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प्रयोगाः
स. ७३५
विजयते - विजय पाता है ! पराजयते - हारता है ।
भाषार्थः
स० ० ७३५ सन्तिष्ठते-रहता है ( सम्यक् स्थिति ) ।
श्रवतिष्ठते- ठहरता है । प्रतिष्ठते-जाता है। वितिष्ठते-ठहरता है ।
૦ ૯૩૭
सू०
शतमपजानीते - सौ रुपया छिपाता है ।
सू० ७३८
सर्पिषो जानीते - घीके बहाने प्रवृत्त होता है।
सू०७३६
धर्ममुच्चरते - धर्मका उल्लंघन करता है ।
स० रथेन सञ्चरते--रथ से
० ७४०
परिष्टिम्
भ्रमण करता है
/
सू०७४५
अनुकरोति -- नकल करता है ।
पराकरोति — दूर करता है । सू० ७४६
श्रभिक्षिपति -- फेंकता है ।
सू० ७४७ प्रवहति - बहता है ।
प्रयोगाः
भाषार्थः
सू० ७४२ एदिधिषते -- बढ़ाना चाहता है ।
सू०७४३ निविविक्षते - प्रवेश होना चाहता है ।
सू० ७४१
दास्या संयच्छते - नीच अभिप्राय से दासी श्रोदनं भुङ क्ते- भात खाता है ।
को देता है।
सू० ७४४
श्येनो वर्तिकामुत्कुरुते - बाज बत्तख को तिरस्कार करता है ।
उत्कुरुते - चुगली करता है । हरिमुपकुरुते - भगवान् की सेवा करता है । परदारान् प्रकुरुते -- परस्त्री में सहसा प्रवृत्त होता है । धोदकस्योपस्कुरुते- --काष्ठ जल का गुण ग्रहण करता है ।
कथाः प्रकुरुते --कथाएँ कहता है ।
शतं प्रकुरुते - सौ रुपया धर्मार्थ लगाता है। कटं करोति-चटाई बनाता है ।
३७६
महीं भुनक्ति - पृथ्वी की रक्षा करता है ।
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अथ परस्मैपदप्रक्रिया
सृ
परिमृष्यति - सहन करता है ।
स० ७४६
० ७४८
विरमति हटता है ।
० ७५०
सू० यज्ञदत्तमुपरमति--यज्ञदत्त को हटाता है ।