Book Title: Isibhasiyam Suttaim
Author(s): Manoharmuni
Publisher: SuDharm Gyanmandir Mumbai
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE ISIBHASIYĀIM इसि-भासियाइं सुत्ताई अर्थात अर्हतर्षि प्रोक्त ऋषि भा षि ता नि सूत्राणि भारतीय भाषाओं में मर्व प्रथमतः अनुवादिन संस्कृतटीकया समुलसितानि हिन्दी-गुजराती अनुवाद और विषम-स्थलों पर विशद टिप्पणों से अलंकृत - अनुवादक एवं सम्पादकप्रसिद्धवक्ता मंत्री श्री सौभाग्यमलजी म. के शिष्यरत्न, तटस्थ विचारक पं. मुनि श्री मनोहरमुनिजी महाराज "शास्त्री," “साहित्यरत्न" -मंशोधक --- पं. नारायण राम आचार्य 'काव्य-न्यायतीर्थ' - प्रकाशक - सुधर्मा ज्ञानमन्दिर, १७० कांदाबाडी, बम्बई नं. १ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "इसि भासियाई" सूत्र परिचय श्रमण संस्कृति की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि भारतीय संस्कृति अपने-आपमें एक विराट् समन्वय है । भारत जैसे विराट् देश में जहां कि करोड़ों मानव बसते हैं, सभी का एक विचार, एक आचार असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है, किन्तु जहां आचार और विचार की रेखाओं में विविधता लक्षित होती है, वहां विविधता में भी एकरूपता है । वह विविधता एक फुलवारी की विविधता है, जहां नानाविध पेड़ पौधे अपनी सौन्दर्य - सुषमा में निर्वाध अभिवृद्धि कर रहे हैं। यदि एक ही किस्म के पेड़ पौधे होंगे तो विपिन की बहु मनोहरता लक्षित न होगी जो विविधता में होती है। इसी अर्थ में हम भारतीय दर्शनों को एक सुजा हुआ गुलदस्ता कहेंगे, जहां हर एक दर्शन - पुष्प अपनी विचार-परम्परा का प्रतीक है। विविधता बुरी नहीं, बुरी ची तो विवि के दूसरे के स्थान को हथियाने की चेष्टा करना, एक दूसरे को झूटलाना। अपने विचारों को ही सच्चा समझने के आग्रह के कारण, जब व्यक्ति दूसरे के विचार - वैभव को सह नहीं सकता और उसकी वैचारिक स्वतंत्रता का गला घोंटना चाहता है, तब उसमें जहरीली गैस घूस आती है, जो खाने व पराये सबको नए कर डालती हैं ! | साम्प्रदायिकता की प्राचीर में जिनके मानस कैद रहते हैं, और बाहर की हवा लगते ही जिन की श्रद्धा लज्जावती बन जाती हैं, उनके लिये वह विविध पुष्पों से सजा हुआ गुलदस्ता महज एक जलते हुए अंगारे जैसा है। जिनकी विचारधारा ने सम्प्रदाय मोह के कारागृह से छुट्टी पा ली है सोचने और समझने के लिये दिमाग की खिड़कियां बंद नहीं हैं। वे जहां भी पहुंचते हैं जीवनमधु पा ही लेते हैं । विचार मधुमक्षिका जहां भी पहुंचती है शहद की बूदें ग्रहण करती है । इसीलिये अमृत के आगार करुणा के स्रोत भ. महावीर कहते हैं“जो मेधावी विचारशील ज्ञान की रोशनी लिये आगे बढ़ता है, उसके लिए विश्व का अणु-अणु श्रेय की ओर बढ़ने की प्रेरणा देने वाला है, उसके लिये मिथ्याचा भी सम्यक शास्त्र है। वह जहां भी जाएगा अमृत की दृष्टि लेकर जाएगा और अमृत ही लेकर आएगा । और जो जहर की शोध करने चला उसे अमृत में भी हालाहल की बूंदें दिखलाई देंगी। इतना ही नहीं, जीवनदायी अमृत भी जहर की लहर देने लगेगा | हमें अमृत का शोधक बनना है, उसी अमृत की खोज भारतीय सन्तों ने की है । भारत को ऋषियों की भूभि होने का गौरव प्राप्त है । की हैं दर्शन के क्षेत्र में उसका अपना नया स्थान बन गया है। में पृथक्-पृथक् विचार व्यक्त किये हैं। उन्होंने कहा गति और प्रगति का नाम विविधताओं - विचित्रताओं से भरा यह विश्व क्या है ? जीवन और जगत् के विषय में जिसने जो भी खोज विभिन्न दर्शनकारों ने जीवन और जगत् के विषय जीवन है पर अनन्त अनन्त मैं कौन हूं, इस विराट ब्रह्मांड में मेरा स्थान क्या है ? इस गति और प्रगति का लक्ष्य क्या है ? ये छोटी आँखें जो कुछ देख रही है यही सब कुछ है । या इससे भी परे कोई तव है ? इस विराट विश्व का नियंत्रण सूत्र किन सशक्त हाथों में हैं । मानव-मानस में घूमड़ंत इन प्रश्नों का एक ने उत्तर दिया तू और कोई नहीं, इस विराट विश्व का एक शिलमिलाता सुन्दर बुलबुला है। तेरी यह मोहकता, तेरी यह कमनीयता इस महान प्रकृति की देन है। उसी के हाथों से तेरा निर्माण हुआ है । इसी असीम जलधि ने दो बूंद जल दे दिया और विशाल भूपिंड ने तेरा पुतला खडा कर दिया। वायु तुझे अहर्निश जीवन दे रही हैं, वनस्पति तेरा भोजन है, अनन्त आकाश तेरा आवास है, यही तेरे इस मिट्टी के जीवन की नपी-तुली परिभाषा हैं। कुछ क्षण तक हंस ले, खेल है, तमाम भोग्यपदार्थों का निर्माण तेरे लिये हुआ है, भोग, केवल भोग तेरे जीवन का साध्य है, अर्थ तो साधन है और आखिर में तुझे इसी मिट्टी में समा जाना है, इससे परे तेरा कोई अस्तित्व नहीं है । . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई इस दर्शनकार को हम चावांक के नाम से पहचानते आये हैं | दृष्टिगत, दृश्य संसार ही इन्हें मान्य था, इसी को सजाना संवारना उनका लक्ष्य है। इनके विचार से मानव वित्तषणा और लोकेषणा का जीवित प्रतीक मात्र था। दूसरे शब्दों में आदमी रोटी दाल का केवल यंत्र मात्र है, कामना और उसकी पूर्ति जीवन लक्ष्य है। दूसरे दर्शनकार सामने आये। उन्होंने बताया दीवागल शाम है, मानब न केवल क्षणस्थायी पानी का बुदबुदा ही है, किन्तु उसमें ही अमरत्व के तार झंकृत हैं । साथ ही उन्होंने यह भी बतलाया कि जन्म के बाद जन्मान्तर और मृत्यु के बाद नया जन्म भी है और इस विश्त्र की व्यवस्था करने वाला कोई महान् व्यवस्थापक है जिसके सुदृढ़ हाथों में विराट विश्व का नेतृत्व है। जीव तो उगका एक अणु है। उसी के इच्छाधीन होकर कार्य करता है, उसी के संकेतों पर कुछ समय के लिये भूतल पर आया है। वह सर्वशक्तिमान उसी की पूजा और अर्चना का प्यासा है । अपने जीवाणु के द्वारा की गई सेवा से यह प्रसन्न भी होता है । इसके अछे और बुरे कर्मों के आधार पर असुन्दर या वह सुन्दर लोक प्रदान करता है। उसकी प्रभुसत्ता सभी जीवों को स्वीकार करनी होगी। उसकी सत्ता के सामने जीव की सत्ता नगण्य है । जीव अपने नये स्थानचय के लिए स्वतन्त्र नहीं है। इस प्रकार उसने जीवन की अखंडता स्वीकार की। परन्तु जीवन के शाश्वत तत्व को स्वीकार करने के दूसरे ही क्षण उसे परलोक भी स्वीकार करना पड़ा । उसने कहा 'हां, इस चक्षु की सीमा से परे भी कोई लोक अवश्य हैं, वह दो भागों में विभक्त है - एक इष्ट, दूसरा अनिष्ट । उसका कारण है जीवन की शुभाशुभ कार्य-परिणति । दूसरे शब्दों में शुभाशुभ कार्य-प्रणालि ही कर्म है ।' पुनर्जन्म के लिये उसके कारणभूत कर्म का स्वीकार करना भी अपरिहार्य था। बिना इसके परलोक की कल्पना कैसे हो सकती थी। इसलिये इस लोक से परलोक तक पहुंचने के लिये कर्म का पुल बनाना ही पड़ा । इनका विधान रहा है कि श्रेष्ठ कर्मकर्ता को श्रेष्ठ लोक मिलेगा । उसी श्रेष्ठ लोक को स्वर्ग कहते हैं । उसकी प्राप्ति के लिए धर्म भी आवश्यक है। इसका धर्म शुभकर्म का अपर पर्याय ही है । अतः इस रूप में पुरुषार्थ की भी प्रगति होती है । पहले दर्शनकार ने केवल दो ही पुरुषार्थ स्वीकार किये थे, किन्तु यह काम और अर्थ के साथ धर्म-पुरुषार्थ भी स्वीकार करता है। प्रथम दो ऐहिक सुख के लिये, धर्म आगे आने वाले लोक के लिये । यह त्रिपुरुषार्थवादी दल मोक्ष को खतन्त्र पुरुषार्थ नहीं मानता था। उनकी विचारधारा यह रही है कि स्वर्ग शुभ कर्म का फल स्वर्ग है। और नरक अशुभ कर्म का प्रतिफल है। स्वर्ग और नरक से उसकी दृष्टि कमी आगे-बढना ही नहीं जानती थी। जन्म और मृत्यु के चक्र का सर्वथा उच्छेद इनके विचार से असम्भव है। इनकी धर्म-अधर्म की परिभाषाएं भी समाजस्वीकृत मर्यादाओं तक सीमित थीं। अतः समाजमान्य प्रत्येक कार्य धर्म की कोटि में है। सभ्यता व समाज की रक्षा तमाम धाामक आचरणों में सर्वश्रेष्ठ है। समाज की रक्षा के लिए की गई हिंसाएँ भी धर्म की सीमारेखा की उलंघन नहीं करती । ईश्वर का ईश्वरत्व भी सामाजिक सुव्यवस्था में ही सुरक्षित रहता था । उमे भी समाज का शान्ति के लिये निज धाम छोडकर नीचे आना पडता था । दुष्टों का दलन, भक्तों का परित्राण उनकी यात्रा का लक्ष्य था। इसे हम याशिक या बैदिक मार्ग के नाम से पहचानते आये हैं । प्रवृचि उनका जीवनसाध्य रहा है । मनीषी विचारकों की चिन्तन-धार। जब आगे बढ़ती है। मनन के मन्धन से प्राप्त आत्मानुभूति के बल से उन्होंने बताया-माना कि पुनर्जन्म का कारण कम अवश्य है । शुम कर्म के द्वारा आत्मा स्वर्ग मी पा सकता है और अशुभ के द्वारा नरक भी | किन्तु हमें शुभ और अशुभ से ऊपर उठना होगा । शुभ के द्वारा आत्मा झाणिक शान्ति पा लेता है किन्तु यह चक्र तो समाप्त तो नहीं हो गया । उस चक्र की समाप्ति के लिये जैसे अशुम कार्य त्याज्य है वैसे शुभ को भी छोडना होगा और इसके लिय चौथा पुरुषार्थ सामने रखा गया, वह था मोक्ष । जिसके द्वारा तमाम कों का उच्छेद कर आत्मा का शान्त सहज रूप पाना है और वही हमारे जीवन का एकमात्र साध्य सम्भव है और Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "इलिभासियाई" सूत्रपरिचय उस के लिये तमाम कर्मों का त्याग करना होगा, चाहे वे पुण्य रूप हो या पाप रूप । धर्म की सुहावनी मोहक छाया से आये हों या अधर्म की काली छाया से । पथिक्र का आदर्श लक्ष्य पर पहुंचना हैं । राह में विगम कहां ! मार्ग फूलों का का हो तो भी चलना है, कांटों का है तब भी चलना है; पर हां, फूलों पर फिसलन है और काटों में चुभन | विश्रान्ति के लिये लक्ष्य पर पहुंचना होगा ! अनन्त युगों के यात्री-आत्मा का शान्ति भवन मोक्ष है, इसीलिए मोक्ष पुरुषार्थ हमारा साध्य है और धर्म उसका साथन । यह निर्वाणवादी दर्शन की भूमिका है, जोकि मानव-मन को स्वर्ग और नरक के फूलों और शूलों से बचाकर पवित्रता के पथ पर अग्रसर करती है । निवृत्तिवादी दर्शनकार ने साधक को प्रेरित किया है तू अपने लक्ष्य की सही दिशा में दृढ़ता से पग धरत जा मार्ग के फूलों और कांटों में तुझे उलझना नहीं है। कांटों में उलझनेवाला यदि गह भूला रही है तो फूलों की मुस्कान में बिंध जानेवाला भी लक्ष्य की ओर कदम बढ़ाने वाला नहीं है। कांटों से बिंधने वाला कम से कम राह को समझता है पर फूलों से बिंधनेवाला राह क्या राही को भी भूल जाता है । इसीलिये कभी कभी फूलों की मधुरिमा को भूला देना कांटों पर चलने से भी कठिन हो जाता है । सूत्रकार ने राग और द्वेष की तुलना में राग को प्रगति की सबसे बड़ी बाधक चट्टान बताया है। राग और द्वेष दोनों पर विजय पाने वाले को इसीलिये तो "वीतराग" कहा किन्तु ध्वय-सिद्धि के लिये हम फूल और कटि दोनों को भूला देना होगा। बेड़ी लोहे की तब भी बन्धन है और सोने की है तब भी बन्धन है, बन्धन तो कहीं नहीं गया है । पर हां, पहली हाथों को बांधती है तो दूसरी हाथों के साथ हृदय को भी बांध लेती । स्वतन्त्रता की हवा में सांस लेने के लिये दोनों को तोड़ फेंकना होगा। किन्तु साथ ही यह भी समझ लेना होगा कि लोहे की बेड़ी चोरी का दंड है तो सोने की कंगन सजनता का उपहार है । लोहे की बेड़ी में पराधीनता की कसक है। किन्तु हां, कभी कभी लोहे के तारों को तोड़ फेंकने बाला रेशमी तारों में बंध जाता है। अनंत गगन में स्वच्छन्द विचरनेवाले बिहग के लिये पिंजरा उसकी उड़ान में बाधक ही है | आरम स्वातंत्र्य के इच्छुक को पुण्य और पाप दोनों से बचना होगा साधक को साधना केवल आत्मशोधन के लिये ही है। उसके मन को न दिव्य लोक की गुलाबी अमा मुग्ध कर रही हो नरक से उसके प्राण कांप रहे हो। इसीलिये शान्ति के अवतार म० महावीर साधक को भय और प्रलोभन से मुक्त रहकर साधना करने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं: __ "नो इह लोगट्टयाए तब महिटिजा, नो पर लोगहयाए तवमहिट्टिज्जा । नो वण्ण-कित्ति सद्द-सिलोगट्टयाए तवाहिट्ठिज्जा ननत्य एगन्त निजरट्टयाए तवमहिहिना | दशवकालिक सूत्र अ० ९, उ० ४, तपसमाधिः । एक शब्द में कहूं तो स्वर्ग और नरक की मय प्रलोभन जन्य छाया से साधक का मानस मुक्त रहे। उसकी तपःसाधना का केन्द्र न यह लोक रहे न परलोक । न यहां के भौतिक पदार्थों को पाने के लिये वह तपःसाधना करे, न अगले लोक में मिलनेवाली स्वर्ग की परियों के लिये ही वह संयम साधना करे । लोक और परलोक की भावना से ऊपर उठकर लोकोत्तर-साधना में प्रवृत्त हो । निवृत्तिवादी दर्शन के पास धर्म की स्वतन्त्र परिभाध है | उस पर उसका अपना निजी चिन्तन है, मनन है। समाज की स्वीकृति ही किसी भी कार्य को धर्म का चोगा नहीं पहना सकती । समाज की हां और ना उसकी अपनी स्वार्थिक एपणाओं की प्रतिध्वनियां हैं । उसका धर्म उसकी परंपराओं के पाश में बद्ध है। जहां तक उसकी सामाजिक लोह शृंखलाओं के बन्धन को मान्य रखकर व्यक्ति चलता है तबतक उसे वह धर्म की संज्ञा देता है, जहां किसी ने उसकी मार्मिक दुर्बलताओं की ओर इंगित किया, तो वह उसे शीघ्रही अधर्म का करार दे देगा । जहां व्यक्तियों का दम घोटनेवाली गली सड़ी रस्सियों को तोड़ने के लिये किसी ने करवट ली, समाज उसे विद्रोही कहेगा उस पर पापी और अधर्मी की मुहर लगा देगा । किसी स्वस्थचेता मानस द्वारा-जिसकी कि दिल दिमाग की खिड़कियां खुली है और Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई जिसकी आत्मा छिये पाप के प्रति विद्रोह कर उठती है और उसकी वाणी या लेखनी द्वारा समाज की पाप कहानी के नाम चित्र उतरने लगते हैं तो समाज चीम्ब पड़ती है- “यह गहार हैं।" इसने समाज की सुदृढ़ मित्तियों पर कर प्रहार किये हैं। यह समाज की फुलवारी में आग का कार्य कर रहा है और समाज के अधिनायक उसे समाज में से उसी भांति निकल फेंकते हैं, जैसे दूध में पड़ी मक्खी को फेंक दिया जाता है । यह पुरस्कार है उसकी विद्रोही आत्मा का जो समाज की पाप कहानी के प्रति अंधा, गूंगा और बहरा नहीं बन सका है । यह दंड है उस चिकित्सक का जिसने फोड़े को नुकीली सुई से बींध दिया और भीतर ही भीतर सड़ने वाला मवाद बाहर आगया । सच तो यह है अधर्म की जड़ें सामाजिक इन्कार और स्वीकार में नहीं, मिथ्याभिनिवेश, राग और द्वेष में है । हमाग कार्य कितना भी मोहक क्यों न हो, समाज स्वीकृति की मुहर भी क्यों न लग चुकी हो, किन्तु यदि उस कार्य के पीछे वैयक्तिक स्वार्थ झांक रहा हो राग और द्वेष से छानकर उसकी अनुभूति आ रही हो तो बह अधर्म ही कहा जायगा। फिर मैले उस पर कितने ही शास्त्र--वाक्यों के पर्दे ही क्यों न पड़े हों चांदी और सोन के आवरण से उस क्यों न ढक दिया गया हो ! पारदर्शी की आंखें उन सोने और सूत्रों के पर्दे को चीरकर छुपे पाप को खोज ही लेगी और उसके कान पाप की करुण कसक को चांदी खनखनाइट और शास्त्र रटन के महा घोष में भी सुन ही लेंगे। वस्तुतः पुण्य और पाप की तमाम क्रियाओं के पीछे यदि अज्ञान बोल रहा हो तो ये क्रियाएं जीवन पथ विधायिनी नहीं बन सकती ।। ऋषिभाषित का अन्तस्तल ” ऋविभाषित दार्शनिक ग्रन्थ नहीं एक आध्यात्मिक सूत्र है । इसमें दर्शन की नहीं जीवन की उलझी गुत्थियों को सुलझाने का प्रयत्न किया गया है । प्रत्येक धर्म में ऐसे विचारक सन्त भी आते हैं जिन्हें संप्रदायवाद की लोहशंखलाएं बांध नहीं पाती हैं। जो रहते तो संप्रदाय में ही हैं, पर उनका चिन्तन संप्रदायातीत होता है । अखि शरीर के विशेष भाग में रहकर भी शरीर और शरीर से अतिरिक्त वस्तुओं को देखती है । स्थूल चक्षु के लिये यह संमत्र है कि शरीर से भिन्न वस्तु को भी देखें । उसके लिये किसी का विरोध भी नहीं है पर अन्तश्रा की कहानी कुछ दूसरी होती है। यदि अन्तश्चक्षु खुले हैं तो वह दूसरे धर्म का भी वैसा ही सत्य निरीक्षण करेगा जैसा कि अपने धर्म का करता है पर निरीक्षण की सत्यता की पहली शर्त है आँखे खुली हो । जो आंखें खुली रखकर चलता है वह टकराता नहीं है । मार्ग के अवरोधक पदार्थों को वह देखेगा जरूर, पर उनसे लड़ने मिड़ने को तैयार न होगा, उनसे बचकर ही निकलने की उसकी चेष्टा रहेगी। धर्म और दर्शन के सम्बन्ध में भी यही बात है जो आंखें मूंदकर चलते हैं उन्हीं में टक्कर और संघर्ष होते हैं । जिन संप्रदायों और जिन पार्टियों के बीच जितने ज्यादा संघर्ष होंगे वह उतना आंख मूंद कर चलनेवालों का समुदाय होगा। (तत्त्व-चिन्तक विरोध में अविरोध पाता है । इसी विशाल दृष्टि के द्वारा वह संतवृत्ति पाता है। हजारों वर्षों से साथ बहनेवाली भारत की तीन संस्कृतियों के तत्व चिन्तकों की अविरोध दृष्टि का परिचय ऋषिभाषित में मिलता है । प्रस्तुत सूत्र में जहां कुर्मापुत्र, तैतिलपुत्र जैसे जैनदर्शन के तत्व चिन्तक हैं तो अंगिरस और देवनारद वैदिक दर्शन के लब्धप्रतिष्ठ ऋषि भी आये हैं । पिंग और इसिगिरि जैसे ब्राह्मण परिव्राजक आये हैं तो साति-पुत्र जैसे बौद्ध भिक्षु भी आये हैं। पिंग और इसिगिरि के साथ" माहण परिवायेण का विशेषण है जो उनके ब्रामण वंश का परिचायक है । सातिपुत्र के साथ बुद्धेण अरहता विशेषण उनके बुद्धानुयायित्व का संसूचक है । इस संकलन से यह परिलक्षित होता है कि संप्रदायवाद के संघर्ष के युग में एक धारा वह भी आई थी, जिसने संप्रदाय से ऊपर उठकर सोचा था । संप्रदाय भेद होने पर भी तत्व चिन्तन में जहां एकरूपता पाई गई उन सभी Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "इसिभासियाई" सूत्रपरिश्रय ऋषियों के उपदेशों को तत् तत् विशेषणों के साथ संगृहीत किया गया। यह सांप्रदायिक उपनाम भेद दर्शन के लिये था । साथ ही यह इस बात का प्रतीक है कि संप्रदायिक भेद होने पर भी तत्वज्ञों के तत्वज्ञान में एकरूपता कैसे संभावित हो सकती है। विचार की नीची भूमिका तक उसमें विरोध और विभेद पाये जाते है पर जब चिन्तक विचार की अमुक सीमा पार कर जाता है तो उसके चिन्तन में एकरूपता संभाषित हो सकती है। फिर वेश और संप्रदाय उसे अपने में बांध कर रख नहीं सकते वह ज्यों ज्यों ऊपर उठता है त्यो त्यों पंथ, जाति, लिंग और वेश की दीवारें एक एक करके दहती जाती हैं और एक दिन बह सबका हो जाता है सब उसके हो जाते है। यही कारण है भ० ऋषभदेव को हम प्रथम अर्हत् के रूप में पूजते हैं तो वैदिकदर्शन उन्हें ऋषमावतार के रूप में देखता है। जैन संस्कृति यद्यपि आज पंथ और वेश की श्रृंखलाओं में जकड़ दी गई है फिर भी एक दिन उसका स्वर पंथ और वेश पूजा के विरोध में जाग्रत था। उसने वेश-पूजा नहीं गुण-पूजा का महत्व स्वीकार किया था । इसीलिये आत्म विकास की सर्वोत्तम श्रेणी (स्टेज) पर पहुंचने के लिये उसने पंथ और जाति का कोई आग्रह ही न रखा । उसने यह नहीं कहा क्षत्रिय ही मोक्ष पा सकता है. वैशा नहीं या ब्राह्मण ही मोक्ष पा सकता है, शूद्र नहीं। सभी वर्ण और सभी वर्ग के व्यक्ति मोक्ष के अधिकारी हैं । उसने यह भी नहीं कहा कि तुम अमुक वेश धारण करो तभी मुक्ति पा सकोगे या अमुक पंथ में दीक्षित हुए बिना या अमुक प्रकार के विशेष अचेन पूजन या क्रियाकाण्ड किये बिना तुम्हें मोक्ष नहीं मिल सकेगी। वह यह नहीं पूछता तुम किस संप्रदाय में दीक्षित हुए हो या किस के शिष्य हो ? तुमने कितने वर्ष संयम पाला है ? वह तो पूछता है अन्तःशुद्धि तुमने कितनी पाई है यदि अन्तःशुद्धि आ गई है तो गृहस्थ दशा में भी मोक्ष के अधिकारी हो और अन्तःशुद्धि नहीं है तो मुनि वेश में भी मुक्ति नहीं है। यही कारण है कि मरुदेवी-माता गृहस्थ रूप में मुक्त हुई है । सम्राट भरत चक्रवर्ती के रूप में ही कैवल्य पागये । भगवान् महावीर के शिष्यों में एक ओर गौतम जैसे श्रमण थे तो दूसरी ओर आनंद जैसे उपासक है तो अंबड जैसे परिव्राजक्र, परिव्राजक के रूप में उनके शिष्य थे । तो चक्रवर्ती भरत के पुत्र मरीचिकुमार त्रिदंडी के रूप में भ० अषमदेव के शिष्य थे। वेश और पंथ की सीमा तोड़कर आत्म-दृष्टि प्राप्त करनेवालों का समन्वय हम ऋषिमापित में पाते हैं। ऋषिभाषित का परीक्षण ऋषिभाषित का अन्तस्तल देखने के बाद हमें इसकी प्रामाणिकता पर विचार करना होगा। स्थानकवासी परंपरा केबल बत्तीस सूत्रों को लेकर ही चली है और बत्तीस में ऋषिमाषित का समावेश नहीं है। फिर तेतीसवां सूत्र कैसे मान्य होगा ! अनुवाद के समय यह प्रश्न मेरे पास आया भी था । बम्बई में एक भाई ने मुझसे प्रश्न भी किया था महाराज आप तेतीसवें सूत्र का अनुवाद कर रहे हैं ? मैंने कहाः जी हां; हर्ज क्या है ? । उन्हें मेरे उत्तर पर आश्चर्य अवश्य हुआ। हमें सोचना होगा हम बत्तीस ही में क्यों बन्ध गये ? बत्तीस ही क्यों ? ऐसा कहा जाता है कि स्थानकवासी परम्परा ने बत्तीस आगमों को स्वीकार किया है और शेष आगमों को आधारभूत प्रमाण न मानकर उनकी उपेक्षा करदी। अब जरा देखना होगा वह कौनसा प्रमाण है जिसके द्वारा उसने ३२ आगमों को सम्यक माना है और शेष को मिथ्याश्रुत का करार दे दिया। कहा जाता है कि बाह्याडंबर और प्रवृत्ति धर्म के प्रति ऐक्रांतिक विरोध रखकर चलने के कारण उसने मूर्ति-पूजा को आगम विरुद्ध घोषित किया है और जिन आगमों में मूर्तिपूजा का उल्लेख नहीं था केवल उन्हीं को मान्य रखा है । जिन आगमों में मूर्तिपूजा का विधान मिलता है उन्हें ठुकरा दिया गया। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० इसि-भासियाई केवल जिन-मूर्ति-पूजा या हरिहंत चइयं के पाठ लिये आगों को अप्रामाणिक माना जाय तो उपांग सूत्र ही नहीं अंगमूत्र भी छोड़ने होंगा क्योंकि 'अरिहंत चेझ्याई पाठ तो 'उपासक दशांग' और ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र में भी मिलता है | उपासक आनंद अन्य तीर्थों में विहित 'अरिहंत चेइयं' के वन्दन पूजन का परित्याग करता है । द्रौपदी जिनमूर्ति का पूजन करती है । अतः यह तो नहीं कहा जा सकता कि अरिहंतचइय' शब्द के लिये आगमों का परित्याग किया गया है। पदिसंबज मोसाय का आधार मनाया जाय और कहा जाय कि सर्वज्ञ भ० महाबीरद्वारा प्रणीत सूत्रों को ही प्रमाण माना जायगा । इस आधारपर आगमों की छटनी करना चाहेंगे तो इस छटनी में बहुत कुछ खोना पडेगा। क्योंकि सर्वज्ञ प्रणित आगमों में केवल द्वादशांगी का ही समावेश होसकता है यदि ऐसा कहा जाए की नंदीसूत्र में जो आगों का परिचय दिया गया है उस रूप में वे उपलब्ध नहीं हैं । पर नंदी सूत्र के आगम परिचय के अनुकूल तो आज एक भी आगम नहीं है। नंदी सूत्र में जहाँ द्वादशांगी का परिचय मिलता है जहाँ हर अंगसूत्र की पदसंख्या अपने पूर्ववर्ती से दुगुनी है | आज न तो पदसंख्या ही उतने रूप में उपलब्ध है न द्विगुणित वृद्धि ही है। क्रम का इतना विपर्यास है कि व्यारूपा प्रज्ञप्ति के उत्तरवर्ती सभी सूत्र उससे छोटे ही है। ज्ञाता धर्म कथांग सूत्र की उन हजागे कथाओं में से केवल गिनी चुकी कथाएं ही उपलब्ध हैं। प्रस्तुत प्रश्न का दूसरा उत्तर होगा क्या परिवर्धित और परिवर्तित आगम को मान्यता प्रदान नहीं की गई ? आगमों का हम जरा गहराई से अध्ययन करें तो अनुभव होगा भ० महावीर के परिनिर्वाण के बाद आगमों में परिवर्तन ही नहीं परिवर्द्धन भी हुआ है । स्थानांग सूत्र के सातवें स्थानक में सप्त निलवों के प्रकरण में गोष्ठामाहिल का भी उल्लेख आता है। जबकि गोष्ठागाहिल भ० महावीर के निर्वाण के करीब तीन सौ वर्ष बाद हुआ है और स्थानांग सूत्र की रचना भ० महावीर के समय में संपन्न हो चुकी थी, क्योंकि वह अंगसूत्र है। तीन सौ वर्ष बाद की घटना का उसमें समावेश होना यह सिद्ध करता है कि अंग साहित्य की रचना के बाद भी उसमें परिवर्तन हुआ है। उत्तरवर्ती आचार्यों ने अपनी समसामयिक घटनाओं का यथास्थान उसमें प्रक्षेप किया है। आगमों में स्वल्प परिवर्तन ही नहीं कहीं पूग आमूलचूल परिवर्तन भी हुआ है । उदाहरण के लिये प्रश्न व्याकरण सूत्र को ही ले | श्री नंदी सूत्र में उसका परिचय कुछ अन्य रूप में मिलता है और आज वह बिलकुल भिन्नरूप में उपलब्ध है । देखिये नंदी सूत्र में प्रश्नव्याकरण सूत्र का परिचय इस रूप में मिलता है से किनं पाहवामरणाई ? पपहवागरणे सुर्य अत्तर पलिण सयं, अत्तर क्षपसिण समं, अनुत्तर पसणा पसिणसयं, तंजहा अंगुट्ठ पसिगाई, बाहु पासिणाई, अदाग पसिणाई अचे विविचित्ता बिताइसया, नागसुबन्नेहि रवि दिया संवाया भाषति । -नंदी सूत्र ५४ प्रश्न व्याकरण में अंगुष्ठ प्रश्न आदि ३२४ प्रक्ष, अप्रश्न और सैकड़ों विद्याएं है । पर आज प्रश्नव्याकरण पंचाश्रय और पंचसंवर वर्णनात्मक है | स्थानांग सूत्र के दशम स्थानक में दस दशाओं के वर्णन में प्रक्षव्याकरण दशा का वर्णन कुछ भिन्न रूप में ही मिलता है । वहां प्रश्न व्याकरण के उपमा संख्या इसिमासियाई आदि दस अध्ययन बताये हैं। अतः इस तर्क में भी कोई प्राण नहीं है कि श्री नंदीसूत्र में उल्लिखित अन्य आगम परिवर्तित है अतः हमें मान्य नहीं है। १. उपासक दशा, २ ज्ञातासूत्र. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " इसि भालिया" सूत्र परिचय ऋषिभाषित की प्रामाणिकता इतनी लम्बी चर्चा के बाद अब हम सोचेंगे कि वर्तमान में मान्य आगम बत्तीसी के किन आगमों में ऋषिभाषित का उल्लेख व परिचय मिलता है। पहले मंदीसूत्र को लेते हैं जहां वर्तमान में उपलब्ध और अनुपलब्ध सूत्रों की विशाल संख्या मिलती है। अंगबाह्य सूत्र में कालिक सूत्रों की सूची में सातवें स्थान पर ऋषिभाषित का नाम उपलब्ध होता है । से किं तं कालियं? कालिये अगवि पण्णत्तं । तंजहा:- उत्तरज्ज्ञायणं, दमाओ, कप्पो ववहारो निसी महानिसीई हासभा सिवाई | રા स्थानांग सूत्र के दशम स्थानक में दस दशाओं का वर्णन है उसमें प दशा के रूप में प्रश्नव्याकरण दशा का उल्लेख है । प्रन्नव्याकरण के दश अध्ययन हैं जैसे कि उपमा, संख्या ऋषिभाषित' आदि परन्तु जैसे कि पहले लिखा जा चुका हैं कि प्रश्नव्याकरण सूत्र का वर्तमानरूप स्थानांग और नंदी सूत्र दोनों उल्लेखों से भिन्न है। अतः वहां ऋषिभाषित को खोजना व्यर्थ होगा । सुमवायांग सूत्र में चबॉलीस समवाय में ऋषिभाषितसूत्र का उल्लेख मिलता है। देवलोक से च्यति चचालीस ऋषियों के प्रवचन' रूप यह सूत्र है किन्तु एक प्रभ उपस्थित होता है कि यहाँ पर वर्तमान ऋषिभाषित सूत्र के पैंतालीस अध्ययन हैं और समवायांग सूत्र में चत्रलीस अध्ययनों का उल्लेख मिलता है । इस विभेद को मिटाने के लिये टीकाकार लिखते हैं । समवायांग सूत्र में दैवलोकयक्ति ऋषियों का ही उल्लेख है । मन है एक ऋषि जन्य हो, अतः उनका उल्लेख नहीं किया गया है | से आये मूल भाष्य में आचार्य चतुर अनुयोग की व्याख्या करते हुए धर्मकथानुयोग में इसि भासियाई की गणना करते हैं । कालिक श्रुत में चरणकरणानुयोग, ऋषिभाषित में धर्मकथा, गणितानुयोग सूर्य प्रज्ञप्ति में और द्रव्यानुयोग दृष्टि बाद में निर्दिष्ट है । इसप्रकार स्थानांग समवयांग और नंदी सूत्रमें उल्लिखित ऋषिभाषित आज उलब्ध हैं । इसके अतिरिक्त पूरे सूत्र में एकादशांग सूत्रों की विषय परिधि से किसी भी प्रत्येक बुद्ध का प्रवचन बाहर नहीं गया है। फिर उसे अपनाने में हानि क्या है। ऋषिभाषित के रचयिता ऋषिभाषित के एक रचयिता का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि यह किसी एक व्यक्ति कृति नहीं है । उसमें पृथक् पृथक् वक्ताओं के विचार सूत्र संकलित हैं। ये विचारक ज्ञान की भीतरी तह तक पहुंचे हुए ऋषि हैं। आर्हती भाषा में इन्हें प्रत्येकबुद्ध कहा गया है। प्रसिद्धि और घटना विशेष के कारण चार ही प्रत्येकबुद्ध लोकमानस में जीवित हैं । परन्तु इसका अर्थ यह नहीं होता कि प्रत्येक बुद्ध चार ही हैं। श्री नंदी सूत्र में विभिन्न तीर्थकरों के शासन के प्रत्येक बुद्धों की संख्या दी गई है। उसमें यह बताया गया है कि म० आदिनाथ के ८४ हजार शिष्य थे और भ० महावीर के १४ हजार शिष्य थे । दूसरे रूप में यह भी बताया गया है कि जिन तीर्थंकरों के शासन में १. स्थानेः दस दसाओ पण्णत्ताओ तंजहा १, २, ३, ४, ५ पद बागरणदसाओ, पण्वागरणदसाणं पंच अक्षणा पं० तं जहा उनमा संखा इसिमासियाई ॥ २. चोवालीसं अक्षयणा दिय लोग चुयभासिन - पता दियोयचुयाणं इसी चोयालीस इसिभासिज्झयका पणत्तासमवायांग सूत्र ४४ व समवाय. ३. एतदूवृत्तौ चतुरचत्वारिंशत्स्थानेऽपि किचिरिलख्यते, चतुश्चत्वारिंशत्, इसिमासियत्ति ऋषिभाषिताध्ययनानि.. कालिकत विशेषभूतानि दियोयचुव भासियेत्ति देवलोकयुतेः ऋषिभूतैर्भाषितानि देवलोकच्युतभाषितानि । कस्यापि प्रत्येकबुद्धस्य अन्यस्याः कस्याश्विद्गतेरायात्तत्वमपेक्ष्य पंचचत्वारिंशतोऽप्यध्ययनानां विवक्षया एकोनतया ॥ नन्दी सूत्र ४४ ४ कालिय व इतिभारियाई तामसुरपन्नति सध्वी य दिडिवाओं बजत्थो होइ अणुओगो मूलभाष्य १२९४ । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ इस भासिथाई जितने औपातिकी, वैनयिकी, कार्मिकी, पारिणामिकी बुद्धि से युक्त मुनि होत हैं उतने ही प्रत्येकबुद्ध होते हैं। अतः यह मानना आवश्यक नहीं कि प्रत्येक बुद्ध केवल चार ही है ।' ऋषिभाषित के प्रवक्ता अतर्षि हैं । अतः उनका वचन प्रमाण माना गया है । आगम बोलते हैं अभिन्नदशपूर्बंधर निश्चयतः सम्यकूदृष्टि माने गये हैं और उनका श्रुत सम्यवश्रुत है । इस रूप में प्रोक्युद्धों का यह प्रवचन सूत्र सम्यक् श्रुत के अन्तर्गत ही माना जाना चाहिए । पर वे सभी दश पूर्वार हैं उसका क्या प्रमाण ? हमारे पास कोई निश्चित प्रमाण नहीं है जिसके आधार पर कहा जा सके कि वे सभी सर्वज्ञ थे या दश पूर्वघर थे फिर भी प्रायः सभी ऋषियों के नाम के साथ अतर्षि पद आया है । अर्हन् + ऋषि के रूप में पदविच्छेद करने पर फलितार्थ होगा सभी ऋषि अर्हत् पद पर पतिष्ठित हैं । यदि अर्हतर्षि का अर्थ केवल इतना ही लिया जाय कि वे सभी आईत परंपरा में दीक्षित हैं। इतने मात्र से यह नहीं कहा जा सकता कि वे अभिन्न दशपूर्वी हैं। ऐसा स्पष्ट आधार भी नहीं है और मिलता भी नहीं है। फिर भी इतना कहा जा सकता है कि विशिष्टज्ञानी आवश्यक थे, क्यों कि ये प्रत्येक बुद्ध थे और प्रत्येक के साथ अतर्षि पद आया 1 ऋषिभाषित का अन्तर्दर्शन ऋषिभाषित अन्तर के उद्बोधन का सूत्र है । जीवन और जगत के रहस्य ज्ञाताओं ने मानव की वृत्तियों को एक एक कर उठाया और उनका विश्लेषण किया है। कभी कभी वे हमारे अन्तर को झकझोर देते हैं तो कभी बहिर्मुखता को अन्तमुखी वृत्ति के रूप में प्रदर्शित करने की वृत्ति को प्रताड़ित करते हैं। आज के साधक जीवन की बहुत बड़ी बिडम्बना यह है कि उसमें एक रूपता नहीं है उसका बहिरूप कुछ और हैं तो उसके अन्तर में दूसरी वृत्तियाँ काम कर रही हैं ! ऊपर की रहने का प्रयास किया जाता है और आश्चर्य तब और होता है जबकि वे वैशपूजक श्रमण केवल वेश की प्रतिष्ठा स्थिर रखना चाहते हैं और जब कभी उनके सामने पेश की प्रतिष्ठा को धक्का लगाने की घटना होती है तो वेही अन्तरसंगी साधक उनसे बोल उठते हैं तुमने मानव जन्म लिया है। मुनिवेश का परिधान लिया हैं और श्रमण परंपरा की कलंकित करने का कार्य तुम कर रहे हो। वेश पूजा का सुन्दर चित्र प्रस्तुत गाथा में मिलता है । अब्रद्दा समणे होई अनं कृति कम्मुणा अष्णमण्णाणि भासते माणुस्सा हणे हुसे ॥७॥ ऋषिभाषित . ४, गा. ७ साधक जीवन में बहुरूपता को स्थान नहीं है । जनता के सामने जिसका रूप कुछ दूसरा है और जनता की आंखों से ओझल होते ही उसके जीवन की गति दूसरे प्रवाह में बहने लगती है। नगर में कुछ दूसरा रूप है तो आम की भोली जनता के समक्ष उसके क्रिया कलापों में भिन्न रूपता आती है तो समझना होगा वह साधक अपनी १. एवं माझ्याई चउरासी पइलग सहस्सा भगवओ अरहा. सहसा मिस्स भाइतित्ययररसः तहा संखिचाई पन्नगसहस्साई मज्झिमग गाणं जिणवराणं चोइस पन्नगसहस्राणि भगवओ वृद्ध माणसामिस्स अहवा जस्ता जतिआ सीसा उप्पत्तिआए वेणइआए कम्प्रिया परिणामियाए चविहार बुद्धिए उनबेया तस्स तत्तियाई पइनगसहस्साई पमेय बुद्ध। त्रि तत्तिया चेव । नन्दी सूत्र के प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य मलयगिरि लिखते हैं- यस्य ऋषभादे तीर्थंकृतो यावत् शिष्यास्तीर्थं औत्पत्तिक्या वैयिक्या कर्मज्या पारिणामिका चतुर्विधया बुद्ध्या उपेताः समन्विता आसीत तभ्य ऋषभादेस्तानन्ति प्रकीर्णक सहस्राभवन् प्रत्येक बुद्धा अपि तावन्त एव । अत्रे वावक्षत-इह एक कली यकृत स्वीर्थेऽपरिमाणानि प्रकीर्णकाने भवान्ति पीक अरिणामपरिमाणत्वात् केवल सिंह प्रत्येकबुद्धरचितान्येव प्रकीर्णकानि द्रष्टव्यानि । प्रकीर्णकपरिमाणेन प्रत्येकबुद्धपरिमाण प्रतिपादना तस्मादेतत् प्रत्येकबुद्धानां शिव्यभावो विध्यते तदसमीचीनम्, यतः प्रब्राजकाचार्यमेवाधिका शिष्यभावो निषिध्यते नतु तीर्थंकरोपदिष्टशासनात्प्रतिपन्नरवेनापि ततो न कश्चिद्दोषः । २. चौदस्तपुव्विरस सम्ममुयं अभिण्ण दसपुब्बिस्स सम्मस्य तेण परं भिण्णेसु भयणा | नंदी सू० ४० Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "इसिभासियाई" सूत्रपरिचय आत्मा के प्रति वफादार नहीं है। वह आत्मदर्शी नहीं है, अपतर्षि अंगिरिसी ऐसे ही जीवन के बहुरूपियापन का दूसरा चित्र दे रहे हैं: __ अदुवा परिसा मज्झे अदुवाविरहे कड़े। " ततो णिरिक्ख अपाणं पाव कम्माणिसम्मति ॥ -ऋषि, गा० १०. ' शास्त्रों का प्रचार अकेली जीभ से या संपत्ति स नहीं हुआ करता है । उसके पीछे हृदय की साधना चाहिये । जीभ आगम को जनता के कानों तक पहुंचा सकती है। संपत्ति शास्त्रों को संगमरमर की दीवारों में अंकित करवा सकती है पर हृदय की दीवारों में अंकित करना उसके वश से परे है। यही सत्य आपको निम्न गाया में मिलता है। सुयाणि भित्तिए चित्तं कट्टेवा सुणिये सितं । मणुस्स हिय ये पुणिणं गहणं दुम्वियाणकं ॥ ऋषिभाषित अ. ४, गा०६ जिसके पास साहित्य की विशाल संपत्ति है वह अकिंचन होते हुए भी हृदय का सभ्राद है । फिर उसके पास एक नया पैसा भी न हो तब भी भिखारी पन या दीनता उसके मन को छुएगी तक नहीं। दुनिया दुःख से भागती है किन्तु कार्यों द्वारा बह दुःख को निमंत्रण भी देती है । पर सन्तके मन पर दुःख सवारी नहीं कर सकता। न दुःख में दीनताही उसपर छा सकती है । वज्जिय पुत्र अर्हतर्षि इसी तथ्य को निम्न गाथा में प्रस्तुत कर रहे हैं। जस्स भीता पलायन्ति जीवा क्रम्माणुगामियो । समेषादाय गति किला दिव वाहिणी ।। भ, २, गा० १. साधक के पास मन की वह साधना होती है कि बाहिरी सुख और दुःख उसके पास पहुंच ही नहीं सकते। बाहिरी आलोचना उसकी मनःशान्ति को मंग नहीं कर सकती । आलोचना के तीक्ष्ण प्रहारों के समय वह सोचता है किसी के कहने मात्र से कोई बुरा नहीं हो जाता | उसका चिन्तनशील मन बोलता है यदि सचमुच मुझ में दुष्टता भरी है और यह उस दुष्टता का उद्घाटन कर रहा है तब भी मुझे उसके लिये रोप नहीं करना चाहिये । जीवन में दुःख की सही घड़ियां वे हैं जब कि हम बुरे हों और दुनिया हमें अच्छा समझकर प्रशंसा के फूल चढ़ाती हो । भारद्वाजगोत्री अंगिरस ऋषि कहते हैं: जइ मे परो पसंसाति असाधु साधु माणिया । मे सातायए भासा अप्पाणं अलमाहिते। ऋषिभाषित अ. ४१। इस प्रकार ऋपिभाषित सूत्रकार साधक को आलोचना और प्रत्यालोचना के द्वन्दू में भी स्थितप्रज्ञ रहने का परामर्श देते हैं । ऋषिभाषित सूत्र में सर्वत्र आपको जीवन के अन्तर्तम को आलोकित करनेवाले सीप और मोती विखरे मिलेंगे। ऋषिभाषित एक शुद्ध आध्यात्मिक सूत्र है, वह आत्मदर्शन का प्रतिपादन करता है । आत्मा की विकृतियों को दूर कर शुद्ध खरूप की प्राप्ति की प्रेरणा देता है। कहीं यह कषाय विजय की प्रेरणा देता है तो कहीं समभाव की साधना का पाठ पढ़ाता है । कहीं आत्मिक खेती का निरूपण करता है । बत्तीसवें अध्याय में सुन्दर शैलिमें आध्यात्मिक खती का रूपक दिया गया है। आत्मा को क्षेत्र तप को बीज और संयम को युग नांगल बताया गया १. आता खेसं तनो चीजे संजमो जुअणंगलं। ऋषि, अ. ६२. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई है। बौद्ध साहित्य में बताया गया है कि भगवान बुद्ध ने एक बार भारद्वाज ब्राह्मण से आध्यात्मिक खेती का निरूपण किया था। उसमें श्रद्धा को बीज, तप को वृष्टि और प्रज्ञा को हल बताया गया है) काय संयम बाक्संयम और आहार संयम कृषि क्षेत्र की मर्यादाएँ हैं और पुरुषार्थ बैल है और मन जोत है । इस प्रकार की कृषि से अमृतत्व का फल मिलता है।) एष मेसा कसी कट्टा सा होति अमतपफला । एवं इसी कसित्वान मन लामा पानि ॥ यहां भारमा को क्षेत्र बताया है । वैदिक मंत्रों में भी क्षेत्र शब्द अध्यात्म अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। स्खे क्षेत्रे अनमीषा विराज. -अथवेद. अपने क्षेत्र में अनामय होकर रहो। यह क्षेत्र किसी भी दैहिक या अध्यात्म-व्याधि से क्लिष्ट न हो । अन्यत्र कहा गया है:___ शन्नः क्षेत्रस्य पतिरस्तु शम्भुः । अथर्थ. १६+१०।१० हमारे क्षेत्र का स्वामी या क्षेत्रपति शम्भु कल्याण कर हो । ऋग्वेद के एक मंत्र में क्षेत्र शब्द अध्यात्म अर्थ में बहुत ही स्पष्टता के साथ प्रयुक्त हुआ है । , अग्रषिक्षेत्रविदं प्राट् सौति क्षेत्रविदानुशिष्टः । । एतद्वै भद्रमनुशासनस्थोत स्तुति विदस्यजसीनाम् ॥ *. १०।३२७ अर्थात्--अक्षेत्रविद् क्षेत्रविद् से आत्मज्ञान के सम्बन्ध में प्रश्न करता है । वह ज्ञानी क्षेत्रज्ञ आत्मविद्या में उसका अनुशासन करता है । उसका उपदेश दोनों के लिये कल्याणकारी होता है । जिससे सर्वत्र उनकी प्रशंसा होती है । यहां आत्मा के लिये क्षेत्रज्ञ शब्द प्रयुक्त हुआ है । गीता में भी क्षेत्रज्ञ शब्द आत्मा के अर्थ में ही आया है। इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते। एतयो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः । -गीता अ. 1३11 अर्थः हे अर्जुन ! यह शरीर क्षेत्र कहलाता है । जो इसे जानते हैं उन्हें तत्वज्ञानी क्षेत्रज्ञ कहते हैं। पाणिनि पर- क्षेत्र का अर्थ जन्मान्तर लेते हैं। क्षेत्रियच् परक्षेत्रे चिकित्सः (4) २ १९२) काच्यों में भी क्षेत्र शब्द अध्यात्म अर्थ में आया है योगिनो यं विचिन्वन्ति क्षेत्राभ्यन्तरवर्तिनम् । अनावृत्तिमयं यस्य पदमाहुर्मनीषिणः ॥ यमक्षरं क्षेत्रविदो विदुस्तमात्मानमारमन्यवलोकयन्तम् ।। पु.मारसंभव ३४५० महाकवि कालिदास अपने कुमारसंभव में आत्मा के लिये क्षेत्रविद् शब्द का प्रयोग करते हैं। जैन सूत्रों में भी क्षेत्रज्ञ शब्द आत्म ज्ञाताके अर्थ में मगवान महावीर का विशेषण बनकर आया है। खैग्रमये से कुसले महेसी, अणंत नाणीय अणंतदंसी। जससिणो चक्खु पहेठियस्स, जाणाहि धम्मच घी च पेहि ॥ वीरस्तुति । ३॥ मिलाइये निम्न गाथा सेएवं किर्सि किसित्ताणं सव्य सत्त दयावह. माहर्ष स्वत्तिए बेइसे सुद्दे वादिय मुच्चति ॥ -इसि-भा. अ. ३२। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " इसिभालियाई" सूत्रपरिचय अर्थात् आर्य जम्बू आचार्य सुधर्मं से बोले व क्षेत्रज्ञ कुशल महर्षि अनंतज्ञानी और अनंतदर्शी यशस्वियों के पथ में स्थित हैं उन (भगवान् महावीर) के धर्म को आप जानते हैं और उनके ध्येय को देखते है । ___ इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ शब्द जैन बौद्ध वैष्णव आर्य संस्कृति की तीनों धाराओं में समानरूप से व्यवहृत हुआ है और उसके प्रयोग में आश्चर्य जनक समता है । अडतीसवें अध्ययन में इन्द्रियों के सम्बन्ध में चर्चा आई है । यदि पांचों इन्द्रियां सुप्त हैं, तो अल्प दुःख की हेतु बनती हैं । इन्द्रियां क्या है ? आत्मा इन्द्र है और उसकी कार्य में प्रवृत्त शक्तियां इन्द्रियां हैं । शतपथ ब्राह्मण में बताया गया है इन्द्र आत्मा की प्राचीन संज्ञा है । उसी के संपर्क से हमारी इन्द्रियां अपने कार्य में प्रवृत्त रहती हैं। इन्द्र की शक्ति ही इन्द्रियरूपी देवों के रूप में प्रकट हो रही है। इन्द्र ही सबके भीतर बैठा हुमा मध्य प्राण है जो इतर इन्द्रिय प्राणों को समृद्ध करता है। ___कठोपनिषद आदि अन्य भारतीय ग्रंथों में इन्द्रियों की उपमा अश्व से दी गई है । जो शरीर रूपी देवस्थ में इन्द्रियों के सद्अश्वों को जोड़कर बुद्धिरूप सारथि की शक्ति से सफल जीवन यात्रा कर सकता है वही विजय शील महारथि है। जैन आगमों में इन्द्रियों को नहीं मन को अश्व बताया गया है । महामुनि केशीकुमार महान् साधक गौतम को पूछते हैं, है गौतम, तुम एक साहसिक गुः अब पर आरूढ़ हो । वह पबन बेग से दौड़ता है किन्तु आश्रय है कि तुम उसके द्वारा गलत मार्ग पर ले जाये नहीं जाते : महान् सन्त गौतम ने उत्तर देते हुए कहा-उन्मार्ग की ओर दौड़ते हुए उस अश्व को मैं सूत्ररूप रस्सी के द्वारा रोकता हूं, अतः मेरा अश्व उन्मार्ग की ओर न जाकर सन्मार्ग की ओर ही जाता है। महा श्रमणे केशीकुमार फिर पूछते है:-वह अश्व कोनसा है ? सतगौतम बोले-मन ही यह साहसिक भयंकर दुष्ट अन्च है, उसे मैं रोकता हूं और धर्म-शिक्षा के द्वारा उसे जाति संपन्न अश्व की भांति चलाता हूँ। ... शतपथ ब्रामण में बताया गया है मन ही देवों का बाहत अव है, इसी पर आरूढ़ होकर देव विचरण करते हैं। मनो वे देववाहन । मना हीदं मनस्विनं भूयिष्ठ पनीवाशते । शतपथ (१३/६.) ऋग्वेद में देव वाहन अश्व का वर्णन है: वृषो अग्निः समिध्यतेऽश्वो न देववाहनः । तं इनिष्मन्त ईळते (अ. ३।२७।११1) १. पंच जागरओ सुत्ता अप्प दुक्खस्स कारण। तस्सेत्र तु विणासाय पणे बहिब संतयं ॥ २. स योऽयं मन्ये प्राणः । एष एवं इन्द्रः । तानेष प्राणान् मध्यत' इन्द्रिवणेन्द्ध । यदै तस्मादिन्धः । इन्धी ह वै तमिन्द्र इत्याचक्षते परोक्षम् ॥ ६॥ १। ६२ अयं साहसिओ भीमो दुहस्सो परिधावइ । अंसि गोयम आरूदो कह सेण न हीरसि ? पहातं णिगिहामि सत्यरम्सी रामाहियं । नमे गच्छई उम्मरमं मरगं च पंडिवजइ ॥ ५५-५६ उतरा. अ. २३. ४, मणो साहसीओ भीमो दुहस्सो परिघावइ । तं सम्मं णिगिण्हामि धम्मसिक्खाइ कंथग ।। उत्तरा. अ. २३. गा. ५९ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस भासियाई यजुर्वेदीय कठोपनिषद में एक रूपक आता है:- शरीर रूप रथ में आत्मा रथी हैं, बुद्धि सारथि है, मन लगाम है, इन्द्रियां घोड़े और विषय उनके विचरने के मार्ग हैं। इन्द्रिय और मन की सहायता से आत्मा पदार्थों का उपभोग करता है । जो प्रज्ञा संपन्न होकर संकल्पवान मन से स्थिर इन्द्रियों को सुमार्ग में प्रेरित करता है वही मार्ग के अन्त तक पहुंचता है। जहां से वापिस लौटता नहीं हैं। I २६ दर्शन की त्रिपथा से भारतीय दर्शन की त्रिपथगा (गंगा) भारत में तीन धाराओं में बही हैं । जैन बौद्ध और वैदिक संस्कृति दर्शन की चिपथगा है। तीनों के बीच बहुत कुछ वैचारिक साम्य है । कहीं थोडा वैषम्य भी है। आचार और व्यवहार में यथपि वे बहुत कुछ दूर जा पड़ी हैं फिरभी विचार के क्षेत्र में कुछ साम्य भी है और वह साम्य कहीं कहीं तो इतना स्पष्ट है कि है । गाई से अध्ययन करने पर अर्ध साम्य तो अधिकतर परिलक्षित हो जाता है पर कहीं तो शब्दसाम्य और पदसाम्य तक आश्चर्य प्रद रूप में परिलक्षित हो जाता है। ऋषिभाषित सूत्र में भी ऐसे अनेकों श्लोक है जिनका इतर भारतीय दर्शनों में साम्य मिल जाता है । पैंतीस अध्ययन में अर्हता उद्दालक कहते हैं : / जागरह णरा शिवं मा मे धम्मचरणे पमत्ताणं । काहिंति बहू चोरा दोगतिगमण हिष्टाकं ॥ जागरह जरा गिं जागरमाणस्स नागरति सुतं । जे सुवति न से सुद्दिते जागरमाणे सुही होंति । - इसिमा अ. ३५ गा. २०-२२ मिलाइये - उत्तिष्ठत जात प्राप्य वरान्निबोधत । क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ॥ - कठोपनिषद् १।३।१४. . ( हे अज्ञान से ग्रस्त लोगो) उठो, जागो, श्रेष्ठजनों के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करो। जिस प्रकार छुरे की धार तीक्ष्ण होती है और छुई नहीं जा सकती, बुद्धिमान् पुरुष आत्म-ज्ञान के मार्ग को उसी प्रकार दुर्गम बतलाते हैं । बौद्ध दर्शन के प्रसिद्ध ग्रन्थ धम्मपद से मिलाइये. ' अप्पमत्तो मत्तेसु सुसेसु बहु जागरो । अबलस्सं व सीवस्सो हिन्वा याति सुमेधसो || धम्मपद २९ प्रमादी लोगों में अप्रमादी और ( अज्ञान की निद्रा में ) सोते हुए लोगों में जागरणशील बुद्धिमान मनुष्य दुर्बल घोड़े से तेज घोड़े के समान आगे बढ़ जाता है। / नत्थि जागरतो भयं. ३६ जागते हुए को भय नहीं होता । समभाव का साधक सर्वत्र अपने रूप का दर्शन करता है । विश्व के अनंत अनंत प्राणियों में अपनी छाया का दर्शन कर विषम भाव से रहित हो विचरण करता है । सम्वतो विरते ते सन्तो परिणिबुडे । सन्तो विष्पमुप्पा सभ्यत्थेषु समं चरे ॥ - इसिभा. अ. १८ १. आत्मानं रथिनं विद्धि शरीर रथमेव तु बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥ इन्द्रियाणि यानाहुर्विषयस्तेषु गोचरान् । आरमेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्ते लाहुर्मनीषिणः ॥ यजुर्वेदीय कठोपनिषद Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "इसिभासियाई" सूत्रपरिचय मिलाइयेयस्तु सर्वाणि भूसाभ्यारमन्येवानुपश्यति । सर्वभूतेषु 'चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥ -ईशोपनिषत् ६ जो समस्त प्राणियों को अपने में और अपने को समस्त प्राणियों में देखता है, वह उपयुक्त एकात्मदर्शन के द्वारा किसी को घृणा या उपेक्षा का पात्र नहीं समझता है । अर्थात् वह सबके हित में आपना हित समझता है । बौद्ध दर्शन में आसान उपमं करवा न हनेय्य न घातये. - धम्मपद (१२६) सभी प्राणियों को अपने जैसा सभहकर किसी भी प्राणी की घात नहीं करना चाहिये । गीता भी कहती हैयोगस्थः कुरु कमाणि संग त्यक्त्वा धनंजय ! सिद्ध्यसिखोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते । -गीता श१९ हे अर्जुन : कर्म फल की आसक्ति छोड़कर सिद्धि और असिद्धि में समबुद्धि रखकर और योग में स्थित होकर कर्म करो ! क्योंकि उपयुक्त समत्व भाव ही योग कहा जाता है। ___ सत्य ही विश्व का परित्राता है । साधक अविश्वास की भूमि असत्य से दूर रहे। देव नारद अर्हतर्षि कहते हैं आत्म-शान्ति का गवेषक साधक त्रियोग और त्रिकरण द्वारा असल्य का परिहार करे मुसावादं तिविहं तिविहेण णेब बूया णभासए रितियं सोयवलक्षण ।। -इसिभा० अ. मिलाइये-ऋग्वेद में ऋत सत्य को शान्ति का स्रोत बताया है तस्य हि शुरुषः सन्ति पूर्वीसस्य धीतिजिनानि हन्ति । ऋतस्य श्लोको वधिरा ततई, कर्णा बुधानः शुचमान आयोः । ऋतस्य व्हा धरणानि सन्ति. पुरूणि चन्द्रा वपुषे वपूंषि । ऋतेन दीर्घमिषणन्त पृक्ष. ऋतेन गाव ऋतमा वियेशुः । - ऋग्वेद १२३०९-६ त अनेक प्रकार की सुख शान्ति का स्रोत है। ऋत की भावमा पापों को नष्ट करती है। मनुष्य को उद्बोधित और प्रकाश देनेवाली ऋत की कीर्ति बहरे कानों में भी पहुंच चुकी है। ऋत की जड़ें सुदृढ़ है। विश्व के नाना रमणीय पदार्थों में ऋतमूर्तिमान हो रहा है। ऋत के आधार पर ही अन्नादि खाद्य पदार्थों की कामना की जाती है। ऋत के कारण ही सूर्य-रश्मियां जल में प्रविष्ट हो उसको ऊपर ले जाती है। । सा मा सत्योक्तिः परिपातु विश्वतः । - ऋग्वेद १०॥३७२ सत्य भाषण द्वारा ही मैं अपने आपको सब चुराइयों से बचा सकता हूं। । सत्य का द्रष्टा ब्रह्मतेज को प्राप्त करता है । वह आत्मा की शुद्ध ज्योति है । समस्त तपः साधनाओं में ब्रह्मचर्य उत्तम तप है। ऋषिभाषित सूत्र में बताया गया हे ब्रह्मचर्य स्वयं एक उपधान तप है । वैदिक धारा के अमृत स्रोत १. तयेसु वा उत्तम वम्भनेरं -सूत्रकृतांग, वीरस्तुति इतिभासियाई अ. १ गा, १० ब्रह्मचारी अन घाजद् विभर्ति. तस्मिन् देवा अधिविश्वे समेताः। - अथर्व ११०५।