करते हुए लिखते हैं कि-"पाणिनि सस्कृत को भाषा नाम से पुकारते हैं। इससे सिद्ध होता है कि-पाणिनि के काल में संस्कृत बोलचाल की भाषा थी कात्यायन के समय में अपभ्रंश-बहुल भाषा की प्रवृत्ति हो गई थी और महाभाष्यकार पतञ्जलि के समय में तो अपभ्रंश भाषाओं की बहुत अधिक प्रवृत्ति हो गई थी। महाभाष्यकार स्वयं लिखते हैं कि - "सन्त्येकैकस्य पदस्य बहवोऽपभ्रंशा"। दूसरे पाणिनि के समय में उनकी जन्मभूमि गान्धार तथा तत्सन्निहित पंचनद प्रदेश विद्या का केन्द्र था। पर कात्यायन और पतञ्जलि के समय में प्राच्य प्रदेश विद्याकेन्द्र हो गया था। यह परिवर्तन अल्पसमयसाध्य नहीं है । पूर्वोक्त भाषा-सम्बन्धी महान् परिवर्तन भी खासे समय की अपेक्षा करतो है। तीसरे पाणिनि के सूत्रों पर कात्यायन से पहिले भी वार्तिक लिखे गये थे एवं कात्यायन के वार्तिकों पर भी पतञ्जलि से पहिले कई भाष्यग्रंथ लिखे गये थे, ऐसा माना जाता है । ___ ऐसी स्थिति में आजकल के ऐतिहासिकों का यह मत विशेष रूप से विचारणीय हो जाता है कि पतञ्जलि ई० पू० १५० में, कात्यायन ई० पू. ३५० में और पाणिनि ई० पू० ४५० में या ५५० में हुए हैं। क्योंकि इतने बड़े भाषा सम्बन्धी परिवर्तन और अनेक व्याख्या वार्तिक भाष्यादि का भिन्न-भिन्न प्रदेशों में निर्माण इतने कम समय के अन्तर में सम्भव नहीं प्रतीत होता, अतः मेरे ( म० म० गि० ध० शर्मा के ) विचार में पतञ्जलि यदि ई० पू० दूसरी शताब्दी में माने जाते हैं तो कात्यायन को ई० पू० सातवीं शताब्दी में और पाणिनि को ई० पू० बारहवीं शताब्दी में मानना युक्तिसङ्गत है।” पूर्वतन अध्ययन-क्रम पाणिनि व्याकरण के मूलग्रन्थ अष्टाध्यायी पर अनेकों वृत्तिग्रन्थ लिखे गये। बर्तमान में उपलब्ध सर्वोत्तम वृत्तिग्रन्थ है-जयादित्य और वामन की काशिकावृत्ति । यह वृति ईसा की सातवीं शताब्दी में लिखी गई थी। कात्यायन का वार्तिक ग्रन्थ पृथक उपलब्ध नहीं है, पतञ्जलि के महाभाष्य में ही समाविष्ट है। महाभाष्य पर अनेकों टीका-प्रटीकाएँ लिखी गई हैं। इनमें कैयट का प्रदीप और प्रदीप पर नागेश Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का उद्योत अत्यन्त प्रसिद्ध है। इस प्रकार सब मिलाकर पाणिनि-व्याकरण ने एक विशाल रूप धारण कर लिया और इसका अध्ययन-अध्यापन-क्रम इस प्रकार चला कि पहले बच्चों को सम्पूर्ण अष्टाध्यायी कण्ठस्थ करा दी जाती थी और बाद में वृत्ति ग्रन्थ के सहारे प्रयोग-साधन सिखाया जाता था। अनन्तर महाभाष्य पढ़ लेने पर व्याकरण का. पूर्ण पाण्डित्य प्राप्त कर लिया जाता था। बचपन में पूर्णतः अष्टाध्यायी कण्ठस्थ कर लेनेवालों के लिए यह अध्ययन-क्रम अत्यन्त उपयोगी और स्वल्पकाल फलदायक रहा : प्रक्रिया-क्रम किन्तु प्रौढ़ विद्यार्थी को इस अष्टाध्यायी-प्रणाली में कष्ट और गौरव अनुभव होने लगा। क्योंकि इसमें समस्त अष्टाध्यायी कराठाग्र कर लेने के बाद ही असली अध्ययन प्रारम्भ होता था और किसी प्रकरण का पृथक् अध्ययन भी दुष्कर था, कारण यह कि अष्टाध्यायी के प्रकरण प्रक्रिया-क्रम से नहीं हैं। समास द्वितीय अध्याय में हैं तो समासान्त प्रकरण पंचमाध्याय में है। इस प्रकार समस्त प्रकरण बिखरे पड़े हैं जिससे साधन-प्रक्रिया में गौरव और कष्ट अनुभव होना स्वाभाविक था। इसीलिए प्रक्रियाक्रम से पठन-पाठन का विचार प्रारम्भ हुआ और पाणिनि-व्याकरण में प्रक्रिया प्रणाली का सुव्यवस्थित प्रथम ग्रन्थ प्रक्रिया-कौमुदी लिखा गया। इसके लेखक हैंप्राचार्य श्रीरामचन्द्र । इनका समय ईसा को ५ वीं शताब्दी मानी जाती है। किन्तु प्रक्रिया-कौमुदी में पाणिनि के समस्त सूत्रों का सन्निवेश नहीं हुआ। इसलिए यह ग्रन्थ पाणिनीय व्याकरण का पूर्ण प्रातिनिध्य न कर सका । सिद्धान्त कौमुदी और श्रीभट्टोजि दीक्षित इस कमी को पूरा करने के लिए श्रीभट्टोजि दीक्षित ने वैयाकरण-सिद्धान्तकौमुदी की रचना की । यह ग्रन्थ पाणिनीय व्याकरण का प्रक्रियानुसारी सर्वोत्तम प्रयास है। पाणिनि का एक भी सूत्र इसमें छूटने नहीं पाया । अध्ययन की सुविधा के लिए वैदिक और स्वर-प्रकरण पृथक् संग्रह कर दिये गये। यह ग्रन्थ इतना उपयोगी सिद्ध हुआ कि समस्त भारत में पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन इसी के द्वारा होने लगा। सिद्धान्तकौमुदी पर भी अनेक टीकाएँ लिखी गई, जिनमें दीक्षितजी की अपनी प्रौढ मनोरमा, ज्ञानेन्द्र सरस्वती की तत्त्वबोधिनी, नागेश भट्ट का शन्देन्दुशेखर, वासुदेव वाजपेयी की बालमनोरमा अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। श्रीभट्टोनि दीक्षित महाराष्ट्र ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम लक्ष्मीधर भट्ट था, और गुरु थे पं. शेषकृष्ण । इनके Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र भी भानुदीक्षित और पौत्र श्री हरिदीक्षित थे। डा० श्री वेलबेलकर भोलि दीक्षित का समय ईसवी सन् १६०० से १६५० के मध्य में मानते हैं । लघुकौमुदी और मध्यकौमुदी भट्टोजि दीक्षित के शिष्य श्री वरदराज ने पाणिनीय व्याकरण के प्रथम प्रवेशार्थी सुकुमारमति बालकों के सुखबोध के लिए सिद्धान्त कौमुदी का अत्यन्त सरल एवं लघुकाय संस्करण लघुकौमुदी के रूप में सम्पन्न किया। वस्तुतः यह छोटी-सी पुस्तक पाणिनीय व्याकरण रूपी महाप्रासाद में प्रवेश पाने के लिये प्रथम सोपान रूप है। पुस्तक के प्रारम्भ में श्री घरदराज स्वयं लिखते हैं--'पाणिनीय-प्रवेशाय लघुसिद्धान्तकौमुदीम' पुनः अन्त में इसे और भी स्पष्ट करते हैं कि 'शास्त्रान्तरे प्रविष्टानां बालानां चोपकारिका, कृता वरदराजेन लघुसिद्धान्तकौमुदी' । और बाद में लघुकौमुदी द्वारा साधारण ज्ञान को प्राप्त हुए विद्यार्थियों की शानवृद्धि के लिए श्री वरदराज ने द्वितीय सोपान के रूप में मध्यकौमुदी का सम्पादन किया.। कहते हैं अपने शिष्य की इस अनुपम कृति को देखकर गुरुवर भट्टोजि दीक्षित को सन्देह हो गया था कि मध्यकौमुदी को पड़ने के बाद मेरी सिद्धान्तकौमुदी को कौन पड़ेगा 'वास्तव में मध्यकौमुदी, सिद्धान्तकौमुदी का सार-सर्वस्व है। लघुकौमुदी का प्रकरण-क्रम मध्यकौमुदी के समान लघुकौमुदी का प्रकरण-विन्यास भी सिद्धान्तकौमुदी की अपेक्षा भिन्न है। संधि, षडलिङ्ग और अव्यय-प्रकरण के बाद स्त्रीप्रत्यय और कारक आदि प्रकरणों को पहले न रखकर तिङन्त प्रकरण को रखा गया है। बाद में कृदन्त, कारक, समास, तद्धित और सबके अन्त में स्त्रीप्रत्यय रखे गये हैं । यह प्रकरणक्रम युक्तियुक्त भी है। सर्वप्रथम वाक्य में अर्थज्ञान के लिए पदच्छेद अपेक्षित होता है, इसलिए सन्धिप्रकरण पहिले रखना ठीक है । अनन्तर सुबन्त पद ज्ञान के लिए षडलिंग तथा अव्ययप्रकरण और तिङन्त पदशान के लिए तिङन्तप्रकरण पाना अत्यावश्यक है। क्योंकि स्त्रीप्रत्यय, कृत्तद्धित समाससापेक्ष हैं अतः स्त्रीप्रत्ययों को सबके अन्त में रखना युक्तिसंगत है, और कारकों का समास से पूर्व रहना भी ठीक जंचता है, क्योंकि विभक्त्यर्थज्ञान पर ही समासप्रक्रिया निर्भर है। तीनों का कलेवर सिद्धान्तकौमुदी में अष्टाध्यायी के समस्त ३६५५ सूत्रों की विशद ब्याख्या ऊहापोह एवं शास्त्रार्थ-पद्धति से की गयी है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) २३१५ सूत्रों की उदाहरण- प्रत्युदाहरण सहित सुन्दर मध्यकौमुदी में पाणिनि के एवं सरल व्याख्या की गयी है । 1 कौमुदी संक्षेप को दृष्टि से अत्यन्त संक्षिप्त व्याकरण - पुस्तक है । इसमें पाणिनि के १२७२ सूत्रों की उदाहरण सहित व्याख्या की गयी है । आचार्य वरदराज और उनका समय श्राचार्य वरदराज का परिचय बहुत संक्षिप्त रूप में मिलता है । ये दाक्षिणात्य ब्राह्मण थे । इनके पिता का नाम दुर्गातनय था और भट्टोजि दीक्षित इनके गुरु थे । मध्यकौमुदी के प्रारम्भ श्लोक में श्री वरदराज ने गुरुवर भट्टोजि दीक्षित को प्रणाम किया है। "नत्वा वरदराजः श्रीगुरून् भट्टोजिदीक्षितान् । करोति पाणिनीयानां मध्यसिद्धान्तकौमुदीम् || वरदराज भट्टोजि दीक्षित के शिष्य होने से तत्समान कालिक थे । अतः समय के विषय में पृथक् विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती । यह तो मानना ही पड़ेगा कि सिद्धान्तकौमुदी निर्माण के २५ या ३० वर्ष बाद ही वरदराज ने लघुकौमुदी और मध्यकौमुदी का निर्माण किया होगा । सिद्धान्तकौमदी क्रम से पढ़ने के बाद ही पढ़ाते समय प्रक्रियाक्रम से प्रवृत हुए इस पाणिनीय व्याकरण का प्रारम्भिक छात्रों के लिए लघुकाय और मध्यकाय संस्करण लघु और मध्य के रूप में लिखा गया होगा । ऐसी स्थिति में भट्टोजि दीक्षित का समय यदि १६०० से १६५० ईसवी के मध्य माना जाता है तो वरदराज द्वारा लघु और मध्य का निर्माणकाल भी इसी के निकट १० | १५ साल के अन्तर में माना जा सकता है 1* लघुकौमुदी की टीकाएँ मध्यकौमुदी के समान लघुकौमुदी की भी अनेक प्राचीन एवं नवीन टीकाएँ तथा टिप्पण मिलते हैं जो विस्तृत अथवा संक्षिप्त रूप में लिखे गये हैं । कुछ संस्कृत में तथा कुछ हिन्दी में भी हैं । किन्तु हमारी यह " उपेन्द्र - विवृति" नाम की व्याख्या न तो बहुत विस्तृत है न ही प्रति संक्षित है। छात्रों के हित का पूरा ध्यान रखा गया है । सूत्रों का हिन्दी अनुवाद भी साथ दे दिया गया है । उपेन्द्र विवृति सहित लघुकौमुदी का यह सप्तम संस्करण भेंट किया जा रहा है । पहले संस्करणों की अपेक्षा यह यन्त परिमार्जित, संशोधित एवं परिवर्धित है। छात्रों की सुविधा के लिए विशष्ट रूपों की टि. * भगवान् पाणिनि, कात्यायनमुनि शेषावतार महामुनि पतञ्जलि, म० म० भट्टोजिदीक्षित एवं पण्डितप्रवर वरदराज के सम्बन्ध में विशेष परिचय के लिए देखिए मेरी मध्यकौमुदी की भूमिका । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) सिद्धि और अधिक बढ़ा दी गयी है । परीक्षा में पूछे जाने वाले लगभग सभी रूप इस विशिष्ट रूपसिद्धि के अन्तर्गत आगये हैं । हिन्दी में लिखी गयी ऐतिहासिक भूमिका भी इस संस्करण की एक विशेषता है। अन्य विशेषताएँ तो पूर्वं विदित हैं ही । जैसे ह्रस्व दीर्घप्लुत भेदों का चक्र, श्राभ्यन्तर-बाह्य प्रयत्न चित्र, सन्धि प्रकरण में मूल प्रयोगों के संधिविच्छेद के साथ तत्समान अ य प्रयोगों का संधिविच्छेद पुरःसर प्रदर्शन, विशेष प्रयोगों का साधन प्रकार, खास-खास शब्दों का उच्चारण, सूत्र सम्बन्धी सुभाषतों का उल्लेख, अव्ययों का अर्थ धातुओं के सकर्मकत्व अकर्मकत्व का निर्णय, कर्त्ता कर्म श्रादि के उक्तवानुक्तत्व का विवेक, प्रथम - मध्यम उत्तम पुरुष का विवेक चित्र, परस्मैपद-आत्मनेपद व्यवस्था का चित्र, समस्त धातुत्रों के अनुबन्धों के इत्करण का फल, खास खास धातुओं के उच्चारण, धातुरूपों की सिद्धि, समस्त द्वितीय सूत्रों के अर्थ एवं तत्र तत्र विशेष विषयों का विस्पष्ट विश्लेषण | इसके अतिरिक्त बालकों के लिए परम उपयोगी परिशिष्ट दिया गया है जिसमें लिङ्गज्ञान के लिए लघुलिङ्गानुशासन, व्याकरण, सूत्र, वार्त्तिक आदि के लक्षण मेदोदाहरण, व्याकरण का अनुबन्धचतुष्टय, सन्धिपञ्चत्व प्रतिपादन, लेखोपयोगी नियम और चिह्न, अनुवाद में प्रायः श्रानेवाली अशुद्धियों का प्रदर्शन और संशोधन, अनुवाद में प्रयुक्त करने के लिए सोपसर्ग धातुत्रों के अर्थविशेष का प्रदर्शन, अर्थ सहित धातुपाठ और अर्थ के सहित लघुकोमुदीस्थ समस्त प्रयोग संग्रह सन्निविष्ट है । अन्त में परीक्षा शिक्षासूत्र, प्रश्नोत्तर निदर्शन और १८ साल के प्रश्नपत्र भी लगा दिये हैं जिससे परीक्षार्थी विद्यार्थी को परीक्षा में अपेक्षित समस्त सामग्री पुस्तक में उपलब्ध हो सकेगी एवं व्याकरण विषयक ज्ञान के लिए इतस्ततः भटकना नहीं पड़ेगा । इन अन्तरङ्ग विशेषताओं के अतिरिक्त सूत्र और वृत्ति का पृथक् विन्यास, सुन्दर आकार-प्रकार स्पष्ट अक्षरों में मुद्रण और अपेक्षाकृत अल्प मूल्य में वितरण का भी पूरा ध्यान रखा गया है, इस पुस्तक की विशिष्ट उपयोगिता तो इसी से स्पष्ट है कि कुछ ही वर्षों में इसके छह संस्करण निकल चुके हैं और यह सातवाँ संस्करण श्रयन्त उज्ज्वल रूप में पाठकों की सेवा में समर्पित किया जा रहा है । श्रीसरस्वती संस्कृत महाविद्यालय खन्ना ( लुधयाना ) पंजाब, १७ श्रावण, वैक्रमाब्द २०१५, (१/८/१६५८) भवदीय विश्वनाथ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपेन्द्र-कुल-परिचयः (अथ लघुसिद्धान्तकौमुद्या विवृतिरियं यन्नाम्ना "उपेन्द्रविवृति” रिति विहिता विश्रुता च, तस्यास्य श्रीमदुपेन्द्रनाथशास्त्रिणः परमविमले कुले समभूवन अनेके लोकविश्रुताः सुयोग्या संस्कृतविद्वांसः, येषामादिमः श्री पं० केशवराममहाराजः समभूत् । तदादि श्रीमदुपेन्द्रशास्त्रिपर्यन्तं संक्षिातमितिवृत्तं मध्यकौमुद्यादौ "केशव-परिचय"नाम्ना प्रदत्तम्, अत्रापि तद् उपेन्द्रकुलपरिचयनाम्ना प्रदीयते ।) अस्ति पंचाम्बु-प्रान्तोत्तर-दिग्विभागस्थे 'होश्यारपुर'-मण्डले द्वाबाप्रान्तशिरोदेशे 'जेनों'- नामातिविश्रुता नगरी। तत्र च विद्यते परम-प्रसिद्ध सारस्वतजातीयं प्रभाकरोपाह्नमेकं पण्डितकुलम् । यत्कुलीनाश्चाद्यावधि विविधगुणमण्डिताः सुयोग्याः पण्डिताः समभूवन् विद्यन्ते च । एतत्कुलपूर्वपुरुषेषु महामनाः परम-भागवतः श्रीपण्डित-केशवरामशर्मा प्रभाकर आदिमो विद्वान् बभूव । योहि यवनानां नानाकराऽऽक्रमण-कारणाद् विगताचार-प्रचारं परिलुप्त-विद्यासंचारं पाणिनि-जन्मभुवमपि कालप्रभावेण पाणिनीय व्याकरण-विज्ञान-रहितं सर्वथा विस्मृतपरमेशं पंचाम्बुदेशं पुन: प्रसूत-सदाचारं संल्लब्धविद्या-प्रचारं पाणिनीय-व्याकरण-विज्ञान-सहितं सदा संस्मर्यमारापरमेशञ्च चकार । समुल्लिख्यते नस्य तत्कुलस्य चाऽयमल्पीयान् परिचयः । विद्यावारिधिर्महामनाः परमभागवतः पण्डितप्रवरः श्रीकेशवरामशर्मा प्रभाकरः अष्टादश-शततमे ( १८००) वैक्रमवत्सरे 'जेजों'-नगरनिकटवातेनि मदूदग्रामे बालाकिरामशर्मणः पुण्यभवन जन्मना मण्डयामास श्रीकेशवः । सोऽयं बाल एव आकृत्या प्रकृत्या च परमश्चारुः, वर्णेन गौरः, पीनांसो दीर्घबाहुः, कमलदलविशाल-लोचनो दर्शकजन-मनोमोहनः, सर्वजनहिताभिलाषी मितभाषी चासीत् । इटंकुलीनायाश्च भगवद्भक्ताया 'माई जीत्तो' देव्याः प्रसादादुबुद्धभगवदनुरागस्तस्या एव सकाशात् प्राप्ताशीराशिः, "मदवाणी' ग्रामवास्तव्यस्य वैष्णवमहात्मनः पं० श्रीमथुरादासशर्मणोऽधिगत-प्राथमिकाक्षरशिक्षा-दीक्षः प्रवर्धमान-विद्याधिगमा Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिनिवेशो लब्धगुरुवरादेशः परित्यज्य सहजस्नेहं निजगेहं, विदलय्य बन्धुजन महामोह-बन्धनम् विगणय्य चाशेषान्मार्गक्लेशान् पदातिरेव विद्याप्रधान-केन्द्रभूतां श्रीवाराणसी प्रतस्थे । तां च षड्विंशतिवर्षाण्यध्युष्य शब्देन्दुशेखरादिषु भैरव्यादिटीकाकत्तु : श्री भैरवमिश्रस्य तावपादानां श्रद्वेयचरणानां श्रीमत्पण्डितभवदेवमिश्राणां सकाशात् समस्तशात्रजातमधिजग्मिवान्, विशेषतश्च पाणिनीयं व्याकरणम् । श्रूयते च किल मिश्रमहाभागानां स्वपुत्रेऽपि श्रीभैरवमिश्रे नासीत्तथा स्नेहो यथाऽऽसीत्तत्सहाध्यायिनि श्रीकेशव । श्रीगुरुचरणकृपया सम्प्राप्तसकलविद्यः श्रीकेशवरामः प्राक्तनसस्कारपरम्परावशाद् भगवद्भक्तिप्रवणचेताः परमेशदयात प्रारम्भादेव लब्धभगवद्भक्तसंगः शिथिलितलौकिकव्यासंगो भगवति श्रीरामे परमभक्तिमान् समजायत । ( एतस्य हि महामहिमशालिन आदर्शभगवरक्तस्य विदुषो वाराणसेयं विद्यार्थिजीवनं गृहीयं गार्हस्थ्य-जीवनञ्चाप्यलौकिकघटनाभिर्घटेतं विद्यते । विस्तरभयान्नात्र ता लेखितुम्-उपक्रम्यन्ते )। ___अथाऽनिच्छन्नपि षड्विंशतिवर्षानन्तरं श्रीगुर्वाशानुरोधेन वाराणसीतो निजग्राम समाजगाम । लघुतरेऽ पे तस्मिन् ग्रामे जिज्ञासया समागतान् विद्यार्थिनोऽध्यापयितुं प्रारभत । शनैःशनैः प्रवर्धमाना सा विद्यार्थिसंख्या नवतिमस्पृशत् । सर्वोऽपि विद्यार्थिनां निवास-भोननादि-प्रबन्धस्तदाराध्यदेवस्य श्रीभगवतो रामस्य कृपयैव समसिद्धयत् । अस्मिन् समये पंचाम्बुदेशे क्वचिदेवासीत्कश्चित्पण्डितः, सोऽपि सामान्यकर्मकाण्डग्रन्थान् शीघ्रबोधादोनेवाऽध्यापयति स्म, व्याकरणे च केवलं सारस्वतस्य चन्द्रिकायाश्चैव स्वाचित्कं पठनपाठनमभूत् । पाणिनीय-व्याकरणस्य तु क्वचित्कदापि नामैवाऽश्रूयत । श्रीपण्डितकेशवरामशर्मण वाऽत्र पुनरभिनवप्रक्रियाक्रमेण सञ्जात-प्रचुरप्रचार-योग्यताकं पाणिनीयं व्याकरणं प्रचारितं ब्राह्मणोचित आचारश्च संचारितः । श्रीपण्डितकेशवरामशर्मणोऽस्यां गृहीयपाठशालायां प्राप्तशिक्षा विद्यार्थिनो विश्वविख्याता राजाधिराज-वन्दितचरणा महापुरुषा विपश्चिदपश्चिमाः समपद्यन्त । एष चातीव प्रसिद्ध आमाणकस्तात्कालिक आसीत् “वदत्र पठिता विद्यावश्यं सफला भवति" इति, अत एव केचित्तु विद्या-साफल्य-लाभायैव किंचित् कालमत्रावश्यमधीयते स्म । प्राप्तकैवल्यानां महामहिम्नां पूज्पपादानां काशीस्थानां श्री १०८ विशुद्धानन्दसरस्वतीनां श्रद्धेयगुरवः श्री १००८ गौड़स्वामिमहाभागाः ( येषां पूर्वाश्रमनाम 'भगवान्दास' इति जन्मभूमिश्च पटियालाराज्यान्तर्गतं सनौर-नगरम् ) यौवनारम्भे श्रीकेशवरामशर्मणां सकाशात् मदूदग्रामेऽध्ययनं कृतवन्तः ( एतच्च काश्यां लहरी-प्रेसमुद्रिवाद विशुद्धचरितावलीयन्यात् सर्वमवगच्छामः ) एतेनैव सम्बन्धेनेकदा पंचाशता पण्डितैः Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) सह काँगड़ाप्रान्तवर्तिनी सुकेत-(मण्डी) राजधानी समागताः स्वामिपादाः श्रीविशुदानन्द-सरस्वतीमहाभागास्ततः पर्यावर्त माना जेजों-मदूदमार्गेण समाजग्मुः । जेबोंनगरे च श्री पं० केशवरामशर्मणां प्रपौत्रं श्रीधूर्जटिशर्माणं, रामनारायणशर्माणं च संन्यासधौचित्या शुभाशीर्वादादिभिः सम्भावयाम्बभूवुः । - तस्मिन् समये वाराणस्यां विख्याताः परमोदारचरिता जम्बूप्रदेशीया विद्वांसः श्री पं० काकारामशर्मा:, मूलत्राणदेशीया वैयाकरणधुरन्धराः श्री पं० विभवरामशर्माणश्चापि प्रथमतः श्री पं० केशवरामशर्मणामन्तेवासित्वमभजन् । एवं पञ्चाम्बुदेशेऽपि पं० केशवरामशर्मणां शिष्या योग्या विद्वांसः समभूवन् । यथा-पटियाला-राज्यान्तर्गतचमारू-ग्रामवास्तव्याः पं० हरयशरायशर्माणः पटियालाराज्यपण्डिताः, तथा तद्देशीया एव श्रीमन्तो वरागारामशर्माणः पटियालाराजपण्डिताः। जम्बूराजधानीराजपण्डिताः श्री पं० गोकलचन्द्रशर्माणः। होश्यारपुर-नगरनिवासिनः श्री पण्डितब्रजलालशर्माणः ( श्री पं० कन्हैयालालशर्मणां तातपादाः ), पं० गोविन्दराम-सीतारामप्रभृतयश्च । तथा वृत्तिप्रभाकर-विचारसागरादि-भाषावदान्तग्रन्थलेखकाः श्रीनिश्चलदासमहात्मानोऽपि श्री पं० केशवरामशर्मामेव सकाशात्प्रथमं पठितवन्तः ( इदमाप विशुद्धचरितावलीतोऽवगम्यते )। किम्बहुना श्री पं० केशवरामशर्मणां शिष्यप्रशिष्यादिसम्प्रदायो यदि गण्येत सम्पूर्णमपि भारतं तद्व्याप्तमेवोपलभ्येत । उक्तं च स्वरचित-वृत्तरत्नाकरटीकायां श्रीपण्डितरामप्रपन्नशास्त्रिमिः-- श्रीजेजों मधुदापुरीयविबुधः श्रीकेशवोऽभदिदम् यच्छिष्यादिपरम्परावृतमहीच सुविद्यागृहम् ॥ किञ्च तात्कालिका राजानो महाराजाश्चापि श्री पं० केशवरामशर्मणां समुचितं सम्मानमकार्षुः । पंचाम्बु केसरी श्रीमहाराजो रणजीतसिंहो भूयसी भूमि निष्करीकृत्यानिच्छतेऽपि पण्डितवरायास्मै सबहुमानमयच्छत् ययाऽद्यापि तदवंश्यानां स्थायिसम्पत्तिरूपेणावस्थीयते । सिक्खराज्यनेता सरदारदेवसिहमिश्ररूपलाल-प्रभृतयोऽस्यपण्डितप्रवरस्याऽऽदर्शमहात्मनः सत्संगलाभं काले काले प्राप्नुवन् । __ अथ नवतिवर्ष-परिमित-वयसि नवस्युत्तराष्टादश-शततमे ( १८६०) वैक्रमवत्सरे मानव-लोकलीला समाप्य साकेतलोकमध्यशि श्रयन् श्री पं० केशवरामशर्माणः ।। ___पं० केशवरामशर्मणां पुत्रः श्री पं० रघुनाथशर्मा योग्यो विद्वान् नवयौवन एव लोकमिमं विहाय परलोकातिथिर्बभूव । पौत्रश्च पं० श्रीमकुन्दलालशर्मा धुरन्धरो विद्वान् विश्वविश्रुतो महात्मा परमभागवतो निजजीवनं श्रीभगवद्भक्तावेव यापितवान् । अन्त्ये चायुषि सर्वथा मौनमापन्नो विद्वत्संन्यासेन शेषं समयं व्यतिगमयन् भगवन्तमेव भेजे । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) अस्यापि विद्वद्वरस्य जं वनं विविधालौकिकघटनापरिपूर्ण श्रूयते । (श्रीमत्पण्डितमुकुन्दलालतः समारभ्य पण्डितकुलमिदं मदूग्रामं परित्यज्य जैनोंनगरं निवासभुवं चकार)। श्रीपण्डितमुकुन्दलालपुत्राश्च श्रीरामचन्द्र-धूर्जटिरामनारायणशर्माणोऽपि योग्या विद्वांसः स्वर्वजवत् सुरसरस्वती-सेवातत्पराश्चाभूवन, परम्परागतां तां गृहीयपाठशालां च समचालयन् । अनन्तरं चापि पण्डितकुलेऽस्मिन् योग्या विद्वांस एव समजायन्त, यथा पं० परमानन्दशर्मा धर्मशास्त्री कर्मकाण्डप्रकाण्डम् श्री पं० रामचन्द्र शर्मतनूजन्मायं परमानन्दशर्मा कराणस्यां पठितविद्यः सुयोग्यो विद्वान् धर्मशास्त्रपागतः कर्मकाण्डनिष्णातश्चाभूत् । सर्वमप्यायुगुहीयपाठशालायां तस्यां विद्यार्थिपाठन एवायापयत् । परम्परागता पाठशालेयमद्यापि कुलेऽस्मिन् एतद्देशीयान् विद्यार्थिनो निश्शुल्कविद्यादानेन सम्भावयन्ती विराजते। प. श्रीरामप्रपन्नशास्त्री काव्य-व्याकरण-दर्शनतीर्थः श्री पं० धूर्जटिशम्मणो ज्येष्ठतनयोऽयं विद्वान् जम्बुराजकीय-श्रीरघुनाथसंस्कृतमहाविद्यालये महाध्यापकः पञ्चाम्बुप्रान्तीयविद्वत्सु प्रधानगण्यतां प्रायात् । अयं च निरुक्ते प्रपन्नालोकाख्यं भाष्यं, वासुदेवविजये केशवों नामातिसरलां टीकां, वृत्तरत्नाकरे रत्नसंग्रहाख्यां व्याख्यां विदग्धमुखमाडने च कुञ्चिकाभिधां विवृति विरचय्य प्राकाशयत् येन च संस्कृतसाहित्यस्य भूयानुपकारः समपद्यत । पिङ्गलसूत्रभाष्यं वैयाकरणभूषणविवृतिश्चैतत्सङ्कलिताऽ: द्रितैव विद्यते साम्प्रतमपि । हा हन्त ! १६६४ वैक्रमपौषे शुक्लतृतीयायामयं मुयोग्यो विद्वान् वियोगकातरान् बन्धून् विहाय वैकुण्ठलोकमारुक्षत् । अद्यत्वे चैतादृशानामाचारसम्पन्नानां योग्यविदुषां प्रायोऽभाव एव । विद्वत्समाजे सञ्जातां त्रुटिमिमां सद्य एव पूरपतु भक्तवत्सलो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रः। वेदान्त सार्वभौमस्तार्किकचक्रचूडामणिरादर्शमहात्मा भगवद्भक्तः श्री पं० श्रीनीलकण्ठशास्त्री १६३८ वैक्रमवारे शिवरायां लब्धजन्मायं श्री पं० रामनारायणशर्मणो ज्येष्ठपुत्रो वाराणसी चतुर्दशवर्षाण्यध्युष्य स्वमातामहात् श्रीपण्डित-मोहकमचन्द्रशर्मणः सकाशाद व्याकरण का यानि च, प्रथितमहिम्नां नैयायिकप्रवराणां श्रीमत्पण्डितसतारामराः स्त्रियां सकाशात् सम्पूर्णन्यायशास्त्रं, तथा महामहोपाध्यायानां श्रीमत्पहिडानकच्छेदराम-( उमापति ) शर्मणां पटशास्त्रियां सकाशात् वेदान्तान् योगं सायं चाधीतवान् । त्वभावत एवायं लौकिकप्रवृत्तिहितो भगवदः भक्त्येकनिष्ठो जयपुरर ज्यान्तर्गत-"रामगढ़" ( सीकर ) स्थाने स्वजीवनं श्रीभगवद्भजन एवायापयत् । (प्रत्यान् कांश्चिद् योग्यान् विदुषो न्यायशास्त्रमपि स्वातन्त्र्येणा Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठयत् । तत्र चास्य सर्वविधमपि लौकिकं योगक्षेमं भगवत्प्रेरितः श्रीमान् श्रेष्टिप्रवरः श्रीकेशवदेवः समपादयत् । महात्मनोऽस्य विदुषः सङ्गेन चासो श्रेष्ठी वानप्रस्थरूपेण भगवन्तमेवाराधयितुं श्रीहरिद्वारतीयं समाश्रितवान् । आदर्शमहात्मायं पण्डितप्रवरः १६६१ वैक्रमवत्सरे चैत्रशुक्लपञ्चम्यां मर्त्यलोकं विहाय गोलोकं धाम प्राविशत् । श्री पं० उपेन्द्रनाथशास्त्री वैयाकरणभूषणो दर्शनालङ्कारः श्रीनीलकण्ठशास्त्रिणां कनिष्ठसहोदरोऽयमुपेन्द्रशास्त्री स्वल्प एव वयसि सुयोग्यो विद्वानभूत् । परमभिनवयौवन एव वृद्धी मातापितरौ विरहाकुलौ विहाय स्वर्लोकमशिश्रयत् । विदुषोऽस्यैव स्मारकरूपा लघुकौमुद्याः शोभना विवृतिरियमुपेन्द्रषिवृतिर्नामेतस्कनिष्ठसहोदरेण विश्वनाथशास्त्रिणा सम्पादिता विद्यार्थिजनोपकारायविराजतेतराम । ___ एवं श्री पं० अमरनाथ-परशुराम-विश्वमित्र शर्माणोऽपि कुलस्यैतस्य सुयोग्या भूषणभूता विद्वांसोऽभूवन, परमकाल एव कालकवलितकलेवराः परलोकमध्यवात्सुरिति बन्धूनां चेखिद्यते चेतः। साम्प्रतं चापि कुलेऽस्मिन् परम्परागत-पाण्डित्वसंरक्षकाः सुयोग्या विद्वांसो व्याकरणाचार्य-श्री पं० युगलकिशोरशास्त्रि-विश्वनाथशास्त्रिप्रभाकर-नीलाम्बरशास्त्रिविद्यालङ्काराः, वैद्यपञ्चानन-श्री पं० जयगोपालशर्म-श्री पं० मुरलीधरशर्मप्रभृतयश्च विद्यन्ते । एवं शतशो वत्सरेभ्यः कुलेऽस्मिन् संस्कृतवैदुषी लिखितपठितेव वेविद्यते भगवत्कृपातः । परतश्चापि परमेश्वरानुकम्पया सुरसरस्वतीसेवका विद्वांसो भगवद्भक्ता एव भूयापुरित्यस्ति साञ्जलिबन्धं प्रार्थना भगवच्चरणसरोरुहेषु ।। का० शु० प्रतिपत् १६६५ वैक्रम ॥ इति शम् ॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंश-क्रमः श्रीपण्डितकेशवरामजीमहाराजः पं० रघुनाथशर्मा पं. मुकुन्दलालशर्मा रामचन्द्रः रामचन्द्रः धूर्जटिः रामनारायणः परमानन्दः रामप्रपन्नः, युगलकिशोरः, जयगोपालः, अमरनाथः, परशुराम: मीलाम्बरः, मुरलीधरः देवरत्नः सनत्कुमारः | व्रजभूषणः पीताम्बरः, सुरेशः, सोहना, नीलकण्ठः, उपेन्द्रनाथः, विश्वमित्रः, विश्वनाथः हरिमित्रः मदनमोहनः, राममोहनः, जगन्मोहनः, राधामोहनः । हरिमोहनः, शिवमोहनः का शु० प्रतिपद् १६६५ बैक० Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुदीस्थप्रकरणसूची सं० प्रकरणम् पृष्ठम् १-संज्ञाप्रकरणम् २-पन्च सन्धयः ६-३४ ३-षड् लिङ्गानि ३५-६८ ४-अव्ययप्रकरणम् ६८-१०२ ५ तिङन्ते दशगणाः १०३-१९६ ६-प्रक्रियाः १६६-२२१ ७-कृत्यप्रक्रिया २२१-२२५ ८-कृदन्ताः २२५-२४७ १-विभवत्याः २४७-२५१ १०-समासाः २५२-२७४ ११-तदिताः २७४-३२६ १२ खोप्रत्ययाः ३२७-३३५ परिशिष्टे ५-मधुमिमानुशासनम् .. ३३६-३४२ २-व्याकरणसूबलमरणोदाहरणादि, व्याकरणानुबन्धक्तुष्टयम्, ३४२-३४४ सन्धिपश्चत्वच... ३-पाणिनीय व्या. मा. कालविचारः । लेखोग्योगिनियमाश्चिह्नानि च ३४४-३४५ ४-बालोपयोगि अशुद्धिप्रदर्शनम् (वामानामनुवादे प्रायो जायमाना ३४५-३४६ अशुद्धयस्तस्संशोधनं च) ५-अनुवादोपायोगी उपसर्गयोगेन पातूनामविपरिणामो भाषायंसहितः । ३४७-३६७ ६-लघुकौमुदीस्थसमप्रयोगसंग्रहो भापार्थसंवलितः। ३६७-४०६ - (अव्यय-धातुपाठसंग्रहश्चापि बवास्थानम्) ७-परीक्षाशिक्षासूत्राणि भाषानुपादसहितानि । ४१.-४१२ -चाम्बु-वाराणसी-विहार म्याकरण प्रश्नपत्राणि । ४१३-४२४ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॐनमः श्रीगणेशाय * लघुसिद्धान्तकौमुदी . ..:17 (पाणिनीय-व्योकरण-प्रवेशिका ) उपेन्द्रविवृति सहिता, भाषानुवाद सहिता च । संज्ञाप्रकरणम् नत्वा 'सरस्वती देवीं शुद्धां गुण्यां करोम्यहम् । पाणिनीयप्रवेशाय लघुसिद्धान्तकौमुदीम् ॥१॥ (अक्षरसमाम्नायः, शिवसूत्राणि) अ इ उण १ । ऋ लुक २ । ए ओङ ३ । ऐ औच ४ । ह य व रट् ५ । लण् ६ । ज म ङ ण नम् ७ । झ भञ् ८ । घ द ध । ज ब ग ड दश् १० ।ख फ छ ठ थ च ट तव ११ । क पय १२ । श ष सर १३ । हल १४ । -- -- ----- उपेन्द्रविवृतिः राषमाधवमानम्य विदधे टिप्पणीमिमाम् । उपेन्द्रविवृति नाना विश्वनाथप्रभाकरः ॥ १-वाग्देवताम् । २-प्रशस्तपुरणोपेताम् । ३-अहम् = वरदराजः । ४-पाणिनिप्रोक्त-व्याकरणशास्त्र प्रवेशाय । ५-एतन्नामिकां पुस्तिकाम, लघ्वी वैयाकरणसिद्धान्तानां कौमुदी प्रकाशिकामित्यर्थः ६-पत्र सन्ध्यभावः संहिताऽविवक्षामूलः सौषः, स्पष्टप्रतिपत्त्यर्थो वा। हिन्दी अनुवाद नत्वेति-मैं ( वरदराज)शुद्ध तथा प्रशस्त गुणों से युक्त सरस्वती देवी को नमस्कार करके पाणिनीय व्याकरणशास्त्र में प्रवेश के लिए लघुसिद्धान्तकौमुदी को बनाता हूँ। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तः। धात्मांडायस्यअमारायड सशकः। Fre कार उच्चारणाथ . .. c .. . जोमसजासून mजामोद ऊरARIIयमान्डेिनुशलया सिद्धान्तकौमुदी पुशारदिजनमाहेश्वगणित सूत्राण्यणादिसंज्ञार्थानि । एषामन्यार कर -हकारादिष्वकार उच्चारणार्थःलमध्ये स्वित्ययारेक्ष्य संज्ञकत्वमातिल संशा १ हलन्त्यम् १ । ३।३। (इपरेशलसा) अनुवृशिनमारकर का उपदेशेऽन्त्यं हलित् स्यात् । उपदेश "आद्योच्चारणम् । सूत्रेष्वदृष्ट पदं सूत्रान्तरादनुवर्तनीयं सर्वत्र । "२ अदर्शनं लोपः १ । १ । ६० । प्रसक्तस्यादर्शनं लोपसंझं स्यात् । १-महेश्वरादागतानि 'तत पागतः' इत्यण् । महेश्वर-प्रसादलब्धानीत्यर्थः । ( तथा चोक्तम्-नृत्तोवसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम् । उद्धतुकामः सनकादिसिद्धान् एतद् विमर्श शिवसूत्र-जालम् ॥ महं विमर्शः विचार्य स्फुटीकरोमि, 'विमर्श' इति छान्दसः प्रयोगः, नन्दिकेश्वरकारिकेयम्।) नादारमतातायाधयाय मुजरात। 8371 । रस्नं ज्याधरगंनो तरी पातिय नम:। समान्तायो । नतु महेश्वरप्रोक्तानि, तथा सति प्रनित्यत्वावगत्या भाष्योक्ताक्षरसमम्निीयत्वा । नापत्तेः। २-अन्तिमा वर्ण णकारादयः । ३ "न पुनरन्तरेणाचं व्यञ्जनस्योच्चारणमपि भवति" इति भाष्यात् । ४-'लण' इति सूत्रेऽकार इत्संज्ञको न तूच्चारणमात्रार्थः तेन रप्रत्याहारसिद्धिः । ५-पाद्य =प्रथमम् उच्चारणं प्रत्यासत्या मुनित्रयस्यैव, तच्च "धातु-सूत्र-गणोणादि-वाक्य-लिङ्गानुशासनम् । मागम-प्रत्ययादेशा उपदेशः प्रकीर्तितः।" इत्यभियुक्तोक्तं वेदितव्यम् । ६-प्रसक्तस्य =उच्चार्यत्वेन प्राप्तस्येत्यर्थः । इति माहेश्वराणीत्यादि-ये चौदह सूत्र अण आदि सञ्ज्ञाओं ( प्रत्याहारों ) की सिद्धि के लिये महेश्वर की कृपा से प्राप्त हुए हैं । इनके अन्त के अक्षर इत्सझक हैं । हकार आदि अक्षरों में कार उच्चारण मात्र के लिए है । किन्तु लण सूत्र में श्रकार इत्सज्ञक है। . -। १-उपदेश अवस्था में अन्त्य हल की इत्मज्ञा होती है । पाणिनि आदि श्राचार्यों के प्रथम उच्चारण को उपदेश कहते हैं। सूत्रों मनं देखा गया पद दूसरे सूत्रों से अनुवर्तन कर लेना चाहिए; सब स्थानों में । २-विद्यमान के अदर्शन की लोप सञ्ज्ञा होती है । - - Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसर ) संज्ञाप्रकरणम ३ तस्य लोपः १ । ३ । । । गनासा ,'तस्येतो लोपर 'कुल' आदतालाप: स्यात् ।। णादयोऽलाद्यथोः। सिमसार -अघोविसिम जासूसा) -४ आदिग्न्त्ये न सहेता १।१ । ७१ । अन्त्येनेता सहित आदिमध्यगानां स्वस्य च संज्ञा स्यात् । यथाऽणिति अ इ उ वर्णानां संज्ञा । एवमक अच् अल् हलित्यादयः।। ___ ५ ५ऊकालोऽज ह्रस्व-दीघ-प्लुतः १ । २ । २७ । उश्च ऊश्च उ३श्च वः । वा काल इबू कालो यस्य सोऽच् क्रमाद् ह्रस्वदीर्घ-प्लुतसंशः स्यात् । स प्रत्येकमुदात्तादिभेदेन त्रिधा। ६ उच्चैरुदात्तुः १।२ । ३३ । तालाई -यानेहमी निम्मनोऽजातसंश; स्यार १-तस्य = इत: = इत्सज्ञकस्य । २-प्रण अक अच् इत्यादिप्रत्याहारसिद्धयर्थाः ३-सह इता, इति छेदः । ४-बोधकः । ५-ऊकालः अच् ह्रस्वदीर्घप्लुतः, इति पदच्छेदः । कुक्कुट-शब्दे उकारस्यैकमात्रस्व-द्विमात्रत्व-त्रि मात्रत्वप्रसिद्ध नोक्ता प्रकारादयः । उ ऊ उ३ इत्युकारत्रयस्योच्चारणकालसदृश उच्चारणकालो यस्य अचः सोऽच क्रमाद् ह्रस्व-दीर्घप्लुतसंज्ञावान् भवतीति सूत्रार्थः। ६-ह्रस्व-दीर्घ-प्लुतभेदेन त्रिविधोऽच् । ७-उदात्ताऽनुदात्तस्वरितभेदैः । ८-ताल्मादि-सभाग-स्थानेषूर्वभागे निष्पन्नोऽजुदात्तः। ३- जिसकी इत्संज्ञा होती है, उसका लोप होता है । अ इ उण इत्यादि सूत्रों में णकारादि अण्-अक्-अच् इत्यादि प्रत्याहार सिद्धि के लिये हैं। ४-अन्त्य इत् के साथ उच्चार्यमाण आदि वर्ण मध्यगामी वर्णों का तथा अपना बोधक होता है। जैसे –'अण' यह प्रत्याहार अ इ उ इन वर्गों का बोधक है। ऐसे ही अक्अच् अल्- ल इत्यादि प्रत्याहार जानने चाहिए। ___५ - एकमात्रिक द्विमात्रिक त्रिमात्रिक उकार के उच्चारण काल के समान है उच्चारणकाल जिस अच् का वह अच् कम से हस्व-दीर्घ-प्लुत संज्ञक होता है । ह्रस्वदीर्घ-प्लुत भेद से तीन प्रकार का हुआ वह अच् उदात्तादि भेद से फिर तीन प्रकार का होता है। ६-तालु अादि सभाग स्थानों के ऊर्श्वभाग में निष्पन्न अच् उदात्त संज्ञक होता है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मग मी तिला माल ) लघसिद्धान्तकौमुदी ताल्लानीचरनुदानः' १ लामो निम्पन्नोऽध् अनुशवसंज: " सनवविधोऽपि प्रत्येकमनुनासिकाननुनासिकत्वाभ्यां द्विधा । जुगाशिवह "मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः १ । १ । : । मुखसहित-नासिकयोच्चार्यमाणो वर्णोऽनुनासिकसंशः स्यात । तदित्थम्-अ इ उ ऋ एषां वर्णानां प्रत्येकमष्टादश भेदाः। लवणेस्य द्वादश, तस्य दीर्घाभावात् । एचामपि द्वादश, तेषां ह्रस्वाभावात । 1-अधोभागे निष्पन्नोऽजनुदातः । २-उदात्तत्वाऽनुदात्तत्वे वर्णधर्मों समाह्रियेते यत्र सोऽच् (मध्यभाने उच्चायंमारणः) स्वरितः । ३-त्रयाणां त्रिविधत्वे नव विभाः= भेदाः । ४-अनुनासिकः, अननुनासिकश्चेति भेदाभ्यां द्विभेद इत्यर्थः । ५-मुखन सहिता नासिकति विग्रहः । ६-तदित्यम् = ह्रस्वो दीर्घः प्लुत इति विविधानाम् उदातानुदात. स्वरितभेदैनंवषाकृतानां पुनरनुनासिकाननुनासिकभेदाभ्यां द्विवावरणेन भष्टादश भेना भवन्ति । सर्व चके स्पष्टमिदम्अ इ उ ऋ ल म इ उ ऋ ए प्रो ऐ मोम इ उ ऋ ल ए पो ऐ प्रौ ह्रस्वभेदाः प्लुतभेदाः १ ह्र. उदात्तानुनासिकः ७ दी उदात्तानुनासिकः १३ प्नु उदात्तानुनासिकः २ ह्र उदात्ताननुनासिकः दी. उदात्ताननुनासिकः १४ प्नु. उदात्ताननुनासिकः ३ ह्र. अनुदात्तानुनासिकः । ६ दी. अनुदात्तानुनासिकः । १५ प्नु . अनुदात्तानुनासिकः ४ ह्र. अनुदात्तामनुनासिकः १० दी. अनुदात्ताननुनासिकः १६ ८५ अनुदात्ताननुनासिकः ५ ह्र स्वरित नुनासिकः ११ दी. स्वरितानुनासिकः । १७ नु. स्वरितानुनासिकः ह. स्वरिताननुनासिकः ११२ दो. स्वरिताननुनासिकः । १८ पनु. स्वरिताननुनासिकः ७-तालु आदि सभाग स्थानों के अधोभाग में उच्चार्यमाण अच् अनुदात्त संज्ञक होता है। ८-मध्य भाग में उच्चार्यमाण अच स्वरित संज्ञक होता है। वह नौ प्रकार का भी अच् अनुनासिक और अननुनासिक भेद से दो-दो प्रकार का होता है। ६-मुख सहित नासिका से उच्चार्यमाण वर्ण अनुनासिक संश्क होता है । सो इस - दोघभेदाः Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्ञाप्रकरणम १० 'तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् १ । १ । ६ । वर्षाना स्थानानि ७ ताल्वादिस्थानमाभ्यन्तरप्रयत्नश्चेत्येतदद्वयं यस्य येन तुल्यं तन्मिथ यो सतविधायक जासिम् सवर्णसंज्ञ ं स्यात् । (ऋलुवर्णयोमिथः सावराय वाच्यम्) । श्र कुह विस र्जनीयानां कण्ठः । इचुयशानां तालु । ऋटु र षाणां मूर्धा । "लू तु ल सानां दन्ताः । उपूपध्मानीयानामोष्ठौ । ञ म ङ ण नानां नासिका च। एदैतोः कण्ठतालु । ओदौतोः कण्ठोष्टम् । वकारस्य दन्तोष्ठम् । जिह्वामूलस्य जिह्वामूलम् । नासिकाऽनुस्वारस्य आभ्यन्तरम्यल भेदनिरूपणम्) तिरुपत्नो द्विधा - श्राभ्यन्तरो बाह्यश्च । 'आद्यः पञ्चधा - स्पृष्ट षत्स्पृ १ - प्रास्ये = मुखे भवम् प्रास्यं = स्थानम्, प्रकृष्टो यत्नः प्रयत्नः = श्राभ्यन्तरप्रयत्न इत्यर्थः । ( सम्बन्धिशब्दमहिम्ना ) स्थानप्रयत्नौ ययोः परस्परं तुल्यौ तौ मिथः सवर्णौ इत्यय सूत्रार्थः । ७- चकारा २ - प्रकार कवर्ग-हकार - विसर्गाणां कण्ठः स्थानम् । ३-इकार- चवर्ग- यकार-शकार णां तालु स्थानम् । ४-ऋकार- टवर्ग-रेफ- षकाराणां मूर्धा स्थानम् । ५ - कार -तवर्ग-लकारसकाराणां दन्ताः स्थान । ६ - उकार-पवर्गोपष्मानीयानाम् श्रोष्ठौ स्थानम् । देषा यथायथ कण्ठादिव मपि स्थानं बोध्यम् । इति स्थानानि । ८- प्रायः प्रकार अ इ उ ऋ इन वर्षों में प्रत्येक के अठारह अठारह भेद होते हैं । लृ वर्ण के are भेद होते हैं; क्योंकि वह दीर्घ नहीं होता । एचों के भी बारह बारह ही भेद होते हैं: क्योंकि वे ह्रस्व नहीं होते । श्राभ्यन्तरः । १० - तालु आदि स्थान और श्राभ्यन्तर प्रयत्न जिन वर्णों के तुल्य हों उनकी परस्पर सवर्ण संज्ञा होती है (ॠ और लृ वर्ण की परस्पर सवर्ण संज्ञा कहनी चाहिये) । कार, कवर्ग, हकार और विसर्जनीय इनका कण्ठ स्थान है । इकार, चवर्ग, यकार और शकार इनका तानु स्थान है । ऋकार, टवगं, रेफ तथा षकार इनका मूर्धा स्थान है । लृकार, तवर्ग, लकार, तथा सकार इनका दन्त स्थान है । उकार, पवर्ग उपमानीय इनका श्रेष्ठ स्थान है । ञकार-मकार ङकार- रणकार-नकार इनका नासिका स्थान भी है । ( चकार से ताल्वादि भी है) । ए और ऐ का कण्ठतालु स्थान है । और का कोष्ठ स्थान है । वकार का दन्तोष्ठ स्थान है । जिह्वामूलीय का जिह्वामूल स्थान है । अनुस्वार का नासिका स्थान हैं । प्रयत्न दो प्रकार का है; श्राम्यन्तर और बाह्य । श्राम्यतर प्रयत्न पाँच प्रकार का Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ सयनशन लघुसि द्धान्तकौमुदी प्ठमद्विवृत-विवृत-संवृतभेदात् । तत्र स्पृष्टं प्रयत्न 'स्पर्शानाम् । ईषत्स्पृष्टमन्तःस्थानाम् । ईषद्विवृतमूष्मणाम् । विवृतं "स्वराणाम, इस्वस्यावर्णस्य प्रयोगे संवृतम् । प्रक्रियादशायां तु "विवृतमेव । बाह्यप्रयत्नस्त्वेकादशधा-विवारः संवारः श्वासो नादोऽघोषो घोषोऽल्पप्राणो महाप्राण उदात्तोऽनुदात्तः स्वरितश्चति । खरो विवाराः श्वासा अघोषाश्च । हशः संवारा नादा घोषाश्च । वर्गाणां प्रथम-तृतीय-पञ्चमा यणश्वाल्पप्राणाः । वर्गाणां द्वितीयचतुर्थी शलश्च महाप्राणाः। १-कादिमान्तानाम् । २-यरलवानाम् । १-शषसहानाम् । ४-प्रचाम् ='अ इ उ ऋ ल ए प्रो ऐ औ' इत्येतेषाम् । ५-संवृतत्वविायकस्य ' मः' इति सूत्रस्य सम्पूर्णाम अष्टाध्यायी प्रत्यसिद्धत्वात् । ६-क च ट त पाः, इति प्रथमा । ग ज ड द बाः, इति तृतीयाः । ङ ञ ण न माः. इति पश्चमाः। ७-पत्र चकारेण स्वराणां संग्रहः । ८-छठ थ फाः, इति द्वितीयाः घ झ ढ ध भा, इति चतुर्थाः । १-पत्र तु चकारः समुच्चयार्थकः । प्राभ्यन्तरप्रयत्नचित्रम्स्पृष्टम् । विवृतम् क. च. ट त. प. ख. छ. ठ. थ. फ. र. इ. प्रो. संवृतम् हस्वः 'प्र प्रयोग घ. झ. ढ. ध. भ. | ङ. ञ. ग. न. म है :-स्पृष्ट-ईषत्स्पृष्ट-ईषद् विवृत-विवृत और संवृत भेद से । उनमें स्पशा का स्पृष्ट प्रयत्न है। अन्तःस्थों का ईषप्स्पृष्ट प्रयत्न है । उष्म वर्णों का ईषविवृत प्रयत्न है। स्वरों का विवृत प्रयत्न है। ह्रस्व अवर्ण का प्रयोग में संवृत प्रयत्न होता है । किन्तु प्रक्रिया दशा में विवृत ही रहता है : __ बाह्य प्रयत्न ग्यारह प्रकार का होता है, जैसे विवार, संवार, श्वास, नाद, घोष, अघोष, अल्पप्राण, महाप्राण, उदात्त, अनुदात्त और स्वरित । खर प्रत्याहार के वणों के विवार-श्वास-अघोष प्रयत्न होते हैं । हश् प्रत्याहार के वणों के संवार नाद-घोष प्रयत्न होते हैं । वर्गों के प्रथम-तृतीय-पञ्चम वर्ण तथा यण इनका अल्पप्राण प्रयत्न होता है । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संज्ञाप्रकरणम् कादयो मावसानाः स्पर्शाः । यणोऽन्तःस्थाः । शल उष्माणः । श्रचः स्वराः। अकः, अॅखः इति कखाभ्यां प्रागर्धविसर्गसदृशो जिह्वामूलीयः । अपः, अफः, इति पफाभ्यां प्रागर्धविसर्गसदृश उपध्मानीयः । श्रं, अः, इत्यचः परावनुस्वारविसर्गौ । सकर्णग्राहक सूत्रम्) ११ अणुदित् सवर्णस्य चाप्रत्ययः ' १ । १ । ६६ । प्रतीयते विधीयत इति प्रत्ययः । अविधीयमानोऽण उदिश्च सवर्णस्य stari बाह्यप्रयत्नविवेकः विवार : श्वासः, प्रघोषः क. ख. श, च. छ ष. ट. उ. स, त. य. प. फ. संवारः, नादः, घोषः ङ ग घ य. ज. झ ञ व ड. ढ ण. र. द. ध. न. ल. ब. भ. म ह. अल्पप्राणः क. ग. ङ. य. श्र लु च ज ञ व ड ए ट. ड. ग. र. उ. प्र. त. द. न. ल. ऋ. ऐ. प. ब. म. श्रौ. महाप्रारणः ख. घ श. छ भ ष ठ ढ. स. थ. ध. ह फ भ उदात्तः धनु स्वरितः दात्तः, प्र. ए. इ. श्रो. उ. ऐ. ऋ.श्रौ. ल. ७ सर्वेषां वर्णानां प्रत्येकं चत्वारो बाह्यप्रयत्नाः । १ - प्रतोयते = विधीयत इति प्रत्ययः स न भवतीत्यप्रत्ययस्तदाह वृत्तौ प्रविधीयमान इति श्रादेशप्रत्ययागमभिन्नो ऽण इत्यर्थः । वर्गों के द्वितीय चतुर्थ वर्ण और शल प्रत्याहार इनका महाप्राण प्रयत्न होता है | 'क' से 'म' तक स्पर्श वर्ण कहलाते हैं । यणों को अन्तःस्थ वर्ण कहते हैं । शल प्रत्याहार के वर्णों को ऊष्म वर्ण कहते हैं । चों की स्वर संज्ञा है । कख से पूर्व अर्ध विसर्ग-सदृश जिह्वामूलीय कहलाता है । पफ से पूर्व अर्व त्रिसर्ग सदृश उपध्मानीय कहलाता है। अनुस्वार और विसर्ग च से परे होते हैं; जैसे अं अः । ११ - विधान किये जानेवाले को प्रत्यय कहते हैं । अविधीयमान ऋण र उदित् सवर्ण का बोधक होता है । केवल इसी सूत्र में अपर ( लण के ) णकार से लिया जाता है। कु-चु-टु-तु-पुये उदित कहलाते हैं। इस प्रकार '' यह अठारह का · Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. अन्साशादतनीस्त्यावरबा विमानाहाव निरूम ) लघुसिद्धान्तकौमुदी उदिता निरु ) संशा स्यात् । अत्रैवाण पूरेण णुकारेण । कु चुड तु पु एते उदितः। तदेवम्-श्री इत्यष्टादशानों संज्ञा । तथेकारोकारी कारखिंशतः । एवम् लकारोऽपि । एचो द्वादशानाम्। अनुनासिकाननुनासिकभेदेन य व ला द्विधा । तेनाननुनासिकास्ते द्वयोर्द्वयोःसंज्ञा । (संहितामा परः 'सनिकर्षः संहिता १।४।१०६ वर्णनामतिशयितः सन्निधिः संहितासंश: स्यात् । "१३ हेलोऽनन्तराः संयोगः १ । १।७। अभिरव्यवहिता हलः संयोगसंज्ञाः स्युः। (जयसनासूत्र १४ सुप्तिडन्तं पदम् १ । १ । १४ । 'सुबन्तं तिङन्तं च पदसंशं स्यात् । .इति संज्ञाप्रकरणम् . १-बोधकः । २-अस्मिन्नेव सूत्रे, अन्यत्र तु सर्वत्र व 'प्रण' पूर्वेणैव । इण ग्रहणंतु वित्र परेणैव भाष्ये तथा व्याख्यानात् । यथा "परेणैवेण्ग्रहाः सर्वे पूर्वेणैव एग्रहा मताः । ऋते ऽणुदित्सवर्णस्येत्येतदेकं परेण तु ॥" ३-कु= कवर्गः। चुचवर्ग: टुटवर्गः। तु तवर्गः । पु= पवर्गः इति । ४-बोधकः । ५-ऋलवर्मयोः सावत; द्वादश लकारस्य; अष्टादश ऋकारस्येति मिलिवात्रिंशत् । त्रिंशतः = त्रिशभेदानां संज्ञाबोधक-इत्यर्थः। ६-सन्निकर्षः - सन्निधिः = समीपता। ७हलौ च हलश्चेति हल इति विग्रहः । अनन्तराः - अव्यवहिताः व्यव. पानरहिताः, यथा-हय्यंनुभवः । ८-सुबन्तं यथा 'रामः' । ६-तिङन्तं यथा 'भवति' । __ इति संज्ञाप्रकरणम् ।। बोधक होता है । इसी प्रकार इकार-उकार भी अठारह-अठारह के बोधक हैं। ऋकार तीस का बोधक है। एवं लकार भी तीस का बोधक है। एच् बारह-बारह के बोधक होते हैं। अनुनासिक और अननुनासिक भेद से य व ल दो-दो प्रकार के होते हैं । इसी से अननुनासिक य-व-ल-दो-दो के बोधक रहते हैं। १२-वों के अतिशय सामीप्य को संहिता कहते हैं। १३-अचों के व्यवधान से रहित हल संयोग संज्ञक होते हैं। १४-सुबन्त और तिङन्त की पद संज्ञा होती है। इति संज्ञाप्रकरणम् Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्सन्धिप्रकरणम् 21 M "ग्रंथ अचसन्धिप्रकरणम यह विधायक सूत्रम्) १५ 'इको यचि ६ । १ । ७७ । स्यादचि संहितायां विषये । सुधी + उपास्य इति स्थिते । इका स्थानमा स्याद्यानि माता या वायमध १६ तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य १ । १ । । ६६ । सप्तमीनिर्देशेन विधीयमानं काय गोन्पासू वर्णान्तरेणाव्यवहितस्य पूर्वस्य बोध्यम् । १७ स्थानेऽन्तरतमः १ । १ । ५०१ 3 प्रसङ्ग सति सुविधा सूत्र सुध्य् + उपास्य इति जाते । आदेशः स्यात् प्यरा १८ अनचि ८ । ४ । ४७ । (सूत्रम्) अचः परस्य वाच । इति धकारस्य द्वित्वम् । १६* झलां जश् झशि का स्पष्टम् ! इति पूर्वधकारस्य दकारः " । संयुक्तास राज्त्यको पनिधायक सूत्रम्: २० संयोगान्तस्य लोपः ८ । २ । २३ । संयोगान्तं पदं तस्य लोपः स्यात् । (षष्ठीनिर्दिष्ट स्थान्त्या स्यानिविनियामक परिभाषासू‌त्रम्) २१ अलोऽन्त्यस्य १ । १ । ५२ । M १ - इक इति स्थानषष्ठी सहितायामित्यनुवर्तते । २ - स्थाने उच्चारणप्रसङ्ग । ३अन्तरतमः = प्रतिसदृशः । 'यत्रानेकविधमान्तयं तत्र स्थानत प्रान्तर्य बलीयः, इति परिभाषा । ४-झलां स्थाने जशः स्युः झशि परत: संहितायाम् - इत्यर्थः । ५· स्थानकृतान्तर्यात् । ६- 'पदस्य' इत्यधिकारः । = अथ अच्सन्धिः १५ –इक के स्थान में यण् होता है अच् परे होने पर संहिता के विषय में । १६ - सप्तमीनिर्देश ( सूत्रों में सप्तम्यन्त पद ) से विधीयमान कार्य, वर्णान्तर के व्यवधान से रहित पूर्व को होता है । १७ - प्रसत होने पर सदृशतम आदेश होता है । १८ - च् से परेर् को विकल्प से द्वित्व होता है; श्रच् परे रहते नहीं होता । १६-झलों के स्थान में जश् होते हैं; झश् परे रहते । २० - संयोगान्त पद का लोप होता है । २१ - षष्ठी निर्दिष्ट ( सूत्रों में षष्ठयन्त पढ़ के द्वारा बताए गए ) अन्त्य अल् का Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यादजहाधरमाइला लघुसिद्धान्तकौमुदी षष्ठीनिदिष्टोऽन्त्यस्यादेशः स्यात् । इति यलोपे प्राप्ते ( 'यण-प्रतिषेधो वाच्यः) 'सुद्ध्युपास्यः,सुध्युपास्य अमुश्मिध्वार प्रधान H धाशः, धात्रंशः। लाकृतिः । धात्त्रंशः,धात्र २२ एचोऽयवायविः ६।१।। ७। एचः क्रमादय अव आय आव पते स्यूरशिलाजानमाल सूत्रा) २३ यथासंख्यमनुदेशः समानाम् १ । ३ । १० । समसंबन्धी विधिर्यथासंख्यं स्यात्। हरये। विष्णवे। नायकः पावकः । २४ वान्तो यि प्रत्यय ६१ । ७६ । १ संयोगान्तस्य यणः ( यरलवानाम् ) न लोप इत्यर्थः । २-सुद्धय पास्यः - सुधी+ उपास्यः इत्यवस्थायाम् 'इको यणचि' इति सूत्रण ईकारस्य यणि यकारे कृते 'सुध्य उपास्यः' इति जाते 'अनचि च' इति धकारस्य द्वित्वे 'झलां जशझशि' इति, पूर्ववस्य दरवे, 'यण प्रतिषेधो वाच्यः' इति संयोगान्तलोपस्य निषेधे सिद्ध रूपं . सुद्धयुपास्यः' इति द्वित्वाभावे सुध्युपास्यः । ३-मधु+ भरिः, इतिच्छेदः । ४-धातु+अंशः । ५-तृ + प्राकृतिः, एवं गौरी-- पागच्छति गौर्या• गच्छति । कुरु + इदम् =कुर्विदम् । मातृ+ प्राज्ञा = मात्राज्ञा । ल + आकारः = लाकारः । इत्यादीनि ज्ञेयानि । ६-पादेशाः, शत्रु वदादेशः, आगमश्च मित्रवत् । ७-उद्देश्य प्रतिनिर्देश्ययोः समसङ्ख्यत्वे क्रमात् कार्य स्यादित्यर्थः । ८-हरये-हरे + ए' इति स्थितौ 'एचोऽयवायावः' इत्यनेन एकारस्य अयादेशे हरये इति सिद्धयति ( हरिशब्दस्य चतुर्थ्यामेकवचने रूपमिदम् )। ६-विष्णो + ए । १०-नै+प्रक(:) । ११-पौ+ अक (6)। ऐवं ने + अति नयति. भो+अति = भवति । वटो + ऋक्षः - वटवृक्षः । ग्लै + अति = ग्लायति नौ+ इक (:):- नाविकः । भौ+-टक (6) = भावुकः । इत्यादयः । १:-यि यकारादौ । 'यस्मिन् विधिस्तदादावल्ग्रहणे' इति न्यायात् । आदेश होता है ( वा० संयोगान्त यण के लोप का प्रतिषेध कहना चाहिये ।) २२-रचों को क्रम से अय् , अव् , आय , भाव , आदेश होते हैं अच् परे रहते । २३-सम सम्बंधी विधि ( कार्य ) यथासङख्यता से ( क्रम से) होती है। २४-यकार है आदि में जिसके ऐसा प्रत्यय परे हो तो प्रो ओर औ को अव, आव आदेश होते हैं । ( वा० गो शब्द को वान्त अव् ) आदेश होता है यूति शब्द परे रहते यदि मार्ग का परिमाण बताना हो)। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्सन्धिप्रकरणम यकारादौ प्रत्यये परे ओदौतोरव् श्रव् एतौ स्तः । गव्यम् ) ( ' अध्वपरिमाणे च) ४ गव्यूतिः 'गुणसंक्षा सूत्रम्) २५ देङ गुणः १ । १ । २ । अत् एङ् च गुणसंज्ञ : स्यात् । (तपदेवर्गानों योगफल विधायक सूत्रम ) २६ तपरस्तत्कालस्य १ । १ । ७० । १ तः परो यस्मात्स च तात्परश्वोच्चार्यमाण समकालस्यैव संज्ञा स्यात् । गुणवधायक सूत्रम ) २७ श्राद्गुणः ६ । १ । ८७ । अवर्णादचि परे पूर्वपरयोरेको गुण आदेशः स्यात् । उपेन्द्रः । 'गङ्गोदकम् । २८ उपदेशेऽजनुनासिक इत् १ । ३ । २ । " ११ । नाव्यम् ? १ - 'गोपयसोर्यत्' इति यत् प्रत्ययः, गो + य (म्) इति छेदः । २- - 'नौवयोधनं इति 'यत्', नो + य (म ) । ३ - गोयूं तौ वान्त इत्यनुवर्तते । श्रध्वपरिमाणे ( मार्गपरिमाणे ) वाच्ये गोशब्दस्य 'यूति' - शब्दे परे सति 'श्रव्' श्रादेशः स्यादित्यर्थः । -गव्यूतिः — 'गो + युतिः' इति स्थितौ 'अध्वपरिमाणे च' इत्यनेन प्रोकारस्य श्रवादेशे 'गव्यूतिः' इतिरूनम् क्रोशयुगस्य ( प्रध्त्रपरिमाणविशेषस्य ) ५-अ ( अर्-श्रल् ) ए श्रो, ऐते गुणसंज्ञकाः । ६- समकालस्य = कस्यैव यथा ह्रस्व उच्चार्यमाणो हस्त्रस्यैव बोधको नतु दीर्घानामित्यर्थः । इन्द्रः । ८- गङ्गा + उदकम् । एवं गज + इन्द्रः = - गजेन्द्रः, रमा + ईशः = उदयः = सूर्योदय परीक्षा + उत्सुकः परीक्षोत्सुकः, इत्यादयः । संज्ञयम् । समानकालि ७- उप + रमेशः, सूर्य + = २५ - अत् और एड की गुण संज्ञा होती है २६-तकार है परे जिससे अथवा तकार से परे जो अच, वह उच्चार्यमाण समानकाल का ही बोधक होता है अर्थात् ह्रस्व के साथ 'तू' हो तो ह्रस्व का बोध करायेगा र दीर्घ एवं प्लुत के साथ होगा तो दीर्घ एवं प्लुत का । २७- अवर्ण से अच् परे रहते पूर्व पर के स्थान में गुणरूप एक आदेश होता है । २८ - उपदेश में अनुनासिक च् की इत्संज्ञा होती है । पाणिनि आदि आचार्यो के कथित वर्ण प्रतिज्ञा से अनुनासिक जानने चाहिएँ । लग् सूत्र में स्थित अवर्णं के सहित उच्चार्यमाण रेप 'र' और 'ल' दोनों का बोधक होता है । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - लघुसिद्धान्तकौमुदी 'घ' परमादेशेऽनासिको जिसूज्ञः स्यात् । प्रतिज्ञा नुनासिक्याः पाणिनीयाः । लणसूत्रस्थावर्णेन सहोच्चार्यमाणो रेफोरलयोः संज्ञा । (रल्याने निधीयमानत्यागी रपरकारलावयाचगरिझापासून २४ उरण रपरः १।१।५१ । ऋइति त्रिंशतः संज्ञेत्युक्तम् । तत्स्थाने योऽण् स रपरः सन्नेव प्रवर्तते । कृष्णःि तवल्कारभारयो पनिधानं भूत्रा - ३० लोपः शाकल्यस्य ८।३ । १६ । अवर्णपूर्वयोः पदान्तयोर्यक्योर्लोपो वाऽशि परे। पूर्णाखात परशारयस्यासिङ्घल्पालधांयकाओaniy" ३१ पूर्वत्रासिद्धम् ८।२।१ । १- पाणिनिप्रभृतिप्रोक्ता वर्णाः प्रतिज्ञामानगोष्यानुनासिक्यवन्त इत्यर्थः। 'प्रयमेवम्' इति कथनं प्रतिज्ञा, सा च तत्तद्व्यवहारतोनुमेया, (श० शेखरानुसारमेतत् ) पुरानुनासिकचिह्नमासीत् साम्प्रतं सेखकपाठकप्रमादात्स्खलितम् । २-नतु रट्लाम्, 'प्रत्या हारेषु इतां न ग्रहणम्' इति नियमात् । ३-उ:-प्रण रपरः, इतिच्छेदः । 'उः' इति ऋशब्दस्य षष्ठयेकवचनम्, इयं स्थानषष्ठी । रपरः = प्रत्याहारपर इत्यर्थः 'रटल (ए) इत्यत्र रेफात् लकारान्तर्गताऽकारपर्यन्तं 'र' प्रत्याहारः, तेन ऋस्थाने 'पर' लस्थाने 'अल' । ४-कृष्णद्धिः-कृष्ण+ऋद्धिः' इति स्थितौ पूर्वपरयोः प्रकारऋकारयोः स्थाने 'प्राद्गुणः' इतिसूत्रेण गुणविधौ ‘उरण रपरः' इति रपरत्वे प्रर् गुणो भवति, सिद्धं रूपं कृष्णद्धिरिति । ५-तव + लृकारः । एवं वसन्त + ऋतुः = वसन्ततु: राजा + ऋषिः= राजर्षिः, मम + लकारः = ममल्कारः, इत्यादयः । ६-अधिकारसूत्रमिदम् । '८।२।१।' इतः परं सर्वत्र वाधिक्रियतेऽत एव त्रिपाद्यामपि पूर्व प्रति परं शास्त्रमसिमित्यपि सङ्गच्छते। २६-तीस प्रकार के 'ऋ' के स्थान में होनेवाला अण् रपर होकर प्रवृत्त होता है। ३०-अवर्णपूर्व पदान्त यकार वकार का विकल्प से लोप होता है अश परे रहते। ३१-सपाद सप्ताध्यायीस्थ ( सवा सात अध्यायों) के सूत्रों की दृष्टि में त्रिपादीस्थ '(आठवें अध्याय के तीन पादों के ) सूत्र प्रसिद्ध होते हैं ओर त्रिपादियों में भी पूर्वसूत्र के प्रति पर सूत्र प्रसिद्ध होता है। -- mumme Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्सन्धिप्रकरणम् १३ सपाद - सप्ताध्यायों प्रति त्रिपाद्यसिद्धा त्रिपाद्यामपि पूर्वं प्रति परं शास्त्रमसिद्धम् ! हर इह ' । हरयिह । विष्ण इह । विष्णविह । वृद्धिसंज्ञा सूत्रम् ३२ वृद्धिरादैच १ । १ । १ । आदैच्च वृद्धिसंज्ञा घामक सामान्य सूत्रम ३३ वृद्धिरेचि ६ | १ | ८८ । आदेचि परे वृद्धिरेकादेशः स्यात् । "गङ्गौघः । ' देवैश्वर्यम् । कृष्णौत्कण्ठ्यम् । ३४ 'एत्येधत्सु ६ । १ । ८६ । गुणापवादः । कृष्णैकत्वम् । १ - हरे + इह । विष्णो + इह । अत्र “२२ एचोऽयवायावः " इति सूत्रेण "प्रय्, श्रव्" = श्रादेशयोः सतोः " ३० लोपः शाकल्यस्य " इति पाक्षिके यकारलोपे हर इह, विष्ण इह, इति स्थितिः । नचात्र “ २७ श्राद्गुणः" इति गुणः स्यादिति वाच्यम्, गुणदृष्टौ लोपस्यैवासिद्धत्वात् । एवं शौरे + श्रागच्छ = शौर प्रागच्छ, शौरयागच्छ । प्रभो + इदानीम् = प्रभइदानोम्, प्रभविदानीम् । श्रियै + उत्कण्ठितः = श्रिया उत्कण्ठितः श्रियायुत्कण्ठितः । मानौ + उत्सुकः भाना उत्सुकः, भानावुत्सुकः । गुरौ + श्रायाते गुरा श्रायाते, गुरावायाते, इत्यादिकम् । २ - श्रा ( "श्रार्" - " श्राल्' ) ऐ श्रौ वृद्धिः । ३ - निरवकाशो विधिरपवादः । ४–कृष्णैकत्वम् – 'कृष्ण + एकत्वम्' इति स्थितौ निरवकाशस्वेन श्रपवादभूता वृद्धिः प्रवर्तते । पूर्वपरयोरकारैकारयोः स्थाने 'वृद्धिरेचि' इति सूत्रेण 'ऐ' वृद्धिः सिद्धयति रूपं कृष्णैकत्वम् । गङ्गा + श्रोघः । ६ - देव + ऐश्वर्यम् । ७ - कृष्ण + श्रौत्कण्ठ्यम्, एवँ पञ्च + एते पञ्चैते, तण्डुल + श्रोदनम् = तण्डुलौदनम् । माघव + एघनम् = माघवैधनम्, राम + श्रौत्सुक्यम् = रामौत्सुक्यम्, इत्याद्युदाहरणीयम् । ८-एतिः = इण् ( गरौँ ) । एघति : - एध (वृद्धौ ) । " इश्तिपो धातुनिर्देशे " इत्यागमानुसारं शितपा निर्देशः । - ३२- श्रात् और ऐच को वृद्धि संज्ञा होती है । ३३ - अवर्ण से एच् परे रहते ( पूर्व पर के स्थान में वृद्धि रूप एक आदेश होता है। यह सूत्र गुण का अपवाद है । ३४ अवर्ण से प्रजादि एति एधति और ऊठ परे रहते पूर्व पर के स्थान में Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुदी अवर्णादेजाद्योरेत्येधत्योरूठि च परे वृद्धिरेकादेशः स्यात् । 'पररूपगुणाउपधाराद्या निधार्य पवादः । उपैति । किम -" उपेतः । 'अक्षौहिणी सेना । ૭ ६ मा भवान प्रेदिधत् । (अनादुहित्यामुपसंख्यानम् प्रकारे प्रादहोदो १४ विद्या यांतिभूम) या प्रोतः प्रौदिः । प्रेषः । प्रष्यः । (ऋते च तृतीया - समासे) सुखेन ऋतः सुखार्तः । तृतीयेति किम् - "परमर्त्तः १९ (प्र-वत्सतर- कम्बल-वसनार्ण- दशानामृणे) प्रार्णम् वत्सतरार्णम् इत्यादि । १० १ १२ " 3 १ - " येन नाप्राप्तौ यो विधिरारभ्यते स तस्य बाघको भवती 'ति न्यायेन पररूपम्” इति पररूपस्य 'श्राद्गुणः' इति गुणस्य चापवादोऽयमित्यर्थः । २ - उपैति - 'उप + ऐति' इति स्थितौ 'एङि पररूपमिति' पररूपस्य ' प्राद्गुणः' इति गुणस्य चापवादभूता वृद्धिः "एत्येधत्यूट्सु' इतिसूत्रेण प्रवर्तते सिध्यति रूपम् "उपैति ” इति । एवम् प्रप + एति = प्रपैति । ३ - उप + एधते । एवम् अव + एधसे अवैध से इत्यादि । ४- प्रष्ठ + ऊह । एवं विश्व + ऊहः = विश्वौहः । ५ - उप + इतः श्रत्र एतिनं एजादिः, अतो न वृद्धिः किन्तु गुरणः । ६ - " मा भवान् प्र + इदिधत् " प्रत्रापि एवतिर्नास्ति एजादि:, इति न वृद्धिः किन्तु गुणः । ७- अक्षारणामूहिनीति विग्रहः, सेनाविशेषस्य संज्ञेयम् । "पूर्वपदात्संज्ञाया" मिति णत्वम् । अक्ष + ऊहिनी, ८- प्रशब्दाद् ऊहः, ऊढः, ऊढिः, एषः, एष्यः, एतेषु परतो वृद्धिरित्यर्थः । प्र + ऊढः । प्र + ऊढिः । प्र + एषः । प्र + एष्यः । १०- सुख + ऋतः । ११ - परम + ऋतः प्रत्र कर्मधारयः “परमश्चासौ, - ऋतः इति । १२ - प्रार्णम् - प्र + ऋरणम्' इति स्थितौ गुणं बाधित्वा 'प्रवत्सतर कम्बले 'ति वृद्धौ र परत्वे पूर्वपरयो रकारऋकारयोः 'श्रार्' प्रदेशे 'प्राणम्' इति रूपं सिध्यति । वत्सतर + ऋणम् । कम्बल + ऋणम् कम्बलाणंम् । वसन + ऋणम् = वसनार्णम् । ऋण + ऋ णम् = ऋणाम् । दश + ऋणम् = दशाम् सर्वत्र वृद्धिः । इति च्छेदः । त्र + ऊहः । • - वृद्धिरूप एक आदेश होता है । यह सूत्र पररूप और गुण दोनों का अपवाद है ( वा० अक्षशब्द से ऊहिनीशब्द परे रहते पूर्व पर के स्थान में वृद्धिरूप एक आदेश होता है) । ( वा० प्र-शब्द से ऊह ऊट ऊढि एष एष्य इन शब्दों के परे होने पर पूर्व पर के स्थान में वृद्धिरूप एक आदेश होता है) । (वा० ) अवर्ण से ऋत शब्द परे रहते वृद्धि होती है तृतीया समास में) । ( वा० प्र-वत्सतर- कम्बल - वसन-ऋण- दश इन शब्दों से ऋण शब्द परे रहते पूर्व पर के स्थान में वृद्धिरूप एक आदेश होता है ) । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ पासवासना भजगोन्तोमहादियामरमरमणिधायन अल्सन्धिप्रकरणम् उम.संजास्त ३५ उपसर्गाः क्रियायोगे १ । ४ । ५६ । प्रादयः क्रियायोगे उपसर्गसंशाः स्युः। प्र परा अप सम् अनु अलिस निर् दुस् दुर् वि आप नि अधि अपि अति सु उत् अभि प्रतिपरिउप एते प्रादयः। ३६ २भूवादयो धातवः १।३ । १ । क्रियावाचिनी भ्वादयो धातुसंज्ञाः स्युः । नाता सीतारा ३७ उपसर्गादति धातौ ६।१। हरे लिनिसामसूत्राश अवर्णान्ताहुपसाटकारादौ धातौ परे वृद्धिरेकादेशः स्यात् । प्रार्छति । ३८ एङि पररूपम् ६।१। । श्रादुपसादि कादौ धातौ परे पररूपमेादेशः स्यात् । "प्रेजते । उपोषति। टिचोऽन्त्यादि टि१।१ । ६४ । १-निस् निर दुस् दुर्, पत्र रेफफलं तु निलयते निरयते दुलयते दुरयते इत्यादि लत्वमेव । निस् दुसोस्तु त्वम् “उपसर्गस्यायतो" इति लत्वविधौ प्रसिद्धमेव । २-भूश्च वाश्चेति भूवौ, मादिश्च प्रादिश्चेति मादी, भूवौ आदी येषामिति विग्रहः । भूप्रभृतयो वासहशा इत्यर्थः, सादृश्यं चेह क्रियावाचित्वेन, तदेवाह वृत्तौ क्रियावाचित इत्यादि । ३-प्राति--'प्र+ऋच्छति' इति स्थितौ गुणं बाधित्वा 'उपसर्गाति' इति सूत्रेण वृद्धौ प्रकारऋकारयोः 'पार' मादेशे 'प्राच्छति' रूपं सिध्यति । एवं प्र+ऋच्छत् = प्रान्छेत. उप+ऋच्छत् = उपाच्छंत, इत्यादि । ४-वृद्धयपथादोऽयम् । ५-प्रेजते-'प्र + {जते' इति स्थितौ 'एङि पररूपम्' इति सूत्रेण पूर्वपरयोः स्थाने एकादेशः 'एकार:' सिद्ध्यति रूपं 'प्रेजते' इति । उप+ प्रोषति । एवम्-उप + एषयति = उपेषयति । प्रन-एषयति = प्रेषयति । प्रव+प्रोषति + अवोषति । ३५-क्रिया के योग में प्रादियों की उपसर्ग संज्ञा होती है। ३६-क्रियावाचो भू आदियों की धातु संज्ञा होती है । ३७-अवर्णान्त उपसर्ग से ऋकारादि धातु परे रहते पूर्वपर के स्थान में वृद्धिरूप एक आदेश होता। ____३८ अवर्णान्त उपसर्ग से एङादि धातु परे रहते पूर्व पर के स्थान में पररूप एक आदेश होता है। ३६-अचों के मध्य में जो अन्य अच, वह है आदि में जिस के, उस समुदाय की टि संशा होती है। (वा० शकन्भ्वादि गण पठित शब्दों में पररूप होता है )। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुदी १६ ' धातुमसर्गयोः कार्यमन्तरम्, अन्यद बहिरङ्गम ८ सरकाधु प्रभृति पररुपविधायक वार्तिकम् ... मध्ये योऽन्त्यः स श्रदिर्यस्य तट्टिसंज्ञं स्यात् ( शकन्ध्वादिषु पररूपं वाच्यम्) च 'टेः । २शकन्धुः । कर्कन्धुः । मनीषा । श्राकृतिगणोऽयम् - मार्तण्डः वर्णाद् ओमाडो परयो पररूपविधायाचं सूत्रम् ४० ओमाङ ६ । १ । ६५ । श्रोमि श्रङि 'चाSSत् परे पररूप मेकादेशः स्यात् । शिवाय नमः | शिव + एहि । एकादेश स्याम्ता दिन र भावविधाजनक प्रतिदेशसूत्रम् ४१ अन्तादिवच्च ६ । १ | ८५ | 19 योऽयमेकादेशः स पूर्वस्यान्तवत् परस्यादिवत् । शिवेहि " । विधायक सूत्रम्) ४२ अकः सवर्णे दीर्घः ६ । १ । १०१ । १ - टिसंज्ञकस्य पररूपमित्यर्थः २ - शकन्धुः - शक + अन्धुः' इति स्थितौ 'प्रकः सवर्णे दीर्घः' इत्यनेन प्राप्तं दीर्घ बाषित्वा शकन्ध्वादिषु पररूपं वाच्यम्' इति वातिकेन पररूपैकादेशः प्रकारः सिध्यति रूप 'शकन्धु' रिति । कक + अन्धुः । मनीषा -- 'मनस् + ईषा' इति स्थितौ शकन्ध्वादिस्वात् टेः पररूपे 'मनीषा' इतिरूपम् । अत्र प्रस् इत्यस्य 'प्रचोsन्त्यादि टिः' इत्यनेन टिसंज्ञा । तेन सीमन्तः ( सीमन् + प्रन्तः ) हलोषा । ( हल + ईषा ) लाङ्गलीषा ( लाङ्गल + ईषा ) पतञ्जलिः ( पतन् + प्रञ्जलिः ) । सारङ्गः ( सार + अङ्गः ) । कुलटा ( कुल + मटा ) । ४- मातेण्डः - 'मूत + प्रण्डः' इति छेदे शकन्ध्वादिस्वात् पररूपे मृतण्ड: । 'तत मागत' इति भ्ररण् प्रत्यये प्राषिवृद्धौ सिंदुद्ध्यति रूपं मार्तण्ड इति । ५- प्रात् प्रवर्णात् प्रोमि प्राङि च परे पररूपमेकादेशः, इत्यर्थः । ६- शिवाय + ग्रॉ नमः ७- शिवेहि शिव + ना + इहिं, इति स्थितौ धातूपसगं कार्यस्वेनान्तरङ्गत्वाद् “२७ प्राद्गुणः" इति गुणे 'एहि' । बहिरङ्गत्वेन नात्र सवर्णदीर्घः । 'प्रसिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे', धातुपसर्गयोः कार्यमन्तरङ्गम्' इति परिभाषाद्वयमत्रापेक्षते । शिनेहिवत कृष्णेहि, प्रवेहि- इत्यादयः । ४० - श्रवर्ण से श्रम् और श्राङ परे रहते पूर्व पर के स्थान में पररूप एक श्रादेश होता है । पूर्व पर के स्थान में हुआ एक आदेश पूर्व के अन्तवत् तथा पर के श्रादिवत् होता है । ४२- काकू से सवर्ण 'अच् परे रहते पूर्व पर के स्थान में दीर्घरूप एकादेश होता है । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवरूपा अजेजलाशलासंगोरेर परिमात्र - সমকাল असन्धिप्रकरणम् अकः सवर्णेऽचि परे पूर्वपरयोर्दीर्घ एकादेशः स्यात् । 'दैत्यारिः। श्रीशः। विष्णूदयः । होतृकार लियाय सुना ४३ एङः पदान्तादति ६।१।१०६ । पदान्तादेोऽति परेपूर्वरूपमेकादेशः स्यात् । हव । विष्णोऽव । ४४ सर्वत्र विभाषा गोः ६।१।१२२ । लोके वेदे चैङन्तस्य गोरति वा "प्रकृतिभावः पदान्ते । गोत्रम् गोऽप्रम् । एजन्तस्य किमु चित्रग्वाम् । पदान्ते किम्-'गोः॥ ओमा अनकाल शिव सर्वस्य १।१ । ५५ । इति प्राप्त हनेमालोडन्यारेशलनियाम मशिनासूराम ४६ डिच्च १ । १ । ५३ । दिनेकालप्यन्त्यस्यैव स्यात् लायसूत्रार ४७ अबङ स्फोटायवस्य ६ । १ । १२३ । -दैत्यारिः-- दैत्य + परिः इति स्थितौ 'प्रकः सवर्णे दीघः' इति सूत्रण पूर्वपरयोरकारयाः एकादेशे दीघे सति सिध्यति रूपं 'दैत्यारिः' इति । विष्णु+ उदयः । श्री + ईशः । होत +ऋकारः। एवं खर+परिः - खरारिः भानु+उदयः = भानूदयः, लक्षमा+ईशः =लक्ष्मीशः, इत्यादि । २-प्रयवादेशबाधकं सूत्रमिदम् । ३-हरे + वं। ४-विणो + भव । एवं-स्थले + पत्र - स्पलेऽत्र, कृष्णो + अहम् =कृष्णाऽहम् ५-प्रकृतिभावः = प्रकृत्या यथावस्थितस्वरूपेण भवनं सः तादवस्थ्यमित्यर्थः, संहिताकर्याभाव इति यावत्। ६-गो+अग्रम् । “४३ एक पदान्ता " इति पूर्वरूपे 'गोऽयम्' । ७-चित्रगु+ अग्रम् । ६-गो+मस् (जस्) ४३-पदान्त एङ से अत् परे रहते पूर्व पर के स्थान में पूर्वरूप एकादेश होता है। ४४-लोक और वेद में एडन्त गोशब्द को विकल्प से प्रकृतिभाव होता है पदान्त में। ४५-अनेकाल और शित् आदेश सम्पूर्ण के स्थान में होता है । ४६-ङित अनेकाल भी अन्य को ही होता है । ४७-पदान्त में एडन्त गोशन्द को अवङ् विकल्प से होता है.अच् परे रहते । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ सासन लघुसिद्धान्तकौमुद्याम __पदान्ते एङतस्य गोरवङ् वाऽचि । 'गवानम् । गोऽप्रम् । पदान्ते किम् गवि ॥ काले मेरे ओरखडादेशनिधायक सूत्रा ४८ इन्द्र च ६।१ । १२४।। गोरवङ् स्यादिन्द्रनगवेन्द्र अत्रम ४६ दूराद्ध ते च ८।२।८४ । दूरात् सम्बोधने वाक्यम्य दो प्लुतो वा। ५० प्लुत-प्रगृह्या अचि नित्यम् ६ । १ । १२५ । एतेऽचि प्रकृत्या स्युः। आगच्छ कृष्ण ३ अत्र गौश्वरति । ५१ ईदूदेद् द्विवचनं प्रगृह्यम् १११।११। ईदूदेदन्तं द्विवचनं प्रगृह्य स्यात् । हरी "एतौ। विष्णू इमौ। ६ गङ्गे अमू। १-गवानम् - 'गो- अग्रम्' इति स्थितौ 'एचोऽयवायावः' इत्यनेन प्राप्तम् अवादेशं बाधित्वा 'सर्वत्र विभाषा गोः' इत्यनेन प्राप्तं प्रकृतिभावमपि परत्वाद् बाधित्वा 'अवङ स्फोटायनस्येति अवङि 'अकः सवर्णे' इत्यनेन दीर्घ च कृते गवाग्रम् इति रूपम्। पक्षे 'सर्वत्र विभाषा गोः' इत्यनेन प्रकृतिभावे गो अग्रम् इति रूपं सिध्यति । प्रकृतिभावाभावपक्षे च "एङः पदान्तादति' इत्यनेन पूर्वरूपे गोऽग्रम इति रूपम)। एवं गो+प्रक्षः = गवाक्षः, परमत्र व्यवस्थितविभाषया नियमवर । इति बोध्यम् । तथाचोक्तम् देवत्रातो गलो ग्राहः इति योगे च सदविधिः । मिथस्तेत विभाष्यन्ते गवाक्षः शंसितव्रतः ।। २-गो+इ (ङि)। ३-गो+इन्द्रः, गव + इन्द्रः, गुणे-गवेन्द्रः । ४-पागच्छ कृष्ण३ +अत्रगौश्चरति, इह प्रकृतिभावान्न सवर्णदीर्घः । ५-ऐवं धनुषी एते, द्वौ भानू उदयेते । द्वे कुले उत्कृष्ट एते स्तः । इत्युदाहार्यम् । ६-गङ्गम् गङ्गे + अमू इति स्थिती 'एचोऽयवा..' इत्ययादेशं बाधित्वा 'ईदूदेद्विवचनं प्रगृह्यम्' इति सूत्रेण गङ्गे इत्यस्य प्रगृह्यसंज्ञायां 'प्लुत प्रगृह्या अचि नित्यम्' इति प्रकृतिभावे सिध्यति रूपं 'गङ्गे अमू' इति । ४८-गो शब्द को अवङ् होता है इन्द्र शब्द परे रहते। ४६-दूर से सम्बोधन में वाक्य की टि को प्लुत होता है विकल्प से । ५०-'लुतं और प्रगृह्य अच् परे रहते सदा प्रकृतिभाव से होते हैं। ५१-ईदन्त उदन्त और एदन्त द्विवचन प्रगमसञ्जक होता है। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असन्धिप्रकरणम् ५२ अदसो मात् १ । १ । १२ । अस्मात्परावीदूतौ' प्रगृह्यौ स्तः । अमी ईशाः। रामकृष्णावमू आसाते। मात्किम् -अमुकेऽत्र । ५३ चादयोऽसचे १ । ४ । ५७ । अद्रव्यार्थाश्वादयो निपाताः स्युः । ५४ प्रादयः १।४ । ५८ । एतेऽपि तथा । ५५ निपात एकाजनाङ १।१।१४ । एकोऽज निपात आवर्जः प्रगृह्यः स्यात् । इ इन्द्रः । उ उमेशः । ("वाक्यस्मरणयोरङित् ) आ एवं नु मन्यसे। आ एवं किल तत् । अन्यत्र ङित् । ईषदुष्णम् ओष्णम्। ५६ ओत् १ । १ । १५ । १-"५१ ईदूदेद् द्विवचनं प्रगृह्यम्" इत्यतः ईत् ऊत् च अनुवर्तते, प्रस्माद् =मान्ताददस इत्यर्थः । २-अमीईशाः-'प्रमो+ ईशाः' इति स्थितौ 'पादसो मात्' इति सूत्रेण मान्ताददसः परस्य ईकारस्य प्रगृह्यसंज्ञायां सवणंदोघं बाधित्वा 'प्लुतप्रगृह्या प्रचि नित्यम' इत्यनेन प्रकृतिभावे सिध्यति रूपम 'प्रमी ईशाः' इति । ३ असति माद्ग्रहणे एकारोऽप्यनुवर्तेत. सति तु माद्ग्रहणेऽयम्भवात् नानुवृत्तिः तेन अमुकेऽत्र ( अमुके+पत्र ) इत्यत्र न प्रकृतिभावः । किन्तु पूर्वरूपम् (अमुके इति जसि रूपम् )। ४-निपाता इत्यर्थः । ५-ईषदर्थे क्रियायोगे मर्यादाभिविधौ च यः । एतमातं हितं विद्याद् वाक्यस्मरणयोरङित् ॥" ६-प्रा + उष्णम् , अत्र गुणः ईषदुष्णमित्यर्थनिर्देश; । ५२-मान्त श्रदस शब्द से परे ईकार, ऊकार की प्रगृह्य सज्ञा होती है । ५३-अद्रव्यार्थक 'च' आदि निपात सज्ञक होते हैं । ५४-अद्रव्यार्थक 'प्र' आदियों की भी निपात सञ्ज्ञा होती है। ५५-श्राङ को छोड़कर एक अच् रूप निपात प्रगृह्यसज्ञक होता है। [वा. वाक्य और स्मरण अर्थ में 'श्रा' ङित् नहीं होता ] अन्यत्र ङित् होता है। ५६-श्रोदन्त निपात प्रगृह्य सज्ञक होता है । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ओदन्तो निपातः प्रगृह्यः । अहो 'ईशाः । ५७ संबुद्धौ शाकल्यस्येताक्नार्षे १ । १ । १६ । सम्बुद्धिनिमित्तक अोकारो वा प्रगृह्योऽवैदिके इतौ परे। 'विष्णो इति, विष्ण इति, विष्णविति । ५८ मय उओ वो वा ८।३ । ३३ । मयः परस्य उओ वो वा अचि । किम्युक्तम्, किमु उक्तम् । ५६ इकोऽसवणे शाकल्यस्य ह्रस्वश्च ६ । १ । १२७ । पदान्ता इको हस्वा व स्युरसवर्णेऽचि । हस्वविधिसामर्थ्यान्न स्वरसन्धिः । 'चकि अत्र, चक्रयत्र । पदान्ता इति किम् ६. अचो रहाभ्यां द्व८।४ । ४६ । -एवं मिथो प्रागच्छतः । महो प्रद्य । प्रथो अपि, इत्यादिकम् । २-विष्णो इति-'विष्णो+इति' इति स्थितौ 'सम्बुद्धौ शाकल्यस्येतावनार्षे' इत्यनेन औकारस्य प्रगृह्यसंज्ञायाम् एषोऽयवायावः' इति प्रवादेशं बाधित्वा 'प्लुतप्रगृहा. अचि नित्यम्' इत्यनेन प्रकृतिभावे सिध्यति रूपं विष्णो इति' । (प्रगसंज्ञाभावपक्षे च मवादेशे 'लोपः शाकल्यस्य' इति वैकल्दिके वकारलोपे 'विष्ण इति' 'विष्णविति' इति रूपद्वयम्) एवं भानो + इति, भान इति, भानविति । ३- वरिणत्यर्थः । ४-चकि अत्र-'बी + पत्र' इति स्थितौ इको यणचि' इति प्राप्तं यणं बाषित्वा 'इकोऽसवणे शाकल्यस्य ह्रस्वश्च' इति वैकल्पिके ह्रस्व सिध्यति रूपं 'चकिमत्र' । नचात्र ह्रस्वे कृते पुनयं स्यादिति वाच्यम् , ह्रस्वविधानसामर्थ्यात् पुनर्यणोप्राप्तेः । ह्रस्वाभावपक्षे च यरिण कृते 'चन्यत्र' इति रूपम् । एवं धनी + प्रागग्वति धनि पागच्छति, धन्यागच्छति इत्यादि । ५७-सम्बुद्धिनिमित्तक श्रोकार विकल्प से प्रगृह्यसझक होता है अवैदिक 'इति' शब्द परे रहते। ५८-मय से परे उञ् को वकार होता है विकल्प से अच् परे रहते । ५६-पदान्त इक् को ह्रस्व होता है विकल्प से असवर्ण अच् परे रहते । ह्रस्वविधानसामर्थ्य से सन्धि-कार्य ( यण) नहीं होता। ६०-अच से परे जो रेफ और हकार उनसे परे वर्तमान यर को द्वित्व होता है विकल्स से (वा० समास में ह्रस्व और प्रकृतिभाव नहीं होता )। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हल्सन्धिप्रकरणम् २१ अचः पराभ्यां रेफहकाराभ्यां परस्य यरो वे वा स्तः । 'गौथ्यौं। (न समासे) वाप्यश्वः। ६१ ऋत्यकः ६ । १। १२८ । ऋति परे पदान्ता अकः प्राग्वद्वा । ब्रह्म ऋषिः । "ब्रह्मर्षिः । पदान्ताः किम्--प्रार्छत् । इत्यच्सन्धिः अथ हलसन्धिप्रकरणम् ६३ स्तोः श्चुना श्चुः ८।४।४० । सकार-तवर्गयोः शकार चवर्गाभ्यां योगे शकार-चवर्गीस्तः। रामश्शेते। रामचिनोति । सच्चित् । शाजियः।। १-गौरी+ौ, यण। २- समासे इस्वः 'प्रकृतिभावश्च' न भवतीत्यर्थः । ३-वाप्यश्वः बापी+प्रश्वः इत्यत्र 'इको याचि' इत्यनेन झारस्य प्रकारे यणि सिध्यति 'वाप्यश्वः' इति (नयात्रापि चकिपत्र इतिवत् हस्वसमुचितः प्रकृतिभावः स्यादिति वाच्यम् , 'न समासे' इति तन्निषेधात् ) एवं सुधी+ उपास्यः सुप्युपास्यः, मदी+उदयः = नादय इत्यादावपि न ह्रस्वः । ४-ह्रस्वा वा इत्यर्थः। ५-ब्रह्मा+ ऋषिः। -मा+ऋच्छत् । पाटरचेति वृतिः, नात्र माट् पदान्त इति न ह्रस्वः प्रकृतिभावश्चेति । इत्यच्सन्धिप्रकरम् अथ हलसन्धिः रामश्शेते रामस् + शेते इति स्थितौ 'स्तोः रघुना शुः' इति सूत्रेण शकारयोगे सकारस्य शकारादेशः सिध्यति रूपं 'रामरशेते' । रामस् + चिनोति । सत्+चित् । साङ्गिन् + जयः, इति । एवं कृष्णस + चपनः = कृष्णश्चपलः, नारदस् + शशाप - नारदरशशाप, प्रामात् +चलितः = ग्रामाच्चलितः, इत्यादि बोध्यम् । अत्र निमित्तकमिणोर्न यथासक्यम् , '१२ शात्' इति ज्ञापकात्।। ६१-हस्व ऋकार परे रहते पदान्त अक को ह्रस्व होता है विकल्प से । इत्यचसन्धिः * प्रथ हलसन्धिः . ६२-सकार तवर्ग को सकार चवर्ग के योग में शकार चवर्ग होते हैं। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ६३ शात् ८ । ४ । ४४। शात् परस्य तवर्गस्य चुत्वं न स्यात् । विश्नः' । प्रश्न; । . ६४ ष्टुना ष्टुः ८।४ । ४१ । - स्तोः ष्टुना योगे ष्टुः स्यात् । ररामषष्ठः। रामष्टीकते। पेष्टा । तट्टीका । चक्रिण्ढौकसे। ६५ न पदान्ताट्टोरनाम् ८ । ४ । ४२ । पदान्तादृवर्गात परस्याऽनामः स्तोः ष्टुर्न स्यात । षट्सन्तः । षटते । पदान्तात किम.-ईटे । टोः “किम्-सपिष्टमम् । (अनाम-नवति-नगरी लामिति वाच्यम् ) 'घण्णाम् । षण्णवति । ' षण्णगर्यः । -विश् +न (:) = विश्नः । प्रश् + न () प्रश्नः। विच्छच्चधातुभ्यां 'यजयाच यतविच्छाच्छरक्षो नह' इति नङ प्रत्यये "च्छ वोःशूडनुनासिके च” इति शस्वम् । २-रामषष्ठः-'रामस्+-षष्ठः' इति स्थितौ 'ष्टुनाष्टुः' इति सूत्रण षकारयोगे सकारस्य षकारादेशः सिध्यति रूप 'रामष्षष्ठः' । रामस्+टीकते। पेष् + ता। तत् + टीका । पनि+टीकसे । ३-अनामिति लुप्तषष्ठीकम् । ४-ईट ते इति छेदः । ५ ष्टुपदानुवृत्तौ सस्यामपि पदान्ते षकारस्य जश्त्वेन डकार एव लप्स्यते इति पदान्ते षकारस्यासम्भवात न दोषः, इति प्रश्नाशयः । ६-तत्रोत्तरम्-सपिष्टमम्, सपिंष --तम (म् ), पत्र 'हस्वात्तादौ ताडते' इति विहितस्य षकारस्याऽसिद्धतया जश्त्वाऽसम्भवेन (पदान्ते) षकार एव श्रूयते, इति तद्व्यावृत्यर्थ 'टो:' ग्रहणमवश्यं कर्तव्यम्, अन्यथा षकारस्याप्यनुवृत्तौ अत्र दोषः स्यात् । ७ - नाम् नवति-नगरीभिन्नानां ष्टुत्वनिषेध इति वाच्यमित्यर्थः । ८-षड्+नाम्, परस्य नकारस्य ष्टुस्वेन रणवम , पूर्वस्य डकारस्य तु 'प्रत्यये भाषायां नित्यम इति अनुनासिको गकारः 'षराणाम् । ६-षड+ नवतिः, '६८ यरोऽननामिके' इति डकारस्य वैकल्पिकोऽनुनासिकः णकारः। (परस्य = (नस्य) ष्टुत्वं णकारः) पो परणवतिः षणगर्यः, इत्यपि । १०-षड+नगर्यः, अत्र पूर्ववत् सिद्धिः। ६३-शकार से परे तवर्ग को चुत्व नहीं होता। ६४-सकार तबर्ग को षकार टवर्ग के योग में षकार टवर्ग होते हैं। ६६-दान्त स्वर्ग से परे नाम भिन्न सकार तवर्ग को ष्टुत्व नहीं होता। (वा पदान्त वर्ग से नाम-नवति-नगरीभिन्न सकार तवर्ग को ष्टुत्व नहीं होता, ऐसा कहना पाहिए ।) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इल्सन्धिप्रकरणम् ६६ तोः पि ८।४।४३। न ष्टुत्वम् । सन्षष्ठः। ६७ झलां जशोऽन्ते ८।२।३६ । पदान्ते मलां जशः स्युः । वागीशः । ६८ यरोऽनुनासिकेऽनुनासिको वा ८।४।४५ । यरः पदान्तस्यानुनासिके परेऽनुनासिको वा स्यात् । एतन्मुरारिः, एतमुरारिः । (प्रत्यये भाषायां नित्यम् ) "तन्मात्रम् । चिन्मयम् । ६६ तोलि ८।४।६० । तवर्गस्य लकारे परे परसवर्णः । तल्लयः । विद्वॉल्लिखति । तस्यानुनासिको लः। १-तवर्गस्य षकारे परे न ष्टुत्वमित्यर्थः । २-वाक + ईशः + | ३-एतन्मुरारि:एतद् + मुरारिः इति स्थितौ 'यरोऽनुनासिकेऽनुनासिको वा' दकारस्य नकारे कृते सिध्यति रूपम् एतन्मुरारिः' इति । (अनुनासिकाभावपक्षे 'एतमुरारिः' इति ।) एवं वाक् + मधु = वाङ्मधु, सत् + मनोहरम् सन्मनोहरम् , उद् + मानम् = उन्मानम् । ऋक् + मन्त्रः = ऋमन्त्रः । दधिमुट+माद्यति दधिमुरमाद्यति, इत्यादि ज्ञेयम् । ४-लोके प्रत्यये परतो नित्यमनुनासिक इत्यर्थः । ५-तन्मात्रम् - 'तद् मात्रम्' इति स्थिती 'प्रत्यये भाषायां नित्यम् ' इति वात्तिकेन दकारग्य नित्यमनुनासिको नकारः, सिध्यति ख मात्रम् ' इति (मत्र परिमाणे मात्रच प्रत्ययः)। चित् मय (म्) एवं-विपद् + मय (म्) = विपन्मयम् , अप् + मात्र (म् ) = अम्मात्रम् , अप् + मय (म् ) = अम्मयम् इत्यादि इ-तद् + लयः । विद्वान् + लिखति । एवं विपद् + लीनः - विपल्लीनः । कुशान+ मावि = कुल्लाति, इत्यादिकं बोध्यम् । ६६-तवर्ग को षकार परे रहते ष्टुत्व नहीं होता। ६७-पदान्त में झलों को जश् होते हैं । ६८-प्रदान्त यर् को अनुनासिक परे रहते अनुनासिक विकल्प से होता है ( वा० लोक में प्रत्ययावयव अनुनासिक परे रहते पदान्त यर् को नित्य अनुनासिक होता है)। ६६-तवर्ग को लकार परे रहते परसवर्ण होता है । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिदधान्तकौमुद्याम् ७० उदः स्थास्तम्भोः पूर्वस्य ८।४।६१ । उदः परयोः स्थास्तम्भोः पूर्वसवर्णः। ७१ तस्मादित्युत्तरस्य १।१ । ६७ । पञ्चमीनिर्देशेन क्रियमाणं कार्य वर्णान्तरेणान्यवहितस्य परस्य ज्ञेयम् । ७२ आदेः परस्य १।१ । ५४ । परस्थ यद् विहितं तत्तस्थादेवोध्यम् । इति सस्य 'थः । ७३ सरो झरि सक्र्णे ८।४ । ६५ । हलः परस्य मरो वा लोपः सवर्णे झरि । ७४ खरि च ८।४ । ५५ । सरि मालां वरः स्युः। इत्युदो दस्य तः । 'उत्थानम् । उत्तम्भनम् । ७५ झयो होऽन्यतरस्याम् ८ । ४ । ६२ । १-विवार-श्वासाऽघोष-महाप्राणप्रयत्नसाहश्यात् । एवं भूतान्तरतम्य ( सादृश्य )परीक्षायामेव बाह्यप्रयत्नानामुपयोगः । २-उत्थानम्-'उद्+स्थानम्' इति स्थिती 'उदः स्थास्तम्भोः पूर्वस्य' इति सूत्रेण सकारस्य स्थाने पकारः पूर्वसवर्णः, 'उद् ५ थानम्' इति जाते, 'झरो झरि सवणे' इत्यनेन पूर्वकारस्य विकल्पेन लोपे दस्य चत्वेन तकारे सिद्ध रूपम् 'उत्थानम् ' इति । (मत्र यचपि तस्मादित्युत्तरस्य' इति परिभाषया 'स्था' इत्यस्य पूर्वसवर्णः प्राप्नोति तथापि 'मादेः परस्य' इति सूत्रेण प्राविभूतस्य सकारस्य स्थाने भवति)। उद्+स्तम्भनम् । एवम्-उद्+स्थापयति - उत्यापयति । .०-उद् से परे वर्तमान स्था और स्तम्भ को पूर्वसवर्ण होता है । ७१-पञ्चमीनिर्देश से किये जानेवाला कार्य अन्य वर्णो के व्यवधान से रहित पर के स्थान में होता है। ७२-पर को विधान किया गया कार्य पर के आदि को होता है। ७३-हल से परे झर का विकल्प से लोप होता है सवर्ण झर् परे रहते । ७४-खर् परे रहते झलों को चर् होते हैं। ७५-झय से परे हकार को पूर्वसवर्ण होता है विकल्प से । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हल्सन्धिप्रकरणम् २५ झयः परस्य हस्य वापूर्वसवर्णः । नादस्य घोषस्य संवारस्य महाप्राणस्य हस्य तादृशो 'वर्गचतुर्थः । वाग्धरिः, वाग्हरिः। ७६ शश्छोऽटि ८।४। ६३ । भयः परस्य शस्य छो वाऽटि । तद् शिव इत्यत्र दस्य श्चुत्वेन जकारे कृते 'खरि चेति जकारस्य चकारः। तच्छिवः, तशिवः (छत्वममीतिवाच्यम) तच्छलोकेन। ७७ मोऽनुस्वारः ८।३ । २३ । मान्तस्य पदस्यानुस्वारोहलि । हरिं वन्दे । ७८ नश्चापदान्तस्य झलि ८।३ । २४ । नस्य मस्य चापदान्तस्य झल्यनुस्वारः "यशांसि । श्रास्यते । झलि किम्- मन्यसे। १-धकारः । २-वाग्धरिः-'वाक् + हरिः' इति स्थितौ 'झलां जशोऽन्ते' इत्यनेन ककारस्य गकारे कृते 'झयोः होऽन्यतरस्याम' इति हकारस्य नाद-घोषसंवार-महाप्राणप्रयलस्य तादृशो वर्गचतुर्थों धकार मादेशः, सिध्यति रूपं 'वाग्धरिः' इति (पूर्वसवर्णाभावपक्षे तु वागहरिः इति ) एवं तद् + हानम् - तबानम् । सम्पद +हानिः - सम्पदानिः । ककुभ + हासः = ककुम्भासः, इत्यादि ज्ञयम् । ३-तच्छिवः-'तद् + शिव' इति स्थितौ 'स्तोः श्चुनाश्चुः' इति सूत्रेण दकारस्य जकारे 'खरि च' इति जकारस्य चकारे 'तच् शिवः' इति जाते 'शश्खोऽटि' इति सूत्रेण शकारस्य छकारादेशे सिध्यति रूपं तच्छिवः' इति । चत्वाभावपक्षे 'तच् शिवः' इति । तद्+श्लोकेन = तच्छ्लोकेन। एवम् एतद्+शान्तम् - एतच्छान्तम् । ४-हरिम् + वन्दे । ५-यशांसि-यशान्+सि' इति स्थितौ 'नश्चापदान्तस्य झलि' इति सूत्रेण मलप्रत्याहारघटिते सकारे परतः अपदान्तस्य नकारस्यानुस्वारे कृते सिद्ध रूपं 'यशांसि' ६-पाक्रम्+स्यते, एवं वासान+सि = वासांसि । प्रणम्+ स्यते = प्रणंस्यते, इत्यादि बोध्यम्। ७-मन्+यसे । ७६-मय से परे श को छ होता है अट् परे रहते विकल्प से (वा०-मय से परे श को छ हो विकल्प से अम् परे रहते, ऐसा कहना चाहिए )। ७७-मान्त पद को अनुस्वार होता है हल् परे रहते। ७८-अपदान्त नकार मकार को अनुस्वार होता है झल परे रहते । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ७६ अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः ८ । ४ । ५८ । स्पष्टम् ' । शान्तः । ८० वा पदान्तस्य ८ । ४ । ५६ । *त्वङ्करोषि त्वं करोषि गमनाद सूत्रम् ८१ मो राजि समः क्वौ ८ । ३ । २५ । क्विबन्ते राजतौ परे समो मुख्य म" एव स्यात् । सम्राट् । अनुस्वार बाधक सूत्रम ८२ हे मपरे वा ८ । ३ । २५ । अनुस्वारस्य यव विधायक वार्तिकम् मपरे हकारे मस्य मो वा । 'किम्ालयति, किं लयति ( यवलपरे'यवला वा ) 'किँयूहाः, किंह्यः । किँव्हलयति, किंह्वलयति । किंल्ह्लादयति, किंहादयति । E " = १ - (प्रपदान्तस्य) अनुस्वारस्य ययि परे (नित्यं ) परसवर्णः स्यादित्यर्थः २- शाम् + त ( : ) - शान्तः । एवम् प्रङ्कितः, अचितः कुण्ठितः, ग्रन्थः, दान्तः । गुम्फितः । ३ - पदान्तस्यानुस्वारस्य ययि परे पर-सवर्णों वा स्यादिति सूत्रार्थः । पदान्ते विकल्पः, अपदान्ते नित्यमिति फलितम् । ४- त्वम् +करोषि "मोऽनुस्वारः " त्वं करोषि, पाक्षिकपरसवर्णः - त्वङ्करोषि । एवं त्वं + पचसि त्वम्पचसि त्वं पचसि वा, मृत्यु + जय: : मृत्युञ्जयः, मृत्यु ंजयः । दानं यच्छति = दानंय्यच्छति, दानंयच्छति वा । संवत्सरः संव्वत्सरः संवत्सरः । सुन्दरं + लिखति = सुन्दरल्लिखति, सुन्दरं लिखति । श्रहं + लिखामि अर्हल्लिखामि ग्रह लिखामि इत्यादि । ५ - मकारस्य मकारविधानम् श्रनुस्वारबाघनार्थम्, एवमग्रिमसूत्रेऽपि ।। ६ - सम् + राट् श्रज्झीनं परेण संयोज्यम् । ७- किम् + ह्यलयति, पक्षेऽनुस्वारः । ८ - मकारस्येति सम्बन्धः, हे इत्यस्यानुवृत्तिः । तथा चायमर्थः-यवलपर के हकारे परे मकारस्य क्रमशो यवला वा भवन्ति, पक्षेऽनुस्वारः । " ९- किम्+ह्यः । किम् + ह्वलयति । किम् + ह्लादयति । सर्वत्र पक्षेऽनुस्वारः । १ ७६ - अनुस्वार को यय् परे रहते परसवर्ण होता है । ८० - पदान्त अनुस्वार को यय् परे रहते विकल्प से परसवर्ण होता है । को ८१ - क्विनन्त राज् धातु परे रहते सम् के म् को मकार हो होता है ( अर्थात् म् अनुस्वार नहीं होता) | ८२-मपरक हकार परे रहते म् को म् विकल्प से होता है । ( वा०-य-व-ल-परक हकार परे रहते मकार को क्रम से य-व-ल होते हैं विकल्प से ] । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ हल्सन्धिप्रकरणम् मलामानिघिसूत्रम् ८३ नपरे नः ८।३।२७ । नपरे हकारे मस्य नो वा । 'किन्हुतः, किंगुतः । গুয়ামুল্য ८४ डः सि धुट ८।३।२६ । डात्परस्य सस्य धुड़ वा। टिकिरायन्तानयव विधानपरिभामा सूत्रा ८५ आद्यन्तो टकितो। १।१। ४६ । टिकितौ यस्योक्तौ तस्य कमादायन्ताव्यवौ स्तः । षट्त्सन्तः, षट्सन्तः। • ८६ लोः कुक टुक शार।३। २८ । वा स्तः (चयो द्वितीयाः शरि पौष्करसादेरिति वाच्यम्) "पाषष्ठः, प्राष्टिः, प्रापष्टः । सुगषष्ठः, सुगण्टषष्ठः सुगणपष्टः । ८७ नश्च ।३।३०। निधिसूत्र नान्तात्परस्य सस्य धुड़वा । 'सन्त्सः, सन्सः। गागमनिविसेगम ८८ शि तुक ८।३॥३१॥ प्रसन्ना) १-किम् + नुते । २-षड् + सन्तः, “७४ खरि च" इति चवम् षट्सन्तः । 1-क-च-ट-त-पामित्यर्थः । ४-ख-छ-ठ-थ-फा इत्यर्थः ।.५-प्राङ् षटः । ६-कष संयोगे क्षः । ७-सुगण + षष्ठः । ८-सन्+सः सनस्सः, एवं विद्यापिन् + सहस्व, विद्यापिनत्सहस्व, छात्रान् + स्वापय - छात्रान्त्स्वापय इत्यादि । ८३-नपरक हकार परे रहते म् को में होता है विकल्प से । ८४-ड से परे स को धुट् का श्रागम होता है विकल्प से । ८५-टित् कित् जिसको कहे जायें क्रम से उसके आदि और अन्त अययव होते है; अर्थात् टित् आदि, कित् अन्त । कार णकार को कुक और टुक का आगम होता है शर् परे रहते क्रम से । (वा०-चयों को द्वितीय वर्ण होते हैं शर् परे रहते पौष्करसादि ऋषि के मत में ) । ८७-नान्त से परे स को धुट का श्रागम होता है विकल्प से । -पदान्त नकार को शकार परे रहते तुक् का श्रागम होता है विकल्प से । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ सानाभार लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् पदान्तस्य नस्य शे परे तुग्वा । 'सम्छम्भुः, सन्छम्भुः सञ्चशम्भुः, सञ्शम्भुः। ८६ ङमो ह्रस्वादचि ङमुण नित्यम् ८ । ३ । ३२ । ह्रस्वात् परो यो ङम् तदन्तं यत्पदं तस्मात् परस्याचो नित्यं ङमुट् । प्रत्पङडात्मा । सुगरणीशः। 'सन्नच्युतः। ६० समः सुटि ८।३।५। समो रुः सुटि। १-सन्+शम्भुः, इत्यत्र नस्य विकल्पेन तुगागमे सन्त + शम्भुः, "शश्वोटि" इति शस्य वा छत्वे सन्तु + छम्भु, "स्तोश्चुनारचु" इति श्चुस्वेन 'तस्य च 'न'-स्य 'अ' सन्छम्भुः । “झरो झरि सवर्णे" इति वा चलोपे १ सम्यम्भुः । मोपाभावे २ सन्न्छम्भुः । छत्वाभावे सुकि च सति ३ सम्चशम्भुः। तुग-मावे ४ बनशम्भुः । एवं-बासान्छास्ति, बालाच्छास्ति, बालान्वशास्ति बालाशास्ति, इत्यादि । अयं चात्र रूपसंग्रहश्लोकः __ "बछौ बचछा बचशा अशाविति चतुष्टयम् । . रूपाणामिह तुक-छत्व-चलोपानां विकल्पनात् ॥" २-मुट ,हम् = ( णनम् ) प्रत्याहारः, तदन्ते 'उट् प्रत्येकान्वयी, "सम्झाया कृतं टिस्वं सम्मिभिः सह सम्बध्यते" इति तेन छुट-एट-नट् इति त्रय भागमाः । ३-प्रत्यङ्+मारमा । सुगण + ईशः ४-सन्नच्युतः-'सन् + अच्युतः' इति स्थिती 'मो लस्वादचि मुण नित्यम्' इति सूत्रेण नकारात् परस्याचः नित्यं नुहागमे सिध्यति रूपं सन्नच्युतः इति । एवं ति+मतिकः =तितिकः । तस्मिन् + इति तस्मिमिति । पठन+एति = पठन्नेति इत्यादयो बोध्याः मस्मिन् सूत्रे नित्य-शब्दो 'नित्यप्रहसितः' इत्यादाविव प्रायिकत्वबोषक: तेन क्वचित, यथा-तिक+मन्तम्-तिबन्तम् सन्+मादि-अनादिः । तथा च सूत्रनिर्देशः "सुमिनन्तं पदम्" "सनाद्यन्ता पातवः" इति । ८९-हस्व से परे जो उम् तदन्त पद से परे अच् को प्रायः ङमुट का आगम होता है। ६०-सम् को रु होता है सुट् परे रहते । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 2772 नधिसकर हल्सन्धिप्रकरणम् अनुनासिक निधिसूत्रा ६१ अत्रानुनासिकः पूर्वस्य तु वा ८।३।२। अत्र रुप्रकरणे रोः पूर्वस्यानुनासिको वा । ६२ अनुनासिकात् परोऽनुस्वारः ८।३।४ । अनुनासिकं विहाय रोः 'पूर्वस्मात्परोऽनुस्वारागमः । साखरवसानयोर्विसर्जनीयः ८।३। १५ । मानिचिनार्ति खरि अवसाने च पदान्तस्य रेफस्य विसर्गः (संपुंकानां सो वक्तव्यः) संस्कर्ता, संस्स्कर्ता। ६४ पुमः खय्यम्परे ८।३।६। अम्परे खयि पुमो रुः पुंस्कोकिलः, पुँस्कोकिलः । ६५ नश्वव्यप्रशान् ८।३।७। अम्परे छवि नान्तस्य पदस्य रुः स्यानतु प्रशानशब्दस्य । निजात्रा १-रोः पूर्वस्मात् वर्णात् परः, अर्थात्-रोः (पञ्चमी) पूर्वस्य स्वरस्योपरि 'अनुस्वारः' । २-( सम् +कर्ता “सम्परिभ्याम् ” इति सुट् ) सम् + स्कर्ता - संस्कर्ता, संस्स्कर्ता "समो वा लोपमेके' इति भाल्यात्पक्षे एकसकारकमपि लपद्वयम् । एवं संस्कारः, संस्कृतम्, संस्करोति । ३-पुस्कोकिलः-'पुम् + कोकिलः' इति स्थिते 'पुमः खव्यम्परे' इति सूत्रेण मस्य रुवे 'पत्रानुनासिकः...' इति अनुनासिके, 'पुंस्कोकिलः' इति स्थिते रेफस्य विसर्गः 'संपुकानां सो वक्तव्यः' इति विसर्गस्य सस्ते सिध्यति रूपं 'पुस्कोकिमः' इति ( अनुनासिकाभावपक्षेऽनुस्वारः पुस्कोकिलः इति ) । एवं पुंस्पुत्रः । पुस्पुत्रः । पुरवरित्रम् । स्तिलकम् । टीका । ६१-इस प्रकरण में इसे पूर्व अच् को अनुनासिक होता है विकल्प से । ६२-अनुनासिक पक्ष को छोड़कर रु से पूर्ववर्ती अच् से परे ( अर्थात् - ऊपर ), अनुस्वार का आगम होता है। ६३-खर परे रहते अथवा अवसान में पदान्त रेफ को विसर्ग होता है । (वा०सम् पुम् कान् इनके विसर्ग को स होता है)। ६४-श्रमपरक खय् परे रहते पुम के मकार को रु होता है। ६५-अमपरक छव परे रहते नान्त पद को रु होता है प्रशान् शब्द को छोड़कर । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् समारनिवासना ६६ विसर्जनीयस्य सः ८।३ । ३४ । खरि । 'चकि स्त्रायस्व, चकिंस्त्रायस्व । अप्रशान् किम्-'प्रशान्तनोति पदान्तस्येति किम् इन्दियनर ६७ नृन् पे ।३।१०। नृ नित्यस्य रुर्वा । ६८ कुप्वो-क-पौ च ८।३ । ३७ । कवर्गे पवर्गे च विसगस्य क पौ स्तः, चाद्विसर्गः। "नृ' पाहि, न:पाहि, नृपाहि, न:पाहिः नृन्पाहि । ६६ तस्य परमाम्रडिते । ८।१।२। द्विरुक्तस्य परमानंडितं स्यात् । १०० कानाम्र डिते ८।३ । १२ । कानकारस्य रुः स्यादानंडिते। 'काँस्कान् । १०१छेच ६।१ । ७३ । चक्रिन् + त्रायस्व । अनुनासिकानुस्वारौ पाक्षिकौ चक्रिस्त्रायस्व, चयिायस्व एवं कस्मिंश्चित, कस्मिंश्चित् । भक्तांस्तारय, भक्ताँस्तारय । विद्वांश्छात्रः विद्वाँश्वात्रः वेदांष्टीकस्व, वेदाँष्टीकस्व। -अन्यथा 'प्रशाँस्तनोति' इति स्यात् । ३-अन्यथा 'हस्ति' इति स्यात् । ४-पे = पकारे। ५-नन् + पाहि। 'नन्+पालयस्व' इत्यादावपि । ६-पर रूपमित्यर्थः। -७-कान्+कान् । अनुनासिकानुस्कारौ पाक्षिको "संपुंकानाम् इति सः। ६६-खर् परे रहते विसर्जनीय को स होता है। ६७-नृन् के नकार को रु होता है विकल्प से पकार परे रहते । १८-कवर्ग पवर्ग परे रहते विसर्ग को क्रम से जिह्वामूलीय और उपध्मानीय होते हैं, पक्ष में विसर्ग भी होता है। ६६-द्विरुक्त के पहले रूप को आमेडित सज्ञा होती है । १००-कान् के नकार को रु होता है अाम्रोडित परे रहते । १०१-हस्व को छ परे रहते तुक् का आगम होता है । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसर्गसन्धिप्रकरणम् 'ह्रस्वस्य छे तुक् । 'शिवच्छाया । १०२ पदान्ताद्वा ६ । १ । ७६ । दीर्घात्पदान्ताच्छे तु वा । लक्ष्मीच्छाया, लक्ष्मीछाया । इतिहल्सन्धिप्रकरणम् । -:०: अथ विसर्गसन्धिप्रकरणम् १०३ विसर्जनीयस्य सः ८ । ३ । ३४ । खरि । विष्णुस्त्राता । १०४ वा शरि ८ । ३ । ३६ । १-" ७७६ ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्" इत्यतः 'ह्रस्वस्य' 'तुक्' इति चानुवर्तते । स्थितौ 'छे च' इति तुगागमे 'शिवत् छाया' दकारस्य शत्रुत्वेन जकारे, जकारस्य 'खरि न चात्र - '३०६ चोः कुः" इति १- शिवच्छाया - शिव + छाया इति इति जाते तकारस्य जश्त्वेन दकारे, च' इति चकारे सिध्यति रूपं 'शिवच्छाया' इति । कुत्वं स्यादिति वाच्यम् शत्रुस्वस्यासिद्धत्वात् । स्व + छात्रः = स्वच्छात्रः । ३ - लक्ष्मी + छाया, नदीछन्ना । वृक्ष + छाया वृक्षच्छाया नदी + खन्ना नदीच्छन्ना, = एवं एवं -:: - ग्रंथ विसर्गसन्धिः इति हलसन्धिः -:* : अथ विसर्गसन्धिः " ४ - विष्णुः + त्राता एवं छात्रः + तिष्ठति = छात्र स्तिष्ठति, गौः + चरति = गौश्चरति कृष्णः + छिनत्ति कृष्णश्छिनत्ति, इत्यादि । १०२ - पदान्त दीर्ध से छ परे रहते तुगागम होता है विकल्प से । इतिहल्सन्धिः ३१ १०३ - विसर्जनीय को स होता है खर् परे रहते । १०४ – शर् परे रहते विसर्ग को विसर्ग होता है विकल्प से । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् शरि विसर्गस्य विसर्गो वा 'हरिःशेते, हरिश्शेते । १०५ स-सजुषो रुः ८।२।६६ । पदान्तस्य सस्य सजुषश्च रुः स्यात् । १०६ अतो रोरप्लुतादप्लुते ६।१।११३। अप्लुतादतः परस्य रोरुः स्यादप्लुतेऽति । शिवोऽर्व्यः । १०७ हशि च ६।१।११४ । तथा । "शिवो वन्धः। । १०८ भो-भगो-अघो-अ-पूर्वस्य योऽशि ८ । ३ । १७ । एतत्पूर्वस्य रोर्यादेशोऽशि । देवा इह, देवायिह । भोस् भगोस् अघोस् इति सान्ता निपाताः तेषां, रोर्यत्वे कृते । १-हरिः+शेते । २-पक्षे सत्वे, "स्तोश्चना श्चुः" इति शकारे हरिश्शेते, एवं छात्राः+ सन्ति = छात्राः सन्ति, छात्रा सन्ति यात्रास्सन्ति रसाः + षट् = रसाःषट रसाषट, इत्यादयः। ३- शिवस् + अर्यः । अत्र स्त्वे कृते उत्व गुणः पूर्वरूप प। उत्वं प्रति रुत्वस्याऽसिदत्वं तु न भवति, रुस्वमनूद्य उत्वविधानसामथ्यात, शिवोऽर्व्यः, एवं शुद्धोऽहम् । बुद्धोऽहम् । छात्रोऽपम् इत्यादि । ४-मप्लुतादतो रोहः स्याद् हशि, इत्यर्थः। ५-शिवो वन्द्यः शिवस्+वन्यः इति स्थिती 'ससजुषो रुः' इति रुत्वे 'हशि च' इति उत्वे वकारगताकारेण सहोकारस्य 'माद गुणः' इति गुरणे भोकारे सिध्यति रूपं 'शिवो वन्द्यः' इति । ऐवं रामो वदति, छात्रो गच्छति, कृष्णो जयति, काको डीयते, कणो ददाति, व्यासो व्रते, इत्यादयः । -देवस्+इह, रोर्यादेशे "३० लोपः शाकल्यस्य” इति पिकल्पेन यलोपः; देवा इह, देवायिह । एवं छात्रा प्रागच्छन्ति, वीरा उत्सहन्ते, देवा एते, धार्मिका वर्षन्ते, भक्ता भजन्ति, हमा हेषन्ति, याज्ञिका यान्ति, बाला रमन्ते, विप्रा दयन्ते । हलि सर्वत्र "हलि सर्वेषाम्" इति नित्यं 'य' लोपः । १०५ --पदान्त सकार और सजुष् शब्द के षकार को रु होता है । १०६ अप्लुत अत् से परे रु को उ होता है अप्लुत अत् परे रहते । १०७-अप्लुत अत् से परे रु को उ होता है हर परे रहते । १०८-भो-मगो-अघो और अकार है पूर्व में जिसके ऐसे रु को य होता है अश् परें रहते। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसर्गसन्धिप्रकरणम् १०६ हलि सर्वेषाम् ८ । ३ । २२ । भो-भगो-अघो-अ-पूर्वस्य यस्य लोपः स्याद्धलि । भो देवाः' । भगो नमस्ते । अघो याहि । ११० रोऽसुपि ८ । २ । ६६ । अह्नो रेफादेशो नतु सुपि । अहरहः । अहर्गणः। १११ रो रि ८।३।१४ । रेफस्य रेफे परे लोपः। ११२ ढलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः ६।३ । १११ । ढरेफयोर्लोपनिमित्तयोः पूर्वस्याणो दीर्घः । पुना रमते । हरी रम्यः । शम्भू राजते । अणः किम्-तृढः । वृढः । मनस् रथ इत्यत्र रुत्वे कृते हशि चेत्युत्वे, रोरीति लोपे च प्राप्त ११३ विप्रतिषेधे परं कार्यम् १ । ४ । २ । १-भोस+देवाः । भगोस् + नमस्ते । अघोस् + याहि । एषु नित्यं यलोपः । २महनु+ प्रहः । महन् + गणः, पत्र क्रमेण-'मतोरोर..' 'हशि च' इति सूत्राभ्यामुत्वं न, ''--- इत्यस्यैव उत्वविधानात् । अत एव प्रातरत्र, भ्रातर्देहि, अहर्माति, इत्यादि सिद्धयन्ति । ३-पत्र सूत्रऽण-ग्रहणं पूर्वेण, तथा चोक्तम् "परेणैवेण्ग्रहाःसर्वे पूर्णवाराग्रहा मताः । ऋतेऽणुदित्सवणंस्येत्येतदेकं परेण तु" ॥ इति ४-पुना रमते-'पुनर + रमते' इति स्थिने 'रोरि' इति पूर्वरेफस्य लोपे 'ढलोप पूर्वस्य दीर्घोऽणः' इति पूर्वस्याणो दी सिद्ध रूप 'पुना रमते' इति । हरिम् ()+ रम्यः । शम्भुस् (२)+ राजते । एवं निर + रसः = नीरसः, लिढ्+ढे = लोढे. अजघंर् + - प्रजर्घाः । प्रातर् + रमते = प्राता रमते। ५-तृत् = ढ (:) । वृद - ढः । 'ढो ढे लोपः' इति पूर्वढकारलोपः । अणोऽभावान दीर्घप्रवृत्तिः । १०६-भो-भगो-अयो-अ पूर्वक यकार का लोप होता है हल परे रहते । ११.-अहन शब्द क रेफादेश होता है; सुप् परे हो तो नहीं होता । १११-रेफ का रेफ परे रहते लोप होता है । ११२-लोपनिमित्तक ढकार और रेफ परे रहते पूर्व अण को दीर्घ होता है। ११३-तुल्यबलविरोध में पर कार्य होता है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् 'तुल्यबलविरोधे परं कार्य स्यात् । इति लोपे प्राप्ते । पूर्वत्रासिद्धमिति 'रोरि' इत्यस्यासिद्धत्वादुत्वमेव । 'मनोरथः। ११४ एतत्तदोः सुलोपोऽकोरनञ् समासे हलि ६ । १ । १३२ । अककारयोरेतत्तदोर्यः सुस्तस्य लोपो हलि न तु नसमासे । एष विष्णुः । स शम्भुः । अकोः किम् एषको 'रुद्रः। अनञ् समासे किम-असः शिवः" । हलि किम्-एषोऽत्र । ११५ सोऽचि लोपे चेत् पादपूरणम् । ६।१ । १३४ । स इत्यस्य सोर्लोपः स्यादचि पादश्चेल्लोपे सत्येव पूर्येत ॥ 'सेमामविढि प्रभृठिम् । सैष दाशरथी रामः। इति विसर्गसन्धिप्रकरणम् । १-अन्यत्रान्यत्र लब्धावकाशयोरेकत्र समावेशस्तुल्यबलविरोधः' यथा चात्रैव 'रोरि' इति सूत्र हरीरभ्य इत्यादौ लब्धावकाशं 'हशि च' इति च 'शिवो वन्द्यः' इत्यत्र लब्धावकाशं तयोर्द्धयोश्व 'मनोरथः' इत्यत्र समावेशः । प्रत्र सूत्र अपरं कार्यमित्यपि च्छेदः । अत एव तत्तदिष्टस्थलेषु पूर्वविप्रतिषेधोऽपि भवति । २-मनोरथः-'मनस--- रथः' इति स्थितौ सस्य रुत्वे कृते 'हशि च' इति उत्वे 'रो रि' लोपे च प्राप्ते 'विप्रतिपेथे पर कार्यम' इति परत्वाद् लोपे एव युक्तिसिद्ध, पूर्वत्रासिद्धम्' इति हशि चेत्यस्य दृष्टौ 'रोरि' इत्यस्यासिद्धत्वाद् उत्वमेव स्यात् । प्रकारोकारयोगुणे मोकारे सिद्ध रूपं 'मनोरथः' इति । ३-एषस + विष्णः। सस्+शम्भुः । एवम् एष शोभते एष ददाति, स चलति, स च, इत्यादि । ४=एषकस + रुद्रः । अत्र प्रकच् प्रत्ययः "हशि च" इति रोरुत्वे सिद्धः । ५-प्रसस् + शिवः। ६-एषस् +अत्र - एंषोऽत्र, एवम्मोऽहम् । ७-लोपे सत्येव' इत्यवधारणेन इह न-'सोऽहमाजन्मशुद्धानाम्' लोपे सत्यसत्यपि च छन्दः पूत्तः । ८ -सस + इमामविड्ढि "। --सैप दाशरथिः -'सम् +ऐषः' इति स्थिती 'सोऽचि लोपे चेत् पादपूरणम्' इति सलोपे वृद्धौ सत्यां सैष दाशरथिरिति । प्रत्रायं सपनः श्लोकः-- मैष दाशरथी रामः, सैप राजा युधिष्ठिरः । सैप करें महादान, सैष भीमो महाबलः । इति विसर्गसन्धिः। ११४-ककार रहित एतत् और तत् शब्द सम्बन्धी सु का लोप होता है हल् परे रहते; ना समास में नहीं होता। ११५-तत् शब्द सम्बंधी सु का लोप होता है अच् परे रहते, यदि लोप होने पर ही पाद-पूर्ति होती हो। इति विसर्गसन्विः Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पत्य अजन्तपुल्लिङ्गाः अथ षड्लिङ्गषु-अजन्तपुल्लिङ्गाः प्रातिपदिक संज्ञा सूत्रा ११६ 'अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् १ । २।४५। धातुं प्रत्ययं प्रत्ययान्तं च वर्जयित्वा अर्थवच्छब्दस्वरूपं प्रातिपदिकसंज्ञ स्यात् । नातिनदिकसमानता ११७ कृत्तद्धित-समासाश्च । १।२।४६।। कृत्तद्धितान्तौ समासाश्च तथा स्युः। ११८ स्वौजसमौट्छस्टाभ्याभिस्-डेभ्यांभ्यस्-डसिन्यांभ्यस्-सोसाम् योस्सुप् ४ । १ । २। ___अजन्तपुंल्लिङ्गप्रकरणम् १-अर्थोऽस्यास्तीति अर्थवत्, तेन धनं वनमित्यादौ प्रतिवणं सजा न । सत्यां च तस्यां स्वादयः, 'सुपो धातु .... ' इति लोपेऽपि पदसंज्ञायां जश्त्वनलोपादयो दुवाराः । एतत्सूत्रं सुभाषितस्यैतस्योत्तरम्तत्र प्रश्न: (क) विद्वान् कोहग् वचो ब्रूते, (ख) को रोगी (ग) कश्च नास्तिकः । घ) कीहक् चन्द्र न पश्यन्ति, सूत्र तत्पाणिनेर्वद ॥ १ ॥ क्रमशः-(क) अर्थवत् = सार्थकम् । (ख अधातुः = निर्वीर्यः । अल जीत (ग) अप्रत्ययः = विश्वासरहितः । (घ) प्रातिपदिकम = प्रतिपत्तिथौ भवम् इति।। २-कृतः तद्धिताश्च प्रययास्तेन तदन्ता ग्राह्याः प्रत्ययग्रहणे तदन्तग्रहणमिति वचनात, प्रत्ययान्तत्वेनाऽप्राप्तौ सूत्रमिदम् । समासग्रहणं तु नियमार्थम् । स चायं नियमः “यत्रार्थवति संघाते पूर्वो भागस्तथोत्तरः । स्वातन्त्र्येण प्रयोगार्हः समासस्यैव तस्य चेत्" इति । तेन वाक्यस्य न । ३-प्रातिपदिकसंज्ञा इत्यर्थः। प्रोगामा अथ अजन्तपुंल्लिङ्गप्रकरण ११६-धातु, प्रत्यय और प्रत्ययान्त से भिन्न अर्थवान् शब्दस्वरूप की प्रातिपदिक संशा होती है। ११७-कृदन्त, तद्धितान्त और समास की प्रातिपदिक संज्ञा होती है । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् सु औ जस इति प्रथमा । अम् औट शस इति द्वितीया । टा भ्याम् मिस इति तृतीया । उ भ्याम् भ्यस इति चतुर्थी । उसि भ्याम् भ्यास इति पश्चमी। इस ओस आम इति षष्ठी । ङि ओस सुप इति सप्तमी। ११६ याप-प्रातिपदिकात् । ४ । १।१। १२. प्रत्ययः संजनिधिसूत्रम् सादिजधया AMILY १२१ परश्चशे पहलेलघोषकसूत्रम् पन्चासजसनम इत्यधिकृत्य । 'ङयन्तादावन्तात् प्रातिपदिकाच्च परे स्वादयः प्रत्ययाः स्युः। एकमयादि संज्ञा सूत्राम १२२ सुपः १ । ४ । १०३ । सुपस्त्रीणि त्रीणि बचनात्येक्कश एकवचन द्विवचन-बहुवचन शानि स्युः १२३ व्येकयोर्द्विवचनैकवचने १ । ४ । २२ । २द्वित्वैकत्वयोरेते स्तः। १२४ विरामोऽवसानम् १ । ४ । ११० । वर्णानामभावोऽबसानसंशः स्यात । रुत्वविसर्गौ। रामः । १२५ सरूपाणामेकशेष एकविभक्तो १ । २ । ६४ । १-सूत्रत्रयस्य समुदितोऽयमर्थः । २-एकत्वविवक्षायाम् एकवचनम् , द्वित्वविवक्षायां द्विवचनम् । ३-१०५ ससजुषो रुः' इति रुत्वम् । “६३ खरवसानयोर्विसर्जनीयः" इति विसर्गः। ४-रामः-रमन्ते योगिनो यस्मिन्निति रामः = परमात्मा (तदवतारो दाशरथिः)। रामशब्दात् प्रथमैकवचने सुप्रत्यये अनुवन्धलोपे 'राम+स्' इति स्थितौ 'सस्य रुत्वे रेफस्य 'खरवसानयोः' इति विसर्ग इति सिध्यति रूपं 'रामः । रमु कीाया' पत्ययाको तरन्तगाहा n ) पत्ययहाश-१४-पञ्चमाध्याय की समाप्ति तक इन तीनों का अधिकार मरणानियोधा घ प्रलय जाता है । ङ्यन्त, आब त ओर प्रातिपदिक से परे 'सु' आदि प्रत्यय होते हैं। १२२ सुप् के तीन तीन वचन क्रम से एकवचन, द्विवचन, बहुवचन संज्ञक होते हैं । १२३-द्वित्व की विवक्षा में द्विवचन और एकत्व की विवक्षा में एकवचन होता है। १२४-वणों के अभाव की अवसान संज्ञा होती है। १२५-एक विभक्ति में जिनका समान रूप देखा जाय वहाँ उनमें से एक ही शेष रहता है ( अन्य का लोप होता है)। ड्यन्त्र- डी.डीन , डीन आजतराम डाप, चाप Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजन्तपुल्लिङ्गाः एकविभक्तौ यानि सरूपाण्येव दृष्टानि तेषामेक एव शिष्यते । १२६ प्रथमयोः पूर्वसवण: ६।१।१०२ । अकः प्रथमाद्वितीययोरचि पूर्व सवर्णदीर्घ एकादेशः स्यात् । इति प्राप्ते१२७ नादिचि ६ । १।१०४।। आदिचि न पूर्व सवर्णदीर्घः। वृद्धिरेचि । 'रामौ । १२८ बहुषु बहुवचनम् १ । ४ । २१ । बहुत्वविवक्षायां बहुवचनं स्यात् । १२६ चुटू १।३।७। प्रत्ययाद्यौ 'चुटू इतौ स्तः। १३० विभक्तिश्च १ । ४ । १०४ । सुप्तिडौ विभक्तिसंझौ स्तः। १३१ न विभक्तौ तुस्माः १।३।४। विभक्तिस्थास्तवर्ग-सकार-मकारा नेतः । इति सस्य नेत्त्वम् । रामा। १३२ एकानं सम्बद्धिः २।३। ४६ । सम्बोधने प्रथमाया एकवचनं सम्बुद्धिसंझं स्यात् । १-रामः +मौ ३३ वृद्धिरेचि" इति वृद्धिः । २-धवर्गः (च छ ज म आ) टवर्गरच (ट ठ ड ढ णाः) इत्यर्थः। १२६ अक् से प्रथमा-द्वितीया सम्बन्धी अच् परे रहते पूर्वसवर्ण दीर्घ एकादेश होता है। १२७-अवर्ण से इच् परे रहते पूर्वसवर्ण दीर्घ नहीं होता। १२८-बहुत्व की विवक्षा में बहुवचन होता है । १२६-प्रत्यय के आदि के चवर्ग और टवर्ग की इत्संज्ञा होती है। १३१-सुप और तिङ् की विभक्ति संशा होती है। १३१-विभक्ति के तवर्ग, सकार, मकार की इत्सब्जा नहीं होती। १३२-सम्बोधन में प्रथमा के एकवचन (स) की सम्बुद्धि संशा होती है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् १३३ यस्मात् प्रत्ययविधिस्तदादि प्रत्ययेऽङ्गम् १।४।१३ । यः प्रत्ययो यस्मात् क्रियते तदादि शब्दस्वरूप 'तस्मिन्नङ्ग स्यात् । १३४ एङह्रस्वात् सम्बुद्धेः ६ । १ । ६६ । एङन्ता हस्वान्ताच्चाङ्गाद्धल्लुष्यते सम्बुद्ध श्चेत् । हे राम! हे रामौ! हे रामाः ! १३५ अमि पूर्वः ६।१। १०७ । अकोऽभ्यचि पूर्वरूपमेकादेशः । रामम् । रामौ। १३६ लशक्वतद्धिते १।३।८। तद्धितवर्जप्रत्ययाद्या ल-श-कवर्गा 'इतः स्युः। १३७ तस्माच्छसो नः पुंसि ६ । १। १०३ । पूर्व सवर्णदीर्घात् परो यः शसः "सस्तस्य नः स्यात् पुंसि । १३८ अट्-कु-म्वाङ नुम्-व्यवायेऽपि ८ । ४ । २ । अट् कवर्ग-पवर्ग-आनुम् एतैय॑स्तैर्यथासंभव मिलितैश्च व्यवधानेऽपि रषाभ्यां परस्य नस्य णः स्यात् समानपदे । इति प्राप्ते १-प्रत्यये इत्यर्थः। २-सम्बुद्धयाक्षिप्तस्याङ्गस्य एहस्वाभ्यां सम्बन्धः । ३-राम +अम । ४-इत्संज्ञकाः। ५-सकारः। ६-समानपदम् = प्रखण्डपदम; तेन रघुनाथः' इत्यत्र न रणत्वम् , एवं रमानाथ-रामनाथादयः ।। १३३-जो प्रत्यय जिससे किया जाय, तदादि शब्दस्वरूप की उस प्रत्यय के परे रहते अङ्ग संज्ञा होती है। १३४-ए न्त ह्रस्वान्त अङ्ग से परे सम्बुद्धि के हल का लोप होता है। १३५-अक् से अम् सम्बन्धी अच् परे रहते पूर्वरूप होता है । १३६-तद्धित को छोड़कर प्रत्यय के आदि लकार, शकार और कवर्ग को इतसंशा होती है। १३७-पूर्वसवर्ण दीर्घ स परे शस् के सकार को नकार आदेश होता है । १३८-अट , कवर्ग, पवर्ग, श्राङ्, नुम् इनका पृथक् २ या जितनों का सहसम्भव हो उनका व्यवधान होने पर भी रेफ षकार से परे नकार को कार होता है। समानपद में। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजन्तुपुल्लिङ्ग १३६ पदान्तस्य ८।४ । ३७ । दस्य णो न । 'रामान् । १४० टाङसिङसामिनात्स्याः ७।१। १२ । अदन्ताहादीनामिनादयः स्युः । णत्वम् । रामेण । १४१ सुपि च ७।३ । १०२। यत्रादौ सुपि अतोऽङ्गस्य दीर्घः । रामाभ्याम् । १४२ अतो भिस" ऐस् । ७।१।१३ । "४५ अनेकाल शित्सर्गस्य" । रामैः । १४३ उयः ७।१।। अतोऽङ्गात् परस्य र्यादेशः। १४४ स्थानिवदादेशोऽनलविधौ १ । १। ५६ । 1-+ (२) प्रस्। पूर्वसवर्णदीध सस्य नः। २-'टा इत्यस्य 'इन', 'सि' इत्यस्य 'पात', 'ङस्' इत्यस्य 'स्य' इति । ३-राम+(टा) इन | गुणो णत्वं च । ४प्रदन्तस्याङ्गस्येत्यर्थः । ५-प्रदन्तादङ्गाद् 'भिस्' इत्यस्य 'ऐस' स्यादिति सत्रार्थः । ६-इति सर्वस्य भिसः ‘ऐस्' वृद्धिविसगौं-रामैः। ७-'अनल्विधौ' इति न अल्विधिः, तस्मिन् = अनविधौ । प्रविधिश्च = अलाभितो विधिः . प्रविधिः, एकवर्णाश्रितो विधिरित्यर्थः । अल् चेह स्थान्यवयव एव गृह्यते तदाह स्थान्यलाश्रयविधाविति यथा 'क इष्टः' इत्यत्र यज्धातोः क्तप्रत्यये सम्प्रसारणे पूर्वरूपे च 'इष्टः' इति रूपम् । नात्र स्थानिवद्-भावाद् यकारं मत्वा 'हशि च' इत्युत्वं स्थान्यलाश्रयविधित्वात् । . १३६-पदान्त के न को ण नहीं होता। १४०-अदन्त अंग से परे टा, ङसि उस्के स्थान में क्रम से इन, श्रात्, स्य आदेश होते हैं। १४१-यत्रादि सुप् परे रहते अदन्त अंग को दीर्घ होता है। १४२-श्रदन्त अङ्ग से परे भिस् के स्थान में ऐम आदेश होता है। १४३-अदन्त अज से परे के के स्थान में य आदेश होता है। १४४-आदेश स्थानिवत् होता है परन्तु स्थानी सम्बन्धी जो अल् , तदाश्रय विधि कर्तव्य हो तो स्थानिवद्भाव नहीं होता। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० लघुसिमान्तकौमुद्याम् आदेशः स्थानिवत् स्यान तु स्थान्यलाश्रयविधौ। इति स्थानिवस्वात् सुपि चेति दीर्घः। 'रामाय । रामाभ्याम् । १४५ बहुवचने झल्येत् ७ । १ । १०३ । भलादौ बहुवचने सुप्यतोऽङ्गस्यैकारः।रामेभ्यः । सुपि किम्-उपवध्वम् । १४६ वाऽवसाने ८।४ । ५६ । अवसाने झलां चरो वा । रामात् , रामाद् । रामाभ्याम् रामेभ्यः । रामस्य । १४७ ओसि च ७।३।१०४ । अतोऽङ्गस्यैकारः । रामयोः। १४८ हसनद्यापो नुट् ७ । १। ५४ । हस्वन्तानद्यन्तादाबन्ताच्चाङ्गात परस्यामो नुडागमः। १४६ नामि ६।४।३। अजन्ताङ्गस्य दीर्घः। रामाणम् । रामे। रामयोः । एत्वे कृते । १-रामाय-रामशब्दात् चतुयेकवचने उ-प्रत्यये 'रेयः' इति यकारादेशे तस्य स्थानिवद्भावेन सुप्त्वात् 'सुपि चेति' दीघे 'रामाय' इति सिध्यति (प्रत्र दीर्घ कर्तव्ये सन्निपातपरिभाषा तु न प्रवर्तते 'कष्टाय क्रमणे' इति निर्देशात् )। २-'सुपि ' इति दीर्घस्थापवादोऽयम् । ३-अन्यथा “पचेध्वम्" इति स्यात् । नात्र सुप, किन्तु (ध्वम् ) तिङ् । ४--प्रदन्तस्याङ्गस्य एकारादेशः स्याद् प्रोसि परे इत्यर्थः ५-राम + प्रोस् , एस्वे "२२ एचोऽयवायावः" इति 'प्रय' प्रादेशः। ६-रामाणाम-रामशम्मात् षष्ठीविभक्ती बहुवचने 'राम+माम्' इति स्थितौ 'हस्वनद्यापो नुट' इति नुटि अनुबन्धलोपे राम नाम इति जाते 'नामि' इति दी नस्य 'मट कुप्वाङ' इति णवे सिध्यति रूपं रामाणाम्' इति । ७-राम+ (डि ) इ, गुणः। १४५-झलादि बहुवचन सुप परे रहते अदन्त अङ्ग को एकार आदेश होता है। १४६-अवसान में ( अन्त में ) झलों के स्थान में चर् होते हैं विकल्प से । १४७-श्रोस् परे रहते अदन्त अङ्ग को एकार आदेश होता है । १४८-हस्वान्त नद्यन्त और श्राबन्त अङ्ग से परे श्राम् को नुट् का आगम होता है। १४६-नाम् परे रहते अवन्त अङ्गको दोष होता है। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्तुथुल्लिङ्गा १५० आदेश- प्रत्यययोः ८ । ३ । ५६ । इणूकुभ्यां परस्य पदान्तस्य श्रादेशः प्रत्ययावयवश्च यः सस्तस्य 'मूर्धन्यादेशः । ईषद्विवृतस्य सस्य तादृश एवषः । रामेषु । एवं कृष्णादयोऽध्यदन्ताः । १५१ सर्वादीनि सर्वनामानि १ । १ । २७ । ४१ सर्व विश्व उभ उभय इतर उतम अन्य अन्यतर इतर त्वत् त्व नेम सम सिम | पूर्वपरावरदक्षिणोत्तरापराधराणि' व्यवस्थायामसंज्ञायाम् । स्वमशातिधनाख्यायाम् । अन्तरं बहिर्योगोपसंव्यानयोः । त्यद् तद् यद् एतद् इदम् अस् एक द्वि युष्मद् श्रस्मद् भवतु किम् । ( इति सर्वादयः ) । १५२ जसः शी ७ । १ । १७ । अदन्तात् सर्वनाम्नो जसः शी स्यात् । "अनेकाल्त्वात् सर्वादेशः । ' सर्वे । -प्रकारान्ताः सर्वेऽपि पुंल्लिङ्गा शब्दा । १ - प्रान्तरतम्यात् षकार इत्यर्थः रामशब्दस्य सप्तविभक्तिषु प्रयोगाः - रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे । रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः ॥ रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोऽस्म्यहम् । रामे चित्तलयः सदा भवतु मे हे राम ! मां पालय ॥१॥ १३ - सर्वादिगण पठितानि सर्वनाम सव्ज्ञानि भवन्तीत्यर्थः सर्वस्य नाम 'सर्वनाम ' इत्यन्वर्थेयं सञ्ज्ञा, 'सर्वनाम' इति महासन्ज्ञाकरणसामर्थ्यात् तेन सर्वो नाम कश्चित् तस्मै 'सर्वाय' नतु सर्वस्मै ) । सर्वमतिक्रान्तोऽतिसवंस्तस्मै 'प्रतिसर्वाय' इति । " संज्ञोपसर्जनोभूतास्तु न सर्वादयः" इति फलितम । ४ - इमानि त्रीणि गरणसूत्राणि । ५-नतु शित्वात्सर्वादेशः सर्वादेिशात्प्राक् शकारस्य इत्संज्ञाया एवाभावात् । सर्वादेशे जाते एव स्थानिवद्भावेन प्रत्ययत्वात् "लशक्वतद्धिते" इति इत्संज्ञ प्रत एव " नानुबन्धकृतमनेकास्वम्" इत्यपि न प्रवर्तते । ६ - सर्वे - सर्वशब्दात प्रथमा बहुवचने जस् प्रत्यये १५० - इस कवर्ग से परे अपदान्त आदेशरूप और प्रत्ययावयव सकार को कार आदेश होता है । १५१ - सर्वादि शब्द स्वरूप सर्वनाम संज्ञक होते हैं । १५२ - श्रदन्त सर्वनाम से परे 'जस्' को 'शी' आदेश होता है । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् १५३ सर्वनाम्नः स्मै ७ । १ । १४ । अतः सर्वनाम्नो ङः स्मै । सर्वस्मै । १५४ ङसिङसोः स्मात्-स्मिनौ ७ । १ । १५ । अतः सर्वनाम्न एतयोरेतौ स्तः । सर्वस्मात् । १५५ आमि सवनाम्नः सुट् ७ । १ । ५२ । वर्णान्तात्परस्य सर्वनाम्नो विहितस्यामः सुडागमः । एत्व - पत्वे । " * सर्वेषाम् । सर्वस्मिन् शेषं रामवत् । एवं विश्वादयोऽप्यदन्ताः । उभशब्दो द्विवचनान्तः । उभौ २ । उभाभ्याम् ३ । उभयोः २ । तस्येह पाठोऽकजर्थः । उभयशब्दस्य द्विवचनं " नास्ति । इतर- डतमौ प्रत्ययौ । प्रत्ययग्रहणेतदन्तग्रहण सर्वनामसंज्ञायां 'जसः शी' इति जसः शोभावे शकारस्य इत्संज्ञायां लोपे च 'प्राद्गुणः' इति गुणे सिध्यति रूपं 'सर्वे' इति । इत्यनेन । १ - एवम् " बहुवचने झ येत्" इत्थनेन । षत्त्रम् " प्रादेशप्रत्यययोः" २ - सर्वेषाम् सर्वशब्दात् षष्ठीबहुवचने 'सर्वं श्राम्' इति स्थितौ 'प्रामि सर्वनाम्नः सुट् इति सुडागमे 'सर्व साम्' इति जाते 'बहुवचने झल्येत्' इति एत्वे 'प्रादेशप्रत्यययोः ' इत्यनेन षत्वे सिध्यति रूपं 'सर्वेषाम्' इति । ३ - प्र० द्वि सर्वः, सर्वो, सर्वे । सर्वम् सर्वो, सर्वान् । सर्वाभ्याम्, सर्वैः J यं० सर्वस्मात् ० सर्वस्य, 1 स० सर्वस्मिन्, सर्वेषु । 1 च० सर्वस्मै, सर्वाभ्याम्, सर्वेभ्यः । सं० हे सर्व ! प्रथमावत् शेषम् । तु सर्वेण, J सर्वाभ्यां, सर्वयोः, सर्वेभ्यः । सर्वेषाम् । " ४- श्रकच्प्रत्ययार्थः तथा च सूत्रम् " प्रव्ययसर्वनाम्नामकच् प्राक्टेः " इति । द्विवचनेऽन्यस्य तु कस्यापि सर्वनामसंज्ञाकार्यस्य नास्ति प्रसङ्गः । ५ - प्रस्ति इति हरदत्तः । नास्ति इति कैयटः | १५३ - श्रदन्त सर्वनाम से परे 'डे' को 'स्मै' आदेश होता है । " १५४ - दन्त सर्वनाम से परे ङसि ङि को क्रम से स्मात् और स्मिन् होते हैं । १५५ - वर्णान्त अङ्ग से परे सर्वनाम से किये गए श्रम को सुट् का श्रागम होता है । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजन्तपुल्लिङ्गाः मिति तदन्ता' ग्राह्या । नेम 'इत्यर्थे । समः सर्वपर्यायः । तुल्यपर्यायस्तु न, यथासंख्यमनुदेशः सम्गनाम्" इति ज्ञापकात् । १५६ पूर्वापरावर-दक्षिणोत्तरापराधराणि व्यवस्थायामसंज्ञायाम् । १।१।३४। एतेषां व्यवस्थायामसंज्ञायां सर्वनामसंज्ञा गणसूत्रात् सर्वत्र या प्राप्ता सा जसि वा स्यात् । पूर्वे, पूर्वाः । असंज्ञायां किम्-उत्तराः कुरवः । स्वाभिधेयापेक्षावधिनियमो व्यवस्था। व्यवस्थायां किम्-दक्षिणा गाथकाः कुशला इत्यर्थः। १५७ स्वमज्ञातिधनाख्यायाम् १ । १ । ३५ । शातिधनान्यवाचिनः स्वशब्दस्य प्राप्ता संज्ञा जसि वा। स्वे, स्वाः = आत्मीयाः"आत्मान इति वा । शातिधनवाचिनस्तु स्वाः = शातयोऽर्था वा । १५८ अन्तरं बहियोगोपसंव्यानयोः१।१।३६ । १ कतर-कतम-यतर-यतम-ततर-ततम-एकतर-एकतमेत्यादयः । २-सर्वनामसँझ इति शेषः। ३. अन्यथा समेषामिति स्यात् । ४-स्वस्य (पूर्वादिशब्दस्य ) अभिधेयः (दिग्देशकालरूपः ) तेन प्रपेक्ष्यते इति स्वाभिधेयापेक्षः (अवधिः ) तस्य अवधेनियम इति 'स्वाभिधेयापेक्षावधिनियमः' - ( व्यवस्था )। तथा च यत्र कस्मात् पूर्व कस्मादपरमित्यवध्याकांक्षानियमः स्यात् तत्र व भवति सर्वनामसज्ज्ञा। "दक्षिणा गाथकाः" इत्यत्र तु दक्षिणशब्दः चतुरवाचक इति नावघेराकाङ्क्षा। एवम "प्रधरे रागः" "उत्तरे प्रत्युत्तरे च शक्तः" इत्यादावपि अवधिनियमाभावात् (अधर-उत्तरशब्दयोः ) न सर्वनामसंज्ञा । ५-स्वशब्दस्य चत्वारोऽर्थाः (क) प्रात्मा (ख) प्रात्मीयः ग धनम् (घ) ज्ञातिश्च ( जातिः )। तत्रात्मात्मीयवाचिनः सर्वनामसंज्ञा, नतु ज्ञातिधनवाचिनः । ६-उपसंव्यानम् = परिधानीयम् = | वस्त्रादिकम् )। १५६-पूर्व आदि शब्दों की व्यवस्था में और असंज्ञा में सर्वत्र गणसू । से नित्य प्राप्त सर्वनाम संज्ञा जस् में विकल्प से होती है । ( पूर्वादि शब्दों के अर्थ से अपेक्षित अवधि के नियम को व्यवस्था कहते हैं )। १५७ ज्ञाति धन से अन्य आत्मा यात्मीय अर्थ में स्व शब्द को गणसत्र से नित्य प्राप्त सर्वनाम संज्ञा जस् परे रहते विकल्प से होती है। १५८ बाह्य और परिधानीय अर्थ में अन्तर शब्द की गणसूत्र से प्राप्त नित्य सर्वनाम संज्ञा जस् परे रहते विकल्प से होती है । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् बाह्य परिधानीये चार्थेऽन्तरशब्दस्य प्राप्ता संशा जसि वा । अन्तरे अन्तरा वा गृहाः बाह्या इत्यर्थः। अन्तरे अन्तरा वा शाटकाः, परिधानीया इत्यर्थः। १५६ पूर्वादिभ्यो नवभ्यो वा । ७।१ । १६ । एम्यो ङसिङयोः स्मास्मिनौ वा स्तः । पूर्वस्मात् । पूर्वस्मिन् , पूर्वे । एवं परादीनाम् । शेषं सर्ववत् । १६० प्रथम चरम-तयाल्पाऽर्ध-कतिपय-नेमाश्च १।१।३३ । एते जसि उक्तसंज्ञा वा स्युः प्रथमे, प्रथमाः। तयः 'प्रत्ययः। द्वितये, द्वितयाः । शेषं रामवत् । नेमे, नेमाः, शेषं सर्ववत् । (तीयस्य उित्सु वा) द्वितीयस्मै, द्वितीयायेत्यादि । एवं तृतीयः । निर्जरः। १६१ जराया जरसन्यतरस्याम् ७ । २ । १०१। अजादौ विभक्तौ । ‘पदाङ्गाधिकारे तस्य (च) तदन्तस्यच' । 'निर्दिश्य १-तेन तदन्ताः - ( तयप्रत्ययान्ताः ) = द्वितय-द्वय-त्रितय-त्रय-चतुष्टय-पञ्चतयपटतय सप्ततय-प्रष्टतय-नवतय-दशतयादयो ग्राह्याः, प्रत्ययग्रहणे तदन्तग्रहणमिति नियमात् वे बलप्रत्ययस्य सर्वनामत्वे प्रयोजनाभावात् । २-तोयस्य = तीयप्रत्ययान्तस्य डित्सु डिवचनेषु ( सि-इस-डि इत्येतेषु )। ३-निर्गतो जराया इति निर्जरः = देवः "अमरा निर्जरा देवाः" इत्यमरः । ४-जराशब्दस्य 'जरस्' प्रादेशः स्याद् वाप्रजादौ विभक्ती, इति सूत्रार्थः। ५- प्रत्राङ्गाधिकारः ) तेन निरस्थापि सिद्धम् । -सर्वस्य 'निजर'-शब्दस्यादेशप्राप्तौ वचनम् - निद्दिश्यमानस्येति, सूत्रे यावन्मात्रस्य स्थानित्वेन निर्देशस्तावन्मात्रस्येत्यर्थः । १६६-पूर्वादि नौ शब्दों से परे डसि और डि को स्मात् और स्मिन् विकल्प से होते हैं। १६०-प्रथम, चरम, तयप्रत्ययान्त और अल्प, अर्ध, कतिपय, नेम की जस् परे रहते सर्वनाम संज्ञा विकल्प से होती है । १६१-जरा शब्द को जरस आदेश होता है विकल्प से अजादि विभक्ति परे रहते । (वार्तिक -(१) पदाधिकार और अंगाधिकार में जो कार्य जिसको कहे गये हैं उसको और वह शब्द जिसके अन्त में हो उसको-दोनों को-होते हैं । (२) बताए गये मात्र को आदेश होता है । (३) एकदेशविकृत होने पर भी वह अन्य नहीं हो जाता। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भजन्तपुंलिङ्गा मानस्यादेशा भवन्ति !' 'एकदेशविकृतमनन्यवदिति जरशब्दस्य जरस् । निर्जरसौं निर्जरसः । इत्यादि । पक्षे हलादौ च रामवत् । 'विश्वपाः । १६२ दीर्घाज्जसि च ६ । १ । १०५। । दीर्घाज्जसि इचि च परे न पूर्वसवर्णदीर्घः। वृद्धिः । विश्वपौ। विश्वपाः । हे विश्वपाः। विश्वपाम् । विश्वपौ । १६३ सुडनपुंसकस्य १ । १ । ४३ । स्वादि पञ्चवचनानि सर्वनामस्थानसंज्ञानि स्युरक्लीबस्य । १६४ स्वादिष्वसर्वनामस्थाने १।४।१७। कप्प्रत्ययावधिषु स्वादिष्वसर्वनामस्थानेषु पूर्व पदं स्यात् । १६५ यचि मम् १।४।१८। यादिष्वजादिशु च कप्प्रत्ययावधिषु स्वादिष्वसर्वनामस्थानेषु पूर्व भसंज्ञ स्यात् । १६६ आ कडारादेका संज्ञा १ । ४१ इत ऊर्च कडाराः कर्मधारये' इत्यतः प्रागेकस्यैकैव संज्ञा शेया, या पराऽनवकाशा च । १-नहि छिन्नपुच्छोऽश्वो गर्दभो भवति, तेन । २-निर्जरसौ-निर्जरशब्दात् प्रथमाद्विवचने 'निर्जर औ' इति स्थिती 'जरायाः जरसन्यतरस्याम्' इति 'जरस' आदेशे सिध्यति रूपं निर्जरसौ' जरसादेशाभावपक्षे 'निर्जरौ' इति । ३-विश्वं पाति रक्षति इति 'विश्वपाः' अत्र स्विप प्रत्ययः, तस्य (क्विपः) लोपः । ४-अनपुसकस्य = नपुंसकभिन्नस्य । ५-पदसझं स्यात् । ६-तेनेत्थं व्यवस्था (सु-औ-जस-अम् औट) इति सर्वनामस्थानभिनायाम् अजादौ ( शसादौ ) विभक्तौ 'भ'-संज्ञा, हलादौ च 'पद' संज्ञा। १६२-दीर्घ से जस् और इच् परे रहते पूर्वसवर्ण दीर्घ नहीं होता। १६३-नपुंसकलिङ्ग को छोड़कर रवादि पाँच वचनों की सर्वनामस्थान संज्ञा होती है। १६४-सु से लेकर कपप्रत्यय पर्यन्त सर्वनामस्थान से भिन्न प्रत्यय परे रहते पूर्व की पदसंज्ञा होती है। १६५-सु से लेकर कप्प्रत्यय तक सर्वनामस्थान से भिन्न यकारादि तथा भज्ञादि प्रत्यय परे रहते पूर्व की भ संज्ञा होती है। १६-काराः कर्मधारये इस सूत्र से पहले एक की एक ही संज्ञा होती है। जो पर और समवकास हो। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् १६७ आतो धातोः ३ । ४ । १०४ । आकारान्तो यो 'धातुस्तदन्तस्य भस्याङ्गस्य लोपः । अलोऽन्त्यस्य । 'विश्वपः । विश्वपा । विश्वपाभ्यामित्यादि । एवं शङ्खध्मादयः' धातोः किम्-हाहान् । हाहै । हाहाः२ । हाहौः२ : हाहाम् । हाहे । हरिः । 'हरी । १६८ जसि च ७ । ३ । १०६ । हस्वान्तस्याङ्गस्य गुणः । हरयः। १६६ हस्वस्य गुणः ७।३।१०८ । सम्बुद्धौ । हे हरे । हरिम् । हरी । हरीन् । १७० शेषो ध्यऽसखि १ । ४ । ७ । शेष इति स्पष्टार्थम् । ह्रस्वौ याविदुतौ तदन्तं सखिवर्ज घिसंज्ञम् । १-"क्विबन्ता विडन्ताः विजन्ताः (शब्दाः) धातुत्वं न जहति" इति क्विवन्तस्यापि 'विश्वपा' शब्दस्य धातुत्वम् । २-विश्वपः विश्वपाशब्दात द्वितीया बहवचने शसि 'विश्वपा अस्' इति स्थितौ 'यचिं भम्' इति भसंज्ञायाम् 'आतो धातोः' इति सूत्रेणाकारलोपे रुत्वे विसर्गे च सिध्यति रूपं 'विश्वपः' इति । ३-प्र० विश्वपाः, विश्वपौ, विश्वपाः। । पं० विश्वपः, विश्वपाभ्याम् विश्वपाभ्यः । द्वि० विश्वपाम् , विश्वपः। ष० , विश्वपोः, विश्वपाम् । तृ० विश्वपा, विश्वपाभ्याम् विश्वपाभिः। स० विश्वपि , विश्वपासु । ' च० विश्वपे, , विश्वपाभ्यः। ' सं० हे विश्वपाः ! शेषं प्रथमावत्-- ४-आकारान्ताः पुल्लिङ्गाः । ५-'हाहा' शब्दोऽनुकरणं नतु धातुरूपः, (हां जहातीति विग्रहे तु धातुरेब हाहाशब्दः, विश्पपावत्) । ६-दीर्घत्वान्नुडभावः। ७-शेषं विश्वपावत् । ८-हरि औ- "प्रथमयोः पूर्वसवर्णः' इति सूत्रेण पूर्वसवर्णदीर्घः । १६७-अकारान्त जो धातु तदन्त भसंज्ञक अङ्ग का लोप होता है। १६८-हस्वान्त भङ्ग को गुण होता है जस परे रहते। १६९-हस्वान्त अङ्ग को गुण होता है सम्बुद्धि परे रहते । १७०-हस्व इकारान्त उकारान्त शब्दों की घिसंज्ञा होती है सखि शब्द को छोड़कर। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रजन्तपुल्लिङ्गाः १७१ आङो ना ऽस्त्रियाम् ७ । ३ । १२० । घेः परस्याङो ना स्यादस्त्रियाम् । श्रङिति टास शा' हरिणा । हरिभ्याम् । हरिभिः । १७२ घेर्डिति ७ । ३ । १११ । घिसशस्य ङिति सुपि गुणः । उ हरये । १७३ ङसि - डसोश्च ६ । १ । ११० । पङो ङसिङसोरति पूर्वरूपमेकादेशः । 'हरेः । हर्योः । हरीणाम् । १७४ अच्च घेः ७ । ३ । ११६ । विधि-सूत्रम्, इदुद्धधामुत्तरस्य केरात घेरतात हरिषु । एवं 'कव्यादयः । १७५ अनड् सौ ७।१।३ । सख्युरङ्गस्यानङ्गादेशोऽसंबुद्धौ सौ । ७ १७६ अलोऽन्त्यात् पूर्व उपधा १ । १ । ६५ । ४७ १ – 'टा' इति तृतीयैकवचनस्य 'श्राडू' इति संज्ञा - इत्यर्थः । २- हरिणा - हरिशब्दात् तृतीयैकवचने टाविभक्तौ 'शेषो ध्यसखि' इत्यनेन घिसंज्ञायाम् 'ग्राङो नास्त्रियाम्' इत्यनेन 'टा' इत्यस्य नादेशे नस्य णादेशे सिध्यति रूपं हरिणा' इति । ३ - हरि + । " (ङ) ऍ, गुणे, श्रय् = हये ४- हरि + ( ङसि ) अस् अत्र गुणे पूर्वरूपं विसर्गः हरे: । ५ - हरि + ङि श्रच्च वेः = ( 'हरि' इत्यस्य ) श्रत् ( 'हर' इति ) 'ङि' इत्यस्य 'औत्' वृद्धिः = हरौ । ६ - ( ह्रस्व ) - इकारान्ताः पुंल्लिङ्गाः - कविरव्यादयः । ७- - सम्बुद्विभिन्ने । १७१ - घि संज्ञक से परे आङ् (टा) को ना होता है । १७१ –घि संज्ञक को गुण होता है ङित् सुप् परे रहते । १७३ – एङ् से ङमि ङस् सम्बन्धी एकादेश होता है । प्रकार परे रहते दोनों के स्थान में पूर्वरूप अ १७४ – इकार उकार से परे ङि को श्रौत और इ को आदेश होता है । १७५–अङ्गसंज्ञक सखि शब्द को अनङ् होता है सम्बुद्धिभिन्न सु परे रहते । १७६ - अन्य श्रल से पूर्व वर्ण की उपधा संज्ञा होती है । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ राधानाधता NिA लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् अन्त्यादलः पूर्वो वर्ण उपधासंशः स्यात् । १७७ सर्वनामस्थाने चौसम्बुद्धी ६ । ४।८। नान्तस्योपधाया दीर्घोऽसम्बुद्धौ सर्वनामस्थाने । १७८ अपृक्त एकाल' प्रत्ययः १ । २ । ४१ । एकाल् प्रत्ययो यः सोऽपृक्तसंशः स्यात् । १७६ हलङयाभ्यो दीर्घात् सु-ति-स्यपृक्त हल ६ । १ । ६८ । हलन्तात्परं दीधी यौ ङयापौ तदन्ताच्च परं सुतिसीत्येतदक्त हल्लुप्यते। (मलोपविविसूत्रम) १८० नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य ८ । २ । ७ । प्रातिपदिकसं शक यत, पूर्व तदन्तस्य लोपः स्यात् । 'सखा । १८१ संख्युरसम्बद्धों ७।१।१२।। सख्युरङ्गात् परं संबुद्धिबर्जु सर्वनामस्थानं णिद्वत स्यात् । १८२ अचो णिति ७।२।११५ । १-एकाल् = एकवर्णरूपः । २ 'सु'-सम्बन्धि, 'ति' (तिप्) सम्बन्धि, तिपा साहचर्यात 'सि' (सिप् )-सम्बन्धि ( नतु सिच् सम्बन्धि )। ३-सखा-सखिसब्दात् प्रथमैकवचने सुविभक्तौ मङ्गसंज्ञायां 'अनङ सौ' इति 'अनङि' अनुबन्धलोपे 'सखन् स' इति स्थिती 'सर्वनामस्थाने चासम्बुदौ' इति उपधा-दीर्घ 'हलड्याब्भ्यो दीर्घात' इत्यादिना सूत्रेण सकारलोपे 'नलोपः प्रतिपादिकान्तस्य' इति नकारलोपे सिध्यति रूपं 'सखा' इति । १७६-नान्त की उपधा को दीर्घ होता है सम्बुद्धिभिन्न सर्वनामस्थान परे रहते । १७८-एक अल वाले प्रत्यय की अपृक्त संज्ञा होती है । १७६- हलन्त से परे सु, ति, सि के अपृक्त हल का लोप होता है और दीर्घ की, श्राप से सु के अपृक्त हल का लोप होता है । १८०-प्रातिपादिक संज्ञक पद के अन्तिम नकार का लोप होता है।' १८१-अङ्गसंशक सखि शब्द से परे सम्बुद्धिभिन्न सर्वनामस्थान णिद्वत् होता है। १८२-अजन्त अङ्ग को वृद्धि होती है जित् णत् प्रत्यय परे रहते । सनLI Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ अजन्तपु ंल्लिङ्गाः re अजन्ताङ्गस्य वृद्धिर्जिति णिति च परे । 'सखायौ । सखायः । हे सखे । सखायम् । सखायौ।सुखी । सख्ये । उकार बोधसूत्र मुख्या १८३ ख्यत्यात् परस्य ६ । १ । ११२ । खितिशब्दाभ्यां खीतीशब्दाभ्यां कृतयणादेशाभ्यां परस्य ङसिङसोरत ठः । सख्युः' ।" औ' विधिसूत्रम ) १८४ ७ । ३ । ११८ । इदुतोः परस्य ङेरौत् । सख्यौ । शेषं हरिवत विसंज्ञा नियम सूत्र १८५ पतिः समास एवं १ | ४ | ३ | घिसंज्ञः । ४पत्या । पत्ये । पत्युः २ । 'भूपतये । 'कृतिश बहु वचनान्तः । पत्यौ । शेरं हरिवत् । समासे तु १८६ बहु-गण-चतु-डीत संग्ख्या १ । १ । २३ । ६ , १ - सखायौ - सखिशब्दात् प्रथमाद्विवचने श्रविभक्तौ 'सखि श्रौ' इति स्थिते 'सख्युरसम्बुद्धौ' इति णिद्वद्भावे 'चा व्हिति' इति सूत्रेण वृद्धौ कृतायाम् श्रायादेशे सिध्यति रूपं 'सखायौ' इति । २ सखि + ( ङसि ) अस्यरिण कृते 'सख्पस्' उत्वे 'सख्युः' । षष्ठीविभक्तौ – सख्युः, सख्योः सखीनाम् । शेषमुच्चारणं स्पष्टं मूले । ३ - 'पति' शब्दः समास एव 'fa'" - सज्ञ इत्यर्थः । तेन केवलस्य न धिसंज्ञाकार्यारिण । ४० - पत्या- 'पति' शब्दात् तृतीयैकवचने टाविभक्तौ 'पातः समास एव' इति नियमात् घिसंज्ञामावे 'इको यरणचि' इति यणि सिध्यति रूप 'पत्या' इति । ५ – 'ख्यत्यात्परस्य' इत्यतेन 'उत्वम्' । ६ – समासे घिसज्ञाकार्याणि भवन्त्येव । शेषं सर्वं हरिवत् । ७- - 'किम: सङ्ख्यापरिम नित्यं बहुवचनान्तोऽयम् । सङ्ख्या = एते 'सङ्ख्या' इति च' इति 'इति'-प्रत्यये टिलोपः, का सङ्ख्या येषां ते कति ८- बहुः गरणः वतुः उतिः इत्येषां समाहारः = बहुगणवतुडति संज्ञाः स्युरित्यर्थः, वतु इतिप्रत्ययौ, तत्र तदन्ता ग्राह्याः, वत्वन्ता उत्पन्ता इति । १८३ - यण् हो जाने पर ह्रस्व खि ति शब्द और दीर्घ खी ती शब्द से परे ङसि ङस् के अकार को उकार आदेश होता है । १८४ - इकार उकार से परे ङि को श्रोत आदेश होता है । १८५ - पति शब्द की समास में घि संज्ञा होती है । १६ – बहु शब्द गण शब्द वतुप्रत्ययान्त और इतिप्रत्ययान्त की संख्या संज्ञा होती है । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् (यह संज्ञासूत्रम्) १८७ इति च १ । १ । २५ । डत्यन्ता संख्या षट्संज्ञा सूत्रम्) १८८ षड्भ्यो लुक ७ । १ । २२ । "जश्शसोः । लुगादिसंज्ञा सूत्रम्) १८६ प्रत्ययस्य लुक - श्लु-लुपः । १ । १ । ६१ । लुक् श्लु-लुप्-शब्दैः कृतं प्रत्युयादर्शनं क्रमात्तत्तत्संज्ञं स्यात् । १६० प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम् १ । १ । ६२ । प्रत्यये लुप्ते तदाश्रितं कार्यं स्यात् । इति जसि चेति गुणे प्राप्ते१६१ न लुमताऽङ्गस्य १ । १ । ६३ । अलुमता शब्देन लुप्ते तन्निमित्तमङ्गकार्यं न स्यात् । कति २ । कतिभिः । कतिभ्यः २ । कतीनाम् । कतिषु । युष्मदस्मषट्संज्ञकास्त्रिषु " सरूपाः । त्रिशब्दो नित्यं बहुवचनविय त्रीन् । त्रिभिः । त्रिभ्यः २ । १६२ त्र स्त्रयः ७ । १ । ५३ । 1 १ - 'बट् -संज्ञकेभ्यो जस्-शसोर्लुक् स्यात् । २- लुक्-श्लु लुप् संज्ञमित्यर्थः । ३-लुक्श्लुः लुपू (च ) इत्येते लुमन्तः शब्दाः । ४-कति - 'कृति' शब्दात् प्रथमा बहुवचने जसि षट्संज्ञाया 'षड्भ्यो लुक्' इति जसो लुकि सिध्यति रूपं 'कति' इति । ( नच 'प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम्' इति प्रत्ययलक्षणेन 'जसि - चे' ति गुणः स्यादिति वाच्यम्, 'न लुमताङ्गस्ये' ति प्रत्ययलक्षणाभावात् । ५-सरूपाः = समानरूपाः, समानोच्चारणाः इत्यर्थः । ६–त्रि + ( जस ) श्रस्, "जसि च" इति गुणः, श्रयादेशः । १८७ – इति प्रत्ययान्त संख्यावाचक शब्द की षट्संज्ञा होती है । षट्संज्ञक से परे जस्, शस् का लुक् होता है । १८८ १८६–लुक्, श्लु, लुप् इन शब्दों से किया गया जो प्रत्यय का प्रदर्शन, उसकी क्रम से लुक्, श्लु, लुप् संज्ञा होती है । १६० - प्रत्यय के लोप होने पर भी तदाश्रित कार्य होता है । ܢ १६१–लुक्, श्लु, लुप् शब्दों से जहाँ लोप हुआ हो वहाँ तनिमित्तक अङ्ग कार्य नहीं होता । १९२ - त्रिशब्द को त्रय आदेश होता है, आम् परे रहते । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजन्तपुल्लिङ्गाः त्रिशब्दस्य त्रयादेशः स्यादाभि । त्रयाणाम् । त्रिषु । गौणत्वेऽपिप्रियत्रयाणाम् । (अकारनिधिसूनम) १६३ त्यदादीनामः ७ । २ । १०२। सरादीनाम् एषामकारो विभक्तौ । ( दिपर्यन्तानामेवेष्टिः ) द्वौ । द्वौ। द्वाभ्याम् ३ । द्वयोः २। पाति लोकमिति पपीः = सूर्यः । दीर्घाज्जसि च । पप्यौ २ । पप्यः । हे पपीः । पपीम् । पप्या । पपीभ्याम् ३ । पपीभिः। पप्ये । पपीभ्यः२। पप्यः । पप्योः । दीर्घत्वान्न नुट, पायाम् । ङौ तु सवर्णदीर्घः । पपी पप्योः । पपीषु । एवं वातप्रम्यादयः । बह्वयः "श्रेयस्यो यस्य स बहुश्रेयसी। सभा १६४ ‘यू स्व्याख्यौ नदी १ । ४ । ३ । ईदूदन्तो नित्यस्त्रीलिङ्गो नदीसंज्ञो स्तः। (प्रथमलिङ्गग्रहणं च ) = पूर्व 'स्व्याख्यस्योपसर्जनत्वेऽपि नदीत्वं वक्तव्यमित्यर्थः । "१६५ अम्ब र्थनघोह स्वः ७ । ३ । १०७ । १-वहुव्रीहिसमासे (अन्यपदार्थप्रवाने ) समागतानि समस्तानि गौणानि = उपसर्जनानि वा उच्यन्ते । प्रियायो यस्य स प्रियत्रिः' तेषां "प्रिपत्रयाणाम्' । २-'त्यद्' इत्यारभ्य 'द्वि' शब्दपर्यन्त मेव 'अ' कारो भवति- इति इष्यते इष्टिः । ३.-द्वाभ्याम्-'वि' शब्दात् तृतीयाद्विवचने भ्यामि विभक्तौ 'त्यदादीनामः' इति 'इकारस्याकारे 'सुपि चे' ति दी सिध्यति रूपं द्वाभ्याम्' इति । ४-'यापोः किद् द्वे च' इत्युणादिसूत्रण 'ई'प्रत्ययः, द्वित्वम्, पालो पश्च, 'पातो लोप इटि च' इत्यनेन । ५ आमि रूपमिदम् । ६-पपी-'पपीशब्दात् सप्तम्येकवचने 'ङि' विभक्तौ अनुबन्धलोपे 'पपी' इति रूपम् । ७-श्रेयस्यः == कल्याएयः स्त्रियः । ८-ईश्च ऊश्व 'यू' = ईदूदन्तौ इत्यर्थः, स्त्र्याख्यौ = नित्यस्त्रीलिङ्गी, इत्यर्थः, स्त्रियम् प्राचक्षाते इति विग्रहाद्, तदेवाह वृत्तौ। ६-यः शब्दः प्रथम स्त्रोलिङ्गः स्यात् पश्चादुपसनदशायां लिङ्गविपर्ययेऽपि तस्य नदीसंज्ञा भवतीति भावः । १०-'अम्बार्थानां नद्यन्तानां च हस्वः स्यात् सम्बुद्धौ, इति सूत्रार्थः । १६३-त्यदादियों को अकार अन्तादेश होता है विभक्ति परे रहते ('द्वि शब्द तक)। १९४-ईदन्त, ऊदन्त नित्य स्त्रीलिङ्ग शब्दों की नदी संज्ञा होती है। ( वा० जो शब्द पहले नित्य स्त्रीलिङ्ग हो वह उपसर्जन होने से अन्यलिङ्ग में भी नदीसंज्ञक होता है।) १६५-अम्बार्थक और नदीसंज्ञक को ह्रस्व होता है सम्बुद्धि परे रहते । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् अरसम्बद्धौ हे बहुश्रेयसि । आ(2) नद्या;10032217 १९६ आएनधाः ७।३। ११२ । नद्यन्तात् परेषा कितामाडागमः । १६७ आटेश्च ६।१।६० । आटोऽचि परे वृद्धिरेकादेशः । 'बहुश्रेयस्यै । बहुश्रेयस्याः २ । नद्यन्तत्वान्नुट् । बहुश्रेयसीनाम् । आरआरेानिधिसूनार) ११८ उराम्नद्याग्नीभ्यः ७ । ३ । ११६ । नद्यन्तादाबन्तानीशब्दाच्च परस्य डेराम् । बहुश्रेयस्याम् । शेष पपीवत् । अयन्तत्वान्न सलोपः अविलन्मीः, शेषं बहुश्रेयसीवत् । प्रधीः । १६६ अचिं श्नु-धातु-भ्र वां योरियङबङौ ६ । ४ । ७७ । श्नुप्रत्ययान्तस्येवर्णोवर्णान्तस्य धातोधू इत्यस्य चाङ्गस्येवडो स्तोऽजादौ प्रत्यये परे । इति प्राप्ते १-डिताम् द्विचनानाम् ( ङ, इस , ङि इत्येतेषाम् )। २-बहुश्रेयस्यै'बहुश्रेयसी' शब्दात् चतुर्थंकवचने 'डे' विभक्तौ अनुबन्धलोपे 'बहुश्रेयसी ए' इति स्थिते नदीसंज्ञायाम 'पारण नद्याः' इति प्राडागमे 'बहुश्रेयसी पा ए' इति जाते 'पाटश्चे' ति वृद्धौ ‘इको यणचि' इति यणि सिध्यति रूपं बहुश्रयस्यै इति । ( यद्यपि 'बहुश्रेयसी' शब्दस्य नित्यस्त्रीलिङ्गत्वाभावात् 'यू स्व्याख्यौ नदी' इत्यनेन नदीसंज्ञा न प्राप्नोति, तथापि 'प्रथमलिङ्गग्रहणं च' इति वार्तिकेन भवत्येवात्र नदीसंज्ञा )। ३-नुटः परत्वादाट । ४-“लक्षेमुट् च” इत्युणादिसूत्रेण 'ई' प्रत्ययः, मुडागमश्च 'प्रत एव डोबन्तत्वाभावाद् हलङयाबिति सुलोपो न । ५-प्रध्यायतीति प्रधीः, इति विग्रहः । प्रकृष्टा घोर्यस्येति विग्रहे तु 'धी'-शब्दस्य नियत्रोत्वात् यथायथं नदोकार्यारिण भविष्यन्त्येव ( बहुश्रेयसीवत् )। १६६-नधन्त से परे डिद्वचनों को आट का आगम होता है। १६७-आट से अच पर रहते वृदधि एकादेश होता है । १९८-नयन्त, आबन्त और नीशब्द से परे डि को आम आदेश होता है । १६६-श्नुप्रत्ययांत, इवत, उवर्णात, जो धातु और "भ्रू' अङ्ग को इयङ, उवङ् श्रादेश होता है अजादि प्रत्यय परे रहते । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (यणाराविधिसुत्राला २०० एरनेकाचोऽसंयोगपूर्वस्य ६ । ४ । ८२ । धात्ववयवसंयोगपूर्वो न भवति य इवर्णरतदन्तो यो धातुस्तदन्तस्यानेकाचोऽङ्गस्य यणजादौ प्रत्यये। 'प्रध्यौ । प्रध्यम् । प्रध्यः । प्रध्यि । शेषं पपीवत् । एवं ग्रामणीः । छौ तु ग्रामण्याम् । अनेकाचः किम्-नीः नियौ नियः। अमि शसि च परत्वादियङ्। नियम् । नियः। ङराम्, नियाम् । असयोगपूर्वास्थ किमसुथियो । यवक्रियौ। २०१ गतिश्च ।४।६। प्रादयः क्रियायोगे गनिसंशाः स्युः ( गतिकारकेतरपूर्वपदस्य या नेष्यते)। शुद्धधियो स्थान निधनान) २०२ न भूसुधियोः ६।४। ८५। १-प्रध्यो-'प्रधी' शब्दात् प्रश्रमाद्विवचने पौविभक्तौ 'अचिश्नु धातु 'इत्यनेन इयङि प्राप्ते 'एरनेकाचोऽसंयोगपूर्वस्य' इत्यनेन यण सिध्यति रूपं 'प्रध्यौ' इति । २- ग्राम नयति इति ग्रामणी:=ग्राममुख्यः, ( भाषायाम 'नम्बरदार' इति ) । ३-ग्रामण्याम् - 'ग्रामणी' शब्दात् सप्तम्येकवचने डिविभक्तौ 'ग्रामणी इ' इति स्थिते 'डेरामनद्याम्नीभ्यः' इति सूत्रेण डेरामि 'एरनेकाचो' इति यण सिध्यति रूपं ग्रामण्याम्' इति । ४-नी + प्रम, अत्र "इको यणचि" इति प्राप्तं यणं बाधित्वा "प्रमि पूर्वः" इति पूर्वरूपं प्राप्नोति, ततः परत्वात् "अचि तु ..'' इति ‘इयङ्' "एरनेकाच " इति स्विहन प्रवर्ततेऽनेकाच्चाभावात् । ५ -- शोभनं श्रयतीति विग्रहः । शोभना श्रीर्यस्येति विग्रहे तु नदीत्वं स्यादेव । ६ - गतिकारकपुर्वपदस्यैव यरण इति भावः, तेन शुद्धा धीर्यस्य स शुद्धधीः, शुद्धधियौ, शुद्धधियः । इत्यादौ 'शुद्ध शब्दस्य' गतिकारकत्वाभावान्न यण किन्तु इयङ् । उपसर्गाणामेव गतिसंज्ञा । ___ २००-धातुके अवयवों का संयोग नहीं है पूर्व में जिसके ऐसा जो इवर्ण, उवर्ण, तदन्त जो धातु, तदन्त जो अनेकाच अङ्ग उसको यण होता है अजादि प्रत्यय परे रहते। २०१-प्रादियों की क्रिया के योग में गतिसंज्ञा होती है। (वा० गतिकारक से इतर पूर्वपद हो तो यण नहीं होता )। २७२--भू और सुधी को यण नहीं होता अजादि सुप् प्रत्यय परे रहते । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मसाज.) लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ___एतयोरचि सुपि यण् न । 'सुधियो। सुधियः, इत्यादि। सुखमिच्छतीति सुखीः। सुतमिच्छतीति सुतीः । सुख्यौ, सुत्यौ। सुख्युः, सुत्युः। शेषं प्रधीवत् । शम्भुईरिवत् । एवं भान्वादयः । वृज्यहा०३ तुज्यत् क्रोष्टुः ७ । १।६५। असम्बुद्धौ सर्वनामस्थाने परे क्रोष्टुशब्दस्य स्थान क्रोष्टशब्दः प्रयो तव्य इत्यर्थः। (शुगनिधिसूरा- २०४ ऋतो ङि-सर्वनामस्थानयोः ७।३ । ११० । तोऽस्य गुणो ङौ सर्वनामस्थाने च । इति प्राप्तेअगएकादशनस्पुरुदंसोऽनेहसां च ७। १।६४। ऋदन्तानामुशनसादीननं चानक स्यादसम्बुद्धौ सौ । २०६ अप्ठेन-तच-स्व-नप्त-नेष्ट-त्वष्ट-सत्त-होत-पोत-प्रशास्तृणाम् ६ । ४ । ११ । १-सुधियौ-सुधी' शब्दात् प्रथमाद्विवचने प्रौ विभक्तौ 'सुधी औ' इति स्थिते 'इको यणचि' इति यणं बाधित्वा 'अचि रुनुधातु ' इत्यनेन इयङ् प्राप्नोति, तं च 'एरनेकाचो' इति यण बावते, यणं च तं 'न भूसुधियोः' इति निषेति पुनश्च 'अचि नु' इत्यादिना इयङि कृते सिध्यति रूपं 'सुधियो' इति । २-सूखी + (सि) प्रस , सुती+(सि ) अस् , यणि कृते "ख्यत्यात्परस्य” इति-उत्वम् । ३-१ भानुः भानू, मानवः। । ५ भानोः, भानुभ्याम, भानुभ्यः । २ भानुम्, मानून् । ६ भानोः, भान्वोः, भानूनाम । ६ भानुना, भानुभ्याम, भानुभिः । ७ भानौ , भानुषु । ४ भानवे , भानुभ्यः । । (सं० ) हे भानो ! शेषं प्रथमावत् । एवं ह्रस्व-उकारान्ताः सर्वेऽपि पुल्लिङ्गाः शब्दा बोध्याः । ४-उशना - शुक्राचार्यः । पुरुदंसा = माजरिः । अनेहा = समयः । २०३-क्रोष्टु शब्द को तृज्वद्भाव होता है, सम्बुद्धिभिन्न सर्वनामस्थान परे रहते । २०४-ऋदन्त अङ्ग को गुण होता है ङि और सर्वनामस्थान परे रहते।। २०५-ऋदन्त और उशनस् आदिको अनङ् आदेश होता है सम्बुविभिन्न सुपरे रहते। २०६-अप आदियों की उपधा को दीर्घ होता है, सम्बुदिभिन्न सर्वनामस्थान परे रहते। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजन्तपुल्लिङ्गाः अबादीनामुपधाया दीर्घोऽसम्बुद्धौसर्वनामस्थाने।' क्रोष्टा। क्रोष्टारौ। कोष्टारः । क्रोष्टारम् । क्रोष्टून ५ सज्चमानविधिसूत्रम्) २०७ विभाषा तृतीयादिष्वचि ७ । १ । ११ । अजादिषु तृतीयादिषु कोष्ट तृज्वत् । कोष्ट्रा । कोष्ट्र । २०६ऋत उत्६११११ । . भूतो सिङसोरत उदेकादेशः । रपरः । ।।३हरात सस्य ८।२। २४ । रेफात्संयोगान्तस्य सस्य व लोपो नान्यस्य । रेफस्य विसर्गः । कोष्टुः । कोष्टोः। (नुमधिरतज्वद्भावेभ्यो नुट पूर्वविप्रतिषेधेन) कोष्टूनाम् । कोष्टरि। पक्षे हलादौ च शम्भुवत् । हूहूः । हौ । हूतः । हूहून् । १.-कोष्टा-'क्रोष्टु' शब्दात् प्रथमैकवचने सुविभक्तो 'तुज्वत् क्रोष्टुः' इति तत्वद्भावे 'क्रोष्ट स्' इति स्थिते 'ऋतो ङि सर्वनामस्थानयोः' इत्यनेन प्राप्तं गुणं बाधित्वा 'ऋदुशनस् पुरुदंसोऽनेहसां च' इत्यनेन अनङि 'क्रोष्टन् स्' इति जाते 'एकदेशविकृतमनन्यवद्' इति न्यायेन 'अप् तुन्' इति उपधा दोधे 'हलङ्याब्भ्योः ' इति सलोपे नकारलोपे च सिध्यति रूपं 'क्रोष्टा' इति । २-क्रोष्टुः–'कोष्टु' शब्दात् पञ्चम्येकवचने 'हसि विभक्तो वैकल्पिके तृज्वद्भावे 'कोष्ट अस्' इति स्थिते 'ऋत उत्' इति उत्वे एकादेशे रपरत्वे च 'क्रोष्टर् स्' इति जाते 'रात्सस्य' इति सकारलोपे रेफस्य विसर्गे 'क्रोष्टुः' इति रूपम्। ३-१ क्रोष्टा, क्रोष्टारो, क्रोष्टारः । ५ क्रोष्टुः - क्रोष्टोः, क्रोष्टुभ्याम्, कोष्टुभ्यः २ क्रोष्टारम, क्रोष्टून् । ३ ,,, कोष्ट्रोः = कोष्ट्वोः , कोष्ट्रनाम् ३ क्रोष्ट्रा क्रोष्टुना क्रोष्टुभ्य म क्रोष्टुभिः ७ कोष्टरि = कोष्टी, -, कोष्टषु ४ क्रोष्ट्र =क्रोष्टवे, , क्रोष्टुभ्यः (सं०) हे कोष्टो ! शेष प्रथमावत् । ____२०७-क्रोष्टु शब्द को तृवद्भाव होता है विकल्प से, अजादि तृतीयादि विभक्ति परे रहते। २०८-ऋदन्त अङ्ग से ङसि ङस् सम्बन्धी अकार परे रहते पूर्व पर के स्थान में उकार आदेश होता है। २०६-रेफ से परे संयोगान्तलोप केवल स का ही होता है अन्य का नहीं। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् इत्यादि । अतिचमूशब्दे तु नदीकार्य विशेषः। हे अतिचमु ! । अतिचम्वै । अतिचमूनाम् । खलपूः।(प्रणनिधिसूना) २.१० ओः सुपि ६।४।८६। धात्ववयव-संयोगपूर्वो न भवति य उवर्णस्तदन्तस्यानेकाचोऽङ्गस्य यण स्यादचि सुपि । 'खलप्वो। खलप्वः। एवं सुल्वादयः । स्वभूः । २स्वभुवौ । स्वभुवः । वर्षाभूः यानिधिसूत्रा) २११ वर्षावरच ६।४।८४।। अस्य यण स्यादचि सुपि । वर्षाभ्वावित्यादि । इन्भूः । ( इन्-कर पुनः पूर्वस्य भुवो यण वक्तव्यः) इन्भ्वौ। एवं करभूः । धाता । हे धातः!। धातारौ । धातारः। (ऋवर्णान्नस्य णत्वं वाच्यम् ) धातृणाम् । एवं नात्रा -द्वितीयायाम्--खलप्वम्, खलप्वौ, खलप्वः। एवं सर्वत्राजादौ विभक्तो यण । २-स्वभुवी-स्वभू' शब्दात् प्रथमाद्विवचने औविभक्तौ 'इको यणचि' इति प्राप्तं यणं वाधित्वा 'अचि श्नु धातु..' इति उवङ् प्राप्नोति, तश्च 'पोः सुपि' इति यण बाधते तश्चापि 'न भू सुधियो' रिति निषेधति, पुनश्च 'प्रचि श्नु' इति उवङि कृते सिध्यति रुप 'स्वभुवौ' इति । ३-१ धाता धातारौ, धातारः ।। ५. धातुः, धातृभ्याम्, धातृभ्यः । २ धातारम् , धातृन् । ६ , धात्रोः, धातृणाम् । ३ धात्रा धातृभ्याम् धातृभिः।। ७ धातरि, , धातृषु । ४ धात्रे, धातृभ्यः । । ( स० ) हे धातः ! शेषं प्रथमावत् । एवम्-ऋकारान्ताः कत्तृ-भत्त-सवित्रादयः । (वा-नुम, अच् परे रहते रभाव और तृज्वद्भाव इनकी अपेक्षा पूर्वविप्रतिषेध से नुट ही होता है।) ___ २१०-धातु के अवयवों का संयोग पूर्व में नहीं है जिसके ऐसा जो उवर्ण, तदन्त जो धातु, तदन्त जो अनेकाच् अङ्ग, उसको यण होता है अजादि सुप परे रहते ? २११-वर्षाभू शब्द के अवयव उवर्ण के स्थान में यण होता है अजादि सुप् परे रहते। (वा० (१) दृन्करपुनःपूर्वक भू के उवर्ण को यण होता है अजादि सुप् परे रहते । (२) ऋवर्ण से परे भी न को ण होता है) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याचित्र वः। अजन्तपुल्लिङ्गा दयः। ननादिग्रहणं 'व्युत्पत्तिपक्षे नियमार्थम् । तेनेह न-पिता, पितरौ पितरः । पितरम् । शेधातृवत । एवं जामात्रादयः । ना' । नरौ । २१२ नृ चे६।४।६।। अस्य नामि वा दीर्घः न णाम, नाम् । २१३ गोतो णित विविनिधिसूत्र ओकाराद्विहितं सर्वनाममान गिद्यात, २१४ प्रौतोऽम शसोः दाहा। प्रोतोऽम् शसोरचि आकार एकादेशः । गाम् । गावौ । गाः । गवा । गवे । गोः २ । इत्यादि । १-उणादिविषयेऽस्ति पक्षद्वयम् "उणादीनि-अव्युत्पपन्नानि प्रातिपदिकानि" इत्येकः । 'व्युत्पन्नानि' इत्यपरः । व्युत्पन्नानीति पक्षे सवे एते शब्दाः उणयन्तर्गताः प्रकृतिप्रत्ययविभागवन्तः । अव्युत्पत्तिपक्षे च नैतेषु प्रकृतिप्रत्ययविभागवन्तः । तत्र व्युत्पत्तिपक्षे - व्युत्पन्नानि-इति मते नत्रादीनामपि तुन्-तृजन्तत्वेनैव दीर्घ सिद्धे पुनस्तेषां ग्रहणं नियमार्थम् -"सिद्धौ सत्यामारभ्यमाणो विधिनियमाय" इति न्यायात् । स नियमश्चायम् "उणादिनिष्पन्नानां द्वन्-तुच-प्रत्ययान्तानां संज्ञाशब्दानां चेदुपधादीर्घस्तहि नत्रादीनामेव" इति । तेन पित्रादीनां न-पिता, पितरौ, पितरः । अव्युत्पत्तिपक्षे तु तेषु सर्वत्र प्रकृतिप्रत्ययकल्पनाऽभावात् सूत्रे गृहीतानामेव भविष्यति दीर्घः, इति पितृमात्रादीनां दीर्घप्राप्तिरेव नास्ति । २-पितरौ---'पित' शब्दात् प्रथमाद्विवचने औविभक्तौ 'ऋतो डि सर्वनामस्थानयोः' इत्यनेन रपरे गुणे सिध्यति "पितरौ' इति । ('अप्तृन्' इति दोघंस्तु न; नातोदिग्रहणस्य व्युत्पत्तिपक्षे नियमार्थत्वात्) । ३-नृ+सु+मनङ्, सुलोपः, दोघः, ना = पुरुषः । ४-प्रोतो रिणदिति वाच्यम्, प्रत एव वृत्तौ प्रोकाराद् विहितमित्यादि । ५--णिवद्धावात् "प्रचो णिति" इति वृद्धिः, गौः, गावौ इत्यादि । ६--गावी 'गो' शब्दात प्रथमाद्विवचने पौविभक्तौ णिद्वद्भावे 'प्रवो रिणति' इति वृद्धौ ‘एचोऽयवायावः' इति अावा देशे गावौ' इति स्पं सिध्यति । ७--गोशब्द उभयलिङ्गः, उच्चारणं समानमेव । सप्तम्याम् -गवि, गवोः, गोषु । २१२-7 को दीर्घ होता है विकल्प करके नाम परे रहते । २१३-ग्रोकार से विहित सर्वनामस्थान णिद्वत् होता है. २१४-अोकार से अम् शस् सम्बन्धी अच् परे रहते पूर्व पर के स्थान में अकार एकादेश होता है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् (आकाशदेशानधिसूत्रा) २१५ गयो हलि ७ । २ । ८५। अस्याकारादेशो हलि विभक्तौ । राः रायौ । रायः। राम्यामित्यादि । ग्लौः । ग्लायौ । ग्लावः ग्लौभ्यामित्यादि । इत्यजन्ताः पुंल्लिकाः अथाजन्त-स्त्रीलिंगाः 'रमा । (2ी' आदेशानिधिसूत्रम) २१६ औङ आपः ७।१।१८। आबन्तादङ्गात् परस्यौङः शी स्यात् । औङित्यौकारविभक्तेः संज्ञा। रमे । रमाः। (गनार 'डादेशनिचिश्ता) २१७ सम्बुद्धौ च ७।३।१०६ । १-रै-शब्दोऽयं धनवाची--तदुच्चारणम --- १ राः, रायौ, रायः । | ५ रायः राभ्याम, राभ्यः । २ रायमू , ६ रायः, रायोः, रायाम । ३ राया, राभ्याम, राभिः । ७ राय रासु । ४ राये, राम्यः । । ( सं० ) हे राः ! प्रथमावत् ।। इत्यजन्ताः पुंलिङ्गाः। २- रमते-इति रमा 'रम ' धातोः पचाद्यचि राप्। रमा सु+"हलङ्यान्" इति सुलोपः । ३-रमा+ौ, औङः शीभावे शकारस्येत्संज्ञायां लोपे च गुणः । ४-रमा+ ( जस्) अस् यद्यपि पूर्वसवर्णदीर्घः प्राप्तः, परं "दीज्जिसि च" इति निषेषात न भवति, ततश्च "प्रकः सवर्णे दीर्घः" इति दोषों भवति । शसि तु "प्रथमयोः" इति पूर्वसवर्णदीर्घ एव । २१५-रेशन्द को आकार अन्तादेश होता है हलादि पिभक्ति परे रहते । इत्यजन्तपुल्लिङ्ग प्रकरणम अथ अजन्तस्त्रीलिङ्गप्रकरणम २१६-श्राबन्त अंग से परे औ को शी आदेश होता है। २१७-आबन्त अंग को एकार होता है सम्बुद्धि में । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अजन्तस्त्रलिङ्गाः इन पाच स्थल का आप एकारः स्यात् सम्बुद्धौ । एङ् हस्वादिति सम्बुद्धिलोपः । हे रमे !, म रमे रमः । २१८ आडि चापः ७ । ३ । १०५ । 17 हे रमे !, हेरमा आङ सि चाप एकारः } आगमविधि २१६ याडापः ७ । ३ । ११३ । 3 २ श्रापो ङितो याट् । ' वृद्धिः । ४ रमायै । रमाभ्याम् ३ । रमाभ्यः २ । रमायाः २ । रमयोः २ । “रमाणाम् । ६ मायाम् । दुर्गाम्बिकादयः स्यात्' आगम-दुस्यनिधि सूत्रम्) रमासु । एवं २२० सर्वनाम्नः स्याड्ढस्वश्च ७ । ३ । ११४ । बन्तात् सर्वनाम्नो ङितः स्याट् स्यादापश्च ह्रस्वः । 'सर्वस्यै । सर्वस्याः २ । सर्वासाम् । 'सर्वस्याम् । शेषं रमावत् । १० रेवं विश्वादयः आबन्ताः । ૭ रमाभ्याम् । रमाभिः । १ - रमा + (टा ) श्रा, श्राप एत्वेऽयादेशः । २ - श्राबन्तात्परस्य ङिद्वचनस्य 'घाट' प्रागम इत्यर्थः । ३–“वृद्धिरेचि" इत्यनेन । ४ - रमायै 'रमा' शब्दात् चतुर्थ्येकवचने ङ - विभक्तौ 'रमा ए' इति स्थितौ 'याडाप:' इति याडागमे टकारलोपं 'रमा या ए' इति जाते 'वृद्धिरेचि' इति वृद्धौ सिध्यति रूपं 'रमायै' इति ५- रमा + श्राम् प्राबन्तत्वात् "ह्रस्वनयापो नुट्” इति श्रमो नुट् ( श्रागम: ) नस्य णत्वं रमाणाम् । ६ - रमा + ङि. "हेराम्नयाम्नीभ्यः" इति ङेरामि, स्थानिवद्भावेन प्रामो ङित्वमाश्रित्य " याडाप:' इति याट् । ७-प्राकारान्ताः स्त्रीलिङ्गाः प्रायः सर्वे । ८-सर्वस्यै सर्वशध्दात स्त्रीत्वे टाप् सर्वा (डे) ए, याटोडावादः 'स्याट्' पूर्वस्य - आप अकारस्य ह्रस्वः "वृद्धिरेचि" इति वृद्धिः, न तु " प्राटश्चेति" प्रत्राटकदेशत्वेनाऽनर्थकत्वात् । ६ - सर्वस्याम् - 'सर्वां' शब्दात् सप्तम्येकवचने ङिविभक्तौ 'डे राम्नद्याम्नीभ्यः' इति ङेरामि स्थानिवद्भावेन ङित्वमाश्रित्य 'सर्वनाम्नः स्याड्ढस्वश्च' इति स्याटि श्रापश्त्र ह्रस्वे 'सर्वस्था श्राम्' इति स्थितौ सवर्णदीर्घे सिध्यति रूपं 'सर्वस्याम्' इति । १०- सर्वाशब्दतुल्या इत्यर्थः । २१८ - आङ् श्रोस् परे रहते श्राबन्त अंग को एकार होता है । २१६-आत्रन्त अंग से परे ङिद्वचन को याट् का श्रागम होता है । २२० - श्राबन्त सर्वनाम से परे ङिद्वचन को स्याट् का श्रागम होता है और प् की हस्व होता है । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ . (सर्वनाम संज्ञा सिद्धान्तकौमुद्याम् ___ २२१ विभाषा दिक समासे बहुव्रीहौ १ । १ । २८ । सर्वनामता वा। 'उत्तरपूर्वस्यौ, उत्तरपूर्वायै । तीयस्येति वा संज्ञा । द्वितीयस्य, द्वितीयाय । एवं तृतीया । (१६५) अम्बार्थेति ह्रस्वः । हे अम्ब ! हे अक्क !। हे अल्ल ! जरा । जरसौ, इत्यादि। पक्षे हलादौ च रमावत् । गोपा विश्वपावत् । "मतीः । मत्या। २२२ डिति ह्रस्वश्च १।४।६। "इयडुचस्थानौ स्त्रीशब्दभिन्नौ नित्यस्त्रीलिङ्गावीदूतौ हस्वौ च इवर्णोवर्णी स्त्रियां वां नदीसंझौ स्तो डिति । मत्य, 'मतये । मत्याः २, मतेः २। ... आम निधिसूत्रा) २२३ इद्याम् ७।३।११७ । (दीसंतासूत्रा) +-उत्तरस्याः पूर्वस्याश्च दिशोऽन्तरालम् = उत्तरपूर्वी, तस्यै–उत्तरपूर्वस्यै। २"तीयस्य डित्सु वा" इत्यनेन । ३-जरसौ-'जरा' शब्दात् प्रथमाद्विवचने प्रौविभक्तौ 'जरायाः जरसन्यतरस्याम्' इति जराशब्दस्य जरसादेशे 'जरसौ' इति रूपं पक्षे त्र 'प्रौ प्रापः' इति प्रौङः शीत्वेऽनुवन्धलोपे पूर्वपरयोगुणे भवति रूपं 'जरे' इति । ४-गाः पातीति गोपाः स्त्री, नायं टाबन्तः किन्तु क्विबन्तः, तेन सुलोपो याट् च न। सर्व चास्योच्चारणं पुल्लिङ्गविश्वपाशब्दवद् बोध्यम् । गोपशब्दस्य स्त्रीत्वे तु गोपी, इत्येव । ५-मति + (शस ) अस् पूर्वसवर्णदोघे सस्य रुत्वविसर्गों, स्त्रीत्वान्नत्वं न । ६-स्त्रीत्वात् 'ना'-भावो न । ७-इयङ बमाप्तियोग्यौ इति भावः । -मति + (3) ए नद्यन्तत्वादाट, वृद्धौ यण , मत्यै । नदीत्वाभावपक्षे घिसंज्ञाकार्यम् गुणः, माय । २२१-दिक्समास बहुव्रीहि की सर्वनामसंज्ञा विकल्प से होती है । २२२-इयङ् उवङ् के स्थानी स्त्री-शब्द से भिन्न नित्य स्त्रीलिंगवाची ईकार ऊकार तथा ह्रस्व इवर्ण उवर्ण की नदीसंज्ञा विकल्प से होती है, ङिद्रचन परे रहते । २२३-नदी संज्ञक इकार उकार से परे डि को श्राम होता है । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजन्तस्त्रीलिङ्गाः इदुनयां नदीसंक्षकाभ्या परस्य डेराम् । मत्याम् , 'मतौ । हरिवत् । एवं बुद्धयादयः समाचलस आरेालिपिन्ना) २२४ त्रिचतुरोः स्त्रियां तिसृचतसृ ७ । २ । ६६ । स्त्रीलिङ्गयोरेतयोरेती स्तो विभक्तौ । २२५ अचि र ऋतः ७ । २ । १०० । तिसवतस् एतयोर्ऋकारस्य रेफादेशः स्यादचि। गुण-दीर्घोत्वानामपवादः। तिस्रः, तिस्रः । तिसृभिः। तिसृभ्यः । तिसृभ्यः। आमि नुट । २२६ न तिसृचतसृ ६ । ४ । ४।। एतयोर्नामि दी? न । तिसृणाम् । तिसृषु । द्वे। द्वे। द्वाभ्याम् । -मति + ङि, नदीत्वाभावपक्ष 'घि' संज्ञायाम् "अच्च घेः' इति इकारस्याकारः, रौत्वे च "वृद्धिरेचि" इति वृद्धौ सत्याम् मतौ१ मतिः, मती, मतयः । ५-मत्याः = मतेः, मतिभ्याम्, मतिभ्यः २ मतिम्, मती, मतीः ६-, , मत्योः, मतीनाम् ३ मत्या मतिभ्याम्, मतिभिः । ७- मत्याम् = मतौ, , मतिषु ४ मत्यै = मतये , मतिभ्यः । सं० हे मते ! (इत्यादि । मतिः = बुद्धिः) २-(हस्व )-इकारान्ताः स्त्रीलिङ्गाः। ३-'तिस्रः' इति जसि 'ऋतो डि....' इति प्राप्तम् “जसि च" इति प्राप्तं वा गुणं बाधते । 'तिस्रः' इति शसि पूर्वसवर्णदीर्घ बाधते । प्रियतिसः' इति डसि "ऋत् उत्" इति उत्वचापवादत्वादयं बाधते इत्यर्थः। ४-(त्रि) तिर+ (जस) अस , ऋकारस्य रेफादेशः । शब्दोऽयं नित्यबहुवचनान्तः । एवं (चतुर् ) चतर-शब्दोऽपि बोध्यः । ५-'द्वि' शब्दो नित्यं द्विवचनान्तः। स्त्रीस्वे विभक्तौ "त्यदादीनामः' इत्यत्वे टाप (द्वि) द्वा+ौ इति स्थितौ "प्रौङ प्रापः" इत्यौकारस्य शीत्वे गुणः - द्वे इति सिद्धम् । २२४-त्रि और चतुर् शब्द को त्रीलिङ्ग में तिस और चतस आदेश होता है । २२५-तिस चतसृ शब्द के ऋ को र होता है अच् परे रहते । २६-तिसृ चतसृ को आम में दीर्घ नहीं होता । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम द्वाभ्याम् । द्वाभ्याम् । द्वयोः । द्वयोः । गौरी। 'गौर्यो । गौर्यः । हे गौरि । गौर्यै। इत्यादि । एवं नद्यादयः। लक्ष्मीः। शेषं गौरीवत् । एवं तरीतन्त्र्यादयः । स्त्री । हे स्त्रि। महारेशनिधिसूसम) २२७ स्त्रियाः ६ । ४ । ७६ । अस्येयङ् स्यादजादौ प्रत्यये परे । स्त्रियौ । स्त्रियः। २२८ वाम्शसोः ६।४।८० अमि शसि च स्त्रिया इयङ्ग वा स्यात् । स्त्रियम्, स्त्रीम् । त्रियः, स्त्रीः । स्त्रिया । स्त्रियै । स्त्रियाः। परत्वान्नुट , स्त्रीणाम् । स्त्रीषु । श्रीः । श्रियौ । श्रियः पनरीसंज्ञानिमेशा सूना) २२६ नेयवस्थानावस्त्री १ । ४ । ४ । १-गौरी प्रौ = गौयौं, गौरी + अस् = गौर्यः । उभयत्रापि "दोर्घाज्जसि च" इति निषेषापूर्वसवर्णदोघों न, किन्तु यण। २-हे गौरि ! इत्पत्र "अम्बाथन द्योर्हस्वः" इति ह्रस्वः ३-"लक्षेमुट च" इत्युणादिसूत्रेण 'ई-प्रत्ययो मुडागमश्च, प्रड्यन्तस्वान्न स्लोपः। ४-अवो-तन्त्री तरी-लक्ष्मी-धी हो-श्रीणामुणादिषु । सप्त-स्त्रीलिङ्गशब्दानां न सुलोपः कदाचन ।। ५-स्त्रीणाम् – 'स्त्री' शब्दात् षष्ठोबहुवचने प्रामि 'यूस्त्र्याख्यौ नदी' इति नदी संज्ञायां 'हस्वनद्यापो नुट्' इति नुडागमे 'पर्जन्यवत् लक्षणप्रवृत्तिः' इति न्यायेन दीर्घस्यापि पुनामि' इति दीघे णत्वे 'स्त्रीणाम्' इति रूपम् । “स्त्रियाः" इति प्राप्तम् इयङादेशं परत्वाद् "हस्वनद्यापो नुड्' इति नुड् बाधते, स्त्रीणाम् । सप्तम्यां तु स्त्रो+ डि, डेरामि इयङ् एव, न तु नुट , अत्र प्रामो लाक्षणिकत्वात् 'लक्षणप्रतिपदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्यैव ग्रहणम् इति न्यायात् । २२७-स्त्री शब्द को इयह आदेश होता है, अजादि प्रत्यय परे रहते । २२८-स्त्री शब्द को इय विकल्प से होता है, अम् और शस् में । २२६-इयङ् उवङ् के स्थानी नित्य स्त्रीलिंग ईकार ऊकार की नदीसंज्ञा नहीं होती है, स्त्री शब्द को छोड़कर (अर्थात् स्त्री शब्द की तो नदो संज्ञा होती ही है)। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ अजन्तस्त्रीलिङ्गाः इयवडोः स्थितियोस्तावोदूतौ नदीसंज्ञो न स्तो न तु स्त्री। हे श्रीः। 'श्रियै । श्रियाः २, श्रियः२ नदी संज्ञासूर) २३० वामि १।४।५। इयवस्थानौ स्न्याख्यौ यू आमि वा नदीसंशौ स्तो न तु स्त्री। 'श्रीणाम, शियाम् । श्रियि, श्रियाम् । धेर्नुमतिवत् । राज्य २३१ स्त्रियां च ७।१।६६ । स्त्रीवाची कोष्टुशब्दस्तृजन्तवद्र पं लभते । "२३२ ऋन्नेभ्यो डीप् ४ । १ । ५। ऋदन्तेभ्यो नान्तेभ्यश्च स्त्रियां ङीप् । क्रोष्ट्री गौरीवत्। 'भ्र: श्रीवत् । स्वयंभूः पुंवत् । डीम टाम सिप्रेधसूर) २३३ न पटस्वस्रादिभ्यः ४ । १।१०। डीपटापौ न स्तः। स्वसा तिस्रश्चतस्रश्च "ननान्दा दुहिता तथा । याता मातेति सप्तैते स्वस्त्रादय उदाहृताः । १-"ङिति ह्रस्वश्च' इति ङित्सु ( 3 ङसि उस् डि इत्येतेषु ) वा नदी संज्ञा। श्री+ (ङ) ए। 'प्राणनद्याः' इत्याट् , "पाटश्च'' इति वृद्धिः, इयङ् । नच 'नेयवस्थानावस्त्री' इति ङित्स्वपि नदीसंज्ञानिषेधः स्यादिति वाच्यम् , 'हे श्रीः !' इति सम्बोधने तस्य चरितार्थत्वात, डिति पृथग्विधानाच्च । २-नदीत्वपक्षे नुट । ३-हे भ्रः !। ४-पटसंज्ञकेभ्यः स्वमादिभ्यश्च ङीप-टापौ न स्तः । इति सूत्रार्थः ५-ननान्दा ननान्दरौ, ननान्दरः । ननान्दरम्, ननान्दरौ, ननान्दः । ननान्द्रा। ननान्द्रे। ननान्दुः २ । ननान्द्रोः २। ननान्दरि । हे ननान्दः !। ननान्दा = पत्युभंगिनी ( ननद इति भाषा)। ६-दुहिता, दुहितरौ, दुहितरः । ७-याता यातरौ, यातरः (भ्रातृभार्याः परस्परं यातरः) २३०-इयङ् उवङ-स्थानी, नित्यस्त्रीलिंग ईकार ऊकार की नदी संज्ञा होती है विकल्प से आम परे रहते; स्त्री को छोड़कर । २३१-स्त्रीवाची क्रोष्टुशन्द के तृजन्त के सदृश रूप होते हैं । २३२-ऋदन्त और नान्तों से डीप होता है स्त्रीलिङ्ग में। २३३-घटसंज्ञक और स्वस्रादियों से डीप और टाप नहीं होते । इति स्त्रीलिंगाः । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PM ..३1 7110..... लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् स्वसा। स्वसारौ। माता पितृवत् , 'मातुः। द्यौर्गोवत् । राः पुंवत् । नौग्लौवत् । इत्यजन्ताः स्त्रीलिङ्गाः अथाजन्त-नपुंसकलिङ्गः २३४ अतोऽम् ७ । १ । २४ । अतोऽङ्गात् क्लीवात् स्वमोरम् । अमि पूर्वः । शानम् । एहस्वादिति हल्लोपः, हे ज्ञान । ( 'आदेशविधिसूत्रार। २३५ नपुंसकाच्च ७।१ । ११ । क्लीबादौङः शी स्यात् । असंज्ञायाम् । २३६ यस्येति च ६।४।१४८ cre, ईकारे तद्धिते च परे भस्येवर्णावर्णयोर्लोपः इत्यलोपे प्राप्ते (५औङः श्यां प्रतिषेधः) ज्ञान विश' आदेशनिधिसूत्रा) २३७ जश्शसोः शिः । ७ । १ । २० । क्लीबादनयोः शिः स्यात् । १-मातः-'मातृ' शब्दात् द्वितीयाबहुवचने शसि अनुबन्धलोपे 'मातृ भस्' इति स्थितौ 'प्रथमयोः पूर्वसवर्णः' इति ऋकारस्य दीर्घ सस्य रुत्वे विसर्गे च सिध्यति रूपं 'मातृ :' ('तस्माच्छसो न: पुंसि' इति तु नात्र प्रवत्तंते, मातृशब्दस्य पुंल्लिगत्वाभावात् )। २-प्रमोऽम्-विधानम् "स्वमोनपुंसकात्" इति प्राप्तस्य लुको बापनार्थम् । ३-मकारलोपः, सम्बुद्धिलोपस्य नित्यत्वेन सोरेव वा प्राग्लोपः । ४-"सुडनपुंसकस्य" इति नपुंसकवर्जमव सुटः सर्वनामस्थानसंज्ञा । तेन “यचि भम्" इति 'भ' संज्ञा। 1-ौड्स्थानिके शोभावेऽल्लोपौ ("यस्येति च" इति प्राप्त; ) न भवतीत्यर्थः । अथ अजन्तनपुंसकलिंगप्रकरणम् २३४-अदन्त नपुसक अंग से परे सु और अम् को अम् होता है । २३५-नपुसक अंग से परे औङ् को शी होता है। २३६-भसंज्ञक इवणं अवर्ण का लोप होता है इकार और तखित परे रहते । २३७-नपंसक से परे जस् शस् को शि होता है। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजन्तनपुंसकलिङ्गाः । २३८ शि सर्वनामस्थानम् १ । १ । ४२ । शि इत्येतदुक्तसंशं स्यात् । २३६ नपुंसकस्य झलचः ७।१।७२ । झलन्तस्याजन्तस्य च क्लीबस्य नुम् स्यात् सर्वनामस्थाने । २४० मिदचोऽन्त्यात् परः १ । १।४७ । अचां मध्ये योऽन्त्यस्तस्मात्परस्तस्यैवान्तावयवो मित् स्यात् । उपधादीर्घः । 'शानानि । पुनस्तद्वत् । शेषं पुंवत् । एवं धन-वन-फलादयः । २४१ अड्डतरादिभ्यः पञ्चभ्यः ७ । १ । २५ । एभ्यः क्लीबेभ्यः स्वमोरदडादेशः स्यात् । २४२ टेः ६ ! ४ । १४३ ।। डिति भस्य टेर्लोपः । कतरत्, कतरद् । कतरे । कतराणि । हे कतरत् । शेषं पुंवत् । एवं कतमत् । इतरत् । अन्यत् । अन्यतरत् । अन्यतमस्य त्वन्यतममित्येव । (एकतरात् प्रतिषेधो "वक्तव्यः ) एकतरम् । शानानि-ज्ञान + ( जस् ) शि, शकारस्येत्संज्ञालापौ, सर्वनामस्थानसंज्ञा, नुम्, ज्ञानन् + इ, इति स्थिती, 'सर्वनामस्याने चासम्बुद्धौ' इत्युपधादीर्घः । २-डित्कररणं टिलोपार्थम् । ३-कतरत् –'कतर' शब्दात् प्रथमैकवचने सुविभक्तौ प्रमादेशं बाधित्वा 'मड-डतरादिभ्यः पञ्चभ्यः' इति सोरड्यादेशेऽनुबन्धलोपे 'कतर अत्' इति स्थिती भसंज्ञायां 'टेः' इति टिलोपे ''कतरत्' इति सिद्धम् । ४-नायं तमप्प्रत्ययान्तः, किन्तु प्रव्युत्पन्नप्रातिपदिकः, स्वभावाद् बहुविषये निधरिणे वर्तते, डतम-प्रत्ययान्तस्वाभावादेव म सर्वनामसंज्ञापि, ततश्च अन्यतमाय । अन्यतमात् । अन्यतमानाम् । अन्यतमे । इत्येतान्येव रूपाणि: नतु स्मै-स्मात्-सुट-स्मिन् घटितानि । ५-प्रद्डादेशस्येति भावः । २३८-शि की सर्वनामस्थानसंज्ञा होती है । २३६-झलन्त और अजन्त नपुंसक अंग को नुमागम होता है, सर्वनामस्थान परे रहते। २४०-अचों के मध्य मे अन्त्य अच् से मरे और उसी अन्त्य अच् का अन्तावयव मित् होता है। २४१-नपुसकलिंग में डतरादि पाँच से परे सु श्रम को अ आदेश होता है। २४२-डित्प्रत्यय परे रहते भसंज्ञक टि का लोव होता है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् २४३ ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य १।२।४७ । अजन्तस्येत्येव । 'श्रीपम् । शानवत् । द्वे २। त्रीणि २ । २४४ स्वमोनपुसका ७ । १ । २३ । लुकस्यात् । वारि। २४५ इकोऽचि विभक्तौ ७।१ । ७३ । इगन्तस्य नुमचि विभक्तौ । वारिणी । 3 वारीणि । (१९६१) न लुमतेत्यस्यानित्यत्वात् पक्षे सम्बुद्धिनिमित्तो गुणः । हे वारे !, हे वारि ।। आङो ना, वारिणा । घेडिंतीति गुणे प्राप्ते । (वृद्धयौत्वतज्वद्भावगुणेभ्यो नुम् पूर्वविप्रतिषेधेन) वारिणे । वारिणः २। वारिणोः २। नुमचिरेति नुट । "वारीणाम् । वारिणि । हलादो हरिवत् । १-श्रीपम्,श्रीपे, श्रीपाणि २ ।श्रीपेण । गत्व च 'एकाजुत्तरपदे रणः' इत्यनेन । २-लुगित्य. नुवर्तते । ३-वारि+(जस् ) 'शि' इत्यस्य सवनामस्थानत्वात् 'सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धी' इति दीर्घः । ४-अनित्यत्वे च ज्ञापकम् इकोचि विभक्तौ' इत्यत्राचिग्रहणमेव, तन्वेत्यम्--सूत्रे 'अचि' ग्रहणाभावे, वारिभ्यामित्यादौ तु जातेऽपि नुमि 'न लोपः प्रातिपदिकान्तस्य' इति नकारलोपाद् न किश्चिद् वैरुप्यम् । 'सु'-विभक्तौ च सोलुंकि परतो विभक्तेरभावात् प्राप्नोत्येव न नुम् । न च 'प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम्' स्यादिति वाच्यम "न लुमताऽङ्गस्य" इति तनिषेधात् । तथा च व्यर्थं सद् 'अचि' ग्रहण 'न लुमताङ्गस्य' इत्यस्याऽनित्यत्वं ज्ञापयति । ५-वारीणाम् = 'वारि' शब्दात् षष्ठीबहुवचने आमि 'हस्वमद्यापो नुट्' इति प्राप्त नुट बावित्वा 'इकोऽचि विभक्तौ' इत्यनेन नुम् प्राप्नोति तं च 'नुमचिरतुज्वद्भावेभ्यो नुट मूविप्रतिषेधेन' इति वातिकबसेन नुट् बाधते । 'नामि' इति दीर्घ 'प्रट कुप्वाङ्' णवे सिध्यति रूपं 'वारीणाम्' इति । (वा.-एकतर शब्द से परे सु और अम् को अड् आदेश नहीं होता )। २४३-नपुंसक लिङ्ग में अजन्त प्रातिपदिक को ह्रस्व होता है । २४४ - नपुंसक अङ्ग से परे सु और अम् का लुक होता है। २४५-नपुंसक इगन्त अङ्ग को नुम् होता है, अजादि विभक्ति परे रहते । (या•-वृधि, श्रौत्य, तृवद्धाव, गुण की अपेक्षा नुम् होता है, पूर्वविप्रतिषेध से)। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजन्तनपुंसकलिङ्गाः २४६ अस्थि-दधि-सक्थ्यच्णामनडुदात्तः ७ । १ । ७५ । एषामनङ स्यात् टादावचि । २४७ अल्लोपोऽनः ६ । ४ । १३४ । . अङ्गावयवोऽसर्वनामस्थान-यजादि - स्वादिपरो लोपः । दध्ना । दध्ने । दध्नः । दध्नः । दध्नोः । दध्नोः । २४८ विभाषा डिश्योः ६ । ४ । १३६ । ६७ योऽम् तस्याकारस्य श्रङ्गावयवोऽसर्वनामस्थानपरो योऽन् तस्याकारस्य लोपो वा स्यात् किश्योः परयोः । 'दध्नि, दधनि । शेषं वारिवत् । एवमस्थि- सक्थ्यक्षि । 'सुधि । सुधिनी । सुधीनि । हे सुधे !, हे सुधि ! | २४६ तृतीयादिषु भाषितपुंस्कं पुंवद् गालवस्य ७ । १ । ७४ । प्रवृत्तिनिमित्तैक्ये भाषितपुंस्कमिगन्तं क्लीबं पुंवद्वा टादावचि । १- दनि 'दधि' शब्दात् सप्तम्येकवचने ङि-विभक्तौ 'दषि इ' इति स्थितौ 'अस्थि दषि' इति प्रनङादेशे 'दघन इ' इति जाते 'विभाषा ङिश्यो:' इति वैकल्पिकेSकारलोपे सिध्यति रूपं 'दठिन' इति । पक्षे 'दघनि' इति । २- सु = शोभना धीर्यस्य तत्कुलम् = सुधि । 'ह्रस्वो नपुंसके 'इति ह्रस्वः । ३- ' यन्निमित्तमुपादाय पुसि शब्दः प्रवर्तते । क्लो वृत्तौ तदेव स्यादुक्तपुंस्कं ( भाषितपुंस्कं ) तदुच्यते ' ॥ 'पीलु क्षः फलं पीलु, पीलुने नतु पीलवे । वृक्षे निमित्त पोलुत्वं, तज्जत्वं तत्फले पुनः ॥ तथा चात्र 'सुधि' शब्दो भाषितपुंस्कः पुंल्लिङ्गे नपु ंसकलिंगे धीर्यस्य' इति एकमेवार्थमुपादाय प्रवृत्तत्वात् । च 'शोभना २४६ - अस्थ्यादि शब्दा को अनङ् होता है; यादि च् परे रहते । २४७ - अङ्ग का अवयव, सर्वनामस्थान से भिन्न यजादि स्वादिपरक जो अन्, उस के प्रकार का लोप होता है । २४८ - अङ्गादि परक अन् का लोप होता है, विकल्प से ङि और शी परे रहते । २४६-प्रवृत्तिनिमित्त एक होने पर, भाषितपुंस्क इगन्त नपुंसक शब्द को पुंवद्भाव है, विकल्प से टादि श्रच् परे रहते । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् सुधिया, सुधिनेत्यादि । मधु । मधुनी। मधूनि । हे मधो ! हे मधु ! सुलु सुलुनी। सुलूनि । सुल्वा. सुलुनेत्यादि । धात। धातणी। धातृणि । हे धातः!, हे धात ! धात्रा, धातणा; धातृणाम् । एवं शात्रादयः ! २५० एच इग्घ्रस्वादेशे १ । १ । ४८ । 'आदिश्यमानेषु ह्रस्वेषु मध्ये एच इगेवर स्यात् । प्रद्यु । प्रधुनी। प्रनि । प्रद्युनेत्यादि । प्ररि । प्ररिणी । प्ररीणि । प्ररिणा । एकदेशविकृतमनन्यवत् । "प्रराभ्याम् । सुनु । सुनुनी । सुनूनि । सुनुनेत्यादि । इत्यजन्ता नपुंसकलिङ्गाः (टलनिधि अथ हलन्ताः पुल्लिङ्गाः २५१ हो ढः ८ । २ । ३१। हस्य ढः स्याद, झलि पदान्ते च । "लिट , लिड्। लिहौ। लिहः । लिड्भ्याम् । लिटत्सु, 'लिट्सु। १.१, Lu ! १-'हस्वो नपुंसके प्रा........' इत्यादिना प्रादिश्यमानेषु । २-ऐचः स्थाने ह्रस्वः-प्रकार इक् च प्राप्नोति, तत्रायं नियमः ( इगेव नतु प्रकारः)। ३-प्रयोशब्दः नपुंसकलिंगे-एकारोदाहरणं च स्मृता इयन तत्कुलं स्मृति, स्मृते-शब्दः । ४-प्ररै शब्दः । ५-प्रराभ्याम्-बहुव्रीहौ प्रकृष्टः रा=धनं यस्येति तत्कुलं परि 'ह्रस्वो नपुसके' इति इकारः 'प्ररि' शब्दात् तृतीयाद्विवचने म्यामि ‘एकदेशविकृतमनन्यवत्' इति न्यायेन 'रायो हलि' इति पाल्वे सिध्यति रूपं 'प्रराभ्याम्' इति । 1-सुनौ शब्दः । ___ इत्यजन्ता नपुसकलिङ्गाः।। ७-तेढोति लिट् ( कर्तरि क्विप् ) सुलोपे ढस्वे जश्वम् वा चत्वं च । ८-लिटत्सु-': सि धुट्' इति धुट 'खरि च' इति चत्वम्, तस्याऽसिद्धत्वात्, 'चयो द्वितीया'..' इति तकारस्य थकारो न। २५०-श्रादिश्यमान ह्रस्वों के मध्य में एच् के स्थान में इक् ही ह्रस्व होता है। इति अजन्तनपुसकलिङ्गप्रकरणम् अथ हलन्तपुलिंगप्रकरणम् २५१-हकार को ढकार होता है झ परे रहते और पदान्त में । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभानालाय सामने हलन्तपुल्लिङ्गाः (घल्लनिधिसूत्रम्) २५२ दादेर्धातोर्घः ८ । २ । ३२ । झलि पदान्ते चोपदेशे दादेर्धातोर्हस्य घर २५३ एकाचो बशो भष झपन्तस्य स्वोः ८ । २ । ३७ । 'धात्ववयवस्यैकाचो भषन्तस्य बशो भए , से ध्वे पदान्ते च । धुक् , धुग । दुहौ । दुहः । धुग्भ्याम् । 'धुतु। जमि।४ वा द्रुह-मुह-इणुह-ष्णिहाम् ८ । २ । ३३ । ... एषां हस्य वा घो झलि पदान्ते च । ध्रुक , ध्रुग, ध्रुट् , ध्रुड , द्रुहौ । द्रुहः । ध्रुग्भ्याम् , ध्रुड्भ्याम् । ध्रुक्षु, ध्रुट्सु, ध्रुत्सु । एवं मुह् ।। सत्यनिधिसूगों) २५५ धात्वादेः षः सः ६।१।६४ . *स्नुक , स्तुग , स्नुट , स्नुड्, । एवं स्निह् । २५६ इग्यणः संप्रसारणम् १।१। ४५ । १-धातोरित्यनुवर्तते 'एकाचः' 'झषन्तस्य' इति च धास्ववयवस्य विशेषणम् । एकाच झषन्तश्च यो धास्ववयवः (व्यपदेशिवद्भावेन धातुर्वा ) तस्य (तदवयवस्य) बशः ( ब-ग-ड-दानाम् ) भष् (भ-घ-ढ-धाः ) स्यात्सकारे ध्वशब्दे च (परे) पदान्ते च, इति सूत्रार्थः। २-दुह+सु (पू), हस्य पत्वे चत्वंम् , 'प्रादेशप्रत्यययोः' इति षत्वम् , क्-, संयोगे क्षः। ३-'वा द्रुह ....' इति घस्वाभावपक्षे ढस्वे जश्त्वे व 'ड: सि धुट्' इति वैकल्पिको 'धुट्' भषभावश्च । ४–णुह् धातुः, षस्य सस्वे 'निमितापाये नैमित्तकस्याप्यपायः' इति तस्य नवम् । ___ २५२-उपदेश में दादि धातु के अवयव हकार को घकार होता है झल् परे रहते और पदान्त में। २५३-धातु का अवयव जो एकाच झलन्त, तदवयव बश् को भए होता है, सकार और ध्वशब्द परे रहते और पदान्त में । २५३-द्रुह, मुह , घणुह, ठिणहू के ह को घ होता है विकल्प से, झल् परे रहते और पदान्त में। २५५-धातु के आदि ष को स होता है। २५६-यण के स्थान में हुए इक की संप्रसारण संज्ञा होती है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निासा सना लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् यणः स्थाने प्रयुज्यमानो य इक् स संप्रसारणसंक्षः स्यात् । २५७ वाह ऊठ ६ । ४ । १३२ । 'भस्य वाहः संप्रसारणमा २५८ संप्रसारणाच्च ६।१।१०८ । संप्रसारणादचि पूर्वरूपमेकादेशः । 'वृद्धिः। विश्वौहः । इत्यादि । (आपलवसूत्रम्) २५६ चतुरनडुहोरामुदात्तः ७।१।६८। अनयोराम स्यात सर्वनामस्थाने परे । २६० सावनडुहः ७।१1८२। अस्य नुम् स्यात् सौ पूरे अडवान् । २६१ अम् संबुद्धौ ७।१।१६ । हे अनड्वन् ! अनड्वाही । अनड्वाहः । अनडुहः । अमडहा। १-म-संज्ञकस्य । २-'एत्येपत्यूठसु' इत्यनेन । -विश्वौहः-'विश्ववाह शब्दात् द्वितीयाबहुवचने शसि अनुबन्धलोपे विश्ववाहू अस् इति स्थितौ भसंज्ञायां 'वाह उठ्' इत्यनेन ऊठि संप्रसारणे "विश्व ऊ पाह प्रस्' इति जाते 'सम्प्रसारणाच्च' इति पूर्वरूपे 'एत्येधत्यूठसु' इति वृद्धौ सिध्यति रूपं 'विश्वौहः' इति । ४-विश्वौहा, विश्ववाड्भ्याम, विश्ववाभिः इत्यादि। सुपि-विश्ववाट (सु) त्सु, 'धुट्' वा । एवं भार वहतीति भारवाट , भारवाही, भारवाहः । भारवाहम् , भारवाही, भारोहः । भारोहा, भारवाड्भ्याम् । भारौहे। भारौहाः २ । भारोहोः २ । भारौहाम् । भारौहि । भारवाट्सु, भारवाटल्सु, । इत्यादयः । ५-अनछुह+सु, पाम् (अनड्वाह + सु), नुम् , अनड्वान्ह् +सु, सुलोपः, “संयोगान्तस्य..." इति हकारलोपः, तस्याऽसिद्धत्वान्नलोपो न अनड्वान् । इह "वसुलंसु..” इति दत्वं तु न, "सावनडहः" इति 'नुम्'-विधानसामर्थ्यात् । २५७-भसंज्ञक वाह शब्द की उठ संप्रसारण होता है। २५८-संप्रसारण से अच् परे रहते पूर्वरूप एकादेश होता है। २५६-चतुर और अनडु शब्द को आम होता है, सर्वनामस्थान परे रहते । २६०-अनडु शब्द को नुमागम होता है, सु परे रहते । २६१-अनडुङ् शब्द को सम्बोधन में अमागम होता है। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ पानाMP हलन्तपुंलिङ्गाः (भारनिधिसूत्री) २६२ वसु-सुध्वस्वनडुहां दः ८।२। ७२ । सान्तवस्वन्तस्य स्रसादेश्च दः स्यात् पदान्ते । अनडुद्भयामित्यादि । सान्तेति किम्-विद्वान् । पदान्ते किम्-स्तम् ध्वस्तम् । प्रधानमन २६३ सहेः साडः सः ८।३ । ५६ । सापस्य सहेः सस्य मूर्धन्यादेशः । तुराबाट । तुरासाहौ। तुरासाहः । तुराषाभ्यामित्यादि कालनिायता) २६४ दिव औत् ७ । १ । ८४ । दिविति प्रातिपदिकस्यौतू स्यात सौ। "सुद्यौः । सुदिवौ । २६५ दिव उत् ६।१।१३१ । ....... . दिवोऽन्तादेश उकारः स्यात् पदान्ते । सुधुभ्याम् । इत्यादि । चत्वारः चतुरः । चतुर्भिः । चतुर्यः २१ नुडामनिधिसून्नर) २६६ षट्चतुभ्यश्च ७ । १ । ५५ । एभ्य आमो नुडागमः जलनिधिसूत्रा) २६७ रषाग्यां नो णः समानपदे ८।४।१। "अचो रहाभ्यां द्वे" । 'चतुर्णाम् । चतुर्णाम् ।, १-(साम्प्रतम् ) नायं सान्तः । २ स्रस+त (म् ), ध्वस् + त (म्) । नात्र पदन्त त्वम् । ३-तुरम् (= वज्रम् ) साहयति (अन्येषामपीति दीर्घः) इति तुरापाट् = इन्द्रः । ४-सुदिव+सु, वकारस्य-पौत्वे यणि सस्य रुत्वविसर्गौ ५-चतुर+ जस) प्रस् 'चतुरनडु 'इत्याम् । रेफषकाराभ्यां परस्य नस्य रणः स्यादेकपदे । ७-इति स्य पक्षो द्वित्वम् । ८-चतुर्णाम्-'चतुर्' शब्दात षष्ठीबहुवचने प्रामि 'चतुर् प्राम' इति स्थिते 'षट्चतुभ्यश्च' इति नुटि 'रषाभ्याम् -' इति णत्वे 'प्रचोरहाभ्यां द्वे' इति वा द्विवे 'चतुएर्णाम्' इति पक्षे 'चतुएर्णाम्' इति रूपं सिध्यति । २६२-सान्त वस्वन्त और संसादि के स को द होता है पदान्त में ! २६३-साप सह के स को ष होता है। २६४-प्रातिपदिक दिव शब्द को औतू होता है, सु परे रहते । २६५-दिव शब्द को ऊकार अन्तादेश होता है, पदान्त में । २६६-षट्संज्ञक और चतुर् शब्द से परे प्राम् को नुट का आगम होता है। २६७-(समानपद में) रेफ षकार से परे न कोण होता है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किमा कारबिचिमूत्र) लुघुसिद्धान्तकौमुद्याम् निसाभिमसूत्रम्) २६८ रोः सुपि ८।३। १६ । रोरेव विसर्गः सुपि' । पत्वम् । षस्य द्वित्वे प्राप्ते । २६६ शरोऽचि८।४।४६ । अचि परे शरो न द्वे स्तः । चतुर्ष । २७० मो नो धातोः ८।२।६४ । धातोर्मस्य नः स्यात् पदान्ते । प्रशान् । लादेश बाविसूनाम २७१ किमः कः ७।३।१०३ । किमः कः स्याद् विभक्तौ । कः । कौ । ४ के । इत्यादि । शेषं सर्ववत् । २७२ इदमो मः ७।२।१०८ । "सौ । 'त्यदायत्वाप्यालना) २७३ इदोऽय पुसि ७।२।१११ । इदम् इदोऽय सौ पुंसि । 'अयम् । त्यदाद्यत्वे। भू -मनेन नात्र विसर्गः । चतुर्दा रेफस्य 'इण'-प्रत्याहारान्तर्गतत्वादादेशप्रत्यययोरिति षत्वम् । २-'प्रशाम्' मकारान्तोऽयं शब्दः । प्रशान् इत्यत्र 'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य' इति नलोपस्तु न 'मो नो धातोः' इति विहितस्य नत्वस्य त्रैपादिकत्वेनासिद्धत्वात् । ३-विभक्तौ' इत्यनुवर्तते । विभक्तौ परतः 'किम्'-शब्दस्य 'क' प्रादेशः स्यादित्यर्थः । ४-किमः सर्वनामस्वात् 'जसः शी' इति शी, ततो गुणः = के । ५-'सौ' इत्यनुवर्तते । 'इदम'-शब्दस्य मकारोऽन्तादेशः स्यात् सौ परे; इत्यर्थः । ६-'त्यदादीनामः' इति प्राप्तस्य मत्वस्य बापनार्थमिदम् , इत्यर्थः । ७-'इद्'-भागस्य । ८-इदम्+सु, सुलोपः, इद:-प्रय। २६८-सप्तमी के बहुवचन में रु के रेफ को विसर्ग होता है, अन्य रेफ को नहीं। २६६-श्रच परे रहते शर् को द्वित्व नहीं होता । २७०-धातु के म को न होता है, पदान्त में । २७१-किम को क आदेश होता है, विभक्ति परे रहते। २७२-इदम् शब्द के म को म ही रहता है सु परे रहते। २७३-इदम् के इद् को अय होता है, सु परे रहते पुल्लिग में । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्नारामासा हलन्मपुंलिङ्गा ( मरमनिधिसूना) २७४ अतो गुणे ६ । १ । ६७ । अपदान्तादतो गुणे पररूपमेकादेशः । २७५ दश्च ७।२।१०६ । इदमो दस्य मः स्याद्विभक्तौ । 'इमौ । । इमे। त्यदादः सम्बोधन नास्तीत्युत्सर्गः आदेशमिनिसूत्रा) २७६ अनाप्यकः ७ । २।११२ । अककारस्येदम इदोऽनापि विभक्तौ । "प्राबिति प्रत्याहारः । अनेन । २७७ हलि लोपः ७ । २। ११३ । अककारस्येदम इदो लोप प्रापि हलादौ । नानर्थकेऽलोऽन्त्यविधिरनभ्यासविकारे। १-'इदम् + प्रौ' अत्वम् , पररूपम् , वृद्धी मत्वम् । सर्वनामत्वाद् जसः शी। ३-प्रायः प्रयोगादर्शनमेवात्र मूलम् । इदं प्रायिकम्-'हे स!' इति भाष्यप्रयोगात् । ४-ककाररहितस्य 'इदम्'-शब्दस्य य 'द'-भागस्तस्य 'अन' आदेशः स्याद् प्रापि विभक्तौ परतः, इत्यर्थः । 'प्रकः' इत्युक्तेः साकचकस्य 'मन' प्रादेशो हलि लोपश्च न, तेन इमकेन, इमकाभ्याम् इत्यादि । ५-('टा' ) मा इत्यारभ्य सुपः पकारपयन्तम् 'पाप'-प्रत्याहारः ६-इदम् + टा, स्यदाद्यत्वं पररूपं च, अनादेश 'टाङ सिङसा ' इति 'टा'- स्थाने 'इनः', गुणः । ७-अभ्यासविकारं वर्जयिस्वाऽनर्थक - लोन्स्यविधिनं भवतीत्यर्थः । अत्र 'इद्' इति समुदायैकदेशत्वादनर्थकः, (समुदायो ह्यर्थवान् तस्यैकदेशोऽनर्थकः इति न्यायः) तेन सर्वस्यैव ( इद् इत्यस्य ) लोपा, प्रत्रयो विशेषो मस्कृतमध्यकौमुदीटीकायां द्रष्टव्यः। २७४-अपदान्त अकार से गुण परे रहते पूर्वरूप एकादेश होता है। २७५-इदम् के द को म होता है, विभक्ति परे रहते। २७६-ककाररहित इदम् शब्द के इद् भाग को अन् होता है आप विभक्ति परे रहते। २७७-ककाररहित इदम् शब्द के इद् भाग का लोप होता है, हलादि आप विभक्ति परे रहते। ( वा० अनर्थक में 'अलोन्त्यस्य' नहीं लगता, अभ्यास विकार को छोड़कर ) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्यम् २७८ आद्यन्तवदेकस्मिन् १ । १ । २१ । एकस्मिन् क्रियमाणं कार्यमादाविवान्त इव च स्यात् । सुपि चेति दीर्घः । श्राभ्याम् ३ । २७६ दमदसोरकोः ७ । १ । ११ । अककारयोरिदमदसोर्भिस ऐस् न । 'एभिः । श्रस्मै । एभ्यः । श्रस्मात् । अस्य । अनयोः २ । एषाम् । अस्मिन् । एषु 1 २८० द्वितीयाटौस्स्वेनः २ । ४ । ३४ । ७४ ४ इदमेतदोरन्वादेशे । किञ्चित् कार्यं विधातुमुपात्तस्य कार्यान्तरं विधातुं पुनरुपादानमन्वादेशः । यथा-अनेन व्याकरणमधीतमेनं छन्दोऽध्यापयेति । अनयोः पवित्रं कुलमेनयोः प्रभूतं स्वमिति । एनम् । एनौ । एनान् । एनेन । एनयोः । राजा । २८१ न डिसम्बुद्धोः ८ | २ | ८ | १ - आभ्याम् — 'इदम् ' शब्दात् तृतीयाद्विवचने भ्यामि त्यदाद्यत्वे पररूपे 'इद म्याम्' इति स्थिते 'हलिलोपः' इति दकारस्य लोपे प्राप्ते 'नानथं केऽलोऽन्त्यविधिरनभ्यास विकारे' इति परिभाषया मलोऽन्त्यविधेरभावे इद्भागस्यैव लोपे ' भ्याम्' इति जाते 'श्राद्यन्तवदेकस्मिन्' इति अन्तवद्भावेनादन्तत्वं मत्वा 'सुपि चे 'ति दीर्घः सिद्धं रूपम् 'प्राभ्याम्' इति । २ - 'बहुवचने झल्येत्' इति एत्वम् । ३ - 'प्रोसि च' इत्येत्वेऽयादेशः । ४- - इदमोऽन्वादेशे' इति 'एतद्' इति चानुवर्तते । द्वितीयायाम् (अम् नौट, शस् इत्येषु ) 'टा' विभक्तौ, 'ओसि' च 'इदम् ' - शब्दस्य एतच्छन्दस्य च 'एन' श्रादेशः स्यादन्वादेशे, इत्यर्थः । ५ - राजन् + सु 'हल्ङयाप्' इति सुलोपः, नान्तस्य दीर्घे 'नलोपः प्राति...." इति नकारलोपः = राजा । २७८-एक में क्रियमाण कार्य आदि और अन्त की तरह होता है । २७६-ककाररहित इदम् और दस शब्द से परे भिस् को ऐस् नहीं होता । २८० - द्वितीयाविभक्ति, टा, ओोस् परे रहते इदम और एतद् शब्द के स्थान पर एन आदेश होता है, अन्वादेश में । २८१ - ङि और सम्बुद्धि परे रहते न का लोप नहीं होता है । ( वा० उत्तरपदपरक ङि परे रहते 'न ङिसम्बुद्ध्यो:' प्रवृत्त नहीं होता ) । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ হবোৰু কেত্ব नस्य लोपोडौ सम्बुद्धौ च । हे राजन् ! ( 'डावुत्तरपदे प्रतिषेधो वक्तव्यः) ब्रह्मनिष्ठः । राजानी । राजानः । राशः । २८२ नले पः सुप-स्वर-संज्ञा-तुग्विधिषु कृति ८।२।२। मुविधौ स्वरविधौ संशाविधौ कृति तुरियधौ च नलोपोऽसिद्धः । नान्यत्र राजाश्व' इत्यादौ । ५इत्यसिद्धादात्वमेत्वमैस्त्वं च न । राजभ्याम् । राजभिः । राज-Tः । राजन्यः । राजनि, राशि । राजसु । यज्वा । यज्वानौ । यज्वानः । २८३ नरयोगाद् वमन्तात् ६।४। १३७ । वमन्तसंयोगा इनोऽकारस्य लोपोन । यज्वनः । यज्वना । यज्वन्याम् । ग्रहाणः । ब्रह्मरणा। १-उत्तरपदे पर गो यो डि तस्मिन् परे 'न सिम्बुग्योः , इति प्राप्तस्य निषेषस्य प्रतिषेधो वक्तव्य इत्र यः । २-ब्रह्मणि निष्ठा-प्रस्येति विग्रहः । अत्र नलोपो भवत्येव, समासे "निष्ठा' इत्यस उतरपदत्वात् 'उत्तरपदं' समासस्य चरमावयवे रूढम् । ३-राक्ष:- -राजन् । (शस् ) अस् , अल्लोपोऽनः' इत्यकारलोपः। श्चुत्वम् । जोशः, अयं च ( ज्ञः) लोन वेद-प्रसिद्ध-ध्वनिविशेष-(बोधकलिपि)-सङ्केतो न तु वर्णान्तरम् , प्रमाणानुपलम्भात् । के चदेनं 'ग्य' व 'ज्य'-वद् वा उच्चारयन्ति, तन्न समीचीनं किन्तु 'जन' इत्यस्य यथोच परणं स्यात्तथोच्चारणीयम् । ४-ननु 'राजभ्याम्' इत्यादौ नलोपस्य 'पूर्वत्रासिद्धम्' इत्यने नासिद्धत्वात्किमर्थं “म लोपः सुप्स्वर.” इति सूत्रारम्भ इति चेन्न, तस्य नियः ार्थत्वात् न “सिदो सत्यामारभ्यमाणो विधिनियमाय” इति हि न्यायः । नियमस्वरू' चेदम् 'नलोपश्चेदसिद्धः स्यातहिं सुप्स्वरसज्ञातुविधिष्वेव' इति । तेन 'राजाश्वः' इत्यत्र षष्ठोसमासे नलोपे-राज + अश्वः, इत्यत्र सुबादिविधिस्वाभावेन नलोपस्य ना द्धत्वमिति 'प्रकः सवर्णे दीर्घः' इति दीर्घः ५--'राजभ्याम्' इत्यत्र ‘मपि च' इति-भास्वं प्राप्तम 'राजभ्यः' इत्यत्र 'बहुवचने झल्येत्' इति एवं प्राप्तम्, 'राजमिः' इत्यत्र 'तो भिस्' इति ऐस्त्वम् प्राप्तम् । ६-'विभाषा हिश्योः' इति विकल्पेन 'अ'कारलं पः । ७-यज्वनः --'यज्वन्' शब्दात् द्वितीयाबहुवचने शसि २८२-सुविधि, वरविधि, संज्ञाविधि और कृत्प्रत्ययपरक तुम्विधि में न का लोप प्रसिद्ध होता है, अ पत्र नहीं। २८३-वकारान्त मकारान्त संयोग से परेनन् के प्रकार का लोप नहीं होता । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् २८४ इन्- हन्- पूषार्यम्णां सौ ६ । ४ । १२ । एषां शावेवोपधाया दीर्घो नान्यत्र । इति निषेधे प्राप्ते | २८५ सौ च ६ । ४ । १३ । इन्नादीनामुपधाया दीर्घोऽसम्बुद्धौ सौ । वृत्रहा । ह वृत्रहन् ! | २८६ एकाजुत्तरपदे णः ८ । ४ । १२ । 'एकाजुत्तरपदं यस्य तस्मिन् समासे पूर्वपदस्थानिमित्तात् परस्य प्रातिपदिकान्त- नुम्विभक्तिस्थस्य नस्य णः । ' वृत्रहणौ । २८७ हो हन्तेन्नेिषु ७ । ३ । ५४ । तिति प्रत्यये नकारे च परे हन्तेर्हकारस्य कुत्वम् । वृत्रघ्नः । इत्यादि । एवं शार्ङ्गिन्, यशस्विन्, अर्यमन् पूषन् । २८८ मघवा बहुलम् ६ । ४ । १२८ । मघवन्शब्दस्य वा तृ इत्यन्तादेशः । ऋ इत् । विभक्तौ 'यज्वन् प्रस्' इति स्थितौ भसंज्ञायां 'न संयोगाद् वमन्तात्' इति प्रकारसोपस्य निषेधे रुत्वे विसर्गे सिध्यति 'यज्वनः' इति । १ - उत्तरपदशब्दः समासस्य चरमावयवे रूढः । २- प्रत्र प्रातिपदिकान्तनकारस्य एकारः । ३ - वृत्रहन् + ( शस्) प्रस्, 'अल्लोपोऽन:' सूत्रेण प्रल्लोपः हस्य कुश्वम् ( घः ) । २८४ - इन् हन् पूषन् और अर्यमन् शब्दों की उपधा को दीर्घ होता है, केवल शि परे रहते, अन्यत्र नहीं । २८५ - इन्नादि की उपधा को दीर्घ होता है. सम्बुद्धिभिन्न सु परे रहते । २८६-एक अच् है उत्तरपद में जिसके ऐसा जो समास, उसमें पूर्वपदस्थित निमित्त रेफ प्रकार से परे प्रातिपदिकान्त, नुम् और विभक्तिस्थित न कोण होता है समान पद में । २८७ - ञित् णित् प्रत्यय और हकार परे रहते हन् के ह को कुत्व होता है । " २८८- मघवन् शब्द को त श्रन्तादेश होता है, विकल्प से । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ हलन्तपुल्लिङ्गाः २८६ उगिदचां सर्वनामस्थानेऽधातोः ७ । १ । ७० । अधातोरुगितो नलोपिनोऽञ्चतेश्च नुम् स्यात् सर्वनामस्थाने परे। 'मघवान् । मघवन्तौ । मघवन्तः । हे मघवन् ! । मघवद्याम् । तृत्वाभावे'मघवा । सुटि राजवत् । २६० श्व-'युव-मघोनामतद्धिते ६ । ४ । १३३ । अनन्तानां भानामेपामतद्धिते संप्रसारणम् । मघोनः६ मघोना मघवभ्याम् । एवं श्वन् , युवन् । २६१ न संप्रसारणे संप्रसारणम् । ६।१। ३७ । १-मघवान्-'घवन्' शब्दात् प्रथमैकवचने सुविभक्तौ 'मधवा बहुलम्' इति तृ' इत्यन्तादेशे अनुबन्धलोपे 'उगिदचाम् ' इति नुमि 'हल्याब्' इति सलोपे 'संयोगान्तस्येति तकारलोपे उपधादीधैं 'मघवाम्' इति रूपं तृत्वाभावपक्षे तु मघवा' इति । अत्र नानुबन्धकृतमनेकालस्वमिति न सर्वादेशः 'तृ' इति । '' इत्यन्तादेशपक्षे तकारस्य संयोगान्तलोपः, लस्याऽसिद्धत्वान्नलोपो न । २-इत्यादि स्पष्टम् । ३-तृत्वाभावपक्षे 'मघवन्'-शब्दो नान्तः, उपधादीक़ नलोपश्च । ४-सुटि = सु-ौ-जस-अम-मोट् इति पञ्चवचनेषु । ५-अस्मिन् सूत्रे सुभाषितमेतत् काचं मणि काचममेकसूत्रे अथ्नासि बाले ! किमिदं विचित्रम् (प्र. )। विचारवान् पाणिनिरेकसूत्रे श्वानं युवानं मघवानमाह ।। ( उ०)।॥१॥ ६-मघवन् + ( शस् ) अस् , वकारस्य-उत्वे (सम्प्रसारणे) पूर्वरूपे च गुणः । टा-डे-सि-ङस्-प्रोस् प्राम-ङिविभक्तिपु क्रमेण । ७-मघोना-'मघवन्' शब्दात् तृतीयैकवचने टाविभक्तो 'श्वयुवमघोनामतद्धिते' इति सम्प्रसारणे पूर्वरूपे 'प्रादगुणः' इति गुणे सिध्यति 'मघोना' इति । तुत्वादेशपक्षे तु 'मघवता' इति । मघोने। मघोनः २। मघोनोः २ । मघोनाम् । मघोनि । २८६-धातुभिन्न उ गित् और नलोपी अञ्चलि को नुम् होता है, सर्वनामस्थान परे रहते। २६०-अन्नन्त भसंज्ञक श्वन् , युवन् और मघवन् शब्द को सम्प्रसारण होता है। तद्धित भिन्न प्रत्यय परे रहते। २९१-संप्रसारण परे रहते पूर्व यण को संप्रसारण नहीं होता । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् संप्रसारणे परतः पूर्वस्य यणः संप्रसारणं न स्यात् । इति यकारस्य नेत्वम् । अत एव ज्ञापकादन्त्यस्य यणः पूर्वं संप्रसारणम् । यूनः ' । 'यूना । युवाभ्याम् । इत्यादि । अर्वा । हे अर्वन् ! | २६२ श्रवणस्त्रसावनञः ६ । ४ । १२७ । नत्र रहितस्यार्वन्नित्यस्याऽङ्गस्य तु इत्यन्तादेशो न तु सौ । श्रर्वन्तौ । श्रर्वन्तः । श्रर्वद्धयामित्यादि । २६३ पथिमथ्यृभुक्षामात् ७ । १ । ८५ । एषामाकारोऽन्तादेशः स्यात् सौ परे । २६४ इतोऽत् सर्वनामस्थाने ७ | १ | ८६ | पथ्यादेरिकारस्याकारः सर्वनामस्थाने परे । २६५ थो न्थः ७ । १ । ८७ । पथिमथोस्थस्य न्थादेशः सर्वनामस्थाने । " पन्थाः । पन्थानौ । पन्थानः + १- 'युवन् ' + (शस् ) अस् वस्य सम्प्रसारणे पूर्वरूपं सवर्णदीर्घः । २-यूना'युवन्' शब्दात् तृतीयैकवचने टाविभक्तौ 'श्वयुवमघोनाम्' इति सम्प्रसारणे पूर्वरूपे च यु उन् श्रा' इति स्थिते 'न सम्प्रसारणे संप्रसारणम्' इति यकारस्य सम्प्रसारणनिषेधे सवर्णदीर्घे सिध्यति रूपं 'यूना' इति । ३- 'प्रवन् इति नान्तोऽय शब्दः । 'अर्वन्तौ' इत्यत्र श्रवन् + श्रौ, इति स्थितौ 'तृ' इत्यन्तादेशः, 'उगिदवां इति नुम्, अनुस्वारः परसवर्णश्च । ४- पथि मथि ऋभुक्षामिकारस्याऽऽकारः स्यात्सर्वनामस्थाने परे इत्यर्थः । ५ - पन्था - 'पथिन्' शब्दात् प्रथमैकवचने सौ 'पथिमाथि ' इति नस्य श्रात्वे इतोऽनु सर्वनामस्थाने' इति इकारस्याकारे 'थो न्थः' इति थकारस्य न्यादेशे सवर्णदीर्घे रुत्वविसर्गौ ' पन्थाः' इति रूपम् । २ε२- नञ् रहित अर्वन् अंग को तु अन्तादेश होता है, सु परे रहते नहीं । २६३ - पथिन्, मथिन्, ऋभुक्षिन् को आकार अन्तादेश होता है सु परे रहते । , २६४ - पथ्यादिक के इकार को आकार अन्तादेश होता है सर्वनामस्थान परे रहते । २६५ - पथिन्, मथिन् के थ को न्थ होता है सर्वनामस्थान परे रहते । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ हलन्तपुल्लिङ्गाः २६६ भस्य टेलोपः ७।१।८८ । भस्य पथ्यादेष्टेर्लोपः।पथः । पथा । पथिभ्याम् । एवं मथिन् 'ऋभुक्षिन् । २६७ ष्णान्ता पट १ । १ । २४ । षान्ता नान्ता च संख्या षट्संज्ञा स्यात् । पञ्चन्शब्दो नित्यं बहुवचनान्त । पञ्च । पञ्च । पञ्चभिः । पञ्चभ्यः । पञ्चभ्यः । नुट । २६८ नोपधायाः ६ । ४ । ७। नान्तस्योपधाया दीर्घो नामि । पञ्चानाम् । पञ्चसु । २६६ अष्टन आ विभक्तो ७।२।८४ हलादौ वा स्यात् । ३०० अष्टाभ्य औश् ७ । १ । २१ । कृताकारादष्टनो जश्शसोरौश् । अष्टभ्य इति वक्तव्ये कृतात्वनिर्देशो जश्शसोर्विषये आत्वं शापयति । अष्टौ । अष्टौ । अष्ठाभिः । अष्टाभ्यः । अष्टाभ्यः। अष्टानाम् । अष्टासु । आत्वाभावे - अष्ट । पञ्चवत् । 1-मन्थाः मन्थानौ । शसादौ-मथः, मथा इत्यादि। ऋभुक्षाः ऋभुक्षाणौ । शसादौ-ऋभुक्षः, ऋभुमा, इत्यादि । २-'षड्भ्यो लुक्' इति जसशसोलुंक् , नलोपश्च । ३-'षट्चतुय॑श्च' इति नुट । ४-'रायो हलि' इत्यतः 'हलि' इत्यपकृष्यते । "अष्टनो दीर्घाद्" इति सूत्रे दीर्घग्रहणसामर्थ्यादस्य (प्रात्वस्य ) वैकल्पिकत्वमवगम्यते । ५-(सूत्रे ) प्रष्टाभ्यः इति । ६-अष्टो-'अष्टन्' शसि 'अष्टन-मा विभकौं नकारस्य प्रास्त्रे सवर्णदी| 'अष्टाभ्य प्रौश' इति शसः ( जसो ) वा प्रौसि अनुबन्धलोपे 'वृद्धिरेचि' इति वृद्धौ सिध्यति रूपम् 'अष्टौ' इति (पौत्वाभावे 'अष्ट' इति रूपम् )। ७-'षट्चतुभ्यः' इत्यनेन नुटि 'नोपधायाः' इति दीधै नलोपः। २६६-भसंज्ञक पथ्यादि की टि का लोप होता है । २६७-षान्त नान्त संख्या की षट् संज्ञा होती है । ६८-नान्त की उपधा को दीर्घ होता है, नाम परे रहते । २६६-अष्टन् को आत्व होता है विकल्प. से, हलादि विभक्ति परे रहते । ३००-कृताकार अष्टन् शब्द से परे जस् शस् को और आदेश होता है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ३.१ ऋत्विग-दधृक-स्रग-दिगुष्णिगञ्चु-युजि-ऋञ्चांच ३।२।५६ एभ्यः क्विन् । अञ्चेः सुष्युपपदे । 'युजि-ऋचोः केवलयोः । ऋञ्चेनलोपाभावश्च निपात्यते । कनावितौ । ३०२ कुदतिङ् ३ । १ । ६३ । भत्र धात्वधिकार तिभिन्नः प्रत्ययः कृत्संशः स्यात् । ३०३ वेरपृक्तस्य ६ । १ । ६७ । अपृक्तस्य वस्य लोपः। ३०४ क्विन्प्रत्ययस्य कुः ८।२। ६२ । क्विन् प्रत्ययो यस्मात्तस्य कवर्गोऽन्तादेशः पदान्ते । अस्यासिद्धत्वाञ्चोः कुरिति कुत्वम् । 'ऋत्विक, ऋत्विग् । ऋत्विजौ । ऋत्विग्भ्याम् । ३०५ युजेरसमासे ७ । १ । ७१ । युजेः सर्वनामस्थाने नुम् स्यादसमासे। सुलोपः,संयोगान्तलोपः, कुत्वेन' नस्य ङः । युङ् । अनुस्वारपरसवर्णों । युऔ । युञ्जः । युग्भ्याम् । ३०६ चोः कु: ८।२।३० । १-(सूत्रे ) चकारादिदं लभ्यते । ३-क्विन्प्रत्यये ककार-नकारौ इत्संज्ञौ । ३-'ऋतुषु यजति' इति विग्रहः, क्विन्प्रत्यये 'वचिस्वपि.......' इति संप्रसारणं पूर्वरूपं पणादेशश्चेति । 'ऋत्विज्+सु' "हल्याप” इति लोपे, चोः कुः, इति) कुत्वम् । ४-'क्विन्प्रत्ययस्य कुः' इत्यनेन । ३०१-ऋत्विज आदि से क्विन् होता है। अञ्च धातु से सुप् उपपद रहते; युजि का न केवल से क्विन् होता है, अञ्चधातु के न का लोप नहीं होता। ३०२-सन्निहित धात्वधिकार में पठित तिङ् भिन्न प्रत्ययों की कृत् संज्ञा होती है। ३०३-अपृक्त वकार का लोप होता है। ३०४-क्विप् प्रत्यय जिससे किया जाए उसको कवर्ग अन्तादेश होता है पदान्त में। ३०५- युज् धातु को नुम् होता है सर्वनामस्थान परे रहते, समास में नहीं। ३०६-चवर्ग को कवर्ग आदेश होता है झल् परे रहते पदान्त में । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ हलन्तपुल्लिङ्गाः चवर्गस्य कवर्गः स्याज्झलि पदान्ते च । 'सुयुक , सुयुग । सुयुजौ । सुयुग्भ्याम् । खन् । खो । खन्भ्याम् । ३०७ व्रश्च-भ्रस्ज-सृज-मृज-यज-राज-भ्राज-च्छशां पः ८।२।३६। झलि पदान्ते च । जश्त्व-चढे । “राट, राड् । राजौ । राजः । राड्भ्याम् । एवं विभ्राट् । “देवेट । विश्वस्ट (परौ व्रजेषः पदान्ते) परावुपपदे व्रजेः क्विा स्यात् दीर्घश्च, पदान्ते षत्वमपि । परिवाट । परिव्राजौ । ३०८ विश्वस्य वसुराटोः ६ । ३ । १२८ । विश्वशब्दस्य दीर्घोऽन्तादेशः स्याद्वसौ राटशब्दे च परे । 'विश्वाराट् , विश्वाराड् । विश्वराजौ । विश्वाराड्भ्याम् । ३०६ स्कोः संयोगायोरन्ते च । ८।२। २६ । पदान्ते झलि च यः संयोगस्तदाद्योः 'स्कोर्लोपः। ' 'भृट । सस्य श्चुत्वेन १-अत्र 'युजेरसमासे' इति समासे नुमूनिषेधाद् न नुम् । २-नाय क्विन्प्रत्ययान्तः किन्तु क्विबन्तः, तेन कुत्वम् । 'खञ्ज' शब्दोऽयम् । ३-एषामन्त्यस्य षः। ४-षस्य जश्त्वन डः, वा चत्वंम् । ५-'देवान् यजति' इति विग्रहः, विपि सम्प्रसारणम् , पररूपम्, गुणः । 'देवेज्' शब्दः । ६-'निपात्यते' इतिशेषः ७-परित्यज्य (गृहादिकम्) व्रजति इति परिवाट संन्यासी। ८-'राट'-इति टकारविशिष्टग्रहणं पदान्तोपलक्षणार्थम् । उपलक्षरणत्वं च. 'स्वबोधकत्वे सति स्वेतरबोधकत्वम्' -विश्वाराट-'विश्वराज्' शब्दात् विबन्तात् प्रथमैकवचने सौ 'तश्चेति' षत्वे तस्य जस्त्वेन डकारे 'वावसाने' इति चत्वे 'विश्वस्य वसुराटोः' इति दीधै 'हलङ याब्भ्यो ' इति सलोपे 'विश्वाराट्' इति रूपम् । १०-सकारककारयोरित्यर्थः ११-'भ्रस्ज' धातोः विपि संप्रसारणम्, 'स्को' रिति सलोपः । जकारस्य 'वृश्च' इति षत्वे जश्त्वे च, वा चत्वंम् । ____३०७-ब्रश्चादि सातों को और छान्त शान्त को षकार अन्तादेश होता है झल परे रहते और पदान्त में। (वा० परिपूर्वक ब्रजधातु को क्विप होता है, दीर्घ होता है और षकार होता है पदान्त में )। ३०८-विश्व शब्द को दीर्घ होता है वसु और राट् परे रहते । राष्ट्रवार रहता है और ३०६-संयोग के आदि सकार ककार का लोप होता है पदान्त में और झल् परे रहते। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् शः । 'झलां जश् झशि' इति शस्य जः। भृज्जौ। भृडभ्याम् । 'त्यदाद्यत्वम् पररूपत्वम्। ३१० तदोः सः सावनन्त्ययोः ७ । २ । १०६ । त्यदादीनां तकार-दकारयोरनन्त्ययोः सः स्यात् सौ। स्यः । त्यो । त्ये। सातौ। ते । ५ यः। यौ।ये। एषः । एतौ । एते । एतम् । अन्वादेशेएनम् । एनौ । एनान् । पनेन । एनयोः । ३११ उप्रथमयोरम् ७ । १। २८ । युष्मदस्मद्यां परस्य उ इत्येतस्य प्रथमाद्वितीययोश्चामादेशः । ३१२ त्वाही सौ ७ । २ । १४ । अनयोर्मपर्यन्तस्य त्वाही आदेशौ स्तः । ३१३ शेषे लोपः ७ । २ । ६० । एतयोष्टिलोपः । त्वम् । 'अहम् । ३१४ युवावौ द्विवचने ७।२।१२। द्वयोरुक्तावनयोर्मपर्यन्तस्य युवावौ स्तो विभक्तौ । १-'त्यदादीनामः' इति-प्रत्वम् । २-'मतो गुणे' इति पररूपम् । ३–'त्यद् शब्दस्येदं रूपम् । ४-इर्द 'तद्' शब्दस्य । ५-'यद' ६ एतद्'। ६-'युष्म्' 'अस्म्' इति भागस्य । -अहम्-'अस्मत्' शब्दात प्रथमैकववने सौ प्रथमयोरम्' इति मीरमादेशे 'स्वाही सौ' इति मपर्यन्तभागस्य अहादेशे 'मह अद् अम्' इति स्थितौ पररूपे 'अहद् अम्' इति जाते 'शेषे लोप.' इति टिलोपे सिध्यति रूपम् 'अहम्' इति । ३१०-त्यदादियों के अन्त्यभिन्न त द को स होता है सु परे रहते । ३११- युष्मद् अस्मद् से परे डे और प्रथमा द्वितीया विभक्ति को अम् श्रादेश होता है। ३१२-युष्म् अस्म को त्व अह आदेश होता है सु परे रहते । ३१३ श्राव यत्व निमित्त से भिन्न विभक्ति परे रहते कुष्मद् अस्मद् के अन्त का लोप होता है ! ३१४-युष्म अस्म को युव श्राव आदेश होता है द्वित्वकी उक्ति में विभक्ति परे रहते Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हलन्तपुल्लिङ्गाः ३१५ प्रथमायाश्च द्विवचने भाषायाम् ७ । २ । ८८ । 'औङि एतयोगत्वं लोके । युवाम् । आवाम् । ३१६ यूय-त्रयो जसि ७ । २ । ६३ । अनयोर्मपन्तस्य । यूयम् । वयम् । ३१७ त्वमावेकवचने ७।२।१७॥ एकस्योक्तावनयोर्मपर्यन्तस्य त्वमौ स्तो विभक्तो। ३१८ द्वितीयायां च ७ । २ । ८७ । अनयोरात् स्यात् । त्वाम् । माम् । ३१६ शसो नः ७ । १ । २६ । आभ्यां शसो नः स्यादमोऽपवादः (७२) प्रादेः परस्य । (२०) संयोगान्तलोपः । युष्मान् । अस्मान् । ३२० योऽचि ७ । २ । ८६ । अनयोर्यकारादेशः स्यादनादेशेऽजादौ परतः । त्वया । मया । १-पौङ' इत्यौकारविभक्तेः संज्ञा । २-यूयम् -युष्मच्छब्दात् प्रथमाबहुवचने जसि प्रमादेशे मपर्यन्तस्य 'यूयवयौ जसि' इति यूयादेशे पररूपे 'यूयद् अम्' इति स्थिते 'शषे लोपः' इति टिलोपे सिध्यति रूपं 'यूयम्' इति । ३-मया- 'मस्मत्' शनात् व्रतोयैकवचने टा विभक्तौ ‘त्वमावेकवचने' इति मपर्यन्तभागस्य मादेशे प्रतोगुणे' इति पररूपे च 'मद् प्रा' इति स्थितौ योऽचि' इति दकारस्य यकारे कृते सिध्यति रूपं 'मया' इति । ३१५-युष्मद् अस्मद् को आकार होता है प्रथमा और द्वितीया के द्विवचन परे रहते लोक में। ३१६-युष्मद् अध्मद् के युष्म् अस्म् भाग को यूय वय आदेश होते हैं जस् परे रहते। ३१७-एकत्व की विवक्षा से युष्म् अस्म् को त्व म आदेश होते हैं विभक्ति परे रहते। ३१८-युष्मद् अस्मद् को आकार अन्तादेश होता है द्वितीया विभक्ति परे रहते । ३१६-युष्मद् अस्मद् से शस् को न आदेश होता है। ३२०-युष्मद अस्मद को यकार आदेश होता है अनादेश अजादि विभक्ति परेरते। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ३२१ युष्मदस्मदोरनादेशे ७ । २।८६ । अनयोरात् स्यादनादेशे हलादौ विभक्तों। युवाभ्याम् । आवाभ्याम् । युष्माभिः । अस्माभिः। ३२२ तुभ्य-महयो'ङयि ७ । २। ६५ । अनर्योर्मपर्यन्तस्य । टिलोपः । तुभ्यम् । ३२३ भ्यसोऽभ्यम् ७।१। ३० । आभ्यां परस्य । युष्मभ्यम् अस्मभ्यम् । ३२४ एकवचनस्य च ७।१ । ३२ । अभ्यां उसेरत् । "त्वत् । मत् । ३२५ पञ्चम्या अत् ७ । १ । ३१ । प्राभ्यां पञ्जम्या भ्यसोऽत् स्यात् । युष्मत् । अस्मत । ३२३ तव-ममौ उसि ७ । २ । ६६ । अनयोर्मपर्यन्तस्य तव-ममौ स्तो डसि । ३२७ युष्मदस्मद्भ्यां ङसोऽश ७ । २ । ६७ । ५-युष्मदस्मदोर्मपर्यन्तस्य 'तुभ्य-मह्यौ' प्रादेशौ स्तः 'हे' विभक्तौ - इत्यर्थः । २-'शेषे लोपः' इत्यनेन । ३-युष्मदस्मद्भ्यां परस्य भ्यसः (चतुर्थीबहुवचनस्य) 'अभ्यम्' इत्यादेशः स्यादित्यर्थः । ४-पञ्चम्येकवचनस्येत्यर्थः । ५-त्वमावेकवचने' इति त्वमौ । -युष्मत-'युष्मद्' शब्दात् पञ्चमीबहुवचने भ्यसि 'युष्मद् भ्यस्' इति । 'पञ्चम्या पत्' इति भ्यसः 'अत्' आदेशे टिलोप सिध्यति रूपं 'युष्मत्' इति । ७-षष्ठये कवचने । २११-युष्मद् अस्मद् को आकार आदेश होता है अनादेश हलादि परे रहते । ३११-युष्म् अस्म् को तुभ्य मह्य आदेश होते हैं के परे रहते । ३२३-युष्मद् से परे भ्यस् को अभ्यम् आदेश होता है। ३१४-युष्मद् अस्मद् से परे ङसि को अत् होता है। १२५-युष्मद् से परे पञ्चमी के म्यस् को अत् आदेश होता है। ३९६-गुम् अस्म को तव मम आदेश होते हैं हम परे रहते । ३२७-युष्मद् अस्मद् से परे जसको प्रय होता है। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हलन्तपुल्लिङ्गाः '₹ तव । 'मम । युवयोः । श्रावयोः । ३५८ साम श्रकम् ७ । १ । ३३ । 3 आभ्यां परस्य साम आकं स्यात् । युष्माकम् । अस्माकम् | त्वषि । मयि । युवयोः । श्रावयोः । "युष्मासु । अस्मासु । I ३२६ युष्मदस्मदोः षष्ठी चतुर्थी- द्वितीयास्थयोर्वा नावौ ८ । १ । २० । पदात् परयोरपादादौ स्थितयोः षष्नुयादिविशिष्टयोर्वा नौ इत्यादेशौ स्तः । ३३० बहुवचनस्य वस- सौ ८ । १ । २१ । उक्तविधयोरनयोः षष्ठयादिबहुवचनान्तयोर्वस्-नसौ स्तः । ३३१ तेमयात्रेकवचनस्य ८ । १ । २२ । उक्तविधयोरतयोः षष्ठीचतुथ्यैकवचनान्तयोस्ते मे एतौ स्तः । ३३२ त्वामौ द्वितीयायाः ८ | १ | २३ | १- प्रम - श्रस्म छब्दात् षष्टयैकवचने 'ङस्' विभक्तौ 'तवममौ ङसि' इति मपर्यन्तस्य ममादेशे पररूवे ‘श्रुष्नदस्मद्भ्यां ङसोऽश्' इति ङसोऽशादेशे अन्त्यलोपे 'ममबू म' इति स्थिते टिलोपे सिध्यति रूपं 'मम' इति । २ - 'युवावौ द्विवचने' इति युवावो । ६'प्राकम् ' प्रादेशानन्तरम् अन्त्यलोपपक्षे ( 'शेषे' लोपः' इत्यस्थार्थे मतद्वयम् 'भ्रात्वयस्वनि मित्ते तरविभक्तौ एतयोरन्यस्य लोप:' इत्येकम् । श्रपर च 'शेषे' इति षष्ठ्यर्थे सप्तमी तथा च “मपर्यंन्ताच्छेपस्य लोपः” इत्यर्थः, तत्रान्त्यलोपपक्षे इदम् ) - प्राप्तस्य 'श्रामि सर्वनाम्मः सुट् इति' ) सुटो निवृत्यर्थं ( 'साम' इति ) ससुट्कनिद्दशः । ४ - अस्माकम्अस्मद्' शब्दात् षष्टीबहुवचने श्रामि 'ग्रस्मद् श्राम्' इति स्थिते दलोपे - 'साम श्राकम् ' इति सूत्रेण ( अन्त्यलोप इति पक्षे ) सुट्सहितस्य श्रामः 'श्राकम्' आदेशे सवर्णदीर्घे सिध्यति रूपम् 'अस्माकम्' इति ५ - ' युष्मदस्मदोरनादेशे' इत्यात्वम् । ३१८ - युष्मद् अस्मद् से परे सामू को ग्राकम् होता है । ३२६ -- पढ़ से परे पाद के आदि में स्थित षष्ठी चतुर्थी- द्वितीया विशिष्ट युष्मद् अस्मद् शब्दों को वान् नो आदेश होते हैं ३३० - बहुवचन में पूर्ववत् षष्ठयादिविशिष्टों को वस् नस् आदेश होते हैं । ३३१ - पूर्ववत् स्थितों को षष्ठी और चतुर्थी के एकवचन में ते मे प्रदेश होते हैं । ३३२ - पूर्ववत् स्थितों को द्वितीया के एकवचन में त्वा मा आदेश होते हैं। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् द्वितीयैकवचनान्तयोस्त्वा-मा, इत्यादेशौ 'स्तः । "२श्रीशस्त्वाऽवतु मापीह दत्तात्त मेऽपि शर्म सः। स्वामी ते मेऽपि स हरिः पातु वामपि नौ विभुः॥ 'सुखं वां नौ ददात्वीशः पतिर्वामपि नौ हरिः। सोऽव्याद्वो नः शिवं वो नो दद्यात् सेन्योऽत्र वः स नः" ।। १ (एकवाक्ये युष्मदस्मदादेशा वक्तव्याः)।२ (एकतिङ् वाक्यम्) तेनेह न-ओदनं पच तव भविष्यति । इह तु स्यादेव-शालीनां ते ओदनं दास्यामि । ३ (एते वांनावादयोsनन्वादेशे वा वक्तव्याः) अन्वादेशे तु नित्यं स्युः । धाता ते भक्तोऽस्ति धाता तव भक्तोऽस्ति वा । तस्मै ते नम इत्येव । सुपात् सुपाद् । सुपादौ । ३३३ पादः पत् ६ । ४ । १३० । पाच्छब्दान्तं यदङ्ग भं तदवयवस्य पाच्छब्दस्य पदादेशः। सुपदः। सुपदा । सुपाद्भयाम् । अग्निमत्, अग्निमद् । अग्निमथौ । अग्निमथः । १-इत्थमत्र विवेकः-द्वितीयैकवचने 'त्वामौ' । चतुर्थीषष्ठयेकवचनयोः 'ते-मे' इति। विभक्तित्रयवहुवचनेषु वस् नसौ । सर्वत्र द्विवचने 'वाम' 'नौ' इति भवतः । २-श्रीशः = परमात्मा, त्वा - त्वाम्, मा माम, इह अवतु = रक्षतु । स श्रीशः ते = तुभ्यं, मे = मह्यम् , अपि शर्म = सुखम् , दत्तात् दद्यात् ! स हरिः, ते = तव, मे = मम, स्वामी = ईश्वरः , विभुः = विष्णुः, वाम् = युवाम् , नौ= प्रावाम् , पातु = रक्षतु । ३-ईशः. वाम् -- युवाभ्याम् नौ = प्रावाभ्याम्, सुखं ददातु । हरिः, वाम् = युवयोः, नौ = आवयोः, पतिः = पालकः । स ईशः, वः = युस्मान् , नः = अस्मान्, अध्यात रक्ष्यात् । वः = युष्मभ्यम् नः = अस्मभ्यम्, शिवम् = कल्याणं दद्यात् । अत्रसंसारे, स हरिः, वः = युष्माकम, नः = अस्माकम् . सेव्यः - सेवनीयः = भजनीयः । इत्युदाहरणानि। ४-अत्र तु तिङ-( तिङन्त-) द्वयम् । ५-नित्यमित्यर्थः । ६-'अग्निमनाति' इति विग्रहः। (वा०-(१) समान वाक्य में युष्मद् अस्मद् को उक्त आदेश होते हैं । (२) एकतिङ् शब्द समुदाय--को वाक्य कहते हैं । (३) ये वां नौ आदि श्रादेश अनन्वादेश में विकल्प से होते हैं, अन्वादेश में नित्य )। २३३-पाद शब्द को पद् आदेश होता है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हलन्तपुल्लिङ्गाः ३३४ अनिदितां हल उपधायाः क्ङिति ६। ४ । २४ ।। हलन्तानामनिदितामङ्गानामुपधाया नस्य लोपः किति ङिति । नुम् । संयोगान्तस्य लोपः । नस्य कुत्वेन ङः। 'प्राङ् । प्राञ्चौ । प्राश्चः। . ३३५ अच. ६ । ४ । १३८ । लुप्तनकारस्याञ्चतेर्भस्याऽकारस्य लोपः । ३३६ चौ ६ । ३ । १३८ । लुप्ताकारनकारेऽञ्चतौ परे पूर्वस्याणो दीर्घः। 'प्राचः। प्राचा । प्राग्भ्याम् । प्रत्यङ् । प्रत्यञ्चौ । प्रतीचः । प्रत्यग्भ्याम् । उदङ् । उदञ्चौ । ३३७ उद ईत् ६ । ४ । १३६ । उच्छब्दात् परस्य लुप्तनकाराञ्चतेर्भस्याकारस्य ईत् । उदीचः । उदीचा! उदग्भ्याम् । १-प्राञ्च् + सु, नलोपः नुम् 'संयोगान्तस्य ... ' इति चकारलोपः, 'न' कारस्य 'क्विन्प्रत्ययस्य कुः' इत्यनेन ः। २-प्राचः--प्रपूर्वात् पञ्चधातोः क्विन्नन्तात् द्वितीयाबहुवचने शसि 'भनिदितां हल उपधाया किङति' इति उपधाभूतस्य नकारस्थ लोपे 'प्र प्रच प्रस्' इति स्थिते भसंज्ञायां 'प्रचः' इति सूत्रेणाकारलोपे 'चौ' इति सूत्रेल दीधै रुत्वे विसर्गे च सिध्यति रूपं 'प्राचः' इति । ३-प्रति अञ्च (शस् ) प्रस् , नलोपः, 'प्रवः' इत्याकारलोपः पूर्वस्याऽणः । ('प्रति' इत्येतद्गतस्य 'इ' कारस्य) दीर्घः, प्रतीचः। ४-उदीचः - उत् पूर्वाद् अञ्चधातोः क्विनन्तात् शसि तकारस्य जश्त्वेन दकारे मवे वलोपे च 'उद् अच प्रस्' इति स्थितौ 'उद ईत्' इति प्रचोऽकारस्य ईत्वे सस्य रुत्वविसगौं सिध्यति रूपम् 'उदीचः' इति । ३३४-हलन्त अनिदित् अङ्ग की उपधा के न का लोप होता है कित्, डिम् परे रहते । ३३५-लुप्तनकार अञ्च के भसंज्ञक अकार का लोप होता है । ३३६-लुप्तनकार तथा लुप्त अकार अञ्चु परे रहते पूर्व अण् को दीर्घ होता है। ३३७-उत् शब्द से परे लुप्तनकार अञ्चु के भसंज्ञक अकार को ईकार होता है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ३३८ समः समिः ६ । ३।६३ । . वप्रत्ययान्तेऽञ्चती' । सम्यङ् । सम्यञ्चौ । समीचः । सम्यग्भ्याम् । ३३६ सहस्य सधिः ६।३।१५। तथा । सध्यङ् । 'सध्रीचः। ३४० तिरसस्तियेलोपे ६।३ । ६४ । अलुप्ताकारेऽश्चतौ वप्रत्ययान्ततिरसस्तिर्यादेशः । तिर्यङ् । तिर्यश्चौ । तिरश्चः । तिर्यग्भ्याम । ३४१ नाम्चेः पूजायाम् ६ । ४ । ३० । पूजार्थस्याश्चतरुपधाया नस्य लोपो न । प्राङ् । प्राञ्चौ। नलोपाभावादलोपो न । प्राञ्चः। प्राभ्याम् । प्राङ्क्षु । एवं पूजार्थे प्रत्यङङादयः। क्रुङ् । कञ्चौ । ऋउभ्याम् । पयोमुक् । पयोमुग.। पयोमुचौ । पयोमुग्भ्याम् । उगित्त्वान्नुम् । ३४२ सान्त-महतः संयोगस्य । ६।४ । १० । १-'सम इत्यस्य 'समि' इत्यादेशः'। २-'न'लोपः, 'अलोपः, दीर्घः, यथा प्रतीचः। ३-वप्रत्ययान्तेऽश्चतौ परे 'सह' इत्यस्य 'सध्रिः' इत्यादेशः स्यादित्यर्थः । ४-सध्रीचः सहपूर्वाद् अञ्चतेः क्विन्नन्तात् द्वितोयाबहुवचने शसि भसंज्ञायां 'सहस्यसघ्रिः' इति सध्यादेशे नलोपे 'सध्रि प्रचू अस्' इति जाते 'प्रचः' इति प्रकारलोपे 'चौ' इति पूर्वस्याणो दीप सिध्यति रूप 'पध्रीचः' इति । ५-'तिरि' आदेशः । 'तिरश्चः' इत्यत्र 'अचः' इति-प्रकारलोपान्न तिर्यादेशः। ६-पयो ( जलम् ) मुञ्चति-इति विग्रहः । मेघोऽर्थः । ७-'उगिदचां...' इत्यनेन । ८-विद्वान्, विद्वांसौ । महान् , महान्तौ, इत्यादौ च "संयोगान्तस्य लोपः" इत्यनेन कृतस्य सकारलोपस्याऽसिद्धत्वान्नान्तोपंधत्वं नास्तीति 'सर्वनामस्थाने चा..' इति दीघों न प्राप्नोति-इत्यतः सूत्रारम्भः । ३३८-वप्रत्ययान्त अञ्चु परे रहते शम को समि आदेश होता है। ३३६-अप्रत्ययान्त अञ्चु परे रहते सह को सध्रि आदेश होता है । ३४०-अलप्ताकार वप्रत्ययान्त अञ्च परे रहते तिरस् को तिरि आदेश होता है। ३४१-पूजार्थक अञ्चु के न का लोप नहीं होता। ३४२-संयुक्त सान्त और महत् शब्द के नकार की उपधा को दीर्घ होता है सर्वनामस्थान परे रहते, सम्बुद्धि को छोड़कर । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C लन्तपुल्लिङ्गाः सान्तसंयोगस्य महतश्च यो नकारस्तस्योपधाया दीर्घोऽसम्बुद्धौ सर्वनामस्थाने । महान् । महान्तौ । महान्तः। हे महद् ! महद्भ्याम् । ३४३ अत्वसन्तस्य चाधातोः ६ । ४ । १४ । अत्यन्तस्योपधाया दीर्घा धातुभिन्नासन्तस्य चासम्बुद्धौ सौ परे । धीमान्धीमन्तौ । धीमस्तः । हे धीमन् ! । शसादौ महदवत् । भातेडेवतुः'। डित्त्व सामर्थ्यादभस्यापि टेर्लोपः। भवान् । भवन्तौ । भवन्तः। शत्रन्तस्य-भवन् । ३४४ उभे अभ्यस्तम् । ६।१।५।। पाष्टद्वित्वप्रकरणे ये द्वे विते ते उभे समुदिते अभ्यस्तसंशे स्तः । ३४५ नाभ्यस्ताच्छतुः ७ । १ । ७८ । अभ्यस्तात परस्य शतुर्तुम् न । ददत् ददतौ । ददतः। ३४६ जक्षित्यादयः षट ६।१।६। पट धातयोऽन्ये जक्षितिश्च सप्तम एते अभ्यस्तसंज्ञाः स्युः । जक्षत्, जतद् । जक्षतौ । नक्षतः । एवं जाग्रत, दरिद्रत् , शासत् , चकासत् । गुप, गुव् । गुपौ । गुपः । गुठभ्याम् ।। ३४७ त्यदादिषु दृशोऽनालोचने कञ् च ३।२ । ६० । १-भातेः=भा ( दीप्तौ ) इत्यस्मात् । २-शतृप्रत्ययान्तस्य प्रत्वन्तत्वाभावात् प्रावसन्तस्य चा ...' इति दीघी न । ३-षष्ठाध्यायस्यद्वित्वप्रकरणे । ४-शतृप्रत्ययस्य । ५ ते चैते सप्त 'जति जागृ-दरिद्रा-शास-दीघोङ्-वेवीङ -चकास्तथा । अभ्यस्तसंज्ञा विज्ञ था धातवी मनिभाषिताः ।। १४३-अत्यन्त की उपधा और धातुभिन्न असन्त की उपधा को दीर्घ होता है । सम्बुद्धिभिन्न सु परे रहते। २४४-छठे अध्पाय के द्वित्व प्रकरण में जो दो विधान किए हैं वे दोनों समुदित अभ्यस्त संजक होते हैं। ३४५ अभ्यस्त से परे शत् को नुम् नहीं होता। ३४६-जागृ आदि छः और जक्षिति इन सात धातुओं की अभ्यस्त संज्ञा होती है । ३४७-त्यदादि उपपद रहते अज्ञानार्थक दश धाव से कन् प्रत्यय होता है और स्विन भी! Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् त्यदादिष्पपदेषु अज्ञानार्थाद् दृशेः कञ् चात् क्विन् । ३४८ आ सवेनाम्नः ६ । ३।६१ । सर्वनाम्न आकारोऽन्तादेशः स्याद् दृग्'-दृश-वतुषु । तादृक् तादृग् । तादशौ । तादृशः। तादृग्भ्याम् । व्रश्चेति षः। जश्त्वचा । विट, विड्। विशौ । वशः । विड्भ्याम् । ३४६ नशेर्वा ८।२। ६३ । नशेः कवर्गोऽन्तादेशो वा पदान्ते। नक नग , नट, नड् । नशौ । नशः। नग्भ्याम् । नडभ्याम् । १५० स्पृशोऽनुदके क्विन ३ । २ । ५८ । "अनुदके सुप्युपपदे स्पृशेः क्विन् । “घृतस्पृक, घृतस्पृग । घृतस्पृशौ । घृतस्पृशः । “दधृक, दधृग । दधृषौ । दधृग्भ्याम् । रत्नमुट , रत्नमुड। रत्नमुषो । रत्नमुडभ्याम् । षट, षड, । षडभिः । षडभ्यः । २ । षण्णाम् । षटसु, षटत्सु । रुत्वं प्रति षत्वस्यासिद्धत्वात् ससजुषोरुरिति रुत्वम् । ३५१ वोरुपधाया दीर्घ इकः ८ । २ । ७६ । -'दृग्-दृश्-वतुषु' इति सूत्रमनुवर्तते । २-स' इव दृश्यते इति तादृक् बाहुलकात कर्मणि क्विन् । स इव पश्यतीति कर्मकर्तरि वा विवन, दृशेरत्र ज्ञानविषयत्वापत्तिमात्रवृत्तित्वादज्ञानार्थता । तद् दृश् चिन्, क्विनः सपिहारे 'पा सर्वनाम्नः' इति दकारस्यप्रांत्वे, 'तादृश' इति भवति । सु-विभक्तो वश्चेति षः, षस्य 'झलां जशोऽन्ते” इति डा, तस्य 'क्विन् प्रत्ययस्येति' 'गः', 'वावसाने' इति वा कः। ताहक तादृग् । ( कप्रत्यये तु 'तादृशः' रामवत् ।) एवमेव 'तस्पक' इत्यादी साधने बोध्यम् । ३-कुस्वाभावपक्षे षत्वम् , जश्त्वम्, वा-चत्वं च । ४-उदकर ब्दभिन्ने, इत्यर्थः । ५-'क्विन् प्रत्ययस्य कुः' इति पुत्वम् । ५-'ऋत्विग्दधृक् ' इति क्विन्नन्तनिपातनमिदम् । ७–'षट् चतुभ्यंश्च' इति नुट, षस्य जश्त्वे 'षड् + नाम्' इत्यत्र 'पनाम्' इति पयुवासात् 'ष्टुना ष्टुः' इति ष्टुत्पम्, प्रत्यये भाषायां नित्यम् इति डस्य णत्वे, षण्णाम् ३४८-सर्वनाम को आकार अन्तादेश होता है हग, दृश , वतु परे रहते । ३४६-नश को कवर्ग अतादेश होता है पदान्त में। ३५०-उदकभिन्न सुबन्त उपपद रहते स्पृश् घातु से क्विन् प्रत्यय होता है। १५१-रेफवान्त धातु की उपधा के इक को दीर्घ होता है पदान्त में। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हलन्तपु लिङ्गाः रेफवान्तयोरुपधाया इको दीर्घः पदान्ते । 'पिपठीः । पिपठिषौ । पिपठीया॑म् । ३५२ नुम् विसर्जनीयशळवायेऽपि ८ । ३ । ५८ । एतैः प्रत्येकं व्यवधानेऽपि इण्कुभ्यां परस्य सस्य मूर्धन्यादेशः । ष्टुत्वेन पूर्वस्य षः । पिपठीष्षु, एिपठीः षु । चिकीः। चिकीर्षों । चिकीाम् । चिकीर्षुः । विद्वान । विद्वांसी । हे विद्वन् !। ३५३ वसोः संप्रसारणम् ६ । ४ । १३१ । वस्वन्तस्य भस्य संप्रसारणं स्यात् । 'विदुषः । (२६२) वसुन स्विति दः। विद्वद्भथाम् । ३५४ पुसोऽसुङ ७ । १ । ८६ ।। सर्वनामस्थाने विवक्षितेऽसुङ् स्यात् । “पुमान् । हे पुमन् ! । पुमांसौ । पुंसः । पुभ्याम् । पुंसु । ( २०४ ) ऋदुशनेत्यनङ् । उशना । उशनसौ । (अस्य संबुद्धौ वाऽनङ् नलोपश्च वा वाच्यः) हे उशन !, हे उशनन् !, __-'पठ्' धातोः सन्नन्तात् विप् , पिपठिषति, इति पिपठीः पिपठिष् + सु, 'हलङ्याप' इति सुलोपे षत्वस्याऽसिद्धत्वात 'ससजुषो रुः' इति रुः, 'वो...' इति दीर्घः । २-चिको+ सु 'हलङ याप' इति सुलोपे, 'रात्सस्य' इति सकारलोपे च रेफस्य विसर्गः, चिकीः । ३ विद्वान् -विद्धातोः लटः शत्रादेशे शतुश्च विदेः शतुर्वसुः' इति वस्वादेशेऽनुबन्धखोपे विद्वस्शब्दात् कृदन्तस्येन प्रातिपदिकात् प्रथमैकवचने सौ 'उगिदचां ' इति नुमि विद्वन्स् स्' इति स्थितौ 'सान्तमहतः....' इति दोघे 'हलङ्याबिति' विभक्तिसकारलोप संयोगान्तत्वेन पूर्वसकारलोपे सिध्यति रूपं 'विद्वान्' इति । ४-विद्वस् + (शस् ) प्रस्। सम्प्रसारणम् ( वस्य = उत्वम् , पूर्वरूपम्, षत्वम् । ५-पुस + सु, प्रसुङ् = पुमस् + सू, सुलोपः । 'उगिदचा ... ' इति नुम्, 'सान्तमहतः' इति दीर्घः । संयोगान्तलोपः, पुमान् । ३५२-नुम , विसर्जनीय और शर् के व्यवधान में भी इण-कवर्ग से परे स कोष होता है। ३५३-वस्वन्त भसंज्ञक अङ्ग को सम्प्रसारण होता है। ३४४-सर्वनामस्थान की विवक्षा में पुस् को असुङ् होता है। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् हे उशनः ! हे उशनसौ । उशनोभ्याम् । उशनस्सु । अनेहा । अनेहसौ । हे अनेहः ! | वेधाः । वेधसौ । हे देधः !! 'वेधोभ्याम् । ३५५ अस सुलोपश्च ७ । २ । १०७ । अदस औत् स्यात् सौ परे सुलोपश्च । ( ३१० ) तदोरिति सः । असौ । त्यदाद्यत्वम् । पररूपत्वम् । वृद्धिः । ३५६ अदसो से दो मः ८ । २ । ८० । असोऽसान्तस्य दात् परस्य उदूतौ दस्य मश्च । ग्रान्तरतम्याद् ह्रस्वस्य - उः, दीर्घस्य - ऊः । अमू । ( १५२ ) जसः शी । गुणः । ३५७ एत ईद् बहुवचन ८ । २ । ८१ । अदसो दात् परस्यैतद् दस्य च मो बह्वर्थोक्तौ । पूर्वत्रासिद्धमिति विभक्तिकार्य प्राकू, पश्चादुत्वमत्वे । मून् । मुत्वे कृते घिसंज्ञायां 'ना" - " भावः । ३५८ न मु ने ८ । २ । ३ । श्रमी । (३१) मुम् । अमू १–एवं 'चन्द्रमस्' शब्दः । २ - परिमाणकृतान्तरतम्यात् । ३ - बहुवचने । ४-प्रदस् ( जस् ), त्यदाद्यत्वे पररूपे 'जसः शी' 'श्राद्गुणे' । 'प्रदे' इति स्थितौ 'एत ईद् बहुवचने' इति - ईत्वे दस्य मश्च श्रमी । एवं तृतीयादिबहुवचने सर्वत्र 'बहुवचने झल्येत्' इति एत्वं कृत्वा इत्वं दस्य मत्वं च विधेयम् । ५- 'श्राङो नाऽस्त्रियाम्' इत्यनेन | ६–(७ । ३ । १२०) ‘ना’–भावदुष्टौ (८२८०) 'मु' - भावस्याऽसद्धत्वात् कथं (धिसंज्ञा ) 'ना' - भावः, इत्यसिद्धत्वाऽभावप्रतिपादनार्थमिदं सूत्रम् । ( वा०--- उशनस शब्द को सम्बोधन में विकल्प से श्रम देश होता है और न का लोप विकल्प से होता है ) । ३५५- अदसू के अन्त्य अल् को श्री होता है सु परे रहते । ३५६–सान्तभिन्न अदसू शब्द के दकार से परे ह्रस्व को उ, दीर्घ को ऊ आदेश होता है और द को म होता है । ३५८ - ना भाव करने पर या कर चुकने पर मु-भाव सिद्ध नहीं होता । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हलन्तस्त्रीलिङ्गाः ९३ "ना" - भावे कर्तव्ये कृते च 'मु- भावोनासिद्धः । अमुना । अमूभ्याम् । अमीभिः । अमुष्मै । अमीभ्यः । अमुष्मात् । अमुष्य । अमुयोः २ । 'अमीषाम् । इति हलन्ताः पुंल्लिङ्गाः अथ हलन्ताः स्त्रीलिङ्गाः ३५६ नहो घः ८ । २ । ३४ । हो हस्य धः स्यात् झलि पदान्ते च । ३६० नहि वृति-वृषि-व्यधि-रुचि-सहि- तनिषु क्वौ ६ । ३ । ११४ । बिन्तेषु पूर्वपदस्य दीर्घः । उपानद् । उपानहौ । उपानत्सु । 'क्विन्नन्तत्वात कुत्वेन घः । उष्णिक् । उष्णिहौ । उष्णिग्भ्याम् । द्यौः । दिवौ । दिवः । द्युभ्याम् । 1 " १–अमुना—'अदस्' शब्दात् तृतीयैकवचने टाविभक्तौ त्यदाद्यत्वे पररूपे च 'अद् आ' इति स्थिते 'अदसो सेर्दादुदोमः' अकारस्य उत्वे दस्य च मत्वे 'अमु आ' इति जाते 'नमुने' इति सूत्रेण मुमावस्यासिद्धत्वाभावबोधनात् घिसंज्ञायाम् 'आङोना स्त्रियाम्' इति नादेशे सिध्यति रूपम् 'अमुना' इति । अदस् + भ्याम् त्यदाद्यत्वं पररूपम्, सुपि चेति दीर्घः ऊत्वं, मत्वं चेति अमूभ्याम् । २ - अमीषाम् 'अदस्' शब्दादामि त्यदाद्यत्वे पररूपे 'आमि सर्वनाम्नः सुट्' इति सुटि 'अद साम्' इति स्थिते 'बहुवचने झल्येत्' इति ऐत्वे 'एत ईद् बहुवचने' इति एकारस्य इत्वे दस्य च मकारे शस्य षत्वे सिध्यति रूपम् 'अमीषाभू' इति । इति हन्ताः पुंल्लिङ्गाः । '३--'उप' उपसर्गात् 'गह' ( बन्धने ) धातोः क्विप् पूर्वस्य दीर्घः । उपानत् = पादप्राणम् ( जूता ) । एवं नीवृत् । प्रावृट् । मर्मावित् । अमीरुक् । ऋतीषट् । परीतत् । इत्येतेषु पूर्वपददीर्घः । ४ - " ऋत्विग्दधृक्’' इति किन् । ५ - " दिव औत्" इति वस्य त्वम्, विसर्गः । ६ - 'दिव उत्' इति उत्वम् । ..39 इति हलन्तपुंल्लिङ्गाः अथ हलन्तस्त्रीलिङ्गाः ३५९ - नह धातु के ह को ध होता है झल परे रहते पदान्त 1 ३६० - बिन्त नहि वृति वृषि आदि परे रहते पूर्व पद को दीर्घ होता है । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् 'गीः। गिरौ। गिरः। एवं पूः। चतस्रः 'चतमृणाम् । का । 'के। काः। सर्वावत्। ३६१ यः सौ ७ । २ । ११० । __ इदमो दस्य यः। इयम् । त्यदाद्यत्वम् । पररूपत्वम्। टाप्। दश्चेति मः। इमे। इमाः। इमाम् । अनया। (२७७) हलि लोपः, आभ्याम् । आभिः। अस्यै । अस्याः। अनयोः । आसाम् । अस्याम् । आसु । त्यदाद्यत्वम् टाए। स्या । त्ये । त्याः। एवं तद्, एतद् । वाक् । वाग। वाचौ। वाग्भ्याम् । वाक्षु । षष् शब्दो नित्यं बहुवचनान्तः । ( २०६) अप्तृन्निति दीर्घः । आपः। अपः। ३६२ अपो भि ७।४।४८ । अपस्तकारो भादौ प्रत्यये । अद्भिः। अद्भयः २। अपाम् । अप्सु । दिक् , दिग् । दिशः। दिग्भ्याम् (३४७) त्यदादिष्विति दृशेः किविधानादन्यत्रापि । 'कुत्वम् । हक, हग् । दृशौ । हग्भ्याम् । त्विट् । विड्। त्विषो । विड्भ्याम् १-गिर् +सु, सुलोपः “वोरुपधाया दीर्घ इकः” इति दीर्घः। रेफस्य विसर्गः । गीः वाणी। २-पू: = नगरी, पूः पुरौ, पुरः। चतसृणाम् 'चतुरशब्दात् षष्ठीबहुवचने आमि 'त्रिचतुरोः' इति चतस्रादेशे 'अचि र ऋतः' इति प्राप्तं रेफादेशं 'नुमंचिरेति' पूर्वविप्रतिषेधेन बाधित्वा 'नुट' नामीति प्राप्तस्य दीर्घस्य 'न तिस चतस्' इति निषेधे "ऋवर्णान्नस्य णत्वं वाच्यमिति" णत्वे सिध्यति 'चतसृणाम्' । ४-'किमः कः' इति कादेशे स्त्रियां टाप् , हल्ङ्याविति सुलोपः ५-अनया-'इदम्' शब्दात् तृतीयैकवचनेयाविभक्तौ त्यदाद्यत्वं पररूपं स्त्रीत्वे टापि सवर्णदीर्घ 'इदा आ' इति स्थिते 'अनाप्यकः' इति सूत्रेण ईद् भागस्य अनादेशे 'आङि-चापः' इति एकारादेशे, 'एचोऽयवायावः' इति अयादेशे सिध्यति रूपम् 'अनया' इति । ६-'तत्' शब्दस्य स्त्रियां-सा, ते, ताः । एतत्' शब्दस्य एषा, एते, एताः। ६-'चोः कुः' इति कुत्वम् , 'त्वच' शब्दोऽयम् ! ८'ऋत्विग्' सूत्रेण । ९-'क्विन्-प्रत्ययस्य".....' इति सूत्रे क्विन् प्रत्ययो ( दृष्टो ) यस्मादिति बहुव्रीहिः। तथा च अत्र क्विन् प्रत्ययाभावेऽपि 'तादृक्' इत्यादौ 'त्यदादिषु दृशोऽना लोचने ..' इत्यनेन क्विन् विधानदर्शनात् भवत्येव कुत्वम् । ३६१-इदम् शब्द के दकार को यकार होता है सु परे रहते स्त्रीलिङ्ग में।। ३६२-अप शब्द को तकार भन्तादेश होता है भादि प्रत्यय परे रहते । इति ह. स्त्री०। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हलन्तनपुंसकलिङ्गाः ૧ ( १०५ ) ससजुषो रुरिति रुत्वम् । सजूः । सजुषौ । सजूर्भ्याम् आशीः । आशिषौ । श्रशीर्भ्याम् । असौ । उत्व-मत्वे । अमू । अमूः । ' श्रमुया । अमूभिः । अमुष्यै । श्रमभ्यः । श्रमुष्याः । 1 श्रमुयोः । श्रभूषाम् । श्रमुष्याम् । श्रमृषु । इति हलन्ताः स्त्रीलिङ्गाः । अथ हलन्तनपुंसकलिङ्गा: स्वमोर्लुक् । दत्वम् । "स्वनडुत्, स्वनडुद् । स्वनडुही। (२५९) चतुरनড়होरित्याम् । स्वनड्वांहि । पुनस्तदत् । शेषं पुंवत् । "वाः । वारी । वारि । वार्भ्याम् । चत्वारि । 'किम् । के । कानि । इदम् । इमे । इमानि । ( अन्वादेशे नपुंसके एनद्वक्तव्यः ) एनत, एनद् । एने । एनानि । एनेन । एनयो: ' २ ॥ श्रहः । (२४८ ) विभाषा ङिश्योः । अह्नी, ग्रहनी । अहानि । १० ३६३ हन् । ८ । २ । ६८ । 1 १- अत्र क्विप् श्रदस्+टा, त्यदाद्यत्वे - पररूपे स्त्रीत्वविवक्षायां टापू । सवर्णदीर्घः, 'आङि चाप:' इत्येत्वेऽयादेशः, उत्व मत्वे प्रमुया । २ - प्रदस् + ङे, त्यदाद्यत्वं पररूपम्, टापू, सवरणं दीर्घः, श्रदा + ऐ इत्यत्र 'सर्वनाम्नः स्यादुस्वश्च' इति स्याट्, ग्रापश्च ह्रस्वः, वृद्धौ उखे मत्वे षत्वे च श्रमुध्यै । ३ - मुयोः - 'प्रदस्' शब्दात् श्रोसि विभक्तौ त्यदाद्यत्वे पररूपं स्त्रीत्वे टापि सवदीर्घे प्रदा आस्' इति स्थिते ' श्राङि चापः ' इति एकारादेशेऽयादेशे च ' प्रदयोस इति जाते 'अदसोऽर्दादुदोम:' इति उत्वे मत्वे च सस्य रुत्वे विसर्गे च सिध्यति रूपम् 'मुयो:' इति इति हलन्त स्त्रीलिङ्गाः । अनड्वाहः = वृषभा यस्मिन् " ४- "वसुखसु इत्यनेन । ५ - सु - शोभनाः यस्य वा तत्कुलम् । ६ 'वार्' इति रान्तोऽयं शब्दः । ७ - चतुर् + (जस् ) शि, "चतुरनडुहो इत्याम् । ८ - नात्र किमः कादेशो विभक्तेरभावात् । प्रत्ययलक्षणं तु न, "न लुमतेति" लुकि तन्निषेधात् । - श्रहन् + सु सुलोपः, "रोऽसुपि " इति नकारस्य रेफादेशः विसर्गः | १० वा प्रकारलोपः । 11 हलन्तनपुंसकलिङ्गाः ( ३६३ - से पूर्व वा०-३ - अन्वादेश में एतद् शब्द को विकल्प से एनत् श्रादेश होता है । नपुंसकलिङ्ग में ) । ३६३ - श्रहन् शब्द को रु प्रदेश होता है। पदान्त में 1 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् - अहन्नित्यस्य रुः पदान्ते । 'अहोभ्याम् । दण्डि । (सम्बुद्धौ नपुंसकानां नलोपोवावाच्यः) हे दण्डिन् ! हे दण्डि ! दण्डिनी। दण्डीनि। दण्डिना। दण्डिभ्याम् ॥ सुपथि । टेर्लोपः। सुपथी। सुपन्थानि। 'ऊ, ऊर्ग । ऊर्जी । ऊर्जि । नरजानां संयोगः । तत् । ते । तानि । यत् । ये। यानि । एतत् । एते। एतानि । “गवाक् । गोची। गवाञ्चि । पुनस्तद्वत्। गोचा। गवाग्भ्याम् । शकृत् । शकृती । शकृन्ति । ददत् । ददती। ३६४ वा नपुंसकस्य ७ । १ । ७६ । १-"हशि च” इति-उत्वम्, गुणः । २-सुपथि-शोभनमार्गम्-नगरम् । द्विवचने 'सुपथी' नपुंसकत्वात्सर्वनामस्थानसंज्ञाऽभावाद् “यचि भम्” इति भसंज्ञायाम्, “भस्य टेलोपः" इति टिलोपः। बहुवचने 'सुपन्थानि' "शि सर्वनामस्थानम्" इति शेः सर्वनामस्थानत्वात् “थो न्यः” इति न्यादेशे "इतोऽसर्वनामस्थाने" इति अत्वे सपन्थन् + इ इत्यवस्थितौ उपधादीर्घः । ३-ऊज्' धातोः क्विप् । ४-( नकार-रेफ जकाराणां संयोगः) अत्र व्यपदेशिवद्भावेनाऽन्त्याच् ऊकारस्ततो नुमि एवं वर्णक्रमः-- इति भावः । ५-गवाक् शब्दस्य रूपाणि क्लीबेऽर्चागतिभेदतः । प्रसन्ध्यवङ्पूर्वरूपैर्नवाधिकशतं ( १०६ ) मतम् ॥ ६-गोचा-गोपूर्वकादवितेः किन् प्रत्यये 'गो अच्' शब्दात् समासत्वेन प्रातिपदिकसंज्ञायां टाविभक्तौ 'गो अञ्च् प्रा' इति स्थितौ अनिदितामिति नलोपे यत्वे च 'अधः' इति अचोऽकारस्य लोपे सिध्यति रूपं 'गोचा' । पूजायां तु 'नान्चेः पूजायाम्' इति नलोपनिषेधे 'प्रवङ् स्फोटायनस्य' इति अङि सवर्णदीचे ‘गवाञ्चा' इति अवङाभयावपक्षे 'सर्वत्र विभाषा गोः' इति वैकल्पिके प्रकृतिभावे 'गो प्रवा' इति प्रकृतिभावाभावे 'एङः पदान्तादति' इति पूर्वरूपे 'गोऽश्चा' इति रूपं सिध्यति । स्वमसुप्सु नव, षड् भादौ षटके स्युः, त्रीणि जश्शसोः । चत्वारि-शेषे दशके रूपाणीति विभावय । गोपूर्वकादञ्चेः क्विनि, क्विनः सर्वापहारे कृदन्तत्वात्प्रातिपदिकत्वे सः, गो प्रञ्च +सु, सुलोपे अनिदितां हलः' इति गस्य लोपः। “अवङ् स्फोटायनस्य" ३६४-अभ्यस्त से परे शत्प्रत्ययान्त क्लीबाङ्ग को विकल्प से नुम् होता है सर्वनाम Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हलन्तनपुंसकलिङ्गाः अभ्यस्तात् परो यः 'शता तदन्तस्य क्लीवस्य वा नुम् सर्वनामस्थाने । ददन्ति । ददति । तुदत्। ३६५ आच्छीनद्योनु म् । ७ । १ । ८० । अवर्णान्तादङ्गात् परो यः शतुरवयवस्तदन्तस्य नुम् वा शीनद्योः तुदन्ती, तुदती तुदन्ति । ३६६ शप-श्यनोनित्यम् । ७ । १।८१ । शःश्यनोरात् परो यः शतुरवयवस्तदन्तस्य नित्यं नुम् शीनद्योः। पचन्ती। पचन्ति । दीव्यत् । दीव्यन्ती । दीव्यन्ति । धनुः। धनुषी । (३४२) सान्तेति दीर्घः । (३५२) नुविसर्जनोयेति षः। धनूंषि । धनुषा। धनुाम् । एवं "चतुर्ह विरादयः । पयः । पयसी । पयांसि। पयसा । पयोभ्याम् । सुपुम्। सुपुंसी। इत्यवङि, सवर्णदीधः, चौः कुरिति कुत्वम्, जश्त्वे वैकल्पिके चत्वे च गवाक्, गवाम् । प्रकृतिभावे गोअक् गोप्रग् । पूर्वरूपे गोऽक्, गोऽग्। पूजायां गवाङ् गोप्रा, गोऽडः । इति सौ नवरूपाणि । विस्तरभयान्न सर्वाणि दर्शितानि। १-'शतृ' प्रत्ययः। २-द्विवचनान्तमिदम्। ३.-'धन' धातोः 'उस्' प्रत्ययः 'धनुष' शब्दो भवति । धनुामित्यत्र रेफान्तत्वेऽपि धातुत्वाभावात् हलि चेति वोरित्व च न दीर्घः । ४-धनूंषि-'धनुष्' शब्दात् प्रथमाबहुवचने जसि 'जसशसोरि' इति श्यादेशे सर्वनामस्थानसंज्ञायां नपुसकस्य झलचः' इति नुमि नस्यानस्वारे 'सान्तमहत: संयोगस्येति' उपधादीचे 'नुम विसर्जनीय शय॑वायेऽपि इति सस्य षत्वे सिध्यति रूपं 'धनूषि' इति । ५-चक्षुः, चक्षुषी, चक्षूषि । हविः, हविषी, हवींषि । ३६५-अवर्णान्त अङ्ग से परे शतृप्रत्ययान्त शब्दस्वरूप को नुम् होता है विकल्प से शीप्रत्यय और नदीसंज्ञक परे रहते । ३६६--शप श्यन् सम्बन्धी आकार से परे शतृ के अवयवान्त शब्दस्वरूप को नित्य नुम् होता है शी और नदी परे रहते । इति हलन्तनपुंसकलिङ्गाः -:: Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् 'सुपुमांसि । श्रदः । 'विभक्तिकार्यम् । उत्व-मत्वे । अम । श्रमूनि । शेषं पुंवत् । ἐς इति हलन्ता नपुंसकलिङ्गाः । इति पलिङ्ग : अथाऽव्ययप्रकरणम ३६७ स्वरादि-निपातमव्ययम् १ । २ । ३७ । ५ - सनुतर् । ६-उच्चैस् स्वरादयो निपाताश्चाव्ययसंज्ञाः स्युः 1 १-स्वर । २-अ॒न्तर् । ३-प्रातर् । ४ - पुनर् । ७-नीचैस् । ८-शनैस् । - ऋधक् । १० - ऋते । १३-पृथक् । १४–ह्यस् । १५ - श्वस् | १६ - दिवा । १६-चिरम् | २०-मनाक् । ११ - ईषत् | २२ - जोषम् । २३- तूष्णीम्। २४बहिस् । २५--अवस् । २६ - अधस् । २७ - समया । २८ - निकषा । २६ - स्वयम् । ११ - युगपत् १७ - रात्रौ । । १२ - श्रारात् । १८ - सायम् । १- शोभनाः पुमांसो यत्र तत् कुलं-सुपुम्, सुपुसी, जसि सुपुमांसि - 'नपुंसकस्य झलचः' इति नुम्, 'सान्तमहतः ' इति दीर्घः । २- प्रदस्' शब्दस्य प्रथमाया एकवचने रूपम् । ३ - स्यदाद्यत्वम्, (पररुपम् गुणः ) :- प्रमूनि' प्रदस्' शब्दात (नपुंसके) जसि यदाद्यत्वे पररूपे 'जस्शसोः शि' इति जस: श्यादेशे 'अद + इ' स्थितौ 'नपु ंसकस्य' झलचः' इति नुमि 'उपधादीर्घे 'प्रदानि' इति स्थितौ 'प्रदसोऽसेर्दादुदोम:' इति उत्वे दस्य मत्वे सिध्यति रूपम् 'श्रमूनि' इति । पुनस्तद्वत् रूपाणि । इति हलन्त नपुंसकलिङ्गा अथाऽव्ययाऽर्थाः १-स्वर्गंः । २-मध्यम् ३-दिनादि ( प्रत्यूषम् ) । ४ भूयः ( श्रप्रथमम् ) । ५ अन्तधनम् । ६ उच्चस्थानम् । ७ नीवस्थानम् । ८ क्रियामान्यम् । ६ सत्यम् । १० विना । ११ एककालम् । १२ दूरं सामीप्यञ्च । १३ भिन्नम् । १४ प्रतीतदिनम् । १५ श्रागामिदिनम् । १६ दिनम् । १७ रात्रिः । १० दिनावसानम् । ( निशामुखम् ) । १६ बहुकालम् । २० अल्पम् । २१ अल्पम् २२ मौनम् । २३ - मौनम् । २४ बाह्यम् । २५ बाह्यम् । २६ नीचैः । २७ सामीप्यम् । २८ सामीप्यम् । २६ प्रात्मना । ३० ३६७ स्वरादिगणपठित शब्द और निपातसज्ञक शब्दों की अव्ययसंज्ञा होती है । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्ययप्रकरणम् ३०-वृथा। ३१- नक्तम् । ३२-न । ३३ नञ् । ३४-हेतौ। ३५-इद्धा । ३६. अद्धा । ३७-सामि । ३८-वत् । ३६-ब्राह्मणवत् । ४०-क्षत्रियवत् । ४१-सना। ४२-सनत् । ४३-सनात् । ४४-उपधा। ४५-तिरस्। ४६-अन्तरा । ४७अन्तरेण । ४८-स्योक् । ४६-कम् । ५०-शम् । ४१-सहसा । ५२-विना । ५३नाना । ५४-स्वस्ति । ५५-स्वधा । ५६-अलम् । ५७-वषट् । ५८-श्रौषट । ५६-वौषट् । ६०-अन्यत् । ६१-अस्ति । ६२-उपाशु (६३-क्षमा । ६४विहायसा । ६५-दोषा । ६६-मृषा । ६७-मिथ्या । ६८-मुधा । ६६-पुरा। ७०मिथो । ७१-मिथस् । ७२-प्रायस् । ७३-मुहुस् । ४-प्रवाहुकम् । (७५प्रवाहिका) ७६- आर्गहलम् । ७७-अभीक्ष्णम् । ७८-साकम् । ७६-सार्धम् । ८०-नमल। ८१.-हिरुक । ८२-धिक । ८३-अथ।८४-अम् । ८५-आम्।८६प्रताम् । ८७-प्रशान । ८८-मा ८६-माङ । (आकृतिगणोऽयम् ) १०-च। ६१-वा । ६२-ह । ६३-अह ६४-एव । ६५-एवम् । ६६-ननम् । ६७-शश्वत । व्यर्थम् । ३१-राषिः। ३२-निषेधः। ३३-निषधः । ३४-निमित्तमः ३५-प्राकाश्यम् ३६-स्फुटम् । ( अवधारणश्च ) । ३७-प्रर्धम, जुगुप्सितश्च । ३८-वत्-प्रत्ययः सादृश्येऽयें । ३६-तर योदाहरणन् । ४०-एतदपि । ४१-नित्यम् । ४२-नित्यम् । ४३-नित्यम । ४४-भेदः । १५-तिरस्कारः । ४६-मध्यं विना च । ४७-विना । कालभूयस्त्वम् । ४८-शीघ्र, सम्प्रति च । ४६-जलं, मूर्धा निन्दा सुखञ्च । ५०-सुखम् । ५१-पाकस्मिकम् । ५२-वर्जनम् । ५३-अनेकम् । ५४-मङ्गलम्। ५५-पितृदानम्। ५६-भूषणं, पर्याप्तिः, शक्तिः, पारणं निषेधश्च । ५७-देवहविनि । ५८-देवहविदनि । ५६देवहविर्दाने। ६०- अन्यार्थकम् । ६१-अस्तीत्यर्थे । ६२-अप्रकाशं रहस्यञ्च । ६३क्षमा । ६४-प्राकाशः । ६५-रात्रिः । ६६-असत्यम् । ६७-प्रसत्यम। ६८ व्यर्थम । ६६-पूर्वकाले । ७०-रहः, सहाथः ७१-रहः, सहार्थः । ७२-बाहुल्यम् । ७३-वारंवारम्। ७४-समानकालम् ( ७५-इदं पाठान्तरम् ) । ७६-बलात्कारः । ७७-पौन:पुन्यम् । ७८सहार्थकः । ७६-सहार्थकः। ८०-नमस्कारः। ८१-वर्जनम् । ८ -निन्दा, भर्त्सनश्च । ८३-प्रारम्भः, अनन्तरं मङ्गलश्च । ८४-शीघ्रम् । ८५-स्वीकारः । ८६-ग्लानिः । ८७समान्म् ।८८-निषेवः, शंका च । ८६-निषेवः, शंका च। ६०-समुच्चयः । ९१विकल्पः । ६२-प्रसिद्धिः । ६३-पूजा, स्पष्टता च । १४-अवधारणम् । ६५-उक्तपरामर्शः । १६ निश्चयः, तर्कश्च । ६७ पौनःपुन्यं नित्यश्च । हर- 'एककालम्॥१६ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ६८-युगपत् । ६६-भूयस् । १००-कूपत् । १०१-सूपत् । १०२ कुवित् । १०३ नेत् १०४-चेत् । १०५-चण् । १०६-यत्र । १०७-कञ्चित् । १०८-नह । १०६-हन्त । ११०-माकिः । १११-माकिम् । ११२-नकिः। ११३-नकिम् । ११४-माङ । ११५-नञ् । ११६-यावत् । ११७-तावत् । ११८-स्वै। (११६-न्वै)। १२०है। १२१-रे। १२२-श्रौषट् । १२३-वौषट् । १२४-स्वाहा । १२५-स्वधा । १२६-वषट् । १२७-तुम् । १२८-तथाहि । १२६-खलु । १३०-किल । १३१अथो। १३२-अथ । १३३-सुष्टु। १३४-स्म । १३५-प्रादह । (+उपसर्गविभक्तिस्वरप्रतिरूपकाश्च १३६-अवदत्तम् । १३७-अहंयुः। १३८-अस्तीक्षीरा। १३६-१४०-या । १४१-इ । १४२-ई । १४३-उ। १४४-ऊ। १४५-ए । १४६ऐ । १४७-ओ। १४८-ौ । १४६-पशु । १५०-शुकम् । १५१-यथाकथाच । १५२. पाट्। १५३ प्याट । १५४ अङ्ग । १५५ है । १५६ हे । १५७ भोः १५८-अये । पुनः,प्राधिक्यश्च । १००-प्रश्नः, प्रशंसा च । १०१-प्रश्नः प्रशंसा च । १०-भूरि । १०३-शंका । १०४-यदि। १०५-यद्यर्थे । १०६-यस्मिन्, गर्हाऽऽश्चर्यञ्च । १०७इष्टप्रश्नः । १०-प्रत्यारम्भः। १०६-बिषादो हर्षो वाक्यारम्भश्च । ११०-वर्जनम् । १११-वर्जनम् । ११२-वर्जनम्। ११३-वर्जनम् । ११४-निषेधः । ११५-निषेधः । ११६-साकल्यम् । ११७-साकल्यम् । ११८-वितर्कः ११६-पाठान्तर-मिदम् । १२०विर्कः । १२१--दामम् । १२२--देवहविर्दानम् । १२३--देवहविनिम। १२४-देवहविर्दानम् । ११५.-पितुदानम् । १२६--देवदानम् । १२७-तुकारः। २२८-निदशनम् । १२६-वाक्यालङ्कारे मिश्चये निषेधे च । १३०--वार्तायाम् । (ऐतिह्ये) अलीके च । १३१--मङ्गलम्, प्रानन्तर्यम्, अधिकारश्च । १३२--उपर्युक्तेषु। १३३--प्रशंसा। १३४-- अतीते, पादपूरणे च । १:५--उपक्रमः, मुसनञ्च । +उपसर्गप्रतिरूपकाः विभक्तिप्रतिरूपकाः स्वरप्रतिरूपकाश्चाऽव्ययानीत्यर्थः । १३६-( अव) इति उ० स० प्र० । १२७--( अहं ) इति सुविभ० प्र०। (अहंकारवान् ) । १५८-(अस्ति) इति तिक वि० प्र० । =विद्यमानदुग्धा ( गौः)। १३६-सम्बोधनम् । १४० -वाक्यस्मरणयोः । १४१-सम्बोधनम् । १४२--सम्बो० । १४३--सम्बो० । १४४--सम्बो०। १४५-सम्बो० १४६--सम्बो० । १४७--सम्बो० । १४८--सम्बो० । ( एकदेशस्वरप्रतिरूपका इमे )। १४६-सम्यक् । १५० --शोघ्रता। १७१-अनादरः । १५२--सम्बो० । १५३- सम्बो० । १५४-सम्बो० । १५५-सम्बो० । १५६-सम्बो०। १५७-सम्बो०। १५८-सम्बो० । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यप्रयकरणम् १०१ १५६-द्य । १६०-विषु । १६१-एकपदे । १६२-युत् । १६३-आतः । चादिराकृतिगणः। ३६८ तद्वितश्चाऽसवविभक्तिः १ । १ । ३८ । यस्मात् सर्वा विभक्तितॊत्पद्यते स तद्धितान्तोऽव्ययं स्यात् । ( परिगणनं कर्तव्यम् ) 'तसिलादयः प्राक पाशपः । शस् प्रभृतयः प्राक समासान्तेभ्यः । अम् । पाम् । "कृत्वोऽर्थाः। तसि-वती । ना-नानौ । एतदन्तमप्यव्ययम् । 'अतः, इत्यादि। ३६६ कृन्मजन्तः १ । १ । ३६ । कृद् यो मान्त एजन्तश्च तदन्तमव्ययं स्यात्। स्मारं । जीवसे, पिबध्ये । १७० १२क्त्वा तोसन-कसुनः १।१ । ४० । १५६-हिंसा । १६०--नानार्थम् । १६१-प्रकस्मात् । १६२-निन्दा । १६३-इतोऽपि । १-'पञ्चम्यास्तमिल' इत्यतः 'याप्ये पाशप' इति पर्यन्तमित्यर्थः। २-'बह्वल्पार्थात् "शस' इत्यारभ्य 'समासान्ताः' इति सूवपर्यन्ताः । ३-'प्रम' 'प्राम्' प्रत्ययौ, तदन्ता इत्यर्थः ४-'सङ्ख्यायाः क्रियाभ्यावृत्तिगणने कृत्वसुच्' इत्यादि विहिता कृत्वसुजादयस्त्रयः । ५-तसिश्च' इति ( एकदिगर्थे ) विहितः 'तसि' प्रत्ययः। तेन तुल्यं...' 'तत्र तस्येव' इति वतिप्रत्ययश्च । ६-'विनञ्भ्यां नानानौ नसह' इति विहितौ। ७-पूर्वोक्तप्रत्ययान्तमित्यर्थः ८-अतः = अस्मात् (स्थानात् ) कारणाद् वा ( तसिलप्रत्ययान्तोऽयम् ) पत्र = ( इह)। शतशः अनेकशः । एककृत्वः। इत्येवमादीनि तदुदाहरणानि । ६मान्त एजन्तश्च यः कृत्प्रत्ययः तदन्तमित्यर्थः १०-अत्र णमुल् (अम ) प्रत्ययः । स्मृत्वा, स्मृत्वा, इत्यर्थः ११ - जीवसे, (असे ) प्रत्ययः, जीवनाय-इत्यर्थः, पिबध्यै (शध्यै ) प्रत्ययः, पातायेत्यर्थः । ( द्वाविमौ वैदिकौ )। १२- क्त्वा, तोसुन्, कसुन् , प्रत्ययाः। ___३६७ जिस शब्द से सब विभक्तियों की उत्पत्ति नहीं होती ऐसे तद्धितान्त शब्द की अव्यय संज्ञा होती है। ३६६-मान्त और एजन्त कृत् प्रत्ययान्त शब्द की अव्यय संज्ञा होती है । ३७०-क्त्वा तोसुन् और कसुन् प्रत्ययान्त शब्दों की अव्या संज्ञा होती है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तकौमुलान् एतदन्तमव्ययम् । 'कत्वा । उदेतोः। विसपः। ३७१ 'अव्ययीमावश्च १।१।४१ । अघिहरि। ३७२ अव्ययादापसुपः २ । २।८२ । अव्ययाद् विहितस्यापः सुपश्च लुक । तत्र शातायाम् । (मध्ययमक्षणम् ) सदृशं त्रिषु लिङ्गषु सर्वानु च विभक्तिषु । वचनेषु च सर्वेषु यन्न 'म्येति तदन्वयम् ॥ इति ॥ "वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः । प्रापं चैव हलन्तानां यथा वाचा निशा दिशा॥ (उदाहरणम्) वगाहः । अवगाहः । पिधानम्, अपिधानम् । इत्यव्यवानि । ( इति पूर्वार्द्धम् ) -20: १-कत्वा-कत्वा, तोसुन् उदेतोः=( उदितो भूत्वा इत्यर्थः) कसुन्-विसपः % (गला )। २-पव्ययमित्यर्थः। ३-'हरौं' इति 'अपिहरि' विभक्त्यर्वेऽव्ययीभावः (समासः)। ४-लुगित्यनुवर्तते। ५-तत्र इत्यतः स्त्रीत्वे टाप् तस्य लुक । ६-विकृतं भवति । ७-वष्टि-इति भागुरिः- तन्नामा-प्राचार्यः, प्रवाऽप्योः = प्रवअपि एतयोः. अल्लोपम्अकारस्य लोपं वष्टि = ईन्छति । तथा हलन्तानामपि शब्दानाम् पापं ( टाप् प्रत्ययं ) वष्टि = इच्छति । अत्र दृष्टान्तः-वाचा, निशा, दिशा ( इत्यादि ) । इत्यव्ययप्रकरणम् । ( इति पूर्वाद्धम् )। ३७१-अव्ययीभाव समास की अव्यय संज्ञा होती है। ३७१-अव्यय से किये गए श्राप और सुप् का लुक होता है । इत्यव्ययानि । इति पूर्वार्टम Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते भ्वादयः [ प्रयोत्तरार्द्धम् ] अथ तिङन्ते भ्वादयः १०३ लट् । लिट् । लुट् । लृट् । लेट् । लोट् । लङ् । लिङ् । लुङ् । लृङ् ' एषु पञ्चमो लकार छन्दोमात्रगोचरः कार विधिसूत्रम् ३७३ 'लः कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्यः " ३ | ४ | ६६ | ३ - एते दश लकारा: । २ - प्रनुलोमसङ्ख्यया पञ्चमो लेट- एव, नतु प्रतिलोमसङ्ख्या लोट्, 'छन्दसि लेट्' इति सूत्रात् । ३-लकाराः । ४ - चकारात् कर्तरि । ५- प्रत्रापि चकारात् 'कर्त्तरि' इति लभ्यते । श्रथ वृत्तौ स्पष्टः । श्रत्र के 'सकमंकाः' के 'कर्मकाः' इति विवेक इत्थम् क्रियापदं तु पदेन युक्तं व्यपेक्षते यत्र किमित्यपेक्षाम् । 'सकर्मक' सुधियो वदन्ति शेषस्ततो धातुरकर्मकः स्यात् ॥ १॥ मंत्रक वाचकपदेन सह प्रयुक्त क्रियापदं 'किम्' इत्यपेक्षते तत्र स धातुः 'सकर्मकः ' बणा देवदत्तो भक्षयति, व्रजति, प्रधीते - इत्याद्ययु सर्वत्र 'किम्' सकर्मका एते धातवः । यत्र तु क्रियापदं 'किम्' इत्यस्य: ऽपेक्षां न मषा - भवति, एषते, लज्जते, शेते - इत्यादयः । इत्यपे ना जायतेऽतः कुरुते तेऽकर्मकाः । तथा च परिगण्यते— लज्जा- सत्ता-स्थिति- जागरणं वृद्धि-क्षय-भय-जीवन-मरणम् । शयन -क्रीडा-रुचि - दीप्त्यर्थं धातुगरणं तमकर्मकमाहुः ॥१॥ इदं चाप्यत्र बोध्यम् दशसु गणेषु सर्वत्रापि सकर्मकाऽकर्मकाभ्यां कर्तर्येव लकारा श्रत एव गरमोयप्रयोगे सर्वत्र उक्तः ( श्रभिहितः ) कर्ता । श्रनुक्त ( अनभिहितं ) कर्म । तस्मादेव गरीयक्रियायोगे कर्मरिण 'कर्मणि द्वितीया' इति शास्त्रेण द्वितीयैव । कर्तरि च प्रातिपदिकार्थस्वात्प्रथमैव । यथा - देवदत्तो गृहं गच्छति । चैत्रः शेते, इत्यादि । सकर्मकेभ्यः कर्मणि, कर्मकेभ्यो भावे लकाराः भावकर्मप्रकियायां प्रदर्शयिष्यन्ते । तत्र भावः कर्म वा 'उक्तम्' ३७३ - सकर्मक धातुओं से कर्म और कर्ता में तथा अकर्मक धातुओं से भाव और कर्ता में लकार होता है । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् । लकाराः सकर्मकेभ्यः कर्मणि कर्तरि च स्युरकर्मकेभ्यो भावे कर्तरि च । ३७४ वर्तमाने लट् ३ । ३ । १२३ । वर्तमानक्रियावृत्तेर्धातोर्लट् स्यात् । श्रावितौ । उच्चारणसामर्थ्याल्ल 'ने) सुत्तायाम् । कर्तृ विवक्षायां भू ल् इति स्थिते । (तियाआदेश विधिसूत्र '३७५ तिप-तस-झि सिप-थस्-थ-मित्र - बस - मस- तातां-झ-थासाथांध्वमिड- वहि महिङ ३ । ४ । ७८ । 1 एतेऽष्टादश लादेशाः स्युः । ३७६ लः परस्मैपदम् १ । ४ । ६६ । लादेशाः परस्मैपदसंज्ञाः स्यः । (आत्मसंज्ञा सूत्रम) १०४ परस्मैपरक्षासूत्रम ३७७ तङानावात्मनेपदम् १ । ४ । १०० । तङ् प्रत्याहारः शानच् कानचा चैतत्संज्ञाः स्युः । ' पूर्व संज्ञाऽपवादः । ( आदमजमद व्यूमस्या ३७८ अनुदात्तङित ग्रात्मनेपदम् । १ । ४ । १२ । अनुदात्तेतो ङितश्च धातोरात्मनेपदं स्यात् । आमव्यवस्थ ३७६ स्वरितत्रितः कभिप्राये कियाफले १ । ३ । ७२ । ( अभिहितम् ), कर्ता च 'अनुक्तः ' ( श्रनभिहितः ) । तेन तद्योगे कर्तरि 'कर्तृ- करणयोस्तृतीया' इति सूत्रेण तृतीया कर्मणि प्रातिपदिकार्थमात्रत्वात्प्रथमा ( उक्तत्वान्न द्वितीया ) यथा -- श्रनुभूयते प्रानन्दश्चैत्रेण, स्थीयते देवदत्त ेन । एतन्मूलिकैवैषा प्रसिद्धिः - - 'प्रथमान्तो यदा कर्ता द्वितीया कर्मणस्तदा । यदा कर्ता तृतीयान्तः प्रथमा कर्मणस्तदा ॥१॥ १ - न इत्संज्ञा इत्यर्थः । २- परस्मैपदसंज्ञाया अपवाद इत्यर्थः । ३७४ वर्तमानकालिक क्रियावृत्ति धातु से लट लकार होता है । ३७५ – लकार के स्थान पर तिवादि अठारह आदेश होते हैं । ३७६ – लकार के स्थान पर होनेवाले आदेश परस्मैपद संज्ञक होते हैं । ३७७--तङ प्रत्याहार और शानच्-कानच् की श्रात्मनेपदसंज्ञा होती है । ३७८ --- अनुदात्तेत् और ङित धातुकी आत्मनेपद संज्ञा होती है । ३७६ - स्वरितेत् और जित धातु के कर्तृगामी क्रियांफल में ग्रात्मनेपद होता है । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते भ्वादयः स्वरितेतो भितश्च धातोरात्मनेपदं स्वायात् कर्तृगामिनि क्रियाफले । ३८० शेषात् कर्तरि परस्मैपदम् १ १३ । ७८ । श्रात्मनेपदनिमित्तहीनाद्धातोः कर्तरि परस्मैपदं स्यात् । प्रथममुरूम-प्रगति संज्ञा सूत्रम् ) ३८१ तिङस्त्रीणि त्रीणि प्रथम - मध्यमोत्तमाः १ । ४ । १०१ । तिङ उभयोः पदयोस्त्रयस्त्रिकाः क्रमादेतत्संज्ञाः स्युः । . एक वचनदि संज्ञा सूत्रम्) ३८२ तान्येकवचन द्विवचन बहुवचनान्येकशः १ । ४ । १०२ । लब्धप्रथमादिसंज्ञानि तिङस्त्रीणि त्रीणि ( वचनानि ) प्रत्येकमेक वचनादिसंज्ञानि स्युः । १ - एवं चायमत्र सङ्ग्रहःश्रात्मनेपदिनः (१) अनुदात्तेतः ( धातवः ) । (२) ङितः ( धातवः ) कर्तृगामिक्रियाफलाः (३) स्वरिततः ( धातत्रः ) । ( ४ ) जितश्च ( धातवः ) । २ - तेनेत्थं व्यवस्था - पुरुष: प्र० पू० सिप् मिपू तेन स्वरितेतो ञितश्च - उभयपदिनः | तिङ । परस्मैपदम् ए० व० दि० व० ब० व० तिप् झि तस् यस् परस्मैपदिनः )। (१) अनुदात्तेद्भिन्नाः ( धातवः (२) ङिद्भिन्नाः ( धा० ) । कतु भिन्न- (पर) - गामिक्रियाफलाः( ३ स्वरितेतः ( धा० ) वस, (४) त्रितश्च ( धा० ) ) (५) स्वरितेद्भिन्नाः ( घा० (६) ञिद्भिन्नाश्च ( धा० ) आत्मनेपदम् पुरुष: ए० व० द्वि व० ब० प्र० पु० त, श्राताम म० पु० थास प्राथाम मस् उ० पु० इट्, वहि, थ " १०५ व० भ म० पु० उ० पु० ३८० श्रात्मेनपदनिमित्तहीन धातु से कर्ता में परस्मैपद होता है । ३८१ - तिङ के मेनपढ़ और परस्मैपद सम्वन्धी तीन तीन त्रिकों की क्रम से प्रथम, मध्यम, उत्तम संज्ञा होती है। / ध्वम् महि (ङ) Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ (मध्यममुरूमविधिसूत्रम् 7 ३८३ स्म पपदे समानाधिकरणे स्थानिन्यपि मध्यमः १ । ४ । १०५ । "तिङ' वाच्यकारकवाचिनि युष्सदि प्रयुज्यमाने ऽप्रयुज्यमाने च मध्यमः । ३८४ श्रस्मद्य तमः १ । ४ । १०७ । 'उशमपुरुषलिधिसू 9 * तथाभूतेऽस्मद्यत्तमः । प्रथमपुरु पविधिसूत्रम् ) ३८५ शेषे प्रथमः । १ । ४ । १०८ । मध्यमोत्तमयोरविषये प्रथमः स्यात् । भूति, इति जाते । 3. ( ३८६ तिङ शित् सार्वधातुकम् ३ । लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ܢ (गुणविधिसूत्रम तिङः शितश्च धात्वधिकारोक्ता एतत्संज्ञाः स्युः । ३८७ कर्तरि कर्तरि ३ । १ । ६८ । ४ । ११३ । कर्थे सार्वधातुके परे धातोः शप् । "३८८ सार्वधातुकार्धधातुकयोः ७ । ३ । ८४ । " १ - तिका वाच्यं यत्कारकं ( कर्तृरूपं कर्मरूपं वा ) तद्वाचिनि = तद्वाचके । यथात्वं भवति । स्वं अनुभूयसे ( मया ) । २ तिङ्वाच्यकारकवाचिनि प्रस्मदि प्रयुज्यमानेऽप्रयुज्यमाने च उत्तमः (पुरुषः) यथा श्रहं भवामि । श्रहं अनुभूये - ( स्वया) । ३ - तिङ वाच्यकारकवाचिनि युष्मदस्मद्भिन्ते तदादिशब्दे प्रयुज्यमानेऽप्रयुज्यमाने च प्रथमः पुरुषः इत्यर्थः । यथा स भवति । सोऽनुभूयते ( त्वया मया वा ) । ४ 'शप्', विकरणोऽयं धातु-प्रत्यय-मध्यपाती । द्विवचन, ३८३–तिङ्वाच्य-कारकवाची युष्मद् के प्रयुज्यमान तथा अप्रयुज्यमान होने पर धातु से मध्यम पुरुष होता है । ३८२ - प्राप्त प्रथमादिसंज्ञक त्रिकों के तीन वचनों की क्रम से एकवचन, बहुवचन संज्ञा होती है । ३८४ – उक्तप्रकार श्रस्मद् के प्रयुज्यमानाऽप्रयुज्यमान होने पर उत्तम पुरुष होता है । ३८५ - मध्यम, उत्तम के विषय में प्रथम पुरुष होता है । ३८६ - धात्वधिकार में पठित तिङ शित् की सार्वधातुक संज्ञा होती है । ३८७७ - कर्त्रर्थक सार्वधातुक परे रहते धातु से शप होता है । ३८८ - सार्वधातुकार्धधातुक परे रहते इगन्त श्रङ्ग को गुण होता है । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते भ्वादयः अनयोः परयोरिगन्ताङ्गस्य गुणः । 'अवोदेशः। भवति । भवतः । ३८६ झोऽन्तः ७।१।३। प्रत्ययावयवस्य भस्यान्तादेशः । “२०४ अतो गुणे" । भवन्ति । भवसि । भवथः । भवथ लिनिस्ता) ३६० अतो दी| यजि ७ । ३ । १०१ । अतोऽङ्गस्य दी? यादौ सार्वधातुके। भवामि । भवावः । भवामः । स भवति । तौ भवतः । ते भवन्ति । त्वं भवसि । युवां भवथः । यूयं भवथ । अहं भवामि । आवां भवावः । वयं भवामांचलना.) ३६१ परोक्ष लिट ३ । २ । १२५ । 'भूतानद्यतनपरोक्षार्थवृत्तेर्धातोलिट स्यात् । लस्य तिबादयः। ३६२ परस्मैपदाना णलतुसुस्थलथुसणल्वमाः ३।४ । ८२ । लिटस्तिबादीनां नवानां गालादयः स्युः भू अ, इति स्थिते । ३६३ भुवो वुग लुङ् लिटोः ६ । ४ । ८८ । भुवो वुगागमः स्यात् लुब्लिटोरचि । SIटा ZA/नामसजाय १–'एचोऽयवायावः' इति । २-भवति-भूधातोः वर्तमाने लटि प्रथमपुरुषेकवचने लस्य तिबादेशे सार्वधातुकसंज्ञायां 'कर्तरि शप' इति शपि, अनुबन्धलोपे 'भू प्रति' इति स्थिते 'सार्वधातुकार्धधातुकयो' रिति गुणेऽवादेशे सिध्यति रूपं भवति' इति । ३-भू+अ+अन्ति, पररूपम् । ४-अक्षिभ्यः परं = परोक्षम् तस्मिन्काले। ५-अनद्यतन इति-व्यतीताया रात्रेस्तराद्धत प्रागामिन्या रात्रः पूवाद्ध पर्यन्तम् (यः कालः सः) प्रद्यतनः, तद्भिन्नोऽनातनः । ६-गल, अतुस , उस् । थल , अथुस , प्र गल, व, म, । इत्यादेशाः (नव )। ७-लुङ -लिट्सम्बन्धिनि इत्यर्थः । ३८६-प्रत्ययावयव झ को 'अन्त' आदेश होता है। ३६०-अदन्त अङ्ग को दीर्घ होता है यत्रादि सार्वधातुक परे रहते । ३६१-भृत अनातन परोक्षार्थवृत्ति धातु से लिट् लकार होता है । ३६२-लिट के स्थान में तिबादि नौ को पलादि नौ होते हैं। ३६३--भू धातु को वुगागम होता है लुङलिट सम्बन्धी अच् परे रहते । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् हिटलनिधिसूत्रो) ३६४ लिटि धातोरनभ्यासस्य ६।१।८ । लिटि परे अनभ्यासधात्वधयवस्यैकाचः प्रथमस्य द्वे 'स्त आदिभूतादचः परस्य तु द्वितीयस्य । भूव भव अ, इति स्थिते । अगसलो सत्रम) ३६५ पूर्वोऽभ्यासः ६।१।४। अत्र ये द्वे विहिते तयोः पूर्वोऽभ्याससंशः स्यात् । ३६६ हलादिः शेषः ७ । ४ । ६० । अभ्यासस्यादिर्हल शिष्यते अन्ये हलो लुप्यन्ते । इति वलोपः । ३६७ ह्रस्वः ७ । ४ ५ | अभ्यासस्याचो ह्रस्वः स्यात् । ३६८ भवतेरः ७ । ४ । ७३ । भवतेरभ्यासोकारस्य अः स्याल्लिटि। ३६६ अभ्यासे चचे ८।४ । ५४ । १- हलादीनामेकाचामनेकाचां च धातूनां प्रथमावयवस्य द्वित्वम् , अजाद्यनेकाचां धातूनां तु द्वितीयावयवस्येति विवेकः । २–'वृक्षः प्रचलन् , सहावयवैः प्रचलति' इति वुक्सहितस्य भुवो द्वित्वम् । ३–प्रत्र-अन्यव्यावृत्तिपूर्वकत्वे सति स्वावस्थानत्वम् = शेषत्वम्-तदेवाह वृत्तौ-अन्ये हलो लुप्यन्ते इति, अत्रायं विशेषो बोध्यः = यत्र प्रादिहल स्यात् तत्र स एव शिष्यते, यत्र तु-प्रादिहल न सम्भवेत्तत्रान्त्यस्य निवृत्तिमात्रम्तथा व 'पाद, प्रात' इत्यादौ दकारतकारमात्रं निवर्तते । ४--मू-धातोः 'इश्तिपौ धातुनिर्देशे'। ३६४-अम्यासरहित धातु के प्रथम एकाच अवयव को द्वित्व होता है। आदिभूत अच से परे द्वितीय एकाच अवयव को द्वित्व होता है। ३६५- यहाँ जो दो किए गए हैं उनमें से प्रथम की अभ्यास संज्ञा होती है। ३६६--अभ्यास का आदि हल् शेष रहता है अन्य हलों का लोप होता है । ३६७--अभ्यास के अच को ह्रस्व होता है। ३६८-- भू धातु के अभ्यास के उकार को प्रकार होता है लिट परे रहते । ३६६--अभ्यास में झलों को जर और खरों को चर होते हैं। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिडन्ते भ्वादयः १०६ अभ्यासे झलां चरः स्युर्जशश्च । 'झलां जशः खयां चर इति विवेकः । बभूव । बभूव तुः । बभूवुः। ४०० लिट च ३ । ४ । ११५ । लिडादेशस्तिङार्धधातुकसंशः। ४०१ आर्धधातुकस्येड बलादेः ७ । २ । ३५ । वलादेरार्धधातुकस्येडागमः स्यात् । बभूविथ । बभूवथुः। बभूव । बभूव । बभूविव । बभूविम। ४०१ अनद्यतने लुट ३।३।१ भविष्यत्यनद्यतनेऽर्थे धातोर्लुट । ४०३ स्यतासीलू-लूटोः ३ । १ । ३३ । धातोः स्यतासी एतौ प्रत्ययौ स्तो ललुटो परतः। शबाद्यपवादः। ल इति लुङ्लटोर्ग्रहणम् । ४०४ आर्धधातुकं शेषः ३।१।१४४ । तिशिद्भयोऽन्यो धातोरिति विहितः प्रत्यय "एतत्संज्ञः स्यात्ः । १-झलां जशः, खयां चरः, इति तु परमार्थः । २-भू, लिट तिप्, तिपो एल् । भू+ अ इति स्थितौ वुक् द्वित्वे । भूवभूव + अ । हलादिशेष भू भूव+अ । अभ्यास ह्रस्वे उकारस्याऽकारः । भस्य बत्वं बभूव । बभूविथ-भूधातोलिटि सिपि थलि 'प्रांधंधातुकस्येड़ बलादेः' इति इडागमे भुवो वुगागमे द्वित्वेऽभ्याससंज्ञायां हलादिशेषे ह्रस्वेऽभ्यासस्य 'भवतेर' इति उकारस्य प्रकारे 'अभ्यासे चर्च' इति भस्य बस्वे सिध्यति 'बभूविथ' इति । ४- निरनु. बन्धकग्रहणे सामान्यग्रहणम् । ५-आर्धधातुकसंज्ञः। ६–'प्रार्धधातुकस्य' इत्यनेन । ४००-लिडादेश तिङ् की आर्धधातुक संज्ञा होती है। ४०१-वलादि आर्धधातुक को इडागम होता है। ४०२--भविष्यत् अनद्यतन अर्थ में धातु से लुट होता है। ४०३--धातु से स्य और तास् प्रत्यय होते हैं लृट् लुङ और लुट परे रहते। ४०४-तिङ शित से भिन्न धातु से विहित प्रत्यय की प्रार्धधातुक संशा होती है । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. . लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ४०५ लुटः प्रथमस्य डा-गैरसः २ । ४ । ८५ । डिस्वसामर्थ्यादभस्यापि टेर्लोपः । भविता। ४०६ तासस्त्योर्लोपः ७ । ४ । ५० ।। तासेरस्तेश्च लोपः स्यात् सादौ प्रत्यये ४०७ रि च ७।४ । ५१ । रादौ प्रत्यये तथा । भवितारौ । भवितारः । भवितासि । भवितास्थः । भवितास्थ । भवितास्मि । भवितास्वः । भवितास्मः । ४०८ लूट शेष च ३ । ३ । १३ । भविष्यदर्थाद्धातोर्लट, क्रियार्थायां क्रियायां सत्यामसत्यां वा । स्यः। इट । भविष्यति । भविष्यतः । भविष्यन्ति । भविष्यसि । भविष्यथः । भविष्यथ । भविष्यामि । भविष्यावः । भविष्यामः । ४०६ लोट च ३।३ । १६२ । "विध्याद्यर्थेषु धातोर्लोट । १-लुटः प्रथमपुरुषस्थानिकानां 'तिप, तसू, झि, इत्येतेषां क्रमेण 'डा, रौ, रस्' इत्यादेशाः स्युः इत्यर्थः । २-'दोधीवेवीटाम् ' इति निषेधात्-इटो न गुणः। ३-सस्येति भावः । ४-'तासेरस्तेश्च सस्य लोपः (इति भावः)। ५-'प्रादेशप्रत्यययोः' इति षत्वम् । ६-भविष्यन्ति-भूधातोभविष्यदर्थे लुटि प्रथमपुरुष-बहुवचने लुटो 'झि' मादेशे झोऽ न्तः' इति झस्यान्तादेशे 'स्यतासी लुलुटोः' इति शपोऽपवादे स्ये प्रार्धधातुकसंज्ञायाम् 'मार्धधातुकस्येड् बलादेः' इति इटि 'म इ स्य अन्ति' इति स्थिते 'सार्वधातुकाघधातुकयोः इति गुणेऽवादेशे सस्य षत्वे पररूपे सिध्यति रूपं 'भविष्यन्ति' इति । ७-'विधिनिमन्त्रणामन्त्र,""इति सूत्रोक्तेषु । ४०५-लुट के प्रथम पुरुष के तिपू, तसू, झि को क्रमसे डा, रौ, रस आदेश होते हैं । ४०६-तास और अस् के स का लोप होता है सादि प्रत्यय परे रहते । ४०७-तास के स का लोप होता है रादि प्रत्यय परे रहते । ४०८-भविश्यत् अर्थ में धातुसे लूट होता है क्रियार्थक क्रिया के होने वा न होने पर। ४०६-विध्यादि अर्थों में धासु से लोट होता है । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते म्यादयः १११ ४१० आशिषि लिङलोटौ ३ । ३ । १७३। ४११ एरु: ३।४।८६ । लोट एकारस्य उः । भवतु । ४१२ तुह्योस्तातडाशिष्यन्यतरस्याम् ७ । १ । ३५ । आशिषि तुह्योस्तातङ् वा। 'परत्वात् सर्वादेशः भवतात् । ४१३ लोटो लङ्वत्' ३ । ४ । ८५ । लोटस्तामादयः सलोपश्च । ४१४ तस्थस्थमिपां तांततामः ३ । ४ । १०१। ङितश्चतुणां तामादयः क्रमात् स्युः। भवताम् । भवन्तु । ४१५ सेह्य पिच ३ । ४ । ८७ । लोटः सेहिः, सोऽपिञ्च । ४१६ अतो हेः ६ । ४ । १०५ । १-ङिच्चेत्यस्यानन्याङित्वेष-अनङ्-मादिषु चरितार्थत्वान्न बाधकत्वम्, (परत्वासर्वादेशः । अत्र तु 'युतात्' इत्यादौ गुणादिनिषेधो ङित्वप्रयोजनम् । २-लवदिति स्थानषष्ठयन्तान्-लको वतिप्रत्यये सिद्धयति । तेन लङ्स्थानिकस्य कार्यस्यैवातिदेशः, नतु लडि विधीयमानस्य कार्यस्य, तेन ‘भवतु' 'अत्तु' इत्यादौ अडाटौ न भवतः । लङो यथा तमादयः सलोपश्च भवति तथैव लोटोऽपि भवेदित्यर्थः । ३-डित्-लकारस्थानिकानां 'तस्, थस, थः, मिप्' इत्येषां 'ताम, तम , त, अम' इत्येते प्रादेशा कमेण म्युरित्यर्थः ।। ४१०-आशीर्वाद अर्थ में धातु से लिङ और लोट् लकार होते हैं । ४११-लोट सम्बन्धी इ को उ आदेश होता है। ४१२-आशीर्वाद अर्थ में तु और हि को तातङ होता है विकल्प से । ३१३-लोट में लङ् की तरह कार्य होते हैं । ४१४-ङित् सम्बन्धी तस थस-य-मिप को क्रम से ताम्-तमत्त तम् आदेश होते हैं । ४१५-लोट सम्बन्धी सि को हि होता है । ४१६-अदन्त से परे हि का लुक होता है। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् अतः परस्य हेर्लुक् । 'भव, भवतात् । भवतम् । भवत । ४१७ मेर्निः ३ | ४ | ८६ | लोटो मेर्निंः स्यात् । ११२ ४१८ आत्तस्य पिच्च । ३ । ४ । ६२ । लोडुत्तमस्या स्यात् पिश्च । हिन्योरुत्वं न ' इत्वोच्चारणसामर्थ्यात् । ४१६ ते प्राग्वातोः १ । ४ । ८० । ते गत्युपसर्गसंज्ञका धातोः प्रागेव प्रयोक्तव्याः । ४२० आनि लोट् ८ । ४ । १६ । उपसर्गस्थान्निमित्तात् परस्य लोडादेशस्य ग्रानीत्यस्य नस्य णः स्यात् । प्रभवाणि (दुरः षत्व- त्वयोरुपसर्गत्वप्रतिषेधो वक्तव्यः ) दुःस्थितिः । दुर्भ बानि । ( *अन्तःशब्दस्याङ् किविधि-णत्वेषूपसर्गत्वं वाच्यम् ) अन्तर्भवामि । ४२१ नित्यं ङितः ३ । ४ । १६ । १- भव - भूधातोर्लोटि मध्यमपुरुषैकवचने लक्ष्य सिपि शपि गुणेऽवादेशे 'भव सि इत्यवस्थायां 'सेह्य'पिच' इति सेहि श्रादेशे 'अतो हे' - रिति हेलुकि सिध्यति रूपं 'भव' इति । ( हेस्ताङ्ङादेशपक्षे 'भवतात् इति ) । २ – प्रन्यथा 'सेपिच्च', 'मेर्निः ' इत्युभयत्रापि - उरदमेवोच्चारितं भवेत् । पाणिनिना 'सेयं: ' 'मेनु':' इति । ३ - अन्यथा पत्वष्टुस्वयोः रणवे च दुःष्ठितिः, दुर्भवारिण, इति स्यात् । ४- प्रविधिः - यथा 'अन्तर्धा, 'प्रातश्चोपसर्गे, इत्यनेन 'ग्रङ::- प्रत्ययः । किविधियथा - प्रन्तधिः ' ' उपसर्गे घो किः' इति 'कि' प्रत्ययः । णत्वविधियथा - प्रन्तभंवारिख । ४१७ - लोट् सम्बन्धी मि को नि आदेश होता है । ४१८-लोट सम्बन्धी उत्तम पुरुष को आटू का आगम होता है वह पित होता है । ४१६ - गविसंज्ञक और उपसर्गसंज्ञक धातु से पहले प्रयुक्त होते हैं । ४२० - उपसर्गस्थ निमित्त र-ष-से परे लोट् सम्बन्धी अनि के न को ग होता है । ( वा०- ( १ ) बल्ब - णत्व के विधान में दुर् को उपसर्गंत्व नहीं होता है (२) विधि, किविधि और णत्व कर्तव्य में अन्तर् शब्द की उपसर्ग संज्ञा होती है ) ४२१ - ति लकार सम्बन्धी सकारान्त उत्तम पुरुष के स् का नित्य लोप होता है . Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते भ्वादयः सकारान्तस्य ङिदुत्तमस्य नित्यं लोपः । (२१) अलोऽन्त्यस्येति सलोपः। भवाव । भवाम। ४२२ अनद्यतने लङ ३ । २ । १११ । अनद्यतनभूतार्थवृत्तेर्धातोर्लङ् स्यात् । ४२३ जुङ्लङ्-लवडुदात्तः ६ । ४ । ७१ । एवङ्गस्याऽट स्यात् । ४२४ इतश्च । ३।४।१०० । डितोलस्य परस्मैपदमिकारान्तं यत्तदन्तस्य लोपः । अभवत् । अभवताम्। 'अभवन् । अभवः । अभवतम् । अभवत । अभवम् । अभवाव । अभवाम। ४२५ विधि-निमन्त्रणामन्त्रणाधीष्ट-संप्रश्न-प्रार्थनेषु लिङ् ३। ३ । १६१ । एष्वर्थेषु धातोलिङ्। ४२६ यासुट् परस्मैपदेषदात्तो ङिच्च ३ । ४ । १०३ । १ अभवन-भूधातोरनद्यतनभूते लङि प्रथमपुरुषबहुबचने झेरन्तादेशे शपि अटि च 'म भ म अन्ति' इति जाने इतश्चेति इकारलोपे 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' इति गुणे प्रवादेशे 'प्रभवन्त्' इति दशायां संयोगान्तलोपे सिध्यति रूपम् 'अभवन्' इति । -विधिः-प्रेरणम्=प्राज्ञाकरणम् ( भृत्यादेः) पठेत्, यजेत् निमन्त्रणम् नियोगकरणम् श्राद्धभोजनादिप्रवर्तनम् (दौहित्रादेः) इह भुञ्जीत । आमन्त्रणम् = कामचारानुज्ञा तदिच्छानुमारमन्वेषणा ( इहासीत भवान् ) अधोष्टः = प्रांदरपूर्विकाऽध्येषणा ( पुत्रमध्यापयेद् भवान् ) । सम्प्रश्नः = सम्प्रधारणम्=उचिताऽनुचितपरिपृच्छा ( भो ! वेदमधीयीय---उत तकम ) प्रार्थनम् = याचनम् ( भो ! भोजनं लभेय)। ४२२-अनद्यतन भूतार्थवृत्ति धातु से लङ् लकार होता है। ४२३-लुङ, लङ, लुङ परे रहते अङ्गको अट का आगम होता है, वह उदात्त होता है । ४२४-छित लकार सम्बन्धी इकारान्त परस्मैपद के इकार का लोप होता है। ., ४२५-प्रेरण-निमन्त्रण-आमन्त्रण-सत्कारपूर्वकव्यापार-सम्प्रश्न और प्रार्थना इन अथों में धातु से लिङ लकार होता है। ४२६-लिङ सम्बन्धी परस्मैपदको यासुट आगम होता है और वह उदात्त ङित् होता है। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् लिङः परस्मैपदानां यासुडागमो 'डिश ! ४२७ लिङः सलोपो ऽनन्त्यस्य ७ । २ । ७६ । सार्वधातुकलिङो ऽनन्त्यस्य सस्य लोपः । इति प्राप्ते । ४२८ तो येयः ७ । २ । ८० । ११४ अतः परस्य सार्वधातुकावयवस्य यास् इत्यस्य इय् । गुणः । ४२६ लोपो व्योलि ६ । १ । ६६ । * भवेत् । भवेताम् । ४३० झेर्जुस् ३ । ४ । १८० । 1 लिङो भेर्जुस् स्यात् । भवेयुः । भवेः । भवेतम् । भवेत । भवेयम् । भबेव । भवेम । 1 ४३१ लिडाशिषि ३ । ४ । ११६ । श्राशिषि लिस्तिमर्धधातुकसंज्ञः स्यात् । ४३२ विदाशिषि ३ । ४ । १०४ । आशिषि लिङो यासुट् कित् ( ३०६ ) स्कोः संयोगाद्योरिति सलोपः । १ - डिस्वोक्तिः 'वक्ष्यमारणा' इत्यादौ ङीबमावार्षा 'क्वचिदनुबन्धकार्येऽप्यनलविधाविति प्रतिषेधः' इति ज्ञापनात् । २- - " प्राद् गुणः" इत्यनेन । ३ - वकारयकारयोर्लोपः स्याद्वल प्रत्याहारघटितव में ( परे ) ४ - भवेत् — भूषातोः विधिलिङि तिपि शपि धनुबन्वलोप गुणेऽवादेशे 'भवति' इति स्थितौ इतश्चेति इकारलोपे 'यासुट् परस्मैपदेषूदातो विच' प्रनेन यासुट 'अतो येयः' इति यास इयादेशे 'भव इय् त्' इति स्थितौ 'भाद् गुणः' इति गुणे लोपोन्योर्वलि' इति यलोपे सिध्यति रूप 'भवेत्' इति । ४२७ - सार्वधातुक लिङ् के अनन्त्य सकार का लोप होता है । ४२८ - श्रुत् से परे सार्वधातुक के अवयव यास् को इय् होता है । ४२६-यकार वकार का लोप होता है बलू परे रहते । ४३०–लिङ् सम्बन्धी झि को जुस होता है । ४३१ - आशीर्वाद अर्थ में लिए की आर्धधातुक संज्ञा होती है ४३२ - आशीर्वाद अर्थ में लिए को यासुट् कित् होता है । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते म्वादयः ११५ ४३३ क्ङिति च १ । १ । ५ । गिकिन्डिनिमित्त इम्लजले गुणवृद्धी न स्तः। भूयात् 'भूयास्ताम् । भूयासुः । भूयाः। भूयास्तम् । भूयास्त । भूयासम् । भूयास्व । भूयास्म । ४३४ लुङ् ३ । २ । ११० । भूतार्थे धातोर्लुङ् स्यात् । ४३५ माङि लुङ ३ । ३ । १७५ । "सर्वलकारापवादः। ४३६ स्मोत्तरे लङ् च ३।३ । १७६ । स्मोत्तरे माङि लङस्याच्वाल्लुङ्। ४३७ च्लि लुङि ३।१ । ४३ । शबाद्यपवादः। ४३८ च्लेः सिच् ३ । १ । ४४ । १-भूयास्ताम्-भूधातोराशीलिकि प्रथमपुरुषद्विवचने तसि, सस्य 'तस्थस्थमिपाम्' इति तामादेशे 'लिडाशिषि' इति प्रार्धधातुकत्वेन शपोऽभावे यासुटि 'भूयास् ताम्' इति स्थितौ 'सुट तिथोः' इति सुटि अनुबन्धलोपे 'भूयास् स् ताम्' इति स्थिते 'किदाशिषि' इति कित्वेन गुगनिषेधे 'स्कोः संयोगाचोरन्ते चे' ति यासुटः सस्य लोपे सिध्यति रूपं 'भूयास्ताम्' इति । ३-वस-मसोः सकारस्य "नित्यं ङितः" इति लोपः। ३-भूतसामान्ये । ४- 'माङ्मयोगे सर्वलकाराणां स्थाने लुछेव भवतीत्यर्थः। मा वद, मा वोत्इत्यादौ तु नायं माङ, किन्तु निषेधार्थों 'मा'-शब्दः । ५-जुङि परतः (शबादीन् बाधित्वा) 'च्लिः' स्यादित्यर्थः । ४३३ = गित् कित् ङित् निमित्तक इग्लक्षण में गुण और वृद्धि नहीं होती। ४३७-भूतार्थक धातु से लुङ् लकार होती है। ४३५-माङ उपपद रहते धातु से लुङ् लकार होता है। ४३६-स्म उत्तर में है जिस माङ के ऐसे माङ फे उपपद रहते धातु से लुङ् होता है, लङ् भी। ४३८-धातु से च्लि होता है लुङ परे रहते । ४३८-लि को सिच आदेश होता है । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् इचावितौ। ४३६ गाति-स्था-घु-पा भूभ्यः सिचः परस्मैपदेषु २ । ४ । ७७ । एभ्यः सिचो लुकस्यात् । 'गापाविहेणादेश-पिबती गृह्यते। ४४० भूसुबोस्तिङि ७ । ३ । ८८ । भ सूएतयोः सार्वधातुके सिङि परे गुणो न । अभूत् । अभूताम् । 'अभूवन् । अभूः । अभूतम् । अभूत । अभूवम् । अभूव । अभूम । ४४१ न मा योगे ६ । ४ । ७४ । अडाटौ न स्तः । मा भवान् भूत । मा स्म भवत् । मा स्म भूत् । ४४२ लिङ निमित्त लुङ क्रियातिपत्तो ३ । ३ । ३। हेतुहेतुमद्भावादि लिङ्-निमित्तं तत्र भविष्यत्यर्थे लुङ् स्याक्रियाया अनिष्पत्तौ गम्यमानायाम अभविष्यत्। अभविष्यताम् । अभविष्यन् । अभविष्यः। अभविष्यतम्। अभविष्यत । अभविष्यम । अभविष्याव । अभविष्याम । सुवृष्टिश्चेदभविष्यत्तदा सुभिक्षमभविष्यत् इत्यादि शेयम् । १-इण प्रादेशी 'गा' । 'पिब' प्रादेशो यस्य भवति स 'पा' गृह्यते, गापोग्रंहणे इएपिबत्योहणमिति" भाष्योक्तेः। ३-अभवन्-भधातोलुङि प्रथमपुरुषबहुवचने कस्य भयादेशे ईडागमे झेरन्तादेशे च्लो, च्लेः सिचि 'गातिस्थे ति सिचो लुकि 'भुवो वुग लुलिटो:' इति वुगागमे इतश्चेति ईकारलोपे संयोगान्तत्वेन तकारलोपे च सिध्यति रूपम् 'अभूवन्' इति । ३-हेतुहेतुमद्भावादौ ( कारणकार्यभाबादौ ) द्योत्ये । ४-भूधातुप्रयोगप्रकार निर्देशः क्रमशः सर्वलकारेषु धर्मात् सुखं भवति वत्स !. यथा बभव भक्तध्रुवस्य, भविता च तवापि तच्छवः । लाभो भविष्यति, भवान् भवतु प्रवृत्ती धर्म. यथाऽभवदसौ भगवत्प्रपन्नः ॥१॥ ४३६ - गा, स्था, घुसंज्ञक, पा और भू धातु से परे सिच का लुक होता है। ४४०-भू सू धातु को सार्वधातुक तिङ परे रहते गुण नहीं होता है । ४४४-माङ् के योग में अट आट नहीं होते हैं । ४४२-- हेतुहेतुमद्भावादि जो लिङ् के निमित्त, उन अर्थों में भविष्यत्कालिक क्रिया वाची धातु से लुङ् लकार होता है क्रिया की असिद्धि गम्यमान हो तो। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते भ्वादयः अत 'सातत्यगमने । २ । अतति । ४४३ अन आदेः ७ । ४ । ७० | अभ्यासस्यादेरतो दीर्घः स्यात् 'लिटि । आत । आततुः। श्रातुः। आतिथ । आतथुः । आत । आत । आतिव । आतिम । अतिता। अतिष्यति । अततु। ४४४ आडजादीनाम् ६ । ४ । २७ । अजादेरङ्गस्याऽऽट लुङ्-लङ्-लुङ क्षु । आतत । अतेत । अत्यात् । प्रत्यास्ताम् । लुङि सिचि इडागमे कृते । ४४५ अस्तिसिचोऽपृक्ते ७ । ३ । ६६ । विद्यमानात् सिचोऽस्तेश्च परस्यापृक्तस्य हल ईडागमः । ४४६ इट ईटि ८ । २ । २८ । दैचाद् भवेच्च यदि ते क्वचिदन्तरायो भूयात् सदा तव विभुभंगवान सहायः । धर्मादभदपि च तस्य सुखं, स्वयाऽऽतो धर्मोऽभविष्यदिह चेत् सुखमाळ (s) भविष्यत् ॥१॥ १-निरन्तरगमने । २–'न व्यथो लिटि' इति सूत्रात् “लिटि' इत्यनुवर्तते, तेन 'ऋ' धातोयंङ लुकप्रकरणे "अरर्ति' इत्यादौ न दीर्घः लिडभावात् । ३-आत-प्रतधातोलिटि तिपि गलि अनुबन्धलोपे द्वित्वेऽभ्यासकायें 'प्र प्रत प्र' इति स्थिती 'प्रत प्रादेः' इति अभ्यासस्य दीघे पुनः सवर्णदीप सिध्यति रूपम् 'मात' इति । ४-सिच्च प्रस् चेति ( समाहारे ) सचस्' । अस्तीति विद्यमानार्थकमध्ययम 'सिचस्' इत्यस्य विशेषणम । तथैवाह-वृत्ती-विद्यमानात्सिव इत्यादि। ४४३-अभ्यास के आदि अकार को दीर्घ होता है। ४४४-अजादि अङ्ग को आडागम होता है लुङ, लुङ, लुङ परे रहते । ४४०-विद्यमान सिच और अस्ति से परे अपृक्त हल को ईट का आगम होता है। ४४६-इट से परे सकार का लोप होता है ईट परे रहते । (वा-एकादेश करने में सिच् का लोप सिद्ध होता है)। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् इटा परस्य लोपः स्यादीटि परे । ( 'सिजलोप एकादेशे सिद्धो वाच्यः ) आतीत् । प्रातिष्टाम् । ४४७ सिजभ्यस्तलिदिभ्यश्च ३ । ४ । १०६ । लिचोऽभ्यस्ताद्विदेश्च परस्य कित्सम्बन्धिनो झर्जुस् । आतिषुः आतीः । प्रातिएम् । आतिष्ट । आतिषम् । आतिष्व । आतिष्म । आतिष्यत् । षिध गत्याम्।। ४४८ ह्रस्वं लघु १ ! ४ । १० । ४४६ संयोगे "गुरु १ । ४ । ११ । संयोगे परे हस्वं गुरु स्यात् । ४५० दोघे च १ । ४ । १२ । गुरु स्यात्। ४५१ पुगन्तलघूपधस्य च ७ । ३। ८६ । पुगन्तस्य लघूपधस्य चाङ्गस्येको गुणः सार्वधातुकार्धधातुकयोः । (२५५) धात्वादेरिति सः। सेधति । "षत्वम् सिषेध । ४५२ असंयोगाल्लिए किन १ । २।५। असंयोगात् परोऽपिल्लिट कित् स्यात् । सिषिधतुः। सिषिधुः सिषेधिथ सिषिधथुः। सिषिध । सिषेध । सिषिधिव । सिषिधिम । सेधिता। सेधिप्यति । १-सिचः सकारलोपस्य ("इट ईटि ८।२। २८") पादिकरवेनाऽसिद्धस्वाद् “अकः सवस" इति दीर्घाऽप्राप्तिरिति-तदर्थमिदं वर्तिकम । १-यातीत्-प्रतधातोलुङ तिपि इतश्चेति ईकारलोपे च्लौ. सिचि अनुबन्धलोपे 'प्राडजादीनामिति पाटि माटश्चेति वृद्धौ 'प्रात सत्' 'प्रार्धधातुकस्येड् वलादेः' इति सस्य इटि तकारस्य च 'मस्तिसिचोऽपृक्त' इति ईटि अनुबन्धलोपे 'पात ई स ई त्' इति जाते ‘इट ईटि' सकारलोपे 'सिज्लोप एकादेशे सिद्धो वाच्यः' इति वात्तिकेन सिज्लोपस्यासिद्धत्वाभावा. सवर्णदीर्घ सिद्ध रूपम 'मातीतू' इति । ३-एकमात्रिकम् । ४--द्विमात्रिकम । ५ "आदेशप्रत्यययोः' इत्यनेन । ६-तेन न गुणः । ४४७-सिच, अभ्यस्त और विद् से परे ङित्सम्बन्धी झि को जुस होता है। ४४८-हस्व की लघु संज्ञा होती है। ४४६-संयोग परे रहते ह्रस्व की गुरु संज्ञा होती है। ४५०-दीर्घ की गुरु संज्ञा होती है। ४५१-पुगन्त अङ्ग और लघूपध अङ्ग के अवयव इन को गुण होता है सार्वधातुक आधधातुक परे रहते। ४५२-असंयोग से परे पिभिन लिट् किट होता है। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते भ्वादयः ११६ सेधतु । असेधत् । सेधेत्। 'सिध्यात् । असेधीत् । असेधिष्यत् । एवं चिती संज्ञाने । ४ । १- " किदाशिषि" इति यासुटः कित्त्वात् ङिखाच्च न गुणः । २-ईकार इत्, दिफलं तु "श्वोदितो निष्ठायाम्" इति निष्ठायामनिटकत्वम् । अत्र प्रसङ्गाद् धातुषु वर्णविशेषाणाम् इत्करणफलं दश्यते चित्रे - इस्करणे प्रयोजनम् वर्णानाम ( उदात्त ) 'श्र' इत्करणे फलमू इल्करणे फ० श्र इत्करणे फ० 'ना - | इत्करणे फ० प्रनुदात्त) 'अ' - स्वरित) I m ई - उ - 1 ऊ ऋ 可 무예 예의에서 여 इदकरणे फ० इत्करणे फ० इत्करणे फ० इत्करणे फ० इत्करणे फ० इरफ इक्कर फ० इस्करण ० इत्करणे फ० इत्करणे फ० इत्करण फ० इत्करणे फ० इत्करणे फ० इत्करणे फ० इस्करणे फ० परस्मैपदम श्रात्मनेपद उभयपदम् "प्रादितव" इति निष्ठायाम "इदितो मघा " इति "इरितो वा" इति धड़वा इट- निषेध: "श्वीदितो निष्टायाम्" निष्टायों नेट् "" "उदितो वा" इति किवे वेट् "स्व रतिसूति इति वेट् " नाग्लोपिशा .." "पुषादिद्य तादि उपधा ह्रस्वभावः " इति चलेरङ "ह्मयन्त " इति वृद्धयभावः "नोदितश्च" इति निष्ठानत्वम श्रात्मनेपदम उदाहरणम् "डिवतः क्त्रिः " विभिदादिभ्योऽडु” - 'प्रतति' एध - ' एधते' । भज-'भर्जात, भजते' | ( ञि ) फला - 'प्रफुलतः ' । (टु ) नदी 'नन्दति । णिजिर - अनिजत्', 'अनैक्षोत्' । प्रत - V | गम्लु- श्रगमत् । कटे-प्रकटीत् । भुजो-भुग्नः । शी-शेते । श्रिञ श्रर्यात, उभयपद “नीतःक्तः” इति वर्तमाने क्तः ञिइन्धी- इद्धः । "ट्वितोऽथुच्” I उन्दी: उन्नः, उत्तः । शमु-शमित्वा शाखा / गुप्-गोपिता, गोप्ता । लोकृ-प्रलुलोकत् । श्रयते 1 नदि - नन्दथुः टुवे-वेपथुः । डुकृञ - कृत्रिमम । त्रपूष्-त्रपा, क्षमूष्-क्षमा । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् 'शुच शोके । ५ । गद घ्यक्तायां वाचि । ६ । गदति । ४५३ नेर्गद-नद-पत-पद-घु-मास्यति-हन्ति-याति-बाति-द्राति-प्सातिवपति-वहति-शाम्यति-चिनोति-देग्विषु च ८ । ४ । १७ । उपसर्गस्थान्निमितात् परस्य नेणे गदादिषु परेषु । प्रणिगदति। ४५४ कुहोश्चुः ७। ४ । ६२ । अभ्यासकवर्ग-हकारयोश्चवर्गादेशः । ४५५ अत उपधायाः ७ । २। ११६ । उपधाया अतो वृद्धिः स्यात् निति णिति च प्रत्यये परे। जगाद । जगदतुः। जगदुः । जगदिथ । जगदथुः। जगद । ४५६ णलुत्तमो वा ७ । १ । ११ । उत्तमो णल् वा णित्स्यात् । जगाद, जगद। जगदिव । जगदिम । गदिता । गदिष्यति । गदतु । अगदत् । गदेत् । गद्यात् । ४५७ अतो हलादेलेघोः ७ । २ । ७ । क्वचित्ककार-णकारादोनाम्-इत्करण तु केवलं विशेषणार्थम् (विशेषग्रहणार्थम) यथा 'इण' गतौ । 'इक' स्मरणे "इणो यण" "इणवदिकः" इति । चेतति, चेततः, चेतन्ति । चिचेत । चिचिततुः । विचितुः चेतिता। चेतिष्यति। चेततु । अचेतत् । चेतेत् । चित्यात् । प्रचेतीत् । प्रतिष्यत् । १-शोचति । शुशोच, शुशुचतुः, शुशुचुः । शोचिता । शोचिष्यति । शोचतु, शोचतात् । प्रशोचत् । शोचेत् शूच्यात् । अशोचीत् । प्रशोचिष्यत् इत्यादि । २-स्पष्टायाम् । ३-जगाद--गद्घातोलिटि तिपि वलि प्रबनुन्धलोपे 'लिटि धातोरनभ्यासस्य' इति द्वित्वेऽभ्याससंज्ञायां 'हलादि शेषः' इति दकारलोपे 'ग गद प्र' इति स्थिते 'कुहोश्चुः' इति अभ्यासगकारस्य जकारे 'प्रत उपवायाः' इति बूढो सिद्ध रूपं 'जगाद' इति । ४५३-उपसर्गस्थनिमित्त से परे नि के न कोण होता है गदादि परे रहते । ४५४-अभ्यास के कवर्ग हकार को चवर्ग होता है। ४५५-उपधा के अत् को वृद्धि होती है जित, णित्, प्रत्यय परे रहते । ४५६-उत्तम पुरुष का णल विकल्प से णित् होता है। ४५७-हलादि धातु के ह्रस्व अकार को वृद्धि होती है विकल्प से इडादि परस्मैपद सिच परे रहते। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ तिङन्ते भ्वादयः हलादेर्लघोरकारस्य वृद्धिर्वेडादौ परस्मैपदे सिचि । अगादीत्, अगदीत । अगदिष्यत् । णद 'अन्य शब्द । ७। ४५८ णो नः ६ । १ । ६५ । धात्वादेर्णस्य नः । णोपदेशास्त्वन नाटि-नाथ-'नाध-नन्द-नक्कन-नृतः। ४५६ उपसर्गादसमासेऽपि णोपदेशस्य ८ । ४ । १४ । उपसर्गस्थानिमित्तात् परस्य णोपदेशस्य धातोर्नस्य णः । प्रणदति । प्रणिनदति । नदति । ननाद । ४६० अत एकहलमध्येऽनादेशादेलिटि ६ । ४ । १२० । लिरिनमित्तादेशादिकं न भवति यदङ्ग तदवयवस्याऽसंयुक्तहल्मध्यस्थस्याऽत एत्वमभ्यासलोपश्च किति । 'नेदतुः । नेदुः । ४६१ थलि च सेटि ६ । ४ । १२१ । "प्रागुक्त स्यात् । नेदिथ । नेदथुः । नेद । ननाद, ननद । नेदिव । नेदिम । नदिता। नदिष्यति। नदतु । अनदत्। नदेत् । नद्यात् । अनादीत् । अनदीत् । अनदिष्यत् । टुनदि समृद्धौ । ८।। __-अस्फुटे । २- नई-नाटि-नाथ-नाध-नन्द-नक्क-न-नृत् इत्येतान् धातून परित्यज्यावशिष्टाः (नकारादयः) णोपदेशाः । णोपदेशफलं तु णत्वादिकम् । ३-"नेगंद-नद-पत-पदे" त्यादिना एवम् । ४-नेद तुः-णद् धातोलिटस्तसि, तस्यातुसादेशे धातोणंस्य नवे द्वित्वेऽभ्यासकायें 'न नद् अतुस्' इति स्थितौ 'प्रत एकहलमध्येऽनादेशादेलिटि' इति ऍत्वेऽम्यासलोपे सस्य रुग्वे विसर्ग सिध्यति रूपं 'नेदतुः' इति । ५-प्रत एत्वम्, अभ्यासलोपश्च ! ६-"प्रतो हलादेलंघोः" इति विकल्पेन वृद्धिः। ४५८-धातु के आदि में स्थित ण को न होता है । ४५६-उपसर्गस्थ निमित्तसे परे णोपदेश धातु के न कोण होता है समास और असमास में। ४६०--लिट को निमित्त मान कर आदेश आदि नहीं हुए हैं जिसको, ऐसा जो श्रङ्ग तदवयव असंयुक्तहलमध्यस्थ अकार को एकार होता है और अभ्यास का लोप होता है कित् लिट परे रहते । ४६१--पूर्वसूत्र को कार्य होता है सेट थल परे रहते । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ४६२ आदिनिं-टु-डवः १ । ३ । ५ । उपदेशे धातोराद्या पते इतः स्युः । ४६३ इदितो नुम् 'धाताः ७ । १ । ५८ | नन्दति । ननन्द । नन्दिता । नन्दिष्यति । नन्दतु । अनन्दत् । नन्देत् । नन्द्यात् । `अनन्दीत् । अनन्दिष्यत् । अर्च पूजायाम् । अर्चति । १२२ ४६४ " तस्मान्नु द्विहलः ७ । ४ । ७१ । I द्विहलो धातोर्दीर्घीभूतादकारात् परस्य नुट् स्यात् । श्रानर्च । श्रानर्चतुः अर्चिता । अर्चिष्यति । श्रर्चतु । श्रर्चत् । श्रर्थ्यात् । श्राचीत् । श्रर्चिष्यत् । व्रज गतौ । १० । व्रजति । वव्राज । व्रजिता । वजिष्यति । व्रजतु । अब्रजत् । व्रजेत् । व्रज्यात् । ४६५ वद- व्रज- हलन्तस्याचः ७ । २ । ३ । एषामचो वृद्धिः सिचि परस्मैपदेषु । "अवाजीत् । श्रवजिष्यत् ! कटे ६ वर्षावरणयोः | ११ | कटति । 'चकाट । चकटतुः । चटिता । कटिष्यति । कटतु | कटत् । कटेत् । कटयात् । V 3 -- , १ - इदितो धातोनु म इत्यर्थः । १ - अनादीत् - दुर्नादघातोलुंङि तिपि 'बादिनिं. दुखबः इति टोरित्संज्ञायां लोपे चान्तेकारस्य चेत्संज्ञायां लोपे 'इदितो नुम् धातोः' इति नुमि टि 'अनन्दति' इति स्थितौ चलौ, सिचि सिच इटि तश्चेति इकार लोपे तकारस्य इटि च सिचो लोपे सिध्यति रूपम् 'प्रनन्दीत्' इति । ३ श्रत आदेः " इति कृतिदीर्घादित्यर्थः तेन 'प्राचीत्' इत्याचौ नुट् न । ४ श्रानर्च - श्रर्चघातो लिंटि तिपि गलि द्वित्वेऽम्यासकायें' ' श्रथं श्र' इति स्थितौ 'श्रत श्रादेः' इति श्रभ्यासस्य दीर्घे 'तस्मान्नुड् द्विहल:' इति नुटि सिध्यति रूपम् 'प्रानचं' व्रजधातोलुङि तिपि इकारलोपे श्रडागमे च्लौ चलेः सिचि इटि च 'बद व्रज हलन्तस्याचः' इति वृद्धौ सिध्यति रूपम् 'प्रव्राजीत्' हति । प्रावरणे च' । ७– - "कुहोश्चुः" इति चुत्व | ६ - 'वर्षे' - इति । ५ - श्रव्राजीत्ईटि सिचो लोपे दीवें ४६२ - उपदेश में धातु के श्रादि त्रि-टु-डु इत्वसंज्ञक होते हैं । ४६३ - इदित् धातु को नुमागम होता है । ४६४-द्विहल धातु के दोर्घीभूत आकार से परे नुट् होता है । ४६५ - बद ब्रज और हलन्त धातु के श्रङ्गावयव श्रच् को वृद्धि होती है परस्मैपद सिच् परे रहते । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ तिङन्ते भ्वाद्यः ४६६ मयन्तक्षणश्वस-जागृ-णि-श्त्येदिताम् ७ । २।५। हमयान्तस्य क्षणादेयेन्तस्य श्वयतेरेदितश्च 'वृद्धिर्नेडादौ सिचि। अकटीत् । अकटिष्यत् । गुपू रक्षणे । १२ । ४६७ गुपू धूप-विच्छि-पणि-पनिभ्य प्रायः ३ । १ । २८ । एभ्य आयप्रत्ययः स्यात् स्वार्थे । ४६८ सनाद्यन्ता धातवः ३ । १ । ३२ । सनादयः कमेल्डिन्ताः प्रत्यया अन्ते येषां ते धातुसंशकाः । धातुत्वा ल्लडादयः । गोपायति । ४६६ आयादय आर्धधातुकं वा ३ । १ । ३१ । १-प्रस्य यथासहख्यमिमान्युदाहरणानि-मह ( पूजायाम् ) अमहीत् । क्रमु (पादविक्षेपे) अक्रमीत् । हय ( गतौ) अहयीत्। तणु ( हिंसायाम् ) प्रक्षणीत् । श्वस् (प्राणने ) अश्वसी । जागृ (निद्राक्षये ) प्रजागरीत । ण्यन्ते छन्दसि "नोनयति ध्वनयति" इत्यादिना चङि निषिद्ध ऊन (परिहाणे ) इत्यस्य लुङि ( मा भवान् ) ऊनयीत् । ( टुप्रो ) श्वि (वृद्धौ) अश्वयीत् । (एदित् ) कटे (बर्षावरणयोः) प्रकटीत् । २-प्रकटीत-'कट' धातोलुंङि तिपि इकारलोपेऽडागमे च्लो, सिचि, इटि, ईटिप सिचो लोपे सिज्लोप-य सिद्धत्वात् सवर्णदीधैं 'म कट् ई त्' इति जाते 'प्रतो हमादेलंघोः' इति वृद्धौ प्राप्तायां 'म्यन्त-क्षण-स्वस्-जागृ-णि-श्व्येदिताम्, इति निषेधे सिध्यति रूपम् 'प्रकटोत्' इति । ३-सन्-वच काम्यच्-क्या-क्यषोऽथाचारविब-णिज-यङौ तथा। यंगाये यङ् णिचेति द्वादशाऽमी सनादयः ॥ ॥ ४-गोपायति--गुपधातोः 'गुपू-धूप-विच्छि-पणि-पनिम्य प्रायः' इति स्वार्थे पायप्रत्यये 'पुगन्तलघूपधस्य ' इति गुणे 'सनाद्यन्ताः धातवः' इति 'गोपाय' इत्यस्य पाहुसंज्ञायो लटि तिपि शपि पररूपे सिध्यति रूपं 'गोपायति' इति । ४६६-हकारान्त, मकारान्त, यकारान्त धातु और क्षण, श्वस् , जाग, तथा एयन्त शिव और एदित् धातु को वृद्धि नहीं होती। ४६७-गुप, धूप, विच्छ, पण और पन् धातुओं से आय प्रत्यय होता है स्वार्थ में। १६८-सन् से लेकर कमेणिङ पर्यन्त प्रत्ययान्त शब्दों की धातु संज्ञा होती है । ४६१-आर्धधातुक की विवक्षा में आयादि विकल्प से होते हैं । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् आर्धधातुक विवक्षायामायादयो वा स्युः । (कास्यनेकाच आम् वक्तव्यो लिटि)। प्रास्कासोराविधानान् मस्य' नेत्त्वम् । ४७० अतो लोपः ६ । ४ । ४८ । आर्धधातुकोपदेशे यददन्तं तस्यातो लोप आर्धधातुके । ४७१ आमः २।४ । ८१ । आमः परस्य लुक। ४७२ कृञ्चानुप्रयुज्यते लिटि ३ । १ । ४० । आमन्ताल्लिट्पराः कृभ्वस्तयोऽनुप्रयुज्यन्ते । तेषां द्वित्वादि । ४७३ उरत् ७ । ४ । ६६ । अभ्यास ऋवर्णस्याऽत् स्यात् । वृद्धिः। गोपायाञ्चकार । द्वित्वात् परत्वाद्यणि प्राप्ते। 1-अन्यथा मकारस्येत्संज्ञायां मित्त्वात् "मिदघोन्त्यात्परः" इति शास्त्रेण प्रासकासघात्वोः-पा-मास् का मास इत्यत्र दोघेण तादवस्थ्यमेवेति तयोराम्-विधानमेव व्यर्थ स्यात् । २-गोपायाञ्चकार-गुपधातोः 'पायादय प्रार्धधातुके वा' इति विकल्पेनायप्रत्यये 'पुगन्ते' ति गणे धातुसंज्ञायां लिटि 'कास्यनेकाच प्राम् -वक्तव्यो लिटि' इति पाम् प्रत्यये प्रास्कासोरामविधानात् भकारस्येत्वाभावेन लोपाभावे 'गोपाय ग्राम लिट् इति स्थितौ 'मतो लोप' इत्यल्लोपे 'प्रामः' इति लिटा लुकि 'कृञ्चानुप्रयुज्यते लिटि' इति लिटपरककृत्रनुप्रयोगे लिटस्तिपि पलि कृत्रो द्वित्वेऽभ्याससंज्ञायाम 'उरत' इति अभ्यासऋवर्णस्याकारे रपरे च कृते 'हलादि शेषः' इति रलोपे 'कुहोश्चुः' इति अभ्यासककारस्य चकारे 'गोपायाम चक प्र' इत्यवस्थायाम् 'प्रचोगिति' इति ऋकारस्य वृद्धौ रपरत्वे मकारस्यानुस्वारे परसवर्णे च सिध्यति रूपं 'गोपायाञ्चकार' इति ( भवनुप्रयोगे 'गोपायांबभूव', अस्तेरनुप्रयोगे 'गोपायामास', पायाभावपक्षे च 'जुगोप' इति रूपम् । (वा० कास् और अनेकाच धातु से आम होता है लिट् परे रहते । ) ४७०-आर्धधातुक उपदेशकाल में जो अकारान्त उसके अका लोप होता है आर्धधातुक परे रहते। ४७१-श्राम से परे लिट् का लोप होता है। ४७२-श्रामन्त से परे लिट् परक कृ, भू अस् का अनुप्रयोग होता है। ५७३-अभ्यास ऋवर्ण को अत् होता है। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते भ्वादयः १२५ ४७४ द्विवचनेऽचि १ । १ । ५६ । द्वित्वनिमित्ते. चि अच आदेशो न द्वित्वे कर्तव्ये । गांपायाञ्चक्रतुः । ४७५ एकाच उपदेशेऽनुदात्तात् ७ । २ । १० । उपदेशे यो धतुरेकाजनुदात्तश्च तत आर्धधातुकस्येण न । 'अदृदन्तैौति-रु दणु-शी-स्नु-नु-तु-श्वि-डी-थिभिः । वृबृजभ्यां च विनैकाचोऽजन्तेषु निहताः स्मृताः ।। कान्तेपु-शव लेकः । चान्तेषु-पच्-मुच-रिच-वच-विच्-सिचः षट् । छान्तेषुप्रच्छेकः । जान्ीषु-त्यज-निजिर-भज-भञ्ज-भुज-भ्रस्ज-मस्ज-यज-युज-रुजरञ्-विजिर-स्वा-मञ्ज-सृजः पञ्जदश । दान्तेषु-अद्-तुद्-खिद्-छिद्-तुदनुद्-पद्य-भिद्यति-दिनद्-विन्द्-शद्-सद्-स्विद्य स्कन्द हदः षोडश । धान्तेषु-ऋधनुध-बुध् बन्ध्-युध रुध राध-व्य-शुध्-साध् सिध्या-एकादश । नान्तेषु-मन्यहनौ द्वौ । पान्ते पु-आप तुप-क्षिप-तप-तिप्-तृष्य-दृष्य लिप-लुप-वप-शपस्वप-सृपस्त्रयोदश । भान्तेषु---यम-रभ लभस्त्रयः। मान्तेषु-गम्-नम्-यम्-रमश्चत्वारः । शान्तेषु -कश्-दंश-दिश-दृश-मृश-रिश्-रुश-लिश-विश-स्पृशो दश । पान्तेषु - कृष्-त्विष तुष-द्विष-दुष-पुष्य-पिष-विष-शिष-शुष-श्लिष एकादश । सान्तेषु-घस वसती द्वौ । हान्तेषु-दह-दिह-दुह-नह-मिह-रुह-लिह-वहोऽष्टौ अनुदात्ता हलन्तेषु धातवस्त्र्यधिकं शतम् (१०३) । गोपायाञ्चकर्थ । गोपायाचक्रथः । गोपाया । गोपायाञ्चकार, 'गोपायाञ्चकर । गोपायाञ्चकृव । गोपायाञ्चकृम । गं पायाम्बभव । गोपायामास । जुगोप । जुगुपतुः । जुगुपुः। __१-ऊदन्तो यथा- भू ( सत्तायाम् ) । ऋदन्तो यथा-प (पालन-पूरणयोः ) । यु(मिश्रणामिश्रणयोः) । र (शब्दे ) । क्ष्णु (तेजने )। शीङ ( स्वप्ने ) स्नु ( प्रस्रवणे )। णु ( स्तुतौ) । टुक्षु ( शब्दे )। टु प्रोश्वि (गतिवृद्ध योः ) डीङ् ( विहायसा गतौ) । श्रिञ् ( सेवायाम् ) । बृङ ( संभक्तौ )। वृञ् (बरणे ) । इत्येतद्व्यतिरिक्ता अजन्ता एकाचो पातवोऽनिट इत्यर्थः । (प्रस्यां कारिकायों सेट्धातु-संग्रहः ) । एतदने चाऽनिटां हलखाना संग्रहः । क्रमभने तु लाधवमेव कारणम्। २-अनुदात्ताः, इत्यर्थः । ४७४-द्वित्वनिमि तक अच् परे रहते अच को आदेश नहीं होता द्वित्वकी चिकीर्षा में । ४७५- उपदेश एकाच और अनुदात्तधातु से परे श्रार्धधातुक को इट नहीं होता। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ४७६ स्वरति मूति-सूयति-धूदितो वा ७ । २ । १४ । स्वरत्यादेरूदितश्च परस्य वलादेरार्धधातु कस्येड वा स्यात्। जुगोपिथ, जुगोप्थ । 'गोपायिता, गोपिता, गोप्ता । गोपायिष्यति, गोपिष्यति, गोप्स्यति । गोपायतु । अगोपायत् । गोपायेत् । गोपाय्यात, गुप्यात् । २अगोपायीत् । ४७७ नेटि ७। २।४। इडादौ सिचि हलन्तस्य वृद्धिर्न । अगोपीत् । अगौप्तीत् । ४७८ भलो झलि ८ । २ । २६ । झलः परस्य सस्य लोपो झलि। अगौप्ताम् । अगौप्सुः । अगौप्सीः । अगौप्तम् । अगौप्त । अगौप्सम् । अगौप्स्व । अगौप्स्म । अगोपायिष्यत, अगोपिष्यत, अगोप्स्यत् । क्षि क्षये । १३ । क्षयति । “चिक्षाय ! "चिक्षियतुः चिक्षियुः। "(४७५) एकाव" इति निषेधे प्राप्ते १-गोपायिता-'गुप्' धातोः लुटि विविक्षिते वैकल्पिके पायप्रत्यये 'पुगन्ते' ति गुणे धातु-संज्ञायां लुटस्तिपोडादेशे तासि 'गोपाय ता' इति स्थिते 'स्वरति-सूति-सूपतिधूबूदितो वा' इति वैकल्पिके इटि 'प्रतो लोप' इति प्रकारलीपे सिध्यति रूपं गोपायिता' इति । (प्रायाभावे इटि सति 'गोपिता' इडभावपक्षे 'गोप्ता' इति ।) २-अगोपायीत्गुपधातोर्लुछि विवक्षिते बैकल्पिके पायप्रत्यये गुणे घातुसंशायां लुस्तिपि इकारलोपे ब्लौ, सिचि, इटि ईटि च 'अ गोपाय इ स ई त्' इति स्थितौ 'इट ईटी' ति सकारलोपे सर्वणदोघे 'अतो लोपः' इति प्रकारलोपे सिध्यति रूपम् 'प्रगोपायीत्' इति । प्रायप्रत्ययाभावपक्षे स्वरतीति वैकल्पिके. इटि ईटि पिचो लोपे 'वदघ्रज हलन्यस्याच' इति वृद्धौ प्राप्तायां 'नेटि' इति निषेधे पुगन्तेति गुणे सिध्यप्ति रूपम् 'अगोपीत्' इति इडभावपज्ञे च हलन्तलक्षणायां वृद्धौ सत्याम् 'प्रगौप्सीत्' रूपम् । ३-इडभाक्पक्ष रूपमिदम् ४-'प्रचो णिति' इति वृद्धिः । ५-इयछ। ४७६-स्वरत्यादि और ऊदित् धातु से परे वलादि आर्धधातुक को इट का आगम होता है विकल्प से। ४७७-इडादि सिच् परे रहते हलन्त को वृद्धि नहीं होती। ४७८-झल से परे स का लोप होता है झल परे रहते । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते भ्वादयः ४७६ कृ-सृ-भृ-वृ-स्तु-द्रु-स्र--श्रुवो लिटि ७ । २ । १३ । क्रादिभ्य एव लिट इण्न स्यादन्यस्मादनिटोऽपि स्यात् । ४८० अचस्तास्वत्थल्यनिटो नित्यम् ७ । २ । ६१ ।। उपदेशेऽजन्तो यो धातुस्तासौ नित्यानिट् ततस्थल इण् न । ४८१ उपदेशेऽत्वतः ७ । २ । ६२ । उपदेशेऽकारवतस्तासौ नित्यानिटः परस्य थल इण न स्यात् । ४८२ ऋतो भारद्वाजस्य ७ । २ । ६३ । तासौ नित्यानिट ऋदन्तादेव थलो नेड् भारद्वाजस्य मते । तेन अन्यस्य स्यादेव । अयमत्र संग्रहः "अजन्तोऽकारवान् वा यस्तास्यनिट थलि वेडयम। ऋदन्त ईदृङ् नित्यानिट क्राद्यन्यो लिटि सेड् भवेत् ॥” १-( ऋदन्तभिन्नेषु ) अजन्तेषु-अनिट्सु धातुषु क्रादिनियमात् = ( 'कृ सृ भृ वृ', सूत्रात् ) लिटि सर्वत्र नित्यमिट प्राप्तः, स च "अचस्तास्वत्थल्यनिटो नित्यम्" थलि निषिध्यते ( पाणिनिमतेन ) भारद्वाजमतेन "ऋतो भारद्वाजस्य” इति नियमाद् विधीयते । एवम् अकारवान् तासि नित्यानिट यो धातुस्तस्मादपि क्रादिनियमेन लिटि सर्वत्र 'इट' थलि "उपदेशेऽत्वतः” इति निषिद्धो भारद्वाजनियमेन पुनर्विधीयते । तथा च मतद्वयेन विकल्पः सिद्धयति । क्रमेणोदाहरणम्-यथा चिक्षयिथ, चिक्षेथ । तेपिथ, ततप्थ । पपिथ, पपाथ । पेचिथ, पपक्थ । इयजिथ, इयष्ट । तथा चोक्तं संग्रहकारिकायाम्-अजन्तोऽकारवान्वेत्यादि । किञ्च ईदृक =तासौ नित्याऽनिट ऋदन्तो धातुस्थलि ४७९-क्रादि धातुओं से ही परे लिट् को इट् नहीं होता, अन्य अनिट् धातुओं से परे भी लिट् को इट् होता है। ___४८०-उपदेश में जो अजन्त घातु, तास् परे रहते नित्य अनिट् , उससे परे थल् को इट नहीं होता। ___४८१-उपदेश में अकारवान् जो धातु, तास् परे रहते नित्य अनिट् , उसको थल परे रहते इट नहीं होता। ४८२-तास् परे रहते नित्य अनिट् ऋदन्त धातु को ही थल परे रहते हट् नहीं होता भारद्वाज के मत में। अन्य धातुओं को तो भरद्वाज के मत से इट् होता ही है। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् 'चिक्षथि, चिक्षेr । चिक्षियथुः । चिक्षिय । चिक्षाय, चिक्षय । चिक्षियिव । चिक्षियिम | क्षेता | क्षेष्यति । क्षयतु | अक्षयत् । क्षयेत् । '४८३ अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः ७ । ४ । २५ । अजन्ताङ्गस्य दीर्घो यादौ प्रत्यये न तु कृत्सार्वधातुकयोः । श्रीयात् । ४८४ सिचि वृद्धिः परस्मैपदेषु ७ । २ । १ । इगन्ताङ्गस्य वृद्धिः स्यात् परस्मैपदे सिचि । अक्षैषीत् । अक्षैष्टाम् । अभैषुः । अक्षेष्यत् । तप सन्तापे । १४ । तपति । तताप । तेपतुः । तेपुः । तेपिथ । 'ततप्थ । तप्ता । तप्स्यति । तपतु । अतपत् । तपेत् । तप्यात् । अताप्सीत् । अताप्ताम् । अतप्स्यत् । क्रमु पादविक्षेपे । १५ ४८५ वा भ्राश-भ्लाश-भ्रमु क्रम - कुमु त्रसित्रुटि-लपः ३ । १ । ७० । एभ्यः श्यन् वा कर्त्रर्थे सार्वधातुके परे । पक्षे शप् । ४८६ क्रमः परस्मैपदेषु ७ । ३ । ७६ । १२८ नित्यमनिड् भवति, क्रादिनियमेन सर्वत्र प्राप्तस्येटस्थलि अजन्तत्वात् 'अचस्तास्वत्थल्यनिटः' इति पाणिनिमतेन, "ऋतो भारद्वाजस्य " इति भारद्वाजमतेनापि - इनिषेधात् । यथाजह | दध । यस्तु न स्यादजन्तो नाप्यकारवान् स च तासौ नित्यानिडपि लिटि सर्वत्र सेट एव क्रादिनियमात् । १ - चिक्षयिथ- 'क्ष' धातोः लिटि सिपि तस्य थलादेशे द्वित्वेऽभ्यासकार्ये 'ऋतो भारद्वाजस्य' इति 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' इति गुणेऽयादेशे सिध्यति रूपं 'चिक्षयिथ' इति । पक्षे इडभावे गुणे 'चिक्षेथ' इति । २ - कृत्सार्वधातुकयोस्तु संचित्य, शृणुयात्, इत्यादौ न दीर्घः । ३ - अक्षैषीत् - 'क्ष' धातो लुङि तिपि अडागमे तिप इकारलोपे चलो, ब्लेः सिचि इनिषेधे 'अस्ति सिचो ऽपृक्ते' इति इटि 'सिचि वृद्धिः परस्मैपदेषु' इति वृद्धौ सिध्यति रूपम् 'अक्षेपीत्' इति । ४ - भारद्वाजमते 'इट् अन्यमते तदभावः । ४७३- अजन्त अङ्ग को दीर्घ होता है यादि प्रत्यय परे रहते । कृत् और सार्वधातुक परे रहते नहीं होता । ४८४ - इगन्त अङ्ग को वृद्धि होती है परस्मैपदपरक सिच परे रहते । ४८५ - श्राशादि धातुओं को विकल्प इन् होता है कर्थ सार्वधातुक परे रहते । ४८६ - क्रम धातु को दीर्घ होता है परस्मैपदपरक शित् परे रहते । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ε तिङन्ते भ्वादयः १२६ क्रमो दीर्घः परस्मैपदे शिति । क्राम्यति, क्रामति । चक्राम । क्रमिता । क्रमिष्यति । क्राम्यतु, कामतु । अक्राम्यत्, अक्रामत् । क्रामेत, काम्येत । 'अक्रमीत् । श्रक्रमिप्यत् । पा पाने । १६ । पित्र-जिघ्र ४८७ पा-घ्राध्मा-स्था-म्ना-दाण- दृश्य र्ति-सर्ति-शद-सदां धम-तिष्ठ-मन-यच्छ-पश्यर्द्ध-धौ शीय- सीदाः ७ । ३ । ७८ । पादीनां पिवादयः स्युरित्संशकशकारादौ प्रत्यये परे । पिवादशोऽदन्तस्तेन न गुणः । पिबति । ४८८ आत श्र गलः ७ । १ । ३४ । श्रादन्ताद्धातोर्णल औकाराद ेशः स्यात् । उपपौ । ४८६ आतो लोप इटि च ६ | ४ | ६४ | अजाद्योरार्धधातुकयोः क्ङिदिटोः परयोरातो लोपः । पपतुः । पपुः । पपिथ, पपाथ । पपथुः । पप । पपौ । पपिव । पपिम । पाता । पास्यति । पिबतु । अपिवत् । पिवेत् । ४६० एर्लिङि ६ । ४ । ११० । घुसंज्ञकानां मास्यादोनां च एत्वं स्यादार्धधातुके किति लिङि "पेयात् । ( ४३६ ) गातिस्थेति सिचो लुक् । अपात् । श्रपाताम् । ४६१ यतः ३ । ४ । ११० । १ - "ह्मयन्त" इति न वृद्धिः । २- उपधायामिकारस्याभावात् । ३ - पापा + श्र प्रभ्यास ह्रस्वः, एल प्रत्वम् । ४ - इविकल्पः पूर्ववत् । ५ - पेयात्- 'पा' धातोराशीलिङ, तिपि इकारलोपे 'यानुट् परस्मैपदेष्वि' ति यामुटि अनुबन्धलोपे 'पायास् त्' इति जाते 'स्को' रिति सलोपे 'एलिङि' इति एत्वे - 'पेयात्' इति । ४८७ - पा आदि धातुओं को पिचादि आदेश होते हैं इत्संज्ञक शकारादि प्रत्यय परे रहते । ४८८ - श्रादन्त धातु से परे गल को श्रौ होता है । ४८६-अजादि किन् हित् श्रार्धधातुक और इट् परे रहते कार का लोप होता है। ४६०-घुसंज्ञक और मास्थादि धातुको एत्व होता है श्रार्धधातुक कित् लिङ परे रहते । ४६१ - सिज्लुक होने पर आदन्त से ही झि को जुस होता है । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् सिज्लुकि श्रादन्तादेव झर्जुस् । ४६२ उस्यपदान्तात् ६ । १ । ६६ । अपदान्तादकारादुसि पररूपमेकादेशः। 'अपुः। अपास्यत् । ग्लै हर्षक्षये । १७ । ग्लायति । ४६३ आदेच उपदेशेऽशिति ६।४ । ४५ । उपदेशे एजन्तस्य धातोरात्वं न तु शिति । जग्लौ । ग्लाता । ग्लास्यति । ग्लायतु । अग्लायत् । ग्लायेत् । ४६४ वाऽन्यस्य संयोगादेः ६।४ । ६८ । घुमास्थादेरन्यस्य संयोगादर्धातोरात एत्वं वार्धधातुके किति लिङि । ग्लेयात्, ग्लायात् । ४६५ यम-रम नमातां स च ७ । २ । ७६ ।। एषां सक स्यादेभ्यः सिच इट स्यात् परस्मैपदेषु। अग्लासीत् । अग्लास्यत् । ह, कौटिल्ये । १८ । "हरति । १-अपुः-'पा' धातोलुंङि प्रथमपुरुषबहुवचने झो अडागमे च्लो, ब्ले: सिंचि 'गाति-स्था-घुपाभूभ्यः सिचः परस्मैपदेषु' इति सिवो लुकि 'प्रातः' इति झर्जुसि 'प्रपाउस्' इति स्थिते 'उस्यपदान्तात्' इति आकारस्य पररूपे सस्य रुत्वे विसर्गे च सिध्यति रूपम् 'अपुः' इति । २-शपि ऐकारस्य 'पाय' । ३-जग्लौ, जग्लतुः, जग्लुः । जग्लिथ, जग्लाथ जग्लथुः जग्ल । जग्लौ, जग्लिव, जग्लिम । ४-अग्लासीत्-'ग्लै' धातोलडि तिपि तिप इकारलोपेऽडागमे 'प्रादेच उपदेशेऽशिति' इति प्रात्वे ब्लौ, सिचि 'यमरमनमातां सक च' इति सकि सिच इटि ईटि च 'अ ग्ला स इ स ई त्' 'इट-ईटी' ति सिचो लापे सवर्णदीर्घ सिध्यति रूपम् अग्लासोत्' इति। एवं अग्लासिष्टाम्, अग्लासिषुः, इत्यादि: “सार्वधातुका ' इति (अर् ) गुणः । ५-(ह्रस्व-) ऋकारान्तत्वादनिट् । ४६२-अपदान्त अकार से उस परे रहते पररूप एकादेश होता है। ४ ३ उपदेश में एजन्त धातु को प्रात्व होता है शित् परे रहते नहीं होता। ४६४-चुमास्थादि से अन्य सयोगादि धातु के अकार को एकार होता है विकल्प से श्राधधातुक लिङ् परे रहते। ४६५-यम, रम्, नम् और आदन्त धातु को सक् का आगम होता है और सिच् को इडागम होता है। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते भ्वादयः ४६६ ऋतश्च संयोगादेगुणः ७ । ४ । १० । ऋदन्तस्य संयोगादेरङ्गस्य गुणो लिटि । उपधाया वृद्धिः। 'जह्वार । जबरतः। जह्वरुः । जबर्थ, जरथुः। जह्वर । जहार, जह्वर । जहरिव । जह्वरिम । हर्ता। ४६७ ऋद्धनोः स्ये ७। २ । ७० । ऋतो हन्तेश्च स्यस्येट् स्यात् । ह्वरिष्यति । ह्वरतु। अद्वरत । ह्वरेत् । ४६८ गुणोऽति-संयोगायोः ७ । ४ । २६ । अर्तेः संयोगाददन्तस्य च गुणः स्यात् यकि यादावार्धधातुके लिङि च । 'हर्यात् । अवार्षीत् । अह्वरिष्यत् । श्रुश्रवणे । १६ । ४६६ श्रुत्रः धृ च ३ । १ । ७४ । श्रुवः श्रू इत्यादेशः स्यात् "श्नुप्रत्ययश्च । "श्रृणोति । ५०० सर्वधातुकमपित् १ । २ । ४ । अपित्सार्वधातुकं ङिद्वत् । श्रृणुतः । १-जह्वार-'ह्व' धातोलिटि तिपि गलि द्वित्वेऽभ्याससंज्ञायां हलादिशेषे 'उरत्' रपरेऽकारे हकारस्य श्चुरवे झकारस्य जकारे 'ज हुतु प्रा' इति जाते ऋतस्य संयोगादेगुणः' घरगुणे उपधावृद्धौ सिध्यति रूपं 'जह्वार' इति । ५-ह्वर्यात्-'हवृ' धातोराशीलिडि तिपि इकारलोपे यासटि अनुबन्धलोपे 'हदू यास् त्' इति स्थिते यासुटः कित्वात् 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' इति प्राप्तस्य गुणस्य 'किति च' इति निषेधे 'गुणोऽर्तिसंयोगाद्योः' इति गुणे स्कोरिति सकारलोपे मिध्यति रूपं 'ह्वर्यात्' इति । ३-अह्वाष्टम, प्रह्वार्षः। ४-शपोऽपवादः । ५ - ऋवर्णान्नस्य णत्वं वाच्यम् । श्नुप्रत्ययस्याऽपित्त्वेन डिस्वात् । 'शृ' इत्येतस्य न गुणः । "सार्वधातका....” इति गुणः ।। ४६६-ऋदन्त संयोगादि अङ्ग को गुण होता है लिट परे रहते । ४६७-ऋदन्त और हन् धातु से परे स्य को इट का आगम होता है । ४६८-ऋ धातु और संयोगादि ऋदन्त धातु को गुण होता है यक परे रहते और आर्धधातुक परे रहते। ४६६-श्रु धातु को शृ आदेश होता है। और श्नु प्रत्यय होता है। ५००-पिभिन्न सार्वधातुक ङिद्वत् होता है। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ५०१ हुश्नुवोः सार्वधातुके ६ । ४ । ८७ । हुश्नुवोरनेकाचोऽसंयोगपूर्वस्योवर्णस्य यण स्यादचि सार्वधातुके । 'श्रृण्वन्ति । श्रृणोषि । श्रृणुथ । श्रृणोमि । ५०२ लोपश्चास्यान्यतरस्यां म्योः ६ । ४ । १०७ । असंयोगपूर्वस्य प्रत्ययोकारस्य लोपो वा म्वोः परयोः । श्रृण्वः । श्रृणुवः । श्रृण्मः, श्रृणुमः । शुश्राव । शुश्रुवतुः । शुश्रुवुः । शुश्रोथ । शुश्रुवथुः । शुश्रुव । शुश्राव, शुश्रव । शुश्रूव । शुश्रुम । श्रोता । श्रोष्यति । श्रृणोतु । श्रृणुतात् । श्रृणुताम् । श्रृण्वन्तु।। - ५०३ उतश्च प्रत्ययादसंयोगपूर्वात ६ । ४ । १०६ । असंयोगपूर्वात प्रत्ययादुतो हेर्लुक । श्रृणु, । श्रृणुतात ।श्रृणतम् ।श्रृणुत । गुणावादशौ । 'श्रृणवानि । श्रृणवाव । श्रृणवाम । अश्रृणोत् । अश्रृणुताम् । अश्रृण्वन् । अश्रृणोः। अश्रृणुतम् । अश्रृणुत । अश्रृणवम् । अश्रृण्व, अश्रृणुव । अश्रृण्म, अश्रृणुम । श्रृणुयात् । श्रृणुयाताम् । श्रृणुयुः। श्रृणुयाः । श्रृणुयातम् । श्रृणुयात् । श्रृणुयाम् । श्रृणुयाव । श्रृणुयाम । श्रृयात् । अश्रौषीत् अश्रो प्यत् । गम्ल गतौ । २० । ___२-शृण्वन्ति-'श्रु' धातोलिटि प्रथमपुरुषबहुवचने झौ झेरन्तादेशे 'ध्रुवः शृ च' इति शृ इत्यादेशे श्नुप्रत्यये च 'शृनु अन्ति इति स्थिते 'सार्वधातुकमपित्' इति कित्वे गुणाभावे 'हुश्नुवोः सार्वधातुके' इति यणि णत्वे च सिद्ध रूपं 'शृण्वन्ति' इति । २-"पाडुत्तमस्य पिच्च” इति 'पाट्' । ३-"प्रकृत्सावधातुकयोः' इति दीर्घः । ४-अश्रौषीत्-'श्रु' धातोलुङि तिपि इकारलोपे च्लौ च्ले: सिचि अटि इएिनषेधे ईटि 'अश्रु स ई त्' इति जाते ‘सिचि वृद्धिः परस्मैपदेष' इति उकारस्य 'वृद्धौ सस्य षत्वे 'अश्रौषीत्' इति रूपम् । अश्रोपोत् , अश्रौष्टाम , अश्रौषुः । अश्रौषीः, अश्रौष्टम , अश्रौष्ट । प्रश्रौषम , अश्रौप्व, अश्रौष्म । अत्र सर्वत्र "सिचि वृद्धिः परस्मै..." इत्यनेन वृद्धिः । __५०१-हु धातु और श्नुप्रत्ययान्त जो अनेकाच अङ्ग, तदवयव असंयोगपूर्वक उवर्ण को यण आदेश होता है अजादि प्रत्यय परे रहते । ५०२-असंयोगपूर्वक प्रत्ययके उकार का लोप होता है विकल्पसे वकारमकार परे रहते। ५०३-असंयोगपूर्वक प्रत्यय के उकारान्त अङ्ग से परे हि का लुक होता है । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते भ्वादयः ५०४ इषु-गमि-यमा छः ७ । १ । ७७ । एषां छः स्यात् शिति । गच्छति । 'जगाम । ५०५ गम-हन-जन-खन-घसां-लोपः क्ङित्यनङि ६ । ४ । १८ । एषामुपधाया लोपोऽजादौ क्ङिति न त्वङि । जग्मतुः। जग्मुः जगमिथ, जगन्थ । जग्मथुः । जग्म । जगाम, जगम । जग्मिव । जग्मिम । गन्ता । ५०६ गमेरिट परस्मैपदेषु ७ । २। ५८ । गमेः परस्य सादंरार्धधातुकस्येट् स्यात् परस्मैपदेषु । गमिष्यति । गच्छतु । अगच्छत् । गच्छेत् । गभ्यात् । ५०७ पुपादि-यु ताद्य तृदितः परस्मैपदेषु ३।१ । ५५ । श्यन्विकरणपुषादेर्युतादेलूदितश्च परस्य ब्लेरङ् परस्मैपदेषु । "अगमत् । अगमिष्यत । इति परस्मैपदिनः। १-गम्, गम् + अ, शेषेलोपः' श्चुत्वम्, "प्रत उपधायाः" इति वृद्धिः। २-जग्मतुः'गम्' धातोलिटि तसि प्रतुसादेश धातोद्वित्वे पूर्वस्याभ्याससंज्ञायां हलादिशेषे 'कुहोश्नु' रिति गकारस्य जकारे 'ज गमू प्रतुस्' इति स्थिते 'गम्-हन-जने' ति उपधालोपे सस्य रुत्वे विसर्गे च सिध्यति रूप 'जग्मतः' इति । ३'-गन्ता' इत्यत्र गम् + ता, इति स्थिती मकारस्य "नश्चापदान्तस्य....” इति अनुस्वारः, अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः” । ४-अगच्छत्-‘गम' धातोर्लङि तिपि इकारलोपे अडागमे शपि 'इषु गमि-यमां छः' इति मकारस्य छकारे 'छे च' इति तुगागमे 'अगत् छ् अत्' इति जाते तकारस्य श्चुत्वेन चकारे परसंयोगे सिद्धं रूपं 'अगच्छत्' इति । ५-अगमत्, अगमताम, प्रगमन् । अगमः, अगमतम, अगमत । अगमम , अगमाव, अगमाम । ५०४-इष् गम यम को छ आदेश होता है शित् परे रहते। ५०५-गम, हन्, जन्, खन्, घस् की उपधा का लोप होता है अजादि कित् डित् प्रत्यय परे रहते, अङ परे रहते नहीं होता। ५०६-गम से परे सादि आर्धधातुक को इट का आगम होता है परस्मैपद परे रहते। ___५०७-श्यन्विकरण पुषादि, द्युतादि और लूदित से परे लि को अङ्ग होता है परस्मैपद परे रहते । इति परस्मैपदिनः । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् श्रथ प्रात्मनेपदिनः – एष वृद्धौ । १ । ५०८ टित आत्मनेपदानां टेरे ६ । ४ । ७६ । टितो लस्यात्मनेपदानां टेरेत्वम् । एधते । ५०६ तो ङितः ७ । २ । ८१ । अतः परस्य ङितामाकारस्य इय् स्यात् । 'एधेते । एधन्ते । ५१० थासः से ३ | ४ | ८० | टितो लस्य थासः से स्यात् । एधसे । एधेथे । एधध्वे । “२७४ अतो गुणे" । एधे । एधावहे । एधामहे । ५११ इजादेश्च गुरुमतोऽनृच्छः ३ । १ । ३६ । इजादिर्यो धातुर्गु रुमानृच्छत्यन्तस्तत श्रम् स्याल्लिटि । ५१२ श्राम्प्रत्ययवत् कृञोऽनुप्रयोगस्य १ । ३ । ६३ । आम्प्रत्ययो 'यस्मादित्यतद्गुणसंविज्ञानो बहुव्रीहिः । ग्रम्प्रकृत्या तुल्य १ - एधेते - 'ए' धातोलंटि प्रथमपुरुषद्विवचने श्रातामादेशे शपि 'एध् प्र प्राताम्' इति स्थितौ 'प्रातो ङितः' इति प्रकारस्य इयादेशे 'लोपो ब्योर्वलि' इति यकारलोपे गुणे 'टित श्रात्मनेपदानाम्' इति टेरेल्वे सिध्यति रूपम् 'एधेते' इति । २ - तद्गुरण संविज्ञानोऽतद्गुणसंविज्ञानश्चेति द्विविधो बहुव्रीहिः । तस्य = अन्यपदार्थस्य ( प्रधानीभूतस्य ) गुणाः = विशेषरणानि तेषां संविज्ञानम् = क्रियान्वयितया ज्ञानं विद्यते यत्र स तद्गुणसंविज्ञानः यथा "लम्बकर्णमानय" इत्यादौ श्रन्यपदार्थस्य ( प्रधानीभूतस्य ) पुरुषादेः गुरणाः करर्णादयः श्रानयन कियान्वयितया प्रतीयन्ते । यत्र च - प्रधानीभूतान्यपदार्थं विशेवरणानि कियान्वयितया न विज्ञायन्ते सोऽतद्गुणसं विज्ञान:- यथा "दृष्टसागरमानय" 1 अथात्मनेपदिनः ५०८ - टित् लकार सम्बन्धी श्रात्मनेपद की टि को एत्व होता है । ५०६ - कार से परे ङित् के ा को इय होता है । ५१० - टित् लकार के थास् को से आदेश होता है । ५११ - इजादि गुरुमान् धातु से ऋच्छति को छोड़कर ग्राम होता है । ५१२ अनुप्रयुज्यमानं कृ धातु से प्रकृति के तुल्य श्रात्मनेपद होता है । (अर्थात श्रम प्रकृति यदि आत्मनेपदी हो तो कृञ से श्रात्मनेपद होता है, अन्यथा नहीं ) Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते भ्वादयः ११५ मनुप्रयुज्यमानात 'कृमोऽप्यात्मनेपदम् । ५१३ लिटस्तझयोरेशिरेच ३ । ४ । ८१ । लिडादेशयोस्तझयोरेशिरेजेतौ स्तः । 'एधाञ्चक । एधाञ्चकाते । एघाञ्चफिरे । एधाञ्चकृषे । एधाञ्चकाथे। ५१४ इणः पीध्वं लुङलिटां धोऽङ्गात् ८।३ । ७८ । इराणन्तादङ्गात् परेषां षोध्वंलुङ्लिटां धस्य ढः स्यात् । एधाञ्चकृढवे । एधाञ्चक । एधाश्चवहे । एधाञ्चकमहे । एधाम्बभूव । एधामास । एधिता। एधितारौ । एधितारः । एधितासे । एधितासाथे । ५१५ धि च ८।२ । २५ । धादौ प्रत्यये परे सस्य लोपः । एधिताध्वे । इत्यादौ प्रधानीभूतस्यान्यपदार्थस्य पुरुषादेविशेषणानि-सागरादयः- प्रानयन-कियान्वयितया न प्रतीयन्ते । तथा च प्रकृते "प्राम्प्रत्ययवद्" इति-प्रतद्गुणसंविज्ञानो बहुव्रीहिः, तेन पाम्प्रत्ययविनिमुक्तः प्रामप्रत्ययस्य प्रकृतिभूतो धातरेव गृह्यते, इति । तथा चानेन सूत्रेणेदं तत्त्वं बोध्यते-यस्माद्धातोराम प्रत्ययः कृतः स चेत्परस्मैपदी तदा प्रयुज्यमानास्कृञोऽपि परस्मैपदं स्यात्, यद्यात्मनेपदी स्यात् ( प्रकृतिभूतो धातुः तदा कृनोऽप्यात्मनेपदम् । उभयपदित्वे च कृत्रोऽप्युभयपदमेव प्रयोक्तव्यम् इति । १-जो नित्वात्कर्तृ-भिन्न-(पर)-गामिनि क्यिाफले परस्मैपदं प्राप्नोति, तत्राचं व्यवस्था प्यते, 'प्राम्' यस्माद् (धातोः) विहितः, तस्य ( धातोः ) यद्यात्मनेपदं स्यात्तदैव कुलोऽप्यात्मनेपदं स्यादन्यथा न । तेन “इन्दाञ्चकार ' इत्यादौ न (तङ्) प्रात्मनेपदम् । २-एधाञ्चक-'ए' धातोलिटि 'इजादेश्च गुरुमतोऽनृच्छः' इत्याम् प्रामः इति. लिटो लुक् ‘एआम्' इति स्थितौ 'कृञ्चानुप्रयुज्यते' इति लिटपरककृञोऽनुप्रयोग मात्मनेपदत्वात् लिटः स्थाने तप्रत्यये एशादेशे को द्वित्वेऽभ्यासकार्य 'एधाम् चक ए' इति जाते 'असंयोगात् लिट् कित्' इति कित्वाद् गुणनिषेधे यणि मकारस्यनुस्वारे परसवणे च 'एधान्चक' इति रूपम् । ५१३-लिट के त और झ को एश इरेच आदेश होता है। ५१४-इणगत असे परे षीध्वम् और लुङ, लिट् के धकार को ढकार होता है। ५१५-धादि प्रत्यय परे रहते स का लोप होता है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् . ५१६ ह एति ७ । ४ । ५२ । तासस्त्योः सस्य हः स्यादेति । परे । एधिताहे । एधितास्वहे । एधितास्महे । एधिष्यते । एधिष्यते । एधिष्यन्ते । एधिष्यसे । एधियेथे । एधिष्यध्वे। एधिष्ये । एधिष्यावहे । एधिष्यामहे । ५१७ आमेतः ३ । ४ । ६० । लोट एकारस्याम् स्यात् । एधताम् । एघेताम । एधन्ताम् । ५१८ सवाभ्यां वामौ ३ । ४ । ११ । सवाभ्यां परस्य लोडेतः कमाद् वामौ स्तः। 'एधस्व । एधेथाम् । एधध्वम्। ५१६ एत ऐ ३ । ४ । ६३ । लोडुच्मस्य एत ऐ स्यात् । एधे । एधावहै । एधामहै । (१६७) प्राटश्च । ऐधत । ऐधेताम् । ऐधन्त । ऐधथाः। ऐधेथाम् । ऐधध्वम् । ऐधे। ऐधावहि । ऐधामहि । ५२० लिङः सीयुट ३ । ४ । १०२ । उसलोपः । एधेत । एधेयाताम् । ५२१ झस्य रन् ३ । ४ । १०५। लिङो झस्य रन् स्यात्। एधेरन् । एधेथाः। एधेध्वम् । ५२२ इटोऽत् ३ । ४ । १०६। १-एघसे' इति सिद्धे एकारस्य वस्वम् । २-इति सूत्रेण वृद्धः । ३-'लिङः सलोपोऽनन्त्यस्य' इत्यनेन । 'लोपो व्योर्वलि' इति यलोपः । ४-एधेरन्-'ए' धातोः विधिलिङि प्रथमपुरुषवहुवचने झादेशे शपि 'लिङः सीयुट' इति सीयुटि ५१६-तास और अस्ति के स को ह होता है एकार परे रहते । ५१७-लोट के ए को श्राम होता है। ५१८-स-व से परे लोट् के एकार को व अम होता है । ५१६-लोट के उत्तमपुरुष के एकार को ऐकार होता है। ५२०-लिङ् के तिबादि को सीयुट का आगम होता है। ५२१-लिङ् के झ को रन् आदेश होता है। ५२२-लिङ स्थानिक इट को अत् आदेश होता है । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ तिङन्ते भ्वादयः लिङादेशस्य इटोऽत् स्यात् । एधेय । एधेवहि । एधेमहि । ५२३ सुट तिथोः ३ । ४ । १०७ । लिङस्तथोः सुट् । 'यलोपः । आर्धधातुकत्वात् सलोपो न । एधिषीष्ट । एधिषीयास्ताम् । एधिषीरन् । एधीषीष्टाः। एधिषीयास्थाम् । एधिषीध्वम् एधिषीय । एधिषीवहि । एधिषीमहि । ऐधिष्ट । ऐधिषाताम् । ___५२४ आत्मनेपदेष्वनतः ७।१ । ५। अनकारात् परस्यात्मनेपदेषु झस्य अदित्यादेशः स्यात् । ऐधिषत । ऐधिष्ठाः । ऐधिषाथाम् । ऐधिढ्वम् । ऐधिषि । ऐधिप्वहि । ऐधिष्महि । ऐधिप्यत । ऐधिप्येताम् । ऐधिप्यन्त । ऐधिष्यथाः । ऐधिप्येथाम् । ऐधिष्यध्वम् । ऐधिप्ये । ऐधिप्यावहि । ऐधिष्यामहि । कमु कान्तौ ।। ५२५ कमणिङ ३ । १ । ३० । स्वार्थ ङित्वात्तङ कामयते । ५२६ अयामन्ताल्बाय्यत्निवष्णुपु ६ । ४ । ५५ । आम् अन्त अालु अाय्य इत्नु इष्णु एषु णेरयादेशः स्यात् । कामयाचक्र । (४६६ ) "अायादय इति णिङ्वा । चकमे । चकमाते । चकमिरे । 'लिङः सलोपोऽनन्त्यस्य' इति सलोपे एध अ ईय झ' इति स्थितौ 'झस्य रन्'इति रनादेशे 'लोपो व्योवलि' इति यकारलोपेऽकारेकारयोगुणे सिध्यति रूपम् 'एधेरन्' इति । १-सीयुटो यकारस्य लोपः । १-एधिषीध्वम अत्र 'ध्वम ' इत्यस्य, इणः परत्वेऽपि, प्रङ्गस्थ-इणन्तत्वाभावात् 'इणः पीध्वंलुङ ....' इति ढत्वं न। 'ऐधिढ्धम' इत्यत्र तु सिज्विशिष्टस्याङ्गसंज्ञा सिजवयव इट् इति-प्रङ्गान्तर्भूतत्वेन, ('धि च' इति सकारलोपे ) इएणन्ताङ्गत्वं न भवति ढत्वम । ३-ऐधिष्ट-'ऐध्' धातोलुंङि तादेशे प्राटि "प्राटश्चेति' वृद्धौ ‘ऐध त' इति स्थितौ च्लो, प्लेः सिंचि 'प्रार्धधातुकस्येड्वलादेः' इति इंटि, सस्य पत्वे प्टुरवे च सिध्यति रूपम् 'ऐविष्ट' इति । ४-इच्छायामित्यर्थः। ५-'पायादय प्रार्धधातुके वा'। ५२३–लिङ सम्बन्धी तकार, धकार को सुट का आगम होता है । ५२४.--अनकार से परे आत्मनेपद सम्बन्धी झ को अत् आदेश होता है। ५२५ कम पातु से पिड प्रत्यय होता है स्वार्थ में । ५२६-आम दि प्रत्यय परे रहते णि के स्थान में अय आदेश होता है । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १३८ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् चकमिषे । चकमाथे। चकमिध्वे । चकमे। चकमिवहे । चकमिमहे । कामयिता, कमिता । कामयितासे । कामयिष्यते, कमिष्यते, कामयताम् । अकामयत । कामयेत । कामयिषीष्ट । ५२७ विभाषेटः ८ । ३ । ७६ । ___ इणः परो य इट् ततः परेषां पीध्वंलुङ्लिटां धस्य वा ढः। कामयिषीदवम्, कामयिषीध्वम् । कमिषीष्ट । कमिषीध्वम् । ५२८ णि-श्रि-द्रु- भ्यः कतरि चङ३। १ । ४८ । ण्यन्ताच्छ्यादिभ्यश्च च्लेश्चङ् स्यात् कर्बर्थे लुङि परे। कामि अत इति स्थिते। ५२६ णेरनिटि ६।४ । ५१ । अनिडादावार्धधातुके परे णेर्लोपः स्यात् । ५३० णो चङयुपधाया ह्रस्वः ७ । ४ । १। चङ् परे णौ यदङ्ग तस्योपधाया ह्रस्वः स्यात् । ५३१ चङि ६ । १ । ११ । चङि परे अनभ्यासस्य धात्ववयवस्यैकाचः प्रथमस्य द्वे स्तोऽजादेर्द्धितीयस्य। ५३२ सन्वल्लघुनि चङ् परेऽनम्लोपे ७ । ४ । ६३ । ५२७-इण से परे जो इट, उससे परे षीध्वं और लुङ, लिट् के ध को ढ होता है विकल्प से। ५२८–ण्यन्त से परे और श्रि, द्रु, स्रु धातुओं से परे च्लि को चङ् आदेश होता है कर्थ लुङ परे रहते। ५२६-अनिडादि आर्वधातुक परे रहते णि का लोप होता है । ५३० - चङ् परक णि परे रहते अङ्ग की उपधा को ह्रस्व होता है । ५२१-चङ परे रहते अभ्यासभिन्न धातु के प्रथम अवयव एकाच को द्वित्व होता है और अजादि के द्वितीय एकाच को द्विख होता है। ४३२ -- चङपरक णि परे रहते जो अङ्ग उसके अवयय लघुपरक अभ्यास को सन्वद्भाव होता है यदि णि परे रहते अक् का लोप न हुआ हो । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिडन्ते भ्वादयः १३६ चङ् परे णौ यदङ्ग तस्य योऽभ्यासो लघुपरः तस्य सनीव कार्य 'स्यारणावग्लोपेऽसति। ५३३ सन्यतः ७ । ४ । ७६ | अभ्यासस्यात इत, स्यात् सनि । ५३४ दीर्घो लघोः ७ । ४ । ६४ । लघोरभ्यासस्य दीर्घः स्यात् सन्वद्भावविषये। अचीकमत । णिङभावपक्षे (कमेश्च्लेश्चङ वाच्यः) अचकमत । अकामयिष्यत । अकमिष्यत । अय गतौ ।३। अयते। ५३५ उपसर्गस्यायतो ८।२ । १६ । अयतिपरस्योपसर्गस्य यो रेफस्तस्य लत्वं स्यात् 'प्लायते । "पलायते । ५३६ दयायासश्च ३।१ । ३७ । १-गौ-प्रगलोपो (णिनिमित्तकोऽकप्रत्याहारघटितवर्णलोपः ) यदि न भूतः स्याद् इत्यर्थः । सति-अग्लोपे दीर्घसन्वद्भावौ न भवतः । यथा अवकमत् अजहलत् इत्यादि । २-अचीकमत-'कम्' धातोः 'कमेरिणङ' इति णिङ् प्रत उपधायाः' इति वृद्धौ ‘कामि' इत्यस्य धातुसंज्ञायां लुङि प्रथमपुरुषैकवचने तादेशेऽडागमे च्लौ 'णि-त्रि-द्र -अभ्यः कतरि चङ' इति ग्लेश्चङि 'प्रकासि अत' इति स्थिते 'णेरनिटि' इति ऐलोंपे 'णौ चङ-युपधाया ह्रस्वः' इति उपधाह्रस्वे 'चरि' इति 'कम्' इत्यस्य द्वित्वेऽभ्याससंज्ञायां 'हलादिशेषः' इति अभ्यासमकारलोपे ऽभ्यासककारस्य 'कुहोश्चुः' इति चुत्वे 'प्रचकमत' इति जाते 'सन्वल्लघुनि चङ परे ऽनग्लोपे' इति सन्वद्भावे सन्यतः' इति इत्वे 'दीर्घोलघोः' इति दीघे सिध्यति रूपम् 'प्रचीकमत' इति । पिङभावपक्ष - 'प्रचकमत' इति रूपम् ३-'चाळ' इति द्वित्वम् । अत्र णेरभावात् सन्वद्भावो न, तेन इत्वं दोघश्चापि न । ४'' उपसर्ग । ५-'परा' उपसर्गः । ५३३- अभ्यास के अकार को इत् होता है सन् पर रहते । ५३४ लघु अभ्यास को दीर्घ होता है सन्वद्भाव के विषय में। ( वार्तिक-कम से परे च्लि को चङ आदेश होता है । ) ५३५-श्रय धातुपरक उपसर्ग के रेफ को लकार होता है । ५३६-दय् - श्रय श्रास् से आम होता है लिट् परे रहते । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् दय् अय आस. एम्य आम् स्याल्लिटि। अयाचक्र । अयिता । अयिप्यते । अयताम् । आयत । अयेत । अयिषीष्ट । (५२७) 'विभाषेटः। अयिषीध्वम्, अयिषीढ्वम् । आयिष्ट । प्रायिध्वम्, आयिढवम् । आयिष्यत । द्युत दीप्तौ । ४ । द्योतते। ५३७ घुति-स्वाप्योः संप्रसारणम् ७ । ४ । ६७ । अभ्यासस्य । दिद्युते। ५३८ छु यो लुङि १ । ३ । ६१ । धु तादिभ्यो लुङः परस्मैपदं वा स्यात् । (५०७) पुषादीत्यङ् । अद्युतत । अद्योतिष्ट । अद्योतिष्यत । एवं श्विता वर्णे । ५ । "त्रिमिदा स्नेहने । ६ । निविदा स्नेहनमोचनयोः।७। मोहनयोरित्येके। निविदा चेत्येके । 'रुच १-इति वा ढत्वम् । २-दिद्य ते-'द्युत' धातोलिटि प्रथमपुरुषैकवचने तादेशे तकारस्यैशादेशे द्वित्वेऽभ्यासत्वे 'धु तिस्वाप्योः सम्प्रसारणम्' इति सम्प्रसारणे इकारे 'सम्प्रसारणाच्चे' ति उकारस्य पूर्वरूपे 'दित् त् एं' इति स्थिती हलादिशेषः' इति अभ्यास तकारस्य लोपे सिध्यति रूपं दिय ते' इति । दिद्य ताते, दिद्यतिरे-इत्यादि । द्योतिता । द्योतिष्यते । द्योतताम् । प्रद्योतत । छोतेत । द्योतिषीष्ट । ३-अद्युतत्-‘द्युत्' धातोलुंङि प्रथमपुरुषैकवचने 'यु भ्यो लुङि' इति वैकल्पिके परस्मैपदसंज्ञके तिपि इकारलोपे ऽडागमे 'अ द्युत् त्' इति स्थिते मध्ये च्लो तस्य 'पुषादिद्युताधि लूदितः परस्मैपदेषु' इति अङादेशे 'प्रद्युतत्' इति । (अत्र अङो ङित्वात् पुगन्तेति गुणो न )। ४-श्वेतते। शिविते । श्वेतिता। श्वेतिष्यते। श्वेतताम् । अश्वेतत। श्वेतेत । श्वेतिषीष्ट । अश्वेतिष्ट । अश्वितत् । अश्वेतिष्यत । ५-मेदते । मिमिदे । ( लुङि ) अमिदत, अमेदिष्ट । ६-स्वेदते। सिष्विदे। (लङि) अस्विदत्-अस्वेदिष्ट । ७-क्ष्वेदते । विक्ष्विदे। इत्यादि । ८-रोचते । रुरुचे (लुङि) अरुचत, अरोचिष्ट । ऐवं घोटते । घुटे । अघुटत, अघोटिष्ट, एवं लुङि सर्वत्र रूपद्वयम् । शोभने, शुशुभे । क्षोभते, चुक्षुभे । नभते, नेभे। तोभते, तुतुभे। सते, सनसे। भ्रसते, बभ्र से । ध्वंसते, दध्वंसे । सम्भते, ससम्मे। एषां लङि परस्मैपदेऽडि 'अनिदिताम्' इति नकारलोपः। प्रससत् । अभ्रसत, अध्वसत् । प्रस्रभत् । विपूर्वकसम्भधातुर्विश्वासे प्रयुज्यते । ५३७-द्युत और स्वापि के अभ्यास को संप्रसारण होता है । ५३८-गुतादि से परे लुङ को परस्पैपद होता है विकल्प से । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते भ्वादयः १४१ दीप्तावभिप्रीतौ च । ८ । घुट परिवर्तने । ६ । शुभ दीप्तौ । १० । क्षुभ संचलने । ११ । णभ तुभ हिंसायाम् । १३ । स्रंसु भ्रंसु ध्वंसु अवलंसने । १६ । ध्वंसु गतौ च ।१७। सन्भु विश्वासे ।१८। वृतु वर्तने।१६। वर्तते 'ववृते । वर्तिता। ५३६ वृधः म्यसनोः १ । ३ । १२ । वृतादिभ्यः पञ्चभ्यो वा परस्मैपदं स्यात् स्ये सनि च । ५४० न वृद्भ्यश्चतुभ्यः ७ । २ । ५६ । वृतु-वृधुश्रधु-स्यन्दुभ्यः सकारादेरार्धधातुकस्येण न स्यात् 'तङानयोरभावे । वय॑ति, वर्तिष्यते । वर्तताम् । अवर्तत । वर्तेत । वर्तिपीष्ट । अवर्तिष्ट । अवयत्, अवर्तिप्यत । दद दाने । २० । ददते । ५४१ न शन-दद-वादि-गुणानाम् ६ । ४ । १२६ । शसेर्ददेर्वकारादीनां गुणशब्देन विहितो योऽकारस्तस्य च एत्वाभ्यासलोपौ न। "दददे । दददाते। ददादिरे । ददिता । ददिष्यते । ददताम् । अददत् । ददेत । ददिषीष्ट । अददिष्ट । अददिप्यत । त्रपूष् लज्जायाम् । २१ । अपते । ___१-'ऋदुपधेभ्यो लिटः कित्वं गुणात्पूर्वविप्रतिषेधेन' इति कित्वान्न गुणः । २-यत्र तङ प्रानश्च (आत्मनेपदं ) न स्यात् । अर्थात् परस्मैपदादिकं स्यात् । ३'वृतु' धातुपर्यन्तोऽयं हा तादिगणः, तेन पक्षे अवृतत्-'वृत्' धातोर्लुङि युद्भ्यो लुङि' इति वैकल्पिके परस्मैपदे लस्य तिपि मध्ये च्लौ, ग्ले: 'पुषादीति' अङि अटि 'अ वृत् प्रत्' ङित्वात् 'पुगते' ति गुणाभावे सिध्यति रूपम् 'प्रवृतत्' इति । पक्षे प्रात्मनेपदे 'प्रवतिष्ट' इति ४-पेचे' इत्यत्र अकारस्य गुणत्वेऽपि, गुणशब्देन विहितत्वाऽभावाद् एत्वाऽभ्यास-लोपनिषेठो न । 'शशरतुः पपरतुः' इत्यादौ गुणशब्देन विहितत्वाद् एत्वाभ्यासलोपनिषेवः प्रवर्तते । :.-दददे-'दद' धातोलिटि लस्य तकारादेशे द्वित्वेभ्यासकायें तकारस्यैशादेशे 'द ददए' इति स्थितौ एत्वेऽभ्यासलोपे च प्राप्ते 'न शस-दद-वादिगुणानाम्' इत्यनेन तन्निषेधे सिध्यति रूपं दददे' इति । ५३६-पाँच वृतादियों से परस्मैपद विकल्प से होता है स्य, सन् परे रहते। ५४०-ऋतु-वृधु-धु-स्यन्दू धातुओं से परे सकारादि आर्धधातुक को इट् नहीं होता तङ् और पान के अभाव में । ५४१-शस् दद् और वकारादि धातुओं को और गुण शब्द से विहित श्रकार को एत्व नहीं होता और अभ्यास का लोप नहीं होता। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ५४२ तृ-फल-भज त्रपश्च ६ । ४ । १२२ । एषामत एत्वमभ्यासलोपश्च स्यात् किति लिटि सेटि थलि च 'पे। त्रपिता, २त्रप्ता । त्रपिष्यते, त्रप्स्यते । त्रपताम् । अत्रपत । त्रपेत । त्रपिषीष्ट, त्रप्सीष्ट । अत्रपिष्ट, अत्रप्त । अत्रषिप्यत, अत्रप्स्यत । इत्यात्मनेपदिनः। प्रथ उभयपदिनः । श्रिञ् सेवायाम् । १ । श्रयति, । श्रयते । शिश्राय, शिश्रिये । श्रयिता। श्रयिष्यति, श्रयिष्यते । श्रयतु, श्रयताम् । अश्रयत्, अश्रयत । श्रयेत्, श्रयेत । "श्रीयात्, श्रयिषीष्ट । चङ् ' अशिश्रियत्, अशिश्रियत । अश्वयिष्यत्, । अश्रयिष्यत । भृञ् भरणे । २। भरति, भरते । बभार । बभ्रतुः । बभ्रः। बभर्थ । बमृव । बभृम । बभ्रे । बभृषे । मर्तासि, भर्तासे । भरिष्यति, भरिष्यते । भरतु, भरताम् । अभरत अभरत । भरेत्, भरेत । ५४२ रिङ् श-यग- लिङ्घ ७ । ४ । २८ । शे यकि यादावार्धधातुके लिङि च ऋतो रिङ् आदेशः स्यात् । रीङि प्रकृते रिङ् विधानसामर्थ्याही? न ‘भ्रियात् । ५४४ उश्च १।२।१२। १-पे-'त्रप् धातोलिटि लस्य तकारादेशे तस्य 'एश्'-प्रादेशे द्विरवेऽभ्यासकार्य 'त त्रप् ए' इति स्थिते 'त्रि-फल भज-त्रपश्च' इति एत्वेऽभ्यासलोपे च सिध्यति रूपं 'पे' इति । २-ऊदित्वाद् वेट । ३-'झलो झलि' इति सलोपः। ४-शिधियतुः, शिश्रियुः शियिथ, शिश्रिययुः इत्यादि । ५-'प्रकृत्सार्वधातु...' इति दीर्घः । ६-अशिश्रियत्'श्रि' धातोलुंडि लस्य तिपि इकारलोपे इडागमे च्लो 'रिणश्रि-द्रु-स म्यः कर्तरि-च इति च्लेश्चडि 'प्रश्रिअ त्' इति स्थिते 'चङि' इति द्वित्वेऽभ्यासकार्ये 'अचिश्नु'रिति इयडादेशे 'प्रशिश्रियत्' इति रूपम् । ७-'ऋद्धनोः स्ये' इति 'इट' । ८-'प्रकृसावं. ' इति दीर्घः प्राप्तः, 'रिङ' इति ह्रस्वविधानसामान भवति । ५४२-तृ-फल्-मज-त्रप धातुओं के अकार को एत्वाभ्यास लोप होता है कित् लिट और सेट थल परे रहते । इत्यात्मनेपटिनः । अथ उभयपदिनः। ५४३-श यक् और यकारादि आर्धधातुक लिङ् परे रहते ऋकार को रिङ् होता है। ५४४-ऋवर्ण से परे झलादि लिङ् और सिच कित् होते हैं, तङ परे रहते । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते भ्वादयः १४३ वर्णात् परौ झलादी लिङ्सिचौ कितौ स्तस्तङि । भृषीष्ट । भृषीयास्ताम् । अभार्षीत् । प्रभार्टाम् । अभाएः। अभार्षीः । ५४५ ह्रस्वादङ्गात् ८ । २ । २७ । सिचो लोपो झलि । अभृत । अभृषाताम् । अमरिष्यत् , अभरिष्यत । हृञ् हरणे । ३। हरति, हरते । जहार, जह्वे । जहर्थ । जह्रिव । जहिम । जहषे । हर्ता। 'हरिष्यति, हरिष्यते। हरतु, हरताम् : अहरत् , अहरत । हरेत् , हरेत । हियात् , हृषीष्ट । हृषीयास्ताम् । अहार्षीत्, अहृत । अहरिष्यत्, अहरिष्यत ॥ धृ धारणे । ४ । धरति, "धरते । णी प्रापणे । ५। नयति, नयते ॥ लुपचष् के । ६ । पचति, पचते । पपाच । पेचिथ, पपक्थ । पेचे । पक्ता ॥ भज सेवायाम् । ७ । भजति, भजते। 'बभाज, भेजे। भक्ता । १-तेन न गुणः । २-अभार्षीत-भृ' धातोर्चुङि प्रथमपुरुपैकवचने लस्य तिपोकारलोपेऽडागमे च्लो, ले: सिघि 'प्रभृ स त्' 'प्रस्तिसिचोऽपृक्ते' इति ईडागमे 'सिचि वृद्धिः परस्मैपदेष' इति ऋकारस्य 'पार' वृद्धौ सस्य षत्वे सिध्यति रूपम् 'प्रभात' इति । ३-जहार जह) 'ह' घातो लिटि प्रथमपुरुषैकवचने लस्य परस्मैपदे तिपि 'गल' प्रादेशे द्वित्वेऽभयासकायें 'जह प्र' इति स्थितौ 'प्रचो रिणति' इति वृद्धौ सिध्यति रूपं 'जहार' । पाल्नने पदे च तकारस्य ‘एश' प्रादेशे द्वित्वादौ सति 'ज ह ए' इति स्थितौ लिटः कित्वाद् गुणाभावे यणि 'जह' इति रूपं सिध्यति । २-हरिष्यति-'ह' घातोलटि लस्य परस्मैपदे तिपि शपोऽपवादे 'स्य'-प्रत्यये 'ह स्यति ति' इति स्थिते 'ऋसनोः स्ये' इति डागमे गुणे सस्य पवे सिध्यति रूपं 'हरिष्यति' इति । ५धार । प्रघृत, अधार्षीत् । अधृत-'धुन' पातो लुङि प्रात्मनेपदे लस्य तादेशेऽटि मध्ये ग्लो, 'ब्ले' सिचि ' प्रस्त' इति जाते 'ह्रस्वादनात्' इति सिचः सकारलोपे सिध्यति 'प्रधृत' इति रूपं परस्मैपदे 'अधार्षीत' इति । ६-लिटि-निनाय, निन्यतुः, निन्युः। निनयिष । निन्ये, निन्याते, निन्थिरे । मनैषीत, मनेष्ट, भनेषाताम् । ७-पक्ष्यति, पक्ष्यते । लुमि-प्रपाक्षीत, अपाक्ताम, प्रपाक्षुः । पारमनेपदे-अपक्त, अपमाताम् अपचत । ८-भेजतुः, भेजुः इत्यादि । ५२५-हस्वान्न अङ्ग से परे सिच् का लोप होता है झल् परे रहते। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् 'भक्ष्यति, भक्ष्यते । अभाक्षीत्, अभक्त । अभक्षाताम् ॥ यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु । ८ । यजति, यजते । ५४६ लिटयभ्यासस्योभयेषाम् ६ । १ । १७ । वच्यादीनां ग्रह्मादीनां चाभ्यासस्य सम्प्रसारणं लिटि । इयाज । ५४७ वचि स्वपि यजादीनां किति ६ । १ । १५ । "वचिस्वप्योर्यजादीनां च सम्प्रसारणं स्यात् किति । ईजतुः । ईजुः । इयजिथ, "इयष्ठ । ईजे । यष्टा । ५४८ षढोः कः सि ८ । २ । ४१ । यक्ष्यति, 'यक्ष्यते । इज्यात्, यक्षीष्ट । 'अयाक्षीत् प्रयष्ट । वह प्रापणे । ६ । वहति, वहते । ' ' उवाह । ऊहतुः । ऊहुः । उवहिथ । 9 १ 1 १ - भज् + स्यति । 'चोः कुः' इति गः 'खरि च' इति कः । ककारात्परस्य सस्य षत्वम् । कषसंयोगे क्षः । एवमग्रेऽपि । २ - श्रभाक्षीत् - 'मज्' धातोर्लुङि परस्मैपदे तिपीकारलोपेऽडागमे मध्ये ब्लौ, ब्लेः सिचि 'एकाच उपदेशे...' इति इनिषेधे 'प्रस्ति सिचो ऽपृक्ते' इति ईटि 'वद- ब्रजे' ति वृद्धौ जकारस्य कुत्वेन गकारे 'खरिचे' ति चवें सस्य षत्वे सिध्यति रूपम् 'प्रभाक्षीत्' इति । ३ - ( लुङि ) श्रभक्ष्यत । ४ - इयाज यवज् + अ, ( श्रभ्यासस्य सम्प्रसारणम्, पूर्वरूपम्, उपधावृद्धिः । ५ - यजादयश्चैते --- 'यजिव पिर्वाहिश्चैव वसि-वे - व्येन इत्यपि । 、 ' वदी श्वयतिश्चेति यजाद्याः स्युरिमे नव ।।' · ६–यज् + प्रतुस् 'इत्यत्र' 'वचिस्वपी' ति सम्प्रसारणे पूर्वरूपे च 'इज्' इत्यस्य द्वित्वे हलादिशेषे, सवर्णदीर्घः ईजतुः । ७ इडभावपक्षे रूपमिदम् । इयष्ठ ययज् + थ (ल् ), प्रभ्यासस्य सम्प्रसारणम् ! 'व्रश्च भ्रस्जसृज' इति जकारस्य षत्वम् । ततः ष्टुत्वम् | ८-षस्य कत्वम् कषसंयोगे क्षः । ६-प्रयाक्षीत, प्रयाष्टाम् श्रयाक्षुः । वदनजेति वृद्धि: । १० - उवाह, ऊहतुः इत्यादि । इयाज, ईजतुः- इत्यादिवत् । ५४६ - वच्यादि और ग्रह्मादि धातुओं के अभ्यास को सम्प्रसारण होता है लिट् परे रहते । ५४७-वच्-स्वप् और यजादि धातु को संप्रसारण होता है कित परे रहते । ५४८ - षकार र ढकार को क होता है सकार परे रहते । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० तिङन्ते श्रदादयः ५४६ झषस्तथोर्धोऽधः ८ । २ । ४० । भषः परयोस्तथोर्धः स्यान्न तु दधातेः । ५५० ढो ढे 'लोपः ८ । ३ । १३ । ५५१ सहिवहोरोदवर्णस्य ६ । ३ । ११२ । अनयोरवर्णस्य श्रोत् स्याड्ढलोपे । 'उवोढ । ऊहे । वोढा । वक्ष्यति । अवाक्षीत, अवोढाम् श्रवाक्षुः । अवाक्षीः, अवोढम् अवोढ । श्रवाक्षम्, अवाव । श्रवाक्ष्म । श्रवोढ, अवक्षाताम् अवक्षत । श्रवोढा, अवक्षाथाम्, ववम् । श्रवक्षि, श्रववहि, श्रवक्ष्महि । श्रवक्ष्यत, अवक्ष्यत । इति भ्वादयः । " २- अथादादयः अद भक्षणे । १ । (‌जुग विधिसू‌त्रम्) | ५५२ अदिप्रभृतिभ्यः शपः २ । ४ । ७२ । १-ढस्य ढे परे लोप इत्यर्थः । २-उवह + थ (ल् ) यस्य घरवे हस्य । ३ – वोढा - 'वह' 'वह ता' इति • 'हो ढः' इति ढस्वम्, ष्टुत्वेन धस्यापि त्वम् शेषं मूले स्पष्टम् घातोलुटि लस्य तिपि तस्य डादेशे शपोऽपवादे तास् प्रत्यये स्थितौ 'होठ :' इति हकारस्य ढकारे 'झषस्तथोर्धोऽधः' इति तकारस्य धकारे तस्य तुलना ढकारे 'ढोढे लोपा' इति पूर्वढकारलोपे 'सहिवहोरोदवरणस्य' इति प्रकारस्य श्रोकारे सिध्यति रूपं 'वोढा' इति । ४ – अवाक्षीत्' - 'वह' धातोर्लुङि लस्य तिपि इकारलोप उटि मध्ये लौ, सिचि 'वद व्रजेति वृद्धौ तकारस्य ईटि 'प्रवाह स् ई त्' इति जाते 'होट: ' इति हस्य ढत्वे ‘षढोः कः सि' इति ढस्य करवे सकारस्य षत्वे 'प्रवासीत्' इति रूपम् । इति भ्यादयः । ५४६ - झष् से परे तकार, थकार को धकार होता है धा धातु को छोड़कर । ५५० -टकार का लोप होता है ढकार परे रहते । - ५५१ – सह, वह, धातु के प्रकार को श्रोकार होता है ढकार के लोप होने पर । इति भ्वादयः । अथ प्रदादयः ५५२ - श्रदादिगणपठित धातुओं से परे शप का लुक् होता है । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकोमुद्याम् लुक् स्यात् । अन्ति । अतः । श्रदन्ति । अत्सि । श्रत्थः । श्रत्थ । अनि । श्रंद्वः । अद्मः । "धस्तु' आदेश विधिसूत्रम्) ५५३ लिट्यन्यतरस्याम् २ । ४ । ४० । १४६ स्याल्लिटि । जघास । उपधालोपः । ५५४ शासि वसि - घसीना च ८ । ३ । ६० । वा प्रत्न 'आदर्श इराकुभ्यां परस्यैषां सस्य षः स्यात । घस्य चर्व्वम् । जक्षतुः । जच्छुः । जयसि । जतथुः । जक्ष । जघास जघस । जक्षिव । जक्षिम । " श्राद | श्रादतुः ' आदुः। ('इट् आगमविधिसू‌त्रम्) ५५५ इंडत्यतिव्ययतीनाम् ७ । २ । ६६ । जाता ढलता श्रद् ऋ व्यञ एभ्यस्थलो नित्यमिट् स्यात, आदिथ । अत्ता । अत्स्यति । अन्त ु, अत्तात । अत्ताम् । अदन्तु धि' ५५६ हुम्यो हेर्धिः ६ ४ । आदेश विधिसूत्रा) १०१ । १- अदन्ति - 'प्रद्' धातोर्लंट लस्य भौ भेरन्तादेशे 'कर्तरि शप्' इति शपि तस्य 'आदिप्रभृतिभ्यः शपः' इति लुकि, सिध्यति रूपम् ' प्रदन्ति' इति २-जघास - 'प्रद्' धातोः लिटि तिपि गलि 'लिटयन्यतरस्याम्' इति प्रदो 'घस्लृ' प्रादेशे 'बस् न' इति स्थितौ द्वित्वेऽभ्याससंज्ञायां हलादिशेषे 'कुहोश्तु' रिति धकारस्य झल्वे 'प्रम्यासे वच' इति झस्य जत्वे 'प्रत उपधायाः' इति उपधावृद्धौ सिध्यति रूपं 'जघास' इति । ३जक्षतु:- 'श्रद्' घातोर्लिटि तसोऽतुसि प्रो 'घस्लृ' प्रादेशे द्वित्वेऽभ्यासकार्ये 'ज घस्चतुस्' इति स्थिती 'गम-हने' ति उपधालोपे 'खरि चे' ति घस्य कत्वे 'शासिवसिघसीनां च' इति मस्य पत्वे कषसंयोगे 'क्षः' प्रतुसः सकारस्य रुत्वे विसर्गे च सिर्ध्यात रूपं 'चतुः' इति । ४-घस' इत्यस्य तासि प्रयोगाभावात् 'उपदेशेऽत्वत:' इति निषेधाभावेन काविनियमात ( क्राद्यन्यो लिटि सेट् भवेदित्युक्तः) नित्यमिट् । ५- 'घस्ट' प्रादेशाभावपक्षे पाणि । ५५३ - श्रद् धातु को घस्लृ आदेश होता है विकल्प से लिट् परे रहते । ५५४ - इण् कवर्ग से परे शास वस और घस् धातु के स कोष होता है । ५५५ - श्रद्, ऋऋ और व्येञ् धातुश्री से परे थल को नित्य इट् होता है । ५५६ - ह धातु और फलन्त धातु से परे हि को धि प्रदेश होता है । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते श्रदादयः १४७ होलन्तेभ्यश्च हेधिः स्यात् । अद्धि, अत्तात् । श्रत्तम् । अत । श्रदानि । श्रदाब | अदाम । (आर' आगमविधिसूत्रम्) ५५७ श्रदः सर्वेषाम् ७ । ३ । १०० । श्रदः परस्थापृक्त सार्वधातुकस्य ट् स्यात् सर्वमतेन । दत् त्ताम्, श्रदन् । श्रदः, श्रात्तम्, आत्त । आदम्, आद्व, श्रद्म । द्यात् । श्रद्याताम् । अद्युः । श्रद्यात् | अद्यास्ताम् । श्रद्यासुः घस्लृ आदेश निधिसुराम्) ५५८ लुङनोर्घस्लृ २ । ४ । ३७ । " दो-घस्लृ स्याल्लुङि सनि च । लुदित्त्वादङ् । 'अघसत् । आत्स्यत् । हन हिंसागत्योः 1 २ । हन्ति (अनुनासिकलोमविधिसूत्रम्) ५५६ अनुदात्तोपदेश-वनति - तनोत्यादीनामनुनासिकलोपो झति क्ङिति ६ । ४ । ३७ । अनुनासिकान्तानामेषां वनतेश्व लोपः स्याज्झलादौ किति ङिति परे । यमि-रमि-नमि- गमि हनि- 'मन्यतयोऽनुदात्तोपदेशाः । तनु-क्षरणु-क्षिणु-ऋणुतृणु-वृणु-वनु-मनु-तनोत्यादयः । हतः । घ्नन्ति । हंसि । हथः । हथ । हन्मि । हन्वः । हन्मः । जघान । "जघ्नतुः । जघ्नुः । と १ - अघसत् - प्रद्' धातोर्लुङि तिपोकारलोपे 'लुङ्सनोर्घस्लृ' इति 'घस्लृ' प्रादेशेटि ' घस् ' इति स्थिते मध्ये च्लौ 'पुषावी' ति चलेरङि सिध्यति रूपम् 'अघसत्' इति । २ - षङ्घातवः । ३ - घ्नन्ति - ' हन्' धातोर्लटि प्रथमपुरुषबहुवचने भि फेरन्तादेशे 'हन् श्रत' इति स्थितौ शपि शपो लुकि 'गम-हने'ति उपधालोपे होहन्ते- ऽिन्नेषु' इति हय घत्वे सिध्यति रूपं 'घ्नति' इति । ४- जघान - लिटि द्वित्वे हलादिशेषे 'हहन् + अ ' श्रभ्यासस्य 'कुहोश्चुः' इति चुत्वम् । 'हो हन्ते....' इति हस्य धत्वम् । 'श्रत उपधानाः' इति वृद्धिः । ५ 'गमहन...' इति उपधालोपः । नकारे परे 'हो हन्ते...' इति घत्वम् । ५५७ - श्रद् धातु से परे पृक्त सार्वधातुक को डागम होता है सब श्राचार्यो मत में । ५५८-श्रद् को स्लृ देश होता है लुङ् और सन परे रहते । ५५६ - अनुनासिकान्त अनुदात्तोपदेश धातु तथा तनोत्यादि धातु के अनुनासिक का लोप होता है झलादि कित् ङित् परे रहते । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् 'लुल'आरेा निधिसूत्रार) १६० अभ्यासाच ७ । ३ । ५५ । अभ्यासात् परस्य हन्तेर्हस्य कुत्वं स्यात् । जघनिथ, जघन्थ । जघ्नथुः । नघ्न । जघान, जघन । जनिव । जनिम । हन्ता। 'हनिष्यति । हन्तु, हतात् । हताम् । घ्नन्तुज'आरेशनिधिसूत्रा) ५६१ हन्तेर्जः ६ । ४ । ३६ । हौ परे। (अभिडातिदेश सूना) ५६२ प्रसिद्धवदत्रामात् ६ । ४ । २२ । इत ऊर्ध्वमापादसमाप्तेराभीयं समानाश्रये तस्मिन्कर्तव्ये तदसिद्धम् । इति जस्यासिद्धत्वान्न हेलृक् । 