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भाषार्थः
प्रयोगाः
भाषार्थः
प्रयोगाः श्रग्नये स्वाहा - अग्नि के प्रति यह हवि सर्पिषो जानीते - घी के उपाय से प्रवृत्त
( दिया जाता है ) ।
होता है ।
पितृभ्यः स्वधा - पितरों के प्रति यह कव्य मतुः स्मरति माता को स्मरण करता है एवोदकस्योपस्कुरुते - लकड़ी जल के गुणों को धारण करती है ।
( दिया जाता है )
दैत्येभ्यो हरिरलं प्रभुः समर्थो वा दैत्यों लिये श्रीहरि पर्याप्त हैं (समर्थ हैं)
सू० ६००
ग्रामादायाति -- ग्राम से आता है । धावतोऽश्वात्पतति-दौड़ते हुए पर से गिरता है ।
सूत्राङ्काः ६०६
भूतपूर्वः -- पहिले हो चुका ।
सू० ६१०
हर - श्री हरि में
परिशिष्टम्
स्थाल्यां पचति--हांडी में पकाता है ।
सू० ६०१
आदि । )
राज्ञः पुरुषः- राजो का पुरुष ( सिपाही | मोक्षे इच्छास्ति मोक्ष के विषय में इच्छा है। सर्वस्मिन्नात्मास्ति--सबमें श्रात्मा व्यापक है । वनस्य दूरे अन्तिके वा--वनके दूर या समीप । इति कारकप्रकरणम् ( विभक्तयर्थाः )
सतां गतम् - सत्पुरुषों की गति ।
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स० ६११
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गोप-गोप में |
घोड़े
भजे शम्भोश्चरणयोः - शम्भु के चरणों को भजता हूँ ।
सू० १०३ कटे आस्ते चटाई पर बैठा है ।
अथ समासाः
सू० ६१३ उपकृष्णम्- भगवान् श्रीकृष्ण के पास । सुमद्रम्--मद्र देश की समृद्धि । दुर्यवनम् - यवनों पर विपत्ति ।
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अथाव्ययीभावः
वागर्थाविव-- शब्द और अर्थ के समान । इति केवलसमासः ।
निर्मक्षिकम्--मक्षिकाओं का अभाव । ( एकान्त ) |
प्रतिहिमम्-हिम का नाश । अतिनिद्रम्-- श्रव नहीं सोना चाहिए ।
इतिहरि - हरि शब्द का प्रकाश ।
विष्णु विष्णु के पीछे ।
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अनुरूपम-- योग्य | प्रत्यर्थम् -- प्रत्येक श्रर्थ ।