२४ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भारियाई अथर्ववेद में कहा गया है-ब्रह्मचारी अस्म ( समष्टि रूप सन्म अथवा ज्ञान ) धारण करता है। उसमें समस्त देवता ओतप्रोत होते हैं। __ आचार्य भी ब्रह्मचर्य के द्वारा ही ब्रह्मचारियों को अपने शिक्षण और निरीक्षण में रखने की योग्यता और क्षमता का सम्पादन करता है । सत्य और संयत जीवन से रहनवाला मनुष्य ब्रह्मचर्य द्वारा ही अपनी इन्द्रियों को पुष्ट और कल्याणोन्मुख बनाने और उन्हें साधना की ओर प्रवृत्त करने में समर्थ होता है। ( दुःख के विनाश के लिये हमें अपने स्वरूप का ज्ञान करना होगा । मैं कौन हूं? मेरा स्वरूप क्या है। यह शरीर और ये इन्द्रियां क्या मेरा स्वरूप है ? कूकर और शूकर के रूप में भटकना, रोना और चीखना क्या मेरा खरूप है ! वज्जिय पुत्र अर्हतर्षि साधक को प्रेरणा देते हैं, अज्ञान ही दुःख का मूल हेतु है । सिंह की भांति अपने स्वरूप का ज्ञान करे और कूकर और शूक्रर के रूप में आत्मस्वरूप को भुलानेवाली कमों की शंखला को तोड़ फेंको। ऋग्वेद का अन्तद्रष्टा ऋषि कहता है मैं कौन हूं। मैं स्वयं इन्द्र हूं। मेरी पराजय नहीं हो सकती । मुझ में अनंत शक्ति है । रोम और धीखना मेरा सभाप नही है। . जो अपने स्वरूप को भूलकर पर रूप में आसक्त होता है वह अपने स्वरूप का विनाश करता है और अपने खरूप को भूलानेवाला अन्धकार में प्रवेश करता है । जिसने अपने स्वरूप का विस्मरण किया है वही वैषयिक पदार्थों में आनंद की अनुभूति करता है। आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति में वैषयिक आनंद बाधक है इसीलिये विचारकों ने साधक को वासना और उसके प्रलोभनों को दूर रहने का परामर्श दिया है। पल्कक चीरी अहंतर्षि कहते हैं:-हे पुरुष ! तू स्त्रीवृन्द की संसक्ति से दूर रह और अपना अबन्धु न बन । नारी में आसक्त अपने आपका शत्रु होता है। अतः जितना भी संभव है इस मन की बासना से युद्ध करो, विजयी बनों । कठोपनिषद के अतिर्षि कहते हैं-मूद लोग ही वाय विषयों के पीछे लगे रहते हैं । वे मृत्यु-अर्थात् अनात्मा के विस्तृत जाल में फंस जाते हैं, किन्तु विवेकी लोग अमृतत्व को जानकर अध्रुव अनित्य पदार्थों में नित्यत्त्व की कामना नहीं करते हैं। ___महाकवि भारवि अपने प्रसिद्ध काव्य किरातार्जुनीय में लिखते हैं-यौवन की शोभाएं शरद ऋतु के मेघ की छाया के समान चंचल होती हैं। इन्द्रियों के विषय भी केवल तत्काल रमणीय होते हैं और अन्त में दुःख देनेवाले होते हैं। १. आचार्यों ब्रह्मचर्ये ब्रह्मचारिणमिच्छते। -अथर्च. ११५.१७ २. इन्द्रो ह अयचर्यण देवेन्यः खराभरात् । - २२।५।१६ ३. दुक्खमूलं च संसारे अण्माण समनि सिंगारित्र सरूपसि इण कम्माणि मृन्द्रतो। - इसिमारियाई अ. श८ ४. अहमिन्द्रो न पराजिये। - ऋग्वेद १०४५४५ ५. असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसा घृताः । तास्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः॥ - यजु, ४०३ इसिभासियाई अध्ययन अ, ६ गा.३ ७. पराचः कामाननुयन्ति बाला स्ते मृत्योर्यान्ति विततस्य पाशम् । अथ धीरा अभूतत्वं विदित्वा. ध्रुवमधुवेविह न प्रार्थयन्ते ॥ - कठोपनिषद २।११२ शरदम्धुधरच्छाया गत्त्रयों यौवनश्रियः । आपातरम्या विषयाः पर्यन्तपरितापिनः ॥ - किरात १११२ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "इसि भासियाई" सूत्रपरिचय २९ परम शान्ति ही निर्वाण है। उस परम शान्ति को जाने के लिये हर मुमुक्षु आत्मा प्रयत्नशील है । तप और संयम की साधना के द्वारा आत्मा कर्म क्षय करता है तब वह भब परम्परा को समाप्त कर निर्वाण को प्राप्त करता है । कहते हैं ह वत्तिक्खए दीवो जहा चयति संतति । मायाण बन्धरोहम्मितया भव संतति ॥ जैसे तेल और बाती के क्षय से आदान- कर्मों का ग्रहण और बन्ध का यहां निर्माण को दीप निर्वाण से उपमित किया गया है। बौद्ध दर्शन भी दीप निर्वाण से आत्म निर्वाण को. उपमित करता है, पर दोनों उपमाओं में उतना ही विभेद हैं जितना कि जैन और बौद्ध दर्शन में । जैनदर्शन दीप कलिका की सन्तति रूप भव-परम्परा को मानता है । उसके क्षय से आत्मा की शुद्ध स्थिति की प्राप्ति स्वीकार करता है जबकि बौद्ध दर्शन वासना की संतति ( परम्परा ) के क्षय के साथ आत्मा का भी क्षय मान लेता है। जोकि अत्यन्त कारुणिक अन्त है । जब आत्मा ही समाप्त हो गया तब इतनी साधना किसलिये ? यह तो वैसा हुआ कि रोग को मिटाने चले, पर रोग मिटा और उसी क्षण रोगी भी चल बसा। ऐसी चिकित्सा क्या मूल्य रखती है । महाकवि अश्वघोष काव्यात्मक शैली में दीपनिर्वाण से आत्मनिर्माण को उपमित करते हैं दीपक जब निर्माण प्राप्त करता है तो न वह ऊपर जाता है, न नीचे जाता है । न दिशा में जाता है, न विदिशा में | स्नेह के क्षय से केवल शान्ति को प्राप्त करता हैं, ऐसे ही निर्वाण प्राप्त आत्मा न पृथ्वी पर आता है न आकाश में, न वह दिशा में जाता हैं न विदिशा में । क्लेश क्षय होने पर केवल शान्ति प्राप्त करता' है । - इसिभा. म. ३१६ १. जैन दर्शन ने कहा है निर्वाण के बाद आत्मा शुद्ध स्थिति में लोकाय पर स्थित रहता है । उस निर्माण प्राप्त करने के लिये एक प्रमुख साधन है सम्यग्दर्शन । तत्य-प्राप्ति के लिये सर्वप्रथम उसके स्वरूप का ज्ञान होना आवश्यक है । वस्तु के स्वरूप पर निश्चित श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन की तीन प्रकार से ब्याख्या की गई हैं | प्रथम व्याख्या के अनुसार सुदेव सुगुरु और सुधर्म पर श्रद्धा रखना ही सम्यग्दर्शन है । २. ३. ४. दीपक दीपकलिका रूप संतति को समाप्त कर देता है। उसी प्रकार आत्मा अवरोध करके मय परम्परा को क्षय करता है । ज्ञान की प्रथम सीढ़ी तक यह व्याख्या ठीक हैं किन्तु जब विचार चर्चा आगे बढ़ती है, तब यह व्याख्या कुछ अपूर्ण सी रह जाती है। यदि देव गुरु धर्म पर श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है तो जो समस्त विकारों पर विजय पाकर जो अरिहन्त बन चुके हैं उनके लिये देव कौन हैं, उनके गुरु कौन हैं, और उनका धर्म क्या है । क्योंकि ये स्वयं ही देव स्वरूप हैं । उनका ज्ञान स्वयं के लिये गुरु तुल्य हैं और उनकी वाणी ही धर्म है । अतः दूसरी व्याख्या आती दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिर्श न काचित् विदिर्श न कांचित् क्षयात्केवलमेति शान्तिम् ॥ तथाकृते निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न कचित् विदिर्श न कांचित्, क्लेशयात् केवलमेति शान्तिम् ॥ तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्या लोकान्तात् । - तस्वार्थ अ. १०1५ तार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥ - तत्वार्थ सूत्र अ. १-२ या देवे देवता बुद्धि गुरौ च गुरुता मतिः । धर्मे च धर्मधीः शुद्धा सा सम्यक्त्वमिदमुच्यते - अश्वघोष, बुद्धचरित - आ. हेमचन्द्र योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई है। तत्वों का स्वरूप दर्शन कर उसके प्रति अचल आस्था रखना ही सम्यग्दर्शन है। चैतन्य का स्वरूप क्या है यह भेद विज्ञान पाकर पदार्थों का खरूप दर्शन करना सम्यग्दर्शन है । पदार्थ विज्ञान रूप सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के माव ही मिथ्याच्चान सम्यग्ज्ञान के रूप रूप में परिणत होता है। भगवतीसूत्र में आचार्य सुधर्मास्वामी सम्यक्त्व की परिभाषा करते हुए फरमाते हैं कि वही सत्य है जो जिनेश्वर देव ने प्रतिपादित किया है और ऐसा श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। तत्वार्थसूत्रकार आचार्य उमास्वाति सम्यग्दर्शन के सम्बन्ध में लिखते है-सम्यग्दृष्टि का ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान होता है । अतः आप तीनों ज्ञान ( मतिश्रुतावधि ) अज्ञान भी होते हैं, क्योंकि वे मिथ्यात्व दशा में भी पाये जाते हैं। यह तत्व रुचि रूप सम्यग्दर्शन भी एक स्थान पर जाकर सीमित हो जाता है । सिद्ध म्वरूप में स्थित आत्मा तत्व रुचिका कोई सम्बन्ध ही नहीं है। यद्यपि उनके अनंत ज्ञान में विश्व के समस्त पदार्थ-साध समस्त पर्यायों के साथ प्रतिमासित होते हैं फिर भी सिद्ध प्रभु जड़ चैतन्यादि तत्वों का लक्ष्यपूर्वक पार्थक्व नहीं करते । अतः तत्वार्थ श्रद्धात्मक सम्यक्त्व भी सिद्ध स्थिति में उतनी सष्टता के साथ प्रतिमा सित नहीं होती है । अतः आचार्यों ने एक अन्तिम व्याख्या और दी है:-खात्मोपलब्धि रूप सम्यक्त्व । आत्मा का शुद्ध खरूप ही सम्यक्त्व है और वह सम्यक्त्व सिद्धात्माओं में भी स्पष्ट रूप से प्रतिभासित है । __इसिमासियाई सूत्र में महाकाश्यप अंइतार्थ सम्यक्त्व और ज्ञान की उपादयता बताते हुए कहते हैं-जैसे अमि और पवन के प्रयोग से स्वर्ण विशुद्ध हो जाता है वैसे ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के द्वारा युक्त आत्मा पाए से विशुद्ध होता है। सम्यग्दर्शन की उपादेयता जैनदर्शन में ही नहीं अजैन दर्शनों में भी स्वीकार की गई है। हिन्दु धर्म के सामाजिक विधि नियमों के प्रणेता महर्षिमनु मनुस्मृति में सम्यग्दर्शन के सम्बन्ध में लिखते हैं : सम्यग्दर्शन से सम्पन्न आत्मा कर्म से बद्ध नहीं होता है और दर्शन से विरहित आत्मा संसार को प्राप्त करता है। सम्यग्दर्शन आत्मदर्शन का वह प्रकाश है जिसके प्राप्त होने पर आत्मा स्व और पर का त्रिवेक करता है । विचार-जगत् में वह खुले दिमाग के साथ प्रवेश करता है। उसके लिये अन्य दर्शन भी स्वदर्शन है। जो हंस बुद्धि को लेकर चलता है उसके लिये सर्वत्र दूध है, क्योंकि पानी को उसकी चंचु दूर कर देती है । १. जीवादि सदहर्ण समत्तत्वमापणो संतु। दुरभिणिवेस मुक्कं गाणं खु होदि रादि जम्हि ।।- द्रव्यसंग्रह गर. ४१ तमेव सच्च निसकं जंजिणेहिं पवेश्य। -भगवती मत्र. ३. सम्यग्दृष्टानं सम्यग्ज्ञान मिति नियमाः सिद्धम् । आद्यत्रयशानमज्ञानमपि भवति मिथ्यात्वसंयुतम् ॥ वाचकमुख्य उमावाति प्रशमरति प्रकरण। मति श्रुतावधयो विपर्ययश्च ।। -तत्वार्थ अ. १ ४. सम्मं च मोक्खत्रीय तंपुष भुयस्थसहहणावं । पसमाइ-लिंग-गम्म महायपरिणाम रूपे तु। - आ. देवगुप्त - नवतत्व प्रकरण. ५. इसिभासियाई अ. ६।२६ सम्यग्दर्शनसम्पनः कर्मभिर्न निबध्यते । दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते ॥ - मनुस्मृति अ. ६ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "इलिभासियाई" सूत्रपरिचय भाध्यकार जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण विशेषावश्यक भाष्य में लिखते हैं-पर समय ( सिद्धान्त) और स्वसमय दोनों ही सम्यग्दृष्टि आत्मा के लिन्य स्व समय ही है | जो मिय्यामतों का समूह सम्यक्त्व में उपकारी है वहा परसिद्धान्त भी सम्यक्त्त्री के लिये व समय है। इस प्रकार हम देखते हैं । भारतीय दर्शन की तीनों धाराओं के विचार सूत्रों में बहुत कुछ साम्य है। उनके दार्शनिक तथ्य कहीं साम्य रखते हैं तो एक स्थान पर जाकर अलग भी हो जाते हैं। यहां उनके साम्य वैषम्य का आंशिक दिग्दर्शन कराया गया है। ___ऋषिभाषितपत्र की भाषा इसिभासियाई मूत्र की रचना पद्धति "त" श्रुति प्रधान है। संस्कृत तथा' शब्द का प्राकृत में तहारूप होता है । किन्तु जिस प्राकृत पर शौरसेनी और पैशाची की छाया है उसमें हकार श्रुति के स्थान पर तवर्ग की श्रुति आती है । संस्कृत तथा' को वे 'तधा' बोलेंगे । प्राकृत शब्द उन तमाम प्राचीन भाषाओं के लिये प्रयुक्त होता है जो जन साधारण में संस्कृत के स्थान पर योली जाती थी । हा प्रान्त की अपनी भाषा थी और उनमें थोड़ा कुछ अन्तर अवश्य था । आज के प्राकृत साहित्य में जो विमेद दृष्टिगोचर होता है, उसमें प्रान्तीय भाषाओं की छाया है। शैलिमेद् प्रान्तीय भेद पर आधारित है। महाराष्ट्र में बोली जानेवाली आर्ष माषा महाराष्ट्रीय प्राकृत थी, तो आगरा के आसपास में बोली जानेवाली प्राकृत शौरसेनी कहलाती थी । स्थल की दूरी ने भाषा में बहुत बड़ा विमेद खड़ा कर दिया है और यह स्वाभाविक भी है। प्राकृत में यधपि सबका समावेश हो जाता है। फिर भी उनकी प्रकृति में अन्तर अवश्य है। मूल आगम में जिस प्राकृत का व्यवहार हुआ है उसमें मागधी भाषा का प्राधान्य है । इसीलिये उसे अर्धमागधी कहा जाता है और अधमागधी की व्याख्या ही यह है कि जिसमें मगध प्रान्त और उसके निकटवर्ती प्रान्तीय भाषाओं के शब्दों का समावेश हो । खयं मागधी और अर्थ मागधी में भी कुछ अन्तर है । जिस सूत्र की रचना जिस प्रान्तीय भाषा विशेष में हुई है उसकी रचना पद्धति में तत् तत् प्रान्तीय भाषा का बहुत कुछ हाचं रहा है। इसीलिये आचारांग सूत्र की भाषा में गठन जो सुदृढ़ता है और अर्थगांभीर्य है हर उत्तरवती सूत्र कृतांग आदि आगमों में नहीं पाया जाता है। श्रुत परम्परा के अनुसार समस्त आगमों के अर्थ-प्रणेता भगवान महावीर हैं और उनकी शब्द-रचना गणधर देव करते हैं । विशेषावश्यक भाष्य में आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण इसके लिये सुन्दर रूपक देते हैं तप नियम और ज्ञान रूप वृक्ष पर आरुद अनंत ज्ञानी केवटी प्रभु भव्यात्माओं के बोध के लिये ज्ञानरूप फूलों की वृष्टि करते हैं। गणधरदेव उन ज्ञान युष्पों को बुद्धिरूप पट में ग्रहण करके तीर्थकर माषित वाणी को प्रबचन रूप में अथित करते हैं। वर्तमान द्वादशांगी की शब्द रचना आचार्य सुधर्म द्वारा हुई है । किन्तु १. परसमओ उभयं व सम्मदिद्रिस्स ससमओ जे पं । तो सबज्यणाई ससमयवतम् निययाई॥ मिच्छतमयसमूह समन जं च तदुवगारम्मि । वहद पर सिद्धूतो तो तस्स तओ ससिद्धतो।। -विशेषावश्यक भाष्य ६५३-५४ अस्थं भाराह अरहा गन्य गुन्थन्ति गणहरा णिउणा॥ ३. तब नियम माण स्व आरूदो केवली अमियनाणी। तो मुयइ नाणबुद्धि भविय जण विबोहणलाए । तं बुद्धिमएण पढेण गणहरा गिहिउण निरवसेर्स । तिस्थयर भासियाई गंधन्ति तओ पवयणट्टा ॥ " -विशेषाघदयक भाष्य ( नियुक्ति ) १०९४-९५ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई कुछकाल तक श्रुत परम्परा के द्वारा यह द्वादशांकी मौखिक रूप में रही। लिपिबद्ध न होने से विभिन्न प्रान्तों में बिचरनेवाले आचार्यों की प्रान्तीय भाषा के उच्चारण :१६ रूप से प्रवेश क म चादेवगिगि क्षमा श्रमण के नेतृत्व में आगम पुस्तकारूढ़ हुए तब यह उच्चारण भेद स्पष्ट हुआ। कहीं उच्चारणभेद के साथ शब्दभेद और अर्थभेद कमी सामने आया। किंतु उस समय उच्चारणभेद को उपेक्षित कर दिया और शब्दभेद और अर्थभेद को पाठान्तर के रूप में स्थान दिया गया । 'वितिय' विइय' में उसारण भेद है, 'दुइज' में शब्द भेद है। किन्तु पाठान्तर में कहीं शब्दभेद रहता है तो कहीं थोड़ा अर्थभेद भी आ जाता है। वल्लभी वाचना के समय जब बहुश्रुत मुनि एकत्रित हुए और समवेत आगम बाचना हुई तब विभिन्न आचार्यों के मुंह से विविध पाठ सामने आये । आचार्य देवर्द्धि गणि क्षमाश्रमण ने आगम के हार्द को परखते हुए बहुमत के आधार पर मूल पाठ तैयार किया और शेष को पाठान्तर के रूप में पृथक् स्थान दे दिया गया। आगम सम्पादन के गुरुतर कार्य को काफी विचार पूर्वक करने पर भी कहीं कहीं स्खलना रद्द गई। जैसे कि अन्तकृतांग सूत्र के तृतीय वर्ग के प्रथम छ: अध्यायों में नाग गाभाति के अनियसेन आदि छ कुमारों का विवाह चारित्र और निर्वाण प्राप्ति का निरूपण है। उनकी निर्वाण की कहानी समाप्त हो जाने के बाद तप और त्याग के उज्जवल नक्षत्र गजसुकुमार की कहानी प्रारंभ होती है और महारानी देवकी के प्रासाद में दो दो के रूप में छः मुनि प्रवेश करते हैं। ये छः मुनि कौन से हैं। प्रभु नेमिनाथ समाधान देते हुए महारानी देवकी से कहते हैं “ ये तेरे ही पुत्र है" किन्तु हरणग़मेषी के द्वारा सुलेसा को प्राप्त हुए है। निर्वाण प्राप्त मुनियों का फिर से जीवित होकर भिक्षा के लिये जाना अटपटा-सा लगता है । इतना ही नहीं, कहानी की सामायिकता समाप्त हो जाती है। अच्छा तो यह रहता कि उनका निर्वाण भी गजब दिखाया जाता। हां, तो आचार्य देवर्द्धिगणि ने पाठान्तरों को भी आदर का स्थान दिया । पाठान्तरकारों में आचार्य नागार्जुन का स्थान महत्व पूर्ण है। नंदीसूत्र के वृत्तिकार आचार्य हरिभद्र सूरि स्थविरायलि की व्याख्या करते हुए कहते हैं अब मैं श्री हिमवन्त आचार्य की स्तुति करता हूं। जिनके शिष्य श्री नागार्जुन नामक आचार्य हैं | आचारांग, सूयगडांग, उत्तराध्ययन आदि सूत्रों में पाठान्तर रूप पाठ उनके हैं । वे कालिक श्रुत की व्याख्या के पूर्णतः ज्ञाता थे और बहुत से पूों के पाठी थे। अतः उनके पाठ प्रामाणिक माने गये हैं। - आगमों का गहराई से अध्ययन करें तो ज्ञात होगा कि पाठान्तरों का महत्वपूर्ण स्थान है और पाठान्तर को सामने रखकर आगम की व्याख्या की जाय तो मैं समझता हूं काफी नये रहस्य ज्ञात हो सकेंगे। आज का ध्याख्याकार मूल पाठ को महत्व देकर उसी की व्याख्या करता है और पाठान्तरों को फुट नोट में देकर आगे चल पड़ता है। किन्तु पाठान्तरों की व्याख्या की भी आवश्यकता है। क्योंकि पाठान्तर मया अर्थ रखता है और उसके द्वारा सम्पूर्ण गाथा से नया अर्थ प्रस्फुटित होता है। पाठ भेद के साथ उच्चारण भेद को भी महत्व देना चाहिए | कई प्रतियों में त' श्रुति की प्रधानता है तो कई प्रतियों में 'ग' श्रुति की। सूत्र के लिये कहीं 'सुत्त' शब्द का प्रयोग हुआ है तो कहीं 'सुय' । कहीं च १. अन्तकृतांग सूत्र तृतीयवर्ग अ० सू. ७ कालिय सुय अणुजोगस धारए धारए य पुरवाण । हिमवन्त समासमणे बन्दे णागजणायरिये ।। मिउ-महव-सम्पने अणुपुलिं वायगसणं पत्ते । मोह-सुय-समायारे जागाजुण वायएवन्दे ॥ - श्री नंदीसूत्र स्त्रविरावलि गा. ३९ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sta "इसिभासियाई" सूत्रपरिचय आता है कहीं च. के लिये य आता है। इसिभासियाई सूत्र के पाठ संशोधन के लिये प्रसिद्ध आगम सेवी विद्वान मुनि श्री पुण्यविजयजी म० के द्वारा पाटन भण्डार की चार प्रतियां प्रास की गई थी। उनमें तीन प्रतियों में परिग्रह शब्द के लिये सर्वत्र परिग्रह ही आया है। यद्यपि प्राकृत व्याकरण के अनुसार परिग्रह के लिये परिम्गह शन्द आता है। पर हम कैसे मानले कि परिग्रह शब्द लिखने में वृद्ध लेखकों की स्खलना हुई है ? यदि प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों में ऐसे शब्द मिलते हैं तो फिर क्यों न उन्हें स्वीकार किया जाए? व्याकरण भाषा के पीछे चलता है । वह शासनं नहीं, अनुशासन करता है । महान वैयाकरण पाणिनीजी ने भी समस्स आर्ष रूपों को मान्यता दी है। उसके लिये पृथक् सूत्र बनाये हैं और जो आर्ष रूप से अष्टाध्यायी से सिद्ध नहीं होते उन्हें यार्तिककार वार्तिकों के द्वारा सिद्ध करते हैं। आगम में आत्मा के 'अप्पा' 'अत्ता' आया' आदि विभिन्न पर्याय मिलते हैं । ये तमाम उच्चारण भेद प्रान्तीय भाषा मेद को लेकर आये हैं। : इसिभासियाई सूत्र में आत्मा के लिये आता शब्द का ही अधिकतर प्रयोग हुआ है । इसमें तश्रुति की प्रधानता है । किस शब्द का उच्चारण. किस भाषा से अधिक साम्य रखता है, इस सबके लिये हमें सूत्रों का गहराई से अध्ययन करना होगा। इसके लिये सर्व प्रथम आगमों की तश्रुति प्रधान पाठों वाली एक प्रति तैयार करनी होगी। उसके लिये भाषाविज्ञान का गहरा अध्ययन अपेक्षित है । भाषा विज्ञान के आधार पर जो प्रतियां तैयार होगी वे भाषाविदों के लिये भी काफी खोजपूर्ण सामग्री प्रदान करेगी। इसिमासियाई सूत्र की रचना पद्धति - इसिभासियाई सूच के मूल बक्ता अति हैं जो मान मिगत भगवान पापना और भगवान महावीर के शासन में हुए हैं। अतिषियों की संख्या पैंतालिस हैं और उन्हीं के प्रवचन पैंतालीस अध्ययनों के रूप में संकलित है । इन अध्ययनों का संकलन कर्ता कौन है, यह निश्चित कहा नहीं जा सकता, क्योंकि कहीं पर भी संकलन का ने मुंह खोला ही नहीं है।"- .. प्रस्तुत सूत्र की रचना पद्धति बताती है कि इसका संकलन कर्ता एक अवश्य है । हर अध्ययन के प्रारंभ में अध्ययन में वर्णित विषय का मूल बताती हुई एक पंक्ति आती है। बाद में " अरहता इसिणा बुइत" आता है । अर्हतर्षि का प्रवचन तो इस के बाद शुरू होता है। किन्तु प्रश्न यह है कि इसके पहले की पंक्ति और "इसिणा बुइत" बोलने वाला कौन है। ____ जब हम मूल आगों का.अध्ययन करते हैं तो वहां ज्ञात होता है कि भागमों के तीन प्रवक्ता हैं। भगवान महावीर गणधर देव गौतम स्वामी से कहते हैं। उसके पहले आर्य जम्बु से आचार्य सुधर्मस्वामी कहते हैं। प्रस्तुत द्वादशांगी के मुख्यवक्ता सुधर्मस्वामी हैं। उन्हीं की याचना आज चाल है । आर्य जम्बु सुधर्मस्वामी से प्रश्न करते हैं-"आर्य, आपकी कृपा से मैंने इतने अंग सूत्रों का वर्णन सुन लिया है । प्रस्तुत अंग सूत्र में श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ फरमाया है ?" आर्य जम्बु के प्रश्न के समाधान में आचार्य सूत्र की व्याख्या करते हैं। ___आर्य जम्बु और आचार्य सुधर्म के पहले भी एक वक्ता आते हैं जो आचार्य सुधर्म के नगरी में आगमन का संदेश देते हैं । वर्तमान श्रुतपरम्परा के अनुसार सर्वप्रथम उरक्षेपक ( भूमिका निर्देशक ) आर्य देवार्ड गणि क्षमाश्रमण हैं। वर्तमान आगमों को स्थिर रूप देकर उन्हें संकलित और सम्पादित करनेवाले आर्य देवर्द्धि ही है। अन्य १. आता खेतं । इसि. अ. ५ आता जाणाह पनवे । इसि. अ.६ अन्तगद सूत्र प्रथम वर्ग भूमिका. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ..... - - -- .........-: इसि-भासियाई आगमों के मुख्य सम्पादक के रूप में आर्य देवर्द्धि गणि को हम मानते हैं तो इसिभासियाई सूत्र के संकलन कर्ता भी उन्हीं को मान सकते हैं । जब तक नई खोज एवं नया तम्य सामने न आए तब तक हमें इसी तथ्य को स्वीकार करके चलना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र की भाषा प्रजिल है । कुछएक खलों को छोड़कर प्रायः सर्वत्र सुघोधता है । एक अध्ययन में प्रायः एक विषय का निरूपण है । सभी गाथाएं अन्तर से अनुस्यूत है । विषय का प्रतिपादन हृदयस्पर्शी है। कुछ स्थल तो ऐसे हैं जो सीघे हृदय को स्पर्श कर जाते हैं और मन मस्तिष्क को झकझोर कर साधक की सुप्त चेतना को जाग्रत कर देते हैं। इसिभासियाई सूत्र का वर्तमान रूप काफी कांट छांट और तराश निखार के बाद इसिभासियाई सूत्र ने वर्समान रूप प्राप्त किया है। प्रत्येक अध्ययन के प्रारंभ में संक्षिप्त विषय प्रवेश दिया गया है जो अध्ययन में वर्णित विषय की ओर संकेत करता है। फिर संशोधित मूल पाठ दिया गया है। फिर मूलस्पर्शी अर्थ आता है | उसके नीचे गुजराती अनुवाद भी दे दिया गया है, क्योंकि गुजरातीभाषी माइयों की मांग थी कि गुजराती अनुवाद के अभाव में गुजराती समाज के लिये उपयोगी न हो सकेगा। अतः सार्वजनीन उपयोगिता को लक्ष्य में रखकर गुजराती अनुवाद देने की बात भी स्वीकार कर ली गई। गुजराती अनुवाद के बाद हिन्दी विवेचन दिया गया है, जिसमें मूल के हार्द को स्पष्ट करने की चेष्टा की गई है। उसके अभाव में केवल मूलस्पर्शी अर्थ पाठकों की जिज्ञासा को पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर सकता था। चन के पश्चात संस्कृत टीका को स्थान दिया गया है। टीका का अर्थ प्रायः मूलस्पर्शी अर्थ से साम्य रखता है, अतः उसका अनुबाद नहीं दिया गया है । गतार्थ कहकर आगे बढ़ गया हूं। जहां मूलस्पर्शी अनुयाद और संस्कृत टीकाकार के अभिप्राय भिन्न पड़े हैं वहां टीका के साथ अर्थ भी दे दिया गया है। इसके साथ ही डाक्टर शुकिंग की टिप्पणियों को भी स्थान दिया गया है। डा. शुनिंग की टिप्पणियां कहीं कहीं बहुत महत्वपूर्ण बन गई है, कहीं कहीं उन्होंने सूत्रकार की भूल की ओर भी इंगित किया है। जहां कुछ पाठ ही छूट गया है। प्रबन्ध रचना की त्रुटि एवं छन्दो-भंग आदि के लिये अनेक स्थानों पर उन्होंने संकेत दिया है । प्रायः टीकाकार टिप्पणीकार और हम एकमत हैं, कहीं टीकाकार से मैं अलग हो गया हूं और कहीं कहीं तो हम तीनों तीन रास्ते पर हो गये हैं । टीकाकार बाल्ड लीडट है और टिप्पणीकार डाक्टर शुनिंग है । जैसे कि मैं पहले लिख आया हूँ टीका संक्षिप्त है अतः समी स्थलों पर नहीं दी गई है। टिप्पणी मी आवश्यक स्थलों पर दी गई है। प्रस्तुत सूत्र के अनुवाद एवं विवेचन में काफी सावधानी रखी गई है । सत्य भूत होकर अहंतर्षि के विचारों को स्पष्ट करने की चेष्टा की गई है। उसमें कहां तक सफलता मिली है यह निर्णय आपके (पाठकों) ऊपर अड़ता हूं। स्वातंत्र्य दिन १५ आगस्त १९६१ मनोहर मुनि राजगढ जि.धार करन का वध की १. देखिये तृतीय अध्ययन, Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभाषितानि-प्रतियों का परिचय प्राप्ति की कहानी इन्दौर से नम्बई आते हुए भांडुप में सुनावक श्री मणीभाई गांधी जी ने मुझे ऋषिभाषित की एक प्रति दी। यह मेरा ऋषिमाषित से पहला परिचय था। प्रथम दृष्टि में ही मैं कुछ पन्ने उलट गया। कुछ गाथाएं देखी । मन को गहरा आकर्षण हुआ और अनुवाद की प्रेरणा भी जगी । तीन दिन के बाद ही अनुवाद चल पड़ा । नया नया विषय था । पाठ भी कुछ दुरूह लगे, पर मन का उत्साह उन सबसे ऊपर था । इस दुरूहता की कहानी विद्वानों के समक्ष रखी तो पं० खेचरदासजी और पं० दलसुखभाई के सुझाव आये कि अन्य प्रतियों से पाठ संशोधन करें । पर प्रश्च तो प्रतियों की प्रासि का था। अहमदाबाद में प्रसिद्ध आगम सेवी विद्वान् मुनि श्री पं० पुण्य विजयजी म. से पत्रपरिचय स्थापित किया । उत्तर संतोषपद था व उन्होंने हस्तलिखिन प्रतियों की उपलब्धि में सहयोगी होने की कामना प्रकट की। मेग अनुवाद कार्य चलता रहा । प्रतियों की उपलब्धि के लिये अहमदाबाद से फिर संपर्क स्थापित किया पर अहमदाबाद मौन था ! करीष दाई महीनों की लम्बी प्रतीक्षा के बाद पत्र आया कि पाटण से ऋषिभाषित की चार प्रतियां आगई हैं और कुछ दिनों में वे प्रतियां मेरे हाथ में थीं। पाठ संशोधन हाथ में लिया । पर इस दिशा में पहला ही प्रयास था । प्राचीन लिपि के पुराने मोड़, पडिमात्राएं सब कुछ मेरे लिये नये ही थे, फिर भी प्रारंभिक कुछ कठिनाइयों के बाद प्राचीन लिपि से दोस्ती होगई और संशोधन का काम चल पड़ा। इस कार्य में प्रियवक्ता पं० विनयचन्द्रजी म. और सौभाग्यमलजी जैन कोट का सहयोग भूलाया नहीं जा सकता। प्रतियों की कहानी चारों प्रतियों पाटण भंडार की हैं। उन पर मुद्रालेख भी अंकित है। पांचवी छपी हुई प्रति है। लम्बी प्रति - डा० २१६ । नं १००८३ इस प्रति को हम लम्बी प्रति के नाम से पहचानेंगे, क्योंकि यह प्रति अन्य प्रतियों में सर्वाधिक लम्बी है । इसकी लम्बाई १३॥ इंच है । पत्र संख्या १३ है । हर पन्ने में एक रंगीन चित्र है। अक्षर भरावदार और घुमावदार हैं और कुछ बड़े भी हैं । पड़ी मात्राओं में यह लिखी गई है पर यह प्रति काफी अशुद्ध है। कहीं पाठ के पाठ गायब हैं तो कहीं द्विरुक्तियां हैं । साथ ही इसका लेखक ग के द्वित्व को सदैव 'न' के रूप में लिखता है । 'परिमगइ' को हमेश परिग्रह के रूप में ही लिखता है। इसमें लेखक का नाम नहीं है साथ ही सन संवत् भी नहीं दिया गया है । लिखावट में प्राचीनता बोलती है । सन् संवत के अभाव में यह ठीक ठीक तो नहीं कहा जा सकता कि यह कितनी पुरानी है। फिर भी पत्रों को जीर्णता और लिपि के प्राचीन मोड़ इसकी पुरातनता सिद्ध करने में काफी हद तक सहायक होते हैं। छोटी प्रति . छोटी प्रति इसका हमनें यों नाम दिया कि यह प्रति पहली प्रति की अपेक्षा काफी छोटी है। प्रति आवरक पर परिचय यो मिलता है । अधिभाषित प्रकीर्णक, पत्र संख्या १३ । डा ४१ नं० ७५२ । इस पर पटण मंडार का मुद्रालेख है-श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमन्दिर, पाटण श्रीसंघनो जैन ज्ञान भंडार।। • यह प्रति प्रथम की अपेक्षा अधिक शुद्ध है। इसमें द्विरुक्कियों का अभाव है। शेष में प्रायः दोनों का स्वर मिल जाता है । लिपिकार ग के द्वित्व को प्र के रूप में ही लिखता है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस - भासियाई प्रति की प्राचीनता के सम्बन्ध में स्पष्ट प्रमाण मिलता है। प्रति के अन्त में लेखक ने संवत् दिया है- 'संवत् १४९५ वर्षे माघ वदि १२ भूमे लिखितं । छ ७४ ग्रंथ ८१५ | यह प्रति स्पष्ट रूप से ५०० वर्ष की प्राचीन सिद्ध होती है । "भूमे लिखित " स्पष्ट जरा स्पष्ट नहीं होता, पर संभवतः इसका अर्थ होगा भौमवार को लिखी गई है। मंगलवार को देशी भाषा में भौमवार भी कहा जाता है। ग्रंथाग्र ८१५... ३६ तीसरी प्रति इसके पत्रों की लम्बाई चौड़ाई, आकार प्रकार, दूसरी प्रति के अनुरूप है । आवरंक कबर पृष्ठ पर परिचर्य इस प्रकार है:- ऋषिभाषित पत्र संख्या १५ डा० १७६ नं० ६८७२ श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमंदिर पाटण, श्री वांडी पार्श्वनाथ जैन ज्ञान भंडार ।' द्वितीय प्रति पर श्री संघ नो जैन ज्ञान भंडार का मुद्रालेख है । प्रस्तुत प्रति चाड़ी पार्श्वनाथ के जैनज्ञान भंडार की है। प्रस्तुत प्रति प्रथम दो प्रतियों से अधिक शुद्ध है । द्विरुक्तियाँ नहीं जैसी हैं। अशुद्धियां मी अल्पतर हैं । प्रस्तुत प्रति अपेक्षाकृत मुद्रित प्रति के अधिक निकट है। लेखक "ग" के द्वित्व को कही द्वित् रूप में और कभी के रूप में लिखता है । प्रति की प्राचीनता प्राचीनता की दृष्टि से प्रस्तुत प्रति सर्वाधिक प्राचीन लगती है । यद्यपि इसके अन्त में सन् संवत् का अभाव है । अतः निश्चित रूप से तो नहीं कहा जा सकता कि यह कितनी पुरानी है फिर भी इसके पत्र सर्वाधिक जीर्ण जर्जर हैं। पत्रों के बीच में छेद भी हो गये हैं । यह सब मिलाकर कह सकते हैं प्रति का निर्माण काल ५०० वर्षों से अचीन तो नहीं है। साथ ही प्रस्तुत प्रति में प्रशस्ति के रूप में ऋषिभाषित की संग्रह गाथाएं भी दे रखी हैं। प्रथम दो प्रतियों में इसका अभाव है। ऋषिभाषित उद्धार प्रति आवरक पृष्ठ पर इसका परिचय यों दिया है। ऋषिभाषित उद्धार, पत्र संख्या ३ डा० ३६ नं० ६१८ मुद्रालेख श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमंदिर, पाटण - श्री संघनो जैन ज्ञान भंडार । : 1 यह पूरी प्रति नहीं है । जैसा कि उद्धार नाम से ही कुछ आभास मिल जाता है । उद्धार से यहां पुनरुद्धार का आशय नहीं है, अपितु ऋषिभाषित की सूक्ति स्वरूप मर्मार्थी गाथाओं का सुन्दर लघु संकलन है । संकलन में गाथाओं के अतिरिक्त पाठ भी लिया गया है। गाथाएं प्रारंभ में तो पूर्ण हैं, पर बीच बीच में कहीं कहीं गाथाओं के दो ही चरण लिये हैं। कहीं पदों को विरुद्ध क्रम में भी रख दिया गया हैं, पर सर्वत्र नहीं, एक दो स्थानों पर ही ऐसी भूल हुई हैं । प्रस्तुत प्रति की लेखन शैली से अनुमान होता है यह अति प्राचीन नहीं है । क्योंकि अक्षरों के मोड़ भी अचीन है । अक्षर भी वर्तमान देवनागरी के हैं, साथ ही इसमें पड़ी मात्राओं के प्रयोग नहीं है। जोकि प्राचीन प्रति की अपनी निजी विशेषता होती है । पछिमात्रा का मतलब है ए ऐ और ओ औ की मात्राएं अक्षर के ऊपर न लगाकर उसके पूर्व भाग में लगाई जाती हैं। जैसे कि "सोयव्यमेब" बदति को वे “सायन्त्रामय" वदति लिखते हैं । विशेष परिचय हस्त प्रतियों के फोटू स्वयं दे रहे हैं । मुद्रित प्रति प्रस्तुत प्रति रतलाम से प्रकाशित हुई है । सन् १९२७ में छपी है। श्री ऋषभदेव केशरीमलजी नामक संस्था की ओर से प्रकाशित की गई है। परन्तु संपादक का नाम नहीं है। सफाई आदि ठीक होने पर भी प्रति में 1 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गलवाभणापाभावणादयं वचपा मिलीमुनिगाहपतिरेममननिहालाणानावोदयं चवपमिणीमर मनिहंगरवारिक मेल नांगटाला सायद्यादी कामेगणपियवाहाधियवरमायामनावमरम्मवाहिनावाकणाघरे महिनाराजसाहानलमंदाक्षिय धिमीनादानावर चिणियबागिनादाना नावाश्यामनावीय आपानावरागमे गैनोमवानासनंगrgarh मरगयामामनिनिदवयागना मारर्दयाजनमुन शमामंडन नयमलिमरवाविरंबामनिशानन मा नाचियं गुणाचननामगिमामामामिलारा परिमारदमागमा मधेसमामगंधप्पादि। पारगयविनाश हिमनदानापण्यात वाकवामगं मनामनामगंभीश्चमी मधवासाकर्मयपपलपीरिय पयह्मणरिंदमानमवमिस सय प्रागगकारणाविषवा गाहकाचाहावाहा लामाजपस्दिामाजियादमिरा राश्यानायवेवाश्यामबम नहिपहिय काबिगिरथमर सामनीमाना मेमारडस्कमंदारमालामबदक्षिणायनकमार शुमीमालाममिनमे ममंकापाषामला पुगिनविरमताना चमिनसा अनुमान्दाधिगयाम मालागायुधिविनाविपनायानापमाननी" शगंक्षालनाानानामहानिमा विशमाक्षिमता वियाना सानिला घवे किनारममि संपिामायांग वेनेाणामना घिधिकारमा पनयमनराणामणियामाग्रुपलिया जिसमवर्नयामालनधारत्रीवधी अमरीश्रामाश्विनमंबादाऊबारिदिमाशवभगाहमरंबधिमंचाम्दाना निर्म मामिसंवादसायमा नाकम करकामाकिनबमातिारकानामगावपावनानगाव मपबिगो अजिययामहराधम कामासमाक्षारका मानाकमा मागणी नई मानसमियनना बदामरहिमाचीसगंध मानसिक समाप्रमं वजनजिकिपनशासमनिबंधारकाधामावालालवानावामनमायणी माउगो नैनामिनाचायकारणे साहाराटीयीकायमचमुधबागाशिना प्रयासमिष्ट्रिाऊमहापर्मजामा दिमघाश्रयमेधाविबाणेदरकाका गा महग्यमाविदयानिवारस्कर्मपदीयमंधनगदमियमनाकयकारण कमरेवनिवारिबाविसायादहमसीमागासविनियोका जारी सारेगामामामांगलिशादरिघातारासादयसबागे जानेमानेवरिये मेमोसमयनापूधादारिपुष्याण करनाबादिका मानिसहर्ष सन विपादेवनदाविपचतंना चिरडममागमतिविमि यातनामियाऽमम्मनाaniवनभएपवमापदिनभनिलिमkar मा ..२६ पाटण भंडार से प्रात | इलिभासियाइं सूत्र की प्राचीन हस्त लिखित प्रति समय १४९५ माघकृष्णा १२ मंगलबार; प्रति-लिपिकारने अन्नमै समग्र भी सचित कर दिया है जो कि पृष्ठ को अन्तिम पंक्ति में परिलक्षित हो रहा हैं। मीनों प्रतियाँ सुप्रसिद्ध आगमज्ञ पं. पुण्यविजयजी म. केसजन्य से प्राप्त है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमामि॥मा वामदगीमा तिमी दमदमा दर । पापा सिवानंनिधिर्व निशिद्ध का कारनामामा लरका नाद निविदा सपनाको मुददा निशिन्यासका माइलस्कपरियति एकाशवानामालक मनमा मकालमा समताविकासमा पसंतीस नावावभावया। रानावादावादीका एविश्वमागम नरम यशस मंत्रवादिश्वविद माननीय सामानागति कामहिम सायरी ॐ सन्तापि तदेनमा माया मानवतिया दाबाम वादा यादवादविवादात दशा अलनामा "मा जम्मनीनापनाय विजीबा कम गामि नाम दादागतिकचारि नीरका परिदिनमनि पारणा मरणाम याममा समे बसकड जमा रखतादात मामियंक रामग्मंपदा बायनासिकमाशिसंसार मिश्रादि मारमादिनमा कम्मा मेलामा लगानी लालफीतील फल पानी मंत्री मालम संसारमवादादमा दम (नाशिक या ममदित मिगारिक पत्रव् निविशतनि शतविद्यावदर्शन दिएसम्म रविन प्रतिविमानानामवाल सालाना बलिताखानाजीवा आशकतं माजाशी तयारी आदी सदगदी हवई वार मे सारमा गरानी के तामिमंडलमलमा मायामा मानिसंतान मारिन पाटण भंडार से प्राप्तः इसिमालियाई सूत्र की प्राचीन हस्तलिखित प्रति की एक छाया प्रतिलिपि समय विक्रम संवत् १४९३ ( अनुमानतः ) नमः सिमानामभयदानधर्ममा Famssammfaaaaaafafaram काका पदमा साब लागू एसा वादविवाद दावान शिसायबल सहितका सामा नत्र विमानानि विविना मात विद्या प्रासासमादाय Emmanena प गवावयामदतीवाक विधानादेशसमानता शिग ਰੁਸਿਹਰ ਵਿਜੋਗ मित्रता विनियामा मामा मामगावसमासाद्याग्नी ਚਰਬੂਸਗੁਫਿਸਰਬ ਏ ਬਾਬਾ ਮਿਸਲਸਲਿਸਰੀਨ ਪਰ ਸਲਵਾਰ ਚ ਪ ਸਾਹਿਤ ਵਿਭਾਗਸਫਗਵਿਤਸਾਸਾਜਿਰ गिनीराजकुमा मान फल फलमूलादत फलफलल लव समास हिमगिि फलानी/माबादसिंगमादाला श छम्माpिarasaaraamara मानवतावा दलितपना का नया दाहालय लमबा ਜਲੀ ਸਸਸਸ ਬੁਰ ਹਰਿ ਬਸਿਆ ਸਰਗਰਮ ਲਿਜਮ ਹਰਦਿਲਬਰੀਵਾਰ ਜਸਵ ਸਰਕ ਜਿਏਸਬੇਸਬਛਲੁਸਸਸ ਤੇ ਚੁਮੈਧ ਕੁਲਭੂਰਿਜਵਾਈ ਸਵਰਾਜ दिलाया sh गया बादल साकारत मालियान का गतिवि पाटण भंडार से प्राप्त । इसिभा सियाई की हस्त प्रतिकी एक छवि | समय १३४५ विक्रम संवत् । ( अनुमानतः ) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "इसिभासियाई" सूत्रपरिचय अशुद्धियों की बाढ़ है । इसीलिये अनुवाद की दुरूहता भी बढ़ गई है । जैसे कि अध्ययन ४ गा० १७ के अन्तिम चरण में "जेवा उटीम णाणिणों" पद आता है । उटीम का कोई अर्थ नहीं है । अन्य प्रतियों में उटीम के स्थान पर 'उसम' शब्द है जोकि ठीक अर्थ देता है। फिर भी अध्ययन, गाथा संख्या आदि सभी व्यवस्थित है। प्रस्तुत प्रति का स्तर प्राकृत व्याकरण के अधिक निकट है। 'अमि' 'पुष्प' 'परिग्रह' आदि को 'अग्गि' 'पुप्फ 'परिग्गह' के रूप में रखा गया है जोकि प्राकृत व्याकरण से सहमत है। अन्य प्रतियों में विचित्र रूप मिलता है | अग्नि को 'अग्नि' लिखते हैं पुष्प का 'पुष्फ' रूप मिलता है । प्रस्तुत प्रति में पाठान्तर भी शब्द के साथ ही दे रखा है। किन्तु पाठान्तर प्रायः अन्य चार प्रतियों में देखा नहीं जाता है। . अन्त में संग्रहणी गाथाएं मिलती हैं जिनमें ४५ ऋषियों के नाम और त्रिषय क्रम भी है । उपसंहार में ऋषिभाषित का प्रामाण्य और देव नारद महंतर्षि का परिचय भी दिया गया है। जर्मन प्रति - प्रस्तुत प्रति जर्मन के गोटिजिनो से प्रकाशित हुई है। इसके दो खंड है । प्रथम भाग का सम्पादन डा. वाल्टर शुनिंग के हाथों से हुआ है । उसमें सर्व प्रथम जर्मनभाषा में इसिमासियाई सूत्र की भूमिका दी गई है। जिसमें बताया गया है कि यह सत्र कहां किस रूप में प्राप्त होता है किन किन आगमों में इसका उल्लेख आता है। उसमें डा. शुबिग् ऋषिमाषित सूत्र को बाइबल के उप विभाग गॉस्पेल से उपमित करते हैं। उसके बाद वे प्रस्तुत सूत्र के महत्व पूर्ण प्रश्नों पर विचार करते हैं । दस पृष्ठों की विस्तृत भूमिका में विभिन्न प्रक्षों की चर्चा की गई है । पश्चात् इसिमासियाई सूत्र का शुद्ध मूलपाठ दिया गया है । फुटनोट में पाठान्तर भी दिये गये हैं । शुद्ध पाठ के बाद प्रत्येक अध्ययन पर टिप्पणी दी गई है। द्वितीय खंड में संक्षिप्त भूमिका है, बाद में ऋषिभाषित की संक्षिप्त टीका भी दी गई है । द्वितीय खंड डॉ. वाल्ड स्मीडट के द्वारा सम्पादित है, संस्कृत टीका रोमन लिपि में है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद की कहानी ताज की नगरी आगरा में दर्शन शास्त्र के प्रौढ़ विद्वान श्रद्धेय कविरत्न उपाध्याय श्री अमरचन्द्र भी म० के पास जैन दर्शन के प्रौढ़ ग्रन्थ विशेषावश्यक माण्य एवं सन्मति तर्क का अध्ययन समास कर जब विदा होने लगे तन आशीर्वाद के स्वर में श्रद्धेय कवि रत्न श्री ने फरमाया ‘मुनि जी ! अध्ययन की एक सीमा तक तुम पहुंच गये हो, अब इस पल्लवित और पुष्पित करना तुम्हारा अपना काम है। इसके लिये तुम किसी आगम को चुनना, क्योंकि यह क्षेत्र अभी सूना पड़ा है।' तभी से दिल एक विचार अंकुरित हुआ था । एक आगम का अनुवाद तथा सम्पादन अभिनन ढंग से किया जाए । उस समय नन्दी सूत्र के सम्पादन का विचार दिमाग में लिये चल रहा था । उसके लिये कवि श्री के विद्वान् शिष्य श्री विजय मुनिजी शास्त्री की प्रेरणा भी थी। जब आगरा से इन्दौर आ रहे थे मार्य में श्रद्धेय स्वर्गीय पं० श्री नगिनचन्द्रजी म० ने कहा-" नन्दी सूत्र सुन्दर है, किन्तु उस पर अनेको व्याख्याएं प्रकाशित हो चुकी हैं। किसी नई कृति का सम्पादन हो तो सुन्दर रहेगा।" किन्तु उस समय मेरे पास कोई नई कृति थी ही नहीं, अतः उसके सम्पादन का प्रश्न ही नहीं था । जब हम गुरुदेव की सेवा में इन्दौर पहुँचे । उन्होंने भी आगम अनुवाद की योजना को पसंद किया। इसी बीच कोट संघ (बम्बई ) के उपप्रमुख सेठ मगनभाई कोट संघ की आग्रह भरी विनंती लेकर आये । उनके स्नेह भरे अनुरोध को स्वीकार कर प्रिय वक्ता पं० श्री विनयचन्द्र जी म. के साथ कोट चातुर्मास के लिये हम चल पड़े । जब बम्बई के उपनगर मांडुप में पहुंचे और वहां स्वाध्याय प्रेमी सेठ मणिलालभाई के द्वारा इसिभासियाई सूत्र (अषिभाषित सूत्र ) प्राप्त हुआ। उसका कुछ अंश देखा; मन बोल उठा काफी सुन्दर सूत्र है। उसका अनुवाद कर डाला जाए तो बहुत सुन्दर रहेगा। साहित्य भी नया है। मुमुक्षुओं के लिये उपयोगी रहेगा। इधर श्रद्धेय कवि श्री जी म० एवं पं० श्री नगीनचन्द्रजी म. दोनों की आज्ञा का पालन भी हो जाएगा। इस कार्य के लिये प्रियवक्ता श्री विनयचन्द्र जी म० की भी खास प्रेरणा रही। प्रेरणा के साथ सुन्दर सहयोग भी रहा। कोट चातुर्मास में यथपि काम का बोझ काफी था। प्रवचन देने के अतिरिक्त प्रिय वक्ता श्री के सार्वजनिक प्रवचनों का सम्पादन भी करना था। इधर दोहपर को अध्ययन भी कराना था। फिर भी अवकाश के क्षणों में सूत्र का अनुवाद तथा सम्पादन कार्य करता रहा । पाठ संशोधन के लिये पाटण भंडार की प्रतियां भी आई, फिर भी कठिनाइयां पूरी हल न हो सकी । इस बीच जैनदर्शन के प्रौद विद्वान् पं० दलसुखभाई भी आये, उन्हें भी अनुवाद कार्य बताया। उसे देख उन्होंने भी सन्तोष व्यक्त किया। जैनागमों के विशेषज्ञ पं० श्री बेचरदास जी के द्वारा ज्ञात हुआ कि जर्मनी में डॉक्टर शुजिंग ने इसिभासियाई सूत्र को काफी अन्वेषण पूर्वक भूमिका और टिप्पणियों के साथ प्रकाशित किया है । इसकी प्राप्ति के लिये प्रयत्न किया गया, किन्तु उसमें सफलता न मिली और चातुर्मास समाप्त हो गया। माटुंगा चातुर्मास में इसके लिये फिर से प्रयत्न किया और वाराणसी से पं० दलसुखभाई के द्वारा जर्मन प्रति आई। फिर तो माटुंगा संघ के मंत्री श्री नवनीत भाई ने चाय की एजेन्सी के द्वारा एक्सपोर्ट के साथ सीधे जर्मन से ही वह प्रति मंगवा दी। प्रोफेसर शुटिंग द्वारा सम्पादित यह प्रति काफी सुन्दर थी। इसके दो भाग हैं। प्रथम का परिचय इस प्रकार है। प्रारम्भ में तेरह पृष्ठों में खोजपूर्ण भूमिका दे रखी है । उसके बाद चालीस पृष्ठों में पाठ भेद के साथ इसिमासियाई सूत्र का मूल पाठ है । फिर चौवीस पृष्ठों में प्रत्येक अध्ययन पर संक्षिप्त टिप्पणियां दी गई हैं। AKAT १वे प्रवचन जीवन साधना के रूप में सम्मति प्रचारक संघ, बम्बई द्वारा प्रकाशित हो चुके हैं। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ "इसिभासियाह" सूत्रपरिचय दूसरे भाग में इसिमासियाई सूत्र पर संस्कृत टीका है। आगमों पर लिखी टीकाओं की भांति यह टीका भी संक्षिस है। हर गाथा पर टीका नहीं दी गई है। केवल क्लिष्ट गाथाओं की संस्कृत व्याख्या दी गई है । शेष को छोड़कर दिया गया है। इसे टीका की अपेक्षा संस्कृत अनुवाद कहना अधिक उपयुक्त होगा । द्वितीय भाग की भूमिका में बताया गया है ७७१२।१९५१ में आयोजित एक सभा में बोल्ड सीडट ने भाषण देते हुए कहा था 'इसिभासियाई' का मूल पाठ उपोदघात और संक्षिप्त टीका के साथ १९४२ में ' बॉल्युम के ' ४८९ से ५७६ में प्रकाशित हुआ है उसका अनुवाद भविष्य के लिये सुरक्षित रखा गया था । किन्तु बाद में उसका अनुवाद जर्मन भाषा में नहीं अपितु संस्कृत भाषा में किया गया है। ऐसा इसलिये किया गया कि भारतीय पाठक सूत्र के मूल पाठ से परिचित है। वे संस्कृत टीका के माध्यम से प्रस्तुत सूत्र का निकट परिचय प्राप्त कर सकते हैं। इसलिये प्रस्तुत सूत्र का अनुवाद जर्मन भाषा में न करके संस्कृत भाषा में दिया गया है और भारतीय शैली के अनुरूप उसका संक्षिप्त अनुवाद दिया गया है } जब यह पेरेग्राफ मैंने पढ़ा तो मेरा हृदय खिल उठा, कितना उदात्त दृष्टिकोण है । यह सूत्र भारतीय है, - इसलिये वे उसका अनुवाद भारतीय भाषा में दे रहे हैं, ताकि भारतीय जनता उसका उपयोग कर सके । समुद्र के उस तट पर बैठे वे पश्चिमी विचारक भारतीय जनता का जितना ख्याल रखते हैं, क्या भारतीय जनता भारतियों का उतना ख्याल रखती है ? आज तो हम भाषावाद और प्रान्तवाद के लिये झगड़ रहे हैं। कभी गुजराती और महाराष्ट्रीय लड़ते हैं | कमी मंगा और अगी जनता उकरती है । तो पंजाबियों को पंजाबी सुना चाहिये उसके लिये आमरण अनशन किया जाता है। हमारे मानस कितने संकुचित हैं । इस धर्म पंथ और सम्प्रदाय के लिये झगड़ते हैं। आज का धर्म दो विरोधियों के बीच कड़ी नहीं बन सकता । हो, उसके नाम पर झगड़ सकते हैं। एक इंग्लिश विचारक हमारी इस धार्मिक अंधता पर व्यंग कसता हुआ बोलता है- We have just enough religion to make us late hut not enough to make us love another. एक दूसरे से घृणा करने के लिये हमारे पास धर्म पर्याप्त है, किन्तु एक दूसरे से प्रेम करने के लिये धर्म नहीं है। हमारा पीतल भी सोना हैं और दूसरे का सोना भी पीतल है। यह हमारी संकुचित वृत्ति हमें कहां ले जाएगी ? आज हमारी यह हालत है कि यदि गुजराती में एक पुस्तक प्रकाशित होती है तो हिन्दी पाठक बोल उठते हैं यह तो गुजराती है हमारे किस काम की है । यही कहानी हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक की गुजराती माइयों के लिये हैं । जब दूसरे देश अन्तरिक्ष में पहुंच रहे हैं तब इस उपग्रह के युग में संकुचित घेरे में कब तक जीवित रहेंगे ! मैं बहुत दूर आ गया। हां, तो वह जर्मन प्रति मेरे हाथों में आई। अब एक समस्या और मेरे सामने आई, इसका अनुवाद कैसे करवाया जाय। इंग्लीस तो थोड़ी बहुत परिचित भी है, किन्तु जर्मन के लिये तो मैं एकदम अपरिचित था । अनुवाद आवश्यक था। अजन्ता इंटर नॅशनल के भाई जीतमजी संलेचा, सेठ नवनीत भाई सेक्रेटरी माटुंगा संघ (बम्बई ) तथा मूक सेवक प्रवीणचन्द्र भाई कोठारी के सुप्रयत्रों से अनुवाद कार्य में सफलता मिली । बम्बई स्थित इन्डो-जर्मन सोसायटी के द्वारा इंग्लिश अनुवाद होकर मेरे पास आया। जर्मन निवासियों द्वारा संचलित उस कम्पनी ने कहा यह पुस्तक जर्मन की है, अतः इसका अनुवाद चार्ज हम चालीस प्रतिशत कम लेंगे। इनका देश प्रेम भी आदर की वस्तु है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि मासियाई ï 'इंग्लिश का गुजराती अनुवाद एवं जर्मन प्रति से पाठ संशोधन एवं अन्य अनुवाद कार्य में माटुंगा के मूक सेयाशील श्री प्रवीणभाई कोठारी का अमूल्य सहयोग जो प्राप्त हुआ है उसे भी मैं भूल नहीं सकता । 