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________________ परीक्षा-शिक्षा-सूत्राणि ४१३ अयमपि समपादि जनः प्रथमः पञ्चनदीयपरीक्षासु। अमुनैव पथा नूनं "मार्गो हि सतां समालम्न्यः ” ॥ १२ ॥ न मया लिखितं दृप्त्यै शिक्षायै किन्तु बालानाम् । विदुषाञ्च विनोदार्थ “सकलजनहितैषिणः सन्तः" ॥ १३ ॥ रत्नाकरऽप्यलभ्यं रत्नं चेन्नात्र वाच्यतां यामः । बहुपुण्यैस्तल्लभ्यं “चिन्त्या पुण्याल्पताऽऽत्मीया" ।। १४ ॥ सन्नप्यत्र गुणश्चेद् दृष्टचरः स्यान्न कस्यचिजन्तोः । नाहमुपालम्भपदं "स्व-दृष्टि-दोषोऽपहर्त्तव्यः” ॥ १५ ॥ व्याकरणरूपसिद्धौ यद्यपि शक्नोमि भूरि निर्वक्तुम् । लिखितं तथापि किश्चित् "भजेत् कालोचिती वृत्तिम्" ॥ १६ ॥ मम यदि स्खलनं किंचित् सम्भाव्यत विबुधैस्तदा कृपया। - संसूच्योऽहं 'निगमः' “सर्वः सर्व न जानीते" ॥ १७॥ सन्देहास्पद हो जाता है । प्रतः वर्णसङ्कर दोष से सदा बचो। १२-लेखक को भी इन्हीं नियमों के पालन करने से पन्जाब विश्वविद्यालयीय परीक्षाओं में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, उचित मार्ग सभी के लिए प्राश्रयणीय होता है। १३- मैंने यह किसी अभिमानवश नहीं लिखा, किन्तु बालकों की शिक्षा के लिए लिखा है, और इससे विद्वानों का विनोद भी हो सकेगा।-सजन का काम सभी का हित करना है । १४.--- रत्नाकर में पहुंचकर भी यदि कोई रत्नप्राप्ति से वश्चित रह जाय तो इसमें किसी का क्या दोष है, रत्नप्राप्ति भारी पुण्यों का फल है। इससे तो पही कहना होगा कि अपने ही पुण्यों की कमी है। १५--- यदि कोई यहां रहते हुए गुणों से भी वञ्चित रह जाय तो इसमें मुझे क्या उपालम्भ है। अपनी दृष्टि के दोष को दूर करना उचित होगा। १६-विशेषतः-व्याकरण की रूपसिद्धि के विषय में विस्तार से भी लिखा जा सकता है। परन्तु परीक्षा समय के प्रौचित्य को ध्यान में रखते हुए परिमित लिखना उचित समझा गया है। १७– सबको सर्वज्ञान होना सम्भव नहीं है, इसलिए यदि हमसे कोई अशुद्धि हो गई हो तो विद्वान लोग हमें सूचित कर देन की कृपा करेंगे।
SR No.006148
Book TitleLaghu Siddhant Kaumudi Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishvanath Shastri, Nigamanand Shastri, Lakshminarayan Shastri
PublisherMotilal Banrassidas Pvt Ltd
Publication Year1981
Total Pages450
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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