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का उद्योत अत्यन्त प्रसिद्ध है। इस प्रकार सब मिलाकर पाणिनि-व्याकरण ने एक विशाल रूप धारण कर लिया और इसका अध्ययन-अध्यापन-क्रम इस प्रकार चला कि पहले बच्चों को सम्पूर्ण अष्टाध्यायी कण्ठस्थ करा दी जाती थी और बाद में वृत्ति ग्रन्थ के सहारे प्रयोग-साधन सिखाया जाता था। अनन्तर महाभाष्य पढ़ लेने पर व्याकरण का. पूर्ण पाण्डित्य प्राप्त कर लिया जाता था। बचपन में पूर्णतः अष्टाध्यायी कण्ठस्थ कर लेनेवालों के लिए यह अध्ययन-क्रम अत्यन्त उपयोगी और स्वल्पकाल फलदायक रहा :
प्रक्रिया-क्रम किन्तु प्रौढ़ विद्यार्थी को इस अष्टाध्यायी-प्रणाली में कष्ट और गौरव अनुभव होने लगा। क्योंकि इसमें समस्त अष्टाध्यायी कराठाग्र कर लेने के बाद ही असली अध्ययन प्रारम्भ होता था और किसी प्रकरण का पृथक् अध्ययन भी दुष्कर था, कारण यह कि अष्टाध्यायी के प्रकरण प्रक्रिया-क्रम से नहीं हैं। समास द्वितीय अध्याय में हैं तो समासान्त प्रकरण पंचमाध्याय में है। इस प्रकार समस्त प्रकरण बिखरे पड़े हैं जिससे साधन-प्रक्रिया में गौरव और कष्ट अनुभव होना स्वाभाविक था। इसीलिए प्रक्रियाक्रम से पठन-पाठन का विचार प्रारम्भ हुआ और पाणिनि-व्याकरण में प्रक्रिया प्रणाली का सुव्यवस्थित प्रथम ग्रन्थ प्रक्रिया-कौमुदी लिखा गया। इसके लेखक हैंप्राचार्य श्रीरामचन्द्र । इनका समय ईसा को ५ वीं शताब्दी मानी जाती है। किन्तु प्रक्रिया-कौमुदी में पाणिनि के समस्त सूत्रों का सन्निवेश नहीं हुआ। इसलिए यह ग्रन्थ पाणिनीय व्याकरण का पूर्ण प्रातिनिध्य न कर सका ।
सिद्धान्त कौमुदी और श्रीभट्टोजि दीक्षित इस कमी को पूरा करने के लिए श्रीभट्टोजि दीक्षित ने वैयाकरण-सिद्धान्तकौमुदी की रचना की । यह ग्रन्थ पाणिनीय व्याकरण का प्रक्रियानुसारी सर्वोत्तम प्रयास है। पाणिनि का एक भी सूत्र इसमें छूटने नहीं पाया । अध्ययन की सुविधा के लिए वैदिक और स्वर-प्रकरण पृथक् संग्रह कर दिये गये। यह ग्रन्थ इतना उपयोगी सिद्ध हुआ कि समस्त भारत में पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन इसी के द्वारा होने लगा। सिद्धान्तकौमुदी पर भी अनेक टीकाएँ लिखी गई, जिनमें दीक्षितजी की अपनी प्रौढ मनोरमा, ज्ञानेन्द्र सरस्वती की तत्त्वबोधिनी, नागेश भट्ट का शन्देन्दुशेखर, वासुदेव वाजपेयी की बालमनोरमा अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। श्रीभट्टोनि दीक्षित महाराष्ट्र ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम लक्ष्मीधर भट्ट था, और गुरु थे पं. शेषकृष्ण । इनके