'जहि । हतात् । हतम् । हत । हनानि । हनाव । हनाम। "अहन् अहताम्, अनन् । अहन्, अहतम् , अहत । अहनम् , अहन्व, अहन्म । हन्यात् । आर्यधालु अधिकारसूत्रम्) ५६३ आघधातुके २।४ । ३५ । इत्यधिकृत्य । (मिथ' आरेशनिधिसूनाम) ५६४.हनो वध लिडि २।४।४२ । (ध'आदेता विविध ५६५ लुङि च २।४।४३ । -'ऋद्धनोः स्ये' इति 'इट' । २-भाभीये। ३-पूर्वकृतम् प्रामीयम । ४-जहि'हन्' धातोलोटि सिपि ' सेापिञ्च' इलि सेहि, 'हन्ते जः' इति जादेशे 'प्रतो है.' इति हेलक प्राप्तः 'प्रसिद्धवदत्राभात्' इति जस्यासिद्धत्वात् हेनं लक, सिध्यति रूपं 'जहि' इति । -अत्र 'हलक्यान्भ्य' इति तिपस्तकारस्य लोपः। ५६०-अभ्यास से परे हन् धातु के हकार को कुत्व होता है। ५६१-हन धातु के स्थान पर जकारादेश होता है हि परे रहते । ५६२-'असिद्धवदत्राभात्' सूत्र से लेकर षष्ठाध्याय के चतुर्थ पाद तक अाभीय कहलाते हैं । समानाश्रय अाभीय करने में पूर्वकृत भाभीय असिद्ध होता है। ५६३-'आर्धधातुके' यह अधिकार सूत्र है। ५६४-हन् धातु को वध आदेश होता है लिक परे रहते । ५६५-इन् धातु को वा आदेश होता है लुरु परे रहते। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते दादयः वधादेशो ऽदन्तः । श्रार्धधातुके इति विषयसप्तमी । तेनार्धधातुकोपदेशेSarरान्तत्वादतो लोपः । वध्यात् । वध्यास्ताम् । 'अवधीत् । ग्रहनिष्यत् । यु मिश्रणामिश्रणयोः | ३ |८ वृद्धि - विधिसूत्रत) ५६६ उतो वृद्धिल कि हलि ७ | ३ | ३ | लुग्विषये तो वृद्धिः पिनि हलादौ सार्वधातुके नत्वभ्यस्तस्य । यौति, युतः, युवन्ति । यपि, युधः, युध । यौमि, युवः, युमः । युयाव । यविता । यविष्यति । यतु, तात ! प्रयोत् । अयुताम्। युवन् । युयात् । इह उतो वृद्धिर्न । भाष्ये 'पिच्च ङिन्न' 'ङिच्च पिन्न' इति व्याख्यानात् । युयाताम् । युयुः । उग्रूयात् । रायास्ताम् । ययासुः । श्रयावीत् । यविष्यत् । या " प्रापणे । ४ । याति । यातः । यान्ति । ययौ । याता । यास्यति । यातु । अयात् । ( अयाताम् । इस आदेश विधिसूत्रम् ] ५६७ लङः शाकटायनस्यैव ३ | ४ | १११ | 2 श्रादन्तात् परस्य लङो झेर्जुस वा स्यात । अयुः, अयान् । यायात । १- श्रवधीत - हन्' धातोः लुङि तिपीकारलीपेऽटि 'लुङि च' इति हनो वषादेशे मध्ये ब्लौ सिचि इटि ईटि 'इट ईटि' इति सकारलोपे 'अ वध ई त्' इति स्थितौ 'श्रतो लोपः' इति काराकारस्य लोपे सिध्यति रूपम् 'अवघीत' इति । २- यामुटो ङित्त्वात् । तन्न पि, साक्षादुक्तेन ङित्वेनाऽऽतिदेशिकस्य पित्त्वस्य बाधात् । ३० श्राशीलिङि 'प्रकृत्-पार्वधातुकयोः' इति दीर्घः । ४ - अयावीत - 'यु' धातोलुंङि तिपि इकारलोपे ऽडागमे ' युत्' इति स्थितौ मध्ये चलौ, च्लेः सिचि इटि, ईटि 'इट ईटि' इति सिचो लोपे 'सिनि वृद्धिः परस्मैपदेषु' इति वृद्धौ श्रावादेशे सिध्यति रूपम श्रयाबीत्' इति । ५ - गम से प्रसिद्धः । ६ - 'प्रात श्रौ गलः' इति गल श्रौत्वम् - ययौ, ययतुः, ययुः । ययिथ-ययाथ, ययथुः इत्यादि । ७ - अयु: - 'या' धातोलुङि प्रथमपुरुषबहुवचने लस्य झि: 'लङः शान टायनस्यैव' इति वैकल्पिके जुसादेशे शपि लुकि अडागमे 'प्रया उस्' इति स्थिते 'उस्यपदान्तात्' इति पररूपे सस्य रुत्वे विसर्गे सिध्यति रूपम् 'श्रयुः ' इति । जुसादेशाभावः झस्यान्तादेशे इतश्चेति इकारलोपे तकारलोपे दीर्घे 'प्रयान्' इति । १४६ ५६६-लुक् के वेषय में उकार को वृद्धि होती है हलादि पित् सार्वधातुक परे रहते अभ्यस्त को नहीं । ५६७ - श्रादन्तातु से परे लङ् की झि को जुस् होता है विकल्प से । 、 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् यायाताम् । यायुः । यायात् । यायास्ताम् । यायासुः । 'अयासीत् । श्रयास्यत् । वा ' गतिगन्धनयोः | ५ | भा दीप्तौ । ६ । ष्णा शौचे । ७ । श्रा पाके । ८ । द्रा कुत्सायां गतौ । ६ । प्सा भक्षणे । १० । रा दाने । ११ । ला आदाने । १२ । दाप् लवने | १३ | पा रक्षणे | १४ | ख्या प्रकथने । १५ । अयं सार्वधातुक एव प्रयोक्तव्यः । विदज्ञाने । १६ लादि - आदेश विधिसू‌र‌म् ) ५६८ विदो लटो वा ३ । ४ । ८३ । वेत्त लेटः परस्मैपदानां गलादयो वा स्युः । वेद, विदतुः विदुः । वेत्थ, विदथुः, विद । वेद, विद्व, विद्म । पक्षे वेत्ति वित्तः । विदन्ति । 'आम' विधिसूत्रम ५६६ उष-विद - जागृभ्योऽन्यतरस्याम् ३ । १ । ३६ । अभ्यो लिटि श्रम् वा स्यात् । विदेरदन्तत्वप्रतिज्ञानादामि न गुणः । ४ विदाञ्चकार । "विवेद । 'वेदिता । वेदिष्यति । 1 १ - प्रयासीत - 'या' धातोः लुङि तिपि इकारलोपेऽडागमे मध्ये चलौ, च्लेः सिचि 'यमरमनमातां सक् च' इति सूत्रेण सकि सिच इटि तकारस्य ईटि ' या स् इस् ई त् इति स्थितौ 'इट ईटि' इति सिचो लोपे सवर्णदीर्घे सिध्यति रूपम् 'अयासीत्' इति । २-वाति । ववौ । भाति । बभौ । स्नाति । सस्नौ । श्राति । शश्रौ । द्राति । दद्रौ । साति । पप्सौ । राति । ररौ । लाति । ललौ । दाति । ददौ । पाति । पपौ । ख्याति । सर्वत्र लुङि 'यमरमनमातां सक्च' इति इट्सकौ, प्रवासीत्, प्रवासिष्टाम् श्रवासिषुः । इत्यादिरूपाणि ज्ञेयानि । 'स्ना श्राद्रा- प्सा एषां चतुर्णाम् श्राशीर्लिङि 'वान्यस्य संयोगादेः' इति विकल्पेन एवम् स्नेयात्, स्नायात् । श्रेयात् श्रायात् । यात्, द्रायात् । सेयात्, प्सायात् । इत्यादि । ३- लघूपधत्वाभावान्न गुणः । ४ - विदाञ्चकार - 'विद्' धातोः लिटि 'उषविदजागृभ्योऽन्यतरस्याम्' इत्यनेनामि तस्याच घातकत्वेऽपि विदेरदन्तत्त्वप्रतिज्ञानात 'पुगन्ते' ति गुणेन, 'भ्रामः' इति लिटो लुकि 'कृचानुप्रयोगस्य' इति लिटपरकृञो ऽनुप्रयोगे 'विदाम् ' इत्यतः लिटस्तिपि खलि 'कु' इत्यस्य द्वित्वेऽभ्याससंज्ञायाम् 'उरत' इति प्रत्वे रपरत्वे ' हलादिशेषः' इति रेफस्य मोपेऽभ्यासस्य शत्रुत्वे 'प्रचोव्ािंति' इति वृद्धौ रपरत्वे मकारस्यानुस्वारें परसवर्णं च विदा चकार' इति सिध्यति । ५ - श्रामोऽभावपक्षे रूपम् । ६- अनिटकारिकासु तु श्यन्निर्देशेन सत्तार्थकस्य दिवादेविदो ग्रहणं, तनाऽय सेट् । " ५६८ - विद धातु से परे लट् सम्बन्धी परस्मैपद को पलादि आदेश विकल्प से होते हैं । ५६६-उष्, विद् जागृ धातु से परे श्राम् होता है विकल्प से लिट् परे रहते । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते अदादयः ५७० विदाकुर्वन्त्वित्यन्यतरस्याम् ३।१ । ४१ । वेत्तेोटि आम् गुणाभावो लोटो लुक् लोडन्त-करोत्यनुप्रयोगश्च वा निपात्यते। 'पुरुषवचने न विवक्षिते । ५७१ तनादिकृअभ्य उः ३ । १ । ७६ । तनादेः कृत्रश्च उः प्रत्ययः स्यात । शपोऽपवादः विदाकरोतु । ५७२ अत उत् सावधातुके ६ । ४ । ११० । उप्रत्ययान्तस्य कृतोऽत, उत, सार्वधातुके किङति । विदाकुरुतात् । विदाङकुरुताम् । विदाकुर्वन्तु । विदाङ्कुरु । विदाङ्करवाणि । अवेत । अवित्ताम् । अविदुः । ५७३ दश्च ८।२। ७५। धातोर्दस्य पदान्तस्य सिपि परे रुर्वा । अवः, अवेत् । विद्यात् । विद्यास्ताम् । अवेदीत. । अवेदिष्यत । अस "भुवि । १७.। अस्ति । १-प्रथमपुरुषो बहुवचनं च न विवक्षितमित्यर्थः, 'इति' शब्दोपादानात् । सर्वस्मिन्नपि लोटि उक्तनिपातनमिति भावः । २-विदाङ्करोतु-'विद्' धातोर्लोटि 'विदाङ्कुर्वन्वित्यन्यतरस्याम' इति सूत्रेण विदेरामि गुणाभावे लोटो लुकि लोटपरककृनोजुप्रयोगे च लोटो लस्थ तिपि तस्य सावंधातुकत्वात् शपि प्राप्तेतं बाधित्वा 'तनादिकृतम्य उः' इति 'उ' विकणे विदाम कृ उ ति इति स्थितौ 'सार्वधातुकाधंधातुकयो' रिति गुणे पुनस्तिपं 'निमिनीकृत्य उकारस्य गुणे तिप इकारस्य च 'एरुः' इति उत्त्वे मकारस्यानुस्वारे परसवणे च सिध्यति रूपं 'विदाङ्करोतु' इति तातङपक्षे 'प्रत उत्सार्वधातुकें' इति ककाराकारस्य रत्वे 'विदाङकुरुतात्' इति (पक्षे 'वेत्तु' इति च सिध्यति)। ३-'उतश्च' इति हेर्लुक् । ४-'सि नभ्यस्तविदिभ्यश्च' इति झर्जुस् । ५-सत्तायामित्यर्थः । ५७०-विद् से आम होता है लोट परे रहते तथा गुण का अभाव और लोट का लुक होता है और लोटपरक कृ धातु का अनुप्रयोग होता है विकल्प से ५७१-तनादि धातु और कुन धातु से परे उ-प्रत्यय होता है । ५७२-उ-प्रत्ययान्त कृत्र धातु के अ को उ. होता है सार्वधातुक कित् डित परे रहते। ५७३-धातु के पदान्त दकार को विकल्प से रु होता है सिप परे रहते। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૧૨ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ५७४ श्नसोरल्लोपः ६ । ४ । १११ । श्नस्यास्तेश्चातो लोपः सार्वधातुके किङति । 'स्तः । सन्ति । असि । स्थः । स्थ । अस्मि । स्वः । स्मः। ५७५ उपसर्गप्रादुामस्तिर्यच्परः ८।३ । ८७ । उपसर्गेणः प्रादुसश्चास्तेः सस्य षो यकारेऽचि च परे। निष्यात । प्रनिषन्ति । प्रादुःषन्ति । यच्परः किम्-अभिस्तः । ५७६ अस्तेभूः २ । ४ । ५२ । आर्धधातुके । बभूव । भविता । भविष्यति । अस्तु, स्तात । स्ताम् । सन्तु । ५७७ ध्वसोरेद्धावभ्यासलोपश्च ६ । ४ । ११६ ।। घोरस्तेश्च एत्वं स्यात् हौ परे अभ्यासलोपश्च । एत्वस्यासिद्धत्वाद्धेर्षिः। श्नसोरित्यल्लोपः। तातङ्पक्षे एत्वं न, परेण तातङा बाधात्। "एधि, स्तात्। स्तम् । स्त । असानि । असाव । असाम । आसीत् । प्रास्ताम् । आसन् । १-स्तः -'प्रस्' धातोर्लटि प्रथमपुरुषद्विवचने तसि शपो लुकि 'प्रस् तस्' इति स्थिते 'सार्वधातुकमपित्' इति तसो ङित्वात् 'श्नसोरल्लोपः' इति अस्तेरकारस्य लोपे तसः सस्य रुत्वे विसर्गे च सिध्यति रूपं 'स्तः' इति । २-अभि-स्तः। ३-सर्वत्र पाधधातुके (लिट-लुट-लुट-प्राशीर्लिङ लुङ -लुङ क्षु ) अस्तेभू भावः । बभूव, इत्यादय एवं प्रयोग इत्यर्थः । ४-पाभीयत्वेनेति शेषः। ५-एधि-'प्रस्' धातोर्लोटि सिपि शपो सुकि 'से पिच्च' इति से हि प्रादेशे 'ध्वसोरेखावभ्यासलोपश्च' इति अस्तेः सस्य एत्वम् 'म ए हि' इति जाते एत्वस्यासिदत्वात् 'हुझल्म्यो हेधिः' इति हेधिं श्रादेशे प्रपिच्चेत्युक्तः 'सार्वधातुकमपित्' इति । ङित्वेन 'श्नसोरल्लोप:' अकारलोपे सिध्यति रूपम् ‘एघि' इति ! -आसीत-प्रस' धातोङि प्रथमपुरुषैकवचने तिपीक रलोपे शपो लुकि पाटि 'पाटश्च' इति वृद्धौ ‘प्रास् त' इति जाते 'प्रस्तिसिचोऽपृक्ते' इति तकारस्य ईटि सिध्यति रूपम् 'मासीत्' इति। ५७४-श्न और अस्ति के अकार का लोप होता है सार्वधातुक कित् ङित् परे रहते। ५७५-उपसर्ग इण से परे और प्रादुस से परे अस्ति के स को ष होता है यकार और अच परे रहते। ५७६-अस धातु को भू अादेश होता है प्राधंधातुक परे रहते । ५७७-वुसंज्ञक और अस धातु को एत्व और अभ्यास का लोप होता है हि परे रहते । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते अदादयः १५३ स्यात् । स्याताम् । म्युः। भूयात । अभूत , अभविष्यत । इण गतौ । १८ । पति । इतः। ५७८ इणो यण ६ । ४ । ८१ । अजादौ प्रत्यये परे । यन्ति। ५७६ अभ्यासस्याऽसवर्णे ६ । ४ । ७८ | इवर्णोवर्णयोरियङवङोस्तोऽसवर्णेऽचि । 'इयाय । ५८० दीर्घ इणः किति ७ । ४ । ६६ । इणोऽभ्यासस्य दीर्घः स्यात किति लिटि । २ईयतुः। ईयुः । इययिथ इयेथ । एष्यति । एतु । ऐत । ऐताम् । 'आयन् । "इयात । ईयात । ५८१ एतेलिङि ७ । ४ । २४ । उपसर्गात् परस्य इणोऽणो ह्रस्व आर्धधातुके किति लिङि । निरियात । उभयत आश्रयणे नान्तादिवत् । अभीयात् । अणः किम्-'समेयात् ।। १-इ-इ+प्र, वृद्धो, मायादेशे, अभ्यासस्य ‘इयङ्'। २-ईयतुः-'इरए' धातोलिटि तसोऽतुसि द्वित्वे 'इ इ प्रतुस्' इति स्थितौ 'इणो यण' इति यणि 'दीर्घ इणः किति' इति सूत्रेणाभ्यासस्या दीर्घ सस्य रुत्वे विसर्गे च सिध्यति रूपम् 'ईयतुः' इति । ३थलि वेट , उभयत्रापि गुणः, अभ्यासस्य ‘इयङ्' । ४-६+अन् । इणो यण' इति यण, तस्याभीयत्वेनाऽसिद्धत्वादाट । प्रायन । ऐः, ऐतम् ऐत । प्रायम्, ऐव, ऐम। ५-इयात् इयाताम्, इत्यादि । ६-'प्रकृस्सार्व...' इति दीर्घः । ७-पत्र सवर्णदीर्घस्य पूर्वान्तवभाव-इणोऽण नास्ति, परादिवभावे उपसर्गस्वरूपं भज्येत, उभयत माश्रयणे च मान्तादिवभाव इति न ह्रस्वः। -सम्+मा+ईयात गुणे कृते 'समेयात्' इत्यत्र एकारोऽए नास्तीति न ह्रस्वः । ५७८-इण धातु को यण होता है अजादि प्रत्यय परे रहते । ५७६-अभ्यास के इवर्ण उवर्ण को इयङ उवङ आदेश होते हैं। असवर्ण अच परे रहते। ५८०-इण धातु के अभ्यास को दोघं होता है कित् लिट् परे रहते। ५८२-उपसर्ग से परे इण धातु सम्बन्धी श्रण को हरू होता है आर्धधातुक कित् लिट् परे रहते। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम ५८२ इणो गा लुङि २।४ । ४५ । गातिस्थेति सिचो लुक् । 'अगात । ऐष्यत । शीङ स्वप्ने । १६ । ५८३ शीङः सार्वधातुके गुणः ७ । ४ । २१ । क्ङिति चेत्यस्यापवादः । शेते। शयाते । ५८४ शीडो रुट ७।१ । ७। शीङः परस्य झादेशस्यातो रुडागमः स्यात् । शेरते । शेषे ! शयाथे । शेध्वे। शये । शेवहे । शेमहे । शिश्ये। शिश्याते। शिश्यिरे। शयिता। शयिष्यते । शेताम् । शयाताम् । शेरताम् । अशेत । अशयाताम् । अशेरत । शयीत । शयीयाताम् । शयीरन् । 'शयिषीष्ट । अशयिष्ट । अशयिष्यत् । इङ् अध्ययने । २० । 'इङिकावध्युपसर्गतो न व्यभिचरतः। अधीते । 'अधीयाते। अधीयते। १-प्रगाताम, प्रगुः इत्यादि। २-शेरते-'शोङ्' धातोलिटि प्रथमपुरुषबहुवचने झादेशे शपो लुकि 'शीङ : सार्वधातुके गुणः' इति गुणे 'पात्मनेपदेष्वनतः' इति झस्य 'मत' प्रादेशे 'टित प्रात्मनेपदानां टेरे' इति टेरेत्वे 'शे प्रते' इति जाते 'शोडो रूट' इति रुडागमे सिध्यति रूपं 'शेरते' इति । ३-शयिषीष्ट-शोङ' धातोराशीलिंङि प्रथमपुरुषैकवचने लस्य तादेशे 'लिङः सोयुट्' इति सोयुटि तस्य इटि 'सुट् तियोः' इति तकारस्य सुडागमे 'शी ई सीय स्त' इति स्थितौ 'गुणेऽयादेशे सीयुटः सस्य षत्वे तकारस्य ष्टुत्वे सिध्यति रूपं 'शयिषीष्ट' इति । ४-अशयिष्ट-'शी धातोखंडि तादेशेऽडागमे च्लो, च्ले: सिचि अनुवन्धलोपे ईटि च 'म शी ईस् त' इति स्थिते गुणे यादेशे सिचः सस्य षत्वे ष्टुत्वे च सिद्ध रूपम् 'प्रशयिष्ट' इति । ५-इङ् मध्ययने, ईक् स्मरणे, इति धातुद्वयम् ‘अधि' उपसगपूर्वकमेव प्रयुज्यते सर्वत्रेत्यर्थः । ५-अधीयाते-'अधि' पूर्वकात् 'ईङ' धातोर्लटि प्रथमपुरुषद्विवचने लस्यातामादेशे टेरेल्वे शपो लुकि 'प्रधि इ प्रति' इति स्थिते इकारस्य 'इडि' सवर्णदीर्घ 'प्रधीयाते' इति ।। ( वार्तिक-उभयत श्राश्रयण में अन्तादिवद्भाव नहीं होता । ) ५८२-इण, धातु को गा आदेश होता है लुङ परे रहते। ५८३-शीङ् धातु को गुण होता है सार्वधातुक परे रहते। ५८४-शीङ् धातु से परे झ-स्थानिक आदेश अ को रुट का आगम होता है। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ तिन्ङते अदादयः ५८५ गाङ-लिटे २। ४ । ४६ । इङो गाङ् स्याल्लिटि। 'अधिजगे । अधिजगाते। अधिजगिरे । अध्येता। अध्यष्यते । अधीताम् । अधीयाताम् । अधीयताम् । अधीष्व, अधीयाथाम् , अधीध्वम् । अध्ययै, अध्ययावहै, अध्ययामहै । अध्येत, अध्ययाताम् , अध्यैत । अध्यैथाः, अायैयाथाम्, अध्यध्वम् , अध्यैयि, अध्यैवहि, अध्यैमहि । अधीयीत । अधीयोयानाम् । अधीयीरन् । अध्यषीष्ट । ५८६ विभाषा लङ्लुङोः २ । ४ । ५० । इङो गाङ् वा स्यात् । ५८७ गाङ कुटादिभ्योऽञ्णिन्ङित् १ । २ । १ । गाङादेशात कुटादिभ्यश्च परेऽञ्णितः प्रत्यया ङितः स्युः। ५८८ घु-मा-स्था-गा-पा-जहाति-सां हलि ६ । ४ । ६६ । एषामात ईत् स्याइलादौ विङत्यार्धधातुके । 'अध्यगीष्ट । अध्यैष्ट। अध्य १-अधिजगे-अधिपूर्वकात् 'इङ्' धातो लिटि लस्य तादेशे 'एशि' 'गाङ लिटि' इति धातोः 'गाङ् प्रादेशं 'अधि. गाए' इति स्थिते 'गा' इत्यस्य द्वित्वेऽभ्यासत्वे ह्रस्वे 'कुहोश्चुः' इति सत्वे 'प्रातो लोप ईटि च' इति प्राकारलोपे 'अधिजगे' इति रूपम् । २-अव्ययै-अधि + इ+३ ( प्रा+ ई-ए-ऐ अधि-ई+ऐ, पत्र गुणाऽयादेशयोः कृतयोरुपस गंस्य यण । अत्र यद्यपि पूर्व धातुरुपसर्गेण युज्यते इत्यन्तरङ्गत्वाद् गुणात्पूर्व सवर्णदीर्घः प्राप्तः तथापि 'णेरध्ययने वृत्तम्' इति निर्देशान्न भवति, इदम्-एकदेशिपक्षे। 'पूर्व धातुः साधनेन युज्यते पश्चादुपसर्गेण' इति सिद्धान्तपक्षे तु नास्त्येव दोषः । ३-परात्पूर्वम् इयङ , तत पाट ततो वृद्धि ः ४-अध्यगीष्टअध्येष्ट-अधिपूर्वकात् 'इङ्' धातोङि लस्य तादेशे 'विभाषा-लुङ्लुङोः' इति इडो वा गाडादेशेऽडागमे परिण मध्ये च्लौ, तस्य सिचि अनुबन्धलोपे 'म गा स् त' इति जाते 'गाङ कुटादिभ्यः' इति सिचो डित्वे 'घुमा-स्थेति सूत्रेणाकारस्य इत्वे सस्य ५८५ इङ धातु को गाङ आदेश होता है लिट् परे रहते । ५८६-इङ धातु को गाङ आदेश होता है विकल्प से लुङलुङ परे रहते । ५८७- गाङदेश औ: कुटादि से परे भित् णित् से भिन्न प्रत्यम् द्वित् होता है । ५८८-धुसंज्ञक, मा, त्या गा, पा, हा, और षोऽन्तकर्मणि धातुके आकार लो ईकार होता है हलादि कित , ङित , श्रावधातुक परे रहते । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौनधान गीष्यत । अध्यै प्यत । दुह प्रपूरणे । २१ । दोग्धि । दुग्धः । दुहन्ति । 'धोक्षि। दुग्धे । दुहाते । दुहते । धुक्षे। दुहाथे । धुग्ध्वे । दुहे । दुह्वहे दुह्महे । दुहोह । दुदुहे । दोग्धा । धोक्ष्यति । धोक्ष्यते । दोग्धु, दुग्धात्। दुग्धाम् । दुहन्तु । दुग्धि, दुग्धात् । दुग्धम् । दुग्ध । दोहानि । दोहाव । दोहाम । दुग्धाम् । दुहाताम् । दुहताम् ।धुत्व । दुहाथाम् । धुरध्वम् ।दोहै ।दोहावहै । दोहामहै। 'अधोक् । अदुग्धाम् । अदुहन् । अदोहम् । अदुग्ध । अदुहाताम् । अदुहत । अधुरध्वम् । दुह्यात । दुहीत ।। ५८६ लिसिचावात्मनेपदेषु १ । २ । ११ । इक्समीपाद्धलः परौ झलादी लिङ्सिचौ कितौ स्तस्तङि ‘धुक्षीष्ट । ५६० शल इगुपधादनिटः क्सः ३ । १ । ४५ । इगुपधो यः शलन्तस्तस्मादनिटश्च्लेः क्सादेशः स्यात्' । अधुक्षत । ५६१ लुग्वा दुह-दिह-लिह-गुहामात्मनेपदे दन्त्य ७ । ३ । ७३ । एषां क्सस्य लुग्वा स्याहन्त्ये तङि । अदुग्ध, अधुक्षत । पत्वे ष्टुत्वे सिध्यति रूपम् 'अध्यगीष्ट' पक्ष 'गा'-प्रादेशाभावे प्राटि वृद्धौ 'अधि ऐ स् त' इति स्थितौ यणि षत्वे-'प्रध्यैष्ट' इति रूपम् । १-धोशि-दुह+सि (प), गुणः 'दादेर्धातो....' इति हस्य घरवम् 'एकाचो बशो ..' इति दस्य धः । सस्य षत्वं कषसंयोगे क्षः। अधोक-'दुह' घातोर्लङि तिपि इकारलोपेऽटि शपो लुकि 'अ दुह त्' इति स्थितौ 'पुगन्ते' ति गुणे हल ङ्याबिति' तिप स्तकारलोपे 'प्रदोह' इत्यत्र 'दादेर्धातोघः इति हस्य घत्वे 'एकाचो बशो भष' इति दकारस्य धकारादेशे जश्त्वेन घस्य गकारे चत्वं 'अधोक्' इति रूपम् । ३-अधुक्षत् - 'दुह' धातोर्चुडि प्रथमपुरुषैकवचने लस्य तिबादेशेऽटि 'अ दुह त्' इति स्थिते च्लो, च्लेः 'शल इगुपधादनिटः क्स' इति क्सादेशेऽनुबन्धलोपे 'दादेर्धातोघः' इति हस्य घस्वे 'एकाचो...' इति दकारस्य धकारे धकारस्य जश्त्वेन गकारे तस्य चत्वेन ककारे सस्य षत्वे कषोः संयोगे 'मः' सिध्यति रूपम् 'अधुक्षत्' इति । ५७६-इक्समीप हल से झलादि लिङ -सिच् कित् होते हैं तङ परे रहते । ५६०-इगुपध शलन्त जो धातु उससे परे अनिट ग्लि को क्स आदेश होता है। ५६१-दुह, दिह, लिह और गुह धातु के क्स का लुक होता है विकल्प से दन्त्य प्रत्यय परे रहते। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते दादयः ५६२ क्सस्याचि ७ । ३ । ७२ । जादी तङ क्सस्य लोपः । (२१) अलोन्त्यस्येत्यकारलोपः । अधुक्षा १५७ 1 1 ताम् | अधुक्षन्त | अनुग्धाः, अधुक्षथाः, अधुक्षाथाम् । अधुग्ध्वम् । अधुक्षध्वम् । अधुक्ष । 'अहि, अधुक्षावहि । अधुक्षामहि । अधोत्पत । एवं दिह उपन्ये | २२ | हि आस्वादने | २३ | लेढि । लीढः । लिहन्ति । 'लेक्षि । लीढे | लिहाते । लिहते । लिने । लिहाथे । लीढ्वे । लिलेह । लिलिहे । लेढासि । लेढासे । लेच्यति । लेक्ष्यते । लेढु । लीढाम् । लिहन्तु । लीढि । लेहानि । लीढाम् । अलेट, अलेड | अलीढ । अलिक्षत्, अलिक्षत, अलीढ । अलेक्ष्यत् । ब्रूञ व्यक्तायां वाचि । २४ | ५६३ वः पञ्चानामादित आहो ब्रुवः ३ | ४ | ८ | ब्रुवो 'लटस्तिवादोनां पञ्चानां गलादयः पञ्च वा स्युवश्वाहादेशः । आह । श्राहतुः । आहुः । ५६४ ग्रहस्थ: : । २ । ६५ । झलि परे । चम् । आत्थ । आहथुः । feध्यति रूपं १ - लुङि श्रात्मनेपदे वहि' प्रत्यये 'क्से' अधुक्षावहि 'लुग्वा दुहदिह इति क्सस्य लुक्, पक्ष श्रदु ह । २ उपचयो वृद्धिः । ३- लीढः -- लिहू' धातोर्लट प्रथमपुरुषद्विवचने तसि पो लुकि 'लिह तस्' इति जाते 'होट:' इति हत्यत्वे 'झषस्तथोर्थोऽधः' इति तकारस्य धकारे तस्य ष्टुत्वेन ढकारे 'ढो लोपः' इति पूर्वढकारलोपे 'ठूलोपे पूर्वस्य दीर्घोर 1:' इति इकारस्य दीर्घे सस्य रुत्वे fast a 'लोट:' इति । ४–लिह् +1स (व्) गुणे, ढत्वे ' षढोः कः सि' इति सस्य पत्वे, :: ५ तिप् तस् झि-स्प्-िथस्, एषां पञ्चानां क्रमेण 'गल् अतुस् - उस् एते पञ्च आदेशाः स्युः । ६ - आह - 'ब्रञ' घातोर्लट तिपि शपो लुकि 'ब्रू ति' इति स्थितों 'ब्रुवः पञ्चानामादित ग्रहो ब्रुवः' इति तिपो गलादेशे ब्रुवश्वाहादेशे ऽनुबन्धलोपे सिध्यति रूपम 'श्राह' इति ७-यकारस्य तकारः । कन्प संयोगे थल- श्रथुम, ५६२क्स का लोप होता है अजादि तङ परे रहते । ५६३ - से होते हैं और तु ५६४ - आहू को थका से परे लन सम्बन्धी तिवादि पाँच गलादि पाँच को आदेश विकल्प देश होता है । को अन्तादेश होता है भालू परे रहते । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ५६५ ब्रुव ईट् ७ । ३ । ६३ । ब्रुवः परस्य हलादेः पित ईट स्यात् । ब्रवीति । श्रुतः । ब्रवन्ति । ब्रूते । ब्रुवाते । ब्रुवते । ५६६ ब्रुवो वचिः २ । ४ । ५३ । श्रार्धधातुके । ' उवाच । ऊचतुः । ऊचुः । उवचिथ, उवक्थ । ऊचे । वक्ता ! वक्ष्यति । वक्ष्यते । ब्रवीतु ब्रूतात् । ब्रुवन्तु । ब्रूहि । ब्रवाणि । ब्रूताम् । वै । श्रब्रवीत् । श्रब्रूत । ब्रुवीत । उच्यात् । वक्षीष्ट । ५६७ अस्यतिवक्ति- ख्यातिभ्योऽङ ३ । १ । ५५ । एभ्यंश्कलेरङ्गस्यात् । ५६८ वच उम् ७ । ४ । २० । श्रङि परे । श्रवोचत, श्रवोचत । श्रवक्ष्यत्, प्रवक्ष्यत । ( चर्करीतं च ) वर्करीतमिति यङ्लुगन्तं तददादौ बोध्यम् । ऊ आच्छादने । २५ । ५६६ ऊर्णोते विभाषा ७ । ३ । ६० । १- 'लिटयाभ्यसस्यो...' इति सम्प्रसारणम् । २ - ऊचतुः - 'ब्रून ' धातोर्लिटि तसि प्रतुसि 'ब्रुवो वचिः' इति ब्रुवो वचादेशे 'वच् प्रतुस्' इति जाते वच स्वपि यजादीनां किति' इति सम्प्रसारणे पूर्वरूपे 'उच्' इत्यस्य द्वित्वेऽभ्यासकार्ये सवर्णदीर्घे सस्य रुत्वे विसर्गे सिध्यति रूपम् 'ऊचतु:' इति । ३ - श्रवोचत -'बूम' धातोलुंङि तिपीकार लोपे ब्रुवो वच्चादेशे ऽडागमे 'अवच् तु' इति स्थिते मध्ये ब्लौ 'प्रस्यति - वक्ति- ख्याति - भ्योऽङ्' इति चलेर ढादेशे 'वच उम्' इति उमागमे गुणे च सिध्यति रूपम् 'प्रवोचत्' इति । ४- यङलुगन्तप्रक्रियायाम् प्रदादिगणकार्यम् = शब्लुगादिकं भवतीत्यर्थः । प्रत्रेदं बोध्यम् - प्राचीनानां चर्करीतमिति यङ्लुगन्तस्य संज्ञा । एवं एयन्तस्य 'कारितम्' इति । सन्नन्तस्य 'चिकीर्षितम्' इति । यन्तस्य 'चेक्रोतम्' इति । ५६५- ब्रूञ धातु से परे हलादि पित् को ईट का श्रागम होता है । ५६६-ब्रू धातु को वच् आदेश होता है श्रार्धधातुक के विषय में । ५६७ असू, वच् और ख्या धातु से परे चिल को श्रङ् श्रादेश होता है । ५६८-वच् को उन् का श्रागम होता है श्रृङ् परे रहते । ( वा० - यङ लुगन्त को श्रदादि में जानना चाहिए । ) ४६६ - धातु को विकल्प से वृद्धि होती है हलादि पित् सार्वधातुक परे रहते । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ तिङन्ते अदाटयः वा वृद्धिः स्याद्धलादौ पिति सार्वधातुके ऊर्णोति, ऊर्णोति । ऊर्णतः अणुवन्ति । ऊर्गुते। ऊर्युपाते। ऊर्युवते । (ऊर्णोतेराम् नेति 'वाच्यम्) ६०० न न्-द् राः संयोगादयः ६ । १ । ३ । अचः पराः संयोगादयो नदरा द्विर्न भवन्ति । 'नुशब्दस्य द्वित्वम् । ऊर्युनाव । ऊणु नुवतुः । ऊर्गुनुवुः।। ६०१ विभाषीर्णोः १ । २ । ३ । इडादिप्रत्ययो वा ङित् स्यात् । ऊर्जुनुविथ, ऊर्जुनविथ । उणु विता, ऊर्णविता । ऊर्ण विष्यति, ऊर्णविष्यति । ऊर्णोतु, ऊर्णोतु । ऊर्णवालि, ऊर्णवै । ६०२ गुणोऽपृक्ते ७ । ३।११। ऊर्णोतेर्गुणोऽपृक्ते हलादौ पिति सार्वधातुके "वृद्धयपवादः। और्णोत् । और्णोः । ऊर्णयात् । ऊर्गुयाः। ऊर्णावीत। ऊ'यात् । ऊर्ण विषीष्ट,ऊर्णविषीष्ट। ६०३ ऊोतेर्विभाषा ७ । २ । ६ । १-'इजादेश्च गुरु....' इति प्राप्तं निषिद्धयते । २-णत्वस्याऽसिद्धत्वादित्यनुसन्धेयम्, अत एव नोत्तरखण्डे णत्वश्रवणम् । सर्वत्र धातुषु रेफात्परस्य णकारस्य नकारस्थानिकरधमेव, तथैवोक्तम् नकारजावनुस्वारपञ्चमौ झलि धातुषु । सकारजश्शकारश्चेषट्टिवर्गस्तवगंजः ॥ ३-ऊणुनाव-' ऊन' धातोलिटि तिपि एलि 'प्रजादेद्वितीयस्ये' ति नियमन 'णु" शब्दस्य द्वित्वे प्राप्ते 'नन्द्रासंयोगादयः' इति रेफस्य द्विस्वनिषेधे णत्वस्य चासिद्धत्वात् 'नु' शब्दस्य द्वित्वे पूर्वनकारस्य 'रषास्थाम...' इति गत्वे 'ऊरनु प्र' इति जाते 'प्रचो निपति' इति वृद्धौ आवादेशे सिध्यति रूपम् 'ऊणुनाव' इति । ४-ङित्वपक्षे 'उवङ् •तदभावपक्षे गुणः । ५-निरवकाशत्वात् । (वा०-ऊणु धातु से अाम् प्रत्यय नहीं होता है )। ६००-अच् से परे संयोगादि न् द् र् को द्वित्व नहीं होता ! ६०१-ऊणुञ् धातु से इडादि प्रत्यय विकल्प से डिंत् होते हैं । ६०२-उणु धातु को गुण होता है अपृक्त हलादि पित सार्वधातुक परे रहते । ६०३-ऊणु धातु को विकल्प से वृद्धि होती है इडादि परस्मैपद सिचं परे रहते। इत्यदादयः । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् इडादौ परस्मैपदे परे सिचि वा वृद्धिः । पक्षे गुणः । 'और्णावीत, और्णवीत । श्रवीत । श्रर्णाविष्टाम् और्णविष्टाम्, श्रणु विष्टाम् । और्णविष्ट, औणु विष्ट । और्णविष्यत और्णु विष्यत । इत्यदादयः । - ३ - अथ जुहोत्यादयः १६० हु दानादनयोः | १ | ६०४ जुहोत्यादिभ्यः श्लुः २ । ४ । ७५ । शपः श्लुः स्यात 1 ६०५ श्लौ ६ । १ । १० । धातोर्द्वस्तः । जुहोति । जुहुतः । ६०६ अदभ्यस्तात् ७ । १ । ४ । झस्याऽत ्म स्यात् । ( ५०१) हुश्नुवोरिति यण् । जुह्वति । ६०७ भी ही भृ-हुवां श्लुवच्च ३ । १ । ३६ । एभ्यो लिटि आम् वा स्यादामि श्लाविव कार्य च । 'जुहवाञ्चकार, १ - श्रौर्णावीत - ऊणु'अ' धातोर्लुङि तिपि इकारलोपं प्राटि 'प्राटश्चे' ति वृद्धौ 'श्रण'त्' इति स्थिते मध्ये च्लौ तस्य सिचि इटि ईटि 'इट ईटि' इति सिज्लोपे सवर्णदीर्घे 'प्रणु ं ई' त' इति जाते ('विभाषोण? इति वैकल्पिके ङिस्त्रे गुरणाभावे उवङि 'औण वीत्') ङित्वाभावे गुणं बाधित्वा 'ऊणतिविभाषा' इति वा वृद्धौ श्रावादेशे 'प्रौर्णावीत्' इति पक्षे गुणेऽवादेशे 'औवीत' इति । इत्यदादयः । २- अभ्यासहकारस्य 'कु होश्चुः' इति चुत्वम् । ३- द्वित्वादि । ४-जुहवाञ्चकारश्रथ जुहोत्यादयः - जुहोत्यादिगणपठित धातुओं से परे शप् को श्लु ( लोप ) होता है । ६०५ धातु को द्वित्व होता है इलु होने पर । ६०६ अभ्यस्त से परे झ को त होता है ! ६०७ भी, ही, भृ और हु धातु से ग्राम् होता है विकल्प से लिट् परे रहते और आम् परे रहते धातु को श्लुवत् कार्यं होता है । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६॥ तिङन्ते जुहोत्यादयः 'जुहाव । होता। होष्यति । जुहोतु, जुहुतात् । जुहुताम् । जुह्वतु । 'जुहुधि । जुहवानि । अजुहोत् । अजुहुताम् । ६०८ जुसि च ७ । ३। ८३ । इगन्ताङ्गस्य गुणोऽजादौ जुसि । अजुहवुः । जुहुयात्। हूयात् । 'अहौषीत् । अहोष्यत् । अिभी भये २ । बिभेति । ६०६ भियोऽन्यतरस्याम् ६।४।११५ । इकारो वा स्याद्धलादौ ङिति सार्वधातुके । बिभीतः, बिभितः। बिभ्यति । 'विभयाञ्चकार, बेभाय । भेता। भेष्यति । बिभेतु, बिभितात् , बिभीतात् । 'अबिभेत् । बिभियात् , "बिभीयात् । भीयात् । अभैषीत् । अभेष्यत् । ही 'टु' धातोलिटि 'भी ही-भृ-हुवा इलुबच्च' इति वैकल्पिके आमि श्लुबद्भावे द्वित्वेऽभ्यासकार्य (हस्य झत्वे झस्य नश्वेन दत्वे) गुणेऽवादेशे 'आमः' इति लिटो लुकि पुनः लिटपककृत्रोऽनुप्रयोगश्च 'जुवाम् कृ ' इति स्थिते को द्वित्वेऽभ्याससंज्ञायाम् 'उरत्' इति अत्वे रपरत्वे हलादिशेषे 'कुहोश्चु' इति चुत्वे 'अचो गिति' इति वृद्धौ रपरत्वे मस्यानुस्वारे परसवर्णे सिध्यति रूप 'जुहवाञ्चकार' इति । आमोऽभावे च 'जुहाव' इति । १-आमोऽभा उपक्षे जुहाव, जुहुवतुः, जुहुवुः इत्यादि । २-'हुझल्भ्यो हेधिः' इति हेधिः । ३-अहौषीत्-'हु' धातोटुङि तिपीकारलोपेऽडागमे 'अ हु त्' इति जाते मध्ये लौ, च्ले: सिचि इनिषेधे तकारस्य इटि 'सिचि वृद्धिः परस्मैपदेषु' इति वृद्धौ सस्य पत्वे सिध्यति रूपम् 'महौषीत्' इति । अहोषीत् , अहौष्टाम् अहौषुः । अहौषीः, अहौष्टम् , अहौष्ट । अहौषम् , अहौष्व, अहोष्म । ४-'भीहीभृहुवा...' इति सूत्रेणाऽऽम् श्लाविव कार्य च । ५-बिभीतात्-'भी' धातोलोटि तिपि शपः श्लौ द्वित्वेऽभ्यासस्य ह्रस्वे 'अभ्यासे चर्च' इति भस्य बत्वे 'एरुः' इति तिप इकारस्योत्वे 'तुह्योस्ताताशिष्यन्यतरस्याम्' इति तातङादेशे 'भियोन्यत रस्याम्' इति दीर्घईकारस्य पाक्षिके ह्वस्वे इकारे 'बिभितात्' इति, पक्षे 'बिभीतात्' तातडमावे च गुणे कृते 'विभेतु' इति रूपम् । ६-अबिभिताम्-अबिभी. ताम् , अबिभयुः ('ज से च' इति गुणः)। अबिभेः, अबिभितम्-अबिभीतम् , अबिभितअबिभीत । अबिभयम , अबिभिव-अबिभीव, अबिभिम-अविभीम। ७-एवं सर्वत्रापि रूपद्वयम् । ६०८-इगन्त अङ्ग को गुण होता है मजादि जुस् परे रहते ।। ६०९-भी धातु को इकार मादेश होता है विलल्प से हलादि कित् ङित् परे रहते । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकोमुद्याम् जायाम् |३| जिह्रेति । जिहीतः । जिह्नियति । जिहयाञ्चकार । 'जिहाय । ता । यति । जिहतु । श्रजिहेत् । जिहीयात् । हीयात् । हैषीत् । श्रहेष्यत् । पृ पालनपूरणयोः। ४ । ६१० अर्ति - पिपत्यश्च ७ । ४ । ७७ । १६२ 1 अभ्यासस्य इकारो ऽन्तादेशः स्यात् श्लौ । पिपर्ति । ६११ उदोष्ट्यपूर्वस्य ७ । १ । १०२ । श्रङ्गावयवौष्ठयपूर्वीय ऋत् तदन्तस्याङ्गस्य उत् स्यात् । ६१२ हलि च । २ । ७७ । रेफवान्तस्य धातोरुधाया इको दीर्घो हलि । पिपूर्तः । ४ पिपुरति । पपार ६१३ श-दां ह्रस्वो वा ७ । ४ । १२ । एषां किति लिटि ह्रस्वो वा स्यात् । "पप्रतुः । ६१४ ऋच्छत्यताम् ७ । ४ । ११ । १ - जिह्राय, जिह्रियतुः, जिहियुः इत्यादि-रूपाणि । : - प्रजित् श्रजिह्रीताम्, प्रजिहयुः इत्यादि । ३ – पिपूत : - 'पू' धातोर्लटि तसि शपः श्ल द्वित्वेऽभ्यासत्व 'प्रति'पिपत्यश्च' इति श्रभ्यासस्य इकारान्तादेशे रपरे हलादिशेषे 'पि पृ तस्' इति जाते 'उदोष्ठधपूर्वस्य' इति उत्वे रपरत्वे 'हलि च' इति उपधायाः दीर्घे सस्य रुत्वे विसर्गे च सिध्यति रूपं 'पिपूर्तः' इति । ४ - प्रदभ्यस्तात् इति 'प्रत्' । ५ - पतुः - ( पपरतुः ) - 'पू' धातोर्लिटि प्रथमपुरुषद्विवचनेऽतुसि द्वित्वे - प्रभ्यासस्य ह्रस्वेऽत्वे रपरत्वे हलादिशेषे 'श-दृ-प्रां ह्रस्वो वा' इति वैकल्पिके ह्रस्वे यरिण सस्य रुत्वे विसर्गे च सिध्यति रूपं 'पतुः' इति, पक्ष' 'ऋच्छत्यताम्' इति गुणे 'पपरतुः' इति जातम् । ६१० - ऋ धातु और प धातु के अभ्यास को इकार अन्तादेश होता है श्लु में । ६११ - अङ्ग का अवयव श्रोष्ठ है पूर्व में जिसके, ऐसा जो ॠकार तदन्त श्रङ्ग को उकार आदेश होता है । ६१२- रेफान्त और वान्त धातु की उपया के इक् को दीर्घ होता है हल् परे रहते । ६१३- श द प धातु को ह्रस्व होता है लिट् परे रहते । ६१४ - तौदादिक ऋच्छ धातु और ऋकारान्त धातु की गुण होता है लिट् परे रहते । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिडन्ते जुहोत्यादयः तौदादिकऋच्छेज्रधातोर्ऋतां च गुणो लिटि । पपरतुः । पपरुः। .. ६१५ वतो वा ७ । २ । ३८ । वृद्धृभ्यामृदन्ताच्चेटो दीर्घा वा स्यान्न तु लिटि । परिता, परीता । परिष्यति, परीष्यति । पिपतु । अपिपः । अपिपूर्ताम् । अपिपरुः पिपू. र्यात् । पूर्यात् । अपारीत् । ६१६ सिचि च परस्मैपदेषु ७ । २ । ४० । अत्र इटो न दीर्घः। अपारिष्टाम् । अपरिष्यत्, अपरीष्यत् । प्रोहाक् त्यागे। ५ । जहाति। ६१७ जहातेश्च ६ । ४ । ११६ । इड् वा स्याद्धलादौ किङति सार्वधातुके । जहितः । ६१८ ई हल्यघोः ६।४ । ११३ । श्नाभ्यस्तयोरात ईत् स्यात् सार्वधातुके क्ङिति हलि, न तु घोः । जहीतः। ६१६ श्नाभ्यस्तयोरातः ६।४ । ११२ । १ पिपूर्तात्, पिपूर्ताम, पिपुरतु । पिपूर्हि-पिपूर्तात्, पिपूर्तम् पिपूत । पिपराणि, पिपराव, पिपराम । २-अपिपः-'प' धातोर्लुङि तिपीकारलोपेऽटि शपः श्लौ द्वित्वेभ्यासत्वे 'अति-पिपत्यांश्च' इति रपरे इकारे हलादिशेषे 'अ पिपृ-त्' इति स्थितौ गुणे रपरत्वे 'हलङयाब....' इति तकारलोपे रेफस्य विसगें सिध्यति रूपम् 'अपिपः' इति । ३-'सिजभ्यस्तविदिभ्यश्च' इति भेर्नुस् । अपिषः, अपिपूर्तम्, अपिपूतं । अपिपरम्, भपिपूर्व, अपिपूर्म । ४-प्रोकारः (अनुनासिकत्वात्) ककारश्च इत्संज्ञकः । ६१५-वृङ, वृञ् और ऋदन्त धातु से परे इट को दीर्घ होता है विकल्प से लिट परे नहीं। ६१६-परस्मैपद सिच परे रहते इट को दीर्घ नहीं होता। ६१७-जहाति धातु को ईकार होता है विकल्पसे हलादि कित् ङित् सार्वधातुक परे रहते। ६१८-श्ना और अभ्यस्त के बाकार को ईकार होता है हलादि कित ङित सार्वधातुक परे रहते, घुसंज्ञकों को नहीं। ६१६-श्ना और अभ्यस्तके आकार का लोप होता है। कित् हित सार्वधातुक परे रहते। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् अनयोरातो लोपः किति सार्वधातुके । 'जहति । जहौ हाता। हास्यति । जहातु, जहितात् , जहीतात् । ६२० आ च हौं ६ । ४ । ११७ । जहातेौ परे आ स्याच्चादिदीतौ। जहाहि, जहिहि, जहीहि । अजहात । अजहीताम् । अजहुः। ६२१ लोपो यि ६।४।११८ । जहातेरालोपो यादौ सार्वधातु के जह्यात । (४६०) एलिङि । हयात । अहासीत । अहास्यत ।माङ् माने 'शब्दे च । ६। ६२२ भृञामित् ७ । ४ । ७५ । भृञ् माङ् ओहाङ् एषां त्रयाणामभ्यासस्य इत स्यात श्लौ । "मिमीते। मिमाते । ६मिमते। ममे। माता। मास्यते । मिमीताम्। अमिमीत । मिमीत । मासीष्ट । 'अमास्त । अमास्यत । श्रोहाङ गतौ । ७। जिहीते। १-फस्य 'अत्' पालोपः । जहासि, जहिथ:-जहीथः, जहिथ-जहीथ । जहामि, जहिवा-जहीवः, जहिमः-जहीमः। जहौ, जहतुः, जहुः । जहिथ-जहीथ, जहथुः, जह । जहो, जहिव, जहिम । २-जहिताम्, जहीताम् । जहतु । ३-जहाहि-'हा' धातोर्लोटि मध्यमपुरुषैकवचने सिपि 'सेपिच्च' इति सिपो 'हि'-आदेशे शप: श्लौ अभ्यासस्य ह्रस्वे श्चुत्वे जश्त्वेन जकारे 'ज हा ति' इति जाते 'पा च हौ' इति प्रात्वपक्षे 'जहाहि' इत्वपक्षे 'जहिहि' ईत्वपक्षे 'जहीहि' इति रूपत्रयम् । ४-अजा-बिडालादिशब्दे इत्यर्थः । ५मिमीते-'मा' धातोर्लटि तादेशे टेरेत्वे शपः श्लौ द्वित्वेऽभ्यासकार्ये 'म मा ३' इति स्थिते 'मृञामित्' इति अभ्यासाकारस्थ इत्वे धातोरकारस्य 'ई हल्यघोः इति ईवे सिध्यति रूपं मिमीते' इति । ६-श्नाभ्यस्तयोरातः' इति पालोपः । ७-अमिमीत, अमिमाताम् , अमिमत । अमिमीथाः, अमिमाथाम् । अमिमीध्वम् । अमिमि, अमिमीवहि, अमिमीमहि । ८-अमास्त, प्रमासाताम्, अमासत । प्रमास्थाः, अमासाथाम, अमाध्वम् । प्रमासि, अमास्वहि, अमास्महि ।। ६२०-जहाति धातु को आकार, इकार, ईकार आदेश होते हैं हि परे रहते। ६२१-जहाति के आकार का लोप होता है यकारादि सार्वधातुक परे रहते । ६२२-भृन्न , माङ, श्रोहाङ् धातुओं के अभ्यास को इकार आदेश होता है शल के विषय में। . Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते जुहोत्यादयः १६५ जिहाते । जिहते । जहे । हाता। हास्यते । जिहीताम् । अजिहीत । जिहीत । हासीष्ट । अहास्त । अहास्यत । भृन धारणपोषणयोः ।८। बिभर्ति । बिभृतः । बिभ्रति । बिभृते । विभ्राते। 'बिभ्रते । २बिभराञ्चकार, बभार । बभर्थ । बभूव । बिभराञ्चक्र, बभ्र। भर्ता। भरिष्यति, भरिष्यते । बिभर्तु । बिभराणि । बिभृताम् । अविभः । अबिभृताम् । अबिभरुः । अबिभृत । बिभृयात , विभ्रीत । भ्रियात् , भृषीष्ट । अभार्षीत्, "अभृत । अभरिप्यत अभरिष्यत । डुदान दाने । ६ । ददाति । दत्तः । ददति । दत्ते । ददाते। ददते । ददौ, ‘ददे । दाता । दास्यति, दास्यते । ददातु । ६२३ दा था बदाप १ । १ । २० । दारूपा धारूपाश्च धातवो घुसंज्ञाः स्युर्दाप-दैपो विना। (५७७ ) ध्वसोरित्येत्वम् । 'देहि । दत्ताम् । अददात् । अदत्त । दद्यात् । ददीत । देयात् । दासीष्ट । ''अदात्। अदाताम् १२अदुः। ६२४ स्थाध्वोरिच १ । २ । १७ । १-विभ्रते-'भृञ्' धातोर्लटि प्रथमपुरुषबहुवचने झादेशे शपः श्लौ द्वित्वे 'भृनामित्' इति अभ्यासस्य रपरे :कारे हलादिशेषे भस्य बत्वेऽभ्यस्तसंज्ञायाम् 'अदभ्यस्तात्' इति भस्य प्रति टेरेत्वे यणि च कृते बिभ्रते इति, परस्मैपदे च 'बिभ्रति' इति । २'भीहीभृ..' इत्याम् । ३-'रिशयलिङक्षु' इति रिङ् । अत्र रिङ् इति ह्रस्वविधानसामर्थ्यान्न दीर्घः । ४-'उश्च' इति कित्वान्न गुणः । ५-'ह्रस्वादङ्गात्' सिचो लोपः । ६-श्नाभ्यस्तयोरातः' इति पालोपः । अघोरिति निषेधात् 'ई हल्यघोः' इति-ईत्वं न । ७-'प्रात औरणलः' इति-पौत्वम्' ८-'अातो लोप इटि च' इत्याकारलोपः । ६-देहि-'दा' घातोलोटि सिपि सेहौं शपः श्लौ द्वित्वेऽभ्यासह्रस्वे च कृते 'द दा हि' इति स्थितौ 'दाधा ध्वदाप्' इति घुसंज्ञत्वे 'ध्वसोरेशावभ्यासलोपश्च' इति एत्व ऽभ्यासलोपे सिध्यति रूपं देहि' इति । १०-'एलिङि' । ११–'गातिस्थाघुपा... .' इति सिचो लुक् । १२–'प्रातः' इति जुस् 'उस्यपदान्तात्' इति पररूपम् । ६२३-दारूप धारूप धातु को घु संज्ञा होती है दाप् दैप् धातु को छोड़ कर । ६२४-स्था धातु और घुसंज्ञक धातु को इकार अन्तादेश होता है और सिच कित होता है आत्मनेपद परे रहते । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् अनयोरिदन्तादेशः सिच्च कित् स्यादात्मनेपदे । 'अदित। श्रदास्यत्, अदास्यत । 'डुधाञ् धारण-पोषणयोः । १० । दधाति । ६२५ दधस्तथोश्च ८ । २ । ३८ । द्विरुक्तस्य भषन्तस्य धाञो बशो भष स्यात्तथोः परयोः स्ध्वोश्च परतः । धत्तः दधति । दधासि । धत्थः । धत्थ । धत्ते । दधाते । दधते । धत्से । धध्वे । ( ५७७ ) ध्वसोरेद्भावभ्यासलोपश्च । धेहि । श्रदधात् । अधत्त । दध्यात् । दधीत । धेयात्, धासीष्ट । अधात् । अधित । अधास्यत्, अधास्यत । णिजिर शौचपोषणयोः | ११ | ( इर इत्संज्ञा वाच्या ) । ६२६ णिजां त्रयाणां गुणः श्लौ ७ । ४ । ७५ | १६६ गिज्-विज् विषामभ्यासस्य गुणः स्यात् श्लौ । ४ नेनेक्ति । नेनिक्तः । नेनिजति । नेनिक्ते । निनेज । निनिजे । नेक्ता । नेक्ष्यति, नेक्ष्यते । नेनेक्तु नेनिग्धि । - १ – 'हस्वादङ्गात्' सिचो लोपः । श्रदित, श्रदिषाताम् श्रदिषत । प्रदियाः, प्रदिश्रदिवम् । श्रदिषि प्रदिष्वहि, प्रदिष्महि । २ - अस्य चोपसर्गयोगे पाथाम् एवमर्थविशेषः 'विपूर्वो धा करोत्यर्थे अभिपूर्वस्तु भाषणे । मेलने चापि संपूर्वी निपूर्वः स्थापने मतः ॥ १ ॥ यथा - कार्यं विदधाति ( इति करोत्यर्थे ) मधुरमभिदधाति । ( भाषणे ) । कुण्डले संदधाति (मेलने) । पादं निदधाति ( स्थापने ) । ३ - यथा 'दत्तः' इति । ४ - नेनेक्ति'रिणजिर्' धातोरस्य नत्वे इर इत्संज्ञायां लोपे च लटि तिपि शपः श्लौ द्वित्वेऽभ्यास काय 'निनिज् ति' इति स्थितौ 'निजां त्रयाणाम् इति श्रभ्यासस्य गुणे परस्य च 'पुमन्ते' ति गुणे जस्य कुत्व चत्वें 'नेनेति' इति रूपम् । " ६२५ – द्विरुक्त झषन्त धातु के बश् को भष् होता है तथ और स-ध्व परे रहते । (बा० - इर् की इत्संज्ञा होती है ) । ६२६ - णिज्, विज्, और विषु धातु के अभ्यास को गुण होता है श्लु के विषय में । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते दिवादयः ६२७ 'नाभ्यस्तस्याचि पिति सार्वधातुके ७ । ३ । ८७ । लघूपधगुणो न स्यात् । नेनिजानि । नेनिक्ताम् । श्रनेनेक् । श्रनेनिताम् । अनेनिजुः । अनेनिजम् । अनेनिक्त । नेनिज्यात निज्यात । नेनिजीत । निक्षीष्ट । ६२ = इरितो वा ३ । १ । ५७ । 4 १६७ इरितो धातोश्लेरङ वा परस्मैपदेषु । निजत, अक्षत, "अनित । अनेक्ष्यत, अनेक्ष्यत । इति जुहोत्यादयः । ४ - अथ दिवादयः क्रीडा - " विजिगीषा-व्यवहार-द्युति-स्तुति-मोद-मद- स्वप्न - कान्ति दिवु गतिषु । १ । ६२६ दिवादिभ्यः श्यन् ३ । १ । ६६ । शपोऽपवादः । (६१२) हलि चेति दीर्घः । दीव्यति । दीव्यन्ति । दिदेव | " १ - प्रजादौ पिति सार्वधातुके अभ्यस्तस्य लघूपधगुणो न स्यात् इत्यर्थः २ लिङ् सिचावात्मनेपदेषु' इति कित्त्वान्न गुणः । ३ - श्रनिजत् श्रनिजताम् श्रनिजन् । प्रभावे -प्रनैक्षीत्, भनेक्ताम् श्रनैक्षुः । ४ - श्रनैक्षीत् निज् घातोलुङि तिपीकारलोपेऽडागमे 'अ निज त्' इति स्थिते मध्ये चलो चलेः सिचि इनिषेधे ईडागमे ' वद-प्रजे' ति जस्य गत्वे कत्वे सस्य षत्वे च कषोः संयोगे 'क्ष' सियति रूपम् 'अनैक्षीत्' ५ - श्रात्मनेपदे च प्रनिक्त, श्रनिक्षाताम् अनिक्षत । इति जुहोत्यादयः । ६ - विजयाभिलाषः । ७- दीव्यन्ति - - ' दिघ्' धातोर्लटि भौ भेरन्तादेशे शपोऽपवादे 'दिवादिभ्यः श्यन्' इति श्यनि अनुबन्धलोपे 'दिव् य श्रन्ति' 'हलि चे' ति दीर्घं 'घतो गुणे' इति पररूपे सिध्यति रूपं 'दीव्यन्ति' इति । ६२७ - अभ्यस्त को लघूपध गुण नहीं होता अजादि पित् सार्वधातुक परे रहते । ६२८- इरित् धातु से परे ब्लि को होता है विकल्प से परस्मैपद में । इति जुहोत्यादयः थ दिवादयः ६२६- दिवादिगऽपठित धातुओं से परे श्यन् होता है कदर्थक सार्वधातुक परे रहते । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् देविता। देविष्यति । दीन्यतु । अदीव्यत् । दीव्येत् । दीव्यात् । अदेवीत् । श्रदेविष्यत । एवं षिवु 'तन्तुसन्ताने । २ । नृती गात्रविक्षेपे । ३। नृत्यति । ननर्त । नतिता। ६३० सेऽसिचि कृत-चत-द-तट-नृतः ७ । २ । ५७ । एभ्यः परस्य सिज्मिन्नस्य सादेरार्धधातुकस्येड्वा । नर्तिष्यति,नर्त्यति। नृत्यतु । अनृत्यत् । नृत्येत् नृत्यात् । 'अनीत् । अनर्तिष्यत् । अनय॑त् । असी "उद्वेगे। ४.। (४८५) वा भ्राशेति श्यन् वा । त्रस्यति, वसति । तत्रास । ६३१ वा ज-भ्रमु-त्रसाम् ६ । ४ । १२४ । एषां किति लिटि सेटि थलि च एत्वाभ्यासलोपौ वा सतुः, तत्रसतुः । सिथ-तत्रसिथ । त्रसिता। शो तनूकरणे । ५। ६३२ प्रोतः श्यनि ७।३ । ७१।। १-वस्त्रादिसीवने इत्यर्थः । सीव्यति । सिषेव । सेविता । सेविध्येति । सीव्यतु । असीव्यत् । सीव्येत् । सोव्यात् । असेवीत् । असेपिष्यत् । २-नर्तने। ३-नतिष्यतिनय॑ति-'नृत्' धातो टि तिपि स्यतासी लुल्लुटोः इति मध्ये 'स्य प्रत्यये 'सेऽसिचि-' इति वा इटि सस्य षत्वे 'पुगन्ते' ति गुणे रपरत्वे 'नतिष्यति' इति, इडभावे 'नयति' इति रूपम् । ४-'वदव्रज' इति प्राप्ताया वृद्ध :-'नेटि इति निषेवः । 'पुगन्त' इति गुणे अनीत, अनतिष्टाम्, अनतिषुः । इत्यादि । ५-उद्वेगो = भयम् । लिटि तत्रास, सतुः-तत्रसतुः-त्रेसुः तत्रसुः । त्रेसिथ-तसिथ, त्रेसथुः-तत्रसथुः, ग्रेस-तत्रस । तत्रामतत्रस, सिव-तसिव, त्रेसिम-तत्रसिम । लुडादौ-सिता। वसिष्यति । त्रस्यतु, त्रसतु । प्रत्रस्यत्-असत् । त्रस्येत्-त्रसेत् । त्रस्यात् । अत्रासीत्-प्रत्रसीत् । अत्रसिष्यत् । इति । ६-त्रेसतुः 'त्रस्' धातोलिटि ततोऽतुसि द्वित्वेऽभ्यासकायें 'त त्रस अतुस्' इति स्थिते 'वाजुभ्रमुत्रसाम्' इति ऐत्वेऽभ्यासलोपे सिध्यति रूपं 'सतुः' इति । ६३० -कृत-चत-छद-तृद-नृत धातुओं से परे सिभिन्न सादि आर्धधातुक को इडागम होता है विकल्प से । ६३१-ज-भ्रमु-त्रस् धातुओं को एत्व होता है और अभ्याम का लोप होता है विकल्प से कित् लिट् और सेट थल परे रहते। . ६३२-श्रोकार का लोप होता है श्यन् परे रहते । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते दिवादयः 'लोपः स्यात् श्यनि । श्यति । श्यतः । श्यन्ति । शशौ । शशतुः । शाता | शास्यति । ६३३ विभाषा प्रा.धेट शा च्छासः २ । ४ । ७८ । एभ्यस्सिचो लुवा स्यात् परस्मैपदे परे। अशात् । अशाताम् । अशुः । इट्सको। अशासीत्। अशासिटाम् । छो छेदने। ६। 'छ्यति । पोऽन्तकर्मणि । ७ । "यार । ससौ । दोऽवखण्डने । ८ । यति । ददौ । "देयात् । अदात् । व्यध 'ताड़ने ।। ६३४ ग्रहि-ज्या-चयि-व्यधि-वष्टि-विचति-वृश्चति पृच्छति-भृज्ज-तीनां विङति ६ । १ । १६ । एषां सम्प्रसार स्यात् किति डिति च विध्यति । 'विव्याध । विविधतुः। विवधुः। विव्यधिथ, ''विव्यद्ध । व्यद्धा । व्यत्स्यति । विध्येत् । विच्यात् । अव्यात्सीत् । पुष पुष्टौ ।१०। पुष्यति । पुपोष । पुपोषिथ । पोक्ष्यति । ___ १-प्रोकारस्य लोप इत्यर्थः । २-शशौ-'प्रादेच उपदेशेऽशिति' इति 'प्रात्वे' णल मौत्वम् । ३- 'प्रातः' इनि झर्जुस् । 'उस्यपदान्तात्' इति पररूपम्, अशुः। ४-छ्यति । चच्छौ । छाता । छायांत । छ्यतु । अच्छयत् । ठ्येत् । छायात् । अच्छात् । अच्छासीत् । अच्छास्यत इति र पारिण। ५-'धात्वादः षः सः' इति सत्वम । ६-प्राशोलिङिसेयात् ( मास्थादिष्वस्य पाठात् 'एलिडि' इति एत्वम् ), लुङि-'विभाषा बाधेटशाच्छासः' इति सिचो लुग् वा, ५ सात् , पक्षे 'यमरमनमे' ति -इट्सकौ-प्रसासील, प्रसासिष्टाम्, प्रसासिषुः, इत्यादि । १-'एलिङ' इत्येत्वम् । लुङि धूसंज्ञायां 'गातिस्थेति' सिचो लुक, अदात् । ८-वेधने प्रसिद्धः । ६-विध्यति-व्यध्' धातोर्लटि तिपि श्यनि अनुबन्धलोपे 'सार्वधातकमपित्' श्यनो रित्वेन 'ग्रहि-ज्ये ' ति सम्प्रसारणे पूर्वरूपे सिध्यति रूपं 'विध्यति' इति । १०-'लिट्वभ्यासस्योभयेषाम' इति-अभ्यासस्य सम्प्रसारणम् । ११-झषस्तथो?ऽधः' इति थस्य धत्वम्, पूर्वधकारस्य जश्त्वम् (दः)। ( इडभावे रूपमिदम् ) लुङि-'बदबजेति वृद्धिः, खरि चेति चर्वम् । अव्यात्सीत्, अव्याताम्, अव्यात्सुःइत्यादिरूपाणि। ६३३-घा-धेट-शो-हो-षो धातु से परे सिच का लुक् होता है विकल्प से परस्मैपद परे रहते। ६३४ -अहिज्यादि धातुओं को सम्प्रसारण होता है कित् ङित् परे रहते । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् (५०७) पुषादीत्यङ । पुषत् । शुब् शोषणे । ११ । शुष्यति । शुशौष । शु बत् । णश 'अदर्शने । १२ । नश्यति । ननाश । 'नेशतुः ६३५ रधादिभ्यश्च ७ । २ । ४५ । १७० रघ्नश सृप प् द्रुह, मुह् ष्णुह, ष्णिह् एभ्यो वलाद्यार्धधातुकस्य वेट् स्यात् । नेशिथ । ६३६ मस्जि नशोर्झलि ७ । १ । ६० । नुम् स्यात् । ननंष्ठ । नेशिव, नेश्व, नेशिम, नेश्म । नशिता, नंष्टा । नशिष्यति, नंक्ष्यति । नश्यतु । अनश्यत् । नश्येत् । नश्यात् । "अनशत् । बुङ प्राणिप्रसवे | १३ | सूयते । क्रादिनियमादिद । सुषुविषे । सुषुविवहे । सुषुविमहे । 'सोता, सविता । दूङ् परितापे । १४ । दूयते । दीङ क्षये ।१५। दीयते । ६३७ दीडो डचि क्ङिति ६ । ४ । ६३ । " १ - प्रभावे = नाशे । २ - ' प्रत एक हल्मध्ये...' इति एत्वाभ्यासलोपौ । ३-ननंष्ठ - 'नश्' धातोर्लिटि सिपस्थलि णस्य 'गोनः' इति नत्वे द्वित्वेऽभ्यासकार्ये 'न नश थ' इतिस्थितौ ( 'रघादिभ्यश्चे' ति वैकल्पिके इटि 'थलि च-सेटि' इति एत्वेऽभ्यासलोपे 'नेशिथ' इति ) । इडभावपक्षे 'मस्जि-नशोलि' इति नुनि, तस्यानुस्वारे 'न नंश् य' इति जाते 'व्रश्च - भ्रस्जे.... 'ति शस्य षत्वे ष्टुत्वे च कृते सिध्यति रूपं 'ननंष्ठ' इति घातो लुङि तिपीकारलोपेऽडागमे मध्ये चलौ 'पुषावि द्युतादि.... ' इति । ४- प्रनशत्- 'न‍' 'श्रङि' सिध्यति --- रूपम् 'अनशत्' इति । ( प्रङो ङित्वेन वृद्धेरभावे । ) । ५ - इडभावे 'नश्चभ्रस्ज' ... इति शस्य त्वम्, ' षढोः कः सि -' इति कत्वे, परस्य सस्य षत्वे, कषसंयोगे क्षः । नुम् । ६'स्वर तिसूतिसूयति...' इति वेट् । लुडादौ सोध्यते - सविष्यते । सूयताम् । श्रसूयत । सूयेत । सोषीष्ट । सविसीष्ट, प्रसोष्ठ, श्रसविष्ट । असोष्यत, प्रसविष्यत इति रूपाणि । ६३५ रधादि धातुओं से परे वलादि श्राधातुक को विकल्प से इट् ६३६ - मस्जि और नश् धातु को नुम् होता है झल् परे रहते । ६३७- दीङ् धातु से परे अजादि कित् ङित् श्रार्धधातुक को युट् का आगम होता है। ( वा० उब और यण के विधान में वुक्-युट् सिद्ध ही रहते हैं । ) होता है। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ तिङन्ते दिवादयः दीङः परस्पाजादेः ङित आर्धधातुकस्य युट् । ('बुग्युटावुवङयणोः सिद्धौ वक्तव्यौ ) २दिदीये । ६३८ मीनाति-मिनोति-दीड ल्यपि च ६।१ । ५० । एषामात्वं ग्यात् ल्यपि चादशित्येनिमित्ते । दाता । दास्यते । (स्थाध्वोरित्त्वे दीङः प्रतेषेधः ) "अदास्त । डीङ विहायसा "गतौ । १६ । डीयते । डिडये । डयिता । पीङ् पाने । १७ । पीयते । पेता । अपेष्ट । माङ् माने । १८ । मायते ममे । जनी प्रादुर्भावे । १६ । ६३६ ज्ञा-जनोजर्जा ७।२। ७६ । अनयोर्जादेशः स्यात् शिति । 'जायते । 'जज्ञे । जनिता। जनिष्यते। १-युट प्राभीयत्वेनाऽसिद्ध वात् । 'एरनेकाच....' इति यण प्राप्तः, स माभूदित्येतदर्थमिदं वार्तिकम् । २-दिदीये-'दीङ' धातोलिटि प्रथमपुरुषैकवचने प्रात्मनेपदे लस्य तादेशे द्वित्वेऽभ्यासह,स्वे तकारस्यैशादेशे 'दीडो युडचि' इति 'युटि' सिध्यति रूपं 'दिदीये' इति । ( ननु युटः प्राभोयत्वेनाऽसिद्धत्वेन परत्वात् ‘एरनेकाचोऽसंयोगपूर्वस्य' इति यण् स्यादिति चेन्न 'वुगर टावुवङ यरणोः सिद्धौ वक्तव्यौ' इति युटोऽसिद्धत्वाभावबोधननात् )। ३-'स्थाध्वोरिच' इति प्राप्तमित्वं न स्यादित्यर्थः ४-अदास्त-दीङ्' धातोलुङि प्रथमपुरुषैकवचने आत्मनेपदे लस्य तादेशेऽडागमे च्लौ च्लेः सिचि अनुबन्धलोपे 'प्रदी स्त' इति जाते 'मीनाति-मिनोति-दीडां त्यपि च' इति 'प्रात्वे' सिध्यति रूपम् 'प्रदास्त' इति । ( नानु दाधाध्वदाप्' इति घुसंज्ञायां 'स्थाध्वोरिच्चे' ति इत्वं स्यादिति चेन्न, स्थाध्वोरित्वे दीङः प्रतिषेधः' इति वचनात् । ५-पक्षिविमानादिगमने इत्यर्थः । लिटि-'एरनेकाचो.. ' इति यण 'डिडय' । लुङि-अडयिष्ट, अडयिषाताम् , अडयिषत । अयिष्ठाः । इत्यादय । ६-लुङि अमास्त, अमासाताम् । प्रमासत । इत्यादि । ७ईकार इत् । -जयते-'जन्' धातोलंटि प्रथमपुरुषैकवचने लस्य तादेशे टेरेल्वे शपोऽपवादे श्यनि अनुबन्धलापे 'जन् य ते' इति स्थितौ 'ज्ञाजनोर्जा' इति जनेर्जादेशे सिध्यति रूपं जायते' इति । :-द्वित्वे हलादिशेधे 'जजन् + (त) ए' इत्यत्र । 'गमहनजन ' इति उपधालोपे श्चुढे न नस्य अत्वे जञोज्ञ : जज्ञे । ६३८-मीञ, मिन और दी धातु को आत्व होता है ल्यप परे रहते । चकार से शित् भिन्न एनिमित्तक प्रत्यय परे रहते भी श्रात्व होता है । ( वा.-'स्था वोरिच्च' से प्राप्त इत्व दीङ को नहीं होता।) ६३६- ज्ञा और जन धातु को जा आदेश होता है शित् परे रहते । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ६४० दीप-जन-बुध-पूरि-तायि-प्यायिभ्योऽन्यन्तरस्याम् ३ | १| ६१ । एभ्पश्च्लेश्चिण वा स्यात् एकवचने तशब्दे परे | ६४१ चिणो लुक् ६ । ४ । १०४ । १७२ चिणः परस्य तशब्दस्य लुक् स्यात् । ६४२ जनि बध्योश्च ७ । ३ । ३५ । अनयोरुपधाया वृद्धिर्न स्याच्चिणि ञ्णिति कृति च । 'अजनि, अजनिष्ट | दीपी दीप्तौ । २० । दीप्यते । दिदीपे । श्रदीपि, अदीपिष्ट । पद गतौ । २१ । पद्यते । पदे । पत्ता । पत्सीष्ट । ६४३ चि ते पदः ३ । १ । ६० । पदेश्लेश्चिण स्यात्तशब्दे परे । अपोदि । अपत्साताम्, अपत्सत । विद सत्तायाम् | २२ | विद्यते । वेत्ता । अवित्त । बुध अवगमने | २३ | बुध्यते । बोद्धा । "भोत्स्यते । भुत्सीष्ट । अबोधि, अबुद्ध । श्रभुत्साताम् । युध १ - जनि - 'जन्' धातोर्लुङि श्रात्मनेपदे लस्य तादेशेऽडागमे चलौ, च्लेः 'दीपजने' ति वा चिरिण अनुबन्धलोपे 'श्रजन् इति' स्थितौ 'प्रत उपधाया' इति सूत्रेण प्राप्ताया वृद्धेः 'जनि-वध्योश्चे' ति निषेधे 'चिरणो लुक' इति तलोपे सिध्यति रूपम् 'श्रजनि' इति । चिणभावपक्षे च लेः सिचि इटि षत्वे ष्टुत्वे च 'अजनिष्ट' इति रूपम् । २ - - पादि - 'पद्' धातोर्लुङि प्रथमपुरुषैकवचने लस्य तादेशेऽटि मध्ये ग्लौ 'चिरण् ते पदः' ले 'श्चिरिण' ' पद इत' इति स्थितौ 'चिरणो लुक्' इति तलोपे 'श्रत उपधायाः' इति उपधावृद्धौ सिध्यति रूपम् 'प्रपादि' इति । ३ – प्रपत्थाः, श्रपत्साथाम् अपध्वम् । अपत्सि, प्रपत्स्वहि, अपरस्महि |४- -लघुपधगुणः, तकारस्य घत्पम् ।५ - 'भोत्स्यते' 'एकाचो बशो भष्...' इति बस्य भत्वम् । ६. - ' दीपजनबुध " इति चले: - चिण् ( विकल्पेन ) । " ६४०–दीपादि धातुत्रों से परे चिल को चिए विकल्प से होता है एकवचन तशब्द हरे रहते । ६४१ - चिए से परे त शब्द का लुक होता है । ६४२-जन् वध के V उपधाभूतच को वृद्धि नहीं होती चिए और जितु गित्कृत् परे रहते । ६४३ - पद धातु से परे चिल को चिरण होता है व शब्द परे रहते । * Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ तिङन्ते दिवादयः सम्पहारे ।२४। युध्यते । युयुधे । योद्धा अयुद्ध। सृज विसर्गे ।२५। सृज्यते । ससृजे । ससृजिथे। ६४४ सृजि-दशोमल्यमकिति ६ । १ । ५८ ।। अनयोरमागमः स्याज्झलादावकिति । 'स्रष्टा । स्रक्ष्यते। सूक्षीष्ट । असृष्ट। असृक्षाताम् । मृष् तितिक्षायाम् । २६ । मृष्यति, मृष्यते । ममर्ष। ममर्षिथ । ममृपिपे । मर्षितासि, मर्षितासे । मर्षिष्यति, मर्षिप्यते । णह बन्धने । १७ । नाति, नद्यते । ननाह । ननद्ध, नेहिथ। नेहे। नद्धा । नस्यति । 'अनात्सीत् , अनद्ध । इति दिवादयः। ५-स्रष्टा-प्रमो मित्त्वाद् ऋकारात्परत्वम, जकारस्य वश्चभ्रस्ज' इति षत्वम, तकारस्य ष्टुत्वम, यण। २-'लिसिचावात्मनेपदेषु' इति लिङः कित्वाद् अम् न । एवम 'प्रसृष्ट' इत्यत्रापि सिचः कित्वाद् अम् न। ३-असृक्षाताम्-'सृज्' धातोलुङि प्रात्मनेपदे प्रथमपुरुषद्विवचने लस्यातामादेशेऽटि मध्ये च्लो, च्ले: सिचि अनुबन्धलोपे 'प्रसृज् स् प्राताम्' इति स्थिते 'लिसिचावात्मनेपदेषु' इति सिचः किरवे गुणाभावे 'बश्च-भ्रस्जे' ति जकारस्य षत्वे 'षढोः कः षि' इति कत्वे सस्य षत्वे च कषोः संयोगे 'प्रसूक्षताम् इति । ४-सहने इत्यर्थः । ५-गो नः। लिटि-ननाह, नेहतुः, नेहुः । नेहिय, ननद्ध, नेहथुः, नेह । ननाह, ननह, नेहिव, नेहिम । आत्मनेपदे-नेहे, नेहाते, नेहिरे । इत्यादि । ६--'नहो घः' इति हस्य धत्वे चवंम् । लुङि- अनात्सीत, अनाद्धाम् मनात्सुः अनात्सीः, अनाद्धम्। अनाद्ध । अनात्सम, अमात्स्व, अमात्स्व । प्रात्मनेपदे प्रनद्ध, प्रनत्साताम् अनत्सत । इत्यादि । ७-अनासीत.-'नह.' धातोल ङि तिपीकारलोपे च्लो सिचि अटि 'अनह, सत्' इति जाते तकारस्य ईटि 'नहो ध.' इति हस्य पत्वे तस्य चवेन तकारे 'वद-व्रजे'..' ति वृद्धौ, 'अनात्सीत्' इति रूपम् । इति दिवादयः। ६४४-सृज दृश् धातु को अमागम होता है कित भिन्न झलादि प्रत्यय परे रहते। इति दिवादयः Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ५-अथ स्वादयः पुन 'अभिषवे ।१। । ६४५ स्वादिभ्यः श्नुः ३ । १ । ७३ । शपोऽपवादः । सुनोति । सुनुतः (५०१) हुश्नुवोरिति यण् । सुन्वन्ति । 'सुन्वः, सुनुवः । सुनुते । सुन्वाते । सुन्वते । सुन्वहे, सुनुवहे । सुषाव । सुषुवे । सोता । सुनु । सुनवानि, सुनवै । सुनुयात् । सूयात् । ६४६ स्तु-सु-धूभ्यः परस्मैपदेषु ७ । २ । ७२ । एभ्यासिव इट स्यात् परस्मैपदेषु । असावीत् । असोष्ट । चिञ् चयने । २। चिनोति । चिनुते। ६४७ विभाषा चेः ७ । ३ । ५८ । अभ्यासात् परस्य कुत्वं वा स्यात् सनि लिटि च । 'चिकाय, चिचाय । चिक्ये। चिच्ये। अचैषीत, अचेष्ट । स्तृञ् आच्छादने । ३ "स्तृणोति, स्तृणुते । १-अभिषवः स्नपनं पीडनं स्नानं सुरासन्धान च । २-'लोपश्चास्यान्यतरस्यां म्वोः' इति उकारस्य वा लोपः। ३-असावीत-'सुज' धातोलंङि परस्मैपदे। तिपीकारलोप ऽडागमे मध्ये च्लो, च्लेः सिचि 'अ सुस् त्' इति जाते 'स्तु सु-धूठभ्यः परस्मै पदेषु' इति सिचः सस्य इटि 'अस्ति सिचोऽपृक्त' इति तकारस्य ईटि 'इटईटि' इति सलोपे सिचि वृद्धि' रिति वृद्धौ आवादेशे सवर्णदीपें सिध्यति रूपम । 'प्रसा वीत' (प्रात्मनेपदे 'असोष्ट' इति)। ४-चिकाय- 'चिञ्' धातोलिटि परस्मैपदे तिपि गलि द्वित्वेऽभ्यासत्वे 'चि चि प्र' स्थितौ 'प्रचो ब्णिति' इति वृद्धौ पायादेश ‘विभाषा ने' इति अभ्यासोत्तरस्य चकारस्य कुत्वे रूपं 'चिकाय' इति (कुत्वाभावपक्षे 'चिचाय' इति रूपम् । प्रात्मनेपदे 'चिक्ये' चिच्ये' इति रूपद्वयम्'। ) ५-ऋवर्णान्नस्य णत्वं वाच्यम्। प्रय स्वादयः ६४५ --कर्थक सार्वधातुक परे रहते स्वादिगणपठित धातुओं से श्नु होता है । ६४६-स्तु-स-धून धातुओं से परे सिच को इद् होता है परस्मैपद परे रहते । ६४७-अभ्यास से परे चित्र धातु को कुत्व होता है विकल्प से सन् और लिट परे रहते। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरुन्ते स्वादयः १७५ ६४८ शपूवाः खयः ७। ४ । ६१ । अभ्यासस्य पूर्वाः खयः शिष्यन्तेऽन्ये हलो लुप्यन्ये । 'तस्तार । 'तस्तरतुः तस्तरे : (४६८) गुणोऽर्तीति गुणः । स्तात् । ६४६ ऋतश्च संयोगादेः ७।२। ४३ । ऋदन्तात् संयोगादेः परयोलिङ्सिचोरिड वा स्यात्तङि । स्तरिषीष्ट,। स्तृषीष्ट, 'अस्तरिष्ट, । अस्तृत । धून कम्पने । ४ । धूनोति, धूनुते । दुधाव । (४७६) स्वरतीति वेट् । दुधविथ, दधोथ। ६५० "श्र युकः किति ७ । २ । ११ । श्रित्र एकाच उगन्ताच्च गिरिकतोरिण् न । 'परमपि स्वरत्यादिविकल्पं वाधित्वा पुरस्तात्तातिषेधकाण्डारम्भसामर्थ्यादनेन निषेधे प्राप्ते क्रादिनियमान्नित्यमिट । दुधविव। दुधुवे। अधावीत्। 'अधविष्ट,। अधोष्ट । __-तस्तार–स् धातोलिटि परस्मैपदे तिपि वलि द्वित्वेऽभ्यासत्वे 'शपूर्वाः खयः' इति अभ्यासस्य तकारेंऽवशिष्टे 'त स्तुप्र' इति स्थिते 'ऋतश्च संयोगादेगुणः' इति गुरप्ने उपधायाः वृक्षो 'सस्तार' इति रूपम् । २-'ऋतश्च संयोगादेर्गुणः' इति गुणे तस्तरतुः । ३-व्रश्चेति कित्त्वान्न गुणः । ४-अस्तरिष्ट-'स्तृञ्' धातोलुङि मात्मनेपदे लस्य तादेशे, अटि च्लो, च्ले: सिचि 'ऋतश्च संयोगादे' रिति वैकल्पिके इटि' गुरणे सस्य षत्वे ष्टुत्वे च 'प्रस्तरिष्ट' इति रूपम् । (इडभावपक्षे च 'ह्रस्वादङ्गात्' इति सिज्लोपे 'प्रस्तृत' इति रूपम् । ) ५-'स्वरतिसूतिसूति...' इति विकल्पो यद्यपि पर, तथापि 'प्रार्धधातुकस्ये....७ । २ । ३५ ।' इति विधिकाण्डारम्भात् प्रागेव 'नेड् वशि कृति ७ । २। ८ ।' 'श्रयुकः किति ७ । २ । ११ ।' इत्यादि प्रतिषेध-(निषेध)-काएडारम्भसामर्थ्यात प्रयं श्र युकः किति इति निषेवः स्वरत्यादि विकल्पं बाधते । एतं निषेधं च क्रादिनियमो बाधते (इति नित्यमिट) ६-विधिप्रकरणा-प्रागेव निषेधप्रकरणाऽरम्भसामादित्यर्थः । ७-अधविष्ट-'धू' तोलुंडि प्रात्मनेपदे लस्य तादेशेऽडागमे मध्ये सौ च्ले: ६४८-अभ्यास के रापूर्वक खय् शेष रहते है अन्य हल का लोप होता है। ६४६-ऋदन्त संयोगादि धातु से परे लिङ और सिच् को इडागम होता है तङ परे रहते । ६५०-श्रित्र और 1 काच उगन्त धातु को इट नहीं होता गित् वित् परे रहते । इति स्वादयः । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् अधविष्यत, अधोष्यत् । अधविष्यताम्, अधोष्यताम् । अधविष्यत, अधोष्यत । इति स्वादयः। ६-अथ तुदादयः तुद व्यथने । १। ६५१ तुदादिभ्यशः ३ । १ । ७७ । शपोऽपवादः । 'तुदति, तुदते । तुतोद । तुदोदिथ । तुतुदे । तोत्ता । अतौत्सीत , अतुत्त । णुद प्रेरणे । २। नुदति, नुदते । नुनोद । 'नोत्ता । भ्रस्ज पाके । ३ । (६३४) अहिज्येति सम्प्रसारणम् । सस्य श्चुत्वेन शः, शस्य जश्त्वेन जः। भृज्जति, भृज्जते । ६५२ भ्रस्जो रोपवयो रमन्यतरस्याम् ६ । ४ । ४७ । भ्रस्जे रेफस्योपधायाश्च स्थाने रमागमो वा स्यादार्धधातुके । मित्वाढन्त्यादचः परः । स्थानषष्ठीनिर्देशाद्रोपधयोर्निवृत्तिः । "वभर्ज । बभर्जतः । सिवि 'स्वरतिसूतीति वैकल्पिके इटि 'अधू इ स त' इति जाते ‘सावधातुकार्धधातुकयो'रिति गुणेऽवादेशे षत्वे ष्टुत्वे 'अविष्ट' इति रूपम् ( इडभावपक्षे 'अधोष्ट' इति । ) इति स्वादयः। १-'श' इत्यस्य 'सार्वधातुकमपित्' इति ङित्वान्न लघूपगुणः । तुदति । लुङिप्रतौसीत्, वदव्रजेति वृद्धिः। अतीत्ताम् ('झलो झलि' सिचो लोपः) प्रतोत्सुः इत्यादि । प्रात्मनेपदे-अतुत्त, अतुत्साताम्, अतुत्सत । अतुत्थाः, अतुत्साथाम, अतुद्ध्वम् । अतुन्सि, प्रतत्स्वहि. प्रतत्स्महि । २-अनौत्सीत्-अनुत्त (लुङि)। ३-भृज्जति-'भ्रस्ज' धातोर्लटि शपोऽपवादे श विकरणे 'ग्रहि-ज्येति सम्प्रसारणं सस्य श्चुत्वेन 'शः' शस्य जश्त्वेन 'जः सिध्यति रूपं 'भृजति' इति । ( प्रात्मनेपदे 'भूजते' इति रूपम्। ) ४-रमागमोऽयं रेफस्य-उपधायाश्च स्थाने प्रादेशो भवतीत्यथः तथा चागमत्वमादेशत्वं चास्य सिदयति । ६-भ्रस्ज +अ, रमागमे उपधायाः सस्य रेफस्य च निवृत्ती 'भजू +' इति स्थितौ द्वित्वे हलादिशेषे अभ्यासकाय च 'बभर्ज' इति सिद्धयति । अथ तुदावयः ६५१-तुदादिगणपठित धातुओं में श होता है कर्थक सार्वधातुक परे रहते । ६५२-भ्रस्ज् धातु के रेफे और उपधा के स्थान में रम् का आगम होता है विकल्प से आर्धधातुक परे रहते। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिजन्ते तुदादयः १७७ वर्जिथ, 'बभर्छ । 'बभ्रज्ज । बभ्रज्जतुः । बभ्रज्जिथ । (३०६) स्कोरिति सलोपः (३०७)वश्चेति पः। बभ्रष्ठ । बमर्ज,बभ्रज्जे । भ्रष्टा, भ्रष्टा । भ्रत्यति. भय॑ति । (किङति रमागमं बाधित्वा सम्प्रसारणं "पूर्वविप्रतिषेधेन) भृज्ज्यात् । भृज्यास्ताम् । भृज्ज्यासुः। भीष्ट , भ्रक्षीष्ट । अभाीत , "अभ्राक्षीत्, अभट, अभ्रष्ट । कृषविलेखने । कृषति, कृषते । चकर्ष । चकृषे । ६५३ अनुदात्तस्य चदु पयस्यान्यतरस्याम् ३ । १ । ५६ । उपदेशेऽनुदानो य ऋदुपधस्तस्याम् वा स्याज्झलादावकिति । क्रष्टा, की । कृक्षीष्ट । (स्पृश-मृश-कृष-तृप-दृपां च्लेः सिज्वा वाच्यः)। 'अकाक्षीत, अकार्तीत् । ५-इडभावे व्रश्चेति षत्व थस्य ष्टुत्वे रूपम् । २-रमागमाऽभावपक्षे इमानि रूपाणि । ३-बभ्रष्ठ-'भ्रस्ज्' धातोलिटि परस्मैपदे सिपस्थलि इडभावपक्षे रमागमाभावे च द्वित्वेड ऽभ्यासकायें 'बभ्रस्ज भ इति स्थितौ 'स्को' रिति सलोपे 'ब्रश्चे' ति षत्वे प्लुस्खे 'बनष्ट' इति रूपम । इटपक्षे 'बभ्रज्जिथ' इति रूपम् । इटि रमागमे च 'बभज्जिय' इडभावे रमागमे । 'बभष्ठं' इति रूपम् । ४-वार्तिकमिदम् । ५-तुल्यबलविरोध अपरं कार्यमिति विच्छिद्य पूर्व कार्यमिति नियमेनेत्यर्थः । ६-प्रभाक्षीत- भ्रस्ज्' धातोलुंङि तिपोकारलोपेऽडागमे च्लो, सिधि तकारस्य 'ईटि' 'अ भ्रस्ज स् ई त्' इति जाते 'भ्रस्जोगधयोरमन्यतरस्याम्' इत्यनेन रेफस्य उपधायाश्च स्थाने 'रमि' हलन्तलक्षणायां वृद्धौ 'नश्चे'-ति षत्वे षस्य षढोः कः “स' इति कत्वे सस्य षत्वे कषोः संयोगे क्षत्वे 'प्रभाीत' पक्षे रमागमाभावे' 'प्रभाक्षात् ' प्रात्मनेपदे 'अभ्रष्ट' अभष्ट' इति रूपद्वयम् । ७-लुङि-अभ्राक्षीत अभ्राष्टाम , प्रभ्राक्षुः । अभ्राक्षोः, अभ्राष्टम , अभ्राष्ट । अभ्राक्षम , अभ्रादव, अभ्राक्ष्म । पक्ष प्रभाीत , अभामि प्रभाक्षुः, इत्यादिरूपाणि । प्रात्मनेपदे-प्रभष्ट, प्रभाताम, अभक्षत । अभष्ठाः अभऑथाम , अभदवंम । प्रभक्षि, प्रभवहि, अभक्ष्म हि । पक्षे अभ्रष्ट, अभ्रक्षाताम, अभ्रक्षत । अभ्रष्टाः-इत्यादि । ८-अक्राक्षीत्-'कृष्' धातोलुंडि तिपी (वा०-कित् तिङ परे रहते रमागम को बाधकर पूर्वविप्रतिषेध से संप्रसारण ही होता है)। ६५३ उपदेश में अनुदात्त जो ऋदुपदधातु, उसको अम् का आगम होता है विकल्प से कृतभिन्न झल् परे रहते। ( वा०-स्पृश् , माण, कृष् तृप्, और दृप् से परे च्लि को सिच् विकल्प से होता है)। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् "अकृक्षत् । अकृष्ट । अकृक्षाताम् । अकृक्षत । क्सपक्षे-अकृक्षत । अकृक्षाताम् । अवक्षन्त । मिल सङ्गमे । ५। मिलति, मिलते । मिमेल । मेलिता । अमेलीत् । मुच्ल मोचने । ६। ६५४ शे मुचादीनाम् ७ । १ । ५६ । मुच-लिप्-विद्-लुप-सिच्-कृत्-खिद-पिशां नुम् स्यात् शे परे । मुश्चति, मुञ्चते । मोक्ता । मुच्यात् । मुक्षीष्ट । अमुञ्चत् , अमुक्त। अमुक्षाताम् । लुप्ल छेदने । ७ । लुम्पति । लुम्पते । लोप्ता । अलुपत , अलुप्त । "विद्ल लाभे । ८ । विन्दति, विन्दते। विवेद, विविदे । व्याघ्रभूतिमतेसेट । वेदिता। भाष्यमतेऽनिट । परिवेत्ता । षिच क्षरणे । ६ । सिञ्चति, सिञ्चते। ६५५ लिपि-सिचि हश्च ३ । १ । ५३ । कारलोपेऽडागमे मध्ये लो, ब्ले: सिचि तकारस्य ईडागमे 'प्रकृष् स ई त' इति जाते 'अनुदात्तस्य चटपधस्यान्यतरस्याम' इति प्रमागमे यणि 'प्र क्र ७ स ई त' इति स्थितौ हलन्तलक्षणायां वृद्धौ ‘षढोः कः सि' इति षस्य कत्वे कषोः स योगे क्षत्वे, अमागमाभागे 'प्रकाीत' (अत्र हि 'स्पृश्-मशे' ति सिज् वैकल्पिकः, तेन सिजभावपक्षे च्ले: क्सादेशे प्रकृक्षत्' इति रूपम् ।) १-सिजभावपक्षे ब्लेः क्सः । ३-तङि 'लिङ सिचावात्मने पदे' दात कित्त्वादम म। ३-अमुञ्चत्-'मुच्' धातोलंङि प्रथमपुरुषैकवचने तिपीकारलोपेऽडाग मे 'तुदादिभ्यः शः' इति शपोऽपवादे 'श'-विकरणे' 'अ मु च अत' इति स्थितौ 'शे मुचादीनाम्' इति धातो मागमेऽनुबन्धलोपे नकारस्यानुस्वारे परसवणे' सिध्यति रूपम् 'अमुश्चत्' इति । ४-लूदिखादङ् । ५-चत्वारो विद्धातवः, तत्रैवं रूपभेदः 'वेत्ति' रूपं विद ज्ञाने, “विन्ते' विद विचारणे । 'विद्यते' विद मत्तायाम्, विद्लु लाभे च 'विन्दति' ॥ इति ॥ ५-विन्दतिश्चान्द्रदौदिरिष्टा भाष्येऽपि दृश्यते । व्याघ्रभूत्यादयस्त्वेनं नेह पेरिति स्थितम ॥१॥त्युक्तेः ७-परिपूर्वकाविद्धातोस्तृचि इडभावे गुणे च परिवेत्ता = ज्ये ठं भ्रातरमन्तरित्य दाराग्निहोत्रादिपरिग्रहीता । ८-सेवता । सेक्ष्यति इत्यादि । ६५४-मुचादियों को नुमागम होता है श परे रहते । ६५५-लिप सिच् और हृञ् से परे च्लि को अङ होता है । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विङन्ते तुदादयः एभ्यश्च्लेर ङ् स्यात् । 'असिचत् । ६५६ आत्मनेपदेष्वन्यतरस्याम् ३।१। ५४ । लिपि-सिति-ह्वः परस्य छलेरङ् वा तङि । असिचत, असिक्त । लिप उपदेहे । १० । उपदेहो-वृद्धिः । लिम्पति, लिम्पते। लेता । अलिपत्, अलिपत, अलिप्त । इति-उभयपदिनः। कृती छेदने । ११ । कृन्तति । चकत । कर्तिता। कतिष्यति, कर्त्यति । अकर्तीत् । खिद परिघाते ।१ । खिन्दति । चिखेद । खेत्ता। पिश अवयव॥१३॥ पिंशति । पेशिता। "प्रोवश्चू छेदने ।१४। वृश्चति । ववश्च । वव्रश्चिथ, वव्रष्ठ । वृश्चिता, व्रष्टा । व्रश्चिष्यति, वक्ष्यति । वृश्च्यात् । अवश्चीत, अवाक्षीत् । व्यच व्याजीकरणे ।१॥ विचति । विव्याच । विविचतुः। व्यचिता । व्यचिष्यति । विच्यात् । अव्याचीत्, १°अव्यचीत् । व्यचेः कुटादित्वमनसि इति तु नेह प्रवर्तते, अनीति १५पर्युदासेन कृन्मात्रविषयत्वात् । उछि उञ्छे । १६ । १-असिचत्-'षिच' धातोर्चुडि प्रथमपुरुषेकवचने परस्मैपदे लस्य तिपि इकारलोपे धातोरादेः षस्य सत्वेऽडागमे 'प्र सिच त' इति स्थिती मध्ये च्लो, 'लिपि-सिचिह्वश्च' इति ग्लेरङि डि त्वात् गुणाभावे सियात रूपम् 'असिचत' इति । २-असिचत, प्रसिचेताम्, असि वन्त । असिचथाः असिचेथाम, असिचवम्। असिचे, असिचावहि, असिचामहि । ३-. लेपने इत्यर्थः । ४ 'सेऽसिचिकृतचूत ' इति इट् वा । ५-प्रोकारोऽनुनासिकत्वादित्संज्ञः। ६-णलि द्वित्वे अभ्यासस्य सम्प्रसारणे उरदत्वे हलादिशेषे रूपम । ७-'स्को संयो...' इति सलोपः, 'व्रश्चभ्रस्ज...' इति अन्त्यस्य ( चकारस्य) षत्वम् । ८- ऊ देत्त्वादयं वेट, इडभावे रूपमिदम्, चकारस्थानिकस्य' चकारस्य 'षढोः कः सि' इते कत्वे परस्य ( सस्य) षत्वे कषसंयोगे क्षः। 6-'अहिज्या ' इति सम्प्रसारणम् । १०--'अतो हलांदेलंधोः' इति वा वृद्धिः। ११--द्विविधो हि नत्र - यथा चोक्तम् "नो तु द्वौ सभाख्यातौ पयुदास-प्रसज्यको । पयु'दासः सदृग्ग्राही प्रसज्यस्तु निषेधकृत् ॥” अत्र हि सम्स्तत्वात् पर्युदासो नत्र, पयुदासो हि सदृशग्राहो तेन प्रतभिन्नेऽ ६५६-तह परे रहते लिप , सिच और ह्वेन से परे च्लि को अ होता है विकल्प से। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् 'उच्छति । 'उञ्छः कणश आदानं कणिशाद्यर्जनं शिलम्' इति यादवः। ऋच्छ गतीन्द्रियप्रलयमूर्तिभावेषु । १७ । ऋच्छति । (६१४) ऋच्छत्यतामिति गुणः । द्विहल ग्रहणस्याऽनेकहलुपलक्षमत्वान्नुट। आनर्छ। आनछुतुः । ऋच्छिता । उज्झ उत्सर्गे । १८ । "उज्झति । लुभ विमोहने । १६ । लुभति । ६५७ तीष-सह लुभ-रुष-रिषः ७ । २ । ४८ । इच्छत्यादेः परस्य तादेरार्धधातुकस्येड वा स्यात् । लोभिता, लोब्धा । लोभिष्यति । तृप तुम्फ तृप्तौ । १२ । तृपति ततर्प । तर्पिता। अतीत् । 'तृम्फति । (शे तृम्फादीनां नुम् वाच्यः) आदिशब्दः प्रकारे। ते न येऽत्र स्सदृशे कृत्प्रत्यये ( उद्विचिता, उद्विचितुम् ) इत्यादौ एव कुटादिवेन ङित्वप्रयुक्तं सम्प्रसारणं भवति । तिङ विषये 'व्यचिता' इत्यादौ ( लुटि ) तु न। ___ १--उन्छाञ्चकार । उन्छिता । उच्छिष्यति । उञ्छतु । श्रौञ्छत् । उच्छेत् । उञ्छथात् (इदित्त्वान्नलोपो न ) । प्रौन्छीत् । प्रौन्छिष्यत् । इति रूपाणि । २-'तस्मान्नुड द्विहलः' इति सूत्रे इत्यर्थः । उपलक्षणत्वात् = परकत्वात् । ३-पानच्र्छ-'ऋच्छ' घातोलिटि तिपि एलि द्वित्वेऽभ्यासत्वे 'उरत्' इति अभ्यासस्य ऋवर्णस्यात्वे रपरत्वे हल दिशेषे 'प्रत भादे:' इति दीर्घ च 'पा ऋच्छ अ' इति स्थितौ 'सस्यान्नुड् द्विहलः' इति नुटि अनुबन्धलोपे 'ऋच्छत्यताम्' इति गुणे सिध्यति रूपम् 'पानछे' इति । 'इजादश्च । इति सूत्र 'अनृच्छः' निषेधात प्राम् न । 'पानच्छंतुः' इत्यत्र 'ऋच्छत्यताम्' इति गुणः । ४लुङि-पाच्छी त , आच्छिंष्टाम्, प्राच्छिंषुः इत्यादि। ५-लिडादौ--उज्झान्चकार । उज्झिता । प्रौज्झीत ( लुङि)। ६-लुटि-अलोभीत । ७-'श' इत्यस्य 'सार्वधातुकमपित' इत्यनेन हित्वात ‘अनिदिताम् ' इति नलोपः । नचात्र नकारो नास्ति किन्तु मकार इति वाच्यम, नकारस्यैव स्थानेऽनुस्वारे पररावणे च मकारस्य जातत्वात । ( अनिदितामिति नलोपदृष्टौ अनुस्वारपरसवर्णयोरसिद्धत्वाद् लोपदृष्टौ नकार एवेति ) तथा चोक्तम् नकारजावनुस्वारपञ्चमौ झलि धातुषु । सकारजः शकारश्चेट्टिवर्गस्तवगंजः ॥ १॥ इति । ६५७-इच्छत्यादि से परे तादि आर्धधातुक को इट होता है विकल्प से । (वा.- परे रहते तृम्फादियों को नुम् होता है ) । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ तिङन्ते तुदादयः 'नकारानुषक्तासो तृम्फादयः। ततृम्फ । 'तृफ्यात । मुड पुड सुखने ।२३। मुडति । पृडति। शुन गतौ । २४ । शुनति । इषु इच्छायाम् । २५ । दच्छति । एषित', "एष्टा । एषिष्यति । एष्यात । ऐषीत् । कुट कौटिल्ये ।२६। (५८७) गाङ्कुटादिति ङित्वम् । चुकुटिथ चुकोट, चुकुट । कुटि ता । पुट सं लेषणे । १७ । पुटति । पुटिता। स्फुट विकसने । २८ । स्फुटति । स्फुटिता। स्फुर स्फुल संचलने । ३० । स्फुरति । स्फुलति । ६५- स्फुरति-स्फुलत्योर्निनिविभ्यः ८ । ३ । ७६ । पत्वं वा स्यात् । निष्फुरति, निष्फुलति । रणू स्तवने । ३१ । परिणूतगुणोदयः । नुवति नुनाव । नुविता । टुमस्जो शुद्धौ ।३२। मज्जति। ममज्जा (६३६) मस्जि-नशोरेति नुम् (१°मज्जेरन्व्यात नुमवाच्यः) 'संयोगादिलोपः। १२ममङवथ, ममन्जिथ । मङ क्ता । मङत्यति । अमाङ क्षीत । १ ---शे तुम्फादी ताम्....' इत्यत्र आदिशब्दः प्रकारे ( सादृश्ये ) तथा च ये धातवः तुम्फधानुरित्र ( तुम्फ तुर्यथा नकारयुक्तः तथा ) नकारानुषक्ताः =नकारयुक्ताः ( नकारस्थानिक गायमानानुस्वारपरसवर्णा अपि लोपदृष्टौ नकारानुषक्ताः) तेषु सर्वत्र श प्रत्यये परत. नुम्' स्यादित र्थः । २-प्राशिषि यासुटः किस्वाद् 'अनिदिताम्....' इति 'न'लोपः । ३-शुशान : शोनिता । शोनिष्यति । शुनतु । अशुनत् । शुनेत् । शुन्यात् । अशोनोत । अशोनिष् त ! इति रूपाणि । ४-'इषुगमियमा छः' इति छः, लिटि-इयेष, ईषतुः, ईपुः, । इयेष्थि, ईपथुः, ईष । इयेष, ईषिव, ईषिम । ५-'तोषसह' इति वेट । ६-कुति । चुकोट ( णलो णित्त्वात_) गाऊ कुटादोति न ङित्त्वम्, चुकुटतुः, चुकुटुः । चुटिथ ( गाङकुटादी। वित्तवेन गुणाभावः ) नुकुटथुः, चुकुट । जुकोट, चुकुट उत्तमस्य एलो वा णित्त्वात् ) णित्वाभावे ठित्वे न गुणः, परत्र गुणः । चुकुटिव, चुकुटिम । कुटिता, कुटिष्यति । इत्यादि : ७ -( दोघं ) ऊकारान्तत्वबोधनायेदम् । अत्र 'युकः किति' इति इगिनषेध । परिरगूतः - स्तुतो गुणोदयो यस्य सः a-सुखीकरणे। ८-नुविष्यति । नुवतु अनुवत । नुवेत । नूयात । अनुवीत । अनुविष्यत । ६-सस्य श्त्रुत्वेन शः । शस्य अश्त्वेन जः । १०-'मित' हि-प्रन्स्यादचः परो भवतीति नियमेन मकारस्थाऽकारात्परो । भूत किन्तु सकारजकारयोर्मध्ये स्यादित्यर्थः । ११-स्काः सयोगाघोरन्ते च' इत्यनेन सल प इत्यर्थः । १२-ममकथः-'मस्ज' धातोलिटि सिपि थलि ६५८-निर नि और वि उपसर्ग से परे स्फुर-स्फ ल के स को षत्व होता है। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् अमाङ्क्ताम् । 'अमाङक्षुः । रुजो भङ्गे। ३३ । रुजति रोक्ता । रोक्ष्यति । 'औक्षीत । भुजो कौटिल्ये । ३४ । रुजिवत् । विश प्रवेशने । ३५ । विशति । मृश आमर्शने । ३६ । अामर्शनं = स्पर्शः। (६५३) अनुदात्तस्य चर्दुपधस्यान्यतरस्याम् । "अम्राक्षीत , अमाीत । अमृक्षत । षद्ल विशरण गत्यवसादनेषु । ३७ । सीदतीत्यादि । शद्ल शातने । ३८ । ६५६ शदेशिशतः १ । ३ । ६० । शिद्भाविनोऽस्मात्तङानौ स्तः । शीयते । शीयताम् । अशीयत । शीयत । शशाद । शत्ता । शत्स्यति । अशदत । अशत्स्यत् । कृ वि क्षेपे । ३६ । द्वित्वेऽभ्यासत्वे हलादिशेषे 'ममस्जथ' इति स्थितौ श्वुत्वेन सस्य शत्वे तस्य जश्त्वेन जत्वे भारद्वाजनियमाद् वैकल्पिके इंटिसति 'ममज्जिथ' इडभावपक्षे च 'मस्जि-नशोझ लि' इति 'मस्जेरन्त्यात् पूर्वो नुम्' इति सकारात् परे नुमि 'स्को' रिति सलोपे 'चोः कु:' इति गत्वे 'खरिचे' ति कल्वे नस्त्रानुस्वारे परसवणे सिध्यति रूपं 'मगथ' इति । -अमाक्षीः, अमाङ्क्तम् अमात । अमाङ्क्षम्, अमाङक्ष्व, प्रमाक्ष्म । अमक्ष्यत् (तृङि) । २-अरोक्षीत - रुज' धातोः लुङि तिपि इकारलोपे इडागमे ब्लौ, च्ले: सि च तकारस्य ईडागमे म हज स ई त्' इति जाते जस्य 'चोः कु' रिति गत्वे 'खरिचे' ति कत्वे सस्य षत्वे हलन्तलक्षणायां वृद्धौ सिध्यति रूपम् 'प्ररौक्षीत्' इति । अरौक्षीत्, अरोक्ताम, अरौक्षुः । अरौक्षीः, परोक्तम्, परोक्त । अरौक्षम अरोव, अरौक्ष्म । अरौक्ष्यत् । ३-विशति । विवेश । विवि. शतुः, विविशुः । वेष्टा ( व्रश्चेति षत्वम् पुगन्तेति गुणः )। वेक्ष्यति । विशतु । अविशत् । विशेत् । विश्यात् । प्रावक्षत् ('शल इगुपधादनि इति च्लेः 'क्सः' )। अवेक्ष्यत् । इति रूपाणि । ४- एतस्य रूपाणि-मृति । ममशं । मर्टा । मात । मुशतु । अमृशत् । मुशेत् मुश्यात् । ५-लुङि अम्पले क्स बाधि-वा 'स्पृश-मुश-कृषतृप-दृपा च्लेः सिज्वा वाच्यः' इति वार्ति स्न पाक्षिके सिचि वदव नेति वृद्धौ अम्राक्षीत, अन्नाष्ठाम, अनाक्षुः, अम्राक्षोः, इत्यादि । अमभावपक्षे सिचि २ सति-अमाक्षीत, ममाष्र्टाम, अमाक्षुः, अमार्षीः, अमाष्टम् इत्यादि । ३-पाघ्राध्मेति सीदादेशः । सीदति । ससाद, सेदतुः । सत्ता। सत्स्यति । सीदत् । प्रसीदत् । सीदेत् । सद्यात् । असदत् - (लुदित्वात 'पुष्यादि...' इत्यङ्) । असत्स्यत । ७-शीयते 'सद' धातोर्लटि प्रथम ( वा०-मस्ज् धातु को अन्त्य से पूर्व नुम् होता है ) । ६५६-शिद्भावी शद् धातु से श्रात्मनेपद होता है। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ तिङन्ते तुदादयः १८३ ६६० ऋत इद्धातोः ७ । १ । १०० । ऋदन्तस्य धातोरङ्गस्य इत्स्यात् । किरति । चकार । 'चकरतुः । चकरुः । करीता, करिता। कीर्यात् । ६६१ किरतौ लवने ६ । १ । १४० । उपात् किरतेः सुट् छेदने । उपस्किरति ( अडभ्यासव्यवायेऽपि सुट कात्पूर्व इति वक्तव्यम् ) । उपास्किरत् । 'उपचस्कार । ६६२ हिंसायां प्रतेश्च ६ । १ । १४१ । उपात् प्रतेश्च किरतेः सुट् स्यात् हिंसायाम् । उपस्किरति । प्रतिस्किरति। ग निगरणे । ४० । ६६३ अचि विभाषा ८।२। २१ । गिरते रेफस्य लोऽजादौ प्रत्यये वा । "गिरति, गिलति । जगार, जगाल। जगरिथ, जगलिथ । गरिता, गरीता । गलिता । गलीता । प्रच्छ शीप्सायाम । ४१ । (६३४ ) अहिज्या० इति सम्प्रसारणम् । पृच्छति । पप्रच्छ। पप्रच्छतुः। पुरुषेकश्चन लस्य तादेः) 'श'-विकरणे टेरेत्वे 'शद् प्रते' इति स्थिते 'पा घ्रा-मे' ति 'शीय-आदेशे 'शीयते' इति रूपम् । १-ऋच्छन्यताम--इत्यनेन गुणः । २-'वतो वा' इति वा दीर्घः । ३ कीर्यात, कोर्यास्ताम, कीर्यासुः, ( 'ऋतद्धातोः' इति 'इर्' 'हलि च' इति दीर्घः )। ४-उपचस्कार-'उप' पूर्वका 'कृ' धातोलिटि तिपि णलि, धातोद्वित्वेऽभ्याससंज्ञायाम् 'उरत्' इत्यत्वे रपरत्वे हलादिशेटे 'कहोचूः' इत्यभ्यासस्य श्चुत्वे वृद्धौ ‘उपचकार' इति स्थिती 'किरतो लवने' इति विधीयमानः सुट 'अभ्यासव्यवायेऽपि सुटकात् पूर्व इति वक्तव्यम्' इति वार्तिकबलात् ककोरात पूर्व सूडागमः अनुबन्धलोपे सिध्यति रूपम् 'उपवस्कार' इति । 'ऋत इद्धातोः' इति-'इर'। ६-'वतो वा इति वा दीर्घः । ७-ज्ञोप्सा प्रश्न करणम। ६६०-दन्त धात के अङ्ग को इत होता है। ६६१- उप से परे कृधातु को सुट होता है छेदन अर्थ में । ( वा० अट और अभ्यास के व्यवधान में भी ककार से पूर्व सुट होता है। ६६२---उप और प्रति से परे कधातु को सुट होता है हिंसा अर्थ में । ६६३–ग धातु के रेफ को लकार होता है अजादि प्रत्यय परे रहते विकल्प से । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् पप्रच्छुः । 'प्रष्टा । प्रक्ष्यति । अप्राक्षीत । मृङ् प्राणत्यागे । ४२ । ६६४ म्रियतेलुङलिङोश्च १।३।६१ । लुङ-लिङोः शितश्च प्रकृतिभूतान्मृङस्तङ नान्यत्र । "रिङ । इयङ । म्रियते । ममार । मर्ता । मरिष्यति । मृषीष्ट। 'अमृत । पृङ व्यायामे । ४३। प्रायेणायं व्यापूनः । व्याप्रियते । व्यापप्रे। व्यापप्राते । ब्यापरिष्यते । व्यापृत । व्यापृषाताम् । जुषी प्रीतिसेवनयोः । ४४ । जुषते । 'जुजुषे। प्रोविजी भयचलनयोः ।।४५ । प्रायेणायमुत्पूर्वः । १"उद्विजते । ६६५ विज इट् १ । २ । २। . बिजः पर इडादिप्रत्ययो 'ङिद्वत । १२उद्विजिता । इति तुदादयः। -'वश्व....' इति छस्य षत्वम् । २-त्रश्चेति षल्वे 'षटोः कः सि' इति कः, कषसंयोगे क्षः, प्रक्ष्यति । ३-अप्राक्षीत् ('वदव्रज...' इति वृद्धिः) । अप्राष्टाम्, प्राप्राक्षः । अप्राक्षोः, अप्राष्टाम्, अप्राष्ट। इत्यादि । ४-एवं चात्र विवेकः-ल-लोट-लङ विधिलिङ्प्राशोलिङ लुक्षु आत्मनेपदम् । लिट् लुट-लक्षु परस्मैपदम् । तथैवोदाहरणानि मूले । ५-'रिङ् शयलिङ्घ इति 'रिङ । 'अचि श्नुधातु....' इति इयङ । ६-म्रियते'मृङ्' धातोर्लुटि तादेशे टेरेत्वे 'श'-विकरणे 'रिङ श-यग्लिङ्' इति रिङादेशे 'अचिश्नु' रिति इयडि सिध्यति रूपं म्रियते' इति । ७-'ऋद्धनोः स्ये' इति इट । - अमृत ('ह्रस्वादङ्गात्' इति सूत्रेण सिचो लुक्) अमृषाताम, अमृषत । अमृथाः, अमृषाथाम्, अमूढ्वम् । अमृषि, अमृष्वहि, अमृष्महि । ६-जाषिता । जोषिष्यते । जुषताम, अजुषत । जुषीत । जोषिषीष्ट । प्रजोषिष्ट । प्रजोषिष्यत । इति रूपाणि । १०-विविजे। विजिता। विजिष्यते । विजिताम् । अविजत । विजीत । विजिषीष्ट । अविजिष्ट । अविजिष्यत ११-तेन न लघूपधगुणः । १२-उद्विजिता-उदुपसर्गः 'विज' धातोलुटि तिपि तिपो डादेशे मध्ये तासि इटि 'पुगन्ते' ति उपधातुगुणे प्राप्ते 'विज इंट' इति ङिद्वत्वेन 'डिति चे' ति गुणनिषेधे सिध्यति रूपं 'उद्विजिता' इति । इति तुदादयः । ६६४-मृङ् धातु से आत्मनेपद हो केवल लुङ लिङ और शित् परे रहते अन्यत्र नहीं। ६६५-क्जि से परे इडादि प्रत्यय द्वित् होता है । इति तुदादयः । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते रुधादयः ७-अथ रुधादयः रुधिर आवरणे ।। ६६६ थुधादिम्यः श्नम् ३ । १ । ७८ । शपोऽपवादः । रुणद्धि (५७६) श्नसोरल्लोपः। 'रुन्धः । रुन्धति।रूणत्सि। हन्धः । रुग्ध । रुणध्मि । रुन्ध्वः । रुन्धमः । रुन्धे । रुन्धाते । रुन्धते । रुरोध, रुरुधे।रोद्धा। रोत्स्थति रोत्स्यते। रुणधु,रुन्धात्।रुन्धाम्। रुन्धन्तु। रुन्धि रुणधानि । रुणधाव । रुणधाम । रुन्धाम्, रुन्धाताम्, रुन्धताम् । रुन्त्स्व । रुणधै । रुणधावहै । भणधामहै। अरुणत,अरुणद् । अरुन्धाम्। अरुन्धन् अरुणत। 'अरुणः । अरुन्ध । अरुन्धाताम् । अरुन्धत । अरुन्धाः । सन्ध्यात् । रुन्धीत । रुध्यात , "रुत्सीष्ट अरुधत, अरौत्सीत , अरुद्ध । अरुत्साताम् अरुत्सत । अरोत्स्यत , अरोत्स्यत । भिदिर् विदारणे । २ । 'छिदिर् द्वैधीकरणे । ३ । युजिर योगे। ४ । रिचिर् विरेचने ।५। रिणक्ति, रिङ्क्ते । रि च । अथ रुधादयः १-णत्वस्याऽसिद्धस्वादनुस्वारे परसवर्णे च जाते तस्य (परसवर्णेभ्यः) प्रसिद्धत्वाअस्य णत्वं न । 'झरो झरि' इति विकल्पेन घलोपः। रुन्धः। पक्षे–'रुन्द्ध' इति । २-झलन्तत्वाद् 'हुजल्भ्यो...' इति हेधिः, हेरपित्वेन ङित्वात् 'इनसो-' रिति-प्रलोपः । ३-रुणधानि–'प्राडुत्तमस्य पिच्च' इति प्राडागमः । ४-सिपि 'दश्च' । इति रुवा । ५- 'लिङ सिचावात्मने ..' इति कित्त्वाम्न गुणः ६ इरितो वा इत्यङ , अरुधत , मरुषताम्, अरुधन् , इत्यादि । प्रङभावे अरौत्सोत (वदव्रजेति वृद्धिः ), अरौद्धाम (झलो झलीति सिचः सलोपः ), अरौत्सुः अरौत्सीः, इत्यादि । अरुद्ध (आत्मनेपदे, झलो भलीति सलोपः ) । ७-भिनत्ति-भिन्ते। बिभेद, बिभिदे । भेत्तासि-भत्तासे । भेत्स्यति-भेत्स्यते । मिनत्तु-भिन्ताम् । अभिनत अभिन्त । भिन्द्यात्, भिन्दीत । भिद्यात्, भिरसोष्ट । अभिदत् प्रभेत्सीत, अभित्त । अभेत्स्यत् अभेत्स्यत । सिद्धिस्तु रुधिवत् । ८-चिच्छेद, बिच्छिदे । अच्छिदत् , प्रच्छत्सीत् , इत्यादि । भिदिवत् । ६-लुङि प्रयुजत्-अयोबीत-प्रयुक्त अथ रुघादयः ६६६-रुधादिगणपटित धातुओं से श्नम् होता है कर्थक सार्वधातुक परे रहते । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् रेक्ता। रेत्यति 'अरिणक । अरिचत, अरैक्षीत , अरिक्त । विचिर् पृथग्भावे । ३ । विनक्ति, विङक्ते । क्षुदिर् । सम्पंषणे । ७ । तुणत्ति, तुन्ते । क्षोत्ता । अक्षुदत , अक्षौत्सीत , अनुत्त । उच्छृदिर दीप्तिदेवनयोः । ८ । छणत्ति, छन्ते, चच्छद । ( ६३० ) सेऽसिचीति वेट । चच्छत्से, चच्छदिषे । छर्दिता । छर्दिष्यति, छय॑ति अच्छुदत , अच्छर्दीत । अच्छदिष्ट । उतृदिर हिंसानादरयोः। ६। तृणत्ति । तन्ते। कृती वेष्टने । १० । कृणत्ति । तृह हिसि हिंसायाम् । ११-१२ । ६६७ तृणह इम् ७ । ३ । १२ । तृहः श्नमि कृत इमागमो हलादौ पिति । "तृणेढि । तृण्ढः । ततह । तर्हिता । अतृणेट । ६६८ श्नानलोपः । ६ । ४ । २३ । श्नमः परस्य नस्य लोपः स्यात् । 'हिनस्ति । जिहिस । हिंसिता। १-अरिणक, अरिक्ताम् , अरिश्चन् । परिणक् । परिङ्क्तम् । अरिङ्क्त । अरिणवम्, परिसच्च, अरिजच्म । २-अस्य रिचिवद् पाणि । ३-तदिता। तर्दिष्यति । लुङिप्रतृदत् प्रतर्दोत, प्रर्दिष्ट । ४-कति ता । अकर्तीत् । अयं परस्मैपदो। ५-तृन ई ह+ति, गुणे, ऋवर्णान्नम्य णत्वे तृणे + ति' '२५१ होढः' इति हस्य ढस्वे '५४६ झषस्तथोधोधः' इति तकारस्य धकारेष्टुत्वे पूर्वढस्य लोपः तुणेढि । ६-अल्लोपः, अनुस्वारपरसवौँ । तृण्ढः तुंहन्ति । तृणेक्षि, तृण्ढः, तृण्ढ़ तृणेह्मि, वृंह्वः, तुंमः । ७-अतणेट्तृह' धातार्लङि तिपि इकारलोपेऽटि रापोऽपवादे 'श्नमि' 'प्रतुन है त' इति जाते 'तृणह इम्' इति इमागमेऽनुबन्धलोपे ऋवर्णान्नस्य णत्वे 'माद्गुणः' इति गुणे 'प्रतृरोह त' इति जाते 'हल्याव...' इति तलोपे 'हो ढः' इति हस्य ढत्वे ढस्य जस्त्वे चर्चेन टत्वे च सिध्यति रूपम् 'प्रतुणेट्' इति । लडि-अतुरोट अतृण्ढाम , प्रहन । अतृणेट् ( ड् । प्रतृएढम् , अतृण्ढ । अतृणहम् , अतुंब अतृह्म । वि० लि. ह्यात् । प्रा. लि. तृह्यात् । लु० प्रतीत, अनहिष्टम् । अतर्हिष्यत् । ८-हिनस्ति, हिस्तः, हिसन्ति । हिनस्सि , हिंस्थः हिस्थ । हिनस्मि, हिस्वः, ६६७-तृह धातु से श्नम् करने पर इम् का आगम होता है हलादि पित् परे ६६८-श्नम् से परे न का लोप होता है । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते उधादयः १८७ ६६६ तिप्यनम्तेः ८ । २ । ७३ । पदान्तस्य सस्य दः स्यात् तिपि न त्वस्तेः । (१०५) ससजुषोरित्यस्यापवादः । अहिनन्, अहिनन् । अहिंस्ताम् । अहिंसन् । ६७० सिपि धातो रु ८।२ । ७४ । पदान्तस्य धातोः सस्य रुः स्याद् वा । पक्षे (६७) 'झलां जशोऽन्ते' इति जश्त्वम् । 'अहिनः, अहिनत्, अहिनन् । उन्दी क्लेदने । १३ । उनत्ति । उन्तः । उन्दन्ति । 'उन्दाञ्चकार । औनत् । औन्ताम्, औन्दन् । औनः औनत्। औनदम् । अन्जू व्यक्ति म्रक्षण-कान्ति-गतिषु । १० । अनक्ति । अक्तः अञ्जन्ति । अाना। आनजिथ, आनळ्थ । अञ्जिता, अङक्ता । अङग्धि । अनजानि । अाना। ६७१ अञ्जः मिचि ७ । २ । ७१ । अञ्जः सिचो नियमिट स्यात् । "प्राञ्जीत् । तञ्चू संकोचने । १५ । हिस्मः। जिहिंस, जिहि पतः. जिहिमः। जिहिसिथ, जिहिसथुः । हिसिष्यति । हिनस्तुहिस्तात्. हिंस्ताम् हिसन्तु । हिन्धि ( हौ श्नमि नृमि 'कृते श्नान्नलोप' इति नुमोलोपः हेरपित्त्वेन ङित्वान श्नसोरित्यलोप इति 'यि घे' ति सलोपे रूपम् ) हिंस्तात् हिस्तम् , हिंस्त । हिनसानि, हिनसाब, हिनसाम । अहिनत् (द), अहिंस्ताम्, अहिसन् , अहिनसम्, अहिंस्त्र, अहिस्म । हिंस्यात् । ( किति इदित्त्वान्नलोपो न ) हिंस्यात्, हिंस्यास्ताम् । अहिसीत् अहिसिष्यत् । १–अहिनः–'हिसि' धातार्लङि सपि 'इदितो नुम् धातोः' इति 'नुमि' अडागमे रापोऽपवादे श्नमि अनुबन्ध लोपः 'श्नान्नलोपः' इति श्नमः परस्य नुमः नकारलोपे 'इतश्चे'ति सिप इकारलोपे सकारलोपे 'अहिन स' इति जाते 'सिपि धातो रुर्वा' इति बैकल्पिके स्वे विसर्गे च 'अहिनः' : ति रूपम्। रुस्वाभावपक्षे सस्य जश्वेन दकारे वा चर्वे 'अहि नत् 'अहिनद्' इति रूपद्वयम् । २-( लुटि ) उन्दिता। उन्दिष्यति । उनत्तु, उन्तात् । उन्धि । उनदानि । वि० लि. उन्द्यात् । प्रा० लि. उद्यात् । लुङि प्रौन्दीत् । औन्दिप्यत् । ३-'तस्मान्नृद्रिहलः' इति नट । ४-उदित्त्वाद् वेट । ५-वदवजेति वृद्धिन, ६६६-पदान्त स को द् होता है तिप परे रहते अस् धातु को छोड़ कर । ६७०--धातु के पदान्त सकार को रु होता है विकल्प से सिप परे रहते । ६७१-अज्जि धातु से परे सिच को नित्य इट का आगम होता है। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् तनक्ति । तक्ता, तञ्चिता। प्रोवीजी भयचलनयोः । १६ । विनक्ति (६६५) विज इडिति ङित्वम् । विविजिथ । विजिता। अविनक । अविजीत् । शिष्ल विशेषणे । १७ । शिनष्टि । शिष्टः । शिंषन्ति । शिनक्षि । शिशेष । शिशेषिय। शेष्टा। शेक्ष्यति । 'हेधिः। शिरिढ । शिनषाणि । अशिनट । शिंष्यात्। शिष्यात् । अशिषत् । एवं पिष्ट संचूर्णने । १८ । भलो आमर्दने । १६ । (६६८) श्नान्नलोपः। भनक्ति। बभजिथ। 'बभथ । भक्ता। भन्धि । अभाङक्षीत् । भुज पालनाभ्यवहारयोः । २० । भुनक्ति । भोक्ता। भोत्यति । अभुनक् । ६७२ भुजोऽनवने १ । ३ । ६६ ।। तङानौ स्तः। ओदनं भुक्ते। अनवने किम्-महीं 'भुनक्ति। निइन्धी दीप्तौ । २१ । इन्धे। इन्धाते। इन्धते। इन्त्से । इन्ध्वे । इन्धा अचक्र । इन्धिता । इन्धाम् । इन्धाताम् । इनधे । ऐन्ध । ऐन्धाताम्। 'ऐन्धाः । विद विचारणे । २२ । विन्ते १°वेत्ता । इति रुधादयः। नेटोति निषेधात, आटा सह तु पाटश्चेति वृद्धिः । पान्जीत् तेन मा भवानजीत, इति । लाङ प्राजिष्यत, पाङक्ष्यत् । १-'हुझलग्यो हेधिः' । २-शिनष् + धि, इति स्थितिः । 'श्नसोरल्लोपः' इति 'म' लोपे। जश्स्वम्, ष्टुत्वम् । झलो झलीति वा ढलोपः, अनुस्वारपरसवर्णौ शिण्डिशिण्डूिढ । ३-प्रशिनट, प्रशिष्टाम, प्रशिषन् । प्रशिनट (ड), अशिष्टम्, अशिष्ट । प्रशिनषम्, अशिष्व, अशिष्म । ४-लदित्वात् पुषादीत्यङ् । ५-पिनष्टि । पिपेष । पेष्टा । पेक्ष्यति । पिनष्टु । पिण्ढि । अपिनट । पिंच्यात् । पिष्यात् । अपिषत् । अपेक्ष्यत् । ६कादिनियमाद् वेट् ( थलि ) । ७-अभुनक, प्रभुङ्क्ताम्, प्रभुनन्, इत्यादि । भुज्यात् । भुज्यात् । प्रभौक्षीत्, प्रभौक्ताम्, प्रभौक्षुः। इत्यादि । E-पालयतीत्यर्थः । - वि० लि० इन्धीत । प्रा. लि. इन्धिषीष्ट । ऐन्धिष्ट । लुङि-ऐन्धिण्यत । १०-वेत्स्यते ! विन्ताम् । प्रविन्त । विन्दीत । वित्सीष्ट । पवित्त । अवेत्स्यत । इति रुधादयः ६७२-पालनभिन्न ( खाने ) अर्थ में भुज् धातु से तङ् और आन होते हैं । इति रुधादयः। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ तिङन्ते तनादयः ८-अथ तनादयः तनु विस्तारे। ६७३ तनादिकृञ्भ्यः उः ३ । १ । ७६ । शपोऽपवादः। 'तनोति, तनुते, ततान तेने । तनितास, तनितासे तनिष्यति, तनिष्यते । 'तनोतु, तनुताम् । अतनोत्, अतनुत । तनुयात्, तन्वीत । तन्यात्, तनिषीष्ट । अतनीत् , अतानीत् । ६७४ तनादिभ्यस्तथासोः २ । ४ । ७६ । तनादः सिचो वा लुक् स्यात् त-थासोः। अतत, अतनिष्ट । अतथाः, अतनिष्ठाः । अतनिष्यत् , अतनिष्यत । षणु दाने ।। २। सनोति, सनुते । १-तनोति-'तन्' धातोलंटि तिपि तनादिकुठभ्य उः' इति शपोऽपवादे उप्रत्यये 'सावंधातुकार्धधातुकयो' रिति गुणे सिध्यति रूपं 'तनोति' इति । २-सिपि लनु ( ' उतश्च प्रत्यया....' हिलोपः), अनुतात्, तनुतम, तनुत । तनवानि, तनवाव, तनवाम । ३-'मतो हलादेलंघोः' इति विकल्पेन वृद्धिः । ४-'थास्-' साहचर्यात् ( आत्मनेपदे भवति ) प्रथमपुरुषैकवचनः 'त'-शब्दो गृह्यते, नतु 'थ'स्थानिकः, तेनेह न-यूयमतनिष्ट । 'सहचरितासहचरितयोमध्ये सहचरितस्यैव ग्रहणम्' इति नियमात् । ५-अतत–'तन्' धातोः लुङि प्रात्मनेपदे लस्य तादेशेऽडागमे मध्ये नौ सिचि 'प्रतन् स त' इति स्थितौ 'तनादिभ्यस्तथासोः' वा सिचो लुकि 'मनुदात्तोपदेशे चनति' इत्यादिना नकारलोपे रूपम् 'अतत' । सिचो लोपाभावे इटि षत्वे ष्टुरखे 'प्रतनिष्ट' इति रूपम् । परस्मैपदे च 'अतो हलादेलंघो' रिति वा वृद्धौ ‘प्रतानीत्' 'मततीत्' इति । ६-ससान, सेनतुः, सेनुः। सेनिथ, सेनथुः। प्रात्मनेपदे-सेने, सेनाते, सेनिरे । इत्यादि । सनितासि, सनितासे । सनिष्यति, सनिष्यते । सनोतु । सिपि-सनु सनुताम् । असनोत्, प्रसनुत । वि० लि• सनुयात, सन्वीत । सायात् सन्यात् , सनिषीष्ट । अतत' । सिचोचो लुकि 'अनुदान परस्मैपदे व प्रथ तनादयः ६७३-तनादिगणपठित धातु तथा कृञ् धातु से उ विकरण होता है कर्थक सार्वधातुक परे रहते। ६७४-तनादि से परे सिच का विकल्प से लुक होता है त और थास् परे रहते। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तको मुद्याम् ६७५ ये विभाषा ६ । ४ । ४३ । जन-सन-खनामात्वं वा यादौ किति 'सायात् । सन्यात् । श्रसानीत्, असनीत् । ६७६ जन-सन-खना-सञ्झलोः ६ । ३ । ४२ । १६० एषामाकारोऽन्तादेशः स्यात् सनि भलादौ क्ङिति सात्, अस निष्ट | असाथाः, असनिष्ठाः । क्षणु हिंसायाम् । ३ । क्षणोति, उक्षणुते । ( ४६६ ) ह्यन्तेति न वृद्धिः । श्रक्षणीत्, "अक्षत, प्रक्षणिष्ट । अक्षथाः, अक्षणिष्टाः । क्षिणु च | ४ | उप्रत्यये ' लघूपधस्य गुणो वा । क्षिणोति 'क्षेणोति । क्षेणिता । अक्षेणीत् श्रक्षित, अष्टि तृणु अदने । " तृणोति, तणोंति । " घात्वादेः षः सः' इति यानुटि च 'सन् या स् कल्पिके श्रात्वे सव १ - सायात् - 'पण' धातोराशीलिंङि तिपि इकारलोपे सत्वे 'निमित्तापाये नैमित्तिकस्याप्यपायः' इति णस्य नत्वे त्' इति जाते 'स्को...' रिति सलोपे 'ये विभाषा' इति नस्य दीर्घो 'सायात्' इति श्रात्वाभावपक्षे 'सन्यात्' इति रूपम् । २ - असात - ' - 'सन् ' ( षणु ) धातोर्लुङि लस्यात्मनेपदे तादेशेऽटि चलौ, च्ले, सिचि 'तनादिभ्यस्तथासोः' इति वा सिज्लुकि ' सन् त' इति स्थितौ 'जन सन् खनां सम्झलो:' इति नकारस्यात्वे सवणंदीर्घे 'सात' इति रूपम् । सिज्लुगभावपक्षे 'प्रसनिष्ट' इति रूपम् । परस्मैपदे च 'असानीत - प्रसनीत' इति रूपट्टयम् । ३ - लिटि - चक्षारण, चक्षणे । क्षणितासि, क्षणितासे । इत्यादि । ४- वदत्रजेति प्राप्ता वृद्धिनेंटीग्यनेन निषिद्धयते । पुनश्च श्रतो हलादेर्लघोः' इति विकल्पेन प्राप्ताया वृद्धेः 'हम्यन्त ' इति निषेधे इत्यर्थः । ५तनादिभ्यत्तथासोः इति वा सिचो लुक् । श्रत्र गरणे सर्वत्रापि - इदं सूत्रं प्रवत ते, इति बोध्यम् । ६ - 'पुगन्तलघूपत्रस्य च' इति उपधासंज्ञानिमित्तकत्वात्मं ज्ञापूर्वकोऽयं विधिनित्यः' इति न गुण इत्यात्रेयः । ७ - संज्ञापूर्वकस्य भाष्यानु कत्वाद् भवत्येव गुण इत्यन्ये तथा चोक्तं ‘गुणो वा' इति । ८- लिटि चिक्षेण, चिक्षिरणतुः, चिक्षिरणुः । चिक्षेरिथ, चिक्षिरणथुः, चिक्षिण ! चिक्षिण, चिक्षिरिणव, चिक्षिणिम । श्रात्मनेपदेचिक्षिणे, चिक्षिरणाते, चिक्षिरिणरे । चिक्षिणिषे, इत्यादि । ६७५–जन्, सन्, खन् धातुओं को प्रात्व होता है यादि कित, ङि परे रहते । ६७६--जन्, सन्, खन्, धातुत्रों को आकारान्तादेश होता है सन् परे रहते और झलादि कित् ङित् परे रहते । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ तिङन्ते तनादयः तृणुते, 'तणुते । डुकृञ् करणे। ६ । करोति । ६७७ अत उत् सावधातुके ६ । ४ । ११० । उप्रत्ययान्तस्य कृतोऽकारस्य उत् स्यात् सार्वधातुके विति । कुरुतः । ६७८ न भ कुछ राम् ८ । २ । ७६ । भस्य कुर्छरोश्चोपधाया न दीर्घः। कुर्वन्ति । ६७६ नित्यं करोतेः ६ । ४ । १०८ । करोतेः प्रत्ययोकारस्य नित्यं लोपो म्वोः परयोः। कुर्वः । कुर्मः । कुरुते । चकार, चक्रे । कर्तासि, कर्तासे । करिष्यति, करिष्यते। "करोतु, कुरुताम् । अकरोत् , अकुरुत। ६.० ये च ६।४। १०६ । ।-ततर्ण, ततुणे । तर्णितासि, तर्णितासे । तर्णिष्यति, तर्णिष्यते । तृणोतु, तणोतु । तृणुताम्, तणुताम् । अतृणोत्, प्रतणोंत, प्रतृणुत, प्रतणुत। तृणुयात, तणुयात् , तृण्वीत, तण्र्वीत । तृण्यात, तणिषीष्ट । प्रतीत् प्रतरिगष्ट प्रतृत । अतणि ध्यत, प्रतरिणयत। २-'हल च' इति दीर्घः प्राप्तः, तनिषेधार्थमिदम् । ३-कुर्वन्ति-'कृ' धात: लटि झी, झस्य अन्तादेशे 'तनादि कृव्य उः' इति शपोऽपवादे 'उ' विकरणे 'कृउ अन्ति' इति स्थिते 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' इति गुरणे रपरत्वे 'करु अन्ति' इति जाते ककारगता कारस्य 'अत उत् सार्वधातुके' इत्युत्वे 'कुरु अन्ति' इति दशायाम् 'इको यणचि' इति यणि सिध्यति रूपं 'कुर्वन्ति' इति । ( ननु 'हलि चे ति दीर्घः स्यादिति चेन्न, 'न भकुछ राम्, इति तन्निषेधात् ।) ४-'ऋद्ध नोः स्ये' इति इट् । ५-करोतु-कुरुतात्, कुरुताम, कुर्वन्तु। कुरु-कुरुतात्, कुरुतम्, कुरुत । करवाणि, करवाव, करवाम । आत्मनेपदेकुस्ताम, कुर्वाताम्, कुर्वताम् । कुरुष्व, कुर्वाथाम् , कुरुध्वम् । करवे, करवाव है, करवाम है। ६७७-उप्रत्ययान्त कृत्र के अ को उत् होता है सार्वधातुक कित्, ङित् परे रहते । ६७८ भसंज्ञक कुर और छुर् को उपधा को दीर्घ नहीं होता। ६७६ कृधातु के प्रत्यय के उकार का नित्य लोप होता है यकार, मकार परें रहते। ६८०-कृञ् के उकार का लोप होता है यादि प्रत्यय परे रहते । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् कृञ उलोपः स्याद्यादौ प्रत्यये परे। 'कुर्यात, कुर्वीत । 'क्रियात्, कृषीष्ट अकार्षीत, अकृत । अकरिष्यत् अकरिष्यत । ६८१ सम्परिभ्यां करोती भूषणे ६ । १ । १३७ । ६८२ समवाये च ६ । १ । १३८ । सम्परिपूर्वस्य करोतेः सुट् स्याद् भूषणे संघाते चार्थे । संस्करोति = अलङ्करोतीत्यर्थः । संस्स्कुर्वन्ति = सङ्घीभवन्तीत्यर्थः। सम्पूर्वस्य क्वचिद् अभूषणेऽपि सुट । 'संस्स्कृतं भक्षाः' इति "ज्ञापकात् ।। ६८३ उपात् प्रतियत्न-वैकृत-वाक्याध्याहारेषु च ६ । १ । १३६ । उपात् कृत्रः सुट् स्यादेष्वर्थेषु चात् प्रागुक्तयोरर्थयोः । प्रतियत्नो-गुणाधानम् । विकृतमेव वैकृतं-विकारः। वाक्याध्याहारः=आकाशितैकदेशपूरणम् । उपस्कृता कन्या । उपस्कृताः ब्राह्मणाः । एधो 'दकस्योपस्कुरुते। १-कुर्यात्-'कृ' धातोविधिलिङि तिपि इकारलोपे शरोऽपवादे 'उ'-विकरणे यासुटि 'कृ उ या त्' इति स्थितौ 'प्रत उत् सार्वधातुके' इत्युत्वे रपरत्वे 'कुरुयात ' इति जाते 'ये च' इति विकरणलोपे सिध्यति रूप 'कुर्यात' इति (आत्मने पदे 'कुर्वीत' इति । २-'रिङ् शयग्लिङक्षु' इति रिङ । ३-'उश्च' इति कित्वान्न गुणः । ४-अकार्षीत - '' धातोर्लुङि तिरि ईकारलोपेऽडागमे मध्ये च्लो, च्लेः सिचि तिप ईटि 'अ कृस् ईत' इति जाते “सिचि वृद्धिः परस्मैपदेषु' इति वृद्धौ रपरत्वे सति सस्य पत्व सिध्यति रूपम् 'अकार्षीत्' इति । अकार्षीत्, प्रकाष्टीम्, अकार्षः। अकार्षीः, इत्यादि। प्रात्मनेपदे-अकृत- ( 'तनादिभ्यस्तथासोः' इति सिचो लोपे ), लोपाभावेऽपि हस्वादङ्गादिति सिचो लोपे 'प्रकृत' इति । प्रकृषाताम, अकृषत। अकृथाः, अकृषाथाम, प्रकृढ्वम् । अकृषि, प्रकृष्वहि, अकृष्महि । ५-तेन 'अन्नं संस्करोति' इत्यादि सिद्धम् । ६-अलङ्कृता, इत्यर्थः । ७-सङ्घोभूता इत्यर्थः । ८-ऐधः काष्ठ, दकस्य-जलस्य उपस्कुरुते= गुणान् प्राधत्ते इत्यर्थः । ६८१-६८२-सम् परि-पूर्वक कृञ् धातु को सुट होता है भूषण और संघात अर्थ में। ६८३-उप से परे कृञ् धातु को 'सुट होता है प्रतियत्न वैकृत्त और वाक्याध्याहार अर्थ में, चकार से पूर्व कहे गए अथों में भी सुट् होता है । इति तनादयः । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ तिङन्ते क्रयादयः १६३ 'उपस्कृतं भुङ्क्ते । उपस्कृतं ब्रूते । वनु याचने । ७। वनुते । श्ववने । मनु अवबोधने । ८ । मनुते । मेने । मनिता। मनिष्यते । मनुताम् । अमनुत । मन्वीत । मनिषीछ । अमनिष्ट। अमत । अमनिष्यत । इति तनादयः । -अथ ज्यादयः डुक्रीन द्रव्यविनिमय।१। ६८४ क्रयादिभ्यः श्ना ३ । १।८१। शपोऽपवादः । क्रीणाति (६१८) ई हल्यघोः । क्रीणीतः । (६१६ ) श्नाभ्यस्तयोरातः । "क्रीणन्ति । क्रीणासि । क्रीणीथः । क्रीणीथ । क्रीणामि । क्रीणीवः। क्रीणीमः। क्रीणीते । क्रीणाते। क्रीणते । क्रीणीपे । क्रीणाथे। क्रीणीध्वे । क्रीणे । क्रीणीवहे । क्रीणीमहे । चिक्राय । चिक्रियतुः । चिक्रियुः । चिक्र थ, चिक्रयिथ । चिक्रीये। कता । क्रष्यति, ऋष्यते । क्रीणातु, क्रीणीतात् । कोणीताम् । अक्रोणात्, अक्रीणीत । क्रीणीयात्-क्रीणीत । क्रीयात्, केपीष्ट । अक्षीत्, अक्रए। अष्यत् , अक्ष्यत । प्रीञ् तर्पणे कान्तौ च । २ । 'प्रीणाति, प्रीणीते । श्रीञ् पाके । ३ । श्रीणाति । श्रीणीते । मी हिंसायाम् । ४ । ६८५ हिन-मीना ८ । ४ । १५ । उपसर्गस्थान्निमित्तात् परस्यैतयो नस्य णः स्यात । प्रमीणाति, प्रमी १-विकृतमित्यर्थः। २-वाक्याध्याहारपूर्वकं व ते इत्यर्थः । ३-३ शसददवादिगुणानाम्' इति निषेधात् एत्त्वाभ्यासलोपौ न । लुङि-अवत,अनिष्ट । इति तनादयः। ___४-क्यणे इत्यर्थः। ५-क्रीणन्ति 'क्रोन' धातोर्लटि प्रयमपुरुषबहुवचने झौ 'क्रयादिभ्यः रना' इति श्ना विकरणे झेरन्तादेशे 'क्री ना अन्ति' इति स्थितौ 'श्नाभ्यस्तयोरातः' इत्याकारलोपे नस्य णस्वे सिध्यति रूपं 'क्रोणन्ति' इति । ६-अक्रोणात्, अकोणीताम् , अक्रीणन् । प्रक्रीणाः, प्रकोणीतम्, अक्रोणीत । अक्रोणाम, अक्रोणीव, प्रक्रीणीम । ७-अक्रोणोत,अक्रोपाताम, अक्रीणत । अक्रोणीथाः, अक्रोणाधाम , अकोणोध्वम । अक्रोरिण, अक्रोणीवहि, अक्राणोमहि । ८-क्रीणीयात्-'क्रो'धातोविधिलिङि तिपि इकारलोपे 'श्ना'विकरणे यासुटि स लोणे 'क्री ना या त 'इति जाते ‘ई हल्यघोः' इत्याकारस्य 'ई' त्वे नस्य रत्वे 'क्रोणीयात' इति रूपम । ६-पिप्राय, पिप्रये । इत्यादि, क्राञ्वत । १०-हिनोते:-मीनातेश्च ।। अथ क्रयादयः ६८४-यादि धातुओं से श्ना विकरण होता है कर्थक सार्वधातुक परे रहते। ६८५-उपसर्गस्थनिमित्त र-ष से परे हिनु और मीनाति के न को ण होता है। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ लघुसिदान्तकौमुद्याम् णीते । (६३८) 'मीनातीत्यात्वम् । ममौ । मिम्यतुः। ममिथ, ममाथ । मिम्ये। माता । मास्यति । मीयात् । मासीष्ट । 'अमासीत् । अमासिष्टाम् । अमास्त । पिन् बन्धने । ५। सिनाति, सिनीते। सिषाय, सिग्ये । 'सेता। स्कुञ् आप्लवने।६। ६८६ स्तन्मु-स्तुन्भु-स्कन्भु-स्कुन्भु-स्कुञ्भ्यः रनुश्च ३ । १ । ८२। एभ्यः श्नुप्रत्ययः स्यात् चात् श्ना। स्कुनोति, स्कुनाति।स्कुनुते,स्कुनीते। "चस्काव, चुस्कवे । स्कोता। अस्कोषीत्, अस्कोष्ट । स्तन्भ्वादयश्चत्वारः 'सौत्राः। सर्व रोधनार्थाः परस्मैपदिनः। ६८७ हलः श्नः शानज्झौ ३ । १ । ८३ । हलः परस्य श्नः शानजादेशः स्याद् हौ परे। 'स्तभान । ६८८ज स्तन्मु-चु-म्लुचु-गुचुग्लुचु-ग्लुञ्चु-श्विभ्यश्च ।३।१।५८ । १-एतत्सूत्रवृत्तौ-'प्रशिति-एनिमित्ते' इत्युक्तत्वात तिप-सिप-मिपसु ( गुणवृद्धियोग्येषु ) अस्य प्रवृत्तिनान्यत्र । २--ममौ 'मीन' धातोःलिटि तिपि ररालि 'मी णल 'इत्यत्र 'मोनाति--मीनोति--दीडा त्यपि च' इति धातोरात्वे 'मा' इत्यस्य द्वितोऽभ्यासत्रोऽभ्यासहस्ने 'प्रात औ गलः' इति णलः प्रोत्ने 'म मा औ' इति जाते वृद्धिरेचि' इति वृद्धौ ‘ममौ' इति । ३-'पातो लाप इटि च' आकारलोपः । अजन्तत्वात थलि वेट, पक्षे ममाथ । ४-प्रात्वे कृते 'यमरमनमातां सक् च' इति सक, सिच इट च । ५. -लुद्धि-प्रसैषीत , असैष्टाम्। प्रसैषुः । इत्यादि । प्रात्मनेपदे-असेष्ट, असेषाताम्, असेषत । असेष्टाः, असेषायाम, असेढवम् । असेषि, असेष्वहि, असेष्महि । ६-स्तभ्नोति, सभ्नाति । तस्तम्भ । स्तम्भिता। स्तम्भिष्यति । स्तम्नोतु, स्तम्नात स्तम्नुहि-( उतश्च प्रत्ययादिति सूत्रे असंयोगपूर्वारित्युक्तेनं हेर्लुक्) । प्रस्तभ्नोत, अस्तभ्नात् । स्तभ्नुयात्, स्तभ्नीयात् । स्तभ्यात् । अस्तभत् । प्रस्तम्भीत् । प्रस्तम्भिष्यत् । प्राय एवं शेषाणां त्रयाणामपि रूपाणि । ७–'शपूर्वाः खयः' । ८-सूत्र एत्र पठिताः, न पुनर्गणे इत्यर्थः । १-स्तभान-'स्तन्भु' धातोर्लोटि सिपि शपोऽपवादे 'ना' विकरणेऽनुबन्धलोपे ६८६-स्तन्भु आदि से परे श्नु प्रत्यय होता है और श्ना प्रत्यय भी। ६८७-हल से परे श्ना को शानच आदेश होता है हि परे रहते । ६८८-ज श्रादि धातुओं से च्लि को अङ् विकल्प से होता है। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते क्रयादयः १६५ ब्लेरङ वा स्यात् । ६८६ स्तन्मेः ८।३। ६७ । स्तन्भः सौत्रस्य सस्य षः स्यात्। 'व्यष्टभत्,अस्तम्भीत् । युञ् बन्धने ।। 'युनाति, युनीते । योता ।क्नूञ् शब्दे । ८ । क्नूनाति, क्नूनीते। क्नविता। दन हिंसायाम् । : । दृणाति, "हणीते । दूज हिंसायाम् ।१०। द्रणाति, द्रणीते । पूञ् पवने । ११ । ६६० प्वादीनां ह्रस्वः ७।३। ८० । पून लूञ् स्तृन कृञ् वृञ् धून शृ पृ वृ भृ मृ दृ ज झ धृ न कृ ऋग ज्या री ली ब्ली प्लीनां चतुर्विंशतः शिति ह्रस्वः । पुनाति, पुनीते। पविता । लू छेदने ।१२। लुनाति, लुनीते। स्तृञ् आच्छादने । १३ । स्तृणाति । (६४८) शपूर्वाः खयः। तस्तार। 'तस्तरतुः । तस्तरे। स्तरिता, स्तरोता । स्तृणीयात्, स्तृणीत। स्तीर्यात् । 'सह्यपिच्च' इति सेह्यदिशे 'स्तम्भ ना हि' इति जाते 'हलः श्नः शानज्झौ' इति 'ना' इत्यस्य शानजादेशेऽनुबन्धलोपे 'सार्वधातुकमपित्' इति ङित्वेन 'अनिदिताम्' इति धातोनंकारलोपे 'प्रतो हेः' इति हेर्लुकि सिध्यति रूपं 'स्तभान' इति । १-व्यष्टभत्-'स्तम्भ' धातोलुङि तिपि इकारलोपेऽडागमे च्लो सिचं बाधित्वा 'ज-स्तन्भु...' इत्यादिना वा च्लेरडि 'प्र स्तम्भ प्रत्' इति जाते 'अनिदिताम्...'इति न लोपे 'अस्तभत्' इति रूपम् । ततः 'वि'-उपसर्गे च 'स्तन्भे' इति षत्वे ष्टुत्वे यरिण 'व्यष्टभत् इति रूपम् । अङभावे च च्लेः सिचि इटि ईटि सिचो लोपे सवर्णदोघे नकारस्यानुस्वारे परसवणे 'प्रस्तम्भीत्' इति जातम् । २-लुङि-अयोषोत् , अयौष्टाम , इत्यादि । पात्मनेपदे-अयुत, अयुषाताम् इत्यादि। ३-चुक्नाव । चुक्नुवे। लुहि-अनावीत् , प्रश्न विष्ठ । ४-दर्ता । दरिष्यति, दरिष्यते । लुङि-प्रदार्षीत , प्रदृत । ५-दुद्राव । द्रविता । अद्राबीत । ६-अत्र गुणः, 'ऋच्छत्यताम्' इत्यनेन । ७-'वतो वा' इति वा दीर्घः । - 'भूत इद्धातोः' इति 'इर' हलि चेति दीर्घः। ६८९-सौत्र स्तम्भ धातु के स कोष होता है। ६६०-पूजादि २४ धातुओं को ह्रस्व होता है शित् परे रहते । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ६६१ लिसिचोरात्मनेपदेषु ७ । २ । ४२ । वृङ्वृङ्भ्यामृदन्ताच्च परयोर्लिङ सिचोरिङ् वा स्यात्तङि । ६६२ न लिङि ७ । २ । ३६ । - वृत इटो लिङि न दीर्घः । ' स्तरिषीष्ट । ( ५४४) उश्चेत्यनेन कित्वम् | ह्तर्षीष्ट, (६१६) सिचि च परस्मैपदेषु । अस्तारीत् । अस्तारिष्टाम् । अस्तारिषुः । अस्तरीष्ट, अस्तरिष्ट अस्तीर्ष्ट । कृन हिंसायाम् | १४ | कृणाति, कृणीते । वकार, करे । वृल वरणे । १५ । वृणाति, वृणीते । ववार, ववरे । वरिता, वरीता । (६११) उदोष्ठ्येत्युत्वम् । वृर्यात् । वरिषीष्ट, 'वर्षीष्ट । अवारीत् । अवारिष्टाम् । वरिष्ट, अवरीष्ट, अबूट । धूञ् कम्पने । १६ । धुनाति, धुनीते । धोता, "धविता । अधावीत्, अधविष्ट, अधोष्ट । ग्रह उपादाने । । १७ । 'गृह्णाति, गृह्णीते । 'जग्राह, जगृहे । १६६ १- स्तरिपीष्ट - स्तीर्षीष्ट - 'स्तृन्' धातोराशीलिङि श्रात्मनेपदे तादेशे सीयुटि अनुबन्धलोपे 'लोपोव्योवलि' इति यलोपे 'स्तृ सी त' इति स्थितौ 'सुट् तिथो:' इति सुटि 'लिङ् - सिचावात्मनेपदेषु' इति वा इटि गुणे रपरत्वे 'स्तरि सी स् न' इति जाते 'वृतो वा' इति विकल्पेन प्राप्तस्य दीर्घस्य 'न लिङि' इति निषेधे द्वयोः सकारयोः षत्वे टुत्वे च 'स्लरिषीष्ट' इति रूपम् ( इडभावपक्षे च 'उच' इति कित्त्वेन गुणाभावे 'ऋत इद्धातो:' इति इत्वे रपरत्वे 'हलि च' इति दीर्घे 'स्तीर्षीष्ट' इति रूपम् ) । २--'ऋच्छत्यृताम्' इति गुणः । ३ - वर्षीष्ट, इडभावपक्षे उश्चेति कित्त्वम्, 'उदोष्ठ्य' इति 'उर्', हलि चेति दीर्घः । ३ - अवरिष्ट - 'वृत्र ' धातोर्लुङि श्रात्मनेपदे तादेशे इटि चले: सिचि 'अ वृ स् त' इति स्थिते लिङ्-सिचावात्मनेपदेषु' इति वा भवति इट्, इडभावपक्षे 'उदोष्ठ्यपूर्वस्ये' त्युत्वे रपरत्वे 'हलि चे 'ति दीर्घे षत्वे ष्टुत्वे च सिध्यति रूपम् 'अवर्स्ट' इति । ('इट्' पक्षे च 'श्रवरिष्ट' 'अवरीष्ट' 'दृतो वे' ति इो वा दीर्घो गुणश्च । ५- 'स्वरतिसूतिसूयति....' इति वेट् । ६ - 'स्तुसुधूञभ्यः परस्मैपदेषु ' ७-ग्रहणे इत्यर्थः । ८ - सम्प्रसारणम् ' ग्रहिज्या....' इति सूत्रेण । इति नित्यमिट् । ६ - जग्राह - ' ग्रह्' ६६१–वृङ ्म, धृञ् और ऋदन्त से परे लिङ, सिच को इट् विकल्प से होता है तङ परे रहते । ६६२-वृङ, वृञ् और ऋदन्त के इट् को दीर्घ नहीं होता लिङ परे रहते । "" A Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते क्रयादयः ६६३ ग्रहोऽलिटि दीर्घः ७ । २ । ३७ । एकाचो ग्रहेर्विहितस्येटो दीर्घो न तु लिटि । ग्रहीता । गृह्णातु । ( ६=७ हलः श्नः शानौ । 