96 अनुबाद होकर मेरे सामने आया तब तक १९५६ का माटुंगा चातुर्मास भी समास हो गया और हम इदौरकी ओर लौट पड़े। क्योंकि वहाँ श्रद्धेय गुरुदेव स्थविर-पद-विभूषित मंत्री श्री किशनलालजी महाराज अस्वस्थ थे । गुरुदेव के पवित्र दर्शनों के लिये हम चल पड़े । पर इसिमासियाई का कार्य अधूरा था ! हमने बम्बई छोड़ी, बम्बई का कान्दावादी संघ हमें नहीं छोड़ रहा था । बम्बई संघ के उपप्रमुख सेठ प्राणलाल माई, सेक्क्रेटरी सेठ गिरधर भाई आदि सभी का अनुरोध था कि अलग चातुर्मास कांदावाड़ी हो। कोट और माटुंगा में आपके चातुर्मास हो चुके अब कांदावाड़ी कैसे सुनी रह सकती है ? उनके आग्रह को ठेलते हुए आगे बढ़ते ही रहे और उनके प्रयत्न भी बढ़ते रहे। जब हम गुरुदेव के समीप इन्दौर पहुंचे वहां सेठ गिरधर माई, सेठ रविचन्द्र भाई, खेठ मगनमाई आदि चातुर्मास की प्रार्थना हेतु आ पहुंचे। उनके भक्ति मरे आग्रह को गुरुदेव टाल 'न सके और अपनी अस्वस्थता को भी उपेक्षित करके प्रखर सेवाशील पं० श्री नगिनचन्द्रजी म०, प्रिय वक्ता श्री विनयचन्द्रजी म० और इन पंक्तियों के लेखक को बम्बई चातुर्मास के लिये आज्ञा प्रदान की । जेंट की तपती दुपहरी और अन्य कठिनाइयों को सहते हुए बम्बई पहुंचे । बम्बई - वासियों ने स्नेहभरा स्वागत किया। जब सेक्रेटरी श्री गिरधर लाल भाई दफ्तरी ने प्रियवक्ता श्री विनय चन्द्र जी म० से बम्बई चातुर्मास के प्रवचन सम्पादन एवं प्रकाशन के लिये कहा तो महाराज श्री | कहा “प्रवचन पुस्तकें तो कोट और माटुंगा से प्रकाशित हो चुकी हैं, किन्तु श्री मनोहर मुनिजी ने तीन वर्ष के परिश्रम से जो इसिमासियाई सूत्र का अनुवाद एवं सम्पादन किया है उसको प्रकाशित करना चाहिये | समाज के लिये वह एक नई देन होगी ।" और कांदाबाड़ी संघ ने महाराज की प्रेरणा को सहर्ष शिरोधार्य कर लिया। प्रिय वक्ता म० की प्रेरणा एवं कांदावाड़ी बम्बई संघ के सरप्रयत्नों के फलस्वरूप इसिमासियाई जनता के हाथों में पहुंच रहा है । यद्यपि इसके प्रकाशन के लिये दर्शनज्ञ पं० श्री दलसुख भाई ने भी गवर्नमेण्ट द्वारा संचालित प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी द्वारा प्रकाशित करने की प्रेरणा की थी और सेठ मगनलाल भाई पी. दोशी ने सन्मति प्रचारक संघ के 'अन्तर्गत प्रकाशन करने का सुझाव भी दिया था । किन्तु बम्बई संघ को यह श्रेय मिलना था । प्रस्तुत सूत्र के प्रकाशन में सेठ प्रांणलाल भाई, इन्दरजी उपप्रमुख बम्बई ( कांदाबाड़ी ) संघ, सेठ गिरधरलाल भाई प्रमुख बम्बई संघ, एवं सेवाशील कार्यकर्ता सेठ छोटालाल भाई कामदार का भी सक्रिय सहयोग रहा है। साथ ही सन्मति प्रचारक संघ, हैद्राबाद के संस्थापक प्रसिद्ध वक्ता यति थीं. निर्मलकुमारजी 'विश्वबंधु' का भी सुन्दर सहयोग रहा है। प्रुफ संशोधन में सहयोगी श्री शान्तिमुनिजी म. ने और उसे लाने ले जाने में भाई गजानन शंकर चौहान ने जो सहयोग दिया उसे भी भुलाया नहीं जा सकता । विजयादशमी संवत २०२०, दि० २८ सितम्बर १९६३ विलापारला, बम्बई ' मुनि मनोहर "शास्त्री" "साहित्यरस" १ माटुंगा के प्रवचन "जीवन सौरभ" के रूप में हिन्दी और गुजराती में प्रकाशित है। I . | 1 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રાકથન આપણા સ્થાનકવાસી રામાજ માટે પૂ. મુનિ અને મહાસતીઓ જ આપણું એક માત્ર અવલંબન છે. પરન્તુ તેઓશ્રીને લાભ બારે માસ મળી શકતો નથી તેમજ બધા ગામને મળી શક્તો નથી. આ સંજોગોમાં તેઓશ્રીની ગેરહાજરીમાં ધર્મ સ્થાનકોમાં સ-સાહિત્યનું વાંચન અને મનન થાય તે ખાસ જરૂરી છે. ટેકામાં આપણા સમાજનાં મુખ્ય બે અલબને છે. એક પૂ. સાધુસાધ્વીજીઓ, બીજું છે શાસ્ત્ર, આમ છતાં બેદનો વિષય એ છે કે આજે આપણે આ બન્ને અવલંબને પ્રતિ આપણે ઉપેક્ષા સેવી રહ્યા છીએ. સ્થાનકવાસી સમાજમાં ઉચ્ચ કોટીના મુનિરાજોની, સંખ્યા ઓછી થતી રહી છે, તેમનું સ્થાન પૂરી શકે તેવાં મુનિરાજે દષ્ટિગોચર થતા નથી. સંખ્યાની દૃષ્ટિએ જોઈએ તો પણ મુનિરાજોની સંખ્યા ઓછી થતી જાય છે પ્રમાણમાં નવા દીક્ષિત મુનિરા ઓછા થાય છે. બીજી બાજુ આપણે ધાર્મિક પ્રવૃત્તિઓને નામે લાખો રૂપિઆ ખર્ચાએ છીએ, પરંતુ અભ્યાસશીલ અને ઉચ્ચ કોટીના સાહિત્ય અને સર્જન પાછળ ઉપેક્ષા સેવાતી હોય તેવું જણાય છે. અલબત્ત આજે સાહિત્ય પ્રકાશનના નામે હજારો રૂપીઆ ખર્ચાય છે, પરંતુ તેમાં અભ્યાસશીલ સાહિત્ય કક્કી શકાય તેવું સાહિત્ય ઘણા ઓછા પ્રમાણુમાં માલુમ પડશે. આ બન્ને બાબતો આપણું સમાજ માટે ચિંતાનો વિષય ગણાવી જોઈએ. આજના યુગે સાહિત્યનું મૂલ્ય ઘણું વધી જવા પામેલ છે. સાહિત્ય સમાજનું ઘડતર કરે છે. જે સમાજ પાસે સમૃદ્ધ સાહિત્ય હશે તે જ સમાજ ખરેખર શ્રીમંત છે. સમૃદ્ધિનો અર્થ માત્ર સંપત્તિ નથી. સંપત્તિ તે ચંચળ છે. તે તો આવે છે અને જાય છે. શાશ્વત સંપત્તિ તે સમૃદ્ધ રાહિલ્ય છે. જે સમાજ પાસે વિશાળ અને સમૃદ્ધ સાહિત્ય હશે તે સમાજ પોતાનું ગૌરવભર્યું સ્થાન ટકાવી શકશે. આપણું રસમાજ મુખ્યત્વે વ્યાપારી સમાજ હોઈ, તે જેટલું સંપત્તિનું મૂલ્યાંકન કરે છે તેટલું સાહિત્યનું મૂલ્યાંકન કરી શકેલ નથી. પરિણામે આપણો સમાજ અનુરૂપ ભવ્ય સાહિત્ય તૈયાર કરી શકેલ નથી. એટલું જ નહિ પરંતુ કેટલુંયે કિંમતી સાહિત્ય આપણા ભારોમાં વણસ્પર્ચે પડેલું છે. આમ છતાં કોઇ કોઇ મુનિરાજો અને વિદ્વાન સાહિત્યના સંશોધનના કાર્યમાં લાગેલા લેવામાં આવે છે તે આનંદનો વિષય છે. આવા મુનિરાજે અને વિદ્વાનોની પ્રવૃત્તિઓને આપણે પ્રોત્સાહન આપી વેગ આપવો જોઈએ અને સાહિત્યના સંશોધનમાં રસ વધે તેમ કરવું જોઇએ. “સિભાસિઆઈ " સૂત્રનું પ્રકાશન થવા પામેલ છે તે પણ ચિંતન, મનન અને સંપાદનનું જ પરિણામ છે. “સિભાસિઆઈ” જેવા આજે કેટલાય કિંમતી ગ્રંથો હજુ વણસ્પર્શા પડયા છે. આ બધા અમૂલ્ય ગ્રંથોને આપણે બહાર લાવવાની જરૂર છે, “ઈસિભાસિઆઇ” સૂત્રનું અનુવાદ અને સંપાદન ૫. મુનિ શ્રી મનોહરલાલજી મ. શાસ્ત્રી–સાહિત્યરને કરેલું છે. અત્યાર સુધીમાં આ ગ્રંથનો હિન્દી કે ગુજરાતી કોઈ પબુ ભાષામાં અનુવાદ થયો નથી. વિદ્વાન મુનિશ્રીએ સતત ત્રણ વર્ષ આ સૂત્રના પરિશીલન અને સંપાદનમાં ગાળ્યા અને પુષ્કળ પરિશ્રમને અંતે આ ગ્રંથનો અનુવાદ તૈયાર કર્યો. પં. શ્રી નગીનચંદજી મ. પ. મુનિ શ્રી વિનયચંદ્રમ, શ્રી મનોહર મુનિજી મ. ના સને ૧૯૬૦ના મંદાવાડી ઉપાશ્રયના ચાતુર્માસ દરમ્યાન આ સાહિત્ય અમારા જેવામાં આવ્યું. આ ગ્રંથમાં અનેક બાબત અંગે જે સરળ અને હૃદયસ્પર્શી ભાષામાં રજુઆત થઈ છે તે ખરેખર પ્રશંસા માગી લે તેવી છે. સમસ્ત સુખદુ:ખની જડ, સાધકની ર્તવ્ય દિશા, દુનિયાદારી માણસોના સ્વભાવનું વર્ણન અને વાસ્તવિક્તાનું દર્શન, ગૃહસ્થોના સંસર્ગનું પરિણામ કર્મોની પરંપરાનું હદયદ્રાવક ચિત્ર. આત્મભાવમાં રમણ કરનારની મનોદશા, વગેરે અનેક બાબતો આ ગ્રંથમાં આવરી લેવામાં આવે છે. આ બાબતે એટલી સચોટ રીતે રજુ કરવામાં આવી છે અને એટલી મધુર ભાષામાં કહેવામાં આવી છે કે તે આમ જનતા પણ સમજી શકે અને Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કર પ્રાકચન આબાલવૃદ્ધ સૌના હૃદયને સ્પર્શી શકે. આ ગ્રંથમાં રજુ થયેલ ભાખતો નાના મોટા સૌ કોઈના આત્માને ઉત્કર્ષ સાધવામાં સહાયક બની શકે તેવી છે. ગ્રંથની વિવેચનની ખુબીઓ અમારા હૃદયને પણ સ્પર્શી ગઈ અને તેથી અમો તે ગ્રંથ પ્રતિ ખૂષ ખૂબ આકર્ષાયા, આવો અમૂલ્ય ગ્રંથ આમ જનતા સમક્ષ લી તકે મુકાવો જોઈ એ અમ અોને લાગ્યું. વિદ્વાન મુનિશ્રીએ આટલી નાની ઉંમરમાં આ ગ્રંથના સંપાદનમાં કેટલો શ્રમ લીધો હશે, તેનો ખ્યાલ અમોને આ પુસ્તક જોતાં આવ્યો, આવા કિંમતી ગ્રંથનું સંપાદન કરીને, મહારાન્ત્રીએ સમાજ પર મહાન ઉપકાર કરેલ છે. અમોએ તુરત જ આ ગ્રંથનું પ્રકાશન કાર્ય રારૂ કર્યું, કાર્યની વિશાળતા અને પ્રેસની શિથિલતાને કારણે, તેના પ્રકાશનમાં ધાર્યા કરતાં વધારે વિલંબ થવા પામ્યો છે, પરન્તુ તેનું પ્રકાશન કાર્ય સંતોષકારક રીતે પાર પડયું અને આજે અમો એક કિંમતી ગ્રંથ સમાજ પાસે મૂકવા શક્તિમાન મન્યા છીએ તે માટે અમો ગૌરવ અનુભવીએ છીએ, પુસ્તક-પ્રકારશનની વ્યવસ્થામાં મુંબઈ કાંદાવાડી સંઘના ઉપપ્રમુખ ૧. પ્રાણલાલભાઈ ઈન્દરજી રંક સંઘના પ્રમુખ્ય સાલમા દોદર દફ્તરી અને મંત્રી શ્રી છોટાલાલભાઈ કામદારે ખૂબ જ શ્રમ લીધેલ છે તેની નોંધ આ તકે લઈએ છીએ. શ્રીમતી ગુલાબબેન નાનાદાસ શ્રી પ્રભાશંકર પોપટલાલભાઈ એ આ સૂત્રના પ્રકાશનમાં રૂ. ૫૦૩ની અને રૂા. ૫૦૦) એક ગૃહસ્થે સહાયતા આપેલ છે. શ્રીમતી શ્રાવિકા પ્રભાબેન ચુનિલાલ નરબૅરામ વેકરીવાળાએ અગાઉથી ૧૦૦ પુસ્તકોના ગ્રાહક થઈ રૂ. ૧૦૦૦૩ આપી પુસ્તક પ્રકાશનને વેગ આપેલ છે. આ ઉપરાંત અગાઉથી સંખ્યાબંધ ભાઈ બહેનોએ આ પુસ્તકના ગ્રાહક તરીકે નામ નોંધાવી અમોને પ્રોત્સાહન આપેલ છે તે માટે સૌનો આભાર માનીએ છીએ. પ્રકાશન કાર્યમાં ધાર્યા કરતાં વધારે વિલંબ થવા પામેલ છે અને અગાઉથી નોંધાયેલ ગ્રાહકોને ખુખ રાહુ જોવી પડેલ છે; આમ છતાં એક મહત્વનું પુસ્તક ગ્રાહક બંધુઓને આપી શક્યા છીએ તે માટે સંતોષ અનુભવીએ છીએ. છેલ્લે એટલું જ કહેવાનું રહે છે કે પુસ્તક કે ગ્રંથની લોકપ્રિયતા તેના સુંદર ગેટઅપ કે સુંદર છપાઈ પર નિર્ભર નથી, પરન્તુ તેનું વાંચન કેટલા પ્રમાણમાં જીવનને સ્પર્શી જાય છે અને કાયમી અસર મૂકતું જાય છે તે પર નિર્ભર છે, આ પુસ્તકનું મૂલ્યાંકન પણ તે જ રીતે કરવાનું અમો ગ્રાહકો પર છોડીને, વિરમીએ છીએ. તા. ૧-૮-૩ ૧૭૦, કુંદાવાડી, મુંબઈ ૪. લી. નમ્ર સેવકો વીચંદ સુખલાલ શાહ રમણીકલાલ કસ્તુરચંદ કોઠારી Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ. ५-१४ ,१५-४० भूमिका की विषयसूचि पंरन-मंत्री श्रीकिसनलालजी म. के जीवन की रंगीन रेखाएं "इसिभासियाई" सूत्रपरिचय अर्पण-पत्रिका इसिभासियाई सूत्र के मूल आवशॉ का छायाचित्र प्राकधन श्रीमनोहरमुनिजी म, एक परिचय आशीर्वाद भार अभिमत ८ ग्रंथविषयानुक्रम-सुचि अ. गा. पृष्ठ अ. मा. पृष्ठ १-प्रथम अध्ययनः सत्य श्रवण तरह उड जाती है। ४, १८, २२ श्रोतव्य के चार लक्षण । प्रमचर्य की सुदृढ धुरा श्रोतव्य के ग्रहण से प्राणी और ज्ञान दर्शन जैसे उपधानवान् बनता है। कुशल सारथिद्वारा शुध्द उपधान का लक्षण । १, १०, स्वरूप की प्राप्ति । ४, २३, २३ महानतों के ग्रहण से ५-पंचम अध्ययनः आई विजय संसार में अपुनरावर्तन , नमन करने वाला आस्मा २-द्वितीय अध्ययनः तु शान्त एवं भागम-लीन दुःख और उसके कारणों की होता है। ५, १३, व्याख्या । २, 1-२, ६-षष्ठ अध्ययन: काम-विजय चिमुक्ति के लिए साधक का निरंकुश विषयों में कर्तग्य । २, ६-२, ९-१० आसक्त भारुमा ज्ञान ३-तृतीय अध्ययनः कर्मलेप रूपी प्रग्रह से भ्रष्ट कर्म लेप का लक्षण । ३, १.५, मोह की आग बुमाने की होकर विनष्ट होता है। ६, १.५, २७-२९ अत्यंत कठिनता। ३, ९.११, १३-१५. स्वच्छन्द और विषय४-चतुर्थ अध्ययनः समत्व भाव लोलुप आत्मा अपने दुष्पशील व्यक्ति माया से भापका दुश्मन होता है। ३, ९.१०, २९-३० प्रतिच्छन्न रहते हैं। ४, १-२, १६-१७ . ७-सप्तम अध्ययनःप्रमाद जय मन, वाणी एवं कर्म की ३३ प्रमाद जन्म-मरण एकता जहां है वहीं साधुत्व है। ४, ५-६, १७-१८ अपने भ्रष्टाचार के प्रति का कारण है; भतः शानी को जानबुझ कर, दुर्लक्षित साधक कार्य में अप्रमत्त भविष्य में पश्चात्ताप करता है। ४, ९-१०, १९-२० रहना आवश्यक है। भच्छे, बुरे कर्मों को मारमा ८-अष्टम अध्ययन दुःखनाश ३५ ही जान सकता है। अभ्यन्तर दुःख के ग्रन्थिजाल को चोर या सन्त को वह स्वयं दुःखहेतु समझ कर उसका या सर्वज्ञानता है। ४, ५, २५ नाया करने के लिए संयम-पालम उल्लू की प्रशंसा और आवश्यक है उसीसे साधक कौवे की निंदा हवा की चिमुक्त होता है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. . गा. __ अ. गा. पृष्ठ ९-नवम अध्ययनः कर्म प्रयाद | १६-घोडश अध्ययनः इन्द्रिय-विजय ९० अन्म और कर्म एक इन्द्रियों का संयम संसार का कारण है दूसरे पर आधारित और उनका निगड है, जन्म परम्परा मोक्ष का कारण है। रोकने से कर्म-परम्परा १५-सप्तदश अध्ययनः “सा विद्या या विमुक्तये" ९३ रुक जाती है। १, १५, ३७ महाविद्या की प्राप्ति और कार्य । १७ १८, ९४ पांच माधब का बिधरण। ९, ५-७, ४२.४३ ९८-अष्टादश अध्ययनः पाप-बन्धन निर्जरा तय की व्याख्या । ९, ९.१०, ४४-४९ पाप का आसेवन कर्ता ही दुरकर तप की भाषश्यकता । ९, १४, संसार में भटकसा है। लब्धियों के दुरुपयोग को रोक; सदुपयोग की १९-उन्नीसवाँ अध्ययन आर्य-कर्म भावश्यकता। ५२' मनायों को छोड़कर सम्यक्त्वयुक्त भारमा का ध्यान आर्यक्रम करने के लिये । आरियायण महर्षि का उपदेश । १९ १५, द्वारा शुध्द होना । ९, २५, ५२ । सर्वज्ञ निरूपित २०-बीसवाँ अध्ययनः पंच उत्कल-खोर १०५ धर्म का अनुभव करने पंच उत्कलोका लक्षण व भेद। २० १५, वाले आरमा की धन्यता। ९, ३३, ५६ / २१-इक्कीसवौं अध्ययनः अशान विनाश जहां अज्ञान है यहाँ अन्धकार है। १०-दशम अध्ययनः नारी द्वारा उद्बोधन ५६ / तेसलिपुत्र की जीवन कहानी। 10, अन्धकार स्वयं एक विपसि है। २१ , 1, ज्ञान द्वारा सब कुछ साध्य है। २१ १०, ११-एकादश अध्ययन अध्यात्म-मार्ग २२-वाइसौं अध्ययनः नारी और प्रतिष्ठा अध्यात्म-मार्ग का सुसंस्कृत नारी से प्रतिष्या की प्राप्ति चिकित्सक ही वासनादि-व्याधियों और असंस्कृत नारी द्वारा कुलनाश । २२६८, का नाश कर सकता है। ११, १-६, ६५-६६. साधना में ध्यान का स्थान। २२ १०-१४, १२-द्वादश अध्ययनः भिक्षाचरी गोधरी के लिए गए मुनि का २३-सेवीसवाँ अध्ययनः मृत्यु-वर्शन १०७ वर्तन कैसा होना आवश्यक है। १२, १३, ६७.६९ मृत्यु के दो प्रकार। १३-त्रयोदश अध्ययन:सवादय देशना २४-चौबीसवाँ अध्ययनः अनासक्ति योग १२३ भयाली अतिर्षि की हजारों वर्षों के । संसार में आसक्ति ही पूर्व की सर्वोदय धाणी। १३, , . दुःखदात्री है और अना१४-चतुर्दश अध्ययन विधार-शुदि ७० सप्रित हि शाश्वत स्थान देने वाली है। अशुध्द घिचार-प्रेरित २५१-४, मोह क्षय से कर्म-सन्तति का क्षय । २५ २६-३७, . शुद्ध क्रिया भी मशुद होती है। २५-पच्चीसवाँ अध्ययनः घासना-क्षय १५-पंचदश अध्ययनः भौतिक सुख वासना के क्षय से ही भौतिक सुख दुःखानुबंधी है। १५, १, | साधक मुक होता है। २५१-१५, दुःख, खुढापा, शोक, मानापमान | २६-छबीसवाँ अध्ययनः धर्म-दर्शन १४५ भादि जन्मपरम्परा के साथ ही समास धर्म का मर्म, जो जिसकी वृत्ति है। होते हैं, अतः उन का समूल नाश उसीमें उसको सफलता प्राप्त होती है। २६ १-५, हीभावश्यक है। १५, १२-२७, घामण के लक्षण और कर्तव्य। २६ ६-१५, 10 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा. अ. २७- सत्ताइसवाँ अध्ययनः चरित्र संपत्ति साधु की संपति उसका चरित्र है. निःसङ्गना ही उसकी मुक्ति का द्वार है । २७ साधुजीवन की मर्यादा । २८ अट्ठाइसवाँ अध्ययनः वासना - विजय साधु को वासना को रोक कर निःस्पृद्द होना चाहिए । उच्च-नीच भाव भावनाओं पर आधारित है। २९ उन्तीसवाँ अध्ययनः स्रोत-निरोध स्रोतों का निरोध शक्य है । ३०- तीसवाँ अध्ययनः कर्म फल भोग इस लोक में किए कर्मों का परलोक में उपभोग । ३१-यकतीसवाँ अध्ययनः लोक-स्वरूप लोक के प्रकार, लोक का अर्थ, और उसकी गति । ३२- वंशीसवाँ अध्ययनः दया- निर्झर प्राणिमात्र पर दया करके ही ३२ १-४ ब्राह्मण भादि चार वर्ण सिध्दपत्र मास कर सकते " ३३ तैंतीसवाँ अध्ययनः प्रज्ञा और प्रतिभा पंडित की पहिचान और उनके कर्तव्य । ३३ १-१७ ३४ - चौतीसवाँ अध्ययनः परीषह-अय पति को परीषद और उपसर्गों को १.४ ५-७ २८ १-२२ २८ २३-२४ २९ ง ३० 9-6 ३१ १० ३४ १-६ सहन करना चाहिए । ३५ पैंतीसवाँ अध्ययनः आस्तिकता निरूपण अज्ञानमुग्ध आत्मा की वर्तमान तक सीमित होती है। संयम को चुराने वाले पंचेन्द्रियादि छोरों से सावधान रहनेका उपदेश । ३५ १८-२३ ३६- छत्तीसवाँ अध्ययनः कषाय विजय क्रोध की परिणति । पृष्ट ST. गा. ३७ १ १६० ३७ सैंतीस अध्ययनः विश्व-व्यवस्था विश्व स्थिति का वर्णन । ३८-अडतीसवाँ अध्ययनः आत्यंतिक सुख मासिक सुख और दुःख का विवेचन । ३८ १-१० दान्त आत्मा के लिये आश्रम और अरण्य समान हैं। १६५ १७४ 960 १८५ १९२ १९७ २०६ २१४ ३६ ११७ २२८ 1 दाम्भिक आचरण गर्छ है। ३९ उनचालीसवाँ अध्ययनः निष्पाप निष्पाप व्यक्ति को देवता भी प्रणाम करते हैं। ३८ รา ३७ २७ ४२ साधक को प्रयत्नशील होना अवश्य है । ४३- तैंतालीसवाँ अध्ययनः साम्ययोग लाभ -लाभ में सम-स्थिति रखने वाला ही महामानवता को प्राप्त करता है । ४३ ४४- चवालीसवाँ अध्ययनः राग-मुक्ति साधक को राम-द्वेष से मुक्त । होना आवश्यक है। ४५-पैंतालीसवाँ अध्ययनः अलिप्तता पापी जीवन गई है, अत एव ३९ १ ४० - चालीसवाँ अध्ययनः - इच्छा-परित्याग साधक को निरिच्छ मनने का उपदेश । ४० ४१ - एकचालीसचाँ अध्ययनः तपसमाधि तप का उद्देश्य, उसकी साधना करने वाला तपोवन को जाता है। ४० १०-१७ | ४२ बयालीसवाँ अध्ययनः -- पुरुष का उद्बोधक पुरुषार्थ २७३ 23 उससे साधक को अलिप्त रहना चाहिए। ४५ साधक को सर्वश का शासन प्राप्त कर आत्म-ज्ञान को विकसित करना चाहिए । परिशिष्ट नं. १ ♦ "3 इति विषयानुक्रमसूचि संपूर्ण ४४ 9-14 १ ง १ पृष्ठ २३७ ३४ २४१ २५९ २६२ २६५ २७४ २७५ २७६ २२७ २९९ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - इसि-भासियाई प्रथम अध्याय प्रवेश आरती सरिता का जल तटवर्ती वृक्षों की जड़ों को तरी देता है ऐसे ही शान-श्रवण हमारे सद्रणों को तरी देता है। सत्य श्रवण विकास की प्रथम सीढ़ी है। जीवन का श्रेय क्या है और प्रेय क्या है, यह हम सुनकर ही जान सकते हैं। प्रत्येक बुद्ध जैसे विशिष्ट आत्माओं को छोड़ दें पर सर्व साधारण के लिये यही नियम होगा । सुनना कुछ है पर सब कुछ नहीं। यह पहिली सीढी अवश्य है पर उसके आगे की सीढियों को पार किये बिना मंजिल पा नहीं सकते। श्रवण के बाद उसका आ होना आवश्यक है। शवण बीज है तो सलाचरण पळवित वृक्ष है। बीज को खाद और पानी मिले फिर भी वह विकसित न हो उसपर एक भी फल न आये तो श्रम और समय का अपव्यय ही माना जायगा। श्रोतम्य नामक प्रथम अध्याय में श्रवण को आवश्यक बताया गया है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अब्रह्म परिग्रह विरति रूप व्रताचरण उसके मधुर फल बताये गये हैं। यहाँ चतुर्थ और पंचम महानत को इसलिये साथ लिया गया है कि बुलके प्रणेता अहंतर्षि नारद है और वे प्रभु नेमिनाथ के युग के हैं। आदे अन्तिम तीर्थंकरों के अतिरिक्त शेष २२ तीर्थकरों के शासन में चतुर्याम धर्म की देशना है। देवनारद अर्हतोपदिष्ट श्रोतव्य अध्याय की प्रथम दो गाथाएँ सोयव्वमेव वदति सोयश्वमेय पवदति । जेण समयं जीवे सबदुश्खाण मुञ्चति ॥१॥ तम्हा सोयब्वातो परं णस्थि सोय ति । देवनारवेषा अरहता इसिणा धुइयं ॥ २ ॥ मलार्थ:-श्रवण करना चाहिये। अक्षण करना ही चाहिये। ऐसा (जिनेश्वर ) देव कहते हैं। जिसके द्वारा आत्मा स्वमत का ज्ञाता बन कर सभी दुःखों से मुक्त होता है। अतः श्रवण करने से बढ़कर दूसरा कोई शौच (पवित्र) नहीं है । इस प्रकार देव नारद अर्हतर्षि कहते हैं। गुजराती भाषान्तर:( શ્રવણ કરવું જોઈએ, કારણ કરવું જ જોઈએ. આવું જીનેશ્વર દેવો કહે છે જેના વડે આત્મા સ્વમતને જ્ઞાતા થઈને બધા દુઃખોનું અન્ત લાવે છે. માટે શ્રવણ કરવા (સાંભળવા) થી મોટી બીજી કોઈ પવિત્રતા નથી, આવી રીતે દેવ નારદ અહર્ષિ કહે છે. जीवन के लिये श्रेय क्या है और प्रेय क्या है यह हम सत्य श्रवण के द्वारा ही जान सकते हैं। सुनने के बाद ही स्वपर का भेद विज्ञान पा सकते हैं। भगवान महावीर की निर्वाण भूमिका श्रवण को बताते हैं: श्रवण से ज्ञान विज्ञान प्रत्याख्यान संयम तप व्यवदान अक्रियावस्था और पश्चात् निर्वाण । ये हैं निर्वाण की ऋमिक सीढ़ियों । आत्मा श्रवण के द्वारा ही श्रेय और प्रेय को पहचानता है। फिर उसमें किसी एक पथ को अपनाने के लिये स्वतंत्र है। प्रवण के द्वारा आत्मा सिद्धांतों का ज्ञान प्राप्त करता है और पश्चात् दुःस से मुचि पाता है, अतः श्रवण से बनकर दूसरी कोई पवित्रता नहीं है। टीकाकार बोलते हैं:-"सोयवति श्रोतन्य शिक्षितन्यं पुत्र वदति श्रोतव्यं एष प्रबदति येम समय यत् भादाय मुथ्यते लोक सर्वदुःखेभ्यः। तस्माच्छ्रोतव्यात् परं न किंचितास्ति श्रोतम्य। सोयति शोचमिति पुस्तकानां पाठ: पेदलेखकाना भ्रम इति न भाद्रियते।" १ भगवतीसूच शतक २।३।५. २ दशकालिक अ. ४ | ११, Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासिया अर्थात सुनना चाहिये, क्यों कि श्रवण से खमत को ग्रहण करके लोक (आत्मा) समस्त दुःखों से मुक्त होता है। अतः सत्य प्रण से बढ़कर दूसरा कोई श्रोतव्य नहीं है। अन्य प्रतियों में जो "सोय" पाठ मिलता है जिसका अर्थ होता है शौचम् ( पवित्रता)। यह पाठ वृद्धलेखकों के भ्रम के कारण आगया है, अतः वह हमें मान्य नहीं है। दीकाकार को सोय पाठमान्य नहीं है। क्यों कि श्रोतव्य अध्ययन है। अतः सत्य श्रवण से बडकर कोई श्रोतव्य नहीं मानते हैं। जर्मन के प्रोफेसर शुनिंग प्रथम अध्याय पर टिप्पणी देते हुए लिखते हैं: "थोड़ा बहुत जो सीखने लायक है उस और आग्रहपूर्वक ध्वान खींचने के लिए इस प्रकरण को पहले रखा गया है। 'सोय' और सोयं में ध्वनि साम्य है पर यह साम्यता विशेष महत्त्व नहीं रखती है। क्योंकि यहां थोतव्य को प्रमुखता दी गई है। अतः यह पार इस प्रकार होना चाहिये "तम्हा सोयत्तो परं नस्थि सोयच । वर्तमान पाठ में परंपरागत भूल दिखाई पड़ती है।" पर देवर्षि नारद की प्राचीन कहानी "सोय" पाठ की पुष्टि करती है, वह इस प्रकार है:-एक बार प्रभु महावीर विचरण करते हुए सोरिय पुर पधारे । उनके दो शिष्य धर्म धोष और धर्म यश अशोक वृक्ष के नीचे ठहरे थे । पर वहां के एक आर्य देखते हैं। सूर्य पूर्व से पश्चिम की और ला, किन्तु छाया न बदली; तब वे एक दूसरे से कहने-लगे यह तुम्हारी लब्धि है। बाद में एक शौच के लिये जाता है। तब भी छाया न बदली। दूसरा गया तब भी न मदली, तो देखा यह तो किसी सीसरे की लब्धि है। दोनों प्रभु निकट आते हैं और इसका रहस्य पूछते हैं। प्रभु बोलेइसी शौर्यपुर में एक बार समुद्रविजय राजा थे। उनके शासन में एक यज्ञदत्त तापस रहता था। सोमयशा उसकी पत्नी थी । उनका पुन या नारद । वे उंछदैनिसे निर्वाह करते थे। एक दिन खाते और एक दिन उपवास करते थे। एकबार पूर्वाह में अशोक वृक्ष के नीचे शिशु नारद को सुलाकर खेत में कन चुन रहे थे। इधर वैश्रमणकायिक तिर्यक् जंभृक देव वैतादय से निकल कर उसके पास से गुजरते हैं । तमी वृक्ष के नीचे सोये मालक को देखते है । अवधिज्ञान से जाना यह तो हमारे देवनिकाय से च्यवित हुआ है। पूर्व स्नेह के कारण एवं बालक की अनुकया के कारण वे देवगण छाया को स्थिर कर देते हैं। जब बालक बड़ा होता है, देवगण उसे विद्या पढ़ाते हैं। पश्चात् नारद कांचन कुंडिका और मणि पादुका के साथ आकाश में घूमने लगे। एक बार वे द्वारिका में गये। वहाँ शसुदेव श्रीकृष्ण ने पूछा शौच क्या है ! पर नारद उत्तर न दे सके। अतः इधर उधर की बातें करके उठ गये और पूर्व विदेह में पहुंचे। वहां सिर्मधर तीर्थक्रर को युगबाहू वासुदेव पूछता है प्रभो शौच क्या है ? तीर्थकरदेव बोले सत्य ही शौच है। युग याहु एकही वचन में सब कुछ समझ गये। नारद भी वह सुनकर अपरविदेह में गये। वहाँ युगंधर तीर्थकर को महाबाहु वासुदेव वही प्रश्न कर रहे थे। प्रभु ने भी वहीं उत्तर दिया। महाबाहु मी सब कुछ समझ गये। नारद यह सब कुछ सुनकर द्वारिका में गये और वासुदेव से मोले-तुमने उस दिन कौनसा प्रश्न किया था ! वासुदेव बोले शौच क्या है ? नारद बोले - सत्य ही शौच है। वासुदेव बोलेसत्य क्या है भारद इस प्रश्न का उत्तर न दे सके, अतः कुछ चिन्तित हो गये । तब कृष्ण वासुदेव बोले- जहाँ पहला प्रश्न पूछा था उसके साथ यह भी पूछना था। तब नारद बोले-हो वीर, सचमुच मैने नहीं पूछा । पश्चात् अपि चिन्तन में प्रवृत्त होते हैं और जाति भरण पाकर संबुद्ध होते हैं । पश्चात् श्रोतव्य नामक प्रथम अध्याय का प्रवचन देते हैं। इस प्रकार अध्ययन की भूमिका में शौच को स्थान है और उसके आरेभ में प्रोतव्य की 1 श्रषण के बाद आचरण आवश्यक है। अतः अईतर्षि आचार के प्रथम अंग अहिंसावत का निरूपण करते है। पाणातिपातं तिविहं तिविदेणं व कुज्जा ण कारये। पढमं सोयव्य लपवणं ॥३॥ अर्थी-त्रिकरण और भियोग से हिंसा न स्वतः करना और न अन्य से करवाना यह प्रथम श्रोतव्य लक्षण है। गुजराती भाषांतर: ત્રણ કરણ અને ત્રણ યોગ દ્વારા પોતે હિંસા ન કરવી અને બીજા પાસે પણ ન કરાવવી આ સાંભળવાનું પહેલું લક્ષણ છે. १ इसिभासिय 2. ५५२ (जर्मन) २ खेत में पड़े कनों को चुन जुन कर खाने को उछवृत्ति करते है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय विशेष:-जिस श्रवण से मनुष्य के अन्तर्मन में दया का झरना न बह उठे अंतर की घनीभूत करुणा का स्रोत फूट न पड़े ऐसा श्रवण करना जीवन में सही उत्क्रांति नहीं ला सकता । श्रवण का पाचन मनन है और मनन का मक्खन अहिंसा है। प्राणातिपात का निषेध कर यहाँ अहिंसा का निधारमय लिया है । क्यायि: Rो इटही घर की ओर पहला कदम है। मूर्तिकार मूर्ति निर्माण के लिये छीनी और इौड़ी के द्वारा अनिष्ट अंश को दूर करता है वह अनिष्ट अंश दूर होते ही भव्य मूर्ति आंखों के सामने होगी। अतः विभाव दशा को दूर करना साधक का पहला कदम है। हिंसा समस्त विभावावस्थाओं में निकृएतम है। इसी लिये उसका विकरण' और त्रियोग से प्रत्यास्थान किया जाता है। टीकाकार भी वोलते हैं:--प्राणातिपातं त्रिविधं त्रिविधन कायवाचनोभिरेव चरणकरणत्रिकाभ्यां इति चेनैव कुर्यान कारयेदिति करणत्रिकस्य प्रथमा द्वितीयोग्योरक्तत्वात् ।" अर्थात् त्रिविध का अर्थ मन वचन काया से लिया गया है पर करण से मतलब वरण करण नहीं लिया गया है । यहा न करना न करवाना और न करते हुवे को अनुमोदन देना ही प्राह्य है। मूसावादं तिविहं तिविहेण व बूया ण भासए । पितियं सोयव्यलक्खणं ॥ ४ ॥ अर्थः-त्रिकरण त्रियोग से (साधक ) मिथ्याभाषा न खयं बोले, न अन्य से बुलवाये अथवा न मिथ्या उपदेश ही दे। यह दूसरा श्रोतव्य लक्षण है। गुजराती भाषान्तर:-- ત્રણ કરણ અને ત્રણ યોગો દ્વારા મુનિ મિથ્યા ભાષા પોતે ન બોલે અને બીજા પાસેથી પણ ન લાવે અને નમિ ઉપદેશ આપે એ સાંભળવાનું બીજું લક્ષણ છે. . मागम श्रवण के लिये सत्यभाषी होना भी आवश्यक है। मिध्याभाषी व्यक्ति संतों की आत्मा को परख नहीं सकता न उनके बोल की कीमत ही कर सकता है। अदत्तादाण तिविहं तिविहेण णेष कुज्जा पा कारवे । ततिय सोयवलक्षणं ॥५॥ अर्थः-साधक त्रिकरण त्रियोग से अदत्तादान का प्रहण न खयं करे, न अन्य से करावे। यह तीसरा श्रोतव्य लक्षण है। गुजराती भाषान्तरः સાધુ પણ ત્રણ કરણ અને ત્રણ યોગ દ્વારા અદત્તાદાન પિત પણ ગ્રહણ ન કરે તેવા બીજા પાસે રહણ ન કરાવે. આ ત્રીજું શ્રોતવ્ય લક્ષણ છે. सत्य के शोधक को होय वृत्ति से दूर रहना होगा। क्यों कि चोरी की वृत्ति व्यक्ति को विनाश के पथ पर ले जाती है । अयंभपरिग्गह सिविहं तिविहेणं णेय कुजाण कारवे । चउत्थं सोयन्यलक्खणं ॥६॥ अर्थः-अब्रह्म ( काम ) और परिग्रह से साधक त्रिकरण त्रियोग से दूर रहे और अन्य व्यक्ति को उसके लिये प्रेरणा भी न दे। यह चौथा श्रोतव्य लक्षण है। गुजराती भाषान्तर: અબ્રહ્મ એટલે વાસના અને પરિગ્રહથી સાધુ ત્રણ કરણ અને વિયોગથી અલગ રહે અને બીજાને પણ એના પ્રેરણા ન દે આ ચોથું શ્રોતવ્ય લક્ષણ છે. ___ ममत्व और वासना ये दोनोंही भादवन्धर्म है मुक्ति की ओर कदम बढ़ाने वाले साधक को वाहिये इन सूक्ष्म बंधनों से मुक्त हो। १ एवं खु गाणिणोसार जण हिंसर किंचा।" भगवान महावीर २ करना, करवाना और अनुमोदन करना ये त्रिकरण कहलाते है। ३ मन, वचन और काया ये त्रियोग है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासिया चतुर्थ और पंचम यत का एक ही पद में निरूपण भ, नेमि की परंपरा को व्यक्त करता है। क्योंकि प्रथम और चरम तीर्थकर के अतिरिक्त शेष २२ तीर्थकरों के शासन में चतुर्याम धर्म है। उसमें ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के लिये एक ही शब्द आता है वह है "राठवाओ बहिद्धाणाओ बेरमैणं ।" ये चारों (पांचा) अव्रत माने जाते हैं। साधक को व्रत की मर्यादा में आने के लिये इनका प्रत्याख्यान आवश्यक है। यह प्रत्याख्यान तीन रूप से होता है । मन दाणी और कर्म (काया) से अशुभ प्रवृत्ति म स्वयं करना न अन्य से करवाना न उसका अनुमोदन ही करना । कोई भी कार्य संकल्प के रूप में पहले मन में जन्म लेता है फिर पाणी उसे अभिव्यक्ति देती है और देह उसे आचरण में लाकर मूर्त रूप देता है। स्याग का भी वही क्रम है। त्याग पहले मन में आना चाहिये, क्योंकि अंतर्मनसे, उस पदार्थ के प्रति से आसकि हट जाना ही त्याग की भूमि हैं। फिर वह वाणी और देह में आना चाहिये। पर आज प्रत्यास्यान के संबन्ध में उल्टी गंगा बह रही है। आज त्याग को सब से पहिले तन में प्रश्रय दिया जाता है। तन को पहले बांध दिया जाता है। वचन और मन खुले रहते हैं। यदि मन से उस वस्तु के प्रति आकर्षण समाप्त नहीं होता है तो साधक की स्थिति खंदे से बंधे उस पशु-सी होती हैं जो हरी घास देखकर मुंह डालना चाहता है किन्तु खुंटे की रस्सी उसे ऐसा करने से रोकती है। हो, तो खंटे से बंधकर किसी वस्तु का त्याग पश का हो सकता है. मानव का नहीं। ऐसी रस्सी तन की पवित्रता को सुरक्षित रख सकती है, पर मन की पवित्रता को नहीं। केवल तन का बन्धन सही अर्थों में आत्मविकास के लिये पूर्णतः सहायक नहीं हो सकता । तनका बंधन जितना एक कैदी को होता है उतना मुनि भी स्वीकार नहीं करता। तन को तो नारकभूमि में तेतीस सागर तक बांधकर रखा, सागर के सागर बीत गये तन को जल की एक बूंद न मिली न अन्न का एक दाना ही मिला। वहाँ तन का त्याग अवश्य था किन्तु मन ने कब त्यागा था। वह तो प्रतिक्षण हजारों गेलन पानी पी रहा था। लाखों टन अनाज एक ही ग्रास में उतार रहा था। पर वह कठोर त्याग भव-परंपरा को कम करने में काम न आसका। अतः त्याग का आरंभ मन से होना चाहिये फिर वह तन में उतरे। मन से त्यागी हुई वस्तु फिर सहसा शीघ्र अंगीकृत नहीं की जा सकती। ऐसे तो आगम में त्याग के अनेक प्रकार हैं उसमें “एगविहं ति बिदेणे, दुविहं तिविहेण" के रूप मैं प्रत्याख्यान होते हैं। जिनमें केवल काया अर्थात देह और वाणीसे कृत कारित और अनुमोदित का प्रत्याख्यान होता है। किन्तु यह भी साधक के मन में उस वस्तु के प्रति अनासक्ति भाव रहता है। फिर भी असावधानी से मन उसमें प्रवृत्त हो जाए, अतः वह केवल कायिक और वाचिक प्रतिज्ञा लेता है। पर सम्पूर्ण प्रत्याख्यान तो "तिविहं तिविहेण" से ही होता है। ये प्रत एकदेशिक नहीं सार्वदेशिक हो । अतिर्षि उसी सार्वदेशिक विरति के लिये बोलते हैं--- सधं च सम्वहि चेव सयकाल च सव्यहा। निम्ममत्तं विमुसिं च विरतिं चेव सेवते ॥७॥ अर्थः-साधक समस्त विधियों के साथ सभी प्रकार से सर्वदा सम्पूर्ण निर्ममत्व विमुक्ति और विरति का सेवन करें। गुजराती भाषान्तरः મુનિ સમસ્ત વિધિઓ સાથે બધા પ્રકારે સર્વદા સપૂર્ણ નિર્મમત્વ વિમુક્તિ અને વિરતિનું સેવન કરે, जिस साधक ने हिंसादि अशुद्ध वृसियों का परित्याग कर दिया है। जिसके मन वाणी और कर्म की त्रिवेणी में अहिंसा की पुनीत गंगा नद्द रही है वह साधक ममल के सम्पूर्ण प्रकारों का त्याग कर देता है। चाहे वह ममरव देहाच्यास को लेकर आया हो या परिवार, संप्रदाय या प्रान्तमोह के रूप में आया हो साधक उसके रूप को पहचाने और उसी क्षण उससे दूर हट जाए। क्योंकि मोह ही प्रगाढ बंधन है। साधक बंधन को पहचाने और उसकी लोदशंखला को तोड कर दूर हो जाएँ। सब्बतो बिरते दंते सव्यतो परिनिब्बुद्ध। सवतो विप्पमुक्कप्पा सव्यस्थेसु समं बरे ॥ ८ ॥ १ राय पसेणीय सुस्त केशीकुमार प्रमण का भावरित में प्रवचन। जो आय वर्षों में नहीं गिनी जा सकती ऐसी विशाल आयु का परिमाण दर्शक जैन पारिभाषिक शब्द। ३ नेह पासा भयंकरा । उत्तरा, अ. २३. पुद्धिाजत्ति तिबहिजा बंधणं परिनाणिया । कि माह बंधर्ण वीरो किंवा जाणं तिउछ । सूर्य म. १, गा. १, Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय अर्थ::- साधक सर्वथा मिरत दमनशील और पारे निर्ऋत ( शान्त ) है । अतः वह सर्वथा बाह्याभ्यन्तर संयोगों से विप्रमुक्त ( पृथक ) होकर समस्त अर्थों ( पदार्थों ) के प्रति सम ( विकारात्मक भावों से रहित ) होकर चले । गुजराती भाषान्तरः સાધુ સર્વથા વિશ્વ અને દમનશીલ અને પરિનિવૃત-શાન્ત છે, માટે તે સર્વથા પ્રકારે બાહ્માભ્યન્તર સંયોગોનું ત્યાગ કરીને બધા અર્થો ( પદાર્થો) ને પ્રતિ સમ (વિકારાત્મક ભાવોથી રહિત થઈ ને ) વિચરે, मोहबंधनों से ऊपर उठा साधक ही इन्द्रियों का दमन कर सकता है। इन्द्रियोंपर जिसका शासन है वही यथार्थ में शान्त है । उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये साधक बाह्याभ्यंतर उपाधियों से मुक्त हो पदार्थ मात्र के प्रति समभाव का साधक हो सकता है । दमन का अर्थ मारना नहीं; साधना है। घोड़े को राह पर चलाने के लिये उसे मारने की नहीं, साधने की आवश्यकता । इन्द्रियों को मारना क्या ? मरी तो वे अनंतवार हैं पर उन्हें साधा नहीं गया। अशुभ से मोह कर शुभ में ले जाना ही उनको साधना है। ऐसा साधक इच्छित और अनिच्छित सभी स्थितियों में सम रह सकता है। प्रशंसा के फूल उसके मन में गुदगुदी पैदा नहीं करते और निन्दा के शूल चुभन पैदा नहीं कर सकते । स सोयव्वमादाय अयं उवहाणवं । दुपही सिद्रे भवति णीरप ॥ ९॥ अर्थ :- समस्त श्रोतव्य को ग्रहण करके साधक प्रशंसनीय उपधानवान बनता है, पश्चात् समस्त दुःखों से मुक होकर निःरज हो ( कर्म रज से मुक्त हो ) सिद्ध होता है। गुजराती भाषान्तरः- અધા શ્રોતવ્યોને ગ્રહણ કરીને તે સાધુ પ્રશંસનીય ઉપધાનવાન થાય છે. અને પછી તે બધાં દુઃખોથી મુક્ત થઈ ને નિતંજ કી રજથી રહિત થઈ નર : છે. जो सुना उसे ग्रहण किया तभी साधक प्रशंसनीय तपस्वी कहलाता है। सुना उसे जीवन में न उतारा तो वह केवल भार होगा। भार में बडप्पन भले हो पर उसमें आनंद नहीं मिल सकता । बोझ चन्दन का हो या बबूल का वह मन को बाता है: आनंद नहीं दे सकता। "गधा चंदन का भारवाहक मात्र है। उसको सौरभ का आनंद उसके भाग्य में कहाँ ? ठीक वैसे चरित्र से हीन ज्ञानी भारवाहक मात्र है।" बात कटु है, पर सत्य अवश्य है। विचारक ने ठीक ही कहा है। दो व्यक्ति व्यर्थ ही श्रम करते हैं एक जो पैसा एकत्रित करता है, पर उसका उपयोग नहीं करता। दूसरा वह जो अध्ययन करता है, पर उसे जीवन में नहीं उतारता । जो सुना उसे ग्रहण करके ही साधक प्रशंसनीय उपधानवान होता सुक हो सिद्ध स्थिति को प्राप्त करता है। | दुःख से टि. उपधान एक तप है। "अडथं" को कोई 'अर्थ' मानते नहीं है। टीकाकार उसको भायें मानकर उसका अर्थ आत्मानं करते हैं। | अयुत संख्या वाचक है । जो कि यहाँ अभिप्रेत टीका:-- भाति आत्मान इति मन्यामहे. उपधानम् तपस् ततः सेवमान उपधानवान् भवति । अर्थात् आय का अर्थ आत्मा को इस प्रकार हम मानते हैं । उपधान एक तप हैं, उसके सेवनकर्ता उपधानवान् होते हैं। उपधान और उपधानवान् की व्याख्या करते हुए कहते हैं: सचं वेत्रोपसेवंति दत्तं चैवोपसेवंति गंभं चेषोपसेवंति । सचं चेत्रोवधाणवं दत्तं चेवोवधाणत्रं बंभं चैवोवधाणवं ॥ १० ॥ अर्थः- साधक सत्य की उपासना करता है । दत्त का सेवन करता है, और ब्रह्मचर्य की उपासना करता है । सत्य ही उपधान है। दत्त ही उपधान है और ब्रह्मचर्य ही उपधान है। १ अडयं । गुजराती भाषान्तरः સાધક સત્યની ઉપાસના કરે છે. દત્તનું સેવન કરે છે અને બ્રહ્મચર્યની ઉપાસના કરે છે. સત્ય જ ઉપધાન છે. દત્ત જ ઉપધાન છે અને ભ્રહ્મચર્ય જ ઉપધાન છે. २ जद्दा खसे चंदणभारवा ही भारस्सवाही हु चंदणस्स । एवं खु णाणी चरणेण हीणी भारस्स दादी ण सोमाईए । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई - - - - - - - - -- - पिछले पा में मताया गया है कि साधक उपधानवान् होता है तो प्रश्न होता है, उपपान क्या है ? क्या अमुक प्रकार के विशेष फियाकांड उपधान है। या कोई विशिष्ट तर उपधान है। उनका उत्तर यहाँ दिया गया है। साधक सत्य की उपासना करता है। दत्त अर्थात् अन्यद्धारा दी गई वस्तु को ही प्रहण करता है और ब्रह्मचर्य की साधना करता है । सल्म में अहिंसा का समावेश है और ब्रह्मचर्य में अपरिग्रह अन्तर्भुत है। सत्य दत्त और ब्रह्मचर्य ही उपधान है। सत्य तो भगवान है। अस्तेय भी महान व्रत है और ब्रह्मचर्य तो श्रेष्ठतम तय है। सत्य का गाधक ही दत्त और ब्रह्मचर्य की उपसेवना कर सकता है। क्योंकि स्तेनवृत्ति और दाराना स्वयं असत्य है। महावतों का आराधक ही भवपरंपरा को समाप्त कर सकता है। इसी तथ्य को व्यक्त कर रहे हैं: एवं से सिप बुद्धे विरते विपाये दंते दबद्ध अलं । ताई णो पुणरचि इश्चत्धे हटवमागच्छह ॥ ११ ॥ अर्थः-इस प्रकार वह साधक बुद्ध विरत निष्पाप दान्त--समर्थ त्यागी अथवा त्रामीरक्षक बनता है और वह पुनः इस लौकिक वृत्ति के लिये संसार में नहीं आता है। गुजराती भाषान्तर: એ પ્રમાણે તે સાધક બુદ્ધ, વિરત, નિષ્પાત, દાન્ત, સમર્થ ત્યાગી અથવા ત્રાથી રક્ષક બને છે. અને તે ફરીથી આ સંસારમાં લૌકિક વૃત્તિ માટે આવતો નથી. सय दत्त (अचौर्य ) और ब्रह्मचर्य का प्रती प्रबुद्ध है । भोगों से विरत होता है । निष्पाप और दमनशील होता है। शान्त दान्त साधकही आत्म रक्षा में समर्थ हो सकता है। वह मन परंपरा के चक्र में पुनः फेसता नहीं है। टि. दविए का अर्थ द्रश्य अर्थात् साधक है। क्योंकि भावों का वही आश्रय है। हरुखः इस पार ( यह संसार ) आगम में पाठ "णो इन्वाए णो पारए" आता है जिसका अर्थ है न इस ओर न उस ओर । अलं-समर्थ । आगम में प्रश्न आता है केवली को "अलमत्यु" कह सकते हैं। वहाँ अलं शब्द समर्थ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। टीकाकार भी बोलते है:-एवं सखुद्धो चिरतो विगतपापो दान्तो दन्योऽलं ति समर्थस्स्यागी बायी वा म पुनरपि "इश्वत्थं" ति इत्यर्थ लौकिकवृत्यर्थ इथं ति बा अन भावित समागष्ठति समागमिष्यति अधीमीति सर्वेष्वप्यध्ययने मुक्तमालाप प्रथम एव लेखितमलमिति नारदाध्ययनम् । अर्थात् इस प्रकार वह बुद्ध विरत विमत पाप दान्त द्रव्य साधक अलं समर्थ खागी अथवा प्रायी रक्षक पुनः इस लौकिक पृत्ति के लिये अथवा इस संसार में नहीं आता है। इस प्रकार मैं (अतिर्षि नारद ) बोलता हूँ। यह आलायक समस्त अध्ययनों के अन्त में प्रयुक्त होता है । इसी लिये इसको सर्व प्रथम दिया गया है। प्रोफेसर शुब्रिग इच्चत्थं के स्थान पर इत्थत्थं पाठ शुद्ध मानते हैं। दशकालिक अ. ५ उ. ४ गा. ७ में इत्यत्वं पाठ आता है। इति प्रथम नारदाध्ययनम् ।। १ तं मर्च भगवं-प्रश्न व्याकरण। २ तस वा उत्तम बंभचेरं-धीरस्तुत सत्रकृतरंग। चया सत्रसो। असिभाभियं जनन संरकरण ५. ५५२ । ३ आइ मरणाओ मुच्चर स्वार्थ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय आत्मा दुःख से बचना चाहता है पर दुःख के कारणों से नहीं बचता। अतः वह नहीं चाहते हुए भो पुनः उसी ओर जा पहुंचना है। दो वृत्तियाँ हैं एक है वान की दूसरी शेर की वान पत्थर मारनेवाले को नहीं, पत्थर को काटता है जब कि शेर गोली खाकर गोली पर नहीं, गोली मारनेवाले पर झपटता है। बस ये दोही वृत्तियाँ सर्वत्र काम कर रही है । एक अज्ञानी की वृत्ति है, वह दुःख के निमित्तों पर आक्रोश करता है, जब कि ज्ञानी दुःख के मूल पर प्रहार करता है । इसी तथ्य को द्वितीय अध्याय से वज्जिय पुत्र अतर्षि मार्मिक रूप में व्यक्त करते हैं : : जस्स भीता पलायंति जीवा कम्माशुगामिणो । तमेचादाय गच्छति किया दिना व वाहिणी ॥ १ ॥ वजियपुत्तेण अरहता हसीण वुइयं । अर्थः- कर्मानुगामी आत्मा जिस दुःख से भीत होकर पलायन करता है किन्तु अज्ञान वश पुनः उसी ( दुःख ) को ग्रहण करते हैं। जैसे कि युद्ध से भगती हुई सेना पुनः शत्रु के घेरे में फंस जाती है बजिय पुत्र अर्हतार्षि ऐसा बोलेगुजराती भाषान्तरः કર્મોનુગામી આત્મા જે દુ:ખશ્રી ખીને ભાગી જાય છે, પરંતુ અજ્ઞાનને વશ થયેલા તેને (દુઃખ ) યહુણ કરે છે. જે પ્રમાણે યુદ્ધથી ભાગતી સેના ફરીથી શત્રુના ઘેરામાં ફસાઈ ય છે. વજીય પુત્ર અર્ષિ આમ ખોલ્યા, जन साधारण दुःख से बचना चाहता है किन्तु दुःख के कारणों का परिल्लाग नहीं करता । वह धूप से बचना चाहता है, किन्तु सूर्य का मोह भी उससे छूटता नहीं है। जब तक कारण उपस्थित है तब तक कार्य परंपरा चालू रहेगी। अनादि से भटका हुआ आत्मा कार्य नहीं, चाहता पर कारण छोड़ता नहीं है। परिणाम यह होता है कि घूम फिर कर वह पुनः दुःख के सामने ही पहुँच आता है। जैसे कि शत्रुद्वारा विदीर्ण सेना युद्ध से भाग खड़ी होती है। किन्तु कभी कभी ऐसा होता है। कि जिससे भागना चाहती उसी शत्रु सेना के चंगुल में पुनः फंस जाती हैं। तर्कशास्त्र में इसे कहा जाता है आयातं घटकुत्र्यां प्रभात: 1 एक व्यापारी द्रव्य अर्जित कर पुनः स्वदेश लौट रहा था। वह द्रव्य का कर चुकाना नहीं चाहता था । अतः उसने राजमार्ग छोड़ दिया और सारी रात इधर उधर घूमता रहा। प्रातः हुआ और घर की सीधी राह ली, किन्तु ज्योंही आगे बढ़ा वहीं नाका मिल गया। जिससे बचने के लिये सारी रात जंगल की खाक छानता रहा, प्रातः वहीं आ पहुंचा। ऐसे ही आत्मा जिस दुःख से बचने के लिये भागता हैं उसीके सम्मुख जा पहुँचता है । व वाहिणी सेना, तमेवाशय जीवाः टीकाकार बोलते हैं: - बस्मात् पापकृत्यात् पापकर्मणो मीताः पलायते कर्मानुगामिनो भवन्तीत्यस्य लोकस्य द्वितीयचतुर्थपादयोरपरिहार्यो त्रिनिमयः ।" जिस पाप कृत्य से भीत आत्मा पलायन करती है किन्तु छिन्न भिन्न सेना की भाँति उसी को ग्रहण करके आत्मा कर्मानुगामी होते हैं। इस चोक के दूसरे और चतुर्थ पाद का अपरिहार्य विनिमय है । दुःख और उसके कारणों की विस्तृत व्याख्या अर्हतार्षि दे रहे हैं : दुक्खा परिवित्तसंति पाणा मरणा जन्मभया य सब्वसत्ता । तस्तोयस गवेसमाणा अप्पे आरंभ भीरुप ण सत्ते ॥ २ ॥ वे दुःख अर्थः- प्राणी दुःख से परिश्रसित हैं। मौत और जिन्दगी के भय से समस्त आत्माएँ प्रकंपित हैं । उपशमन की खोज में हैं ( पर उसके कारण भूत) आरंभ से अल्प भी नहीं डरते । गुजराती भाषान्तरः के પ્રાણીમાત્ર દુઃખથી ત્રાસી ગયેલા છે, મોત અને જિન્દગીના ભયથી સમસ્ત આત્માઓ ત્રાસેલા (કાયમાન થયેલા ) છે. તે દુઃખના નિવારણની શોધમાં છે. હું પરંતુ તેના કારણભૂત ) આરંભથી જરાપણ ડરતા નથી. प्रस्तुत गाथा में अतार्षि जीवन के महत्वपूर्ण सिद्धान्तों का प्रतिपादन कर रहे हैं वे हैं दुःख और उसके कारणों की खोज । समय आत्माएँ दुःख की उपशान्ति खोज रही हैं। अनंत युग बीते उसका लक्ष्य है अशान्ति से हटकर शान्तिकी Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि भासियाई ८ ओर जाना किन्तु लगता है, उसने नागर की जम भूल से नागफनी का पाना किया है। इसीलिये दुःख की परम्परा मौजूद है। उसका पुरुषार्थ पानी विलोडन मात्र रहा है। इसका कारण है वह दुःख के बाहरी कारणों से बचता है, किन्तु उसके उपादान से चिपटा रहता है अशान्ति का मूल है आरंभ सुख के लिये वह आरंभ करता है, किन्तु आरंभ हो अशान्ति की जड है। वह फल से घृणा करता है जब कि फूल से प्यार करता है। 1 कर्मवाद का प्रतिपादन करते हुए बोलते हैं: गच्छति कम्मे हिंसेऽणुवजे पुणरवि आयाति से सयं कडेणं । जम्ममरणार अट्ठो पुणरबि आयाह से सकम्म सित्ते ॥ ३ ॥ अर्थः:-आरमा लत कमी से अनुबद्ध होकर (परलोक) गमन करता है। अपने ही कर्मों के द्वारा में आता है। इस प्रकार वह आते आत्मा स्वकर्म से सिक्त सिंचित जन्म और मृत्युकी परंपरा में आता है। I गुजराती भाषान्तरः — આત્મા પોતે કરેલા કર્મોથી બંધાઈને (પરલોકમાં) જાય છે. પોતાના જ કર્મોદ્રારા ફરી પાછો તે આ સંસારમાં આવે છે. એ પ્રમાણે તે આર્દ્ર આત્મા પોતાના કર્મને લીધે જન્મ અને મૃત્યુની પરંપરામાં આવી જાય છે, (इसाई छे.) पुनः इस संधर फेसता है ) जन्म-मृत्यु की परंपरा का मूल क्या है और इसका उत्तरदायित्व किस पर है इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत गाथा में दिया गया है। जन्म और मृत्यु के लिये तू स्वयं उत्तरदायी है। तेरे शुभ और अशुभ कर्म ही जन्म और मृत्यु के बीज हैं। कर्म का अनुबन्ध भय परंपरा में परिभ्रमण कराता है। नरक और स्वर्ग का निर्माता तू है। आत्मा की अनुमतियों मामकर्म हैं, वे ही द्रव्य कर्म को एकत्रित करती हैं। सूर्य स्वयं अपनी किरणों द्वारा बादलों का निर्माण करता है और स्वयं ही किरणों द्वारा उन्हें द्रवित कर स्वयं उनसे मुक्त होता है। कर्मवाद का सिद्धान्त हमारी बहिष्टि को मोडकर अन्तर की ओर जाता है। अपनी स्थिति के लिये तुं स्वयं उत्तरदायी है। इंग्लिश का विचारक बोलता है: It is our own past which has made us what we are. We are the children of our deeds. आज हम जो कुछ हैं - हमारे अतीत से हमको बनाया है। हम अपने कार्यो के बालक है । I 1 कर्मवाद मानव को अन्तरभिमुख बनाता है जो कुछ मनता और बिगडता है उसके लिये उत्तरदायी में स्वयं हूँ। फिर दूसरे पर रोष और दोष क्यों ? पेन्सिल रखते अपने ही हाथों चाकू ने पेन्सिल के साथ अंजिल डाली तो दूसरों से हने मिलने की कोई मूर्खता न करेगा कर्मवाद बोलता है, विपत्ति की एक दिन तूने ही निमंत्रण दिया था आज वह आई है, तो उससे भागने की और आक्रोश की कोई आवश्यकता नहीं है। तेरे अशुभ का उदय है। उसे कोई रोक नहीं सकता। विपत्ति के लिये किसी को दोष न दे। संपत्ति के लिये किसी से भीख न मांग तेरे शुभ का उदय होगा तो बिना माँगे मिलके रहेगी। कर्मबाद कहता है मानव सब कुछ तेरे हाम है। दूसरा तो केवल निमित्त मात्र है ॥ " जाम १ भगवती सूत्र में इस प्रश्न की चर्चा है । प्र. सयं भन्ते ! नेरईया नेरई येसु इक्वज्जति असयं भन्ते नेरईया नेरईयेसु उववति ? गणिय लेना नरहेपति नो अस या नेर उति प्र से गण भन्ने एवं उक्त कम्मोदपणे, कम्भ गुरुतयार कम्ममारिया कम गुरुभारियतवाट अनुभा अनुभाणं कम्मा विवागणं, अभागं कम्माणं फल विवाणं सुवं नरईया जाय उननन्ति भो असम नेरहंगा नेरप जाव उपनयति से वे गांगेयान्ति भगवती सूत्र श. १३१. १०७. 3 गांगेय अणगार प्रश्न करते हैं:- प्रभो नारक जीव नरक में स्वयं उत्पन्न होते हैं या दूसरा उन्हें वहाँ उत्पन्न करता है ! प्रभु ने उत्तर दिया गांगेय नारक स्वयं ही नरक में उत्पन्न होते हैं 1 दूसरा उन्हें कोई वहाँ उत्पन्न नहीं कर सकता। प्रतिमन करते हुये गांगेय अणगार भोले प्रभो! आप किस अपेक्षा विशेष से ऐसा फरमार है ? उत्तर- कर्म के उदय से, कर्म से भारी होनेके कारण, अशुभ के विपाकोदय और फलोदय से आत्मा नरक में उत्पन्न होता है। अतः ऐसा कहा जाता है कि नरक स्वयं ही नरक में उत्पन्न होता है । भगवती श. ९. ३९.३७७ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन आत्म के परिभ्रमण के मूल हेतु कर्म है। यह स्वीकार लेनेके बाद कर्मवादियों के सामने दूसरा प्रश्न उपस्थित होता हैकर्म पहले या आत्मा ? यदि आत्मा पहले था तो उस कर्मरहित आत्मा ने कर्म क्यों ग्रहण किये ? और यदि कर्म पहले ये तो दूर पडे कर्म आत्मा से क्यों और कैसे चिपक गये ? इसी प्रश्न का समाधान निम्न दो गाथाओं में दिया गया है या अंकुरण फक्त अंकुशतो पुणो वीयं । atr संयुज्झमाणम्मि अंकुरस्सेध संपदा ॥ ४ ॥ बीभूताणि कम्माणि संसारस्मि अणादिए । मोहमोहितचित्तस्स ततो कम्माण संतति ॥ ५ ॥ अर्थः- भीज से अंकुर फूटता है, और अंकुरों में से बीज निकलते हैं। बीजों के संयोग से अंकुरों की संपत्ति बढती है। अनादि संसार में कर्म बीजवत् हैं। मोह-मोहित चित्तवाले के लिये उन चीजों से कर्मसंतति आगे बढती है । गुजराती भाषान्तरे: શ્રીજમાંથી અંકુર ફૂટે છે અને અંકુરમાંથી બીજ નીકળે છે. બીજોનાં સંયોગથી અઝુરીની સંપત્તિ વધે છે. અનાદિ સંસારમાં કર્મ બીજ સમાન છે. મોહથી મોહિત થાય તેવા ચિત્તવાળા માટે તે એથી કર્મ સંતતિ આગળ વધે છે. बीज में विराट वृक्ष समाया हुवा है। अनुकूल वातावरण पाकर बीज एक दिन विशाल वृक्ष बनता है जो कि अपने में हजारों नये चीज छिपाये रहता है। वज्जियत अर्द्धतर्षिने कर्म को भी नन्हें बीजों से उपमित किया है। अल्प रूप में आये हुए कर्म भी अपने में अनंत संसार लिये आते हैं। भाव-कर्म से द्रव्य कर्म के दलिक एकत्रित होते और द्रव्य कर्म पुनः भाव कर्मों को स्पंदित करते हैं। आस्मा के रामन कर्म और कहै । भाव कर्म से प्रेरित हो आत्मा द्रव्य कर्म को अपनी ओर आकर्षित करता है। वे ही कर्म जब विपाक रूप में उदय में आते हैं तो किसी निर्मित का आश्रय लेकर ही आते हैं। अज्ञानी आत्मा उस निमित्त को ही सब कुछ मानकर उसी पर अपना रोष ठेलता है। इसलिये वह उदयगत कमों को क्षय कर करने के साथ राग द्वेष की परिणति के द्वारा अनंत अनंत कर्मों को उसी क्षण बांध मी बेला है। यही है बीज और वृक्ष की कार्यकारण परंपरा और उसकी उपमा का रहस्य । इसी कार्यकारण परंपरा से बंधकर आत्मा और कर्म दोनों घिरोद्धखभावी होनेपर भी अनादि के सह-यात्री हैं। कर्म - विमुक्ति के लिये साधक क्या करे यही बता रहे हैं मूलसेके फलुप्पत्ती मूलघाते हतं फलं । फलत्थी सिंचते मूलं फळघाती न त्रिति ॥ ६ ॥ अर्थ :- जड़ का सिंचन करने पर फल पैदा होगा और मूल के नष्ट हो जाने पर फल स्वतः नष्ट हो जाएगा । फलार्थी जब को सींचता है, फलन चाहने वाला मूल का सींचन नहीं करता । गुजराती भाषान्तरः જડનું સિંચન કરવાથી ફળ ઉત્પન્ન થશે. અતે મૂળના નાશથી ફળ તરતજ નાશ પામશે, ફલાર્થી જડનું સિંચન કરે છે. ફળ ન ચાહનારા મૂળનું સિંચન કરતા નથી. वासना की विष- बेल के सुख और दुःख से दो फल हैं। यदि जड को सींचन मिलता गया तो फल फूटते रहेंगे । फल को नष्ट करना है तो उसकी जड़ को समाप्त करना होगा । मोहमूलमनिधाणं संसारे सध्वदेहिणं । मोहमूलाणि दुक्खाणि मोहमूलं च जम्मणं ॥ ७ ॥ अर्थ :- संसार के समस्त प्राणियों के अनिर्वाण- अशान्ति और परिभ्रमण का मूल मोह है । समस्त दुःखों की जब में मोह काम कर रहा है और जन्म का मूल भी मोह ही है । गुजराती भाषान्तरः સંસારના સમસ્ત પ્રાણીઓના અનિર્વાણ-અશાન્તિ અને પરિભ્રમણનું મૂળ મોહ છે. સમસ્ત દુઃખોનાં જડમાં (મૂળમાં ) મોહ કામ કરી રહ્યો છે અને જન્મનું મૂળ પણ મોહ જ છે, Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई आत्मा-शान चेतनामय है। कोई भी पदार्थ उसके सामने आते हैं तो वह देखता भी है। देखना कोई अन्धका कारण मी नहीं है। क्योंकि ज्ञाता और दृटा रूप आरमा का अपना स्वभाव है। आत्मा न देखेगा तो क्या पत्थर देखेगा ? ज्ञान-चेतना पाप की हेतु नहीं हुआ करती। पाप हेतुक तो है राग चेतना । किसी उद्यान में गये महकते फूल देखे यहाँ तक तो ठीक है, किन्तु देखने के साथ बोल पडे कितने अच्छे है। "अच्छे हैं" कहने के साथ ही राग चेतना आगई। मन बोल पडा-"अच्छे हैं तो लेलो।" यहीं राग चेतना वासना में परिणत हो गई। किन्तु सोचा माली आजाए तो पैसे देकर लेले, यहाँ तक वासना नीति की सीमा रेखा में है, किन्तु देखा माली न जाने कब आये और क्यों पैसे खर्च किये जाएं. ऐसे ही ले लिये जाएं। यहाँ वासना नीति की सीमा लांघ गई । मन में वासना धुखी; हाथ आगे छठे और कुछ फूल लेकर चलना चाहते थे कि मन बोल पड़ा थोडे पुत्र के लिये भी ले चलें। यहाँ वासना लोम में रंग गई। तमी माली ने हाय पकड़ा और चोरी के अपराध में पकड़ा गया। यही दुःख है । जहाँ मोह है वहां दुःख अवश्यंभावी है। दुः सूजर वार कर रहे होलान करना होगा : दुःखमूलं च संसारे अण्णाणेण समजिते । भिगारिव्य सरूप्पत्ती हण कम्माणि मूलतो ॥ ८॥ पयंसे सिजे बजे विरते विपाचे मते उरिप अलंताती। जो पुणरवि इयत्थं हव्यमागच्छति-ति बेसि ॥ ९॥ इह विदयं पजियपुत्तज्झयर्ण ॥ अर्थ:-इस दुःख मूलक संसार में (आस्मा) अशान के द्वारा इचा हुआ है। जैसे सिंह माण के उत्पत्ति स्थल को देखता है ऐसे-तूं खोत्पत्ति के कारणभूत कर्मों के समूल नष्ट कर । ऐसा सिद्धबुद्ध आत्मा संसार में पुनः नहीं आता। गुजराती भाषान्तरः આ દુઃખી સંસારમાં (આત્મા) અજ્ઞાનને લીધે ડૂબેલો છે. જેવી રીતે સિંહ બાણનું ઉત્પત્તિ સ્થાન જૂએ છે તેજ પ્રમાણે તું કમે, કે જે દુ:ખો ઉત્પન્ન કરવામાં કારણભૂત છે તેને સંપૂર્ણ નાશ કરે. સિહબુદ્ધ આત્મા સંસારમાં ફરીથી આવતો નથી. संसार दुःखमूलक है तो फिर आत्मा इसमें क्यों पड़ा हुआ है और दुःखनाश का उपाय क्या है इन दो विषयों की चर्चा इस गाथा में की गई है। कडुवे नीम के पत्ते भी विषप्रस्त मानव को मीटे लगते हैं। आत्मा को दुनिया के दुःखभरे तत्त्वों में सुख का आभास होता है। यदि गाय की आंखों पर हरा चश्मा लगा दिया जाय तो उसे सूखी घास मी हरी दिखाई देगी। यही तो अज्ञान है और तुःख में सुख की अभिनिवेशास्मक बुद्धि ही संसार-संसृति का मूल हेतु है । इसी पाश में बंधकर आत्मा संसार का मोह डोट नहीं सकता। साधक को की नहीं, सिंह की वृत्ति अपनाए । कुत्ता पत्थर को काटने दौडता है किन्तु सिंह पर बाण खेडा गया तो वह बाण के उद्गम स्थल को ही अपने वार का लक्ष्य बनाता है। इसी प्रकार साधक दुःख को नष्ट करने के लिये दुःख के मूलहेतु कर्म को ही समूल नष्ट करथे ऐसे तो आत्मा कर्मों को प्रतिक्षण नष्ट कर रहा है, किन्तु वह उसकी जड़ को समाप्त नहीं करता। कर्मबन्ध के मूल हेतु राग और द्वेष को समाप्त कर के ही आत्मा कर्म और उसके फल दुःख को समाप्त कर सकता है। ॥ इति द्वितीय अध्ययन समाप्त ॥ १दुवं इये जस्स न होई मोहो । उत्तरा. अ. ३२१७, २ विशेष देखिये । प्रथम अध्याय का अन्तिम गद्यांश । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन. आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगति करने का है फिर वह कभी निम्न और कभी तिर्यग् गति क्यों करता है? इस प्रश्न का समाधान ज्ञाता धर्मक्यांग सूत्र में किया गया है। तुं ने का स्वभाव है जल में तैरना किन्तु उसे धागों से बांध कर और मिट्टी के आठ लेप लगा कर पानी में डाला जाए सो वह नीचे बैठेगा। आत्मा भी लेप से आवेष्टित । इसी लिये तो नित्र और तिर्यग्गति करता , लेप क्या है और आत्मा लेप से उपरत कैसे हो सकता है प्रस्तुत अध्याय में इसी की चर्चा है। भदिवं खलु भो सव्वलेवोवर तेणं लेबोगलित्ता खलु भो जीवा अणेगजम्मजोणीभयावत्तं अणादीर्य अणवद दीह्मणं चातुरंतं संसारसागरं वातीकता संयमतुलमयलमव्याबाहमपुणष्भवमपुणरावतं सात ठाणमभुवगता चिर्हति । " अर्थ :- ( मुमुक्षु आत्मा को ) समस्त लेपों से उपरत होना चाहिये। लेपोपलिप्त आत्माएं अनेक जन्मन्योनियों से भयावृत अनादि अनवदत्र सुदीर्घकाल भाषी चातुरन्त संसार सागर को पार करके शिव अचल अतुल अग्यावाध पुनर्भव और पुनरागमन से रहित शाश्वत स्थान को प्राप्त कर देती हैं । (મુમુક્ષુ આત્માને ) અધા આવરણોથી દૂર રહેવું જોઈ એ. અનાવરણ આત્માઓ અનેક જન્મોથી ભયાવૃત અનાદિ અનવદગ, સુદીર્ઘકાલભાવી ચતુરન્ત સાગરને પાર ઉતરીને શિવ, અચલ, અતુલ, અવ્યાબાધ પુનર્જન્મ અને પુનરાગમનથી રહિત શાશ્વત સ્થાનને મોક્ષ ) પ્રાપ્ત કરી લે છે. देव साधक को लेपोपरत होने की प्रेरणा दे रहे हैं। साथ ही डेपोपलिप्त आत्मा की शुद्ध स्थिति भी बताई गई है ( जो कि विश्वारणीय है ।) आत्मा की विभाव परिणति उसका भाव लेप है और उसके द्वारा आकर्षित कर्म द्रव्यलेप है। दोनों लेपों से उपरत आत्मा स्वभाव में उपस्थित हो सकती | प्रारंभ के छः विशेषण संसार की भयानकता व्यक करते हैं। जो कि औपपातिक सूत्र में वर्णित संसार स्वभाव के चित्रण से मिलते जुलते हैं। अन्तिम सात विशेषण स्वभाव में स्थित आस्मा के हैं। ठाणं शब्द ऐसे तो सिद्ध शिला के लिये प्रयुक्त होता है, किन्तु ये समस्त विशेषण सिद्ध शिला के लिये प्रयुक्त नहीं हो सकते । क्योंकि सिशिलागत जीवों में पुनर्भव भी है और पुनरावृति की है। किन्तु सिद्धारमा में इसका अभाव है । अतः स्थूल रूप में ये विशेषण सिद्धस्थान को लागू हों, किन्तु वस्तुतः ये सिद्ध प्रभु के ही विशेषण हैं। शक्रस्तव में भी यह विशेषणावली मिलती है। किन्तु प्रस्तुत पाठ में अपुणभव विशेषण विशेष है। वहाँ 'अक्षय' जिसका अर्थ है अरुज रोगाभाव जब कि यहाँ अतुल शब्द है जो कि अतुलित के अर्थ में हैं। अनंत अक्खय विशेषण शक्रस्तव में विशेष हैं । पाठ कुछ लिष्ट विशेषण के अर्थ इस प्रकार है : अणवद्ग्ग - अनवदप्र - अनंत छोररहित । अन्याबाध-व्याबाधा रहित. अपुनर्भव- जहाँ जाने के बाद भवपरंपरा समाप्त हो जाती है । टीकाकार बोलते हैं: - लेपः कर्म पापो वा, भवितव्यं खलु सर्वलेपोपरतेन । लेपोपलिताः खलु भो जीवाः अन दीर्घाध्वानं चातुरंत संसारसागरं अनुपरिवर्तन्त इत्यादि अनेकशब्दा लुताः । "लेपोपरतास्तु संसारं व्यतिक्रांता जीवा शिवेत्यादि विशिष्टं स्थानं अभ्युपगता स्तिष्ठन्ति ।" अर्थात् संसार के कुछ विशेषण लुप्त हो चुके हैं। शेष का अभी ऊपर आ चुका है। टिप्पणी:- प्रो. शुनिंग लिखते हैं:-"किसी भी प्रकार का अपराध ( प ) आत्मापर धब्बा लगाता है । अतः उससे दूर रहना चाहिये । यहाँ तक तो ठीक है, किन्तु आगे बताया गया है, दागलगा हुआ आत्मा (लेपोपलिप्त ) दुनिया को जीतता है। यह विरोधाभास है।" वास्तव में ये समस्त विशेषण लेप से उपरत आत्मा को लागू होते हैं। टीकाकार ने भी इस ओर ध्यान आकृष्ट किया है । अतः लेवोन लिना के स्थान पर लेवोवरता पाठ होना चाहिये। अथवा नवम अध्याय की भाँति बताना चाहिये था कि लेपोपलिप्त आत्मा अनादि अनंत संसार में परिभ्रमण करता है और लेपोपरत आत्मा संसार का अन्त करता है 1 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि - भासियाई पोपरत साधक का जीवन चित्र देते हुए आहितर्षि बोलते हैं :--- से भवति सव्वकामविरते, सव्चसंगातीते सव्वसिणेहतिक्कते संध्ववीरिय निष्कुडे सव्वकोहोवर त्ते सव्यमाणोवरत्ते । सञ्चमायोचरत्ते, सव्वलोभोवरत्ते, सव्वचासादाणीवरत्ते, सुसन्धसंबुडे, सुसवसध्वोवरते, सुसच्चसवोवरते, सुसध्वसव्वोवसंते, सुसच्चपरिबुडे, णो कत्थद संज्जति तम्हा सव्वलेषोवरम भविस्सामि त्ति कट्टु असिएणं दधिलेणं अरहता इसिणा बुझ् १२ अर्थ : :- लेपोपरत आत्मा समस्त वासनाओं से विरक्त होता है। सर्व संग तथा सर्वे लेह से बिरक होता है। साथ ही यह समस्त (अशुभ) शक्ति से निवृत्त हो को मान माया और लोभ के समस्त प्रकारों से दूर रहता है। समस्त वासा दान-ग्रहण से उपरत हो श्रेष्ठ रूप में सभी ( सावध प्रवृत्तियों) से संवृत्त हो श्रेष्ठ रूप में सभी ( वासनाओं से, सर्वोपरत हो ) सभी स्थानों में ( अन्तर और बाह्य के ) सभी रूपों में (हता है। साथ ही सभी प्रकार से परिवृत व्याप्त हो (सभी के बीच रहता । फिर भी कहीं पर भी वह आगत नहीं होता। अतः मैं सभी लेपों से उपरत होऊंगा । इस प्रकार अति दविल अर्हतर्षि बोले : - કર્મરૂપ લેપથી રહિત આત્મા સમસ્ત વાસનાઓથી વિરક્ત હોય છે. સર્વ સંગ તથા સર્વ સ્નેહથી વિરક્ત હોય छे. साथै साधे ते समस्त (अशुभ) शतिथी निवृत्त अर्धने, ोध, मान, भाया ने बोलना समस्त अझरोश्री દૂર રહે છે. સમસ્ત વાસા દાન-વગ્રહણથી અલગ રહીને શ્રેષ્ઠ રૂપમાં બધી ( સાવદ્ય પ્રવૃત્તિઓ ) થી સંવૃત થઈને શ્રેષ્ઠ રૂપમાં બધી ( વાસનાઓથી ) દૂર રહીને અધે સ્થળે (અન્તર અને ખાદ્યના) સાથે સાથે તે બધી પ્રવૃત્તિઓથી ન્યાસ હોવા છતાં ( બધાની વચ્ચે રહે છે ), પણ તે નથી, તેથી હું સર્વ આવરણોથી દૂર રહીશ. ( ઉપરત થઈશ ) આ પ્રમાણે અસિત દવિલ ધ રૂપોમાં ઉત્તમ હોય છે, ક્યાંય પણ આસક્તિ પામતો અર્હતર્ષિં ખોલ્યા :—— लेपोपरत आत्मा की स्थिति इसमें बताई गई है। वह वासना और उसके निमित्त सभी से पृथक हो जाता है। इन्द्रियाँ और मन की समस्त प्रवृतियों को आश्रव से मोड़ कर उनका संवरण करता है। साथ ही वह जल और चैतन्य के सभी संग का त्याग कर निस्संग होता है। क्योंकि निस्संगता का अपर पर्याय मुक्ति हैं। निःसंग आत्मा फिर भले प्रासाद में रहे या उपवन में रहे, परिवार से वेष्टित रहे या अकेला विचरण करे। वह कहीं पर भी आसक्त नहीं होता। क्यों कि उसकी आत्मा उपशान्त 1 1 दि. वासादाणः - बास के निवास अथवा व दोनों ही अर्थ हैं। अपेक्षा भेद से दोनों ही स्वीकृत हो सकते हैं। वास - निवास स्थान के आदान 'उपरत हो जाता अर्थात् उसे रहने के लिये प्रासादों की आवश्यकता नहीं है। अथवा वास वस्त्र के आदान की उसे आवश्यकता नहीं रहती । वह स्थविर कल्प से जिनकल्प को ग्रहण करता है । अतः उसे वस्त्र लेने की भी आवश्यकता नहीं है । लेप क्या है ? उसे बताते हुये भोलते हैं। : सुमेय बायरे वा पाणे जो तु विहिंसइ । रागदोसामिभूतप्पा लिप्यते पाचक्रम्णा ॥ १ ॥ अर्थः-- राग द्वेष से अभिभूत आत्मा सूक्ष्म या स्थूल किसी प्रकार की हिंसा करता है वह पाप कर्म से लिप्त होता है। રાગ-દ્વેષથી લપટાયેલો આત્મા સૂક્ષ્મ કે સ્થૂળ-કોઈ પણ પ્રકારની હિંસા કરે છે તે પાપ કર્મથી લિસ ોય છે. प्रस्तुत गाथा में कुछ प्रश्नों का समाधान दिया गया है। लेप क्या है और उसमें आत्मा लिप्स कैसे होता है । जय तक राग और द्वेष की परिणति है तब तक हिंसा रहेगी ही। इस से एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त निकल आता है। राग ही हिंसा का अनुबन्धक है । क्योंकि राग के हट जाने के बाद हिंसा का बन्ध नहीं होता। इसी लिये १० में गुणस्थान से ऊपर I १. सब्ववीरिय परिनिब्बुडे, २ रजति. निपात्यतेऽधः संगेन योगी किमुतास्पसिद्धिः ॥ 1 निरसंगला मुक्तिपदं यतीनां संगादशेषाः प्रभवन्ति दोषाः आरूढयोगोऽपि ४ अर्धमागधीकोष पू. ३८२ शतावधानी रत्नचन्द्र जीम. i 1 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन केवल ऐपिथिक किया है। तत्वार्थसत्रकार प्रमत्त योग को ही हिंसा बताते हैं। प्रमत योग के हटते ही राग की बन्धक शक्ति समसार हो जाती है। दूसरा लेप बताते हैं : परिम्गहं गिण्हते जो उ अप्पं वा जति वा बहुँ । गेही मुच्छायदोसेणं लिप्पते पावकम्मुणा ॥२॥ अर्थ:--जो साधक, अल्प या बहुत परिग्रह प्रण करता है, वह गृहस्थों में ममत्वशील होता है ? वही दोष उसे पापकर्मों में लिप्स करता है। के साथ अ५ मा परिने मत रामेछ. ते हो (भभता) તેને પાપકર્મોમાં લપેટે છે. आत्मा को कम से लिप्त करनेवाली दूसरी वृत्ति परिग्रह है। पदार्थ के प्रति ममत्व ही परिग्रह है। पदार्थों के प्रति की आसक्ति उसे गृहस्थों के परिचय के लिये प्रेरित करती है। वह उन्हें ममत्व के पाश में बांध कर उनसे धन संग्रह करता है। मैं और मेरापन ही सब से बड़ा पाप है। कोहो जो उ उदीरेइ अप्पणो वा परस्स वा । सं निमित्ताणुबंधे लिप्पते पाषकम्मणा ॥३॥ एवं जाव मिच्छादसणसल्लेणं । अन्वयार्थ:-जो अपने या दूसरे के ( सुप्त) क्रोध को पुनः जगाता है, उस निमित्त के अनुबन्ध से आत्मा पाप कर्म से लिप्त होता है। ऐसे ही मिथ्यादर्शनशल्य तक जो पापकर्म है बे आत्मा के लिये लेपवत् है। જે પોતાના અથવા બીજાના (સુસ) ક્રોધને ફરીથી જગાવે છે, તે આત્મા તે નિમિત્તથી બંધાઈને પાપ કર્મમાં લિપ્ત થાય છે તે જ પ્રમાણે યાવત મિથ્થા દર્શન શય સુધી જે પાપકમો છે તે આત્મા માટે લેપવત (मा१२२० समान)छे. बयतक काय पर सैपूर्ण विजय प्राप्त नहीं हुआ है, तब तक कमी कभी क्रोध का उदय हो आमा सबज है । आग लगाने पर फायर ब्रिगेट याद आता है, ऐसे क्रोध की ज्वाला सुलगने पर क्षमा के साधकों के स्मृति पथ में लायें और उनके शाम्त जीवन के भीतल कणों से क्रोध को उपशान्त करें। यह है क्रोधोपशमन की विधि किन्तु कषाय शील आत्मा कमी कमी इससे विपरीत आचरण करता है। वह क्रोध पैदा करनेवाली भूली बातों को फिरसे स्मरण करता है और सुप्त क्रोध को जागृत करता है। दूसरे को वैर याद दिलाकर उनके दिल की सोई आग को जगा देता है। इस प्रक्रिया से आत्मा अहर्निश कषाय में जल ही रहती है। उहीर्णा जैन पारिभाषिक शब्द है। जो कर्म देर से उदय में आने वाले हों उन्हें विशेष प्रक्रियावारा शीघ्र उदय में ले आना उदीर्णा कहलाता है । ऐसे ही उपशमित क्रोध को फिर से जागृत करना भी उदीर्णा है । जिन प्रवृत्तियों से आत्मा अशुभ का बन्न करता है। वे पाप प्रवृत्तियाँ कहलाती हैं। उनकी संख्या अठारह है। जिनमें तीन यहाँ श्ता चुके हैं। शेष के नाम इस प्रकार हैं:-असल, स्तेय, मैथुन, परिप्रह, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, रति, अरति, माया-मृषा, मिध्यादर्शन । ये सभी आत्मा के लिये लेग रूप है। पाणातिवातो लेबोलेवो अलियवयणं अदत्तं च । मेहुणगमणं लेवो लेवो परिग्गरं च ॥ ४॥ अर्थः-प्राणातिपात, लेप है असत्य, चोरी, कामवासना और परिग्रह भी लेप है। प्राशतिपात ५ (धन), असत्य, योरी, आमवासना भने परियल पा (धन) ५ छे. १प्रमतयोगात् प्राणव्यपरोपगं हिंसा, तरवार्थ अ७-सू,८। २म परिमहः तत्वार्भ, अ.७, सू. १२, Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई / कोहो बहुविहो लेखो, माणो य बलुविधविधीओ। माया य बहुविधा लेबो, लोभो वा बहुविधविधीओ ॥ ५ ॥ अर्धः क्रोध के अनेक रूप है वे सब लेप है। मान के मी अनेक रूप है । माया और लोभ के अनेक प्रकार है। समस्त लेप रूप है। કૌધના અનેક રૂપે છે તે બધા બંધનકર્તા છે. માન (અભિમાન) ના પણ અનેક રૂપે છે. માયા અને લબના પણ અનેક રૂપ છે. તે બધા બંધનકર્તા છે. ऋोच कप में जाता है। कभी खाय के लिये कमी जामाजिक हितों की रक्षा के लिए भी क्रोध या जाता है। सी प्रकार अह भी बहुरूपिया है। वह कभी समाज सेवा के रूप में तो कभी त्याग विराग के रूप में आता है। इस प्रकार माया और वेभ चित्र विचित्र रूपों में आते हैं। उनका असली रूप समझना कठिन है। कषाय किसी भी रूप में किसी भी वैष में आवे आत्मपतन काही कारण बनता है। तम्हा ते विकिंचिता, पावकम्मषहर्ण। उत्तमट्टवरम्गाही, विरियत्ताप परिष्वए ॥ ६॥ अर्थः-साधक के आत्मविकास के लिए तीन बातों का निर्देश किया गया है। जीवन की ऊंचाइयों पर पहुंचने के लिए साधक बुरी युत्तियों को छोडकर अच्छाइयाँ का प्राहक बने और पुरुषार्थी मन कर घुमे ।। સાધકના આત્મવિકાસ માટે ત્રણ વાતોનો નિર્દેશ કરવામાં આવ્યો છે. જીવનની શ્રેષ્ઠતા પ્રાપ્ત કરવા માટે, સાધક ખરાબ વૃત્તિઓને છોડીને ભાલાઇનો ચાહક બને અને પુસ્થાથી બનીને ફરે. खीरे इसि जधा पप्प, विणासमवगच्छति। एवं रागो य दोसो य, भचेरविणासणा ॥ ७ ॥ अर्थः-राग द्वेष की समाप्ति के लिए ऋषिने सुन्दर रूपक दिया है। जैसे छाछ में गिरकर दूध नष्ट हो जाता है, वैसे ही राग द्वेष के मेल में ब्रह्मचर्य का तेज भी समाप्त हो जाता है। રાગદ્વેષની સમાપ્તિ માટે ઋષિએ સુન્દર રૂ૫ક આપ્યું છે. જેવી રીતે છાશમાં પડવાથી દૂધ નાશ પામે છે, તેવી જ રીતે રાગદ્વેષમાં (મલમાં) ભળવાથી બ્રહ્મચર્યનું તેજ પણ નાશ પામે છે. टीकाकार भी कहते है :--- क्षीरे यथा दुष्टिं प्राप्य यिनाशं उपगति, एवं रागन द्वेषश्च ब्रह्मचर्यविनाशनौ । अर्थः-जैसे छौंछ वृध को नष्ट कर देती है, वैसे ही राग द्वेष ब्रह्मचर्य को नष्ट करते हैं। જેવી રીતે છાશ દૂધનો નાશ કરે છે, તે જ પ્રમાણે રાગદ્વેષ બ્રહ્મચર્યને નાશ કરે છે. जहा स्त्रीरं पधाणं तु, मुच्छणा जायते दधि। एवं गेहिप्पदोषेणं, पावकम्मं पवति ॥ ८ ॥ अर्थ:-जैसे श्रेष्ठ दूध भी दही के संसर्ग से दुग्धव पर्याय को छोडकर दही बन जाता है, वैसे गृहस्थों के संसर्ग दोष से मुनि भी पापकर्म में लिप्त हो जाते हैं। જેવી રીતે શ્રેષ્ઠ દૂધ પણ દહીંના સાન્નિધ્યમાં દૂધના ત ોડી દઈને દહીં બની જાય છે, તેવી જ રીતે ચહસ્થોના સંસર્ગ-દોષથી મુને પણ પાપકર્મમાં લિપ્ત થઈ જાય છે. टीकाकार मी कहते हैं :--- - यथा तु प्रधान विशिष्ट क्षीरं मुनिया दधि जायते, एवं गृद्धिदोषेण पापकर्म प्रवर्धते ॥ अर्थ:-जैसे विशिष्ट दूध मूच्र्छना से दही बन जाता है, वैसे ही गृतिभाव से पाप कर्म बढ़ता है। જેવી રીતે વિશિષ્ટ દુધ મેળવવાથી દહીં બની જાય છે. તેવી જ રીતે ગૃદ્ધિભાવથી પાપ કમ વધે છે, Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन रणे दवग्गिणा दहा, रोहंते वणपादवा । कोहग्गिणा तु दहाणं, दुक्खाणं ण णिवतई ॥ ९॥ अर्थ :- वन में दावाभि से दग्धवन फिर से ऊग आते हैं। इस प्रकार क्रोध की आग से दग्ध आत्मा दुःख के अंकुर फिर ऊग आते हैं। क्रोधाभि से दात्र आत्मा के लिए शान्ति का पथ निवेदित किया है। कोधित मानव कोध की माग के द्वारा अपने दुःख दाता को भस्म कर देना चाहता है, किन्तु बन के वृक्ष समान उसके दुःख फिर ऊग जाते हैं। कोषित आत्मा दुःख के निमित्त को सुख का कोटा मानता है और उसे समाप्त भी कर देता है। किन्तु वे दुःख नई कोंपल के साथ फिर से फूट पटते हैं और शत्रु की अपेक्षा दुगुनी शक्ति एकत्रित कर अपने वैर का प्रतिशोध लेते हैं । જંગલમાં દાવાનળ લાગતાં વૃક્ષો બળીન ફરી પાછા ઊગે છે. તે જ પ્રમાણે ક્રોધની આગથી દાજેલા આત્માના દુઃખના અંકુર ફરીથી ઉગી નીકળે છે. ક્રોધાગ્નિથી ખળતા આત્મા માટે શાન્તિનો રસ્તો બતાવવામાં નિવેદિત ) આવ્યો છે. ક્રોધિત મનુષ્ય ક્રોધની આગથી પોતાને દુઃખ આપનારને નષ્ટ કરી દેવા માગતો હોય છે, પરંતુ જંગલના વૃક્ષોની જેમ તેનાં દુઃખો ફરીથી ઉગી નીકળે છે. टीकाकार कुछ भिन्न मत रखते हैं वे कहते हैं कि : भरण्ये दावाग्निना दग्धा वनपादपाः पुनः रोहन्ति, सुनेस्तु क्रोधामिना दग्धानां निवर्तनं प्रत्यागमो न भवति ॥ कस्तु नाम दुःखानां प्रत्यागमं इच्छेत् ॥ अर्थात् वन में दार्वाभि से दग्ध-वन वृक्ष फिर से ऊग सकते हैं परन्तु मुनि की क्रोधाम से दग्ध दुःखों का प्रत्यागम नहीं हो सकता । वे दुःख पुनः लौट कर सुनि के पास नहीं आते। किन्तु कौन ऐसा होगा जो दुःखों का प्रत्यागमन चाहेगा । पर यह व्याख्या अस्पष्ट हैं । १५ એટલે કે જંગલમાં દાવાનળથી બળેલા વૃક્ષો ફરીથી ઊગી શકે છે; પરંતુ મુનિના ક્રોધાગ્નિથી અળેલાં દુઃખો ફરીથી આવી શકતા નથી. તે દુઃખો ફ્રીથી મુનિ પાસે પાછા આવી શકતાં નથી. પરંતુ કોણુ એવો હશે કે જે દુઃખોનું પ્રત્યાગમન ઇચ્છશે ?' પણુ આ વ્યાખ્યા અસ્પષ્ટ છે, का वही णिवारेतुं वारिणां जलितो बहि । सन्धोद हिजलेणा बि, मोहग्गी दुण्णिवारिया ॥ १० ॥ अर्थ :-- सदर की जलती हुई आग को पानी से बुझाना सरल हैं, परन्तु मोह की आग को बुझाने में संसार की अनन्त जल राशि भी असमर्थ है। બાહરની મળતી આગને પાણીથી બૂઝાવવું હેલ્લું છે, પરંતુ મોહની આગને મુઝાવવા માટે સંસારના બધી સમુદ્રોની અનંત જળરાશિ પણ અસમર્થ છે. जस्स एते परिण्णाता जातिमरणबंधणा । संचिनजातिमरणा सिद्धिं गच्छेति णीरया ॥ ११ ॥ अर्थ :- जिसे जन्म और मृत्यु के बन्धन परिशास हो चुके हैं वही परिज्ञात- आत्मा जन्म और मृत्यु के बन्धनों को तोड़कर कर्म धूल से रहित हो सिद्धि को प्राप्त कर लेता है । જેણે જનમ અને મૃત્યુના બધનોને ઓળખ્યા છે, કર્મની રજથી રહિત થઈ સિદ્ધિને પ્રાપ્ત કરે છે. તે જ્ઞાની આત્મા જનમ અને મૃત્યુના અન્ધનોને તોડીને जन्म और मृत्यु में जिसे यथार्थतः बन्धन की अनुभूति होती है, वही बंधन को तोड़ सकता है। बंधन का परिशान होना ही जीवन की महत्वपूर्ण क्रान्ति है । अन्यथा आत्मा मौत से भागता है, पर जन्म से प्यार करता है और श्रेष्ठ स्थल में जन्म पाने के हेतु साधना भी करता है किन्तु स्थितप्रज्ञ आत्मा को न जन्म के प्रति मोह है, न मौत से वह भागता ही है किन्तु हाँ, आत्मविकास की दिशा में इन्हें बन्धन अवश्य मानता है । बन्धन का परिज्ञाता बन्धन तोडने की दिशा में भी आगे बढ़ता है । एवं से बुद्धे विरते। विपावे देते दविए अलंताती ॥ णो पुणरचि इत्थं यमागच्छति वि बेमि ॥ तईयं दविजस्यणं अर्थ :- देखिये प्रथम अध्ययन की अन्तिम गाथा । तृतीय दचिल अध्ययन समाप्त ॥ -0-4+-- Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन साधना के पथ में आगे बढते साधकको प्रशंसा के फूल और निन्दा के शूल दोनों मिला करते हैं किन्तु लक्ष्य की और द कदमों से आगे बढ़ते साधक को ये फूल न लुभा सकते और न शूल की चूमन उसे पथ से भ्रष्ट कर सकती है, क्योंकि जन साधारण की प्रशंसा और निन्दा केवल स्थूल मापदण्डों को लेकर चलती है। कभी वह चोर की भी प्रशंसा है तो कभी मुनि का भी तिरस्कार कर डालती है। ऐसे क्षणों में साधक सावधानी के साथ अपने आपको संभाल रखे इसीका दिशा सूचन प्रस्तुत अध्ययन में मिलता है। भारद्वाज गोत्री अंगिरस भई तर्षि उपाच-- आयाणरक्खीपुरिसे परं किंचि ण जाणती ।। असाहुकम्मकारी खलु अयं पुरिसे ॥ अर्थ:---आहान रक्षा कर्मोपादान रूप परिग्रह का रक्षक मानव दूसरी कोई बात जानता ही नहीं है। ऐसा पुरुष वस्तुतः असाधु कर्म का करने वाला है। આદાનરક્ષી (લોભી માણસ) કર્મના મુળ હેતુરૂપ પરિગ્રહની રક્ષા કરે છે તે બીજી કોઈ વાત જાણતો જ નથી. એવો માણસ परिग्रह का पिपासु केबल ग्रहण किये हुए की रक्षा ही जानता है । वह आत्मा जघन्य कर्मों को करते हुए कभी हिचकेगा नहीं। टीकाकार बोलते हैं :-- भादान कीपादानं तद्रक्षति निगृह्यतीति आदानरक्षी, मातामरक्षी भषति पुरुषो न किंचिज्जानाति अपरं जनं। आदान अथोत् कर्म के उपादान की रक्षा करता है। उस छुपाता है वह आदानरक्षी है। कर्म का उपादान' अशुभ इति भी हो सकती है और उस अशुभवृत्ति के द्वारा एकत्रित परिग्रह भी कर्मोपादान है। आगम में कर्मादान की दूसरी व्याख्या मिलती है। गृहस्थ के वे व्यापार जिनके द्वारा गाद कर्म का बन्ध हो । वे पंद्रह प्रकार के व्यापार कर्मादान है। इच्छाओं के भारसे अत्यधिक दया हुभा व्यक्ति परिग्रह के उपार्जन और रक्षण के अतिरिक्त दूसरी बात नहीं जानता। "खलु अयं पुरिसे" की ध्वनि आचारांम सूत्र के “अयं रोणे अयं उवरण" ११,२से मिलती है। चोर को अंगलिनिर्देश पूर्वक बताया जाता है ग्रह चोर है । इसी प्रकार असाधु कर्म करनेवाले के लिये यहाँ अब पाठ आया है। पुणरवि पावेहिं कम्मे हिं चोदिज्जति णिचं संसारंमि अंगिरिलिणा भारदारण अरहता इसिणा। अर्थः-ऐसा मानवसंसार में पुनःपुनः पापकर्मों के लिये प्रेरित होता है भारद्वाज गोत्री अंगिरस अहर्षिने ऐसा कहा है। એવો માણસ સંસારમાં ફરી ફરી પાપ કર્મોથી પ્રેરાય છે. ભારદ્વાજ ગોત્રી અંગિરસ નામના અહંતર્ષિ એવું બોલે છે. टीका:-असाधुकर्मकारी खस्वयं पुरिसे पुनरपि पापकर्ममिः चोवयते नित्य संसारमिति । असाधुकर्म करने वाला यह पुरुष पुनः पापकों से संसारभव प्रमण के लिये होता है, अर्थात् परिग्रह के रक्षण के लिये कर्तव्याकर्तव्य भूलकर फिरसे पाप कर्मों को उपार्जित करता है। __णा संघसता सके सीलं' जाणित्तु माणवा || परमं खलु पडिच्छमा मायाप दुट्टमाणसा ॥१॥ अर्थ:-(किसीके) साथ रहे बिना उसके शील ( खभाव) को मनुष्य जान नहीं सकता। क्योंकि दुष्ठ प्रवृति के मानव सचमुच माया से छिपे रहते हैं। -पारस कम्मादाणाई समणोवासगरस जाणियचा न समायरियब्बा । उपासक दशा अ.१। २-सोमपीति । ३-तो संबसिच सक सीहं। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ י चतुर्थ अध्ययन w एक भारतीय कहावत है "सोना जाने घसे, आदमी जाने बसे" बाहर से सब सज्जन दिखाई देते हैं, किन्तु उसके शील ( स्वभाव ) की पहिचान साथ रहने पर ही हो सकती है। इंग्लिश में मी एक कहावत है All that glitters is not gold सभी चमकने वाला सोना नहीं हुआ करता है, बाहर से सोना दिखाई देता है, किन्तु जब हम कुछ दिन उनके साथ रहें. तात्म्य फिर भी हमारी पूर्व धारणाएँ स्थिर रहे तभी समझना चाहिये वास्तव में यह सोना है । अन्यथा माया के आवरण में अनेक रंगे सिगार घूमते हैं। उन 'सावधान रहना चाहिये । टीकाकार कुछ भिन्न मत रखते हैं। + यस्य पापं शीलं जानन्ति तेन संवस्तुं न शक्नुवन्ति मानवाः । तस्मात् परममत्यर्थ प्रतिष्ठा निगूढा भवन्ति मायया दुष्टमानसाः । जिसके पापभरे शील ( आचार) को हम जान लेते हैं उसके साथ रहना शक्य नहीं है, अतः दुष्ट हृदय वाले व्यक्ति माया से एकदम प्रतिच्छन्न रहते हैं । टीकाकार की प्रस्तुत व्याख्या जररा कुछ ठीक नहीं बैठती। क्योंकि "तस्मात्" से उसका अर्थ जमने के बजाय अधिक बिगड़ता है। यिदोसे निगूहते चिरं पिणोवदंसर ॥ हि मं कोपि ण जाणे जाणेण त्थ हियं सयं ॥ २ ॥ अर्थ :- अपने दोषों को छिता है । चिर समय तक भी अपने दोषों को किसी के समक्ष प्रगट नहीं करता है । वह सोचता है दूसरा कोई भी इस पाप को नहीं जान सकता, किन्तु ऐसा सोचने वाला अपना हित नहीं जानता । તે પોતાના દોષોને છુપાવે છે અને ઘણા સમય સુધી પણ પોતાના દોષોની ૠાલોચના કરતો નથી અને તે વિચારું કે મારા પાપોને બીજો કોઈ જાણતો નથી, પણુ આવો વિચારનાર પોતાનો જ અહિત કરે છે. पूर्व गाथा में साधक को प्रेरणा दी गई थी कि माया से छिपे हुए मनुष्यों से सावधान रहना चाहिये यहां उसी माया शील व्यक्ति का परिचय दिया गया है। मायावी (छली ) मानव बडी सफाई के साथ अपने दोषों को छिपात्रता है । उसे विश्वास रहता है कि इस घटना को केवल मैं ही जानता है, दूसरा कोई नहीं । बस यही सोच कर वह निश्चिन्त रहता है। अर्थ :- उपरयत् । टीका :- निजदोषान् हि निगूहम्ले आत्मानं चिरमपि नोपदशैत्रेत् । हृद्द न कोऽपि मां जानीयादिति मत्वाऽऽरमहितं स्वयं न जानाति । जेण जाणामि अप्पार्ण आवी वा जति वा रहे ॥ अज्जयारि अणजं वा तं णाणं अयलं धुवं ॥ ३ ॥ अर्थ ': - जिसके द्वारा मैं अपने आपको जान सकूं, प्रत्यक्ष या परोक्ष में होनेवाले अपने आर्य और अनायें कमों को देख सकूँ, वही ज्ञान शाश्वत है। જેના વડે હું પોતાની જાતને જાણી શકું, પ્રત્યક્ષ અગર પરોક્ષમાં થનારા મૉરા આર્ય અને અનાર્ય કર્મીને તેઈ શકું તે જ સાચું અને શાશ્વત ગાન છે. मनुष्य दूसरे के पुण्य पाप का लेखा जोखा अधिक रखता है और उसी में अपनी ज्ञान गरिमा मान बैठता है। किन्तु अगिऋषि कहते हैं वही ज्ञान सत्य है जिसके द्वारा मैं अपने आपको जान सकूँ, मेरे अपने आर्य और अनार्य कम को पहचान सकूं 1 याणि भित्तीए चित्तं कट्ठे वा सुणिवेसितं । मस्स-हिय पुणिणं गहणं दुब्वियाणकं ॥ ४ ॥ अर्थ :- दीवारों पर अंकित सूत्र और क्राप्ट में आलेखित चित्र दोनों सुविज्ञात हैं । किन्तु मानव का हृदय गइन और दुर्विज्ञात है । ક્ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + इस - भासियाई १८ गुजराती भाषान्तर : દીવાલો પર કોતરેલા સૂત્રો અને લાકડા પર દોરેલા ચિત્રો સ્હેજ સમઝઈ જાય છે ત્યારે માજીસના હૈયાને જાણવું ઘણું કઠણ છે કેમકે તે ગહન છે. } मानव बाहर से नहीं भीतर से परखा जाता है। चित्रों को समझ लेना जितना सरल है उतना ही मनुष्य हृदय को जान केना कठिन है। टीकाकार का अभिप्राय भी समान है “सुग्राणिति” सुयानेत्ति स्थाने सुज्ञातं भवति चित्र भिश्यां काभ्रे 41 निवेशितं, इदं मनुष्य तु तं दुर्विज्ञानध्यं । दीवार और काल पर अंकित चित्र अज्ञात होता है, किन्तु हृदय गहन हैं, जल्दी से उसे कोई समझ नहीं सकता । अण्णा स मणे होइ, अनं कुणंति कम्मुणा ॥ अण्णमगणाणि भासते, मणुस्स महणे हु से ॥ ५ ॥ अर्थ :--- जिसके मन में कुछ दूसरा है और कार्य कुछ दूसरे हैं, पर वे एक दूसरे से बोलते हैं तूने मनुष्यजन्म पाया है । गुजराती भाषान्तर : માણસનું હૈયું ગહન કેમ છે તે બતાવે છે, તે મનમાં બીજું વિચારે છે ત્યારે દેહથી કામ કાંઈ જીંદા જ કરે છે. તેમાં નવાઈ તો આ છે કે આવું પોતે ફરતાં છતાં એક બીજાને કહે છે તમે મનુષ્ય અવતાર પામ્યા છો, તેને શા માટે બગાડો છો. जिनका बाहरी रूप कुछ दूसरा होता है और भीतरी कहानी कुछ दूसरी होती हैं उन्हीं साधकों का यहां चित्रण दिया है। बाहरी सिंका तो पूर्ण आत्म-संयमी साधक का है, किन्तु भीतरी सिक्का खराब है: किन्तु तारीफ तो यह है कि वे एक दूसरे को उपदेश देते हैं तुमने सुन्दर-सा मानव जीवन पाया है, इसे क्यों मिट्टी के मोल खतम कर रहे हो । टीका :- अन्यथा स भवति मनसि अन्यत् कर्मणा वेष्टितेन कुर्वन्ति, अन्यत्तु भाषन्ते पुत्रमन्येभ्यो मनुष्येभ्यो गहूनः स खलु पुरुषः । जहाँ मन, वाणी और कर्म की एकता है वहीं साधुत्व हैं। जिसके मन में कुछ दूसरा है, जिसकी वाणी में कुछ और है और जिसके कार्य में कुछ तीसरी ही बात है, वह दुरामा है । तण-खाणु-कंडकलता-घणाणि वल्लीघणाणि || सदणियिसंकुलाई मगुस्स-हिंदवाई गहणाणि ॥ ६ ॥ अर्थ :- घांस ठूंठ, कैटकलता, बादल, लतामण्डप के सदृश मनुष्यों के शट, छली संकुचित और हृदय होते हैं। गुजराती भाषान्तर : માણસોના હૈયાં વિચિત્ર હોય છે. કેટલાકનાં હૈયાં ઘાંસ જેવા તુચ્છ, કેટલાકનાં કાંટાંની બેલડી જેવા બીજાને ચુલનારા હોય છે તો કેટલાકનાં હૈયાં વાદળાં અને લતામંડપ જેવા પણ હોય છે, જે બીન્તને શાન્તિ આપે છે. તો કેટલાકના હૈયાં શઠ ઇલિયા અને સંકુચિત પણ હોય છે. १ तृण-पशु की परीक्षा आहर से होती है, जब कि मानव की परीक्षा उसके हृदय से होती है। यहां मानव के पांच हृदय बताये गये हैं । किसी का हृदय तृण सा क्षुद्र होते है, जो शक्तिहीन है और अपने आप की रक्षा भी जो अपने आप नहीं कर सकता, न दूसरे किसी आर्थिक अभाव की तपती दुपहरी में क्लान्त मानव को छाया देने में भी समर्थ है। २ ( खाणुं ) दूसरा वह हृदय जिसने विकास तो किया है, किन्तु जिसकी जीवन की मधुरता के पत्ते तर चूके हूँ रसहीन जीवन जीनेवाला । १ –मनस्येकं वचस्येकं काये चैकं महात्मनाम् ॥ मनस्यन्यत् वचस्यन्यद् काये चान्यत् दुरात्मनाम् ॥ १ ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन ३ कण्टकलता-सिने पत्तों की सम्पत्ति सो पाई किन्तु आश्रय लेने वाले के पैर में हल बनकर घूभा । ४ मेह (घुन)-किसी का हृदय मेघ जैसा होता है । खारे पानी को मीठा मनाकर देने की कला मेघ में है। ऐसे हृदय वाला व्यक्ति कटु प्रसंगों को भी मधुरता में बदल देता है। ५ लतामण्डप जिसने पत्र-पुप्पो का सौन्दर्य पाया है. वह कोमलांगी लता जेठ की तपती दुपहरी में स्वयं तप कर भी अपनी गोद में थाने वाले को शीतल छाया ही देता है 1 एक बह भी इदय है जो स्वयं तप कर भी दूसरे के जीवन में शीतलता प्रदान करता है। भुजित्तु उचावए भोर, संकप्पे कडमापसे ॥ आदरणरपती पुरिसे, परं किंणि जाणति ॥ ७ ॥ अर्थ:-परिग्रह का पिपास मानव संकल्प पूर्वक उच्चतर भोगों का उपभोग ही चाहता है। दूसरी दात वह जानता ही नहीं है। गुजराती भाषान्तर પરિગ્રહને ઉપાસક માણસ પોતાના મનમાં સારાં સારાં ભોગા સંકલ્પો જ કરતો હોય છે. ભોગથી હટીને ત્યાગ તરફ આવવું તેને ગમતું જ નથી. अदुवा परिसामज्झे, अदुवा विरहे कडं ॥ ततो निरिक्ख अप्पाणं, पावकम्मा णिरुभति ॥ ८॥ अर्थ:-परिषद में बैठे हैं तब दूसरा रूप है, और एकान्त में है तब कुछ दूसरा रूप है। किन्तु सच्चा साधक आत्म निरीक्षण करके पाप कर्मों को रोकता है। गुजराती भाषान्तर: જેને મન ત્યાગની તરફ આકર્ષાયો નથી એવો સાધુ સભામાં બેસે છે ત્યારે એનું રૂપ જુદું હોય છે ત્યારે એની વર્તણુક બીજી હોય છે. ત્યારે સાચો સંત પોતાની આત્માને જોઈને પાપકર્મથી પોતાને રોકે છે. जनता के सामने रहें तब दूसरा रूप रखना और उनसे दूर होते ही दूसरा रूप अपना लेना यह बहुरुपियापन जीवन को ले हुयता है । यह धोखा-पी है। कोई देख रहा है तब इमारी चर्या में पूरा संयम उतर आता है और उनके दृष्टि से हटते ही अपना रूप बदल लेते है तो हम ईमानदार तो नहीं कहे जा सकते । बुनियाँ की आँखें देखें या न देखें साधक की अपनी ऑखें तो उसे देख रही है। दुनियाँ की आँखें हमें कब तक बुराई से बचाए रखेगी। असल में तो हमारी आँखें ही हमें बचा सकती हैं। वही जीवन का सबसे बड़ा सत्य है कि साधक हजारों के बीच में बैठा हो या धन के सूने एकान्त में हो उसकी साधना की धारा एक रूप में बहनी चाहिये । भगवान महावीर ने कहा है। - से भिक्खू वा भिक्खुणी बा ।... विभावाराभो वा एगओ वा परिसागलो वा सुते वा जागरमाणे वा । दशवै० अ.४ भिक्षु या भिक्षुणी छोटे छोटे गावों में घूमती हों या बडे २ शहरों में हो, वे अकेली हो या जनता के समक्ष हो, स्वप्न - में हों या जागृति में उनकी साधना अपरिवर्तित रूप में रहे। दुप्पचिपणं सपेहाए, अणायारं च अपणो ॥ अणुवहितो सदा धम्मे, सो पच्छा परितप्पति ॥९॥ अर्थ:--अपने दुष्प्रचीर्ण (दुर्वासना से अर्जित) कर्म और अनाचारों के प्रति देखता हुआ भी जानबूझ उपेक्षा करनेवाला और धर्म के लिये सदैव अनुपस्थित रहनेवाला व्यक्ति जीवन की संध्या में पश्चाताप करता है। गुजराती भाषान्तरः-- પોતાના દુષ્પચી (અશુભ વૃત્તિથી ભેગા કરેલાં) કર્મ અને અનાચારોને પ્રતિ જાણું જોઈને ઉપેક્ષા સેવનાર અને ધર્મના માટે કદી પણ તૈયાર નહિ રહુનારો માણસ જીવનની આખરી ઘડીમાં પશ્ચાત્તાપ કરે છે. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - इति-भासियाई सुपहाणं सपेहाए, आयार वा वि अपणो । सुपटिद्वितो सदा धम्मे, सो पच्छा उतपति ॥ १०॥ अर्थ:-अपने श्रेष्ठ आचारों के प्रति सतर्क और धर्म में सदैव सुप्रविष्टित रहनेबाला जीवन की संध्या में कमी पश्चाताप के आंसू नहीं नहाता है। गुजराती भाषान्तर: શ્રેષ્ઠ આચારોને વિચાર પૂર્વક જીવનમાં ઉતારનાર અને ધર્મને માટે સદા તત્પર રહેનારે કોઈ દિવસે પશ્ચાત્તાપના આસુંઓ વહાવતો નથી. पुध्यरत्तावरत्तम्मि, संकप्पेण बटुं कडं ॥ . सुकई दुकडं या वि, कसारमणुगच्छह ॥ ११ ॥ अर्थ: पूर्व रात्रि और अपर रात्रि के क्षणों में संकल्पों के द्वारा आत्मा ने जो भी अच्छे या बुरे कार्य किये है वे कर्ता का अनुगमन करते हैं। गुजराती भाषान्तर: પહેલી અને પાછલી રાતે સંકલ્પ દ્વારા આમા એ સારાં કે નરસાં કામ કર્યા છે તે કર્તાનું અનુશમન કરે છે. आत्मा शुभाशुभ वृत्तियों के द्वारा जो भी कर्मदलिक एकत्रित करता है वे संचित कर्म तब तक आत्मा अनुगमन करते हैं जब तक कि वे विपाकोदय या प्रदेशोदय के द्वारा भोग कर निर्जरित नहीं हो जाते। टीका:- पूर्वराने तथाऽपररात्रेऽतीतातीततरकाले संकल्पेन चिकीर्षया बहु कृतं यत् सुकृतं वा दुष्कृत या कर्म सत् कर्तारमनुगच्छति तस्य जीवे सज्जति। । पूर्वरात्रि तथा अपर रात्रि के अतीत और अतीततर काल में शुभाशुभ अध्यषसाय और संकल्पों के द्वारा जो कुछ शुभाशुभ कर्म आत्मा संचित करता है वे कर्म अपने कर्ता का अनुगमन करते हैं । सुकई दुकाडं वा घि, अप्पणो यावि जापति ॥ ण य णं अपणो बिजाणाति, सुकडं णेच दुष्कर्म ॥ १२॥ , .. अर्थ:-अपने अच्छे या बुरे कर्मों को आत्मा स्वयं जानता है, किन्तु किसी के अच्छे बुरे कार्यों को दूसरा व्यक्ति जान नहीं सकता है। गुजराती भाषान्तर: પોતાના સારા કે ખોટા કને આત્મા પોતે જ જાણે છે. બીજી વ્યક્તિ કોઈના સારાં કે નરસાં કમોને જાણી तीनथा.. किसी को अच्छाई और धुराई के सम्बन्ध में व्यक्ति बहुत जल्दी निर्णय दे देता है, किन्तु अपनी अच्छाई और बुराई का तौल व्यक्ति खतः जितना कर सकता उतना दूसरा नहीं। व्यक्ति की स्थूल अखेिं अच्छाई और बुराई के स्थूल रूप को ही देख सकती हैं, किन्तु मजबूरियों के वे पतले धागे स्थूल आने नहीं देख पाती है; जिनसे बन्धकर जघन्य कार्य करने के लिये व्यक्ति विवश हो जाता है। नर कल्लाणकारिपि, पावकारिति बाहिरा॥ पाधकारिपि ते वूया, सीलमंतो ति बाहिरा ॥ १३॥ . अर्थ: बाहरी दुनियाँ कल्याणकारी यात्मा को भी पापकारी बतलाती है। और अन्तर तक न पहुंचने वाले दुराचारी को भी सदाचारी कह डालते हैं। गुजराती भाषान्तर: આદ્ય દષ્ટિવાળો આત્મા કલ્યાણકારી આત્માને પણ પાપકારી બોલે છે, અને ભીતર સુધી ન પહોંચી શકનાર માણસો દુરાચારીને પણ સદાચારી બતાવી દિયે છે. १-कचारमेवमणुजार कम्मं । उत्त०१३-२३, Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन मोनिता पनि गुण निगजिन ण से पत्तायताऽचोरे, ण से इत्तवताऽमुणी ॥ १४ ॥ - अर्थ-स्थूल-दृष्टि जनता कमी चोर की भी प्रशंसा करती है और कभी कमी नुनि को उस के द्वारा धृणा भी मिलती है किन्तु इतने मात्र से चोर सन्त नहीं बन आता और रान्त असन्त नहीं हो सकता । गुजराती भाषान्तर: સ્થાષ્ટિવાળી જનતા ક્યારેક ચોરની પણ પ્રશંસા કરે છે અને ક્યારે ક્યારે તે મુનિને પાણ કણાની દૃષ્ટિથી જુવે છે. પણ એટલા માત્રથી કોઈ ચોર સખ્ત બની જતો નથી અને સંત તે ચોર થઈ જતો નથી. ___ साधक अपने आप को बाहिरी आँखों से तौलने का प्रयक न करें। दुनिया की निन्दा और प्रशंसा के गज से अपनी अच्छाई और बुराई को न मापे । क्योंकि दुनियाँ के गज दूसरे को मापने में कभी कभी गलती भी कर बैठते हैं। दुनियाँ की आँखों में जो सन्त है उपरी तद्द को चीर कर भीतर झांकने पर वह एक चोर भी निकल सकता है और दुनियाँ जिसे बोर मान कर जिस पर घृणा बरसा रही है। बाहर से जिस का जीवन सूखा रेगिस्तान दिन्जलाई दे रहा करुणा के हल्के हाथों उपर का कठोर आवरण हटाने पर अन्तर में वर दया प्रेम और करुणा का क्षरना भी बहता हुआ दिखाई दे सकता है। णण्णस्त वयणा चोरे, णपणस्स वयणा मुणी॥ अप्पं अप्पा वियाणाति, जे या उत्तमणाणिणो ॥ १५॥ अर्थ:-किसी के कथनमात्र से कोई बोर नहीं बन जाता और किसी के कहने से कोई सन्त नहीं बन जाता। अपने आप को खर्य जानता है या सर्वज्ञ जानते है। गुजराती भाषान्तर: કોઈના કહેવા માત્રથી કોઈ ચોર બની જતો નથી અને કોઈને કહેવામાત્રથી કોઈ સન્ત પણ બની જતો નથી. આમા પોતાને પોતે જ જાણે છે કે તેને સર્વજ્ઞ જાણે છે, किसी के बोलने से सन्त चोर नहीं बन सकता है और वोर सन्त नहीं। अपनी यथार्थ स्थिति व परिस्थितियों को हम जानते हैं यह वे अनन्तज्ञानी जानते हैं। जद मे परो पसंसाति, असाधु साधुमाणिया ॥ न मे सातायए भासा, अपाणं असमाहितं ॥ १६ ॥ अर्थ:-यदि मैं मसाधु हूँ और साधु मानकर वूसरा मेरी प्रशंसा करता है, यदि मेरी आत्मा असयत है तो यह प्रशंसा की मधुर भाषा मुझे संयत नहीं बना सकती। गुजराती भाषान्तर: અગર હું સાધુ છું અને બીજે સાધુ માનીને મારી પ્રશંસા કરતે હોય અને જે મારો આત્મા સંયમમાં ન લેમ તો બીજાની આ પ્રશંસાની ભાષા મારી વિકાસ કરી શકશે નહિ! यदि साधक के जीवन में संयम का अभाव है किन्तु खार्थ या अंधश्रद्धा से प्रेरित जनता यदि एक सन्त के रूप में उनका सन्मान करती है, वह घद्धा के सुमन मी बरणों में चढाती है, केन्तु वे प्रशंसा के फूल असाधु को साधु के स्प में बदल देने में असमर्थ रहेंगे। प्रशंसा के फूलों में कभी साधक का मन फिसलन का अनुभव करता है तो अईतर्षि उसे सावधान करते हैं । जति मे परो विगरहाति, साधु संत णिरंगणं । ण मे सकोसप भासा, अप्पाणं सुसमाहितं ॥ १७ ।। अर्थ :-यदि मैं निर्धन्य हूँ और जनता मेरी मरमानना करती है तो निन्दा की यह भाषा मुम में साक्रोश नहीं पैदा कर सकती है, क्योंकि मेरी आत्मा सुसमाधिस्थ है। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई - गुजराती भाषान्तर: જો હું સાધુ છું અને લોકો મારા પ્રત્યે ઘણા કરે છે, તો પણ મને ચિન્તા નથી; કેમકે તે નિદાની ભાષા મને ક્રોધ ઉપજાવી શકે નહિં; કારણકે મારશે મા સમાધિમાં છે. यदि गाधक में गाधुभाव हैं तो फिर बाहिरी दुनियाँ भले ही असाच समझकर निन्दात्मक आलोचना क्यों न करे, जरासे साधक कभी क्रुद्ध न होगा। प्रशंसा के फूल साधु के मन में गुदगुदी नहीं पैदा कर सकते, न निन्दा के सूल उस के मन में टीस ही पैदा करेंगे। निन्दा और प्रशिक्षा में साधक की जीवनतुला सम रहती है। हर क्रान्तिकारी को निन्दा और अपमान के कहने पूँट पीने ही पड़ते है। अपमान का जहर के चूंट पीने के बाद ही शिव बना जा सकता है । यदि साधक अपने प्रति ईमानदार है तो उभे दुनियाँ की आलोचनाएँ अपने मार्ग से हटा न सकेगी। जं उल्का पसंसंति, वा निदंति वायसा ॥ निंदा वा सा पसंसा वा, वायुजालेव्य गच्छती ॥ १८॥ अर्थ:--उलूक जिसकी प्रशंसा करे और कौवे निशामिन्दा वर, पसिन्दा र मह प्रशंसा दोनों ही हवा की भाँति उड़ जाती हैं। गुजराती भाषान्तर:-- ઘૂવડ જેની પ્રશંસા કરે અને કાગડાઓ જેની નિન્દા કરે આવી નિન્દા અને પ્રશંસા હવા માફક ઉડી જાય છે, जिस निन्दा और प्रशंसा के पीछे दृष्टि का कालापन रहा हुआ है, जिसके पीछे केवल साम्प्रदायिक, स्वार्थिक ममत्व बोल रहा है, वे निन्दा और प्रशंसा तथ्य-विहीन है। उसी के लिये नुन्दर-सा रूपक दिया है । जय प्रकाश की निन्दा करता है और अंधकार की स्तुति करता श्रेष्ठ बतलाता है । और कौवा रात्री की निन्दा करता है । यह निन्दा और प्रशंसा वस्तु की अच्छाई और बुराई के प्रति नहीं है । अपने स्वार्थ की साधना अंधेरे में होती देख रात्री की प्रशंसा ही करेगा । और कौवे के साथ में क्षति होती है तो वह निन्दा करेगा ही। जं च बाला पसंसंति, जं था णिदंति कोविदा॥ वर्णदा वा सा पसंसा वा, पपाति कुरुए जगे ।। १९ ॥ . अर्थ:-अज्ञानी जिसकी प्रशंसा करता है और विद्वान जिसकी निन्दा करता है, ऐसी निन्दा और प्रशंसा इस छली दुनियों में रात्र उपलब्ध है। गुजराती भाषान्तर:- અજ્ઞાની જેની પ્રશંસા કરે અને વિદ્વાન જેની નિન્દા કરે, આ કપટી દુનિયામાં આવી નિન્દા અને પ્રશંસા સર્વત્ર મળી આવે છે. ___ अज्ञानी और भोली जनता सत्य ले अछुती रहने के अंधश्रद्धा के अंधेरे में पलती है, अतः उससे प्रशंसा प्राप्त कर लेना सहज है। विद्वानों की दुनिया में प्रशंसा उतगी सस्ती नहीं रहती, क्योंकि उनमें भावुकता का अभाव है। हाँ; आलोचना का भाव गर्म रहता है । क्योंकि दूसरे की प्रशंसा को पचा लेने के लिये आवश्यक पाचन-शक्ति का उसमें अभाव होता है । अतः इस मायाशील विर में निन्दा और प्रशंसा कदम कदम पर मिलती है, किन्तु साधक को दोनों से सावधान रहना है। साथ ही निर्भीक भी। जो जत्थ बिजती भावो, जो वा जत्थ ण विज्जती ॥ सो सभावेण सम्वो चि, लोकम्मि तु पवत्तती ॥ २० ॥ विसं वा अमतं वावि, सभावेण उपट्टितं ॥ चंदसूरा मणी जोती, तमो अम्गी दिवं खिती ॥ २१ ॥ अर्थ:-जो भार जहाँ उपलब्ध है या जहाँ जिसका अभाव है यह सद्भाय या अभाव लोक में भ्याभाविक ही है। दुनियों में अमृत भी है और विष भी है। चन्द्र और सूर्य, अंधकार और प्रकाश, मणी और अग्नि, स्वर्ग और पृथ्वी, सब कुछ स्वभाव से ही उपस्थित हैं। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन गुजराती भाषान्तर:-- કોઈ ભાવ ક્યાંક ઉપલબ્ધ છે અને કોઈ વસ્તુ ક્યાં નથી પણ આ સદ્ભાવ અને અભાવ લોકમાં સર્વત્ર સ્વાભાવિક રૂપે જ છે. દુનિયામાં અમૃત પણ છે અને ઝેર પણ છે. ચોદ, સૂરજ, અંધારૂં અને પ્રકાશ માંણુ અને અગ્નિ, સ્વર્ગ અને પૃથ્વી અધા સ્વભાવથી જ રહેલા છે. 'विश्व की प्रत्येक वस्तु अपने २ स्वभाव में उपस्थित है हमारे चाहने या न चाहने से किसी का सद्भाव और अभाव नहीं हो जाता। दुनियाँ में अंधकार भी अनन्तकाल से है और प्रकाश भी अन्न्त काल से है । अमृत भी अनादि है और जहर भी । साधक को उलझना नहीं है। सीधी राह पर लक्ष्य की ओर कदम बढ़ाना उसका उद्देश्य हैं । २३ वदतु जणे जं से इच्छियं, किंणु कलेमि उदिष्णमप्पणो ॥ भावित मम णत्थि एलिसे, इति संखाए न संजलामहं ॥ २२ ॥ 1 I अर्थ ः– कोई भी जो चाहे वह बोल सकता है। मैं अपने आप को उद्विन क्यों करूँ । मुझसे वह सन्तुष्ट नहीं है। यह समझकर मैं कुपित नहीं होता हूँ । गुजराती भाषान्तर: કોઈ પણ માણસ જેમ ફાવે તેમ ઓલી શકે છે, હું પોતાને કલેશમય શા માટે થવા દઉં. તે મારાથી સંતુષ્ટ નથી આ સમજીને હું કોધ નથી કરતો. कोई भी मानव सारी दुनियाँ को प्रसन्न नहीं कर सकता, सूर्य सबको प्रकाश देता है, फिर भी घुग्घू उसकी आलोचना करेगा ही । जिसके स्वार्थ को ठेस लगेगी वह आलोचना अवश्य करेगा | उस स्थिति में नाधक अपनी मनःस्थिति गढ़वाने न दे वह सोचे दुनियाँ चाहे जो बोल सकती है यदि मैं संयम और साधना के प्रति वफादार हूँ, तो मुझे इन आलोचनाओं सेउसि नहीं होना है। मेरे द्वारा इसके स्वार्थ को सहयोग नहीं मिल रहा है, इस लिये यह मेरे पर क्रुद्ध हैं। फिर मैं क्यों इसके प्रति क्रोध लाकर अपनी शान्ति को भंग करूँ ? । टीका :- वदतु जनो यद् यस्येष्टं नृणवत् तव् गणयामि । किं नु करोम्यहं यज्ज्ञानेनारमस्वभावेनोदीर्णम् ? नैवारिस तस्य कर्तेति भावः । नास्तीदर्श भम भावितमिति संख्यायाहं न संज्वलाम न क्रुध्ये, किन्तु अनस्य आक्षेपं क्षमे । तु "ल" श्रुति गर्भ वैतालियमम्यस्य कस्यचिद् कवेः कृतिरिन हयते । जिसको जो इष्ट है वह बोल सकता है। उसे मैं तृणवत् गिनता हूँ। उसे जानकर मैं अपने आपको उदीर्ण क्यों करूँ ? | मैं उसका कर्ता नहीं हूँ और न मेरा ऐसा बुरा करने वाला कोई विचार ही है। यह सोच कर मैं उन पर कुपित नहीं होता हूं । अतः जनता के आक्षेप को मैं सहूँगा । "ल" श्रुतिवाला यह वैतालिक ( छंद ) किसी अन्य कवि की कृति होना चाहिये । अक्खोवंजण माताया, सीलवं सुसमाहिते || अप्पण धमप्पाणं, चोदितो वहते रहं ॥ २३ ॥ अर्थ :- अप्रवचन माता रूप अक्ष ( रा ) से युक्त शीलवान मुसमाहित आत्मा का रथ आत्मा के द्वारा प्रेरित होकर चलता है । गुजराती भाषान्तर: આફ પ્રવચન માતા (પાંચ સમિતિ ત્રણ ગુપ્તિ ) રૂપ અહ્ન ( ધુરા ) સહિત શીલવાળો ચુસમાધિસ્થ આત્માનો રથ આત્મા દ્વારા જ પ્રેરાઈને ચાલે છે. जीवन भी एक रथ है जिसकी धुरी में अष्टप्रवचन माता ( पांच समिति तीन गुप्ति) का तेल लगा हुआ वह अपनी गति पर स्वतः प्रेरित होकर आगे बढ़ता है। सीलफ्खर हमारूढो, णाण-सा सारही ॥ अप्पणा चैवमप्पाणं, जदित्ता सुभमेहती ॥ २४ ॥ पर्व से बुजे मुत्ते० तार्थ । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई अर्थ:-शील ही जिसका अक्ष है, ज्ञान और दर्शन जिसके सारथी है, ऐसे रथ पर आस्ट होकर आत्मा अपने द्वारा अपने आपको जीतता है और शुमस्थिति को प्राप्त करता है। गुजराती भाषान्तर: સીયલ જેની ધુરા છે અને જ્ઞાન અને દર્શન જેના સારથી છે, એવા રથ ઉપર બેસીને આત્મા પોતે પોતાને જીવે છે અને શુભ સ્થિતિ મેળવે છે. ब्रह्मचर्य की सुहत धुरा और ज्ञान दर्शन जैसे कुशल सारधी को पाकर शुभ आत्मपर्याय अशुभस्थित आस्मपर्याय से युद्ध करता है और शुद्ध रूप को प्राप्त करता है। यहां जीवन युद्ध का चित्रण दिया गया है । आत्मा बाहिरी संघर्ष अनन्त २ वार कर चुका है। उसमें तलवार के बल पर उसने विजय भी पाई, किन्तु एक दिन बद्द पराजय के रूप में बदल जाती है। विश्व विजेता अपने घर पर शासन नहीं चला सकता । और गृह-विजेता अपनी इन्द्रियों पर शासन नहीं चला सकता । इन्द्रिय-विजेता के लिये शुभ आत्मपरिणति पर विजय पाना कठिन है। उसी अशुभपरिणति से युद्ध के लिये साधक को प्रेरित किया है। पश्चीसवाँ गाथा में रथ का रूपक दिया है, उसी रथ पर आरूढ़ होकर ब्रह्मचर्य की सुदृढ धुरा बनाकर युद्ध के लिये आगे बढ़े। यहां विजय के रूप में शुभस्थिति का वर्णन किया है। आत्मा की अशुभस्थिति पापाश्रव है, शुभस्थिति पुण्याश्रव है, किन्तु आत्मा की शुद्धस्थिति निर्बन्ध है, उसी की ओर यहां इंगित है, किन्तु आगम में शुद्धस्थिति के लिये प्रायः शुभ ही प्रयुक्त हुआ है। आत्म-युद्ध का रूपक उत्तराभ्ययन भी दिया गया है। इन्द्र के उत्तर में राजर्षि नमि आत्म-युद्ध का विस्तृत सांग रूपक देते हैं। चउथ अंगिरिसिणामझयणं । ॥ चतुर्थ अध्ययन समाप्त ॥ १ उत्तरा अ०९ गाथा २०-२२ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्ययन पुण्फसाल - अज्झयण पुप्फसालपुत्त उत्राचः— मन का अहंकार आत्मा के सूक्ष्म शत्रुओं में एक है। अहंकार पर ठेस लगती है तो कोध उछलता है । अहं ही विकास पाकर कुटुम्ब और परिवार बनता है। यही मैं और मेरा पाप के अग्रदूत हैं। पंचम अध्ययन अहं विजय के लिये प्रेरणा देता है। माणः पचोरित्ताणं, बिण अव्याणुवदंस ॥ पुप्फसाल पुसेण, अरहता इसिणा बुहयं ॥ १ ॥ अर्थ :- मान से नीचे उतरे हुए विनय में आत्मा को स्थित रखने वाले पुष्पलालपुत्र अतर्षि ने कहा है । गुजराती भाषान्तर :-- માનથી ટુડે ઉતરેલા અને વિનયમાં પોતાના આત્માને સ્થિર રાખનાર પુષ્પશાલપુત્ર નામક અદ્ભુત એ આમ કહ્યું છે. शुद्र आगाम सिरसा, भले लिखाण अंजलि ॥ पाण-भोजण से किया, सव्वं च सयणासणं ॥ २ ॥ अर्थ :- उन्होंने मस्तक के द्वारा पृथ्वी को छूकर भूमि पर अंजलि करके भोजन पानी और समस्त शयनासन का त्याग कर दिया है। गुजराती भाषान्तर: તેમને મસ્તક દ્વારા પૃથ્વીને સ્પર્શ કરીને તથા ભૂમિ ઊપર અને હાથ જોડીને સર્વ ભોજન પાણી તથા શય્યાસનનો ત્યાગ કર્યો છે. समाणस सदा, संति आगम वट्टती ॥ कोध-माण-पहीणस्स, आता जाणइ पंजवे ॥ ३ ॥ अर्थ :- नमस्कार करने वाले की आत्मा सदैव शान्ति और आगम में लीन रहती । क्रोध और मान से विहीन आत्मा पर्यायों को जानता है। गुजराती भाषान्तरः નમસ્કાર કરનાર આત્મા સદા શાન્તિ તથા આગમ ્ શાસ્રવચન )માં તલ્લીન રહે છે, જેણે ક્રોધ તથા भान त्या छे ते ( सर्व द्रव्योनी ) पर्यायोने लगे है. नमनशील आत्मा की निश्रा आगम में होती है । और आगमाभ्यादी शान्तिपथ से परिचित रहता है। अशान्ति के मूल क्रोध और अहं से उपरत होकर आत्मा समस्तपर्यायों को जानता है । कषाय मोह के क्षय के साथ अन्तर्मुहूर्त में शेष तीनों घातिकर्म क्षय कर आत्मा सर्वश बनता है । सर्वज्ञ द्रव्यों की अनन्त पर्यायें युगपत् जानते हैं। छास्थ समस्त दन्यों का परिज्ञान रखता है, किन्तु एक ब्रव्य की भी वह समस्त पर्यायों को वह नहीं जान सकता । वाचकमुख्य भी बोलते हैं"मतिश्रुतयोर्निबंधः सर्वद्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु मति श्रुत का विषय प्रबन्ध समस्त प्रव्यों में है, पर समस्त पर्यायों में नहीं है । "द्रव्यपर्यायेषु के लक्ष्य" केवलज्ञान का विषयनिर्बन्ध समस्त द्रव्यपर्यायों में युगपत् है । तत्वार्थसूत्र अ० १ सूत्र २७-३०. टीका :- मानात् प्रत्यवतीर्य मानं त्यक्वा विनय आत्मानं उपदर्शयेत् क्रोधमानहीनस्य आत्मा पर्यायान् जानाति, कोषस्थाने शमं सेवते मानस्थाने मार्दवम् । मान रूप गज से नीचे उत्तर कर आत्मा विनय के दर्शन करता है । क्रोध-मान से विहीन आत्मा पर्यायों को जानता है। क्रोध के स्थान पर शान्ति और मान के स्थान पर मार्दव को प्राप्त करता है । ४ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि भासियाई ण पाणे अतिपासेजा, अलियादिष्णं च वज्जव ॥ पण मेहुणं च सेवेजा, भवेया अपरिग्गहे ॥ ४॥ अर्थ :- साधक प्राणातिपात का सेवन न करे। असल और स्वेय का वर्जन करे। मैथुन का सेवन न करे। और अपरिग्रही बने । २६ गुजराती भाषान्तर: મુનિ પ્રાણાતિપાત (હિંસા ) ન કરે, અસત્ય તથા ચોરીને છોડ, મૈથુનનો ત્યાગ કરે અને અપરિગ્રહી બને. प्रस्तुत गाथा में साधक जीवन में पांच महाव्रतों का निरूपण किया है। यद्यपि पुष्पशालपुत्र ऋषि भगवान नेमनाथ की परम्परा के हैं, किन्तु यहाँ पंच महावतों का पृथक् पृथक् निरूपण करते हैं। कोह- माण-परिष्णस्ल, आता जाणाति पज्जवे ॥ कुणिमं च ण सेवेज्जा, समाधिमभिदं ॥ ५ ॥ अर्थ :- क्रोध यान का परिज्ञाता आत्मा पर्यायों का भी परिज्ञाता है। समाधि का इच्छुक साधक मांस का मी सेवन न करे । गुजराती भाषान्तरः ક્રોધ તથા માનને જીતનાર આત્માના પર્યાયોને પણ જાણે છે. સમાધિને ચાહનાર સાધક માંસનું પણ સેવન ન કરે. आगम में दो प्रकार की परिज्ञा बताई है-- ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यानपरेक्षा । ज्ञपरिज्ञा से साधक वस्तु के स्वरूप को जानता है और प्रत्याख्यानपरा से आश्रय का करता है। एवं से मुखे विरए पावाओ० ॥ अर्थ :- इस प्रकार प्रबुद्ध आत्मा पाप से विरक्त होता है। गुजराती भाषान्तर: આ પ્રમાણે પ્રભુદ્ધ આત્મા પાપથી મુક્ત થાય છે. इति पंचमं पुप्फसालपुत णामायणं ॥ इस प्रकार पुष्पशालपुत्रनामक पंचम अध्ययन समाप्त ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन वागलचीरी -अज्झयण तमेव उवरते मातंग, स काय भेदाति ॥ आयति तमुदाहरे, देवदाणचाणुमतं ॥ १ ॥ अर्थ :- देह मेद न होने पर भी गजेन्द्र की श्रद्धा रखने वाला अशुभ वृत्तियों से उपरत रहकर देव और दानव से अभिमत सिद्धान्त बोलते हैं । गुजराती भाषान्तर: જેમ હાથી યુદ્ધમાં જાય અને ભષ્ટિથી પાછો ન કરે તેવી રીતે સાધકને મરણાન્તિક ઉપસર્ગ આવે તો પણ અશુભ વૃત્તિઓથી અલગ રહેવા જોઈએ એવું દેવ અને દાનવોને પણ માન્ય સિદ્ધાન્ત (અદ્વૈત) બોલે છે. मायतिः उत्तरकालः अमरकोष । युद्ध में गया हुआ गजेन्द्र शत्रुदल के ग्रद्दारों को सह कर भी आगे ही बढ़ता है। उसी की सुदृढ़ श्रद्धा से साधक की श्रद्धा को तोलते हुए ऋषि चोलते हैं । देव दानव और मानव समस्त सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं । उत्तराध्ययन सूत्र में भी साधक को युद्ध रत हस्ति की उपमा दी गई है:--- पुढो समस, समरेव महासुणी ॥ नागो संगमसीसेवा, सुरो अभिद्दणे परं ॥ मध्य० २-१०. प्रस्तुत अध्ययन की पहली गाथा काफी गूढ़ है । अर्थ अस्पष्ट है। टीकाकार एवं प्रोफेसर, शुटिंग इसके सम्बन्ध में भिन्न मत रखते । दोनों की व्याख्याएँ नीचे दी जा रही हैं। सत्य का तथ्य पाठकों की विवेक बुद्धि पर छोड़ता हूँ टीका :- मातंग इति ललितविस्तर मंत्र तृतीय परिवर्तानुसारेण कस्यचिद् प्रत्येकबुद्धस्य नाम अस्य स्वर्षेर्बुक्षेत्रं रिचतस्तेजो, धातु च समापयोश्चैव परिनिर्वाणस्येदाध्ययनस्य गधे व पये चानुलेखितध्वान्मातंगो गज एषेति अपरिहार्यो प्याख्या । ललित बिस्तर ग्रंथ के तीसरे परिचर्त के अनुसार मातंग यह किसी प्रत्येक बुद्ध का नाम है। किन्तु यह ऋषि बुद्धक्षेत्र का है और तेज धारण के लिये चमकती बीजली की भांति वर्णन आता है। किन्तु परिनिर्वाण के इस अध्ययन में उल्लिखित मातंग का अर्थ इस्ति ही है। इस व्याख्या को मानकर ही दर्जे चलना होगा । टीका: जो मरणार्थं गहनं वनं यातीति प्रसिद्धं । मातंगत आचरन् श्राद्धो मार्तगश्राद्धः । गजो यथा तमसि गहन उपरतो मृतस्तथा श्राद्धोऽपि कायभेदाय मरणायैकाकी एवं प्रायोपगमं गच्छति । आयति भविष्यत् काले तं देवदानवानुमतं प्रशस्थमति उदाहरे उदाहरिष्यति जनः । -1 ל हाथी मृत्यु के लिये गहन वन में प्रवेश करता है यह प्रसिद्ध हैं । मातंग ( हस्ति ) की भांति आचरण करने वाला श्रद्धावान ( साधक) मातंगश्राद्ध कहलाता है। जैसे हस्ति अंधकार पूर्ण गहन वन में प्रवेश करके मरता है ऐसे ही साधक शरीर त्याग के लिये अकेला पादपोपगमन ( संथारा ) करता है। आयतिशब्द भविष्यकाल के अर्थ में आया है। देव और दानव सभी के लिये प्रशस्त हो ऐसा (सिद्धान्त ) मैं कहूंगा । प्रोफेसर शुम् " मातंगश्राद्धे " के सम्बन्ध में भिन्न मत रखते हैं: - "इधर उधर भटकते हाथी की भांति सामान्य मानव अपने लिये जीता है। अंधेरी शादियों में हाथी मर जाता है उसका कोई साक्षी नहीं रहता; इसी प्रकार सामान्य मानव मर जाता है उस ओर भी कोई देखता नहीं है, उसकी कोई कहानी कहने वाला नहीं मिलता। ऐसा मानव कभी कमी मृत्यु के लिये महत् वन में पहुँचता है, ऐसे मानव को यहां ( प्रस्तुत अध्ययन में ) देव और दानव के बीच लिया । प्रस्तुत पाठ में कसी हुई शब्द रचना है । गया सेमं खलु भो लोकं सणरामरं वसीकतमेव मण्णामि ॥ तमहं बेमि विरथं वागलचीरिणा अरहता इसिणा बुझतं ॥ २ ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई अर्थ:-देव दानव और मानवों की यह सम्पूर्ण सृष्टि जिसके आधीन है वह मैं विरत वस्कलचीरि अतिर्षि इस प्रकार बोलता हूँ। गुजराती भाषान्तर: જેણે દેવ દાનવ અને માનવની સંપૂર્ણ સૃષિ વશમાં કરી છે તે હું વલ્કલચીરી નામનો સંસારથી વિરત અદ્વૈતર્ષિ આમ બોલું છું. टीका:-तेनायं खलु भो लोकः सनरामरो वशीकृत एवेति मन्ये तमहं विरतं विरजस्कं बेति प्रषीमि। हे आत्माओं ! उसी ने देव और मानव की सृष्टि वश में की है ऐसा मैं मानता हूँ वह में विरत अथवा (कर्म) रजरहित ( वरुकलचीरी) इस प्रकार बोलता हूँ। ण णारीगणपसत्ते अप्पणो य अबंधवे ॥ परिसा जत्तो विवाह तसो विजुधिरे जणे ॥३॥ अर्थ:-हे पुरुष । तूं श्रीकृन्द की संसक्ति (आसक्ति) से दूर रह और अपना अबंधु ( दुश्मन) भी न बन क्यों कि नारी-प्रसक्त (आसक्त ) व्यक्ति अपने आपका शत्रु होता है। अतः जितना भी संभव है युद्ध करो और विजयी बनो । गुजराती भाषान्तर: હે પુરુષ – નારીજાતિની આસક્તિથી દૂર રહે અને પોતાને જ દુશમન પણ ના બન. કેમકે નારીમાં આસક્ત, થએલો આત્મા પોતાને દુશ્મન બને છે. માટે જેટલું બને તેટલું (વિકારો સાથે યુદ્ધ કરો અને વિજય મેળવો. जिस आरंभ से आत्मा नरक के द्वार पहुँचता है, उससे दूर रहो। स्त्रीवर्ग में संसक्त और युद्धविरत व्यक्ति नरक की राह लेते हैं । वे दोनों पापशील आत्माएँ कर्म विपाक को प्राप्त करेंगी। जीवन भी एक युद्ध स्थल है। साधक को दो मोर्चे पर लवना होगा । एक नारी पर आसक्ति और दूसरा परिवार पर ममत्व । यह अन्तर का संघर्ष है । साधक ! तुम्हें इस मोर्चे पर डट जाना है। पूरी शक्ति के साथ रहो, विजय तुम्हारे हाथ है। इसके दो पाठान्तर है "ण नारीगणपसेते" दूसरा "ण नारीगणपसंवतु" दोनों पाठ प्रायः श्री-संसर्ग से बचने का आशय रखते हैं। टीका:-हे पुरुष! नारीगणप्रसको मा भूः भात्मनश्चान्धवः हे पुरुषाः यस्मात् मारंभाद् बजथ नरकमिति शेषः, तसाद युशीलो जनोऽपि जति, स्त्रीगृदो हिंसकश्चोभीपापकारिणौ कर्मफलं लपस्येते इति भावः। हे पुरुष | नारीकन्द पर आसर्फ मत हो, साथ ही अपना शत्रु भी मत हो । हे पुरुष! जिस आरंभ (पाप) से नरक के द्वार पर आत्मा पहुँचता है उस युद्ध की भयानक वृत्ति से भी तुम दूर रहो। स्त्रियों में आसक्त और हिंसक ये दोनों पापकारी भात्माएँ कर्मफल को प्राप्त करते हैं। मिरकुसे व मातंगे छिपणरस्सी हए वि वा ॥ णाणपग्गहपभद्दे विविध पवते णरे ॥४॥ अर्थ:-निरंकुश हस्ति और लगामविहीन अश्व नानाविध रस्सियों को तोड़ देता है। इसी प्रकार ज्ञानरूम प्रग्रह से भ्रष्ट मनुष्य भी अनेक रूप में दौड़ता है और विनाश को प्राप्त होता है। गुजराती भाषान्तर: જેમ નિરંકુશ હાથી અને લગામ વગરનો ઘોડો રસ્સીઓને તોડી દિયે છે, તેમ જ્ઞાનરૂપ રસ્સી (માદા) થી ભ્રષ્ટ થયેલો માણસ પણ આમ તેમ દોડે છે અને વિનાશને પામે છે. . टीका:-निरंकुश इव मातंगः च्छिश्चरश्मिर योऽपि भ्रामयति एवं ज्ञानप्रभ्रष्टः विविधं प्लवते, विनाशं गच्छति नरः । अर्थ उपरवत् है। मर्यादा-भंग करने वाले मानव का जीवन अंकुशविहीन हस्ति और बेलगाम घोड़े की भांति खतरनाक होता है। वह ऋषि और सन्तों के प्रतों की मर्यादा के बंधनों को तोड़कर आत्म-पतन करता है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन "हए" का पाठान्तर "रवे" मिलता है। जिसका अर्थ शब्द होता है, जो कि लिन्न रस्सी के साथ ठीक नहीं बैठता है। णाचा अकण्णधाराव सागरे वायुणेरिता ॥ चंचला धावते णावा सभावाओ अकोविता ॥५॥ अर्थ :-नाविक्र ( मलाह ) रहित नौका वायु से प्रेरित होकर सागर में इतस्ततः दौलती है । इसी प्रकार अकोविंद मानव भी स्वभाव से भटकते है। गुजराती भाषान्तर: નાવિક વગરની નાવ હવાને લીધે સમુદ્રમાં આમ તેમ દોડે છે તેમ અજ્ઞાની માણસ પણ (સંસારમાં વાસનાથી પ્રેરાઈને) આમ તેમ છોડે છે. सागर में पड़ी हुई मल्लाह रहित नौका वायु के थड़ों से इतस्ततः लक्ष्य-हीन दौड़ती है। ज्ञान-शून्य आत्मा अपने आपको इच्छाओं की लहरों पर छोड़ देते हैं । इच्छाओं की लहरों पर तैरने वाला लक्ष्य हीन होकर भटक जाता है। टीका:-कर्णधारा नौरिव सागरे वायुनेरिता चपला धावते नौरिति द्वितीयपद स्वभावादकोविदा । अर्थ गतं । मुक्कं पुष्पं घ आगासे णिराधारे तु से णरे ॥ दढसुंबणिकद्धे तु विहरे बलवं विहिं ॥ ६॥ अर्थ :-आकाश में फेंका हुआ पुष्प, निराधार मानव और दृढ़ रस्सी से बद्ध पक्षी के लिये विधि ही बलबान है। गुजराती भाषान्तर: આકાશમાં ફેંકાયેલા ફૂલ, (સમુદ્રમાં પડેલો) નિરાધાર માણસ અને મજબૂત દોરડાથી બંધાયેલા પક્ષી એ બધાની સફળતા અને શાન્તિ ભાગ્યને આધારે છે. आकाश में उड़ता हुआ पुष्प कहाँ जा गिरेगा, अपार सागरमें पडा मानन कहाँ थाह पाएगा और सुदृढ़ सूत्र से अंधा पक्षी का लक्ष्य पर पहुँचेगा? उसके लिये कोई कुछ कह नहीं सकता। उसका भाग्य ही वहाँ एक मात्र सहायक हो । अर्थात् इनका लक्ष्य स्थान पर पहुँचना विधि के हाथों में है 1 अथवा आकाश में फेंके गये पुष्प की भांति बइ मनुष्य निराधार है। तथा बंधे हुए पक्षी के भांति उसका जीवन है। उसके लिये विधि ही बलवान है। अथवा उसकी मुक्ति के लिये तप की विधि ही बलवती है। वही उसे अशान्ति से मुक्त कर सकती है। टीका:-पुष्यमिवाकाशे मुक्त स्थापित एवं निराधारः स नरः पुष्पमिव शुभयानिबन्न एवं वसूत्र निवज इति षष्ठे श्लोकेऽभिहितमिहवाध्याहार्य; नरो बलवन्तं तपोविधि बिदरेदिति । विहरसे सकर्मकः प्रयोगः । अर्थ गतं । छठे लोक में जो कहा गया है वही नवम अध्याय में अध्याहार्य है। सुसमेत्तगर्ति चेव, गंतुकामेऽधि से जहा ॥ पवं लद्धा वि सम्मम्ग, सभावाओ अकोषिते ॥ ७ ॥ अर्थ :-सूत्र मात्र ही उसकी गति है और वह गमन करना चाहता है। स्वभाव से अकोविद पुरुष सम्यक् मार्ग को प्राप्त करके भी सक्ष्य स्थान को नहीं पा सकते। गुजराती भाषान्तर: જે માણસ સ્વભાવથી કુશળ નથી તેઓ સભ્ય માર્ગને પ્રાપ્ત કરીને પોતાના લક્ષ્ય તરફ જઈ શક્તા નથી, પણ તે સૂત્રના અનુસારેજ ગતિ કરી શકે છે. धागे से बंधा पक्षी गति करना चाहता है उपर उसकी दौड़ वहीं तक है जहां तक कि धागा है। उनसे वह आगे नहीं बढ़ सकता । इसी प्रकार जो स्वभावतः कुशल नहीं है, खतः ज्ञानसम्पन्न नहीं है दे सम्यग् मार्ग प्राप्त करके भी आगे नहीं बढ़ सकते । वे परम्परा के धागे से (सूत्र से) चिपटे रहेंगे, पर उनके विशेषार्थ तक पहुँच कर आत्मसाधना करना उनके वश की बात नहीं है। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि - भासिया जं तु परं णवएहिं अंबरे वा विहंगमे ॥ ददत्तणित्ति सिलोको' ॥ ८ ॥ अर्थ :- जो दूसरे को नवीन विचारधाराओं के द्वारा आकाश में बिहंगम बने देखते हैं। पर वे अपने आप को दृढ़ रज्जुबद्ध पाते हैं। शेष छठे श्लोक की भांति है । ३० गुजराती भाषान्तर: ( भासो) श्रीनने नवीन पियारीना व्याधारे आशमां (स्वतंत्र ) यक्षीनी प्रेम ( उता) लुवे छे, પણ પોતાને દોરડીથી બંધાયેલો જીવે છે. जब साधक दूसरे को स्वतंत्र बढ़ान भरते देखता है और अपने आप को सुदृढ पाश में बंधा हुआ पाता है, तो उसका हृदय मुक्त गगन में उड़ान भरने के लिये वैसा ही छटपटाता है जैसा पाश में बद्ध पक्षी । सम्यग्दृष्टि आत्मा मुक्ति की ओर जानेवाले ही उसे बन्धन की कठोरता अखर जाती है । णाणा- परहसंबंधे, धितिमं पणिहिर्तिदिए ॥ सुत्तमे गती चेव, तधा साधू णिरंगणे ॥ ९ ॥ अर्थ :- नानाविध नियमों (प्रग्रह) के सम्बन्ध में धैर्यशील दमितेन्द्रिय निरंगण साधु सूत्रमात्र गति का अवलंबन लेता है । गुजराती भाषान्तर:અનેક પ્રકારના જુદા જુદા નિયમોના સંબન્ધમાં ધૈયૅશીલ, ઈન્દ્રિયોને દમન કરનાર, અને સ્ત્રિઓથી દૂર રહેનાર સાધુ સૂત્રને અવલખીને જ ગતિ કરે છે. इच्छा स्वयं एक पाश है। इच्छा की पूर्ति में सुख की कल्पना आत्मा की बद्ध दशा है जब कि इच्छा निरोध मुक्ति का द्वार है । इच्छाओं का गुलाम सारे जगत का गुलाम है। आशा के पाश में बद्ध व्यक्ति का चित्र ठीक वैसा ही होगा जैसा सैकड़ो बन्धनों से बन्धे हुए अश्व का वि । न वह इस ओर हिल सकता है और न वह उस ओर साधक विविध नियमों द्वारा इच्छा के पाश को तोड़ता है और स्वतंत्र बनता है। नियमों के सम्बन्ध में धैर्यशील साधक सूत्र की गति का अवलंब न ले | सच्छेद गतिपयारा, जीवा संसारसागरे ॥ कम्मसंताण संबद्धा, हिंडंति विधिहं भवं ॥ १० ॥ अर्थ :- खच्छन्द गति से घूमने वाली आत्माएँ कर्म संतति से सम्बद्ध होकर विविध भत्रों में भटकती हैं। गुजराती भाषान्तरः સ્ક્વેર વૃત્તિથી લટકવાવાળા આત્માઓ, કર્મથી બંધાઈને ભવોભવ પરિભ્રમણ કરે છે. पिछली गाथा में बताया गया है, साधक इच्छानिरोध के लिये सूत्र द्वारा निर्दिष्ट दिशा में आगे बढ़े। क्यों कि आगम की मर्यादाओं को तोड़कर स्वच्छन्द आचरण रखने वाले प्राणी कर्म वेष्टित होकर भवपरम्परा में परिभ्रमण करते हैं। कम्मताणः — कर्म आत्मा के साथ सन्तति प्रवाह से ही सम्बद्ध है। कोई भी कर्म अनन्त अनन्त काल तक के लिये आत्मा के साथ बंध नहीं जाता है, किन्तु समय की अमुक सीमा विशेष को लेकर ही कर्म आत्मा के साथ चिपकते हैं । किन्तु जब उनका विपाकोदय होता है उस समय वह आत्मा शुभनिमित्त को पाकर राग की परिणति लाता है और अशुभनिमित्त पर द्वेष परिणति रखता है। ये ही परिणतियाँ पुनः अनन्त अनन्त नये कर्मों की वर्गणाएँ आकृष्ट करती हैं और आत्मा उनसे संबद्ध होता है। इत्थमिद्धे बसप, अप्पणो य अबंधवे ॥ जतो विवज्जती पुरिसे, तवो विज्झविणे जणे ॥ ११ ॥ अर्थ :-नारीविषयों में अनुगृद्ध (लोलुप ) रहने वाला आत्मा अपने आपका भी दुश्मन होता है। पुरुष जितना जितना इसका विवर्जन करता है उतना वह उपशान्त रह सकता है । गुजराती भाषान्तर: વિષયોમાં લોલુપ રહેવાવાળો આત્મા પોતાનો જ સ્વયં પણ દુશ્મન હોય છે. પુરુષ જેટલો તેનાથી દૂર રહે છે, તેટલો જ તે શાન્ત રહી શકે છે. १ तुसणे बाइए जगे (रतलामवाली प्रति ). Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठं अध्ययन ३९ वासना वासित आत्मा स्वतः स्वभाव दशा की हत्या करता है । आत्म-गुणों को नष्ट कर आत्मा का पतन करता है, अतः वह आत्मा का शत्रु ही है। दूसरी ओर मोह के आवेग में आत्महत्या करने वालों की भी कमी नहीं है। अतः साधक को इससे दूर रहने का संकेत किया गया है। वह विवर्जन केवल पार्थिव ही न हों अपितु मानसिक भी होना चाहिये । जितनी दूरी है उतना ही मन शान्त रहेगा । मनती सुकमप्पाणं पडिबद्धे पलायते ॥ विरते भगवं वक्कलचीरि उग्गतवेत्ति ॥ १२ ॥ एवं से ० ॥ अर्थ :--जो अपने आपको मुक्त मान लेता है वह प्रतिबद्ध होकर पलायन करता है। किन्तु भगवान वल्कलची ही संसार के दावानल से बाहर निकलते हैं । गुजराती भाषान्तर : જે સ્વયં પોતાને મુક્ત માની બેસે છે, તેને સામેથી ( કર્મથી ) અંધાઈ ને ભાગવું પડે છે. પરંતુ ભગવાન વલીરિ જ સંસારરૂપી દાવાનળમાંથી બહાર નીકળે છે, बहुत से लोक अपने आपको मुक्त मानते हैं, किन्तु केवल मान लेने मात्र से आग उण्डी नहीं हो जाती। मुक्त मान लेने पर भी वह आत्मा कर्म-श्रृंखलाओं से प्रतिबद्ध होकर पलायन करता है। तो वह 'बदतो व्याघात' हुआ मुक्त आत्मा पुनः कर्मबद्ध हो संसार में परिभ्रमण नहीं करेगा । छटुं वलचीरिणामज्झयणं ॥ ॥ वक्कलची रिप्रो पर्छ अध्ययनं समाप्तम् ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक्षम अध्ययन कुम्मापुस इसि-भासिय अध्ययन घर में कैवल्य पाने वाले अर्हतर्षि कुर्मापुत्र दुःख से मुक्त होने के लिये प्रेरणा दे रहे हैं। दुःख क्या है और दुःख के कारण क्या है ? । उत्सुकता याने उत्सूत्रता खर्य एक दुःख का हेतु है। शास्त्रवाक्यों को तोड़-मरोड़ कर उस से मनमाना अर्थ निकालना और उसके द्वारा अपना अभीप्सित पूरा करना गलत है। भोली जनता को भुलावा देकर शास्त्रों की दुहाई देकर उस ओट में वैयक्तिक हितों का पोषण करना एक पाप है। किसी भी लेखक के शब्दों को गलत ढंग से रख कर उसका वह अर्थ कर डालना जो स्वयं लेखक को मान्य न हो तो लेखक के प्रति अन्याय होगा। दूसरी ओर उत्सुकता और इच्छा स्वयं दुःस का हेतु है । इच्छाओं के बहाव में रहने वाला बिना पतवार की नौका की तरह भटकता है, इच्छा की तुष्टि के लिये वह साधना करता है, समाज-सेवा करता है, राष्ट्रीयता अपनाता है, तो भी अन्तर में छिपी गसना उसे कहीं शान्ति नहीं पाने देती । यही सब कुछ प्रस्तुत अध्ययन का प्रतिपाद्य है। सध्यं दुक्खावहं दुक्खं दुक्खं सुउसुयत्तणं ॥ दुक्खीव ठुकरचरियं चरित्ता सव्वदुक्खं खवेति तवसा ॥१॥ अर्थ:--समस्त दुःख दुःखप्रद है। उत्सुकता अथवा उत्सूत्रता सबसे बड़ा दुःखी के सदृश दुष्कर साधना करके तप के द्वारा साधक समस्त दुःस का क्षय करता है। गुजराती भाषान्तर: બધાં દુઃખે કષ્ટ આપનાર છે. ઉત્સુકતા અથવા સૂત્રતા સૌથી મોટું દુ:ખ છે. દુઃખીની જેમ દુષ્કર સાધના કરીને, તપદ્વારા સાધક સમસ્ત દુઃખોનો ક્ષય (નાશ) કરે છે. दुःख का नाम ही आत्मा को दुःखी करता है । वह दुःख से दूर भागना चाहता है। किन्तु दुःख भी दुनियों की निकम्मी चीज नहीं है । कमल कीचड़ से पैदा होता है, उसी प्रकार वैराग्य भी प्रायः दुःख से ही आता है। गर्मी से पारा पिघलता है, उसी तरह दुःख की आँच में मानव का बन्धुत्व प्रसरता है। दुःस्त्री व्यक्ति सत्रमें आत्मीयता के दर्शन करता है। दुःखी यदि दुःख में समभाव की साधना करता है तो वह सनत की कोटी में पहुँच जाता है साथ ही साधक इच्छा को नियंत्रित करे। क्योंकि वही तो अशान्ति की जड़ है। इच्छा की पूर्ति न होना दुःख है तो इच्छा की पूर्ति भी सुख न होकर दुःख का द्वारा खोलती है, अतः साधक इच्छा-निरोध करे। ऐसा करके साधक स्थूल रूप से दुःखी की श्रेणि में आ जाएगा और दुःखी मानव की भांति आवश्यकताओं को सीमित करेगा, किन्तु अन्तर में वह तप की ज्वाला द्वारा समस्त दुःखों को समाप्त कर देता है। टीका:-सर्व दुःखापई दुःखं; सोत्सुकरवमिच्छा । घुःखी वा सि इवेसि न, किन्दवेवेति । इच्छा समस्त दुःखों के कारण है तथा खयं दुःखरूप है। दुःखीव शब्द से यहां दुःख के समान ऐसा अर्थ न लिया जाय अपि तु वह दुःखी ही है, इस रूप में उसे ग्रहण किया जाए। प्रोफेसर शुर्बिग इस सम्बन्ध में अपना अभिप्राय निम्न रूप में प्रदर्शित करते हैं• प्रत्येक दुःस अपने साथ नया दुःख लाता है। पहिले से किसी वस्तु की अभीप्सा ( उत्सुकता) भी दुःख है। साधुत्व समस्त दुःखों का अन्त कर सकता है। साधना के पथ में आने वाले कष्टों को सहना चाहिये। प्रथम श्लोक साधना में आने वाले दुःखों का वर्णन करता है। तम्हा अदीणमणसो दुक्खी सब्बदुक्खं तितिखेजा ॥ सेसि कुम्मापुत्तेण अरहता इसिणा वुइयं ॥ २॥ अर्थ:-अतः दुःखी व्यक्ति अदीन मन होकर समस्त दुःखों को सहन करे । कुर्मापुत्र अर्हतर्षि इस प्रकार बोले । गुजराती भाषान्तर: તેથી દુખી વ્યક્તિઓએ, દીન હીન ન થતાં સર્વ પ્રકારના દુઓને (સમભાવથી સહન કરવા એમ “કુમપુત્ર અહંતર્વિ” એ પ્રમાણે ઓલ્યા. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन ३३ इच्छा जन्य दुःख पर साधक विजय पाए, किन्तु उसके बाद भी शारीरिक वेदना कभी सता सकती है। दुःख आना यह एक बात है, किन्तु उसके साथ दीन मनोवृत्ति का आना दूसरी बात है। दुःख शरीर के तेज को समाप्त करता है, तो हीन मनोवृत्ति आत्मा की चमक को समाप्त करती है। इसलिये गरीबी बुरी नहीं है, दीनता कुरी है। गरीबी में सुखी रोटी चटनी के साथ खाकर भी आदमी के चेहरे पर मुस्कान बनी रह सकती है, किन्तु दीनता में दूसरों की गुलामी है । दीनता में भी विनम्रता है, किन्तु स्वार्थ भावना से दूषित है। इसीलिये दुःख आने पर भी साधक दीनता न आने दे । उत्तराध्ययन में परिसह अध्ययन में क्षुधा पीडित होने पर भी साधक भोजन की याचना करे, किन्तु याचना भी दीन वृत्ति से दूर रहे "श्रवीणमणसो चरे" उत्त. अ. २.. जणवादोण तारजा अस्थित्तं तवसंजमे। समाहिं च विराहेति जेरिटुचरिय चरे ॥३॥ अर्थ:-तप-संयम के अस्तित्व में जनवाद आत्मकल्याण नहीं कर सकता । जो देशाचार में पड़ता है बद्द समाधि को भी खो बैठता है। गुजराती भाषान्तर: તપ-સંયમના અસ્તિત્વમાં જનવાદ આત્મ-કલ્યાણ કરી શકતો નથી, જે દેશાવામાં પડે છે તે સમાધિને પણ ખોઈ બેસે છે. - विश्लेषणा से उपरत होने के बाद भी मानव लोकैषणा की ओर हाथ बढ़ाता है। यश की भूख मी मानव के मन में सुरक्षित स्थान रखती है। आगे आने के लिये हर संभव प्रयत्न करता है, सेवा भी करता है, किन्तु सेवा का तोल वह यश से करता है। उसका लक्ष्य सेवा न रह कर यश-लिप्सा होगा। यश का मोह इसे राष्ट्रीय क्षेत्र में मी पटकता है, वहाँ भी ख्याति के प्रवाह में औचित्य का विचार भी न करेगा और आत्मसमाधि को भी खो मैठेगा । टीकाकार कुछ भिन्न मत रखते हैं: पाक्षिप्त निन्दितं पुरुष जनवादोन त्याजयेत् । तपःसंयमी समाधि च विराधयति स हिनस्ति योरिष्टाचारियं अपूर्णतपथरियं घरति। आक्षिप्त अर्थात् निन्दित पुरुष को जनवाद त्यागता नहीं है। अर्थात् जो साधक संयम पथ से गिर जाता है । जन साधारण उसकी तीय निन्दा और भर्त्सना करता है। परिणाम यह आता है साधक गिर कर संभलने के बजाय तप संयम और समाधि भाव सब कुछ खो देता है। साथ ही जो अपूर्ण तप करता है वह कभी हिंसा के लिये भी तत्पर हो जाता है। आलस्सेणावि जे के उस्सुअत्तं ण गच्छति। क्षणाषि से सुही होइ किं तु सिद्धि परकमे ॥४॥ अर्थ :--आलस्यवश भी कोई मानव उस्तुकता-इच्छा के पंथ में नहीं जाता है। उससे भी वह सुखी हो सकता है यदि श्रद्धावान् सही पुरुषार्थ करे तो फिर क्या ? अवश्य सफलता पा सकता है । सिद्धि का पाठान्तर सद्धी भी है उसका अर्थ श्रद्धी या सधीर श्रद्धाशील या धैर्ययुक्त पुरुष पराक्रम करे, आलस्य न करे। गुजराती भाषान्तर: આળસુ મનુષ્ય પણ ઉત્સુક્તા-ઇચ્છાના પંથે જાતે નથી, તેનાથી પણ તે સુખી થઈ શકે છે, જે શ્રદ્ધાવાન હોય અને પુયાર્થ કરે તો પછી શું? જરૂર વિજય મેળવી શકે છે. સિદ્ધિનું પાઠાન્તર સહી પણ છે, તેનો અર્થ શ્રદ્ધી અથવા સધીર, શ્રદ્ધાશીલ અથવા ઘેર્યયુક્ત પુરૂષ પરાક્રમ કરે, પણ આળસ ન કરે. प्रमाद की गणना पांच पापों में है, किन्तु वह प्रमाद यदि आत्मा को अशुभ से रोकता हैं तो दृश्य प्रमाद इतना अनिष्ट कारक नहीं होता. क्यों कि यदि आलस्य को लेकर भी मानव पाप की ओर प्रवृत्त नहीं होता है तो भी वह नारक से तो बन जाता है। किन्तु आत्मा यदि विचार पूर्वक अपने पुरुषार्थ को आत्मसिद्धि की ओर मोड़ देता है तो अपने लक्ष्य को पा लेता है। टीका:—यः कश्चिदालन कारणतोत्सुकत्वं न गच्छति तेनापि स सुखी भवति इ. भ, किन्नु परन्तु श्रदी सधीर धीमान् वा पराक्रामेवालस्यं न गच्छेत् । आलस्य से भी जो कोई पापक्रिया में उत्सुकता नहीं रखता है वह भी सुखी होता है । फिर भी श्रद्धावान् धैर्यशील साधक पुरुषार्थ वादी बने। आलस्य का परित्याग कर शुभ में प्रवृत्ति के लिये उठ खवा हो । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ इसि-भासियाई आलस्संतु परिणाय जाती-मरण-बंधणं । उत्तिमवरग्गाही बीरियातो परिव्यय ॥५॥ अर्थ:-प्रमाद जन्म-मृत्यु के बंधन रूप में परिज्ञात है । श्रेष्ठ ग्राही आत्मा श्रेष्ठ अर्थ के लिये शक्ति के साथ विचरण करे। गुजराती भाषान्तर: પ્રમાદ તે ભૂલ ) જન્મ, મૃત્યુના બને ૨૫માં પરેશાત છે. શ્રેષ્ઠ ગ્રાહી માએ શ્રેષ્ઠ અર્થ માટે શનિની સાથે ચાલવું જોઈએ. प्रमाद खयं एक मौत है। अतः मापक उससे सावधान रहे। अच्छाई का ग्राहक व्यक्ति के साथ घूमें । विहार करे। श्रम संस्कति पुरुषार्थ में विश्वास करती है। उसके आराध्य देव स्वयं श्रमण भगवाम थे। उन्होंने गौतम जैसे साधक को अप्रमत्त रहने के लिये उद्बोधन दिया है। अतः आलस्य से पाप में न जावे यह ठीक है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि आलस्य अच्छा है। इसीलिये प्रस्तुत गाथा में साधक को अपमत रहकर विचरण करने की प्रेरणा दी गई है। काम अकाम कारी अत्तत्ताप परिव्यए । सावज मिरवज्जेणं परिणाए परिब्धएजासि ॥६॥ अर्थ:-साधक काम को अकाम बनाकर अर्थात् कामपर विजय पाकर विचरण करे। सावध को निरवच से परिज्ञात कर विचरे। गुजराती भाषान्तर: સાધકે કામને અકામ બનાવીને (એટલે કે ) કામ પર વિજય મેળવીને ચાલવું જોઈએ. સાવઘને નિરવદ્યથી પરિજ્ઞાત કરીને ચાલવું જોઈ એ. परिज्ञा के दो प्रकार बताये गये हैं। ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा । साधक ज्ञपरिज्ञा से सात्रय मैं को जाने और प्रत्याख्यान से उसका परित्याग करे 1 आचारोग सूत्र में यह पाठ बहुत स्थानों पर आया है। पिछली माथा में बताया गया है कि साधक पुरुषार्थ-वादी बने । पुस्त्रार्थ चार हैं-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष । श्रमण . संस्कृति में अर्थ, काम हेय है और धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ उपादेय है। उसी की ओर इंगित करते हुए बताया है साधक काम को अकाम अर्यात उसे विफल करे । वासना का त्यागी मुनि केवल आत्म-शुद्धि के लिये ही साधना करे । स्वर्ग के फूल और नरक के शूल उसके मन में आकर्षण और भय पैदा न कर सके। तत्त्वज्ञ की साधना स्वर्ग के वैभव के लिये न वह नरक की आग से बचने के लिये भी साधना करेगा। वह इसलिये तप नहीं करता कि यहां एक दिन भूखा रहने से अगले जन्म में इसके बदले में हजार गुना खाद्य सामग्री मिलेगी। दशवकालिककार बोलते हैं (अ. ९ उद्देश ४-) नो इहलोगट्टयाए तय महिद्विजा। नो परलोगट्टयाए तव महिडिजा। नो कित्ति-यण्णासद्दसिलोगट्टयाए तब महिछिज्जा । नमत्थ निजरयाप तब महिडिजा।' साधक इम लोक के भौतिक टुकड़ों को लक्ष्य में रखकर भी तप न करे। म अगले जन्म के लिये ही वह शरीर को सुखाचे । प्रशंसा के फूल उस के मन को न टुभाव। किन्तु केवल आत्मा को कर्मबन्धन से विमुक्त करने के लिये ही वह साधक तप का आराधन करे। टीका-काम भकामकारी परिवजेत् । अत्तत्तेत्ति प्रास्मस्वार्थ भात्महितार्थ सर्व सावध परि ज्ञाय प्रत्याख्याय निरवधन चरितेन परिप्रजेत् । काम को निष्काम बनाकर साधक विचरे। साधक आत्महित के हित को प्रमुखता देकर सावध प्रवृत्ति परिज्ञात कर उसका परित्याग कर निरवद्य चारित्र को लेकर विचरे। पवं से बुद्धे० ॥ गतार्थ । सत्तम कुम्मापुत्तणामज्झयणं सप्तम कु नामक अध्ययन समाप्त ॥ १-समयं गोयममा पमायए-उत्तरा० अ० १०. . Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केतली णाम अट्ठमज्झयणं केतली पुत्र अर्हतर्षि भाषित अष्टम अध्ययन "--70 मार दुगुणेणं पारं एक गुणेणं । (ते) केतलीपुत्तेण इसिणा बुइतं ॥ १ ॥ अर्थ :-इस लोक में जीव दो गुणों से युक्त रहता है । दो गुणों से मतलब ज्ञान और चारित्र हो सकते हैं। परलोक में आत्मा के साथ केवल एक गुण ज्ञान ही रहता है। बारित्र साथ नहीं जाला । भर तीसूत्र में पूछा गया है, कि ज्ञान आत्मा के साथ इस भर में रहता है या पर भव में? इसका समाधान करते हुए प्रभु बोले-गौतम ! ज्ञान इस जन्म में भी होता है और अगले जन्म में भी राध रह सकता है। चारित्र के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है, वह केवल इसी जन्म में रहता है। गुजराती भाषान्तर આ લોકમાં જીવ એ ગુણોથી યુક્ત હોય છે એ ગુણ એટલે જ્ઞાન અને ચારિત્ર થઈ શકે છે. પરલોકમાં -- તેની સાથે છે જ્ઞ જ છે કે, રિસાદુ નથી. ભાગવતી સૂત્રમાં પૂછયું છે કે આમાની સાથે જ્ઞાન આ ભવમાં રહે છે કે પરભવમાં તેનું સમાધાન કરતા પ્રભુ ક્યા-ગૌતમ ! જ્ઞાન આ જન્મમાં પણ હોય છે અને આવતા જન્મમાં પણ સાથે રહી શકે છે, ચારિત્ર્યના સંબંધમાં આવું નથી, તે માત્ર આ જ ભવમાં જન્મમાં રહે છે. टीकाकार इस सम्बन्ध में भिन्नमत रखते हैं:-भारं ति इहलो के द्विगुणन द्विगुणपाशेनेव दतर मध्यते जीन इति शेषः । पारं ति परलोकं एकगुणेन सम्यक्त्वेन । आरं अर्थात् इसलोक में द्विगुणित पाश से आत्मा बनना है । पान अर्थात् परलोक में एक गुण से अर्थात् से बंधता है। यह अर्थ अस्पष्ट है। द्विगुण से क्या लिया जाय राग या द्वेष ? हों; राग द्वेप से आत्मा बंधता है किन्तु इसके साथ यह भी प्रश्न आता है क्या राग द्वेष इसी भव में बंधन कारक है, अगले जीवन में नहीं ? दूसरा प्रश्न परलोक में एक गुण बंधन कारक है वह एक गुण है. सम्यकच तो क्या सम्यक्स्य मी मन्धन कारक है। सम्यग्दर्शन आत्मा का शुद्ध रूप है, फिर वह बन्धन कारक कैसे हो सकता है ? अतः प्रथम माथा का प्रस्तुत गर्थ उचित नहीं जान पड़ता। द्विगुण से मतलब ज्ञान और चारित्र का प्रण उपयुक्त है। एक गुण से अभिप्राय ज्ञान से हो सकता है। यह बंध का नहीं, बंधच्छेद का अभिप्राय है। जो कि अगली माथा से स्पष्ट होता है इह उत्तमगंथचेयए रहसमिया लुप्पंति । गच्छती सयं वा छिद पाचप ॥२॥ अर्थ :-इस श्रेष्ट अंथ का ज्ञाता रथ की शम्या ( रखके चक्र से बनी रेखा) की भांति पाप कर्म को नष्ट करना है। गुजराती भाषान्तर: આ શ્રેષ્ઠ ગ્રંથનો જાણકાર રથની શમ્યા (૨થના ચક્રથી બનેલી રેખા) માફક પાપ કર્મોને નાશ કરે છે, 'गंथ' का पाठान्तर गंध है, उसका अर्थ यदि सौरभ लिया जाय नो जीवन की खुशबू होगा। जीवन की सुगन्ध सर्व श्रेष्ठ सुगन्ध है। धम्मपद वर्ग में भी कहा गया है: चंदण सगरं वापि उप्पलं अथ वस्सकी। एत संगंधजातानं सीलगंधो अणुतरो !-धम्मपद पुष्पवर्ग ॥ १- भविष्ट भन्ते । णाणे पर भविप. नाणे तदुभविए जाणे? गोयमा इद भविए वि नागे, पर भविर वि नाणे, तदुभविष वि माणे । इह भविए भन्ने चरित्ते पर भविए. चरित्ते तदुभयभविष्ट करते ? गोयमा ! इष्ट भविष्ट चरित्ते, नो पर भविष चरित्त नो तदु भय भविम वारेते। -सहाय परिणाम स्वंतु-नवतत्त्वभाष्य, आत्म विनिश्चयते बोधः दर्शने तरख विनिश्चयते। स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत प्तेभ्यः भवति बन्धः। ३-गंध, Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि - भासियाई ठीका :- हे पुरुष ! जीवरथस्थ शम्याय हवानिभ इव हिन्दि पापकर्म । श्वशम्या लुप्यमाना गच्छति नश्यति । साधक आत्मा रूप रथ के चरण चिन्हवत् पाप कर्म को नष्ट करो। रथं चलता है और पीछे रेखा छोड़ता जाता है । इसी प्रकार आत्मा जो किया करता है उसके अनुरूप शुभाशुभ ग्रन्ध करता है पाप कर्म को नष्ट करो । सयं वदिकम्मसंचर्य कोसार कीडेव जहा बंधणं ॥ ३ ॥ अर्थ :---जैसे रेशम का कीड़ा बंधन को छोड़कर मुरू होता है, इउसी प्रकार आत्म स्वयं ही कर्म दलिकों को त्यागकर मुक्त होता है। गुजराती भाषान्तर : જે પ્રમાણે રેશમનો પ્રીડે અંધન તોડીને મુક્ત થાય છે, તેજ પ્રમાણે આત્મા સ્વયં કર્મના બંધનોનો ત્યાગ કરીને મુક્ત થાય છે. ग्रंथ छेद महामुनि कोशार ( रेशम के ) की की भांति बंधन को छोड़कर स्वयं मुक्त होता है। कोशार नामक रेशमी कीड़ा होता है। सहतूत खाता है, लोग उसे पालते हैं। कुछ दिनों के बाद वह अपने मुँह से एक तति सी छोड़ता है। उसे अपने शरीर पर लपेटता जाता है । वह तार सैंकड़ों गज लम्बा होता है । उसके द्वारा खयं बंध जाता है । बाद में उसे गर्म पानी में छोड़ा जाता है, उष्णता से सारे तार वह तोड देता है। आत्मा कोशार ( रेशमी किडे ) के सदृश स्वयं अपनी विभावपरिणति के द्वारा कर्म दलिकों का संचय करता है, किन्तु सम्यग्दर्शन पाकर तप की ज्योति लगते ही स्वयं ही कर्मबन्धनों के रेशमी धागे को तोड़कर मुक्त होता है । जैन दर्शन इस चीज में विश्वास नहीं रखता है कि हमारी आत्मा को कर्म से विमुक्त करने के लिये कोई अदृश्य शक्ति आएगी। अनन्त काल तक परमात्मा के नाम पर छूटने टेक कर गिड़गिड़ाते रहो। दुनियाँ की कोई दूसरी शक्ति बंधन को तोड़ नहीं सकती। आत्मा की सोई हुई अनन्त अनन्त शक्ति जय जागृत होती है तब वह स्वयं ही कर्म जंजीरों को तोड़कर मुक्त होता है। टीकाकार इस संबंध में भिन्न मत रखते हैं : उत्तमग्रंथच्छेदको विशिष्टो मुनिर् लोकवन्धनं जहाति कोशाद् रथनिदाद बरकोल इव मत्र प्रथमतृतीयपादयोर्विनिमयो द्वितीयाध्ययनवत् कार्यः । राग द्वेष की ग्रंथि का छेदन करने वाला विशिष्ट उत्तम मुनि लोकग्रन्धन का त्याग करता है। जैसे रथ की धुरी में से कील निकल जाने पर रथ भन्न हो जाता है । उसी प्रकार साधक संसार रूप रथ की कील राग द्वेष को नष्ट कर देता है, इस प्रकार वह भवका अंत कर देता है। द्वितीय अध्ययन की भांति यहां भी प्रथम और तृतीय पाद मिल गये हैं । प्रोफेसर शुक्रिंग भी लिखते हैं-वाहन के खीले की भांति तुम्हारे दोष संसार के संबंध को बनाये रखते हैं और खीले के निकलते ही रथ की गति बंद हो जाती है। इसी प्रकार पाप हटते ही सांसारिक जीवन समाप्त हो जाता है । तम्हा एवं वियायि गंथजालं दुक्खं दुहावहं छिंदिय ठाइ संजमे । से हु मुणी दुक्खा विमुग्रह भुवं सिवं गई उबेइ ॥ ४ ॥ ( प्रत्यन्तरे ) अर्थ :- इस प्रकार अभ्यन्तर ग्रंथि जाल को दुःख का हेतु और दुःखरूप जानकर साधक उसका छेदन करता है। और संयम में स्थित होता है, वही मुनि दुःख से विमुक्त होता है। आयु-समाप्ति के बाद शाश्वत शिवरूप सिद्ध स्थिति को प्राप्त करता है। गुजराती भाषान्तरः આ પ્રમાણે અભ્યન્તર ગ્રંથિાળને દુઃખનું કારણુ અને દુઃખરૂપ જાણીને સાધક તેનું છેદન કરે છે અને સંયમમાં સ્થિરતા મેળવે છે, તેજ સુનિ દુઃખથી વિમુક્ત ( પર ) હોય છે. આયુષ્ય પૂર્ણ થયા પછી શાશ્વત શિવરૂપ સિદ્ધસ્થિતિને પામે છે, Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयम अध्ययन मिथ्यात्व और कषायों की प्रधियों ही दुःखों के लिये बद्धमूल हैं और इसे मैं अपने पुरुषार्थ के द्वारा ही भेद सकता हूँ। यह परिशाम पाते ही आत्मा संग्रम में स्थित होता है और संयम की परिणति में लीन मुनि समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है। टीका:-तसाद य एतद् ग्रंथजालं विविधानि लोकबंधनानि विज्ञाय दुःखं दुःखावह चिच्या संयमे तिष्ठति स खलु मुनिर्दुःसाद् विमुच्यते। अतः जो ग्रंथ जालरूप विविध प्रकार के लोकबंधनों को जानकर दुःख को दुःख का हेतु जानकर संयम में रहता है वही साधक दुःख से विमुक्त होता है। एवं से वुद्ध०॥ गतार्थ केतलीपुत्र अर्हतर्णिमोक्त ॥ इति केतलीपुत्राध्ययनं ॥ ॥ इति अष्टम अध्ययन समाप्त ॥ नवम अध्ययन णवम महाकासवझयर्ण महाकाश्यप अर्हतर्षिभाषित । जन्म और मृत्यु की परम्परा कर्म के अस्तित्व को सूचित करती है। जब तक कर्म उपस्थित है तब तक भरभ्रमण चालू रहेगा। कार्य की समाति के लिए कारण को समाप्त करना होगा। संलार रंग मंच पर होने वाली घटनाएं, विचित्रताएं, दुःख और त्रास के रोमांचक दृश्य पर्दे के पीछे एक ही सूत्रधार काम कर रहा है, वह है कर्म जब तक कर्म सूत्रधार है। भयानक नाटक के दृश्यों को समाप्त करने के लिए सूत्रधार को अलग हटाना होगा । कर्म की फिलोसफी ही प्रस्तुत अध्ययन का विषय है। जाव जाव जम्मं ताव ताव कम्म, कम्मुणा खलु भो पया सिया, समियं उवनिचिजद, अवचिजह य, इइ महाकासेवेण अरहता इसिणा बुइत ॥ अर्थ:-जब तक जन्म है तब तक कम है। कर्म से ही प्रजा उत्पन्न होती है। सम्यक् चरित्र के अनुसरण से कमी का अपचय होता है और वे सम्पूर्ण क्षय भी हो सकते है । महा काश्यप आहेतर्षि इस प्रकार बोले : गुजराती भाषान्तर: જ્યાં સુધી જન્મે છે ત્યાં સુધી કર્મ છે. કર્મથી જ પ્રજા ઉત્પન્ન થાય છે. સમ્યફ ચારિત્ર્યના અનુસરણથી કમ શિથિલ થાય છે અને તેનો સંપૂર્ણ ક્ષય પણ થઈ શકે છે. મહાકાય અહેતર્ષિ આ પ્રમાણે બોક્યા. महर्षि काश्यप एक महत्व पूर्ण सिद्धान्त बताते हैं। जहां-तक अन्म की परम्परा है वहां तक कर्म की परम्पार है। जन्म और कर्म एक दूसरे पर आधार रखते हैं। कर्म से जन्म है और जन्म लेने पर फिर नए कमों का संचय है। अतः कर्म-चक्र की गति को रोकने के लिए हमें जन्म-परम्परा को रोकना होगा। कर्म-परम्परा को रोकने का प्रमुख साधन सम्यक् चरित्र है। दर्शन से आत्मा तस्व का साक्षात्कार करता है, सम्यक ज्ञान के द्वारा उसकी विशेष स्थिति को समझता है और सम्यक् चरित्र के द्वारा उसके प्रवाह को रोकता है अथवा प्रवाह में कमी तो अवश्य लाता है। टीका-पावट यावजन्म तावत् तास्त कर्म, कर्मणा खलु भो प्रजा स्यात, सम्यक् चरितं मनुस्त्योऽपचीयतेउपचीयते च कर्म । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई जय तक जन्म है तब तक कर्म है। कर्म से ही प्रजा होती है। संसार संतति कर्म पर ही आधारित है। सम्यक चरित्र के अनुसरण के द्वारा आत्मा कर्म को शिथिल करता है और नष्ट भी करता है। गुजराती भाषान्तर: જયાં સુધી જન્મ છે, ત્યાં સુધી કર્મ છે. કર્મથી જ પ્રજા થાય છે. સંસાર સંતતિ કર્મ પર જ આધારિત છે. સમ્યફ ચરિત્રનું અનુસરણ કરવાથી આમાં કર્મને શિથિલ કરી શકે છે અને ન પણ કરી શકે છે. कम्मुणा खलु भो अपहीणेणं पुणरवि आगच्छइ हत्थच्छेयणाणि, पायच्छेयणाणि, एवं कण्णच्छेयणाणि, नरूदगणाशि वाणापि निरयणाणि सीसदंडणाणि, मुंडणापिा, उदिण्णेण जीवो कोटणाणि पिट्ठणाणि, तजणाणि, तालणाणि, चणाई, बंधणाई परिकिलेसणाई ॥ अर्थ:-जब तक आरमा कर्मों से बिहीन नहीं होती है, तब तक उसकी भव-परम्परा समाप्त नहीं है। कहीं हाथ का छेदन होता है, कहीं पैर काटे जाते हैं, कहीं कान का छेदन होता है, कहीं पर नाक का, कहाँ होंठ का, तो कहीं जीभ का हेदन होता है। कहीं पर सिर को दंडित किया जाता है, कहीं पर मुंडित किया जाता है। कहीं पर उद्विग्न जीव कूटे जाते हैं, कहीं पर किसी प्राणी को पीटा जा रहा है, तो कहीं उसका तर्जन किया जा रहा है, कहीं पर कोई ताडना दे रहा है, कहीं पर प्राणियों का वध होता है, कहीं पर बंधनों में जकडा जा रहा है, कहीं पर वारों ओर से उसे परिवेश दिया जा रहा है। गुजराती भाषान्तर : જ્યાં સુધી આત્મા કર્મોથી છુટકારો પામતો નથી ત્યાં સુધી તેની ભવ-પરંપરા સમાપ્ત થતી નથી. કયાંક હાથનું છેદન થાય છે, તે કયાંય પગ કાપવામાં આવે છે; કયાંક કાન કપાય છે તો કયાંક નાક, કયારેક હોઠે, તો ક્યારેક જીમ કપાય છે. ક્યાંય માથાને દંડ આપવામાં આવે છે તે વાંક તેને મુંડિત કરવામાં આવે છે. કેઈક સ્થળ ઉદ્વિગ્ન જીવને કૂટવામાં આવે છે, તો કોઈક જગ્યાએ કોઈ પ્રાળુને માર મારવામાં આવે છે, તો ક્યાંય તેનું તર્જન કરવામાં આવે છે, જ્યાં તેને માર મળે છે તો કોઈક સ્થળે પ્રાણીઓનો વધ કરવામાં આવે છે. તે કયાંય તેને બંધનમાં જકડવામાં આવે છે. તો કેટસ્થળે તેને આરે બાજુથી ઘણું જ દુઃખ (પરિકલેશ) આપવામાં આવે છે. टीका:-कर्मणा खल भो अपरिहीनेन पुनराये हस्तादिच्छेचनानि शीर्षदण्डनानि आगच्छनि जीवः उदीरण तु कर्मणा कुटुणाणीत्यादि। कर्म और उसकी उदीरणा से आत्मा हस्तच्छेदनादि दुःखों का अनुभव करता है। गुजराती भाषान्तर: કર્મ અને તેની ઉદીરણાથી આત્મા હાથને ઉછેદ વગેરે દુ:ખનો અનુભવ કરે છે. जब तक जन्म है जब तक कर्म-परम्परा है। जो अात्मा कर्म-परम्परा को छिन्न किए वगैर मरता है, उसे पुनः संसार में आना ही पड़ता है। जन्म लेने के बाद उसके भाग्य में दुःस ही दुःख है । यह संसार जीता-ज कहीं पर किसी को मारा जा रहा है । कहीं मारना है, कहीं ताडना है, कहीं वध है और कहीं बंधन है । यही दुनियां का चित्र है। दो राष्ट्रों के खार्थ आपस में टकराते है । उस संघर्ष में से युद्ध की ज्वाला फूर निकलती है । हजारों सैनिक हजारों नागरिक उस ज्वाला में जल जाते हैं। शस्त्रों के द्वारा किसी का हाथ कट जाता है, किसी का पैर कट जाता है, कोई कराहता है और कोई चिलाता है। युद्ध के ऐसे छोटे छोटे नक्शे तो रोज ही देखने को मिल जाते है। अर्थात् जब तक कर्म है तब तक दुःख मौजूद है। गुजराती भाषान्तर: જ્યાં સુધી જન્મે છે ત્યાં સુધી કર્મની ૫નપરા છે; જે આત્માઓ કર્મ પરમ્પરાને શ્રી કર્યા વગર મૃત્યુ પામે છે તેને ફરીથ્રી સંસારમાં આવવું જ પડે છે. જન્મ લીધા પછી એના ભાગ્યમાં દુઃખ છે. આ સંસાર જીવતો જાગતો નરક છે. ક્યાંક કોઈને મારી નાખવામાં આવ્યો છે, ક્યાંક મારવાનું, લડવાનું, બાંધવાનું Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयम अध्ययन અને ક્યાંક બંધ છે. આજે દુનિયાનું ચિત્ર છે. એ રાણેના સ્વાર્થ ખાતર અંદરોઅંદર ઘડે છે તે સંઘર્ષમાંથી યુદ્ધની જવાળા ફૂટી નીટ છે. હજારો સૈનિકો અને હજારો નાગરિકો તે જ્વાળામાં હોમાઈ જાય છે, શસ્ત્રોને લીધે કોઈના હાથ કપાઈ જાય છે, કોઈના પગ કપાઈ જાય છે, ફર્સ છે અને કોઈ બમ પાંડ છે. યુદ્ધના આવા નાના નાના શાઓ તે રોજ જોવા મળે છે. અર્થાત્ જ્યાં સુધી કર્મ છે ત્યાં સુધી દુઃખ છે જ ને છે. (મોજૂદ છે. अंडुसंधणकई बंधणाई, त्रियलयंधणापि, जावजीवर्षधणाणि, नियलजुयल संकोडण-मोडणाई यियुप्पाडणाई दसणुप्पाडणाई, उल्लंबणाई ओलंघणाई घसणाई पीलणाई सीहपुच्छणाई कडग्गिदाहणाई, भत्तयाण निरोहणाई दोगश्चाई दोभसाइं दोमणसाई ॥ अर्थ:-शृंखला और बेटी के बन्धन, यावज्जीवन के बन्धन, युगल रूप में शंखला में जकडे, संकोचन मोडन आदि काट, कहीं हृदय उखाडे जा रहे हैं, कहीं किसी के दात उखाडे जा रहे हैं। कहीं पर किसी क्ष की शाखाओं से मांधा जा रहा है, कहीं पर किसी को श्रृंखला से बांध कर ऊपर लटकाया आ रहा है। कहीं किसी को घसीटा जा रहा है, कहीं पर किसी का घोलन हो रहा है, कहीं पर पीडन किया जा रहा है। कहीं पर सींग को पूंछ से बांध कर चमड़ी उवेदी जा रही है । कहीं पर कटामिदाह हो रहा है, कहीं पर भोजन और पानी नहीं दिया जा रहा है। कोई दरिद्रता के दुःख से पीडित हैं। कोई भोजन के अभाव से या अभोज्य भोजन से दुःखी है। कोई दुर्मन है, दिन रात आर्थिक या पारिवारिक कठिनाइयों से हमेशा चिंतित रहते हैं। સાંકળ અને બેડીના બંધન, ચાવજ્જવનના બંધન, યુગલ રૂપમાં શંખલામાં જ કડાયેલો, ફુલાવું સંકોચાવું તુટવું વગેરે દુઃખ, ક્યાંક હદય ખાલી કર્યું જઈ રહ્યા છે, જ્યાંક કોઈના દાંત પાડવામાં આવી રહ્યો છે, કયાંક ફોઈ વૃક્ષની ડાળીથી બંધાઈ રહ્યો છે, કયાંક કોઈનાં સાંકળોથી બાંધીને ઉપર લટકાવી રહ્યા છે ક્યાંક કોઈને ઘસેડાવાઈ રહ્યો છે. ક્યાંક કોઈને માર મારાઈ રહ્યો છે, ક્યાંક કોઈ પર બળાત્કાર થઈ રહ્યો છે, જ્યાંક આગળ શિગડાને પુછડી બાંધી ચામડી ઉતરવાઈ રહી છે, તો ક્યાંક ઘોર અગ્નિદાહ થઈ રહ્યો છે, કોઈ જગ્યાએ અબપાણી પણ અપાતા નશી. કોઈ દરિદ્રતાના દુઃખથી પીડાય છે, કોઈ અન્નના અભાવથી અગર અણગમતા અન્નથી દુઃખી થઈ રહ્યા છે. કોઈ આથક કે પારિવારિક આપત્તિ શ્રી હંમેશા ચિંતિત છે, यहाँ दुःख पूर्ण विभीषिकामय संसार का नाम-चित्र दिया गया है। चारों ओर दुःख की और अशान्ति की लपटें हैं। बहत से प्राणी मात्र की क्रूरता से पीवित हैं। कोई आर्थिक चिन्ताओं से पीडित है, कोई दारिद्य की अमि से मुलसे जा रहे हैं। कोई अर्थिक कष्ट से युक्त हैं तो पारिवारिक समस्याओं में उलझे रहते है। लाखों की सम्पत्ति होने पर भी पारिवारिक समस्याएं मानव को अशान्त बनाए रखती है। टीका:-मन्दु इति शृंखला सया बन्धनानि निगदधन्धनानि सिंहपुष्यनानित्ति श्रीअभयदेवेन औपपातिकवृत्ती मेहनत्रोटनमिति व्याख्यातानि कडरिगदाहणाइति कट फेन वेष्टितुं प्रदीपनं इति दशाश्रुतस्कंधचुराणिः दोष कट्यं केवलं दुश्वानि प्रत्यनुभवमानो जीवा संसारसागरं अनुपरिवर्तने ॥ अर्थात् अन्दु शंखला से बांधा जाना निबिड बन्धन । सिंह पुरधनानि की औपपातिक सूत्र की दीका में आचार्य अभवदेव मेहणत्रोटन" के रूप में व्याख्या करते हैं । कीरिंगदाह से मतलब है कटक से बांधने के लिए प्रदीप्त करना ।" दशाश्रुतस्कंधचूर्णि । शेष सभी सरल है। केवल दुःख का अनुभव करता हुआ आत्मा संसार-सागर में भटकता है। "सिंह-पुरुणाई" का एक अर्थ यह होता है, खींग को पूंछ से बांध कर उसकी चमड़ी उधेदना । दूसरा अर्थ यह भी होता है कि किसी आदमी के गर्दन के पिछले भाग की चमबी उत्तार कर सिंह की पूंछ की आकृति में लटकाया जाता है। कटानि बांस के दो भागों को मिलाकर जलाना कटामि कहलाता है, कि दूसरा अर्थ होता क्ट नामक घास में लपेट कर आदमी को जला डालना कटामि कहलाता है। भाउमरणारं भर णिमरणाई पुत्तमरणाई धूयमरणाई भज्जमरणाई अण्णाणि य सयणमित्त बंधुवरंगमरणाई तेसिं च णं दोगचाई दोभाई दोमणस्साई अप्पियसंवासाई पियत्रिपओगाई हीलणाई जिसणाई गरहणाई पचहणारं Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-आसियाई परिभवणाई, आगडुणाई, अण्णय राहूं च दुक्खदोमणस्सा हूं पश्चणुभवमाणा अणाइयं अणवदग्गं दीमद्धं चाउरंत संसारसागरं अणुपरियति भाई की मृत्यु, बहन की मृत्यु, पुत्र पुत्री पत्नी की मृत्यु, और दूसरे स्वजन परिजन की मृत्यु या उनका दारिद्र्य, दुर्भोजन, उनकी मानसिक चिन्ताएं, अप्रिय का संयोग और प्रिथ का वियोग, अपमान, घृणा और पराजय तथा और भी अनेक दुःख दुश्चिन्ताओं का अनुभव करते हुए आत्मा अनादि, अनन्त, दीर्घ मार्गशील चातुरन्त संसार सागर में परिभ्रमण करते हैं। ४० गुजराती भाषान्तर : ભાઈ, બહેન, પુત્ર, પુત્રી, પતિ, પત્ની વગેરેનું મરણ અને બીજા દારિદ્રય, માનસિક ચિન્તાઓ, અપ્રિયનો સંયોગ અને પ્રિયવસ્તુનો વિયોગ, અનેક દુઃખ ખરામ ચિન્તાઓનો અનુભવ કરતાં અનાદિ, અનંત ચીર, પરિભ્રમણ કરે છે. कम्मुणा पही खलु भो जीवा नो आगच्छिहिति हत्थच्छेयणाणि ताई चैष भाणियव्यारं जाव संसारकंतारं विवइत्ता सिवं मयल-मरूय-मक्खयमाहमणराव सासयं ठाणमन्भुवया चिति । अश्री:- कर्महीन आत्मा संसार में पुनः नहीं आती हैं। हस्तच्छेदनादि उपर्युक्त दुःख उनके लिए समाप्त हो जाते हैं । संसार के मीह बन को पार कर शिव, अचल अरुज, अक्षय, अव्याबाध, पुनरागमन रहित और शाश्वत स्थान को पा लेते हैं। સ્વજનો પરિજનોનું મરણ અથવા તેમનું અપમાન, ઘણા અને પરાજય તથા વધુ માર્ગશીલ સંસાર રૂપી સાગરમાં આત્મા કર્મહીન આત્મા સંસારમાં ફરીથી આવતો નથી. હસ્ત છેદનાદિ ઉપર કહેલા દુઃખ તેને માટે સમાપ્ત થઈ જાય છે. તે સંસારરૂપી ભયંકર જંગલને પાર કરીને શિવ, અચલ, અરૂજ, અક્ષય, અવ્યાબાધ, પુનરાગમન રહિત અને શાશ્વત સ્થાનને પ્રાપ્ત કરે છે. कम्ममूलमनिव्वाणं संसारे सव्वदेहिणं । कम्ममूलाई दुखाई कस्ममूलं व जम्मणे ॥ अर्थ :-- संसार के समस्त देहधारियों का भ्रमण कर्म जन्य है । समस्त दुःखों की जड कर्म है और जन्म भी कर्म मूल है। સંસારના સમસ્ત દેહધારિયોના ભવભ્રમણનું ભુંગમસ્થાન કર્મ છે. સમસ્ત દુઃખોની જડ (મૂળ) કર્મ છે; અને જન્મ પણ કર્મનું જ મૂળ છે. 8 जब तक लौह पिंड में अग्नि तत्त्व है तब तक उसे घन का प्रहार सहना ही पडेगा । जब तक कर्म है तब तक अशान्ति के प्रहार आत्मा को राहने ही पडेंगे। जब तक आत्मा पर राग और द्वेष की चिकनाहट रहेगी, तब तक कर्म रज उससे अवश्य ही चिपकेगी। बाजार में धूल उड़ती है तो नए कपडों पर भी लगती है और पुराने स्निग्ध कपड़े पर मी चिपकती है । परन्तु नए कपड़े पर लगी मिट्टी शीघ्र ही दूर हो सकती है। जब कि चिकनाहट वाले कपडे की रज बिना साबुन और पानी के दूर नहीं हो सकती। इसी प्रकार योग रूप हवा से कर्म धूल उड़ती है, किंतु आत्मा पर कषाय की चिकनाहट होने पर वह मजबूती से चिपकी रहती है और कषाय की विकाश रहित आत्मा पर कर्म रज अधिक ठहरती नहीं है, किन्तु कषाय आत्मा कर्म से वेष्टित हो कर संसार में भव- परम्परा बढ़ाती है। आचार्य उमास्वाति कहते हैं -! सकषाय वाजीकर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते संबन्धः । तस्यार्थ . ८ सू. २ और ३ सकषाय परिणति से आत्मा कर्म योग्य पुलों को ग्रहण करता है वह बन्ध है । संसार संतई भूलं पुण्णं पार्क पुरेकर्ड । पुष्पावनिहाय सम्मं संपरिव्व ॥ २ ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन अर्थ :-पूर्व कृत पुण्य और पाप संसार संतति के मूल है । पुण्य और पाप के निरोध के लिए साधक गम्यक् प्रकार से विचरे। गुजराती भाषान्तर: પૂર્વે કરેલા પુણ્ય અને પાપ સંસાર સંતતિના મૂળ છે. પુય અને પાપના અટકાવ માટે સાધકે સફ પ્રકારથી વિચરવું જોઈએ. पुण्य और पाप दोनों बन्ध-व्हेतुक है। क्योंकि, दोनों आधव है। वाचक मुख्य उमास्वाति भी कहते हैं: - समाश्रयः शुभः पुण्यस्य, अशुभः पापस्य ।।