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के इसी भाग में प्रायः संभव होती है । उनके जीवन-काल की अवधि लगभग ७० वर्ष मानने से पाणिनि का समय ४८०-४१० ई० पू० अनुमानित होता है।"
वार्तिककार कात्यायन पाणिनि के सूत्रों पर अनेक वार्तिक पाठ लिखे गये, पर सबमें कात्यायनों का वार्तिक पाठ ही प्रसिद्ध वार्तिक ग्रन्थ है । यह पाणिनीय व्याकरण का महत्त्वपूर्ण अंग है। इसके बिना. पाणिनीय व्याकरण अधूरा है। कात्यायन का यह वार्तिक पाठ स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में उपलब्ध नहीं है। महाभाष्य में ही विशेषतः इन वात्तिकों की उपलब्धि होती है।
कात्यायन का दूसरा नाम 'वररुचि' है, कात्यायन उनका गोत्रज नाम है । कतनामक गोत्र-प्रवर्तक मूलपुरुष के वंश में कात्यायन वररुचि का जन्म हुअा। यह बात कात्यायन नाम से सिद्ध हो जाती है ओर महाभाष्य के प्रथम आह्निक में "यथा लौकिकवैदिकेषु" इस वार्तिक पर "प्रियतद्धिताः दाक्षिणात्या यथा लोके वेदे चेति प्रयोक्तव्ये यथा लौकिक वैदिककेष्विति प्रयुञ्जते” इस पतञ्जलि-वचन से यह स्पष्ट है । श्राचार्य कात्यायन दाक्षिणात्य थे। ऐतिहासिकों का मत है कि कात्यायन का समय ३५० ई० पू० है।
महाभाष्यकार पतञ्जलि पाणिनीय व्याकरण पर महाभाष्य एक अति विस्तृत व्याख्या है। व्याकरण जैसे दुरूह और शुष्क विषय को भी भगवान् पतञ्जलि ने ऐसी सरल-सरस-प्राञ्जल भाषा में वर्णन किया है कि कोई भी सहृदय व्यक्ति इसकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकता। यह ग्रन्थ व्याकरण का सार-सर्वस्व है। महाभाष्यकार पतञ्जलि ने अपने परिचय के सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखा किन्तु महाभाष्य में पतजलि के दो नाम पाए जाते हैं-गोनीय और गोणिकापुत्र । इससे यह स्पष्ट है कि वे गोनर्द' प्रदेश के रहने वाले थे और उनकी माता का नाम 'गोणिका' था। कुछ लोग गोनद प्रदेश काश्मीर में मानते हैं और कुछ लोग पूर्व में गोंडा प्रदेश को गोनर्द कहते हैं। पतञ्जलि को कई जगह शेषावतार, फणाभृत् आदि नामों से भी स्मरण किया गया है। प्रतीत होता है कि उनके ये नाम सहस्रमुखी प्रतिभा और सहस्रविध प्रवचनशैली के कारण पड़े हैं। महाभाष्य में एक उदाहरण है "इह पुप्यमित्र याजयामः” इससे पतञ्जलि का राजा पुष्यमित्र के यज्ञ में ऋत्विक् होना सिद्ध होता है। पतञ्जलि के समय के सम्बन्ध में महाभाष्य में कुछ ऐसे संकेत मिल जाते हैं, जिनसे हम कुछ निश्चय कर सकते हैं:-"इह पुष्यमित्रं याजयामः" इस उदाहरण के साथ ही दूसरा