'गृहाण । गृह्यात् । गृहीषीष्ट । ( ४६५ ) यन्तेति न वृद्धिः । ग्रहीत् । ग्रहीष्टाम् । श्रग्रहीष्ट । ग्रहीषाताम् । कुप निष्कर्षे | १८ | कुष्णाति । कोषिता । श्रश भोजने । १६ । अश्नाति । श्रश । अशिता । शिष्यति । अश्नातु । शान । मुष स्तेये | २० | मोषिता । मुषा । ज्ञावबोधने | १२ | जज्ञौ । वुङ् संभक्तौ | २२ | वृणीते । ववृषे । ववृढ्वे । वरिता, वरीता । वरीष्ठ, अवरिष्ट प्रवृत । इति क्रयादयः । १०-अथ चुरादयः १६७ चुर स्तेये । १ । ६६४ सत्याप-पाश - रूप-वीणा - तूल- श्लोक -सेना लोम- त्वच-वर्म-वर्णचूर्ण- चुरादिभ्यो णिच् ३ । ·१ । २५ । एभ्यो णिच् स्यात् । चूर्णान्तेभ्यः प्रातिपदिकाद्धात्वर्थे' इत्येव सिद्ध घातो: लिटि तिपि गलि द्वित्वेऽभ्याससंज्ञायां हलादिशेषे 'कुहोव' इति जकारे 'प्रत उपधायाः' इति वृद्धौ सिध्यति रूपं 'जग्राह' इति । ( श्रात्मनेपदे 'जगृहे' इति ) । १- गृहाण - 'ग्रह्' धातोः लोटि मध्यमपुरुषैकवचने सिपि सेहर्यादेशे शपोपवादे 'श्ना' विकरणेऽनुबन्धलोपे तस्य शित्वेन सार्वधातुकत्वात् 'सार्वधातुकमपित्' इति ङित्वे 'ग्रहिज्येति संप्रसारणे पूर्वरूपे च 'हलः श्नः शानौ' इति शानजादेशेऽनुबन्धलोपे नस्य 'तो हे' रिति हेलुकि सिध्यति रूपं 'गृहाण' इति । ( एवम् प्रशान- - मुषाणेत्यादयः ) २ - 'हलः श्नः शानज्झौ' इति । प्रशान, लुङि - प्राशीत् श्राशिष्टाम् श्राशिषुः इत्यादि । ३ - लुङि-प्रमोषोत्, नेटीति वृद्धिनिषेधः । ४- ' ज्ञाजनोर्जा' इति जादेशे जानाति, जानीतः, जानन्ति । इति क्रयादयः । ६६३–एकाच् ग्रह धातु से विहित इट् को दीर्घ होता है, लिट् परे रहते नहीं । इति क्रयादयः । अथ चुरादयः ६६४-सत्यापपाशादि और चुरादिगणपठित धातुओं से शिच होता हैं स्वार्थ में । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् तेषामिह ग्रहणं प्रपञ्चार्थम् । चुरादिभ्यस्तु स्वार्थे । (४५१) पुगन्तेति गुणः (४६८) सनाद्यन्ता इति धातुत्वम् । तिप् शबादि । गुणायादेशौ । 'चोरयति । ६६५ णिचश्च १ । ३ । ७४ । णिजन्तादात्मनेपदं स्यात् कर्तगामिनि कियाफले। चोरयते। चोरयामाल । चोरयिता। चोर्यात् । चोरयिषीष्ट (५१८) गिश्रीति चङ । (५३०) णौ चङीति ह्रस्वः । (५३१) चङीति द्वित्वम् । (३६६) हलादिः शेषः । (५३४) दी? लघोरित्यभ्यासस्य दीर्घः। अचूचुरत् । अचूचुरत । कथ वाक्यप्रबन्धे । २। "अल्लोपः। ६६६ अचः परस्मिन् पूर्व विधो । १।१ । ५७ । परनिमित्तोऽजादेशः स्थानिवत् स्यात् स्थानिभूतादचः पूर्वत्वेन दृष्टस्य विधौ कर्तव्ये । इति "स्थानिवत्त्वान्नोपधावृद्धिः। कथयति । अग्लोपित्त्वा १-चोरयति–'चुर' धातोः 'सत्याप-पाशे'-ति स्वार्थे णिचि 'पुगन्ते' ति गुणे 'चोरि' इत्यस्य 'सनाद्यन्ता धातवः' इति पुन(तुसंज्ञायां लटि तिपि शपि 'सार्वधातुकार्धधातुकयो' रिति गुणे अयादेशे सिध्यति रूपं 'चोरयति' इति । २-चोर्यात-'चुर्' धातोर्णिचि गुणे 'चोरि' इत्यस्य पुनर्धातुसंज्ञायामाशीलिङि तिपि इकारलोपे यासुटि अनुबन्धलोपे 'चोरि यास् त्' इति जाते 'स्को' रिति सकारलोपे 'णेरनिटि' इति णिलोपे 'चोर्यात्' इति रूपम् । ३-अचूचुरत्-'चुर' धातोः स्वायें णिचि 'पुगन्ते' ति गुणे 'चोरि' इत्यस्य पुनर्धातुसंज्ञायों लुङि तिपि इकारलोपेऽडागमे मध्ये च्लौ 'णि-धि,द्रु-सुभ्यः' इति च्लेश्चङि ‘णेरनिटि' इति णि लोपे अचोर् अत्' इति स्थितौ ‘णौ चङ्युफ्यायाः' इति उपधाह्रस्वे 'चङि' इति द्वित्वेऽभ्याससंज्ञायां हलादिशेषे 'सन्वल्लघुनि' इति सन्वद्भावे 'दीर्घोलघोः इत्यभ्यासदोघं सिध्यति रूपम् 'अचूचुरत्' । ४-णिचि 'अतो लोपः' इति अन्त्यावयवस्याऽकार :य लोपः । ५-अल्लोपस्येत्यर्थः । ६-कथयति-प्रदन्तात् 'कथ' धातोः स्वार्थे णिचि 'प्रतो लोपः' इत्यलोपे 'अचः परस्मिन् पूर्वविधौ' इत्यल्लोपस्य स्थानिवद्भावे 'प्रत उपधायाः' इति वृद्धयभावे 'कथि' इत्यस्य पुनर्धातुसंज्ञायो लटि तिपि शपि गुणेऽयादेशे सिनि रूपं 'कथयति' इति । ६६५-णिजन्त धातुओं से आत्मनेपद होता है कर्तृगामी क्रिपाफल में । ६६६-पर को निमित्त मान कर होनेवाला जो अच् के स्थान में आदेश, वह म्थानिवत् होता है स्थानिभूत अच् से पूर्व दृष्ट को विवि करने में। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ तिङन्ते एयन्तप्रक्रिया हीर्घसन्वद्भावौ न । 'अचकथत् । गण संरयाने । ३। गणयति । ६६७ ई च गणः ७ । ३ । ६७ । गणयतेरभ्यासस्य ईत् स्याञ्चङ परे णौ चादत् । अजीगणत् । अजगणत् । इति चुरादयः। अथ ण्यन्तप्रक्रिया ६६८ स्वतन्त्रः कर्ता १ । ४ । ५४ । क्रियायां स्वातन्त्र्येण विवक्षितोऽर्थः कर्ता'स्यात । ६६६ तत्प्रयोजको हेतुश्च १ । ४ । ५५ । कर्तुः प्रयोजको हेतुसंशः कर्तृसंज्ञश्च स्यात । ७०० हेतुमति च ३।१ । २६ १-कचकथत्-प्रदन्तात 'कथ' धातोः स्वार्थे णिचि अल्लोपे तस्य स्थानिवद्-भावेनोपधा-वृद्धयभावे 'कथि' इत्यस्य पुनर्धातुसंज्ञायां लुङितिपि इकारलोपेऽडागमे च्लो. ब्लेश्वङि 'णेरनिटि' इति णिलोपे 'पङि' इति द्वित्वेऽभ्यासत्वे हलादिशेषे श्चुत्वे अग्लोपित्वात सन्वद्भावाभावात दीर्घाभावे सिध्यति रूपम् 'अचकथत्' इति । २-अयमपि अग्लोपी। ३-अजीगणत्-अदन्तात् 'गण' धातोः स्वाणे णिचि अश्लोपेऽस्य स्थानिवद्भावेन वृद्धयभावे पुनर्धातुल्वात लुङि तिपि इकारलोपे अडागमे मध्ये च्लौ, च्लेश्वङि गेलोपे 'प्र गण अत्' इति स्थिते 'चङि' इति द्वित्वेऽभ्यासत्वे हलादिशेषे श्चुवे 'म ज गण' प्रत् इति जातेऽग्लोपित्वेन सन्वद्भावाद् दीर्घाभावे 'ई च गणः' इति वैकल्पिके ईत्वे 'प्रजोगणत' इति रूपम् पक्षेऽति 'अजगणत' इति । इति चुरादयः । ४-प्रेरकः। ६६७ गण धातु के अभ्यास को ईकार होता है चकार से अकार भी होता है चङ परक णि परे रहते । इति चुरादयः । अथ एयन्तप्रक्रिया ६६८ - क्रिया में स्वतन्त्रता से विवक्षित अर्थ कर्तृसंज्ञक होता है । ६६६–कर्ता का प्रयोजक हेतु संज्ञक ओर कर्तृसंज्ञक होता है । ७००-प्रयोजक के व्यापार प्रेषणा, अन्वेषणा और प्रध्येषणा श्रादि के वाय होने पर धातु से णिच् प्रत्यय होता है । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् प्रयोजक-व्यापार प्रेषणादौ वाच्ये धातोणिच् स्यात् । भवन्तं प्रेरयति 'भावयति। ७०१ ओः पुयएज्यपरे ७ । ४ । ८० । सनि परे यदङ्ग तदवयवाभ्यासोकारस्य इत् स्यात् पवर्ग-यण-जकारेप्ववर्णपरेषु परतः। अबीभवत् । ष्ठा गतिनिवृत्तौ । ७०२ अर्ति-ही-ब्ली-री-क्न्यी-चमाय्यातां पुङ् णौ ७ । ३ । ३६ । स्थापयति । ७०३ तिष्ठतेरित ७।४।५। उपधाया इदादेशः स्याच्चङ परे णौ । "अतिष्ठिपत् । घट चेष्टायाम् । १ ( स्वनिष्ठाधारतानिरूपिताधेयतासम्बन्धेन ) हेतुर्यत्रास्ति न हेतुमान् व्यापारः । प्रषणादिः (अध्येषणानुमत्युपदेशाः) तस्मिन् वाच्ये । २-भावयति-'भू' धातो 'हेतुमति च' इति प्ररणाके णिचि अनुबन्धलोपे वृद्धौ पावादेशे 'भावि' इत्यस्य 'सनाद्यन्ताः धातवः' इति पुनर्धातुसंज्ञायां लटि तिपि पि गुणेऽयादेशे सिध्यति रूपं 'भावयति' इति । 'रिणचश्च' इति कर्तृगे फले-प्रात्मनेपदम् । भावयते, भावयेते, भावयन्ते, इत्यादिरपि । इस्थमत्र कतृ योजना-प्रकार:-देवदतो भवति, भवन्तं त यज्ञदत्तः प्रेरयति, इति यज्ञदत्तो देवदत्तं भावयति (भावयते वा)। लिडादो-भावयाश्चकार, भावयाञ्चक्रे, इत्यादिरूपाणि । ३-भूधातोण्यंन्ताल्लुङ अडागमे च्लेश्वङि 'णिचि अच प्रादेशो न द्वित्वे कर्तव्ये' इति पूर्ववृद्धयभावे 'भू' इत्यस्य द्वित्वे अभ्यासकायें ( भस्य बत्वे ह्रस्वे च ) अबू भू + इ +4 त इति स्थितौ ( परस्य ) वृद्धौ पावादेशे ‘णौ चङ युपधाया ..' इति ह्रस्वे सन्वभावे अभ्यासोकारस्य इत्वे (णिलोपे ) 'दी| लघोः' इति दीर्घः, प्रबीभवत् । ४-स्थापयति = तिष्ठन्त प्रेरयति इत्यर्थे 'स्या' धातोर्णिचि प्रादन्तत्वात् 'अति ह्री' इति पुकि 'स्थापि' इत्यस्य पुनर्धातुसंज्ञायां लटि तिपि शपि गुणेऽयादेशे सिध्यति रूपं 'स्थापयति' इति । ५-अ स्थाप+ इ+त , स्थितौ द्वित्वे, 'शपूर्वा खयः' इति 'प्रथास्थाप+ इ+प्रत्' अभ्यासस्य ह्रस्वे चत्वे उपधाह्रस्व च अभ्यासस्य 'सन्यतः' इतीत्वे. णिलोपे, षत्वे ष्ट्रत्वे प्रतिष्ठप् प्रत् इति स्थिते उपधाया (प्रकारस्य) इत्वे, प्रतिष्ठिपत ।। ७०१-सन् परे रहते जो अङ्ग उसके अवयव अभ्यास को इकारादेश होता है अवर्ण-परक पवर्ग, यण जकार परे रहते । ७०२--अर्ति, ही आदि धातुओं को पुक् का आगम होता है णि परे रहते । ७०३-स्था धातु की उपधा को इकार आदेश होता है चङ् परक णि परे रहते । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते सन्नन्तप्रक्रिया २०१ ७०४ 'मितां ह्रस्वः ६ । ४।१२। घटादीनां झपादीनां च उपधाया ह्रस्वः स्यारणौ । घटयति । ज्ञप शाने ज्ञापने च । ज्ञपयति, अजिशपत । इति ण्यन्तप्रक्रिया। अथ सन्नन्तप्रक्रिया ७०५ धातोः कर्मणः समानकत कादिच्छायां या ३ । १।७। इषिकर्मण इषिणैककर्तृकाद्धातोः सन् प्रत्ययो वा स्यादिच्छायाम् । पठ व्यक्तायां वाचि। ७०६ सन्यङोः ६।१।। सन्नन्तस्य यङन्तस्य च प्रथमस्यैकाचो द्वे स्तोऽजादेस्तु द्वितीयस्य । (५३३) सन्यतः । पठितुमिच्छति पिपठिषति । कर्मणः किम्-"गमनेनेच्छति । १-घटादयो ज्ञपादयश्च मितः । २–लुङि-'प्रजीघटत्' । ३-अजिशपत -'ज्ञप्' धातोः प्रेरणार्थे णिचि वृद्धौ ‘मितां ह्रस्वः' इति ह्रस्व 'ज्ञपि' इत्यस्य पुनर्धातुसंज्ञायां लुङि तिपि इकारलोपेऽटि मध्ये च्लौ 'रिण-श्रि-द्रु-नु-भ्यः' इति प्लेश्वङि 'अ ज्ञप इस त्' इति जाते णिलोपे 'चङि' इति द्वित्वेऽभ्यासकार्ये सन्वद्भावे 'सन्यतः' इति सूत्रेण इत्वे सिध्यति रूपं 'अजिज्ञपत ' इति । ४-पिपठिषति-पठितुमिच्छति इति इच्छार्थे 'पठ्' धातोः 'धातोःकर्मणः समानकर्तृकादिति' सनि इटि 'पठ् इ स' इत्यत्र 'सन्यडोः' इति द्वित्वेऽभ्यासत्वे हलादिशेषे अभ्यासस्य 'सन्यतः' इति इले सनः सस्य षत्वे 'पिपठिष' इत्यस्य पुनर्धातुसंज्ञायाँ लटि तिपि शपि पररूपे सिध्यति रूपं 'पिपठिषति' इति । पिपिठिषाश्चकार । लुङिअपिपठिषीत् । ५-नात्र गमनम्--इच्छायाः कर्म। ७०४-घटादि और ज्ञपादि धातुओं की उपधा को ह्रस्व होता है णि परे रहते । अथ सन्नन्तप्रक्रिया ७०५-इच्छा के कमी भूत और इच्छा के साथ एक कर्त्तावाले व्यापार के वाचक धातु से इच्छा अर्थ में सन् प्रत्यथ होता है विकल्प से । __७०६-सन्नन्त और यङन्त धातुओं के प्रथम एकाच अवयव को द्वित्व होता है, अजादि धातुओं के द्वितीय एकाच अवयव को द्वित्व होता है । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् 'समानकर्तृकात' किम्-शिष्याः 'पठन्त्वितीच्छति गुरुः । वा ग्रहणाद्वाक्यमपि। ( ५५८) लुड्सनोर्घस्लृ । ७०७ सस्यार्धधातुके ७ । ४ । ४६ । २०२ सस्य तः स्यात सादावार्धधातुके । अत्तुमिच्छति ' जिघत्सति । ( ४७५ ) एकाच इति नेट् । ७०८ अज्झनगमां सनि ६ । ४ । १६ । अजन्तानां हन्तेरजादेशगमेश्च दीर्घो भलादौ सनि । ७०६ इको झल् १ । २ । ६। इगन्ताज्झलादिः सन् कित स्यात । ( ६६० ) ऋत इद्धातोः । कर्तु - मिच्छति चिकीर्षति । ७१० सनि ग्रह - गुहोश्च ७ । २ । १२ । ग्रहेगु हेरुगन्ताश्च सन इण् न स्यात । बुभूषति । इति सन्नन्ताः । ● " १ - पठनकर्त्तारः शिष्याः, इच्छायाः कर्त्ता तु गुरुः । २ – जिघत्सति - 'श्रद्' धातोरिच्छायां सनि 'लुड्सनोघरल' इति 'घस्लृ' प्रदेशेऽनुबन्धलोपे इनिषेवे द्वित्वोऽभ्यासत्वे हलादिशेषे 'कुहोश्चुः' इति श्चुखोन घस्य झत्वो चर्चेन झस्य जो 'सन्यत' इत्यभ्यासस्य इत्वे 'सस्याधंघातुके' इति सकारस्य तकारे 'जि घत् स' इत्यस्य 'सनाद्यन्ताः' इति धातुली लटि तिपि शपि सिध्यति रूपं 'जिघत्सति' इति । ३ - चिकीर्षति -'कृ' धातोः 'कत्तुमिच्छति' इति विग्रहे 'सनि' अनुबन्धलोपे 'ऐकाच उपदेशे' इति इग् निषेधे 'अज्झनगमां समि' इति दीर्घे 'इको झल्' इति कित्वाद् गुणाभावे 'ऋत इदुधातोः इति रपरत्वो 'हलि चे' ति दीर्घे द्वित्तोऽभ्यासकार्ये षको 'चिकीर्ष' इत्यस्य धातुसंज्ञायां लटि तिपि शपि सिध्यति रूपं 'चिकीर्षति' इति । ४ - बुभूषति -'भू' घातोरिच्छार्थे सनि 'सनि ग्रहगुहोश्व' इति इग् निषेघे 'इको झल् ७०७ - सकार को तकारादेश होता है सादि श्रार्धधातुक परे रहते । ७०८ - श्रजन्तधातु, हन् और अजादेश गम् धातुको दीर्घ होता है फलादि सन् परे रहते । ७०६ - इगन्त धातु से परे झलादि सन् कित् होता है । ७१०-ग्रह गुद्द् और उगन्त धातु से परे स को इट् नहीं होता । इति सन्नन्तप्रकिया । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते यङन्तप्रक्रिया २०३ अथ यङन्तप्रक्रिया ७११ धातोरेकाचो हलादेः क्रियासमभिहारे यङ ३।१। २२ । पौनः पुन्ये भृशार्थे च द्योत्ये 'धातोरेकाचो हलादेर्यङ स्यात् । ७१२ गुणो यङ-लुकोः ७ । ४ । ८२ । अभ्यासस्य गुणो यङि यङ्लुकि च । ङिदन्तत्वादात्मनेपदम् । पुनः पुनरतिशयेन वा भवति-बोभूयते । बोभूयाश्चक्रे । अवोभूयिष्ट । ७१३ नित्यं कौटिल्ये गतौ ३।१।२३ । मत्यर्थात् कौटिल्य एव यङ् स्यात्, न तु क्रियासमभिहारे। . ७१४ दीर्घोऽकितः ७ । ४ । ८३ । अकितोऽभ्यासस्य दी| यङि यलुकि च । कुटिलं व्रजति-वाव्रज्यते । इति कित्वाद्गुणाभावे द्वित्वेऽभ्यासत्वेऽभ्यासह्रस्वेऽभ्यासभकारस्य बत्छो सस्य षल्ने 'बुभूष' इत्यस्य पुनर्षांतुसंज्ञायां लटि तिपि शपि सिध्यति रूपं 'बुभूषति' इति । इति समन्ताः । १- अजादेरनेकाचश्च न यङित्यर्थः । २-बोभूयते-भूधातोः पुनः पुनः प्रतिशयेन वा भवतीति विग्रहे 'धातोरेकाचो हलादेः' इत्यादिना यङि 'सन्यङो' रिति द्विवोऽभ्यासहस्गे बवे च 'गुणो यङ्लुको' रिति अभ्यासस्य गुणे 'बोभूय' इत्यस्य ‘सनाद्यन्ताः' इति धातु संज्ञायां लटि ङित्वादात्मनेपदे लस्य तादेशे शपि पररूपे टेरेत्वे सिध्यति रूपं 'बोभूयते' इति । ३-वाव्रज्यते-'कुटिलं व्रजति' इति विग्रहे 'ब्रज' धातोः 'नित्यं कौटिल्ये' इत्यनेन यहि द्विस्वेऽभ्यासत्वे हलादिशेषे 'दीर्घोऽकितः' इत्यभ्यासस्य दोघे 'वाव्रज्य' इत्यस्य धातुत्वे लटि तादेशे शपि पररूपे टेरेत्वे 'वाव्रज्यते' इति रूपम् । प्रथ यङन्तप्रक्रिया ७११-पौनःपुन्य और भृशार्थ के द्योत्य होने पर एकाच हलादि धातु से यङ् होता है। ७१२-अभ्यास को गुण होता है यङ परे रहते और यङलुक के विषय में । ७१३-गत्यर्थक धातुत्रों से कौटिल्य अर्थ में ही यङ होता है; क्रियासमभिहार अर्थ में नहीं। ७१४-किभिन्न अभ्यास को दीर्घ होता है यङ परे रहते और यङ लुक के विषय में। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ७१५ यस्य हलः ६।४।४६ । यस्येति सङ्घातग्रहणम् । हलः परस्य यशब्दश्य लोप आर्धधातुके । आदेः परस्य । (४७०) अतो लोपः । वाबजाञ्चक । 'वाजिता । ७१६ रीगृदुपधस्य च ७ । ४ । ६० | दुपधस्य धातोरभ्यालस्य रीगागमो यङि यङ लुकि च । वरीवृत्यते । वरीवृताञ्चक्रे । वरीवृतिता। ७१७ क्षुम्नादिषु च ८।४ । ३६ । णत्वं न । 'नरीनृत्यते, जरी गृह्यते । इति यङन्तप्रक्रिया । अथ यङलुगन्तप्रक्रिया ७१८ यङोऽचि च २ । ४ । ७४ । १-वावजिता-'व्रज्' धातोः कौटिल्ये यङि द्विल्गेऽभ्यासकायें दीर्घ च 'वाव्रज्य' इत्यस्य पुनर्धातुत्वे लुटि तप्रत्ययस्य डादेशे मध्ये तासि इटि च 'यस्य हलः' इति यकाराकारस्य लोपे 'वाजिता' इति रूपम् । २-'वृत्' धातुः। ३-नरीनृत्यते पुनः पुनः अतिशयेन वा नृत्यति इति विग्रहे 'नृत्' धातोः 'धातोरेकाचो' इति यङि 'सन्यहोः' इति द्वित्वेऽभ्यासत्वे उरत्वे रपरत्वे हलादिशेषे 'ननृत् य' इत्यत्र 'रीगृदुपधस्य च' इत्यभ्यासस्य रीगागमे 'नरीनृत्य' इत्यस्य धातुत्वात लटो लस्य तादेशे शपि पररूपे एत्वे च 'क्षुभ्नादिषु चे' ति णत्वनिषेधे सिध्यति रूपं 'नरीनृत्यते' इति। ४-जरीगृह्यतेपुनः पुनरतिशयेन वा गृह्णाति इति विग्रहे 'मह' धातोयंङि सम्प्रसारणे 'गृह' इत्यस्य द्वित्वेऽभ्यासत्वे उरदत्ने हलादिशेषे 'ज गृह्य' इत्यत्र 'रीगृदुपधस्य चे ति अभ्यासस्य ७१५-हल से परे 'य' का लोप होता है आर्धधातुक परे रहते । ७१६-ऋदुपध धातु के अभ्यास को रोक का आगम होता है यङ् परे रहते और यङ लुक् के विषय में। ७३७-तुम्नादिगण-पठितों के न को ण नहीं होता है। इति यङन्तप्रक्रिया । अथ यङलुप्रक्रिया ७१८-या प्रत्यय का लुक् होता है अच्प्रत्यय परे रहते । कहीं अच् प्रत्यय के बिना भी लुक होता है। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते यङ्लुगन्तप्रक्रिया यङोऽचि प्रत्यये लुक् स्याच्चकारात्त ं विनापि क्वचित् । श्रनैमित्तिकोऽयम् अन्तरङ्गत्वादादौ भवति । ततः ' प्रत्ययलक्षणेन यङन्तत्वाद् द्वित्वमभ्यासकार्यम् | धातुत्वाल्लडादयः । ( ३८०) शेषात्कर्तरीति परस्मैपदम् । चर्करीतं चेत्यदादौ पाठाच्छुपो लुक् । ७१६ यङोत्रा ७ । ३ । ६४ । २०५ यङ्लुगन्तात् परस्य हलादेः पितः सार्वधातुकस्येड् वा स्यात् । (४४०) भूसुवोरिति गुणनिषेधो यङ लुकि भाषायां न । बोभूतु तेतिक्ते इति छन्दसि अनिपातनात् । वोभवीति, बोभोति । बोभूतः (६०६) श्रभ्यस्तात, बोभुवति । 'बोभवाञ्चकार, बोभवामास । बोभविता । बोभविष्यति । बोभवीतु, वोभोतु, रीगागमे 'जरीगृह्य' इत्यस्य पुनर्धातुत्वे लटो लस्य तादेशे शपि पररूपे टेरेल्वे च सिध्यति रूपं 'जरीगृह्यते' इति । तिङन्तप्रकिया १ - प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम्' इत्यनेनेत्यर्थः २ - यङो ङित्वमाश्रित्यात्मनेपदं तु न भवति, ङिशस्य प्रत्ययसाधारणत्वेन प्रत्ययलक्षणा प्रवृत्तेः, यत्र हि प्रत्ययस्यासाधारणं रूपमाधीयते तत्रैव प्रत्ययलक्षणमिति नियमः । ३ - श्रनेनैव गुणनिषेधे निपातनमिदं 'भवतेश्छन्दस्येव गुणनिषेधो न तु लोके' इति नियमार्थमित्यर्थात् । ४बोभवीति - भूधातोः पुनः पुनरतिशयेन वा भवतीति विग्रहे 'घातोरेकाच' इति यङि 'ङोऽचि चे 'ति द्वित्वात्पूर्वं यङ्लुकि प्रत्ययलक्षणेन यङन्तत्वात् द्वित्वेऽभ्यासत्वे भस्य बत्वे 'गुणो यङ्लुको:' इत्यभ्यासस्य गुणे 'बो भू' इत्यस्य धातुत्वाल्लटि परस्मैपदे तिपि शपि 'चकरीत चे' त्यदादौ पाठाच्छपो लुकि 'यङो वा' इति पाक्षिके ईडागमे 'भूसुवो - स्तिङि' इति गुणनिषेवस्य भाषायां यङ्लुकि 'वोभूतु तेतिक्ते' इति छन्दसि निपातनात श्रप्रवृत्ते, गुणेऽवादेशे सिध्यति रूपं 'बोभवीति' इति ईडभावपक्षे 'बोभोति' इति रूपम् । ५ – बोभवाञ्चकार - भूघातोर्यंङि यङो लुकि प्रत्ययलक्षणेन पुनर्यन्तत्वाद् द्वित्वेऽभ्यासत्वे गुणे भस्य बत्वे बोभूव इत्यस्य पुनर्घातुत्वाल्लिटि 'कास्यनेकाचोराम् वक्तव्यो लिटी' ति श्रामि 'श्रम:' इति लिटो लुकि कृञोऽनुप्रयोगे लिटो लस्य तिपि गलि ७१६-यङ लुगन्त से परे हलादि पित् सार्वधातुक को ईट् विकल्प से होता है । इति यङ ्मलुकूप्रक्रिया । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् बोभूतात् । बोभूताम् । बोभुवतु । बोभूहि । बोभवानि । बोभवीत् । श्रबोभोत् । श्रबोभूताम् । बोभुवुः । बोभूयात् । बोभूयाताम् । बोभूयुः । बोभूयात् । बोभ यास्ताम् । वोभूयासुः (४३९) । गातिस्थेति सिचो लुक् । ( ७१६) ङो बेतीट्पक्षे गुणं बाधित्वा नित्यत्वाद् वुक् । 'अबोभवीत्, अबोभोत् अबोभूताम् । अवोभवुः । श्रवोभविष्यत् । इति यङ्लुगन्ताः अथ नामधातवः ७२० सुप आत्मन: क्यच् ३ । १ । ८ । इषिकर्मण एषितुः सम्बन्धिनः सुबन्तादिच्छायामर्थे क्यच् प्रत्ययो वा स्यात् । ७२१ सुपो धातु- प्रातिपदिकयोः २ । ४ । ७१ । एतयोरवयवस्य सुपो लुक् । ७७२ क्यचि च ७ । ४ । ३३ गुणेऽवादेशे 'बोभवाम् कृम' इति स्थितौ द्वित्वेऽभ्यासे उरदत्वे रपरे हलादिशेषे श्चुत्वे 'प्रचोणिति' इति वृद्धौ भस्यानुस्वारे परसवर्णे च सिध्यति रूपं 'बोभवाकार' इति । अबोभवीत् भूवार्तोङि यङो लुकि प्रत्ययलक्षणेन यङन्तत्वाद् द्वित्वेम्यासकार्ये 'बोभू' इत्यस्य धातुत्वाल्लुङि तिपीकारलोपेऽडागमे मध्ये ब्लौ ब्लेः सिचि 'गाति-स्थे 'ति सिज्लुकि 'यङने वा' इति ईडागमे 'श्र बो भू ई तु' इति स्थितौ प्रकृति ग्रहणे यङ्लुगन्तस्यापि ग्रहणमिति न्यायात् 'भुवो वुग्लुङ लिटो:' इति वुगागमे सिध्यति रूपम् 'प्रबोभूवीत्' इति । इति यङ्लुगन्ताः । 1 २ - इच्छाकतुः । श्रथ नामघातवः ७२०- इष् धातु के कर्म और इच्छा कर्ता के सम्बन्धी के वाचक सुबन्त से इच्छा अर्थ में क्यच होता है विकल्प से । ७२१—धातु और प्रातिपदिक के अवयव सुप् का लुक् होता है । ७२२ - वर्ण को ईकारादेश होता है क्यच् परे रहते । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते नामधातवः अवर्णस्य इः । श्रात्मनः पुत्रमिच्छति 'पुत्रीयति । ७२३ नः क्ये १ । ४ । १५ । २०७ क्यचि क्यङि च नान्तमेव पदं नान्यत् । ' नलोपः । ' राजीयति । नान्तमेवेति किम् - वाच्यति (६१२) हलि च । गीर्यति । पूर्यति । धातोरित्येव । नेह - दिवमिच्छति । ६ दिव्यति । ७२४ क्यस्य विभाषा ६ । ४ । ५० । ७ हलः परयोः क्यच्क्यङोर्लोपो वार्धधातुके । श्रादेः परस्य । श्रतो लोपः । 'तस्य स्थानिवत्त्वाल्लघूपधगुणो न । 'समिधिता, समिध्यिता । ७२५ काम्यच्च ३ । १ । ६ । १ - पुत्रीयति - 'पुत्रमात्मन इच्छति' इति विग्रहे 'पुत्र ग्रम्' इति सुबन्तात् 'सुप प्रात्मनः क्यच्' इति क्यचि अनुबन्धलोपे 'पुत्र अम्र य' इत्यस्य 'सनाद्यन्ताः' इति धातुत्वे 'सुमो धातुप्रातिपदिकयो:' इति श्रमो लुकि 'क्यचिच' इति ईत्वे 'पुत्रोय' इत्यस्माललटि तिपि शपि पररूपे सिध्यति रूपं 'पुत्रीयति' इति । पुत्रीयाञ्चकार, पुत्री - यिता । लुङि - प्रपुत्रीयोत् । २ - नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य' इत्यनेन । ३- राजीयति - 'राजानमात्मन इच्छति' इति विग्रहे 'राजन्' शब्दात् द्वितीयान्तात् क्यचि सुपो लुकि 'नः क्ये' इति पदत्वेन ' नलोपः' इत्यादिना नलोपे 'क्यचि चे' ति ईत्वे 'राजी' इत्यस्माद् धातुत्वाल्लटि तिपि शपि पररूपे सिध्यति रूपं 'राजीयति' इति । ४- प्रन्यथाऽत्र चोः कुरिति कुत्वं, 'झलां जलोऽन्ते' इति जश्त्वं च स्यात् । ५-गीर्यतिगिरमात्मन इच्छतीति विग्रहे द्वितीयान्तात् 'गिर्' शब्दात् क्यचि सुपो लुकि 'हलि चे' ति दीर्घे 'गी' इत्यस्य धातुत्वात् लटि तिपि शपि पररूपं सिध्यति 'रूप' गीर्यति' इति । ६- नात्र दिव धातुः, किन्तु सुबन्तम् । तेन नात्र हलि चेति दीर्घः । ७ – इति 'यू' - मात्रस्य लोपः, ततोऽवशिष्टस्य 'प्र' इत्यस्य 'श्रतो लोपः' इत्यनेन लोपः । ८ - प्रल्लोपस्य । ६- समिधिता- समिधमात्मन इच्छतोति विग्रहे द्वितीयान्तात् 'समिध' शब्दात् ७२३–क्यच् और क्यङ् परे रहते नान्त को ही पद संज्ञा होती है अन्य की नहीं । ७२४ - हल् से परे क्यच् और क्यङ्का लोप होता है विकल्प से आर्धधातुक परे रहते । ७२५–उक्त विषय में काम्यच् प्रत्यय होता है । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् उक्तविषये 'काम्यच् स्यात् । पुत्रमात्मन इच्छति-पुत्रकाम्यति । पुत्रकाम्यिता। ७२६ उपमानादाचारे ३ । १ । १० । उपमानात् कर्मणः सुबन्तादाचारेऽर्थे क्यच् । पुत्रमिवाचरति-पुत्रीयति छात्रम् । विष्णूयति द्विजम् । (सर्वप्रातिपदिकेभ्यः क्विव्वा वक्तव्यः)। (२७४) अतो गुणे। कृष्ण इव पाचरति कृष्णति । स्व इवाचरति स्वति । "सस्वौं। ७२७ अनुनासिकस्य विझलोः क्ङिति ६ । ४ । १५ । अनुनासिकान्तस्योपधाया दीर्घः स्यात् क्यौ झलादौ च विङति । इदमिवाचरति = इदामति । राजेव = राजानति । पन्था इव = पथीनति । क्यचि सुपो लुकि 'नः क्ये' इति नान्तस्येव पदत्वनियमेनात्र पदत्वाभावाद् जश्त्वाभावे 'समिध्य' इत्यस्माल लुटि तिपि तस्य डादेशे तासि इटि ‘समिध्यइता' इत्यत्र 'क्यस्य विभाषा' इति यलोपे 'प्रतं लोपः' इति अल्लोपे 'अल्लोपस्य स्थानिवत्त्वात लघूपधगुणाभावे सिध्यति रूपं 'समिधिता' इति । ___-उच्चारणसामर्थ्यात्कस्य नेत्वम् । २-विष्णूमिवाचरति । प्रकृत्सावधातुकयोरिति दीर्घः । ३-अयं विप प्राचारेऽर्थे, कत्तरि उपमानवाचकाद् भवति । ४-कृष्णति-कृष्ण इव प्राचरतीति विग्रहे प्रथमान्तात् कृष्णशब्दात् 'सर्वप्रातिपादिकेभ्यः किव्वा वक्तव्यः' इति विपि सुपो लुकि क्विपश्चापि सर्वापहरे 'कृष्ण' इत्यस्य धातुत्वे लटि तिपि शपि अनुबन्धलोपे पररूपे सिध्यति रूप 'कृष्णति' इति । ५-लि 'प्रचो ठिणति' इति वृद्धौ ‘ात प्रौ णल' इति औत्वम् ६ इदामति-इदमिवाचरतीति विग्रहे प्रथमान्तादिदम-शब्दात् 'सर्वप्रातिपदिकेभ्यः' इत्याविना विपि सुपो लुकि विपश्चापि सर्वापहारे 'इंदम्' इत्यस्य धातुत्वालाट तिपि शपि 'अनुनासिकस्य विझलोः' इत्युपधादीर्घ सिध्यति रूपम् 'इदामति' इति । ए 'राजानति' 'पथीनती' त्यादयः । ७२६-उपमानवाचक कर्मसंज्ञक सुबन्त से प्राचार अर्थ में क्यच होता है। • वा०-प्रातिपदिक मात्र से स्विप होता है विकल्प से आचार अर्थ में ।) ६२७-अनुनासिकान्त की उपधा को दीर्घ होता है क्वि और झलादि कित् ङित् परे रहते । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ तिन्क्ते नामधातुग्रक्रिया २०६ ७२८ कष्टाय क्रमणे ३ । १ । १४ । चतुर्थ्यन्तात् कष्टशब्दादुत्साहेऽर्थे क्यङ स्यात् । कष्टाय क्रमते'कष्टायते । पापं कर्तुमुत्सहते, इत्यर्थः । ७२६ शब्द वैर-कलहाभ्र-कराव-मेघेभ्यः करणे ३ । १ । १७ । एभ्यः कर्मभ्यः करोत्यर्थे क्यङ् स्यात् । शब्दं करोति = शब्दायते । तत्करोति तदाचष्टे' इति णिच् । (प्रातिपदिकाद्धात्वर्थे बहुलमिष्ठवच्च)-प्रातिपदिकाद्धात्वर्थे णिच् स्यात्, इष्ठे यथा प्रातिपदिकस्य पुंवद्भाव-रभाव-टिलोपविन्मतुब्लोप-यणादिलोप-प्र-स्थ-स्फाद्यादेश-भसंशास्तद्वण्णावपि स्युः। इत्यल्लोपः घटं करोत्याचष्टे वा "घट यति । इति नामधातवः १-कष्टम् = पापम् । कष्टायते-चतुर्थ्यन्तात् कष्टशदात कष्टाय क्रमणे' इति क्याड सुपो लुकि 'प्रकृत्सार्वधातुकयो' रिति दीर्घ 'सनाद्यन्ताः' इति कष्टाय' इत्यस्य धातुत्वे डित्वादात्मनेपदे लटि तादेशे शपि टेरेत्वे पररूपे च सिध्यति रूपं 'कष्टायते' इति । २-शब्दायते-'शब्दं करोति' इति विग्रहे द्वितोयान्तात 'शब्द'-शब्दात करोत्यर्थे 'शब्चबैरकलहाभ्र' इत्यादिना क्यङि प्रत्यये सुपो लुकि 'अकृत सार्वधातुकयो'रिति दीर्घ शब्दाय' इत्यस्मात् लटि तादेशे शपि टेरेल्वे पररूपे सिध्यति रूपं 'शब्दायते' । ३-पुवद्भावो यथा-पट्वीमाचष्टे पठयति, (भस्याऽढे तद्धिते, इत्यनेन)। रभावो यथा-दृढं करोति द्रढयति । टिलोपो यथा-पटुमाचष्टे पटयति । विनो लुग यथा-स्रग्विणम् प्राचष्टे स्रजयति । मतुपो लुग्यपा-श्रीमन्तौं करोति श्राययति । यणादिपरलोपो यथा-स्थूलमाचष्टे स्थवयति, प्रादेशो यथा-प्रियमाचष्टे प्रापयति । स्थादेशो यथा-स्थिरं करोति स्थापयति । स्फादेशो यथा-स्फिरमाचष्टे स्फापयति ! भसंज्ञा यथा-पट्वीमाचष्टे पटयति । ४-टिसज्ञकम्य-अकारस्य लोपः । ५-घटयति-घटं करोत्याचष्टे' वेति विग्रहे द्वितीयान्ताद् ‘घट' शब्दात 'प्रातिपदिकाद्धात्वर्थे' इति णिचि इष्ठवद्भावे च सुपो लुकि इष्ठवभावाट्टिलोपेऽल्लोपस्य स्थानिवत्त्वाद् उपधावृद्धयभावे 'घटि' इत्यस्य धात त्वाल्लटि तिपि शपि गुणेऽयादेशे सिध्यति रूपं 'घटयतो' ति । इति नामधातुप्रकरणम् । ७२८-चतुर्थ्यन्त कष्ट शब्द से उत्साह अर्थ में क्यप होता है। ७२६-कर्मवाचक शब्द-वैरादि शब्दों से क्या होता है करोति अर्थ में । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् अथ कण्डवादयः ७३० कण्ड्वादिभ्यो यक ३ । १ । २७ । एभ्यो 'धातुभ्यो नित्यं यक् स्यात् स्वार्थे । कण्डू गात्रविघर्षणे ।। कण्डूयति, कण्डूयते। इत्यादि । इति कण्डवादयः । अथात्मनेपदप्रक्रिया ७३१ कर्तरि कर्मव्यतिहारे १ । ३ । १४ । कियाविनिमये द्योत्ये कर्तर्यात्मनेपदम् । व्यतिलुनीते - अन्यस्य योग्यं लवनं करोतीत्यर्थः। __-धातुग्रहणं प्रातिपदिकनिवृत्य म-द्विविधा हि कण्ड्वादयो धातवाः, प्रातिपदिकानि च, तत्र धातुभ्य ऐव स्यादित्यर्थः। यकः कित्वेन धातवः ( कण्डवादयः) इति ज्ञायते । कराडून इति दीर्घपाठेन प्रातिपदिकान्यपीति, यदि तु धातव एव स्युस्तहि ह्रस्वान्ते पठितेऽपि यकि परे 'प्रकृत्सार्वधातुकयोः' 'इति दोघण 'कण्डूयते' इति सिद्ध: किं दोघंपाठेन । २-नित्वादुभयपदी। ३-कण्डूयति-कण्डू' धातोः 'कण्ड्वादिभ्योयक्' इति यकि 'कण्डूय' इत्यस्य पुनर्धातुत्वे लटि तिपि शपि सिध्यति रूपं 'कण्डूयति' प्रात्मनेपदे 'कण्डूयते' इति । ४-व्यतिलुनीते-व्यतिपूर्वकात 'लू' धातोः नित्वादुभयपदे प्राप्ते 'कत्तरि कर्मव्यतिहारे' इति 'अन्यस्य योग्यं लवमं करोति' इत्यर्थे प्रात्मनेपदमेव प्रात्मनेपदे च लटस्तादेशे शपोऽपवादे श्ना' विकरणे 'ई हल्यो' रिति प्रकारस्य ईत्व सिध्यति रूपं 'व्यतिलुनीते' इति । (वा०-(१) करोति और प्राचष्टे अर्थ में णिच् होता है। (२) प्रातिपदिक से धात्वर्थ में.णिच् होता है बहुलता से वह इष्ठवत् होता है । ) इति नामधातवः। प्रथकण्डवादयः ७३०-कण्ड्वादिगणपठित धातुओं से नित्य यक् होता है स्वार्थ में। इति कण्ड्वादयः। अथ प्रात्मनेपक्रिया ७३१-क्रिया का विनिमय (अदलावदली) द्योत्य हो तो धातु से श्रात्मनेपद होता है कर्ता में। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विडन्ते आत्मनेपदप्रक्रिया २११ ७३२ न 'मतिहिंसाथभ्यः १।३ । १५ । व्यतिगच्छन्ति । त्यतिघ्नन्ति । ७३३ नेविंशः १ । ३ । १७ । अनिविशते। ७३४ परिव्यवेभ्यः क्रियः १ । ३ । १८ । परिक्रीणीते । "विक्रीणीते । अवक्रीणीते । ७३५ वि-पराभ्यां जेः १ । ३ । १६ । *विजयते । पराजयते। ७३६ समय-प्र-विभ्यः "स्थः १ । ३ । २२ । 'सन्तिष्ठते। 'अवतिष्ठते। प्रतिष्ठते । वितिष्ठते । १-गत्यर्थेभ्यो हिसार्थेभ्यश्च धातुभ्यः पूर्वसूत्रप्राप्तम् प्रात्मनेपदं न स्यादित्यर्थः । २-व्यतिघ्नन्ति-व्यति' पूर्वकाद् ‘हन्' धातोर्लटि प्रथमपुरुषबहुवचने 'अन्यस्य योग्य हननं करोतो' त्यर्थे 'कत्तंरि कमव्यतिहारे' इत्यात्मनेपदे प्राप्ते 'न गतिहिंसा भ्यः' इति तनिषेधे परस्मैपदमेव । ३-निविशिते-'नि' पूर्वकाद् ‘विश्' धातोः 'नेविंशः' इत्यात्मनेपदनियमे 'निविशते' इत्येव रूपम् । ४-'परि-वि अव'-इत्येतदुपसर्गपूर्वस्य क्रीणातेःप्रात्मनेपदमित्यर्थः--सूत्रस्य । ५-विक्रीणीते-विपूर्वकात् 'की' धातोः जित्वादुभयपदे प्राप्ते 'परिव्यवेभ्यः कियः' इत्यात्मनेपदनियमे 'विक्रोणीते' इत्येव रूपम् । ६-विजयतेविपूर्वकात् 'जि' धातोः सामान्यतः शेषात् कर्तरि परस्मैपदे प्राप्ते 'वि-पराभ्यां जे.' इत्यात्मनेपदम् । ७-स्थ = 'ठा' ( गतिनिवृत्तौ) इति धातोः 'सम्, अव, प्र, वि' इत्येतदुपसर्गपूर्वकादात्मनेपदमित्यर्थः । ८-सन्तिष्ठते । सन्तस्थे । संस्थाता। संस्थास्यते । सन्तिष्ठाताम् । सतिष्ठते । सन्तिष्ठेत। संस्थासीष्ट । समस्थित ( स्थाध्वोरिच' 'हस्वादङ्गात्' इति सिचो लुक् ) । समस्थास्यत । ( इति रूपाणि) । ६-अवतिष्ठते-'अव 'पूर्व ७३२-कर्मव्यतिहार अर्थमें गत्यर्थक और हिसार्थक धातुओं से आत्मनेपद नहीं होता। ७३३-नि उपसर्गपूर्वक विश् धातु से आत्मनेपद होता है । ७३४-परि-वि.अवपूर्वक क्रोञ् धातु से आत्मनेपद होता है । ७३५-वि और परापूर्वक जि धातु से आत्मनेपद होता है। ७३६-सम्-अव-प्र-विपूर्वक स्था धातु से आत्मनेपद होता है। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ७३७ 'अपह नव ज्ञः १।३ । ४४ । शतम जानीते - अपलपतीत्यर्थः। .. ७३८ अकमकाच १।३। ४५ । सर्पिषो जानी = सर्पिषोपायेन प्रवर्तत इत्यर्थः । ७३६ उदश्चरः सकर्मकात् १ । ३ । ५३ । धर्ममुञ्चरते = उल्लङ्घ्य गच्छतीत्यर्थः । ७४० "समस्तृतीयायुक्तात् । १ । ३ । ५४ । परथेन सञ्चरते। ७४१ दाणश्च सा चेच्चतुर्थ्यर्थे १ । ३ । ५५ । संपूर्वादाणस्तृतीयान्तेन युक्तादुक्तं स्यात् तृतीयाचेञ्चतुर्थ्यर्थे । 'दास्या 'संयच्छते कामी। कात् 'स्था' धातोः सामान्यतः शेषात् कर्तरि परस्मैपदे प्राप्ते 'समव-प्र-विभ्यः स्थः' इत्यात्मनेपदे 'प्रवतिष्ठते' इति रूपम् । १-अपहवे अपलापे, गोपने इति यावत् । २–अपजानीते-'अप' पूर्वकात् 'ज्ञा' धातोः स्वरितेतः उभयपदे प्राप्ते 'अपह् नवे ज्ञः' इति सूत्रेणापलापेऽर्थे प्रात्मनेपदमेवेति 'शतमपजानीते' इत्येत्र । ३-लिटि उच्चेरे। लुङि उदचरिष्ट । ४-संपूर्व कात चरघातोः तृतीयान्तेन योगे प्रात्मनेपदमित्यर्थः । ५-रथेन सञ्चरते-तृतीयान्तयुक्तात –'सम्' पूर्वकात 'चर' धातोः स्वरितेत: उभयपदे प्राप्ते 'समस्तृतीयायुक्तात्' इत्यात्मनेपदनियमे 'रधेन सञ्चरते' इत्येव । ६-प्रात्मनेपदम् । ७-'दास्या संयच्छते कामी'-अत्र 'दास्या' इति 'अशिष्टव्यवहारे दाणः प्रयोगे चतुर्थ्यर्थे तृतीया' इति वार्तिकेन चतुर्थ्यर्थे तृतीयास्ति । तथाच 'दारणश्च सा चतुथ्यः' इति सूत्रेण 'संयच्छते' इत्यात्मनेपदम् । ८-पाघ्राध्मेति दाणो 'यच्छ' प्रादेशः। ७३७-छिपाने अर्थ में ज्ञा धातु से आत्मनेपद होता है। ७३८-अकर्मक ज्ञा धातु से आत्मनेपद होता है। ७३६-उत्पूर्वक सकर्मक चर् धातु से आत्मनेपद होता है। ७४०-तृतीयान्त से युक्त संपूर्वक चर् धातु से अात्मनेपद होता है । ७४१-तृतीयान्त से युक्त सम्-पूर्वक दाग धातु से आत्मनेपद होता है यदि तृतीया जतुर्थी के अर्थ में हो। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते आत्मनेपदप्रक्रिया २१३ ७४२ पूर्ववत् सनः १ । ३ । ६२ । सनः पूर्वो यो धातुस्तेन तुल्यं सन्नन्तादप्यात्मनेपदं स्यात् । 'एदिधिषते। ७४३ हलन्ताच १ । २ । १० । इक्समीपाद्धलः परो झलादिः सन् कित् । निविविक्षते । ७४४ गन्धनावक्षेपण-सेवन-साहसिक्य-प्रतियत्न-प्रकथनोपयोगेषु 'कुञः १ । ३। ३२ । गन्धनं = सूचनम् । "उत्कुरुते = सूचयतीत्यर्थः । अवक्षेपणं = भर्सनम्। श्येनो वर्तिकामुत्कुरुते = भर्त्सयतीत्यर्थः हरिमुपकुरुते = सेवत इत्यर्थः । परदारान् प्रकुरुते - तेषु सहसा प्रवर्तते । एधोदकस्योपस्कुरुते-गुणमाधत्ते। कथाः प्रकुरुते = कथयतीत्यर्थः । शतं प्रकुरुते धर्मार्थ विनियुङ्क्ते । एषु १-एदिधिषते-'ए' धातोः सन्नन्ताद् द्वित्वेऽभ्यासत्वे जश्त्वे षत्वे 'एदिधिष' इत्यस्य धातुस्वे लटि 'पूर्ववत् सनः' इत्यनन सनः प्रकृते 'रेघ' धातोरात्मनेपदित्वात् सन्नन्तादपि तस्मादात्मनेपदमेवेति लटि तादेशे शपि पररूपे टेरेत्वे 'एदिधिषते' । २-निविविक्षते-नि-विशधातुः, सतः कित्वानोपधागुणः शस्य षत्वे (षढोः कः सि-इति षस्य कत्वे परस्य षत्वे क्षः )। 'निर्विशः' इति शुद्धादात्मनेपदम् , सन्नन्ताच 'पूर्ववत्सनः' इति सूत्रेण । ३-एषु अर्थेषु कृष आत्मनेपदमेवेत्यर्थः । ४-उत्कुरुते उत् पूर्वकात् 'कृन' धातोः जित्वादुभयपदे प्राप्ते 'गन्धनावक्षेपण' इत्यादिना सूत्रेण गन्धने = सूचनेऽर्थे प्रात्मनेपदनियमः । ५-एधोदकस्योपस्कुरुते-धश्च दकं च एधोदकम् (एधः = इन्धनम, दकं = जलम् ) तस्य एधोदकस्य उपस्कुरुते = ( 'उपात्प्रतियत्न' इति सुट् 'कृनः प्रतियस्ने' इति षष्ठी )= गुणमाधत्ते इत्यर्थः । अत्र एंधशब्दोऽदन्तो निपातितः । 'उपस्कुरुते' इत्यत्र गुणाधानेऽर्थे 'गन्धनावक्षेपण' इत्यनेनात्मनेपदम् । एधस्य-काष्ठस्य शोषणादि गुणाधानम् । दकस्य-जलस्य तु गन्धद्रव्यसम्पर्क-जनित-गन्धाधानम् । ७४२- सन से पूर्व धातु के तुल्य सन्नन्त से भी आत्मनेपद होता है। ७४३-इकसमीप हल से परे झलादि सन् कित् होता है। ७४४-गन्धनादि अथों में कृ धातु से आत्मनेपद होता है। इत्यात्मनेपदिनः । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् किम् — कटं करोति । ( ६७२) भुजोऽनवने । ओदनं भुङ्क्ते । अनवने किम् - महीं भुनक्ति । इत्यात्मनेपदप्रक्रिया | अथ परस्मैपदप्रक्रिया ७४५ अनुपराभ्यां कृञः १ । ३ । ७६ । कर्तृगे च फले गन्धनादौ च 'परस्मैपदं स्यात् 'अनुकरोति । पराकरोति ७४६ अभि-प्रत्यतिभ्यः क्षिपः १ । ३ । ८० । क्षिप प्रेरणे । स्वरितेत् । "अभिक्षिपति । ७४७ प्राद्वहः १ । ३ । ८१ । प्रवहति । ७४८ परेषः १ । ३ ।८२ । परिमृष्यति । ७४६ व्याङपरिभ्यो रमः १ । ३ । ८३ । मु क्रीडायाम् । विरमति । १- भुङ्क्ते = मक्षयति । २ - पालयतीत्यर्थः । इत्यात्मनेपदप्रक्रिया । ३ - परस्मैपदमित्यनुवर्त्तते । ४ - अनुकरोति - 'कृञ' धातोः त्रिस्वादुभयपदे प्राप्ते 'अनुपराभ्यां कृञः' इति परस्मैपदनियमः । ५ - अभिक्षिपति - 'क्षिप्' धातुः स्वरितेत् तस्मादुभयपदप्राप्तौ 'अभि-प्रत्यतिभ्यः क्षिपः' इति परस्मैपदम् । ६ - विरमति 'रम्' धातुरनुदात्तेत्, ततः श्रात्मनेपदे प्राप्ते 'व्याङ - परिभ्यो रमः इति परस्मैपदं तद्वाधकं विधीयते । अथ परस्मैपदिनः ७४५–क्रिया का फल यदि कर्ता को प्राप्त होता हो और गन्धादि श्रर्थ द्योत्य हो वो और परा उपसर्ग पूर्वक कृ धातु से परस्मैपद होता है । ७४६ - श्रभि प्रति श्रुतिपूर्वक क्षिप धातु से परस्मैपद होता है। ७४७–परि उपसर्ग से परे मृष् धातु से परस्मैपद होता है । ७४८-परि उपसर्ग से परे मृष् धातु से परस्मैपद होता है । ७४ε-वि-श्राङ-परि-उपसर्ग से परे रम् धातु से परस्मैपद होता है । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहन्ते भाषकप्रक्रिया मु ७५० उपाच्च १ । ३ । ८४ । यज्ञदत्तमुपरमति । उपरमयतीत्यर्थः । अन्तर्भावितण्यर्थोऽयम् । इति पदव्यवस्था । अथ भावकर्मप्रक्रिया ७५१ भावकर्मणोः १ । ३ । १३ । भावे कर्मणि च धातोः लस्यात्मनेपदम् । ७५२ सार्वधातुके यक ३ । १ । ६७ । २१५ धातोर्यक् भावकर्मवाचिनि सार्वधातुके । भावः - क्रिया । सा च भाषाकलकारेणानूद्यते । युष्मदस्मद्भयां सामानाधिकरण्याभावात् प्रथमः पुरुषः । तिवाच्यक्रियाया श्रद्रव्यरूपत्वेन द्वित्वाद्यप्रतीतेर्न द्विवचनादि, किन्त्येक वचनमेवोत्सर्गतः | त्वया मया श्रन्यैश्च भूयते । बभूवे । ७५३ स्थ- सिच सीयुट-तासिषु भावकर्मणोरुपदेशेऽज्झनग्रहदृशांबा 'चिएखदिट् च ६ । ४ । ६२ । तेन 'वि' पूर्वकाद् रमे: 'विरमति' इत्येव । लुङि = व्यरंसीत्, व्यरंसिष्टाम्, इत्यादि यमरमेति इट् सकौ । इति परस्मैपदप्रकरणम् । १– द्रव्य एव सङ्ख्याद्यन्वयो नाऽद्रव्ये । २ - स्वभावत एकवचनं, न सङ्ख्यापेक्षी - त्यर्थः । ३ – कत्तुरनभिहितस्वात्तृतीया । ४ - भूयते इत्यत्र 'लः कर्मणि च ...' इति भावे लकारः । भूयते -'भू' धातोः भावेऽर्थे लटि 'भावकर्मणो' रित्यात्मनेपदे 'लटस्तादेशे 'सार्वधातुके यक्' इति यकि टेरेल्वे यकः कित्वाद् गुणाभावे सिध्यति रूपं 'भूयते' इति । 'धनुभूयते श्रानन्दः' इत्यत्र कर्मणि लकारः । पूर्वत्र कर्ताऽनुक्तः, उत्तरत्रापि । कर्म ( प्रानन्दः ) उक्तम् । एतद्विषये विशेषस्तु 'लः कर्मणि' इति सूत्रविवृतौ द्रष्टव्यः । ७५० - उपसर्ग से परे रम् धातु से परस्मैपद होता है । इति परस्मैपदप्रक्रिया | अथ भावकर्म प्रक्रिया ७५१ - भाव और कर्म में धातु के लकार के स्थान में श्रात्मनेपद होता है । ७५२ - धातु से यक् प्रत्यय होता है भावकर्मवाची सार्वधातुक परे रहते । ७५.३ - उपदेश में जो अच्, तदन्त जो धातु और हन्-ग्रह-दृश्-धातु, इनको Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् उपदेशे योऽच् तदन्तानां हनादीनां च चिणीवाङ्गकार्य वा स्यात् स्यादिषु भावकर्मणोर्गम्यमानयोः स्यादीनामिडागमश्च । चिण्वदभावपक्षेऽयमिट । चिण्वद्भावाद् वृद्धिः। 'भाविता, भविता । भाविष्यते, भविष्यते, । भूयताम् । अभूयत । भूयेत । भाविषीष्ट, भविषीष्ट,। ७५४ चिण भावकर्मणोः ३ । १ । ६६ । च्लेश्चिण् स्याद् भावकर्मवाचिनि तशब्दे परे 'अभावि। अभाविष्यत, अभविष्यत । अकर्मकोऽप्युपसर्गवशात सकर्मकः । अनुभूयते "आनन्दश्चैत्रेण त्वया मया च । अनुभूयते। अनुभूयन्ते । त्वमनुभयसे । अहमनुभूये । अन्वभावि । अन्वभाविषाताम्, अन्वभविषाताम् । णिलोपः-"भाव्यते। भावयाञ्चक । भावयाम्बभूवे । भावयामासे । चिण्वदिट । भाविता । अाभी. यत्वेनासिद्धत्वारिणलोपः । भावयिता । भावयिषीष्ट । अभावि । अभाविपाताम् । अभावयिषाताम् । भृष्यते। बुभूषाञ्चके। बुभूषिता । वुभूषि १-भाविता-'भू' धातोर्भावे लुटि प्रात्मनेपदे लुटस्तकारे तासि डादेशे टेलोपि 'स्य-सिच् इत्यादिना वा चिण्वभावे इटि च वृद्धौ पावादेशे 'भाविता' इति चिण्वद्भावाभावपते 'भविता' इति रूपम् । २-अभावि-म धातो वे लुङि आत्मनेपदे लुङस्तकारेऽटि प मध्ये च्लो, च्लेश्च 'चिण भावकर्मणो' रिति चिणि "चिणो लुक्' इति तलोपे वृद्धौ मावादेशे सिध्यति रूपम् 'प्रभावि' इति । ३-अर्थभेदात्, तथा चोक्तम् 'उपसर्गेण धात्वर्थो बलादन्यत्र नीयते । प्रहाराऽऽहार-संहार-विहार-परिहारवत्' । ४-कमण उक्तत्वात प्रथमा । ५-एयन्तस्य 'भू' धातोः कर्मणि प्रत्यये एतानि रूपाणि । 'णेरनिटि' इति णिलोपः । ६-चिएवदिटः-भाभीयत्वात् 'णेरनिटि' इति सूत्रदृष्टयाऽसिद्धत्वात् सत्यपि-इटि, णिलोप इत्यर्थः । ७-सन्नन्तस्य 'भू' धातोः भावे रूपाणि । चिण के समान अङ्गकार्य विकल्प से होता है; स्य-सिच-सीयुट और तास् परे रहते, भाव और कर्म की गम्यमानता में; साथ ही स्यादियों को इडागम भी होता है। ७५४-च्लि के स्थान पर चिण होता है मावकर्मवाची तशब्द परे रहते। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिङन्ते भावकर्मप्रक्रिया २१७ प्यते। 'बोभूय्यते । बोभूयते । (४८३) अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः । स्तूयते विष्णुः । स्ताविता, स्तोता। स्ताविष्यते, स्तोष्यते । अस्तावि । अस्ताविपाताम्-अस्तोषाताम् । ऋ गतौ । (४६८) 'गुणोति' इति गुणः । 'अर्यते । स्मृ स्मरणे । स्मयते । सस्मरे । 'उपदेशग्रहणाच्चिएवदिट् । आरिता, अर्ता । "स्मारिता, स्मर्ता । (३३४) अनिदितामिति नलोपः। स्रस्यते । इदितस्तु नन्द्यते। 'सम्प्रसारणम् । इज्यते। ७५५ तनोतेर्यकि ६ । ४ । ४४ । आकारान्तादेशो वा स्यात् । तायते, तन्यते । ७५६ तपोऽनुतापे च ६।१ । ६५। तपश्च्लेश्चिण न स्यात् कर्मकर्तर्यनुतापे च । १°अन्वतप्त पापन | १-यङन्तस्य भावे रूपम् । २-इदं यङ्लुगन्तस्य । ३-स्तूयते-'स्तु' धातोः कर्मणि लटि प्रात्मनेपदे लटस्तकारे 'सार्वधातुके यक्'-इति यकि 'प्रकृत्-सावंधातुकयो'रिति दोघे टेरेत्वे 'स्तूयते' इति रूपम् । ४-अस्तावि-स्तु' घातोः कर्मणि लुधि पात्मनेपदे लुङस्तादेशेऽटि मध्ये ग्लौ ग्लेश्चिणि “चिणो लुक्' इति तलोपे वृद्धौ पावादेशे 'प्रस्तावि' इति रूपम् ५-अर्यते-'ऋ' तातोः कर्मणि लटि प्रात्मनेपदे लटस्तादेशे 'सार्वधातुके यक्' इति यकि 'गुणोऽतिसंयोगाद्योः' इति गुणे रपरत्वे च सिध्यति रूपम् 'मयंते' इति । लिटि-पारे । ६-'स्यसिच्....' इति सूत्रे उपदेशेऽजन्तग्रहणात्साम्प्रतम् 'पर' इत्यत्राऽऽजन्तत्वाभावेऽपि भवति चिवदिट' । ७-स्मारिता-'स्मृ' धातोः कर्मणि लुटि प्रात्मनेपदे लुटस्तादेशे तासि तकारस्य डादेशे तासः टिलोपे 'चिएवदिटि' 'प्रचोरिणती' ति वृद्धौ परत्वे 'स्मारिता' इति । पक्षे 'स्मता' इति । ८-वचिस्वपियजा इत्यनेन सम्प्रसारणम् । ६-इज्यते-'यज' धातोः कर्मणि लटि प्रात्मनेपदे लटस्तादेशे यकि टेरेवे 'वचिस्वपी' ति सम्प्रसारणे सिध्यति रूपम् 'इज्यते' इति । १०अन्वतप्त पापेन-पत्र पापेनेति कर्तरि तृतीया 'पुंसा' इति विशेष्यम् । अनुपूर्वकस्य तपेः शोकोऽर्थः । 'पापेन पुंसा प्रशोचि' इति वाक्यार्थः। तयाचैवं सिद्धिः 'अनु' पूर्वकात् ___७५५-तन् धातु को आकार अन्तादेश होता है घिफल्प से यक परे रहते। ७५६-तप धातु की च्लि को चिण आदेश नहीं होता कर्म कर्ता में अनुताप अर्थ की गम्यमानता में। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् (५८८) घुमास्थेतीत्वम् । 'दीयते । धीयते । ददे। ७५७ आतो युक चिरण-कृतोः ७ । ३। ३३ श्रादन्तानां युगागमः स्याञ्चिणि णिति कृति च। दायिता, दाता। दायिषीष्ट, दासीष्ट । अदायि 'अदाायेषाताम् । भज्यते । ७५८ भजेश्च चिणि ६ । ४ । ३३ । नलोपो वा स्यात् । अभाजि, अभजि । लभ्यते । ७५६ विभाषा चिएणमुलोः ७ । १ । ६६ । लभेर्नुमागमो वा स्यात् 'अलम्भि, अलाभि । इति भावकर्मप्रक्रिया। 'तप् धातोः भावे लुङि तादेशेऽटि यणि ब्लौ 'चिण भावकर्मणो' रिति ब्लेश्चिणि प्राप्ते 'तपोऽनुतापे चेति तन्निषिधे, च्लेः सिचि, 'झलो झलि' इति सिचः सस्य लोपे सिध्यति रूपम् 'अन्वतप्त' इति । (अथवा 'अनु' पूर्वकस्य तपेः अभिहननमर्थः। तेन सकर्मकत्वात् कर्मणि लकारः । पापं कतुं तेनाभिहतः पुरुष इति )। १-दीयते-'दा' धातोः कर्मणि लटि तादेशे यकि 'घुमास्थे' ति ईत्वे टेरेस्वे सिध्यति रूपं 'दीयते' इति । २-चिएवदिडभावपक्षे-अदिषाताम्, इत्यादि । ३-अभाजि-'मज' धातोः कर्मणि लुङि आत्मनेपदे तादेशेऽटि मध्ये च्लौ 'चिणभावकमणो' रिति ग्लेश्चिणि 'चिणो लुक्' इति तलोपे 'भब्जेश्च चिरिण' इति वैकल्पिके नकारलोप 'प्रत उपधाया' इति वृद्धौ ‘प्रभाजि' इति रूपम् । नलोपाभावपक्षे 'प्रभञ्जि' इति। ४-अलम्भि-'लभ' धातोः कर्मणि प्रात्मनेपदे लुङि तादेशेऽटि च्लो 'चिण भावकर्मणो' रिति च्लेश्चिणि 'प्र लभ इ त' इति स्थितौ 'चिणो लुक्' इति तलोपे 'विभाषा चिण णमुलोः' इति वा नुमि अनुबन्धलोपे नस्यानुस्वारे परसवणे च 'अलम्भि' इति रूपं, नुमभावे उपधावदौ 'अलाम्भ' इति पम् । इति भावकर्मप्रकिया। ७५७-आदन्त धातुओं को युक् का आगम होता है चिण, णित्, कृत् परे रहते । ७५८-भञ्ज् धातु के न का लोप होता है विकल्प से चिण् परे रहते। ७५६-लभ धातु को नुम् का आगम होता है विकल्प से चिण और णमुल परे रहते इति भावकर्मप्रक्रिया। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिइन्ते कर्मकर्तृप्रक्रिया २१६ अथ कर्मकर्तृप्रक्रिया यदा कमैं व कर्तृत्वेन 'विवक्षितं तदा सकर्मकाणामप्यकर्मकत्वात् कर्तरि मावेच लकारः। ७६० कर्मवत् कर्मणा तुल्यक्रियः ३।१।८७। कर्मस्थया क्रियया तुल्यक्रियः कर्ता कर्मवत् स्यात् । कार्यातिदेशोऽयम् । 'तेन यगात्मनेपदचिण्वदिटः स्युः । पच्यते 'फलम् । अभिद्यते काष्ठम् । अपाचि । अमेदि । भावे तु भिद्यते काष्ठेन । इति कर्मकर्त प्रक्रिया । अथ लकारार्थप्रक्रिया ७६१ अभिज्ञावचने लुट् ३ । २ । ११२ । स्मृतिबोधिन्युपपदे भूतानद्यतने धातोल्ट् । लङोऽपवादः। वस निवासे। "स्मरसि कृष्ण ! गोकुले वत्स्यामः । एवं बुध्यसे, चेतयसे इत्यादिप्रयोगेऽपि । १-सौकर्यातिशयं चोतयितुप्रसिद्धकर्तृव्यापारकस्याऽविवक्षिततया कर्मणः स्वव्यापारे स्वतन्त्रत्वात्तस्य ( कर्मणः) कर्तृत्वविवक्षा भवतीति भावः । २-यथा कर्मणि (मकारे ) यगादयस्तथाऽत्रापीत्यर्थः । ३-भिद्यते काष्ठम्-'देवदत्तः काष्ठं भिनत्ति देवदत्तस्य कर्तुत्वाविवक्षायां कर्मणः काष्ठस्यैव कर्तृत्वविवक्षायां 'भिद्' धातोः कतरि मटि 'कर्मवत् कर्मणा तुल्यक्रियः' इति कर्मवभावाद 'भावकर्मणोः' इत्यात्मनेपदे लस्य तादेशे टेरेवे यकि च सिध्यति रूपं 'भिद्यते काष्ठम्' इति । 'देवदत्तः किं काष्ठं भिनत्ति काष्ठं स्वयमेव भियते' इत्यर्थः । एवं 'पच्यते फलम्' इत्यत्रापि देवदत्तः किं फलं पचति फलं स्वयमेव पच्यते इत्यर्थः । इति कर्मक'प्रकिया। ४-स्मरसि कृष्ण ! गोकुले वत्स्यामः । 'वस्' धातोः भूतानद्यतने लङि प्राप्ते 'अभिशावचने लुट्' इति तदपवादे लुटि उत्तमपुरुषे बहुवचने लस्य मसादेशे मध्ये अथ कमकर्तुप्रतिक्रिया ७६०-कर्मस्था क्रिया के साथ तुल्य क्रियावाला कर्ता कर्मवत् होता है । इति कर्मकर्तृप्रक्रिया । प्रथ लकारार्थप्रकिया ७६१-स्मृतिबोधक उपपद रहते अनद्यतन भूत अर्थ में धातु से लृट् होता है। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ७६२ न यदि ३ । २ । ११३ । यद्योगे उक्तन । अभिजानासि कृष्ण । यद्वने भुमहि । ७६३ लट् स्मे ३ ।२ । ११८ । 'लिटोऽपवादः । यजति स्म युधिष्ठिरः । ७६४ वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद् वा ३ । ३ । १३१ । वर्तमाने ये प्रत्यया उक्तास्ते वर्तमानसामीप्ये भूते भविष्यति च वा स्युः । कदाऽऽगतोऽसि ? यमागच्छामि श्रयमागमं वा । कदा गमिष्यसि ? एष गच्छामि, गमिष्यामि वा । ७६५ ' हेतुहेतुमतोर्लिङ् ३ । ३ । १५६ । स्प्रत्यये 'सस्थार्घातुके' इति क्सः सकारस्य तकारे 'प्रतो दीर्घो यत्रि' इति दीर्घे मसः सकारस्य रुत्वे विसर्गे च 'वत्स्यामः' इति रूपम् । १ - 'परोक्षे लिट्' इत्यस्यापवादः । २-यजति स्म युधिष्ठिरः - 'यज्' धातोः परोक्षभूतानद्यतनेऽर्थे लिटि प्राप्ते 'लट् स्मे' इति स्मयोगे लटि तिपि 'यजति स्म ' इति रूपम् । ३-कदाऽऽगतोऽसि ? श्रयमागच्छामि । अत्र श्राङ् पूर्वंकाद् 'गम्' धातोः भूते लुङि प्राप्त तं बाघित्वा 'वर्तमानसामीप्ये वर्त्तमानवद् वा' इति वैकल्पिके वत्तंमानवद्भावे लटि उत्तमपुरुषैकवचने मिपि शपि छत्वे तुकि श्चुत्वे 'प्रती दोर्घो यत्र' इति दीर्घे 'आगच्छामि' इति रूपम् । ( वर्त्तमानवद्भावाभावपक्षे 'प्रयभागमम्' इति रूपम् ) ४ - कार्यकारणभावे द्योत्ये लिङ् इत्यर्थः । - ७६२ - स्मृति बोधक उपपद रहते यत् शब्द के योग में धातु से लुट् लकार नहीं होता । ७६३ - स्म के योग में लिट् के विषय में धातु से लट् लकार होता है । ७६४ - 'वर्तमाने' के अधिकार में जिस प्रकृति से जो प्रत्यय कहे गये हैं वे सब उसी प्रकृति से वर्तमानसमीप भूत और भविष्यत् अर्थ में भी विकल्प से होते हैं । ७६५ - हेतु-हेतुमद्भाव ( कारण कार्यभाव ) अर्थ में वर्तमान धातु से भविष्यत् अर्थ में लिहू होता है विकल्प से । इति लकारार्थेन तिङन्तं समाप्तम् । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ कृदन्ते कृत्यप्रक्रिया वा स्यात् । कृष्णं नमेच्चत्सुखं यायात्। कष्णं नस्यति चेत्सुखं यास्यति। भविष्यत्येवेप्यते । नेह-हन्तीति पलायते । (४२५ ) विधिनिमन्त्रणेति लिङ् । विधिः-प्रेरणं = भृत्यादनिकृष्टस्य प्रवर्तनम्, यजेत । निमन्त्रणं-नियोगकरणमावश्यके श्राद्धभोजनादौ दौहित्रादेः प्रवर्तनम् , इह भुञ्जीत । आमन्त्रणं = कामचाराऽनुशा, इहासीत । अधीष्टः सत्कारपूर्वको ब्यापार, पुत्रमध्यापयेद्भवान् । सम्प्रश्नः-सम्प्रधारणम् , किं भो वेदमधीयीय उत तर्कम् । प्रार्थनंन्याच्या, भो भोजनं लभेय । एवं लोट । इति लकारार्थप्रक्रिया। इति तिङन्तम् । अथ कृदन्ते कृत्यप्रक्रिया ७६६ धातोः ३ । १।११। आतृतीयाध्यायसमाप्ति ये प्रत्ययास्ते धातोः परे स्युः। (३०२ ) कृदतिडिति कृत्संज्ञा। ७६७ वाऽसरूपोऽस्त्रियाम् ७ । १ । १४ । अस्मिन् धात्वधिकारेऽसरूपोऽपवादप्रत्यय उत्सर्गस्य बाधको वा स्यात् त्यधिकारोक्तं विना'। १-तेन 'प्रचो यत्' 'ऋहलोण्यंत्' इत्याद्यपवादविषये उत्सर्गाः (सामान्याः) तव्यदादयोऽपि प्रवर्तन्ते, भव्यम्-भवितव्यम्, कार्यम्-कत्तंध्यम् । वाच्यम्-वक्तव्यमित्यादि । न समानं रूपं यस्य सोऽसरूपः ( प्रसारूप्ये एवायं वैकल्पिको बाधः । ) सरूप. स्तुत्सर्गस्य नित्यं बाधको भवति यथा-'कर्मण्यण' इत्युत्सर्गस्य 'प्रातोनुपसर्गे कः' इत्यपवादो नित्यं बाधकः-गोदः, कम्बलदः, ( प्रण (अ) क (अ) इत्युभौ हि सरूपी)। स्त्यधिकारे नेयं परिभाषा ( सूत्र) प्रवर्तते, तेन स्त्रियां क्तिन्' इत्युत्सर्गस्य 'अप्रत्ययात्' इत्यपवादो नित्यं बाधकः-चिकीर्षा जिहीर्षा । कृदन्ते कृत्यप्रक्रिया ७६६- 'धातोः' सूत्र से लेकर ततीयाध्यायसमाप्ति पर्यन्त तव्यादि प्रत्यय धातु से परे होते हैं। ७६७-'धातोः' इस सूत्र के अधिकार में असरूप अपवाद प्रत्यय उत्सर्ग का बाधक विकल्प से होता है 'स्त्रियाम्' इस अधिकार को छोड़कर । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ७६८ कृत्याः ७।१।१५। एवुल्तृचावित्यतः प्राक् कृत्यसंशाः स्युः । ७६६ कर्तरि कृत् ३ । ४ । ६७ । कृत्प्रत्ययः कर्तरि स्यात् । इति प्राप्ते । ७७० तयोरेव कृत्य-क्त-खलाः ३ । ४ । ७० । एतो भावकर्मणोरेव स्युः। ७१ 'तव्यत्तव्यानीयरः ३ । २ । ६६ । धातोरेते प्रत्ययाः स्युः । एधितव्यम् , एधनीयं त्वया, भावे-श्रौत्स गिकमेकवचनं क्लीवत्वञ्च । चेतव्यश्चयनीयो वा धर्मस्त्वया ।( केलिमर उपसंख्यानम् ) पचेलिमा माषाः, पक्तव्या इत्यर्थः । भिदेलिमाः सरला, भेत्तव्या इत्यर्थः। कर्मणि प्रत्ययः। ७७२ कृत्यलुटो बहुलम् ३ । ३।११३ । "क्वचित्प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः क्वचिद्विभाषा क्वचिदन्यदेव । विधेर्विधानं बहुधा समीक्ष्य चतुर्विधं बाहुलकं वदन्ति । १ । १-तव्यत्, तव्यः, अनीयर् इति प्रत्ययत्रयम् , तव्यत्तव्ययोः 'तित्स्वरितम्' इति स्वरे भेदः । किञ्च 'पुरणगुण' इति सूत्रे तव्यप्रत्ययान्तस्य समासनिषेधः-यथाब्राह्मणस्य कर्तव्यम् ; तव्यत्-प्रत्ययान्तस्य तु भवत्येव समायों यथा-स्वकर्तव्यम् । २एधितव्यम्-'एध' धातोः 'तयोरेव कृत्यक्त-खलाः ' इति नियमेन 'तव्यत्तव्यानीयरः' इति भावे तव्यप्रत्ययः 'प्राधंधातुकस्येड्वलादेः' इति इटि ‘एघितव्य' इत्यस्य 'कृत्तद्धितसमासाश्च' इति प्रातिपदिकत्वे सौ, भावे प्रौत्सर्गिकक्लोयस्त्वेन सोरमि पूर्वरूपे सिध्यति रूपम् ‘एधितव्यम्' इति । ३-कर्मणि प्रत्ययः । ४-केचित्कर्मकर्तरीति वदन्ति । ५क्वचित्प्रवृत्तिः, अप्राप्तस्यापीति शेषः, यथा-स्नानीयं चूर्णम् इत्यत्र करणेऽप्राप्तस्यापि ७६८-गवुल्तृचौ' सूत्र से पूर्व प्रत्यय-की कृत्यसंज्ञा होती है। ७६६-कृत्संज्ञक प्रत्यय कर्ता में होता है । ७७०-कृत्य, क्त और खलर्थ प्रत्यय भाव और कर्म में ही होते हैं । ७७१ धातु से तव्यत् , तव्य और अनीयर् प्रत्यय होते हैं। (धा०-धातु से केलिमर प्रत्यय होता है)। ७७२-कृत्य प्रत्यय और ल्युट प्रत्यय बहुलता से होते हैं। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ कृदन्ते कृत्यप्रक्रिया स्नात्यनेनेति 'स्नानीयं चूर्णम् । दीयतेऽस्मै दानीयो विप्रः । ७७३ अचो यत् ३ । १ । ६७ । अजन्ताद्धातोर्यत् स्यात् । चेयम् । ७७४ ईद्यति ६ । ४ । ६५ । यति परे आत ईत् स्यात् "देयम् । ५ग्लेयम् । ७७५ पोरदपधात् ३ । १।६८ । पवर्गान्ताद दुपधाद्यत् स्यात् । ण्यतोऽपवादः । शप्यम् । 'लभ्यम् । ७७६ एति-स्तु-शास्व-ह-जुषः क्यप ३ । १ । १०६ । एभ्यः क्यप स्यात्। ७७७ ह्रस्वस्य पिति कृति तुक ६ । ४ । ३४ । अनीयर् प्रत्ययस्य प्रवृत्तिः । क्वचिदप्रवृत्तिः, प्राप्तस्यापीति शेषः, यथा = अग्रसर, इत्यत्र पूर्वपदस्यैदनात्वाप्रवृत्तिर्बाहुलकात् । क्वचिद् विभाषा = विकल्पः, यथा-'मघवा बहुलम्' इति विकल्पः । क्वचिदन्यदेव = (विकल्पप्राप्तस्यापि) नित्यत्वादिकम, यथाउन्मत्तगङ्गम् इत्यत्र नित्यममभावः। तृतीयासमम्योर्बहुलमिति बहुलग्रहणात्। १-'स्ना' धात: करणे 'अनोयर्'। :-सम्प्रदाने प्रत्ययः। ३-'सार्वधातुकार्धधा....' इति गुणः । ४-देयम्-'दा' धातोः 'मचो यत्' इति यत्' प्रत्यये 'ईधति' इत्याकारस्य ईवे गुणे कृते कृदन्तत्वेन प्रातिपदिकत्वात् क्लीबे प्रथमैकवचने 'देयम्' इति । ५-लेयम्'ग्लै' धातोः प्रचोयत्' इति यति 'प्रादेच उपदेशेऽशिति' इत्यात्वे 'ईद्यति' इतीत्वे गुणे कृदन्तत्वात् प्रातिपदिकवे नपुंसके सोरमि पूर्वरूपे "ग्लेयम्' इति सिध्यति । ६-ऋहलोण्यंत्' इत्यस्यापवादः । ७-लभ्यम्-लब्धुं योग्यं लभ्यम् । लम् धातोः 'ऋहलोपर्यत्' इति एयति प्राप्ते 'पोरदुपधाद्' इति तदपवादे यति अनुबन्धलोपे कृदन्तत्वात् प्रातिपदिकत्वे सोरमि पूर्वरूपे सिध्यति रूपं 'लम्यम्' इति । ७७३-अजन्त पातु से यत् प्रत्यय होता है। ७७४-यत् प्रत्र य परे रहते आदन्त धातु के श्रा को ई होता है। ७७५-अदुपध पवर्गान्त धातु से यत् प्रत्यय होता है। ७७५-इणादि धातुओं से क्यप् प्रत्यय होता है। ७७७-हस्व को तुगागम होता है पित् कृत् प्रत्यय परे रहते। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् १ ' इत्यः । स्तुत्यः । शासु - अनुशिष्टौ । ७७८ शास इदङहलोः ६ । १ । ७१ । शास उपधाया इत् स्यादङि हलादौ क्ङिति । शिष्यः । वृत्यः । आदृत्यः । जुष्यः । ७७६ मृजेविभाषा ३ । १ । ११३ । मृजेः क्यब्वा । मृज्यः । ७८० ऋहलोत ३ । १ । १२४ । ऋहलोर्ण्यत् ऋवर्णान्ताद्धलन्ताच्च धातोर्यत् । कार्यम् । हार्यम् । धार्यम् । ७८१ चजोः कु घिण्यतोः ७ । ३ । ५२ । चोः कुत्वं स्यात् घिति रायति च परे । ७८२ मृजेर्वृद्धिः ७ । २ । ११४ । मृजेरिको वृद्धिः सार्वधातुकार्धधातुकयोः । मार्ग्यः । १- इत्यः-स्तुत्यः-‘इण्’ धातो: 'स्तु' धातो व 'एति-स्तु-शास्' इत्यादिना 'क्य' प्रत्यये 'ह्रस्वस्य - पिति- किति-तुक्' इति तुगागमे प्रातिपदिकस्वेन सौ रुत्वे विसर्गे च ' इत्यः = स्तुत्यः' इति रूपद्वयम् । २ - शिष्यः - 'शास्' धातोः कर्मरिण 'एति - स्तु-शास्' इत्यादिना क्यपि 'शास इदंहलो:' इत्युपधाया ईत्वे 'शासि वसि घसोनां चे' ति त्वे प्रातिपदिकत्वेन विभक्तिकार्ये (शासितुं योग्यः) 'शिष्य' इति रूपम् । ३ - जुषो ' प्रोतिसेवनयोः । ४- मृज्यः - मार्ग्यः - 'मृज्' धातोः 'मृजेविभाषा' इति वैकल्पिके क्यपि किश्वाद् गुणाभावे विभक्तिकायें 'मृज्यः' इति । क्यपोऽभावपक्षे च 'ऋहलोण्यंत्' इति यति 'चजोः कु घिण्यतोः' इनि जस्य कुत्वे 'मृजेर्वृद्धि:' इति वृद्धौ कृदन्तत्वेन प्रातिपदिकत्वाद विभक्तिकार्ये (मार्जितु ं योग्यः) मृज्यः माग्यों वा । ७७८-शास् धातु की उपधा को ईकार आदेश होता है. अपरे रहते और कित्, ङित् परे रहते । • ७७६ - मृज् धातु से क्यप् प्रत्यय होता है विकल्प से । ७८० - ऋवर्णान्त और हलन्त धातु से ण्यत् प्रत्यय होता है । ७८१—जकार और चकार को कुत्व होता है घित और श्यत् परे रहते । 1 ७८२ - मृज् धातु के इक् को वृद्धि होती है. सार्वधातुक और श्रार्धधातुक परे रहते । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ पूर्वकृदन्तम् ७८३ 'भोज्यं भने ७ । ३ । ६६ । भोग्यमन्यत् । इति कृत्यप्रक्रिया । अथ पूर्वकृदन्तम् ७८४ एवल-चौ ३ । १ । १३३ । धातोरेतौ स्तः । ( ७६६) कर्तरि कृदिति कर्बर्थे । ७८५ यवोरनाको ७ । १।१। यु बु एतयोरनाको स्तः । कारकः । कर्ता। नन्दि-ग्रहि-पचादिभ्यो ल्युणिन्यचः ३ । १ । १३४ । नन्द्यादेल्युः; ग्रह्यादेर्णिनिः; पचादेरच् स्यात्। नन्दयतीति नन्दनः । कित्वाद् गुणाभावे विभक्तिकायें 'मृज्यः' इति । क्यपोऽभावपक्षे च 'ऋहलोएर्यत' इति एयति 'जोः कु घिण्यतोः' इति जस्य कुत्वे 'मृजेवृद्धिः' इति वृद्धौ कृदन्तत्वेन प्रातिपदिकत्वाद् विभक्तिकाये (माजितु योग्यः ) मृज्यः मार्यों वा। १-भोज्यम्-भोक्तु थोग्यं भोज्यम् । 'भुज्' धातो: 'ऋ-हलोण्यंत्' इति एयत् प्रत्यय उपधागुणे भक्ष्या) 'भोज्यं भक्ष्ये' इति कुत्वाभावनिपातनेन 'चजोः कु घिण्यतो' रित्यस्याप्रवृत्तौ विभक्तिकारों 'भोज्यम्' इति रूपम् । ( भक्ष्यादन्यत्र भोगयोग्ये वस्तुनि वाच्ये तु ‘भ ग्यम् ' इति ।) इति कृत्यप्रक्रिया। २-कारकः--करोतीति कारकः । 'कृ' धातोः 'णवुल-तुचौ' इति सूत्रण कर्तरि 'णवुन अनुबन्धलोपे 'वु' इत्यस्य 'युवोरनाको' इत्यनेन 'अक्' मादेशे 'प्रचोणिति' इति वृद्धौ विभक्तिकार्गे 'कारकः' इति रूपम् । ३-नन्दनः-'टुनदि' धातोः 'टु' इत्यस्य इकारस्य च लोपं णिजन्ताद् 'इदितो नुम धातोः' इति 'नुम्' सहितात् 'नन्दि' इत्यस्मात् कर्तरि 'नन्दि- पचादिभ्यः' इति सूत्रण 'नन्द्यादेयु' रिति 'ल्यु' प्रत्यये लकारस्येत्संज्ञायां लोपे 'यु' त्यस्यानादेशे किलोपो विभक्तिकार्यो 'नन्दनः' इति । ७८३-भक्ष्यार्थ में 'भोज्यम्' ऐसा निपातन होता है । इति कृत्यप्रक्रिया । अथ पूर्वकृदन्तम् ७८४-धातु से ण्वुल् और तृच् प्रत्यय होते हैं । ५८५-यु और वु को अन और श्रक आदेश होते हैं। ७८६-न द्यादि से ल्यु, ग्रह्यादि से णिनि और पचादि से अच प्रत्यय होते हैं। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् जनमर्दयतीति जनार्दनः । 'लवणः । 'ग्राही । स्थायी । मन्त्री। पचादिराकृतिगणः । ७८७ इगुपध-ज्ञा-प्री-किरः कः ३ । १ । १३५ । एभ्यः कः स्यात् । बुधः । कृशः । शः। "प्रियः । 'किरः। ७८८ "आतश्चोपसर्गे ३।१ । १३६ । प्रक्षः । सुग्लः। ७८९ गेहे कः ७।१।१४४ । गेहे कर्तरि ग्रहः कः स्यात् । 'गृहम् । ७६० कर्मण्यण ३ । २।१। कर्मण्युपपदे धातोरण प्रत्ययः स्यात् । कुम्भं करोतीति-कुम्भकारः । १-नन्द्यादिगणे निपातनाएणत्वम् । २-ग्राही-'ग्रह' धातोः 'नन्दि-ग्रहि' इत्यादिना सूत्रेण 'ग्रह्मादेणिनिः' इति णिनिप्रत्ययेऽनुबन्धलोपे 'इम्' इति शिष्यते । उपधावृद्धी 'पाहिन्' शब्दात् कृदन्तत्वेन प्रातिपदिकात् सौ सुलोपे उपधादीघे नलोपे च सिध्यति रूपं 'नाही' इति । ३-पचः । नदः (ट् )। चोरः ( ट )। इत्यादि, (अत्र टित्त्वं डीवयं गरणे निपात्यते, तेन स्त्रियां नदी, चोरी, देवी ) । ४-'प्रातो लोप इटि 'च' इत्यालोपः । ५-'मचि श्नु...' इति इयङ् । ३-'ऋत इद् धातोः' इति 'इर्' । ७-उपसर्गसहिताद् धातोः कः प्रत्ययः स्यादित्यर्थः । ८-अपम् अर्धर्चादित्वादुभ्यलिङ्गः, अहिज्येति सम्प्रसारणम् । परं पुल्लिङ्गस्तु बहुवचनान्त एव 'गृहाः पुसि च भूग्न्येव' इत्यमरः । गृहम्-'ग्रह' धातोः गेहे कर्तरि 'गेहे कः' इति 'क' प्रत्यये 'ग्रह्रि-ज्या' इत्यादिना संप्रसारणे पूर्वरूपे प्रातिपदिकत्वेन विभक्तिकार्ये 'गृहम्' इति । ६-कुम्भकारःकुम्भोपपदात् 'कृ' धातोः 'कर्मण्यण' इति 'अण' प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे वृद्धौ ‘कहूं. कर्मणोः कृती' ति कर्मणि षष्ठयां 'कुम्भ-अस् कार' इत्यलौकिकावग्रहे 'उपपदमतिङ् इति समासे सुब्लुकि प्रातिपदिकत्वात् विभक्तिकाएँ 'कुम्भकारः' इतिरूपम् । ७८७-इगुपध धातु और ज्ञा-प्री-कृ धातु से क-प्रत्यय होता है ७०८-उपसर्ग पूर्वक आदन्त धातु से क- प्रत्यय होता है । ७८९-ग्रहधातु से क-प्रत्यय होता है यदि गेह कर्ता हो। ७६०-कर्म उपपद रहते धातु से अण् प्रत्यय होता है । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ पूर्वकृदन्तम् ७६१ आतोऽनुपसर्गे कः ३ । २ । ३ । आदन्ताद्धातोरनुपसर्गात् कर्मण्युपपदे कः स्यात् । अणोऽपवादः । प्रातो लोपः । गोदः। 'धनदः । कम्बलदः । अनुपसर्गे किम्-गोसंदायः । (मूलविभुजादिभ्यः कः) मूलानि विभुजति मूलविभुजो रथः। आकृतिगणोऽयम् । महीनः । कुभ्रः। ७६२ चरेष्टः ३ । २ । १६ । अधिकरणे । उपपदे। "कुरुचरः। ७६३ मिक्षा-सेनाऽऽदायेषु च ३।२। १७ । भिक्षाचरः। सेनाचरः । आदायेति "ल्यबन्तम् । प्रादायचरः। ७६४ कुत्रो हेतु-ताच्छील्यानुलोम्येषु ३ । २ । २० । एषु द्योत्येषु करोतेष्टः स्यात् । ७६५ अतःक-कमि-कंस-कुम्भ-पात्र-कुशा-कर्णीष्वनव्ययस्य ८।३।४६॥ आदुत्तरस्यानव्ययस्य विसर्गस्य समासे नित्यं सादेशः करोत्यादिषु १-धनदः-'धनं ददाति' इति विग्रहे 'कर्मणि अण' इत्यणि प्राप्ते तं बाधित्वा 'मातोऽनुपसर्गे कः' इति कप्रत्यये 'प्रातो लोप इटि च' इत्यालोपे विभक्तिकायें 'घनदः' इति । २-'कर्मण्यण' इति 'प्रण' प्रत्ययः 'आतो युक् चिण' इति युक् । ३-घृञः कप्रत्यये 'यण' कुध्रः पर्वतः । ४ स्त्रियां 'टिड्ढाण...' इति डीप (टित्त्वात् ) कुरुचरी । ५-त्यप-प्रत्ययान्तम् । ७६१-उपसभिन्न कर्म उपपद रहते श्रादन्त धातु से क-प्रत्यय होता है। ७६२-अधिकरण उपपद रहते चर् धातु से ट-प्रत्यय होता है। ७६३-भिक्षा, सेना और श्रादाय कर्म उपपद रहते चर् धातु से ट-प्रत्यय होता है। ७६४-हेतु, ताच्छील्य और श्रानुलोभ्य अर्थ द्योत्य होने पर कृधातु से ट-प्रत्यय होता है। ७६५-प्रवण से उत्तर प्रन्ययभिन विसर्ग को नित्य सकारादेश होता है समास में क-कमि आदि परे रहते। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् परेषु । 'यशस्करी विद्या । श्राद्धकरः । वचनकरः । ७६६ एजेः खश्३ । २ । २८ । ण्यन्तादेजेः खश् स्यात्। ७६७ अरुद्वि पदजन्तस्य मुम् ६।३।६७। अरुषो द्विषतोऽजन्तस्य च मुमागमः स्यात् खिदन्ते परे नत्वव्ययस्य । शित्त्वाच्छबादिः। जनमेजयतीति 'जनमेजयः। ७६८ अप्रियवशे वदः खच् ३ । २ । ३८ । "प्रियंवदः । वशंवदः। ७६६ अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते ३ । २ । ७५ । मनिन् क्वनिप वनिए विच एते प्रत्यया धातोः स्युः । ८०० नेड वशि कृति ७ । २ । ८ । -यशस्करी-यशः करोति विग्रहे 'कृ' धातोः 'कृओ हेतु-ताच्छील्यानुलोम्येषु' इति प्रत्ययेनुबन्धलोपे गुणे 'यशः कर' इति स्थिते 'अतः कृ-कमि' इत्यादिना विसर्गस्य सत्वे स्त्रीत्वे 'टिडढाणन' इत्यादिना कीपि 'यस्येतिचे त्यकारलोपे विभक्तिकायें 'यशस्करी' इति रूपम् । २-जनमेजयः-णिजन्ताद् 'एज्' धातोः 'एजेः खश्' इति खश् प्रत्ययेऽजवन्धलोपे सशः शित्वात् सार्वधातुकत्वे शपि गुणेऽयादेशे कर्मणि षष्ठ्या 'जन् + अस् ऐजय' इत्यलौकिकविगहे उपपदसमासे सुपो लुकि 'अरुविषदनन्तस्य मुम्' इति मुमि विभक्तिकायें पं जनमेजयः' इति । ३-प्रियपूर्वाद् वशपूर्वाच्च ‘वद्' धातोः 'खच्' स्यादिति सूत्रार्थः। ४-प्रियंवदः-प्रियं वदतीति विग्रहे "प्रियवशे वदः खच' इति 'ख' प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे कर्मषष्ठ्यां सुबुल्पत्तेः प्रागेव समासे सुपो लुकि 'अरुषि' इत्यादिना मुमि अनुस्वारे विभक्तिकार्ये 'प्रियंवदः' इति रूपम्। . ७६६-ण्यन्त एज धातु से खश् प्रत्यय होता है। ७६७-अरुण, द्विपत् और अजन्त को मुम् होता है खिदन्त परे रहते अव्यय को बोड़कर। ७६८-प्रिय और वश उपपद रहते वद् धातु से खच् प्रत्यय होता है । ७९६-मनिन्, क्वनिप, वनिप और विच प्रत्यय धातु से होते हैं । ८००-वशादि इत् को इट् का आगम नहीं होता ! Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वकृदन्तम् રર वशादेः कृतः इण न स्यात् । ” हिंसायाम् । सुशर्मा । 'प्रातरित्वा । ८०१ विड़ वनोरनुनासिकस्याऽऽत् ६।४ । ४१ । अनुनासिकस्याऽऽत्स्यात । विजायत इति विजावा। प्रोण अपनयने । अवावा । विच्-रुष रिष् हिंसायाम् । रोट, रेट, सुगण् । ८०२ क्विप च ३।२। ७६ । अयमपि दृश्यते । "उखात्रत् । पर्णध्वत् । वाहभ्रट् । ८०३ सुटजातो णिनिस्ताच्छील्ये ३ । २ । ७८ । अजात्यर्थे सुपि धातोर्णिनिस्ताच्छील्ये द्योत्ये । 'उष्णभोजी। ८०४ मनः ३।२।८२ । सुपि मन्यतेर्णिनिः स्यात् । दर्शमीयमानी। ८०५ आत्ममाने खश्च ३।२।८३ । स्वकर्मके मानने वर्तमानान्मन्यतेः सुपि खश् स्यात् । चारिणनिः । पण्डितमात्मानं मन्यते पण्डितंमन्यः । पण्डितमानी। १-प्रातः पूर्वकाद् 'इण् धातोः' 'क्वनिप्' प्रत्यये लुकि रूपम् । प्रातरेति-इति 'प्रातरित्वा' इति दिग्रहः । प्रातरित्वनशब्दस्य यज्वन्-शब्दवत् रूपाणि । २-वि-जन्+ वनिप्, नस्याऽऽत्वे रूपम्। ६-प्रोण+वनिप, रणस्यात्वे प्रोकारस्याऽवादेशे रूपम् । ४-रुष-रिष्धातोः विच्-प्रत्यये पुगन्तेति गुणे रूपम् । ५-क्रमेण संस-ध्वंस्-भ्रंश-धातवः 'प्रनिदितां....' इति नलोपः। 'वसु-संसु-ध्वंसु....' इति दत्वे चत्वंम् । 'वाहभ्रट्' इत्यत्र तु 'ब्रश्चभ्रस्ज....' इति शस्य षस्वे जश्त्वम् (डत्वम्), चत्वंम् । ६-उष्णं भुङन्ते तच्छील उष्णभोजो- उष्ण' पूर्वकाद् 'भुज्' धातोस्ताच्छील्येऽर्थे 'सुष्यजातौ' इति सूत्रेण णिनि प्रत्यये लघूपधाणे उपपदसमासे कृदन्तत्वेन प्रातिपादिकत्वाद् विभक्तिकारों 'उष्णभोजी' इति । ७–'अरुद्विषदान्तस्य मुम्' इति मुम् । ८०१-अनुनामिक के स्थान में प्राकारादेश होता है विट, वन् प्रत्यय परे रहते। ८०२-धातु से स्विप प्रत्यय होता है। ८०३-जातिवाचक से मिल सुबन्त उपपद रहते धातु से णिनि प्रत्यय होता है ताच्छील्य द्योत्य रहसे। ८०४-सुबन्त उपपद रहते सत् धातु से णिनि प्रत्यय होता है। ८०५-स्वकर्मक मनन में वलंबान मन् धातु से खश् प्रत्यय होता है सुबन्त उपपद रहते । चकार से णिनि प्रत्यय भी होता है । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ८०६ खित्यनव्ययस्य ६ । ३ । ६६ । खिदन्ते परे पूर्वपदस्य ह्रस्वः नत्वव्ययस्य । ततो मुम्। 'कालिमन्या। ८०७ करणे यजः ३।२।८५ । करणे उपपदे भूतार्थयजेणिनिः कर्तरि । सोमेनेष्टवान् 'सोमयाजी । अग्निष्टोमयाजी। ८०८ दृशेः क्वनिप् ३ । २ । ६४ । कर्मणि भूते । पारं दृष्टवान् पारदृश्वा । ८०६ राजनि युधि "कुञः ३ । २।१५। क्वनिप् स्यात् । युधिरन्त वितण्यर्थः । राजानं योधितवान् राजयुध्वा । राजकृत्वा। ८१० सहे च ३ । २ । ६६ । १-कालिंमन्या-कालीमात्मानं मन्यते इति विग्रहे 'भारममाने खश्च' इति खशि तस्य शित्वेन सार्वधातुकत्वे श्यनि 'अतो गुणे' इति पररूपे कर्मषष्ठयामुपपदसमासे सुम्लुकि 'खित्यनव्ययस्य' इंति ह्रस्वे 'अद्विषद' इत्यादिना मुमि स्त्रीत्वे टापि विभक्तिकायें 'कालिमन्या' इति रूपम् । २-'प्रत उपधायाः' इति-उपधावृद्धिः । ३-कर्मणिउपपदे भूते-काले इत्यर्थः। ४-पारदृश्वा-पारं दृष्ट्वानिति विग्रहे पारोपपदाद् 'दृश्' धातोः 'दृशेः क्वनिप्' इति 'क्वनिप' प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे 'पारदृश्वन्' इत्यस्य कृदन्तत्वेन प्रातिपदिकसंज्ञायां प्रथमैकवचने सौ उपधादीघे सोर्लोपे नलोपे सिध्यति रूपं 'पारदृश्वा' इति । स्त्रियां 'वनो र च' इति सूत्रण नस्य रेफः डीप च पारदृश्वरी, एवं राजयुध्वरी, राजकृत्वरी । इत्यादि। ५-राजनि (राजशब्दे) उपपदे युध-कृषोः क्वनिप ६-'ह्रस्वस्य पिति कृति' इति तुक् । ८०६-अव्ययभिन्न पूर्व पद को हस्व होता है खिदन्त पर रहते । ८०७-करण उपपद रहते यज् धातु से भूतार्थ णिनि प्रत्यय होता है कर्ता में । ८०८-कर्म उपपद रहते दृश् धातु से भूतार्थ में क्वनिप् प्रत्यय होता है। ८०६-कर्मसंज्ञक राजन् शब्द उपपद् रहते युध् और कृञ् धातु से भूतार्थ में स्वनिम् प्रत्यय होता है। ८१०-सह उपपद रहते युष् से स्वनिए होता है। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वकृदन्तम् कर्मणीति निवृत्तम् सह । योधितवान् = सहयुध्वा । सहकृत्वा । ८११ सप्तम्यां जनेर्डः ३ । २ । ६७ । ८१२ तत्पुरुषे कृति बहुलम् ६ । ३ । १४ । डेरलुक् । 'सरसिजम् । सरोजम् । ८ १३ उपसर्गे च संज्ञायाम् । ३ । २ । ६६ । प्रजा स्यात् सन्ततौ जने । ८१४ क्त तवतू निष्ठा १ । १ । २६ । पतौ निष्ठासंज्ञौ स्तः । ८१५ निष्ठा ३ । २ । १०२ । २३१ भूतार्थवृत्तेर्धातोर्निष्ठा' स्यात् । तत्र (७७०) तयोरेवेति भावकर्मणोः क्तः । (७६६) कर्तरि कृदिति कर्तरि क्तवतुः। उकावितौ । स्नातं मया । स्तुतस्त्वया विष्णुः । विश्वं कृतवान् विष्णुः । ८१६ रदाभ्यां निष्ठातो नः पूर्वस्य च द: ८ । २ । ४२ । रदाभ्यां परस्य निष्टातस्य नः स्यात्, निष्ठापेक्षया पूर्वस्य धातोर्दस्य च । शृ हिंसायाम् । (६६०) ऋत इत् । रपरः । णत्वम् । शीर्णः । भिन्नः । “छिन्नः । १- सरसि-जन् + ङः, डिवात् टिलोपः बहुलं डेरलुक् । २ - वत- क्तवतु ( उभौ ) 1 ३- क्तवतुप्रत्यये उगित्वात् 'तुम्' 'प्रत्वसन्तस्य' इति दीर्घः । ४ - हलि च' इति दीर्घः । श्रयुकः 'किति' इति इनिषेधः । ५- छिन्नः - 'विद्' धातोः कर्मरिण 'निष्ठा' इति 'क' प्रत्यये तस्य किरदाद् गुणाभावे ' रदाभ्याम्' इत्यादिना निष्ठातकारस्य धातोस्तकारस्त चमत्वे प्रातिपदिकत्वाद् विभक्तिकायें सिंध्यति रूपं 'निः' इति । ८११-सप्तभ्यन्त उपपदक जन् धातु से ड प्रत्यय होता है । ८१२-कृदन्त उत्तर पद परे रहते सप्तमी का लुक् होता है वाहुल्य से तत्पुरुष में 1 ८१३ - उपसर्ग उपपद रहते जन् धातु से ड प्रत्यय होता है संज्ञा में 1 ८१४-क्त और क्तवतु की निष्ठा संज्ञा होती है । ८१५ - भूतार्थवृत्ति धातु से निष्ठासंज्ञक प्रत्यय होते हैं । ८१६-रेफ-दकार से परे निष्ठा के त को न आदेश होता है और निश की अपेक्षा पूर्व धातु के द को भी न होता है । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ८१७ संयोगादेरातो धातोर्यण्वतः ८।२। ४३ । निष्ठातस्य नः स्यात् । द्राणः । ग्लानः। ८१८ ल्वादिभ्यः ८ ।२।४४ । एकविंशतेह्लादिभ्यः प्राग्वत् । लूनः । ज्याधातुः । अहिज्येति सम्बसारणम् । ८१६ हलः ६।४।२। अगावयवाद्धलः परं यत् सम्प्रसारणं तदन्तस्य दीर्घः । जीनः । ८२० श्रोदितश्च ८ । २ । ४५ । भुजो-भुग्नः । टुओश्चि-"उच्छूनः । ८२१ शुषः कः ८।२। ५१ । निष्ठातस्य कः । शुष्कः। ८२२ पचों वः८।२ । ५२ । पक्वः । क्षे हर्षक्षये। १-संयोगादेरादन्तात् यणवतो घातोनिष्ठातकारस्य नकारः, इत्यर्थः । २-निष्ठातकारस्य मत्वम् । ३-जीन:-'ज्या' धातोः निष्ठे' ति क्तप्रत्यये 'संयोगादेरातोधातो' रितिनवे 'अहि-ज्येति सम्प्रसारणे पूर्वरूपे 'हलः' इति दीघे सिध्यति रूपं 'जोनः' इति । ४-मोदितश्च धातोनिष्ठातकारस्य. नत्वमित्यर्थः । ५-उद्-शिव +त (6), यबादित्वात्सम्प्रसारणम् , इकारस्य च 'सम्प्रसारणाच' इति पूर्वरूपम, 'हलः' इति दोषी । श्वोदितः' इति इडभावः 'उच्छूनः' । ६-शुष्कः-शुष् ' धातोः क्तप्रत्यये 'शुषः क' इति तस्य ककारे प्रातिपदिकत्वेन विभक्तिकार्य 'शुष्कः' इति रूपम् ७-पक्वः'पचु पातोः 'निष्ठे' ति सूत्रेण 'क्त' प्रत्यये 'पचो वः' इति: तकारस्य वत्वे प्रातिपदिकत्वेन विभक्तिकायें 'पक्वः' इति रूपम् । ८१७-संयोगादि यण्वान् श्रादन्त धातु से परे निष्ठा के त को न होता है। ८१८-इक्कीस लूजादियों से परे निष्ठा के त को न होता है। ८१६-अङ्ग के अवयव इल से परे जो संप्रसारण, तदन्त को दीर्घ होता है। ८२०-अोदित् धातु से परे निष्ठा के त को न होता है। ८२१-शुष धातु से परे निष्ठा के त को क होता है। २२-पच धातु से परे निष्ठा के त को व होता है। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वकृदन्तम् २३३ ८२३ क्षायो मः ८।२। ५३ । क्षामः। ८२४ निष्ठायां सेटि ६ । ४ । ५२ । णेर्लोपः । 'भावितः । भाषितवान् । दृह-हिंसायाम् । ८२६ दृढः स्थूल-बलयोः ७ । २ । २० । स्थले बलवति च निपात्यते। ८२६ दधातेर्हिः ७।४ । ४२ । तादौ किति । उहितम् । ८२७दो दद्घोः ७।४।४६ । घुसंशकस्य दा इत्यस्य दद् स्यात् तादौ किति । चर्वम् । 'दत्तः। ८२८ लिटः कानवा ३ । २। १०६ । ८२६ कसुश्च ३ । २ । १०७ । लिटः कानच क्वसुश्च वा स्तः । तङानावात्मनेपदम् । 'चक्राणः । -भावितः णिजन्साद् 'भू' धातो: 'निष्ठे' ति 'क्त'-प्रत्यये 'भावित' इत्यत्र इटि 'निष्ठायां सेटि' इति गेलोपे प्रातिपदिकत्वेन विभक्तिकार्य सिध्यति रूपं 'भावितः' इति । २-६८ः-दृह+त (:) इडमाये ढस्व-धत्व-ष्टुत्व-उलोपाः। ३-हितम्-'या' धातोः 'क्त' प्रत्यये 'दधातेहिः' इति पादेशे प्रातिपादिकत्वेन विभक्तिकायें 'हितम्' इति रूपम् । ४-दत्तः–'दा' धातोः 'निष्ठे' ति कप्रत्यये 'दो दद्घोः' इत्यनेन 'दा' इत्यस्य दक्षादेशे वर्वे विभक्तिकायें 'दत्तः' इति रूपम् । ५-कानचो लिटस्थानिकत्वाद् द्वित्वा दिकम्, चकृ + पान (:).क्र णत्वम् । ८२३- धातु से परे निष्ठा के त को म होता है। ८२८-सेट निष्ठा परे रहते णि का लोप होता है। ८२५-स्थूल और बलवान् अर्थ में दृढ़ शब्द निपातन से सिद्ध होता है। ८२६-धा धातु को हिआदेश होता है वादि कित् परे रहते । ८२७-घुसंशक दा धातु को दद् आदेश होता है तादि कित् परे रहते । ८२८-लिट के स्थान में कानच होता है। ८२६-लिट के स्थान में क्व मु प्रत्यय होता है। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ खघुसिद्धान्तकौपुद्याम् ८३० म्बोश्च ८।२। ६५ । मान्तस्य धातोर्नत्वं म्वोः परतः। 'जगन्वान् । ८३१ लटः शत-शानचावप्रथमासमानाधिकरणे । ३ । २ । १२४ । अप्रथमान्तेन समानाधिकरणे लट एतौ वा स्तः शबादि । पचन्तं चैत्रं पश्य। ८३२ आने मुक ७ । २। ८२। अदन्ताङ्गस्य मुगागमः स्यादाने परे पचमानं चैत्रं पश्य । लडित्यनुवर्तमाने पुनर्लग्रहणात् प्रथमासामानाधिकरण्येऽपि क्वचित् । सन् द्विजः। ८३३ विदेः शतुर्वसुः ७ । १ । ३६ । वेत्तेः परस्य शतुर्वसुरोदेशो वा । विदन् । “विद्वान् १-गम धातोः लिटः क्वसौ रूपम्। द्वित्वादिकं पूर्ववत्, जगन्वस्शब्दः, उगित्वान्नुम् 'सान्तमहतः...' इति दीर्घः । जगन्वान्, जगन्वांसी, जगन्वांसः, जगन्वांसम् , जगन्वांसौ, जग्मुषः, ( 'वसोः सम्प्रसारणम्' इति सम्प्रसारणं पूर्वरूपम् ) जग्मुषा, जगन्वद्भ्याम् ('वसुस्रंसु...' दत्वम् ) स्त्रियां जग्मुषी। २, ३-पचन्तं-पचमानम्'पच्' धातोर्लटि । 'लटः शातु-शानचौ' इति सूत्रेण परस्मैपदे । लटः शतृ. प्रात्मनेपदे च लटः शानजादेशः । शतृशानचोः शित्वेन सार्वधातुके शपि पररूपे प्रात्मनेपदे च शानचि 'पानेमुग्' इति मुगागमे उभयत्र प्रादिपदिकत्वे विभक्तिकार्ये द्विनीयैकवचने रूपद्वयमिदं पचन्तं पचमानं वा पश्य । ४-अस्तीति 'सन' 'इनसोरल्लोपः' इति प्रकारलोपः। ५विद्वान्-'विद' घातो 'त्ति' इति विग्रहे 'लटः शत-शानची' इति लटः शत्रादेशे शतुश्च 'षिदेः शतुर्वसुः' इति वा वस्वादेशे 'विद्वस्' शब्दात् प्रातिपदिकत्वेन सौ ठगित्वात नुमि ‘सान्त-महतः' इत्युपधादीघे 'हलङ्याद' इति सुलोपे संयोगान्तलोपे च 'विद्वान्' इति । (वस्वादेशाभावपक्षे शतरि पि छुकि 'विदत' शब्दात् सौ नुमि सुलोपे 'संयोगान्ते' ति तलोपे च 'विदन्' इति रूपम् )। ८३०-मान्त धातु को नकार आदेश होता है मकार-वकार परे रहते। ८३१-अप्रथमान्त के साथ समानाधिकरण होने पर लट् के स्थान में शतृ और शानच् प्रत्यय होते हैं। ८३२-अदन्त अङ्ग को मुक का आगम होता है प्रान परे रहते । ८३३-विद् धातु से परे शतृ के स्थान में बसु आदेश होता है विकल्प से । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वकृदन्तम् ८३४ तौ सत् ३ । २ १२७ । तौ शतृशान चौ सत्संज्ञौ स्तः । २३५ ८३५ लृटः सद्वा ३ । ३ । १४ । 'व्यवस्थितविभाषेयम् । तेनाप्रथमासामानाधिकरण्ये प्रत्ययोत्तरपदयोः सम्बोधने लक्षणहेत्वोश्च नित्यम् । करिष्यन्तं करिष्यमाणं पश्य । ८३६ आ कस्तच्छील- तद्धर्म-तत्साधुकारिषु ३ । २ ! १३४ । क्विपमभिव्यप्य वक्ष्यमाणाः प्रत्ययास्तच्छीलादिषु कर्तृषु बोध्याः । ८३७ तृन् ३ । २ । १३५ । कर्ता कटान् । ८३८ जल्प-भिक्ष कुट्ट-लुएट-बृङः पाकन् । ३ २ ५५ । ८३६ षः प्रत्ययस्य १ । ३ । ६ । प्रत्ययस्यादिः प इत्संज्ञः स्यात् । जल्पाकः । उ भिक्षाकः । कुट्टाकः । लुष्टाकः । वराकः, की । १ - विशेषे ( क्वचित् प्रयोगे ) श्रवस्थितौ विधिनिषेधौ यस्याः सा व्यवस्थिता सा चासौ विभाषा व्यवस्थितविभाषा । यद्वा व्यवस्था सब्जाता श्रस्या इति व्यवस्थिता, क्वचिद् विधिरेव क्वचिद् निषेध एव क्वचिदुभयमेवेति यावत् । ( सेयं व्यवस्थितविभाषा ) २ - कर्तृकर्मणोः कृति' इति षष्ठी प्राप्ता, 'न लोकाव्ययनिष्ठा-खलर्थनाम्' इति निषि ते । कर्मणि द्वितीया । ३- भिक्षाकः - 'भिक्षू' घातोः कर्त्तरि 'जल्प - भिद.... इत्यादिना 'पाक' प्रस्यः । ' षः प्रत्ययस्ये' ति षस्येत्लंज्ञालोपेऽन्तनकार स्थापीत्संज्ञाय लोपे विभक्तिकायें 'भिक्षाक' इति रूपम् । ४ स्त्रियाम् 'षिद् गौरादिभ्यश्च' इति ङीष् एवं जल्पाकीत्यादयः । ८३४- शतृ और शानच् सत्संज्ञक होते हैं । ८३५ - लृट् के स्थान में सत्संज्ञक प्रत्यय विकल्प से होते हैं । ८३६ - क्विप् प्रत्यय पर्यन्त कहे गए प्रत्यय तच्छील श्रादि श्रथों में होते हैं । ८३७-धातु से तृन् प्रत्यय होता है तच्छीलादि श्रथों में । ८३८ - जल्पादि धातुओं से परे षाकन् प्रत्यय होता है तच्छीलादि अर्थो में । ८३६ प्रत्यय के श्रादिभूत षकार की इत्संशा होती है । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ८४० 'सनाशंस-भिक्ष उः ३ । २ । १६८ । चिकीर्षुः। आशंसुः । भिक्षुः । ८४१ भ्राज भास-धुर्विद्य तोर्जि-प-जु-ग्रावस्तुवः क्विप ३।२। १७७ । विभ्राट् । भाः। ८४२ राल्लोपः । ६।४ । २१। रेफाच्छवोर्लोपः क्वौ झलादौ क्ङिति । धूः । विद्युत् । ऊ । 'पूः । दृशिग्रहणस्यापकर्षाज्जवतेदर्दीर्घः।जः । ग्रावस्तुत्। ("क्विव्वचिप्रच्छयायतस्तुकटप्रजुश्रीणां दीर्घोऽसम्प्रसारणं च ) वक्तीति वाक् । ८४३ च्छवोः शूडनुनासिक च ६ । ४ । १६ । स्तुक्कस्य छस्य वस्य च क्रमात् श ऊठ इत्यादेशौ स्तोऽनुनासिके क्वौ भलादौ च विङति । पृच्छतीति-प्राट् आयतं स्तौति-आयतस्तूः। कटं प्रवते. कटमः । जुरुक्तः । श्रयति हरि-श्रीः। १-सन्नन्तेभ्यः पार्शसेर्भिक्षेश्च-उप्रत्ययः स्यादित्यर्थः । २-चिकीर्षु:-सन्नन्तात् 'कृ धातोः' चिकीर्ष इत्यस्मात् 'सनाशंस-भिक्ष उः' इत्युप्रत्यये 'प्रतो लोपः' इति सनोऽकारलोपे विभक्तिकार्य रूपं 'चिकीषुः' इति । ३-'रात्सस्य' इति नियमात संयोगान्तलोपो न । ४-'उदोष्ठयपूर्वस्य' इत्युत्वं रपरत्वम् 'र्वोरुपधायाः' इति दीर्घः । ५-'अन्येभ्योऽपि दृश्यते । ३ । २। १७८ ।' इति सूत्रे दृशिग्रहणस्य ( दृश्यते इत्यस्य ) विध्यन्तरविशेष-समर्पकतया इहापि तदपकर्षादीर्घः, तया च वात्तिकम्'क्विवचि'. 'इत्यादि । ६-७७७ ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्' । ७-पूर्वेण वातिकेन दीर्घः सम्प्रसारणाभावश्च, व्रश्चेति षत्वे जश्त्वं चत्वं च । ८४०-सन्नन्त, आशंस और भिक्ष धातु से उ प्रत्यय होता है। ८४१-भ्राज् आदि धातुओं में क्विप प्रप्यय होता है ८४२-रेफ से परे छ व का लोप होता है क्विप और झलादि कित्, ङित् परे रहते। __(वा०-वच्यादि से क्विप होता है, दीर्घ होता है, और सप्रसारण का अभाव भी होता है) ८४३- तुक् सहित छ आर व को क्रम से श और जठ् होते हैं अनुनासिक और क्विप तथा झलादि आदेश कित्, ङित् परे रहते । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वकृदन्तम् ८४४ दाम्नी-शस-यु-युज-स्तु-तुद-सि-सिच-मिह-पत-दश-नहः करणे ३।२।१८२। दाबादेष्ट्रन् स्यात् करणेऽर्थे । । दात्यनेन-'दात्रम् । नेत्रम् । ८४५ ति-तु-त्र-त-थ-सि-सु-सर-क-सेषु च ७ । २ । । 'एषां दशानां कृत्प्रत्ययानामिण न। शस्त्रम् । योत्रम् । स्तोत्रम् । तोत्रम् । सेत्रम् । सेक्त्रम् । मेढ़म् । पत्त्रम् । 'दंष्ट्रा । नद्धी । ८४६ अति-ल-ध-सूखन-सह चर- इत्रः ३ । २ । १८४ । अरित्रम् । लवित्रम् ।धवित्रम् । सवित्रम् । खनित्रम्। सहित्रम्।"चरित्रम् । ८४७ पुत्रः संज्ञायाम् ३ । २ । १८५। पवित्रम् । इति पूर्वकृदन्तम् । १-दा (प) लवने धातुः, स्त्रियां षित्वाद् ङीष, दात्री नेत्रीत्यादयः । २-ति = क्तिन्क्तिच् ( १) तु तुन् ( २) । त्रष्ट्रन (३) । त-तन् (४) थक्थन् (५) सि = क्सि (६) । सु (७) । सर,सरन् (८)। क = कन् (६) । स (१०) इति दश । ३-दाप् दात्रम् । नी-नेत्रम् । शस्-शस्त्रम् । यु-योत्रम् । युज्-योक्त्रम् । स्तु -स्तोत्रम् । तुद्-तोत्रम् । सिसेत्रम् । सेच-सेक्त्रम् । मिह-मेढम् ढत्वधत्वप्टुत्वलोपाः । पत् पत्त्रम् । दंश-दष्ट्रा, पत्र न ङोष, अनित्यः षितां डोष, मातामहोशब्दस्य गौरादिषु पाठात्, मातरि षिच्चेति मेषः सिद्धेः नह-नधी (अत्र नहो ध:) इति कमेणोदाहरणानि । ४-दंष्ट्रा-'दंश्' धातोः 'दाम्नी-शस्' इत्यादिना करणे 'ष्ट्रन्' प्रत्यये षस्य संज्ञालोपयोः धातोः शस्य 'प्रश्चे...' ति षस्वे प्रातिपदिकत्वेन स्त्रियामजादिगण-पठितत्वाट टापि विभक्तिकार्ये 'दंष्ट्रा' इति रूपम् सिध्यति । ५ चरित्रम्-'चर्' धातोः 'अत्ति-लू-धू ..' इत्यादिना 'इत्र' प्रत्यये प्रातिपदिकत्वेन विभक्तिकार्ये 'चरित्रम्' इति रूपम् । ___ इति पूर्वकृदन्तम् । ८४४-दापू आदि धातुओं से ष्ट्रन् प्रत्यय होता है करण अर्थ में । ८४५-ति-तु-त्र-त-थ-सि-सु-सर-क-स-हन दस कृत्प्रत्ययों को इट नहीं होता। ८४६-ऋ लू धू सू खन् सह चर् धातुओं से इत्र प्रत्यय होता है करण अर्थ में । ८४७-करण अर्थ में पूञ् चातु से इत्र प्रत्यय होता है संज्ञा में । इति पूर्वकृदन्तम् । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् अथोणादयः कु-धा-पा-जि-मि-स्वादि-साध्यशूम्य उण । करोतीति-कारुः । जातीति 'वायुः। पायुगुदम् । जायुरौषधम् । मायुः-पित्तम् । स्वादुः । सानोति परकार्यमिति साधुः । आशु-शीघ्रम् । ८४८ उणादयो बहुलम् ३ । ३ । १। एते वर्तमाने संज्ञायां च बहुलं स्युः । केचिदविहिता अप्यूह्याः । संज्ञासु धातुरूपाणि प्रत्ययाश्च ततः परे। कार्याद् विद्यादनूबन्ध मेतच्छास्त्रमुणादिषु ॥ ___ इत्युणादयः। अथोत्तरकृदन्तम् ८४६ तुमुन्-खुलौ कियायां क्रियार्थायाम् ३ । ४ । १० । क्रियार्थायां "क्रियायामुपपदे भविष्यत्यर्थे धातोरेतौ स्तः । "मान्तत्वाद १-'पातो युक् 'इति युक् । २-संज्ञासु इति, संज्ञासु = यदृच्छाशब्देषु धातुरूपाणि = सम्भवन्तस्ते ते धातवः कल्पनीयाः। ततश्च परे यथासम्भवं प्रत्ययाः उरण पादयः कल्पनीयाः, तेषु कार्यात् = कार्यानुरूपमित्यर्थः, गुणवृद्धिसम्प्रसारणादिकार्यानुसारमिति यावत् ३-अनुबन्धम् = अनुबन्धं रणकार-ककारादिकम् । विद्यात् = जानीयात्, उणादिषु एतत् = पूर्वोक्तं शास्त्रम्-शासनम् । यथा 'दारु' दृधातोः अप्रत्ययः । ४ कियोद्देश्यीभूतकियावृत्तिधातो उपपदे इत्यर्थः । ५-'तुमन्' इत्यस्य तुम् इति शिष्यते प्रयं हि मकारान्तः कृत्प्रत्ययोऽतः 'कृन्मेजन्तः' इति सूत्रेणास्याऽव्ययसंज्ञा, ततश्च 'अव्ययकृतो भावे' इति वचनात 'तुमन्' भावे भवति । एतुल् तु कर्तव। अथ उणादयः (कृ-वा-पा-जि मि- स्वादि-साधि-अश् धातुओं से उण प्रत्यय होता है।) ८४८-उणादि प्रत्यय वर्तमान काल में बाहुल्य से होते हैं । इत्युणादयः । अथ उत्तरकृदन्तम् ८४६-क्रियार्थक क्रिया उपपद रहते भविष्यदर्थ में धातु से तुमुन् णतुल् प्रत्यय होते हैं। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरकृदन्तम् व्ययत्वम् । कृष्णं 'द्रष्टुं याति । कृष्णं दर्शको याति । ८५० काल-समय- 'बेलासु तुमुन् ३ | ३ | १६७ | *कालार्थेषूपपदेषु तुमुन् स्यात् । कालः समयो वेला वा भोक्तुम् । ८५१ भाबे ३ । ३ । १८ । सिद्धावस्थापन्ने धात्वर्थे वाच्ये धातोर्घञ् । पाकः । ८५२ कर्तरि च कारक संज्ञायाम् ३ | ३ | १६ | २३६ कर्तृ-भिन्ने कारके घञ् स्यात् । ८५३ घञि च भावकरणयोः ६ । ४ । २७ । रज्जेर्नलोपः स्यात् । रागः । अनयोः किम्- ' रज्यत्यस्मिन्निति रङ्गः । १ - दृश + तुम् 'सृजिदृशोर्झल्यम किति' इति सूत्रेण 'अम्' श्रागमः ऋकारस्य यण " " " रेफः, व्रश्चेति शस्य षत्वं ष्टुस्वम्, द्रष्टुम् । कृष्णकर्मकभविष्यद्दर्शनार्थं यानं ( गमनम् ) इत्यर्थः । अत्र यातीत्युपपदम् । 'न लोकाव्ययनिष्ठाखल थं ' इति षष्ठी निषेधः । २ - प्रत्र 'प्रकेनोर्भविष्यदाधमण्र्ययोः' इति षष्ठीनिषेधः । ३ - पर्यायग्रहणमर्थोपलक्षणार्थम तथैवाह वृत्तौ कालार्थेध्विति । ४- पाकः - 'पच्' धातोः 'भावे' इति सूत्र े रेण भावार्थे 'बन्' प्रत्ययः अनुबन्धलोपे 'श्रत उपधाया' इति वृद्धौ 'चजोः कु घिण्यतो' रिति चकारस्य ककारे प्रातिपदिकत्वेन विभक्तिकायें सिध्यति रूपं 'पाक' इति । ५- रज्जनं = रागः । रज्यतेऽनेन इति वा विग्रहः | ६ - रागः - 'रज्ज्' धातोः 'भावे' इति सूत्रेण भावे 'प्रकर्त्तरि च कारके इत्यादिना करणे वा घञि श्रनुबन्धलोपे 'घञि च भावकरणयो' रिति रज्जेनं लोपे 'चजो: कु...' इत्यादिना कुवे उपधावृद्धौ विभक्तिकायें 'रागः' इति रूपम् । ८प्रत्राधिकरणे घञ् । रङ्गो-नाट्यशाला । ८५० - कालार्थक उपपद रहते धातु से तुमुन् प्रत्यय होता है । ८५१-सिद्धावस्थापन्न धात्वर्थ वाच्य रहते धातु से घञ् प्रत्यय होता है । ८५२–घञन्त से संज्ञा गम्य रहते कर्तृभिन्न कारक में घञ होता है । ८५३ - रज्ज धातु के न का लोप होता है भाव और करण अर्थ में विहित घञ् प्रत्यय परे रहते । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ८५४ 'निवास- चितिं - शरीरो र समाधानेष्वादेश्च कः । ३ । ३ । ४१ । एषु चिनोतेर्घञ् श्रदेश्च ककारः । उपसमाधानं = राशीकरणम् | निकायः । कायः । गोमयनिकायः । ८५५ एरच् ३ । ३ । ५६ । इवर्णान्तादच् । चयः । उ जयः । ८५६ ऋदोरप् ३ | ३ | ५७ । २४० ऋदन्तादुवर्णान्तादप् स्यात् । करः । गरः । यवः । लवः । स्तवः । पवः । (घञर्थे कविधानम् ) " प्रस्थः । विघ्नः । ८५७ 'वितः क्त्रिः ३ । ३ । ८८ । ८५८ कोर्मम् नित्यम् ३ । ३ । २० । " 3 १ - निवासे यथा - काशी निकायः । चितौ श्राकायमग्नि चिन्वीत । शरीरे यथाचोयतेऽस्थ्यादिकमत्र ेति कायः शरीरम् । समूहे गोमयनिकायः । २ - काय : – 'चि धातोः शरीरे वाच्ये 'निवास चिति इत्यादिना सूत्रेण घञि प्रत्यये चकारस्य ककारे च 'प्रचोणिति' इति वृद्धौ श्रायादेशे विभक्तिकार्ये 'काय:' इति रूपम् । ३ - जयः'-'जि' धातोः 'एरच्' इति सूत्रेण 'प्रच्' प्रत्यये 'सार्वधातुकार्धधातुकयो' रिति गुणेऽयादेशे विभक्तिकायॅ 'जयः' इति रूप' सिध्यति । ४- यस्मिन्नर्थे घञ् भवति, तस्मिन्नर्थे 'क' -प्रत्ययो - ऽपीत्यर्थः । ५ - प्र-स्था + (क) श्र (:) कित्त्वादालोपः । ' विघ्नः' इत्यत्र गमहनेति उपधालोप:, हो हन्तेरिति कुत्वम् । ६ - यस्य धातो: 'हु' इत् स्यात्तस्मात् 'क्त्रि' - प्रत्ययः स्यादित्यर्थः । ८५४ - निवास चिति, शरीर और उपसमाधान अथों में चिञ् धातु से घञ् प्रत्यय होता है, और आदि के च को क आदेश होता है । ८५५ - इवर्णान्त वातु से अच् प्रत्यय होता है । ८५६- ऋवर्णान्त धातु अ र उवर्णान्त धातु से अप् प्रत्यय होता है । ( वा० - घञर्थ में क प्रत्यय होता है । ) 0 ८५७ - जिसका इत् हो ऐसे धातु से वित्र प्रत्यय होता है। ८५८ - क्त्रि-प्रत्ययान्त धातु से मप् प्रत्यय होता है निरृत्त अर्थ में । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ उत्तरकृदन्तम् २४१ त्रिप्रत्ययान्तात् 'मम् निवृत्तेऽर्थे । पाकेन निर्वृत्तं- 'पक्त्रिमम् । डुवपू ३ उत्रिमम् । ८५६ टवितोऽथु दुवेषु कम्पने । "वेपथुः । ८६० यज-याच यत- विच्छ प्रच्छ- रक्षो नङ् ३ । ३ । ६० । • ३ । ३ । ८६ । "यज्ञः । याच्ञा । यत्नः । ' विश्नः । ' प्रश्नः । रक्ष्णः । ८६१ स्वपो नन् ३ । ३ । ६१ । स्वप्नः । ८६२ उपर्गेस घोः किः ३ । ३ । ६२ । १० प्रधिः | ११ उपधिः । १- मप् । २- पक्त्रिमम्- 'पाकेन निर्वृत्तम्" इति विग्रहे 'पच्' धाताः 'द्वितः स्त्रिः' इति 'कित्र' प्रत्यये ककारस्येत्संज्ञायां लोपे च 'कुत्रेर्मम् नित्यम्' इति मपि अनुबन्ला प्रातिपदिकत्वेन विभक्तिकायें सिध्यति रूपं 'पवित्रमम्' इति । ३- द्रवप् धातुः, 'वचिस्वपियजा ' इति सम्प्रसारणम् । एवम् डुलभष् - लत्रिमम्, डुधाञ् हित्रिमम् ( दधातेहिः ) डुकृञ् - कृत्रिमम् । डुदाञ, दस्त्रिमम्, 'दा दद्धो ;' इति दत् । ४- 'टु' इत्-यस्य सवित् तस्मात् ( धातोः ) भावे - 'प्रथुच्' प्रत्ययः स्यादित्यर्थः ५ एवं दुनोत्रि - श्वयथुः । टुभ्राजभ्राजथुः । दुर्नादि नन्दथुः । टु श्रांस्फूर्जास्फूर्जथुः | ६ - नस्य श्चुत्वेन ञः । जञोः ७ याच्या 'याच्' धातोः भावेऽर्थे 'राजयाच' इत्यादिना नङ प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे नकारस्य शत्रुत्वे लकारे स्त्रीत्वे टापि विभक्तिकायें सिध्यति रूपं 'याचञा' इति । ८ बिच्छधातुः, 'च्छ्वोः शूडनुनासिके च' इति शत्वम् । विश्नः = प्रतापः प्रच्छ + न (ङ्) (:) प्रश्ने चासन्नकाले' इति निद्दशात् 'ग्रहिज्ये' ति सम्प्रसारणं न । १०- - उपसगं पूर्व कात्' छु' -संज्ञकाद् धातोः किप्रत्ययः । श्रत्रेदं बोध्यमसर्वऽपि कि प्रत्ययान्ताः पुंल्लिङ्गा भवति । ११ - एवम् - उपाधिः व्याधिः, श्राधिः, - " ८५६ - टु जिसका इत् हो ऐसे धातु से थुत्र- प्रत्यय होता है भाव में । ८६०-यज्-याच्-यत्-विच्छ्- प्रच्छ-रक्ष धातुत्रों से नङ् प्रत्यय होता है । ६१ - स्वप् धातु से नन् प्रत्यय होता है । ६२ - उपसर्ग उपपद रहते घुसंज्ञक धातु से कि प्रत्यय होता है भाव आदि में । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ८६३ स्त्रियां क्तिन् ३ । ३ । ६४ । स्त्रीलिङ्गे भावे क्तिन् स्यात् । घञोऽपवादः । कृतिः । स्तुतिः । (ऋल्वादिभ्यः क्तिनिष्ठावद्वाच्यः ) तेन नत्वम् । 'कीणिः । लूनिः । धूनिः । पूनिः । ( सम्पदादिभ्यः क्विप् ) सम्पत् । विपत् । श्रापत् । क्तिन्नपीष्यते । सम्पत्तिः । विपत्तिः । श्रापत्तिः । ८६४ ऊति-यूति - जूति - साति- हेति-कीर्तयश्च ३ | ३ | ६७ | एते निपात्यन्ते । ८६५ वर वर त्रिव्यवि - मवामुपधायाश्च ६ । ४ । २० । समाधिः, विधिः, सन्धिः, अभिसन्धिः, इत्याद्याः कि-प्रत्ययान्ताः पुंल्लिङ्गाः । सर्वत्र 'प्रातो लोपः' इत्यालोपः । १ - कीर्णिः - कू ( विक्षेपे ), ऋत, इत्, हलि चेति दीर्घः, निष्ठावद्भावे 'राभ्याम् इति नत्वम्, णत्वम् । २ - विनाशः । पवित्रतायान्तु पूतिः 'पुत्रो विनाशे' इति विनाशे एवं नत्वविधानात् । ३ - श्रवधातोः क्तिनि ज्वरत्वरेति उपधावकारयोरूठ, उदात्तस्वरो निपातन प्रयोजनम्, ऊतिः = श्रवनम् । युतिः, जूतिः, उभयत्र दीर्घनिपातनम् । सातिः (षोऽन्तकर्मणि ) इत्यस्य, अत्र 'चतिस्यति ईत्वे प्राप्ते तद्भावो निपात्यते, ‘नावेच उपदेशे' इत्यात्वम् । हेतिः - हन् धातोः क्तिन्, अनुदात्तेति नलोपः प्रकारस्य ऐत्वं च निपात्यते । कीर्तिः - कृ धातोः ण्यासश्रन्येति युच् प्राप्तः, क्तिन् निपात्यते, 'उपधायाश्च' इतीत्वे रपरत्वम् । | ४ - क्विन् प्रत्ययान्ताः । ..." ८६३ - धातु से क्तिन् प्रत्यय होता है स्त्रीलिंग भाव में ( वा०-(१) ऋकारान्त तथा ल्वादि धातु से किया गया क्तिन् प्रत्यय निष्ठा के सदृश होता है । (२) संपदादियों से क्विप् प्रत्यय होता है । (३) संपदादियों से क्विन् प्रत्यय भी होता है भाव में और कर्ता से भिन्नकारक में ) ८६४ - ऊतियूति श्रादि शब्द निपातन से सिद्ध होते हैं । ८६५ - ज्वरादि धातुओं की उपधा और वकार को ऊठ होता है 'अनुनासिक क्वि तथा फलादि कित् डि परे रहते । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ उत्तरकृदन्तम् एषामुपधावकारयोरुट अनुनासिके क्वौ झलादौ किङति च । 'अतः क्विप् । 'जूः । तूः । स्त्रः। ऊः। मूः। ८६६ इच्छा ३।३।१०१ । इषेनिंपातोऽयम् । ८६७ अप्रत्ययात् ३।३।१०२ । प्रत्ययान्तेभ्यो धातुभ्यः स्त्रियामकारः प्रत्ययः स्यात् । चिकीर्षा । पुत्रकाम्या। ८६८ गुरोश्च हलः ३ । ३ । १०३ । गुरुमतो हलन्तात् स्त्रियामप्रत्ययः स्यात् । ईहा । ८६६ "ण्यासश्रन्थो युच ३।३।१०७ । अकारस्यापवादः । कारण । हारणा । ८७० नपुंसक भावे क्तः ३ । ३ । ११४ । ८७१ ल्युट् च । ३ । ३ । ११५ । १- प्रतः = सम्पदादेराकृतिगणत्वात् 'सम्पदादिभ्यः विप' इत्यनेन 'क्विप्' इत्यर्थः । २-ज्वर (रोगे ) जूः, जूरौ, जूरः । (भि) त्वरा ( सम्भ्रमे ) तूः, तूरी, तूरः । निवि (गतौ) सूः, झुधौ, सुवः । प्रवि-प्रब ( रक्षणे ) -ऊ, उवौ, उवः। मव (बन्वने ) मूः मुवौ, मुत्रः। ३–इषेः 'श'-प्रत्ययान्तोऽयं निपातः, स्त्रियां टाप् । ४-सन्नन्तात्कृधातोः 'चिकीर्ष' इत्यस्मात् 'अ' प्रत्यये 'प्रतो लोप:' स्त्रिया टाप् । ५-काम्यच्प्रत्ययान्तात् 'पुत्रकाम्य'-धातोः 'प्र' प्रत्यये, स्त्रिया टाप् । ६ - एयन्तेभ्यःपासधातोः श्रन्थेश्च युच् स्यादित्यर्थः । एयन्ताद् यथा-कारणा, हारणा, धारणा, (हिलोपः 'युवोरननाको' इत्यनः ) पास-पासना, श्रन्थ-श्रन्थना । ८६६-इष धातु से भाव में श-प्रत्यय होता है। यक का अभाव भो निपातन से होता है। ८६७-प्रत्ययान्त धातुओं से अकार प्रत्यय होता है स्त्रीलिङ्ग में । ८६८-गुरुमान् हलन्त धातुओं से प्रकार प्रत्यय होता है स्त्रीलिङ्ग में। ८६६-एयन्त, आस् , अन्य धातुओं से युच् प्रत्यय होता है । ८७०-धातु से क्त प्रत्यय होता है नपुसकलिङ्ग माव में। ८७१-धातु से ल्युट् प्रत्यय भी होता है नपुंसकलिङ्ग भाव में । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् हसितम् । हसनम्। ८७२ पुसि संज्ञायां घः प्रायेण ३ । ३। ११८ । ८७३ छादेर्थेऽद्वय पसर्गस्य ६ । ४ । ६६ । द्विप्रभृत्युपसर्गहीनस्य छादेर्हस्वो घे परे । दन्ताश्चाद्यन्तेऽनेनेति 'दन्तच्छदः। 'आकुर्वन्त्यस्मिन्नित्याकरः । ८७४ अवे तृस्त्रोघ ३।३ । १२० । अवतारः कूपादेः । अवस्तारो जवनिका । ८७५ हलश्च ३ । ३ । १२१ । हलन्ताद् घञ् । घापवादः । रमन्ते योगिनाऽस्मिन्निति रामः । अपमृज्यतेऽनेन व्याध्यादिरित्यपामार्गः । ८७६ ईषदुस्सुषु कृच्छाकृच्छार्थेषु खल ३ । ३ । १२६ । करणाधिकरणयोरिति निवृत्तम् । एषु दुःखसुखार्थेषुपपदेषु खुल (७७०) तयोरेवेति भावे कर्मणि च । कृछे-दुष्करः कटो भवता । अकृच्छेईषत्करः। "सुकरः। १-ण्यन्तात् 'छादि' इत्यस्मात् 'घ' णिलोपः, ह्रस्वश्च । २-प्रत्र ( अधिकरणे) 'धः' प्रत्ययः । ३ रामः-'रमन्ते योगिनोऽस्मिन्निति विग्रहे' 'रम्' धातोः 'पुसि संज्ञाया घः' इति सूत्रेण घप्रत्यये प्राप्ते । तं बाधित्वा 'हलश्चे' ति मधिकरणेऽर्थे पनि प्रत्यये उपधावृद्धौ विभक्तिकायें 'रामः' इति रूपम् । ४-अपामार्गः-( 'उपसर्गस्य घन्यमनुष्ये बहुलम्' दीर्घः, 'चजोः कु पिण्यतोः' इति कुत्वम् ) प्रोषधिभेदः । 'ऊंगा' इति भाषायाम् (पुठकण्डा इति पाञ्चालीभाषायाम् ) । ५-सुकरः-सुपूर्वकात् 'कृ' धातोः 'ईषद्दुस्सुषु...' इत्यादिना 'खल' प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे 'सार्वधातुकाधंधातुकयो' रिति गुणे विभक्तिकार्य 'सुकरः' इति । ८७२-धातु से घ प्रत्यय होता है पुंलिङ्ग में, सज्ञा में बहुलता से। ८७३-द्विप्रभृति उपसर्गरहित छादि धातु को ह्रस्व होता है घ परे रहते। ८७४-अब उपपद रहते त धातु और स्त धातु से करण और अधिकरण अर्थ में घत्र प्रयय होता है संज्ञा में पुल्लिङ्ग में। ८७५-हलन्त धातुओं से घञ् प्रत्यय होता है करण और अधिकरण अर्थ में । ८७६-दुःखार्थक और सुखार्यक ईषत्-दुस-मु उपपद रहते कृच्छ्र और अकृच्छ्र अर्थ में धातु से खल् प्रत्यय होता है । _______ _ _ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरकृदन्तम् ८७७ तो युच् ३ । ३ । १२६' । खलोऽपवादः ईषत्पानः सोमो भवता । दुष्पानः । 'सुपानः । ८७८ अलं खल्वोः प्रतिषेधयोः प्राचां क्त्वा ३ । ४ । १८ । प्रतिषेधार्थयोरलंखल्वोरुपपदयोः क्त्वा स्यात् । प्राचां ग्रहणं ' पूजार्थम् । अमैवाव्ययेनेति नियमान्नोपपदसमासः (८२७) दो दयोः । अलं दत्त्वा । घुमास्थेतीत्वम् । पीत्वा खलु । अलंखल्वोः किम्- मा कार्षीत् । प्रतिषेधयोः किम् - अलंकारः । ८७६ समानकर्तृकयोः पूर्वकाले ३ । ४ । २१ । समानकर्तृकयोर्धात्वर्थयोः पूर्वकाले विद्यमानाद्धातोः क्त्वा स्यात् । "भुक्त्वा व्रजति । " द्वित्वमतन्त्रम् । भुक्त्वा पीत्वा व्रजति । ८८० नक्त्वा सेट १ । २ । १८ । २४५ सेट् क्त्वा किन्न स्यात् । ' शयित्वा । सेट् किम् कृत्वा । ८८१ रलो व्युपधाद्धलादेः संश्च १ । २ । २६ । १ - सुपानः -- 'सु' पूर्वकात् 'पा' धातोः ईषदुस्सुषु' इत्यादिना प्राप्तं खलं बाघित्व 'प्रातो युच्' इति 'युचि' प्रत्यये चकारस्येत्संज्ञायां लोपे च 'युवोरनाकौ' इति यकारस्य श्रनादेशे सवर्णदीर्घे त्रिभक्तिकार्ये 'सुपानः' इति रूपम् । - आदरार्थम्, धन्य प्राचीना येषां मतं पाणिनिना गृहीतमिति । ३ – नात्र प्रतिषेधार्थोऽलम् । ४ - भुक्तवा व्रजति' 'भुज्' धातोः 'समानकर्तृकयोः पूर्वकाले' इति 'कृत्वा' - प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे 'चोः कुः' इति कुत्वे कृदन्तस्वात् प्रातिपदिकसंज्ञायां सौ ' क्त्वातोसुन्कसुनः' इत्यव्ययत्वात् सुपो लुकि 'भुक्त वा' इति रूपम् । ५ सूत्रे द्विवचनं न विवक्षितमित्यर्थ: तेनाधिकानामपि । ६- कित्वाभावाद् गुगुः । ८७७ - प्रादन्त धातु से युच् प्रत्यय होता है, ईषदादि उपपद रहते । ८७८ - निषेधवाची अलं और खलु उपपद रहते धातुओं से क्त्वा प्रत्यय होता है । ८७६ - समानकर्तृक धात्वथों में पूर्वकालिक क्रिया में विद्यमान धातु से क्वा प्रत्यय होता है । ८८०- सेट् क्त्वा कित् नहीं होता । ८८१-इव ंपध उव ंत्रिध हलादि रलन्त धातुत्रों से परे सेट् क्त्वा और सन् विकल्प से कित होता है । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ लघुसिद्धान्तकौमुखाम् इवर्णोवर्णोपधाद्धलादेरलन्तात् परो क्त्वासनौ सेटौ वा कितौ स्तः । धुतित्वा, धोतित्वा। लिखित्वा, लेखित्वा । व्युपधात्किम्-वर्तित्वा । रलः किम्-सेवित्वा । हलादेः किम्-एषित्वा । सेट् किम्-भुक्त्वा । ८८२ उदितो वा ७ । २ । ५६ । उदितः परस्य क्त्वा इड्वा । शमित्वा, 'शान्त्वा । देवित्वा, द्यूत्वा । दधातर्हिः । हित्वा । ८८३ जहातेश्च क्वि ७ । ४ । ४३ । हित्वा । हाङस्तु-हात्वा । ८८४ समासेऽनत्र पूर्व क्त्वो ल्यप ७।३। ३७ । अव्ययपूर्वपदेऽनन्समासे क्त्वो ल्यबादेशः स्यात् । तुक्, "प्रकृत्य । पन किम्-अकृत्वा । ८८५ 'आभीक्ष्ण्ये णमुल च ३ । ४ । २२ । भाभीक्ष्ण्ये द्योत्ये पूर्वविषये णमुल् स्यात् क्त्वा च । ८८६ नित्य-वीप्सयोः ८।३।४ । १-'अनुनासिकस्य वि...' इति दीर्घः २-पत्र 'च्छ्वोः शूडनुनासिके च' इति 'ऊ' । ३-इत्वमिति शेषः । ४-हित्वा - 'प्रोहाक्' धातोरनुबन्धलोपे 'हा' इत्यस्मात 'समानकर्तुकयोः पूर्वकाले' इति 'क्त्वा' प्रत्यये 'जहातेश्च तिव' इत्यनेनाकारस्य इत्वे 'हित्वा' इति रूपम् । 'धा' धातोरपि 'क्वा' 'दधाते हिः' इति ह्यादेशे 'हित्या' इति रूपं भवति । ५-प्रकृत्य-'प्र' पूर्वकात् 'कृ' धातोः 'समानकर्तृकयो:--' इत्यादिना 'क्त्वा' प्रत्यये प्रशब्देन समासे 'समासेऽनत्र पूर्वे-' इत्यादिना क्त्वो ल्यबादेशेऽनुबन्धलोपे 'ह्रस्वस्य पिति कृति' इत्यादिना तुगागमेऽव्ययत्वे 'प्रकृत्य' इति रूपम् । ६-प्रोभोधण्यम् = पौनःपुन्यम् भूशार्थश्च। ८०२-उदित् धातु से परे क्त्वा को इट होता है विकल्प से । ८८३-श्रोहाक् धातु को 'हि' आदेश होता है क्त्वा प्रत्यय परे रहते । ८८४-अव्यय पूर्वपद रहते नञ् भिन्न समास में क्त्वा को ल्यप् होता है। ८८५-भाभोदण्य अर्थ योत्य होने पर क्त्वा के विषय में णमुल होता है। घर-पाभीक्ष्ण्य और वीप्सा अर्थ द्योत्य होने पर पद को द्विस्व होता है। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभक्त्यर्थाः २४७ 'भीये वीप्सायां च द्योत्ये पदस्य द्वित्वं स्यात् । श्रभीचायं अतिङन्तेष्वव्ययसंज्ञकेषु कृदन्तेषु । स्मारं स्मारं नमति शिवम् । स्मृत्वा । स्मृत्वा । "पायं पायम् | भोजं भोजम् । श्रावं श्रावम् । ८८७ श्रन्यथैवं कथमित्थंसु सिद्धाप्रयोगश्चेत् ३ । ४ । २७ । एषु कृञो णमुल् स्यात् सिद्धोऽप्रयोगोऽस्य एवंभूतश्चेत् कृञ् । अर्थत्वात् प्रयोगानर्ह इत्यर्थः । अन्यथाकारम् । एवंकारम् । कथंकारम् । इत्थं - कारं भुङ्क्त े । सिद्धेति किम् - शिरोऽन्यथा कृत्वा भुङ्क्त े । इत्युत्तरकृदन्तम् । अथ विभक्त्यर्थाः ८८८ प्रातिपदिकार्थ-लिङ्ग-परिमाण वचन मात्रे प्रथमा २ । ३ । ४६ । १ नैरन्तय्यें पौनःपुन्ये वा । २ - प्राधिक्येच्छायाम् । ३- तिङन्तेषु यथा- पठति पठति ४-स्मारं स्मारम्-'स्मृ' घातोः ग्रामोक्ष्णे द्योत्ये पूर्वकाले 'क्वा' प्रत्ययं बाघित्वा ग्रामीक्ष्एयेणमुल् च' इति वैकल्पिके 'गमुलि' अनुबन्धलोपे 'स्मृ प्रम्' इति स्थितौ 'प्रचोव्णिति' इति वृद्धौ 'कृन्मेजन्त' इत्यव्ययत्वे 'नित्यवीप्सयो' रिति द्वित्वे 'स्मारं स्मारम्' इति । ( मुलोऽभावपक्षे 'स्मृस्वा स्मृत्वा' इति रूपम् ) । ५ - 'प्रातो युक् चिरण कृतो:' इति युक् । ६-कथंकारम् —'कथम्' पूर्वकात् 'कृ' धातोः 'प्रत्यथैवं कथमित्यम्' इत्यादिना मुलि अनुबन्धलोपे 'प्रचो- ञ्णिति' इति वृद्धौ श्रव्ययस्वे 'कथकारम्' इति रूपम | ७- नात्र कृञः प्रयोगेऽन्यथासिद्धिः, किन्तु श्रावश्यकः । प्रतो न णमुल् । इत्युत्तरकृदन्तप्रकररणम् । ८८७ - अन्यथा, एवं, कथम्, उपपद रहते कृञ् धातु से णमुल् प्रत्यय होता है, कृञ् के प्रयोग के व्यर्थ होने पर । इत्युत्तरकृदन्तप्रकरणम् । प्रथ विभक्त्यर्था: - प्रातिपदिकार्थ मात्र में, लिङ्गमात्र के प्राधिक्य में, परिमाणमात्र में और संख्यामात्र में प्रथमा विभक्ति होती है । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् नियतोपस्थितिकः प्रातिपदिकार्थः। मात्रशब्दस्य प्रत्येकं योगः । प्रातिपदिकार्थमात्रे लिङ्गमात्राद्याधिक्ये परिमाणमात्रे संख्यामात्रे च प्रथमा स्यात् । प्रातिपदिकार्थमात्रे-उच्चैः । नीचैः। कृष्णः । श्रीः । शानम् । लिङ्गमात्रे-- तटः। तटी। तटम् । परिमाणमात्रे-द्रोणो 'व्रीहिः । वचनं-संख्या। एकः । द्वौ । बहवः। ८८६ सम्बोधने च २ । ३ । ४७ । प्रथमा स्यात् । हे राम! ८६० करीप्सिततमं कर्म १ । ४ । ४६ । कर्तुः क्रियया आप्तुमिष्टतमं "कारकं कर्मसंशं स्यात् । ८६१ कर्मणि द्वितीया २ । ३ । २ । अनुक्ते कर्मणि द्वितीया स्यात् । हरि भजति । अभिहिते तु कर्मादौ 'प्रथमा । हरिः 'सेव्यते । लक्ष्म्या १°सेवितः। ८६२ अकथितं च १ । ४ । ५१ । १-यस्मिन् प्रातिपदिके उच्चारित यस्यार्थस्य नियमेनोपस्थितिः सोऽत्र प्रातिपदिकार्थों विवक्षितः इत्यर्थः । २-अलिङ्गा नियतलिङ्गाश्च प्रातिपदिकमात्रस्योदाहरणानि । ३अनियतलिङ्गाश्च लिङ्गमात्राद्याधिक्यस्य। ४-द्रोणपरिमाणपरिच्छिन्नो व्रीहिरित्यर्थः । ५-'कारके' इत्यधिकारादिदं लभ्यते । कारकम् = क्रियाजनकम् । कारकाणि षट्-कर्ता, कर्म, करणम्, सम्प्रदानम्, अपादानम, अधिकरणं चेति । ६-अनभिहिते इति, यस्मिन्नर्थ प्रत्ययः स उक्तः अभिहितः, तमिन्नोऽनुक्तः-प्रनभिहितः, यथा-'हरि भजति' इत्यत्र कर्तरि तिङ्प्रत्यय इति कर्म (हरिः) अनुकम् = अनभिहितम् । ७हरि भजति-पत्र भजनक्रियायाः कर्म हरिः । भजतीत्यत्र कर्तरि प्रत्ययाद् उक्तः कर्ता, कर्म चानुक्तम् । 'कमणि द्वितीया' इति सूत्रेण 'हरि' शब्दाद् द्वितीया विभक्तिः । ८-परिशेषात्प्रातिपदिकार्थमात्रे प्रथमा ।।-प्रत्रकर्मणि प्रत्ययः । १०-पत्र कर्मणि क्तः । ८८६-सम्बोधन में प्रथमा विभक्ति होती है। ८६०-कर्ता को क्रिया के द्वारा प्रान करने के लिये इष्टतम कारक की कर्म संज्ञा होती है। ८६१-अनुक्त कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है। ८६२-अपादानादि विशेषों से अविवक्षित कारक कर्मसंज्ञक होता है । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभक्त्योः २४६ अपादानादिविश रविवक्षितं कारकं कर्मसंशं स्यात् । 'दुह्याच्-पत्र दण्ड-रुधि-प्रच्छि-चि -शासु-जि-मथ-मुपाम् । कर्मयुक् स्या दकथितं तथा स्यान्नी हृ-कुप्वहाम् । १ । गां दोग्धि । यः। वलिं याचते वसुधाम् । “तण्डुलानोदनं पचति । गर्गान् शतं दराज्यति । व्रजमवरुणद्धि गाम् । °माणवकं पन्थानं पृच्छति । 'वृक्षमवचिनोति फलानि । 'माणवकं धर्म ते शास्ति वा। शतं जयति ५०देवदत्तम् । सुधां ११क्षीरनिधि मथ्नाति । १२देवदत्तं शतं मुष्णाति । ग्राममजां नर्यान, हरति, कर्षति, वहति वा । १४अर्थनिवन्धनेयं संज्ञा वलिं भिक्षते वसुधाम् । माणवकं धर्म भाषते, अभिधत्ते, वक्तीत्यादि। ८६३ स्वतन्तः कता १।४ । ५४ । क्रियायां स्वातन्त्र्येण विवक्षितोऽर्थ कर्ता स्यात् । ८६४ साधकतमं करणम् १ । ४ । ४२ । क्रियासिद्धौ प्रकृष्टोपकारकं करणसंज्ञं स्यात् । ८६५ कत करणयोस्तृतीया २ । ३ । १८ । अनभिहिते करि करणे च तृतीया स्यात् । १५रामेण बाणेन हतो वाली। १-दुहानीनां द्वा शानां तथा नीप्रभृतीनां चतुपर्णा धातूनां कर्मणा यद् युज्यते तदेवाऽकथितं कर्मेति रिगणन कर्त्तव्यमित्यर्थः। २-गां दोग्धि पयः--प्रत्रापादानत्वा विवक्षायाम् 'अकथित चे सि गोः कर्मसंज्ञा । 'कर्मणि द्वितीया' इत्यनेन च द्वितीयाविभक्तौ 'गां दोग्धि यः' इति रूपम् । ३-बलेः (पं०)। ४-तण्डुलैः। ५-गर्गेभ्यः (५०)। ६-व्रजे । ७- मारणवकेन । ८-वृक्षात । ६-माणवकाय । १०-देवदत्तात् । ११क्षोरनिधेः । १२-देवतात् । १३- ग्रामे-इत्यर्थः । इत्येतेषां पूर्वोपात्तानामपादानादेरविवक्षायामकथितक मरम्। एषामुदाहरणानां वाक्यार्थबोधादिविशेषस्तु मत्कृतमध्यकौमुदीटीकायां द्रव्य । १४-अर्थाश्रितेत्यर्थः, दुहादिपरिगणितधातूनाम् अर्थों गृह्यते. नतु दुहादयो धातव एव, तेन तदर्थकान्यधातुयोगेऽपि । १५-रामेण बाणेन हतो ८६३-क्रिया में वातन्त्र्य से विवक्षित अर्थ की कर्तृसंज्ञा होती है। ८६४-क्रिया को सेद्धि में प्रकृष्ट उपकारक की करणसंज्ञा होती है । ८६५-अनुक्त कर और करण में तृतीया होती है। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ८६६ कर्मणा यमभिप्रेति स सम्प्रदानम् १ । ४ । ३२ । दानस्य कर्मणा 'यमभिप्रैति स सम्प्रदानसंज्ञः स्यात् । ८६७ चतुर्थी सम्प्रदाने २ । ३ | १३ | २५० '३ विप्राय गां ददाति । ८६८ नमः स्वस्ति - स्वाहा स्वधाऽलं- वषडयोगाच्च २ | ३ | १६ | एभिर्योगे चतुथी । हरये नमः । प्रजाभ्यः स्वस्तिः । अग्नये स्वाहा । पितृभ्यः स्वधा । अलमिति पर्याप्त्यर्थ प्रहणम् । तेन दैत्येभ्यो हरिरलं प्रभुः, समयः, शक्त इत्यादि । ८६६ भ्रवमपायेऽपादानम् १ । ४ । २४ । अपायो - विश्लेषस्तस्मिन् साध्ये यद् ध्रुवमवधिभूतं कारकं तदपादानं स्यात् । ६०० अपादाने पञ्चमा २ । ३ । २८ । प्रामादायाति । धावतोऽश्वात् पततीत्यादि । वाली - - अत्र रामस्य 'स्वतन्त्रः कर्त्ता' इति कर्तृसंज्ञा बालस्य च 'साधकतमं करणम्' इति करणसंज्ञा । उभयत्रापि 'कर्तृकरणयोस्तृतीया' इति तृतीयाविभक्तिः 'रामेा बाणेन हतो वाली ।' .-- 1 १–दानपात्रम् | २ प्रभिप्रैति = सम्बद्ध मिच्छति - इत्यर्थः । ३ - विप्राय गां ददातिविप्रस्य 'कर्मणा यममिप्रति इत्यादिना सम्प्रदानसंज्ञा 'चतुर्थी सम्प्रदाने' इति चतुर्थी । ४- ध्रुवमित्यस्याऽवधिभूतमित्यर्थः । ५ - धावतोऽश्वात् पतति-'प्रपादाने पञ्चमी' इति पञ्चमी विभक्तिः (त्र धावन्नप्यश्वः पतनक्रियायाः प्रवधिभूतोऽस्ति श्रतोऽपादानत्वे बाधाभाव: ' घ्र वमित्यस्यावधिभूतमित्यर्थत्वात् ) । ८६६ - कर्ता दाधातु के कर्म से जिसका सम्बन्ध करने की इच्छा करे उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है । ८६६ - सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है । ८६८ - नम स्वस्ति स्वाहा स्वधा श्रलं और वषट् के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। ८६६ - अपाय (विश्लेष) की सिद्धि में ध्रुव ( अवधिभूत) कारक की अपादान संज्ञा होती है। ६०० - अपादान में पञ्चमी विभक्ति होती है । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभक्त्यर्थाः २५१ ६०१ षष्ठी शेषे २ । ३ । ५० । कारकप्रातिपदिकार्थव्यतिरिक्तः स्वस्वामिभावादिसम्बन्धः शेषस्तत्र षष्ठी स्यात् । 'राज्ञः पुरुषः । कर्मादीनापमि सम्बन्धमात्रविवक्षायां षष्टय व । सतां गतम् । सर्पिषो जानीते। मातुः स्मरति । एधो दकस्योपस्कुरुते। भजे शम्भोश्चरणयोः। ६०२ आधारोऽधिकरणम् १ । ४ । ४५ । कतृकर्मद्वारा ननिष्ठक्रियाया अाधारः कारकमधिकरणं स्यात् । ६०३ सप्तभ्यधिकरणे च २ । ३ । ३६ । अधिकरणे सक्षमी स्यात, चकाराद् दूरान्तिकार्थभ्यः । औपश्लेषिको वैषयिकोऽभिव्यापकश्चेत्याधारस्त्रिधा । कटे वास्ते । स्थाल्यां पचति "मोक्ष इच्छाऽस्ति । "सर्वस्मिन्नात्मास्ति । वनस्य दूरे अन्तिके वा । इति 'विभक्त्यर्थाः । १-'द्विष्ठो यद्यपि सम्बन्धः षष्ठयत्पत्तिस्तु भेदकात्' । -मातुःस्मरति-पत्र कर्मवाविवक्षायां सम्बन्धमात्रविवक्षायां 'षष्ठी शेषे इति सूत्रेण 'मातृ' शब्दे षष्टी। कर्मत्वविवक्षायां 'मातरं स्मरति' इति भवत्येव । ३-कटे प्रास्ते, स्याल्यां पति, द्वयमिदम् प्रौपश्लेषिकाऽऽधारस्योदाहरणम् । ४-मोक्षे इच्छाऽस्ति-इच्छायाः विषयो मोक्षः । मोक्षो वैषयिकाधारः । तथाच "पधारोऽधिकरणम्' इत्यधिकरणसंज्ञायां 'सप्तम्यधिकरणे च' इत्यनेन सप्तमी । ५-अभिव्यापकाधारस्येदमुदाहरणम् । इति कारकाणि । ५-प्रत्रायं सप्त-विभक्ति-प्रयोगसङ् ग्रह श्लोकः कृष्णो रक्षतु नो जगत्त्रयगुरुः कृष्णं नमस्थाम्यहम् कृष्णेनाऽमरशत्रवो विनिहताः कृष्णाय तस्मै नमः ।। कृष्णादेव समुत्थितं जगदिदं कृष्णस्य दासोऽस्म्यहम् कृष्णे तिष्ठति सर्वमेतदखिलं हे कृष्ण ! रक्षस्व माम् ॥१ ।। (कुलशेखरस्य ) ६०१-कारक और प्रातिपदिकार्थ से प्रतिरिक्त स्व-स्वामिभाव, जन्य-जनकभावादि सम्बन्ध में षष्ठी विभक्ति होती है। ६०१-कर्तृ-कर्म द्वारा तन्निष्टक्रिया के अाधार की अधिकरण संज्ञा होती है । ६०३-अधिकरण में सप्तमी विभक्ति होती है और दूर एवं अन्तिकार्थ में भी। इति विभक्त्यिाः । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् अथ समासाः समासः पञ्चधा । तत्र 'समसनं समासः । स च विशेषसंज्ञाविनिर्मुक्तः २ केवलसमासः प्रथमः । प्रायेण पूर्वपदार्थप्रधानोऽव्ययीभावो द्वितीयः । प्रायेणोत्तरपदार्थप्रधानस्तत्पुरुषस्तृतीयः ४ । तत्पुरुषभेदः " कर्मधारयः । कर्मधारयभेदो द्विगुः । प्रयेणान्यपदार्थप्रधानो बहुव्रीहिश्चतुर्थः । प्रायेणोभयपदार्थप्रधानो 'इन्द्रः पञ्चमः । ६ । ६०४ समर्थः पदविधिः २ । १ । १ । पदसम्बन्धी यो विधिः सः समर्थांश्रितो बोध्यः । २५२ ७ ६०५ प्राक्कडारात् समासः २ । १ । ३ । 'कडाराः कर्मधारये' इत्यतः प्राक्समास इत्यधिक्रियते । ६०६ सह सुपा २ । १ । ४ । सुप् सुपा सह वा समस्यते । समासत्वात् प्रातिपदिकत्वेन " सुपो लुक् । परार्थाभिधानं वृत्तिः कृत्तद्धित - समासैकशेष- सनाद्यन्तधातुरूपाः पञ्च वृत्तयः । वृत्त्यर्थाव वोधकं वाक्यं विग्रहः । स च "लौकिकोऽलौकिकश्चेति द्विधा । तत्र पूर्वं भूतः - इति लौकिकः । पूर्वम् भूत सु इत्यलौकिक । भूतपूर्वः । भूतपूर्वे 1 १ – श्रनेकपदानामेकीभवनमित्यर्थः । २ - यथा 'भूतपूर्वः' : - यथा -- ' - 'अधिहरि' । ४ - यथा -- ' राजपुरुषः ' । ५ यथा-' - 'नीलोत्पलम्' । ६ - यथा - ' -'पञ्चगवम्' । ७-यया'लम्बकरणंः' 'पीताम्बरः' । ६ - यथा - रामलक्ष्मणौ' 'धवखदिरौ । ६ - सामर्थ्य द्विविधं व्यपेक्षा - (रूपम् ) एकार्थीभावश्चेति । प्राकाङ्क्षादिवशात्पदानां परस्परसम्बन्धो व्यपेक्षा, सा च वाक्ये भवति, यथा-' - 'राज्ञः पुरुषः' । एकार्थीभावस्तु ( पृथगुपस्थिति विषयत्वमेकार्थीभावत्वम् ) 'राजपुरुष:' इत्यादौ वृत्तौ ( समासादौ ) एव । १० - कृत्तद्धितसमासाच' इति प्रातिपदिकत्वम् । '७२१ सुपो धातुप्रातिपदिकयो:' इत्यनेन सुपो लुक् । ११ - प्रयोगयोग्यो लौकिकः, तद्भिन्नोऽलौकिकः । अथ समासाः । तत्रादौ केवलसमासः पदसम्वन्धी विधि को समर्थाश्रित जानना चाहिये । ६०५—‘क़डाराः कर्मधारये' सूत्र से पहले समास का अधिकार है । ६०६ – सुबन्तों का मुत्रन्तों के साथ समास होता है विकल्प से । ६०४ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्क्याभावः २५३ चरडिति निर्देशात् पूर्वनिपातः ( इवेन समासो विभक्त्यलोपश्च ) वागर्थों इव वागर्थाविव । इति कवलसमासः प्रथमः। अथ अव्ययीभावः . १०७ अव्ययीभावः २ । १ । ५। अधिकारोऽयं प्राक् तत्पुरुषात् । ६०८ अव्ययं विभक्ति-समीप-समृद्धि-व्यद्धयर्थाभावात्ययासम्प्रतिशब्दप्रादुर्भाव - पश्चाद्यथानुपूर्व - योगपद्य-सादृश्य-सम्पत्तिसाकल्यान्त-वचनेषु २ । १।६। विभक्त्यर्थादिषु वर्तमानमव्ययं सुवन्तेन सह नित्यं समस्यते । प्रायेणाविग्रहो नित्यसमासः, 'प्रायेणास्वपदविप्रहो वा । विभक्तौ-'हरि ङि अधि' इति स्थित। ६०६ प्रथमानिर्दिष्ट समास उपसर्जनम् १ । २ । ४३ । 'समासशास्त्रे प्रथमानिर्दिष्टमुपसर्जनसंझं स्यात् । ६१० उपसजेनं पूर्वम् २ । २ । ३० । समासे उपसर्जनं प्राक् प्रयोज्यम् । इत्यधेः प्राक् प्रयोगः। सुपो लुक् । १-प्रस्वपदविग्रहः =न स्वपदैविग्रहो यत्र । २-समासविधायकसूत्रे इत्यर्थः । ( वा०-इव के साथ समास होता है और विभक्ति का लोप नहीं होता है । । इति केवलसमासः। अथ अव्यबोभावः ६०७-'अव्ययीभाव' इसका तत्पुरुष तक अधिकार है। ६०८-विभक्त्यादि अर्थो में अव्यय का सुबन्त के साथ नित्य समास होता है वह अव्ययीभाव कहलाता है। ६०६-समास शास्त्र में प्रथमानिर्दिष्ट की उपसर्जन संज्ञा होती है । ६१०-समास में उपसर्जन का पूर्वनिपात होता है। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૧૪ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् एकदेवविकृतस्यानन्यत्वात् प्रातिपदिकसंज्ञायां स्वाधुतात्तिः । (३७१) अव्ययीभावश्चेत्यव्ययत्वात् सुपो लुक् । अधिहरि । ६११ अव्ययीभावश्च २ । ४ । १८ । अयं नपुंसकं स्यात् । ६१२ नाव्ययीभावादयोऽम्त्वपञ्चम्याः २ । ४ । ८३ । अदन्तादव्ययीभावात् सुपो न लुक् तस्य पञ्चमी विना श्रमादेशः स्यात् गाः पातीति गोपास्तस्मिन्नित्यधिगोपम् । ६१३ तृतीयासप्तम्योबहुलम् २ । ४ । ८४ । अदन्तादव्ययीभवात्तुतीयासप्तम्योर्वहुलमम्भावः स्यात् । कृष्णस्य समीपम् उपकृष्णम्. उपकृष्णेन । मद्राणां समृद्धिः-सुमद्रम् यवनानां व्यद्धिर्दुर्यवनम् । मक्षिकाणामभावो निर्मक्षिकम् । हिमस्यात्ययाऽतिहिमम् । निद्रा संप्रति न युज्यते-इत्यतिनिद्रम् । हरिशब्दस्य प्रकाश इतिहरि । विष्णोः पश्चादनुविष्णु। योग्यतावीप्सा-पदार्थानतिवृत्ति-सादृश्यानि "यथार्थाः। रूपस्य १-सुविशिष्टस्यैव समासत्वेन प्रातिपदिकसंज्ञाविधानात् लुका सुपो लुप्तत्वेन कथमत्र प्रातिपदिकत्वं ततः सुबुत्पत्तिश्च, प्रत माह- एकदेशेति । २-'अव्ययादाप्सुपः' इति सूत्रेण । ३-अधिगोपम्-'गाः पातीति गोपास्तस्मिन्नहि गोपम्' । अलौकिकविग्रहे ‘गोपा ङि अधि' इति स्थिते 'अव्ययं विभक्ति ' इत्यादिना समासे कृते 'अधि' इत्यस्य 'प्रथमानिद्दिष्टं समास 'उपसर्जनम्' इत्युपसर्जनसंज्ञायाम 'उपसर्जनं पूर्वम' इति पूर्वनिपाते समासत्वेन प्रातिपदिकत्वात् सुब्लुकि 'अव्ययीभावश्च' इति नपुसकत्वे 'ह्रस्वो नपुसके प्रातिपदिकस्य' इति ह्रस्वे सौ अव्ययत्वेन संकि प्राप्ते 'नाव्ययीमावादम 'इत्यादिना सोरमादेशे 'अधिगोपम ' इति रूपम । ४- उपकृष्णम्-'कृष्ण+ ङस उप'इत्यलौकिकविग्रहे 'अव्ययं विभक्ति'-इत्यादिना समासे उपसर्जनसंज्ञायां पूर्वनिपाते समासत्वात् प्रातिपदिकत्वेन सुपो लुकि 'उपकृष्ण' इत्यस्मात् 'टा' विभक्तौ तृतीयासप्तम्योबहुलम्' इत्यमादेशे 'उपकृष्णम' इति रूपम् । ५--'यथा' शब्दस्यार्था इत्यर्थः । ६११-अव्ययीभाव समास नपुसकलिङ्ग में होता है । ६१२-अदन्त अव्ययोभाव से परे सुप् का लुक नहीं होता, किन्तु उसको अमादेश हो जाता है पञ्चमी विभक्ति को छोड़ कर । ६१३-अदन्त अव्ययीभाव से तृतीया और सप्तमी को बहुलता से अन्भाव होता है। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्ययीभावः २७५ योग्यमनुरूपम् । अर्थमर्थ प्रति प्रत्यर्थम् । शक्तिमनतिक्रम्य यथाशक्ति । ६१४ अव्ययीभाबे चाकाले ६ । ३ । १८ । सहस्य सः स्यादव्ययीभावे न तु काले । हरेः सादृश्यं 'सहरि । ज्येष्ठस्यानुपूयेणेत्यनुज्येष्ठम् । चक्रण युगपत् सचक्रम् । सदृशः सख्या ससखि। क्षत्राणं सम्पत्तिः-सक्षत्रम् । तृणमप्यपरित्यज्य सतृणमत्ति । अग्निग्रन्थपर्यन्तमधीते-साग्नि । ६१५ नदीभिश्च २।१ । २० । नदीभिः सह सङ्ख्या समस्यते । ( समाहारे चायमिष्यते) पञ्च गङ्गम् । द्वियमुनम्। ६१६ तद्धिताः ४ । १ । ७६ । आ पञ्चमसमाप्तेरधिकारोऽयम् । ६१७ अव्ययीभावे शरत्प्रभृतिभ्यः ५ । ४ । १०७ । शरदादिभ्यष्टच स्यात् समासान्तोऽव्ययीभावे । शरदः समीपमुपशरदम् । प्रतिविपाशम् । ( जराया जरस्) उपजरसमित्यादि । १-सहरि--'हरेः सादृश्यं सहरि' । 'हरि+ङस् सह' इत्यलौकिकविग्रह सादृश्यार्थकसहशब्देन 'मध्ययं विभक्ति..' इत्यादिना समासे उपसर्जनत्वे पूर्वनिपाते ङसो लुकि 'अव्ययीभावे चाकाले' इति 'सह' शब्दस्य सादेशे प्रातिपदिकत्वेन सौ अव्ययत्वात् तस्य लुकि 'सहरि' इति रूपम् । २-नदीवाचकैः। ३-पञ्चगङ्गम्-‘पक्षाको गङ्गानां समाहार:' 'पञ्चन+ग्राम गला+माम' इत्यलौकिकविग्रहे समाहारेऽ 'नदीभिश्चेति समासे सुब्लुकि नलोपे उपसर्जनत्वात् 'गोस्त्रियोरुपसर्जनस्येति ति 'गाला शब्दस्य ह्रस्वे समुदिताव प्रातिपदिकस्वेन सौ पव्ययत्वेन प्राप्त सुब्लुकं 'नाव्ययीभावाद.... इत्यादिना निषिध्य सोरमि पूर्वरूपे सिति रूपं 'पञ्चगङ्गम्' इति । ४-उपजरसम् ६१४-सह को स आदेश होता है अव्ययीभाव में काल को छोड़ कर । ६१५-संख्यावाचक शब्द नदीवाचक समर्थ सुबन्तों के साथ समस्त होते हैं। (वा०-यह समाहार में ही इष्ट है) ६१६-पञ्चमाध्याय की समाप्ति तक तखिताः' का अधिकार जाता है। ६१७-अव्ययीभाव में शरदादिगणपठित शब्दों में समासान्त टच् प्रत्यय होता है। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ६१८ अनश्च ५।४।१०८ । अन्नन्तादव्ययीभावाट्टच् स्यात् । ६१६ नस्तद्धिते ६।४।१४४ । नान्तस्य भस्य टेर्लोपस्तद्धिते । उपराजम् । 'अध्यात्मम् । ६२० नपुंसकादन्यतरस्याम् ५। ४ । १०६ । अनन्त यत् क्लीबं तदन्तादव्ययीभावाट्टज्वा स्यात् । उपचर्मम्, उपचर्म। ६२१ झयः ५।४ । १११ । भयन्तादब्ययीभावाट्टच् वा स्यात् । उपसमिधम्, उपसमित् । इत्यव्ययीभावः। अथ तत्पुरुषः ६२२ तत्पुरुषः २ । १ । २२ । 'जरायाः समीपम् उपजरसम्' । 'जरा+ङस् उप' इत्यलौकिकविग्नहे-अव्ययं विभक्तीति सूत्रेण समासे प्रातिपदिकत्वे सुफो लुकि उपसर्जनत्वेनोपशब्दस्य पूर्वनिपाते सोरमि पूर्वरूपे 'उपजरसम्' इति रूपं सिध्यति । अध्यात्मम् - प्रात्मनीत्यध्यात्मम् 'प्रात्मन् + ङि अधि' इत्यलौकिकविग्रहे 'अव्ययं विभक्ति...' इत्यादिना समासे 'अधि' इत्यस्योपसर्जनत्वे पूर्वनिपाते समासत्वेन प्रातिपदिकसंज्ञायां सुब्लुकि यणि 'अध्यात्मन्' इत्यस्भात अनश्चेति 'टच' प्रत्यये 'नस्तद्धिते' इति टिलोपे सौ 'नाव्ययीभावादि' ति सोरमि पूर्वरूपे सिध्यति रूपम 'अध्यात्मम ' इति । २-टचूपक्षे टिलोपे रूपम् । प्रदन्तत्वात् '६१२ नाव्ययीभावादिति'-'अम्। ६१ - अन्नन्त अव्ययीभाव से टच प्रत्यय होता है । ६१६-नान्त भसंज्ञक की टि का लोप होता है तद्धित परे रहते । ६२० -- अनन्त जो क्लीब, तदन्त अव्ययीभाव से टच होता है विकल्प से । ६२१-झयन्त अव्ययीभाव से टच होता है । इत्यव्ययीभावः । अथ तत्पुरुषः ६२२–'शेषो बहुव्रीहिः' सूत्र से पूर्व तक 'तत्पुरुषः' का अधिकार जाता है। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ तत्पुरुषः अधिकारोऽयम् । प्राग्बहुव्रीहेः । ६२३ द्विगुश्च २ । १ । २३ । २५७ द्विगुरपि तत्पुरुषसंज्ञकः स्यात् । ६२४ 'द्वितीया श्रितातीत- पतित- गतात्यस्तप्राप्तापन्नः २|१|२४| द्वितीयान्तं श्रितादिप्रकृतिकः सुबन्तैः सह समस्यते वा, स च तत्पुरुषः । कृष्णं श्रितः - ' कृष्णश्रितः, इत्यादि । । 3 ६२५ तृतीया तत्कृतार्थेन गुणवचनेन २ । १ । ३० तृतीयान्तं तृतीयान्तार्थकृत- गुणवचनेनार्थेन च सह वा प्राग्वत् । शङ् कुलया खण्डः ‘शङ्कुलाखण्डः। धान्येनार्थो धान्यार्थः । तत्कृतेति किम् अक्ष्णा "काणः । ६२६ कर्तृकरणे कृता बहुलम् २ । १ । ३२ । कर्तरि करणे च तृतीया कृदन्तेन बहुलं प्राग्वत् । हरिणा त्रातो 'हरित्रातः नखार्भन्नो नखभिन्नः । (कृद्ग्रहणे गतिकारकपूर्वस्याऽपि ग्रहणम्) । नखनिर्भिन्नः । १ १ – द्वितीया हि प्रत्ययखपा, प्रत्ययग्रहणे तदन्तग्रहणम, तदाह - द्वितीयान्तम । २कृष्णश्रितः – 'कृष्ण + श्रम श्रित+सु' इत्यलौकिक विग्रहे 'द्वितीया श्रितातीतःइत्यादिना समासे प्रातिपदिकत्वेन सुब्लुकि पुनः सौ सो रुत्वे विसर्गे च सिध्यति रूपं 'कृष्णश्रितः' इति । ३ - समस्यते इत्यर्थः । ४—– शङ्क, लाखण्डः-'शङ्कुला + टा खण्ड + सु' इत्यलौकिक विग्रहे 'तृतीया तत्कृतार्थेन' इत्यादिना समासे प्रातिपदिकत्वात् सुपो लुकि पुनः सौ रुत्वे विसर्गे 'शङ्कुलाखण्ड' इति । ५ – नहि श्रक्ष्णा कारणत्वं कृतम किन्तु पूर्व क तदुष्कृतकर्मणैव 'येनाङ्गविकार:' इति सूत्रेण तृतीया । ६ – बहुलग्रहणात् क्वचिन्न समासः, सत्यपि समामनिमित्ते । ७- - हरित्रातः - 'हरि + टा त्रात + सु' इत्यलौकिविग्रहे ८ ६२३ - - द्विगुकी भी तत्पुरुष संज्ञा होती है । ६२४---द्वितीयान्त का श्रितादि प्रकृतिक सुबन्त समर्थ के साथ विकल्प से समास होता हैं और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है । ६२५ -- तृतीयान्त का तृतीयान्तार्थ से किए (कृत) गुण वचन के साथ और अर्थ शब्द के साथ समास होता हैं । ६२६ - कर्ता में और करण में तृतीया का कृदन्त के साथ बहुलता से समास होता है | Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ६२७ चतुर्थी तदार्थार्थ व लि-हित- सुख- रक्षितैः २ । १ । ३६ । चतुर्थ्यन्तार्थाय यत् तद्वाचिना, अर्थादिभिश्च चतुर्थ्यन्तं वा प्राग्वत् । यूपाय दारु' यूपदारु । (तदर्थेन प्रकृति विकृतिभाव एवेष्टः) तेनेह न रन्धनाय स्थाली । ( अर्थेन नित्यसमा सो विशेष्यलिङ्गता चेति वक्तव्यम् ) द्विजार्थः सूपः । द्विजार्था यवागूः । द्विजार्थं पयः । भूतबलिः । गोहितम् । गोसुखम् । गोरक्षितम् । २८ पञ्चमी भयेन २ । १ । ३७ । चोराद्वयं चोरभयम् । २६] स्तोकान्तिक- दूरार्थ-कृच्छाणि क्तेन २ । १ । ३६ । ६३० पञ्चम्याः स्तोकादिभ्यः ६ । ३ । २ । २५८ 'ककरणे कृता बहुलम्' इति समासे प्रातिपदिकत्वेन सुपो लुकि पुनः सौ 'हरित्रातः इति सिध्यति । १ – यूपदारु -- ' यूप ङ दारु + सु' इत्यलौकिक विग्रहे 'चतुर्थी - तदर्थार्थ... ' इत्यादिना वैकल्पिके समासे प्रातिपद्रिकत्वेन सुपो लुकि समुदायात् पुनः सौ नपुंसकत्वात् सोलुकि सिध्यति रूपं 'युपदारु इति । २ - नात्र स्थाल्या विकृतिभावः (विपरिणामः) । ३ - चोरभयम् 'चोर + ङरि भय सु' इत्यलौकिक विग्रहे 'पञ्चमीभवेन' इति सूत्रेण समासे प्रातिपदिकत्वेन सुपो लुकि समुदायात् पुनः सौ नपुंसकत्वात् सोरनि पूर्वरूपे 'चोरभयम्' इति रूपम् । ४ - क्तेन = क्तप्रत्ययान्तेनेत्यर्थः । ५ – स्तोकादिशब्देभ्यः पञ्चभ्या प्रलुक् उत्तरपदे परतः, 'उत्तरपद' शब्दः समासस्य चरमावयवे रूढः । ( वा० – कृत् ग्रहण में गति कारकपूर्वक शब्दों का भी ग्रह होता है । ) ६२७ -- चतुर्थ्यन्तार्थ के लिये जो पदार्थ, तद्वाचक शब्द के साथ और अथोंदियों के साथ चतुर्थ्यन्त का समास होता है विकल्प से | वा० 1 -- (१) तदर्थं से प्रकृति - विकृतिभाव ही लिया जाता है । (२) अर्थ के साथ नित्य समान होता है और विशेष्यलिङ्गता भी होती है । ) ६२८ –पञ्चम्यन्स भयवाचक शध्द सुबन्त समर्थ के साथ समस्त होते हैं विकल्प से । ६२६-- स्तोकार्थक और कृच्छ्रप्रकृतिक पञ्चम्यन्त क्तान्तप्रकृतिक के साथ समस्त होता है विकल्प से । ६३० - स्तोकादि से परे पञ्चमी का अलुक् होता है उत्तरपद परे रहते । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्पुरुषः Re लुगुत्तरपदे । स्तोकान्मुक्तः । अन्तिकादागतः । श्रभ्याशादागतः । दूरादागतः । कृच्छ्रादागतः । ६३१ 'षष्ठी २ । २ । ३७ । सुबन्तेन प्राग्वत् । `राजपुरुषः । ६३२ पूर्वापराधरोत्तर मेकदेशिनैकाधिकरणे । २ । २ । १ । श्रवयविना सह पूर्वादयः समस्यन्ते एकत्वसंख्याविशिष्टश्चेदवयवी । षष्ठीसमासापवादः । पूर्व ' कायस्य पूर्वकायः । अपरकायः । एकाधिकरणे किम् "पूर्वश्छात्राणाम् | ६३३ अ नपुंसकम् २ । २ । २ । समांशवाच्यर्धशब्दो नित्यं क्लीवे स प्राग्वत् । अधं पिप्पल्याः, 'अर्ध पिप्पली । ६३४ सप्तमी शौण्डेः २ । १ । ४० । १- षष्ठ्यन्त समर्थेन सुबन्तेन समस्यते - इत्यर्थः । २ - राजपुरुषः - 'राजन् + ङस् पुरुष - सु' इत्यलौकिक विग्रहे 'षष्ठी' इत्यनेन समासे प्रातिपदिकत्वेम सुपो लुकि प्रन्तर्वर्तिनों लुप्तां विभक्तिमाश्रित्य पदत्वान्नलोपे समुदायात् पुनः सौ रुत्वे विसर्गे 'राजपुरुषः ' इति रूपं सिध्यति । ३ - प्रवयववाचकाः शब्दाः इत्यर्थः । ४ - पूर्वकाय, इत्यादौ 'षष्ठी' इति समासप्राप्तावपि सूत्रान्तरविधानं पूर्वादिशब्दस्य पूर्वनिपातार्थम् । श्रन्यथा 'मठो' इति समासशास्त्रे प्रथमानिद्दिष्टत्वेन षष्ठ्यन्तस्य ( कायादिशब्दस्य ) पूर्वनिपातः स्यात् । ५ - छात्राणां बहुत्वेन नात्राधिकरणैकत्वमिति न समासः । ६- पिप्पलीशब्दस्य षष्ट्यन्तत्वात् 'एकविभक्तावषष्ठ्यन्तवचनम्' इति उपसर्जनत्वाभावेन गोस्त्रियोरुपसर्जनस्येति न ह्रस्वः । सुबन्त ९३१ - पठ्यन्त का प्रातिपदिक सुबन्त के साथ समास होता है विकल्प से ९३२ - श्रवयवी के साथ पूर्वादि शब्द समस्त होते हैं यदि वह अवयवी एकत्व संख्या विशिष्ट हो । ९३३ - नपुंसकलिंग में नित्य वर्तमान समांशवाची अर्ध शब्द श्रवयविवाचक समर्थ साथ समस्त होता है विकल्प से । के ६३४ - सप्तम्यन्त शब्द शौण्डादिक प्रकृतिक समर्थ सुबन्त के साथ समस्त होते हैं । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् सप्तम्यन्तं शौण्डादिभिः प्राग्वत् । अक्षेषु शौण्ड-अक्षशौण्डः । इत्यादि । द्वितीयातृतीयेत्यादियोगविभागादन्यत्रापि तृतीयादिविभक्तीनां प्रयोगवशात् समासो झेयः। ६३५ दिक्संख्य संज्ञायाम् २ । १ । ५० । 'संज्ञायामेवेति नियमाथं सूत्रम् । पूर्वेषुकामशमी । सप्तर्षयः । तेनेह नउत्तरा वृक्षाः । पञ्च ब्राह्मणाः । ६३६ तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च २ । १। ५१ । तद्धितार्थ विषये उत्तरपदे च परतः समाहारे च वाच्ये दिक्संख्ये प्राग्वत् पूर्वस्यां शालायां भवः पूर्वशाल इति, समासे जाते (सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवद्भावः)। ६३७ दिक पूर्वपदादसंज्ञायां ञः ४ । २ । १० । अस्माद्भवार्थे ञः स्यादसंज्ञायाम् । ६३८ तद्धितेष्वचामादेः ७ । २ । ११७ । मिति णिति च तद्धितेऽचामादरचो वृद्धिः स्यात् । (२३६) यस्येति च । पौर्वशालः । पञ्च 'गावो धनं यस्येति त्रिपदे बहुव्रीही (द्वन्द्वतत्पुरुषयोरुत्तरपदे नित्यसमासवचनम् )। १-'विशेषणं विशेष्येण बहुलम्' इत्यनेन सिहावपि विधिरयं संज्ञायामेवेति नियमाय । २-पूर्वः + इषुकामशमी, इति विग्रहः । 'इषुकामशमी' इति ग्रामविशेषस्य संज्ञा। ३-पौर्वशालः-'पूर्वा + ङि शाला+हि' इति प्रलौकिकविग्रहे 'तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे चेति समासे-प्रातिपदिकत्वात् सुपो लुकि सर्वनाम्नः पूर्वा शब्दस्य पुवद्भावे 'दिक ६३५-दिग्वाचक और संख्यावाचक शब्दों का केवल संज्ञा में ही तत्पुरुष समास होता है। ६३६-तद्धितार्थ के विषय में उत्तरपद परे रहते और समाहार के वाच्य होने पर दिग्वाचक और संख्यावाचक शब्द समथे सुबन्त के साथ समस्त होते हैं । ६३७-दिक्पूर्वपद समास से भवार्थ में ञ प्रत्यय होता है असंज्ञा में। ६३८-जित् , णित् तद्धित परे रहते अचों के आदि अच् को वृद्धि होती है। (वा०-उत्तरपद परे रहते द्वन्द्व और तत्पुरुष समास नित्य होता है । ) Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्पुरुषः ६३६ गोरतद्धितलुकि ५ । ४ । ६२ । गोन्तात्तत्पुरुषाट्टच् स्यात् समासान्तो न तु तद्धितलुकि। 'पञ्चगवधनः। ६४० तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारयः २ । १ । ४२ । ६४१ संख्यापूर्वो द्विगुः २ । १ । ५२ । तद्धितार्थत्यत्रोक्तस्त्रिविधः संख्यापूर्वी द्विगुसंशः स्यात् । ६४२ द्विगुरेकवचनम् २ । ४ । १ । द्विग्वर्थः समाहार एकवत् स्यात् । ६४३ स नपुसकम् २।१ । ५७ । समाहारे द्विगुर्द्वन्द्वश्च नपुंसक स्यात् । पञ्चानां गवां समाहारःपञ्चगवम् । पूर्वपदादिति सूत्रेण न प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे 'यस्येतिचे' त्याकारलोपे 'तद्धितेष्वचामादेः' इत्यादिवृद्धौ पुनः सौ रुत्वे विसर्गे 'पौर्वशालः' इति रूप सिध्यति । १-पञ्चगवधनः- 'पचन्+जस् गो+ जस धन + सु' इत्यलौकिकवि ग्रहे त्रिपदे बहुव्रीहौ मध्ये पचन-गोशब्दयोः 'तद्धितार्थे' ति वा समासे प्राप्त 'द्वन्द्वतत्पुरुषयोरुत्तरपदे नित्यसमासवचनम्' इति नित्ये समासे प्रातिपदिकत्वेन सुब्लुकि अन्तर्वर्तिनी लुप्तां विभक्तिमाश्रित्य पदत्वेन नकारलोपे 'पन्चगो' इत्यस्मात् 'गोरद्धितलुकि' इति -'टच' प्रत्यये अनुबन्धलोपे 'प्रो' कारस्यावादेशे 'पञ्चगवधन' इति समुदायात पुनः सौ रुत्वं विसर्गे सिध्यति 'पागवधन.' इति रूपम् । २-समानविभक्त्यन्तपदविषयकस्तत्पुरुषः 'कर्मधारय'-संज्ञक इत्यर्थः। ३-एकवचनान्त इत्यर्थः। ४--पञ्चगवम्-'पञ्चन + प्राम गो+प्राम्' इत्यलौकिकविग्रहे समाहारेऽथें तद्धितार्थोत्तरपदे...' इत्यादिना समासे प्रातिपदिकत्वात सुपो लुकि अन्तत्तिनी विभक्तिमाश्रित्य पदत्वे नलोपे 'गोरततितमुकि' इति ६३६-गोशब्दान्त तत्पुरुष से समासान्त टच् प्रत्यय होता है, तद्धित के लुन् । में नहीं। ६४०-समानाधिकरण तत्पुरुष की कर्मधारय संशश होता है। ६४९ संख्यापूर्व तत्पुरुष की द्विगु संशा होती है। ६४२-द्विग्वर्थ समाहार एकवत् होता है। ६४३-समाहार में द्विगु और द्वन्द्व ससक होते हैं। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ६४४ विशेषणं विशेष्येण बहुलम् २ । १ । ५७ । भेदकं भेद्य न समानाधिकरणेन बहुलं प्राग्वन् । नीलमुत्पलं नीलोत्पलम् बहुलग्रहणात् क्वचिन्नित्यम् । कृष्णसर्पः । क्वचिन्न-रामो जामदग्न्यः। ६४५ उपमानानि 'सामान्यवचनैः २ । १ । ५५ । घन इव श्यामो घनश्यामः । शाकपार्थिवादीनां सिद्धये उत्तरपदलोपस्योपसंख्यानम् । शाक्रप्रियः पार्थिवः = शाकपाथिवः । देवपूजको ब्राह्मणो देवव्राह्मणः । ६४६ नञ् २ । २ । ६ । न सुपा सह समस्यते। ६४७ नलोपो नत्रः ६।३।७३ । नञो नस्य लोप उत्तरपदे । न ब्राह्मणः अब्राह्मणः । 'टच' प्रत्ययेऽनुबन्धलोपेऽवादेशे संख्यापूर्वत्वाद् द्विगुसंज्ञायां "द्विगुरेकवचनम्' इत्येकबद्भावे ‘स नपुंसकम्' इति नपुसकत्वे सोरमि पूर्वरूपे 'पञ्चगवम्' इति रूपम् । १-उपमानवाचकानि समानधर्मवाचकैः समस्यन्ते, इत्यर्थः । २-इवशब्दोपादानं स्पष्टप्रतिपत्त्यर्थम् । ३-घनश्यामः- 'घन इव श्यामः' इति विग्रहः । 'घन+सु श्याम + सु' इत्यत्र 'उपमानानि सामान्यवचनैः' इति समासे प्रातिपदिकत्वात् सुपो लुकि समु. दायात् पुनः सौ रुत्वे विसर्गे सिध्यति रूपं 'घनश्यामः' इति । ( मेघवत् श्याम इत्यर्थः)। ४-देवब्राह्मणः-'देवपूजक + सु ब्राह्मण+सु' इति स्थितौ 'विशेषणं विशेष्येण बहुलम्' इति समासे प्रातिपदिकत्वात् सुपो लुकि शाकपार्थिवादित्पादुत्तरपदलोपे समुदायात् सौ रुत्वे विसर्गे च 'देवब्राह्मणः' इति रूपम् । __१४४-भेदक (विशेषण ) समानाधिकरण भेद्य (विशेष्य ) के साथ बाहुल्य से समस्त होता है। ६४५-उपमानवाचक शब्दों का समान धर्मवाचक शब्दों के साथ समास होता है। (वा. शाकपाथिवादि की सिद्धि के लिये उत्तरपद का लोप होता है)। ६४६-'न' समर्थ सुबन्त के साथ समस्त होता है विकल्प से । ६४७-नञ् के न का लोप होता है उत्तरपद परे रहते । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्पुरुषः ६४८ तस्मान्नुडचि ६ । ३ । ७४ । लुप्तनकारान्नञ उत्तरपदस्याजादेर्नुडागमः स्यात् । पादौ तु 'न' - शब्देन (६०६) सह सुप्सुपेति समासः । ६४६ कुगतिप्रादयः २ । १ । १८ । एते समर्थेन नित्यं समस्यन्ते । कुत्सितः पुरुषः = कुपुरुषः । ६५० ऊर्यादि-चित्रडाचश्च १ । ४ । ६१ । २६३ 'अनश्वः । नैकधे ऊर्यादयश्चव्यन्ता डाजन्ताश्च क्रियायोगे गतिसंज्ञाः स्युः । ऊरीकृत्य | शुक्लीकृत्य । पटपटाकृत्य । सुपुरुषः । (प्रादयो गताद्यर्थे "प्रथमया) प्रगत आचार्य: -- प्राचार्य: ( अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे द्वितीयया) अतिक्रान्तो मालामिति विग्रहे- ६५१ एकविभक्ति चापर्वनिपाते १ । २ । ४४ । विग्रहे यन्नियतविभक्तिकं तदुपसर्जनसंज्ञं स्यान्न तु तस्य पूर्वनिपातः । ६५२ गोखियोरुपसर्जनस्य १ । २ । ४८ । 9 १ - प्रनश्वः - 'न प्रश्नः' इति विग्रहे 'अश्व + सु न' इत्यत्र 'नन' इति समासे 'न' इत्यस्योपसर्जनत्वेन पूर्वनिपाते प्रातिपदिकत्वे सुपो लुकि 'न लोपो नञः' इति नलोपे प्र अश्व' इति जाते 'तस्मान्नुइचि'' इति नुडागमेऽनुबन्धलोपे सौ रुत्वे विसर्गे 'अनश्वः ' इति रूपं सिध्यति | १ – ऊरी, उररी, तन्त्री इत्यादयः । ३ - प्रशुक्लं शुक्लं कृत्वा इति विग्रहः-- च्व्यन्तमिदम् । ४ - डाजन्तम् । ५ - प्रादयः प्रथमान्तेन समर्थेन गत इत्याचचषु समस्यन्ते इत्यर्थः । ६ - द्वितीयान्तेनेत्यर्थः । ६४७--लुप्तनकार नञ् से उत्तर अजादि शब्द को नुट् का आगम होता है । ६४६ -- कु और गतिसंज्ञक प्रादि समर्थ सुबन्त के साथ समस्त होते हैं । ६५० ऊर्यादि व्यन्त और डाजन्त की गति संज्ञा ( वा० - (१) प्रादि गत्याद्यर्थ में प्रथमान्त के साथ क्रान्ताद्यर्थ में द्वितीयान्त के साथ समस्त होते हैं ।) होती है क्रिया के योग में । समस्त होते हैं । (२) श्रव्यादि ६५१ - विग्रह में नियतविभक्तिक की उपसर्जन संज्ञा होती है पर उसका पूर्वनिपात नहीं होता । ६५२ – उपसर्जन जो गोशब्द और स्त्रीप्रत्ययान्त, तदन्तप्रातिपदिक को ह्रस्व होता है । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् उपसर्जनं यो गोशब्दः स्त्रीप्रत्ययान्तं च तदन्तस्य प्रातिपदिकस्य ह्रस्वः स्यात् । ' अतिमालः । (अवादयः क्रुष्टाद्यर्थे तृतीयया) अवक्रष्टः कोकिलयाअवकोकिलः। (पर्यादयो ग्लानाद्यर्थ चतुर्थ्या) परिग्लानोऽध्ययनायपर्यध्ययनः (निरादयः क्रान्ताद्यर्थे पञ्चम्या ) निष्कान्तः कौशाम्ब्याःनिष्कौशाम्बिः। ६५३ तत्रोपपद सप्तमीस्थम् ३ । १ । १२ । सप्तम्यन्ते पदे कर्मणीत्यादौ वाच्यत्वेन स्थितं यत कुम्भादि तद्वाच कं पदमुपपदसंज्ञं स्यात्।। ६५४ उपपदमतिङ् २ । २ । १६ । उपपदं सुबन्तं समर्थेन नित्यं समस्यते, अतिङन्तश्चायं समासः । कुम्भं करोतीति कुम्भकारः। अतिङ् किम्-मा भवान् भृत, माङि लुङिति सप्तमीनिर्देशान्माकुपपदम् । ' गतिकारकोपपदानां कृद्भिः सह समासवचनं प्राक् सुबुत्पत्तेः । "व्याघ्री। अश्वक्रीती। कच्छपीत्यादि। १-अतिमालः -- 'माला+प्राम प्रति' इत्यलौकिकविग्रहे 'अत्यादयः क्रान्ताद्यथ द्वितीयया' इति वात्तिकेन समासे 'अति' इत्यस्योपसर्जनसंज्ञा पूर्वनिपाते सुब्लुकि 'एकविभक्ति चापूर्वनिपाते' इति मालेत्यस्योपसर्जनत्वे 'गोस्त्रियोरुपसर्जनस्य'ति हस्वे समुदितात् सौ विभक्तिकार्गे सिध्यति रूपम् 'प्रतिमालः' इति । २-कौशाम्बी = नगरी विशेषः । ३-कुम्भकारः-'कुम्भं करोति' इत्यर्थे कर्मण्यणि वृद्धो 'कुम्भ + अस कार' इति पष्टयन्तेनालौकिकविग्रहे तत्रोपपदं सप्तमीस्थम्' इति कुम्भशब्दस्योपपदसंज्ञायाम 'उपपदमति' इति समासे प्रातिपदिकत्वात् सौ रुत्वे विसर्ग 'कुम्भकारः' इति सिध्यति । ४-इयं परिभाषा । ५-व्याजिघ्रतीति व्याघ्री-पातश्वोपसर्गे' इति कप्रत्ययः । व्याङः (सुबुत्पत्तेः प्राक) प्रशब्देन गतिसमासः, ततः स्त्रियां जातिलक्षणो ङीष् । अन्यथा न स्यात्; ( सुबन्तेर समासे तु) केवलस्य 'ब्र' शब्दस्य जातिवाचकत्वाऽभावात् जातिलक्षणों, ङीष न स्यात्; किन्तु टाप् स्यात् । ६-प्रश्वेन क्रोता, इति विग्रहः, 'क्रीतात्करणपूर्वात्' इति ङीष् । अत्रापि सुबुत्पत्तेः प्रागेव समासः । सुबन्तेन समासे तु टप् स्यात; नतु ङीष् । ७-कच्छेन पिबतीति कच्छपी, 'कः' प्रत्ययः जातिलक्षणो डोष, व्याघ्रीवत् । ६५३-सातम्यन्त पद 'कर्मणि' इत्यादि में वाच्य रूप से स्थित कुम्भादि पद की उपपद संज्ञा होती है। ६५४---उपपद सुबन्त का समर्थ के साथ नित्य समास होता है। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्पुरुषः ६५५ तत्पुरुषस्याङगुलेः संख्याव्ययादेः ५ | ४ | ८६ | संख्याव्ययादेरङ्गुल्यन्तस्य समासान्तो ऽच् स्यात् । द्वे अङ्गुली प्रमाणमस्य द्वयङ्गुलम् । निर्गतमङ्गुलिभ्यो-निरङ्गुलम् । २६५ ६५६ अहः सर्वैकदेश संख्यात - पुण्याच्च रात्र: ५ । ४ । ८७ । एभ्यो रात्रेरच् स्याश्चात् संख्याव्ययादेः श्रहर्ग्रहणं द्वन्द्वार्थम् । ६५७ रात्रानाहाः पु ंसि २ | ४ | २६ | एतदन्तौ द्वन्द्व तत्पुरुषौ पुंस्येव । ग्रहश्व रात्रिश्वाहोरात्रः ' । 'सर्वरात्रः । संख्यातरात्रः । संख्यापूर्व रात्रं क्लीबम् द्विरात्रम् । त्रिरात्रम् । ६५८ राजाहः सखिभ्यष्टच् ५ । ४ । ६१ । एतदन्तात्तत्पुरुषाट्टच् स्यात् । 'परमराजः । ६५६ श्रान्महतः समानाधिकरणजातीययोः ६ । ३ । ४६ । - अहोरात्रः:- प्रहश्च रात्रिश्चेत्यथें- 'श्रहन् + सु रात्रि + सु' इति विग्रहे द्वन्द्वसमासेसुब्लुकि 'ग्रहः सर्वैकदेशः इत्यादिनाऽच्प्रत्यये भत्वे 'यस्येति च' इतीकारलोपे परवल्लिङ्गं बाधित्वा 'रात्रानाहाः पुंसि' इति पुंस्त्वे 'रूपरात्रिरथन्तरेषु' इति नस्य रुत्वे 'हशिचेत्युत्वे गुणे समुदायाद् विभक्तिकायें सिध्यति रूपम् 'श्रहोरात्रः' इति । २– सर्वा रात्र्यः सङ्ख्याता रात्र्यः इति विग्रहः । ३ - एवं धर्मराजः, भोजराजः, तथा " . उत्तमाहः, परमः हः, पुण्याहम्, एवं कृष्णसखः, परमसखः, विद्वत्सखः इत्यादि । , ६५५ - संख्या और अव्यय हैं आदि में जिसके, ऐसे अंगुली - शब्दान्त तत्पुरुष से टच प्रत्यय होता है । ६५६- श्रहन् २. सर्व, एकदेश, संख्या और पुण्य से पर रात्रि शब्द से अच् प्रत्यय होता है । चकार से संख्याऽव्ययादिपूर्वक रात्रि शब्द से भी । ६५७ - रात्र, श्रह्न और ग्रह ये हैं अन्त में जिस तत्पुरुष और द्वन्द्व के, वे पुल्लिंग होते हैं । ६५८ राजन्, ग्रहन् और सखि शब्द ये हैं अन्त में जिसके, ऐसे तत्पुरुष से टच् प्रत्यय होता है । ६५६ - महत् शब्दको आकार अन्तादेश होता है समानाधिकरण उत्तरपद परे रहते और जातीयर् प्रत्यय परे रहते । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् महत कारो ऽन्तादेशः स्यात् समानाधिकरणे उत्तरपदे जातीये च परे । 'महाराजः । प्रकारवचने जातीयर । महाप्रकारो = महाजातीयः । ६६० द्वयष्टनः संख्या यामबहुव्रीह्यशीत्योः ६ । ३ । ४७ । श्रात् स्यात् । द्वौ च दश च द्वादश । श्रष्टाविंशतिः । ६६१ परवल्लिङ्ग द्वन्द्व तत्पुरुषयोः २ । ४ । २६ । २ एतयोः परपदस्येव लिङ्ग स्यात् । कुक्कुटमयूर्याविमे । मयूरीकुक्कुटाविमौ । अर्धपिप्पली ( द्विगुप्राप्तापन्नालं पूर्व गतिसमासेषु प्रतिषेधो वाच्यः ) पञ्चसु कपालेषु संस्कृतः पञ्चकपालः = पुरोडाशः । ६२ प्राप्तापन्ने च द्वितीयया २ । २ । ४ । २६६ समस्येते । अकारश्चानयोरन्तादेशः । प्राप्तो जीविकां प्राप्तजीविकः । आपन्नजीविकः अलं कुमार्यै अलं कुमारिः । " अत एव ज्ञापकात् समासः । निष्कौशाम्बिः । राजन् + सु' इत्य समासे सुब्लुकि १ - महाराजः - महाँश्चासौ राजा = महाराज: 'महत् + सु लौकिक विग्रहे सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टाः पूज्यमानैः इति सूत्रेण 'राजाहः सखिभ्यष्टच्' इति टचि भत्वे 'नस्सद्धिते' इति टिलोपे ' श्रान्महतः ....' इत्यादिना तकारस्यात्वे सवरदीर्घे सौ विभक्तिकायें सिध्यति रूप 'महाराज : ' इति २ - अर्धपिप्पली - प्रधं पिप्पल्या - इति विग्रहे 'प्रधं + सु पिप्पलो + ङस्' इत्यत्र श्र नपुंसकम्' इति समासे सुपो लुकि 'परवल्लिङ्गं...' इत्यादि स्त्रीत्वे सौ तस्य लोपे 'अर्धपिप्पली' इति रूपं सिद्धम् । ३ - परवल्लिङ्गस्येति शेषः । ४ - लंकुमारिः कुमारी + डे प्रलम्' इति विग्रहे 'द्विगुप्राप्तापना...' इत्यादि प्रातिषेधसामर्थ्यात् समासे सुब्लुकि परवल्लिङ्गत्वनिषेधे 'एकविभक्त चापू'निपाते' इति 'कुमारी' शब्दस्योपसर्जनत्वे 'गोस्त्रियोरुपसर्जनस्ये' ति ह्रस्वे सौ विभक्तिकार्ये सिध्यति रूपम् 'अलंकुमारि:' इति । ५- द्विगुप्राप्तापन्नेत्यादिप्रतिषेधादित्यर्थः । ६६६-द्वि और अष्टन् शब्द को प्रात्व होता है संख्या परे रहते, बहुव्रीहि र शीति शब्द परे रहते नहीं । ६६१--द्वद्व और तत्पुरुष में पर पद के समान लिंग होता है । ( वा०-द्विगु, प्राप्त, आपन्न, पूर्व और गति समास में पर पद के समान लिंग नहीं होता । ) •६६२ - प्राप्त और आपन द्वितीयान्त के साथ समस्त होते हैं, प्रकार अन्तादेश भी होता है 1 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुवीहिः २६७ ६६३ अर्धर्चाः पुसि च २ । ४ । ३१ । अर्धर्चादयः शब्दाः पुंसि क्लीबे च स्युः । अर्धर्चः, अर्धर्चम् । एवं ध्वजतीर्थ-शरीर-मण्डप-यूप-देहाङ् कुश-पात्र-सूत्रादयः। सामान्ये नपुंसकम् । मृदु पचति । प्रातः कमनीयम् । इति तत्पुरुषः । अथ बहुव्रीहिः ६६४ 'शेषो बहुव्रीहिः २ । २ । २३ । अधिकारोऽयं प्रारद्वन्द्वात् । ६६५ अनेकमन्यपदार्थ २ । २ । २४ । अनेकं प्रथमान्तमन्यस्य पदस्थार्थे वर्तमानं वा समस्यते स बहुव्रीहिः । ६६६ सप्तमीविशेषणे बहुत्रीहौ २ । २ । ३५ । सप्तम्यन्तं विशेषणं च बहुवीही पूर्व स्यात् । अत एव ज्ञापका व्यधिकरणपदो बहुव्रीहिः। ६६७ हलदन्तात् सप्तम्याः संज्ञायाम् ६।३।। १-उक्तादन्यः शेषः, द्वितीया श्रितेत्यादिना ( शास्त्रेण ) यस्य त्रिकस्य ( विभक्तः) विशिष्यसमासो नोक्तः स शेषः, प्रथमान्तः इत्यर्थः । २-प्रथमान्तानामेव बहुव्रीहि. रिति सप्तम्यन्तस्य तत्र सम्भव ऐव नास्तीति सप्तम्यन्तस्य 'सप्तमी विशेषणे....' इति सूत्रे पूर्वनिपातविधान व्यर्थ सद् ज्ञापयति 'भवति व्यविकरणपदोऽपि बहुजीहिः क्वचिदिति' । यथा-कएठेकालः । शरेभ्यो जन्म यस्य स शरजन्मा = षडाननः । ६६३-अधादिगणपटित शब्द पुल्लिङ्ग और नपुसकलिङ्ग में होते हैं । इति तत्पुरुषः। अथ बहुव्रीहिः ६६४-'चार्थे द्वन्द्वः' सूत्र तक बहुब्राहि का अधिकार जाता है। ६६५-अनेक प्रथमान्त अन्य पद के अर्थ में वर्तमान विकल्प से समस्त होते हैं, वह समास बहुव्रीहि कहलाता है। ६६६-सप्तम्यन्त और विशेषण का बहुव्रीहि में पूर्वनिपात होता है । ६६७-हलन्त और श्रदन्त से परे सप्तमी का अलुक होता है। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् हलन्ताददन्तात् सप्तम्या अलुक्क । 'कण्ठेकालः । प्राप्तमुदकं यं प्राप्तोदको ग्रामः । ऊढरथोऽनड्वान् । उपहृतपशू रुद्रः । उद्घृतौदना = स्थाली । ४पीताम्बरो = हरिः । वीरपुरुषको = ग्रामः । ( प्रादिभ्यो धातुजस्य वाच्यो वा चोत्तरपदलोपः ) । प्रपतितपर्णः प्रपर्णः । ( नञोऽस्त्यर्थानां वाच्यो वा चोत्तरपदलोपः ) अविद्यमानपुत्रोऽपुत्रः । ६ ६६८ स्त्रियाः पुंवद्भाषितपुंस्कादनूङ् समानाधिकरणे स्त्रियामपूरणीप्रियादिषु ६ | ३ | ३४ । २६८ १- कण्ठे काल. - कण्ठे कालो यस्येति विग्रहे सप्तमी विशेषणे बहुव्रीहौ' इति सप्तम्यन्तस्य समासे पूर्वनिपातविधानात् ज्ञापनाद् 'श्रनेकमन्यपदार्थे' इति व्यधिकरणे बहुधीहिसमासे 'कण्ठे' इत्यस्य पूर्वनिपाते च 'हलदन्तात् सप्तम्याः' इति सप्तम्या प्रलुकि प्रातिपदिकत्वेन सोर्लुकि समुदायात् पुनः सौ रुत्वे विसर्गे सिध्यति रूपं ' कण्ठे काल:' इति । २–ऊढो रथो येन । ३-उपहृतः पशुर्यस्मै उद्धृत श्रोदनो यस्याः पीतानि श्रम्बराणि यस्य, वीराः पुरुषा यस्मिन् इति विग्रहाः । ४ - पीताम्बरः -पीतानि प्रम्बराणि यस्येति विग्रहे 'पीत + जस्_ श्रम्बर + जस्' इति स्थितौ ' श्रनेकमन्यपदार्थे' इति बहुव्रीहौ समासे सुब्लुकि प्रातिपदिकत्वेन पुनः सौ रुत्वे विसर्गे च पीताम्बरः' इति रूपम् । ५ - प्रपर्णःप्रशब्दस्य पतितशब्देन 'प्रादयो गताद्यर्थे' इति समासे सिध्यति रूपं 'प्रपतितम' इति । 'प्रपतित + सुपणं + सु' इत्यलौकिक विग्रहे 'प्रादिभ्यो धातुजस्य वाच्य इत्यादिना समासे प्रपतितेत्यत्र धातुजस्य 'पति' इत्यस्योत्तरपदस्य लोपे च पुनः सौ रुत्वे विसर्गे सिध्यति रूपं 'प्रपर्णः' इति । ६ - पुत्रः - श्रविद्यमानः पुत्रो यस्येत्यत्र 'नवोऽस्त्यर्थानां वाच्यो वाचोत्तरपदलोपः' इत्यनेन वातिकेन समासे सति 'विद्यमान' शब्दस्योत्तरपदस्य लोपे सति प्रातिपदिकत्वात् सुपो लुकि पुनः समुदायात् सौ विभक्तिकायें 'अपुत्रः' इति रूपम । " S ( वा०- ( १ ) प्रादि से परे धातुज का अन्य पद के साथ समास होता है और उत्तरपद का लोप होता है विकल्प से । (२) नत्र से परे अस्त्यर्थवाचक शब्द का अन्त्य पद के साथ समास होता है और उत्तरपद का लोप होता है विकल्प से ) । ६६८ - प्रवृत्तिनिमित्त के एक होने पर भाषितपुंस्क से परे ऊङ के प्रभाववाले स्त्रीवाचक शब्द के पु ंवाचक के समान रूप होते हैं, समानाधिकरण स्त्रीलिङ्ग, उत्तरपद परे रहते, पूरणीप्रियादि परे रहते नहीं । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुव्रीहिः २६६ उक्त पुस्कादनूङ ऊङोऽभावोऽस्यामिति बहुव्रीहिनिपातनात् पञ्चम्या अलुक् षष्ठयाश्च लुक् । तुल्ये प्रवृत्तिनिमित्ते यदुक्तपुंस्कंतस्मात्पर ऊङोऽभावो यत्र तथाभूतस्य स्त्रीवाचकशब्दस्य पवाचकस्येव रूपं स्यात समानाधिकरणे स्त्रीलिङ्ग उत्तरपदे, न तु पूरण्यां प्रियादौ च परतः । (६५२) गोस्त्रियोरिति हस्वः। 'चित्रगुः । 'रूपवद्भार्यः । अनूकिम्- वामोरूभार्यः । ६६६ अप्पूरणीप्रमाण्योः ५ । ४ । ११६ । पूरणार्थप्रत्ययान्तं यत् स्त्रोलिङ्ग तदन्तात् प्रमाण्यन्ताच्च बहुव्रीहेरप्स्यात् । कल्याणी पञ्चमी यासां रात्रीणां ताः 'कल्याणीपञ्चमा रात्रयः। स्त्री प्रमाणी यस्य स "स्त्रीप्रमाणः । अप्रियादिषु किम्-कण्याणीप्रियः, इत्यादि । ६७० बहुव्रीहो सक्थ्यणोः स्वाङ्गात् पच् ५ । ४ । ११३ । स्वाङ्गवाचि सक्थ्यक्ष्यन्ताद् बहुव्रीहेः षच् स्यात् । दीर्घसक्थः । जल १-चित्रगुः-चित्रा गावो यस्पेत्यत्र 'चित्रा+जस गो+जस्' इति स्थिते 'अनेकमन्यपदार्थे' इति समासे सुब्लुकि 'स्रियाः पूंवद्....' इत्यादिना चित्रेति शब्दस्य पुवद्भावे टापो निवृत्तौ गोशब्दस्य उपसर्जनत्वे 'गोस्त्रियो....' इति ह्रस्वे 'चत्रगु' इत्यस्मात् समस्तात् पुनः सो रुत्वे विसर्गे च सिध्यति रूपं 'चित्रगुः' इति । २-रूपवती भार्या यस्येति विग्रहः । ३-प्रत्र-ऊकारस्य न ह्रम्वः । ४-अत्र 'पञ्चमी' इति पूरणार्थप्रत्ययान्तत्वात् न पुव द्भावः। अप-प्रत्यये-'यस्येति च' इति इकारलोपः ५-स्त्रीप्रमाणः-स्त्री प्रमाणी यस्येति लौकिकविग्रहे 'स्त्रो' शब्दस्य 'स्त्रियाः पुंवद् इति वद्भावे प्राप्ते 'अप्पूरणी प्रियादियु' इति तन्निषेवेऽन्यपदार्थस्य पुस्त्वेन 'प्रमाणी' इत्यत्र स्रोप्रत्ययस्य निवृत्तौ स्त्रीप्रमाण' इत्यस्मात् समुदायात्सौ विभक्तिकायें सिध्यति रूपं 'स्त्रीप्रमाणः' इति । ६-यस्येति च' इति इकारलोपः ४-जलजाक्षी-जलजे ( इव ) अक्षिणी यस्याः 'जलज + प्रौ अक्षि + प्रौ' इति स्थितौ अनेकमन्यपदार्थे' इति समासे सपो लुकि 'जलजाक्षि' इत्यस्मात 'बहनीही सक्थ्यक्ष्णो...' इत्यादिना 'ष' प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे 'यस्येति चे' तीकारलोपे पचः षित्वात् स्त्रियां ङोषि प्रत्यये सौ तल्लोपे च रूपं 'जलजाक्षी' इति । ६६६ पूरणार्थक प्रत्ययान्त जो स्त्रीलिंग, तदन्त से और प्रमाण्यन्त बहुव्रीहिँ में अप् प्रत्यय होता है। ६७०- स्वाङ्गवाची सक्थि और अक्ष्यन्त बहुव्रीहि से षच् प्रत्यय होता है। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् जाक्षी । स्वाङ्गात् किम्- 'दीर्घ सक्थिशकटम्, स्थूलाक्षा = वेणुयष्टिः । (६६१) श्रवणोऽदर्शनादिति वच्यमाणोऽच् । ६७१ द्वित्रिभ्यां ष मूर्ध्नः ५ । ४ । ११५ । श्रभ्यां मर्ध्नः षः स्याद् बहुव्रीहौ ' द्विमूर्धः । त्रिमूर्धः । ६७२ अन्तर्बहिर्भ्यां च लोम्नः ५ । ४ ।११७ । हस्त्यादि वर्जितादुपमानात् परस्य पादशब्दस्य लोपः स्याद् बहुव्रीहौ । व्याघ्रस्येव पादावस्य व्याघ्रपात् । ऋहस्त्यादिभ्यः किम्- हस्तिपादः, कुसूलपादः। ६७४ संख्या- सु-पूर्वस्य ५ । ४ । १४० । पादस्य लोपः स्यात् समासान्तो बहुवीहौ । द्विपात् । सुपात् । ६७५ उद्विभ्यां काकुदस्य ५ | ४ | १४८ | ६ लोपः स्यात् । "उत्काकुत् । विकाकुत् ६७५ पूर्णाद् विभाषा ५ | ४ | १४६ | १ – प्रारिणस्थस्यैवाङ्गसंज्ञेति न षन् । २ - द्वौ मूर्धानौ यस्येति विग्रहः 'नस्तद्धिते' इत्यनेन टिलोपे द्विमूर्धः, एवं त्रिमूर्धः । श्रन्तलमानि यस्येति विग्रह: 'नस्तद्धिते' इति टिलोपः । एवं बहिलमः । ४ - प्रलोऽन्त्यस्येति तदन्तस्याकारस्य । ५ - उद्गतं काकुदं तालु यस्य । ४ - विगतं काकुदं यस्येति विग्रहः । = ६७१ - द्वि-त्रि- शब्दपूर्वक मूर्धन शब्दान्त से ष प्रत्यय होता है बहुब्रीहि समास में । ६६२ – अन्तर् और बाहिर - शब्दपूर्वक लोमन् शब्दान्त से अप् प्रत्यय होता है बहुब्रीहि समास में 1 ६७३ - - हस्तादि से भिन्न उपमानवाचक शब्द से परे पादशब्द का लोप होता है बहुब्रीहि समास में । ६७४ - संख्या और सु-पूर्वक पाद शब्द का लोप होता है समासान्त बहुब्रीहि में । ६७५ - उत् और वि-पूर्वक काकुद शब्द का लोप होता है बहुवीहि में । ९७६ - पूर्ण-पूर्वक काकुद शब्द का लोप होता है विकल्प से । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुव्रीहिः पूर्णकाकुत्, पूर्णकाकुदः । ६७७ सुहृद्-दुहृदौ मित्रामित्रयोः ५ । ४ । १५० । सुदुर्ज्या हृदयस्य हृद्भावो निपात्यते । सुहृन्मित्रम् | दुर्हृदमित्रः । ६७८ उरः प्रभृतिभ्यः कप् ५ । ४ । १५१ । ६७६ कस्कादिषु च ८ | ३ | ४८ | २७१ एग्विण उत्तरस्य विसर्गस्य पोऽन्यस्य तु सः । इति सः । 'व्यूढोरस्कः । 'प्रियसर्पिष्कः । ६८० निष्ठा २ । २ । ३६ । अनिष्टान्तं बहुव्रीहौ पूर्वं स्यात् । युक्तयोगः । ६८१ शेषाद् विभाषा ५ । ४ । १५४ | अनुक्तसमासान्तात् बहुव्रीहेः कप् वा 'महायशस्कःः । " महायशाः । इति बहुव्रीहिः । व्यूढोरस्कः—व्यूढम् उरो यस्येत्यत्र 'व्यूढ + सु उरस् + सु' इत्यत्र ‘अनेकमन्यपदार्थे’ इति समासे सुपो लुकि 'व्यूढोरस' शब्दात् समस्तात् 'उरः प्रभृतिभ्यः कपू' इति 'क' प्रत्यये सस्य रुत्वे विसर्गे 'कष्कादिषु चे 'ति विसर्गस्य सत्वे प्रातिपदिकत्वेन 'व्यूढोरस्क' शब्दात् सौ विभक्तिकायें सिध्यति रूपं 'व्यूढोरस्क' इति । २ – प्रियं सर्पिः (धृतं) यस्येति विग्रह ५ - उभयत्र 'श्रान्महत' इत्यात्वम् । ६७७ --सु, दुर् पूर्वक हृदय शब्द को हृद् ग्रादेश होता है क्रमशः मित्र और शत्रु अर्थ में । ६७८–उरः प्रभृतिगणपठित शब्दों से कप् प्रत्यय होता है । ६७६ - कस्कादिगणपठित शब्दों में इण से परे विसर्ग कोप होता है । अन्यत्र स होता है । ६८० - निष्ठान्त का वहुव्रीहि में पूर्वनिपात होता है । ६८१ – अनुक्त समासान्त बहुव्रीहि से कप् प्रत्यय होता है । इति बहुव्रीहिः । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् अथ द्वन्द्वः ६८२ चार्थे द्वन्द्वः २ । २ । २६ । अनेकं सुबन्तं चार्थे वर्तमानं वा समस्यते; स द्वन्द्वः। 'समुञ्चायान्वाचयेतरेतरयोग-समाहाराश्चार्थाः । तत्र 'ईश्वरं गुरुं च भजस्व' इति परस्पर निरयेक्षस्यानेकस्पैकस्मिन्नन्वयः = समुच्चयः । 'भिक्षामट गां चानय' इति अन्यतरस्यानुषङ्गिकत्वेनान्वयोऽन्वाचयः। अनयोरसामर्थ्यात् समासो न । धवखदिरौ छिन्धि इति मिलितानामन्वयः इतरेतरयोगः । संशापरिभाषम् (इति) समूहः-समाहारः। ६८३ राजदन्तादिषु परम् । २ । २ । ३१ । एषपूर्वप्रयोगार्ह परं स्यात् । दन्तानां राजा-राजदन्तः। (धर्मादिष्वनियमः) अर्थधर्मों, धर्मार्थावित्यादि । ६८४ द्वन्द्व घि २ । २ । ३२ । द्वन्द्व घिसंशंपूर्व स्यात् । हरिश्च हरश्व-हरिहरौ १८५ 'अजाद्यदन्तम् २ । २ । ३३ । इदं द्वन्द्वे पूर्व स्यात् ईशकृष्णौ । १८६ "अल्पाचतरम् २ । २ । ३४ । १--एषु इतरेतरयोगे समाहारे च समासः, नान्यत्राऽसामर्थ्यात् । २-धवखदिरौअत्र 'छिन्धि' कियायाम् इतरेतरयोगरूपचकारार्थे 'धवश्च खदिरश्चेति' 'चार्थेद्वन्द्वः' इति समासे मुब्लुकि समस्तादौविभक्तौ वृद्धों सिध्यति रूपं 'धवलदिरौं' इति । ३-पत्र 'षष्ठी' इति सूत्रेण समासः, दन्तशब्दस्य उपसर्जनत्वात् पूर्वनिपातो युक्त प्रासीत् । ४-प्रजादि प्रकारान्तम् । ५--इतरापेक्षया यस्मिन् न्यूना प्रचः स्युस्तस्य पूर्व. प्रयोगः इत्यर्थः। अथ द्वन्द्वः ९८२--अनेक सुबन्त च के अर्थ में वर्तमान समस्त होते हैं 'वेकल्प से । ६७३-राजदन्तादिगणपठित पूर्वप्रयोग के योग्य शब्दों का पर प्रयोग हो । ६८४--द्वन्द्व समास में घिसंज्ञक का पूर्व निपात होता है। ९८५--द्वन्द्व समास में अजादि अदन्त का पूर्वनिपात होता है । ९८६--द्वन्द्व समास में अल्पाच्तर का (थोडे अच् वाले का) पूर्वनिपात होता है । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समासान्ताः २७३ शिवकेशवौ। १८७ पिता मात्रा १ । २ । ७० । मात्रा सहोतो पिता वा शिष्यते । माता च पिता च पितरो, 'मातापितरौ वा। ६८८ द्वन्द्वश्च प्राणि-तयं-सेनाङ्गानाम् २ । ४ । २ । एषां द्वन्द्व एकवत् । पाणिपादम् । "मार्दङ्गिकवैणविकम् । रथिकाश्वारोहम् । १८६ द्वन्द्वांच्चुदधहान्तात् * समाहारे ५ । ४ । १०६ । चवर्गान्ताद्दषहान्ताच्च द्वन्द्वाट्टच् स्यात् समाहारे । वाक् च त्वक्च'वाक्त्वचम् । त्वक्त्रजम् । शमीदृषदम् । वाक्त्विषम् । छात्रोपानहम् । समाहारे किम्-प्रावृटशरदौ। । इति द्वन्द्वः । अथ समासान्ताः ६६० ऋक्परब्धः पथामानक्षे ५ । ४ । ७४ । १-पितरौ- माता च पिता चेत्यत्र 'मातृ + सु पितृ + सु' इति स्थिती 'चार्थों द्वन्द्वः' इति समासे सुपो लुकि 'पिता मात्रा' इति वा 'पितृ' शब्दस्यैकशेषे 'मातृ' शब्दस्य लोपे प्रातिपदिकत्वादौ विभक्ती 'ऋतो ङि सर्वनामस्थानयो' रिति गुणे रपरत्वे 'पितरौ' इति रूपम् । एकशेषाभावपक्षे तु 'मातापितरौं' इति रूपम् । २-'पितुर्दशगुणा माता गौरवेणातिरिच्यते' इति अभ्यहितत्वात् (पूज्यत्वात) मातृशब्दस्य पूर्वनिपातः, 'मानङ् ऋतः' इति पानङ । ३ -एकवचनान्तः । ४-प्राण्यङ्गादाहरणम्--पाणो व पादौ चेति विग्रहः। ५-तूर्याङ्गोदाहरणम्-मार्दङ्गिकश्च वैणविकश्चेति विग्रहः । ६-सेनाङ्गो. दाहरणम्-रथिकाच अश्वारोहाश्चेति विग्रहः । ७-दकार-षकार-हकारान्ताच्चेत्यर्थः। -वाकवचम्-वाक च त्वक् चेत्यत्र समाहारेऽर्थे 'चार्थे द्वन्द्वः' इति समासे सुब्लुकि ६८७ - मातृ शब्द के साथ कहा गया पितृ शब्द विकल्प से शेष रहता है । ६८८-प्राणि तूर्य सेनाङ्ग का द्वन्द्व एकवत् होता है। ६८६-चवान्त, दान्त, षान्त, हान्त, समाहार द्वन्द्व से टच प्रत्यय होता है । इति द्वन्द्वः। अथ समासान्ताः ६६०-ऋक्-पू-अप-धू हैं अन्त में जिसके, ऐसे समास से अप्रत्यय होता है, अक्षार्थक धू है अन्त में जिसके ऐसे को छोड़ कर । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् अ अनक्षे इति च्छेदः । ऋगाद्यन्तस्य समासस्य 'अ' प्रत्ययोऽन्तावयवः स्यात्,अक्षे या धूस्तदन्तस्य तु न। 'अर्धर्चः । विष्णपुरम् । विमलापं - सरः। राजधुरा । अक्षे तु अक्षधूः दृढघूरक्षः। 'सखिपथः । "रम्यपथो देशः। ६६१ अक्षणोऽदर्शनात् ५ । ४ । ७६ । अचतुःपर्यायादक्ष्णोऽच् स्यात् समासान्तः । गवामक्षीव-- गवाक्षः । ६६२ उपसर्गादध्वनः ५ । ४ । ८५। प्रगतोऽध्वानं प्राध्वो रथः। ६६३ न पूजनात् ५ । ४ । ६६ । पूजनार्थात् परेभ्यः समासान्ता न स्युः। (स्वतिभ्यामेव। सुराजा। अतिराजा। इति समासान्ताः अथ तद्धिताः RE४ समर्थानां प्रथमाद्वा ४ । १ । ८२ । एकवद्भावे 'द्वन्द्वाच्चूदषहान्ताद्' इत्यादिना टचि नपुसके सौ सोरपि सिध्यति रूपं 'वाकवचम्' इति । इति द्वन्द्वः। १-ऋचः अर्धम् इति विग्रहः अर्ध नपुसकम् इति समासः । १-विमलाः = निर्मला सापो = जलानि यत्र । ३-राज्ञो धूः, राजधुरा, षष्ठीसमासः। ४-सख्युः पन्थाःसखिपथः, भस्य टेर्लोपः। ५-रम्यः पन्था यस्मिन् । ६-चक्षुषोऽवाचकादि यर्थः । ७यस्येति च इलोपः। ८-इष्टिरियम् । इति समासान्तप्रकरणम् । ६- समर्थानां मध्ये यः प्रथमः तस्मात्-अर्थात् सूत्र प्रथमोचरित-शब्दबाध्यात् प्रत्ययो वा स्यादिति सूत्रार्थः । १६१ चक्षुभिन्नवाचक अक्षि शब्द से समासान्त अच प्रत्यय होता है। ६६२-उपसर्गपूर्वक अध्वन् शब्द से अच् प्र यय होता है। १६३-पूजार्थक से परे समासा त प्रत्यय नहीं होते । इति समासान्ताः अथ तदितेषु साधारणप्रत्ययाः १९४ इस सूत्र का 'प्राग्दिशो विभक्तिः' से पूर्वं तक अधिकार जाता है । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चद्धिवाः इदं पदत्रयमधिक्रियते प्राग्दिश इति यावत् । ६६५ अश्वपत्यादिभ्यश्च ४ । १ । ८४ । एभ्योऽण् स्यात् ' प्राग्दीव्यतीयेष्वर्थेषु । अश्वपतेरपत्यादि श्राश्वपतम् । गाणपतम् । ६६६ दित्यदित्यादित्य- पत्युत्तरपदाख्यः ४ । १ | ८५ | दित्यादिभ्यः पत्युत्तरपदाच्च प्राग्दीव्यतीयेष्वर्थेषु यः स्यात् । अणोऽपवादः । दितेरपत्यं दैत्यः । श्रदितेरादित्यस्य वा ( अपत्यम्) । २७५ ६६७ हलो यमां यमि लोपः ८ । ४ । ६४ । हलः परस्य यमो लोपः स्याद् वा यमि । इति यलोपः । श्रादित्यः । "प्राजापत्यः (देवाद्यञञ) दैव्यम् । दैवम् । (बहिषष्टिलोपो यञ् च ) 'बाह्यः । (ईकक् च) वाहीकः । १ - - प्रपत्यादिषु । २ - आश्वपतम् - प्रश्वपतेरपत्यमिति विग्रहे 'श्रश्वपति' शब्दाद् 'अश्वपत्यादिभ्यश्चे' त्यण प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे प्रातिपदिकत्वेन सुपो लुकि 'तद्धितेष्वचामादेः' इति श्रादिवृद्धौ भत्वे 'यस्येति च' इतीकारलोपे 'कृत्तद्धितसमासाश्चे' ति प्रातिपदिकत्वेन सोरमि पूर्वरूपे 'आश्वपतम्' इति रूपम् । -- ' प्राग्दीव्यतोऽण्' इति सामान्यप्राप्तस्याऽरणः, 'श्रश्वपत्यादिभ्यश्च' इति प्राप्तस्य चारणाऽपवाद इत्यर्थः । ४- श्रादित्यः-'श्रदितेरपत्यं पुमान्' इत्यर्थे 'श्रदिति' शब्दात् 'दित्यदित्यादित्य .. इत्यादिना 'राय' प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे प्रादिवृद्धौ इकारलोपे च प्रातिपदिकत्वात् सौ रुत्वे विसर्गे 'आदित्यः' इति रूपम् । (अथवा ' श्रादित्यस्यापत्यं मुमान्' इति विग्रहे 'प्रादित्य' शब्दात् 'ञ' श्रादिवृद्धौ श्रकारलोपे 'हलो यमां यमि लोपः' इति यलोपे विभक्तिकार्ये सिध्यति रूपम् 'श्रादित्यः' इति । ५- प्रजापतेरपत्यं पुमान् प्राजापत्यः । ६ - बहिर्भवो बाह्यः, बाहीकः, इति च । ६६५ -- श्वपत्यादिगणपठित शब्दों से ऋण प्रत्यय होता है प्राग्दीव्यतीय अथों में । ६६५ -- दिति श्रदिति आदित्य और पत्युत्तर पद से राय प्रत्यय होता है प्राग्दीव्यतीय थों में। ६६७ -- हल से परे क्रम से यम का लोप होता है यम परे रहते विकल्प से । ( वा० - (१) देव शब्द से यञ् और त्र प्रत्यय होते हैं प्राग्दीव्यतीय अथों में । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ६६८ किति च ७ । २ । ११८ । किति तद्धिते चाचामादेरचो वृद्धिः स्यात् । बाहीकः । ( ' गोरजादिप्रसङ्गे यत् मोरपत्यादि-गव्यम् । ६६६ उत्सादिभ्योऽञ ४ । १ । ८६ । 3 श्रौत्सः । इत्यपत्यादिविकारान्तार्थाः साधारण-प्रत्ययाः । अथापत्याधिकारः १००० स्त्रीपुंसाभ्यां नञ्स्नत्र भवनात् ४ | १ | ८७ | धान्यानां भवने इत्यतः प्रागर्थेषु स्त्रीपुंसाभ्यां क्रमान्नञ्-स्नञौ स्तः । *स्त्रैणः। “पौंस्नः " १००१ तस्यापत्यम् ६ । १ । ६२ । षष्ठयन्तात् कृतसन्धेः समर्थादपत्येऽर्थे उक्ता वक्ष्यमाणाश्च प्रत्यया वा स्युः } १–'प्रच्' प्रादिर्यस्य सः - प्रजादिः प्रत्ययः, श्रणादिः तत्प्राप्तौ गोशब्दाद् यत् स्यादित्यर्थः । २ - 'वान्तो यि प्रत्यये' इत्यव् । ३ - उत्स - महानस - पृथ्वी - इत्यादयः उत्सादयः । 8- स्त्रिया प्रपत्यम् पुमान्, स्त्रीषु भवः, स्त्रीणां समूह इति वा विग्रहः, नत्र प्रत्ययः, गत्वम, आदिवृद्धिश्व स्त्रैणः । ५ - विग्रहः स्त्रैणवत्, स्नञ्प्रत्यये स्वादिष्विति पदत्वात् सयोगान्तस्येति सलोपः । श्रादिवृद्धिश्च 'पौस्नः' । (२) वहिष् शब्द की टिका लोप होता है और यञ् प्रत्यय भी होता है । (३) बहिष् शब्द से ईकक् प्रत्यय होता है और टि का लोप भी होता है ) । 1 ६६८ अचों के मध्य में आदि च् को वृद्धि होती है कि तद्धित परे रहते । ( वा० - अजादि प्रत्ययों के प्रसंग में गोशब्द से यत् होता है प्राग्दीव्यतीय अथों में । ) ६६६ - उत्सादिगण पठितशब्दों से श्रञ् प्रत्यय होता है । श्रथापत्याधिकारः १०००–‘धान्यानां भवने क्षेत्रे' से पूर्व अथों में 'स्त्री और पु ंस् शब्द से नञ् और न प्रत्यय होते हैं । १००१ - कृतसन्धि षष्ठ्यन्त समर्थ सुबन्त से कहे गये और वक्ष्यमाण प्रत्यय पत्य अर्थ में बिकल्प से होते हैं । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ तद्धिताः १००२ ओगुणः ६ । ४ । १४६ । उवर्णान्तस्य भस्य गुणस्तद्धिते । उपगोरपत्यमोपगवः' । आश्वपतः । दैत्यः । श्रौत्सः । स्त्रैणः । पोस्नः। १००३ अात्यं पौत्रप्रभृति गोत्रम् ४ । १ । १६२ । अपत्यत्वेन विवक्षितं पौत्रादि गोत्रसंशं स्यात् । १००४ एको गोत्रे ४।१।६३ । गोत्रे एक एवापत्यप्रत्ययः स्यात् । उपगोर्गोत्रापत्यम् औपगवः। १००५ गर्गादिभ्यो यञ् ४ । १ । १०५ । गोत्रापत्ये । गर्गस्य गोत्रापत्यं गार्ग्यः वात्स्यः । १००६ योश्च २।४ । ६४ । गोत्रे यद्यञन्तमञन्तं च तदवयवयोरेतयोर्लुक् स्यात्तत्कृते बहुत्न तु स्त्रियाम् । गर्गाः । वत्साः। '१००७ जीवति तु वंश्ये युवा ४ । १ । १६३ । १-औपगवः-'उपगोरपत्यं पुमान्' इत्यय 'उपगु' शब्दात् पष्ठयन्तात् तस्यापत्यम्' इत्यणप्रत्यये सुब्लुकि प्रादिवृद्धौ ‘मोर्गुणः' इति गुणेऽवादेशे विभक्तिकायें 'प्रौपगवः' इति रूपम्। २-अत्र उपगुशब्द एव प्रत्ययं लभते न तु पुनः 'प्रोपगव' शब्दा, अर्थात् गोत्रापत्येऽण एव भवति न तु तदन्तात्पुनः 'इन' । ४-पादिवृद्धिः, 'यस्येति च' इत्यलोपः। एवं वात्स्य' इत्यत्रापि । ४. वात्स्यः -वत्सस्य गोत्रापत्यं पुमानित्यर्थे षष्ठ्यन्ताद् 'वत्स'शब्दात् 'गर्गादिभ्यो यत्र' इति यनि सुब्लुकि मत्वे 'यस्येति चे' त्यकारलोपे मादिवृद्धौ प्रातिपदिकत्वेन सौ विभक्तिकारों सिध्यति रूपं 'वात्स्यः' इति (बहुवचने तु 'यविनोश्च' इति यो लुकि यनिमित्तकवृद्धेरप्यभावे विभक्तिकार्यो 'वत्साः' इति )। १००२-उवर्णा-त भसंज्ञक को गुण होता है तद्धित प्रत्यय परे रहते । १००३-अपत्यरूप से विवक्षित पोत्रादि की गोत्र संज्ञा होती है। १०० -गोत्र अर्थ में एक ही अप यसंज्ञक प्रत्यय होता है। १००५ गर्गादिगणपठित षष्ठयन्त समर्थ सुबन्तसे यञ् प्रत्यय होता है गोत्र अर्थ में। १००६-गोत्र अर्थ में जो यान्त और अअन्त, उसके अवयव या और अञ् का लुक होता है बहुवचन में. स्त्रीलिङ्ग में नहीं। २००७-वंश में पित्रादि के जीवित रहने पर पौत्रादि के जो अपत्य चतुर्थादि, उनको युवा संज्ञा होती है। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम वंश्ये पित्रदौ जीवति पौत्रादेर्यदपत्यं चतुर्थादि 'ता वसंशमेव स्यात् । १००८ गोत्राद्य न्यस्त्रियाम् ४ । १ । १४ । यून्यपत्ये गोत्रप्रत्ययान्तादेव प्रत्ययः स्यात् , स्त्रियां न तु युवसंज्ञा । १००६ यजिओश्च ४ । १ । १०१ । गोत्र यो यत्रिौ तदन्तात् फक स्यात् । १११० आयनेयीनीयियः फ-ढ-ख-छ-घां प्रत्ययादीनाम् ७ । १ ।२। प्रत्ययादेः फस्य आयन्, ढस्य एय, खस्य ईन्, छस्य ईय्, घस्य इय स्युः। गर्गस्य युवापत्यं माायणः । दाक्षायणः । १०११ अत इञ् ४ । १।६५ । अपत्यऽर्थे । दाक्षिः। १०१२ बाह्वादिभ्यश्च ४ । १ । ६६ । "बाहविः । औडुलोमिः । (लोम्नोऽपत्येषु बहुप्वकारो वक्तव्यः) 'उडुलोमाः । प्राकृतिगणोऽयम् । १-नतु गोत्रसंज्ञमित्यर्थः । २-गाायणः-यमन्तात् गर्गशब्दात् ( गार्यात् ) युवापत्येऽर्थे 'यभित्रोश्चे' ति फकि 'प्रायनेयी....' इत्यादिना फस्यायनादेशे भत्वे यस्येतिच' इत्यकारलोपे गप्वे प्रादिपदिकत्वात् विभक्तिकार्यो सिध्यति रूपं 'गाग्र्यायणः' इ'त । ३-इअन्ताद् ‘दक्ष' शब्दात् ( दाक्षःः) फक् । ४-ईस स्यादित्यर्थः। ५-'पोर्गुणः' इति गुरपोऽवादेशः, प्रादिवृद्धिश्च । ६-उडूनीव ( = नक्षत्राणीव ) लोमानि यस्य स 'उडुलोमा' उडुलोम्नोऽपत्यं पुमान-औडलोमिः । 'नस्तद्धिते' इति टिलोपः ७-बहुवचनेषु । ८औलोमिः, प्रौडुलोमी, उडुलोमाः । पौडुलोमिम्, उडुलोमान् । इत्यादि । १००८ गोत्रप्रत्ययान्त से ही युवापत्य अर्थ में प्रत्यय होता है, स्त्रीलिङ्ग में युव संज्ञा नहीं होती। १००६-गोत्र अर्थ में यान्त और इञन्त से फक प्रत्यय होता है युवापत्य अर्थ में । १.१० प्रत्यय के आदि स्थित फ-ढ-ख-छ-घ के स्थान में क्रम से प्रायन एय ईन-ईब्-इय आदेश होते हैं। १०११-अदन्त से इञ् प्रत्यय होता है अपत्य अर्थ में । १०१२ बाह्वादिगणपठित शब्दों से इञ् प्रत्यय होता है। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धिताः १०१३ नृष्यानन्तर्ये विदादिभ्योऽञ ४ । १ । १०४ । ये त्वत्रानृषयस्तेभ्यो ऽपत्येऽन्यत्र तु गोत्रे । विदस्य गोत्रं - वेदः । वैदो विदाः । ' पुत्ररयापत्यं - पौत्रः । पौत्रौ । पौत्राः । एवं दौहित्रादयः । १०१४ शिवादिभ्योऽण ४ । १ । ११२ । । अपत्ये । शवः । गाङ्गः । १०१५ ऋष्यन्धक वृष्णि -कुरुभ्यश्च ३ ४ । १ । ११४ । ऋषिभ्यः- वासिष्ठः, वैश्वामित्रः । अन्धकेभ्यः श्वाफल्कः । वृष्णिभ्यः बासुदेवः । कुरुभ्यः- नाकुलः, साहदेवः । १०१६ मातुरुत् संख्या-सं-भद्र- पूर्वायाः ४ । १ । ११५ । संख्यादिपूर्वस्य मातृशब्दस्य उदादेशः स्यादण् प्रत्ययश्च । द्वैमातुरः । "पाण्मातुरः । सांमातुरः । भाद्रमातुरः । १०१७ स्त्रीभ्यो ढक् ४ । १ । १२० । स्त्रीप्रत्ययान्तेभ्यो ढक् । वैनतेयः । ू १- बहुवचने ' यञञोश्च' इति श्रन प्रत्ययस्य लुक् । २ - नात्र गोत्रे प्रत्ययः इति न श्रञो लुक् । ३- श्रण् स्यादित्यर्थः । ४ - द्वयोर्मात्रोरपत्यं पुमान्- द्वैमातुरः, एवं षाण्मातुरः, इत्यादि । ५ – पाण्मातुरः - षण्णां मातृणामपत्यमित्यर्थे 'तद्धितार्थोत्तर' इत्यादिना समासे षस्य उत्वे 'यरोऽनुनासिके इति णत्वे 'मातुरुत्संख्ये' ति सूत्रेणारम्प्रत्यये ऋकारस्य उदादेशे रपरखे चादिवृद्धौ विभक्तिकार्ये ' षाण्मातुरः इति रूपम् । ६ - विनताया श्रपत्यम्, ढस्य ऐय किति चेत्यादिवृद्धिः वैनतेयः = गरुडः । " २७६ ( वा० लोमन् शब्द से अपत्यार्थ में कार प्रत्यय होता है बहुत्व अर्थ में ) । १०१३ - विदादिगणपति ऋषिभिन्न शब्द से अपत्यार्थ में और ऋषिवाचक शब्द से गोत्रार्थ में प्रत्यय होता है । १०२४-शिवादिगणपठित शब्दों से ऋण प्रत्यय होता है १०१५ - ऋष्यादिवाचक शब्दों से ऋण प्रत्यय होता है १०६६ संख्यादिपूर्वक मातृ शब्द को उत् आदेश होता है, और ऋण प्रत्यय होता है । १०२७-स्त्रीप्रत्ययान्तों से ढक् प्रत्यय होता है पत्त्यार्थ में । ܢ पत्यार्थ में । पत्यार्थ में । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. . लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् १०१८ कन्यायाः 'कनीन च ४।१।११६ । चादण्। कानीनो = व्यासः, कर्णश्च । १०१६ राज-श्वशुराद् यत् ४ । १ । १३७ । ( राक्षो जातावेवेति वाच्यम् )। १०२० ये चाऽभावकमणोः ६ । ४ । १६८ । यादौ तद्धिते परेऽन् प्रकत्या स्यान्न तु भावकर्मणोः । राजन्यः । श्वशुर्यः । जातावेवेति किम्१०२१ अन् ६ । ४ । १६७ । अन् प्रकृत्या स्यादणि परे। "राजनः । १०२२ क्षत्राद्धः ४ । १ । १३८ । १-कन्याशब्दस्याऽपत्यार्थे 'कनीन' इत्यादेशो भवति 'प्रण' प्रत्ययश्चेत्यर्थः । २-कानीन:-कन्यायाः प्रात्यमिति विग्रहे षष्ठयन्तात् 'कन्या' शब्दात् 'कन्यायाः कमीम च' इत्यणप्रत्यये कनीनादेशे प्रादिवृद्धौ 'अ' कारलोपे विभक्तिकायें 'कानीनः' इति। ३-राजन्यः-'राजन्' शब्दाद 'राज्ञोऽपत्यमिति' विग्रहे जात्यर्थे 'राज-श्वश्राद् यत्' इति यत्' प्रत्यये 'नस्तद्धिते' टेलोपे प्राप्ते 'ये चाभावकर्मणोः' इति प्रकृतिभावेन टिलोपाभावे विभक्तिकायें सिध्यति रूपं 'राजन्यः' इति । ४-श्वशुरस्यापत्यं श्वशुयंः-श्यालः। 'यस्य ति च' इतिा 'म' लोपः। ५-जात्यतिरिक्तेऽथे; राज्ञोऽपत्यं पुमान्-राजनः । प्रणप्रत्ययः प्रकृतिभावः । ६-'प्रायने..' इति सूत्रेण घस्य 'इय' । १०१८-कन्या शब्द से अण प्रत्यय हाता है और कन्या को 'कनीन' आदेश होता है। २०१६-राजन् और श्वशुर शब्द से यत् प्रत्यय होता है अपत्यार्थ में। (वा०-राजन शब्द से जाति में ही यत् होता है)। १०२०-तद्धित यादि प्रत्यय परे रहते अन् को प्रकृतिभाष होता है भावकर्म को छोटकर। १०२१ अन् प्रकृतिवत् होता है अण परे रहते । १०२२-क्षत्र शब्द ते घ प्रत्यय होता है अपत्यार्थ में जातिवाच्य होने पर । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वद्विता २८१ क्षत्रियः । जातावित्येव । 'क्षाविरन्यत्र । १०२३ रेवत्यादिभ्यष्ठक ४ । १ । १४६ । १०२४ ठस्येकः ७।३। ५० । अङ्गात् परस्य ठस्येकादेशः स्यात् । रैवतिकः । १०२५ जनपदशब्दात् क्षत्रियादञ ४।१।१६८ । जनपदक्षत्रियवाचकाच्छब्दादञ् स्यादपत्ये। पाञ्चालः (क्षत्रियसमानशब्दाजनपदात्तस्य राजन्यपत्यवत्) पञ्चालानां राजा= पाञ्चालः। (पूरोरण वक्तव्यः) पौरवः । (पाण्डोड्यण) पाण्ड्यः । १०२६ "कुरु-नादिभ्यो एयः ४ । १ । १७२ । कौरव्यः। नैषध्यः। १०२७ ते तद्राजाः ४।१ । १७४ । १-प्रजातावित्युक्तेः न घः किन्तु इन प्रत्ययः । २-रैवतिकः-रेवत्या अपत्यमित्यर्थे षष्ठ्यन्ताद् रेवतीशब्दाद् 'रेवत्यादिम्यष्ठक्' इति 'ठ' प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे प्रातिपदिकत्वेन सुब्लुकि 'ठस्येकः' इति इकारादेशे किति च' इति प्रादिवृद्धौ 'यस्येति चे' तीकारलोपे प्रातिपदिकत्वेन सौ विभक्तिकायें सिध्यति रूपं 'रैवतिकः' । ३-पाश्चालः'पठचालानां राजा' इत्यर्थे 'जनपद' वाचकात् पञ्चालशब्दात, 'क्षत्रियसमानशब्दाज्जनपदात्तस्य राजन्यपत्यवत्' इति वात्तिकेन 'अ' प्रत्यये चादिवृद्धौ प्रकारलोपे विभक्तिकायें सिध्यति रूप 'पाञ्चालः' इति । ४-डित्वात् टिलोपः। ५-कुरुशब्दान्नकारादिशब्दाच्चा:पत्ये राजनि-अर्थे वा एय' प्रत्यय: स्यादित्यर्थः । १०२३--रेवत्यादिगणपठित शब्दों से ठक् प्रत्यय होता है । १०२४ अंग से परे ठ को इक श्रादेश होता है । १०२५-जनपदवाची जी क्षत्रियवाची शब्द, उससे अञ प्रत्यय होता है अपत्यार्थ में। __(वा०-(१) क्षत्रिय समान जो जनपदवाचक शब्द, उससे राजा अर्थ में । अपत्यवत् प्रत्यय होते हैं । (२) पूरुशब्द से अण प्र पय होता है । (३) पाण्डु शब्द से ड्यण् प्रत्यय होता है अपत्य अर्थ में । १०२६-कुरु शब्द और नकारादि शब्दों से ण्य प्रत्यय होता है। १०२७-जनपदवाची शब्द से विहित अञ् आदि प्रत्ययों की तद्राज संज्ञा होती है। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् अनादयस्तद्राजसंशाः स्युः। १०२८ तद्राजस्य बहुषु तेनैवास्त्रियाम् २ । ४ । ६२ । बहुष्वर्थेषु तद्राजस्य लुक् तदर्थकृते बहुत्वे; न तु स्त्रियाम् । इक्ष्वाकवः । पच्चालाः, इत्यादि। १०२६ कम्बोजाल्लुक ४ । १ । १७४ । अस्मात्तद्राजस्य लुक् । 'कम्बोजः। कम्बोजौ (कम्बोजादिभ्य इति वक्तव्यम् ) चोलः । शकः । केरलः । यवनः । इत्यपत्याधिकारः। अथ रक्ताद्यर्थकाः १०३० तेन २रक्त रागात् ४ । २।१। अण स्यात् । रज्यतेऽनेनेति रागः । कषायण रक्तं वस्त्रं- काषायम् । १०३१ नक्षत्र ण युक्तः कालः ४ । २ । ३ । १-कम्बोजस्याऽपत्यं पुमान् इति विग्रहः । इत्यपत्याधिकारः। २-तेन नाम तृतीयान्तात् रागवाचकात् शब्दात् रक्तमित्यस्मिन्नर्थे प्रण स्यादित्यर्थः । एवं सर्वत्रैवं विधेषु स्थलेषु-अर्थाः कल्पनीयाः ३-रागः=रक्त-पीत-कषायादिवर्ण इत्यर्थः । ४-काषायम-कषायेण रक्तमिति विग्रहे 'तेन रक्तं रागात' इति सूत्रेणारणप्रत्यये चादिवृद्धौ ‘यस्येति च' इत्यकारलोपे विभक्तिकार्ये सिध्यति रूप 'काषायम्' इति । १०२८-बहुत्वार्थ में तद्राजसंज्ञक प्रत्यय का लुक् होता है। प्रत्ययार्थकृत बहु व होने पर, स्त्रीलिङ्ग को छोड़कर।। १०२६-कम्बोज शब्द से विहित तद्राजसंज्ञक प्रयय का लुक होता है । इत्यपत्याधिकारः। अथ रक्ताद्यर्थकाः १०३०-तृतीयान्त रागवाचक शब्द से रक्त अर्थ में अण् प्रत्यय होता है । १०३१-नक्षत्रवाचक शब्द से युक्त काल अर्थ में अण् प्रत्यय होता है । (वा०-नक्षत्रवाचक तिष्य-पुष्य शब्द के यकार का लोप होता है अण् प्रत्यय परे रहते)। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ - तद्धिताः अण् स्यात् (तिष्यपुष्ययोर्नक्षत्राणि यलोप इति वाच्यम् ) पुष्येण युक्तं = पौषमहः। १०३२ लुबविशेषे ४ । २ । ४ । पूर्वेण विहितस्य लुप् स्यात् षष्टिदण्डात्मकस्य कालस्यावान्तरविशेषश्चेन्न गम्यते । अद्य पुष्यः। १०३३ दृष्टं साम ४।२।७। तेनेत्येव । वसिष्ठेन दृष्ट-वासिष्ठं साम । १०३४ वामदेवाडड्यड ड्यौ ४ । २ ।। बामदेवेन दृष्टं साम-वामदेव्यम् । १०३५ परिवृतो रथः ४ । २ । १० । अस्मिन्नर्थेऽण् प्रत्ययो भवति । वस्त्रेण परिवृतो-वास्त्रो रथः । १०३६ तत्रोद्धृतममत्र भ्यः ४ । २ । १४ । शरावे उद्धृतः "शाराव ओदनः। १- नक्षत्राणि-नक्षत्रवाचकाद्विहिते-प्रणि प्रत्यये, इत्यर्थः । २-पौषम्-पुष्येण युक्तमित्यर्थे पुष्यशब्दात् 'नक्षत्रेण युक्तः कालः' इत्यणप्रत्यये तिष्यपुष्ययोनंतत्राणि यलोपः' इति यलोपे चादिवृद्धौ ‘यस्येतिचे' त्यकारलोपे विभक्तिकायें सिध्यति रूपं 'पौषम्' (अहः) इति । अहः = दिनम् । ३-तेन दृष्टं सामेत्यर्थेऽरण स्यादित्यर्थः । ४-पात्रवाचकशब्देभ्यः तत्रोदघृतमित्ययेऽण स्यादित्यर्थः । ५-शारावः-शरावे उद्धृतः' इत्यर्थे 'शराव' शब्दात् 'तत्रोद्धृतममत्रेभ्यः' इत्यरिण चादिवृद्धौ ‘यस्येति च' इत्यकारलोपे विभक्तिकार्य सिध्यति रूपं 'शारावः' इति । १०३२-पूर्वसूत्र से कृत प्रत्यय का लुप होता है, यदि २४ घण्टे के बीच का विशेष काल गम्यमान न हो । १०३३-तृतीयान्त शब्द से दृष्ट अर्थ में अरण प्रत्यय होता है वह दृष्ट यदि साम हो। १०३४-वामदेव शब्द से ड्यत् और ड्य प्रत्यय होते हैं । १०३५-परिवृत अर्थ में अण प्रत्यय होता है, रथ के परिवृत होने में। १०३६- सप्तम्यन्त अमत्र (पान ) वाचक शब्द से उद्धृत अर्थ में अण् प्रत्यय होता है। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् १०३७ संस्कृतं भक्षाः ४ । २ । १६ । सप्तम्यन्तादण् स्यात् संस्कृतेऽर्थे यत् संस्कृतं 'भक्षाश्चत्ते स्युः। भ्राष्ट्रेषु संस्कृताः- भ्राष्ट्राः = यवाः। १०३८ साऽस्य देवता ४ । २ । २४ । इन्द्रो देवता अस्येति ऐन्द्र-हविः । पाशुपतम् । 'बार्हस्पतम् । १०३६ शुक्राद घन् ४ । २ । २६ । शुक्रियम्। १८४० सोमायण ४ । २। ३० । "सौम्यम् । १०४१ वायवृतुपित्रपसो ‘यत् ४ । २ । ३१ । १-भक्ष्यन्ते इति भक्षाः। कर्मणि घञ् ( बाहुलकात् ) भक्ष्यभूता इत्यर्थः । २भ्राष्ट्राः-(यवाः)-भ्राष्ट्रषु संस्कृताः इत्यर्थे 'भ्राष्ट्र'-ब्दात 'संस्कृतं भक्षा' इत्यणि 'यस्येति चे' त्यकारलोपे जसि विभक्तिकार्य सिध्यति रूपं 'भ्राष्ट्राः' इति । ३-प्रथमान्ताद् देवतावाचकात् शब्दात्-अस्येत्यर्थेऽण् इत्यर्थः । ऐन्द्रम् ( हविः)-इन्द्रो देवता प्रस्येत्यर्थे 'इन्द्र' शब्दात् प्रथमान्तात् 'सास्यदेवता' इत्यणि सुलुकि प्रादिवृद्धौ 'यस्येति चे' स्यकारलापे विभक्तिकायें सिध्यति रूपम् 'ऐन्द्रम्' इति । ५-बृहस्पतिर्देवता प्रस्येति विग्रहः ) प्रादिवृद्धिः । ६-शुक्रो देवताऽस्येति-शुक्रियम् = हविः घस्य 'इय्' । नित्वं स्वरार्थम् (स्वरितार्थम् ) ७-सोमो देवताऽस्येति विग्रहः । ८-साऽस्य देवता इत्यर्थे इति शेषः। १०३७-सप्तम्यन्त शब्द से 'संस्कृत' अर्थ में अण् प्रत्यय होता है, संस्कृत पदार्थ यदि भक्ष्य हो। १०३८-'इसका देवता यह है' इस अर्थ में प्रथमान्त देवतावाचक शब्द से अण प्रत्यय होता है। १०३६-शुक्र शब्द से 'अस्य देवता' अर्थ में घन् प्रत्यय होता है। १०४०-सोम शब्द से 'अस्य देवता' अर्थ में ट्यण. प्रत्यय होता है। १०४१-वायु-ऋतु पितृ और उषस् शन्द से 'अस्यदेवता' अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदिताः 'वायव्यम् । ऋतव्यम् । १०४२ ऋतः ७ । ४ । २७ । अधकारे सार्वधातुके यकारे च्वौ च परे ॠ दन्ताङ्गस्य रीङादेशः । (२३६) यस्येति च । ' पित्र्यम् । उपस्यम् । १०४३ पितृव्य- मातुल-मातामह - पितामहाः ४ । २ । ३६ । एते निपात्यन्ते । पितुर्भ्राता = पितृव्यः । मातुर्भ्राता = मातुलः । मातुःपिता = मातामहः । पितुः पिता = पितामहः । १०४४ तस्य समूह : ४ । २ । ३७ । ܬ २८५ काकानां समूहः- काकम् । १०४५ भिक्षादिभ्योऽण ४ । २ । ३८ । भिक्षाणां समूहो - भैक्षम् । गर्भिणीनां समूहो - " गार्भिणम् । इह ('भस्याढे तद्धिते) इति पुंवद्भावे कृते १ - वायुर्देवताऽस्येति विग्रहः, प्रोर्गुणः, 'वान्तो यि इत्यवादेशः । एवं विग्रहे 'वाय्वृतु मातुलः । 'मातृ ऋतुर्देवताऽस्येति-ऋतव्यम् । २- पित्र्यम् - पितरो देवता प्रस्येति पित्रुषसो यत्' इति 'यत्' - प्रत्यये 'रीङ ऋतः ' ऋकारस्य रोङादेशे 'यस्यति चे' - तीकारलोपे विभक्तिकार्ये सिध्यति रूपं 'पित्र्यम्' इति । उषा देवताऽस्येति 'उषस्य ' हविः । ३ - 'पितुर्भ्रातरि व्यत्' पितृव्यः । ' मातुः ( भ्रातरि ) डुलच्' पितृभ्यां पितरि डामहच्' इति डामहच् डिति टिलोपः मातामहः, पितामहः । ४षष्ट्यन्तात् 'समूह' इत्यर्थे ऽण् । ५ - गार्भिणम् - गर्भिणीनां समूहः इत्यर्थे 'गर्भिणी' शब्दात् 'भिक्षादिभ्योऽण्' इत्यरिग 'भस्याढे तद्धिते' इति पुंवद्भावे ( ङीप् निवृत्तौ ) 'गभिन् श्र' इति स्थितौ 'इनरायनपत्ये' इति प्रकृतिभावात् 'नस्तद्धिते' इति टिलोपाभावे विभक्तिकायें सिध्यति रूपं 'गाभिरणम्' इति । ६ - वार्तिकमिदम्, भसंज्ञाप्रयोजके ढभिन्ने तद्धिते पुंवद्भाव इत्यर्थः १०४२–कृत्भिन्न और सार्वधातुकभिन्न यकार परे रहते, और च्वि प्रत्यय परे रहते ऋदन्त अंग को रीङ् श्रादेश होता है । १०४३ - पितृव्य, मातुल, मातामह, पितामह ये शब्द निपातन से सिद्ध होते हैं । १०४४ - समूहार्थ में प्रणादि प्रत्यय होते हैं । १०४५ - भिक्षादिगणपठित शब्दों से समूह अर्थ में अण् प्रत्यय होता है । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् १०४६ इनण्यनपत्ये ६।४ । १६४ । अनपत्यार्थेऽणि परे इन् प्रकृत्या स्यात् । तेन (६१६.) 'नस्तद्धिते' इति टिलोपो न युवतीनां समूहो-'यौवनम् । १०४७ ग्राम-जन-बन्धुभ्यस्तल ४ । २ । ४३ । तलन्तं स्त्रियाम् । ग्रामता । जनता । बन्धुता। (गजसहायाभ्यां चेति वक्तव्यम्) गजता । सहायता । (अह्नः खः क्रतौ) अहीनः । १०४८ अचित्त-हस्ति-"धेनोष्ठक ४ । २ । ४७ । १८४६ इसुसुक्तान्तात् कः ७ । ३ । ५१ । इस-उस्-उक्-तान्तात् परस्य ठस्य कः।साक्तुकम् । 'हास्तिकम् । धैनुकम्। १०५० तदधीते तद्वद ४ । २ । ५8 । १-'यूनस्तिः' इति ति-प्रत्ययान्तात् युवतिशब्दात समूहेऽर्थेऽणप्रत्यये 'अन्' इति सूत्रेण प्रकृतिभावे 'यौवनम्' इति सिद्धयति । शत्रन्तादुगितश्चेति डीप्प्रत्यये अनुदात्तादेर्युवतीति दीर्घान्तात् समूहेऽनि तु 'यौवतम्' । २-समूहेऽथें । ३-अत्रापि समूहे-एव । ४-बहन शब्दात् समूहेऽर्थे 'ख' प्रत्ययः स्याद् यज्ञे वाच्ये इत्यर्थः । खस्य ईन' 'नस्तद्धिते' इति टिलोपः। ग्रहीनः = अनेकदिनसाध्यः क्रतुविशेषः । ५-षष्ठ्यन्तात् अचित्तात् (चित्तरहितवाचकात् ) तथा हस्तिशब्दात्, धेनुशब्दाच समूहेऽर्थे ठक स्यादिति सूत्रार्थः। ६-'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य' इति नलोपः, हस्तिनीना समूह इति विग्रहेऽपि (भस्याऽढे) इति पुवद्भावे तदेव रूपम् । ७-द्वितीयान्ताद् एतस्मिन्नर्थेऽणादयः प्रत्ययाः स्युरित्यर्थः ।। (वा०-ट भिन्न तद्धित परे रहते भसंज्ञक प्रातिपदिक को पुंवद्भाव होता है । ) १०४६ अपत्यार्थभिन्न अण परे रहते इन को प्रकृतिभाव होता है । १०४७-ग्राम जन-बन्धु शब्दों से समूह अर्थ में तल प्रत्यय होता है। (वा० (१) गज और सहाय शब्द से समूह अर्थ में तल प्र यय कहना चाहिये । (२) अहन् शब्द से ख प्रत्यय होता है ऋतु अर्थ में)। १०४८-चेतना रहितवाची, तथा हस्ति-शब्द और चेन-शब्द से समूह अर्थ में ठक प्रत्यय होता है। १०४६-इस् उस्-उक् और तकारान्त से परे ठ को क होता है । १०५०-द्वितीयान्त से अधीते और 'वेद' अर्थ में अणादि प्रत्यय होते हैं । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७ तद्धिताः १०५१ न स्वाभ्यां पदान्ताभ्यां पूर्वा तु ताभ्यामैच ७ । ३ । ३ । पदान्ताभ्यां यकारवकाराभ्यां परस्य न वृद्धिः किंतु 'ताभ्यां पूवौं क्रमादैचावागमौ' स्तः । व्याकरणमधीते वेद वा-वैयाकरणः । १०५२ क्रमादिभ्यो वुन् ४ । २।६१ । क्रमकः । पदकः । शिक्षकः । मीमांसकः। __ इति रक्ताद्यर्थकाः। अथ चातुरर्थिकाः १०५३ तदस्मिन्नस्तीति देशे "तन्नाम्नि ४ । २ । ६७ । उदुम्बराः सन्त्यस्मिन्देशे औदुम्बरो देशः । १०५४ तेन 'निवृत्तम् ४ । २ । ६८.। कुशाम्बेन निवृत्ता नगरी-कौशाम्बी। १-यकारात् पूर्वम् 'ऐ' वकारात्पूर्वम् 'नौ' इत्यर्थः। २-वैयाकरणः-व्याकरणशब्दात् 'व्याकरणमधोते वेद वा' इत्यर्थे द्वितीयान्तात् 'तदधीते तद्वेद' इत्यरिण सुपो लुकि भसंज्ञायां 'यस्येति च' इत्यकारलोपे 'ताद्धतेष्वचामादेः' इति प्रादिवृद्धौ प्राप्तायां 'न स्वाभ्यां पदान्ताभ्याम् ...' इत्यादिना वृद्धि निषेध्य यकारात् पूर्वम् ऐजाग़मे ( ऐकारागमे) प्रातिपदिकत्वात् सौ विभक्तिकायें 'वैयाकरणः' इति रूपम् । ३-'बु' इत्यस्य 'प्रक' इति । ४-कमम प्रधीते वेद वा इति विग्रहः । इति रक्ताद्यर्थकाः। ५-प्रथमान्तादस्मिन्नस्तीत्यर्थे प्रणादयः स्युः प्रत्ययान्तेन तन्नाम्नि देशे गम्यमाने ।तृतीयान्ताद् निवृत्तमित्यर्थोऽणादयः स्युरित्यर्थः । ७-सम्पादिता । २-कौशाम्बी-कुशाम्बेन निर्वृत्ता इत्यर्थे 'कुशाम्ब' शब्दात् तृतीयान्तात् 'तेन निवृत्तम्' इत्या प्रत्यये सुपो लुकि १०५१-पदान्त यकार-वकार से परे वृद्धि नहीं होती, किन्तु उनको ऐच का अागम हो जाता है। १०५२-क्रमादिगणपठित शब्दों से बुन् होता है 'अधीते' और 'वेद' अर्थ में । इति रक्ताद्यर्थकाः। प्रथ चातुरर्थिकाः १०५३-प्रथमान्त शब्द से 'अस्मिन्' अर्थ में अण्णादि प्रत्यय होते हैं। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् १०५५ तस्य 'निवासः ४ । २ । ६६ । शिबीनां निवासो देशः शैवः। १०५६ अदरभवश्च ४ । २ । ७० । २विदिशाया अदूरभवं नगरं--वैदिशम् । १०५७ जनपदे लुप ४ । २ । ८१ । जनपदे वाच्ये 'चातुरर्थिकस्य लुप् । १०५८ लुपि युक्तवव्यक्तिवचने १ । २ । ५१ । लुपि सति प्रकृतिवल्लिङ्गवचने स्तः । पञ्चालानां निवासो जनपदःपश्चालाः । कुरवः । अङ्गाः । वङ्गाः । कलिङ्गाः । १०५६ वरणादिभ्यश्च ४ । २।८२ । ५अजनपदार्थ आरम्भः। वरणानामदूरभवं नगरं-वरणाः । १०६० कुमुद-नड-बेतसेभ्यो ड्मतुप् ४ । २ । ८७ । तद्धितेष्वचामादेः' इति वृद्धौ स्त्रियां 'टिडढाणा....' इत्यादिना डोपि सौ तस्य लोपे 'कौशाम्बो' इति । १-षष्ठयन्तात् निवास इत्यर्थेऽणादयः स्युः इत्यथः । २-विदिशा नाम नगरी । ३-प्रत्ययस्येति शेषः, पूर्वोक्तसूत्रचतुष्टयप्राप्तस्य लुप् इत्यर्थः । ४-'तस्य निवासः' इति विहितस्याणो लुपि, प्रकृतिवल्लिङ्गवचने ( पाञ्चालानामित्यत्र यथा पुंल्लिङ्गो बहुवचनं तथाऽत्रापि ) । एवमन्यत्र-कुरवः, अङ्गा, वङ्गा, इन्यादि । प्रत्ययलुपि देशवाचकेषु सर्वत्रापि बहुवचभमेव प्रयोक्तव्यं भवति । ५-जनपदभिन्नार्थमिदं सूत्रम् । १०५४-तृतीयान्त शब्द से 'निवृत्त' अर्थ में अणादि प्रत्यय होते हैं । १०५५--षष्ठयन्त शब्दों से 'निवास' अर्थ में अणादि प्रत्यय होते हैं। १०५६-षष्ठ्यन्त शब्द से 'अदूरभव' अर्थ में अणादि प्रत्यय होते हैं । १०५७-जनपदवाच्य होने पर चातुरर्थिक प्रत्यय का लुप होता है । १०५८-लुप् होने पर प्रकृति की तरह लिंग और वचन होते हैं । १०५६- वरणादिगणपठित शब्दों से 'अदूरभव' अर्थ में विहित चातुरर्थिक प्रत्यय का लुप् होता है। १६६०-कुमुद-नड-वेतस् शब्दों से चारों अर्थों में ड्मतुप्प्रत्यय होता है । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___१६ तद्धिताः २८६ १०६१ झयः ।२।१० । भयन्तान्मतोम॑स्य वः। 'कुमुद्वान् । नड्वान् । १०६२ मादुपधार्याश्च मतोर्वोऽयवादिभ्यः ८।२।। मवर्णावर्णान्तान्मवर्णावर्णोपधाच यवादिवर्जितात् परस्य मतोर्मस्य वः। तस्वान् । १०६३ नड-शादाड-ड-बलच् ४ । २ । ८८ । नड्वलः । शाबलः। १०६४ शिखाया वलच ४।२।८६ । शिखावलः। इति चातुरर्थिकाः । अथ शैषिका: १०६५ शेष ४ । २।१२। अपत्यादिचतुर्थ्यन्तादन्योऽर्थः शेषस्तत्राणादयः स्युः । चक्षुषा गृह्यते चानुषं = रूपम् । श्रावणः = शब्दः । औपनिषदः पुरुषः । दृषदि पिष्टा १-कुमुदाः सन्त्यस्मिन्निति विग्रहः, डित्वाटिलोपः । एवमन्यत्र । २-वेतसा: सन्त्यति विग्रहः । ३-नडाः सन्ति यस्मिन्, नड्वलः । शादाः % घासाः सन्ति यत्र स देशः शाद्वलः, उभयत्र डित्त्वादिलोपः । ४-शिखाऽस्त्यस्मिन् इति शिखावलः = मयूरः । ५-श्रवणेन % कर्णेन गृह्यते इति श्रावणः, अरण-प्रत्ययः, प्रादिवृद्धिः। ६-उपनिषद्भिः प्रतिपादित इति विग्रहः, पण प्रत्ययः, प्रादिवृद्धिः। ७-दृषदि = शिलायाम् । १०६१-झयात से परे मतुप के मकार को वकार आदेश होता है। १०६२-मकारान्त और अवन्ति तथा मकारोपध और अवरोंपध से परे मतुप के मकार को वकार होता है यवादिगणपठितों को छोड़कर । १०६३-नड, शाद शब्द से चातुरर्थिक अर्य में ड्वलच प्रत्यय होता है। १०६४-शिखा शब्द से चातुरर्थिक अर्थ में वलच् प्रत्यय होता है। इति चातुरर्थिकाः। अथ शैषिकाः १०६५-अपत्यादि चतुरयन्त से भिन्न अर्थ शेष कहलाता है, उस अर्थ में अणादि प्रत्यय होते हैं। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० लघुसिद्धान्तकौमुद्याम दार्षदाः = सक्तवः । चतुर्भिरुह्यते चातुर=शकटम् । चतुर्दश्यां दृश्यते चातुर्दशं= 'रक्षः। तस्य विकार इत्यतः प्राक् शेषाधिकारः । १०६६ राष्ट्राऽवार-पाराद्ध-खो ४ । २ । ६३ । आभ्यां क्रमाद् घ-खौ स्तः शेषे । राष्ट्र जातादिः = 'राष्ट्रियः । अवारपारीणः । (अवारपाराद्विगृहीतादपि विपरीताच्चेति वक्तव्यम्)। अवारीणः। पारीणः । "पारावारीणः । इह प्रकृतिविशेषाद् घादयष्टट्य टयुलन्ताः प्रत्यया उच्यन्ते तेषां जातादयोऽर्थविशेषाः समर्थविभक्तयश्च वच्यन्ते । १०६७ ग्रामाद य खत्रौ ४ । २ । १४ । ग्राम्यः, ग्रामीणः । १०६८ नद्यादिम्यो ढक ४ । २ । ६७ । 'नादेयम् । 'माहेयम् । वाराणसेयम् । १-रक्षः = राक्षसः। २-राष्ट्र जातः, भव इत्यादिविग्रहः, घप्रत्ययः । घस्य इय् 'यस्येति प' इत्यकारलोपः। ३-अवारपारे जात इत्यादिविग्रहः । खप्रत्ययः । खस्य ईनादेशः ४-विगृहीतात-पृथग्भूतात्, प्रवारशब्दात, पारशब्दात् पृथक्-पृथक् अपि प्रत्ययः । विपरीतात-पारावारशब्दादित्यर्थः ५-पारावारीणः-पारावारे जातः' इति विग्रहे सप्तम्यन्तात् पारावारशब्दात् 'अवारपाराद् विगृहीतादपि विपरीताचेति वक्तव्यम्' इति वासिकन 'ख' प्रत्यये खस्य ईनादेशे सुब्लुकि 'यस्येति च' ईत्यकारलोपे णत्वे प्रातिपदिकत्वेन सौ रुत्वे विसर्ग सिध्यति रूपं पारावारीणः' इति । ५-ग्रामे जात इत्यादिविण्हे यप्रत्यये ग्राम्यः, स्वम्प्रत्यये ग्रामीणः । ७-नदी-मही वार एसो-श्रावस्ती-इत्यादि ( नद्यादिगरणः)। - नद्यां जातं भवमित्यादिरर्थः । ढस्य 'एय', आदिवृद्धिश्च । ह-महां जातं भवं वा, वाराणस्यां जातं भवं वा । ढक्प्रत्यये ठस्य 'एय', 'किति च' इत्यादिवृधिः। 'यस्येति च' इति ईकारलोपः । १०६६-राष्ट्र और अवारपार शब्द से जात आदि अर्थ में घ और ख प्रत्यय होते हैं । ( वा०-अवारपार शब्द से पृथक-पृथक् तथा इनके उल्टा करने पर 'पारापार' शब्द से भी ख प्रत्यय होता है।) १०६७-ग्राम शब्दं से जातादि अर्थ में य और खञ् प्रत्यय होते हैं । १०६८-नद्यादिगणपठिती से टक् प्रत्यय होता है जातादि अयों में । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धिताः २६१ १०६६ दक्षिणा-पश्चात्-पुरसस्त्यक ४ । २ । ६८ । 'दाक्षिणात्यः । पाश्चात्त्यः । पौरस्त्यः । १०७० धु-प्रागपागुदक प्रतीचो यत् ४ । २ । १०१ । दिव्यम् । प्राच्यम् । अपाच्यम् । उदीच्यम् । प्रतीच्यम् । १०७१ अव्ययात्यप ४ । २ । १०४ । ( अमेह-क्वतसि-त्रेभ्य एव ) "अमात्यः । इहत्यः। क्वत्यः । ततस्त्यः । तत्रत्यः। (त्यन्नेर्भुव इति वक्तव्यम् ) नित्यः । १०७२ वृद्धियस्याचामादिस्तद् वृद्धम् १ । १ । ७३ । यस्य समुदायस्यावां मध्ये 'आदिवृद्धिस्तद् वृद्धसंझं स्यात् । १०७३ त्यदादीनि च १ । १ । ७४ । वृद्धसंशानि स्युः। १-दक्षिणा=दक्षिणस्यां भवो जात इति वा । 'किति ' इत्यादिवृद्धिः । एवं पथात्-जातो भवो वा पाश्चात्यः । पुरः-भवो जातो वा पौरस्त्यः । २-भवार्थेऽयं यत् । ३-दिवि भवम्-दिव्यम्, प्राचि भवं प्राच्यम्, अपाचि भवम् - अपाच्यम, उदीचि भवम्, प्रतोचि भवमित्यादिविग्रहः । ४-प्रमा. सह भवतीति-प्रमात्यः ( मन्त्री ।। एवम् इहत्य:----इत्यादि । ५-'नि' इत्यस्मात् ध्रुवेर्थे 'त्यप' प्रत्ययः स्यादित्यर्थः । ६-प्रा-ऐ-पौरूपाः । १०६६-दक्षिणा, पश्चात्, 'पुरस् से त्यक् प्रत्यय होता है जातादि अर्थों में। १०७०-दिव-प्राच-अपाच-उदच प्रतीच शब्दों में जातादि अर्थी' में यत् प्रत्यय होता है। १०७१-अव्यय मे त्यप प्रत्यय होता है। (वा-अमा इह क्ष तस् । इनसे ही हो । ) ( वा०-'नि' से त्यप् प्रत्यय हो ध्रव अर्थ में ।) १०७२-जिस समुदाय के अचों के मध्य में आदि अच् वृधिस्वरूप हो तो वह समुदाय वृदधसंजक होता है । १०७३-त्यदादि को भी बद्ध संज्ञा होती है । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् १०७४ 'वृद्धाच्छः ४ । २ । १४४ । २ शालीयः । मालीयः । तदीयः । ( वा नामधेयस्य वृद्धसंज्ञा वक्तव्या ) देवदतीयः 'देवदत्तः । १०७५ "गहादिभ्यश्च ४ । २ । १३८ । गहीयः । १०७६ युष्मदस्मदोरन्यतरस्यां खञ् च ४ | ३ | १ | चाच्छः । पक्षेऽण् । युवयोर्युष्माकं वाऽयं युध्मदीयः । श्रस्मदीयः । १०७७ तस्मिन्नणि च युष्माका माकौ ४ । ३ । २ । युष्मदस्मदोरेतावादेशौ स्तः खत्रि, अणि च । कीनः । यौष्माकः । श्रस्माकः । 'यो माकीणः । श्रस्मा १०७८ तवकममकावेकवचने ४ | ३ | ३ | २१२ १- वृद्धसंज्ञकात् छप्रत्ययः स्यात् इत्यर्थः छस्य 'ईय' । २ - शालायां भव इत्यादि विग्रहः, 'यस्येति च' इत्यालोकः । एवं मालीयः । ३ - तस्याऽयं तदीयः । ४- पक्षेण । ५–'छः' स्यात् । ६-गहे ( देशविशेषे ) भव इति विग्रहः । ७- युष्मदीयः - ' युष्माकमयम्' इत्यर्थे 'युष्मद्' शब्दात् 'युस्मदस्मदोरन्यतरस्याम्' इति 'अ' प्रत्यये ईयादेशे सुब्लुकि विभक्तिकायें सौ रुत्वे विसर्गे युष्मदीयः । ८- यौध्माकीणः - 'युवयोर्युष्माकं वा श्रयम्' इति विग्रहे 'युष्मदस्मदो.. इत्यादिना खञ प्रत्यये 'तस्मिन्नणि च इति सूत्रेण 'युष्मत्' शब्दस्य युष्माकादेशे खस्य ईनादशे भत्वेऽकारलोपे प्रादिवृद्धौ त्वे विभक्तिकायें रूप सिध्यति 'यौष्माकीणः' इति ( उक्तसूत्रे 'श्रन्यतरस्यां खञ् च' इत्युक्तेः क्षेऽरिण यौष्माकादेशे प्रादिवृद्धौ रूपं सिध्यति 'यौष्माकः' इति ) । , १०७४ - वृद्धसंज्ञकों से छ प्रत्यय होता है । (नामकी विक प से वृद्ध संज्ञा होती है ।) १०७५ - दशवाचक गहादिगणपठित शब्दों से छ प्रत्यय होता है । १०७६-युष्मद्-अस्मद् शब्दों से खञ् और छप्रत्यय होते हैं पक्ष में १०७७ - युष्मद् - श्रस्मद को युष्माक ग्रस्माक श्रादेश होता है खञ्, १४७८ - एकार्थवाची युस्मद् श्रस्मद् को तवक ममक होते हैं, रहते । भी I ण् परे रहते । खञ् अण परे Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तडिताः ___२६३ एकार्थवाचिनोर्युप्मस्मदोस्तवकममको स्तः खनि, अणि च । 'तावकीनः, 'तावकः । मामकीनः, मामकः । छे तु १०७६ प्रत्ययोत्तरपदयोश्च ७ । २ । १८ । मपर्यन्तयोरेकार्थवाचिनोस्त्वमौस्तः प्रत्यये-उत्तरपदेच परतः । त्वदीयः। मदीयः । त्वत्पुत्रः, मत्पुत्रः । १०८० मध्यान्म: ४ । ३ । ८ । ६मध्यमः। १०८१ कालाट्ठा ४।३।११। कालवाचिभ्यप्ठञ् स्यात् । कालिकम् । मासिकम् । सांवत्सरिकम् । (अव्ययानां भमात्रे टिलोपः) सायंप्रातिकः । 'पौनापुनिकः । १०८२ प्रावृप एण्यः ४ । ३ । १७ । १°प्रावृषेण्यः। १-तव-प्रयम, मम-अयम् - इति विग्रहो । २-तावकः-'तव अयम्' इति विग्रहे 'युष्मदस्मदोरन्यतरस्यां खञ्च ' इति खत्रभावपक्षेऽणि 'तवकममकावेकवचने' इति 'युष्मच्छब्दस्य 'तवका' देशे भत्वेऽकारलोपे आदिवृद्धौ विभक्तिकार्ये 'तावकः' इति । खमि तु 'तावकीनः' इति रूपम् । ३-छप्रत्यये तु । ४-त्वदीयः मदीयः, त्यदादित्वाद् वृद्धसंज्ञायां 'वृद्धाच्छः' इति छप्रत्ययः। ५-उदाहरणद्वय मिदमुत्तरपदे त्वमादेशयोः। ६-भवार्थे प्रत्ययः, मध्ये भवो मध्यमः। ७-ठस्य 'इक' प्रादेशः जित्वाद् प्रादिवृद्धिः । काले भवमिति विग्रहः । एवमग्रऽपि । ८-सायं प्रात र्भवतीति विग्रहः । ठत्रि टिलोपः । ६-पुनः पुनर्भवतीति विग्रहः, ठञ् टिलोपः, पादिवृद्धिः, ठस्येकः । १०-प्रावृषि (वर्षासु) भव इति । १०७६-एकार्थवाची युष्मद् अस्मद् के मपर्यन्तभाग को त्व म आदेश होते हैं प्रत्यय और उत्तरपद परे रहते । १०८०-मध्य शब्द से जातादि अर्थों में म-प्रत्यय होता है। १०८१-कालवाचक शब्द से जातादि अर्थों में ठञ् प्रत्यय होता है। (वा० - अत्ययों की भसंज्ञामात्र में टि का लोप होता है।) १०८२-प्रावृष् शब्द से जातादि अयों में एण्य प्रत्यय होता है। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४. . लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् १०८३ सायं-चिरं-प्राह णे-प्रगे-ऽव्ययेभ्यष्टय व्य लो तुट च ।४।३।२३। सायमित्यादिभ्यश्चतुर्थ्यः अव्ययेभ्यश्च कालवाचिभ्यष्ट्यु ट्यु लौ स्तस्तयोस्तुट् च। 'सायन्तनम् । चिरन्तनम्। प्राणप्रगयोरेदन्तत्वं निपात्यते । प्राणेतनम् । प्रगेतनम् । "दोषातनम् । १०८४ तत्र जातः ४ । ३ । २५ । सप्तमीसमर्थाज्जात इत्यर्थेऽणादयो धादयश्च स्युः। स्रुघ्न जातः सौघ्नः। उत्से जातः-ौत्सः । राष्ट्र जातः- राष्ट्रियः । अवारपारे जातःअवारपारीणः इत्यादि। १०८५ "प्रावृषष्टप् ४ । ३ । २६ । एण्यावादः । ११प्रावृषिकः । १०८६ प्रायभवः ४ । ३ । ३६ । तत्रेत्येव । स्वघ्ने प्रायेण = बाहुल्येन भवति १२सौघ्नः। १०८७ सम्भूते ४ । ३ । ४१ । १-यु-ट्युलोः 'यु' इत्यस्य 'युवोरनाकौ' इति सूत्रेण 'मन' इत्यादेशः । भवार्थे प्रत्ययो । २-चिरन्ततम्-'चिरम्' इत्यव्ययाद् भवाथे 'सायं चिरं प्राणे...' इत्यादिना स्यु' प्रत्यये 'स्यु ल' प्रत्यये वाऽनुबन्धलोपे तुडागमे च 'यु' इत्यस्य 'युवोरनाको इत्यनेन अनादेशे मस्यानुस्वारे परसवणे च प्रातिपदिकत्वात् सौ सोरमि सिध्यति रूपं 'चिरन्ततम्' इति । ३-पूर्वाह्नकालभवमित्यर्थः। ४-प्रातःकालिकम् । ५-रात्रिभवम् । ६-पण् प्रत्ययः 'शेषे' इत्यनेन । ७-'उत्सादिभ्योऽत्र'। ८-घप्रत्ययः, तस्य 'इय' ६-खप्रत्ययः, तस्य 'ईन्' इति । १०-सप्तम्यन्ताजात इत्यर्थे, ठस्य 'इकः' । १ - प्रावृषि जात इति विग्रहः । १२-अण, मादिवृद्धिः । १०३-सायम् आदि से ट्यु-ट्युल प्रत्यय होते हैं और उनको तुटू का आगम होता है। १०८४-सप्तम्यन्त से जात अर्थ में अणादि और घादि प्रत्यय होते हैं । १०८५-प्रावृष् शब्द से ठप प्रत्यय होता है। १०८६-'प्रायभव' अर्थ में श्रणादि और घादि प्रत्यय होते हैं। १.८७-'सम्भूत' अर्थ में प्रणादि और धादि प्रत्यय होते हैं । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धिताः त्रघ्ने सम्भवति स्रौघ्नः । १०८८ कोशाड्ढञ् ४ | ३ | ४२ । 'कौशेयं (वस्त्रम्) । १०८६ तत्र भवः ४ । ३ । ५३ । 3 स्त्रघ्ने भवः - स्त्रौघ्नः । उत्सः । 'राष्ट्रियः १०६० दिगादिभ्यो यत् ४ । ३ । ५४ । दिश्यम् | वर्ग्यम् । १०६१ " शरीरावयवाच्च ४ | ३ | ५५ | 'दन्त्यम् । कण्ठ्यम् । (अध्यात्मादेष्ठञिध्यते) अध्यात्मं भवमाध्यात्मिकम् । १०६२ अनुशतिकादीनां च ७ । ३ । २० । एषामुभयपदवृद्धिर्ञिति णिति किति च । 'आधिदैविकम् । श्रधि L १ - कौशेयम्- 'कोशे सम्भवता' त्यर्थे सप्तम्यन्तात् 'कोश' शब्दात् 'कोशाड्दव् इति 'ढञ्' प्रत्यये ञित्वादादिवृद्धौ ढस्य एयादेशे सुपोलुकि 'यस्येति च' इत्यकारलोपे विभक्तिकार्ये 'कौशेयम्' । २- श्रण् । ३- श्रञ् । ४ घः । ५- यत् स्यादित्यथ: । ६ - दन्तेषु भवम्, कण्ठे भवमिति विग्रहौ । ७ - आध्यात्मिकम् - प्रात्मनि इत्यध्यास्मम्' तस्माद्भवार्थी 'अध्यात्मादेष्टुत्रिष्यते' इति वार्त्तिकेन ठञि ञित्वादादिवृद्धौ ठस्य इकादेशे ऽकारलोपे विभक्तिकार्ये 'प्राध्यात्मिकम् । ८-देवे इत्यधिदेवम ( विभक्त्यर्थे ऽव्ययीभावः), तत्र भवम् श्राधिदैविकम् । एवम् श्राधिभौतिकम् । १०८८ - कोश शब्द से ‘संभूत' अर्थ में ढञ् प्रत्यय होता है । १०८६ - ' भवार्थ' में णादि और घादि प्रत्यय होते हैं । १०६०० - दिगादिगणीय शब्दों से यत् प्रत्यय होता है भवार्थ में । १०६१ - शरीर के अवयववाची शब्दों से यत् प्रत्यय होता है भवार्थ में । ( वा० अध्यात्मादिगणपठित से ठञ् प्रत्यय होता है भवार्थ में । ) १०६३ - अनुशतिकादि गणपटित शब्दों को उभयपद वृद्धि होती है । ञित् णित्कित तति परे रहते । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् भौतिकम् | 'ऐहलौकिकम् । पारलौकिकम् । श्राकृतिगणोऽयम् । १०६३ जिह्वामलाङगुलेश्छः ४ । ३ । ६२ । 3 ४जिहामूलीयम् । अङगुलीयम् । १०६४ वर्गान्ताच्च ४ । ३ । ६३ । "कवर्गीयम् । १०६५ तत आगतः ४ । ३ । ७४ । स्रुघ्नादागतः, ̈स्त्रौघ्नः । १०६६ ठगायस्थानेभ्यः ४ । ३ । ७५ । 'शुल्कशालाया श्रागतः - 'शौल्कशालिकः । १०६७ विद्या - योनिसम्बन्धेभ्यो वुञ ४ । ३ । ७७ । १० औपाध्यायकः । पैतामहकः । १ - इह लोके भवम् ऐहलौकिकम् । परलोके भवं पारलौकिकम् । २- पारलौकिकम् - परलोके भवमित्यर्थे सप्तम्यन्तात् 'परलोक' शब्दात् श्रध्यात्मादित्वाट्ठञ् प्रत्यये 'अनुशतिकादीनां च' इत्युभयपदवृद्धौ ठस्य इकादेशे ऽवारलोपे विभक्तिकार्ये सिध्यति रूपं 'पारलौकिकम्' । ३ - छस्य ईम् इति । ४ - जिह्वामूले भवम् इति विग्रहः । श्रीगुरुमां भवम् श्रङ्गुलीयम्' । ५ - कवर्गे भवम् - कवर्गीयम, छप्रत्ययः तस्य 'ईयू' । ६-तत आगत इत्यथ पञ्चम्यन्तात् श्ररणादयः स्युरित्यर्थः । ८-श्रण् । ད - शुल्कशाला ( चुङ्गीखाना ) । ६- 'किति च ' शौल्कइत्यादिवृद्धिः । शालिकः = (श्रायः) । १० - औपाध्यायकः - ' उपाध्यायादागतः ' इति विग्रहे पञ्चम्यन्ताद् 'उपाध्याय' शब्दात् 'विद्या - योनिसम्बन्धेभ्यो वुञ्' इति 'वुञ्' प्रत्यये भित्वादादिवृद्धौ सुब्लुकि 'a' इत्यस्य प्रकादेशे 'यस्येति च' इत्यकारलोपे विभक्तिकार्ये 'श्रौपाध्यायकः ' इति रूपम् । एवं पितामहादागतः वुञः -वु' इत्यस्य 'युवोरनाक' इत्यकः श्रादिवृद्धिः । १०६३ - जिह्वामूल और अंगुली शब्द से भवार्थ में छं प्रत्यय होता है । १०६४-वर्गान्त शब्द से भवार्थ में छ प्रत्यय होता है । १०६५ - 'श्रागत' अर्थ में णादि और घाटि प्रत्यय होते हैं । १०६६-श्रयस्थानवाचक शब्दों से 'गत' अर्थ में टक प्रत्यय होता है। १०९७ - विद्या और योनि सम्बन्धवाची शब्द से श्रागत अर्थ में वुञ् प्रत्यय होता है । - Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धिताः २६७ १०९८ हेतु-मनुष्येभ्योऽन्यतरस्यां रूप्यः ४ । ३ । ८१ । समादागतं समरूप्यम् । पक्षे-गहादित्वाच्छः-समीयम् । विषमीयम् । देवदत्तरूप्यम् । 'देवदत्तम् । १०६६ मयट् च ४ । ३ । ८२ । सममयम् । देवदत्तमयम् । ११०० प्रभवति ४ । ३ । ८३ । हिमवतः प्रभवति--हैमवती-गङ्गा । ११०१ तद्गच्छति पथिदूतयोः ४ । ३ । ८५ । त्रुघ्नं गच्छति सौन्नः-पन्था दूतो वा। ११०२ अभिनिष्क्रामति "द्वारम् ४ । ३ । ८६ । नु नमभिनिष्कामति स्रौन-कान्यकुब्जद्वारम् । ११०३ अधिकृत्य कृते 'ग्रन्थे ४ । ३ । ८७ । १-पक्षेऽण ( शेषे, इत्यनेन)। २-पञ्चम्यन्तात् प्रमवतीत्यर्थे ऽणादयो घादयश्च स्युरित्यर्थः । ३-अणप्रत्यये स्त्रियाम् 'टिडढाणन ....' इति डीप् । ४ द्वितीयान्ताद् गच्छति इत्यर्थे ऽणादयः प्रत्ययाः स्युः पथि दूते च वाच्ये। ५-अस्मिन्नर्थे ऽणादयः स्युरित्यर्थः । ६-द्वितीयान्तात् अधिकृत्य कृतो ग्रन्थ इत्यर्थे -प्रणादय घादयः प्रत्ययाः स्युरित्यर्थः। १०६८-हेतुवाचक और मनुष्यवाचक शब्दों से आगत अर्थ में रूष्य प्रत्यय होता है। १०६६-हेतुवाचक और मनुष्यवाचक शब्द से अागत अर्थ में मयट प्रत्यय होता है। ११००-पञ्चम्यन्त से 'प्रभवति अर्थ में श्रणादि और घादि प्रत्यय होते हैं । ११०१-द्वतीयान्त से 'गच्छति' अर्थ में अणादि और घादि प्रत्यय होते हैं यदि जानेवाला रास्ता या दूत हो । ११०२-'अभिनिष्क्रामति' अर्थ में अणादि और घादि प्रत्यय होते हैं यदि निकलने वाला द्वार हो। ११०३-'अधिकृत्य कृते' अर्थ में अणादि प्रत्यय होते हैं, ग्रन्थ यदि किया जाता हो। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ लघुासद्धान्तकौमुद्याम् शारीरकमधिकृत्य कृतो ग्रन्थः-शारीरकीयः' । ११०४ सोऽस्य 'निवासः ४ । ३ । ८६ । स्रघ्नो निवासोऽस्य-सौनः । ११०५ तन प्रोक्तम् ४ । ३ । १०१। पाणिनिना प्रोक्त-पाणिनीयम्" । ११०६ 'तस्येदम् ४ । ३ । १२० । उपगोरिदम्-औपगवम् । इति शोपिकाः। अथ प्राग्दीव्यतीयाः ११०७ तस्य 'विकारः ४ । ३ ॥१३४ । (अश्मनो विकारे टिलोपो वक्तव्यः ) अश्मनो विकारः-'आश्मः । 4°भास्मनः। 'मात्तिकः । १-छप्रत्ययः-छस्य 'ईय'। २-प्रथमान्तादस्य निवास इत्यर्थेऽणादयः प्रत्ययाः स्युरित्यर्थः । ३-प्रण। ४-तृतीयान्तात्प्रोक्तेऽर्थेऽरणादयो घादयश्च स्युरित्यर्थः सूत्रस्य । ५-छः प्रत्ययः। तस्य-'ईय' । ६-षष्ठयन्तादिमित्यर्थे ऽणादयो घादयश्चः प्रत्ययाः । स्युरिति सूत्रार्थः । ७-प्रण । इति शैषिकाः । ८-षष्टचन्ताद् विकारेऽथे प्राग्दीव्यतीया प्रणादयः प्रत्ययाः स्युरित्यर्थः। 8आश्मः-'प्रश्मनो विकारः' इति विग्रह 'प्रश्मन् ' शब्दात् 'तस्य विकारः' इत्यारण प्रश्मनो विकारे टिलोपो वक्तव्यः' इति टिलोपे, प्रादिवृद्धौ, विभक्तिकाये 'माश्मः इति रूपम् । ११-भस्मनो विकारः । 'अन्' इति प्रकृतिभावः ( न टिलोपः )। प्रण प्रत्ययः । ११-मृत्तिकाया विकारः प्रण , प्रादिवृद्धिः--'यस्येति च' इत्यालोपः। ११०४-प्रथमान्त से 'श्रस्य निवास' अर्थ में अणादि प्रत्यय होते हैं । ११०५--तृतीयान्त से 'प्रोक्तार्थ' में अणादि प्रत्यय होते हैं । ११०६--पाठ्यन्त से 'इदम्' अर्थ में अणादि प्रत्यय होते हैं । इति शैषिकाः । अथ प्राग्दीव्यतीयाः ११०७ -विकार अर्थ में अणादि प्रत्यय होते हैं। (वा० अश्मन् शब्द की टि का लोप होता है विकार अर्थ में) Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ तद्धिताः ११०८ अवचबे च 'प्राण्योषधि वृक्षेभ्यः ४ । ३। १३५ । चाद्विकारे । मयूरस्याऽवयवो विकारो वा मायरः । मौर्व-काण्डं भस्म वा। पैप्पलम् । ११०६ मयडवैतयोर्भाषायामभक्ष्याच्छादनयोः ४ । ३ । १४३ । प्रकृतिमात्रान् मयड् वा स्यात् विकारावयवयोः। अश्ममयम्, "आश्मनम् । अभक्ष्येत्यादि किम्-मौद्गः सूपः । कार्पासमाच्छादनम् । १११० नित्यं वृद्ध-शरादिभ्यः ४ । ३ । १४४ । 'आम्रमयम्। ११११ गोश्च पुरीष ४ । ३ । १४५ । गोः पुरीषं-गोमयम् । १-षष्ठ्यन्तेभ्यः प्राण्योषधिवृक्षवाचकशब्देभ्यः अवयवे विकारे चार्थेऽणादयः प्रत्ययाः स्युरित्यर्थः । २-मूर्वी पोषविभेदः, तस्या विकारः । काण्डम् = पर्व । ३-पिप्पल्याः विकारो भस्म वा । ४-भक्ष्याऽऽच्छादनभिन्नयोर्विकारावयवयोरित्यर्थः । ५-आश्मनम्-(अश्मा कश्चित पुरुषविशेषः न तु पाषाणः । अश्मनाविकारोऽवयवो वा इत्यर्थे 'अश्मन् शब्दात् 'मयडवैतयोाषायाम' इति प्राप्तस्य मयटोऽभावे 'तस्य विकारः' इत्यणि 'अन्' इति प्रकृतिभावेन टिलापाभावे चादिवृद्धौ प्रातिपदिकत्वे सौ सोरमि सिध्यति रूपम् 'पाश्मनम्' इति ( नन्वत्र 'पाश्मनो विकारे टिलोपो वक्तव्यः टिलोपः कथं नेति चेन्न, प्रसिद्धस्य पाषाणवाचकस्याश्मशब्दस्यैव तत्र ग्रहणात् ) । ६-वृद्धम् = 'वधिय॑स्याचामादिस्तद वृद्धम् । ७-आम्रस्य विकारोऽवयवो वा।८-गोमयम-'गोः पुरीषम्'-इत्यर्थे पुरोषार्थ षष्ठ्यन्ताद् 'गो' शब्दात् 'गोश्च पुरीषे' इति 'मयट्' प्रत्यये सुब्लुकि विभक्तिकार्ये सिध्यति रूपं 'गोमयम्' इति । ११०८-प्राणि-श्रोषधि और वृक्षवाचक शब्दो से अवयव और बिकार अर्थ में अशादि प्रत्यय होते हैं। ११०६-मयट प्रत्यय विकल्प से होता है विकार और अवयव अर्थ में । भक्ष्य और आच्छादन अर्थ को छोड़कर । १११०-शरादिगणपठित और वृद्धसंज्ञक शब्दों से नित्य मयट होता है विकार और अवयव अथों में। ११११-गोशब्द से 'पुरीष' अर्थ में मयट् प्रत्यय होता है । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् १११२ 'गोपसोर्यत् ४ । ३ । १६० । गव्यम् । पयस्यम् । इति प्राग्दीव्यतौयाः। अथ ठगधिकारः १११३ प्राग्वहतेष्टक ४ । ४ । १ । तद्वहतीत्यतः प्राक् ठगधिक्रियते । १११४ तन दीव्यति खनति जयति जितम् ४ । ४ । २ । अक्षैर्दीव्यति 'खनति जयति जितं वा-आक्षिकः । १११५ "संस्कृतम् ४ । ४ । ३ । दध्ना संस्कृतं "दाधिकम् । मारीचिकम् । १११६ तरति ४ । ४ । ५ । तेनेत्येव । उडुपेन तरति-८ौडुपिकः । १-विकारेऽर्थे । इति प्राग्दीव्यतीयाः । २-तृतीयान्तसमर्थात् 'दीव्यति खनति, जयति, जितम्' इत्येतेष्वर्थेषु ठक् स्यादिति सूत्रार्थः ३-पाक्षिकः-'अक्षर्दीव्यति' इति विग्रहे 'तेन दीव्यति....' इत्यादिना 'ठक' प्रत्यये कित्वाद् प्रादिवृद्धौ सुपो लुकि 'ठस्येकः' इति ठस्य कादेशेऽकारलोपे विभक्तिकायें 'प्राक्षिकः' इति रूपम् । ४-तृतीयान्तात्संस्कृतमित्यर्थे ठक् स्यात् इति सूत्रार्थः । ५ठक् । ६-मरीचिकाभिः संस्कृतं-मारीचिकम्, ठक् 'कति च' इत्यादिवृद्धिः । ७- तृतीयान्तात्तरतीत्यर्थे ठक् प्रत्ययः स्यादेत्यर्थः । ८-ठस्येकः प्रादिवृद्धिः । १११२-गो-पयस् शब्दों से विकार अर्थ में यत् प्रत्यय होता है । इति प्राग्दीव्यतीयाः अथ ठगधिकारः १११३-'तद्वहति' सूत्र से पूर्व ठक् प्रत्यय का अधिकार जाता है। १११४-तृतीयान्त शब्दों से ठक् प्रत्यय होता है 'दीव्यति' श्रादि अर्थों में | १११५-'संस्कृत' अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है । १११६-'तरति' अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धिताः १११७ चरति ४।४।८। तृतीयान्ताद् गच्छति भक्षयतीत्यर्थयोष्ठक स्यात् । हस्तिना 'चरति'हास्तिकः । दध्ना चरित दाधिकः । १११८ संसृष्ट ४ । ४ । २२ । दधना संसृष्ट-दाधिकम् । १११६ उञ्छति ४ । ४ । ३२ । बदराण्युञ्छति-बादरिकः। ११२० ६ रक्षति ४ । ४ । ३३ । समाज रक्षति-सामाजिकः । ११२१ शब्द-दर्दुरं करोति । ४ । ४ । ३४ । शब्दं करोति-शाब्दिकः । दुर्दुरं करोति दा? रिकः । ११२२ धर्म 'चरति ४ । ४ । ४१ । धर्म चरति-१°धार्मिकः । ( अधर्माच्चेति वक्तव्यम् ) आधर्मिकः । १-गच्छति-इत्यर्थः । २-'नस्तद्धिते' इति टिलोपः । -भक्षयतीत्यर्थः ( चर गतिभक्षणयोः)। ४-तृतीयान्तात्संसृष्टेऽर्थे ठक् स्यादित्यर्थः । ५-द्वितीयान्तात् उच्छति= (काश पादत्ते) इत्यर्थे ठक् स्यात् । ६-द्वितीयान्तात् रक्षतीत्यर्थे ठक स्यात् । ७सामाजिकः-'समाज रक्षति' इत्यर्थं द्वितीयान्तात् 'समाज' शब्दात् 'रक्षति' इति उकि सुब्लुकि, प्रादिवृद्धौ, ठस्येकादेशे ऽकारलोपे विभक्तिकार्थे सिध्यति रूपं 'सामाजिकः' इति । ८-द्वितीयान्तात् 'शब्च' शब्दात् 'ददुर'-शब्दाच करोत्यर्थे ठक् । ६-द्वितीयान्ताद् धर्मशब्दात् ठक् प्रत्ययः स्यादित्यर्थः । १०-धार्मिकः-धर्म' शब्दाद् द्वितीयान्तात चरतीत्यर्थे 'धर्म चरति' इत्पनेन ठकि सुब्लुकि चादिवृद्धौ ठस्येकादेशे ऽकारलोपे विभक्तिकार्य सिध्यति रूपं 'धार्मिकः' इति । १११७-'चरति अर्थ में टक्र प्रत्यय होता है । १११८-'संसृष्ट' अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है । १११६-'उञ्छति' अर्थ में टक् प्रत्यय होता है । ११२०-'रक्षति' अर्थ में ठक प्रत्यय होता है । ११२१-'शब्द' और 'दर्दुर' शब्द से ठक् प्रत्यय होता है 'करोति' अर्थ में । ११२२ 'धर्म' शब्द से 'चरति' अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्यान् ११२३ 'शिल्पम् ४ । ४ । ५५ । मृदङ्गवादनं शिल्पमस्य -मार्दङ्गिकः । ११२४ प्रहरणम् ४ । ४ । ५७ । तदस्येत्येव । असिः प्रहरणमस्य - आसिकः । धानुष्कः । ११२५ " शीलम् । ४ । ४ । ६१ । अपूपभक्षणं शीलमस्य आपूपिकः । ११२६ निकटे वसति ४ । ४ । ७३ । नैकटिको भिक्षुः । ३०२ sa गाधिकारः । अथ यदधिकारः ११२७ प्राग्घिताद्यत् ४ । ४ । ७५ । तस्मै हितमित्यतः प्राग् यदधिक्रियते । ११२८ तद्वहति रथ युग-प्रासङ्गम् १ । १ । ७६ । १ - प्रथमान्तादस्य शिल्पमित्यर्थे ठक् प्रत्ययः । २ - प्रथमान्तादस्य प्रहरणमित्यर्थं ठक् । ३ - प्रासिक: = खड्गायुत्रः । ४- धानुष्कः - 'धनुः प्रहारणमस्ये' ति विग्रहे प्रथमान्ताद् 'धनुष' शब्दात् ' प्रहरणम्' इति ठकि मुब्लुकि प्रादिवृद्धौ ' इसुमुक्तान्तात् कः' इति ठरय कादेशे विभक्तिकायें सिध्यति रूपं 'धानुष्केः' इति' । ५- प्रथमान्तादस्य शील मित्यर्थे ठक् प्रत्ययः स्यादित्यर्थेः । ६ - सप्तम्यन्तान्निकटशब्दात् वसतीत्यर्थे ठक् । ७- द्वितीयान्तेभ्यो रथयुगप्रासङ्गशब्देभ्यो वहतीर्थे यत् प्रत्ययः स्यात् । ( वा धर्म शब्द से 'चरति' अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है ।) - १९२३ - 'शिल्प' अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है । ११२४ - 'प्रहरण' अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है । ११२५ - 'शील' अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है । 1 1 ११२६ - 'निकटे वसति' ग्रंथ में टक् प्रत्यय होता है । इति ठगाधिकारः । श्रथ यदधिकारः ११२७ - 'तस्मै हितम्' से पूर्व यत् प्रत्यय का अधिकार होता है । ११२८-रथ-युगन्प्रासंग शब्दों से 'वहित' अर्थ में यत् प्रत्यय होता है । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . तमिताः रथं वहति-रथ्यः । युग्यः। प्रासजयः । ११२६ धुरो 'यडढको ४ । ४ । ७७ । हलि चेति दीर्घ प्राप्ते। ११३० न-भकुछ राम् ८।२। ७६ । भस्य कुर्छरोश्चोपधाया दी| न स्यात् । 'धुर्यः । धौरेयः । ११३१. नौ-बयो-धर्म-विष-मल-मूल-सीता - तुलाभ्यस्तार्य - तुल्यप्राप्य बध्याऽऽनाम्य सम-समित-सम्मितेषु ४ । ४ । ११ । नावा तार्य-"नाव्यम् । क्वसा तुल्यो-वयस्यः । धर्मेण प्राप्यं-धर्म्यम् । विषेण वध्यो-विष्यः मूलेन भानाम्य-मूल्यम् मूलेन समो-मूल्यः । सीतया समितं-सीत्यं क्षेत्रम् । तुलवा सम्मितं-तुल्यम् । ११३२ तत्र साधुः ४ । ४ । १८ । अग्रे साधुः-अग्रयः । सामसु साधुः सामन्यः। (१०२०) ये चाभावकर्मणोरिति प्रकृतिभावः । 'कर्मण्यः । 'शरण्यः । १-द्वितीयान्ताद् धुर' शब्दात् यत् प्रत्ययः ठक् प्रत्ययश्च स्यात् वहतीत्यर्थे । २-धुर्यः-'धुरं वहतीति' विग्रहे द्वितीयान्ताद् 'धुर्' शब्दाद् धुरो यड्ढकौ' इति 'यत' प्रत्यये सुपो लुकि 'हलिचे' ति दीर्घ प्राप्ते भत्वात् न भकुछ राम्' इत्यनेन तन्निषेधे विभक्तिकार्ये 'धुयंः' इति रूपं सिध्यति ( पक्षे ढकि 'धौरेयः' इति रूपम् ) । ३- ढस्य 'एय' कित्त्वादादिवृद्धिः । ४-नावादिभ्यः तार्यादिष्वर्थेषु यत् प्रत्ययः, इत्यर्थः । ५नाव्यम-'नावा तार्यम्' इत्यर्थे तृतीयान्तात् 'नौ' शब्दात 'नौ-वयो-धर्म....' इत्यादिना यति सुब्लुकि 'वान्तोयि प्रत्यये' इत्यनेन प्रौकारस्य प्रावादेशे विभक्तिकार्ये 'नाव्यम्' इति रूपम् ६-सप्तम्यन्तात्साधुरित्पर्थे यत्प्रत्ययः स्यादित्यर्थः । ७-कर्मणि साधुः, शरणे साधुः, यत् । ८-शरण्यः -'शरणे साधु' रित्यर्थे 'शरण' शब्दात् सप्तम्यन्तात् 'तत्र साधुः' इति यत्' प्रत्यये सुब्लुकि प्रकारलोपे विभक्तिकार्य सिध्यति रूपं 'शरण्यः' इति । ११२६-धुर शब्द से 'वहति' अर्थ में यत् प्रत्यय होता है । ११३०-भसंज्ञक कुर् छुर् की उपधा को दीर्घ नहीं होता । ११३१-नौ वयसादि शब्दों से यत् प्रत्यय होता है तार्य-तुल्यादि अथों में क्रम से । ११३२-साधु अर्थ में यत् प्रत्यय होता है । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ११३३ 'सभाया यः ४।४।१०५ । सभ्यः । इति यतोऽवधिः। अथ छयतोरधिकारः ११३४ प्राक क्रीताच्छः ५ । १ । १ । तेन क्रीतमित्यतः प्राक् छोऽधिक्रियते। ११३५ उ-गवादिभ्यो यत् ५। १ । २ । प्राककीतादित्येव । उवर्णान्ताद गवादिभ्यश्च यत् स्यात् । छस्यापवादः। शकवे हितं शङ्कव्यं =दारु । गव्यम् । ( नाभि नभं च) नभ्योऽक्षः, "नभ्यमञ्जनम् । ११२६ तस्मै 'हितम ५। १ । ५ । १-समाशब्दात्तु सप्तभ्यन्तात् साधुरित्यर्थं यः प्रत्ययः स्यान्नतु यत् इत्यर्थः । २-सभ्यः-~'सभायां साधु' रित्यर्थः 'सप्तम्यन्तात् 'सभा' शब्दात् 'सभाया यः' इति 'य' प्रत्यये सुब्लुकि 'यस्येति च' इत्याकारलोपे विभक्तिकायें सिध्यति रूपं 'सभ्यः ' इति । ३-'मोगुण' इति गुणे 'वान्तो यि प्रत्यये' इति 'अ'। ४-नाभिशब्दस्य यप्रत्यये नमादेशः स्यादित्यर्थः । ५-नभ्यम्-'नाभये हितम्' इत्यर्थे 'नाभि' शब्दात चतुयन्ताद् 'उ-गवादिभ्यो यत्, इत्यनेन यति 'नाभि नभं च' इति वार्तिकेन नभादेशे 'यस्येति च' इत्यकारलोपे विभक्तिकायें रूपं 'नभ्यम्'। ६-चतुर्थ्यन्तात् हितमित्यर्थे छप्रत्ययः। ११३३-सभा शब्द से 'य' प्रत्यय होता है साधु अर्थ में। इति यदधिकारः । प्रथ छयतोरधिकारः ११३४-'तेन क्रीतम्' से पूर्व छ का अधिकार जाता है । ११३५-उवर्णान्त और गवादिगणपठित शब्दों से यत् प्रत्यय होता है हित अर्थ में। (बा.-नाभि शन्द के स्थान में नम आदेश होता है यत् प्रत्यय परे रहते )। ११३६-हित अर्थ में छ प्रत्यय होता है । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० तद्धिताः वत्सेभ्यो हितो- 'वत्सीयो-गोधुक् । ११३७ शरीरावयवाद् यत् ५ । १ । ६ । उदन्त्यम् । कण्ठ्यम् । "नस्यम् । ११३८ आत्मन्-विश्वजन- भोगोत्तरपदात् खः ५ । १ ।। ११३६ आत्माध्वानो खे ६।४ । १६६ । एतौ खे प्रकृत्या स्तः । आत्मने हितम्-आत्मनीनम् । 'विश्वजनीनम् । 'मातृभोगीणः । इति यतोः पूर्णोऽवधिः। अथ ठअधिकारः ११४० प्राग्वतेष्टा ५। १ । १८ । तेन तुल्यमिति वति वक्ष्यति, ततः प्राक् ठअधिक्रियते । ११४१ तेन ' क्रीतम् ५। १ । ३७ । -छस्य 'ईय' गोधुक = गवां दोग्धा। २-चतुर्थ्यन्तात् शरीरावयववाचकात् शब्दात् यत् प्रत्ययः स्यादित्यर्थः । ३-दन्तेम्यो हितम् , यत् । ४-नासिकायै हितम्, नस् भावः । ५-चतुर्थ्यन्तेभ्य प्रात्मन्-विश्वजन-भोगोत्तर-(मातृभोगादिक) शब्देभ्यो हितमित्यर्थे खप्रत्ययः । ६-तेन न टिलोपः । ७-खस्य 'ईन्' : ८-विश्वजनीनम्-'विश्व-जनाय हितमि यर्थे चतुर्थ्यन्ताद् 'विश्वजन' शब्दाद् 'पात्मन् विश्वजन....' इत्यादिना 'ख' प्रत्यये खस्य ईनादेशे सुब्लुकि प्रकारलोपे विभक्तिकायें सिध्यति रूपं 'विश्वजनीनम्' इति । ६-मातुर्भोगः = शरीरं तस्मै हित इति विग्रहः। 'कुमति च' इति णत्वम् । एवं पितृ. भोगीणः । १०-तृतीयान्तात्त्रोतेऽणे ठत्र स्यात् । ११३७-शरीरावयववाचक शब्दों से हित अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। ११३८-आत्मन्-विश्वजन शब्द से और भोग हैं उत्तरपद जिनके, उनसे हित अर्भ में ख-प्रत्यय होता है । ११३६-आत्मन् और अध्वन् शब्द को प्रकृतिभाव होता है यत् प्रत्यय परे रहते। प्रय ठनधिकारः ११४०-'तेन तुल्यम्' से पूर्व ठञ प्रत्यय का अधिकार जाता है। ११४१-तृतीयान्त से क्रीत अर्थ में ठन् प्रत्यय होता है। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् सप्तत्या क्रीतं - साप्ततिकम् । 'प्रास्थिकम् । ११४२ तस्येश्वरः ५ । १ । ४२ । * सर्वभूमि- पृथिवीभ्यामणौ स्तः । ११४३ अनुशतिकादीनां च ७ । ३ । २० । एषामुभयपदवृद्धिर्जिति णिति किति च तद्धिते । सर्वभूमेरीश्वरःसार्वभौमः । पार्थिवः ।. ११४४ " पङ्क्ति-विंशति-त्रिंशच्चत्वारिंशत् - पञ्चाशत् - पष्टि - सप्तत्य-शोतिनवति -शतम् ५ । १ । ५६ । " एते रूढिशब्दा निपात्यन्ते । ११४५ तदहति ५ । १ । ६३ । ३०६ लब्धुं योग्यो भवतीत्यर्थे द्वितीयान्ताट्ठञादयः स्युः । श्वेतच्छत्रमर्हति श्वैतच्छत्रिकः । १९४६ दण्डादिभ्यो यत् ५ । १ । ६६ । एभ्यो यत् स्यात् । दण्डमर्हति - ' दण्ड्यः । श्रर्भ्यः । वध्यः । 9 १- प्रस्थेन क्रीतम् । २ - षष्ठ्यन्ताभ्यामीश्वर इत्यर्थे इति शेषः । ३ - सार्वभौमः - 'सर्वभूमेरीश्वरः' इत्यर्थे 'सर्वभूमि' शब्दात् 'सर्वभूमि- पृथिवीभ्यामणत्र' इत्यनेन श्रणि अनुशतिकादित्वादुभयपदवृद्धौ 'यस्येति च' इतीकारलोपे विभक्तिकार्ये सिध्यति रूपं 'सार्वभौम:' इति । ४ - पृथिव्या ईश्वर:= स्वामी । ५ - पङ्क्तिः = दश = १० । विंशतिः = २० । त्रिंशत् = ३० । चत्वारिंशत् = ४० । पञ्चाशत् = ५० । षष्टिः = ६० | सप्ततिः | श्रशीतिः==० । नवतिः = ६० । शतम् = १०० । ६-ठञ्, आदिवृद्धिः, ठस्येकः । ७- द्वितीयान्तेभ्यो दण्डादिभ्योऽहंत्यर्थे यत् स्यात् । ८- 'यस्येति च' इति 'प्र' लोपः । एवं अर्धमर्हतीति बधमर्हतीति विग्रहौ । 06 = १९४२ - सवभूमि और पृथिवी शब्द ने ईश्वर अर्थ में ठञ प्रत्यय होता है । ११४३ - श्रनुशतिकादियों में उभयपद वृद्धि होती हैं । १९४४ पक्ति विंशति आदि निपातन से सिद्ध होते हैं । ११४५ - 'मधु' योग्यो भवति' इस अर्थ में द्वितीयान्त से उञ् प्रत्यय होता है । ११४६ - दण्डादिगणपटित शब्दों से यत् प्रत्यय होता है । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धिताः ३०७ ११३७ तेन निवृत्तम् ५ । १ । ७६ । अदा 'निर्वृत्तम् 'आह्निकम् । इति ठोऽवधिः । अथ त्वतलधिकारः ११४८ तेन तुल्यं क्रिया चेद्वतिः ५ । १ । ११५ । ब्राह्मणेन तुल्यं ब्राह्मणवद् अधीते । क्रिया चेदिति किम्-गुणतुल्ये मा भूत्, पुत्रेण तुल्यः स्थूलः । ११४६ तत्र तस्येव ५ । १ । ११६ । मथुरायामिव-मथुरावत् सध्ने प्राकारः। चैत्रस्येव-चैत्रवन्मैत्रस्य गावः । ११५० तस्य "भावस्त्व-तलौ ५ । १ । ११६ । प्रकृतिजन्यबोधे प्रकारो भावः गोर्भावो-गोत्वम्, गोता। *त्वान्तं पलीबम् । ११५१ आ च त्वात् ५ ।।१।१२० । १-तृतीयान्तानिवृत्तमित्यर्थे ठञ् स्यात् । २-आह्निकम्-मह्ना निवृत्तमित्यर्थे 'महन् शब्दात् तृतीयान्तात् 'तेन निवृत्तम्' इति ठत्र ' प्रत्यये प्रादिवृद्धौ भसंज्ञायाम् 'अहष्ठखोरेवे' तिनियमात् 'नस्तद्धिते' इति टिलोपाभावे 'अ लोपोऽनः' इत्यकारलोपे विभक्तिकायें सिध्यति रूपम् ‘पाह्निकम्" इति । ३-तृतीयान्तात्तुल्येऽणे प्रतिप्रत्ययः स्यात् यत्तुल्यं तरिक्रया चेत् । ५-सप्तभ्यन्तात् षष्टचन्ताच इवाणे 'वति' प्रत्ययः स्यात् । ५-षष्ठ्यन्ताद् भाव इत्यर्थे त्वप्रत्ययः, तत्प्रत्ययश्व स्यात् । ६-त्वतलप्रकृतिभूतगवादिशब्देभ्यो जायमाने गोव्यक्त्यादिबोधे प्रकारो विशेषणं भावः, इत्यर्थः । .-तलप्रत्ययान्तं स्त्रियामित्यपि बोध्यम । ११४७ 'निर्वृत्ति' अर्थ में तृतीयान्त से यत् प्रत्यय होता है। इति ठअधिकारः । प्रर्थ त्वतलधिकारः ११४- तुल्यार्थ में वति प्रत्यय होता है तुल्य यदि क्रिया हो। ११४६-सप्तम्यन्त और षष्ठ्यन्त से इव अर्थ में वति प्रत्यय होता है। ११५०-भाव अर्थ में त्व और तल् प्रत्यय होते हैं । प्रकृतिजन्य बोध में प्रकार को भाव करते हैं। ११५१ 'पसल्व' से पूर्व व तल का अधिकार बाता है। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् 'ब्रह्मणस्त्व' इत्यतः प्राक् त्वतलावधिक्रियते । 'अपवादैः सह समा वेशार्थमिदम् । चकारो नम्-स्नभ्यामपि समावेशार्थः । स्त्रियाः भावःरणम्, स्त्रीत्वम् । स्त्रीता । पोस्नम्, पुंस्त्वम्, पुंस्ता । ११५२ पृथ्वादिभ्य "इमनिज वा ५। १ । १२२ । वा-वचनमणादिसमावेशार्थम् । ११५३ र ऋतो हलादेलेघोः ६ । ४ । १६१ । हलादेर्लघोकारस्य रः स्यात् इष्ठेमेयस्सु परतः । ११५४ टेः ६ । ४ । १५५ । भस्य टेलोप इष्टमेयस्सु । (पृथु-मृदु-भृश कृश-दृढ-परिवृढानामेव रत्वम्)। पृथोर्भावः 'प्रथिमा, पार्थवम् । म्रदिमा, मार्दवम् । ११५५ "वणंढादिभ्यः ष्यत्र च ५। १ । १२३ । चादिमनिन्। 'शौक्ल्यं, शुक्लिमा । दाढ्य, ढिमा । १-इमनिजादिभिः, इत्यर्थः । २-अनुवृत्त्यैव सिद्ध, इनिजादिभिरपवादैरस्य बाधो मा भूदिरयेवमर्थमधिकारसूत्रम् । तथा च 'प्रथिमा' शब्देन सह, 'पृथुत्वम्' 'पृथुता' इत्येतयोरपि सिदिः । ३-अत्र नम् । ४-स्नन । 'स्त्रीपु साभ्या न स्नो' । ५षष्ट्यन्तेभ्यः पृथ्वादिभ्यो भावेऽर्ष-इनिच-प्रत्ययो वा । ( इमनिजन्ताः पुस )। ६-प्रणादयोऽपि भवन्तीत्यर्थः। ७-इहम-ईयस् (सु) इति खेदः । ८-प्रथिमा'पृथु' शब्दाद् भावेऽथें 'पृथ्वादिभ्य-इमनिज् वा' इति 'इमनिच' प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे सुब्लुकि 'पृथु इमन्' इति स्थितौ 'रऋतो हलादेर्लघौ' इति ऋकारस्य रेफादेशे भत्वे गुण बाधित्वा.':' इति टिलोपे प्रातिपदिकत्वेन सौ विभक्तिकायें सिध्यति रूपं 'प्रविमा' इति । ६-इगन्ताच लघुपूवति, इति सूत्रेण-अरण पोर्गुणः। १०-षष्ठ्यन्तेभ्यो वर्णवाच. केभ्यो दृढादिभ्यश्च व्यञ् प्रत्ययः स्यादित्यर्थः । ११-शौक्त्यम्-'शुक्ल' शब्दाद् भावेऽर्षे 'वर्णदृढादिभ्यः ष्या च' चत्यनेन 'अञ्' प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे प्रादिवृढौ 'यस्येति च' इत्यकारलोपे विभक्तिकार्य 'शौकल्यम्' इति (व्यञभावपक्षे इमनिचि 'शुक्लिमा' इति रुपम् । १९५२ पृथ्वादिगणपठित शब्दों से भाव में इमनिच् प्रत्यय होता है विकल्प से । १९५३-हलादि लवु ऋकार को रभाव होता है इष्ठ, इम, ईयस् परे रहते । ११५४--प्रसंज्ञक टि का लोप होता है इष्ठन्, इमन् , ईयसुन् परे रहते । ११५५-वर्गावाचक और दृदादिगणपठित शब्दों से ज्यञ् होता है भाव अर्थ में। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धिताः ३०६ ११५६ गुणवचन-'ब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च ५। १ । १२४ ।। चाद्भावे । जडस्य भावः कर्म वा जाड्यम् । मूढस्य भावः कर्म वा मौढ्यम् । ब्राह्मण्यम् । प्राकृतिगणोऽयम् । ११५७ सख्युयः ५। १ । १२६ । सख्युर्भावः कर्म वा सख्यम् । ११५८ कपि-ज्ञात्योर्डक ५ । १ । १२७ । कापेयम् । झातेयम् । ११५६ "पत्यन्त-पुरोहितादिभ्यो यक ५। १ । १२८ । सैनापत्यम् । पौरोहित्यम् । इति त्वतलधिकारः। अथ भवनार्थकाः ११४० धान्यानां भवने क्षेत्र खा ५ । २।१। भवत्यस्मिन्निति भवनम् । मुद्गानां भवनं क्षेत्रं 'मौद्गीनम् । १-षष्ट्यन्तेभ्यो गुणवाचकेभ्यो ब्राह्मणादिभ्यश्च कमणि भावे चार्थे व्यञ् स्यात् '२-ब्राह्मण्यम्-ब्राह्मणस्य भावः कर्म वा इत्यर्थे 'गुणवचन...' इत्यादिना यति अनुबन्धलोपे प्रादिवृद्धौ प्रकारलोपे विभक्तिकार्य सिध्यति रूपं 'ब्राह्मण्यम्' इति । ३-षष्ठ्यन्ताद् सखिशब्दात् भावे कर्मणि चाथै य-प्रत्ययः । ४-षष्ठ्यन्ताभ्यां कपिज्ञातिशब्दाभ्यां भावे कर्मणि च ढक, कित्वादादिवृद्धिः । ५-षष्ट्यन्तेभ्यः पत्यन्तशब्देभ्यः पुरोहितादिभ्यश्च यक स्याद् भावे कर्मणि चार्थे । -पौरोहित्यम्'पुरोहित' शब्दाद् भावे कमरिण वा 'पत्यन्त-पुरोहितादिभ्यो यक्' इति प्रत्ययेऽनुवन्धलोपे पादिवृद्धौ प्रकारलोपे विभक्तिकार्य सिध्यति 'पौरोहित्यम्' इति । इति त्वतलधिकारः। ५-षष्ठ्यन्ताद् धान्यवाक्काद् शब्दाद् भवनं क्षेत्रमित्यर्थे सञ् स्यात् । ८-खस्य 'ईन्' ११५६-गुणवाचक और ब्राह्मणादिगणपठितोंसे ष्य होता कर्म और भाव अर्थमें ११५७-सखि-शब्द से य होता है कर्म और भाव अर्थ में। . ११५८-कपि और जाति शब्द से ढक् होता है भाव और कर्म अर्थ में। .. ११५६-पत्यन्त और पुरोहिवादिगणपठित शब्दों से यक प्रत्यय होता है भाव और कर्म अर्थ में । इति त्वतलधिकारः। अथ भवनाद्यर्थकाः. ११६०-धान्यवाचक शन्दों से 'भवनं क्षेत्र' अर्थ में खञ् प्रत्यय होता है। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ११६१ 'व्रीहिशाल्योर्डक ५। २ । २ । 'हेयम् । शालेयम्। ११६२ हैयङ्गवी संज्ञायाम् ५। २ । २३ । ह्योगोदोहशब्दस्य हियगुरादेशः, विकारेऽर्थे खञ् च निपात्यते। दुह्यत इति दोहः = क्षीरम । ह्योगोदोहस्य विकारः-हैयङ्गवीनम् नवनीतम्। ११६३ तदस्य सञ्जातं तारकादिभ्य इतच ५ । २ । ३६। तारकाः साता अस्य तारकितं-नभः । पण्डितः । प्राकृतिगणोऽयम् । ११६४ प्रमाणे द्वयसज्-दध्नत्र - मात्रचः ५ । २ । ३७ । तदस्येत्यनुवर्तते । उरू प्रमावस्य-ऊरुद्वयसम् । ऊरुदघ्नम् । ऊरुमात्रम्। ११६५ यत्तदेतेभ्यः परिमाणे क्तुप ५ । २ । ३8 । यत् परिमाणमस्य'-यावान् । तावान् । एतावान् । १-षड्यन्ताभ्यां वीहिशालिशब्दाभ्यां भवनं क्षेत्रमित्यर्थे उक् । खोऽपवादोऽयम् । ब्रोहीणां भवनं क्षेत्रम्, शालीनां भवन क्षेत्रम् । ३-हैयङ्गवीनम-द्योगोदोहस्य विकारः 'हैयङ्गवीनम्' इति । 'हैयङ्गवीनं संज्ञायाम्' इति 'ख'-प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे 'ह्योगादोह' शब्दस्य 'हियागु-' आदेशे बित्वादादिवृद्धौ ‘मोर्गुणः' इति गुणेवाऽदेशे खस्य ईनादेशे प्रातिपदिकत्वेन विभक्ति कार्ये सिध्यति रूपं 'हैवङ्गवीनम्' इति । -प्रथमान्तेभ्यः तारकादिगणपठितेभ्यो शब्देभ्योऽस्य सनातमित्यर्थे 'इतच' स्यात् । ५-सदसद्विवेकिनी बुद्धिः=पण्डा, सा सजाता मस्येति पण्डितः । ६-प्रथमान्तादस्य प्रमाणमित्यर्थे द्वयसच्, दनच, मात्रच् इति त्रयः प्रत्ययः स्युः । ७प्रथमान्तेभ्यो यत्तदेतेभ्योऽस्य परिमाणमित्यर्थे वतुप स्यात् । ८-यावान्-यत् परिमारणमस्येति विग्रहे 'यत्तदेतेभ्यः परिमाणे वतुप' इति 'वतुप' प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे 'यत् वत्' इति स्थितौ 'मा सर्वनाम्नः' इति सकारस्य पात्वे सवबंदीमें प्रातिपदिकत्वेन सौ नुमि १९६१-व्रीहि और शालि शब्दों से 'भवनं क्षेः' अर्थ में ढक प्रत्यय होता है। ११६२-'है यङ्गवीनम्' इस शब्द का संज्ञा में विपातन झेवा है। १९६३ तारकादिगणपठित शब्दों से 'अस्य सल्बातम' अर्थ में इवच प्रलय होता है। ११६४-'अस्य प्रमाणम्' अर्थ में द्वयसञ् दध्नन् और मात्र प्रत्यय होते हैं। ११६५-यत्, तत्, एतद् शब्दों से परिमाण अर्थ में बतुप् प्रत्यय होता है। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धिताः ११६६ किमिदभ्यां वो घः ५ । २ । ४० । श्रभ्यां वतुप्, वकारस्य 'घश्च । ११६७ इद किमोरींश्-की ६ । ३ । ६० । दृग्दृश्वतुषु इदम ईश्, किमः की स्यात् । ११६८ संख्याया अवयवे तयप् ५ । २ । ४२ । इयान् । 3 कियान् । पञ्च श्रवयवा अस्य - पञ्चतयम् । १९६६ द्वित्रिभ्यां तयस्यायज् वा ५ । २ । ४३ । इयम्, द्वितयम् । त्रयम्, त्रितयम् । ११७० उभादुदात्तो नित्यम् | ५ | २ | ४४ | उभशब्दात्तयपोऽयच् स्यात् स चाद्युदात्तः । १९७१ तस्य पूरणे डट् ५ | २ | ४८ | · ३११ 'हल्ङ्याब्भ्यः इत्यादिना सुलोपे सयोगान्तस्य लोपे नान्तस्योपधायाः दीर्घे 'यावान्' इति रूपम् । १ - घस्य 'इयू' । २ - इयान् -' इदम् ' शब्दात् परिमाणेऽथें 'किमिदंभ्यां वो घः' 'वतुप्' प्रत्यये वतुपो वस्य घादेशे चानुबन्धलोपे 'इदं किमोरीश की ' इति इदमः इवादेशे 'इघत्' इति स्थितौ घस्य इयादेशे भसंज्ञाया 'यस्येति चे' ति इकारलोनें प्रातिपदिकत्वेन सौ उगित्वान्नुमि सुलोपे संयोगान्तलोपे चोपधादीर्घे 'इयान् ' इति । ३- 'यस्येति च' इति 'की' इत्यस्य 'ई' लोपः । प्रथमान्तात्सङ्ख्यावाचकाद् श्रवयवा प्रस्येत्यथें 'तयप् स्यात् । ४- षष्ठ्यन्तात्सङ्ख्यावाचकात्पूरणेऽयें डट् स्यात् । डित्वात् टिलोपः । ११६६-किम्-इदम् शब्द से वतुप् प्रत्यय होता है और व को घ होता है । ११६७ - इदम् को ईश् और किम् को की श्रादेश होता है दृग्, दृश, वत् परे रहते । ११६८-संख्यावाचक शब्दों से 'अवयवाः अस्य' अर्थ में तयप् प्रत्यय होता है । ११६९-द्वि-त्रि शब्द से विहित तयप् प्रत्यय को प्रयच् श्रादेश होता है विकल्प से । ११७० - उभशब्द से विहित तयप् प्रत्यय को प्रयच् श्रादेश होता है, वह उदात्त होता है । ११७१ - पूरण अर्थ में डट् प्रत्यय होता है । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् एकादशानां पूरणः-एकादशः । ११७२ नान्तादसंख्यादेमंट ५। २ । ४६ । डटो मडागमः । पञ्चानां पूरण-पञ्चमः' । नान्तात्किम्११७३ ति विशतेर्डिति ६ । ४ । १४२ । विंशतेर्भस्य तिशब्दस्य लोपो डिति परे । २विंशः। असंख्यादेः किम्एकादशः। ११७४ षट-कति-कतिपय-चतुरां थुक ५। २ । ५१ । एषां थुगागमः स्याड्डटि । षण्णां पूरणः-षष्ठः । कतिथः । कतिपयशब्दस्यासंख्यात्वेऽप्यत एव शापकात् डट् । कतिपयथः। "चतुर्थः । ११७५ द्वस्तीयः ५। २ । ५४ । डटोऽऽपवादः । द्वयोः पूरणो-द्वितीयः। ११७६ त्रः सम्प्रसारणं च ५। २ । ५५ । तृतीयः। ११७७ श्रोत्रियश्छन्दोऽधीत ५ । २ । ८४ । १-डटो मडागमे, 'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य' इति नलोपः । २-विंशः-विशति' शब्दात् पूरणेऽथे 'तस्य पूरणे डट्' इति 'डट्' प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे 'ति विशतेर्डिति' इति तिलोपे 'विंश अ' इति स्थितौ 'मतो गुणे' इति पररूपे विभक्तिकार्य सिध्यति "विश' इति रूपम् । (ननु 'यस्येति च' इत्यकारलोपः स्यादिति चेन्नः ‘प्रसिद्धवदत्राभात्' इति तिलोपस्यासिद्धत्वात्) । स्त्रियां टित्त्वात् ङोप 'विंशी'। ३-नात्र डटो मट (भागमः) । ४-ष्टुना ष्टुः, इति ष्टुत्वम् । ५-चतुर्णा पूरणः = चतुर्थः । ६-'छन्दोऽधीते' इत्यर्थे ११७२-नान्त संख्यावाची शब्द से डट् को मट का आगम होता है संख्यादि शब्द को छोड़कर। ११७३-भसंज्ञक विंशति शब्द के 'ति' का लोप होता है डित् परे रहते । ११७४-षट्-कति-कतिपय चतुर शन्दों को थुक् का आगम होता है डट् परे ११७५-द्विशब्द से पूरणार्य में तीय प्रत्यय होता है। ११६-त्रिशब्द से तीय प्रत्यय होता है पूरण अर्थ में त्रि को सम्प्रसारण भी। ११७७-'छन्दोऽधीते' अर्थ में श्रोत्रिय निपातन होता है। रहते। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वद्विताः ३२३ श्रोत्रियः । वेत्यनुवृत्तेश्छान्दसः'। ११७८ पूर्वादिनिः ५ । २ । ८६ । पूर्व कृतमनेन पूर्वी। ११७६ सपूर्वाच्च ५। २ । ८७ । कृतपूर्वी। ११८० "इष्टादिभ्यश्च ५ । २ । ८८ । इष्टमनेन इष्टी । अधीती। इति भावनाधर्थकाः। अथ मत्वर्थीयाः ११८१ तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुप ५। २।६४ । गावोऽस्यास्मिन् वा सन्ति-गोमान् । 'भोत्रियः' इति निपारयते इत्यर्थः । 'छन्दः' शब्दाद् 'घन्' प्रत्ययः, छन्दः शब्दस्य भ्रोत्रादेशश्चेति भावः । धस्य-इय् । १-पक्षे छन्दःशब्दाद् प्रण छान्दसः । २-द्वितीयान्तात् पूर्वशब्दात्कृतमनेन इत्यर्थे 'इनि' प्रत्ययः। ३-ऐतत्सूत्रार्थश्वायं विद्यमानपूर्वाच्च पूर्वशब्दात् 'अनेन' इत्यणे 'इनिः' स्यात् । ४-कृतपूर्वी-कृतं पूर्वमनेतेति विग्रहे समासे सति कृतपूर्व' शब्दात् 'सपूर्वाञ्च' इति इनि प्रत्यये भत्वेऽकारखोपे प्रातिपदिकत्वेन सौ 'सौ च' इस्युपधादोर्जे सुलोपे नलोपे च सिध्यति रूपं 'कृतपूर्वो' इति । ५-प्रथमान्तेभ्य इष्टादिशब्देश्य 'मनेन' इत्यर्थे इनि-प्रत्ययः। इति भवनाचर्थकाः। ६-प्रथमान्तादस्यास्तीत्यर्थेऽस्मिन्नस्ति इत्यर्थं च मतुप स्यादित्यर्थः। ११७८-पूर्व शब्द से इनि प्रत्यय होता है। ११७६-सपूर्व पूर्व शब्द से इनि प्रत्यय होता है। ११८०-इष्टादि शब्दों से इनि प्रत्यय होता है 'अनेन' अर्थ में । इति भवनाद्यकाः। इति भवनाथर्थकाः । ११८१--अस्यास्ति और अस्मिन्नस्ति श्रों में मतुप् प्रत्यय होता है। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ११८२ तसो मत्वर्थे १ । ४ । १६ । तान्त-सान्तौ भसंज्ञौ स्तो मत्वर्थे प्रत्यये परे । 'गरुत्मान् ( ३५३) वसोः संप्रसारणम् । विदुष्मान् । (गुणवचनेभ्यो मतुपो लुगिष्टः ) शुक्लो गुणोऽस्यास्तीति-शुक्लः पटः । कृष्णः । ११८३ प्राणिस्थादातो लजन्यतरस्याम् ५। २ । ६६ । चूडालः । 'चूडावान् । प्राणिस्थात्किम् -शिखावान्-दीपः । प्राण्यङ्गादेव, नेह-'मेधावान् । ११८४ लोमादि-पामादि-पिच्छादिभ्यः शनेलचः ५। २ । १०० । लोमादिभ्यः शः लोमशः = लोमवान् । रोमशः = रोमवान् । पामादिभ्यो नः। पामनः। (अङ्गात् कल्याणे)। 'अङ्गना ( लक्ष्म्या अच्च )। ''लक्ष्मणः पिच्छादिभ्य इलच । पिच्छिलः = पिच्छवान् ।। १-भत्वात् पदत्वाऽभावेन 'प्रत्यये भाषायाम्' इति अनुनासिको न भवति। २-विद्वानस्त्यस्मिन्निति विदुष्मान्-वंशः । ३-प्रथमान्तात् प्राणिस्थाङ्गवाचकादाकारान्ताच्छब्दान्मतुभ्यलच् स्यादित्यर्थः । ४-चूड़ावान्-चूडा अस्यास्तीति विग्रहे 'चूडा' शब्दात् 'प्राणिस्थादातो....' इत्यादिना वा 'लच्' प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे प्रातिपदिकत्वेन विभक्ति कार्य सिध्यति रूपं 'चूडालः' इति (पक्षे मतुपि 'चूडावान्' इति रूपं सिध्यति । ५-नात्र प्राणिस्था शिखा। 4-मेधा = बुद्धिः, अमूर्तत्वात नाऽङ्गम् । ७-लोमादिभ्यः शः, पामादिभ्यो न:, पिच्छादिभ्य इलच् स्यान्मतुबर्थ इति सूत्रार्थः । ८-कल्याणान्यङ्गानि यस्या इति विग्रहः । टाप स्त्रियाम् । ६-लक्ष्मीशब्दान् मत्वर्थे 'न' प्रत्ययः, प्रकारोऽन्तादेशश्च । १०--लक्ष्मीरस्यास्तीति लक्ष्मणः । ११८२-ता त सान्त की भसंज्ञा होती है मत्वर्थ प्रत्यय परे रहते। (वा०-गुणवाचक से विहित मतुप प्रत्यय का लुक होता है)। ११८२-प्राण्यङ्गवाचक बाकारान्त शब्दों से लच होता है विकल्प से अस्त्यादि अर्थ में। ११८ -सोमादिगणपठित शब्दों से श, पामादियों से न, और पिच्छादियों से इलच् प्रत्यय होता है। (वा० (१) अङ्ग शब्द से कल्याण अर्थ में न प्रत्यय होता है। (२) लक्ष्मा शब्द को श्राकारान्तादेश होता है और न प्रत्यय भी।) Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धिताः ३१५ ११८५ दन्त 'उन्नत उरच ५। २ । १०६। उन्नता दन्ताः सन्त्यस्य-दन्तुरः। ११८६ केशाद्वोऽन्यतरस्याम् ५। २ । १०६ । केशवः, केशी, केशिकः, केशवान् । (अन्येभ्योऽपि दृश्यते) मणिवः (अर्णसो लोपश्च ) "अर्णवः । ११८७ 'अत इनि-ठनो ५ । २ । ११५ । 'दण्डी, दण्डिकः। ११८८ ब्रीह्यादिभ्यश्च ५ । २ । ११६ । बीही, बीहिकः। ११८६ ' अस-माया-मेधा-स्रजो विनि: ५। २ । १२१ । यशस्वी, १२यशस्वान् । मायावी । 'मेधावी । स्नग्वी। १-प्रथमान्ताद् दन्तशब्दात् मतुबर्थे उरच स्यादन्ताश्चेदुश्नताः स्युः । २-प्रथमान्ताकेशशब्दाद् मतुबथें 'व' प्रत्ययो वा । अन्यतरस्यामित्यनुवृत्तावपि-पुनरन्यतरस्यां ग्रहणम इनिठनावपि स्यातामित्येतदर्थम् । ३-पक्षे इनिः। ४-ठन् । ५-मतुप । ६-'प्रणंस' इत्यस्यान्तलोपो अप्रत्ययश्चेत्यर्थः । ६-प्रों = जलम् । अर्णवः = समुद्रः प्रसि सन्त्यत्रेति विग्रहः । ८-प्रथमान्ताददन्तान्मत्वर्थे इनिठतो स्यातामित्यर्थः । ६-दण्डी -दण्डोऽस्यास्ति इत्यर्थे 'दण्ड' शब्दात् 'प्रत इनि-ठनौ' इति इनि प्रत्ययेऽनु. बन्धलोपे 'यस्येति च' इत्यकारलोपे प्रातिपदिकत्वेन विभक्तिकार्ये 'दण्डी' इति रूपं सिध्यति ( पक्षे 'ठन्' प्रत्यये ठस्येकादेशेऽल्लोपे सिध्यति रूपं 'दण्डिकः' इति )। १०-इनिठनौ स्तः। ११-अस् = असन्तात् माया-मेधा-स्रज-शब्देभ्यश्च विनिः स्यादित्यर्थः । १२अन्यतरस्यामित्यनुवृत्तेः पक्षे मतुप. 'तसौ मत्वर्थे' इति भत्वात् पदत्वाऽभावेन रुत्वं न । १३-मेधावी-धीर्धारणावतो मेधा' । साऽस्यास्तीति विग्रहे 'मेघा' शब्दाद 'प्रस् ११८५- दन्त शब्द से उरच प्रत्यय होता है उन्नत अर्थ में । ११८६-केश शब्द से क प्रत्यय होता है विकल्प से मत्वर्थ में । (वा०-(१) केश भिन्न से भी व प्रत्यय होता है। (२) अर्णस् से व प्रत्यय होता है, और अन्य वर्ण का लोप होता है।) १९८७-अदन्त शब्द से इनि प्रत्यय होता है और ठन् प्रत्यय भी प्रत्यय में । ११८८-व्रोह्यादिगणपठित शब्दों से इन् और ठन् प्रत्यय होते हैं मत्वर्थ में । ११८६-असन्त और माया मेधा स्रज् शब्दों से विनि प्रत्यय होता है मत्वर्थ में । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ११६० वाचो ग्मिनिः ५ । २ । १२४ । 'वाग्मी । १९६१ अर्श आदिभ्योऽच ५ । २ । १२७ । M अर्शोऽस्य विद्यते - अर्शसः । आकृतिगणोऽयम् । १९६२ - शुभमोस ५ । २ । १४० । 3 अहं युरहंकारवान् । शुभंयुः शुभान्वितः । इति मत्वर्थीयाः । अथ प्राग्दिशीयाः १९६३ प्राग्दिशो विभक्तिः ५ । ३ । १ । दिक्शब्देभ्यः इत्यतः प्राग्वक्ष्यमाणाः प्रत्यया विभक्तिसंज्ञाः स्युः । १९६४ कि सर्वनाम - बहुभ्योऽद्वयादिभ्यः ५। ३ । २ । किमः सर्वनाम्नो बहुशब्दाच्चेति प्राग्दिशोऽधिक्रियते । माया - मेघा...' इत्यादिना विनि प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे प्रातिपदिकत्वेन विभक्तिकार्ये 'मेधावी' इति रूमं सिध्यति । १- वाचः सन्त्यस्येति विग्रहः चोः कुरिति कुत्वम् । २ - प्रशंः = 'बवासीर ' इति प्रसिद्धो रोगः । ३ - अहंयुः - श्रहमित्यहंकारे रूढमध्ययम् । तस्मादस्त्यर्थे 'श्रहं शुभमोस्' इति युसि प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे 'सिति चे' ति पदत्वान् मस्मअनुम्वारे प्रातिपदिकत्वाद् विभक्तिकायें सिध्यति रूपम् 'प्रहंयुः' इति ( श्रहंयुः, श्रहंयू, श्रहंयवः इत्युच्चारणम् ) । इति मत्वर्थीयाः । १९६० - वाच शब्द से ग्मिनि प्रत्यय होता है मत्वर्थ में । १९९१ - अर्श दियों से च प्रत्यय होता है मत्वर्थ में । १ ६२ - श्रहं शुभं शब्दों से युस प्रत्यय होता है मत्वर्थ में । इति मत्वर्थीयाः । अथ प्राग्दिशीयाः ११६३- 'दिक शब्देभ्यः' से पूर्व होनेवाले प्रत्ययों की विभक्ति संज्ञा होती है । ११९४ - किं- सर्वनाम का 'दिग्शब्देभ्यः' से पूर्व अधिकार जाता है । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धिताः ३१७ ११६५ पञ्चम्यास्तसिल ५ । ३ । ७ । पञ्चम्यन्तेभ्यः किमादिभ्यस्तसिल वा स्यात् । ११६६ कु तिहोः ७ । २ । १०४ । किमः कुः स्यात्तादौ हादौ च विभक्तौ परतः 'कुतः = कस्मात् । ११६७ इदम 'इश् ५ । ३ । ३ । प्राग्दीशीये परे । इतः। ११६८ अन् ५। ३। ५ । एतदःप्राग्दिशीये । अनेकाल्त्वात् सर्वादेशः । अतः, । "अमुतः। यतः । बहुतः। द्वयादेस्तु द्वाभ्याम् । ११६६ पर्यभिभ्यां च ५। ३।६।। आभ्यां तसिल् स्यात् । परितः सर्वत इत्यर्थः । अभितः = उभयत इत्यर्थः। १२०० सप्तम्यास्त्रल ५। ३ । १० । "कुत्र । प्यत्र । 'तत्र । बहुत्र। १-कुतः-पञ्चम्यन्तात् 'किम्' शब्दात्-‘पञ्चम्यास्तसिल' इति तसिल' प्रत्ययेनुबन्धलोपे प्रातिपदिकत्वेन सुन्लुकि 'कु तिहोः' इति 'कु'-प्रादेशे तसिलन्तस्याब्ययत्वात् तत प्रागतस्य सुपो लुकि सस्य रुत्वे विसर्गे सिध्यति रूपं कुतः' इति २शित्वात्सर्वादेशः। ३-:एतद्' शब्दस्य 'अन्' प्रादेशः स्यादित्यर्थः। ४-'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य' इति नस्य लोपः ५-तसिलो विभक्तिसंज्ञात्वात् 'पदसोऽसेदुदोमः' इति मुत्वं बोध्यम् । यतः-इत्यत्र 'त्यदादीनामः' इत्यकारश्चापि । ६-सूत्रेद्धपादिभ्यः, इत्युक्तः। ७-किम+त्र, इत्यत्र 'कुति होः' इत्यनेन 'कु' प्रादेशः। ८-यत्र, सत्र इत्यादौ त्रलो विभकृित्वात् 'त्यदादीनाम:' ६-तत्र-सप्तम्यन्तात् 'तत्' शब्दात ११६५-पञ्चम्यन्त किमादियों से तसिल प्रत्यय विकल्प से होता है। ११६६-किम् को कु होता है तादि, हादि विभक्तिसंज्ञक प्रत्यय परे रहते । ११६७- इदम् को हर आदेश होता है प्राग्दिशीय विभक्ति परे रहते । ११६८-एतत् को अन् श्रादेश होता है प्राग्दिशीय विभक्ति परे रहते । १११६-परि और अधि शम्दों से तसिल् प्रत्यय होता है। १२०६-सप्तम्यन्त से त्रलू प्रत्यय होता है। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् १२०१ इदमो ह: ५ । ३ । ११ । त्रलोऽपवादः । 'इह । १२०२ किमो ५ । ३ । १२ । वा- ग्रहणमपकृष्यते । सप्तम्यन्तात् किमोऽद्वा स्यात् । पक्षे त्रल् । १२०३ क्वाति ७ । २ । १०५ । किमः क्वादेशः स्यादति । क्व, कुत्र । १२०४ इतराभ्योऽपि दृश्यन्ते ५ | ३ | १४ | पञ्चमी सप्तमीतरविभक्त्यन्तादपि तसिलादयो दृश्यन्ते । दृशिग्रहणाद्भवदादियोग एव । स भवान् । ततो भवान् । तत्र भवान् । तं भवन्तम् । ततो भवन्तम् । तत्र भवन्तम् । एवं दीर्घायुः, देवानांप्रियः, आयुष्मान् । १२०५ सर्वेकान्य- किं यत्तदः काले दा ५ । ३ । १५ । सप्तम्यन्तेभ्यः कालार्थेभ्यः स्वार्थी दा स्यात् । १२०६ सर्वस्य सोऽन्यतरस्यां दि ५ | ३ | ६ | , दादौ प्राग्दिशीये सर्वस्य सो वा स्यात् । सर्वस्मिन् काले - " सदा । 'सप्तम्यास्त्रल्' इति ' त्रल्' प्रत्यये प्रातिपदिकत्वात् सुब्लुकि 'तत् त्र' इति स्थितौ 'त्यदादीनाम:' इत्यकारे पररूपे 'तंत्र' इति रूपम् (श्रव्ययत्वात् तत श्रागतस्य सुपो लुक् ) । १ - इदम इश्' इति इशादेशः शित्त्वात्सर्वादेशः । २ - प्रत् प्रत्ययः । १ - क्वसप्तम्यन्तात् 'किम्' शब्दात् 'किमोत्' इति सूत्रेण 'प्रत्' प्रत्यये 'क्वाति' इति किम: क्वादेशेऽ कारलोपे 'क्व' इति रूपम । श्रव्ययत्वादत्र तत श्रागतस्य सुपो लुक् । ४ - एतैर्योगेऽपि तथैव इत्यर्थः । ५ - सदा-सर्वस्मिन्काले इत्यर्थे सप्तम्यन्तात् 'सर्व' शब्दात् 'सर्वेकान्य इत्यादिना 'दा' प्रत्यये सुब्लुकि सर्वस्य सोऽन्यतरस्याम्' इति वैकल्पिके सादेशे 'सदा' इति रूपम् । पक्षे 'सर्वदा' इति । १२०१ - इदम् शब्द से 'ह' प्रत्यय होता है । यह ल का अपवाद है । १२०२ - किम् शब्द से अत् प्रत्यय होता है विकल्प से । त् परे रहते । १२०३ - किम् शब्द को क्व प्रदेश होता है ३२०४ - पञ्चमी सप्तमी से भिन्न विभक्त्यन्त से भी तसिलादि प्रत्यय होते हैं। १२०५ - सप्तम्यन्त कालार्थक सर्व एक अन्यादि शब्दों से स्वार्थ में दा प्रत्यय होता है। १२०६ - सर्व शब्द को स श्रादेश होता है दादि प्राग्दिशीय प्रत्यय परे रहते । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धिताः सर्वदा । श्रन्यदा । 'कदा । यदा । तदा । काले किम्- सर्वत्र देशे । १२०७ इदमो हिल ४ । ३ । १६ । 'सप्तम्यन्तात् काले इत्येव । १२०८ एतेतौ रथो: ५ । ३ । ४ । इदम्शब्दस्य एत-इत् इत्यादेशौ स्तौ रेफादौ थकारादौ च प्राग्दिशीये परे । अस्मिन् काले - एतर्हि । काले किम्-इह देशे । 3 १२०६ अनद्यतने हिलन्यतरस्याम् ५ । ३ । २१ । कहिं, कदा | यहि, यदा । तहिं तदा । ३१६ १२१० एतदः ५ । ३ । ५ । एत इत एतौ स्तो रेफादौ थादौ च प्राग्दिशीये । एतस्मिन्काले - एतर्हि । १२१९ प्रकारवचने थाल ५ । ३ । २३ । प्रकारवृत्तिभ्यः किमादिभ्यस्थात् स्यात् स्वार्थे । तेन प्रकारेण तथा । यथा । १२१२ इदमस्थमुः ५ । ३ । २४ । " • १ - दाप्रत्ययस्य विभक्तित्वात्किमः कः एवं, तदा, यदा इत्यादौ 'त्यदादीनामः ' । २- रेफादी 'एतः' यादी 'इत' इति विवेकः । ३ - प्रनद्यतनकालवृत्तिभ्यः किमादिभ्यः सप्तम्यन्तेभ्यो हिल् स्याद् वा । ४ - विभक्तित्वात् किमः कः । यहि यदा, त्यदादीनामः । ५-यर्हि - सप्तम्यन्ताद् 'यत्' शब्दात् कालेऽर्थे 'अनद्यतने हिलन्यतरस्याम्' इति 'हिल्’ प्रत्यये अनुबन्धलोपे 'त्यदादीनामः' इत्यत्वे पररूपे 'यह' इत्यव्ययम् । ६ - यथा तथा त्यदादीनामः । ७-येन प्रकारेण । १२०७–सप्तम्यन्त इदम् शब्द से हिल प्रत्यय होता है । १२०८ - इदम् शब्दको एत और इत् आदेश होते हैं रेफादि थकारादि प्राग्दिशीय परे रहते । १२०६ - किमादि से अनद्यतन काल में हिल प्रत्यय होता है विकल्प से । १२१०- एतत् को एत-इत् श्रादेश होते हैं रेफादि यकारादि प्राग्दिशीय विभक्ति परे रहते । १२११-प्रकारार्थ किमादि शब्दों से थालू प्रत्यय होता है स्वार्थ में । १२१२-इदम् शब्द से थम्र प्रत्यय होता है । यह थाल् का अपवाद है 1 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० लघुसिद्धान्तकौमुखाम् थालोऽपवादः । (एतदोऽपि वाच्यः) अनेन एतेन वा प्रकारेण-'इत्थम् । १२१३ किमश्च ५ । ३ । २५ । केन प्रकारेण-कथम् । इति प्राग्दिशीयाः । अथ प्रागिवीयाः १२१४ अतिशायने तमबिष्ठनौ ५ । ३ । ५५ । अतिशयविशिष्टार्थवृत्तेः स्वार्थे एतौ स्तः। अयमेषामतिशयेनाढ्वःपात्यतमः । लघुतमो-लपिष्टः । १२१५ तिङश्च ५। ३ । ५६ । तिङन्तादतिशये द्योत्ये तमप स्यात् । १२१६ तरप्तमपी घः १ । १ । २२ । एतौ घसंशौ स्तः। १२१७ किमेत्तिव्ययघादाम्बद्रव्यप्रकर्षे १ । ४ । ११ । किम एदन्तात्तिङोऽव्ययाश्च यो घस्तदन्तादामुः स्यान्न तु द्रव्यप्रकर्षे । १-इदम एतदश्च 'इत्' इत्यादेशः । २-'किमः कः' । इति प्राग्दिशीयाः । ३-लघिष्ठः-अतिशयेन लघुः इत्यर्थ 'लघु' शब्दाद् 'अतिशायने तमबिष्ठनौ' इति 'इष्टन' प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे भसंज्ञायां 'ने' इति टिलोपे प्रातिपदिकस्वेन सौ विभक्तिकायें सिध्यति रूपं 'लधिष्ठः' इति । (वा०-एतत् शब्द से भी थमु प्रत्यय होता।) १२१३-किम शब्द से प्रकारार्थ में थमु प्रत्यय होता है । इति प्राग्दिशीयाः । प्रथप्रागिवीयाः १२१४-आतशय विशिष्टार्थवाचक से तमप् और इष्ठन् होते हैं स्वार्थ में । १२१५-अतिशय अर्थ द्योत्य रहते तमप् प्रत्यय होता है । १२१६-तरप ओर तमप की घ संज्ञा होती है। १२१७-किम और एदन्त शब्द तथा तिस्न्त और अव्यय से विहित घ-प्रत्ययान्त से प्रामु प्रत्यय होता है, द्रव्यप्रकर्ष में नहीं। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धिताः ३२१ 'किन्तमाम् । प्राह्णेतमाम् । पचतितमाम् । उच्चैस्तमाम् । द्रव्यप्रकर्षे तु उच्चैस्तमस्तरुः । २१ १२१८ द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ ५ । ३ । ५७ । द्वयोरेकस्यातिशये विभक्तव्ये चोपपदे सुप्तिङन्तादेतौ स्तः । पूर्वयोरपवादः । श्रयमनयोरतिशयेन लघुर्लघुतरः । लघीयान् । उदीच्याः प्राच्येभ्यः पटुतराः । पटीयांसः । १२१६ प्रशस्यस्य श्रः ५ । ३ । ६० । अस्य श्रादेशः स्यादजाद्योः परतः । ४ १२२० प्रकृत्यैकाच् ६ । ४ । १६३ । इष्ठादिष्वेकाच् प्रकृत्या स्यात् । "श्रेष्ठः, 'श्रेयान् । १२२१ ज्य च ५ । ३ । ६१ । प्रशस्यस्य ज्यादेशः स्यात् इष्ठेयसोः । "ज्येष्ठः । १- किन्तमाम्-प्रतिशयेन कि किन्तमाम् । कि शब्दात् 'अतिशायने तमबिष्ठनौ' इति 'तमप्' प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे भस्यानुस्वारे परसवर्णे ' किन्तम्' इत्यस्मात् तमपो घसंज्ञकस्वेन तदन्तात् 'किमेतिडव्यय...' इत्यादिना 'श्रामु' प्रत्यये उकारलोपे भत्वे 'यस्येति च' इत्यकारलोपे ऽव्ययत्वेन विभवतेलुकि सिध्यति रूपं 'किन्तमाम्' इति । २-पूर्वोक्तयोस्तमबिष्ठनोरित्यर्थः । ३- 'टे:' इति टिलोपः । सान्तेति दीर्घः । ४ - इष्ठन्नीयसुनोरित्यर्थः । ५ - प्रकृतिभावान टिलोपः । ६- श्रेयान् - श्रयमनयोः श्रतिशयेन प्रशस्यः श्रेयान् । 'प्रशस्य' शब्दाद् द्विवचनविभज्योपपदे ' इत्यादिना ईयसुन् प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे 'प्रशस्यस्य श्रः' इति श्रादेशे 'प्रकृत्यैकाच' इति प्रकृतिभावाट् टिलोपाभावे गुणे 'श्रेयस' शब्दात् प्रातिपदिकत्वात्सौ उगित्वान्नुमि सुब्लुकि 'सान्त महत....' इत्यादिना ढोघें सिध्यति रूपं 'श्रेयान्' इति । पक्षे इष्ठनि प्रत्यये ' श्रेष्ठः' इति रूपम् । ७ - ज्येष्ठ: - १२१८ - दो में से एक का अतिशय द्योत्य हो तो विभक्तव्य उपपद रहते सुबन्त और तिङन्त से तरप और ईयसुन् प्रत्यय होते हैं । १२१६ - प्रशस्य शब्द को श्र आदेश होता है अजादि इष्ठन, ईयसुन प्रत्यय परे रहते । १२२० - एकाच को प्रकृतिभाव होता है इष्ठादि प्रत्यय परे रहते । १२२१ - प्रशस्य को ज्य श्रादेश होता है इष्ठन् ईयसुन प्रत्यय परे रहते । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२१ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् १२२२ 'ज्यादादीयसः ६।४ । १६० । (७२) आदेः परस्य । ज्यायान् । १२२३ बहोलोपो भू च बहोः ६।४।१५८ । बहोः परयोरिमेयसोर्लोपः स्यात् बहोश्च भूरादेशः। 'भूमा । भूयान् । १२२४ इष्ठस्य यिट् च ६ । ४ । १५६ । बहोः परस्य इष्ठस्य लोपः स्याद् यिडागमश्च । भूयिष्ठः । १२२५ विन्मतोलु क ५। ३ । ६५ । विनो मतुपश्च लुक् स्यादिष्ठेयसोः । अतिशयेन स्रग्वी-स्रजिष्ठः । स्रजीयान् । अतिशयेन त्वग्वान्-त्वचिष्ठः । त्वचीयान् । १२२६ ईषदसमाप्तौ कल्पब्देश्यदेशीयरः ५। ३ । ६७ । ईषदूनो विद्वान्-विद्वत्कल्पः । विद्वद्देश्यः । विद्वद्देशीयः । पचतिकल्पम् । अतिशयेन प्रशस्य इति विग्रहे 'प्रशस्य' शब्दाद् 'प्रतिशायने तबिष्ठनौ' इति 'इष्ठन्' प्रत्यये 'ज्यच' इति ज्यादेशे 'प्रकृत्यैकाच' इति प्रकृतिभावाट टिलोपाभावे गुरसे विभक्तिकायें सिध्यति रूपं 'ज्येष्ठः' इति । १-'ज्य' शब्दात् परस्य 'ईयसः' 'पात्' आदेश इत्यर्थः । २-'बहु' शब्दाद् 'इमनिच' । इम्नो लोपे प्राप्ते 'प्रादेः परस्य' इति इकारस्य लोपः, बहोः 'भू' मादेशः, एवं भूयान् । ३-भूयिष्ठः-अतिशयेन बहु इति विग्रहे 'बहु' शब्दाद् 'पतिशायने तमविष्ठनौ' इति 'इष्ठन्' प्रत्यये 'इष्ठस्य यिट् च' इति इकारलोपे यिडागमे अनुबन्धनोपे 'बहोलोपो भू च बहोः' इति बहो ' '-प्रादेशे प्रातिपदिकत्वात् सौ रुत्वे विसर्ग सिध्यति रूपं 'भूयिष्ठः' इति । ४-इत्यादावप्येवम् । १२२२-ज्य से परे ईबसुन् को आकार आदेश होता है । १२२३-बहुशन्द से परे इमनिच् और ईयसुन् प्रत्यय का लोप होता है और बहु शब्द को भू श्रादेश होता है। १२२४-बहुशब्दसे परे इष्टन् प्रत्यय का लोप और इष्ठन्को पिटका आगमन होता है। ५२२५-विन् और मतुप का लुक् होता है इष्ठन् ईनसुन् परे रहते । १२२६-ईषदखनाप्ति अर्थ में कल्पप, देश्य और देशीयर् प्रत्यय होते हैं। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्धिताः १२२७ विभाषासुयो बहुच पुरस्तात्त ५ । ३ । ६८ । ईषदसमाप्तिविशिष्ट ऽर्थे सुबन्ताद् बहुज्वा स्यात्स च प्रागेव न तु परतः । ईषदूनः पटुर्वहुपटुः । पटुकल्पः । सुपः किम्- 'यजतिकल्पम् । १२२८ प्रागिवात् कः ५ | ३ । ७० । sa प्रतिकृतावित्यतः प्राक्काधिकारः । १२२६ अव्यय सर्वनाम्नामकच् प्राक् टेः ५ । ३ । ७१ । कापवादः । तिङश्चेत्यनुवर्तते । ( ओकार सकार-भकारादौ सुपि सर्वप्रागकच् । ) अन्यत्र 3 सुबन्तस्य । d १२३० अज्ञाते ५ । ३ । ७३ । 1 कस्यायमश्वोऽश्वकः । उच्चकैः । नीचकैः । सर्वकैः । " युष्माभिः । युवकयोः । त्वयका | १२३१ कुत्सिते ५ । ३ । ७४ । कुत्सितोऽश्वोऽश्वकः ७ । १- नात्र बहुच् । २ - कप्रत्ययाधिकारः । ३ - टेः प्रागकच् कप्रत्ययः, अव्यय सर्वनामयामकच् स्यादित्यर्थः । इति योज्यम् । ४- प्रातिपदिकादज्ञातेऽर्थे ५- प्रोकारसकार भकारादावित्युक्तेः प्रातिपदिकात् ( साधनात् प्रागेबेत्यर्थः ) । स्वयका, इत्यादौ तु वा मया, इति निष्पन्नस्यैव । ६ - त्वयका - युग्मच्छन्दस्य 'टा' विभक्तौ 'श्रोकार सकार-भकारादौ' इत्युक्ते विभक्तिकार्ये 'स्वया' इति सिद्धस्य सुबन्तस्य 'श्रव्ययसर्वनाम्नामकच् प्राक् टे:' इति टे: प्रागकच् । श्रनुबन्धलोपे स्वयका' इति रूपम् | ७- अश्वकः - 'अश्व इव' इति विग्रहे 'अश्व' शब्दात् 'इवे प्रतिकृतौ' इति 'कन्' प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे विभक्तिकार्य सिध्यति रूपम् 'अश्वकः' इति । 1 ३२३ १२२७ - ईषदसमाप्ति बिशिष्ट अर्थ में सुबन्त से बहुच् प्रत्यय होता है विकल्प से, और वह प्रकृति से पूर्व होता है, पर नहीं । १२२८ - 'इवे प्रतिकृतौ' से पूर्व क प्रत्यय का अधिकार है । १२२६ - अव्यय और सर्वनाम शब्दों की टि से पूर्व कच प्रत्यय होता है । १२३० - 'अज्ञात' अर्थ में क प्रत्यय होता है । १२३१ - 'कुत्सित' अर्थ में क प्रत्यय होता है । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् १२३२ किंयत्तदोर्निर्धारण द्वयोरेकस्य डतरच ५ । ३ । ६२ । अनयोः 'कतरो वैष्णवः । यतरः । ततरः । १२३३ वा बहूनां जातिपरिप्रश्ने डतमच ५। ३ । ६३ । बहूनां मध्ये एकस्य निर्धारणे डतमज् वा स्यात् । 'जातिपरिप्रश्ने' इति प्रत्याख्यातमाकरे । कतमो भवतां कठः । यतमः । ततमः । वाग्रहणमकजर्थम् । श्यकः। उसकः। इति प्रागिवीयाः। अथ स्वार्थिकाः १२३४ इवे प्रतिकृतौ ५ । ३ । ६६ । कन् स्यात्। अश्व इव प्रतिकृतिरश्वकः1 ( सर्वप्रातिपदिकेभ्यः स्वार्थ कन् )। अश्वकः। १२३५ तत्प्रकृतवचने मयट ५ । ४ । २१ । प्राचुर्येण प्रस्तुतं-प्रकृतं तस्य वचनं = प्रतिपादनम् । भावे अधिकरणे वा ल्युट । 'आद्य प्रकृतमन्नम्-अन्नमयम् । अपूपमयम् । द्वितीये तु अन्नमयो यज्ञः । अपूपमयं = पर्व। १२३६ प्रज्ञादिभ्यश्च ५। ४ । ३८ । १-डतरचो डित्त्वात् टिलोपः। २-'त्यदादीनामः' । ३-विभक्तित्वात् 'तदोः सः सावनन्त्ययोः' इति सत्वम् । इति प्रागिधीयाः । .४-इधार्थे ( सादृश्ये ) वत्त मानात्प्रातिपदिकात कन् स्यात्प्रतिकृतौ। ५-भवाऽर्थे ल्युटि । ६--अधिकरणाचँ ल्युटि । १२३२ दो में से एक के निर्धारण में किम्, यत, तत् शब्द से इतरच प्रत्यय होता है। १२३३-बहुतों में से एक के निर्धारण में किं, यत्, तत् शब्द से उतरच प्रत्यक होता है। इति प्रागिवीयाः। अध स्वार्थिकाः १२३४ इव (सदृश) के अर्थ में कन् प्रत्यय होता है सदृश यदि प्रतिकृति हो । १२३५-प्रथमान्त्र से पकृत वचन में मयर प्रत्यय होता है। १२३६ - प्रज्ञादिगणपठित शब्दों से अण प्रत्यय होता है स्वार्थ में । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२५ तद्धिताः अण 'स्यात् । प्रश एव-प्राक्षः । प्राशी स्त्रो। दैवतः । "बान्धवः । २१३७ वह्वल्पार्थाच्छस्कारकादन्यतरस्याम् ५ । ४ । ४२ । बहूनि ददाति-बहुशः। अल्पशः (आद्यादिभ्यस्तसे 'रुपसंख्यानम्) आदौ-आदितः । मध्यतः । अन्ततः। पार्श्वतः। प्राकृतिगणोऽयम् । स्वरेणस्वरतः । वर्णतः। १२३८ कृम्वस्तियोगे सम्पद्यकतरि चिः ५। ४ । ५० । (अभूततद्भाव इति वक्तव्यम् ) विकारात्मतां प्राप्नुवत्यां प्रकृती वर्तमानाद्विकारशब्दात् स्वार्थ विर्वा स्यात् करोत्यादिभिर्योगे। १२३१ अस्य च्यो ७ । ४ । ३२ । अवर्णस्य ईत् स्यात् च्वौ । वेर्लोपः । 'च्ळ्यन्तत्वादव्यत्वम् । अकृष्णः कृष्णः सम्पद्यते तं करोति-कृष्णीकरोति । ब्रह्मोभवति। गङ्गीस्यात् (अन्ययस्य च्वावीत्वं नेति वाच्यम्) दोषाभूतमहः । दिवाभूता रात्रिः। १-स्वाथें । २-प्राज्ञः-'प्रज्ञ'शब्दात् स्वार्थे प्रज्ञादिभ्यश्च' इत्यणि प्रादिवृद्धौ यस्येति च' इत्यकारलोपे प्रातिपदिकत्वे मौ विभक्तिकायें प्राज्ञः' इति रूपम् । ३-'टिड्ढाणञ् ..' इति डोप । ४-देवता एव दैवतः। ५-बन्धुरेव बान्धवः, अणि सति 'मोगुणः' इति गुणः, मादिवृद्धिः । ६-बह्वात्कारकाभिधायिनो मङ्गलवचने शत, अल्मार्थात्कारकाभिधायिनोऽमङ्गलवचन एव शस् स्यादित्यर्थः। . अल्पशः-प्रल्पेऽल्या वा अल्पशः। अल्पशब्दात् 'बहल्यार्थाः ..' इत्यादिना स्वार्थे 'शस' प्रत्ययः । 'अल्पशस्' इति जाते प्रातिपदिकत्वात् सुपि अव्ययत्वेन तल्लुकि सकारस्य रुत्वे विसर्गे च 'अल्पशः' इति । ८-सार्वविभक्तिकोऽयं तसिः । ६-'तद्धितश्चासर्वविभक्तिः' इत्यत्र 'शस् प्रभृतयः' इत्युक्तत्वात् तदन्तगंतत्वाच्चास्येति भावः । १०-कृष्णीकरोति-प्रकृष्णः कृष्णः सम्पद्यते तं करोतीति विग्रहः । अत्र 'करोति-' योगे 'कृम्वस्तियोगे सम्पद्य कर्तरि चि' इति 'चि' प्रत्यये तस्य सर्वापहारे 'अस्य च्चौ' इति सूत्रेणाकारस्य ईकारे 'कृष्णीकरोति' इति रूपम् । __१२३७-बह्वर्थ और अल्पार्थ कारकाभिधायी शब्द से शस् प्रत्यय होता है विकल्प से ( वा आधादिगण पटित शब्दों से तसि प्रत्यय होता है)। १२३८-विकार को प्राप्त होनेवाली प्रकृति में वर्तमान विचारवाची शब्द से च्चि प्रत्यय होता है विकल्प से स्वार्थ में कृ, भू, अस् के योग में । १२३६-अवर्ण की ईकारादेश होता है वि प्रत्यय परे रहते । (वा०-अव्ययसम्बन्धी अवर्ण को ईल नहीं होता चि परे रहते )। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् १२४० विभाषा साति कात्स्न्ये ५ । ४।५२। विविषये सातिर्वा स्यात् साकल्ये। १२४१ सात्-पदायोः ८।३।१११। । सस्य षत्वं न स्यात् । दधि सिञ्चति । कृत्स्नं शस्त्रमग्निः सम्पद्यते. अग्निसाद्भवति । १२४२ च्यौ च ७। ४ । २६ । च्वौ च परे पूर्वस्य दीर्घः स्यात् । अग्नीभवति । १२४३ अव्यक्तानुकरणावयजवरार्धादनितो डाच ५ । ४ । ५७ । द्वयजेवावरं न्यूनं न तु ततो न्यूनमनेकाजिति यावत्तादृशमधं यस्य तस्माड्डाच् स्यात् कृभ्वस्तिभियोगे (डाचि च द्वे बहुलम्) इति डाचि विवक्षिते द्वित्वम् । (नित्यमाम्रोडित डाचीति वक्तव्यम्) डाच्परं यदाम्रोडितं तस्मिन्परे पूर्वपरयोर्वर्णयोः पररूपं स्यात्, इति तकारपकारयोः पकारः। 'पटपटाक रोति । अव्यक्तानुकरणात्किम् ईषत्करोति । द्वयजवरार्धात्किम्-श्रत्करोति । अवरेति किम्-खरटखरटाकरोति । अनितौ किम्-पटिति करोति । ___ इति तद्धिताः । . १-अनेकाकमित्यर्थः। -पटपटाकरोति-'पटत्' इति शब्दानुकरणम् । तस्मात् 'डाचि द्वे बहुलम्' इति डाचि विवक्षिते द्वित्वे 'पट पटत्' इति स्थिती 'अव्यक्तानुकरणाद्' इत्यादिना 'डाच्' प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे परस्याम्रडितसंज्ञायां 'नित्यमाने डिते डाचि' इति वात्तिकेन तकारपकारयोः पकारे 'पटपटत प्रा' इति जाते 'टेः' इति टिलोपे ऽव्ययत्वे 'पटपटाकरोतीति' रूपम् । इति तद्धिताः । १२४०-विके विषय में साति प्रत्यय होता है विकल्प से यदि सम्पूर्णता घोत्य हो। १२४१-पद के आदि सकार को ओर साति प्रत्यय के सकार को षत्व नहीं होता। १२४२-च्चि प्रत्यय परे रहते पूर्व को दीर्घ होता है। १२४३-दो अच से कम नहीं है अर्ध में जिसके, ऐसे अव्यक्तानुकरण शब्द से डाच प्रत्यय होता है कृ-भू-अस् के योग में, इति परे रहते नहीं। (वा०-(१) डाच प्रत्यय की विवक्षा होने पर द्वित्व होता है। बहुलता से । (२) डाच परक अाम्नेडित के परे रहते पूर्व पर वर्ण को पररूप होता है । ) इति स्वार्थिकाः। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रीप्रत्ययाः अथ स्त्रीप्रत्ययाः ३२७ १२४४ स्त्रियाम् ४ । १ । ३ । अधिकारोऽयं समर्थानामिति यावत् । १२४५ 'अजाद्यतष्टाप् ४ । १ । ४ । जादीनामकारान्तस्य च वाच्यं यत् स्त्रीत्वं तत्र द्योत्ये टाप् स्यात् `अजा । एडका । अश्वा । चटका । मूषिका । बाला । वत्सा । होडा । मन्दा । विलाता | मेधा । गङ्गा । शर्वा । इत्यादिः ( अजादिगणः ) | १२४६ उगितश्च ४ । १ । ६ । उगिदन्तात् प्रातिपदिकात् स्त्रियां ङीप् स्यात् । भवन्ती । पचन्ती । दीव्यन्ती । १२४७ टिड्ढाणञ्-द्वयसज् - दघ्नञ् - मात्रच् तयप्-ठक - ठञ्-कञ्क्रपः ४ । १ । १५ । अनुपसर्जनं यट्टिदादि तदन्तं यददन्तं प्रातिपदिकं ततः स्त्रियां ङीप् - १- प्रजादि श्रच्च तयोः समाहारः - श्रजाद्यत् तस्य वाक्ये स्त्रीस्वे द्योत्ये । तत्र अजादिगणः अजादिगरणपठितात् शब्दात् प्रदन्ताच्च शब्दात् टाप् स्यादित्यर्थः । २- अजा- 'अज' शब्दात् स्त्रीत्वविवक्षायाम् 'प्रजाद्यतष्ठाप्' इति टाप्-प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे सवर्णदीर्घे प्रातिपदिकग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहरणम् इत्युक्तेः सौ तल्लोपे 'मजा' इति रूपम् । ३ - सवन्ती, पचन्ती, दीव्यन्ती शतृ प्रत्ययान्तेभ्यो ङीप् 'शपश्यनोनित्यम्' इति मुम् । ( भाषातोर्डवतुप्रत्यये तु भवत्-शब्दस्य उगित्वात् ङीपि 'भवती' इति रूपम् ) । श्रथ स्त्रीप्रत्ययाः १२४४-'समर्थानां प्रथमाद्वा' से पूर्व तक स्त्रियाम्' का अधिकार जाता है । १२४५ - अजादिगणपठित और आकारान्त शब्दों से टाप् होता है स्त्रीत्व द्योत्य रहते । १२४६-उगिदन्त प्रातिपदिक से ङीप् प्रत्यय होता है स्त्रीत्व द्योत्य रहते । १२४७ - अनुपसर्जन जो टित् तदन्त प्रातिपदिक तथा द आदि प्रत्ययान्त प्राति पदिक से ङीप होता है - स्त्रीत्व द्योत्य रहते । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ६ स्यात् । 'कुरुचरी । नदट- नदी । देवट् देवी' | 'सौपर्णेयी । ऐन्द्री । " श्रौत्सी । ' ऊरुद्रयसी । ऊरुदघ्नी । ऊरुमात्री । पञ्चतयी । ' श्राक्षिकी । 'प्रास्थिकी । १० लावणिकी । " यादृशी १२ इत्वरी । ( नञ्स्नञीकक्ख्युंस्तरुण-तलुनानासुपसंख्यानम् ) १३ स्त्रैणी । पौंस्नी । १४ शाक्तीकी । "श्राढ्यङ्करणी। तरुणी । तलुनी । 6 १२४८ यञश्च ४ । १ । १६ । यञन्तात् स्त्रियां ङीप् स्यात् । ६ अकारलोपे कृते । १६ १२४६ हस्तद्धितस्य ६ । ४ । १५० । हलः परस्य तद्धित-यकारस्योपधाभूतस्य लोप ईकारे परे । १७ गागी । १२५० प्राचां ष्फ तद्धितः ४ । १ । १७ । १ - ' चरेष्टः' इति टप्रत्ययान्तात् ङीप् । २ - देवी - पचादिगणे देवट्' इति टिपाठात् 'देव' शब्दस्य टित्त्वम् । तस्मात् 'टिड्ढाणञ्' इत्यादिना 'ङीए' - प्रत्ययेऽनुबन्लोपे भत्वे 'यस्येति च' इत्यकारलोपे सौ विभक्तिकार्ये 'देवी' इति रूपम् । ३'स्त्रीभ्यो ढक्' इति ढगन्तात् ङीप् । ४ - सास्य देवता इत्यरण । ततो ङीप् । ५' उत्सादिभ्योऽञ्' इति श्रनन्तात् ङीप् । ६ - प्रयोगत्रये क्रमेण 'परिमाणे द्वयसज्दन्नमात्रचः' इति त्रयः प्रत्ययाः, ततो ङीप् । ७- 'सङ्ख्याया श्रवयने तयपू' इति तयप्रत्ययान्तात् ङीप् । ८-प्रक्षैर्दीव्यतीति, 'तेन दीव्यति' इति ठगन्तात ङीप् । ε- प्रस्थेन क्रीता 'तेन क्रीतम्' इति ठञ, ततो ङीप् । १० - लवणं पण्यमस्याः 'लवरणाट्ठञ् ' ततो ङीप् लावणिकी = लवणविक्रेत्री ११' - त्यदादिषु दृशोनालो...' इति कञ् ङीप् । १२ - ' इरानजिसतिभ्यः क्वरपू' ततो ङीप् । १३ - स्त्रैणी, पौंस्नो, 'स्त्रीपुंमाभ्यां नव्-स्नञ' इति क्रमेण नत्र स्नञ च ततो ङीप् । १४ - - ' शक्तियष्ठयोरी कक् इति ईक, शक्तिः प्रहरणमस्या इति विग्रहः । १५ - प्राढ्यसुभगस्थूल...' इति ख्युन्, ततो ङीप् । १६ – 'यस्येति च' इत्यनेन । १७ - गर्गादिभ्यो यत्र इति यञन्तात् ङीप् । गर्गस्य गोत्रापत्यं स्त्रीत्यर्थः । " - ( वा० - नञ्स्नादिप्रत्ययान्तों से ङीप् प्रत्यय होता है स्त्रोत्व द्यस्य रहते । ) १२४८ - यञ् प्रत्ययान्त से ङीप् प्रत्यय होता है स्त्रीत्व द्योत्य रहते । १२४६ - हल् से परे उपधाभूत तद्वित यकार का लोप होता है ईकार परे रहते । १२५०-यम् प्रत्यान्त से तद्धितसंज्ञक ष्फ प्रत्यय होता है विकल्प से । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ स्त्रीप्रत्ययाः यत्रन्तात् 'ष्फो वा स्यात् स च तद्धितः । १२५१ षिद्गारादिभ्यश्च ४ । १ । ४१ । षिद्भ्यो गौरादिभ्यश्च ङीष स्यात् । गाग्यायणी। उनर्तकी। गौरी। (आमनडुहः स्त्रियां वा) अनड्वाही, अनडुही। 'आकृतिगणोऽयम् । १२५२ वयसि प्रथमे ४ । १। २० । प्रथम-वयोवाचिनोऽदन्तात् स्त्रियां ङीप स्यात् । कुमारी। १२५३ द्विगोः ४ । १ । २१ । अदन्ताद् द्विगोर्डीप स्यात् । त्रिलोकी। अजादित्वात्रिफला । ज्यनीका = सेना। १२५४ वर्णादनुदात्तात्तोपधात्तो नः ४ । १ । ३६ । वर्णवाची योऽनुदात्तान्तस्तोपधस्तदन्तादनुपसर्जनात् प्रातिपदिकाद्वा ङीप तकारस्य नकारादेशश्च । एता, एनी। रोहिता, रोहिणी । १-'षः प्रत्ययस्य' इति ष इत् । फस्य 'प्रायन्' 'प्रायनेयो ' इति सूत्रेण । २-गाायणी-यनन्ताद् 'गाय' शब्दात् 'प्राचां फ तद्धितः' इति वैकल्पिके 'फ-' प्रत्यये षस्येसंज्ञायां लोपे फस्यायनादेशे भत्वादल्लोपे पटवे च 'गार्यायण' इत्यस्मात् स्त्रीत्वे "षिद् गौरादिभ्यश्च' इति 'होष-' प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे भत्वादल्लोपे च विभक्तिकार्य 'गाायाणी' इति रूपम् । अत्र फेणोक्तेऽपि स्त्रीत्वे षिस्वसामर्थ्यात डोष । ३-'शिल्पिनि वुन्' इति वुन्नन्तात ङीष् । ४-गौरादिरिति शेषः । ५-कुमारी-बाल्यवयोवाचकात् 'कुमार' शब्दात स्त्रीत्वे विवक्षिते 'वयसि प्रथमे' इति ङीप प्रत्ययः अनुबन्धलोपे भत्वेऽकारलोपे विभक्तिकार्य रूप 'कुमारी' इति । ६-त्रयाणां लोकानां समाहारः-त्रिलोकी 'सङ्खयापूर्वो द्विगुः' 'प्रकारान्तोत्तरपदो द्विगुः स्त्रियामिष्टः' इति स्त्रीत्वम् । ७-प्रजादिगणान्तर्गतत्वात इत्यर्थः, 'मजाद्यतष्टाप' इति टाप । -चित्रवर्णा । १२५१-पित्प्रययान्त और गौरादिगणपठित शब्दों से ङीष् प्रत्यय होता है। १२५२-प्रथमवयोवाची अदन्त से डीए होता है स्त्रीलिङ्ग की घोत्यता में । १२५३-अदन्त द्विगु से छोप होता है। १२५४-वर्णवाची अनुदात्तान्त जो तोपध, तदन्त अनुपसर्जन से डोप होता है विकल्प से और तकार को नकार मादेश होता है। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् १२५५ बोतो गुणवचनात् ४ । १।४४ । उदन्ताद् गुणवाचिनो वा ङोप स्यात् । मृद्वी, मृदुः । १२५६ बबादिभ्यश्च ४ । १ । ४५।। एभ्यो वा ङीष् स्यात् । बह्वी, वहुः, ('कृदिकारादक्तिनः) २रात्रिः, रात्री। (सर्वतोऽक्तिन्नादित्येके) शकटी, शकटिः । १२५७ पुयोगादाख्यायाम् ४ । १ । ४८ । या पुमाख्या पुंयोगात् स्त्रियां वर्तते ततो ङीष । गोपस्य स्त्री गोपी । (पालकान्तान्न) गोपालिका । अश्वपालिका। १२४८ प्रत्ययस्थात् कात्पूर्वस्यात इदाप्यसुपः ७ । ३ । ४४ । प्रत्ययस्थात् कात् पूर्वस्याकारस्येकारः स्यादापि, स आप सुपः परो न चेत् । "सर्विका । कारिका । अतः किम्-नौका । प्रत्ययस्थात्किम् शक्नोतीति १-कृत प्रत्ययस्य य इकारस्तदन्ताप्रातिपदिकात 'डोष्' वा स्यात क्तिनप्रत्ययान्तात्तु न स्यादित्यर्थः । २-राशादिम्यस्त्रिप्' इत्युणादिसूत्रेण त्रिप् प्रत्ययः । ३-क्तिन् प्रत्ययार्थविहितप्रत्ययान्तभिन्नादिकारान्तमात्रात ङीष् स्यादित्य के प्राचार्या मन्यन्त इत्यर्थः। ४-गोपी-'गोपस्य स्त्री' इति विग्रहः । 'योगादाख्यायाम्' इति 'डोष -' प्रत्यय अनुबन्धलोपे भसंज्ञायामकारलोपे विभक्तिकायें 'गोपी' इति रूपम्। ५-'अव्ययसर्वनाम्नामक' इत्यकच, ततः टापि रूपम् । ६ कारिका-'कृ' धातोएलि अनुबन्धलोपे वृद्धौ 'वु' इत्यस्य अकादेशे 'कारका' शब्दात स्त्रीत्वे टापि सवर्णदीर्घ प्रत्ययस्यात् ...' इत्यादिना कात्पूर्वस्य रेफगतस्याकारस्य इत्वे विभक्तिकायें 'कारिका' इति रूपम् । १२५५-गुणवाची उदन्त से डीप होता है विकल्प स स्त्रीत्व की द्योत्यता में। १२५६-बह्वादिगणपठित शब्दों से ङीष होता है विकल्प से। ( वा०-(१) क्तिन्-भिन्न कृत् इकारान्त से ङोप प्रत्यय होता है विकल्प से । (२) क्तिन्नर्थ से भिन्न इकारान्त से ङीष् प्रत्यय होता है विकल्प से )। १२५७-जो पुवाचक शब्द पुयोग से स्त्रीलिङ्ग हो जाए उससे ङीष् होता है। (वा-पालक शब्द अन्त में है जिसके ऐसे शब्द से ङीष् प्रत्यय नहीं होता) . १२५८-प्रत्यय के ककार से पूर्व अकार को इकार आदेश होता है आप परे रहते, यदि वह आप सुप से परे न हो। (वा०-(१) सूर्य शब्द से देवता अर्थ में चाप प्रत्यय होना है। (२) सूर्य और Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रीप्रत्ययाः "शका | असुपः किम् - बहुपरिव्राजका- नगरी ( सूर्याद्देवतायां चाब्वाच्यः ) सूर्यस्य स्त्री देवता सूर्या । देवतायां किम् - ( सूर्यागस्त्ययोश्छे चङयां च ) यलोपः | सूरी - कुन्ती । मानुषीयम् । "इन्द्र- वरुण-भव-शव-रुद्रमृड- हिमारण्य-यव-यवन-मातु १२५६ लाचार्याणामानुक ४ । १ । ४६ । ६ पपामानुगागमः स्यात् ङीष् च । इन्द्रस्य स्त्री इन्द्राणी । वरुणानी । भवानी । शर्वाणी । रुद्राणी । मृडानी । ( हिमारण्ययोर्महत्त्वे ) महद्धिमं हिमानी, महदरण्य मरण्यानी । ( यवाद्दोषे ) दुष्टो यवो = ' यवानी । ( यवनाल्लिप्याम् ) यवनानां लिपिर्यवनानी ( मातुलोपाध्याययोरानुग्वा) मातुलानी, मातुली । ' उपाध्यायानी; उपाध्यायी ( आचार्यादणत्वं च ) आचार्यस्य स्त्री आचार्यानी । (क्षत्रियाभ्यां वा स्वार्थी ) श्रर्याणी, अर्या । "क्षत्रियाणी, क्षत्रिया | ܢ ३३१ = १- 'पचाद्यच्' ततष्टाप् । नात्र प्रत्ययस्थः ककारः । २- बहवः परिव्राजका यस्यामिति सुबन्ताट्टाप् ( प्रत्ययलक्षणेन सुपः परोऽयं टाप् ) । ३ - सूर्यस्य स्त्री 'पुंयोगादाख्यायाम् ' इति ङीप् । ४ - इयं मनुष्यजातीया इत्यर्थः । ५ - इन्द्रादीनां षण्णां मातुलाचार्ययोश्च पुंयोगे एवेष्यते तत्र पूर्वेण ङीषि सिद्धे प्रानुङ्मात्रं विधीयते, इतरेषां चतुरणांमुभयविधिः । ६ - इन्द्राणी - 'इन्द्रस्य स्त्री' इति विग्रहे 'इन्द्र' शब्दाद् ' इन्द्र- वरुण - भव.... इत्यादिना ङोषि श्रानुगागमे चानुबन्धलोपे सवर्णदीर्घे नस्य गत्वे विभक्तिकार्ये रूपम् ' इन्द्राणी ' इति । ७ - यवानी --दुष्टयवेथें 'यव' शब्दात् 'यवाद्दोषे' इति वार्त्तिकेन ङीषि श्रानुगागमे ऽनुबन्धलोपे सवर्णदीर्घे बिभक्तिकार्ये 'यवानी' इति । उपाध्यायानी- 'उपाध्यायस्य स्त्री' इत्यर्थे 'उपाध्याय' - शब्दाद् 'ङोषि' मातुलोपाध्याययोरानुग्वा' इति वैकल्पिके श्रानुगागमे सवर्णदीर्घ विभक्तिकायें 'उपाध्यायानी' । पक्षे 'उपाध्यायी' इति । ६चकारादानुक् ङीष् च भवति । १० - क्षत्रियाणी - 'क्षत्रियजातावुत्पन्ना स्त्री' इत्यर्थे 'चत्रिय’– शब्दाद् ‘मयंक्षत्रियाभ्यां वा स्वायें' इति वार्त्तिकेन वैकल्पिके ङीपि तत् सन्नि योगशिष्टे श्रानुगागमे चानुबन्धलोपे भत्बेडकारलोपे नस्य णत्वे विभक्तिकायें 'क्षत्रियाणी' पक्षे 'टाप्' प्रत्यये 'क्षत्रिया' इति रूपं सिद्धयति । पुंयोगे तु 'पु योगादाख्यायाम्' इति ङोषि 'क्षत्रियो' इति । १२५६ - इन्द्रादि शब्दों से आनुक का ग्रागम होता है और ङीप् प्रत्यय होता है। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् १२६० क्रीतात् करणपूर्वात् ४ । १ । ५० । क्रीतान्ताददन्तात करणादेः स्त्रियां ङीष् स्यात् । 'वस्त्रक्रीती। क्वचिन्न-धनक्रीता। १२६१ स्वाङ्गाच्चोपसर्जनादसंयोगोपधात् ४ । १ । ५४ । असंयोगोपधमुपसर्जनं यत् स्वाङ्ग तदन्ताददन्तात ङीप वा स्यात् । केशानतिक्रान्ता अतिकेशी, अतिकेशा । चन्द्रमुखी, चन्द्रमुखा । असंयोगोपधात् किम्-सुगुल्फा । उपसर्जनात्किम्-सुशिखा" । १२६२ न क्रोडादिबह्वचः ४ । १ । ५६ । १ वस्त्रक्रीती-वस्त्रेण क्रीता' इति विगृहे 'वस्त्रक्रीत' शब्दात 'क्रीतात् करणपूर्वात' इति ङीपि अनुबन्धलोपे भसंज्ञायामकारलोपे विभक्तिकार्य सिध्यति 'वस्त्रक्रीती' इति रूपम् । २-स्वाङ्गलक्षणम्-'प्रद्रवं मूर्तिमत्स्वाङ्गं प्राणिस्थमविकारजम् । प्रतत्स्थं तत्र दृष्टं च तेन चेत्तत्तथा युतम् ।।' ३-अतिकेशी-'केशान् प्रतिक्रान्ता' इति विग्रहे समस्तादतिकेशशब्दात् 'स्वाङ्गाच्चोपसर्जनात् ' इत्यादिना विकल्पेन 'डीष-' प्रत्यये पत्वेऽकारलोपे विभक्तिकार्यों 'प्रतिकेशी' इति रूपम् । पक्षे 'अतिकेशा' इति रूपम् । ४-चन्द्रमुखी- चन्द्र इव मुखं यस्याः' इति विग्रहे समस्तात् 'चन्द्रमुख' शब्दात् 'स्वानाच्चोपसर्जनाद् ..' इत्यादिना वैकल्पिके डीषि भत्वेऽकारलोपे विभक्तिकार्यो 'चन्द्रमुखी' । पक्षे 'चन्द्रमुखा' इति रूपम् । ५-शोभना शिखा = सुशिखा । नेदमुपसर्जनम् । (वा०-(१) हिम और अरण्य शब्द से महत्त्व अर्थ में की और आनुक् होते हैं । ( २ ) यव शब्द से दोष अर्थ में ङीष और श्रानुक होते हैं । (३) यवन शब्द से लिपि अर्थ में डीए और मानुक होते हैं। ( ४ ) मातुल और उपाध्याय शब्द से आनक विकल्प से होता है । (५) श्राचार्य के न को ण नहीं होता है । (६) अर्य क्षत्रिय शब्द से स्वार्थ में ङीष् और अानक होते हैं विकल्प से )। १२६०-क्रीत शब्द अन्त में है जिसके और करण है श्रादि में जिसके ऐसे अदन्त से ङीष होता है। १२६१-संयोगोपध से भिन्न उपसर्जन जो स्वाङ्गवाची शब्द, तदन्त अदन्त से ङीष् होता है विकल्प से। १२६२-क्रोडादिगणपठित और बहच्क स्वाङ्गवाची शब्द से डोष नहीं होता। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रीप्रत्यययाः क्रोडादेर्बह्वचश्च स्वाङ्गान्न ङीष् । 'कल्याणकोडा । प्राकृतिगणोऽयम्। १२६३ नखमुखात् संज्ञायाम् ४ । १ । ५८ । न ङीष । १२६४ पूर्वपदात् सज्ञायामगः ८ । ४ । ३ । पूर्वपदस्थानिमित्तात् परस्य नस्य णः स्यात् संज्ञायां न तु गकारव्यवधाने। 'शूर्पणखा । गौरमुखा । संशायां किम्-ताम्रमुखी कन्या । १२६५ जातेरस्त्रीविषयादयोपधात् ४ । १ । ६३ । जातिवाचि यन्न च स्त्रियां नियतमयोपधं ततः स्त्रियां ङीष् स्यात् । "तटी। वृषली । कठी । बह वृची। जातेः किम्-मुण्डा । अस्त्रीविषयात्किम् १-कल्याणक्रीडा-'कल्याणी क्रोडा यस्या' इति विग्रह 'समासे स्त्रिया पुवत' इति वद्भावे 'कल्याणक्रोड--' शब्दात् 'स्वाङ्गाच्चे' ति ङीषि प्राप्ते 'न क्रीडादिबह्वचः' इति तनिषेधेऽदन्तत्वात् टापि सवर्णदीधे विभक्तिकाये' 'कल्याणक्रोडा' इति रूपम् । २-शूर्पणखा-'शूर्पवत् नखानि यस्याः' इति विग्रहे समस्तात् 'शूर्पनख' शब्दात 'स्वाङ्गाच्चे' ति डोषि प्राप्ते 'नखमुखात् संज्ञायाम्' इति तनिषेधेऽदन्तस्वात् टापि सवर्णदीघे विभक्तिकार्ये 'पूर्वपदात् संज्ञायामगः' इति नस्य गत्वे विभक्तिकाये' 'शूर्पणखा' इति । ३--जातिलक्षणम् - '(क) प्राकृतिग्रहणा जातिः, (ख) लिङ्गानां च न सर्वभाक् । सकृदाख्यातनिर्ग्राह्या, (ग) गोत्रं च , (घ) चरणैः सह ।' ४-तटी-'तट' शब्दाद जातिवाचकादनियतस्रोलिङ्गात् 'जातेरस्त्रीविषयादयोपधात" इति डोषि भसंज्ञायामकारलोपे विभक्तिकाये सपं 'तटी' इति । १२६३–नख--मुख-शब्दान्त से संज्ञा में ङीष नहीं होता है। १२६४-पूर्वपट में स्थित रेफ-षकार से परे नकार को णकार होता है. गकार के व्यवधान में नहीं। १२६५-नित्य स्त्रीलिङ्ग से भिन्न यकार जिसकी उपधा में नहीं है, ऐसे जातिवाचक शब्द से ङीष होता है। (वा०-(१) यकारोपध के प्रतिषेध में हव-गवयादि का प्रतिषेध नहीं होता । (२) मत्स्य शब्द के य का लोप होता है की परे रहते । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ लघुसिद्धान्तकौमुद्यम् बलाका । योपधात्किम् - क्षत्रिया । योपधप्रतिषेधे हय-गवय-मुकय मनुष्यमत्स्यानामप्रतिषेधः' । हयी । गवयी । मुकयी । ( १२४६ ) हलस्तद्धितस्येति यलोपः । प्रनुषी । ( मत्स्यस्य ङयाम् ) यलोपः । मत्सी । १२६६ इतो मनुष्यजातेः ४ । १ । ३५ । ङीष् । 'दाक्षी । १२६७ ऊङतः ४ । १ । ६६ । उदन्तादयोपधान्मनुष्यजातिवाचिनः स्त्रियामूङ् स्यात् । कुरुः । प्रयोपधा त्किम् - अध्वर्युर्ब्राह्मणी । १२६८ "पोश्च ४ । १ । ६८ । ६ ७. पङ्गः । । ' श्वशुरस्यो काराकारलोपश्च ) श्वश्रूः । १२६६ ऊरूत्तरपदादौपम्ये ४ । १ । ६६ । उपमानवाचि पूर्वपदमुत्तपदं यत् प्रातिपदिकं तस्मादूङ् स्यात् । 'करभोरूः । १ - योपधप्रतिषेघे - एषां न गणनेत्यर्थः एभ्यो जातिलक्षणो ङीष् भवत्येवेति भागः । - मनुषी- 'मनुष्य' शब्दात् योपधादपि 'योपधप्रतिषेधे हय गवय...' इत्यादिवात्तिकेऽप्रतिषेधवचनात् 'जाते रस्त्रीविषयाद्' इति 'ङीष' - प्रत्यये भसंज्ञायामकारलोपे 'हलस्त द्वितस्ये' ति यलोपे विभक्तिकार्ये 'मनुषी' इति । ३ - मनुष्यजातिवाचकादिकारान्तान् ङीष् स्यादित्यर्थः । ४–'श्रुत इञ्' सूत्रेण दक्षशब्दात् 'इञ्' ततो ङीष्, दाक्षी । ५- ऊङ स्यादिति शेषः । ६- चादूङ । ७ - श्वश्रूः श्वशुरस्य स्त्रीत्यर्थे पु ́योगलक्षणं ङ बाधवाश्वशुरस्काराकारलोपश्च इति वार्तिकेन 'ऊङ्- ' प्रत्यये भत्वेऽकारलोवे Sकारस्योकारस्य च लोपे विभक्तिकार्ये 'श्वः' इति । करभौ इव ऊरू यस्याः सा । १२६६- मनुष्यजातिवाचक इलन्त से ङीष् होता है । १२६७-यकारोपथ से मिन मनुष्य नातिवाचक उदन्स प्रतिपादक से ऊ होता स्त्रीत्व रहते । १२६८-पङगु शब्द से ऊङ् होता है स्त्रीत्व द्योत्य रहते । ( वा० - श्वशुर शब्द के उकार और होता है स्त्रीत्व द्योत्य रहते । ) कार का लोप होता है और ऊङ्प्रत्यय १२६६-उपमानवाचक शब्द पूर्वपद में और ऊरु उत्तरपद में है जिसके ऐसे प्रातिपदिक से ऊ होता है । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रीप्रत्ययाः १२७० संहित-शफ-लक्षण-वामादेश्च ४ । १ । ७० । अनौपम्याथं सूत्रम् । सहितोरूः । शफोरूः । वामोरूः । १२७१ शाङ्ग खाद्यसो ङीन् ४ । १ । ७३ । शाहरवादेरो योऽकारस्तदन्ताच्च जातिवाचिनो ङीन् स्यात् । 'शार्ङ्गरवी । बैदी । ब्राह्मणी । (नृनरयोर्वृद्धिश्च) 'नारी। १२७२ यूनस्तिः ४ । १ । ७७ । युवनशब्दात् स्त्रियां तिः प्रत्ययः स्यात् । युवतिः। इति स्त्रीप्रत्ययाः। शास्त्रान्तरे प्रविष्टानां बगलानां चोपकारिका । कृता वरदराजेन बघुसिद्धान्तकौमुदी ॥१॥ इति श्रीवरदराजकृता लघुसिद्धान्तकौमुदी समाप्ता। १-शाङ्ग रवी-प्रणप्रत्ययान्तात् 'शाङ्गरव' शब्दात् जातिवात् प्राप्त ङीषं बाधित्वा 'शाङ्गरवाद्यसो डीन्' इति 'डीन-' प्रत्यये भसंज्ञायामकारलोपे विभक्तिकायें शाङ्गरवी इति । २-नारी-नृ' शब्दात् 'नर' शब्दाद् वा 'नृनरयोवृद्धिश्चेति वात्तिकेन 'डोन्-' प्रत्यये तत सन्नियोगशिष्टायां वृद्धौ च विभक्तिकायें 'नारी' इति । ३-यवतिः- 'यवन्' शब्दात स्त्रीत्वे विवक्षिते 'यूनरितः' इति सूत्रेण 'ति' प्रत्यये 'स्वादिष्वसर्वनामस्थाने' इति पदसंज्ञायां 'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्ये' ति न लोपे विभक्तिकायें 'युवतिः' । युवतीति दीर्घान्तस्तु यौतेः शत्रन्ताद् 'उगितश्च' इतिडीपि बोध्यः। इति स्त्रीप्रत्ययाः। १२७०-संहितादि शब्द हैं आदि में जिसके, और ऊरु शब्द सतरपद में हैं जिसके ऐसे प्रातिपदिक से अङ् होता है स्त्रीत्व घोत्य रहते । १२७१-शाङ्गरवादिगणपठित और अञ् प्रत्यय का श्राकार जिनके अन्त में है, ऐसे जातिवाचक शब्दों से डीन् प्रत्यय होता है । (बा.-नृ और नर को वृद्धि होती है, और डीन् प्रत्यय होता है)। १२७२-स्त्रीत्व थोत्य होने पर युवन् शब्द से ति प्रत्यय होता है। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकाकर्तुः परिचयः प्रस्ति पञ्चाम्बुदेशेऽस्मिन्, 'होश्यारपुर ' - मण्डले । जेजों नाम पुरी रम्या द्वीपमूनि व्यवस्थिता । १ । या पुरासीद्यशः पाल - भूपानां स्क्विशासने । राजधानी प्रशस्तेयं पूर्वं बृटिश शासनात् । २ । पण्डितानां कुलं तत्र प्रसिद्धं विद्यते परम् । सदाचाररतं शुद्धं हरिभक्तमथापि यत् । ३ । तत्पूर्वजः केशवोऽभूद् विद्वन्मण्डलमण्डनः । महात्मा भगवद्भक्तो मद्दग्रामवासकृत् । ४ । पुनः प्रचारयामास पाणिनीयमिहापि यः । लुप्तप्रायमधीत्यासो भवदेवमहोदयात् । ५ । रघुनाथस्तु तत्पुत्रो "मुकुन्दस्तत्सुतोऽभवत् । ६ रामचन्द्रो धूर्जटिश्च रामनारायणस्ततः' । ६ । रामनारायणस्यासंश्चत्वारः पण्डिताः सुताः । 'नीलकण्ठ उपेन्द्रश्च विश्वामित्रश्च १० पूर्वजाः । ७ । चतुर्थश्चास्मि विदुषां सात्वतां सेवकः सदा । दामोदरीगर्भजातो विश्वनाथ प्रभाकरः । ८ । उपकाराय छात्राणामुपेन्द्र विवृतिर्मया । सम्पादिता प्रयत्नेन शोधिता १ गुरुभिः पुनः । ६ । १ - द्वाबाप्रान्तशिराभागे । २ - " " जसवाल " इति प्रसिद्धजातीय - राजपूतराजानाम् । ३ = विद्या सागरो भगवद्भक्त श्रादर्शमहात्मा श्रद्ध े यचररणः पण्डित श्री केशवरामजी -महाराजः । ४-काश्यां तत्काले प्रथितमहिम्नो भैरव्यादिटीका कृद्-भैरव मिश्रपितुः श्री पूज्यपादपण्डितभवदेव मिश्रात् सकलवेदवेदाङ्गादिकमधिजग्मिवान् श्रीकेशवरामो विशेषतः पाणिनीयं व्याकरणम् । ५- पूज्यपादो भक्त्यैकनिष्ठः श्री पण्डितमुकुन्दलालजी - महाराजः ६- पं० रामचन्द्रात् प० परमानन्दादयः । ७- पं० धूर्जटिशमंणश्च पं० रामप्रपन्नादयः । 1 ८-ततः = पं० मुकुन्दलालात् 1 ६- वेदान्तसार्वभौमस्ताकिक चक्र चूडामणिभंगवद्भक्तो महात्मा श्रीपण्डित- नीलकण्ठशास्त्री । १० - ज्येष्ठाः । ११- काव्यव्याकरणदर्शन ती श्री मत्पण्डित राम प्रपत्रशास्त्रिभिः (इमे मम ज्येष्ठ पितृभ्यपुत्रतया भ्रातरो विद्यागुरवश्च ) 1 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ टीकाकतु': परिचयः सेयं स्मारकरूपा स्यात् स्वर्यातस्य महात्मनः । ज्येष्ठस्य भ्रातुविदुषो योग्यस्यापेन्द्र शास्त्रिणः । । १० । कृत्वैतत्सकलं प्रेम्णा श्रीकृष्णाय समर्पये | तेन मे प्रीयतां देवो भगवान् राधिकापतिः | ११ | इति श्रीभारतीय - पन्चाम्बु- प्रान्तोत्तरदिग्विभागस्यहोशियारपुर मण्डलान्तर्गत'जैजों' नगरनिवासि सुप्रसिद्ध पण्डितकुल प्रसूत - पण्डित श्रीरामनारायण शर्मात्मज - 'खन्ना' - नगरस्थ - श्री सरस्वती संस्कृत महाविद्यालयाचार्य - परडत-श्रीविश्वनाथशास्त्रिप्रभाकर - सम्पादिता "उपेन्द्र विवृतिः” सम्पूर्णा ।। ॐ तत्सत् ॥ ३३७ शास्त्रान्तरेति - प्रौर शास्त्रों में प्रविष्ट होनेवाले बालकों का उपकार करनेवाली यह वरदराजाचार्य से निर्मित लघुसिद्धान्तकौमुदी समाप्त होती है । इति श्रीहरिद्वारस्य ऋषिकुलव्याकरणाध्यापकश्र ेष्ठानां गुरुवर्य्याणां श्रीविद्यारत्नपण्डितदेवदत्तशर्मणामन्तेवासि - लक्ष्मीनारायणशास्त्रिकृतो लघुकौमुदीस्थ सूत्रारणां हिन्दीभाषानुवादः परिसमाप्तः । ॥ इति शम् ॥ + वैयाकरणभूषणस्य दर्शनालङ्कारस्य स्व० श्री पं० उपेन्द्रनाथशास्त्रिणः । Page #359 --------------------------------------------------------------------------  Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ परिशिष्टम् द्वन्द्वं द्वन्द्वदेहं तं द्वन्द्वनृन्दनिकन्दनम् । वन्देऽहं सच्चिदानन्दं देवं श्रीनन्दनन्दनम् ॥ १॥ कर्तुं नुपेन्द्रविवृतेविवृतेष्ट लक्ष्यान् भ्रातृनुपेन्द्रविदुषो विदुषो विशिष्टान् । भक्तानुपेन्द्रपदयोः पदयोजनाविद्, वन्दे गुरौ रतिगुरून् गुरु विश्वनाथान् ॥२॥ एषोऽहं कविकान्तो निगमानन्दः परमहंसः । विदधे बालबोधाय परिशिष्ट कौतुकादेव ।। अथ लघुलिङ्गानुशासनम् लोकाश्रयस्य लिङ्गस्य बाहुल्य । रिलोकनात् । लिख्यते बालबोधाय लघुलिङ्गानुशासनम् ॥ १ लिङ्गम् । अधिकारोऽयम् । स्त्रीलिङ्गाधिकारः २ स्त्री । प्रयमप्यधिकारः । ३ न्यूप्रत्ययान्तो धातुः । श्रनिप्रत्ययान्त ऊप्रत्ययान्तश्च धातुः स्त्रियां स्यात् 1 प्रवनिः चमूः । ४ मिन्यन्तः । मिप्रत्ययान्तो निप्रत्ययान्तश्च धातुः स्त्रियाम् । भूमिः ग्लानिः । ५ क्तिन्नन्तः (त्यन्तश्च ) क्तिन्प्रत्ययान्तस्तिप्रत्ययान्तश्च स्त्रियाम् । क्तिन्नन्तो यथा - गतिः, कृतिः, मतिः, भूतिः, तिप्रत्यायान्तो यथा -युवतिः । " ६ ईप्रत्ययान्तश्च । ङीबन्तो ङीषन्तो ङीनन्त ईप्रत्ययान्तश्च स्त्रियाम् । नदी, ऐन्द्रो, गार्गी । गौरो, नर्त्तकी, गोपी, तटी, कठा । शार्ङ्गरवी, बैदी, ब्राह्मणी, नारी, लक्ष्मीः । ७ ऊङाबन्तश्च । ऊङन्ता यथा – कुरु: पङ्गुः श्वश्रूः वामोरूः इत्यादयः । प्रावन्ता यथा - अजा, अश्वा, बाला, रमा, मेवो, गङ्गा, सर्वा, त्रिफला इत्यादयः । ८ य्वन्तमेकाक्षरम् । ईकारान्त ऊकारान्तश्चैकाक्षरः स्त्रियाम् । श्रीः, भूः । एकाचरं किम्- पृथुश्रीरयम् । । C विंशत्यादिरानवतेः । स्त्रियाम् । इयं विंशतिः २० ४० । पश्चाशत् ५० । षष्टिः ६० । सप्ततिः ७० । श्रशीतिः ८० त्रिशत् ३० । चत्वारिंशत् । नवतिः ६० । १० तलन्तः । स्त्रियाम् । शुक्लता, ब्राह्मणता, जनता, देवता, सहायता । ११ भाः स्रुक् स्रग दिगुष्णिगुपानहः । ऐते स्त्रियां स्युः । इयं भाः, स्रुक्, प्रकू, दिक्, उष्णिक्, उपानत् । - १२ शष्कुल- राजी कुट्यशनि वर्त्ति भ्रकुटि त्रुटि बलि- पङ्कयः । एते स्त्रियां स्युः इयं शष्कुलिरित्यादयः प्रशमिः पुंसि च । इयमयं वाऽशनिः । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् १३ अप्-सुमनस्समासिकता वर्षाणां बहुत्वञ्च । एष स्त्रीत्व बहुवचनातत्वञ्च । प्राप इमाः सुमनसः = पुष्पम् । देवतावाची तु पुरस्येव । समाः = वर्षम् | सिकताः = बालुकाः । ३४० १४ ऋकारान्ता मातृ-दुहितृ- स्वसृ यातु- ननान्दरः । ऋकारान्ता एते पञ्चैव स्त्रीलिङ्गाः । स्वत्रादिपञ्चकस्यैव ङानिषेधेन कर्त्रीत्यादेः ङीपा-ईकारान्तत्वात् तिसृचत - स्रोस्तु स्त्रियामादेशतया विधानेऽपि प्रकृत्योस्त्रिचतुरोऋकारान्तस्वाभावाद् न दोषः । इनि स्त्र्यधिकारः । पुल्लिङ्गाधिकारः १५ पुमान् । श्रयमधिकारः । १६ घञवन्तः । घञन्ता यथ - पाकः रामः, त्यागः । अप्प्रत्ययान्तो यथा करः गरः । १७ घाजन्तश्च । घप्रत्ययान्ता यथा - विस्तरः, गोचरः, दन्तच्छदः । श्रच्प्रध्ययान्ता यथा चयः, जयः, श्रयः । १८८ नङन्तः । पुसि स्यात् । यज्ञः । याच्ञा तु स्त्रियाम् । प्रश्नः, विश्नः, यत्नः । रक्ष्णः । , १६ कयन्तो घुः । किप्रत्ययान्तो घुसंज्ञः पुंसि । उदधिः समाधिः, सन्धिः, व्याधिः, विधिः, निधिः । '' २० उदन्तः । प्रभुः, विभुः । २१ रुत्वन्तः । मेरुः, मेतुः । २२ अवन्तः । इत्यधिकृत्य । २३ कोपधः । २४-टोपधः । २५ - गोपधः । २६ - थोपधः । २७ - नोपधः । २ = - पोपधः । २६ - भोपधः । ३० - मोषधः ३१ - योपधः । ३२ - रोपधः । ३३पोधपः । ३४ - सोपधः । श्रकारान्ता उक्तोपघाः प्रायः पु ंसि । क्रमशो यथा - स्तवकः, कल्कः । घटः, पटः । गणः, पाषाणः । रथः, यूथः । इनः फेनः । दीपः सर्पः । कुम्भः, शरभः । होमः धर्मः । यः समयः । क्षुरः खुरः । वृषः, वृक्षः । बायसः, महानसः । इति पुंल्लिङ्गाधिकारः । नपुंसकलिङ्गाधिकारः ३५ नपुंसकम् । अधिकारोऽयम् । ३६ भावे ल्युडन्तः । यथा - ज्ञानं, हसनं, गममम् । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४१ परिशिष्टम् ३७ निष्ठा च। भावे या निष्ठा तदन्तं क्लीबं स्यात् । गोतं, पीतं, हसितं, गतं, भुक्तं, युक्तम् । ३८ त्वष्यत्रो तद्धितौ । शुक्लत्वं, शौक्ल्यं, मूढत्वं, मौढ्यं, सुखत्वं, सौख्यम् । ३६ य-घ ठग-यगत्रण-पुत्र-छाश्च भावकमणि । स्तेयम् । सख्यम् । कापेयम् । सैनापत्यम् । प्रौष्टम् । द्वैहायनम् । पितापुत्रकम् । अच्छावाकीयम् । ४० अव्ययीभावः । नपुंसके स्यात् । अविहरि । यथामति । ४१ द्वन्द्वकत्वम् । प्राणितूर्येतिप्राप्तैकवद् मावा द्वन्द्वा नपुसके । पाणिपादम् । मुखनासिकम् । रथिकाश्वारोहम्। ४२ लोपधः । कमलं, कुशलं, भूतलं, सकलं, शकलम् । ४३ शतादिः संख्या । शतं, सहस्रम्, अयुतं, नियुतं, लक्षम् । ४४ असन्तो द्वयच्कः । यशः, मनः, तपः । ४५ त्रनन्तः । पत्रं, छत्रं, पात्रं, गात्रं, पवित्रम् । इति नपुसकलिङ्गाधिकारः । अथ स्त्रीपुसाधिकारः ४६ स्त्रीपुंसयोः । अयमधिकारः । ४७ गो-मणि - यष्टि-मुष्टि-पाटलि - बस्ति-शाल्मलि - त्रुटि-मसि-मरीचयः। इयमयं वा गौः। ४८ अपत्यार्थस्तद्धिते । प्रोपगवः, प्रौपगवो । इति स्त्रीपुंसाधिकारः। अथ पुनपुंसकधिकारः ४६ नपुंसकयोः । इत्यधिकारः।। ५० धृत-भूत-मुस्त-दवेलितैरावत-पुस्तक-वुस्त-लोहिताः । अयं घृतः, इदं घृतम् । ५१ गृह-मह-देह-पटट-पटहाष्टापदाम्बुद-ककुदाश्च । गृहं, गृहाः पुंभूम्न्येव । ५२ अर्धर्चादयः पुंसि च । अधंचंम्, अर्धचंः ॥ इति पुनपुसकाधिकारः । अथ विशिष्टलिङ्गाधिकारः ५३ अविशिष्टलिङ्गम् । (तत्तल्लिङ्गवाचकताप्रयुक्त कार्यविशेषशून्यमित्यर्थः ) इत्यधिकारः। ५४ अव्ययं कतियुष्मदः। ५५ ष्णान्ता संख्या।' Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् विशेष्यलिङ्गाधिकारः ५६ शिष्टा संख्या परवत् । शिष्टा संख्या विशेष्यलिङ्गा। एकः पुरुषः, एक स्त्री । एकं कुलम् । __ ५७ गुणवचनश्च । विशेष्यलिङ्गं स्यादित्यर्थः । शुक्ल: पट: । शुक्ला पटी। शुक्लं वस्त्रम्। ५८ कृत्याश्च । कृत्यप्रत्ययान्ताश्च विशेष्यलिङ्गाः स्युः कत्तव्यो धर्मः। सतव्या सरणिः । स्मर्तव्यं ब्रह्म। ५६ करणाधिकरणयोर्म्युट च । विशेष्यलिङ्ग स्यादित्यर्थः । ६० सर्वादोनि सर्वनामानि । सर्वनामसंज्ञकानि सर्वादीनि विशेष्यलिङ्गानीत्यर्थः । सर्वे पुरुषाः । सर्वाः स्त्रियः । सर्वाणि फलानि । इति लघुलिङ्गानुशासनं सम्पूर्णम् । अथ किमिद व्याकरणम् ? व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्यन्ते ( संसाध्यन्ते ) शब्दा अनेनेति व्याकरणम्-सूत्रवार्तिकभाज्यव्याख्यानादिस्वरूपं शब्दानुशासनं नाम शास्त्रम् । तत्र सूत्रम् अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद्विश्वता मुखम् । अस्तोभमनवद्यश्च सूत्र सूत्रविदो विदुः ॥ तद्भेदाश्चसज्ञा च परिभाषा च विधिनियम एव च । अतिदेशोऽधिकारश्च षड्विधं सूत्रमुच्यते ॥ तत्र १-सज्ञासज्ञिसम्बन्धबोधकं सूत्रम् सज्ञासूत्रम् । यथा-"वृद्धिरादैच्', "प्रदेङगुणः", "शेषो ध्यसखि"। २-अव्यवस्थायां व्यवस्थाऽऽपादकं सूत्रम्=परिभाषासूत्रम्। तथा-"तस्मांदित्युत्तरस्य", "मिदचोऽन्त्यात्परः"। ३-आदेशादिविधायकं सूत्रम=विधिसूत्रम् । यथा-"इको यणचि", "ह्रस्व नद्यापो नुट्", "एरच्"। ४-प्राप्तस्य विनियामकं सूत्रम्-नियमसूत्रम् । यथा - "रास्सस्य" । ५-प्रतस्मिन् तद्धर्माऽऽपादक सूत्रम् = अतिदेशसूत्रम् । यथा - "सख्युरसम्बुद्धौं", "गोतो णित्", "लोटो लङ्वत्" । ६-उत्तरोत्तरस्वार्थसमर्पक सूत्रम्-अधिकारसूत्रम् । यथा"ज्याप्रातिपदिकात्" "प्रार्धधातुके", "पूर्वत्रासितम्"। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ३४३ वार्तिकलक्षणम्उक्तानुक्तदुरुक्कानां चिन्ता यत्र प्रवर्तते । त ग्रन्थं वार्तिकं प्राहुर्वातिकज्ञा विचक्षणाः ॥ यथा-'मोतो णिदिति वाच्यम्', 'छत्वममीति वाच्यम्' 'यण: प्रतिषेधो वाच्यः'। भाष्यलक्षणम्सूत्रार्थों वण्यते यत्र वर्णैः सूत्रानुसारिभिः । स्वपदानि च वय॑न्ते भाष्यं भाष्यविदो विदुः ॥ तच्च प्रकृते महामुनि-पतञ्जलि-विरचितं व्याकरणमहाभाष्यं सर्वप्रसिद्धमेव । व्याख्यानलक्षणम्पदच्छेदः पदार्थोक्तिविग्रहो वाक्ययोजना। माक्षे पश्च समाधानं व्याख्यानं षडविधं मतम् ।। तच्च पूर्वाचार्यविरचितं काशिकाप्रक्रियाकौमुदीसिद्धान्तकौमुद्यादिरूपं प्रथितमेव । तदेवं सूत्रवार्तिकभाष्यव्याख्यानादिविषया सर्वविध-लौकिक-वैदिकशब्दसाधुत्वप्रतिपादनपरं पाणिनीयं व्याकरणं सर्वेष्वपि व्याकरणेषु प्रातिशास्येषु च मून्यतममिति नाविदितं विदुषाम् । तस्येयं प्रवेशिकास्थानीया लघुसिद्धान्तकौमुदी। व्याकरणस्याऽनुवन्धचतुष्टयम्सकलपुरुषार्थ साधनं वेदः, स च मन्त्रब्राह्मणात्मक-शनराशिरूपः, तदनु सर्वाएयपि शास्त्राणि शब्दराशिरूपाण्येवेति वेदशास्त्रादिज्ञानाय प्रवृत्तमिदं शब्दशास्वम = व्याकरणं सर्वेषामध्येयतामापद्यत इति सिद्धमस्यानुवन्धचतुष्टयम् १- शब्दज्ञानं प्रयोजनम् । २-शब्दसाधनं विषयः । ३-शब्दज्ञानार्थी अधिकारी। ४-प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावादिः सम्बन्धः । पञ्च सन्धयःसन्धयः पच, पञ्चसन्धिप्रकरणमिति च परम्पराप्रवादः । तत्र जायते जिज्ञासा के ते पच सन्धयः ? यानाश्रित्य प्रवृत्तोऽयम्प्रवादः । लघुकौमुद्याम-प्रचसन्धिः, हल सन्धिः, विसर्गसन्धिः, इति सन्धित्रयमेव समुपलभ्यते । सिद्धान्तकौमुधु - क्तस्वादिसन्धिसम्मेलनेऽपि चत्वार एव सम्पद्यन्ते । अत्र केचित्-प्रकृतिभावं चतुषु पञ्चम सन्धिमाचक्षते। वर्णसन्धान सन्धिरिति व्याकुर्वाणा अन्ये प्रकृतिभावस्य सन्धित्वे न सन्तुष्यन्ति तत्र वर्णसन्धानाभावात् । ते हि सिद्धान्तकौमुद्युक्त-चतुःसन्धिषु पञ्चमम् - अनुस्वारसन्धि परसवर्णरूपं ब्रुवते । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् 'अपरे पुनः सज्ञाप्रकरणं प्रकृतिभावप्रकरणश्चापि लघुकौमुधुक्तसन्धित्रये सम्मेल्य प्रकरणपञ्चकमिदं पञ्चसन्धिप्रकरणमुच्यत इति समादधति । सज्ञाप्रकरणस्य सन्धिस्वाभावेऽपि तदुपोद्घातत्वेन तदन्तःपातः । प्रकृतिभावस्य चाऽसन्ध्यपवादत्वेन तत्समानदेशत्वमुत्सर्गापवादयोरिति समानदेशत्वनियमाद् विधिपूर्वको निषेध इति नियमाच सम्धिसम्बन्धित्वेन सन्धित्वमेवेति छत्रिणो यान्तीतिवत् पञ्चसन्धिव्यवहारो भाक्त इति सदाशयः। यद्वा पञ्चानां परस्परसापेक्षाणां सज्ञाद्यवयवाना सन्धिः समुच्चयो यस्मिअवयविनि (प्रकरणे) तसञ्चसन्धिप्रकरणमित्युच्यते परम्परया। पाणिनीयव्याकरणाचाय्यकालविचारः पाणिनिः एतद्व्याकरणमूलभूतसूत्राणां कर्ता 'परशुपुर' (पेशावर) समीपवति 'शलातुर' (लाहुर) ग्रामाभिजनो दाक्षिपुत्रो भगवान् पाणिनिः, कलेरष्टम्यां शताब्द्यां समभूदिति पूर्वविद्वत्समाजसिवान्तः । कात्यायन: पाणिनीयव्याकरणे वात्तिककर्ता वररुच्यपरनामाऽयं कात्यायनो मुनिः कोशिशताब्दया प्रादुरभवदिति पगिडतश्रीरामप्रपन्नशास्त्रिकृतनिरुक्तभूमिकातोऽवगम्यते। केचित्तु पाणिनिसमकालत्वमेवास्य प्रतिपादयन्ति। पतञ्जलिः गोनदंदेशीयः (प्रयञ्च गोनर्ददेशः काश्मीरेष्विति प्राश्चः, अयोध्याप्रान्ते इति पौरस्त्याः) महाभाष्यकारः शेषावतारत्वेन विख्यातो भगवान् पतञ्जलिः कले: सप्तविशशताब्दयां खोष्टजन्मतश्च ४५० वर्षाणि पूर्व-समजायतेति निरुक्तभूमिकायां पं० श्रीरामप्रपन्नशास्त्रिणः । कलेश्चतुर्विशशताब्दयामभूदिति श्रीदाधिमथाः । भट्टोजिदीक्षित वरदराजौ वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदीकर्ता श्रीभट्टोजिदीक्षितः श्रीलक्ष्मीधरमहसूनुः कान्यकुब्जेश्वरस्य गोविन्दचन्द्रदेवस्य समानकालिकस्तेन खीष्टीयद्वादशशताब्दोशेषभागे त्रयोदशे शतके समभूदिति महता प्रयासेन साधितं श्रीपण्डितज्वालाप्रसादमिनेण भाषाटीकासहित सिद्धान्तकौमुदीभूमिकायाम । प्रो० वेवर-डाक्टरजलिमतानुसारच खीष्टीयसप्तदशशताब्दी श्रीभट्टोजिदीक्षितस्य समयः । मध्यसिद्धान्तकौमुदीकर्ता श्रीवरदराजश्व भट्टोजिदीक्षितस्य शिष्य इति तस्य सामानकालिक एवातस्तस्य कालनिर्णयो न पृथक क्रियते । १-अपरे - कर्मकाण्डप्रभाकराः पं० श्रीरविदत्तशर्माणः 'खन्ना' स्थाः । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५ :: - 30.- : ! परिशिष्टम् बालानां लेखोपयोगिनो नियमाः प्रदर्श्यन्ते । १-प्रमराणि सुवाच्यानि सुन्दराणि सन्देहरहितानि च स्युः । २-पदं पदं पृथक्कृत्य ( समुचित व्यवधानं कृत्वा ) लेखो लिखितः स्यात् । ३-लेखे विरामादिचिहनियमाः सर्वथा पालिता भवेयुः। ४-लेखे प्रसङ्गसमाप्तौ प्रघट्टकः परिवर्तनीयोऽवश्यमेव । ५-प्रघट्टकस्य प्रथमा पङ्क्तिदर्थगुलं स्थानं रिक्त परित्यज्य लेखनीया, शिष्टाश्च षक्तयः समानरेखायां सरलाः=ऋजवो विरलाश्च लेखनीयाः। लेखोपयोगिचिह्नानि । अवान्तरविरामचिह्नम् अर्धविरामचिह्नम पूर्णविराम चिह्नम् प्रसङ्गसमाप्तिचिह्नम् प्रश्नचिह्न काकुनिहम् सम्बोधनखेदाऽऽश्चर्यचिह्नम् उद्धरणचिहम् पर्यायचिह्न संयोगचिह्न सन्धिच्छेदचिह्नम् निर्देशचिह्नम् पाठान्तरचिह्नम् मध्ये भावादिप्रदर्शकचिहम् त्रुटिपूर्तिचिहम अपूर्णपाठचिह्न समासे पदविभागसौकर्यचिहच बालोपयोगि-अशुद्धिप्रदर्शनम् (बालानां संस्कृतानुवादे प्रायोजायमाना अशुद्धयः) 'ते भ्रातोऽनेन कर्मेणाऽभिलाषा' जायते मम । "एकामुपाधिमद्य त्वां दद्यां किन्तु पतेर्भयं ॥१॥ १-तव, पादादौ स्थितत्वान्न 'ते' श्रादेशः। २ - भ्रातरनेन, रोरेवोत्वविधानादुत्वं न। ३-कर्मणा, नान्तत्वेनादन्तत्वाभावादिनादेशो न । ४-अभिलाषः, 'घत्रबन्तः' इति पुस्त्वम् । ५-एकम, 'क्यन्तो घुः' इति सूत्रेण उपाधिशब्दस्य पुंस्त्वम, तद्विशेषणत्वाद एकशब्दस्यापि। ६-तुभ्यम्, सम्प्रदानत्वाञ्चतुर्थो । ७-पत्युः-पतिशब्दस्य समास एव घिसंज्ञाविधानाम गुणादिकम् । ८-भयम्, हल्परत्वामावादनुस्वारो न । ॥ | ! + Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् 'पश्यत्वा युवती भार्या भवान्नद्य गृहाद् गतः । तस्या भन्तु हिर्याते किं "विहित्वा त्वमागतः ॥ २ ॥ कुतस्त्वं "शंकसे "भ्रातो! 'नेत्रकाणोऽस्ति तत्सुतः । " तस्य सार्धं मदीयाऽस्ति सन्धिर्वै दीर्घ कालतः ॥ ३ ॥ कोपं " मा कुरु तात ! त्वं धर्मं तव ब्रवीम्यहम् | १३ मे ऽतिमधुरे १४नीय फल आस्वादय प्रिय ! ॥ ४ ॥ यच लग्नो " महत्प्रेम्णा दयालोः " कृष्णपादयोः । "सो १९ जगतस्य सर्वस्य सेव्यस्तस्य १ १७ २० 'नमस्ततः ॥ ५ ॥ २ अस्माकं भोजनं २ पक्तं गृहं गच्छे यथागतिः । २४ अहोरात्रं विना २६ क्रीडे २७ छत्रोपानद्भिरातुरः || ६ || अस्मिन् विश्वे मनुष्या ये २९ कर्म ३ जहन्ति नो निजम् । १ नीचापि ते न ३२ बिभ्यन्ति शमनात्तस्य सेवया ॥ ७ ॥ २८ 30 १ - दृष्ट्वा, इत्संज्ञकशकारादिप्रत्यये परे पित्रादीनां विधानात्पश्याऽऽदेशो न । २ - युवभार्याम्. 'पु वत्कर्मधारय ' इत्यादिना पुंवद्भावः । ३ - भवानद्य, ह्रस्वाभावात् ङमुण्न । ४- भर्त्तरि, ‘यस्य च भावेन भावलक्षणम्' इत्यनेन 'भत्तीर' इति कर्त्तरि सप्तमी कर्तृपदसम्बन्धेन क्रियापदेऽपि सप्तमी तद्विशेषणत्वात् । ५ - बिधाय, 'समासेन पूर्वे क्वो ल्यप्' इति ल्यप् । ६- शङ्कसे, 'अनुस्वारस्य' इति नित्यपरसवर्णः । ७-८ - भ्रातनैत्रेण काणः, रोरेवोत्वविधानान्नोत्वम् । तत्कृतगुणवचनाभावान्न समासः ६ - तेन सहादियोग तृतीया । १० - मदीयः 'क्यन्तो घु' इति सन्धिशब्दस्य पु ंस्त्वम्, तद्विशेषत्वाद् मदीय इत्यस्थापि । ११ मा कार्षीः, 'माङि लुङ्' इति लुङ् । १२ - त्वाम्, द्विकर्मकत्वात् कर्मणि द्वितीया । १३ - इमे अति, 'ईदूदे' इति प्रगृह्यत्वात् प्रकृतिभावः । १४ - नीत्वा, समस्तत्वान्न ल्यप् । १५- फले आस्वादय, अत्रापि प्रकृतिभाव: । 'ईदूदे' इति । १६ - महाप्रेम्णा, 'श्रान्महत' इत्यात्वम् । १७ - कृष्णस्य, सविशेषणानां वृत्तिर्न, वृत्तस्य च न विशेषणम् । १८ - स 'एतत्तदो:' इति सुलोपः । १६ - जगतः हलन्तत्वान्न 'स्यः' । २० - तस्मै, 'नमः स्वस्ति' इति चतुर्थी २१- पक्वम्, 'पचो वः' इति क्तस्य वकारः । २२-गच्छामि, गमेः परस्मैपदत्वात् । भावश्च' इत्यव्ययत्वाद् ‘अव्ययादा सुपः' इति सुपो लुक् । पु ंसि' इति पु ंस्त्वम्, यद्वा - क्रियाविशेषणत्वात् साधु । २५ - विन । २६ - क्रीडामि, परस्मैपदत्वात् । २७-छत्रोपानहेन, 'द्वन्द्वाच्चुदषहान्ताद्' इति च्, समाहारत्वादेकवचनम् । ६८-- विश्वस्मिन् सर्वनामत्वात्स्मिन्नादेशः । २६ - कर्म ' स्वमोन पुसकात्' इत्यमो लुक् । ३० - जहति, 'अदभ्यस्तात्' इत्यत् । ३१ - नीचा पे. यलोपस्याऽसिद्धत्यान सवर्णदीर्घः । ३२ - बिभ्यति, श्रभ्यस्तत्वादत् । । २३ - यथागति, 'अव्यय २४ - अहोरात्रः, 'रात्राह्नाहाः . Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुरूपम् 'भू-सत्तायाम् भवति होता है । अनुवादोपयोगाय - उपसर्गयोगेन केषाञ्चिद् धातूनामर्थविपरिणामः प्रदर्श्यते— उपसर्गेण धात्वर्थी बलादन्यत्र नीयते । प्रहाराहार-संहार-विहार- परिहारवत् ॥१॥ (दिङ्मात्रमुदाह्रियते) भाषार्थः अनुभवति - अनुभव करता है । विर्भवति - प्रकट होता है । د. परिशिष्टम् उद्भवति - उत्पन्न होता है । प्रादुर्भवति प्रभवति-समर्थ होता है, या उत्पन्न होता है । गच्छति - در 1 परिभवति - तिरस्कार करता है पराभवति - तिरस्कार करता है । श्रभिभवति "" सम्भवति पैदा होता है, या सम्भव है । धातुरूपम् पक्रामति - हटता है | गम्लृ गतौ । -जाता है । प्रतिगच्छति - लौटता है । क्रमु-पादविक्षेपे क्रामति - चलता है । उपक्रमते श्रारम्भ करता है । प्रक्रमते- संक्रमति - संक्रान्त होता है । विक्रमते - विक्रम दिखाता है । आक्रमते - आक्रमण करता है । निष्क्रामति- निकलता है । अतिक्रामति - श्रतिक्रमण - उल्लंघन करता है। परिवर्तते परिक्रामति - परिक्रमा करता है । पराक्रमते - पराक्रम दिखाता है। श्रवगच्छति - जानता है । अनु गच्छति -पीछे जाता है । निर्गच्छतिति - बाहर जाता है । श्रधिगच्छति प्राप्त करता है । श्रागच्छति - जाता है । संगच्छते - मिलता है | उद्गच्छति - ऊपर जाता है । श्रय - गतौ । ते-चलता है । पलायते - दौडता है । वृतु वर्तने । वर्तते है | भाषार्थः प्रवर्तते - कार्य में) लगता है । निवर्तते - लौटता है । अनुवर्तते - अनुसरण करता है । ते-घूमता है। हृञ — हरणे | हरति- चुराता है । ३४७ १- दीधीवेवी - दरिद्राणामसुत्र जागरेस्तथा । एकाचामपि धातूनां नाऽनुबन्धोऽज् विलुप्यते ॥ तेन, ऊकारानुबन्धलोपो न । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् धातुरूपम् भाषार्थः धातुरूपम् भाषार्थः उपाहरति-भेंट देता है। उपेक्षते-उपेक्षा (लापरवाही) करता है । प्रहरति-प्रहार करता है। अन्वीक्षते-जाँच करता है। विहरति-विहार करता है। रुह-बीजजन्मनि संहरति-संहार करता है। रोहति-जमता है । ( उगता है) परिहरति-दूर करता है। | प्ररोहति-" उद्धरति-उद्धार करता है, निकलता है । अधिरोहति-चढ़ता है। उदाहरति-उदाहरण देता है। संरोहति-मिलता है। उपसंहरति-उपसंहार (संकोच) करता है। श्रारोहति-चढ़ता है। प्रत्युदाहरति-प्रत्युदाहरण देता है। अवरोहति-उतरता है। व्यवहरति-व्यवहार करता है। लप-लपने आहरति-लाता है। लपति-बोलता है। अभ्यवहरति-खाता है। आलपति " अपहरति-अपहरण करता है। विलपति-रोता है। वह--प्रापणे संलपति-वार्तालाप करता है। वहति-ले जाता है। (ढोता है) प्रलपति-बकवास करता है। उद्वहति-विवाहता है। अपलपति-छिपाता है। रणीन-प्रापणे वद-व्यक्तायां वाचि। नयति-ले जाता है। वदति-कहता है । प्रणयति बनाता है। अनुवदति-अनुवाद करता है। अपनयति हटाता है। विवदते-झगड़ता है। श्रानयति लाता है। प्रतिवदति-जवाब देता है। परिणयति-विवाहता है। वस-निवासे निर्णयति-निर्णय करता है। वसति-निवास करता है। अनुनयति-मनाता है। प्रवसति-विदेश जाता है। उपनयति-उपनयन करता है। उपवसति-उपवास (अत) करता है। ईक्ष-दर्शने षद्लू-विशरणगत्यवसादनेषुप्रतीक्षते-उडोकता है । प्रतीक्षा करता है। सीदति-ठहरता है, दुःखी होता है। अपेक्षते-चाहता है। प्रसीदति-प्रसन्न होता है। परीक्षते-परीक्षा लेता है। | पर्यवसीदति-समाप्त होता है। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषार्थः धातुरूपम् विषीदति-दुःखी होता है। निषीदति-बैठता है। अवसीदति-थकता है। ष्ठा-गतिनिवृत्तौतिष्ठति-ठहरता है। प्रतिष्ठते-जाता है। अनुतिष्ठति-करता है। संतिष्ठते-मरता है। उत्तिष्ठति-उठता है। उपतिष्ठते-उपस्थित होता है। सृ-गतो सरति-जाता है। प्रसरति-फैलता है। अनुसरति-पीछे जाता है। निःसरति-निकलता है। अपसरति-हटता है। परिसरति-घूमता है। चर-गतीचरति-घूमता है। दुराचरवि-दुराचरण करता है। आचरति-व्यवहार करता है। उपचरति-सेवा करता है। अनुचरति-पीछे चलता है। परिचरति-सेवा करता है। संचरति-घूमता है। तृ-प्लवनतरणयोःतरति-तरता है। अवतरति-उतरता है। वितरति देता है। परिशिष्टम् ३४६ | धातुरूपम् মাথ द्र-गतो। द्रवति-पिघलता है। उपद्रवति-उपद्रव करता है। विद्रवति-भागता है। पत्ल-पतनेपतति-गिरता है। प्रणिपतति-प्रणाम करता है। आपतति-पा पड़ता है। उत्पतति-उड़ता है। रमु-क्रीडायाम्रमते-खेलता है। विरमति-हटता है। उपरमात-उपरत होता है। असु-क्षेपणे अस्यति-फेंकता है। अभ्यस्यति-अभ्यास (याद ) करता है। निरस्यति-निकालता है। आस-उपवेशने। श्रास्ते-बैठता है। अध्यास्ते-अधिकार करता है। उपास्ते-पूजा करता है। इण-गतो एति-जाता है। अवैति-समझता है। प्रत्येति-विश्वास करता है। व्येति-खर्च करता है। उदेति-उगता है। उपैति-प्राप्त करता है। अभ्येति-आगे आता है। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् धातुरूपम् भाषार्थः | धातुरूपम् भाषार्थः अन्वेति-पीछे आता है, या सम्बद्ध होता है। प्राप्ल-व्याप्तौअपैति-दूर होता है। प्राप्नोति-प्राप्त करता है। डुधाञ्-धारणपोषणयो:- व्याप्नोति-फैलता है। दधाति-धारण करता है। समाप्नोति-समाप्त करता है। 'संदधाति-मेल करता है। क्षिप-प्रेरणेविदधाति-करता है। क्षिपति-फेंकता है। परिधत्ते-पहनता है। संक्षिपति-छोटा करता है। (अ) पिदधाति-ढकता है। उत्क्षिपति-ऊँचा फेंकता है। निदधाति-रखता है। आक्षिपति-दोष देता है। अवधत्त-ध्यान देता है। अवक्षिपति-नीचे फेंकता है। अभिदधाति बोलता है। दिश-अतिसर्जने (दाने) पद-गतौ दिशति-देता है। पद्यते-जाता है। उपदिशति-उपदेश देता है। प्रपद्यते-प्राप्त करता है या भजता है। संदिशति-सन्देश कहता है। उत्पद्यते-पैदा होता है। रुधिर-आवरणेविपद्यते-दुःखी होता है। रुणद्धि-रोकता है। उपपद्यते-योग्य होता है। अनुरुण द्धि-अनुरोध(सिफारिश) करता है। मन ज्ञाने विरुणद्धि-विरोध करता है। मन्यते-मानता है। डुकृञ्-करणेअवमन्यते-अनादर करता है। करोति-करता है। अनुमन्यते-सलाह देता है। आविष्करोति- प्रकट करता है। सम्मन्यते-सम्मान करता है। अनुकरोति-नकल करता है। . चिञ् चयने अलंकरोति-भूषण पहनता है। चिनोति-चुनता है। प्रतिकरोति--प्रतीकार करता है। उपचिनोति-बढ़ाता है। अधिकरोति-अधिकार करता है। सञ्चिनोति-इकट्ठा करता है। उपकरोति-उपकार करता है। अपचिनोति-घटता है। निराकरोति-हटाता है। १-विपूर्वो धा करोत्यर्थे झमिपूर्वस्तु भाषणे । मेलने चापि संपूर्चा निपूर्वा स्थापने मतः॥ . Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुरूपम् भाषार्थः अपकरोति - अपकार ( बुराई ) करता है । परिष्करोति - शोधता है । 1 ग्रह - उपादानेगृह्णाति - लेता है श्रनुगृह्णाति - कृपा करता है । प्रतिगृह्णाति - -दान लेता है । विगृह्णाति - लड़ता है । निगृह्णाति - दगड देता है । बन्ध-बन्ध बध्नाति बाँधता है। सम्बध्नाति -,, - -- परिशिष्टम् लाकृतिः - 'लू' का स्वरूप । अथवा 'लू' के समान टेढ़ी प्रकृतिवाले बाँके बिहारी भगवान् श्रीकृष्ण । | ( एवं वितौ) गौर्यागच्छति - गौरी ाती है । कुर्विदम् - यह करो । मात्राज्ञा - माता की आज्ञा । धातुरूपम् उद्बध्नाति - फाँसी देता है । निर्बंध्नाति श्राग्रह करता है । भाषार्थः मत्र - गुप्तभाषणे - मन्त्रयते - सलाह करता है । निमन्त्रयते-न्योता देता है ! लघुकौमुदीस्थ-प्रयोगसंग्रहो भाषार्थसहितः, तत्राच्सन्धिप्रकरणम् प्रयोगाः भाषार्थ प्रयोगाः भाषार्थः नायक:- नेता -प्रधान । पावकः - पवित्रकर्ता अग्नि । सूत्राङ्काः २१ सुद्ध्युपास्यः - विद्वानों के उपासनीय भगवान् मध्वरिः-'मधु' दैत्य के शत्रु- भगवान् | धात्त्रंशः ब्रह्मा का अंश । ( एवं वितौ ) यति - ले जाता है । भवति होता है । वटवृक्षः - वटो ! हे ब्रह्मचारिन ! ऋक्षः- रीछ है । ग्लायति दुःखी होता है । नाविकः - केवट - मल्लाह । ग्रामन्त्रयते- -बुलाता है । श्रभिमन्त्रयते - संस्कार करता है । अर्थ-उपयाच्ञायाम्अर्थयते - माँगता है । अभ्यर्थयते - प्रार्थना करता है प्रार्थयते - प्रार्थना करता है । 1 - भावुकः- भावनावान् - सहृदय । गव्यम् - गोविकार - गोदुग्ध, गोघृत, गोदधि, गोमूत्र, गोवर आदि । लाकार:- 'लू' का श्राकार । सूत्राङ्काः २३ हरये (नमः) - पापहारी (हरि) भगवान् नाभ्यम् - नोका से तरने योग्य जल सूत्राङ्काः २४ ३५.१. प्रति (नमस्कार ) | गव्यूतिः-दो कोस । विष्णुवे-व्यापक भगवान् के प्रति (नमः) 1 उपेन्द्रः इन्द्र के छोटे भाई वामन भगवान् Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोगाः ३५२ . लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् प्रयोगाः · भाषार्थः भाषार्थः गनोदकम् गङ्गा का जल । कृष्णोत्कण्ठयम्-भगवान् श्रीकृष्ण में (एवं विवृतौ) उत्कएठा। गजेन्द्रः-यूथपति गज-हस्तिराज । (एवं विवृतौ) रमेशः-लक्ष्मीपति भगवान् । पञ्चैते-ये पाँच। सूर्योदयः-सूर्य का उदय । तण्डुलौदनम्-चावलों का भात । परीक्षोत्सुकः-परीक्षार्थ उत्कण्ठित । माधवैधनम्-माधव की वृद्धि । सूत्राङ्काः २६ रामौत्सुक्यम् - श्रीराम में उत्कण्ठा । कृष्णःि -भगवान् श्रीकृष्ण की समृद्धि । सूत्राङ्काः ३४ तवल्कारः-तेरा लुकार । उपैति-समीप पहुँचता है। (एवं विवृतौ) उपैधते-समीप बढ़ता है। वसन्तु:-वसन्त ऋतु । प्रष्ठौहः-उद्दण्डता दूर करने के लिये राजर्षिः राजऋषिः हरिश्चन्द्र जनक आदि जिसके गले में काष्ठ बांध देते हैं ममल्कारः-मेरा लकार। ऐसे बछड़े को प्रष्टवाट कहते हैं सूत्राङ्काः ३१ (तम्य प्रष्टौहः) प्रष्टवाट का। हर इह-हे हरि ! यहाँ (आरओ)। __(एवं विवृतौ) विष्ण इह-हे विष्णु ! यहाँ (आरओ) । अपैति-पृथक होता है। (एवं विवृतौ) अवैधसे-तुम बढ़ते हो। शौर इह-हे शौरि ! यहाँ (पाश्रो)। . उपेतः-समीप पहुँचा। प्रभो इदानीम-हे प्रभु! अब (सख है)। माभवान् प्रेदिधत्-आप अधिक न बढ़ाय। श्रिया उत्कण्ठित-शोभा के लिये उत्सुक। अक्षौहिणी-सेनाविशेष । भाना उत्सकः-सूर्य में उत्कण्ठित ।ौहः-उत्तम तर्क । गुरा आयाते-गुरुजी के आने पर। प्रौढ़ः-बढ़ा हुआ। सत्राङ्काः ३३ प्रौढिः-प्रौढता। कृष्णकत्वम-भगवान् श्रीकृष्ण की एकता प्रेषः-प्रेरणा । गङ्गोषः-गङ्गा का प्रवाह । प्रेष्यः सेवक-प्रेरणीय । देवैश्वर्यम्-देवताओं का ऐश्वर्य। सुखातः-प्राप्तसुख-सुखी । १-२१८७० हाथी । २१८७० रथ । ६५६१० घोड़े । १०९३५० पैदल जिस सेना में हों वह सेना अक्षौहिणी कहलाती है। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ३५३ प्रयोगाः भाषार्थः । प्रयोगाः भाषार्थः परमर्तः-परमगत अर्थात् मुक्त । सारङ्गः-मृग। प्रार्णम्-अधिक ऋण (कर्जा)। कुलटा-व्यभिचारिणी स्त्री। वत्सतरार्णम्-बछड़े के निमत्त ऋण । सूत्राङ्काः ४० कम्बलार्णम्-कम्बल का ऋण । | शिवायोन्नमः-ओं नमः शिवाय- शिव वसनार्णम्-वस्त्र का ऋण । के प्रति नमस्कार हो। ऋणार्णम्-एक ऋण को उतारने के शिवेहि-हे शिव ! आइये । लिये उठाया गया दूसरा ऋण। (एवं विवृतौ) दशार्णः-दश ऋण = किले जिस देश में | कृष्णेहि--हे श्रीकृष्ण ! आइये । हों ऐसा देश । अवहि-समझ ले। सूत्राङ्काः ३७ सूत्राङ्काः ४२ प्रार्च्छति-अधिक चलता है। दैत्यारिः-दैत्यों का शत्रु (विष्णु)। (एवं विवृतौ) श्रीशः-लक्ष्मीपति भगवान् । प्रार्छत् अधिक चला। विष्णूदयः-भगवान् विष्णु का उदय । सूत्राङ्काः ३८ होतकारः-(ऋग्वेदी) का ऋकार । प्रेजते-अधिक काँपता है। (एवं विवृतौ) उपोषति-समीप जाता है। खरारिः-खर दैत्य के शत्रु श्रीराम । (एवं विवृतौ) भानूदयः-सूर्य का उदय । उपेजते-पास काँपता है। लक्ष्मीशः-कमलापति भगवान् । प्रेषयति-भेजता है। सूत्राङ्काः ४३ अवोषति-नीचे जाता है। हरेऽव-हे हरि ! रक्षा करो। सूत्राङ्काः ३६ विष्णोऽव-हे विष्णु, रक्षा करो। शकन्धुः-शक देश का कूप = कुआं । (एवं विवृतौ) कर्कन्धुः-बदरीफल-बेर । स्थलेऽत्र-इस स्थान में। मनीषा-बुद्धि । कृष्णोऽहम्-भगवान् श्रीकृष्ण मैं हूँ। मार्तण्डः-सूर्य । सूत्राङ्काः ४४ सीमन्तः-केशवेश। गो (5) अग्रम्-गौ के आगे वा गौ का हलोषा-हलदण्ड । अग्रभाग। लागलीषा-, चित्रग्वग्रम्-विचित्र गोओंवाले के आगे । पतञ्जलिः-पतञ्जलि ऋषि । गोः-गौ का (दूध आदि)। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम प्रयोगाः भाषार्थः । प्रयोगाः भाषार्थः सूत्राङ्काः ४७ | श्रा एवं नु मन्यसे-तुम अवश्य ऐसा गवानम्-गौ का अग्रभाग। मानते हो। - (एवं विवृतौ) श्रा एवं किल तत्-हाँ वह वस्तु ऐसी मवाक्षः-वातायन खिड़की या रोशनदान ही थी। गवि-गौ में। श्रोष्णम्-कुछ गर्म। सूत्राका गवेन्द्रः-गोस्वामी भगवान् श्रीकृष्ण अहो इंशाः-श्रोह ये अधिपति हैं । (एवं विकृतौ) अथवा वृषम। मिथो श्रागच्छतः-दोनों परस्पर (मिल कर) आते हैं। श्रागच्छ कृष्ण ! अत्र गौश्चरति-आइये अहो अद्य-श्रोह श्राज। श्रीकृष्ण ! यहाँ गौ चर रही है। अथो अपि-अनन्तर भी। सत्राङ्काः ५१ सत्राङ्काः ५७ हरी एतौ-ये दोनों हरि-सिंह हैं। विष्णो इति हे विष्णु ! यह । विष्णू इमौ-ये दोनों विष्णु- व्यापक हैं । एवं विवृतौ) गङ्गे अमू-ये दोनों गङ्गायें हैं। भानो इति-हे सूर्य ! यह। (एवं विवृतौ) स. ५८ धनुषी एते ये दोनों धनुष हैं। किम्बुक्तम्-क्या कहा? भानू उदयेते-दो सूर्य उदय होते हैं। स०५६ द्व कुले उत्कृष्टे एते स्तः-ये दोनों कुल चक्रि अत्र-चक्रधारी यहाँ (है)। उत्कृष्ट हैं। (एवं विवृतौ) सत्राङ्काः ५२ धनि आगच्छति--धनी पुरुष आता है। अमी ईशा:-ये अधिपति हैं। सू०६० रामकृष्णावमू श्रासाते-बलराम गौ---दो गौरिय हैं। श्रीकृष्ण बैठे हैं। वाप्यश्वः-वापी पर घोड़ा (है)। अमुकेऽत्र-ये यहाँ है। स०६१ सूत्राङ्काः ५५ ब्रह्मर्षिः--ब्रह्म ऋषि, वशिष्ठ, याज्ञवल्क्य ६ इन्द्रः-अोह यह इन्द्र हैं। श्रादि । उ उमेशः-जान पड़ता है यह महादेव हैं आईत्-चला गया इत्वचसन्धिः । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ३५५ अथ हलसन्धिप्रकरणम् प्रयोगाः भाषार्थः प्रयोगाः भाषार्थः सूत्राङ्काः ६२ पएणगर्यः-छ:नगरिय। रामश्रोते-श्री राम सोते हैं। सू०६६ रामश्चिनोति- श्री राम (फूल) चुनते हैं। सन् षष्ठः-छठा श्रेष्ठ (है)। सच्चित्--सत् स्वरूप और ज्ञानस्वरूप स०६७ ब्रह्म)। वागीश:-बृहस्पति । ञ्जिय - हे शार्ङ्गधनुषधारी भगवान् सू० ६८ आप की जय हो। एतन्मरारि:-ये भगवात् मुरारि हैं । (एवं विकृती तन्मात्रम्-तत्स्वप। कृष्णश्चपलः-श्रीकृष्ण चञ्चल हैं। चिन्मयम्-ज्ञानस्वरूप (चेतनस्वरूप) नारदश्शशाप-नारद ने शाप दिया। (एवं विवृतौ) ग्रामाचलितः ग्राम से चला। वाङ्-मधु-वाणी की मिठास । सू० ६३ सन्मनोहरम्-सत्पुरुषों के मन को हरने विश्नः-गति, अथवा प्रवेश । वाला। उन्मानम्-तोलना। प्रश्नः-पूछना। ऋः मन्त्रः-ऋग्वद का मन्त्र । सू०६४ दधिमुण्माद्यति-दहा का चोर प्रसन्न रामष्षष्ठः-श्री राम छठा है। होता है। रामष्टीकते-श्री राम जाते हैं। विपन्मयम्-विपत्तिमय। पेट-पीसने वाला। अम्मात्रम्-केवल जल । तट्टीका वह टीका। अम्मयम् - जलमय । चक्रिण्टौकसे-हे चक्रधारी ! आप जाते हैं । सू०६६ षट सन्तः-छः सत्पुरुष । तल्लयः-उसमें लय लीन होना। सूत्राङ्काः ६५ विद्वाँल्लिखति -- पण्डित लिखता है । षट ते वे छः। (एवं विवृतौ) ईट्टे-स्तुति करता है। विपल्लीनःविपत्ति में लीन । सर्पिष्टमम्-अतिशय घृत या अत्युत्कृष्ट घृत कुशॉल्लाति-कुशा ग्रहण व ता है। पण्णाम्-छः (पुरुषों) का (घर)। सु०७४ पएणवतिः-छियानबे (६६)। उत्थानम्-उठना (उन्नति) Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ प्रयोगाः उत्तम्भनम् उभारम्भ । ( एवं विवृतौ ) भाषार्थः उत्त्थापयति-उठ्ठाता है । सू० ७५ वाग्घर : - वाक् सिंह (बोलने में शेर ) । ( एवं विवृतौ ) तद्घानम् - वह हानि । सम्पद्धानिः सम्पत्ति की हानि । ककुन्नभासः - दिशा का खिलना - प्रकाश होना । हरिं वन्दे - लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् प्रयोगाः भाषार्थः कुण्ठितः - कुण्ठित ( रुका हुआ) ग्रन्थः- पुस्तक । दान्तः-जितेन्द्रिय । गुम्फित था । सू० ८० स्व करोषि - तुम करते हो । सू० ७८ यशांसि - (बहुत से) यश | श्राक्रस्यते- - श्राक्रमण किया जायगा । मन्यसे - तुम मानते हो । ( एवं विवृतौ ) वासांसि वस्त्र (बहुत से) प्रस्यते - प्रणाम किया जायेगा । सू० ७६ च्छिवः - वह शिव ( है ) । तच्छ्लोकेन-उसकी कीर्त्ति से । ( एवं विवृतौ ) एतच्छान्तम्- यह (श्राश्रमपद ) शान्त 1 सू० ७७ सू० ८२ ३- भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ | किं ालयति - क्या (हाथी) जाता है ? किं ह्यः - कल क्या ( होगा ) किं ह्वलयति - क्या (हाथी) जाता है । किं ह्लादयति-कौन ( वस्तु ) प्रसन्न करती है ? सू० ७६ शान्तः- शान्त (पुरुष) ( एवं विवृतौ ) अङ्कितः - चिह्नित । चितः - पति । ( एवं विवृतौ ) स्वम्पचसि - स- तुम पकाते हो । मृत्युञ्जय - मृत्यु को जीतो । दानय्यच्छति - दान देता है । सँव्वसरः- वर्ष (सवत्)। सुन्दर लिखामि - मैं हँल्लिखमि - मैं लिखता हूँ । सू० ८१ सम्राट् चकवर्ती । सुन्दर लिखता हूँ । सू० ८३ किं हनुते क्या छिपाता है ? ०८४ षटु सन्तः-छः सत्पुरुष । सू० ८६ प्राङ् षष्ठः- छठा सुप्रतिष्ठित है । सगस्षष्ठः - छठा अच्छा गणित जानता है Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषार्थः प्रयोगाः सन्त्स: - वह सत्पुरुष है । ( एवं विवृतौ ) विद्यार्थिन्त्सहस्व - हे विद्यार्थि ! सहनकर छात्रास्वापय विद्यार्थियों को सुला दो सू० ८७ परिशिष्टम् सू०८८ सञ्छम्भुः - शम्भु भगवान् सरस्वरूप हैं ( एवं विवृतौ ) बालाञ्छास्ति - बालकों को शिक्षा देता है । सू० ८६ प्रत्यङ्ङात्मा - अन्तरात्मा, जीवात्मा । सुगरणीशः -- गणितज्ञों का श्रधिपति । सन्नच्युतः - श्रच्युतभगवान् सत्स्वरूप हैं । ( एवं विवृतौ ) तिङ्ङतिङ :- प्रतिङ से पर तिङ् । तस्मिन्निति - 'तस्मिन् ' ऐसा । पठन्नति--पढ़ता हुआ जा रहा है । सृ० ६३ संरकर्त्ता - संस्कार करने वाला । ( एवं विवृतौ ) संस्कारः - संस्कार | संस्कृतम् - परिशोधित । संस्करोति-संस्कार करता है । स० ६४ ०. पुंस्कोकिलः - नर कोयल । ( एवं विवृतौ ) पुस्पुत्रः - पुरुष का पुत्र | पुश्चरित्रम् - पुरुष का चरित्र । प्रयोगाः भाषार्थः पुस्तिकम् - पुरुष का तिलक । पुष्टीका-पुरुष की टीका । सू० ६६ चक्रधारी चक्रिस्त्रायस्व - हे रक्षा करो । प्रशान्तनोति - शान्त पुरुष (शान्ति) फैलाता है । हन्ति मारता है । ( एवं विवृतौ ) कस्मिंश्चित् - किसी (स्थान) में | भक्ताँस्तारय- भक्तों को तारिये । विद्वाँरछात्रः - विद्वान् विद्यार्थी । वेद-वेदों की टीका करो । स० ६८ भगवान् ! नृपाहि (इन) मनुष्यों की रक्षा करो । ( एवं विवृतौ ) नँ - पालयस्व - लोगों की रक्षा करो । सृ० १०० कस्कान - किन २ को ( पढ़ाऊं ) । सू० १०१ शिवच्छाया - शिव की छाया । ( एवं वितौ ) वृक्षच्छाया - वृक्ष की छाया । स्वच्छात्रः - अपना विद्याथीं । इति हल्सन्धिः । ३५७ सू० १०२ लक्ष्मीच्छाया लक्ष्मी की छाया । ( एवं विवृतौ ) नदीच्छन्ना - नदी में छुपी हुई ( वस्तु) । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम अथ विसर्गसन्धिः भाषार्थः प्रयोगाः सू० १०३ विष्णुस्त्राता -श्रीविष्णु, भगवान् रक्षक हैं ( एवं विवृतौ ) छात्र स्तिष्ठति - विद्यार्थी ठहरता है । गौश्चत - गौ चरती है । कृष्णश्छिनत्ति - भगवान् श्रीकृष्ण (जन्मबन्ध) काट देते हैं । सू० १०४ हरिश्शेते - भगवान् श्रीहरि सो रहे हैं । ( एवं विवृतौ ) छात्रा सन्ति - विद्यार्थी ( उपस्थित) हैं राष्ट-छः रस हैं । सू० १०६ शिवोऽर्थः - भगवान् शिव पूजनीय हैं। ( एवं विवृतौ) शुद्धोऽहम् - मैं शुद्ध स्वरूप हूँ । बुद्धोऽस्मि - मैं बुद्ध स्वरूप हूँ । छात्रोऽयम् - यह विद्यार्थी I सू० १०७ शिवो वन्द्य-भगवान् शिव वन्दनार्थ हैं । ( एवं विवृतौ ) रामो वदति - भगवान् श्रीराम कहते हैं । छात्र गच्छति - विद्यार्थी जाता है। कृष्णो जयति - भगवान् श्री कृष्णचन्द्र की जय ! काको डीयते - कोश्रा उड़ता है । कर्णो ददाति -- राजा कर्ण दान देते हैं। प्रयोगाः भाषार्थः 1 व्यासो ब्रूते - भगवान् वेदव्यास कथा कहते हैं । सू० १०८ देवा इह--देवता यहाँ (श्रावें) । ( एवं विवृतौ ) छात्रा आगच्छन्ति-विद्यार्थी श्राते हैं । वीरा उत्सहन्ते - - वीर पुरुष उत्साह करते हैं। देवा एते- ये देवता हैं । धार्मिका वर्धन्ते - धार्मिक लोग बढ़ रहे हैं। भक्ता भजन्ति--भक्त (भगवान्) को भजते हैं । हया हेषन्ति - घोड़े हिनहिनाते हैं । - याशिका यान्ति-- याज्ञिक लोग जाते हैं । बाला रमन्ते--: -- बालक खेलते हैं । विप्रा दयते ब्राह्मण दया करते हैं। सु. १०६ • भो देवा:- ह देवताओं ! भगो नमस्ते - हे भगवान्! आपके प्रति नमस्कार है। धो याहि श्ररे ( पापी ! ) दूर हट । सू० ११० अहरहः--प्रतिदिन | अहर्गणः--दिनसमूह अर्थात् संवसर । ( एव विवृतौ श्रर्भाति-दिन सुहाता है । | प्रातरत्र - प्रातः काल यहाँ (जाना) [ भ्रातर्देहि---भ्राता जी (यह मुझे) दो । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषार्थः रणीय हैं। शम्भू राजते-भगवान् मान् हैं । एवं (वित्रतौ ) प्रयोगाः सू० ११२ पुना रमते - फिर खेलता है । हरी रम्यः - भगवान् हरि ( परम ) रम नीरस: - रसरहित ( शुष्क ) सहृदय ! ली-चाटता है । -- शम्भु प्रकाश- एषोऽत्र- यह (घट) यहाँ ( है ) । जर्घाः - तुमने भार बार ग्रहण किया । प्राता रमते - प्रातः काल खेलता है । तृदः - हिंसित | वृढ: - उद्यत, तैय्यार हुआ । सू० ११३ मनोरथ: - इच्छा | स ० ११४ एष विष्णुः- ये भगवान् विष्णु हैं । स. शम्भुः - वे भगवान् शम्भु हैं । ( एवं विवृतौ ) एष शोभते - यह शोभायमान है । एष ददाति - यह पुरुष देता है । स चलति - वह चलता है । प्रयोगाः रामः - भगवान् श्रीराम | परिशिष्टम् भाषार्थः सू० १२४ सू० १५० कृष्णः - भगवान् श्रीकृष्ण । भाषार्थः प्रयोगाः सच और वह | एषको रुद्रः–ये भगवान् रुद्र हैं । सः शिवः (यह ) शिव वह नहीं अर्थातऔर ही हैं । ( एवं विवृतौ ) एषोऽहम् - मैं यह हूँ । सऽहम् -मैं वह हूँ । सू० ११४ सेमामविद्वि प्रभृतिम् - ( जो श्राप इसको देने में समर्थ हैं ) वह आप हमें यह (प्रभु-. तिम् ) प्रकृ धारणा प्राप्त करावें । सैष दाशरथी रामः--ये वे भगवान् दशरथ नन्दन श्रीराम हैं । ३५६ ( एवं विवृतौ ) सैष राजा युधिष्ठिरः ये वे राजा युधि - हैं । सैघ कणों महादानी - ये वे महादाश्री कर्ण हैं | सैष भीमो महाबलः - ये वे महाबली भीम हैं । इति विसर्गसन्धिः 1 प्रथाजन्तपुल्लिङ्ग गम् प्रयोगाः सर्वः - सब | भाषार्थः सू० १५१ सू० १५५ विश्वः सत्र, तुल्य, संसार । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् भाषार्थः प्रयोगाः भाषार्थः विश्वपाः-विश्वम्भर भगवान् । सू० १६७ शङखध्माः-शङ्ख बजाने वाला। हाहाः- देव गन्धर्व। हरिः- पापहर्ता भगवान् । स० १७० कविः-कवि । स० १८४ सखा--मित्र । प्रयोगाः उभौ-दोनों। उमये-दोनों ( समुदाय )। अन्यः-दूसरा। अन्यतरः-दो में से एक। इतरः-इतर (भिन्न)। स्वत्--अन्य। स्व:-" नेमः-प्राधा। समः-सब। सिमः-" पूर्व:-पहला। अपरः-दूसरा। अपर:-अधम । दक्षिण-दक्षिण दिशा। उत्तरा-उत्तर दिशा। अधरः-नीचे। स्वः-श्राप और अपना। अन्तरम्-बाहर या परिधानीय। एक:-एक। सू० १६० प्रथमः-पहला। चरम:-अन्तिम । कतिपये-कई एक। द्वितयः-दूसरा। अल्पः-थोड़ा। अर्थः-आधा। सू० १६१ निर्जर:-देवता। सू० १८५ पतिः-पति। भूपतिः-राजा। स. १६१ कति-कितने । सू. १६२ त्रयः-तीन । प्रियत्रिः-जिसको तीन प्यारे हैं स० १६६ द्वौ-दो। पपी:--सूर्य । वातप्रमी:-मृग। बहश्रयसी:-बहुत कल्याणवाली स्त्रियों वाला। स०१६० अतिलक्ष्मीः --लक्ष्मी को अतिक्रमण करने वाला। स. २०० प्रधीः--परिपक्व बुद्धि । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् प्रयोगाः भाषार्थः प्रयोगाः भाषार्थः ग्रामणीः--मुखिया (नम्बरदार)। खलपू:-मार्जनकारी। नी:-ले जानेवाला। सुलूः-अच्छा काटनेवाला। सुश्रीः-सुन्दर श्रीवाला। स्वभूः-स्वयम्भू । यवक्री:-जौ खरीदनेवाला। वर्षाभूः- मेंढक । स० २०१ स. २११ शुद्धधीः- पवित्र बुद्धि। दृन्भूः-सर्प, वज्र, कपि और सूर्य । सू० २०२ करभूः-हाथ से पैदा हुआ (नख )। सुधी:-पण्डित । धाता-ब्रह्मा। सुखी:-सुख चाहनेवाला। नप्ता-दौहित्र या पौत्र । सुतीः-पुत्र चाहनेवाला! पिता-पिता। शः- महादेव जामाता-जमाई। भानः-- ना-मनुष्य । सू० २०३ __सू० २१३ क्रोष्टा--गीदड़। गौः-गौ। स०२०६ सू. २१५ हूहूः-देवगन्धर्व । रा:-धन। अतिचः-सेना को अतिक्रमण करनेवाला। ग्लौः--चन्द्रमा। इति अजन्तपुल्लिङ्गप्रकरणम् । प्रथाजन्तस्त्रीलिङ्गप्रकरणम् प्रयोगाः भाषार्थः प्रयोगाः भाषार्थः सू० २१६ स०२२१ -रमा-लक्ष्मी उत्तर-पूर्वा-ईशान कोण। स. २१६ द्वितीया-दूसरी। दुर्गा--दुर्गा। तृतीया-तीसरी। अम्बिका-दुर्गा । अम्बा--माता या दुर्गा। सू० २२० अल्ला --, सर्वा-सब ( औषधि )। अक्का -" विश्वा-, जरा-बुढापा। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सू० २३० ३६१ लघुसिद्धान्तकौमद्याम् प्रयोगाः भाषार्थः प्रयोगाः भाषार्थः गोपाः-गौ पालनेवाली स्त्री। सू० २२८ मति:-बुद्धि। श्री:--श्री (शोभा)। सू. २२३ बुद्धि:-बुद्धि । धेनुः--गौ। सू. २२५ __ सू० २३२ तिस्रः-तीन स्त्रियाँ । भ्रः-भृकुटि। चतस्रः-चार स्त्रियाँ । स्वयम्भूः--ब्रह्मा। स. २२६ सू. २३३ द्वे-दो स्त्रियाँ। स्वसा--बहिन । गौरी--पार्वती। दुहिता--पुत्री। नदो-नदो। याता-जेठानी, देवराणी। लक्ष्मीः--लक्ष्मी। माता-माता। तरी:--नौका। द्यौः-श्राकाश। तन्त्रीः --वीणा का तार। रा:--धनः। स्त्री-स्त्री। नोः--नौका। इति अजन्तस्त्रील्लिङ्गप्रकरणम। अथाजन्तनपुंसकलिङ्गाः प्रयोगाः भाषार्थः प्रयोगाः भाषार्थः सू. २३४ इतरत्-इतर । ज्ञानम्-ज्ञान। अन्यत्--और । स. २४० अन्यतरत्--दो में से एक । धनम्--धन । अन्यतमम्-इन सब में से एक । वनम्-वन। फलम्--फल । एकतरम्-दोनों में से एक। सू. २४२ श्रीपम्--धनरक्षक (कुल)। कतरत्-दो में से कौन सा (कुल)। सू० २४४ कतमत्--बहुतों में से कौन सा । वारि-जल । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषार्थः परिशिष्टम् ३६३ प्रयोगाः । प्रयोगाः भाषार्थः स. २४६ सू० २४६ मधु-शहद । दधि-दही। सुलु-अच्छा काटनेवाला (शस्त्र । स. २४८ धातृ--धारण या पोषण करने वाला (शस्त्र) अस्थि--हड्डी। ज्ञातृ-ज्ञानी कुल। सू० २५० सक्थि-ऊरु । प्रद्यु-सुन्दर श्रआकाशयुक्त दिन । अक्षि-आँख । प्ररि धनिक कुल। सुधि-बुद्धिमान् कुल । सुनु-सुन्दर नौकावाला कुल । इति अजन्तनपुंसकलिङ्गप्रकरणम् । अथ हलन्तपुल्लिङगप्रकरणम् प्रयोगाः भाषार्थः | प्रयोगाः भाषार्थः सृ० २५१ सू० २६१ लिट- चाटनेवाला । (खस्तम्)-गिरा हुना। सू०२५३ (ध्वस्तम् )-नष्ट हुआ। धुक-दोहनेवाला। तुराबाट-इन्द्र। सू० २५४ सू० २६४ ध्रुक-द्रोह करनेवाला। सुचौः-सुन्दर श्राकाश। मुक्-मुग्ध । सू० २६५ स. २५५ स्नुक-वमनकारी। सू० २७० स्निक-स्नेहो। (प्रशान् )--शान्त । स० २५८ सू० २७१ विश्ववाट--विश्ववाहक-परमात्मा कः--कौन। स० २६० सू० २७३ अनड्वान्-बैल । 'अयम्-यह । १-इदमस्तु सन्निकृष्टे समीपतरवर्तिनि चैतदो रूपम । अदसस्तु विप्रकृष्टे तदिति परोक्षे विजानीयात् ।। चत्वारः--चार। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् प्रयोगाः भाषार्थः सू. ३०० अष्टौ-आठ। ऋविक्-ऋखि सू० ३०४ प्रयोगाः भाषार्थः सू० २८० राजा-राजा। सू० २८१ (ब्रह्मनिष्ठः)--ब्रह्मनिष्ठ । स०२८२ यज्वा-यज्ञ करनेवाला। सू० २८३ ब्रझा-ब्रह्मा। स. २८५ वृत्रहा-इन्द्र । स. २८७ शाम--धनुषधारी भगवान् विष्णु । यशस्वी-यशवाला। अर्यमा-देवविशेष । पूषा--सूर्य या देवविशेष । स० २८६ मघवान्--इन्द्र। सू० २६० श्वा-कुत्ता। युवा-युवक । ___सू० २६१ अर्वा-घोड़ा! सू० ३०५ युङ--योगी। सू० ३०६ सुयुक्--सुयोगी। खन्--लंगड़ा। स० ३०७ राट-राजा। विभ्राट-विशेष शोभा युक्त । देवेट-देवपूजक । विश्वसूट-ब्रह्मा। परिव्राट-संन्यासी। स०३०८ विश्वाराट्--विश्वेश्वर भगवान् । स० ३०६ भृट--भठियारा। स०३१० स्य--वह। सः--वह। यः--जो। एषः-यह। सू. ३१३ त्वम-तू । अहम- मैं। स० ३३३ सुपात्-सुन्दर पात्रोंवाला। सू० २६५ पन्थाः -मार्ग। सू० २६६ मन्थाः -मथनी। ऋभुक्षा:-इन्द्र। सू. २६७ वञ्च-पाँच। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ -.. - - -- परिशिष्टम् प्रयोगा. भाषार्थः प्रयोगाः भाषार्थः अग्निमत्--अग्निमन्थक। दरिद्रत्-दरिद्र होता हुआ। स०३३४ शासत्-शासन करता हुआ। प्राङ्-सुगति या सुपूजक। चकासत्-दीप्त होता हुआ। स० ३३६ गुप्-रक्षक। प्रत्यङ्-प्रतीचीन, पश्चिम दिशा। सू० ३४८ उदङ-उत्तरदिशा या तद्भव । | तादृक्-वैसा। सू० ३३८ विट-बनिया, प्रजा। सम्यङ्-ठीक चलनेवाला। । सू० ३४६ सू० ३३६ नक्-नष्ट होनेवाला। सध्य-साथी । सू. ३५० सू० ३४० तिर्यङ्-टेढा चलनेवाला पशु-पक्षी । घृतस्पृक्-घी छूनेवाला। स० ३४१ दधृक्-तिरस्कर्ता। क्रुङ-क्रौञ्चपक्षी ! रत्नमुट्-रत्नों का चोर। पयोमुक्-बादल । षट-छे । सू० ३५१ स० ३४२ पिपठी:-पठनेच्छुक । महान्-बड़ा। सू० ३५२ सू० ३४३ चिकी:-करणेच्छुक। धीमान्-बुद्धिमान् । विद्वान्-पण्डित । भगवान्-श्राप । स० ३५४ भवन्-होता हुश्रा। पुमान्-पुरुष । स० ३४५ उशना-शुक्राचार्य । ददत्-देता हुआ। अनेहा-समय । सू. ३४६ वेधाः--ब्रह्मा। जात्-खाता हुआ। सू० ३५५ जाग्रत्-जागता हुआ। असौ-वह (पुरुष)। इति हलन्तपुल्लिङ्गप्रकरणम् Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषार्थः लघुसिद्धान्तकौमुखाम् अथ हलन्तस्त्रीलिङ्गप्रकरणम् प्रयोगाः प्रयोगाः भाषार्थः सु० ३६० स्या--वह (स्त्री)। उपानत-जूता। सा- वह (स्त्री)। एषा--यह । उष्णिक-पगड़ी; या छन्द । वाक्--वाणी। द्यौः-श्राकाश। श्रापः-जल । गी:-वाणी। दिक--दिशा। पूः-पुरी, नगरी। दृक्--आँख । चतस्रः- चार (स्त्रियाँ)। त्विट-कान्ति। का-कौन । (स्त्री) सजू:--मित्र । सू० ३६१ श्राशी:-श्रशीर्वाद । इयम्--यह (स्त्री असो- वह (स्त्री)। इति हलन्तस्त्रीलिङ्गप्रकरणम् । अथ हलन्तनपुंसकलिङ्गप्रकरणम् प्रयोगाः भाषार्थः प्रयोगाः | यत्--जो। स्वनडुत्-- अच्छे बैलोवाला (कुल) वाः-जल। एतत्-यह । गवाक्-गोपूजक, गौ रखनेवाला। चत्वारि--चार (फल) किम्-क्या। शकृत्-मल (टट्टी)। ददत्--दानी ( कुल )। इम-यह । एनत्--यह । स० ३६४ सू० ३६३ तुदत्-दुःखदायी ( कुल ) अहः-दिन । सू. ३६६ दयिद दण्डवाला कुल । पचत्-पकाता हुआ (कुल)। सुपथि-सुमार्गवाला वन । दीव्यत्-खेलता हुआ। ऊक --तेज और बल । धनु:--धनुष । तत्-वह । चतुः-आँख । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ३६७ अवस्-" हविः-हवि, चरु। सुपुम्-सुपुरुषवाला कुल । पयः-दूध वा जल । अदः-यह ( वस्तु)। इति हलन्तनपुंसकलिङ्गप्रकरणम् । .. अथ -अव्ययसंग्रहः अव्ययानि भाषार्थः अव्ययानि, भाषार्थः स० ३६७ वहिस्-बाहर। स्वर--स्वर्ग। अन्तर-बीच में। अधस-नीचे। प्रातर--प्रातः काल । समया-समीप। पुनर-फिर । निकषा - ,, सनुतर्--अन्तर्धान । स्वयम्-अपने आप। उच्चैस-ऊँचा। वृथा--व्यर्थ । नीचेस्-नीचा। नक्तम्-रात । शनैस्--धीरे । न-नहीं। ऋधक-सचमुच। नञ--नहीं। ऋते-बिना। हेतौ-निमित्त । युगपत्--एक दम । इद्धा-प्रकाश (जाहिर)। बारात्--दूर या समीप । . . अद्धा-स्फुट या निश्चय । पृथक्-भिन्न (अलहदा)! सामि-अाधा। ह्यस्-बीता हुआ दिन (कल)। वत--समान । श्वस-अागामी दिन। ब्राहाणवत्--ब्राह्मण के समान । दिवा-दिन । क्षत्रियवत्--क्षत्रिय के समान । रात्रौ-रात । सना-नित्य (सदा रहनेवाला)। सायम्--सायंकाल । सनत्-, " " चिरम्--देर । सनात्-, " " मनाक्--किञ्चित् , कुछ। उपधा--भेद ! ईषत्-- " " तिरस-टेदा या तिरस्कार । जोषम्-चुप होना। अन्तरा-मध्य या बिना। तूष्णीम्-चुप होना अन्तरेण-बिना Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौषट्-" ३६८ लघुसिद्धान्तकौमुधाम् अव्ययानि भाषार्थः | अव्ययानि भाषार्थः ज्योक--शीघ्र । अभीक्ष्णम्-बार बार । कम्--जल सिर, सुख । साकम्-साथ । शम-कल्याण । सार्धम् -, सहसा-एकदम (अकस्मात्)। नमस-नमस्कार। विना-बिना। हिरक- बिना। नाना--अनेक । धिक-निन्दा, (झिड़कना)। स्वस्ति--कल्याण । अथ--अनन्तर। स्वधा-पितृदान । अम-शीघ्र । अलम्-बस, समर्थ । आम-स्वीकार। वषट्-देवदान। औषट्--,, प्रताम्-ग्लानि । प्रशान्--समान। अन्यत-और। मा--नहीं। अस्ति--है। च-और। उपांशु-अप्रकाश। क्षमा-क्षमा (माफ)। वा-विकल्प। विहायसा-आकाश। ह-प्रसिद्ध । दोषा--रात्रि। अह--स्पष्ट । मृषा--झूठ। एव-निश्चय । (ही)। मिथ्या--झूठ। एवम्-निश्चय । मधा--व्यर्थ। शश्वत्-सदा। पुरा--पहिले समय में। युगपत् -सहसा, साथ साथ । मिथो--एकान्त में, आपस में। भूयस्--फिर और बहुत । मिथस् ,, , कूपत्--प्रश्न, प्रशंसा मायस्--प्रायः (अक्सर).. सूपत्-, " मुहुस-बार बार। कुवित्-बहुत। प्रवाहुकम-समानकाल। नेत्-शङ्का। (प्रवाहिका)-" चेत्-यदि । श्रायंहलम्--बलात्कार (जबरदस्ती) माङ, चण Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रव्ययानि २४ यत्र - जिसमें, जहाँ । कञ्चित् - अनुकूल प्रश्न । नह-प्रत्यारम्भ । इन्त - हर्ष, विषाद | माकि:- वर्जन | माकिम् नकि नकिम् - - नहीं। यावत् - जितना । तावत् - उतना । -वितर्क । (च) - -वितर्क । वषट "" "" "" "" - दान | स्वाहा- देवहविर्दान । स्वधा - पितृदान । ट - देवदान । तुम - तू । तथाहि-- जैसे कि । खलु - निश्चय । किल - ऐति । अथो-अनन्तर । " अथ- 1 सुष्ठु - शोभन । स्म-अतीत काल | श्रादह-निन्दा | प्रवदत्तम्-दत्त- दिया । श्रयु - श्रहंकारी । भाषार्थ परिशिष्टम् अव्ययानि, अस्तिक्षीरा - विद्यमानदुग्धो -सम्बोधन । श्रा-स्मरण । इ-सम्बोधन | ई उ-सम्बोधन | ऊ - -- ऐ -- "" 39 है भोः "" " "" पशु-सम्यक् । - शीघ्र । शुकम् -‍ यथाकथाच - अनादर । पाटू-सम्बोधन । व्याटू ग्रङ्ग-- "" है-सम्बोधन । در "3 श्रये - - हिंसा | " "" विषु नाना, ( अनेक ) । एकपदे - कस्मात् 1 अतः इससे भी । भावार्थ: सत्राता ३६८ अतः - इस कारण सू० ३६६ स्मार स्मारम्बार बार स्मरण करके । जीवसे - जाने के लिए | पिबध्यै-पीने के लिए। ३६६ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घातन ३७० लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् अय्ययानि मापार्थः अव्यानि भाषार्थः सू० ३७० वाचा-वाणी। कृत्या-फरके। निशा-रात्री। उदेतो:-उदय होकर । दिशा-दिशा। विसपः-जाकर। सू०३७१ वगाहः-स्नान । अघिहर-हरि में पिवा नम्--टकना। इति अव्ययप्रकरणम् । अथ धातुपाठः भ्वादिगणस्थधातुपाठः भाषार्थः | धातवः भाषार्थः सूत्राङ्काः ३७४ स०४६४ भू-( सत्तायाम् )-होना। व्रज-(गतौ)-जाना। सू० ४४२ स०४६५ श्रत-(सातत्यगमने)-निरन्तरगमन । कटे-('वर्षावरणयोः) बरसना और ढकना सू० ४४७ - सू० ४६६ पिध-( गत्याम् )-जाना। गुयू-(रक्षणे)-पालन करना। स०४५३ सू ४७८ चिती-( संज्ञाने)-चेतना। ति-(क्षिये )नाश होना। शुष-(शोके)-शोक करना। सू०४८४ गद-( व्यक्तायां वाचि )-स्पष्ट बोलना । तप-( सन्तापे )-तपना । स० ४५७ क्रम-(पादविक्षेपे)-पाँव धरना, जाना । णद (अव्यक्ते शब्दे )-नाद करना । __ सू०४८६ (अस्पष्ट बोलना) पा- ( पाने )-पीना। सू०४६१ स० ४६२ टुनदि (समृद्धौ )-समृद्ध होना। ग्लै-( हर्षक्षये )-अप्रसन्नता । स०४६३ सू०४६५ अच-+ पूजायाम-पूजा करना। ह-(कौटिल्ये )-कुटिलता ! १-वर्ष-खण्ड ( हिस्सा ) जैसे-भारतवर्ष । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ বিয়ি भाषार्थः धातवः धातवः भाषार्थः । स०४६८ शुभ-(सञ्चलने)-विचलित होना । श्रु-(श्रवणे)-सुनना। रणभ-तुभ-(हिंसायाम् )-हिंसा। सू० ५.३ संसु-भंसु-ध्वंसु-(अवलंसने)-गिर जाना । गम्ल-(गतौ)-(गमन)। ध्वंसु-(गतौ) च-चलना। इति परस्मैपदिनः। सम्भु-(विश्वासे)-विश्वास करना । सू० ५०७ वृतु-(वर्तन)-वर्तन( होना)। एध-(वृद्धौ )-वृद्धि-बढ़ना। सू० ५४० सू०५२४ दद-दाने-देना ( दान करना )। कमु-काम्तौ-इच्छा करना (चाहना) स०५४१ सू० ५३४ त्रपूष-(लज्जायाम)-लजाना (शरमाना) अय-( गतौ ) चलना। इत्यात्मनेपदिनः। सू० ५३६ सू० ५४२ श्रिञ्-( सेवायोम् )-सेवा करना । द्युत-(दीप्तौ)-प्रकाश होना चमकना । भृञ् ( भरणे पालन करना। सू०५३८ सू० ५४५ श्विता-(वर्णे)-(श्वेत) रंग देना । जिमिदा-(स्नेहने)-चिकना होना। हृञ्-( हरणे)-हरना। निष्विदा-(स्नेहनमोचनयोः)-पसीना। धृष-(धारणे)-धारण करना । ___आना और छोड़ना। णी-(प्रापणे )-ले जाना। शिक्ष्विदा-(स्नेहनमोचनयोः)-पसीना डुपचष्- ( पाके )-पकाना। आना और छोड़ना। | भज- ( सेवायाम् )-भजना-(सेवाकरना) रुच-( दीप्तौ अभिप्रीतौ च )-चमकना, यज-( देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु )-पूचा अच्छा लगना ( रुचना)। करना, संग करना, दान करना । घुट- परिवर्तने ) घोटना । सू० ५४८ शुभ-(दीप्तौ)-शोमित होना। वह-(प्रापणे )-ले जाना ( उठाकर )। इति भ्वादयः ॥९॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३ धातवः बघुसिद्धान्तकौमुद्याम अदादिगणस्थ धातुपाठः भाषार्थः धातवः भाषार्थः सूत्राङ्का: ५५२ ख्या (प्रकथने)-कहना। अढ़ (भक्षणे)-खाना। | विद (ज्ञाने)-जानना। सूत्राङ्काः ५५८ स० ५७३ हन (हिंसागत्योः)-मारना, चलना। अस (भुवि)-होना (सत्ता)। सू०५६५ सू० ५७७ यु (मिश्रणामिश्रणयोः)--मिलना इण (गतौ)-जाना। अलग होना। स० ५८२ स० ५६६ शीङ (स्वप्ने)-सोना।. या (प्रायणे)-पहुँचना, जाना। सृ०५८४ सू० ५६७ इङ् (अध्ययने)-पढ़ना। बा (गतिगन्धनयोः)-जाना, हिंसा करना स. ५८८ भा (दीप्तौ)-चमकना। ष्णा (शौचे)-स्नान करना, पवित्र होना दुह (प्रपूरगो)-दोहना। आ (पाके)-पकाना। सू० ५६० द्रा (कुत्सायां गता)-निन्दित गमन । | दिह-(उपचये)-बढ़ना-लीपना। प्सा (भक्षणे)--खाना। स. ५१२ रा (दाने)-देना। | लिह--(श्रास्वादने)-चाटना । ला (श्रादाने)-लेना। | ब्रूम-(व्यक्तायां वाचि)-स्फुट बोलना । दाप (लवने)-काटना। सू० ५६८ पा (रक्षणे) रक्षा करना। | ऊणु (अाच्छादने)-टकना। इत्यदादयः॥२॥ जुहोत्यादिगणस्थधातुपाठः भाषार्थः । धातक भाषार्थः सू०६०४ सू०६०६ हु ( दानाऽदनयोः) होम करना, खाना । । ही (लज्जायाम)--लज्जित होना २०६०८ (शरमाना) भिभी (भये) डरना। पू (पालनपूरणयोः)-पालन, पूरा करना । - ram धातवः Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३ परिशिष्टम् धातव. भाषार्थः धातव মাখ: सू० ६१६ हुदा (दाने)-देना। श्रोहाक् (त्यागे)-छोड़ना। स. ६२४ डुधाञ् (धारणपोषणयोः)-धारण करना, माङ् (माने शब्दे च )-नापना, पोषण करना। मिमयाना। स०६२५ सू. ६२२ णिजिर् (शौचपोषणयोः )-शुद्ध करना अोहाङ्-(गतौ) जाना। पोषण करना। डुभृञ् (धारणपोषणयोः)-धारण करना, ॥३॥ पालना। दिवादिगणस्थ-धातुपाठः धातवः भाषार्थः धातवः भाषार्थः स० ६२६ दो (अवखण्डने)-काटना। दिवु (क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुति- | व्यध्-(ताड़ने) मारना, (बींधना) । मोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु)-खेलना, सू० ६३४ . जय की इच्छा, व्यवहार करना, चमकना, पुष (पुष्टौ)-पुष्ट करना । स्तुति करना, आनन्द उन्मत्त होना, सोना | शुष-(शोषणे)-सूखना । इच्छा करना, जाना। णश-(अदर्शने)-नष्ट होना। षिवु (तन्तुस-ताने)-सोना । स. ६३६ नृती (गात्रविक्षेपे)-नाचना । षड (प्राणिप्रसवने)-उत्पन्न करना। सू० ६३० दूङ्-(परितापे)-दुःखी होना । त्रसी (उद्वेगे)-घबराना। दीङ्-(क्षये)-क्षीण होना। स० ६३१ शो (तनूकरणे) पतला करना (शस्त्र का डीङ-(विहायसा गतौ)-उड़ना । तीक्ष्ण करना। पीङ-(पाने) पीना। स०६३३ माङ-(माने) मापना। छो (छेदने)-काटना । जनी (प्रदुर्भावे) पैदा होना। षो (अन्तकर्मणि)-नाश करना। स०६४२ (समाप्त करना)। | दीपी-(दीप्तौ)-चमकना। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् धातवः भाषार्थः धातवः भाषार्थः पद (गतौ)-चलना। मज-(विसर्गे)- त्यागना (पैदा करना) विद-(सत्तायाम्)-होना। स० ६४४ बुध-(अवगमने)-जानना। मृष (तितिक्षायाम् )-सहन करना । बुध-(सम्प्रहारे) लड़ना। णह (बन्धने)-बाँधना। इति दिवादयः ॥ ४ ॥ भाषार्थः स्वादिगणस्थधातुपाठः घातवः भाषार्थः धातवः स० ६४५ स०६४७ घुञ् ( अभिषवे ) स्नान करना, सोम स्तृञ् ( आच्छादने ) टकना । कूटना, मद्य बनाना। स० ६४६ सू० ६४६ धून ( कम्पने )-कंपाना। चिञ् ( चयने )-संग्रह करना (चुनना)। इति स्वादयः ॥ ५ ॥ तुदादिगणस्थधातुपाठः धातवः भाषार्थः धातवः भाषार्थः स०६५१ षिच ( क्षरणे )-सोंचना। तुद ( व्यथने )-कष्ट देना। सू० ६५६ णुद (प्रेरणे)-प्रेरणा करना । लिप ( उपदेहे )-लीपना। भ्रस्न ( पाके )-भूनना। कृती (छेदने ) काटना। स० ६५२ खिद ( परिघाते)-खिन्न करना । कृष (बिलेखने)-(हल)-जोतना। पिश (अवयवे)-पीसना । सू० ६५३ ओबश्चू (छेदने)-काटना । मिल ( सङ्गमे )-मिलना। व्यच (व्याजीकरणे )-ठगना । उछि ( उच्छे )-बीनना। मुच्ल (मोचने ) छोड़ना। (दाना २ इकट्ठा करना) क्ष (गतीन्द्रियप्रलयमूर्तिभावेषु)लुप्लु (छेदने )-काटना-लोप करना । जाना, इन्द्रियों से शिथिल होना, बिद्लु ( लामे)-प्राप्त करना। कठिन होना। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातवः भाषार्थः उज्झ ( उत्सगँ ) - त्यागना । लुभ ( विमोहने ) - लुभाना । सू० ६५७ तृप तृम्फ ( तृप्तौ ) - तुप्त होना । मृड ड ( सुखने ) --सुखी करना । शुन ( गतौ ) - जाना | इषु ( इच्छायाम् - चाहना | कुट ( कौटिल्ये )--कुटिलता करना । पुट ( संश्लेषणे ) -- जोड़ना । स्फुट ( विकसने ) - लिखना । स्फुर स्फुल ( सञ्चलने ) - फरकना परिशिष्टम् धातवः भाषार्थः विश ( प्रवेश ) -- प्रवेश होना । मृश ( श्रामर्शने ) - स्पर्श करना । षद्लृ सू० ६६६ रुधिर् ( आवरणे ) -- रोकना । भिदिर् ( विदारणे )-फाड़ना । छिदिर् ( द्वैधीकरणे )-तोड़ना । युजर् ( योगे ) - जोड़ना । रिचिर् ( विरेचने ) - रिक्त (दस्त ) होना । विचिर् ( पृथग्भावे ) - पृथक् होना । क्षुदिर ( सम्पेषणे ) - पीसना शल ( शातने ) - छीलना । ( विशरणगत्यवसादनेषु )-पृथक् होना, जाना, दुःखी होना । ( विक्षेपे ) - फेंकना । प्रच्छ मृङ सू० ६५६ सू० ६६२ ( निगरणे ) - निगलना । सू० ६६३ (ज्ञीप्सायाम् ) - पूछना | (प्राणत्यागे ) - मरना । इति तुदादयः ॥ ६ ॥ रुधादिगणस्थधातुपाठः ३७५ ( नेत्र आदि का ) | सू० ६५८ सू० ६६४ णू ( स्तवने ) -- स्तुति करना । पृङ ( व्यायामे) - उद्योग करना । टुमस्जो (शुद्धौ )--शुद्ध होना, डूबना । जुषी (प्रीतिसेवनयोः ) - प्रीति तथा सेवा जो ( भङ्ग ) -- तोड़ना । करना । भुजो ( कौटिल्ये ) - टेढ़ा होना । विजी ( भयचलनयोः ) - डरना, कांपना । उच्छृदिर् ( दीप्तिदेवनयोः ) - चमकना, खेलना । उत्तदिर् (हिंसाऽनादरयोः ) - हिंसा तथा अनादर करना । कृती ( वेष्टने ) -- कातना । हिसि (हिंसायाम् ) - हिंसा करना । उन्दी ( क्लेदने ) - भिगोना । सू० ६७६ अजू ( व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु ) Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् धातवः भाषार्थः धातवः भाषार्थः प्रकाश करना, मलना, सुन्दर होना शिष्ल ( विशेषणे )-बिशेषित करना । जाना। पिष्ल ( संचूर्ण'ने)--पीसना । तञ्चू (संकोचने )--संकुचित होना । भञ्जो (श्रामर्दने )-तोड़ना । भुज (पालनाभ्यवहारयोः)-पालना। सू० ६७१ त्रिइन्धी ( दीप्तौ)-चमकना । श्रोविजी (भयचलनयोः )--भय करना, विद ( विचारणे) विचार करना । कॉपना। इति रुधादिगणः ॥ ७॥ तनादिगणस्थधातुपाठः सू० ६७३ तृणु (अदने)-खाना। तनु ( विरवारे )-विस्तार करना । डुकृत्र ( करणे)-करना। स. ६७४ सू०६८६ षणु ( दाने) दान देना। वनु ( याचने )-माँगना। स. ६७६ मनु ( अवबोधने)-जानना, मानना। क्षणु क्षिणु ( हिंसायाम् )-मारना । इति तनादिगणः । ८। क्रयादिगणस्थधातुपाठः सू. ६४८ सू० ६८६ हुकी (द्रव्यविनिमये)-खरीदना, बेचना । युञ (बन्धने)--बाँधना । प्री ( तर्पणे कान्तौ च )-तृप्त करना, क्नु (शन्दे) शब्द करना। __ शोभा पाना। दृञ् ( हिंसायाम )-मारना । श्री (पाके) पकाना। दूज् (हिंसायाम् )-, मीम् ( हिंसायाम् )-मारना। पूज ( पावने)-पवित्र करना। पिम् ( बन्धने )-बाँधना । सू० ६६० सू. ६८५ लून (छेदने)-काटना। (आप्लवने)-उछलना, उद्धारकरना | स्तञ् (आच्छादने) ढकना । सू०६८७ सू० ६६२ सम्मु (सौपाश्चस्वारः)-रोकना। कृञ् (हिंसायाम)-मारना। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम ३७७ धातवः भाषार्थः धातवः भाषार्थः वृष (वरणे)-स्वीकार करना । अश (भोजने)-खाना। धून (कम्पने)-कॅपाना। मुष (स्तेये)-चुराना। ग्रह (उपादाने)-लेना। ज्ञा (अवबोधने) जानना। स० ६६३ वृङ् (सम्भक्तो)-सेवा करना। कुष (निष्कर्षे)-निकालना। इति क्रयादयः॥६॥ चुरादिगणस्थधातुपाठः सू०६६४ सू० ६६७ चुर (स्तेये)-चुराना । गण (सङख्याने)-गिनना। सू० ६६५ कथ (वाक्यप्रबन्धे)-कहना। इति चुरादयः॥१०॥ अथ एयन्तप्रक्रिया सू० ७०० सू०७०३ भावयति-होने के लिये प्रेरणा करता है। घटयति-चेष्टा करवाता है । . सू०७०२ ज्ञपयति-जताता है। स्थापयति-ठहराता है, रखता है। इति ण्यन्तप्रक्रिया। अथ सनन्तप्रक्रिया स० ७०६ स०७०६ पिपठिषति-पढ़ना चाहता है। चिकीर्षति-करना चाहता है। सू० ७०७ स०७१० जिघत्सति-खाना चाहता है। बुभूषति-होना चाहता है। अथ यङन्तप्रक्रिया सू० ७१२ । होता है। बोभूयते-बार बार या अधिक होता है । सू० ७२७ स० ७१४ वाव्रज्यते-टेढ़ा चलता है। | नरीनृत्यते-बार बार वा अधिक नाचता है। सू. ७१६ जरीगृह्मते-बार बार व अधिक ग्रहण वरीवृत्यते-बार बार वा अधिक विद्यमानं | करता है। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ धातवः भाषार्थः लघुसिद्धान्तकौमुद्या अथ यङ्लुगन्तप्रक्रिया धातवः सू० ७१६ बोभवीति - - बार बार व अधिक होता है । अथ नामधातुप्रकरणम् सू० ७२२ पुत्रीयति - अपना पुत्र चाहता है । सू० ७२३ राजीयति - अपना राजा चाहता है वाच्यति - अपनी वाणी चाहता है । गीर्यति-अपनी वाणी चाहता है । पूर्यति - अपनी नगरी चाहता है । दिव्यति - अपने लिये स्वर्गं चाहता है । सू० ७२४ समिध्यति-अपने लिये समिधायें चाहता है । सू० ७३० कण्डूयति--खुजलाता है । स. ७२५ पुत्रकाम्यति--अपने लिये पुत्र चाहता है । ७२६ विष्णूयति - ( ब्राह्मण को ) विष्णु के समान मानता है । स्वति - अपने समान मानता है । सू० ७३१ व्यतिलुनीते -- अन्य के योग्य काटता है ० ७२७ स० राजानति-- राजा के समान मानता है । पथीर्नाति - मार्ग के समान मानता है । कष्टायते इति नामधातवः । अथ कण्डवादयः भाषार्थः Do सू० ०७२८ - पाप पर उतारू होता है । कहता है। सू०७२६ शब्दायते -- शब्द करता है । घटयति--घड़ा बनाता है या घट को अथाऽऽत्मनेपदप्रक्रिया सू० ० ७३३ निविशते - प्रवेश होता है । सू० ७३२ व्यतिगच्छन्ति अन्य के योग्य गमन करते हैं । व्यतिघ्नन्ति - अन्य के योग्य हनन करते हैं । । अवक्रीणीते- खरीदता है । स० ७३४ परिक्रौगीते - खरीदता है । विक्रीणीते-बेचता है । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोगाः स. ७३५ विजयते - विजय पाता है ! पराजयते - हारता है । भाषार्थः स० ० ७३५ सन्तिष्ठते-रहता है ( सम्यक् स्थिति ) । श्रवतिष्ठते- ठहरता है । प्रतिष्ठते-जाता है। वितिष्ठते-ठहरता है । ૦ ૯૩૭ सू० शतमपजानीते - सौ रुपया छिपाता है । सू० ७३८ सर्पिषो जानीते - घीके बहाने प्रवृत्त होता है। सू०७३६ धर्ममुच्चरते - धर्मका उल्लंघन करता है । स० रथेन सञ्चरते--रथ से ० ७४० परिष्टिम् भ्रमण करता है / सू०७४५ अनुकरोति -- नकल करता है । पराकरोति — दूर करता है । सू० ७४६ श्रभिक्षिपति -- फेंकता है । सू० ७४७ प्रवहति - बहता है । प्रयोगाः भाषार्थः सू० ७४२ एदिधिषते -- बढ़ाना चाहता है । सू०७४३ निविविक्षते - प्रवेश होना चाहता है । सू० ७४१ दास्या संयच्छते - नीच अभिप्राय से दासी श्रोदनं भुङ क्ते- भात खाता है । को देता है। सू० ७४४ श्येनो वर्तिकामुत्कुरुते - बाज बत्तख को तिरस्कार करता है । उत्कुरुते - चुगली करता है । हरिमुपकुरुते - भगवान् की सेवा करता है । परदारान् प्रकुरुते -- परस्त्री में सहसा प्रवृत्त होता है । धोदकस्योपस्कुरुते- --काष्ठ जल का गुण ग्रहण करता है । कथाः प्रकुरुते --कथाएँ कहता है । शतं प्रकुरुते - सौ रुपया धर्मार्थ लगाता है। कटं करोति-चटाई बनाता है । ३७६ महीं भुनक्ति - पृथ्वी की रक्षा करता है । -- अथ परस्मैपदप्रक्रिया सृ परिमृष्यति - सहन करता है । स० ७४६ ० ७४८ विरमति हटता है । ० ७५० सू० यज्ञदत्तमुपरमति--यज्ञदत्त को हटाता है । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषार्थः ३८० लघुसिद्धान्घुकौमुद्या म् अथ भावकर्मप्रक्रिया धातवः भाषार्थः धातवः सू० ७५२ नन्द्यते-प्रसन्न हुआ जाता है। भूयते-होना ( उससे हुआ जाता है)। | इज्यते-यज्ञ किया जाता है। स. ७५४ स. ७५५ अनुभूयते-अनुभव किया जाता है । वायते-विस्तार किया जाता है। भाव्यते-भावित किया जाता है । सू० ७५६ बुभूष्यते-होने के लिये इच्छा की जाती है । । | अनुतप्यते-पश्चात्ताप किया जाता है। बोभूय्यते-बार २ हुआ जाता है। दीयते-दिया जाता है। बोभूयते-बार २ हुआ जाता है। धीयते-धारण किया जाता है। स्तूयते-स्तुति किया जाता है। स० ७५७ अयंते-प्राप्त किया जाता है। भज्यते-सेवा किया जाता है। स्मयते-स्मरण किया जाता है। स० ७५८ स्रस्यते-गिरा जाता है। लभ्यते-प्राप्त किया जाता है। अथ कर्मकत्त प्रक्रिया सू० ७६० | भिद्यते-फटता है। पच्यते-पकता है। अथ लकारार्थप्रक्रिया स० ७६१ किया। स्मरसि कृष्ण ! गोकुले वत्स्यामः--हे सू० ७६४ कृष्णा ! स्मरण है ? कि ( हम ) गोकुल | कदाऽऽगतोऽसि १-कब आये हो ? में रहा करते थे। श्रयमागच्छामि-अयमागमं वा-अभी स० ७६२ श्राया था। अभिजानासि-कृष्ण ! यदनेऽभुमहि | कदा गमिष्यसि ?-कब जानोगे? हे कृष्ण ! याद है ? कि (हम) वन में | एष गच्छामि गमिष्यामि वा-अभी खाया करते थे। जाऊँगा। सू०७६३ स. ७६५ यजति स्म युधिष्ठिर:-युधिष्ठिर ने यज्ञ कृष्ण नमेच्चेस्सुखं यायाद्-यदि श्रीकृष्ण Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् प्रयोगाः भाषार्थः प्रयोगाः भाषार्थः को नमस्कार करेगा तो सुखको प्राप्त इह भुञ्जीत—यहाँ खावे । होगा। इहाऽऽसीत - (इच्छा हो तो) वहाँ बैठिये । कृष्णं नस्यति चेत्सुखं यास्यति-यदि पुत्रमध्यापयेद्भवान्-श्राप मेरे पुत्र को श्रीकृष्ण को नमस्कार करेगा तो सुख पढ़ाइये। को प्राप्त होगा। किं भो ! वेदमधीयीय, उत तर्कम्-क्यों हन्तीति पलायते-(वह) मारता है इसलिये | जी मैं वेद पट्ट्या तर्क ? भागता है। | भो ! भोजनं ! लभेय-अजी ! (क्या ) यजेत--(देवदत्त) यज्ञ करे। . भोजन मिलेगा? इति । अथ कृत्यप्रक्रियाप्रयोगसंग्रहः स० ७७१ सू० ७७७ एधितव्यम्-बढ़ने योग्य है। इत्यः--पास करने योग्य। एधनीयम्-बढ़ना चाहिए । स्तुत्यः-स्तुति करने योग्य । चेतव्यः-सञ्चय करना चाहिए। स० ७७८ चयनीयः-- शिष्यः-शिक्षा देने योग्य। पचेलिमाः-- पकाने योग्य । वृत्यः--वर्तने योग्य । भिदेलिमाः-- भेदन करने योग्य । अाहत्यः--आदरणीय । स० ७७२ जुष्यः-सेवनीय। स्नानीयम्-उवटन। स०७७६ मृज्यः--शोधनीय । दानीयः- दान देने योग्य ब्राह्मण । सू०७८० स० ७७३ कार्यम्-कर्त्तव्य । धेयम्-चुनने योग्य । हार्यम्-हरणीय। स० ७७४ धार्यम्--धारणीय । देयम्-दान देने योग्य । . सू० ७८२ ग्लेयम्-ग्लानि होनी चाहिए। मार्यः-शोधनीय। स०७७५ .. . सू० ७८३ शप्यम्-शाप देने योग्य । भोज्यम्-भक्षणीय पदार्थ । लभ्यम्-लाभ करने योग्य । भोग्यम्-भोगने योग्य -- - Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ प्रयोगाः कारकः- करनेवाला । कर्त्ता - 33 सू० ७८५ सू०७८६ नन्दनः - श्रानन्द करनेवाला । ही - ग्रहण करनेवाला । स्थायी - स्थायी । मन्त्री - मन्त्री | गृहम् - घर | बुधः - पण्डित | कृशः - कृश । ज्ञः-प्राज्ञ । प्रियः--प्रिय । किरः -- फेंकनेवाला । सू०७८७ प्राज्ञः -- पण्डित । सुग्लः - घृणी । भाषार्थः सू०७८८ सू० ७८६ सू० ७६० कुम्भकारः- कुम्हार । सू० ७९१ गोदः -- गोदानी । धनदः--धनदानी । लघुसिद्धान्तकौमुधाम् अथ पूर्वकृदन्तप्रयोगसंग्रहः प्रयोगाः मी:- पर्वत । कुधः - " कम्बलदः--कम्बलदानी | गोसन्दायः--गोदानी । मूलविभुजः - रथ । ad कुरुचरः-- कुरुचर । भाषार्थः भिक्षाचरः-- भिक्षु | सेनाचरः- सैनिक | ७६२ सू० ७६३ श्रादायचरः--लेकर घूमनेवाला । सू० ७६५ यशस्करी - ( यश को सम्पन्न करनेवाली ) विद्या | श्राद्धकरः - श्राद्ध करनेवाला । वचनकरः - श्राज्ञापालक । सू० ७६७ जनमेजयः-- राजा जनमेजय । सू० ७६८ प्रियंवदः -- मीठा बोलनेवाला । वशंवदः -- श्रधीनभाषी । सू० ८०० सुशर्मा - सुन्दर काटनेवाला । प्रातरित्वा -- प्रातर्यायी । सू० ८०१ विजावा - अनेक रूप में होनेवाली । वावा- पाप से हटने वाली (ब्राह्मणी ) रीट--हिंसक रेट-हिंसक । सुगरण - गणितज्ञ । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ३८५ प्रयोगः भाषार्थः प्रयोगः भाषार्थः सू० ८०२ सू०८१२ उखासत्-हाण्डी से गिरा हुआ। | सरसिजम्-कमल । पवित्-पत्ते से गिरा हुआ। सरोजम्- , वाहभ्रट-घोड़े पर से गिरनेवाला। सू०८१३ सू०८०३ प्रजा-सन्तान या प्रजा। उष्णभोजी-गर्म खानेवाला। सू०८१५ स०८०४ स्नातम्-स्नान किया। दर्शनीयमानी-अपने को दर्शनीय मानने- | स्तुतः-स्तुति किया। वाला। कृतवान्-किया। स. ८१६ सू०८०५ शीर्णः-हिंसित। पण्डितम्मन्यः-अपने को पण्डित मानने मिन्नः-भिन्न । वाला। छिन्नः--कटा हुआ । पण्डितमानी , सू०८१७ स०८०६ द्राण:-बुरी तरह से भाग गया। कालिम्मन्या-अपने को काली माननेवाली | ग्लानः-ग्लानि को प्राप्त । स०८०७ सू० ८१८ सोमयाजी-सोमयज्ञ करनेवाला ।। लूनः-कटा हुआ। अग्निष्टोमयाजी-अग्निष्टोमयज्ञ करने जोनः-वृद्ध । स०८०८ सू०८२० भुग्नः-टेढ़ा। पारदृश्वा--मर्मज्ञ । सू० ८०६ उच्छूनः--फूला हुआ। स०८२१ राजयुध्वा-राजा को युद्ध करानेवाला। शुष्कः-सूखा हुआ। राजकृत्वा--राजा बनानेवाला । सू०८२२ स०८११ पक्वः-पका हुआ। सहयुध्वा--साथ युद्ध करनेवाला। सहकृषा-साथ करनेवाला। क्षामः-कृश । सू० ८१६ वाला। सू० १२३ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ प्रयोगः सृ० ८२४ भावित :- भावित । भावितवान् भावना किया । दृढः -दृढ । हिवम्-हित | दत्तः - दिया । चक्राण: सू० ० ८२५ - करनेवाला । विदन् - विद्वान् सू० ८२६ } सू० ८२७ करिष्यन्तम् करिष्यमाणम् सू० ८२६ जगन्वानू - जानेवाला | सू० ८३१ पचन्तं ( चैत्र पश्य ) - पकाते को देख | सू० ८३० सू० ८३२ पचमानम् - पकाते हुये चैत्र को देख । सन् द्विजः - श्रेष्ठ ब्राह्मण । स० ८३३ विद्वान् सू० ८३५ कर्त्ता - करनेवाला | लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् भाषार्थः प्रयोगः सू० ८३७ हुए चैत्र भविष्य में करनेवाले को (देख) | सू० ८३६ बल्पाक:- अविकभाषी । भिक्षाकः - भिक्षु | कुट्टाकः -कूटने वाला । लुण्टाक:- लुटेरा | वराकः - दीन । वराकी - डीन (स्त्री) । सू० ८४० चिकीर्षुः- करने की इच्छा वाला । श्राशंसु - आशा रखनेवाला । भिक्षुः-- याचक | १० ८४१ सू० विभ्राट् अधिक शोभावान् । भाः - कान्ति ? सू० ८४२ ध:--भार ( धुरा ) । विधत्--विजली । बल वा तेज । ज पू:- पुरी नगरी । जूः-रोगी । ग्रावस्तुन् -- पत्थर के गुण वर्णन करनेवाला वाक्--वाणी । सू० ८४३ भाषार्थः | दात्रम् - दात्री | प्राट् - प्रश्नकारी । श्रायत तूः - श्रायत को स्तुति करनेवाला कटप्र ू :- लक्ष्मी' | सू०८४४ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૬ परिशिष्टम् प्रयोगाः भाषार्थः । प्रयोगाः भाषार्थः नत्रम्-नेती। सू०८४६ सू०८४५ अरित्रम्-नौका चालन दण्ड । शस्त्रम् -शस्त्र। लवित्रम्-चाकू। योत्रम्- । बन्धनरज्जु । योक्त्रम् - धवित्रम्-मृगचर्मनिर्मित पंखा । (जोत) स्तोत्रम्-स्तुति । सवित्रम्-प्रसवसाधन यन्त्रविशेष । तोत्रम्-चाबुक । खनित्रम्-खननसाधन (कुद्दाल)। सेत्रम्-बन्धन। सहित्रम्-सहन करने का साधन छाता सेक्त्रम्-सेचनार्थ पात्र। आदि। मेढम्-लिङ्ग । चरित्रम्-चरित्र (वृत्तान्त )। पत्त्रम्-वाहन, पत्ता, पक्ष, और बाण। सू०८४७ दंष्ट्रा-दाड़। | पवित्रम्-पवित्र (कुशनिर्मित)। नद्धीचमरज्जु । । • इति पूर्वकृदन्तम् । अथोणादयः कारः-कारीगर । मायु:-पित्त । वायु:-वायु। पायुः-गुदा। स्वादुः-स्वाद। जायुः-औषध । | आशु-शीघ्र । अथोत्तरकृदन्तप्रकरणम् सू०८४६ द्रष्टुम्-देखने के लिये। निकाय:-निवास । दर्शकः-देखनेवाला। कायः-शरीर । सू०८५० भोक्तुम् खाने के लिये। | गोमयनिकायः-गोमयसंघात । स०८५५ स०८५१ जयः-विजय । सू० ८५३ चयः-समूह या चुनना। राग:-रङ्ग या आसक्ति । सू० ८५६ (रङ्गः)-रङ्गभूमि-नाट्यशाला। करः-करना, या हाथ । सू० ८५४ पाक:-पकाना। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ भाषार्थः गर:-निगलना लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् प्रयोगा , भाषार्थः । प्रयोगाः . धूनिः--कॉपना । यवः-मिश्रण आधवधान्य। पूनिः-विनाश । लवः-काटना। सम्पत्-सम्पत्ति । स्तवः-स्तुति। विपत्-विपत्ति । पकः-पवित्रता । आपत्-आपत्ति । प्रत्यः -सेर भर । सम्पत्तिः-सम्पति। विघ्ना-विघ्नः। विपत्तिः-विपत्ति । सूत्राङ्काः ८५८ सूत्राङ्काः ८६५ पवित्रमम-पका हुना। जूः-रोगी। उत्रिमम-बोया हुआ। तूः-शीघ्रकारी। ' स० ८५६ सू:-चलनेवाला। वेपथु:-कम्प । ऊः-रक्षक। सू० ८६० मू:-बाँधनेवाला। याचना-माँगना। सू० ८६६ इच्छा--इच्छा। यत्नः-प्रयत्न। विश्न:-गति या बोलना। सू०८७६ चिकीर्षा-करने की इच्छा। प्रश्न:-प्रश्न-पूछना। पुत्रकाम्या-अपने लिये पुत्र चाहना। रक्ष्णः-रक्षा। सू० ८६१ ईहा-चेष्टा। . सू०८६८ स्वप्नः-स्वप्न। सू० ८६६ सू० ८६२ कारणा-यातना। प्रधिः-नेमि। हारणा-हराना। उपधि: दम्भ सू० ८७१ सू०८६३ हसितम्-हँसना।" कृति:-क्रिया हसनम्-हँसना। तुतिः-स्तुति। स०८७३ कीणित-विक्षेप-ना। दन्तच्छदः-श्रोष्ठ । लनि:-काटना। । आकरः-खनि (खान)। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोगाः सू०८ अवतारः -- उतरना । श्रवस्तारः -- जवनिका ( पर्दा ) । सू०८७५ रामः -श्रीराम । अपामार्ग:-- : -- पुठकण्डा ( ऊंगा ) । सू०८७६ दुष्करः--कठिन । ईषत्करः - सुखाला, आसान । सुकरः- सुखाला । ईषत्पान :- सुपान । दुष्पान:-- दुष्पान । सुपानः--सुपान । भाषार्थ ८७४ सू०८७६ अलं दत्त्वा मत दो | सू० ८७८ अलङ्कारः -- भूषण । मुक्त्वा छोड़कर । पीत्वा खलु मत पी। मा काषत् - नहीं किया ( मत करो ) । भुक्त्वा खाकर 1 पीत्वा - पीकर । सू० ८७६ शयित्वा - सोकर । कृत्वा - करके । सू० ८८० सू०८८१ तित्वा - प्रकाशित होकर । धोतित्वा 39 परिशिष्टम् प्रयोगाः लिखित्वा - लिखकर | वर्तित्वा-होकर | सेवित्वा - सेवा करके । एषित्वा - इच्छा करके । भुक्त्वा खाकर । सू०८८२ शमित्वा -- शान्त होकर । शान्त्वा- "" देवित्वा- खेलकर | द्यूत्वा "" हित्वा -- धारण करके । भाषार्थः सू०८८३ हित्वा-छोड़कर ! हात्वा - जाकर । सू०८८४ प्रकृत्य- आरम्भ करके । अकृत्वा न करके । सूत्राङ्काः ८८६ स्मारं स्मारम्-- याद कर कर के । "" स्मृत्वा स्मृत्वा -- पायम्पायम् - पी पी कर । भोजम्भोजम्-- खा खा कर । श्रावं श्रावम् सुन सुन कर 1 सू०८८७ अन्यथाकारम्-अन्यथा । एवङ्कारम् - इस प्रकार । कथङ्कारम् - किस प्रकार 1 इत्थङ्कारम् - इस प्रकार । शिरोऽन्यथा कृत्वा भुङ्क्ते - शिर को टेढ़ा Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् | प्रयोगाः भाषार्थः ब्रजमवरुणद्धि गाम्-व्रज में गौ को रोकता प्रयोगाः भाषार्थः मेंदा करके भोजन करता है। अथ विभक्त्यर्थाः स०८८८ उच्चैः-ऊँचा। नीचैः-नीचा । कृष्णः-भगवान् श्री कृष्ण । श्रीः-लक्ष्मी। ज्ञानम्--ज्ञान । तटः-तट । तटी-तट। तटम, द्रोणो व्रीहिः--द्रोण भर धान्य । एक: एक। द्वौ-दो। बहवः-बहुत से। - सू०८८६ राम!--हे राम। सू० ८६१ हरिं भजति-श्रीहरि को भजता है। हरिः सेव्यते- " लक्ष्म्या सेवितः--लक्ष्मी से सेवित । सूत्राङ्काः ८९२ गां दोग्धि पयः--गौ से दूध दुहता है। बलिं याचते वसुधाम्--बलि से पृथ्वी मांगता है। तण्डुलानोदनं पचति--चावलों से भात बनाता है। गर्गान् शतं दण्डयति--गर्गों से सौ रुपया दण्ड लेता है। माणवकं पन्थानं पृच्छति-बालक से रास्ता पूछता है। वृक्षमवचिनोति फलानि-वृक्ष पर से फल चुनता है। माणवकं धर्म ब्रूते शास्ति वा-बालक को धर्मोपदेश देता है। शतं जयति देवदत्तम्-देवदन से सौ ____ रुपया जीतता है। सुधां क्षीरनिधिं मथ्नाति--अमृत के लिये . समद्र को मथता है। देवदत्तं शतं मुष्णाति-देवदत्त के यहाँ से सौ रुपया चुराता है। ग्राममजां नयति हरति कर्षति वहति वा____बकरी को ग्राम में ले जाता है। बलिं भिक्षते वसुधाम्-बलि से पृथ्वी (मिक्षा) माँगता है। माणवकं धर्म भाषते-बालक को धमों___ पदेश करता है। सू० ८६५ समय बाणन हवा वाला-राम न बाण | से बाली को मारा। स०८६७ विप्राय गां ददाति-ब्राह्मण को गौ देता है। सूत्राडाः ८१८ | हरये नमः--श्री हरि के प्रति नमस्कार । | प्रजाभ्यः स्वस्ति-प्रजात्रों के प्रति स्वस्ति । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषार्थः प्रयोगाः भाषार्थः प्रयोगाः श्रग्नये स्वाहा - अग्नि के प्रति यह हवि सर्पिषो जानीते - घी के उपाय से प्रवृत्त ( दिया जाता है ) । होता है । पितृभ्यः स्वधा - पितरों के प्रति यह कव्य मतुः स्मरति माता को स्मरण करता है एवोदकस्योपस्कुरुते - लकड़ी जल के गुणों को धारण करती है । ( दिया जाता है ) दैत्येभ्यो हरिरलं प्रभुः समर्थो वा दैत्यों लिये श्रीहरि पर्याप्त हैं (समर्थ हैं) सू० ६०० ग्रामादायाति -- ग्राम से आता है । धावतोऽश्वात्पतति-दौड़ते हुए पर से गिरता है । सूत्राङ्काः ६०६ भूतपूर्वः -- पहिले हो चुका । सू० ६१० हर - श्री हरि में परिशिष्टम् स्थाल्यां पचति--हांडी में पकाता है । सू० ६०१ आदि । ) राज्ञः पुरुषः- राजो का पुरुष ( सिपाही | मोक्षे इच्छास्ति मोक्ष के विषय में इच्छा है। सर्वस्मिन्नात्मास्ति--सबमें श्रात्मा व्यापक है । वनस्य दूरे अन्तिके वा--वनके दूर या समीप । इति कारकप्रकरणम् ( विभक्तयर्थाः ) सतां गतम् - सत्पुरुषों की गति । 1 स० ६११ ܬ गोप-गोप में | घोड़े भजे शम्भोश्चरणयोः - शम्भु के चरणों को भजता हूँ । सू० १०३ कटे आस्ते चटाई पर बैठा है । अथ समासाः सू० ६१३ उपकृष्णम्- भगवान् श्रीकृष्ण के पास । सुमद्रम्--मद्र देश की समृद्धि । दुर्यवनम् - यवनों पर विपत्ति । ३८६ अथाव्ययीभावः वागर्थाविव-- शब्द और अर्थ के समान । इति केवलसमासः । निर्मक्षिकम्--मक्षिकाओं का अभाव । ( एकान्त ) | प्रतिहिमम्-हिम का नाश । अतिनिद्रम्-- श्रव नहीं सोना चाहिए । इतिहरि - हरि शब्द का प्रकाश । विष्णु विष्णु के पीछे । -- अनुरूपम-- योग्य | प्रत्यर्थम् -- प्रत्येक श्रर्थ । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् प्रयोगाः भाषार्थः । प्रयोगाः भाषार्थः यथाशक्ति-शक्त्यनुसार। द्वियमुनम्-दो यमुनाओं का समाहार सू० ६१४ (देश विशेष )। सहरि-हरि की समानता। सू० ६१७ अनुज्येष्ठम् ज्येष्ठ के पीछे। उपशरदम्-शरद ऋतु के समीप । सचक्रम्-चक्र के साथ ही। प्रतिविपाशम्-विपाशा नदी पर । ससखि-मित्र के सदृश। उपजरसम्-बुढ़ापे के समीप । सक्षत्रम्-क्षत्रों की सम्पत्ति। स० ६१६ सतृणम्-तृणमात्र भी न छोड़कर (खाताहै, उपराजम्-राजा के समीप । स० ६१५ अध्यात्मम्-आत्मा के विषय में । साग्नियु-अग्निग्रंथपन्त पढ़ता है। स० ६२० सू०६१६ उपचमम्-चर्म के समीप । पञ्चगङ्गम् पाँच गङ्गाओं का समाहार सू० ६२१ ( देश विशेष )। | उपसमिधम्-समिधा के समीप । __ अथ तत्पुरुषः सू० ६२४ द्विजार्था (यवानः) ब्राझण के लिए लाप्सी कृष्णश्रितः-श्रीकृष्ण के आश्रित । द्विजार्थ (पयः)-ब्राह्मण के लिए दूध । स० १२५ भूतबलिः-भूतों के लिए बलि । शकुलाखण्ड:-शंकुला (सरौता ) से गौहितम्-गौ के लिए हित । किया हुअा टुकड़ा। गोसुखम्- ,, सुख । धान्यार्थः-प्रयोजन । गोरक्षितम्-, रक्षा। अक्षणा काण:-अाँख से काना । सू० ६२७ स० ६२६ चोरभयम्-चोर से भय । हरित्रातः-श्री हरि से रक्षित। सू० ६२६ नखभिन्नः-नखों से कटा हुआ। स्तोकान्मुक्त:--थोड़े से मुक्त । नखनिर्भिन्नः-नखों से कटा हुआ । अन्तिकादागत -समीप से आया। यूपदारु-यज्ञस्तम्भ के लिए लकड़ी। अभ्याशादागत:- , । रन्धनाय स्थाली-रांधने के लिये हाँडी। दूरादागतः-दूर से आया। विजार्थः (सूपः)-ब्राह्मण के लिए दाल । | कृच्छ्रादागतः कष्ट से आया । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोगाः भाषार्थः स० ६३१ राजपुरुषः - राजा का पुरुष । सु० ६३२ पूर्वकायः - शरीर का समभाग । परकाय:- शरीरका पिछला भाग । पूर्वश्छात्राणाम् - छात्रों में प्रथम । सू० ६३३ पिप्पली - पिप्पली का आधा भाग । सू० ६३४ अक्षशौण्डः - पासे खेलने में चतुर । सू० ६३५ पूर्वेषुकामशमी - पूर्व कामशमीग्राम | दिशा में होनेवाला परिशिष्टम् सप्तर्षयः- सात ऋषि । उत्तरा वृक्षाः - उत्तर की ओर स्थित वृक्ष । पञ्च ब्राह्मणाः - पाँच ब्राह्मण | [० ६३८ सू० पौर्वशालः - पूर्वदिशा की शाला में होने वाला । सू० ६३६ पञ्चगवधनः- पाँच गोएँ जिसका धन है । सू० ६४३ पञ्चगवम्-पाँच गौएँ । I सू० ० ६४४ नीलोत्पलम् - नील कमल । कृष्णसर्पः- काला साँप | रामो जामदग्न्यः - जमदग्निके पुत्र परशुराम स० ६४५ वनश्याम :- मेघ के समान श्याम । भाषार्थः प्रयोगाः शाकपार्थिवः - शाकप्रिय राजा । देवब्राह्मणः–देवपूजक ब्राह्मण 1 सू० ६४७ अब्राह्मणः - ब्राह्मणेतर । सू० ६४८ अनश्वः - अश्वेत । नैकधा - अनेक प्रकार 1 सू० ६४६ कुपुरुषः - निन्दित मनुष्य । सू० ६५० ऊरीकृत्य - स्वीकार करके । शुक्लीकृत्य - सफेद करके । पटपटाकृत्य - पट पट ऐसा शब्द करके । सुपुरुषः - भला पुरुष । प्राचार्य:- प्रधान आचार्य ३६१ सू० ६५२ तिमालः - माला को अतिक्रमण करने वाला । अवकोकिलः-कोकिलाओं से कूजित (देश) पर्यध्ययनः - पढ़ने से उदास । निष्कौशाम्बिः - कौशाम्बी से निकला हुआ सू० ६५४ कुम्भकारः - कुम्हार । व्याघ्री - व्याघ्री । अश्वक्रीत - घोड़ा देकर खरीदी हुई घोड़ी कच्छपी - कछवी । सू० ६५५ द्वयङ्गुलम् - दो अँगुली भर । निरङ्गुलम् - अगुलियों से निकला हुआ। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स०६५७ ३१२ लघुसिद्धान्तकोमुखाम् प्रयागाः भाषार्थः प्रयोगाः भाषार्थः स. ६६१ अहोरात्रः-दिन रात । कुक्कुटमयूरों--कुक्कुट और मयूरी । सर्वरात्रः-सारी रात । पञ्चकपालः-पाँच कपालों में संस्कार संख्यातरात्र:-गिनी हुई रात। किया हुआ। द्विरात्रम्-दो सतें। स०६६२ त्रिरात्रम्-तीन रातें। प्राप्तजीविकः--प्राप्तजीविक । सू० १५८ | अापन्नजीविकः-प्राप्तजीविक । परमराजा-महाराज। अलङकुमारिः कुमारी के योग्य । स०६५६ . सू०६६३ महाराजः-महाराज। अर्धर्चम्--ऋचा का अर्धभाग। महाजातीयः-महान । मृदु--पचति-सुन्दर पकाता है। स. १६० | प्रातः कमनीयम्-सुन्दर प्रातःकाल । द्वादश-बारह (१२)। इति तत्पुरुषः। अष्टाविंशतिः-अठाईस (२८)। अथ बहुव्रीहिः स० ६६७ | रूपवद्भार्य-जिसकी भार्या रूपवती है । कएठेकाल:-नीलकठ। वामोरूभायः--जिसकी भार्या सुन्दरोरू है। प्राप्तोदकः-जल जिसे प्राप्त है ऐसा ग्राम ।। स० ६६६ ऊढरथः--रथ में जुड़ा हुआ बैल । कल्याणोपञ्चमाः-जिनमें पाँचवीं कल्याणउपहृतपशुः--पशु जिसको भेंट किया गया है ह कारिणी है। उदधतौदना--भात जिसमें से निकाल स्त्रीप्रमाण:-जिसकी प्यारी कल्याणलिया गया है। कारिणी है। पीताम्बरः--पीले वस्त्रोंवाला। वीरपुरुषकः-जिसमें वीर पुरुष रहते हैं । स० ६७० प्रपर्णः-गिरा हुआ पत्ता। दीर्घसक्थः-लम्बे ऊरुवाला। अपुत्रः-पुत्रहीन । जलजाक्षी-कमलनयना। सू०६६८ दीर्घसक्थिः-लम्बे धुरे वाला (छकड़ा)। चित्रगुः--चित्रित गौओंवाला, (भगवान्)। स्थूलाक्षा-मोटी आँखोंवाली (लाठी)। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषार्थः परिशिष्टम् ३६३ प्रयोगाः भाषार्थः । प्रयोगाः सू० ६७१ को उठा हुआ है। द्विमूर्धः-दो सिरा। विकाकुत् जिसका ढोंट विकृत हुआ है। त्रिमूर्धः-तीन सिरा। सू० ६७६ सू० ६७२ पूर्णकाकुत्-जिसके टोंठ पूर्ण हैं । अन्तर्लोमः-भीतर बालों वाला। सू०६७७ बहिर्लोमः-बाहर बाला वाला । । सुहृत्-मित्र । मू० ६७३ दुहृत्-शत्रु । व्याघ्रपात्-व्याघ्र के समान पाओंवाला । हस्तिपाद:-हाथी के समान पाओंवाला। स०६७६ कुसूलपादः- कुसूल के समान पात्रोंवाला। स मान व्यूढोरस्क:-विशाल वक्षःस्थलवाला । प्रियसर्पिष्कः-घृतप्रिय । सू० ६७४ द्विपात्-दुपाया। स. १८० सुपात्-सुन्दर पाओंवाला। युक्तयोगः-योगी। सू० ९७५ सू०६८१ उत्काकुत्-जिसका तालु या ढोंठ ऊपर | महायशस्कः-महाकीर्ति । इति बहुव्रीहिः। अथ द्वन्द्वः स० ६८२ स. १८४ ईश्वरं गुरु च भजस्व-ईश्वर और गुरु को हरिहरौ-भगवान् विष्णु और महादेव । भजो। स० १८५ भिक्षामट गां चानय-भिक्षा लाओ साथ | ईश कृष्णौ-महादेव और श्रीकृष्ण । गौ को भी लेते आना। शिवकेशवौ-महादेव और केशव । धवखदिरौं छिन्धि-एक ही साथ घव और स. १८७ खदिर (खैर) को काट दो। संज्ञापरिभाषम् संज्ञा और परिभाषा का पितरौ-माता और पिता। समूह। सू० ६८८ सू०६८३ पाणिपादम्-हाथ पाओं। राजदन्तः प्रधान दाँत ।। मार्दङ्गिकवणविकम्-मृदङ्ग बजाने वालों अर्थधर्मों-अर्थ और धर्म । और बंशी बजानेवाले का समूह । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषार्थः ३६४ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् प्रयोगाः भाषार्थः । प्रयोगाः रथिकाश्वारोहम्-रथिक और घुड़सवारों शमीदृषदम्-शमी और पाषाण । का समूह । सू० ६८६ वाक्त्विषम् वाणी और कान्ति । वाक्त्वचम्-वाणी और त्वचा । नोपानहम्-छाता जूता। स्वक्त्रजम्-त्वचा और माला । । प्रावृटशरदौ-वर्षा और शरद् ऋतु । इति द्वन्द्वः। अथ समासान्ताः सू० ६६० रम्यपथः-रमणीय मार्गवाला (देश)। अर्धर्चः-ऋचा का आधा भाग । सू० ६६१ विष्णुपुरम्-विष्णु का पुर, बैकुण्ठ। गवाक्षः-खिड़की। विमलापम्-निर्मल जलवाला (तालाब) । स० ६६२ राजधुरा-राजभार । प्राध्वः-रास्ते से निकला हुआ था। अक्षधूः-चक्र का अग्रभाग। __ सू० ६६३ दृढधः-दृढ़ नाभि (छिंद्र) वाला (चक्र) | सुराजा-शोभन राजा । सखिपथः-मित्रमार्ग। अतिराजा-बड़ा राजा। ___ अथ तद्धिताः, तत्रादौ साधारणाः स० ६६५ । दैवम्-देवता का अपत्य आदि । श्राश्वपतम-अश्वपति का अपत्य-सन्तान | बाह्मः-बहिर्भवः-बाहर आनेवाला । आदि। स. १६८ गाणपतम्-गणपति का अपत्य आदि । बाहीकः-बाहर होनेवाला ( गँवार ) ! स० ६६६ गव्यम्-गौ का अपत्य आदि । दैत्यः-दिति की सन्तान, असुर । सू० ६६६ स०६६७ श्रादित्यः-अदिति का अपत्य सर्य, या श्रौत्स:-उत्स का पुत्र ।। आदित्य का अपत्य । सू० १००० प्राजापत्यः-प्रजापति का पुत्र । स्त्रैणः-स्त्री का अपत्यादि। दैव्यम्-देवता का अपत्य आदि । पोस्नः-पुरुष का अपत्य आदि । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषार्थः परिशिष्टम् ३९५ प्रयोगाः भाषार्थः । प्रयोगाः सूत्राङ्काः १००१ सू० १००६ गर्गा:-गर्ग गोत्रवाले। औपगवः-उपगु का पुत्र ( उद्धव )। वत्सा:-वत्स गोत्रवाले। स० १००५ स० १०१० गाग्यः-गर्ग का गोत्रापत्य । गाायणः-गर्ग का युवापत्य । वात्स्य:-वत्स का गोत्रापत्य । दाक्षायण:-दन का युवापत्य । इतिसाधारणतद्धिताः। अथापत्याधिक रः सू०१०११ षाएमातुरः-छः माताओं का पत्र दाधिः-दक्ष का अपत्य । ( कार्तिकेय) स० १०१२ साम्मातुरः-सती का पुत्र । बाहविः-बाहु का अपत्य । भाद्रमातुरः-, औडुलोमिः-उडुलोमा का अपत्य । स० १०१७ उडुलोमाः-उडुलोमा के बहुत से अपत्य । | वैनतेयः-विनता का पुत्र (गरुड़)। सू०१०१३ स. १०१८ बैदः-बिद का गोत्रापत्य । कानीनः-कन्या का पुत्र । पौत्रः-पुत्र का अपत्य । सू०१०२० सू० १०१४ राजन्यः-क्षत्रिय। शैवः-शिवपुत्र । श्वशुर्यः-श्वशुर का पुत्र (साला । गाङ्गः- गङ्गापुत्र (भीष्म )। स० १०२१ सू० १.१५ राजनः राजा का पुत्र । वासिष्ठः-वसिष्ठ का पुत्र । सू०१०२२ वैश्वामित्रः-विश्वामित्र का पुत्र । क्षत्रियः-क्षत्रिय जाति । श्वाफल्क:-श्वफल्क का पुत्र (अक्र र ) सूत्राङ्काः १०२४ वासुदेवः-वसुदेव के पुत्र ( श्रीकृष्ण)। रैवत्कः-रेवती का पुत्र । नाकुलः-नकुल का पुत्र । सूत्राङ्काः १०२५ साहदेवः-सहदेव का पुत्र । पाञ्चालः-पाञ्चाल राजकुमार । स०१०११ | पौरवः-पुरु का पुत्र । द्वैमातुरः-दो माताओं का पुत्र (गणेश)। । पाण्ड्यः -पाड्य राजपुत्र । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ लघुसिद्धान्तकौमुखाम् प्रयोगाः भाषार्थः प्रथोगाः भाषार्थः स० १०२६ स० १०२६ कौरव्यः-कुरु की सन्तति । कम्बोजः-कम्बोज गोत्रोत्पन्न या कम्बोज नैषध्यः-निषध राजा की सन्तति । देश का राजा। चोलः-चोल देश का राजा।। सू. १०२८ शकः-शक देश का राजा। इक्ष्वाकवः-इक्ष्वाकुगोत्रोत्पन्न । केरलः-केरल देश का राजा। पञ्चालाः-पञ्चालगोत्रोत्पन्न । यवनः-यवन देश का राजा। इति अपत्याधिकारः। अथ रक्ताद्यर्थकाः सू० १०३० सू० १.३६ काषायम्-गेरुश्रा वस्त्र । शुक्रियम्-शुक्रदेवताक। स० १०३१ स० १०४० पौष्यम्-पुष्य नक्षत्र का दिन । सोम्यम्-सोमदेवताक। स. १०३२ स० १०४१ अद्य पुष्यः-अाज का पुष्य नक्षत्र है। वायव्यम्-वायुदेवताक। स० १०३३ ऋतव्यम्-ऋतुदेवताक। वासिष्ठम्-वशिष्ठ से देखा गया। । सू० १०४२ स० १०३४ पित्र्यम्-पितृदेवताक। वामदेव्यम्-वामदेव से देखा गया । उषस्यम्-उषोदेवताक । .स १०३५ बास्त्रः-वस्त्र से परिवृत। पितृव्यः-चाचा, ताऊ। स २०३६ मातुल:-मामा। शारावः-प्याले में निकला हुआ ! मातामहः-नाना। स० १०३७ पितामहा-दादा। भ्राष्ट्रः-भाँड़ में भुना हुआ। स. १०३८ काकम्-कौत्रों का समूह । ऐन्द्रम्-इन्द्रदेवता-सम्बन्धी। स. १०४५ पशुपतम्-पशुपतिदेवता सम्बन्धी। भैक्षम्-भिक्षासमूह । वार्हस्पत्यम्-बृहस्पतिदेवताक । | गार्मिणम्-गर्मिणीसमूह । स० १०४३ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिष्टिम् ३६७ पाठी । प्रयोगाः भाषार्थः प्रयोगाः भाषार्थः सू० १०४६ स०१०४६ यौवनम्-युवतिसमूह। साक्तुकम्-सतुओं का समूह । हास्तिकम्-हस्तिसमूह। सू० १०४७ धैनुकम्-गोसमूह । ग्रामता-ग्रामसमूह । सू० १०५१ जनता-जनसमूह। वैयाकरणः-व्याकरणवेत्ता या व्याकरणबन्धुता-बन्धुसमूह । गजता-हाथीसमूह। स० १०५२ सहायता-सहायसमूह । क्रमक:-क्रमपाठी। अहीनः-कई दिनों में होने वाला यज्ञ पदक:-पदपाठी ।। (सुत्याक)। | मीमांसकः-मीमांसापाठी । अथ चातुरर्थिकाः सू० १०५३ कलिजा:-कलिङ्गों का निवास देश । औदुम्बर:-जिस देश में गूलर के पेड़ हों। सू० १०५१ सू० १०५४ वरणाः-वरणा नदी के समीप होने वाला कौशाम्बी-कुशाम्ब की बसाई नगरी। सू० १०६१ स० १०५५ कुमुद्वान्-कुमुद जिस देश में हों। शैव-शिबियों का निवास । नड्वान्-नड़े जिस देश में हों। स० १०५६ सू० १०६२ वैदिशम्-विदिशानगरी के समीप । वेतस्वान्-वेतस (बत )-प्रधान देश । स० १०५८ स० १०६३ पञ्चाला:-पाञ्चाल जाति का निवास देश | नड्वलः-नडप्राय देश । कुरवः-कुरुओं का निवासदेश । शादलः-घास बहुल देश । प्रजा:-अङ्गों का , " सू०. १०६४ वना:-वों का , " शिखावलः-शिखावान्-मयूर । अथ शैषिकाः सू० १०६५ औपनिषदः-उपनिषद् वर्णित (आत्मा)। चातुषम्-चतुर्णाह्य । दार्षदाः-पत्थर पर पीसे हुए। भावणः-श्रोत्रग्राह्य । चातुरम्-चार बैलों के ले जाने योग्य । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ लघुसिद्धान्धुकौमुद्याम् प्रयोगाः भाषार्थः । प्रयोगाः भाषार्थः चातुर्दशम्-चतुर्दशी को दीखनेवाला । | तत्रत्यः-वहाँ का। स० १०६६ नित्यः-नित्य । राष्ट्रियः-राष्ट्र में होनेवाला। स. १०७४ अवारपारीणः-पारंगत ( तत्वज्ञ )। शालीयः-शाला में पैदा हुआ। अवारीणः-पारंगत, तत्वज्ञ । मालोयः-माला में -, " 'तदीयः-उसका। पारीणः-पारंगत ( तत्वज्ञ )। पारावारीण:--पारंगत, तत्वज्ञ । ! देवदत्तीयः-देवदत्त का। स० १०६७. दैवदत्तः-देवदत्त का। ग्राम्यः-ग्राम में होनेवाला। सू० १०७५ ग्रामीण:-ग्रामीण। गहीयः- गह देश में पैदा हुआ। स०१०६८ सू० १०७६ नादेयम्-नदी में होनेवाला। युष्मदीयः-आपका । माहेयम-पृथ्वी में होनेवाला। अस्मदीयः-हमारा। वाराणसेयम्-वाराणसी में होनेवाला। यौष्माकीण:-आपका। सू० १०७७ दाक्षिणात्यः-दक्षिणी। आस्माकीनः-हमारा। पाश्चात्यः-पश्चिमी । यौष्माकः-आपका। पौरस्त्यः-पूर्वी । आस्माकः-हमारा। सू० १०७० सूत्राङ्काः १०७८ दिव्यभ-स्वर्ग में पैदा हुआ। तावकीन:-तेरा। प्राच्यम्-पूर्व में पैदा हुआ। तावक:अवाच्यम्-दक्षिण में,, । मामकीन:-मेरा। उदीच्यम्-उत्तर में ,, । मामकः- । प्रतीच्यम्-पश्चिम में ,, । . सू० १०७१ सू० १०७६ अमात्यः-मन्त्री। त्वदीयः-तेरा। इहत्यः-यहाँ का। मदीयः-मेरा। क्वत्यः-कहाँ का। त्वत्पुत्रः-तेरा पुत्र । ततस्त्या -वहाँ का। मत्पुत्रः-मेरा पुत्र । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् ३६५ प्रयोगाः भाषार्थः प्रयोगाः भाषार्थः सू० १०८० स० १०६१ मध्यमः-मध्य में होनेवाला। दन्त्यम्-दाँतों में होनेवाला। स० १०८१ कराव्यम्-कण्ठ में होनेवाला। कालिकम-समय पर होनेवाला । आध्यात्मिकम्-आत्मा में होनेवाला । मासिकम्-मास में होनेवाला। सू० १०६२ सांवत्सरिकम्-वर्ष में होनेवाला। आधिदैविकम्-देवों में होनेवाला। सायम्प्रातिकः-सायं प्रातः होनेवाला। आधिभौतिकम्-भूतों में , । पौनापुनिकम्-बार बार होनेवाला। ऐहलौकिकम्-इस लोक में ,, । स० १०८२ पारलौकिकम्-परलोक में , । प्रावृषेण्यः–वषा ऋतु में होनेवाला । सू. १०६३ . सू०१०८३ जिह्वामूलीयम्-जिह्वामूल में होनेवाला । सायन्तनम्-शाम को होनेवाला। अङ्गुलीयम्-अंगूठी। चिरन्तनम्-पुराना। स० १०६४ प्राहेतनम्-पूर्वाहकालिक। कवर्गीयम्-कवर्ग में होनेवाला। प्रगेतनम्-प्रातःकालिक। स० १०६५ दोषातनम्-रात में होनेवाला। स्रोप्नः-सुघ्न से पाया। सू०१०८४ स० १०६६ सौनः-सघ्न देश में होनेवाला। शौल्कशालिक:-चुङ्गीखाने से प्राप्त । श्रौत्सः-निझर में पैदा हुआ। सू० १०६७ राष्ट्रियः-राष्ट्र में ,, औपाध्यायक:-उपाध्याय से प्राप्त । स० १०८५ पैतामहकः-पितामह से प्राप्त । प्रावृषिकः-वर्षा काल में होनेवाला । सू०१०६८ सू१०८६ समरूप्यम्-सम से आगत । सौधनः-सुघ्न में प्रायोभव। समीयम्-सम से , । सू० १०८८ विषमीयम-विषम से भागत। कौशेयम्-रेशमी वस्त्र। देवदत्तरूप्यम्-देवदत्त से प्रागत सू० १०६० देवदत्तम्-देवदत्त से भागत। दिश्यम्-दिशा में होनेवाला। स०.२०१६ वर्यम-वर्ग में , सममयम्-सम से प्रागत। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् प्रयोगाः भाषार्थः । प्रयोगः भाषार्थः देवदत्तमयम्-देवदत्त से आगत । सू० ११०० | शारीरकीयः-शारीरसम्बन्धि या आत्माहैमवती-हिमालय से प्रकाशित होने सम्बन्धि वर्णन करनेवाला ग्रन्थ । वाली (गङ्गा)। सू० ११०४ । स्रौनः-सुघ्न देशवासी। सू० ११०१ स० ११०५ सौनः सघ्न को जाननेवाला मार्ग या पाणिनीयम-पाणिनि से प्रोक्त व्याकरण । मनुष्य, सुघ्न की तरह निकलने सू० ११०६ वालाद्वार। औपगवम्-उपगु को (धनादि)। अथ विकारार्थकाः सू० ११०७ । मौद्गः-मूंग की दाल । आश्मः-पत्थर का बना हुआ। सू० १११० भास्मनः-भस्मविकार। आम्रमयम्-आमका अवयव या विकार । मार्तिकः-मिट्टी का विकार। शरमयम्-शरविकार। स० ११०८ कार्पासम्-कपास का विकार । मायूरः-मोर का अङ्ग या विकार । सू० ११११ मौर्वम्-मूर्वा का नाल या भस्म । गोमयम्-गोबर। पैप्पलम्-पिप्पली-विकार। सू० १११२ स० ११०६ गव्यम्-गोविकार । अश्ममयम्-पत्थर का अवयव या विकार पयस्यम्-पयोविकार, दूधसे बना खोया आश्मनम्- " " " खीर आदि। अथ ठगधिकारः सू० १११४ आक्षिकः-पासों से खेलनेवाला। हास्तिकः-हाथी सवार। दाधिकम्-दही से संस्कार किया हुआ। सू० १११८ सू० १११५ दाधिकः-दही से खानेवाला। मारीचिकम्-मिरचों से संस्कृत किया हुआ । दाधिकम्- दही से मिला हुश्रा । स० १११६ स० १११६ प्रौद्यपिकः-उडुप से तैरनेवाला। . बादरिकः-बेर चुननेवाला । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवनि सू० ११२६ ___ २६ परिशिष्टम् प्रयोगाः भाषार्थः प्रयोगाः भावार्थः सू० ११२० स० ११२३ सामाजिकः-समाजरक्षक। मार्दङ्गिकः-मृदङ्ग बजानेवाला । स० ११२१ सू० ११२४ आसिकः--तलवार से लड़नेवाला । शान्दिक:-शब्द करनेवाला । दादुरिकः-कुम्हार । धानुष्क:-धनुर्धारो। स० ११२५ स. ११२२ आपूपिकः--पूड़ी खानेवाला । धार्मिकः-धार्मिक । आधर्मिकः-अधर्मी । नककिट:-ग्राम के समीप वासी (भिक्षु) अथ यदधिकारः । स० ११२८ मूल्यम्-मूल्य । रथ्यः रथ का घोडा। मूल्यः-मूलभाग के समान । युग्यः-जुए को उठाने वाला बैल । सीत्यम्-जोता हुआ खेत । स० ११३० तुल्यम् -तोला हुत्रा (सामान)। धुर्यः-जुए को उठानेवाला। अग्रयम-अग्रणी। धौरेयः-- , (या अग्रगामी) सू० ११३२ स० ११३१ सामन्यः-सामवेदज्ञ । नाव्यम्-नौका से तरने योग्य । कर्मण्यः --कर्मठ। वयस्यः--मित्र । शरण्यः--शरणागत रक्षक । धर्म्यम्--धर्म से प्राप्त करने योग्य । सू० ११३३ विष्यः-विष से मारने योग्य । । सभ्यः--सभासद । अथ छयतोरधिकारः सू० १.१३५ सू० ११३६ शङ्कव्यम्--कीलक बनाने योग्य लकड़ी । वत्सीयः-बछड़ों का हितकारी । , सू० ११३७ गव्यम्-घासादिक गौ के लिए। दन्त्यम्-दन्तमञ्जन । नभ्यः-चक्रनामिछिद्र । कराव्यम्-हारादि नाम्यम्--नामि छिद्र वा अन्जन । नवम्-नसवार । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ लघुसिवान्तकौमुद्याम् भाषार्थ प्रयोगाः भाषार्थः | प्रयोगाः सू० १९३६ | विश्वजनीनम्-सब के अनुकूल । श्रात्मनीनम्-अपने अनुकूल। मातृभोगोण:-माता के अनुकूल । अथ ठअधिकारः सू. ११४१ स०११४५ साप्ततिकम्-सत्तर स्पयों से खरीदा हुश्रा । खत श्वतच्छत्रिकः-सफेद छत्रधारी। स० ११४६ प्रास्थिकम्-सेर भर से खरीदा हुआ। दण्ड्यः-दण्डनीय । सू. ११४३ श्रयः-पूजनीय । वध्यः-वध के योग्य। सार्वभौमः-चक्रवर्ती । स०११४७ पार्थिवः-राजा। | श्राह्निकम्-एक दिन में बनाया हुआ। अथ त्वतलधिकारः सू. ११४८ स० ११५४ ब्राझणवत्-ब्राह्मण के समान । । प्रथिमा-मोटापन। पुत्रेण तुल्यः--पुत्र के समान मोटा। पार्यवम्-, । सू० १४६ मथुरावत्--मथुरा के समान । चैत्रवत्--चैत्र के समान। सू० ११५५ सू. १९५० गोत्वम्-गोस्वजाति । शुक्लिमा- सफदा। गोता-गोत्व। दाळम्-दृढ़ता। सू० ११५१ द्रढिमा-,। स्त्रैणम्-स्त्रीत्वजाति। स० ११५६ जाड्यम् जड़ता। स्त्रीत्वम्-,। मौढ्यम्-मूढ़ता। पोस्लम् । ब्रामण्यम्-बामणता। पुंस्त्वम् ? पुस्त्वबाति । स. ११५७ । सख्यम्-मित्रता । म्रदिमा- मृदुत्वम् (कोमलवा) शौक्ल्यम्- १ सफेदी। त्रीता-, Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् उभयम्-दो। 'प्रयोगाः भाषार्थः प्रयोगाः भाषार्थः स० ११५८ सू. १९५६ कापेयम् - कपिता। सैनापत्यम-सेनापतित्व। शातेयम्-शातिकर्म। पोरोहित्यम्-पुरोहिताई। अथ भवनाद्यर्थकाः स. १९६० द्वितयम्-दो। मौद्गीनम्-मूंग का खेत। त्रयम्-तीन । स० ११६१ . त्रितयम्-तीन । यम-धानों का खेत । सू० १९७० शालेयम्-शाली-(धानविशेषों) का खेत । सू० ११६२ . सू० ११७१ हैयावीनमू-मक्खन। एकादश-ग्यारहवाँ। सू० ११७२ स० ११६३ पञ्चमः-पाँचवाँ। सारकितम्-तारों से सुशोभित । सू० ११७३ 'पण्डितः बुद्धिमान् । विंशः-बीसवाँ। सू० ११६४ सू०११७४ उदयसमजरुदघ्नम् अरु प्रमाणवाला। कतियः-कितनवाँ। ऊरुमात्रम कतिपयथः-, । सू० ११६५ यावान्-जितना । चतुर्थः-चौथा। वावान्-उतना । सू० ११७५ एतावान्-इतना। द्वितीयः दूसरा । स. १९६७ सू० ११७६ कियान्-कितना। तृतीयः-तीसरा। इयान्-इतना। स० ११७६ स० ११६८ श्रोत्रियः-वेदपाठी। पञ्चतयम-पाचों का समुदाय । स. ११७८ | पूा-पहिले करनेवाला। षष्ठः-छठा। दयम्-दो। सू. ११६६ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् प्रयोगाः भाषार्थः । प्रयोगाः भाषार्थः स. ११७६ स० १९८० कृतपूर्वी-जिसने पहले किया हो । इष्टी-इसने यश किया। | अधीती-इसने पड़ा। अथ मत्वर्थीयाः स. ११८१ | केशी-केशीवाला। गोमान-गौत्रोंवाला। कैशिक:-,, ,,। सू० ११८२ केशवान्-- , , गरुत्मान्-गरुड़। मणिवः-नागविशेष । विदुष्मान्-विद्वानोंवाला ग्राम । अर्णवः-समुद्र । शुक्लः -सफेद (वस्त्र)। सू० ११८७ कृष्णः-काला ( वस्त्र)। | दण्डी-दण्डवान् । सू० १९८३ दण्डिकः- ।। चूडालः-केश या मुकुटवाला। स० १९८८ चूडावान्-,,, "। शिखावान्-कलिकावाला दीपक । | व्रीही-धान्यों वाला। मेधावान्-बुद्धिमान् । ब्रीहिकः-, सू० ११८४ - स. १९८६ लोमशः-अधिक बार्लोवाला। यशस्वी-कीर्तिमान् । रोमशः-, , । यशस्वान्-, । लोमवान्-,, , । | मायावी- मायावी। रोमवान्-, , । मेधावी-बुद्धिमान् । पामनः-पामा रोगी। स्रग्वी-मालाधारी। अङ्गना-शोभन अङ्गोवाली (स्त्री)। सू० ११६० लक्ष्मणः-लक्ष्मीवान् । वाग्मी-अच्छा बोलने वाला। पिच्छिलः-पङ्कयुक्त और मयूर । सू० ११६१ पिच्छवान्-,, , , अर्शसः-बवासीर का बीमार। स. १९८५ स० ११६२ दन्तुर:-ऊँचे दांतोंवाला। . सू० १९८६ अहंयुः-अहङ्कारवान्, अहङ्कारी। केशव-केशों वाला। | शुभंयुः-शुभ पुरुष । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् Y.. भाषार्थः प्रयोगाः स. ११६६ कुतः-कहाँ से । सू० ११६७ इत:-यहाँ से। सू० ११६८ अतः-इससे। अमुतः-उससे । यतः-जिससे, वहाँ से। ततः-उससे, वहाँ से। बहुत: बहुतों से। स० ११६६ परितः चारों ओर से। अमितः-दोनों ओर से। सू. १२०० कुत्र-कहाँ। यत्र-जहाँ। तत्र-तहाँ। बहुत्र-बहुत जगह। __ सू० १२०१ इह-यहाँ। अथ प्राग्दिशीयाः भाषार्थः प्रयोगाः ततो भवन्तम्-पूज्य के प्रति । तत्रभवन्तम्-, दोर्घायुः-दीर्घायु । देवानाम्प्रियः-मूर्ख। आयुष्मान्-चिरञ्जीवी। सू. १२०६ सदा-नित्य । सर्वदा-सदा। अन्यदा-और समय। कदा कब । यदा-जब। तदा-तब। स १२०८ एतर्हि-अब । स१२०६ कर्हि-कब । यहि-जब । तर्हि-तब । सू० १२११ तथा--उस प्रकार, वैसे। यथा-जिस प्रकार, जैसे। ___ सू० १२१२ इत्थम्-इस प्रकार । सू० १२१३ | कयम्-किस प्रकार। सू० १२०३ स्व-कहाँ। स. १२.४ ततो भवान्-पूज्य। स भवान्-,। तत्र भवान् । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬ प्रयोगाः श्राव्यतमः - महाधनी । } बहुत छोटा घुतमः afषष्ठः सू० १२१७ किन्तमाम् - अतिशय प्रश्न । प्राह्णेतमाम् श्रतिशय पूर्वाह्न । पचतितमाम् - अतिशय पाक । उच्चैस्तमाम् श्रति ऊँचा ( वृक्ष )। सू० १२१८ लघुतरः लघीयान् - बहुत छोटा । पटुतराः - पटीयांसः बहुत चतुर । सू० १२२० } अतिप्रशंसनीय । श्रेष्ठः श्रेयान् ज्येष्ठ: :-येष्ठ बड़ा । सू० १२२१ भूमा -- बहुत्व । भूपान् बहुत । व्यायान् ज्येष्ठ । सू० १२२२ सजीयान -- सू० १२२३ सू० १२२४ भूयिष्ठ: - बहुत । त्वचिष्ठः-अधिक त्वचा वाला । लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् अथ प्रागिवीयाः भाषाः । प्रयोगाः 1 "" स्वचीयान् -- अश्वक न जाने किस का घोड़ा है। सू० १२२५ - बहुत मालाधारी । ans:- बहुत मालाधारी । स० १२२६ विद्वत्कल्पः - विद्वान् के समान । विद्वद्देश्य:विद्वद्देशीयः "" "" पचतिकल्पम् - श्रसमाप्स पाक । ,, "" सू० १२२७ बहुपटुः--थोड़ा चतुर । जयतिकल्पम् - समाप्त विजय । सू० १२३० उच्चकैः - श्रज्ञात ऊँचा । : नीचकैः:- श्रज्ञात नीचा । सर्वकैः- अज्ञात सब ने युष्माभिः - तुम सब ने 1 1 युवकयोः - तुम दोनों का । त्वयका - तू ने । सू० १२३१ अश्वक:- निन्दित घोड़ा । सू० १२३२ इति प्रागिवीयाः कतर::-कौन सा । यतरः- बौन सा । ततर:- तौन-सा ( इन दोनों में से वह ) सू० १२३३ :-कौन सा । भाषार्थः कतमः यतमः - बोन-सा | ततमः --तौन-सा | ( इन सबमें से वह ) यकः-जो । | सकः-वह । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.७ भाषार्थः परिशिष्टम् अथ स्वार्थिकाः प्रयोगा भाषार्थः प्रयोगाः सू० १२३४ पार्श्वतः-एक ओर से। अश्वकः-घोडे की मूर्ति । स्वरतः स्वर से। अश्वकः-घोड़ा। वर्णत: वर्ण से। सू १२३५ स० १२३६ अनमयम्-तैयार किया अन । कृष्णीकरोति-काला करता है। अपूपमयम्-तैयार किये पूए। ब्रह्मीभवति-ब्रह्मा बनता है। अनमयः-अन्नप्रचुर ( यज)। गंगीस्यात्-गंगा बन जाये। अपूपमयम्-अपूपप्रचुर ( पर्व )। दोषाभुतम्-रात बना हुश्रा ( दिन)। स० १२३३ दिवाभूता-दिन बनी हुई (रात)। प्राश:-बुद्धिमान् । अग्निसाद्भवति-जलता है। प्राशी-बुद्धिमती। सू० १२४१ देवतः-देवता। दघि सिञ्चति--दही सींचता है। बान्धवः-बन्धु । सू. १२४२ सू० १२३७ अग्नीभवति-अग्नि हो रहा है। बहुश:-बहुत । स. १२४३ अल्पश:-थोड़ा। पटपटाकरोति-पट पट करता है। श्रादित:-श्रादि में। ईषत्करोति--थोड़ा करता है। मध्यतः-मध्य में। भत्करोति-श्रत् ऐसा शब्द करता है। अन्ततः-अन्त में। खरटखरटाकरोति-खरट-खरट करता है। पृष्ठतः-पीछे में। पतिरिकरोति-पटत् ऐसा शब्द करता है। अथ स्त्रीप्रत्ययाः स० १२४५ बाला-लड़की। अजा-बकरी या प्रकृति। वत्स.-बछड़ी या प्यारी। एड़का-मेड़। होड़ा-बाला, भिल्ल स्त्री। अश्वा-घोड़ी। चटका-चिड़ी। मन्दा-अप्रौढा स्त्री। मूषिका-घूही। विलाता-नवयौवना स्त्री। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ प्रयोगाः गंगा-गंगा । सर्वा - सब (स्त्री) सू० १२४६ भवती - श्राप ( श्रीमती जी ) । भवन्ती-- होती हुई । पचन्ती -- पकाती हुई । दीव्यन्ती--खेलती हुई । सू० १२४७ कुरुचरी - कुरु देश में घूमनेवाली । नदी - नदी । देवी- देवी । सौपर्णेयी- सुपर्णी की कन्या गरुड़ की बहन । ऐन्द्री - पूर्वदिशा । श्रौत्सी - उत्सगोत्रोत्पन्ना | करुद्वयसी - तलाई ऊरुदघ्नी- ऊरुमात्री- पञ्चतयी- पाँच वाली श्राक्षिकी-- पासों से खेलनेवाली । ( ऊरुप्रमारणजलवाली) "" लावणिकी - नमक बेचनेवाली । यादृशी --जैसी । तलुनी - लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् भाषार्थः प्रयोगाः "" इत्वरी - गमनशीला (कुलटा ) । स्त्रेणो- स्त्रीसन्तति । " "" "" पौंस्नी - पुरुषसन्तति । शाक्तीकी - शक्तिशस्त्रवाली । श्राव्य करणी - धनी बनाने की रीति । तरुणी-युवती । "" सू० १२४६ गार्गी - गर्ग गोत्र में पैदा हुई । सू० १२५१ गार्ग्यायणी --गर्ग गोत्र में पैदा हुई । नर्तकी नटी | गौरी - पार्वती । डी-गो । वाही- गौ । कुमारी कन्या । सू० १२५३ त्रिलोकी-तीन लोक | सू० १२५२ भाषार्थः त्रिफला -- हरड़, बहेड़ा और आमला । अनीका सेना | स० १२५४ एता, एनी - चितकबरी । रोहिता- लाल रंग की - (धोती) । रोहिणी --नक्षत्र विशेष | सू० ० १२५५ मृद्वी, मृदु: -- कोमल (लता आदि ) । सू० १२५६ बहु, बही --- - बहुत (चपलता आदि ) । सर्विका - सब ! रात्रिः, रात्री --रात । शकटी, शकटि:- गाड़ी | गोपी-गोपी । गोपालिका - गोपी । अश्वपालिका - घोड़े पालनेवाले की स्त्री । सू० १२५८ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् प्रयोगाः भाषार्थ प्रयोगाः भाषार्थः कारिका-कारिका। सुगुल्फा-सुन्दरगुल्फा (घुटिका) सूर्या--सूर्यस्त्री। 'गिटटा इति पञ्जाबी। स. १२५६ शिखा-चोटी। इन्द्राणी-इन्द्र की स्त्री। सू० १२६२ वरुणानी-वरुण की स्त्री। कल्याणक्रोडा-ऐसी घोड़ी जिसके उरःभवानी-पार्वती। स्थल पर कल्याण चिह्न है। शर्वाणी- ,,। सुजघना--सुन्दर जघनवाली। रुद्राणी- , स. १२६४ मृडानी- । शूर्पणखा-रावण की बहन । हिमानी हिमसमुदाय । गौरमुखा-यह किसी स्त्री का नाम है। अरण्यानी-बहुत बड़ा जंगल । ताम्रमुखी-लाल मुखवाली लड़की। नौका-नाव। सू. १२६५ शका-समर्था। तटी-तट। बहुपरिव्राजका-अधिक .संन्यासी जिसमें वृषली-शूदी। रहते हैं ऐसी नगरी। कठी-कठगोत्रोत्पन्ना स्त्री। सूरी-कुन्ती। बहवृची-बहुत ऋचायें पढ़नेवाली। यवानी-दुष्ट जौ। मुण्डा-मुण्डित स्त्रो। यवनानी-यूनानी लिपि। बलाका-बकपक्ति । मातुलानी, मातुली-मामी। क्षत्रिया-क्षत्रियाणी। उपाध्यायानी, उपाध्यायी-गुरुस्त्री। हयी-घोड़ो। प्राचार्यानी-श्राचार्य की स्त्री। गवयी--स्त्री गवय। अर्याणी, अर्या--वैश्यस्त्री। मुकयी--पशुविशेष (खबरी)। क्षत्रियाणी, क्षत्रिया-क्षत्रिया स्त्री। . मत्सरी-मछली। सू० १२६० वस्त्रक्रीती-वस्त्रों से खरीदी हुई कोई चीज । सु. १२६६ धनक्रीता-धन से खरीदी (घोड़ी)। दाक्षी-दक्षगोत्रोत्पन्ना स्त्री। सू० १२६१ सू० १२६७ अतिकेशी, अतिकेशा-बहुत केशों वाली। कुरुः कुरुकुलस्त्री। चन्द्रमुखी, चन्द्रमुखा-विषुवदना । अध्वर्युः-ब्राह्मणी। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० बघुसिद्धान्तकौमुद्याम् सू. १२६८ प्रयोगाः भाषार्थः । प्रयोगाः भाषार्थः वामोरू:-सुन्दर ऊरुवाली स्त्री। पता-पल स्त्री। सू० १२७१ श्वभूः-सास। शाहरवी-शृङ्गरु की लड़की। सू० १२६६ वैदी-बिदगोत्रोत्पन्न । करमोरू:-करम समान उरवाली ब्राझ-ब्राह्मणी। स. १२७० | नारी-स्त्री। संहितो:-मिले हुए जरुवाली। स. १२७२ शफोस: युवतिः, युवती-युवा स्त्री। बक्षणोल:-सुन्दर ऊरुवाली स्त्री। इतिस्त्रीप्रत्ययाः। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नपत्रसग्रहः प्रश्नोत्तरनिदर्शनसहितः तत्रादौ परीक्षा-शिक्षा सूत्राणि "शृण्वन्तु प्रियशिशवः ! श्रुत्वा चैवोपधार्यतां हृदये। कथनैरलं गुणानां "स्तुतिवाङ् न रोचते सद्भयः" ॥१॥ श्रीगुरुमुखतो ग्रन्थाः साद्योपान्तं पुरैव पठनीयाः” । को जाने किं पृच्छेद "भिन्ना रुचिर्हि मनुष्याणाम्" ।। २।। अपरिचितदेशकालः सुविदितशास्त्रोऽपि पण्डितो लोके । पूर्ण फलं न लभते "चेष्टताऽतो यथाकालम्" ॥३॥ नेयाऽयोलेखनिका परिचितपूर्वा परीक्षिता सम्यक् । सा चैव भवति साधुः "सुपरिचितो नैव वञ्चयते" ॥४॥ आदाय प्रश्नदलं भूयोऽभिदृश्यतां सर्वम् । सञ्चिन्तितं हि सुचिरं "स्मृतिमधिरोहति पुरा दृष्टम्" ॥५॥ परीक्षा-शिक्षासूत्र-तात्पर्यव्याख्या ( हिन्दी में ) १ - प्रिय छात्रवर्ग! ध्यान से सुनो और सुनकर हृदय में निश्चय कर लो। हम अपने मुह से शिक्षा सूत्रों के गुणों को क्या प्रशंसा करें। सज्जनों को प्रात्मश्लाघा रुचिकर नहीं हुआ करती । २-परीक्षार्थी के लिये आवश्यक है कि परीक्षा-समय से पहिले समस्त पाठ्य-ग्रन्थों को श्रीगुरु-मुख से आदि से अन्त तक पढ़ ले। कोई प्रकरण पढ़ लिया, कोई छोड़ दिया यह उचित नहीं । न जाने परीक्षक कहाँ से पूछ मारे । सबकी रुचि भिन्न भिन्न होनी स्वाभाविक है। ३-परोक्षार्थी को देश-काल का पूरा ध्यान रखना चाहिये, देश काल से अपरिचित शास्त्रज्ञ विद्वान् भी पूरा फल नहीं प्राप्त कर सकता । ४-परीक्षाभवन में लेखनी अपनी तो ले जानो हो होती है, किन्तु लेखनी--( कलम या होल्डर ) वही साथ रहनी चाहिये जिससे प्राप पहिले प्रायः मिखा करते है और जिसके ठीक चलने में कोई सन्देह नहीं है, पूर्व परिचित से प्रायः वजना का भय नहीं हुमा करता। ५--प्रश्न न मिल जाने पर उसे ध्यानपूर्वक मादि से अन्त तक पढ़ो, फिर पड़ो, कुछ देर तक सब पर्यामोचन कर डालो, ऐसा करने से समस्त पढ़ा हुमा विषय Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम्-परिशिष्टे आद्यं चान्त्यं वा यत् सुगमं संविदितमुत्तरं पूर्वम् । सम्यग् लेख्यं तद् यन् “मुखमेव निरीक्ष्यते प्रथमम्” ॥६॥ अङ्कान् पूर्वं पश्येत् तदुत्तरं स्वर्णकारवत् पश्चात् । सन्तोत्यैव च लेख्यं “ यन् मान-वधारिणी बुद्धिः " ॥ ७ ॥ जातु न समयात्पूर्वं पत्रं संलिख्य चान्यथाप्येवम् । बहिरागच्छेत् केन्द्रात् " कालापेक्षी विपन्नः स्यात् ॥ ८ ॥ संलेख्यापि समस्तं पौनःपुन्येन दृश्यतां सम्यक् । आत्मस्खलनं शोध्यं “ स्खलनं प्रकृतिर्हि लोकानाम् ॥ ६ ॥ उपदिष्टो यः पूर्व सुलेखनियमो विरामादिः । सोऽप्यत्र पालनीयः "सौन्दर्यमवयवसंस्थानम्" ॥१०॥ असुपठवर्णो लेखः स्फुटपाण्डित्योऽपि सारगर्भोऽपि । सन्देहास्पदमखिलो “वर्णसङ्करविधिं नैव कुर्य्यात् ॥१६॥ ----- स्मरण श्रा जाया करता है । ६- सारे प्रश्नपत्र में जो भो प्रश्न पहिला अन्तिम या र ही कोई ठीक-ठीक बढ़िया श्राता हो, उसी को सब से पहिले अच्छी तरह से लिखा, सब की दृष्टि पहिले मुख पर ही पड़ती है । ७- - किसी भी प्रश्न का उत्तर लिखने से पहिले उसके नम्बर देख लो, तब उसका उत्तर नम्बरों के अनुसार सुनार के समान पूरा पूरा तोलकर संक्षिप्त या विस्तृत लिखो, बुद्धि का यही फल है कि यथोचित परिमाण की जांच करले ( 'मान - वधारली' यहाँ 'अव' के प्राकार का लोप हुप्रा है) ८- सभी प्रश्नों का उत्तर लिख चुकने पर भी समय पूरा होने से पहिल परीक्षा भवन से बाहर मत प्राप्रा, कीमती समय की उपेक्षा करनेवाले पुरुष को विपत का सामना करना पड़ता है । - सभी प्रश्नों का उत्तर लिख चुकने पर भी समय बाकी हो तो लिखे हुए उत्तरों को बार बार ध्यानपूर्वक देखना प्रारम्भ कर दो, जहाँ भी कोई प्रशुद्धि रह गई हो उसे ठीक कर लो । प्रशुद्धि हो जाना मनुष्य का स्वभाव सुलभ है । १०परिशिष्ट के २६८ पृष्ठ में लेखनियम बताये गये हैं, उनका अपने लेख में अभ्यास कर लो, परीक्षा के समय भी उन नियमों का पूर्ण पालन करो। उचित श्रवयव-विन्यास हो सौन्दर्य का कारण हुआ करता है । ११- लेख में वरणं प्रक्षर ऐसे मत लिखो जो ठीक ठीक पढे न जा सके, या सन्देह पैदा कर देनेवाले हों । पासिडत्वपूर्ण सारगर्भित लेख भी इस दोष के कारण Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीक्षा-शिक्षा-सूत्राणि ४१३ अयमपि समपादि जनः प्रथमः पञ्चनदीयपरीक्षासु। अमुनैव पथा नूनं "मार्गो हि सतां समालम्न्यः ” ॥ १२ ॥ न मया लिखितं दृप्त्यै शिक्षायै किन्तु बालानाम् । विदुषाञ्च विनोदार्थ “सकलजनहितैषिणः सन्तः" ॥ १३ ॥ रत्नाकरऽप्यलभ्यं रत्नं चेन्नात्र वाच्यतां यामः । बहुपुण्यैस्तल्लभ्यं “चिन्त्या पुण्याल्पताऽऽत्मीया" ।। १४ ॥ सन्नप्यत्र गुणश्चेद् दृष्टचरः स्यान्न कस्यचिजन्तोः । नाहमुपालम्भपदं "स्व-दृष्टि-दोषोऽपहर्त्तव्यः” ॥ १५ ॥ व्याकरणरूपसिद्धौ यद्यपि शक्नोमि भूरि निर्वक्तुम् । लिखितं तथापि किश्चित् "भजेत् कालोचिती वृत्तिम्" ॥ १६ ॥ मम यदि स्खलनं किंचित् सम्भाव्यत विबुधैस्तदा कृपया। - संसूच्योऽहं 'निगमः' “सर्वः सर्व न जानीते" ॥ १७॥ सन्देहास्पद हो जाता है । प्रतः वर्णसङ्कर दोष से सदा बचो। १२-लेखक को भी इन्हीं नियमों के पालन करने से पन्जाब विश्वविद्यालयीय परीक्षाओं में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, उचित मार्ग सभी के लिए प्राश्रयणीय होता है। १३- मैंने यह किसी अभिमानवश नहीं लिखा, किन्तु बालकों की शिक्षा के लिए लिखा है, और इससे विद्वानों का विनोद भी हो सकेगा।-सजन का काम सभी का हित करना है । १४.--- रत्नाकर में पहुंचकर भी यदि कोई रत्नप्राप्ति से वश्चित रह जाय तो इसमें किसी का क्या दोष है, रत्नप्राप्ति भारी पुण्यों का फल है। इससे तो पही कहना होगा कि अपने ही पुण्यों की कमी है। १५--- यदि कोई यहां रहते हुए गुणों से भी वञ्चित रह जाय तो इसमें मुझे क्या उपालम्भ है। अपनी दृष्टि के दोष को दूर करना उचित होगा। १६-विशेषतः-व्याकरण की रूपसिद्धि के विषय में विस्तार से भी लिखा जा सकता है। परन्तु परीक्षा समय के प्रौचित्य को ध्यान में रखते हुए परिमित लिखना उचित समझा गया है। १७– सबको सर्वज्ञान होना सम्भव नहीं है, इसलिए यदि हमसे कोई अशुद्धि हो गई हो तो विद्वान लोग हमें सूचित कर देन की कृपा करेंगे। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चाम्बुविश्वविद्यालयमाझव्य करणप्रश्नाः सन् १९४३ १-(क) तुल्यास्यप्रयत्न सवर्णम् , आमि सर्वनाम्नः सुट् , अर्वणवसावनमः, अदसोसेर्दादुदोमः, अव्ययादाप्सुपः, एषां सूत्राणां पदच्छेदमयं च लिखत । २० (ख) ह्यस् , श्वस् , तृष्णीम् , साकम् , नूनम् एतेषामव्ययानां के केाः सन्ति । ५ २-सन्नच्युतः, एषोऽत्र, सर्वस्मै, क्रोष्टून्, तिरुणाम्, सुधिना, राज्ञः, पुमान्, पापः, धनूषि, एते प्रयोगाः साधु साध्यन्ताम् ३-वर्तमाने लट, परोक्ष लिट् , टित आत्मनेपदानां टेरे, एषां सूत्राणामयं प्रदर्य कति लकारा भवन्तीति प्रदर्शनीयम् ४-आतीत्, अदुग्ध, अतौत्सीत् , अग्रहीत्, अजीगणत्, एतान् प्रयोगान् साधयत । २० ५-पिपठिषति, कुम्भकारः, हरये नमः, राजपुरुषः, त्रिलोकी, एतान् प्रयोगान् साधयित्वा लघुकौमुदीकारस्य नाम प्रदर्शनीयम् । सन् १६४ १- वागीशः, प्रत्यङ्घारमा, पुनारमते, लक्ष्मीच्छाया, मघोनः,अस्य, चतुरः, अस्माकम, राशा, अद्यः - एतान् प्रयोगान् साधयत । २-गो, मातृ, वारि, अस्मद्, अप् - एतेषां द्वितीयाबहुवचने रूपाणि लिखत। ५ ३-प्रहीता, प्रभवाणि, जहि, असिचत् , क्रीणीमः-एते प्रयोगाः साध्यन्ताम्। २० ४-अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् , ते प्राग्धातोः, संयोगान्तस्य लोपः, अनद्यतने लङ-एतेषां सूत्राणामर्थ सोदाहरणं स्पष्टीकुरुत। ५-(क) कृष्णश्रितः, पीताम्बरो हरिः, पितरौ-एषु विग्रहं कृत्वा समासानां नामानि च लिखित्वा 'कुमारी' 'युवतिः' इत्यत्र सूत्रोल्लेखपूर्वक स्त्रीप्रत्ययौ निर्दिशत । २० (ख) विप्राय गां ददाति, रामेण बाणेन हतो वाली, मातुः स्मरति - इत्यत्र रेखाङ्कितेषु पदेषु तत्तत्सूत्रनिर्देशपूर्वकं कारकविभक्तीः स्फुटोकृत्य निम्नलिखिते रूपे साधनीये: पाशुपतम्, ग्रामीणः। सन् १९४५ १-विश्वौहः, फलानि, गवेन्द्रः, वृत्रघ्नः, शाजियः विद्वांल्लिखति, चक्रियायस्व, दधनि, श्रियाम् , वारिणी-एते प्रयोगाः साध्यन्ताम् । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणप्रश्नाः २–विद्वस् , राजन् , मुनि, पितृ, धनिन्-एतेषां षष्ठीबहुवचने रूपाणि लिखत । ५ ३-अगमत् , अपुः, अद्धि, वेद, विध्यति-एतान् साधयत । ४-पा (पाने, ) रुध् , कृ, ( करणे ), ग्रह, पा ( रक्षणे ) नश् , विद (ज्ञाने), घा, हन् , हा ( त्यागे) एतेषां परस्मैपदे लोटि मध्यमपुरुषैकवचने रूपाणि दत्त (न तु सिद्धिः कार्या)। ५-निम्नलिखितान्यशुद्धानि वाक्यानि कारकरीत्या तत्र कारणं प्रदर्श्य शुद्धानि कुरुतः (क) माणवकात् पन्थानं पृच्छति । (ख) दैत्येषु हरिरलम् ( शक्त इत्यर्थः )। (ग) कृष्णेन खङ्गात् कंसस्य शिरः छिन्नम् । (घ) प्रीतो राजा सैनिकं ग्राममर्पयति । ६–निर्मक्षिकम् , पितरौ, घनश्यामः, वीरपुरुषको ग्रामः-इत्यत्र विग्रहं कृत्वा समासानां ___ नाम निर्दिशत । ७-त्रिलोकी, मृद्वी, गोपी, सूर्या-अत्र सूत्रोल्लेखपुरस्सरं स्त्रीप्रत्ययान् लिखत । ८-यशस्वी, पटीयान् इति तद्धितरूपे साधनीये । ____ सन् १९४६ १-निम्नलिखितानि रूपाणि साधयतः सर्वेषाम् , राभ्याम् , सख्युः, भूपतये, यूनः, पञ्चानाम् , शिवो वन्द्यः, तच्छिवः तट्टीका, हरिश्शेते । २–इदम् (स्त्रीलिङ्ग), उपानह् , महत् , अस्मद् , वृत्रहन्-एतेषां प्रथमैकवचने रूपाणि लिखत ( न तु सिद्धिः कार्यों )। ३-बहि, पद्यते, गृहाण, क्राम्यति, पपौ-एते प्रयोगाः साध्यन्ताम् । ४-'ते प्राग्धातोः', 'अनद्यतने लङ' इत्येतयोः सूत्रयोः सोदाहरणम् अर्थ स्फुटीकुरुत । ५-गम् , ग्रह, षा, जि, ज्ञा-एतेषां लुङि प्रथमपुरुषैकवचने रूपाणि लिखत ( न तु सिद्धिः कार्या)। ६–निम्नलिखितानि वाक्यानि कारकरीत्या कारणप्रदर्शनपूर्वकं शुद्धानि कुरुत (क) निर्वनं वस्त्रं देहि । (ख) वृक्षात् फलान्यवचिनोति । (ग) श्रीहरि नमः। (घ) रामः बाणाद् रावणं हतवान् । २० Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम्-परिशिष्टे ७-श्रीप्रमाणः, ईशकृष्णौ, यङ्गुलम् , अतिनिद्रम्-इत्यत्र विग्रहं कृत्वा समासानां माम निर्दिशत । ८-तत्र तत्र सूत्रस्य प्रत्ययस्य च निर्देशं कृत्वा निम्नलिखितानां पुंलिङ्गरूपाणां स्त्रीलिङ्ग रूपाणि दत्त सूर्य, युवन् , आचार्य, श्वशुर । ९-निम्नलिखितेषु तद्धितप्रत्ययान् सूत्रोल्लेखपूर्वकं निर्दिशतवासिष्ठम् , काकम् , गार्ग्यः, पौत्रः। . सन् १९४८ १-थ, म, इ, क, ड के स्थान प्रयत्न लिख कर अय , यर , इच प्रत्याहार लिखो। २-खरवसानयोर्विसर्जनीयः, हशि च, ऋतो ङि सर्वनामस्थानयोः, ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य, तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य इनमें से तीन के अर्थ उदाहरण दो । ३-शिवोऽर्व्यः, सन्नच्युतः, कृष्ण द्धिः, वाग्धरिः, हरेऽत्र । इनमें से तीन की सिद्धि करकेहरीणाम् , सर्वस्मिन् , रमायाम् , ज्ञानानि, लिटत्सु, इमे, पन्थानौ, प्राचः, एषः, इनमें से तीन की सिद्धि दो केवल विशेष सूत्रों से। ४-श्रि , एध, गद, हन् , दुह, जिभी, ओहाक , शो, चिञ् , चुर, इनमें से किन्हीं पाँच के लुङ व लिट के प्रथम पुरुष के एकवचन में रूप लिखो। ५-बभूविथ, ऐधिवम् , अतथाः, क्रीणीवः, अरुणः, अभैरस्व, अतुत्त, अभूत, अपुषत् , इनमें से किन्हीं पाँच की सिद्धि दो विशेष सूत्रों से । ६-अधिहरि, राजपुरुषः, पीताम्बरो हरिः, हरिहरौ । इनके विग्रह तथा समासों के नाम दो। ७-कुमार, अज, कुरुचर, इन्द्र की स्त्री. गोप की स्त्री। इनके स्त्रीप्रत्यय के रूप दो। ८-आश्वपतम् , दाधिकम् , अग्रयः, स्रोध्नः, जनता । विग्रह तथा प्रकृति-प्रत्यय लिखो। ९-'अकथितं च' इस सूत्र का अर्थ लिखकर रम्यपथो देशः, कुतः, इनकी सिद्धि करो। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणप्रश्नाः ४१७ -अ, च्, य्, शू इनके प्रयत्न लिखकर स्वरित, अनुनासिक, सवर्ण, संहिता और पद की परिभाषाएँ लिखो । ८ २ - अदसो मात् ! एतत्तदोः सुलोपोऽकोरनञ् समासे हलि । औतोऽमूशसोः । वामशसोः । न सम्प्रसारणे सम्प्रसारणम् । इनमें से केवल चार सूत्रों के अर्थ लिखकर उदाहरण दो । ३ - निम्नलिखित प्रयोगों में से से करो :- पूर्वस्मिन् । सख्यौ । एभिः । अहोभ्याम् | ४ - निम्नलिखित श्लोक की व्याख्या करो : अन्यतम तीन प्रयोगों की सिद्धि केवल विशेष सूत्रों सुखंवां नौ ददात्वीशः पतिर्वामपि नौ हरिः । सोऽव्याद्वो नः शिवं वो नो दद्यात् सेब्योऽत्र वः स नः ॥ ५- इनमें से केवल पाँच धातुओं के लट् और लुङ् में केवल मध्यम पुरुष में रूप लिखो : अजन्तोऽकारवान् वा यस्तास्यनिट थलि वेडयम् । ऋदन्त ईङ् नित्यानिट् क्राद्यन्यो लिटि सेड् भवेत् ॥ ७- निम्नलिखित प्रयोगों में से केवल पाँच को विशेष सूत्रों से सिद्ध करो :शृणु वर्त्स्यति, विकरोतु, आह, जायते, किरति । गद्, अर्च, गुप्, श्रु, डुदाञ् डुक्रीञ् । - 'ऋतो भारद्वाजस्य' इस सूत्र का अर्थ लिखकर निम्नलिखित श्लोक की व्याख्या करो : १० ८ - इनको शुद्ध करो : पितरं नमः । रामो देवं अलम् । अश्वेन पतति । मोक्षाय इच्छास्ति । पुत्रं पुस्तकं ददाति । (ख) इनसे स्त्रीवाचक शब्द बनाओ :-- अज, गौर, गोप, गोपालक, मनुष्य, अरण्य, यवन, मातुल, क्षत्रिय, हय । ९ - सन्धि और समास में क्या भेद होता है ? निम्नलिखित समस्त शब्दों में कौनकौन से समास हैं ? विग्रह भी लिखो : ८ सचक्रम्, पूर्वकायः, दूरादागतः, देवब्राह्मणः, अपुत्रः, पाणिपादम् । १० - निम्नलिखित शब्दों में कौन-कौन से प्रत्यय किस-किस शब्द से कौन-कौन से अर्थ में आए हैं ? २७ १० ११ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् पाशुपतम् , राष्ट्रियः, सामाजिकः, सभ्यः, ब्रह्मीभवति । सन् १९५० १-शिवेहि, षण्णाम् , उत्थानम् , षट्त्सन्तः, देवा इह, इनमें सन्धिच्छेद कर विशेष सूत्रों से सिद्ध करो। २-पूर्वत्रासिद्धम् । यचि भम् । ख्यत्यात्परस्य । ऋन्नेभ्यो ङीप् । त्यदादीनामः, इन सूत्रों के अर्थ लिखकर उदाहरण दो। ३–सत्यै, क्रोष्टुः, अस्थनां, तव, विदुषा, इन प्रयोगों की सिद्धि विशेष सूत्रों से करो। ४-पा, एध् , व्यध् , भृञ् , रुध् , लू, चुर, इन धातुओं के लिट् और लुङ् में केवल उत्तम पुरुष के रूप लिखो। १५ ५-आतीत् , अधुक्षत् , एधि, कुरु, लुनीहि, बुभूषति, राजीयति, इन प्रयोगों की विशेष सूत्रों से सिद्धि करो। ६-कारक का क्या अर्थ है ? वे कितने हैं ? उनमें से कर्म, करण, सम्प्रदान, अधि करण के स्वरूप अपनी भाषा में लिखकर उदाहरण दो । -समास का क्या अर्थ है ? वे कितने हैं ? उनके नाम लिखकर अव्ययीभाव, तत्पुरुष, बहुव्रीहि, द्वन्द्व का लक्षण अपनी भाषा में लिखकर उदाहरण दो। १० -वाहीकः, दाक्षिः, पाण्ड्यः, इहत्यः, तुल्यम् , सूत्रनिर्देश करके किस अर्थ में क्या तद्धित प्रत्यय हुआ है लिखो। ५-त्रिलोकी, मृद्वी, सूर्या, युवतिः, हिमानी, सूत्रनिर्देशपूर्वक इन प्रयोगों में स्त्री प्रलय लिखो। काशीस्थराजकीय सं० पाठशालीयप्रथमपरीक्षाव्याकरणप्रश्नाः १९५३ १- सवर्णमंशास्त्रं घिसंज्ञासूत्रञ्च सार्थमुल्लिख्य, य, म, श, अ, वर्णेषु कयोरपि द्वयोः स्थानमाभ्यन्तरप्रयत्नञ्च लिखत । २-ठोधा. प्रार्छति, गवाग्रम् , एतन्मुरारिः, उत्थानम् , सन्नच्युतः, शिवो वन्द्यः, स हरिः, हरी रम्यः एतेषु पञ्चानां साधुत्वं विधाय, कबी+आगतौ इत्यत्र सन्धी किं रूपम् इति सप्रमाणं लिखत । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणप्रश्नाः ४१९ ३–( क ) – रामाणाम्, हरेः, विश्वपः, क्रोष्टार, दष्ना, प्रयूनि, विश्वौहः, युष्माकम्, उदीचः, एतेषु चतुर्णा साधुत्वं विधेयम् । ( ख ) - ख्यत्यात्परस्य, ङेरामूनद्याम्नीभ्यः तदोः सः सावनन्त्ययोः, अदसोऽसेर्दादुदोमः, एषु कस्याप्येकसूत्रस्य पदच्छेदमुदाहरणञ्च प्रदर्श्य, पितृशब्दस्य अथवा पथिन् शब्दस्य सर्वा विभक्तिषु रूपाणि लिखत । ४ – भवितास्थ, आतीत्, ह्वर्यात्, वर्त्स्यति, उवाह, अधसत्, अदास्त, प्रष्टा कुर्यात्, गृहाण, अजीगणत्, एतेषु पञ्चानां साधुत्वं विघाय, गुप् अथवा कमु अथवा उर्णत्र वातो: लुङि रूपाणि लिखत । ५ - स्थापयति, जरीगृह्यते, राजानति, विजयते, भिद्यते काष्ठेन, कृष्णं नमेच्चेत्सुखं मायात्, अत्र चतुर्णी सिद्धिः विधीयताम् । ६ – दयनीयः, कुरुचरः, छिन्नः, जयः, सुपानः, माणवकं धर्म भाषते, अधिहरि, दिनरात्रम्, औपगवः, अस्मदीयः, आपूपिकः, वस्त्रक्रीती, एतेषु षण्णां सिद्धिः कार्याः | १९५४ १ – अ, य, सवर्णानां बाह्यप्रयत्नाः अथवा प्रत्याहारविधायकसूत्रस्य पदच्छेदा: हिन्दी भाषायामर्थश्च सोदाहरणं लेख्याः । २ - धात्रंशः, कृष्णर्द्धिः, वाप्यश्वः, उत्थानम्, संस्कर्ता, एषको रुद्रः, एषु यथेच्छं चतुर्णी प्रयोगाणां सिद्धिं प्रदर्श्य, हर इह, देवा इह, रामकृष्णावम् आसाते इत्यत्र सन्धिः कथन्न इति लिखत । ३ – निर्जरसौ, कति, क्रोष्ट्नाम्, चतसृणाम्, सर्वस्याम्, दध्नि, एषु केऽपि चत्वारः साधु सावनीयाः । " ४ - चतुर्षु, आभ्याम्, यूनः अस्माकम् तादृक् समीचः, अमुना, अमुष्याम् धनूंषि एषु चतुर्णो सिद्धिं विधाय पति, पपी, शब्दयोः ङौ, नेम शब्दस्य जसि तथा वारि, विद्वस् शब्दयोः सम्बुद्धौ रूपाणि लेख्यानि । ५ - अन्तरेण, निकषा, नक्तम्, विना, एषु द्वयोः अव्यययोः प्रयोगो वाक्ये कर्त्तव्यः । ६ – बभूविथ, चिक्षेय, आनर्चुः शृण्मः, अगौप्ताम् आतीत् एषु त्रयाणां एव " > सिद्धिः कार्या । " ७- एधाञ्चकृषे, अस्रसत्, अवर्त्स्यत्, भ्रियात्, ऊहुः, हृषीष्ट, अभाषत् एषु केषामपि चतुर्णी सिद्धिं विधाय, गुपू, यज, ह, श्रु धातूनां लुङि प्रथमपुरुषैकवचने रूपाणि लेखनीयानि । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् १-रप्रत्याहारम्प्रसाध्य सवर्ण-संयोगसंज्ञा-सूत्रयोरों हिन्दीभाषायां वर्णनीयौ। २-कृष्णद्धिः, प्रष्ठौरः, प्रार्च्छति, वाग्धरिः, प्राङ्खषष्ठः, न:पाहि, मनोरथः, एषु पञ्च प्रयोगाः साधु साधनीयाः। अथवा ___ सम्बुद्धिसर्वनामापृक्तसर्वनामस्थानपदसंज्ञासूत्रार्थान् विलिख्योदाहरणानि प्रदर्शनीयानि । ३-हाहा, पपी शब्दयोः सर्वासु विभक्तिषु रूपाणि लेख्यानि । ४-सर्वे, सख्युः, उत्तरपूर्वस्यै, हे श्रीः, कतरत् , वारीणाम् , एषु कानपि पञ्चप्रयोगान् साधयत। ५-लिटत्सु, चतुर्यु, प्राक्षु, पिपठीषु, उपानत्सु एषां सिद्धिः वर्णनीया । अथवा भूयात् , सिषिचतुः, क्षीयात् , नहार, एधाञ्चकृट्वे, त्रेपे, जघनिथ, विदाङ्करोतु, एषु स्वेच्छया पञ्चैव समाधेयाः । ६-वह प्रापणे, दुह प्रपूरणे धातोलुकि रूपाणि प्रदर्शनीयानि । १९५६ १-ऋ, औ, भ, ल, वर्णानां स्थानानि प्रयत्नांश्च विलिख्य, अल् प्रत्याहारं सूत्रनिर्देश पूर्वकं साधयत । २-प्रार्छति, इन्द्रः, चिन्मयम् , संस्कर्ता, देवा इह, शम्भू राजते, एषु चत्वारः प्रयोगाः अर्थनिर्देशपुरस्सरं संसाध्य अतो रोरप्लुतादप्लुते, इति सूत्रस्यार्थो लेख्यः । ३-सर्वेषाम् , सख्यो, स्वसारः, राज्ञः, सुपदः, अमी, अद्भिः, धनूंषि, अमीषु, पञ्चैव समाधेयाः । ४-भवेत् , गोपायाञ्चकार, शृणु, अद्युतत् , अयुः, एधि, नेनिजानि, लोभिता, स्तरि पीष्ट, एतेषु केवलं चतुरः प्रयोगान् तत्तद्विशेषसूत्रोल्लेखपूर्वकं साधयत । ५-अतिष्ठिपत्, जिघत्सति, समिधिता, धर्ममुच्चरते, दायिता, यजति स्म युधिष्ठिरः, स्तुत्यः, जगन्वान् , धूनिः, हित्वा, एषु पञ्च प्रयोगान् साध्यन्ताम् । Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणप्रश्नाः ४२१ ६-सर्पिषो जानीते, पञ्चगवधनः, कल्याणीपञ्चमा रात्रयः, त्वक्स्रजम् , रैवतिक, अस्मदीयः, श्रेयान् , एनी, वृषली, एतेषां पञ्चानामेव साधु साधनं लिखत । १९५७ १–क, प, ऋ, वर्णानां स्थानानि प्रयत्नांश्च विलिख्य, 'अणुदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः' इति सूत्रस्य अर्थ उदाहरणञ्च लिखत । २- सुखार्तः, विष्णो इति, उत्थानम् , शिवच्छाया, शिवो वन्यः, इमान् संसाध्य डमो ह्रस्वादचि ङमुद्द नित्यम्' इति सूत्रस्योदाहरणं अर्थ च प्रदर्शयत । ३-रामान् , निर्जरसौ, बहुश्रेयस्याम् , स्त्रीः, श्रीपम् , मघोनः, युष्मत् , पिपठीः, इयम् , तुदन्तौ, अमीषु, पंच प्रयोगाः ससूत्रं साधनीयाः । ४-अभूवन् , अकटीत् , हरिष्यति, एधिषत, वर्तिष्यते, जहि, अहित, नेशिथ, अशिचत् , कुर्यात् , ग्रहीता, अजीगणत् , एषु चतुरः प्रयोगान् साधयत । ५-अबीभवत् , चिकीर्षति, राजानति, सर्पिषो जानीते, विरमति, जायते, इह भुनीत, विशेषसूत्रनिर्देशसहितं चतुरः प्रयोगान् साधयत। ६-सुशर्मा, सह कृत्वा, क्षामः, सुपानः, हरये नमः, उपराजम् , घनश्यामः, महाराजः, त्रिमूर्धः, गवाक्षः, एतेषु पञ्च प्रयोगान् तत्तद्विशेषसूत्रनिर्देशपुरत्सरं साधयत । ७-वैनतेयः, पित्र्यम् , तावकीनः, औपगवः, दन्त्यम् , भूयिष्ठः, औत्सी, रुद्राणी, दाक्षी, एषु पञ्चैव साध्याः। १६५८ १-तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् , परः संनिकर्षः संहिता, इति सूत्रद्वयस्य अर्थों विलिख्य आभ्यन्तरप्रयत्नस्य भेदान् लिखत । २–प्रष्ठौहः, अमी ईशाः, सन्त्सः, इमान् सूत्रनिर्देशपूर्वकं संसाध्य 'विप्रतिषेधे परं कार्यम्' इति सूत्रस्य अर्थ प्रदर्शयत । ३-सर्वेषाम् , सख्युः, गाः, मत्यै, दध्ना, अनड्वान् , विश्वाराट् , अमी, अद्भिः, धनूंषि, एषु पञ्चानां साधुत्वं विधाय युष्मद् शब्दस्य द्वितीयायां रूपाणि लिखत । ४-भवतात् , अगादीत् , अपुः, अचीकमत् , अभृत, इयाय, और्णावीत् नेनिजानि, चिकाय, शीयते, आञ्जीत, सभान, कथयति, एतेषु पंचैव समाधेयाः। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ५-जिघत्सति, वाव्रज्यते, पुत्रीयति छात्रम् , विजयते, प्रवहति, अभाजि, यजति स्म युधिष्ठिरः, सप्तसु चतुरः एव प्रयोगान् लिखत । ६-शिष्यः, विजावा, भिक्षुः, स्वप्नः, हित्वा, गर्गान् शतं दण्डयति, प्रामादायाति, पञ्चगङ्गम् , अतिमालः, आपन्नजीविकः, चित्रगुः, सुहृत् , महायशस्कः, वाक्त्वचम् विग्रहप्रदर्शनपूर्वकं पंचैव प्रयोगाः साध्याः। ७-दाक्षिः, कौरव्यः, हास्तिकम् , लौनः, धार्मिकः, कृतपूर्वी, ज्यायान् , गार्गी, दाक्षी, बैदी एषु पञ्च प्रयोगान् साधयत । १९५९ १-अच् प्रत्याहारं संसाध्य, 'ऊकालोऽज्यूस्वदीर्घप्लुतः' इति सूत्रस्य सोदाहरणं अर्थम् लिखत। २-धात्रंशः, शिवेहि, किम्युक्तम् , तच्छिवः, नँ, : पाहि, पुना रमते, सैष दाशरथी ___रामः, एषु केऽपि पञ्च प्रयोगाः साधयत । ३-रामाणाम् , विश्वपः, नृणाम् , तिसृणाम् , वारिणे, विश्वौहः, अष्टौ, पुमान् , ददन्ति एषु पञ्चानां सिद्धिः कार्या। ४-आतीत् , अकटीत् , जह्वार, ऐधिषत, उवोट, आयुः, अदुग्धः, अदित, अजनि, लोभिता, कुर्यात् , ग्रहीत् , अजीगणत् , एषु पञ्चैव समाधेयाः । ५-अतिष्ठिपत् , बुभूषति, नरीनृत्यते, इदामति, रथेन संचरते, दायिता, कृष्णं नमस्यति, चेत् सुखं यास्यति, सप्तसु पञ्चैव समाधेयाः। ६-मृज्यः, पारदृश्वा, बराकः, भुक्त्वा ब्रजति, अग्नये स्वाहा, उपराजम् , पञ्चगवम् , महाराजः, उत्काकुत् , ईशकृष्णौ, प्राध्वो रथः, सविग्रहं ससूत्रञ्च पञ्चैव समाधेयाः । ७-नैषध्यः, वेतस्वान् , म्रदिमा, मेधावी, पटपटाकरोति, नदी, मृडानी, गौरमुखा एषु पंच प्रयोगान् साधयत । 1-'आदिरन्त्येन सहेता' इति सूत्रं सोदाहरणम् व्याख्याय, र, श, ह, वर्णेषु कयोरपि द्वयोः पृथक्-पृथक् बाह्यप्रयत्नान् लिखत । २-मद्ध्वरिः, कृष्णःि , शकन्धुः, गवायम् , चक्रि अत्र, वाग्धरिः, चकिंस्त्रायस्व, मनो रथः, एषु पञ्चैव साधनीयाः। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणप्रश्नाः ४२३ ३ – सर्वेषाम्, सख्युः, क्रोष्ट्नाम्, मत्याम्, दघ्ना, चतुर्णाम्, युष्मान्, अमी, एषु पञ्च प्रयोगाः साधनीयाः । ४ - भविता, अगादीत्, पपौ, दिद्युते, आदत्, अध्यगीष्ट, तृणेदि, गृहाण एषु पञ्च प्रयोगाः साधनीयाः ५ - अजीगणत्, बुभूषति, वात्रज्यते, राजानति, दायिता, एषु प्रयोगत्रयं सविग्रहं संसाध्य 'वर्तमानसामीप्ये वर्त्तमानवद्वा' इति सूत्रस्यार्थे सोदाहरणं लिखत । ६ – शिष्यः, राजयुध्वा, चिकीर्षुः, ईषत्कारः, गां दोग्धि पयः, पंचगङ्गम्, गोहितम्, प्राप्तजीविकः, द्विमूर्धः, सुराजा, एषु पंचैव समाधेयाः । ७ – वैनतेयः, जनता, त्वदीयः, पौरोहित्यम्, अग्नी भवति, अजा, कुमारी, वामोरूः, एषु पंच प्रयोगाः साधनीयाः । १९६१ १ – अ, ट, ल, ष, बर्णानां द्वयोः स्थानमाभ्यन्तरप्रयत्नं च लिखित्वा, ऋकारस्य त्रिंशद् भेदान् प्रदर्शयत । २—धात्रंशः, तवल्कारः प्राच्छति, किम्बुक्तम्, तच्छिवः, प्रत्यङ्गात्मा, शिवोऽर्च्यः, स शम्भुः, एषु पंचैव समाधेयाः । ३ - रामान्, विश्वपः, सखा, बहुश्रेयस्याम्, ज्ञानानि, मघवान्, पुमान्, अहोभ्याम्, एषु पञ्च प्रयोगाः साधयत । ४ –— बभूव, जगाद, शृण्वन्ति, एधेरन्, नक्षतुः, देहि, बभर्ज, कुर्वन्ति एषु पञ्च प्रयोगाः साधनीयाः । ५ - भावयति, अतिष्ठिपत्, पिपठिषति, पुत्रीयति, पच्यते फलम् एषु प्रयोगद्वयं संसाध्य 'विधिनिमंत्रणा' इत्यादि सूत्रे निमंत्रणामन्त्रणाधीष्टपदानामर्था विलेख्या । ६ – कार्यम्, भिक्षाचरः, सरसिजम्, लवित्रम्, अधिगोपम्, कृष्णश्रितः, द्विपादः, गवाक्षः, एषु पंचैव समाधीयताम् । ७–गार्ग्यः, गार्भिणम्, पञ्चमः, यशस्वी, कुरुचरी, कुमारी, शूपर्णखा, युवतिः, एषु पञ्च प्रयोगान् सविग्रहप्रदर्शनपूर्वकं साधयत । १९६२ १ – सवर्ग, संहिता, संयोग संज्ञा विधायकसूत्राणि विलिख्य, इ-ध-ज-ष व्रर्णानां द्वयोः स्थानमाभ्यन्तरप्रयत्नश्च प्रदर्शनीये । ...१० Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् २–गङ्गोदकम् , प्रौढः, मनीषा, अहो ईशाः, उत्थानम् , षट्त्सन्तः, भो देवाः, शम्भू राजते, एषु स्वेच्छया पंच प्रयोगाः साधनीयाः । ३-रामाः, सर्वे, हरौ, बहुश्रेयस्यै, सर्वस्याः, तिस्रः, ज्ञाने, दना, एषु पञ्चानां सिद्धिः प्रदर्शनीया। .."२० अथवा __धुक् , अनेन, पंच, त्वया, धीमान् , अद्भिः, अहोभ्याम् , एघु पंचानां सिद्धिः प्रदर्शनीया। ४-भवामि, भवेत् , आत, पपौ, अवाञ्चक्रे, शेरते, जहाति, उपस्किरति, कुर्वन्ति, स्तभान, एषु धात्वर्थनिर्देशपूर्वकं पञ्च प्रयोगाः साधु साधनीयाः । ... २० ५-स्थापयति, पिपटिषति, बोभूयते, पुत्रीयति, विजयते, विरमति, दायिता, यजति स्म युधिष्ठिरः, एषु चत्वारः प्रयोगाः साधनीयाः । ... १० अथवा , विप्राय गो वैनतेयः । एषु चतुणी चेयम् , पारदृश्वा, चिकीर्षुः, विप्राय गां ददाति, पंचगवम् , पीताम्बरोहरिः, पितरो, एषु चतुर्णा सिद्धिः प्रदर्शनीया । ६-वैनतेयः, वैयाकरणः, तावकीनः, अग्नीभवति, गार्गी, गोपी, चन्द्रमुखी, नारी, एषु पञ्च प्रयोगान् सविग्रहप्रदर्शनं संसाघयत । ...२० १९६३ १-स्थान-प्रयत्न-भेदान् प्रदर्य, गव्यूतिः, होतृकारः, वाग्धरिः मनोरथः, एषां सिद्धिः प्रदर्शनीया। २-निर्जरसौ, सख्युः, हे श्रीः, वारिणे; धुतु, युष्मान् , धीमान् , एतानि, पिधानम्-एषु स्वेच्छया पंच प्रयोगाः साधनीयाः । ...२० ३-टि-भ-धि-धु-संज्ञासूत्राणामर्थान् विलिख्य, एतेषामुदाहरणानि साधनीयानि । ४-नेदुः, एधांचक्रे, ईजतुः, आत्थ, पिपूर्तः, अशात् , दुधुविव, शीयते, सायात् , स्तरिषीष्ट-एषु पंचानां सिद्धिः प्रदर्शनीया । ....२० ... २० Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणप्रम्नाः __... २० ५-अतिष्ठिंपत् , वरीवृत्यते, गजानति, सर्पिषो जानीते, अभावि, शिष्यः, विजावा, चिकीर्षुः, हारणा, हित्वा-एषु धात्वर्थनिर्देशपूर्वकं पंच प्रयोगान् साधयत । अथवा ___ औपगवः, पौषमहः, अहीनः, वेतस्वान् , तावकीनः, देवी, सर्विका, शूर्पणखा, वामोरू:, एषु पंचानां सिद्धिः प्रदर्शनीया। ६-समासः कतिविधः-कानि च तेषां नामानि, कानि च तेषां लक्षणोदाहरणानीति व्याख्याय, सखिशब्दस्य सर्वासु विभक्तिसु रूपाणि लेख्यानि । ... १५ १९६४ १-इ-ठ-व-स-वर्णानां द्वयोः स्थानमाभ्यन्तरप्रयत्नं च पृथक् पृथग् विलिख्य नाव्यम् , उपोषति, तच्छिवः, शिवो वन्द्यः, एषां सिदिः । प्रदर्शनीया। ..... १० २-रामान् , गाम् , तिसृणाम् , दना, इमे, त्वया, विद्वद्भ्याम् , अद्भिः, पचन्ती, एषु स्वेच्छया पंचप्रयोगाः साधनीयाः । ३–संयोग-नदी-षट्-अभ्यास-संज्ञासूत्राणामर्थान् विलिख्य एतेषामुदाहरणानि साधनीयानि । .... २० ४–जगाद, अद्युतत् , उवाह, जहि, धत्तः, नर्तिष्यति, असावीत् , गिलति, भतत, क्रीणन्ति-एषु पंचानां सिद्धिः प्रदर्शनीया । .... २० ५-घटयति-, जिघत्सति, पुत्रकाम्यति, निविशते, विरमति, लभ्यम् , गोदः, सरसिजम् , चिकीर्षा, शयित्वा, एषु धात्वर्थनिर्देशपूर्वकं पंचप्रयोगान् साधयत । ___..." २० अथवा विप्राय गां ददाति, द्वियमुनम् , अनश्वः, पाणिपादम् , आदित्यः, ऐन्द्रहविः, सांवत्सरिकम् , भवन्ती, अतिकेशी, दाक्षी, एषु पंचानां सिद्धिः प्रदर्शनीया । ६-अव्ययलक्षणं विलिख्य अस्मद् शन्दस्य सर्वासु विभक्तिसु रूपाणि लेख्यानि । ...." १० Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् बिहारोत्कलसंस्कृतसमितिप्रथमपरीक्षाव्याकरणप्रश्नाः सन् १९३४ अधस्तनेषु षट्सु यथारुचि पञ्चैव प्रश्नाः समाधेयाः १ - गो + अग्रम्, पुम् + कोकिलः, स्व + छत्रम्, पुनर् + राजते, कः +शेते, तद् + शिवः, तद् + नित्यम् स्वपठितसूत्रैः केषुचित् पञ्चसु सन्धि कुरु । २० २ - सर्वेषाम् क्रोष्टुः गाः, तिसृणाम्, दध्नि, अनेन, सुनूनि स्वाधीतसूत्रैः 9 कानिचित्पञ्चैव पदानि साधय । ३ - प्रतीचः, अमुष्याम्, त्रिलोकी, कुरुचरी, मित्राय द्रुह्यति, यथाशक्ति, पूर्वकायः । एतेषु पञ्चानां साधुत्वं स्वपठितसूत्रैः प्रदर्शय । भष्ठ, अवोचन् एषां पञ्चैव पदानि ४ - चतुर्थः, ज्येष्ठः, विशः, अचीकमत, एधि, ससूत्रनिर्देशं साधय । २० ५ - अतिष्ठिपत् कुर्य्यात्, भविता, चिकीर्षा, वेपथुः, राजानति, शुश्रूषते, एषु पञ्च " पदानि ससूत्र निर्देशपूर्वकं साधय । ६ – लघुकौमुद्याम् – (हलः इनः शानज्झौ ) ( सृजिदृशोर्झल्यमकिति ) ( इलः ) - ( लिङसिचावात्मनेपदेषु ) उपरिनिर्दिष्टानां केषाञ्चिच्चतुर्णी सूत्राणां स्फुटार्थं सोदाहरणं प्रदर्शय । .J सन् १९३५ १ - मनस् + ईषा, एषस् + हसति, प्र +ऊदः, चित् + मयम्, भोस् + अच्युतः, प्रशान् + तनोति, कस् + धावति, प्र +ऋच्छति, एषु केषुचित् पञ्चसु ससूत्रोपन्यासं सन्धि कुरु । २ – असौ, अहम्, सर्वे, स्वसारौ, जरसा, यूनः, राजा, विदुषाम् । एषु चतुरः प्रयोगान् ससूत्रं साधय । ३ - सर्वरात्रः, त्रिभुवनम्, पारेगङ्गम्, उद्गन्धिः, वामोरूभार्य्यः, चक्रपाणिः, भूतपूर्वः, एषु चतुर्णी साधुत्वं केवलं प्रधानसूत्रोपन्यासपुरस्सरं प्रदर्शय । ४ – बभूव, अचीकमत, जहि, अविभयुः, श्यति, कुर्मः, बोभूयते, जानाति, एषु कानपि पञ्चप्रयोगान् ससूत्रं साधय । २० Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणप्रश्नाः ४२७ ५-जिघत्सति, जिघांसति, वाव्रज्यते, नरीनृत्यते, पुत्रकाम्यति, शब्दायते, भृशायते, एषु पञ्चानां केवलं विग्रहवाक्यं लिख । १० ६-पाचकः, क्रिया, विहङ्गः, कृत् , पाण्मातुरः, अत्रत्यः, तृतीयः, वाग्मी, पञ्चानां प्रयोगाणां प्रकृतिप्रत्ययौ प्रत्ययविधायकसूत्रोपन्यासपूर्वकं प्रदर्शय । १० ७-अधोलिखितेषु केषाञ्चिच्चतुर्णा सूत्राणां स्फुटार्थ सोदाहरणं प्रदर्शय । एत्ये धत्यूठ सु, यचि भम् , वोतो गुणवचनात्, अकथितं च, सुप आत्मनः क्यच , आतोऽनुपसर्गे कः, नस्तद्धिते। सन् १९३६ १-तद्+नित्यम् , गो+अम् , प्रष्ठ+ऊहा, अमू+आसाते, चक्री+अत्र, एषु सूत्रः सिद्धरूपाणि लिख । २-हे राम, विश्वपः, बहुश्रेयस्यै, प्रराणाम् , त्वयि, ससूत्रनिर्देशं प्रयोगानेतान् साधय । ३-अभूत् , अगोपायीत् , विदाङ्करोतु, असिचत् , कुर्मः एतानि सूत्रः साधय । २० ४-एदिधिषते, भाव्यते, मार्यः, पारदृश्वा, पञ्चगवधनः, जिह्नामूलीयम् , एतर्हि, रुद्राणी, एषु यथेच्छं पञ्चैव साधय । ५-अतिष्ठिपत् , जिघत्सति, नरीनृत्यते, शब्दायते, यजति स्म युधिष्ठिरः । एते सूत्रः साध्यन्ताम् । सन् १९३७ १-प्रेजते, शिवेहि, विष्ण इति, तच्छिवः, कांस्कान् , शम्भू राजते, एषोऽत्र, एषु षट् सूत्रोपन्यासपूर्वकं साध्याः । १८ २-सखा, बहुश्रेयस्याम् , दघ्नि, धुक्षु, विश्वौहः, हे अनड्वन् , यज्वनः, वृत्रघ्नः, एषु चत्वारः साध्याः। ३-युष्मद , विद्वस् , पुंस् , एषां षष्ठीबहुवचने रूपाणि लिखित्वा-आतीत् , अभूत् , अक टीत् , क्षीयात् , अपात् , शृण्वः, कामयते, अत्रप्त, एषु चत्वारः साध्यन्ताम् । ९+१२ ४-हृञ् , एध, शीङ्, दुह, हन् , हु, दा, एषु चतुणों लुङि प्रथमपुरुषैकवचने रूपाणि लिखत । ५-परिक्रीणीते, प्रतिष्ठते, आत्मनेपदविधायके सूत्रे लिखित्वा शिष्यः, मार्ग्यः, यशस्करी, जनमेजयः, नन्दनः, धाक्, पक्वः एषु पञ्चानां कृत्प्रत्ययान् लिखत । ४+१. Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ लघुसिद्धान्तकौमुद्याम् ६-उपजरसम् , चित्रगुः, अत्र समासकार्याणि लिखित्वा धर्म्यम् , इन्द्राणी, युवतिः, एषु तद्धितस्त्रीप्रत्ययसूत्राणि लिखत । ४+१० ७–कति कारकाणि कानि च तानि इति विविच्य लिखत । सन् १९३८ १-गवेन्द्रः, प्रौदः, दण्डाग्रम् , प्रेजते, उपैति, तवैश्वर्यम् , चिन्मयम् , वाग्धरिः, भवाँ स्तनोति, किं ह्रादयति, एषु केचन षट् ससूत्रोपन्यासं साध्यन्ताम् । २० २-सर्वेषाम् , शङ्खध्मः, सखा, त्रयाणाम् , नृणाम् , सर्वस्यै, नद्याम् , अनड्वान् , राज्ञः, एषु चत्वारः समूत्रनिर्देशं साध्याः। १२ ३-महादेवः, घनश्यामः, पुरुषव्याघ्रः, उपशरदम् , द्विपात् , पाणिपादम् , एषु चत्वारः समासादिविधायकसूत्रोल्लेखपूर्वकं साध्यन्ताम् ।। ४-अभूत् , अचीकमत, अगौप्सीत् , अपात् , अगमत् , अभक्त, अघसत् , एघि, एषु पञ्च साध्याः। अथवा अत्-अर्घ-अद् रुध् धातूनां लुङि लिटि च रूपाणि लिख्यन्ताम् । ५-मक्ष्यति, सनवैः, अलिस, अतत, अक्रष्ट, अजीगणत् , एषु चतुरः प्रयोगान् संसाध्य पठितुमिच्छति, पुनः पुनर्भवति, पुत्रमात्मन इच्छति, शन्दं करोति कृष्ण इवाचरति विग्रहे कीदृशानि रूपाणि भवन्तीति स्पष्टं लिखत । १८ ६-चेयम् , नन्दनः, प्रियंवदः, पक्वः, आदित्यः, पारावारीणः युवतिः एषु । केचन षट प्रयोगाः साध्यन्ताम् । ७-समासाः कतिविधाः कानि च तेषामुदाहरणानि इति लिख्यन्ताम् । ११ इति श्रीश्रौतमुनि-महामण्डल-शिरोमणि भगवत्पाद-श्री १०८ स्वाभिस्वयम्प्रकाशानन्ददीक्षितशिष्येण विद्वन्मूर्धन्यश्रीविश्वनाथप्रभाकराऽन्तेवामिना च विद्यालङ्कारेण कविकान्तेन श्रोनिगमानन्दशास्त्रिणा परमहंसेन सम्पादितं “परिशिष्टं" सम्पूर्णम् ॥ ॐ तत्सत् ।। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80.00 हमारे महत्त्वपूर्ण छात्रोपयोगी प्रकाशन जिनमें मूलपाठ के साथ संस्कृत-हिन्दी टीका, भूमिका, नोट्स एवं अन्य छात्रोपयोगी सामग्री है सम्पादक अभिज्ञानशाकुन्तल सुबोधचन्द्र पन्त 12.00 अभिषेक-नाटक मोहनदेव पंत 10.0 उत्तररामचरित आनन्द स्वरूप 15.0 कर्पूरमञ्जरी गंगासागर राय 12.00 कादम्बरी (पूर्वार्द्ध) मोहनदेव पन्त 20.00 कादम्बरी (उत्तरार्द्ध) मोहनदेव पन्त 15.00 किरातार्जुनीय जनार्दन शास्त्री (1-6 सर्ग) 8 कुमारसंभव जगदीशलाल शास्त्री (1- ५र्ग) काव्यदीपिका परमेश्वरानन्द शास्त्री 6.00 काव्यप्रकाश शिवराज आचार्य चन्द्रालोक सुबोधचन्द्र पन्त 6.00 चारुदत्त रामायण द्विवेदी जातकमाला (संपूर्ण) सूर्यनारायण चौधरी शीघ्र जातक पारिजात (प्रथम भाग) गोपेशकुमार अोझा 45.00 दशकुमारचरित सुबोधचन्द्र पन्त 10.00 नागानन्द संसारचन्द्र नीतिशतक जनार्दन शास्त्री 3.00 पंचतंत्र श्यामा रण पाण्डेय प्रतिमा श्री नन्द शास्त्री प्रसन्नराघव रमा कर त्रिपाठी 8.00 भट्टिकाव्य (दो भागों में) राम गोविन्द शुक्ल (1-8 सर्ग) 15.00 संरचन्द्र 10.00 रघुवंश ध दत्त शास्त्री (1-5 सर्ग) रत्नावली शंकर त्रिपाठी रामाभ्युदययात्रा माचरण पाण्डेय विक्रमाङ्कदेवचरित ३.०व वेणीसंहार रमाशंकर त्रिपाठी 8.00 वृत्तरत्नाकर श्रीधरानन्द शास्त्री 7.50 शिशुपालवध जनार्दनशास्त्री पांडेय (१-४सर्ग) 12.0 साहित्यदर्पण शालिग्राम शास्त्री 22.00 सौन्दरनन्द सूर्यनारायण चौधरी शीघ स्वप्नवासवदत्त जयपाल विद्यालंकार 10.00 हितोपदेश--मित्रलाभ विश्वनाथ शर्मा 5.00 मोती लाल बना र सी दास दिल्ली : वाराणसी : पटना 20.00 5.00 / मेघदूत