-तस्वार्थ . ६ सू. २,४ पुण्य और पाप दोनों आश्रय है । एक शुभ है, और दूसरा अशुभ । एक सोने की बेडी है, और दूसरा लोहे की। बन्धन दोनों में हैं। एक से खीय सुषमा मिल सकती है, पर शाश्वत शान्ति नहीं। यात्री बन से पार होता है, महकते गुलाब उसके मन को सुरभित बना देसे हैं, काटे पैर में नुम कर तन और मन को दुःखित बना सकते हैं। कांटों में तन उलझता है, तो फूलों में मन उलझता है। दोनों उलझन ही हैं और दोनों उलझने पथ के बन्धन ही है। दोनों ही लेय से दूर है। फूलों से मुगन्ध भले ही मिल जाय किन्तु मंजिल को निकट लाने में तो वह असमर्थ ही है । लक्ष्य का साधक यात्री जितना ही शूल से बचेगा उतना ही या उससे भी अधिक फूल भी बचेगा, क्योंकि शूल की चुभन थोड़ी ही देर रोकती है, किन्तु फूल की सौरभ मन को बांध लेती है और मन का बन्धन तन के बन्धन से अधिक मजबूत होता है। अतः पुण्य और पाप दोनों बन्धन ही हैं, वे चाहे फूल के हो या शूल के । मोक्षमार्ग में दोनों ही बाधक है । साधक को दोनों ही यन्धन तोड फेकना है। पुण्णपावस्स आयाणे परिभोगे यावि देहिणं । सतई-भोग-पाउगं पुण्णं पोचं सयंकडं ॥ ३ ॥ अर्थ:-देहधारी आत्मा को पुण्य पाप के आदान-प्रहण और परिभोग में योग्य वस्तुओं की परम्परा प्राप्त होती है. किन्तु वह स्वकून पुण्य और पाप फल स्वरूप है। गुजराती भाषान्तर: દેહધારી આત્માને પુણ્ય પાપના આદાન, પ્રહણ, અને ઉપભોગમાં અયોગ્ય વસ્તુઓની પરંપરા પ્રાપ્ત થાય છે, પરંતુ તે પુણ્ય અને પાપના ફલસ્વરૂપ છે. पुण्य और पाप के चिपाक रूप में प्राणी को शुभ या अशुभ वस्तुओं की प्राप्ति होती है। किन्तु पुण्य के मीठे स्वादु फलों के भोग के समय उसका अह बोलता है, कि मैं ने अपने श्रम की बुन्दों के बदले इसे पाया है। दूसरे को इसे छिनने का क्या अधिकार है। यदि किसी मुकद्दमे में सफलता मिल जाएगी तो कहेगा कि मेरी बुद्धि से सफलता प्राप्त हुई है। किन्तु यदि हार मिलती है तो वह वकील को दोष देगा, गवाह की गलती निकालेगा या फिर भगवान के मस्तक पर पार थोपेगा। जैन दर्शन मानव को स्वावलम्बन का संदेश देता है । संतति और सम्पत्ति के लिए भिखारी बन कर क्यों किसी के सामने गिडगिडाता है, क्यों हाथ फैलाता है, तेरा पुण्य कोष भरा होगा तो मिलेगा ही। दूसरी ओर दर्शन की यह देन मानव के दिमाग से अई का नशा भी दूर करता है। तेरे पुण्य का यह कल्पवृक्ष तुझे मीठे फल दे रहा है। तेरा अपना कुछ नहीं, यदि मुण्य का कल्पवृक्ष सूख गया तो सब कुछ समाप्त है । अतः इसे सेवा के जल से सिंचन करता जा । दूसरी ओर अशुभोदय के समय मानव युरी तरह से छटपटाता है और अशुभोदय जिस निमित्त आगे आता है, आत्मा उसी निमित्त पर शपटता है, आक्रोश करता है और चीखता-चिल्लाता है। उस निमिन को दुःख का मूल मान कर समाप्त करने की चेष्टा करता है। किन्तु कर्मवाद कहता है कि जिस विष फल से तू भागना चाहता है उसके बीज एक दिन तेरी आत्मा ने बोए थे। फिर दूसरे पर रोष और दोष क्यों ? । संवरो निजरा व पुण्ण-पावधिणासणं । संबर निजरं चेव सब्वहो सम्ममायरे ॥४॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस-आसियाई अर्थ :- संवर और निर्जरा पुण्य पाप के विनाशक हैं। अतः साधक सुंदर और निर्जरा का सम्यकू प्रकार से आचरण करे । ४२ गुजराती भाषान्तर : સંવર અને નિર્જરા પુણ્ય-પાપના વિનાશ છે. તેથી સાધકે સંવર અને નિર્જરાની સારી રીતે આરાધના કરવી જોઈ એ. आत्मा को कर्म से मुक्त करना है। उसके लिए आगम में तुन्दर रूपक दिया है। जीवन एक सरोवर है, जिसमें और पाप का कटु, मधुर जल भरा है। उसे जल से खाली करना है । किन्तु जब तक उस जल आगमन के द्वार खुले है तब तक तालाब नहीं सूखेगा। आगम उसको सुखाने का तरीका बताता है। पुण्य I जहा महातलाग्रस्स सनि जलागमे । गाता कम्भेण सोसणा भवे ॥-उत्तरा० भ० ३२ गा. ५ जैसे महान् लालाब की मोरियो बन्द कर दी जाये और बाद में उसका पानी उलीचा जाय और ताप की व्यवस्था की जाय तो वह महा तालाब भी सूख जाएगा। आत्मा तालाब में पुण्य पाप का आश्रव आगमन का द्वार रोकना संबर है और उसके बाद पानी का उलीचना निर्जरा हैं । संबर की एक सुन्दर परिभाषा द्रव्य-संग्रह में मिलती हैं । मर्दा सेवर के दो रूप बताए गए हैं- एक भाव-संवर, और दूसरा द्रव्य-संवर । परिणामो जो कम्मासवरोहणे हेव । सो भाष-संवरो खलु दग्वास्रव - रोहणे अण्णो ॥ द्रव्यसंग्रह गा० ३४ कर्मों के आश्रव को रोकने में सक्षम आत्मा का चेतन परिणाम भाव संवर 1 और इव्याधव को रोकने वाला द्रव्य-संवर है। निर्जरा के भी दो रूप बताए हैं। जय कालेन तवेण्यमुत्तर संक्रम्मन्युमालं जेणं । भावेण सढदि या तस्सडणं चदिनिजरा दुबिधा ॥ - द्रव्यसंग्रह ३६ आत्मा का वह भाव, निर्जरा है, जिसके द्वारा कर्म-पुल फल देकर नष्ट हो जाते हैं। और यथा काल से अथवा तप के द्वारा कर्म - गुगलों का आत्मा से पृथक्करण होना द्रव्य - निर्जरा है। आत्मा की वह विशुद्ध भाव धारा जिसके द्वारा कर्म परमाणु आत्मा से पृथक् होते हैं वह भाव-निर्जरा है । द्रव्य-निर्जरा के भी दो प्रकार है--- प्रथम कर्म जितनी स्थिति के साथ बंधा है उसकी स्थिति क्षय होने पर वे कर्म आत्मा से पृथक् होते ही हैं यह यथाकाल निर्जरा कहलाती है । तथा तप के द्वारा कर्म को उदीर्ण करके उन्हें स्थिति के पहले प्रदेशोदय के द्वारा भोग कर नाश कर देना दूसरे प्रकार की निर्जरा है । मिच्छत्तं अनियत्ती व पमाओ याषि गहा । कसाया व जोगाय कम्मादाणस्ल कारणं ॥ ५ ॥ अर्थ :- मिथ्यात्व अनिवृत्ति, अनेक ( पंच ) प्रकार का प्रमाद, कषाथ और योग कर्म ग्रहण करने के कारण हैं । जिन निमितों को पाकर आत्मा कर्म ग्रहण करता है के पांच हैं । गुजराती भाषान्तर : મિથ્યાત્વ, અનિવૃત્તિ, અનેક પાંચ પ્રકારના પ્રમાદ, કષાય અને યોગ કર્મ આવવાના કારણો છે, જે નિમિત્તોને લીધે આત્મા કર્મનું ગ્રહણ કરે છે તે પાંચ છે. ( પાંચ નિમિત્તોને લીધે આત્માને કર્મ લાગે છે) तत्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वाति कहते हैं : मिथ्यादर्शनाविरत प्रमादकापाययोग बन्धहेतवः ॥ - तत्वार्थ सूत्र म. ८ सू. १ आत्मा से कर्म को बन्ध होने में ये पांच मुख्य हेतु हैं। इन्हें पंच आश्रव भी कहा जाता है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . नवम अध्ययन ४३ मिथ्यात्व:-व्यवहार में सत्य, देव, गुरु, धर्म पर श्रद्धा का श्रम अभाव, असद, देव, गुरु और अधर्म पर श्रद्धा मिथ्या तत्व हैं। दार्शनिक दृष्टि से नव तस्वों पर यथार्थ श्रद्धा का अभाव या उनको विपरीत रूप में देखना मिथ्यात्व है। किसी पदार्थ को एकान्त नित्य या अनित्य मानना भी मिथ्यात्व है । वस्तु के अनन्त धर्मों में से किसी विशेष धर्म को स्वीकार करके शेष धमला घरनशियाबदार और शिय आदि नयों में से एक को ही सत्य मान कर दूसरे का विरोध करना मिथ्यात्न है । निश्चय दृष्टि से आत्मा की शुद्ध स्वभाव-दशा से हट कर विभाव-दशा में रमण करना मिथ्यात्व है। -इसे अप्रत या अविरति भी कहते है। हिंसा, असत्य आदि में जाती हुई आत्मा-प्रवृत्ति का निराधव्रत है। इसका अभाव व्यावहारिक दृष्टि से अनत है । निश्चय दृष्टि से अन्तरात्म वृत्ति में अरति पाकर बहिरात्मक प्रयसि में जाना अग्रत है। प्रमाद:-मद विषयादि से प्रेरित होकर मूल गुण एवं उत्तर मुणो में अतिचार लगना व्यवहार प्रमाद है। निश्य रष्टि में आत्मा के अप्रमाद रूप शुद्ध भाव से चलित होना प्रमाद है। कषाय:-जिनके द्वारा भव-परम्परा की वृद्धि होती है ऐसे कोधादि विकार व्यवहार कषाय है। निश्चय दृष्टि में भात्मा के प्रशान्त रूप में क्षोभ की लहर पैदा होना कषाय है। योग:-मन पचन और काया की चंचलता योग कहलाती है । नैश्चयिक दृष्टि से आत्मा में परिस्पंद होना ही योग है। मिथ्यास्त्र के पांच या पश्चीस भर है। प्रत के १२ मेद है। प्रमाद के ५ कषाय के चार और योग के तीन भेद हैं। विस्तृत ब्याख्या के लिये अन्य ग्रंथों का अवलोकन करें। जहा अंडे अहा बीप, तहा कम्म सरीरिणं । संताणे व भोगे य नाणायनत्तमिल्छ ॥६॥ अर्थ:-जैसा अंडा होता है वैसा ही पक्षी भी होता है । जैसा बीज होगा वैसा ही वृत होगा। इसी प्रकार जैसे कर्म होंगे आत्मा को वैसी शरीर मिलेगी । कर्म के ही कारण सन्तति में और भोग में नानात्व देखा जाता है। गुजराती भाषान्तर: જેવું ઈડું હોય છે તેવું જ પક્ષી પણ હોય છે. જેવું બીજ હશે તેવું જ ઝાડ થશે. તે જ પ્રમાણે જેવા કામો હશે, તેના પ્રમાણે આત્માને શરીરની પ્રાપ્ત થશે. કમેને લીધે જ સંતતિમાં અને ભેગમાં નાનાવ જોવા મળે છે, संसार विरूपता और विविधता का जीता-जागता रूप है। एक ही मां के दो लडकों में साम्य नहीं पाया जाता। कोई मुद्धिमान है तो कोई मूर्ख है। इस विविधता का उत्तर वैदिक दर्शन ईश्वर में देता है, कि ईश्वर की इच्छा ही इस विविधता का कारण है। जैन दर्शन इसका ठीक ठीक उत्तर देता है, कि मयूर के अंडे से मयूर ही जन्म लेता है। आम की मुठली से आम ही पैदा होता है। इसी प्रकार जैसा क्रम होगा उसी के अनुरूप देहधारियों के भोग होते हैं । यह विविधता और विचित्रता आत्मा के पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्म पर आधारित है। निबत्ती पीरियं चेव, संकप्पे य अणेगहा। नाणावपणवियकस्स दारमेयं हि कम्मुणो ।। ७ ॥ अर्थ:-नियुत्ति, रचना, पुरुषार्थ, अनेकविध संकल्प, नाना प्रकार के वार्षा और वितकों का द्वार-कर्म है। गुजराती भाषान्तर: નિવૃત્તિ, રચના, પુરુષાર્થ, અનેકવિધ સંકલ્પ, વિવિધ પ્રકારના વર્ગો અને કોના દ્વાર કર્યું છે. हर व्यक्ति की रचना, शकि और संकल्प पृथक् पृथक् हैं । यह सूत्रत्रयी ही नव सर्जन का केन्द्र है । आत्मा के जैसे संकल्प होंगे उसी दिशा में उसका शक्ति-प्रवाह भी बहता है। संकल्प और शक्ति ही मानव बनता है। सत् संकल्प और शक्ति सत्प्रयोग मानव को सत् रूप में डालता है। आत्मा का संकल्प बल ही तो था कि महावीर बन सके । आत्मा सत् संकल्प करता है तो वीर्य शक्ति उसकी सहचारिणी बनती है और वहीं शक्ति मानव को महामानव बना सकती है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ इसि-भासियाई असद संकल्प और असत् शक्ति मानव को दानब बना सकती है । रावण को रावण बनाने वाले उसके दुस्संकल्प ही तो थे। संकल्प का छोटा-सा बीज-शक्ति का जल पाकर एक दिन विराट्र वृक्ष बनता है। आत्मा भुलक्कड माली है जो बीज डालकर भूल जाता है। किन्तु जब वे प्रक्ष का रूप लेते हैं तब उसे प्रतिबोध होता है । आत्मा प्रतिक्षण असंख्य बीज डाल रहा। है । प्रतिक्षण सावधान रहे कि खेत में बुरे बीज न पड़ जायें, अन्यथा वे ऊग के ही रहेंगे। आत्मा के हर संकल्प में अनन्त बल है । जैसे हमारे संकल्प हैं वैसे ही हम बनेंगे। “यो यच्छ्रद्धः स एव सः" । अतः अपनी चेतना जागृत रखे। कहीं असत्संकल्प हमारे मन में बैठ न जावें । दुनिया में वर्णों की चितकों की, दूसरे शब्दों में आकृति और प्रकृति की विषमता ही संकल्पों पर आधारित है। दार्शनिक भाषा में सत्सकल्प के द्वारा शुभ कर्म एकत्र होता है और वे ही कर्म आत्ना, को शुभ या अशुभ प आकृति और प्रकृति प्रदान करते हैं। एस एव विवण्णासो संवुडो संयुडो पुणो। कमसो संवरो नेओ देस-सव्वविकप्पिओ ॥ ८॥ अर्थ:-यही आत्मा का विपन्न रूप-विभाव दशा है, अतः सापक पुनः पुनः संवृत्त बन आत्मा को पाप से संवत करना ही देश और सर्वतः संवर है। गुजराती भाषान्तर:सारा सामान स्व३५छे; विभाग तथा समय भी पीताथी દર રાખે તે જ દેશ અને સર્વ સંવર છે. प्रस्तुत गाथा में संघर तत्व का निरूपण किया गया है। असत्संकल्पों के द्वारा आत्मा विष रूप बनता है। यह विभाग दशा आत्मा का शुद्ध रूप नष्ट करती है । अतः साधक अपने को असत्संकल्यों से समेटे। मिथ्या विचारों से समेटे । कषाय और वासना से आस्मा को संबस बनाए। जैसे कछुआ अपने पर आघात होते देखता है तो अपने को संवृत कर लेता है। गर्दन और पैरों को समेट लेता है। फिर कोई भी शत्रु उस पर प्रहार नहीं कर सकता है । इसी प्रकार आत्मा भी जहाँ अपनी स्वभाव दशा का हनन देखे यहां अपने को समेट ले । यही समेटना सैवर कहलाता है। जो कि देश और सब दो भेदों में विभक्त है। खिम्मान परिगति से आंशिक रूप में हटना देश संबर है। और सब संवर रूप चारित्र यथाकाल कहलाता है जिसमें किसी प्रकार के कर्म का बन्धन नहीं होता है। दूसरी व्याख्या के अनुसार शैलेशीकरण सब संवर रूप चारित्र है। आत्मा की वह नियुकंप अवस्था जिसमें समस्त राय द्वेष प्रेरित आत्मा के स्पंदन (भावक्रिया) रुक जाते है साथ ही योग जनित द्रव्य क्रिया भी रुक जाती है और आत्मा अपना शुद्ध रूप प्राप्त कर कर्म रहित हो जाता है। __ सोपायाणा निरादाणा विपाकेयरसंजुया । उपक्रमेण तघला निजरा जायए सया ॥९॥ अर्थ: आत्मा की भिन्न रूपों से कम की निर्जरा करता है। कभी वह निर्जरा उपादान सहित होती है. कभी ना कर्मों के अग्रहण मूलक होती है। कभी वह विपाकोदय के साथ होती है तो कभी केवल प्रदेशोदय वा हैं और कभी उपक्रम सहित तप से भी निर्जरा होती है। गुजराती भाषान्तरः આત્મા જુદાં જુદાં રૂપથી કમની નિર્જરા કરે છે. ક્યારેક તે નિર્જરા ઉપાદાન સાથે હોય છે, ક્યારેક નવા કમ અટકાવવાના રૂપમાં હોય છે, તો ક્યારેક તે વિપાકના ઉદયની સાથે હોય છે તો મારેક ફક્ત પ્રદેશની ઉદયવાળી હોય છે. અને ક્યારેક ઉપક્રમ સાથે તપથી પણ નિર્જરા થાય છે. अहलर्षि संवर तत्व के निरूपण के बाद निजेरा तत्त्व की व्याख्या कर रहे हैं। कर्म प्रदेशों का रसहीन होकर भात्मा से पृथक हो जाना निर्जरा है, उसके अनेक प्रकार हैं। प्रथम निर्जरा वह है जिसमें मूल हेतु को प्रहण किया गया है। जिसमें निर्जरा के रहस्य को समझा है और उसके प्राप्त किए जाने वाले साध्य मोक्ष का निश्चय किया गया है। कर्म के आगमन के हेतुभूत मिथ्यात्व मोह रूप कर्म की निर्जरा सोपादाना निर्जरा है। निर्जरा का दूसरा प्रकार है निरादाना अर्थात् जिसमें निर्जरा का मूल हेतु ग्रहीत नहीं है, जिसमें भव-परम्परा की समाप्ति का ध्येय नहीं ऐसे बाल आदि के द्वारा होने वाली निर्जरा निरादाना है। दूसरे शब्दों में सोपादाना निर्जरा सकाम निर्जरा है और निरादाना निर्जरा अकाम निर्जरा । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन ४५ अथवा निरादाना का एक अर्थ यह भी हो सकता है कि आत्मा एक बार जिस कर्म की निर्जरा करे उसे भविष्य में कमी ग्रहण न करे नह भी कर्म के अग्रहण मूलक निरादाना निर्जरा है। विपाकेतर संयुता आत्मा जिन कर्म प्रदेशों के विशाकामुभव रसानुभव छोडता है। वे त्रिपाकोदय वाले कर्म प्रदेश और उनका निर्जरा सविधाका निर्जरा है। ___ आत्मा कुछ कर्म प्रदेशों का अत्यन्त रसानुभव करके त्यागता है। वह प्रदेशोदय कहलाता है। उदाहरण के तौर पर क्लोरोफॉर्म सुंघा कर ऑपरेशन किया जाता है। उस समय वेदना अत्यल्प होती है वह वेदनीय कर्म का प्रदेशोदय है। ऐसी निर्जरा अदिपाका निर्जरा कहलाती है । उपक्रम और तप के द्वारा भी निर्जरा होती है । उपक्रम के अनेक अर्थ है। यीज बोने के लिए की जाने वाली क्षेत्र शुद्धि पूर्व तैयारी उपक्रम है। आयु का टूटना मी उपक्रम है । सम्यक् बीज बोने के लिए मिथ्यात्व मोह की निर्जरा उपक्रम निर्जरा । अन्य अर्थ ये आयांग होने पर कमी को आत्मा भोग करके क्षय करता है वह मी सोपक्रमिक निर्जरा है आभ्यंतर और बाह्य तप जिन कमों को रस विहीन करते हैं वह तपाजन्य निर्जरा है । तपाजन्य निर्जरा को बताते हुए अर्हतर्षि गाथा मोलते है : संततं बंधए कम्मं निजरेड य संततं । संसारगाय जीवी विसेसी राघो मओ ॥१०॥ अर्थ :--संसारी आत्मा प्रतिक्षण कर्म बांध रहा है और प्रतिक्षण कर्मों की निर्जरा भी कर रहा है, किन्तु तप से होने वाली निर्जरा ही विशेष है। गुजराती भाषान्तर: સંસારી આત્મા ક્ષણે ક્ષણે કર્મનું બંધન બની રહ્યો છે અને ક્ષણે ક્ષણે કર્મોની નિર્જરા પણ કરી રહ્યો છે. પણ તપથી થનારી નિર્જરા જ વિશેષ છે. ___संसारावस्थित आत्मा ऐसे प्रतिक्षण अनंत पुराने कर्मों की निर्जरा कर रहा है। किन्तु अनंत कर्म नए बांध रहा है। क्योंकि आत्मा अनुभूतिमय है उसका चेदन एक क्षण भी शून्य नहीं है । चाहे वह सातारूप में हो या असातारूप में वेदन तो है ही। पुराने वेदनीय कर्म तो विपाकोदय में आ रहे हैं और रस देकर समाप्त हो रहे हैं । और तो और कषाय के वीन परिणाम में भी आत्मा मोह कर्म की निजेरा घरता है। सूत्र में इसका निरूपण भाता है। ऊपर से यह जरा अटपटा तो लगता है कि कषाय परिणति में निर्जरा कैसे! उसका समाधान है कषाय मोह के उदय में ही तो श्राएगी और कषाय करने पर पूर्व संचित कषाय में मोह के कर्म विपाकोदय में आ कर रसहीन बनते हैं। फिर प्रश्न होता है कि निर्जरा होती है तो आत्मा मुक्त क्यों नहीं होती है। इसका उत्तर यह होगा कि आत्मा जो प्रतिक्षण जितने कों की निर्जरा कर रहा है उससे वे कर्म अनंत गुणित हैं; जो कि अभी अनुदय अवस्था में ही पड़े हैं। अतः सम्पूर्ण का के क्षय के विना मोक्ष संभव नहीं। दूसरा उत्तर महाकाश्यप दे रहे हैं: आत्मा शुभ या अशुभ कर्मों का विशकोदय प्राप्त करता है। अर्थात् वे उदय में आते है तो किसी निमित्त को ले कर ही पाते हैं। अज्ञानी आत्मा शुभ निर्मित पर राग करता है और अशुभ निमित पर द्वेष करता है। राग और द्वेष के कारण आत्मा पुनः नए कर्मों का उपार्जन करता है। जो कि निर्जरित कर्मों की अपेक्षा परिमाण में द्विगुणित या असंख्य गुणित भी हो सकते हैं। आत्मा ऐसा मूढ कर्जदार है जो कर्ज चुकाता है, किन्तु एक हजार चुकाता है और दस हजार का नया कर्ज फिर ले लेता है। कय मुक्त होगा? यदि ण होना है तो नया कर्ज लेना बन्द करे। और पुराना कर्ज अल्प रूप में भी चुकाए फिर भी एक दिन ऐसा आएगा जब वह पूर्णतः ऋणमुक्त हो जाएगा। इसीलिए पहले संवर तत्त्व का निरूपण है । आत्मा अपने आप को संवृत करे अर्थात् नया ऋण लेना बन्द करे, बाद में की गई निजराही उसे ऋण मुक्त कर सकती है । संवर बिना की गई निजेरा कोई मूल्य नहीं रखती है। क्यों कि वह तो अनादि से चली आ रही है, किन्तु निर्जरा भव-परम्परा को समाप्त करने में सहयोगी नहीं हो सकती; इसी लिए अतिर्षि ने कहा है "विसेसो उ तवोमओ' अर्थात् तप के द्वारा होने वाली निर्जरा महत्वशील है; क्योंकि उसके द्वारा निर्जरित कर्म आत्मा से पुन: कभी चिपकवे नहीं हैं। अंकुरा खंघखंधीया अहा भवइ वीरुहो। कम्मं तहा तु जीवाणं सारासारतरं ठितं ॥ ११ ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इ-भजवाई अर्थ :- अंकुर से स्कंध बनता है, स्कंध से शाखाएँ कूटती हैं और वह विशाल वृक्ष बनता है। आत्मा के शुभाशुभ कर्म इसी प्रकार विकसित होते हैं 1 ४६ गुजराती भाषान्तर: અંકુરમાંથી ડાળી બને છે. ડાળીમાંથી શાખાઓ નીકળે છે. અને તે મોટો વૃક્ષ ( ઝાડ ) અને છે. આત્માન શુભ અશુભ કર્મોનો વિકાસ આવી રીતે થાય છે (આ જ પ્રમાણે થાય છે ). छोटा-सा अंकुर एक दिन स्कंध से शाखा प्रशाखा से मुक्त हो विशाल वृक्ष हो जाता है। ऐसे ही अशुभ कर्म का छोटा-सा अंकुर यदि समाप्त न किया गया तो एक दिन विशाल वृक्ष का रूप धारण कर लेता है । अंकुर छोटा है ऐसा मान कर इन उसकी उपेक्षा कर जाते हैं, किन्तु यह उपेक्षा ही उसकी वृद्धि में सहायक होती है और वह दुर्निवार हो जाता है। इसी प्रकार शुभ संकस्य को इच्छा कार्यशक्ति का सिंचन मिलता है तो वह भी विराद रूप धारण कर प्रशस्त फलप्रद वृक्ष बनता है । कम्मो य उरो संछोभो खवणं तथा । बनिधत्ताणं वेयणा तु निकाइते ॥ १२ ॥ अर्थ :- बद्ध स्पष्ट और नित्त कर्मों में उपकने, उत्करें, संक्षोभ और क्षय हो सकता है। किन्तु निकाचित कर्म की वेदना अवदय होती है । गुजराती भावान्तर: મહ્દ સ્પષ્ટ અને નિધત્ત કમીમાં ઉપક્રમ ( બંધાયેલા કમાને તોડવું ), ઉષ્કર (કર્મની સ્થિતિ આદિમાં વૃદ્ધિ કરવી), સંક્ષોભ (કર્મોના પ્રદેશમાં હલચલ) અને ક્ષય થઈ શકે છે. પરંતુ નિકાચિત કર્મની વેદના અવશ્ય થાય છે. कर्मबन्ध के दो रूप हैं । कषाय की मंद परिणति में जो कर्म बंधते हैं उनका बन्धन शिथिल होता है। उनमें परिवर्त - संभव है । किन्तु जो कर्म कषाय की तीव्र परिणति में बाँधे जाते हैं उनमें किसी प्रकार का परिवर्तन संभव नहीं । जिन क्रमों में उद्वर्तन, अपवर्तन और संक्रमण संभव है उसे 'निधत्त' कर्म कहते हैं। कर्म बन्ध की वह शिथिल स्थिति जिसमें स्थिति और रस में हानि वृद्धि तथा उसी की अवान्तर प्रकृतियों में परिवर्तन संभव हो, वह 'निधत' कहलाती है। किन्तु जिसमें उद्वर्ननादि एक भी करण संभव न हो वह 'निकाचित' कर्म कहलाता है। आगम में इसके लिए रूपक भी आता है। तपी हुई सुइयों के समूह के सदृश 'निधत्त' कर्म हैं। उन सुइयों में परिवर्तन की गुंजाइश रहती है। किन्तु यदि उन्ही सूदयों को तपा कर धन से पीट कर एकमेव बना दिया जाए फिर उनका पृथक्करण असंभव सा है । इसी प्रकार जो कर्म तीन कषाय के द्वारा बांधे गए हैं; उनमें स्थितिधात, रसवात कुछ भी संभव नहीं है । उसे 'निकाचित' बंध कहते हैं । संक्षोभ :- कर्म - प्रदेशों में हलचल । क्षयण :---क्षय करना । आत्मा के साथ बद्ध स्पष्ट क्रमों में उपक्रम आदि संभवित है । अर्थात् उन में परिवर्तन भी हो सकता है और तप के द्वारा उनका क्षय भी हो सकता है । किन्तु निकाचित कर्मों को तो भोगना ही होगा । टीका : [: उपक्रमः उत्कर्षः च तथा संक्षोभः संक्षेपः क्षापर्ण बद्ध-स्पृष्ट-निवृत्तानां विनिहितानां भवति कर्मप्रदेशानां निकाश्विते च कर्मणि वेदना पीडा । अर्थ गवं । कसं जघा तोयं सारिज्जत अधा जलं । संविजा निदाणे वा पाचकम्मं उदीरती ॥ १३ ॥ अर्थ :---अंजली में भरकर ऊपर उठाया जाने वाला पानी और ( सार्थमाघ ) ले जाया जाता पानी धीरे धीरे क्षय होता जाता है, किन्तु निदान कृत कर्म अवश्य उदय में आता है। १ उपक्रम - यद्ध कर्मों को लोहना उपक्रम है। उसका का दूसरा अर्थ कर्मों के बन्ध का आरंभ भी है। कर्म की स्थिति आदि में वृद्धि करना। एकेरी (उस्कर ) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन गुजराती भाषान्तर: અંજલીમાં ભરીને ઉપર લઈ જવાનું પાણી અને (સાર્થમાણ) તે લઈ જવાનું પાણી ધીરે ધીરે ક્ષય થતું જાય છે પરંતુ નિદાન-કર્મકૃત અવશ્ય ઉદયમાં આવે છે. कर्म-बन्ध के बाद उसका अबाधा काल विपाक काल पूर्ण होने के बाद शनैः शनैः वह कर्म उदय में आकर क्षीण हो जाता है। जैसे अंजल में भर पानी प्रतिकण एक एक बूंद गिरता जाता है वैसे ही यदि बद्धकर्म यदि निधन है तो क्षय होता जाता है। किन्तु निदान कृत कर्म तो अवश्य उदय में आता है। किसी फलशक्ति को ले कर किया जाने वाला संकल्प निदान है वह उद्य में आ कर रहता है। टीका:-उत्कृष्यमाणं यथा तोयं सार्यमाणं यथा जलं कर्म संक्षपयेत् । अन्यत्र निदाने परलोकं मधिकृत्य फलेप्सु पापं कर्मशेष उदीर्यति । अर्थ गतम् । अप्पा ठिती सरीराणं बहुं पाच तुफाई । पुवं यझिजते पावं तेण दुकरं तवो मयं ॥ १४ ॥ अर्थ :-देहधारियों की स्थिति अल्प है और पाप कर्म बहुत है साथ ही वे दुष्कर भी है। और पाप कर्म पहले भी बांधे जाते हैं। अतः दुष्कर तप की आवश्यकता है। गुजराती भाषान्तर: દેહધારિયોની સ્થિતિ અલ્પ છે અને પાપ કર્મ બહુ છે સાથે સાથે દુષ્કર પડ્યું છે. અને પાપકર્મ પહેલા પણુ બાંધવામાં આવે છે. તેથી કુકર તપની આવશ્યકતા છે. संयत साधक साधना काल में कोई विशेष कार्जित नहीं करता है फिर उसे तप की क्या आवश्यकता है। यह भी एक प्रश्न है । इसका उत्तर ऋषि देते हैं। देहधारियों की जितनी स्थिति है कर्मों की स्थिति उससे कई गुना अधिक है। साथ ही सभी कर्म इसी भव के नहीं है पूर्व जन्म के अनंत कर्म आत्मा के साथ हैं, अतः उन सब के क्षय के लिए साधक दुःखप्रद तप की भी साधना करता है। टीका:-भल्या स्थितिः शरीरिणो बहु र पापं दुष्कृतं भवति । पूर्व च बध्यते पाप तस्मात् तपो दुष्करं मतम् ॥ -अर्थ ऊपरवत् है । खिजंते पावकम्मानि, जुत्त-जोगस्स धीमतो। देसकम्मक्षयम्भता जायते रिद्धियोबह ॥ १५॥ अर्थ:-पुद्धि-शीलयुक्त योगी साधक पाप कर्मों को नष्ट करता है। आंशिक रूप में कर्म क्षय होने पर अनेक ऋद्धिया-लब्धियां प्राप्त हो जाती हैं। गुजराती भाषान्तर: બુદ્ધિશીલયુક્ત યોગી સાધક પાપકર્મને નાશ કરે છે. આંશિક રૂપમાંથી કર્મ ય થઈ જવાથી અનેક R-सिद्धि प्राH लय छे. धीमान् साधक विधि पूर्वक योग-निग्रह करता है। मनादि योगों के संगोपन से आत्मा कर्मों का क्षय करता है। अशेष कर्म क्षय होने पर आत्मा मोक्ष प्राप्त करता है, किन्तु आंशिक रूप से कर्म क्षय होने पर साधक जंघाचारणादि लब्धियां प्राप्त करता है। साधक की माधना का लक्ष्य ये हल्की फुल्की सिद्धियां नहीं है, ये तो दो पैसे के चमत्कार हैं। क्या साधक इतनी बबी साधना इन्ही चमत्कारों के पीछे गुमा वेगा? नहीं नहीं; साधक की साधना नमस्कारों के लिए नहीं होती। पर हो, सच्ची साधनों के पीछे ये हाथ बधेि चली आती हैं। टीका:-योगे युक्तस्य धीमतः पापकर्माणि क्षीयन्ते । यहम्यो पद्धय जायन्ते कर्मभान भयभूताः ॥ साधना में लीन साधक पाप कमी का क्षय करता है। आंशिक रूप से कर्म के क्षय होने पर अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ उसे प्राप्त होती है। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई विजोसहि णिवाणेसु, वत्यु-सिक्खा मतीसु य ! तवसंजभपयुत्ते.य विमद्दे होति पबओ॥ १६ ॥ - अर्थ :-तप-संयम में प्रयुक्त आत्मा क्रमों का विमर्दन करने पर विषौषधि की गहराई में प्रवेश करता है। दृष्टिवाद के वास्तु पूर्व तथा शिक्षा एवं पति से उसकार होता है। गुजराती भाषान्तर: તપસંયમમાં પ્રયુક્ત આમા કર્મોનું વિમર્દન કરવાથી વિપૌષધિના ઊંડાણમાં પ્રવેશ કરે છે. દષ્ટિવાદના વાસ્તુ પૂર્વ અને શિક્ષા તેમ જ ગતિથી તેને સાક્ષાત્કાર થાય છે. पिछली गाथा में बताया गया है कि संयमशील साधक कर्म क्षय के हेतु तप और साधना करता है। किन्तु आशिक रूप से कर्म क्षय होने पर उसे लब्धियां प्राप्त होती है। उन्हीं लब्धियों में से कुछ यहां दी गई हैं। औषध विज्ञान में की । गहराई में प्रवेश, अर्थात् ऐसी लब्धिप्राप्त साधक को औषधियों का अच्छा ज्ञान हो जाता है। साथ ही दृष्टिवादे के वास्तु पूर्व तक उसे ज्ञान होता है । अथवा दास्तु भवन निर्माण कला का ज्ञान होता है। साथ ही वह साधक शिक्षा शास्त्र में और गति में निपुण होता है। किसी की गति के आधार पर उसका इतिहास जान लेता है अथवा चारों गतियों का विशिष्ट स्वरूप वह जानता है। टीकाकार कुछ भिन्न मत रखते हैं : टीका:-कश्चित् तपःसंयमप्रयुक्तस्य त्रिमर्दो विरोधो भवति, तदा विधीषधिनिपानेषु दृष्टिवादवस्तुशिक्षागतिषु च तस्य प्रत्ययः । और संयम में प्रथम साधक को साधना में कुछ विमर्द विरोध स्खलना होती है तब विद्या औषधि निपान गहराई दृष्टिवाद वस्तु शिक्षागति में उसका प्रत्यय ( विश्वास ) साक्षात्कार होता है। शुद्ध की और बड़ने वाला साधक भाव धारा की मंदता के कारण शुभ में रुक जाता है तभी उसे ये सिद्धियां प्राप्त होती हैं। पर शुद्ध की ओर बढ़ने वाला इन सिद्धियों के व्यामोह में कभी नहीं फंसता है। प्रोफेसर शुनिंग लिखते है जिसमें साधुत्व और आमसंयम है वहाँ चमत्कार जमी जुटी आदि में श्रद्धा भी है। यह गति के उपयोग में पूर्व ज्ञान का उपयोग करता है और संघर्ष को बह पूर्व ज्ञान वस्तु पूर्व से समाप्त करता है। दुक्खं खवेति जुत्तप्पा पावं मीसे वि बंधणे। जधा मीसे वि गाहमि विसपुण्फाण छहणं ॥ १७ ॥ अर्थ:-ये लब्धियां पाप में बन्धन कम होती हैं। अतः युक्तात्मा इनके (लब्धियों के द्वारा कभी दुःख का क्षय भी करता है। जैसे मिश्रित फूल ग्रहण करने पर कुशल व्यक्ति विष फूल छोड कर अच्छे फूलों को ग्रहण करता है। इसी । प्रकार योग्य साधक लब्धियों के दुरुपयोग को रोक कर उनके सदुपयोग के द्वारा दुःख का ही क्षय करता है। गुजराती भाषान्तर :--- આ લધિ પાયમાં બંધન રૂપ હોય છે. તેથી યુક્તામા તેઓની (લબ્ધિયોની) દ્વારા કયારેક દુઃખનો થાય પણ કરે છે. જેવી રીતે મિશ્રિત દૂધ લીધા પછી કુશળ વ્યક્તિ ઝેરી ફૂલને છોડી સારાં ફૂલોને ગ્રહણ કરે છે, તેવી જ રીતે યોગ્ય સાધક લબ્ધિના દુરૂપયોગને રોકીને તેના સદુપયોગ દ્વારા દુ:ખનીજ ક્ષય કરે છે. तलवार शत्रु से रक्षा भी करती है और यही तलवार कभी अपना संहार भी कर सकती है। इसी प्रकार तप के द्वारा पाई हुई लब्धियां यदि शासन हित के उपयोग में आती हैं तो पुण्यरूपा है। अन्यथा पाक्ति व्यक्ति को गद्धत भी बन सकती है और उसका दुरुपयोग भी हो सकता है। दुरुपयोग में गई हुई शक्ति पाप का ही बन्धन करती है। वन में सुन्दर स्वास्थ्यप्रद पुष्प भी होते हैं और विष पुष्य मी होते हैं, किन्तु कुशल माली विषपुष्पों को छोड कर अमृत १ आत्मसाक्षात्कार के द्वारा प्राप्त दिव्य शक्ति लधि कहलाती है। जन साधारण जिसे चमत्कार का कर चमकूत होता है किन्तु अध्यात्म साधना में यह बहुत नीचे की वस्तु है। सम्यक श्रुत का बारहवां अंग दृष्टिवाद है। श्रुत साहित्य का विशालतम कोष जिसमें १४ पूर्वो का समावेश होता है। जिसे पाकर मुनि मुतकेवलिपद पाता है । जिसके द्वारा साधक को तत्त्वातस्व के निर्णय में विशुद्ध पूष्टि प्राप्त होती है। - -- - Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन ४९ पुष्प का ग्रहण करता है। उसी प्रकार आत्मज्ञबुलब्धियों के द्वारा होनेवाली हानियोंसे बचे। लब्धि वह तलवार है जो यदि सीधी चली तो दुःखों का क्षय कर सकती है। शासन की रक्षा में किया गया लन्धि का उपयोग शासन को संकटों से बचाएगा, हजारों साधकों के जीवन और उनके समाधि की तथा प्रतिष्ठा की रक्षा करेगा। किन्तु यदि किसी से अपने पैर का प्रतिशोध लेने में लब्धि का प्रयोग किया गया तो गलत ढंग से किया गया यह प्रयोग विकाश नहीं विनाश करेगा । अतः साधक लब्धि पाने के बाद उसके उपयोग में पूरी सावधानी रखे । टीकाकार का मत इस तरह है : सकृतेन च दुष्कृतेन च मिश्रमपि सतिकर्म बन्धने मुक्कामा साधुः पापं दुःख क्षपयति यथा मित्रेऽपि हिताहित. मिश्रितेऽपि पुष्पाणां ग्राहे संग्रह विश्वरित प्रपाणि चरातिमानि चयवस्ति । सत्कार्य और असत्कार्य के द्वारा शुभाशुभ रूप मिधित कमों का बन्ध होता है। किन्तु शुभाशुभ अध्यवसायों के द्वारा कम का बन्ध मित्र होता है। कषाय की मन्द अवस्था में शुभ का बन्ध विशेष और अशुभ का बन्ध अल्प होता है। कषाय की तीवावस्था में यदि कषाय प्रशस्त कषाय है तो अशुभ के साथ आत्मा शुभ का भी मन्ध । है1 मन्द कषायी आत्मा देव गति का बन्ध करता है। किन्तु वहाँ भी वृत्तिजन्य दुःख तो मौजूद है और रम्यक्त्वी आत्मा नरक में भी शान्तिका अनुभव करता है। वहाँ अशुभ के साथ शुभ का उदय है। किन्तु युक्त आत्मा अशुभ को छोड़कर शुभ और शुभ से शुद्ध की ओर प्रवृत्त होता है। जैसे राम्मिश्रित हिताहित में से हंस युद्धि मनुष्य हित का ही प्रहण करता है । विष पुष्पों से मिश्रित पुष्प समूह में से कुशल माली अच्छे पुष्यों का ही चयन करता है। प्रोफेसर शुबिग कहते है किः-जैसे अंजली में आए हुए फूलों में से जहरी पुष्पों को फेंक दिया जाता है, उसी प्रकार युझियुक्त आत्मा अशुभ कर्मों के असर को समाप्त कर देता है। ___ यहाँ हमें प्राचीन युग की सांस्कृतिक झांकी दिखाई देती है। प्राचीन युग में शत्रु के संहार के लिए विषमय पुध्य तैयार किए जाते थे जिनके सूंघते ही शत्रु मर जाए। साथ पिच कन्या भी तैयार की जाती थी इसका अन्य अध्याय में उल्लेख है। समसं च दयं चेव सममासज्ज दुल्लहं । ण प्पमापज मेधावी मम्मगाहं जहारियो ॥ १८ ॥ अर्थ :-मेधावी साधक दुर्लभ सम्यकल और दया को सम्यक् रूप में पा कर प्रमाद न करे, जैसे शत्रु के मर्म को प्य लेने के बाद शत्रु विलम्ब नहीं करता है । गुजराती भाषान्तर: બુદ્ધિમાન સાધકે કુલભ સમ્યકત્વ અને દયાને સમ્યક રૂપમાં પ્રાપ્ત કરીને, પ્રમાદ કરવો ન જોઈએ. જેમ પોતાના શત્રુના મર્મસ્થલ ને જાણી લીધા પછી શત્રુ જરા પણ વિલંબ કરતું નથી. सम्यक्स्य और चारित्र-दया को पा कर साधक प्रमाद न करे । अप्रमाद के लिए यहां पर सुन्दर रूपक दिया गया है । जैसे युद्ध के मैदान में शत्रु का मर्म प्राप्त हो जाता है उसके बाद उसका वैरी एक क्षण भी विलम्ब नहीं करता। एक क्षण का विलम्ब ही विजय को पराजय में बदल सकता है। किन्तु वे गुम रहस्य हारती हुई सेना के हाथ में लग जाते हैं और उसका अविलम्ब उपयोग कर लिया जाए तो पराजय के आंसू के स्थान पर बिजन्म की मुस्कान दौड जाएगी। हवत्तिक्लए दीयो जहा चयति संतति।। आयाण-बंध-रोइंमि तहप्पा भव-संतई ॥ १९ ॥ अर्थ :--तेल और मनी (वाट ) के क्षय होने पर जैसे दीपक दीपकलिका रूप संतति को क्षय करता है, उसी प्रकार आत्मा आदान और बम्प का अवरोध करने पर भव परम्परा को क्षय करता है। - - .--- -- ..- -.--.. १-प्रशस्त राग की भांति प्रशस्त देष भी संभावित है 1 अन्याय के प्रति आनेवाला क्रोध प्रशस्त देष है। स्वार्थ भाष को लेकर आनेवाला क्रोध अप्रशस्त द्वेष है। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 गुजराती भाषान्तर: તેલ અને વાટનો ક્ષય થયા પછી જેવી રીતે દીવો દીપકલિકા રૂપ સંતતિનો ક્ષય કરે છે તેવી જ રીતે આત્મા આદાન અને બંધનો અવરોધ કરીને ભવ-પરંપરાનો હ્રાય કરે છે. दीपक में जब तक तेल और वर्तिका मौजूद हैं दीपकलिका का प्रवाह चालू ही रहेगा। ऊपर से बुझा देने पर भी अन्य ज्योति होने पर आएगी उसका संपूर्ण क्षय तो तेल और वर्तिका (गती) का क्षय ही है, उसी प्रकार कर्म का आदान और बन्ध जब तक समाप्त नहीं होते हैं तब तक भवसंतति का क्षय भी संभव नहीं । इसि - भासियाई यहाँ भव परम्परा की बुद्धि में तेल और बत्ती का स्थान रखनेवाले दो शब्द आए हैं। आदान और बन्ध कर्मों को ग्रहण करना और उनके साथ बध्य होना, इस दृष्टि से आदान और बन्ध में कोई विशेष अन्तर नहीं रह जाता है। किन्तु आदान कर्म बन्ध की प्रथम स्थिति है। राग चेतना या द्वेष चेतना के द्वारा आत्मा कर्मों को आकर्षित करता है। क्योंकि कर्म जड हैं, वे खर्य आ चिपक नहीं सकते। उनको आकर्षित करने की विशिष्ट शक्ति अपेक्षित है। आत्मा के राग द्वेषात्मक स्पन्दन ही कर्मों का आदान है, जिसे 'भावकर्म' कहा जाता है। कर्म पहले आकर्षित होते हैं, फिर बन्ध होता है। निश्चय दृष्टि से वह आदान ही बन्ध है | आदान कारण है, और बन्ध कार्य है । अतः पहले आदान को ही समाप्त करना होगा | आदान का बटन बन्द होते ही धन्ध की विद्युत क्षीण हो जाएगी। और दोनों के बन्द होते ही पंखे की गति अपने आप बन्द हो जाएगी। अतः यदि चलते हुए पंखे को रोकना है तो पहले बटन को रोकना होगा । यदि सीधे ही पंखे के पास पहुंच गए तो उसका वेग जंगली काट देगा । वेग को बन्द करने के लिये उसके पावर को बन्द करना होगा । निर्वाण शब्द जैन और बौद्ध दर्शन दोनों में मोक्ष के अर्थ में आया हैं और दीप निर्वाण से उसे उयमित किया गया है। फिर भी दोनों में अन्तर है। बौद्ध दर्शन मानता है कि तेल और बत्ती के क्षय होने पर दीपकलिका न ऊपर जाती है न नीचे, वहीं समाप्त हो जाती है। ऐसे ही वासना के समाप्त होने पर आत्मा भी समाप्त हो जाता है। बौद्ध दर्शन वासना जब कि जैन दर्शन वासना के क्षय के साथ भयपरंपरा का क्षय मानता आत्मा उपस्थित रहता है। वह शुद्ध अत्मा लोकाग्र में स्थित रहता है । व्यक्त करते हैं । के क्षय मानता हैं, और उसे निर्माण बोलता है। है। किन्तु वासना के क्षय होने के बाद भी आदान घन्ध विरोध को रोगोपशमन के रूपक से दोलादणे णिरुम्मि सम्मं सस्थागुसारिणा । पुव्वाउत्ते य विज्ञाय खयं चाही नियच्छती ॥ २० ॥ अर्थ-व्याधि- प्रस्त मानव दोषों के आगमन ( उत्पति) को रोक कर वैद्यक शास्त्र के अनुरूप वर्तन करता है और पूर्व दोषों का परिमार्जन करता है तो व्याधि से मुक्त होता है। બીમાર માણસ દોષોની ઉત્પત્તિને રોકીને વૈદ્યક શાસ્ત્રના અનુરૂપ વર્તન કરે, અને પૂર્વ સંચિત દોષોનું પરિમાર્જન કરે તો ન્યાધિથી મુક્ત બને છે. रोग मुक्त होने के लिए तीन बातों की आवश्यकता है। नए दोषों का आगमन रोकना, वैद्यक शास्त्र के अनुसार वर्तन और पूर्व रोग का उपशमन । तीनों के सद्भाव में ही व्यक्ति रोग रहित हो सकता है। कर्म व्याधि के श्रम के लिए भी तीनों बातें अपेक्षित हैं। नए शेषों की परंपरा को रोकना, सम्यक् शास्त्रानुकूल वर्तन और पूर्वार्जित कर्मों का क्षय होने पर आत्मा कर्म व्याधि से मुक्त हो कर निर्माण प्राम करता है I मज्जं दोसा यिसं वही गहावेसो अणं अरी । घणं धम्मं च जीवाणं विण्जेय धुवमेध तं ॥ २१ ॥ अर्थ :-मय, विष, अग्नि, महावेश और ऋण तथा शत्रु ही आत्मा के दोष हैं। जब कि धर्म ही उसका ध्रुव वन हैं । ऐसा जानना चाहिए 1 મદ્ય, વિધ. અગ્નિ, ચહાવેશ અને ઋણુ તથા શત્રુ જ આત્માના દોષો છે. જ્યારે ધર્મ જ તેનું ધ્રુવ ધન છે. એવું જાણવું જોઈ એ. पूर्व गाथा में स्वास्थ्य लाभ के लिए दोषागमन को रोकने की बात कही गई है। यहां आत्मिक और दैहिक स्वास्थ्य की क्षति पहुंचाने वाले दोनों प्रकार के दोष बताए गए हैं। मद्य देह और आत्मा दोनों को क्षति पहुंचाता है। अभि विष, ग्रहावेश, ऋण और शत्रु प्रायः शरीर को क्षति ग्रस्त करते हैं। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन आत्मा का धुव धन धर्म है। यह धर्म संप्रदायों से ऊपर रहने वाला आत्म-खभाव रूप धर्म है। क्योंकि वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। कम्मायाणेऽवरुद्धंसि सम्म मग्माणुसारिण । पुब्बाउत्ते य णिजिणे खयं दुक्खं णियच्छती ॥ २२ ॥ अर्थ :-कर्म ग्रहण को रोक कर सम्यक मार्ग का अनुसरण करने वाला आत्म' पूर्वार्जित कर्मों की निर्जरा करके समस्त दुःखों का क्षय कर देता है। गुजराती भाशन्तर: કર્મ-ગ્રહણને રોકીને સમ્યફ માગનું અનુસરણ કરવાવાળો આત્મા પૂર્વાર્જિત કર્મોની નિર્જરા કરીને સમસ્ત કોનો ક્ષય કરી નાખે છે. २२ वी गाथा में दिए गए दृष्टांत का यह गाथा निगमन ( उपसंहार) करती है। व्याधि से मुक्त होने के लिए दोषों का अवरोध, वैद्यक शास्त्र के नियमों का पालन, और पूर्व बीमारी का निष्काशन आवश्यक है। उसी प्रकार यहाँ आत्मा कर्म-मुक्ति के लिए नवीन कर्मों के आगमन के हेतु रूप आश्रव का निरोध करना होगा। उसे सम्यक् रूप से या सम्यक्त्व समवेत चारित्र का मार्गानुसारी बनना पड़ेगा। ऐसा करने से आत्मा पूर्ववद्ध कर्मों को भी क्षय करता है और समस्त दुःखों से मुक्त होता है। कर्मादान और मार्गानुसारी जैन पारिभाषिक शब्द हैं। श्रावक व्रत लेने के बाद शावक को जिन हिंसात्मक व्यापारों को बन्द करना पड़ता है, उन्हें कर्मादान कहा जाता है। मार्गानुसारित्व सम्यक्त्व प्राति के पूर्व के वे गुण जो आत्मा को सम्यक्त्वामिमुख बनाते हैं उन्हें मार्गानुसारी के गुण कहे जाते हैं। जिनकी संख्या ३५ हैं। किन्तु यहाँ दोनों शब्द अपेक्षित अर्थ से भिन्न रूप में प्रयुक्त हुए हैं। कर्मादान का मतलब कमी के ग्रहण से है । रग द्वेषाभिभूत आत्मा क्रमों को अपनी ओर आकृष्ट करता है वह कर्मादान है। मार्गानुसारी से मतलब बारित्र-मार्ग में वर्तमान आत्मा है। क्योंकि कर्म क्षय में विशिष्ट योगदान उसी का है। पूर्वोक्त मार्गानुसारित्व तो सम्यक्त्व के पूर्व की अवस्था है और यहाँ सम्यक्त्व समवेत मार्गानुसारित्व का निर्देश है। जिससे चारित्र ही विवक्षित है। पुरिसो रहमारूढो जोग्गाए सत्तसंजुतो। विपक्वं णिहणं णेइ सम्मविट्ठी तहा अणं ॥ २३ ॥ अर्थ:-विपक्षी को हनन करने योग्य शक्ति से संपन्न स्थारूड पुरुष शत्रु को समाप्त कर देता है, इसी प्रकार सम्यम् दृष्टि अनंतानुबंधी कषाय को समाप्त करता है। गुजराती भाषान्तर: વિપક્ષીને હવાયોગ્ય શક્તિથી સંપન્ન પુરષ શત્રુનો નાશ કરે છે તેવી જ રીતે સમ્યક્ દષ્ટિ અનંતાનુબંધી કષાયને સમાપ્ત કરે છે, शत्रु पर विजय पाने के लिए दो बातें अपेक्षित है। शक्ति और बचाव का साधन । आत्मा का शत्रु अनंतानुक्न्धी बनुष्क है, क्योंकि अनंतानुबन्धी और मिथ्यास्त्र सहभावी है। एक के सद्भाव में दूसरा आ ही जाता है। जो कषाय सारे जीवन तक आत्मा को जलाता रहता है और उस आग की लपटों में दूसरों को भी झुलसाता है, जीते जीते जो कषाय अन्तर की आग में जलता है और मरने के बाद नाक की आग में पटकता है, वह कषाय है अनंतानुबन्धी । आत्मा सम्यक् दर्शन की शक्ति पाकर मिथ्यात्व शत्रु का संहार करता है। अन् यह अनंतानुबन्धी कातः संक्षिप्त रूप है। वह्निमारुय-संयोगा जहा हेमं विसुज्झती। सम्मत्त-नाण-संजुत्ते तहा पावं विसुज्झती ॥ २४ ॥ अर्थ:-जैसे अमि और पवन के प्रमोग से स्वर्ण विशुद्ध हो जाता है, वैसे हि गम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान से युक्त आत्मा पाप से विशुद्ध होता है। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाह गुजराती भाषान्तर:- જેમ અગ્નિ અને પવનના સંયોગથી (મદદથી) સોનું નિર્મળ બને છે તેમ જ સમ્યકદર્શન અને સમ્યકજ્ઞાન સાથે સંયોગી પાપ-વિશુદ્ધ બને છે. दर्शन और सम्यग ज्ञान के द्वारा आत्मा कर्म-भक्ति की राह पर आगे बढ़ता है। जब तक मिश्श्याल है तब तक अशान है। जो अमृत को ही जहर मान कर उससे धृया करता है और जहर का अपत मान कर पीता है बह दुःख के दावानल को निमंत्रण देता है। सम्यग् दर्शन के आने पर ही ज्ञान सम्यम् बनता है। अन्यथा ज्ञान तो मिथ्यात्व दशा में भी होता है। किन्तु उसका ज्ञान तत्व का शुद्ध रूप नहीं देखता। यह केवल वर्तमान रूप को ही देखता है। उसके अनंत अनंत भूत और अनंत अनंत भविष्य पर्यायों को स्वीकार नहीं करता है । अतः बह वस्तु को जानता हुआ भी नहीं जानता है। ऐसे तो मिथ्यात्वी भी गी को गौ और अश्व को अश्व देखता है। वह भी गाय को घोटा नहीं कहता। किन्तु सम्यक्त्वी जहाँ गाय में एक शाश्वत अनंत गुण, अनेत अतील, अनागत पर्याय वाला आत्म-तत्व मानता है। आज निरीह दीन रूप में उपस्थित आत्मा एक दिन भाव बन कर चक्रवती के सिंहासन पर भी बैठ सकता है। जीबाविसहइण समत्तस्वमप्पणो। दुरभिणिवेसमुक सम्म खु होदि सहि जम्हि । जीवादि तत्वों पर श्रद्धा सम्यक्त्व है। वही आत्मा का निज रूप है । जिसके आने पर ज्ञान दुरभिनिवेश-हवाग्रह से मुक्त हो सम्यक् बनता है। व्य संग्रह कभी इन्द्र के सिंहासन पर भी बैठ सकता है, और कमी समस्त कर्म जंजीरों को तर शुक भी रातःहै: सु दर्श गाय में चक्रवती और इन्द्र का अस्तित्व स्वीकार करता है, जब कि मिथ्यात्वी केवल उसे गाय के रूप में देखता है। अतः सम्यग दर्शन पाते ही आत्मा दर्शन विशिष्ट की शचि पाता है जिसके द्वारा ख--पर का मेदविज्ञान कर सकता है। और यही पाप-विशुद्धि के लिए प्रयलशील होता है। तवसंतसं वत्थं सुज्झइ चारिणा। सम्मत्तसंजुतो आप्पा तहा झाणेण सुज्झती ॥ २५ ॥ अर्थ:-जैसे धूए से तप्त वन पानी के द्वारा शुद्ध होता है। वैसे ही सम्यक्त्व से युक्त आत्मा ध्यान से शुद्ध होता है। गुजराती भाषान्तर: જેમ તડકાથી તપેલું વસ્ત્ર પાણીથી શુદ્ધ થાય છે. તેવી જ રીતે સમ્યકત્વથી યુક્ત આત્મા ધ્યાનથી શુદ્ધ બને છે. धूप से तप्त वस्त्र पानी से शुद्ध होता है। पानी से तो कपडा भीगता है, फिर यह शुद्ध कैसे है। धूप से पसीना आता है उसके द्वारा कपड़ा अशुद्ध हो जाता है। मैला कपडा पानी से साफ हो जाता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व समवेत श्रात्मा ध्यान के द्वारा शुद्ध होता है। ध्यान के चार प्रकार हैं, जिसमें आर्त और रौद्र कर्म पाश को मुहद्ध करने वाले हैं। धर्म और शुक्ल ध्यान आत्म-विशुद्धि के लिए उपयोगी हैं। शुद्ध थान के दो पद पृथक्त्व वितर्क और एकच वितर्क केवल ज्ञान के हेतु है और शेष दो सूक्ष्मकियाप्रतिपत्ति और व्युपरतक्रियानिवृत्ति द्वारा आत्मा शैलेशीकरण अवस्था प्राप्त करता है। सर्व संवरशील आत्मा क्रिया रहित स्थिति में पहुंच कर ही पूर्ण निर्वाण को पाता है। आचार्य समन्तभद्र मल्लिनाथ प्रभु की स्तुति में कहते हैं : यस्य घ शुक्ल परमतपोग्नि,-निमनंत दुरितमधाक्षीत् । त जिनसिई कृसकरणीय, मलिमशल्यं शरणमितोऽस्मि ॥ जिनके शुम ध्यान की परम तपाग्नि में अनंत पाप भस्म हो जाते हैं, उन कृतकृत्य निःशल्य जिनसिंह मशिनाथ प्रभु का मैं शरण ग्रहण करता हूं। प्रस्तुत स्तुति काव्य में भी शुक्र ध्यान को आत्मशुद्धि का हेतु बतलाया गया है। कंचणस्स अहा धाऊ जोगेणं मुच्चए मलं। अणाईए वि संताणे तवाओ कम्मसंकरं ॥ २६ ॥ अर्थः-धातु के संयोग से स्वर्ण का मैल दूर होता है । इसी प्रकार अनादि कर्म सन्तान भी तप से नष्ट हो जाते हैं। जहा आत Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नषम अध्ययन गुजराती भाषान्तर: જેમ ધાતુ (તેજબ)ના સંયોગથી સોનાનો મેલ નિકળી જાય છે તેમજ અનાદિ કર્મો પણતપથી નષ્ટ બની જાય છે. स्वर्णकार जब सोने को विशुद्ध करता है, वह आग में तपाने के पूर्व उसमें दूसरी धातु (तेजाब) मिलाता है जिसके द्वारा तपने के बाद खणं में अधिक दीप्ति आती है और वह मुलायम हो जाता है। इसी प्रकार कर्म मैल आत्मा के साथ अनादि है। फिर भी तप के द्वारा कर्म मैल दूर हो जाता है और आत्मा विशुद्ध होता है। बहुधा प्रश्न किया जाता है कि आत्मा और कर्म का संयोग अनादि है फिर अनादि का अंत कैसे संभव है ? उसके उत्तर में आचार्य ने सोने का रूपक दिया है। जैसे सोना और उसके मेल का संबन्ध अनादि है फिर भी मानव के प्रयका मैल को खर्ण से पृथक् कर सकते हैं, इसी प्रकार तपःशक्ति अनादि आत्म-मैल को दूर कर सकती है। वत्यादिपसु सुज्झेसु, संताणे गहणे तहा । दिदै त देसधम्मितं, सम्ममेयं विभावए ॥ २७ ॥ अर्थ:-खादि के शोधन में और कर्म संतान में दृष्टान्त हा न्तिकमाष है। टीत एकदेशीय है। अतः उसका सम्यक् प्रकार से अध्ययन करना चाहिए । गुजराती भाषान्तर: કર્મોની ઉત્પત્તિમાં, અને વસ્ત્રોના શોધન (ધુલાઈ) ને દાન આપવામાં આવ્યો છે, આ દષ્ટાંત એકદેશીય છે. એથી તેનું સમ્યફ રીતે પાર પ્રવું જોઈએ. वनों की सफाई यह एक रूपक है और वह कर्म-संतान की विशुद्धि के लिए आयी है। यह दृष्टांत है और दृष्टांत एकदेशीय होता है। किसी के शान्त भिग्ध मुख को चन्द्र की उपमा वी जाय तो उससे घर में प्रकाश नहीं हो जाए ऐसी आकांक्षा भी पागलपन के सिवा और कुछ नहीं होगी । वहाँ तो चन्द्र की सौम्यता, शान्ति और सुधा ही विवक्षित है। महाकाश्यप अर्हतर्षि मी स्पकों के सम्बन्ध में निर्देश दे रहे है। ये एकधर्मी है, अन्यथा वनों की भांति आत्मा को पानी से धो कर शुद्ध करने के लिए चल पड़ेंगे। क्योंकि पाप का रंग इतना हल्का नहीं है कि यह पानी से धुल जाए। टीकाकार का मिन्न मत है साविषु शोध्येषु शुद्धि प्रापयितव्येषु मार्गितम्येषु वः तपश्च संताने षष्ठादिभक्तावलेषां पिस्ग्रहणे च देवाधर्मित्वं अपूर्णानुष्टानं बहुशो इष्टमेलमिस्वं तु सम्पम् लिःशेषं निभावयेत प्राकाश्य नयेत् ॥ जो वस्त्रादि शुद्ध करने योग्य हैं, उनमें और कर्म-संतति के क्षय हेतु की जानेवाली षष्ठभक्कादि तप और आहार प्रहण में देशमित्व अर्यात् अपूर्ण अनुष्ठान देखे जाते हैं। किन्तु साधक उनकी अपूर्णता दूर कर सम्यक् प्रकार से उसका अनुष्ठान करे। टीकाकार द्वारा प्रस्तुत अर्थ गाथा के हार्द से मेल नहीं खाता है। क्योंकि श्रहंतर्षि ने पहले वस्त्र शोधन और स्वर्ण शोधन के सृष्टांत दिए हैं। दृष्टांत हमेशा एकदेशीय होते हैं। दो वस्तुओं में से कुछ विशेष साम्यता को देख कर एक वस्तु से दूसरी को उपमित किया जाता है। पर इसका यह अर्थ नहीं है कि एक वस्तु के समस्त गुण दूसरी में ही हो । इसी तथ्य को बताने के लिए यह गाथा आई है। . आवज्जती समुग्घातो, जोगाणं च निरंभणं । अनियट्टी एव सेलेसी, सिद्धी कम्मक्खओ तहा ॥२८॥ अर्थ:-आवर्जन-समुद्धात, अनिवृत्ति, योग-निरोध और शैलेशीकरण के द्वारा आस्मा कर्म-क्षय करके सिद्धि प्राप्त करता है। गुजराती भाषान्तर: આવર્જન, સમુદ્રવાત, અનિવૃત્તિ, યોગનિરોધશિલેશીકરણ આત્મા કર્મ ક્ષય કરીને સિદ્ધ-મુક્તિ પ્રાપ્ત કરે છે. शुक्ल ध्यान की परम तपोमि के द्वारा चार कर्म क्षय करके आत्मा केवल ज्ञान और केवल दर्शन प्राप्त करता है। उसी का क्रम यहां बतलाया गया है. सर्व प्रथम आवर्जन क्रिया होती है। उदयावलिका में अप्राप्त कर्मों की उदयावलिका में प्रक्षेपण करना आवर्जन क्रिया कहलाती है। जब भाय अप हो और बेदनीय नाम गोत्र कर्म अधिक हों, उन्हें वायु की Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई । सम स्थिति में लाने के लिए केवली प्रभु समुद्धात करते हैं। क्योंकि यदि आयु समाप्त हो जाय और वेदनीयोदि की स्थिति अधिक हो तो पैचिरी स्थिति हो जायगी, क्योंकि आयु के अभाव में आत्मा शरीर में रह नहीं राकला और कर्मक्षय नहीं हुए तो सकर्मक श्रारमा सिद्ध कैसे होगा? ऐसी स्थिति में केवली भगवान समुद्धात करते है। जो अष्टसमय भाषी होती है। आत्म-प्रदेशों को दंड, कपाट, मन्थान और अन्तःपूर्ति के रूप में आत्म-प्रदेशों को लोक थ्यापी-बनाते हैं और चार समय में उसी कम से पुनः प्रदेशों को शरीरस्थ करते हैं। किया रागदाःहै। बेरी महिला व कला देने से जल्दी सूख जाता है उसी प्रकार समुद्धात से आत्म-प्रदेशों को लोक व्यापी बना देने से वेदनीय आदि की स्थिति आयु के तुल्य हो जाती है। उसके बाद केवली क्रमशः काया, वचन और मनोयोग का निरोध करते हैं। स्कूल वचन योग से स्थूल काय योग का निरोध करते हैं। और स्थूल मन योग से स्थूल वचन चोग का विरोध करते हैं। सूक्ष्म काययोग के द्वारा स्थूल मनोयोग का निरोध करते हैं। बाद में क्रमशः सूक्ष्म वचन योग से काम योग एवं सूक्ष्म मनोयोग से सूक्ष्म वचन योग का निरोध करते हैं और सूक्ष्मकियाप्रतिपत्ति नामक शशा ध्यान के चतुर्थ पद से सूक्ष्म मनोयोग का निरोध करते हैं। फिर शैलेशी निष्प्रकप अवस्था को प्रान करता है। अनियट्टी जो मात्र मुक्ति प्रा किया बगर निवृत्त नहीं होता है। जिसे अनियट्टी गुग श्रेणी भी कहते हैं। उराके बाद क्रिया रहित सर्व संबर रूप शैलेशी अवस्था आती है। इस अवस्था में पंचहस्ताक्षर उच्चारण काल तक आत्मा देह में ठहर कर आत्मा देहमुक्त हो सिद्ध होता है। टीका:-तस्य फलं उच्यते यथा मापद्यते कर्मप्रदेशानां समुद्रातः स्फोटनकल्पः योगाना रूपवाङ्मनःकर्मरूपाणां निरोधः भनिवृत्तिरपुनर्भवः शैलेशीयोगनिरोधरूपावस्था सिद्धि निर्माण तथा कर्मक्षयः ।। पूर्व गाथा में बताया गया है, कि साधक अपूर्ण अनुष्टान न करे। अपितु साधना को पूर्ण करे। पूर्ण साधना का प्रति फल यहां बतला रहे हैं। जैसे कि कर्म-प्रदेशों का समुद्धात, जिसे स्फोटनकल्प भी कहा जाता है शरीर, वाणी और मन रूप योगों का निरोध अनिवृति अर्थात् पुनः न होने वाली योगनिरोध रूप शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर आत्मा कर्म-क्षय रूप सिदितथा निर्वाण प्राप्त करता है। णावा व वारिमसंमि, खीणलेवो अणाउलो।। रोगी वा रोगणिम्मुक्को, सिद्धो भवति णीरओ ॥ २९ ॥ । अर्थ:--जल धारा के बीच में रही नौका के समान कर्म लेपरहित अनाकुल आत्मा सिद्ध होता है। रोगी रोग से निर्मच होने पर आनन्द पाता है। ऐसे ही आत्मा भव-भ्रमणों की व्याधि से मुक्त हो कर आनन्द पाता है। गुजराती भाषान्तर: પાણીના પ્રવાહની અંદર રહેલ હોડીની જેમ કમળ-રહિત અમા સિદ્ધ બને છે. રોગી રીગથી મુક્ત થવાથી આંનંદીત થાય છે, તેવી જ રીતે આત્મા ભવભ્રમણની રોગથી મુક્ત થઈને આનંદ અનુભવે છે. नौका अथाह सागर में नैरती है। उसके नीचे असंख्य जलराशि रहती है, फिर भी नौका में एक बूंद भी नहीं रहता। इसी प्रकार मोह युक्त आत्मा संसार में नौका के सदृश रहता है। अनंत अनंत कर्म वासनाएँ उसके चारों ओर रहती हैं। क्योंकि कर्म द्रव्य तो संसार में सर्वत्र व्याप्त है, सिद्ध शिला पर भी कर्म प्रदेश है। किन्तु वे कर्मनिर्मुक्त होते हैं। आत्मा रोगमुक्त व्यक्ति की भांति असीम आनन्द का अनुभव करता है। पुन्वजोगा असंगता काऊ वाया मणो ह या । पगतो आगती चेव कम्माभावा ण विजती ॥ ३०॥ अर्थ:-सिद्धस्थिति में] पूर्व [संसारी दशा] के देव वाणी और मन रूप से पृथक एक ही आत्म द्रव्य रहता है। कर्मजन्य भाचों का वहाँ अभाव है। आत्मा के ज्ञायिक सम्यक्त केवल ज्ञान के याद दर्शन और अनंत सुख रूप और सत्वप्रमेयत्वादि पारिणामिक माद ही बर्दा रहते हैं। औदयिक, औपशमिक और क्षायोपशामिक भावों का वहां अभाव है। साथ ही वहां भव्यत्र रूप पारिणामिक भाव का भी अभाव है। आमम में सिद्ध प्रगु नोभव्याभध्य है कहा गया है। क्यों कि सिद्ध स्थिति पा चुके हैं। अतः अब भव्यत्व अवशेष ही कट्टा रहा 1 १ औषशामिकादिभन्यात्वाभावात्वान्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिकत्वेभ्यः । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन गुजराती भाषान्तर :| ( સિદ્ધની સ્થિતિમાં પહેલા સંસારી દશા) ના દેહ વાણી અને મન જન્મભાવથી જુદો એકજ આત્મિદ્રવ્ય રહે છે. કર્મ જન્મ ભાવોનો ત્યાં અભાવ હોય છે. આત્માના શાયિક રમ્યત્વ, કેવલ જ્ઞાન, કેવલ દર્શન અને અનંત સુખ અને સત્વમેયતત્વ આદિ પરિણામિક ભાવોજ ત્યાં હોય છે. દચિક, ઔપશમિક અને યોપશમિક ભાવોનો ત્યાં અભાવ હોય છે. સાથે જ ત્યાં ભવ્યત્વરૂપ પરિણામિક ભાવનો પણ ત્યાં અભાવ હોય છે. આગમમાં સિદ્ધ પ્રભુનો ભયાભવ્ય છે, તેમ કહ્યું છે. કારણકે તે સિદ્ધસ્થિતિ પામેલા છે. તેથી હવે ભવ્યત્વ અવશેષજ ક્યાં રડ્વો, ઉપરામિક આદિ ભવ્યાત્વ ભાવત્વાન્યત્ર કેવળ સમ્યક જ્ઞાન દર્શન સિદ્ધવેભ્યઃ. टीका:-पूर्वयोगेनासंगतानि भवन्ति; कायो वाङ्मन इति वैकान्तेन कर्माभाषादिह लोकामतिर्न विद्यते । सिद्ध दशा में योगों का अभाव होता है। क्योंकि कर्मागमम का मुख्य हेतु योग ही है। योगों के सद्भाव में ही कर्म आते हैं। ग्यारहवे से तेरहवें गुण स्थान तक केवलयोग ही हैं। अतः ईर्यापथिक क्रिया है। सकषायाकयाययोः सांपरासिकेर्यापथयोः ।-तत्त्वार्थमा अ. ६,स्, ५, प्रस्तुत गाथा में मुक्तात्मा के पुनरागमन का निषेध किया है, क्योंकि भवपरम्परा का हेतु कर्म है और कारण के अभाब से तज्जन्म कार्य का भी अभाव है। परं णावग्गहाभावा, सुही आवरणक्खया। अस्थिलपखणसभावा निश्चो सो परमो धुर्व ॥ ३१ ॥ अर्थ:-सिद्धारमा लोकार में स्थित है। उससे आरमा आगे नहीं जा सकता क्योंकि उपर अवग्रह स्थान का अभाव है। समस्त आवरण के क्षय होने पर परम सुख में अवस्थित है। अस्ति-लक्षण से सद्भाव शील है और वह परम नित्य और शाश्वत है। कर्मभुक्त आरमा ऊर्चलोकान्त तक जाती हैं । आत्मा लोकाग्र से उपर क्यों नहीं जा सकता इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत गाथा में दिया है । यद्यपि आत्मा ऊर्ध्वगति-धमी है, फिर भी उराकी गति धर्मास्तिकाय सापेक्ष होती है। धर्मास्तिकाय लोकव्यापी होता है। अतः उसके अभाव में आत्मा लोकाय से ऊपर नहीं जा सकता। सुख के प्रतिबन्धक समस्त आवरण क्षय हो चुके हैं। अतः सिद्धात्मा परम सुखी है। वैशेषिक दर्शन मुक्ति को आनंद शन्य मानते हैं। कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र भी कहते हैं-"न संचिदानंदमयी च मुक्तिः ।। सुसूत्रमासूत्रितमत्यदीयैः । अन्ययोग-व्यवच्छेदिका ८ गाथा के द्वितीय चरण से वैशेषिक दर्शन के उक्त मत का खंडन किया गया है। क्योंकि सुख प्रतिबन्धक मोहनीय कर्म है। उसका वहां अभाव है। प्रतिबन्धक के अभाव में मुख विद्यमान है । हा; वह मुख पार्थिव नहीं, अपार्थिव है। साथ ही सिद्धात्मा में अस्तिलक्षण का सद्भाव है। क्योंकि बौद्ध दर्शन आत्मा संतति का सर्वथा उच्छेद ही निर्वाण मानता है। जैसे दीपक कलिका का जब तक प्रवाह है तब तक उसमें जलन भी है। वह जलन तभी समाप्त होगी जब दीपनिर्वाग हो जाय । किन्तु जैन दर्शन मोक्ष में आत्मा का उच्छेद नहीं, उसका सद्भाव मानता है; उसकी विभावदशा-जन्य विकृतियां समान होती हैं। सर्वथा आत्मा नहीं। यदि आत्मा ही समाप्त हो जाय तो फिर साधना किस लिए ? अतः सिद्धिमान आत्मा शाश्वत रूप में स्थित रहता है। टीका:-नावाग्रहाभावाझानदर्शनावरणक्षयाच पति परम सुखी भवति पुरुषः, ध्रुवं असंशयं स निस्यः परमश्रास्युक्तलक्षणसहायात् । अयं गतम् । दबतो खित्ततो चेव कालतो भावतो तहा। णिचाणि तु विष्णेयं संसारे सयदेहिणं ।। ३२ ।। अर्थः -संसार की समस्त देहधारी आत्माओं को इन्य क्षेत्र काल और भाव से नित्य और अनिल जानना चाहिए। गुजराती भापान्तर: સંસારનાં દરેક શરીરધારી આત્માઓને દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવથી નિત્ય અને અનિત્ય જાણવા જોઈએ. विध के समस्त पदार्थ सार्थ द्रव्य रूप में नित्य है और पर्याय परिवर्तन की अपेक्षा निल भी हैं। वाचक उमाखाती भी कहते हैं-"उत्पादश्यबधौव्ययुकं हि सत् ।" तत्त्वार्थ- अ. ५-सू. २८ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ i इस - भास्सियाई हर पदार्थ प्रतिक्षण उत्पत्ति और विलय में परिवर्तित हो रहा है। किन्तु उसके परिवर्तन का यह नर्तन ध्रुव के धुरी पर ही अवस्थित है । आचार्य सिद्धसेनदिवाकर भी कहते हैं । -- उष्पजति दियंति भावा नियमेण पजवणयरस । दवसि सवं लया अणुमविण ॥-सन्मतितर्क अ. १ गा. १० नय की अपेक्षा से प्रत्येक पदार्थ उत्पन्न भी होता है और नष्ट भी होता है । किन्तु अभ्यार्थिक दृष्टि पदार्थ अनुत्पक्ष और विनष्ट देखती हैं। इस घत्र सिद्धान्त में सिद्धिस्थित आत्मा भी उत्पाद और व्ययशील है। ध्रुव तत्व का प्रतिपादन तो पूर्व गाथाओं में वर्णित है । किन्तु द्रव्यक्षेत्र काल और भाव जन्य स्थूल परिवर्तन देहधारियों में ही परिलक्षित होते हैं। मुक्त आत्मा में नहीं । . मुक्तात्माओं में सूक्ष्म परिवर्तन है । स्वभाव स्थित आत्मा भी निज गुणों में रमण करता है। यह रमणता मी सूक्ष्म परिवर्तन की परिचायक है। साथ ही सिद्ध प्रभु अनंत उच्च पर्यायों को युगपत् जानते हैं । जाता और जेय कथंचित् अभी भी हैं, अतः ज्ञेय का परिवर्तन ज्ञान और ज्ञाता में परिणति होता है । समस्त द्रश्य उत्पादव्यय-धौग्य युक्त है। उनका पर्याय परिवर्तन सिद्धात्माओं का पर्याय परिवर्तन है। गंभीरं सवओभदं सव्वभाव विभावणं । धण्णा जिणाहितं मर्ग सम्मं वेदेति भावओ ॥ ३३ ॥ अर्थ :- गंभीर सर्वतोभद्र, सदा सब के लिए कल्याणकारी, समस्त भात्रों का प्रकाशक, अन्तर की गुफाई को प्रकाशित करने वाले सर्वज्ञ निरूपित धर्म को जो सम्यक् प्रकार से अनुभव करते या जो उसे सम्यक् प्रकार रूप में पहचानते हैं वे आत्माएं धन्य हैं। गुजराती भाषान्तर : ગંભીર શીતળભોળા, હંમેશને માટે બધાનું કલ્યાણ કરનારા, બધીજ જાતના ભાવોના પ્રકાશક, અન્તરની ગુફાએને પ્રકાશિત કરનાર સર્વજ્ઞ દ્વારા નિરૂપિત ધર્મને સમ્યક્ પ્રકારથી જે ઓળખે છે. અથવા જે તેને સમ્યક્ રૂપમાં જાણે છે તે આત્માઓ ધન્ય છે. एवं से बुद्धं गतार्थः । नवमं महाकासवञ्झयणं इति महाकाश्यप अर्हत त्रिप्रणीतं नवमं अध्ययनं समाप्तम् ***WERTRA दशम अध्ययन तेतलिपुत्त अक्षयणं सेत लिपुत्र- अर्हताप्रोक्तं प्रस्तुत अध्याय में अतर्षि तेतलिपुत्र स्वयं अपनी आत्म-कथा बोलते हैं। उनके जीवन के उत्थान-पतन की यह सजीव कहानी है । वे स्वयं अमाल मंत्री थे। स्वर्णकार की पुत्री पोट्ठिला पर अनुराग हुआ और उसके साथ पाणिग्रहण भी हुआ । समय के प्रवाह में राग का रंग धुल गया और वही पोहिला उनके लिए अप्रिय बन गई। तभी सती साध्वी सुनता शिष्याओं के साथ तेतलिपुर में आती है। पोहिला पति का प्रेम सम्पादन के लिए उनसे मंत्र लेना चाहती है, किन्तु साध्वी ने जब इसे मुनि-मर्यादा के बाहर कह कर उसे करने से इनकार कर दिया तब वह भी चरित्र की ओर बढती है । वेतलिपुत्र उसे इस शर्त पर आज्ञा देते हैं, कि यदि वह देव बने तो उन्हें वीतराग के धर्म की ओर मुड़ने की प्रेरणा दे । पोटिला उसे स्वीकार करती है। दीक्षित होकर संयम का यथाविध पालन कर वह स्वर्ग में दिव्य रूप प्राप्त करती हैं और प्रतिज्ञा के अनुरूप वीतराग के धर्म की ओर मोडने को आती है । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्ययन इधर अमात्य तेतलिपुत्र राजा कनकध्वज से सम्मान और सम्पत्ति पा कर विलास में डूब रहे थे। अतः विवश हो कर पोलिदेव को राजा और परिजन को तेनालिपुत्र से विमुग्न करना पड़ा। इधर मंजी विष पान, कुरान और अमिस्नान द्वारा प्राण देने को उद्यन हो जाते हैं । पर वे जब उसमें सफल नहीं होते तो जीवन के प्रति की आस्था हिल उठती है । और वे श्रद्धा विहीन बन जाते हैं । तत्र पोहिल देव संसार की भयानकता का चित्र उनके सामने रखते हैं तब स्वयं अमात्य बोल उठसे हैं कि भीत व्यक्ति के लिए प्रत्रज्या श्रेयस्कर है। तभी पोहिल देव यह कह कर चल देते हैं, कि तुम्हारे विचार सत्यभूत बने । इधर तेतलिपुत्र विचारों की गहराई में दुबकी लगाते हैं। जाति-स्मरण ज्ञान पा कर उन्हें अपने पूर्व जन्म-महा विदेह में चरित्र ग्रहण और पूर्व के ज्ञान की स्मृति हो जाती है और वे वहीं दीक्षित होते हैं। पूर्व का ज्ञान भी स्मृतिपटल पर आ जाता है। और कुछ क्षणों में अपूर्व करण गुण श्रेणी और शुक्र भ्यान पा कर केवल ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। यह कहानी ज्ञाता पत्र में विस्तृत रूप में दी गई है। प्रस्तुत सूत्र में उसका कुछ अंश ही दिया है। परिवार से तिरस्कृत हो वह अश्रद्धावादी बनता है। उसी प्रसंग का चिन यहाँ दिया गया है। कुछ अंश ज्ञातासूत्र से पृथक् भी है। इसमें कुछ तथ्य सामने आते है। यह वर्णन उस समय का है जब उन्हें केवल ज्ञान ही नहीं, जातिस्मरण भी नहीं हुआ था। ये जातिस्मरण या स्वयं दीक्षित होते है । जो कि प्रत्येक बुद्धों की खाग विशेषता है। महा क्तों की संख्या नहीं दी गई है । अतः यह निश्चित नहीं कहा जा सकता कि यह घटना किस तीर्थंकर के शासन काल की है। को कं ठावेश अण्णस्थ सगाई कम्माई इमाई?। अर्थ :-कौन किसको रोकता है ? मेरे इन कर्मों के अतिरिक्त मुझे कौन रोक सकता है । गुजराती भावान्तर : કોણ કોને રોકી શકે છે ? મારા આ કમની અતિરિક્ત મને કોણ અટકાવી શકે છે? आत्मा अपने निज स्वभात्र में आने के लिए छटपटाता है। उसे अपने निज रूप में आने के लिए कौन रोक सकता है ? मानत्र अपने दोषों का उसरदायित्व दूसरे पर टेलता है। किन्तु जैन-दर्शन कहता है कि अपने बन्धन और मुक्ति का विधाता तूं स्वयं है। तूं स्वयं ही अपनी वृत्तियों के द्वारा पन्धता है और उनसे मुक्त होने की शक्ति तुझमें ही है। बाहरी शक्ति न तुझे बांध सकती है, न मुक्त कर सकती है। प्रस्तुत सूत्रवाक्य में अईतर्षि अपने जीवन का रहस्य बतला रहे है-मित्र और बन्धु जनों। मैं ने दोष दिया कि वे मुझे संसार के बीच से निकलने नहीं देते, किन्तु तथ्य यह है कि मेरे कर्मों ने ही मुझे बांध रक्खा है। टीका:-कः के स्वस्थाने नाम गोत्रादिलक्षणे स्थापयति नान्यत्र स्वकीयानीमानि कर्माणि। तेतलिपुत्रास्तार्षिणा भाषितमित्यत्रैव प्रवेशनीयम् , अदेय मित्यादिवाक्यानां पूर्वगतेनासंबद्धत्वात् । टीकाकार का मत कुछ भिन्न है। कौन किसको नाम गोत्रादि लक्षण रूप पर स्थापित करता है। ये हमारे अपने कर्म ही वहां स्थापित करते हैं। यहां पर तेतलिपुत्र अतिर्षि बोले ऐसा दाक्य जोडना चाहिए, अन्यथा श्रद्धेय आगे आने वाले वाक्यों में प्रस्तृत वाक्य सम्बद्ध नहीं रहेगा। प्रोफेसर शुजिंग इसे दूसरे ढंग से लिखते हैं:-मनुष्य आज जिस स्थिति में है उसे वहां तक लाने वाला कौन है ? 1 स्थिति तो उसे लाई नहीं, क्योंकि उस स्थिति में तो वह स्वयं अभी उपस्थित है। उनके कार्य ही उसे इस स्थिति में लाए। इस प्रकरण का अन्तिम भाग इसे स्पष्ट करता है। जबकि अतिर्षि तेतलिपुत्र बोलते हैं कि भयभीत व्यक्ति को दीक्षित होना चाहिए। जो दूसरे को कलता है उसे छिपने को तैयार रहना चाहिए । जो घर पहुंचने की उत्सुकता रखता है उसे स्वदेश की ओर प्रयाण करना चाहिए ... ...। सञयं खलु भो समणा वदंती, सद्धेयं खलु माहणा, अहमेगो असद्धेयं वदिस्सामि । - सेतलिपुत्तेण अरहता इसिणा बुइयं ॥ अर्थ:-श्रमण नर्म बोलता है कि श्रद्धा करना चाहिए। ब्राह्मण वर्ग जोर-शोर से पुकार कर कहता है कि श्रद्धा करो। किन्तु मैं अकेला कहूंगा कि श्रद्धा नहीं करना चाहिए । इस प्रकार तेतलिपुत्र अतिर्षि बोले । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई गुजराती भाषान्तर: શ્રમણવર્ગ કહે છે કે શ્રદ્ધા રાખવી જોઈએ, બ્રાહ્મણ વર્ગ પુકારી પુકારીને કહે છે કે શ્રદ્ધા રાખો, પરંતુ તે એકલે કહીશ કે શ્રદ્ધા રાખવી ન જોઇએ, એ પ્રમાણે તેતલિપુત્ર અહંત બોલ્યા. समस्त संप्रदायें श्रद्धा में जीती है। समस्त पंथ और मतों की जड़ श्रद्धा है। यदि पंध में से अदा निकल गई तो सारा सम्प्रदाय-बाद ताश के पत्तों का ढेर हो जाएगा । इसी लिए श्रमण-संस्कृति और ब्राह्मण-संस्कृति में श्रद्धा का महत्व दिया गया है-"सद्धा परमदुलहा"। चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाय्याह जैतुगो । माणुसत्तं सुई सखा संजमम्मि य वीरियं ॥ -उत्तरा० अ० ३ गाथा १ दूसरी ओर ब्राह्मण संस्कृति ने भी श्रद्धा का नारा दुवा है - "मन वामाना" "यो यच्छ्रद्धः स एव सः" के रूप में श्रद्धा का आशेष सुनाई देता है। अतिर्षि देतलिपुत्र का प्रस्तुत वाक्य तब का है जब कि वे सामाजिक वातावरण से ऊब चुके थे। अपमान से त्रस उनका मन बोल उठा-दुनियां श्रद्धा के गीत गाती है ऋषि और मुगि भी श्रद्धा के लिए वोलते हैं। किन्तु मैं कहता हूं कि दुनियां के इन संबन्धों पर कोई विश्वास न करे। क्योंकि से संबन्ध स्वार्थ के धागे से बचे हैं। इसके उदाहरण में वे अपनी ही कहानी कह रहे हैं: सपरिजणोति णाम ममं अपरिजणोत्ति को मे तं सद्दहिस्सति? सपुत्तं पि णाम मम अपुत्तेति को मे तं सदहिस्सति । एवं समित्तं पि पाम ममं अमित्त सि को मे तं सदहिस्सति? । सवित्तं पि णाम ममं अदिति को मे सहहिस्सति ? । सपरिग्गरं पिणाम ममं अपरिग्ग त्ति को मे तं सहहिस्सति ? । दाण-माण-सकारोवयारसंगहिते ति को मे तं सद्दहिस्सति। अर्थ:-"परिजन के साथ होते हुए भी मैं परिजन परिवार रहित हूं" ऐसा कहने पर कौन श्रद्धा करेगा? पुन होने पर भी मैं पुत्र रहित हं, तो मेरे इस कथन पर कौन विश्वास करेगा? इसी प्रकार मित्र और स्नेही जनों के साथ होते हुए भी मुझे कौन मित्र विहीन मानेगा? मेरे पास धन होने पर भी मेरी धनहीनता पर कौन श्रद्धा करेगा ? परिग्रह होने पर भी मेरी अपरिग्रहता को कौन राच मानेगा? दान, मान, सत्कार, उपचार या उपकार से युक्त होने पर मुझे इन सब में पृथक कौन स्वीकार करने को तैयार होगा। गुजराती भाषान्तर : પોતાનાં સગા-વહાલાંઓ સાથે હોવા છતાં પણ હું સગા-વહાલાંને નોકર-ચાકર રહીત છું એમ કહું તો તે કોણ સાચું માનશે? ( શ્રદ્ધા કરશે), પુત્ર હોવા છતાં પણ હું પુત્રરહિત છું એમ કહું તો મારા એ ચન પર કોણ વિશ્વાસ કરશે ? તે જ પ્રમાણે મિત્ર અને સ્નેહિ સાથે હોવા છતાં કોઈ પણ મને મિત્રવિહીન માનશે? મારી પાસે ધન લેવા છતાં પણ મારી ગરબાઈ પર કોણ શ્રદ્ધા કરશે? ( કોણ સાચું માનશે ?) પરિગ્રહ લેવા છતાં પણ મને અપરિગ્રહી કોણ કહેશે? દાન, માન, સત્કાર, ઉપચાર અથવા ઉપકારથી યુક્ત હોવા છતાં પણ મને એ બધાથી પૃથ સ્વીકારવા કોણ તૈયાર થશે? त्याग का एक वह भी रूप है जहाँ बाहर में विलास और वैभव के प्रसाधनों के रहते हुए भी आत्मा अन्तर से अलित रहता है। यह है अन्तस्यागी बहिस्संगी। जिसे वैदिक संस्कृति में देह में रहते हुए विदेह' कहा जाता है और जैन संस्कृति में 'भावचारित्री' कहा गया है। गीता जिसे "स्थित--प्रज्ञ' के नाम से पहचानती है। और जैन आगम जिसे 'अलिप्त पद्म' कहता है। जहा पोम जले जायं नोबलिप्पइ वारिणा । एवं मलिन्त कामेहिं तं वयं घूम माइणं ॥ -उत्तरा. अ. २५ गाथा २० Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्ययन कमल र सैदा होता है, न में रहा है और उनके चारों ओर जलधारा होने पर भी वह जल कण से अलिप्त रहता है। इसी प्रकार कुछ आत्माएँ जिनके चारों ओर भोग और वाराना का सागर हिलोरे मारता रहता है, उस वातावरण में रह कर भी वे उससे पृथक रहती हैं। वे ही विशिए आत्माएँ हैं। जो सागर के किनारे बैठे हैं और कहते हैं कि हम सूखे हैं तो इसमें आश्चर्य क्या होगा? किन्तु उसकी अतल गहराई में भी जो दुबकी लगा कर भी जो सूखा निकल आता है वही चमत्कारी कहलाएगा। खजन-परिजन के बीच रह कर भी जो इन सब से अलग अलग रहता है । पुत्र है, पर पुत्र का ममत्व उसके दिल को नहीं हुआ है, परिग्रह है, लक्ष्मी के पायल की मार है, धन है, पर धन का मद नहीं है। किन्तु साधारण जन उस स्थिति पर सहसा विश्वास नहीं करेगा । कोटों की राह पर चलने वाले को वह साधु मान सकता है। किन्तु फूलों की सेज पर सो कर भी कोई साधु हो सकता है यह उसे स्वीकार न होगा । क्योंकि उसकी आखें इसके लिए अभ्यस्त नहीं है। इस लिए उसका विश्वास न करना स्वाभाविक ही है । कमी ऐसा भी होता है जब कि भरा-पूरा घर होता है, लाखों की जायदाद होती है, स्नेही जन, परिजन सब कुछ होता है, किन्तु सागर के बीच भी आदमी प्यासा होता है। पुत्रों और मित्रों के बीच मी वह अकेलापन महसूस करता है। उसकी धनीभूत पीडा बोल उठती है कि कहने को तो सब कुछ है, पर मेरा अपना कोई नहीं है । व्यथा और करुणा से भीगी जिसकी जीवन-कहानी है। भरे भुवन में जिसकी आँसुओं से भीगी आँखें पोंछने वाला कोई नहीं है। तेतलिपुत्र के पूर्व जीवन की कहानी इन्हीं व्यथा और दर्द के धामों से बुनी हुई है। उन्ही के शब्दों में पढेंगे। किन्तु हो; इस न्यथा मैं उन्होंने निराशा के आँसू नहीं बहाए, अपितु दुनिया से अनासक्ति का बोध पाया है। टीका:-श्रद्धेय स्खलु भो भ्रमणा घदन्ति ब्राह्मणाश्च एकोऽहं अभ्रद्धेयं वदिष्यामि, सपरिजनमपि नाम मां दृष्ट्वा अपरिजनो अहम स्मीति को मे तच्छद्धिष्यति न कनिदिनि एवमेव सपुत्रं सविसं सपरिप्रदं दान-मान-सत्कारोपचारसंग्रहीतम् । अर्थ उपर बताया जैसा ही है। तेतलिपुत्तल सयण-परिजणे विगगं गते को मे तं सहहिस्सति ? । जाति-कुल-रूप-विणतोययारसालिणी पोटिला मूसिकारधूता मिच्छ विपडियन्ना को मे तं सद्दहिस्सति । कालकरमणीतिसस्थविसारदे तेतलिपुत्ते विसाद गते त्ति को मे तं सद्दहिस्सति ? । तेतलिपुत्तेण अमशेण मिहं पविसित्ता तालपुडके बिसे खातिते त्ति से वि य पडिहते त्ति को मे तं सहहिस्सति ।। अर्थ:-तेतलिपुत्र के स्वजन परिजन उनसे रुष्ट हो गए। इस बात पर कौन विश्वास करेगा? श्रेष्ठ जाति कुल में जन्मी हुई रूपवती, विनय और उपचार की साकार प्रतिमा सी मूसिकार-स्वर्णकार की लडकी पोहिला मिथ्याभिनिवेश में पड़ गई। मेरे इस कथन पर कौन भला विश्वास करेगा ?। काल-बम से नीति-शास्त्र-विशारद तेललिपुत्र विषाद में हूब गया, मेरे इस कथन पर कौन श्रद्धा करेगा।। तेतलिपुत्र मंत्री ने घर में प्रवेश कर के तालपुट विष खा लिया, किन्तु वह विष भी उनके लिए विफल हो गया। कौन मेरी इस बात पर विश्वास लाएगा। गुजराती भाषान्तर: તેતલિપુત્રના સગા-વહાલાંઓ ને પરિજનો તેનાથી રીસાઈ ગયા, આ વાત ઊપર કોણ વિશ્વાસ કરશે ? ઉચ્ચ વર્ણમાં ઉત્પન્ન થયેલી રૂપવંતી, વિનય અને ઉપચારની સાકાર પ્રતિમા જેવી મસિકાર-સુવર્ણકારની પુત્રિ પોદિલા મિથ્યાભિનિવેશમાં પડી ગઈ. મારા આ કથન ઉપર કોણ વિશ્વાસ કરશે? કાલક્રમથી નીતિશાસ્ત્ર વિશારદ તેટલીપુત્ર વિવાદમાં ડૂબી ગયા, મારા આ કથન ઉપર કોનું શ્રદ્ધા કરશે ? તેટલીપુત્ર મંત્રી પોતાના ઘરમાં પ્રવેશ કરીને તાલપુટ ઝેર ખાઈ લીધું, પરંતુ તે ઝેર પણ તેને માટે વિફળ થઈ ગયું, મારી આ વાત ઊપર કોણ વિશ્વાસ કરશે? टीका:-तेतलिपुत्रस्य स्वजनपरिजनी विरामं गतः जातिकुलविनयोपचारशालिनी पोहिला मूसिकारधूता मिथ्या विप्रतिपला काल-कर्म-नीति-विशारदस्तेतलिपुत्रो विषाद गतः । तेतलिपुवामात्येन सता गृह प्रविश्य तालपुटं नाम विष खादित तत् तु प्रतिहत । टीकाध ऊपरवत् है। तेतलिपुत्र अपने आप को अश्रद्धावादी बताते हैं । उसके पीछे उनकी जीवन-कहानी है। तेतलिपुत्र से उनके माता पिता वजन परिजन सब कोई रुष्ट हो गए । तेतलिपुत्र पोटिला से अति स्नेह था । जो कि सुन्दर रूपवती और विनम्र थी। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० इसि-भासियाई किन्तु वह मिथ्याभिनिवेश में पड़ गई-दूसरे के बहकावे में आगई। परिणामतः तेतलिपुत्र के एदय में गहरा आघात लगता है और वह घर जाना भी लेता है, किन्तु सहनी के लिए मत मन कर आया । चाहने पर मी तेतलिपुत्र नहीं मर सका। मौत को निमंत्रण दिया फिर भी वह नहीं आई। पर वह जीवन से ऊब चुका था । अतः मौत के लिए दुबारा फिर प्रयास करता है। तेतलिपुत्तेणं अमचेण महालय रुक्खं दुहिता पासे छिण्णे तहा वि ण मए, को मे तं सदहिस्सति ? । तेतलिपुण महति महालय पासाणं गीचाए बैधित्ता अस्थाहाण पुक्खरीणिप. अप्पा पक्खिचे तत्थ वि य ण थाहे लद्धे को मे सदहिस्सति । तेतलिपुत्रेण महति महालयं कट्टरासिं पलीवेत्ता अप्पा पक्खिने से वि य से अगणिकाय विज्झाए, को मे तं सद्द हिस्सति? अर्थ:-मंत्री तेतलिपुत्र विशाल वृक्ष पर चल कर फांसी लगाता है, फिर भी वह नहीं मर सका । उसका पाश टूट गया। कौन मेरे इस वचन पर विश्वास करेगा ? । तेतलिपुत्र बड़े बड़े पत्थर गले में बांध कर अथाह जल वाली पुष्करिणी में अपने आप को पटकता है। किन्तु वह अथाह में भी थाह पा गया। कौन इस बात पर विश्वास करेगा! इसके बाद तेतलिपुत्र लकडी की विशाल चिता बना कर उसमें कूद पडता है। किन्तु वह आग की ज्वाला भी बुझ गई। कौन इस बात पर भरोसा करेगा? गुजराती भाषान्तर: મંત્રી તેતલિપત્ર મોટા વિશાળ વૃકા ઊપર ચડીને ફાંસો દયે છે છતાં પણ તે મરી શકતા નથી. તેનો ફાંસી. શ્રી ગયો. કણ મારા આ વચન ઉપર વિશ્વાસ કરશે? તેતલિપુત્ર મોટા મેટા પત્થર ગળામાં બાંધીને વિશાળ જળવાળી પુષ્કરણીમાં પોતાને પછાડે છે, પરંતુ તે વિશાળ જળસમૂહમાં પણ તે થાહ (તરી ગયો ) પામી ગયો કોણ આ વાત ઉપર વિશ્વાસ કરશે તે પછી તેતલિપુત્ર લાકડાની વિશાળ ચિતા બનાવીને તેમાં કૂદી પડે છે. પરંતુ તે આગની જવાળા પણ બૂઝાઈ ગઈ. કોણ આ વાત પર શ્રદ્ધા કરશે ? टीका: तेनैव नीलोत्पलगवलगुलिकातसीकुसुमप्रकाशोऽसिः क्षुरधारो लिपातितः, सोऽपि च, 'तस्यासिस्थाले ति अन्यपुस्तकस्य पाठः, तेनैव तथापि च न मृतः। तेनैव भयातिमहन्त वृक्षमधिरुह्य च्छिसपास इत्यपूर्णकथा । तथापि च न मृतः। सेनैव भयातिमहान्तं पाषाणं प्रीधार्या बट्टा तस्यां पुष्करिण्यामात्मा प्रक्षिप्तसथापि स्थाहो लब्धस्तेनैव मयातिमहान्तं काष्ठराशि प्रदीप्यारमा प्रक्षिप्तः सोपि तस्याग्निकायो बिझातः । सर्वमेतत् को मे श्रद्धास्यति । टीकार्थ ऊपरवत् है। विशेष में यहां टीकाकार बताते हैं नील कमल गवल गुरिका भैस या पाडे के सींग की कठिन मार और अलसी के फूल की भाँति प्रकाशवती तलवार से भी उसने अपने ऊपर प्रहार करना चाहा । किन्तु वह प्रयास भी निष्फल रहा। ___ यद्यपि प्रस्तुत सूत्र में यह पाठ नहीं है, किन्तु टीकाकार कहते हैं कि दूसरी पुस्तक का पाठान्तर यहाँ ग्राह्य है । क्योंकि शातासूत्र में यह पाठ उपस्थित है। साथ ही तेतलिपुत्र की पेड पर चढ कर फांसी लगाने की घटना यहां दी गई है । किन्तु पूरी घटना व्यक-नहीं होती। वृक्ष पर चढ़ने के साथ ही "पासे छिपणे" पाठ आ जाता है। जिससे लगता है कि कुछ छूट गया है । यहां पर 'जाव' शब्द आवश्यक था । शातासूत्र में श्रद्धेय आदि वाक्यों में यह घटना नहीं दी गई है, किन्तु आत्मघात के प्रयत्नों में पूर्ण रूप से दी गई है । जो कि नीचे दी जा रही है: १ प्रस्तुत पाठ में ऐसा बतलाया गया है कि मूषिकार धूता स्वर्णकार की पुत्री पोहिला भी मिथ्याभिनिवेश में आ गई । अर्थात् बहकाने में आ कर रोतलिपुत्र को छोड़ कर चली गई । किन्तु तथ्य यह है कि इस घटना के कई वर्ष पूर्व स्वयं तेतलिपुत्र हि पोहिला से विमुख हो चुका था। शातासूत्र की कहानी इस तथ्य को स्वीकार करती है-त ते पोष्टिला अन्नया कयाई तेतलिपुत्तरस अणिवा पूजाया यावि होत्था णेच्छाश्य तेतलिपुत्ते पोटिलाए. नाम गमवि सवण्णभाए कि पुण दरिस वा परिभाग वा :-ज्ञाता-धर्मकथांग- अ. १४ स्.६। एक दिन तेत्तलिपुत्र के लिए पोहिला अनिल-अमान्था हो गई। वह उसका नाम तक नहीं सुनना चाहता था। फिर देखने की बात क्या । फिर बहक गई उसका कोई सान ही नहीं है। किन्तु बात यह है कि पोईला साच्ची के पास दीक्षित हुई थी। इसी को तेतलिपुत्र का आधुल मन मिच्छ विष्म डिवता कह रहा है। दुःखी मानव दुःख के क्षणों में सब को याद करता है। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्ययन दर तएण तेतलिपुत्ते भसोगवर्णिया तेणेव उवागच्छद उवागाछत्ता पासवाए बंधात बाधता रुस दुरूहति तुरूहित्ता पास रुक्खे बंधसि बेधित्ता अप्पा भुयति तत्थ चि य से रज्जू छिना। झाताधर्म-कथांगसूत्र १.३। तिरस्कृत मंत्री तेतलिपुत्र मौत के लिए हर संभव प्रयत्न करता है । वृक्ष पर फंदा डाल कर झूल जाता है । पत्थर बांध कर कुहे में कूदता है । धू धू करती हुई मिता प्रज्वलित करके उसमें कूदता है, किन्तु वह आग भी बुझ जाती है। तपणं सा पुट्टिला मूसियारधूना पंचधण्णाइं सखिखिणिताई पवरवत्थाई परिहित्ता अंतलिखपडिवपणा पर्व चयासी । आउसो रहितो आयाणिहि पूरओ विच्छिपणे गिरिसिहरकंदरप्पवाते पिटुओ कंपेमाणेब मेयिणिसलं साकवतेव पायवे णि'फोरेमाणेष्व अंबरतलं सब्बतमोरासिव पिडिते पश्चपलभिव सयं कर्तते भीमरवं करेंते महावारणे समुट्टिण वा । अर्थ :-बाद में बह वर्णकार की पुत्री पोटिला छोटी छोटी घंटिकाओं से युक्त पंचवर्णीय वस्त्र पहन कर आकाश में खड़ी होकर इस प्रकार बोली यह समझो कि तुम्हारे समक्ष गिरि शिखर और कंदरा से विच्छिन्न होता हुआ प्रपात करना है। पृथ्वी तल को कंपित करता हुआ और वृक्षों को उखाइता हुआ आकाश को फोडता पिंडीभून तम राशि-घनीभूत अंधकार के सदृश प्रत्यक्ष महाकाल-सा शब्द करता हुआ महा गजराज सामने खड़ा हुआ है। गुजराती भाषान्तर: પછીથી તે સોનીની પુત્રી પિટિલા નાની નાની જાંજરીથી બનાવેલ પાંચ રંગનું વસ્ત્ર પહેરીને આકાશમાં ઊભી રહીને આવી રીતે બેલી-ધારોકે તમારી સમક્ષ શીખર અને ખીણથી જુદું પડતું પ્રપાત ઝરણું છે. પાછળ પૃથ્વીના તળિયા કપિત કરતો અને વૃક્ષોને ઉખેડી મુકત આકાશને તોડતો પિંડીભૂત જેમ રાશિ ઘનીભૂત અંધકારની જેમ પ્રત્યક્ષ મહાકાલની જેમ અવાજ કરતો ગજરાજ સામે ઊભો છે. टीका:-ततः सा पोटिला मूसिकारदुहिता पंचवर्णानि सखिनखिनिकानि प्रवस्वस्त्राणि परिधाय देवीभूतेति शाताधर्मकथानों चतुर्दिशं तेतलिज्ञातमनुसत्याहार्यरिन्तरिक्षप्रतिपक्षमवादीद्-यथायुप्मतेतलिपुत्र एहि तावदाजानीहि यत् पुरतो चिस्तीणों गिरिशिखरकंदरप्रपातो पृष्ठतो कंपमान मिव मेदिनीतलं संकृष्यमाणेव पादपः निष्फोटयशिवाम्बरवलं सर्व-तमो-राशीव पिंदितः प्रत्यक्षमिव स्वयं कृतान्त; भीमरत्र कुर्वन् महावारणः समुत्थितः । टीकार्थ:-स्वर्णकार की बेटी पोहिला छोटी छोटी घंटिकाओं वाले वस्त्रों को पहन कर आकाश में स्थित हो कर सेतलिपुत्र को सम्बोधन कर के बोलती है-यह पोहिला पहले तेतलिपुत्र की पत्नी थी। किन्तु तेतलिपुत्र को उस से विरत हो जाने पर वह मुनता साध्वी के पास दीक्षित होने को तत्पर हो रही थी। तब तेतलिपुत्र ने उससे कहा था अगर तुम देव बनो तो मुझे वीतराग के धर्माभिमुख बनाना । उसी वचन में बद्ध हो कर पोटिल देव तेतलिपुत्र को प्रबुद्ध करने के लिए पहले प्रयास करते हैं। उसमें सफल न होने पर राजा कनकप्वज राजा परिषद और तेतलिपुत्र के परिवार को उस से विरक्त कर देते हैं। उस अपमान से सुब्ध होकर तेतलिपुत्र आत्म-हत्या के अनेकविध प्रशन्न करते हैं जो कि पहले उन्ही के मुख से सुन चुके हैं। उन समस्त प्रयों की निष्फलता से तेतलिपुत्र श्रद्धाविहीन बनते हैं । तब पोहिलदेव पोहिला के रूप में उसी के वस्त्रों में आकाश में स्थित हो तेतलिपुत्र को बोलते हैं। श्री ज्ञातासूत्रमें इसका अनुसंधान अविकल रूप से उपलब्ध है। टीका कार उसी की ओर संखेत करते है। शेष ऊपरवत् है। श्रीज्ञातासूत्र में प्रस्तुत पाठ निन्न रूप में मिलता है। ततेप से पोहिलदेवे पोहिलारूवं चिउच्चति विउचित्ता तेतलिपुत्सस्स अदरं सामंते ठिचा एवं वयासी है भो तेतलिपुत्ता पुरतो पवार पिढयो हरियभयं दुहओ अचश्वुफासे मज्झेसराणि परिसयति ।-शातासूत्र १०२ । श्रीझातासूत्र में पोहिल वेव अदूर सामंत (न अति निकट न अति दूर ) स्थित है । जब कि "इसि भासियाई" में आकाश में स्थित हैं। साथ ही यहां पाठ काव्यात्मक है जब कि ज्ञातासूत्र में केवल वर्णनात्मक है । बाण वर्षा का वर्णन आगे दिया है। उभओ पासं चक्षुणियाय सुपयंड-धणु-जंत-विप्पमुक्का पुखमेसा यसेसा धरणिप्पधेसिणो सरा णिपतति हुयवह-जाला-सहस्स-संकुलं समंततो पलितं धगधगेति सवारणं अचिरेण य बालसूरगुंजपुंजनिकरपकासं झियाइ इंगालभूतं गिहं आउसो तेतलिपुत्ता । कचो वयामो? Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ इसि-भासिया अर्थ:-पलक मात्र में दोनों ओर से प्रचंड धनुष से छूटे हुए पृथ्वी के वक्ष में सम्पूर्ण प्रवेश करने वाले वाण दरस रहे हैं। जिनके पिछले हिस्से पर लगे हुए पंख मात्र दिखाई पड रहे हैं। आग की सहस्रों ज्वालाओं से सारा वनप्रदेश जल रहा है। धू धू करती हुई लए उठ रही हैं। और शीघ्र ही उदीयमान सूर्य के सहश आरक मुंजा (चिरमीटी) के अर्ब भाम की राशि की प्रभागश लाल अंगार बना हुआ घर जल नटेगा । आयुष्यमान तेतलिपुत्र । ऐसा होने पर हम कहां जानें १ . गुजराती भाषान्तर: ક્ષણભરમાં બન્ને બાજુથી પ્રચંડ (મહાણ) ધનુષમાંથી છૂટેલાં પુત્રીના સાથળમાં વિશ્નમાં) પુરેપુરા પ્રવેશ કરનારા બાણ વરસી રહ્યા છે. જેના પાછળના ભાગ પર લગાવેલા પીછાં જ દેખાઈ રહ્યા છે. આગની સહસ્ત્ર જવાળાઓથી આ વન બાળી રહ્યું છે. ઘૂ ઘૂ કરતી જવાળાઓ ઉડી રહી છે અને તરતજ ઊગતા સૂર્યની માફક લાહવર્ણના અર્ધભાગની રાશિની જેમ લાલ તણખાથી બનેલું ઘર બળી ( સળગી) ઉશે. હું આયુષ્યવાન તેટલીપુત્ર! આમ થશે ત્યારે આપણે કયો જઈશું? टीका:-उभयतःपाय चक्षुनिपाते सुप्रचण्डधनुर्यन्त्र विषमुक्ता पुंखमात्रावशेषः धरिणिप्रवेशिनःसरा निपतन्ति । हुत-बह-ज्वाला-सद्दनसंकुल समततः प्रदीसं धगधगिति शब्दायते सारण्ये अचिरेण च बालसूर्यगुञ्जा पुजनिकरप्रकाश ज्ञापत्यंगारभूतं गृहमायुष्यमस्तितलिपुत्र क प्रजामः । टीकार्थ ऊपरक्त है। ज्ञातासूत्र में यह पाठ कुछ भिन्न रूप में नाता है। गामे पलिते रख्ने सियातिरन्ने पलिते मामे सियातिआउसो तेतलिपुत्ता कमी वयामो ।-ज्ञातासूत्र १०२ । प्राम के जलने पर मनुष्य वन की ओर जाता है । और वन के जलने पर ग्राम की ओर जाता है । हे आयुष्यमान तेतलिपुत्र हम कहाँ जावें ! । यहां 'कओ वयामो' पाठ अशुद्ध है। 'क चयामो भेना चाहिए। पोहिल देव कह रहे है कि महाकाल के बाण चारों ओर बरस रहे हैं। सारा वन भी प्रलयंकर आग में झुलस रहा है। और घर भी उसी आग की लपटों का मेंट होने वाला हैं। फिर हम कहां जा है। ततेणं से तेतलिपुले अमचे पोहिलं मूसियारधूतं पर्व वयासी घोहिले एहि ता आयाणा हि भीयस्स खलु भो पवजा अभिउत्तस्स सयहणकिच्चे मातिस्स रहस्सकिच्चं उत्कंठियस्स देसगमणकिश्वं पिचासियस्स पाणकिञ्चं छुहियस्स भोयणकिच्चं परं अभिजिउ कामस्स सरथकिचं खंतस्स दंतस्स गुत्तस्स जितिदियस्स रत्तो ते एकमविण भवइ । अर्थ:-बाद में अमाय तेतलिपुत्र मूसिकारपुत्री पोट्टिला को इस प्रकार बोला-“पोट्टिले यह तुम्हें स्वीकार करना पडेगा, कि भग्नत्रस्त मनुष्य की दीक्षा संभव है । अमिथुक्क व्यक्ति आत्म-हत्या कर सकता है । मायाशील व्यक्ति का रहस्य गुप्त कार्य होता है । देशभ्रमण के लिए उत्कंठित व्यक्ति की देश-यात्रा होती है। पिपासित का पान करना, शुश्चित का भोजन करना, दूसरे को विजित करने की कामना वाले का शम्न कार्य अर्थान, शस्त्रविद्या का अध्ययन संभव है। किन्तु क्षान्त दान्त त्रिगुतियों से गुप्त जितेन्द्रिय के लिए प्रपातादिक कोई भी भय संभव नहीं है। गुजराती भाषान्तर : પછી અમાત્ય તેતલિપુત્ર મૂશિકારપુત્રી પોટ્ટિલાને આવી રીતે બોલ્યો -પોલિી ! આ તારે સ્વીકાર કરવું પડશે કે ભવત્રસ્ત માનવીની દીક્ષા સંભવ છે. આવા ગુગેવાળી વ્યક્તિ આત્મહત્યા કરી શકે છે. માયાશીલ વ્યક્તિનું રહસ્ય ગુફામ હોય છે, દેશાટનના માટે ઉત્કઠાવાન માનવીની દેશયાત્રા થાય છે. તરસીયાનું પાન કરવું, ભુખ્યાનું ભોજન કરવું, બીજાને જીતવા માટેની ઈચ્છાવાનના શસ્ત્રકાર્ય એટલે શસ્ત્રવિદ્યાનું અધ્યયન સંવાવ છે. પણ શાન્ત દાન ત્રણ ગુપ્તિથી ગુમ જીતેન્દ્રિય માટે અપાતાદિક કોઈ પણ ભયસંભવ નથી. टीका: ततः स तेतलिपुत्रामात्यः पोहिला मूसिकारदुहितरं एवमवादीद् यथा-पोहिले ! एहि ताबदाजानीहि यो के भीतस्य जनस्य खलु भो प्रवज्याहिता श्रमियुक्तस्य हितं प्रत्ययकरणमवपरिधान्तस्येस्युक्तं, जातुरच्याहार्यम् , वहनकृत्य, मायिनो रहस्यकृत्यमुत्कंठितस्य स्वदेशगमनकृत्य, क्षुधितस्य भोजनकृत्य, पिपासितस्य पानकन्य, परं पुरुषमभियोक्तुकामस्य शास्त्रकृत्यं क्षान्तस्य तु दान्तस्य गृक्षस्य जितेन्द्रिय स्यैतासामेकमपि न भवति । चि तेतलिपुत्रमध्ययनम् । टीकार्थ उपरवत् है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्ययन ६३ प्रस्तुत पाठ में छूटे हुए कुछ विशेष पाठ ज्ञातासूत्र से लिए गए हैं। ज्ञातासूत्र में निम्न पाठ विशेष हैं । "आउरस्स मेसज्ज अभिजनस्स पचमकरण अद्धाणपरिसंतस्स वाहणकिर्च तिरिउकामरस पवहणकिश्वं परे अभियोजितुकामस्स सहायकिश्च ।" रोगमुक्ति के लिए आतुर व्यक्ति का औषध लेना, अभियुक्त व्यचि जिस पर अभियोग लगाया गया है ऐसे व्यक्ति को दोष रहित हो, दूसरे का विश्वास संपादन करना भी आवश्यक है। दूसरे पर स्वयं विजय पाने के लिए किसी शतिसंपन्न व्यक्ति की राहाय लेना भी आवश्यक है। प्रोफेसर शुकिंग भी लिखते हैं कि 'अभिवत्तस्स बहनकिच्छ पाठ अपूर्ण है। "सवहन किच्च" पाठ का "स" निश्चित देश गमन के अर्थ में संबन्धित है। इसके पहले के प्रकरण से ऐसा ज्ञात होता है कि तेतलिपुत्र के हृदय पर गहरी बोट लगी थी। पोट्टिला व्यंग्य भरे शब्दों में प्रश्न करती है साथ ही वह भीयस्स पवजा के साथ उसे संयम मार्ग में प्रेरित करती कि "तुम्हारे मुँह से ही तुमने संयम स्वीकार किया है। इससे प्रेरित हो कर तेतलिपुत्र जातिस्मरण ज्ञान पा कर दीक्षित होते है और केवल ज्ञान भी पाते हैं। विशेष विवरण ज्ञातासूत्र से जान सकते हैं। यह स्वतंत्र प्रकरण है, कहीं सीमित तो कहीं विस्तृत है। ज्ञातासूत्र की कहानियाँ अन्य बातों में मौलिकता रखती हैं। किन्तु पोहिला का देवी रूप में वर्णन ही छोड देते हैं। जब कि इतिभासियाइ सूत्र में "तलिक्खपडिवने" कह कर उसका देवी रूप प्रतिपादित किया है। ऋषिभाषित रात्रकार बोलते हैं-तेतलिपुत्र पोहिला को महत्व पूर्ण संदेश देते हैं। भयभीत व्यक्ति प्रत्रज्या ले सकता है। किन्तु उसका कार्य उतना ही सामान्य है जितना कि एक पिपासित का पानी पीना और बुभुक्षित का भोजन करना। जिसकी अन्तरात्मा में क्षना, दया और करुणा पा सागर लहरा रहा है वह ऐसा नहीं कर सकता है । जहाँ भय है वहाँ कातरता और क्या कायर भी कमी साधना के पथ पर चल सकता है? संग्रम के लिए अन्तर्मन में वैराग्य की धारा पाहिए। और भय कमी भी साधना के पथ प्रशस्त नहीं बना सकता । संगार के नन्हें नन्हें शूलों को देख कर ही जो सहम गया वह अपमान और विकार के पद को सेना मेण! | नादपि कठोर मार्ग पर कैसे कदम बढा सकता है। एस "मग्गो ति वीरस्स" वह कायरों का नहीं है। वीरों का मागे है। एवं से बुद्धे० गतार्थः ।। तेतलिपुत्तीयं नाम अज्झयर्ण तेतलिपुत्राख्यं दशमं अध्ययन समाप्तम् एकादश अध्ययन मंखलीपुत्र-अर्हतर्षिमोकं एकादशमध्ययनम् सिट्ठायणे व्व आणचा अमुणी संखाए अणचा पसे तातिते । मंखलीपुत्तेण अरहता इसिणा वुइयं । अर्थ:-वीतराग की आज्ञा प्राप्त करने के लिए लौकिक ज्ञान को प्राप्त करने वाला शिष्ट जन अमुनि हो जाता है। किन्तु लौकिक ज्ञान का आध्ययन छोड़ कर अध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त करने वाला मुनि त्रायी-रक्षक होता है। गुजराती भाषान्तर:( વીતરાગની આજ્ઞા પ્રાપ્ત કરવા માટે લૌકિક જ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરવાવાળે શિષ્ટ મનુષ્ય અમુનિ થઈ જાય છે. પરંતુ લૌકિક જ્ઞાનનું અધ્યયન છોડીને આધ્યાત્મિક જ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરવાવાળો મુનિ ત્રયી એટલે રક્ષક થાય છે. मुनि अध्यात्म का शोधक है। वह वीतराग धर्म का पधिक है। आध्यात्मिक शान्ति के लिए लौकिक शात्रों-'मिथ्या सूत्रों का अध्ययन करना व्यर्थ है । जब तक ख का अध्ययन नहीं है तब तक पर का अध्ययन किस काम आएगा। आगम में आता है कि मुनि ख समय और पर समय का ज्ञाता बने । ख और पर की व्याख्या साम्प्रदायिक घेरे में बंधे रहने मात्र से नहीं है। हम ऐसी व्याख्या करके स्त्र और पर के साथ उचित न्याय नहीं कर सकेंगे। अपितु साम्प्रदायिक खाइयों को अधिक चौडी करेंगे। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई साम्प्रदायिकता के स्थिर स्वार्थियों ने गीता के एक श्लोकाध की गलत व्याख्या देकर समाज में साम्प्रदायिकता फैलाई है। वह है: "स्वधर्मे निधन धेयः परधर्मों भयावहः ।" यहां ख का मतलब अमुक संप्रदाय में अंधे रहना नहीं है। ख धर्म का अर्थ आत्म-धर्म है और पर धर्म का अर्थ देव-धर्म है। साधक के लिए स्वधर्म आत्म धर्म में ही रहना श्रेयस्कर है। वेद धर्म में जाना उसके लिए भयावह होगा । इसी प्रकार व समय और पर समय का आत्म धर्म पर समय से मतलब अनात्म-देह धर्म ही लिया गया है। आत्मा को समझे बिना देह की ओर झुकने वाला साधक तथ्यतः देहाभ्यास में पड़ कर पतन की राह लेगा । अतः साधक पहले आत्मसिद्धान्त को समझ, फिर जड वाद को समशे। कोरा जी बाद केली भयानक विगीषिका ले आता है, पीसवीं सदी में जीने वाल| उससे अपरिचित नहीं है। दो दो महा युद्ध जड बाद की ही देन है। साथ ही जड वाद को समझना भी आवश्यक है, क्योंकि जड़ के बिना अकेले चैतन्य का ज्ञान ही नहीं हो सकता। किन्तु पद्दले आत्म बाद को पूरी तरह समझ लें, आत्म-परिणति में स्थित हो जाएँ. फिर जड को देने । ज्ञान की पूर्णता पर पहुंचने और चरित्र में स्थित होनेके लिए स्व और पर दोनों सिद्धान्त का ज्ञान होना आवश्यक है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर कहते हैं: चरणकरणप्पहाणा ससमयपरसमयमुक्कावारा। चरणकरणस्स सारं णिच्छयसुद्धं गाणंति॥ जो केवल चरण करण आचार के नियमोपनियम में रह कर ससमय और पर समय के ज्ञान से पृथक् रहने बाला साधक यथार्थतः चरण करण के सार को भी शुद्ध रूप में पहबानता नहीं है। टीकार--अज्ञाय लौकिकं ज्ञानमधिगम्य शिष्ट जन इवेत्ति वा स्वेति वा भवत्यमुनिः परंवज्ञावा लौकिक ज्ञानमनाधित्याध्यात्मिक संख्येयावधायैव स एव मुनिस्वायी भवति । टीकार्य ऊपरवत् है। प्रस्तुत मंस्खलीपुत्र जैन आगम में प्रसिद्ध आजीवक मत संस्थापक मखलीपुत्र गौशालक से भिन्न है। गौशाला भ. महावीर का सम कालीन था जब कि ये मंखलीपुत्रम नेमिनाथ के युग के हैं। इसका आधार उपसंहार की निम्र गाथा है पत्येयबुद्ध मसिणो वीसं तित्थे अरिनेमिस्स । पासस्स य पपणस वीरस्स विलीण मोहस्स ॥ से एजति बेदति खुब्मति घट्टति फेदति चलति उदीरेति तं तं भवं परिणमति ण से ताती से जो पजति णो वेदति णो खुमति णो घट्टति, णो फंदति, णो चलति, णो उदीरेति णोतं तं भावं परिणमति से ताती तातिर्ण व खलु णस्थि सजणा, वेदणा, खुम्भणा, घट्टणा, फेवणा, चलणा, उदीरणा, तं तं भावं परिणामे । ताती खल अप्पाणं च परं च चाउरताओ संसारकंताराओ ताति ताई। अर्थ:-जो मुनि परित्रहों को देख कर कंपित होता है, उसमें दुःख का चे चेदन करता है, संचित न्यादि से संघहन करता है, स्पंदित करता है, कषायजन्य तभात्रों में परिणत होता है, वह प्रायी-रक्षक नहीं है । परंतु जिस साधक को परिषह सामने आने पर न कंपकंपी छूटती है, न जो दुःस का बेदन करता है, जिसे क्षोभ, संघटन, स्पंदन, चलन, उदीरण भी नहीं है और तत् तद् भावों में जो परिणत भी नहीं होता है वही त्रायी-रक्षक मुनि है। क्योंकि त्रायी रक्षक मुनि में ये एजन वेदन आदि कोई भी भाव नहीं होते हैं। ऐसा त्रायी मुनि ही अपने आप को तथा अन्य आत्माओं को चतुरान्त चार दिशा ही जिसका अन्त है ऐसे संसार रूप वन से रक्षण करता है। गुजराती भाषान्तर: જે મુનિ પરિષહને જોઈને પુજે છે, તેમાં દુઃખનું તે વેદન કરે છે, સંચિત કન્યાદિથી સંઘટન કરે છે, તેને સ્પંદિત કરે છે, કષાય જન્ય તહ તદ્દ ભાવોમાં પરિણત થાય છે તે ત્રાથી રક્ષક નથી. પરંતુ જે સાધકને પરિવહ સામે આવતાં બીક લાગતી નથી, ને દુ:ખ પાણ પામતા નથી, જેને ક્ષોભ, ઘટન, સ્પંદન, ચલન, ઉદીરણ પણું નથી અને પછી દુભાવોમાં પરિણુત પણ જે નથી થતાં તે જ ત્રાથી એટલે રક્ષક મુનિ છે. કારણકે ત્રાવી રાક મુનિમાં આ એજન વેદન આદિ કોઈ પણ ભાવ હોતા નથી. એવા ત્રાથી મુનિ જ સ્વયં પોતાને તથા અન્ય આત્માઓને ચતુરાન્ત-ચાર દિશા જ જેનો અંત છે. એવા સંસારરૂપ વનથી રક્ષણ કરે છે, साधना का पथ फूलों का नहीं कांटों का है। कदम कदम पर कष्टों का सामना करना पड़ता है । ऋट के शूलों को देख कर जिसकी आत्मा कांप उठती है उसका हृदय दुःख का वेदन कहने लगा और वह कष्ट से बचने के लिए इधर उधर मार्ग खोजता है तो वह संयम मार्म से भटक जाता है। सही अर्थों में वह अपनी आत्म-परिणति और पर का रक्षक नहीं हो सकता है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पकादश अध्ययन यह उत्सर्ग मार्ग है। साधक परिसहों के साथ संघर्ष करता हुआ भी राम भाव को कायम रख सकता है। तब तक उत्सर्म-मार्ग पर ही चलता रहे। किन्तु यदि उत्सर्य में मन की समाधि भंग होते देखे तो वह अपवाद का अवलंब भी ले सकता है। इसीलिए त्रिकरण त्रियोग से हिंसा के लागी मुनि को भी अपवाद मार्ग में पहाडी आदि विकट मार्ग से गुजरने पर हुए पैर के फिसल जाने पर वृक्ष लता आदि का अवलंबन ले कर उतरने की अनुज्ञा दी है। इसीलिए साधक वृक्षादि को स्पर्श करके भी अनाचार का भागी नहीं होता। अपवाद अनाचार नहीं है। दोनों में उतना ही अंतर है जितना उतरने और गिरने में। सीटी द्वारा उतर कर भी उसी भूमि पर आते हैं और गिर कर भी वहीं आते है। किन्तु उतरने में मही सलामत रहते हैं जव कि गिरने में हड्डी-पसली चूर्ण हो जाता है। अतः अपवाद उतरना है, और अनाचार गिरना है। यहाँ उत्सर्ग मार्ग का विधान है: टीका:-ग्रायी तु कीश इत्युच्यते यः पुरुषः एजति चेदांत क्षुभ्यति घति स्पन्दति चलति उदारयति संवं भावं परिणमति न स प्रायी। य स न एजति पावत् परिणमति स पायी । नामिप्या च खलु नास्त्येजनं घेदनं शोभनं घन स्पन्दन चलन उदीरणं तं तं भावं परिणामः। प्रायी स्वात्मानं च परं च चतुरान्तात् संसारकांतारात् प्रातीति । टीकार्य उपरवत् है। असमूहो उ जो णेता मग्गदोसपरकमो। गमणि गतिं पाई जणं पावेति गामिणं ॥१॥ अर्थ:-मार्गदर्शक पुरुषार्थी कुशल नेता लक्ष्य और गति का परिज्ञान कर के मनुष्य अपने ग्राम में रहे हुए लोगों को मिल सकता है। गुजराती भाषान्तर:આ માર્ગ દેખાડનાર પુરૂષાર્થ કુશળ નેતા લક્ષ્ય અને ગતિનું પરિણામ ન હોય તે જ) કરીને મનુષ્ય પોતાના ગામમાં જઈ ધારેલા મનુષ્યને મળી શકે છે. ___ लक्ष्य पर पहुंचने के लिए कुशल नेना का सहयोग आवश्यक होता है । यदि नेता कुशल है तो भयानक वन में भी पगडी खोज लेता है। पुरुषार्थ वादी नेता लक्ष्य और गति का सेतुलन रखता है। लक्ष्य को दूरी के अनुपात में यदि मति में तेजी हो तभी नेता राही को ग्राम तक पहुंचा सकता है। अपरिचित वन प्रदेश में यदि हमें गुजरना है तो उसके लिए एक कुशल नेता आवश्यक है। साधना के क्षेत्र में प्रगति करने के लिए गी एक कुशल नेता की आवश्यकता है। किन्नु वह असमूट हो, पथ की बाधाओं को देख कर भयभीत न हो। साथ ही जिल पथ से गुजरना है उसके मोडों में भी यह परिचित हो । साथ ही बद्द एक दृष्टि अपने साथी की गति पर भी रखे और एक दृष्टि उसकी लक्ष्य पर रहे। दोनों का संतुलन रहने पर ही लक्ष्य पर पहुंच सकता है। टीका:-असम्मूढस्तु यो नेता मार्गदोषात् कुमार्गदोष घर्जयेत् पराकमो यस्य स तथा । सन्मार्गेण व्रजन् हि मरामनीयां गतिं ज्ञास्वा तां प्राप्यति । टीकार्थ ऊपरवत है। सिद्धकम्मो तु जो बेजो सत्थकम्मे य कोविओ। . मोयणिजातो सो वीरो रोगा मोतेति रोगिणं ॥२॥ अर्थ:-शस्त्र ( शल्य ) कर्म में कुशल सिद्धहस्त बीर वैद्य मोचनीय ( साध्य) रोग से रोगी को मुरू करता है। सिद्धहस्त वैद्य के हाथ में रोगी अपने आप को रोग मुक्त मानता है। अध्यात्म के कुशल चिकित्सक के पास पहुंचने पर साधक अनादि वासनाओं की न्याधियों से विमुक्त हो जाता है। गुजराती भाषान्तर:--- શશ્નકર્મમાં કુશળ સિદ્ધહસ્ત વિદ્ય સાધ્ય રોગથી રોગીને મુક્ત કરે છે. કેમકે સિદ્ધહસ્ત (અનુભવી) વિના હાથમાં રોગી સ્વયે પિતાને રોગમુક્ત માને છે. અધ્યામના કુશળ ચિકિત્સકની પાસે પહોંચતાં જ સાધક અનાદિ વાસનાઓની વ્યાધિઓથી વિમુક્ત થઈ જાય છે. दीका:-शिष्टकर्मणि तु यो विद्याः शस्त्रकर्मणि कोधिदः । वीरोह सन् सेगिण मोचयति मोचनीयात् रोगात् । १ से तत्थ पयलमाणे रुक्खाणि वा गुच्छाणि पा गुम्माशिना लयाओ ना व वल्लिा का तणाणि वा हरियाणि वा अवलंबिय अवलंबिय उतरेजा - आचारांग । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भालियाई टीकाकार कुछ भिन मन रखते हैं। शिष्ट कर्म विद्याएँ शास्त्र निर्दिष्ट कर्म किया से युक्त कोविद व्यक्ति मोचनीय रोग से रोगी को मुक करता है । परेतु टीकाकार द्वारा निर्दिष्ट अर्थ उचित नहीं लगता। संजोए जो विहाणं तु व्याणं गुणलाघवे ।। सो उ संजोग-णिप्फण्णं सध्वं कुणह कारियं ॥३॥ अर्थ:-जो द्रव्यों के गुण और लाघव के विधान का संयोग करता है वह संयोग-निष्पन्नता सभी कार्यों को पूर्ण करती है। गुजराती भाषान्तर: જે દ્રવ્યોના ગુણ અને લાઘવને વિદ્યાનો સંચોગ કરે છે તે સંયોગ પ્રાપ્તિ બધાજ કાને પૂર્ણ કરે છે. कार्य संपन्न करने के लिए साधक को पहले द्रक्ष्यों के गुण का ज्ञान अवश्यक है। उसके विधान नियमों में जो कुशल है उसके विधि विधानों की जो कुशलता पूर्वक संयोजना करता है वही कार्य में सफल होता है। टीका:-यस्तु दुष्याणां गुणलाधये विधानं योजयति तृणमिय तानि गणयति स सत्यं संयोगनिष्पन्न कार्य करोति । जो द्रव्यों के गुण लाधन में विधान की योजना करता है अर्थात् व्यों के गुण लाघव में विधानानुकूल कार्य करता है, ट्रव्यों को तृणवत गिनता है वद्द सत्यतः संयोग निष्पन्न कार्य करता है। विजोपयारविग्णाता, जो धीमं सत्तसंजुतो। सोपिसाहस मनं पुगत साय ॥ अर्थ :-प्रशाशील साधक विद्या और उपचार का विज्ञाता है और शकिसपन है तो वह विद्या की साधना कर के तुरन्त ही अपना कार्य करता है। गुजराती भाषान्तर: જે પ્રજ્ઞાશીલ (સમજુ) સાધક વિદ્યા અને ઉપચારને જાણકાર હોય અને શક્તિવાન હોય તો તે વિદ્યાની સાધના કરીને વિલંબ વગર પોતાનું કાર્ય કરી શકે છે, सिद्धि के लिए दो बातें अपेक्षित है। साध्य और उसकी साधना का परिज्ञान और उसके लिए अपेक्षित आत्म-जल का सद्भाव । इसके अभाव में साधना अधूरी रहेगी। वह सिद्धि के शीर्ष को हुन सकेगी। टीका:-विद्योपचारविज्ञाता विद्योपचारे कोविदो यो श्रीमान् सत्वसंयुतो भवति स विद्या साधयित्वा तरक्षण कार्य करोति । यहां विद्या की साधना का रहस्य बतलाया गया है। उसकी सिद्धि के लिए उसके उपचार सत्व की आवश्यकता रहती है। किन्तु यहाँ विद्या का अर्थ केवल भौतिक मंत्र-तंत्रादि की यात्रना न ले कर आत्म - विद्या ही अभिप्रेत है। और वह है ज्ञान-साधना । ज्ञान के लिए 'विद्या' शब्द आता है। णिवत्तिं मोक्खमग्गस्स, सम्मं जो तु विजाणति । राग दोषे णिराकिन्या से उ सिद्धि गमिस्सति ॥ ५॥ अर्थ:-जो मोक्ष-मार्ग की स्वरूप रचना सम्यक् प्रकार से जानता है, वह आत्मा राग-द्वेष को समाप्त कर सिद्ध स्थिति को प्राप्त करता है। गुजराती भाषान्तर : જે મોક્ષમાર્ગના સ્વરૂપની રચના સારી રીતે જાણે છે તે આત્મા રાગ અને દ્વેષને નાશ કરી સિદ્ધ સ્થિતિને પ્રાપ્ત કરે છે. आत्म-विमुक्ति के लिए सर्व प्रथम मोक्ष का खरूप ज्ञान आवश्यक है। उसके अभाव में मोक्ष के दिवानों ने अपने शरीर को भी कटवा लिए हैं। परन्तु इतने कष्टों के बावजूद भी आत्मा मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकी, क्योंकि उसमें सम्यग् दर्शन का अभाव है। जब तक राग और देष की आग नहीं बुझ जाती तब तक मोक्ष की मंजिल दूर रहेगी। फिर चाहे कितना भी देह-दंड क्यों न किया जाए। एवं से बुद्धे । गतार्थ । मंखलीपुसनाम अज्झयणं इति मखलीपुत्र-अतिर्षिप्रोक्तं एकादशं अध्ययनं समाप्तम् । १"विजाचरणपारगे'-उत्तरा० अ० २३.६ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश अध्ययन यानवल्क्यअर्हतप्रिोक्तं लोकेपणानाम द्वादशाध्ययनम् । मन को कृतियाँ आत्मा को चंचल बनाती है। मानव का मन वृत्तियों के द्वारा ही गतिशील होता है। वृत्तियों कभी शुभ होती हैं कभी अशुभ । वृत्ति ही व्यक्ति का निर्माण करती है। यान्त्र मन को शु. की सार तिरपे वाली दो वत्तियां है-पक लोकेषणा और दूसरी वित्तषणा । मैं कुछ हूं, जनता मुझे कुछ समझे, यह लोकेषणा है। अपनी अहंयुक्ति के पोषण के लिए मानव साधन के रूप में वित्त को अपनाता है। इन्हीं वृत्तियों का विश्लेषण प्रस्तुत अध्ययन में किया गया है। आणचा जाच ताव लोएसणा, ताच ताव वित्तेसणा, जाव ताव विसणा ताव ताव लोपसपा, से लोएसणं च वित्तेसणं च परिणाय गो-पहेणं गच्छेज्जा, णो महापहेणं गच्छेजा। जग्णवक्केण अरहता इसिणा वुइतं । अर्थ:-साधक को यह जानना चाहिए कि जब तक लोकेषणा है तब तक चित्तैषणा है । जब तक विशेषणा है तब तक लोकेषणा है। साधक लोकैषणा और वित्तषणा का परित्याग कर मो-पथ से जाय, महापथ से न जाय । ऐसा याज्ञवल्क्य अईतर्षि बोले। गुजराती भाषान्तर: સાધકે સમજવું જોઈએ કે જ્યાં સુધી લોકવણા છે ત્યાં સુધી વિનૈષણા છે. જ્યાં સુધી વિષણા છે ત્યાં સુધી લોકેષણ છે. સાધકે લોકેષણા અને વિરૈષણાનો ત્યાગ કરી પથથી જવું જોઈએ અને મહાપથથી ન જવું જોઈએ એમ યાજ્ઞવય અતિષિ બોલ્યા. मानष मन को दो तरह की भूख है-संपत्ति और प्रसिद्धि । जव तक प्रसिद्धि की कामना है तब तक उसके लिए संपति की आवश्यकता रहेगी 1 क्योंकि संपत्ति से प्रसिद्धि खरीदी जा सकती है । कुछ व्यक्ति संपत्ति खर्च करके कीर्ति खरीदते हैं। और एक बार प्रसिद्धि प्राप्त कर लेने के बाद उसका उपयोग संपति के अर्जन में करते हैं । अतः लोकेषणा और वितषणा दोनों सगी बहनें हैं। एक के सद्भाव में दूसरी आ ही जाती है। साधक लोकेषणा और वित्तषणा के मर्म को एए । उसके अन्तरंग में प्रवेश करने पर उसे असली तथ्य हाथ लग जाएगा। और वह दोनों का परिझान करके उनका परित्याग करे । एक महत्त्वपूर्ण बात और कही गई है। साधक गोपथ ले जाए, किन्तु महापच से नहीं। जीवन जग के दो पथ है। पहला है अधिक से अधिक अर्जन करे और अधिक से अधिक खर्च करे। चिलास और वैभत्र के प्रसाधन अधिक रूप में एकत्रित किए जाय, अपनी आवश्यकताएँ अधिक बढाए और उनकी पूर्ति के लिए अधिक सम्पत्ति जुटाए । दूसरा पथ है सीमित आवश्यकता और सीमित साधन । जैन-संस्कृति पहले सिद्धान्त में विश्वास नहीं करती, क्यों कि जितनी ही आवश्यकताएं बलाएंगे उसके लिए उतने ही संघर्ष बढ़ेंगे । क्योंकि इस्लाएँ असीमित हैं जब कि साधन सीमित हैं। जीवन है तो उसकी आवश्यकताएं भी रहेगी 1 किन्तु वे अनियश्रित न हों । जैनसाधक गोपथ से जाएगा, महापथ से नहीं। उसकी आवश्यकता यदि एक ही धन से पूर्ण हो जाती है तो वह दूसरे वस्त्र के लिए प्रयन नहीं करेगा और प्रयत्न का अभाव हुआ तो याचना और उसके अभाव के स्वेद में गी बचेगा। यही सिद्धान्त गृहस्थ के लिए भी है। यदि एक ही मकान से उसका काम चल जाता है तो वह दो मकानों के लिए लोभ में न गिरे। यदि स्वल्य हिंसा से ही उसका काम चल जाता है तो वह हिंसा के क्षेत्र का विस्तार नहीं करे । दया और करुणा के क्षेत्र में श्रावक महापथ से जाएगा किन्तु आरंभ और हिंसा के क्षेत्र में गोपथ से ही जाएगा। टीका:यावद् यावलोकषणा लोकसंबधस्तावत् तावद् विरोषणा लोक इति तद्विपरीतश्वालापको द्रष्टव्यः । आणच ति आशाएति हितासंबद्धस्वात् पूर्वगताध्ययनस्य टिप्पणत्वाचानारत । स मुनिलोकेषण व वित्तषणं च परिज्ञाय स्यत्वा गोपथा गच्छेका महापया राजमार्गेण सग्रथा कार्य तदुप्यते।। जहां जहां लोकैषणा लोकसंबंध है वहो वहाँ निलेषणा लोभ है । इसीप्रकार यहा विपरीत आलापक भी जानना चाहिए । आणध का अर्थ आज्ञाय आज्ञा के लिए होता है। किन्तु यहां वह असंबद्ध है। साथ ही पूर्व गत अध्ययन का Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JIONAL हलि-भालिपाई lada टिप्पण होने के कारण अग्राह्य है। ग्यारहवें अध्ययन में 'आणच पद आया है संभव । है उसी की अनुश्रुति में यहां मी आणच पद दे दिया गया हो। शेष अर्थ ऊपरवत् है। __ तं जहा-जहा कधोता य कविजला य गाओ चरंति इह पातरासं । एवं मुनी गोयरियप्पनिटे णो आलथे पो वि य संजलेजा ॥१॥ अर्थ:-जैसे कपोत कबूतर कपिंजल पक्षीविशेष और गौ प्रातः भोजन के लिए वन में घूमते है इसी प्रकार गौचरी में प्रविष्ट मुनि गौवत् भिक्षा करे, परंतु स्वादिष्ट पदार्थ की प्राप्ति के लिए किसी गृहस्थ की प्रशंसा न करे। और भिक्षा न मिलने एर वह कुपित मी न होए। गुजराती भाषान्तर: જેવી રીતે કપોત-બતર, કપિલ-પક્ષીવિશેષ અને ગાય પ્રાતઃકાળનું ભોજન પ્રાપ્ત કરવા માટે વનમાં ફરે છે, તેવી જ રીતે નેચરી માટે ગયેલા મુનિએ ગાયની માફક ભિક્ષા ગ્રહણ કરવી જોઈએ. પરંતુ સ્વાદિષ્ટ પદા ની પ્રાપ્તિ માટે તેણે બીજાની પ્રશંસા પણ નહિ કરવી જોઈએ અને ભિક્ષા ન મળે તો તેણે ક્રોધાયમાન પણ થવું नो . पहले कहा गया है कि साधक लोकैषणा और वित्तषणा का त्याग करे; वह गोपथ से जाए, महापथ से नहीं। उसी गोपथ पर चलता हुआ मुनि भिक्षा के लिए जाता है। किन्तु उसका मन अनाकुल होना चाहिए। कपोत कपिंजल और गौ जब अपना अपना भोजन ढूंढने निकलते है तब उनके मन में न तो कोई आकुलता रहती है किसी प्रकार की दौर-धूप शान्त गति से अपने अपने भोजन का शोध करते हैं । मुनि भी भिक्षा के समय समचित्त रहे। स्वादिष्ट पदार्थों का आकर्षण उसके मन को भटकाए नहीं । रास्ते में सेठ का भवन आया, उसमें भी वह जाता है, वहाँ से स्वादिष्ट आहार प्राप्त हुआ तो झोली में डाल कर आगे बढे और एक गरीब का घर आये तो वहां भी प्रवेश करे और उसकी रूखी रोटी भी उसी मेह के साथ स्वीकार करे। पर यदि कभी झोली खाली मी रह गई तो भी मन की झोली को न खाली होने दे; मन की झोली तो प्रेम और श्रद्धा से भरी रहे। टीका:-मावः प्रातराशं चरन्ति, इ इति स्थाने इवेति युक्ततरमिव श्यते । एवं मुनिर्गोचयाँ प्रविष्टः स्याला सति नाल्पेन न मुदा लेपेन नापि चालाम क्रोधेन संज्वलेत् । गौ प्रातः अशन के लिए चरती है। इसी प्रकार मुनि गोचरी के लिए जाता है। अभीप्सित वस्तु मिल जाने पर उसके मुख पर अल्प 'मी मुस्कान की रेखा न खींचे और वस्तु नहीं मिलने पर वह क्रोध से जले भी नहीं । गाथा में इह पद आया है उसके स्थान पर इव पद उपयुक्त लगता है। पंचधणीमकसुद्धं जो भिक्खं एसणाए. एसेजा। तस्स मुलद्धा लाभा हण्णाय विष्पमुकदोसस्स ॥२॥ अर्थ:-दोषों (कर्मों) के हनन के लिए विशेषतः मुक्त आत्मा मुनि पंच बनीपक-याचक्र-अतिथि कृपण दीन कुत्ता भ्रमणों से शुद्ध अर्थात् उनके लिए विघ्न न बनता हुआ निर्दोष भिक्षा को गवेषणा पूर्वक ग्रहण करे। गुजराती भाषान्तर: દોષ, કમીને નાશ કરવા માટે વિપ્રમુક્ત આત્મા મુને પંચવનીપક, પાચક, અતિથિ કૃપણ, ગરીબ, બ્રાહ્મણ, દુબળા, કૂતરી, શ્રમયુર્થી શબ્દક અર્થાતું તેને માટે વિશ્વ ન બનતે નિદૉષ આહાર ગષ વક ગ્રહણ કરે. पूर्व गाथा में साधक के लिए अनाकुल मन से मिक्षाचरी का निर्देश किया गया था। यहां मिक्षा शुद्धि के संबंध में निर्देश है । मुनि मिक्षा के लिए किसी घर में प्रवेश करता है यदि उसके सामने अतिथि कृपय दीन दुखेल कुत्ता ब्राह्मण और अन्य तैर्थिक श्रमण जो कि बनीपक कहलाते हैं। उपस्थित हों तो मुनि लौट आए। अन्यथा भविक गृहस्थ मुनि को भिक्षा देते हुए अन्य को नहीं देगा । और इस प्रकार अन्य याचक निराश लौट जाएंगे। "मिति मे सब्बभूयेसु" का उदाता यह कैसे स्वीकार कर सकता है कि उसकी झोली भर जाए और दूसरे खाली हाथ लौटे। १ समण माहणं वा वि किवणं वा वणीमग । तमतिकाम न पनिसे न चिडे चक्षुफासयो। पहिसेहिते व दिपणे वा ततो तस्मि णयत्तिते । उपसंकमे भत्त पाणढ़ाप.व संजते ।। -दशकालिक अ.५ उ, २ गाथा १०१-१२ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश अध्ययन टीका:-पंच वनीपका अतिथि-कृपण-कार-श्रवणाः तैः शव दोषवारितां मिक्षा य एषण्यैषते तस्य हननदोषषिप्रमुक्तस्य लामः सुलब्धो भवति । गतार्थः। पंथाणं स्वसंबद्धं फलावत्तिं च चिंतय । कोहातीणं विधाकं च अप्पणो य परस्स य ॥३॥ अर्थ:-मुनि रूपसंबद्ध पंथ और फलावृत्ति का विचार करे । ख और पर के क्रोधादि के विपाक का भी चिन्तन करे । अर्थात् भिक्षा के लिए जाते समय जिन शासन और मुनिरूप को हमेशा सामने रखे । उसी के अनुरूप फल की आवृत्ति चाहे । साथ ही बह ख और पर किसी के लिए भी क्रोध का निमित्त न बने। गुजराती भाषान्तर: | મુનિ રૂપ-સંબદ્ધ પંથ અને ફળપ્રાણીનો વિચાર કરે. સ્વ અને પરનું ક્રોધાદિના વિપાકનું પણ ચિંતન કરે. અથત ભિક્ષા માટે જતી વખતે જૈનશાસન અને મુનિરૂપને હંમેશા સામે રાખે. તેને અનુરૂપ ફળની આવૃત્તિ ચાહે. સાથે સાથે તે સ્વ અને પર કોઈને માટે પણ ક્રોધનું નિમિત્ત ન બને. पूर्वगाथा में बताया गया है कि भिक्षार्थी मुनी पंच बनोपकों से शुद्ध भिक्षा प्रहण करे। उसका हेतु यहां पर दिया गया है । मुनि भिक्षा लेते समय अपने मुनिरूप और शासन के प्रतिष्ठा की सुरक्षा करे। क्षुधा से आक्रान्त मन में दीनता को प्रवेश न करने दे। दीनता दिखा कर भिक्षा लेना मुनि रूपा और शासन की प्रतिष्ठा को समाप्त करना है। साथ ही यदि पंच वनीपक याचक जहाँ सडे हैं, वहां प्रवेश करने पर संभव है कि अपने लाभ के प्रति विघ्न कारक जान कर वे मुनि के ऊपर कोधित हो जाय और वे संघर्ष तक के लिए भी तत्पर हो जाएं। परिणामतः मुनि के मन में भी क्रोध आ सकता है। अतः समभाव का उपासक मुनि स्व और पर को कषाय के निमेसों से दूर रखे। टीका:-पर्थ मार्गान्तं रूपसंबड्मनुरूप फलापति च चिन्तयेत कामक्रोध-मान-माया-लोभांतं पिंढेषणायामनुभूतानां चारमानं परं चाधिकृत्य विपाकम् । जाण्णवकीय णाम अज्झयणं साधक जिन शासन के अनुरूप फलप्राप्ति का चिन्तन करे तथा पिंडषणा आहार की मवेषणा के समय अनुभूति में आए हुए कोष मान माया लोभ आदि के विपाक का चिन्तन करे, क्योंकि कषाय के अशुभ विपाक का चिंतन उसे कषाय से मुक्त करेगा। इति याज्ञवल्कीयाध्ययनं द्वादशं समाप्तम् १ वणीमगरस वा तस्स हायगस्नुभयरस वा। अपत्तिय सिया बोज्जा लहत्तं पश्यणरस वा ।। -दशवै. अ०५ दि. उ, गा. ११ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भयाली-अहंतर्षि प्रोक भयाली-णाम त्रयोदश अध्ययन ऐसा माना जाता है कि एक का विकास दूसरे का विनाश ही ले कर आता है। किंतु यदि मेरा उत्थान से दूसरे का पतन बनता है तो वह मेरे लिए कदापि ग्राह्य नहीं होगा। जिसमें सबका हित है, सबका श्रेय है यही मुझे ग्राह्य होगा। यह सर्वोदय की ऊर्जस्व भाव -धारा आज के पांच सौ वर्ष पूर्व आचार्य समन्तभद्र की वाणी में सुनाई देती है। ___ 'सर्वोदयमिदं शासनं तवैता' । शताब्दियों नहीं सहस्राब्दियों के भी पूर्व भयाली अतिर्षि के मुख से भी यह सर्वोदय की पवित्र वाणी सुनाई देती है। किमत्थ मस्थि लाचगणं ताप तज्जैण भयालेणा अरहता इसिणा बुइत:णोऽहं खलु भो अपणो विमोयणटुताए परं अभिभविस्सामि मा गं मा णं से परे अभिभूयमाणे ममं व अहिताए भविस्सति ।। अर्थ:-तुम्हारा लावण्य क्यों नहीं है? इसके उत्तर में मैतार्य मयाली अर्हतर्षि बोले-में अपनी विमक्ति के लिए दूसरे को पराजित नहीं करूंगा । नहीं नहीं; वह पराजित व्यकि मेरे ही लिए अहित-कर्ता बनेगा। गुजराती भाषान्तर: તમારું લાવણય શા માટે નથી ? તેને ઉત્તરમાં મૈતાર્થ ભયાલી અહર્ષિ બોલ્યા હું પોતાની વિમુક્તિ માટે બીજાને પરાજિત નહીં કરું. ના, ના, તે પરાજિત વ્યક્તિ જ આપણે માટે અહિત-કત બનશે. विश्वव्यवस्था में एक की विजय दूसरे की पराजय बन कर आती है। एक की मुस्कान दूसरे के लिए आंसू ले कर आती है । व्यक्ति अपने विकास के लिए दूसरे का विनाश करता है। किन्तु भयाली अर्हतर्षि कहते हैं कि मैं अपनी विजय के लिए दूसरे को पराजित नहीं कर सकला। दूसरे की चिता भस्म पर अपने लिए महल नहीं चुन सकता। क्योंकि दूसरे की पराजय में मेरा ही अहित छिपा हुआ है। दूसरे के बहते हुए आंसू मुझे भी चैन से नहीं रहने देगे। अतः दूसरे के हर्ष में मेरा हर्ष है और दूसरे के सुस्त्र में ही मेरा सुख है। टीका:-किमर्थ स्वया लावण्यं मैत्री (मास्ति)न क्रियते इति बलात् प्रतिबोधितोऽपि संस्तं कषिच्छावकं प्रतिभाषितं नाई खलु भो मारमनो विमोचनार्थाय परमभिभविष्यामि । मा भूत स परोऽभिभूयमानो ममैवाहिताय पापकर्मविणकायेत्युक्तप्रकारेणक्षिपथावकस्याध्यवसायः । किसी श्रावक को बलात् प्रतिबोध देते हुए किसी ने पूछा कि तुम सौन्दर्य से मैत्री क्यों नहीं करते हो ! अर्थात्, तुम सौन्दर्यशाली क्यों नहीं बनते? इसके उत्तर में वह बोला कि अपनी मुक्ति के लिए दूसरे को पराजित नहीं करूंगा। क्यो कि वह दूसरा पराजित होता हुआ भी मेरे अहित का निमित्त न बन जाए । अर्थात् पाप कर्म के विपाकरूप में उदय न हो इस प्रकार अक्षिप्त धावक का अध्यवसाय है। आताणार उ सव्वेसि, गिहिबूहणतारण । संसारवाससंतार्ण कई मे हंतुमिच्छसि ॥१॥ अर्थ:-दूसरा अभिभूत होने वाला व्यक्ति संसार में रहे हुए गृहस्थ कहे जानेवाले तारकों-श्रावकों से पूछता है कि तुम मुझे क्यों मारना चाहते हो । गुजराती भाषान्तर : હાર પામવાવાળી બીજી વ્યક્તિ સંસારમાં રહેલા ગૃહસ્થ કહેવાતા તારકે- શ્રાવકોને પૂછે છે કે તમે મને શા માટે મારી નાખવા ઈચ્છે છે श्रावक गृहस्थ है यद्यपि उसकी भी जिम्मेदारियां हैं। इसे उन्हें निभाते हुए उसे चलना है। अतः वह हिंसा नहीं करता है। अपितु उसे हिंसा करना पड़ता है। फिर भी उसकी मर्यादा है। जीवन - यापन के लिए आवश्यक रूप में अनिवार्य हिंसा के लिए ही बह मुक्त है, किन्तु बनाबट और सजावट के लिए होने वाली हिंसा के लिए वह मुक्त नहीं है। साथ ही Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोदश अध्ययन वह पंचम गुण स्थानवों है, अतः यह भी केवल अपने ही हित को लेकर नहीं चल सकता। अपने हित के लिए दूसरे के हित में खिलवाड नहीं कर सकता। मुनि अपने अभ्युदय के लिए हर प्रकार से किसी को अनिष्ट नहीं पहुंचा सकता तो श्रावक भी इसमें आंशिक रूप से अवश्य ही बद्ध है। क्या मुनि के द्वारा होनेवाली हिंसा ही बंध रूप है। श्रावक सर्वथा मुक्त है। मुनि त्रिकरण त्रियोग में हिंसा का प्रत्याख्यानी है तो श्रावक भी द्विकरण त्रियोग से हिंसा का प्रत्याख्यानी है । जो श्रावक लाउडस्पीकर से होने वाली हिंसा से मुनि के महानतों का पहरेदार बना रहता है और बोलता है उपाश्रय में इलेक्ट्रिक का नार भी नहीं आना चाहिए तो क्या वह श्रावक अपने भवनों को एअरकंडीशन कराने के लिए खतंत्र है। दिन और रात अनावश्यकरूप से जलने वाली इलेक्ट्रिक बत्ती और ट्यूब लाइट से होने वाली हिंसा से भी बचने का प्रयत नहीं कर सकता ? हिंसा कहीं भी हो वह अशुभ ही है। मांग कहीं पर भी बैठ कर खाई जाए लहर अवश्य ही देगी। हिंसा का पाप उपाश्रय में लगता है और अन्यत्र वह पुण्य बन भाता है वह अपूर्वराल है को में सपा में ही है, सका है यह भी राज्य का एक ही अंश है। धर्म और कर्म का संबंध ईंट और चूने के साथ नहीं है, क्योंकि वह तो वसता है आत्मा की वृत्तियों में। श्रावक भी शृंगार -प्रसाधनों के पीछे होंगे वाली हिंसाओं से बचे। चमकीले चमडे के बूट सादे बूटों की अपेक्षा अधिक हिंसा से निर्मित है। अतः यदि श्रावक्र सादगी से काम चलावे तो वह महारंभ से बच सकता है। प्रस्तुत गाया का यही हार्द है। टीका:--सर्वेषां संसारावासे शान्तानां तुष्टानां गृही श्रावको यदि वा गृहिणां श्रावकामां ब्रह्मरतः प्रशंसाप्रियः कर्मोपादानाय भूस्वा तैः प्रत्युक्तः कथमिति कुतोऽर्थे हेतुमिच्छसीति । आत्मरत गृहस्थ धावक संसाराषस्था में प्रशंसाप्रिय हो कर भी सभी शान्त संतुष्ट गृही श्रावकों के लिए कर्मोपादान का कारण बनाता है। तो भी ये गृही श्रावक उसे कहते हैं । क्यों मुझे मारना चाहते हो ?। यहां टीका स्पष्ट नहीं है। जर्मन विद्वान प्रोफेसर शुकिंग इस संबंध में भिन्न मत रखते हैं-जिसे अपनी शक्ति पर गर्व है वह पार्थिव जीवन में सत्य उपदेश ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं होता । साथ ही वह झूठे प्रदर्शन से लज्जित भी नहीं होता। संतस्स करणं णस्थि पासतो करणं भवे । बहुधा दिटुं इमं मुटु णासतो भवसंकरो ॥२॥ अर्थ:-विद्यमान घस्तु कभी की नहीं जाती है और असत् वस्तु तो कमी की ही नहीं जाती । अथवा विद्यमान वस्तु का करण (कारण) नहीं है। क्योंकि अपने करण के द्वारा ही कार्य रूप में आई है। असत् वस्तु का कोई करण नहीं होला । बहुधा यह भली भांति देखा गया है कि भवसकिये असत् नहीं है। गुजराती भाषान्तर: વિદ્યમાન વસ્તુ ક્યારે પણ કરાતી નથી. અને અસત્ વસ્તુ તો ક્યારેય ઉત્પન્ન થતી જ નથી, અથવા વિદ્યમાન વસ્તુનું કરણ (કારણું) નથી, કારણ કે આપણું કરણદ્વારા જ કાર્ય રૂપમાં આવી છે. અને અસત્ વસ્તુનું કોઈ કારણ નથી હોતું. બહુધા આ સારી રીતે જવાયું છે. કે ભવ સાંકર્ય અસત્ નથી. दर्शन के क्षेत्र में सांख्यदर्शन सत् वादी है जब कि बौद्ध और वैशेषिक वर्शन असत् बादी है । सांख्य दर्शन कहता है कि विश्व में सत् विद्यमान वस्तु ही की जाती है, असत् नहीं। घर मिट्टी के रूप में पहले ही से विद्यमान है। कुंभकार के कुदाल हाथ उसको मूर्त रूप देते हैं। यदि कुम्भकार यह दावा करता हो कि वहीं असत् का भी निर्माता है तो जरा उससे यह कह दीजिए कि आकाश का भी एक घट बना दे। वह कहेगा कि यह असंभव है। इसका मतलब सत् की ही उत्पनि हो सकती है। बौद्ध और वैशेषिक दर्शन असत् वादी है। उनका विश्वास है कि असन की ही उत्पत्ति होती है। विद्यमान वस्तु का करना क्या है ? साथही एक दूसरा भी प्रश्न है, कि यदि घट मिट्टी में ही उपस्थित है तो दिम्बाद क्यों नहीं देता। यह प्रत्यक्ष १ इसिभासियं पर प्रो० शुभिा के टिप्पण पृष्ठ ५५८ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ इसि भासिवाई विरोध है। साथ ही यदि पट मिट्टी में पहले से ही उपस्थित है तो मकार की आवश्यकता ही क्या है और उसको खरीदने के लिए पैसे देने की ही क्या आवश्यकता है। दार्शनिक जगत् का एक सिद्धान्त है कि बस का कभी उत्पादन नहीं होता है और सर कभी नष्ट नहीं होता है। नासतो जायते भावः नाभावो विद्यते सतः ।' असत् कभी किया नहीं जा सकता और सत् भी नहीं किया जाता। क्योंकि वह तो विद्यमान है ही । कृत का करना ही क्या है ? किन्तु यह निश्चित देखा गया है कि भव अंकुर असत नहीं है, क्यों कि मगरंपरा सहेतुक है। उसके पीछे कर्म धर्म है जो कि परंपरा का मुख्य बेद है। टीकर: सामाह्मणति शान्तय कारणं नास्ति शांतो न एवं करोतीत्यर्थः किन्तु नाश्यतो हिंसकल्प करणं भवेत् नाशयतस्तु भवः शंकरः संसारा हिंडनं भविष्यति तद् बहुधा सुरहं गुरुभिः । वह पति आत्म-परिणति के लिए नहीं है क्योंकि शान्तम्यक्ति वामपरियति में लीन रहता है। हिंसक व्यक्ति के लिए विनाश ही कार्य है, विनाश के द्वारा यह आत्मा भव शंकर अर्थात् भविष्य में भी संसार में करता है ज्ञानियों ने अनेकों बार ऐसा देखा है। संतमेतं धर्म कर्म दारेणेते वट्टियं । निमित्तमे परो पत्थ मज्झ मे तु पुरे फडं ॥ ३ ॥ अर्थ :- यह उपस्थित कर्म भवपरंपरा के द्वार के रूप में उपस्थित है। दूसरा तो केवल निमित्त मात्र है। मेरे शुभाशुभ विपाक के लिए तो मेरे पूर्व कृत कर्म ही उत्तरदायी है। गुजराती भाषान्तर : આ ઉચિત કર્મ ભવ-પરંપરાના દ્વારના રૂપમાં સ્થિત છે, આનું તે માત્ર નિમિત્તરૂપ છે. મારા શુભાશુભ વિપાક માટે તો મારા પૂર્વે કરેલા કર્મ જ જવાબદાર છે. परंपरा कार्य है तो कर्म उसका कारण है क्योंकि कारण के अभाव में कार्य संभव नहीं है। सुख और दुःख का जो भी विपाकोदय है उसका मूल उपादन तो आत्मा है। दूसरा दो केवल निमित्त मात्र है। वृत्ति दो प्रकार की होती है। पहली शेर की और दूसरी कुते की ते पर जब कोई लाठी प्रहार करता है तब वह लाठी पर भीकता है पर ठी वाले पर नहीं। किंतु शेर को जब गोली लगती है तब वह बंदूक पर नहीं बल्कि बंदूकधारी पर ही वार करता है। अज्ञानी मनुष्य जब कभी विपति से प्रसित होता है तो वह अशुभोदय के निमित्त बनने वाले व्यक्ति पर ही आक्रोश I करता है उसे ही समा करना चाहता है किंतु शानसंपन्न आत्मा विपत्ति के बुरे से बुरे क्षणों में भी दूसरे पर रोष नहीं करता क्यों कि वह जानता है कि शुभ और अशुभ विपाक कर्मजन्य है। दूसरा तो निमित्तमान है। दूसरा कोई यदि सुप्त या दुःख दे सकता है तो उसका कोई नियामक नहीं रहेगा। फिर अकृत कर्म का भी फल भोगना पडेगा। साथ ही अपने सुख और दुःख दूसरे व्यक्ति के हाथ में चला जाएगा। फिर आत्मा की स्वतंत्र शक्ति ही क्या रही है अतः जैनदर्शन कहता है कि तूं अपना विधाता स्वयं है क्यों किसी के सामने भीख मांगता है ? । यदि तेरे शुभोदय है तो तुझे मिल कर ही रहेगा | फिर दूसरे के सामने गिडगिडाने से फायदा ही क्या है ? अशुभोदय में दूसरा वेदना नहीं दे सकता | हमारा ही अशुभ कर्म वेदना लेकर आया है। दूसरा तो निमित्त मात्र है। गीता भी कहती है "निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ।" स अपनी अपनी नियत गति पर चल रहे हैं। हम तो उसके निमित्त मात्र ही बन सकते हैं। टीका :- हिंसितं पुरुषं पूर्वभवे यत्कृतं तस्य स परो त्वेवं शांत अबाधायुक्तं कर्म एतेन द्वारेण प्रकारेणोपस्थितं भवति यथा मायैष पुरः निमित्तमात्रविपाककार वितेव भवतीति । १ ने संत से कोलवा भत गाणं । संखाय असा तेर्सि सब्वे वि ते सचा || देवगणोरणीया सम्मनपुर होति । गोवि पूरा न पाहेति ॥ नथ पुढनि विसिद्धो मोति जंतेण जुग्ज‍ अगो । जं पुण घोत्ति पुनं ण आसि पुढषी तओ अण्णो ॥ आचार्य सिद्धसेनदिवाकर :- सन्मतिप्रकरण ५०-५१-५२ । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोदश अध्ययन जिसकी हिंसा की गई है वह पुरुष भी अपने आप को इस विचार से शांत कर सकता है कि इस रूप में उदय में आया हुआ कम एक दिन मैं ने ही पहले पूर्व भव में किया है। दूसरा तो केवल विपाकोदय में निमित्त मात्र है। प्रोफेसर शुत्रिंग भी कहते हैं कि : दूसरे को हानि पहुंचाने वाला अनिष्ट कर्म उसके जीवन में विविध परिणाम लाता है। जिसको आघात लगा है वह भी अपने पूर्वकृत कर्मों को भोग रहा है 1 प्रहार करने वाला तो अपराधी है ही, किंतु जिस पर प्रहार किया गया है वह भी एकदम निदोष है ऐसी बात नहीं है। उसने भी पहले हिंसा द्वारा कर्म एकत्रित किए थे, प्रहार का तो शांत पढे अनुदीरित कर्मों को एक नई हलचल देता है। वही उदीरणा है। मूलसेके फलप्पसी मूलधाते हतं फलं । फलस्थी सिंचती मूलं फलघाती ण सिंचती ॥४॥ कर्म -मूल के सीने में काकी होती है । मूल नष्ट करने पर फल नष्ट हो जाता है। फलार्थी मूल का सिंचन करता है । फल को नष्ट करने वाला मूल का सिंचन नहीं करता है। गुजराती भाषान्तर: ઝાડના મૂળને પાણી પાવાથી ફળની ઉત્પત્તિ થાય છે. મૂળનો નાશ કરતાં ફળ પણ નાશ પામે છે. ફલાથી મૂળનું સિંચન કરે છે, ફળને નષ્ટ કરવાવાળો મૂળનું સિંચન કરતો નથી. टीका:-प्रस्तुत गाथा वजियपुत्र अर्हतर्षि भाषित द्वितीय अध्ययन से भा चुकी है। लुप्पती जस्स जै अत्थि, णासंते किंचि लुप्पती ।। संताती लुप्पती किंचि, णासंत किंचि लुप्पती ॥५॥ अर्थ:-जिसका जो कर्म होता है वही लुप्त हो सकता है। किन्तु असत् का लोप नहीं हो सकता है। विद्यमान में किंचित् वस्तु का लोप होता है, किन्तु असत् में से किंचित् भी लोप नहीं हो सकता है। गुजराती भाषान्तर:- જેનું જે કર્મ હેય છે તે જ લુપ્ત થઈ શકે છે. પરંતુ કર્મ ન જ હોય તે તેને લેપ થઈ શક્તો નથી. વસ્તુ હેય તે જ ક્યારેક તેનો લોપ થઈ શકે છે. પરંતુ અસમાં તો ક્યારે પણ (કોઈપણ વખતે) લોપ થઈ શકતો નથી. ___अथवा जो कर्म उदयावलिका में आता है वह क्षय होता है । जो आत्मा उदित कर्मों को शांत भाव से भोगता है वह कर्म क्षय करता है। किंतु कर्मोदय के क्षणों में जो अशान्त हो उठता है वह कर्म का क्षय नहीं करता । यद्यपि उदया. वश्था में आये हुए कर्मों को तो वह क्षय करता है। किन्तु नए कर्मों का पुनः बन्ध कर लेता है। जो कि पूर्व के कर्मों के अनुपात में कई गुना अधिक होते हैं । शांति कर्मों का क्षय करती है और अशांति कुछ भी क्षय नहीं करती। टीकाः यस्य पदस्ति कर्म तद् विपाकेन लुप्यते यदशान्त उदीरितं कर्म भवति तस्य न किंचिल्लुप्यते उदीरणावशादेव शान्तात् कर्मणः किंचिमनुष्यते किंधित, शान्तेरसंक्षितचात् विपाकात पूर्व तु न लुप्यते शान्त कर्म । टीकाकार का मत कुछ भिन्न है। जिसका जो कुछ है वह कर्म विपाक से लुभ होता है। जो कर्म अशान्तरूप में उदीरित होता है उसका अल्प रूप में भी नहीं लुप्त होते। उदीरणा के द्वारा भी कुछ कर्म लुप्त होते हैं। कुछ छप्त भी नहीं होते, उसका कारण है विपाकोदय के समय यदि आत्मा शान्त रहा तो वह कर्म क्षय करता है। असंक्षिप्त विस्तृत होने से शान्त कर्म उदीरणा में नहीं आए हुए कर्म विपाकोदय के पूर्व नष्ट नहीं हो सकते। कर्म दो रूप से क्षय होता है-एक विपाकोदय से और दूसरा उदीरणा के द्वारा । कर्म जब सहज रूप में विपाक काल समाप्त होने पर उदय में आकार क्षय हो जाता है, वह विपाकोदय है। देर से उदय में आने वाले कर्मों को जब कभी आत्मा जिस प्रक्रिया द्वारा शीघ्र उदय में ले आता है, उसे उदीरणा कहा जाता है। उदारणा के भी दो रूप हैं-पहली शान्त उदीरणा और दूसरी अशान्त उदीरणा । शान्त उदीरणा में आत्मा कर्म क्षय करता है। अशान्त उदीरणा में आत्मा कर्मों का विशेष बन्धन करता है 1 निम्न लिखित चार्ट उसे समझाने में सहायक होगा: Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई निर्जरा विपाकोदय द्वारा उदीरणा के द्वारा शान्तोदीरणा अशान्तोदीरणा प्रोफेसर शुटिंग प्रस्तुत गाथा की व्याख्या मिन्न रूप में करते हैं। उनके विचार से माथा के पूर्वार्द्ध में कर्म के स्वरूप का वर्णन है। जब कि उपर भाग में भौतिक सम्पत्ति की चर्चा की गई है। क्यों कि दोनों एक दूसरे से संबन्धित है। कर्म का क्षय होने से आत्मा का सांसारिक रूप समाप्त हो जाता है। अर्थात् आत्मा की अशुभ पर्यायें लुप्त हो जाती हैं। अथवा विद्यमान कर्म अल्प रूप में नष्ट हो जाता है। किन्तु उदय उदीरणा रहित शान्त कर्म नष्ट नहीं होता। . लोप विद्यमान का ही होता है। अविद्यमान का लोप नहीं हो सकता । आत्मा के साथ कर्म है तभी उसका लोप हो सकता है । सत् वस्तु में से मन का लोप हो सकता है, सम्पूर्ण का नहीं। आत्मा की कुछ विभाव जन्म पायें नए हो सकती । हैं और ऐसे तो प्रति क्षण पर्याय परिवर्तन होता ही है। किन्तु पर्याय के नाश के साथ साथ द्रव्य नष्ट नहीं होता। 'अस्थि में तेण देतिः 'नथि में तेण देह मे। जह से होज, ण मे देजा; णस्थि से, तेण देह मे ॥६॥ अर्थ:-हां में यदि वह कुछ देता है तो ना में भी कुछ दे ही जाता है। यदि उसके पास कुछ है और वह नहीं दे रहा है तो कम से कम इन्कार तो देता है । अथवा एक व्यक्ति देता है, क्योंकि उसके पास कुछ है। दूसरा देता है किन्तु, उस वस्तु पर बह अपना अधिकार नहीं मानता है। यदि अधिकार रखे तो बह दे ही नहीं सकता और अधिकार नहीं मानता है। इसी लिए तो वह देता है। गुजराती भाषान्तर: હકારમાં જે તે કાંઈ આપે છે તો નકારમાં પણ કાંઈક આપતો જાય છે, અને કદાચ તેની પાસે ય અને તે આપતો નથી તે ઓછામાં ઓછું નકાર તે આપશે જ; એક વ્યક્તિ કાંઈક આપે છે કારણ કે તેની પાસે કંઈક છે, બીજે આપે છે પરંતુ તે વસ્તુ પર પોતાનો અધિકાર છે એમ માનતો નથી. અને જો અધિકાર રાખે તો તે દઈ શકતો નથી. અધિકાર નથી એમ સૂમજે છે એટલે તો તે આપે છે. हमने किसी से कुछ याचना की, वह यदि युन्छ देता है तो उसके पीछे कुछ अस्तित्व है । उस व्यक्ति के पास भी वस्तु का सद्भाव है और मेरे शुभोदय का योग है, अतः वह देता है। यदि वस्तु उसके पास मौजूद है. फिर भी वह इन्कार करता है, तो भी कोई बुरी बात नहीं होगी । हा में वह कुछ देता है तो ना में भी कुछ दे ही जाता है। कम से कम नहीं तो देता ही है और अपने अनुदार स्वभाव का परिचय देता है, साथ ही हमें आत्मनिरीक्षण का भी एक अवसर देता है। . १. दान के अन्दर चार वृत्तियां काम करती है-एक व्यक्ति देता है कुसौ के लिए। हजार दे कर मदले में दस हजार मान लेना चाहता है। पर यह दान नहीं, एक प्रकार का सौदा है। इसमें दाता ऊंचा है और लेने वाला नीचा । दाता स्वतंत्र है यह चाहे तो हजारों दे सकता है और न चाहे तो एक नया पैसा भी नहीं है। यह शिलालेखों का दान है। पर विज्ञापन की यह वृत्ति दान की पवित्रता को समाप्त करती है । लेबनान का प्रसिद्ध विचारक खलील जिब्रान कहता है: There are those who give a little of much which they have and they give it for recognition and their hidden desire makes their gifts wholesome, जो व्यक्ति अपनी विशाल सम्पत्ति में से कुछ भाग देता है वह 'मी इसलिए कि उसकी ख्याति हो । उसकी यह छिपी हुई कामना उसके दान को अशिव बना देती है। , २. दूसरा देता है स्वर्ग में सीट रिजर्व कराने के लिए। उसकी धारणा यह रहती है की जो कुछ यहां पर दिया जाएगा वह सहस्र गुणित होकर वर्ग में मिलेगा। . Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दश अध्ययन ३. तीसरा एक व्यक्ति है वह कुछ इसलिए देता है कि समाज मत विषमता दूर हो । एक ओर सम्पत्ति के ढेर लगे हुए हैं तो दूसरी ओर खके है । एक ओर भवनों की पंक्तियां हैं, तो दूसरी ओर सिर ढकने के लिए झोपडी तक नसीब नहीं होती है। यह विषमता समाज के अखस्थता की प्रतीक है। अपनी सम्पत्ति का हिस्सा देकर वह व्यक्ति समाज की इन विषमताओं को दूर करना चाहता है।। '४. चौथा व्यक्ति इसलिए देता है कि उसकी धारणा यह है कि सम्पत्ति मेरी थी ही कब है। जब दुनिया को पहली आँखों देखा था तब कुछ भी नहीं था और जब दुनियों से विदा लेंगे तब भी कुल मेरे साध नहीं जाएगा। यहां मेरा कुछ भी नहीं है। फिर तेरा तुझको देने में क्या लगता है मुझे ? | पहले दो लोमी हैं - एक कीर्ति का, दूसरा स्वर्ग का, तीसरा भी सम्पत्ति पर अपना अधिकार नहीं छोड़ता है, जब कि चौथा सम्पत्ति पर अपना अधिकार भी नहीं मानता है । प्रस्तुत गाघा में दो वृस्तियों का वर्णन है । एक देता है तो दूसरा अपना अधिकार भी दे देता है। प्रोफेसर शुटिंग प्रस्तुत अभिप्राय से संमत हैं। वे लिखते हैं कि एक देता है, क्योंकि उसके पास कुछ है । दूसरा देता है, क्यों कि वह उस पर अपनी मालकियत नहीं रखता है। यदि वह किसी वस्तु पर अपनी मालकियत रखे तो मुझे वह वस्तु कभी नहीं देगा, किन्तु वह उस वस्तु पर अधिकार नहीं रखता, इसलिए मुझे दे देता है। टीका:-यकारणभिक्षादिमार्गितस्य किंचिदस्ति तेन मम ददाति । यत् कारणं नास्यास्ति किंचित् तेनापि मम ददाति । स्वधनस्थानंगीकारात्। यदि वस्त्र स्पद् यदि स्वधनमनीलयति ततो मम न दयात् । नास्त्यस्येति नांगीकरोति तसाम्मम ददातीस्येवमनयोः श्लोकयोरथैः सम्यगवगत इत्याशास। उसके पास कुछ है, इसीलिए वह मिक्षा के समय मुझे कुछ देता है। कोई कारण नहीं है फिर भी यदि वह मुझे देता है, क्योंकि वह अपनी संपत्ति पर अपना अधिकार ही नहीं समझता है। शेष पूर्ववत् है । विशेष में टीकाकार बोलते है कि दोनों लोकों का अर्थ हमने ठीक ठीक समक्ष लिया है ऐसी आशा करते है। मैत्रेयभयाली नाम अज्मयणं इति मैत्रेयभयालीपोतं प्रयोदशाध्ययनम् बाटुक-अहंतर्षि प्रोक चतुर्दश अध्ययन साधना में निष्ठा का महत्व है, क्रिया का नहीं। किया शुभ है, पर उसके पीछे अशुभ निष्टा काम कर रही है तो किय अपवित्र हो जाएगी। एक वैद्य भी किसी एहन का हाथ पकडता है और एक गुंडा भी कभी बुरे विचारों से प्रेरित होकर किसी स्त्री का हाथ पकड़ लेता है। क्रिया में साम्य है, किन्तु भाष में भेद है। इसीलिए दोनों के परिणाम में भी मेद है धर्म क्रिया में बसता है या भाव में ! कभी वह क्रिया में रहता है तो कभी भाव में रहता है, किंत सही अर्थों में धर्म का निवास-भूमि विवेक है। क्रिया, भावना और विवेक तीनों का इस अध्ययन में निरूपण किया गया है। जुचं अजुर्स जोगं ण पमाणमिति बाहुकेण अरहता इसिणा बुइतं । अर्थ :--युरू बात भी यदि अयुफ विचार के साथ है, तो प्रमाण खरूप नहीं है। इस प्रकार बाहुक अईतर्षि ने कहा है। गुजराती भाषान्तर: સાચી વાત પણ એ અસત્ય વિચારથી મેળવેલી હોય તે પ્રમાણુસ્વચ્છ નહીં કહેવાય. આમ બાહુક અહર્ષિએ अछ. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ इसि-भासियाई क्रिया शुद्ध है, किंतु यदि उसके पीछे विचारधारा अशुश है तो सारी किया अशुद्ध होगी। पक्षियों के लिए दाना डालना करुणा प्रेरित कार्य माना जाता है। किंतु एक शिकारी भी दाने बिखेरता है, किंतु उसके पीछे उसकी भावना अशुभ है। अतः शुभ क्रिया भी पुण्य बंधन न होकर पाप बंधक हो जाती है। अप्पाणिया खलु भो अप्पाण समकसिया भवति बचिंधे गरवती अप्पणिया खलु मोय अप्पाणं समुक्कासय समुकासय भवति बद्धचिंध सेट्टी। अर्थ :-अपने द्वारा राजा अपने आप को कसने पर मद्धचिन्ह नहीं कहलाता । किन्तु एक सेट अपने द्वारा अपने को कसने पर पद्धचिन्ह कहा जाता है। गुजराती भाषान्तर : પોતાનાથી પોતાને કરવાથી રાજ બદ્ધચિહું નહીં કહેવડાવે. પરંતુ એક સેઠ પોતાનાથી પોતાને કરવાથી मयि खावे छे. एक व्यक्ति एक कार्य करता है उसका परिणाम ठीक आता है। तो दूसरा व्यक्ति भी वही काम करता है तो उसका परिणाम विपरीत आता है। एक सम्राट यदि कटा हुआ वस्त्र पहनता है तो भी वह फटेहाल नहीं कहलाता। किन्तु उसके इस कार्य से उसके लिए सादगी का आदर किया जाता है। जब कि एक सामान्य गृहस्थ फटा हुआ वस्त्र पहने तो वह फटेहाल कहा जाएगा, दूसरी ओर यदि एक लक्षाधिपति अधिक बोलता है तो उसकी एक वाक् उदारता समझी जाती है।। एक गरीब यदि कोई योग्य बात भी मोले तो वाचाल कहा जाता है।। क्रिया एक होने पर भी व्यक्ति की स्थितिभेद से क्रिया के परिणाम में भी भेद हो जाता है। टीका:-युक्तमयुकयोग न प्रमाणम्-भारमना खलु भो बाम्मान समुत्कृष्योसमय न भवति बदविहो राजलक्षणसंयुको नरपतिरास्मानं समुल्कष्टनावश्यं तस्य सर्वपूजितस्वात् तद्वद विश्वमानितस्य श्रेछिनः स्वचेशविशिष्टस्य । यदि कोई योग्य वस्तु भी किसी अयोग्य के साथ है तो वह प्राश नहीं है। राज-चिन्ह से युक्त राजा के लिए अपने श्राप को उत्कृष्ट करने की भी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह तो पूज्य है ही। इसी प्रकार विश्वमान्य सेठ भी स्ववेश में विशिष्ट है, किन्तु उसे अपने अनप को उत्कर्षशील बनाने की आवश्यकता है। एवं चेव अणुयोये जाणह खलु भो समणा माहणा गामे अदु वा रणे अदुवा गामेणोऽवि रणे अभिणिस्सिए इभ लोग परलोग पणिस्सप दुहओ वि लोके अपट्टिते अकामए याहुए मतेति अकामप चरप तचं अकामए कालगए णरफ पत्ते अकामए पवाए अकामते चरते तवं अकामते कालगते सिद्धिपत्ते अकामप। अर्थ:-यह अनुयोग इस प्रकार समझना चाहिए - ग्राम में बन में या दोनों के मध्य में रहते हुए श्रमण और ब्राह्मण इस लोक के लिए अमिनिःसृत है. और परलोक में प्रनिःसूत होते हैं। दोनों लोकों में अप्रतिष्ठित है, क्योंकि दोनों ही अशा. श्वत हैं। अकामक-कामना रहित बाहुक ने अकाम तप किया । अकाम मृत्यु से मर कर पूर्व कर्म के वशीभूत हो कर नरक में गया। बाद जब मनुष्य लोक में जन्म लेकर निष्काम दीक्षा ग्रहण करता है, निष्काम तप करता है, सभी ओर निष्काम साधन करके निष्काम सिद्धि प्राप्त करता है। गुजराती भाषान्तर: આ અનુયોગ આવી રીતે સમજવો જોઈએગામડામાં અથવા વનમાં અથવા અજેના વચ્ચે રહેતા સાધુ અને બ્રાહ્મણ આ લોકમાટે નિકળે છે, અને પરલોકમાં પ્રતિષ્ઠિત થાય છે, પણ તે બન્ને લોકમાં અપ્રતિષ્ઠિત થાય છે કેમકે भन्ने मशाश्वत छ. અકામ કામનારહિત બાહુક અકામ તપ કર્યું અને અકામ મૃત્યુથી મરીને તે પૂર્વે કરેલા કુકમને વશ થઈને નરકમાં ગયો. પછી જ્યારે મનુષ્યલોકમાં જન્મ લઈને નિષ્કામ દીક્ષા ગ્રહણ કરે છે, નિષ્કામ તપ કરે છે. અધી ખાજાએ નિષ્કામ સાધના કરીને નિષ્કામ સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરે છે. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ चतुर्दश अध्ययन जो क्रिया किसी स्थान पर योग्य रहती है वही क्रिया किसी स्थान पर अयोग्य भी हो जाती है, सेठ और राजा के उदाहरण के द्वारा इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है। उसका अनुयोग यहां बताया गया है। श्रमण और ब्राह्मण कभी गांव में रहते हैं और कभी वन में साधना करते हैं। और साधक कमी गांव में ही विचरण करता रहता है। वह कहीं भी रहे उसका लक्ष्य साधना में रहना चाहिए। उसकी साधना मात्म-मुक्ति के लिए है। यदि वह इस लोक की भौतिक साधना में गिरता है या परलोक और देवलोकों के लिए साधना करता है तो दोनों में अप्रतिष्ठित होता है, क्योंकि दोनों ही अशाश्वत हैं। साधक के हृदय में न इस लोक की कामना ही, न परलोक देवलोक आदि की वासना ही । क्योंकि उसके लिए यह लोक मी परलोक है । अतः नइ परलोक को मी लक्ष्य में रख कर कभी साधना नहीं करे । टीका:-हे श्रमप्या मालणाः! चानुयोगे सत्युक्तस्य हेतु यदि पृच्छत्यर्थ स्वमेव जानीत खलु भो यथा मामे वा भरण्ये वा केषले ग्रामे नस्वरण्ये यदि कनिदिन लोक अभिनिश्चय सेवते परं षा लोक देवलोक प्रणिश्रयते तसारवदुभयोलोकयोरप्रतिश्चितस्वादशाश्वतवार । एष मुक्कोपायामामयुक्तयोगः तदेवोदाहरति । यथा अकामको बाबुको मतः स्मृतः मुक्तकामो झकामकस्वपश्वरते चरितवान् भकामकः कालगतः पूर्वकर्मरामरकं प्राप्तः मनुष्यलोकोपपत्रो कामकः प्रवजितसपश्चरितवान् कामतः सिद्धिप्रासः सर्वत्र कामकः सकामसावत् केवल किं सिविं प्रातः इति प्रश्न अत्युत्तरं । यदि श्रमण ब्राह्मण अनुयोग से युक्त बात का हेतु जानना चाहते हो तो ऐसा समझें। प्राम अथवा वन में अथवा केवल वन में यदि कोई इस लोक की सेवा करता है अथवा परलोक अर्थात देवलोक की उपासना करता है उसकी साधना अनुचित है। क्योंकि दोनों लोक अशाश्वत है। यह युक्त योगियों का अयुक्त योग है। उसे ही सोदाहरण बतलाते हैं। जैसे बाहुक अकामक माना गया है। उसने अकाम तप किया और अकाम मृत्यु से मरकर पूर्व कर्मवशात् वह नरक में उत्पन्न हुआ। मनुष्यलोक में उत्पन होकर सकाम चरित्र लेता है, सकाम तप करता है और सकाम मृत्यु प्राप्त कर विद्धि प्राप्त करता है। सर्वत्र अकामक सकामक की भांति है। अकेला कैसे सिद्धि प्राप्त करता है ? यह प्रश्न है। किन्तु इसका उत्तर नहीं है। शब्द एक ही है, किन्तु उसके पीछे रही हुई भावना में भेद होने से शन्द के अर्थ में बहुत बड़ा भेद हो जाता है। अकाम साधना एक शब्द है, किंतु उसी को एक स्थान पर नरक प्राप्ति का हेतु बतलाया गया है। दूसरी ओर वही अकाम साधना आत्मा को निर्वाण मी प्राप्त करा सकती है। अकाम साधना का एक वह रूप है जहाँ आत्मा विना अन्तःप्रेरणा के किसी बाहरी दबाव विशेष से प्रेरित होकर तप करता है। जैन परिभाषा में इसे “अकाम निर्जरा कहा गया है। जिस आत्मा को विबेक दृष्टि प्राप्त नहीं हुई है उसे अपने साध्य का बोध नहीं है। ऐसी साधना आत्मा को सही लक्ष्य पर नहीं पहुंचा सकती । महावीर ने पावापुरी के अन्तिम उपदेश में कहा था: सल्लकामा विसं कामा, कामा पासी विसावया । कामेव परयमाणा अकामा ति दोगाई॥ लक्ष्य हीन साधना 'अकाम निर्जरा' कहलाती है। जो कभी नरक का हेतु भी हो सकती है। वह बाहर से निष्काम भले ही हो, किन्तु उसके अन्तर में काम की ज्वाला रहती है। अकाम का दूसरा अर्थ होता है कामना रहित; अर्थात् फलासक्ति रहित निष्काम साधना, जिसमें न खर्ग के रंगीन स्वप्न हो न नरक की आग से बचने की अकांक्षा हो; ऐसा निष्काम तप मोक्ष का हेतु होता है। अकाम का पहला रूप जैन परम्परा में व्यवहृत है। दूसरा रूप गीता को निष्काम साधना के अधिक निकट है। सकामयः पन्चाइए सकामए चरते तवं सकामय कालगते णरगं पत्ते, सकामए चरते तवं सकामय कालगते सिद्धि पसे सकामए । अर्थ:-जो साधक कामना के साथ प्रप्रजित हुभा है और कामना को लक्ष्य में रख कर ही तपश्चरण करता है और सकाम मृत्यु प्राप्त कर नरक को प्राप्त करता है। दूसरी ओर सकाम तप करके अर्थात् खेच्छा से तप कर के और सकाम मृत्यु अथोत् इच्छित अन्तिम मूत्यु प्राप्त कर भात्मा सिद्ध-स्थिति को प्राप्त करता है। - Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई गुजराती भाषान्तर: જે સાધક વાસનાયુક્ત છતાં પ્રત્રજિત થયો હોય અને કામનાને મનમાં રાખીને તપશ્ચરણ કરતો હોય, તે અકામ મૃત્યુ પ્રાપ્ત કરીને નરકમાં જાય છે. બીજી બાજુ સકામ તપ કરીને અર્થત પોતાની ઈચ્છાથીજ તપ કરીને અને સકામ મૃત્યુ એટલે કે અનિત્તમ મૃત્યુ પ્રાપ્ત કરીને આત્મા સિદ્ધપદવી પ્રાપ્ત કરે છે, अकाम की ही भौति सकाम शब्द भी दो अर्थों में व्यवहृत्त है। पहला अर्थ है जिस साधक के अन्तर्मन में वासना की चिनगारी नहीं बुझी है और उसी वासना और उसके प्रसाधनों को सहस गुणित रूप में पाने के लिए जो साधना करता है, किन्तु वह वासना की चिनगारी समय पाकर ज्वाला का रूप ले सकती है और बही ज्वाला नरक की ज्वाला के रूप में परिणत भी हो सकती है। मुकाम तप का दूसरा अर्थ है - स्वेच्छा से किया गया तप, जिसमें बाहरी दवाव न हो। परिस्थिति या पराधीनता के कारण भूला रहना तप है अवश्य, किन्तु उसकी गणना अकाम तप में है। किन्तु जिसके पीछे विवेक की मशाल जल रही है, साधक की अन्तरात्मा तप की प्रेरणा दे रही है, ऐसा खेच्छित आरम साधना का हेतु बन सकता है और नद, तप सिंहस्थिति की पानि का साक्षात् कारण भी बनता है। सकाम और अकाम साधना दोनों मोक्ष हेतुक हो सकती हैं, यदि उसके पीछे सवुद्देश्य काम कर रहा है । अन्यथा दोनों ही नरक के भी हेतु है । अतः क्रिया का बाहरी रूप अन्तःशुद्धि का मानदंड नहीं हो सकता । अपितु उसके पीछे रही हुई अन्तर्भावना क्रिया की शुद्धता और अशुद्धता का मानदंड होता है। पर्व से युद्धे । मतार्थः। याहुकणामज्झयणं समतं इति बाहुक-अर्हतर्षि-प्रोक्तं चतुर्दशं अध्ययनम् S a . ..। -rapemador मधुराज आईतर्षि प्रोक्त सात नामक पंचदश अध्ययन कोई भी आत्मा दुःख नहीं चाहता, फिर भी दुःख का निमन्त्रण वही खयं देता है। दुःख बहुरूपिया है। यह विभिन्न रूपों में आता है। कभी वह शान्ति के रूप में आता है। ऊपर से सुन का रूप दिखाई देने वाला कार्य कमी कभी अपने अन्तर में अशान्ति की आग लेकर आता है। भौतिक सुख इसी प्रकार का सुख है। उसके हर कदम के साथ दुःख बंधा हुआ है। दुःख की उदीरणा कौन करता है ? इसी प्रश्न का समाधान प्रस्तुत अध्याय करता है। ___सिद्धिः । सातादुक्खेण अभिभूते दुपली दुक्खं उदीरेति, असातादुक्खेण अभिभूप. दुषखी दुपलं उदीरेति ? सातादुक्खेण अभिभूए जावणो असातादुक्षेण अभिभूए दुक्खी दुक्खं उदीरेति । सातादुक्षेण अभिभूयस्स दुक्खिणो दुक्ख उदीरेति, असातातुक्षेण अभिभूयस्स दुपिखणो दुक्ख उदीरेति सातादुक्खेण अभिभूतस्स दुक्खिणो दुक्खं उदीरेति । पुच्छाय य यागरण च । अर्थ:-साता दुःख से अभिभूत आरमा दुःख की उदीरणा करता है ? या असाता दुःख से अभिभूत दुःखी आत्मा दुःख की उबीरणा करता है ? साता और असाता दुःख से अभिभूत आरमा दुःख की उचीरणा नहीं करता । साता दुःख से अभिभूत दुःखी आत्माएँ दुःख की उदीरणा करते हैं, असाता दुःख से अभिभूत दुःखी आत्माएँ दुःख की उदीरणा करते हैं। पृच्छा और इसका व्याकरण अर्थात् प्रश्न और उसके उत्तर यहां दिए गये हैं। गुजराती भाषान्तर: શાન્તિના દુઃખથી અભિભૂત આત્મા દુઃખની ઉદીરણ કરે છે કે અશાનિના દુઃખથી દુઃખ આત્મા દુઃખની ઉદીરણા કરે છે ? શાંતિ અને અશાંતિના દુઃખથી કાખી આત્મા દુઃખની ઉદીરણા કરે છે એશાંતિના દુઃખથી અમિત દુઃખી આત્મા દુઃખની ઉદીરણા કરે છે પ્રશ્ન તથા તેના ઉત્તર અહીં આપવામાં આવેલ છે. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदश अध्ययन संसारस्थ आत्माएँ दुःखी है तो प्रदन उठता है कि दुःस को निमन्त्रण कौन देता है। साता दुःख से दुःखी धारमा दुःख को निमन्त्रण देता है अथवा असाता दुःख से अभिभूत आत्मा दुःख की उदीरणा करती है। दुःख दो रूप से आता हैएक सुख के द्वारा दूसरा दुःख के द्वारा। आत्मा जब सुख में पागल बनता है, तब दुःख को निमन्त्रण देता है। अति सुख दुःख में परिवर्तित हो जाता है। राषण और दुर्योधन सुख से हो पागल थे । उनका सुख ही दुःख लेकर आया । दूसरी ओर दुःख कमी असाता के द्वारा भी आता है । असाता के उदय में जब व्यक्ति धैर्य को खो बैठता है और निमित पर आकोश करने लगता है तब वह उस दु:ख के साथ दूसरे दुःख को निमन्त्रण देता है। ___ यहाँ ही प्रदन है कि सुख में पागल बनी व्यक्ति दुःख को निमन्त्रण देता है या दुःस में पागल बने व्यक्ति दुःख को निमन्त्रण देते हैं?1 पहला प्रश्न एक वचन में है, फिर वही प्रदन बहुवचन में दुहराया गया है। एक बचन के लिए इनकार कर दिया गया है, क्योंकि एक ही व्यक्ति संसार में साता या असाता दुःख से दुःली नहीं है। बहुवचन में पूछे गए प्रश्न के समाधान में कहा गया है कि साता दुःख से अभिभूत व्यक्ति दुःख की उदीरणा करता है। पर ग्रह विषय अस्पष्ट है, क्योंकि क्या असाता दुःख से अभिभूत व्यक्ति दुःख की उदीरणा नहीं करता ? टीका:-शातं सुखं तस्मादुत्पनं दुःखं शात् दुःखं किं तेनाभिभूता उताशातू दुःखेन भिभूतो दुःखी दुःख उदीरयनीति पृच्छा नशा दुःखेनाशात् दुखेनेत्युत्तरं । उदीरणाहेतोः निःसारस्वादिस्यर्थः संभाज्यते । अपरा पृच्छा यथाकि दुःखी शात् दुःखेनामिभूतस्योताशात् दुखेनाभिभूतस्य परस्प दुखिनो दुःखमुदीरयतीति साताभिभूत इत्युत्तरं दुःखिनोऽभिमवपूर्वमुखी भावात् । पृच्छा च व्याकरण अति प्राचीन टिप्पणी । शात अर्थात् मुम्स. उससे उत्पन्न द्रोने नाला नुःख शात दुःख है। १ प्रश्न:-शात दुःख से अभिभूत आत्मा दुःख की उदीरणा करता है अथवा अशात् दुःख से अभिभूत आत्मा दुःख की उचीरणा करता है ।। उत्तर:-शात दुःख से अभिभूत व्यक्ति दुःख की उदीरणा नहीं करता। क्योंकि उदीरणा का हेतु निर्बल है। इस प्रकार अर्थ की संभावना की जाती है। २ प्रश्न:-दुःखी व्यक्ति दूसरे किसी शात दुःख से अभिभूत दुःखी व्यक्ति के दुःख की उदीरणा करता है अथवा अशात दुःख से दुःखी की है। उत्तर:-शाताभिभूत व्यक्ति के दुःख की उदीरणा करती है। क्योंकि वर्तमान में वे दुःख का अनुभव कर रहे हैं, किन्तु पहले वे सूखी थे। पृच्छा और व्याकरण प्रश्न और उत्तर यह प्राचीन टिप्पणी है। प्रोफेसर शुत्रिंग इस विषय में अपना मित्र मत रखते हैं। सब ठुःख शात दुःख से यह अर्थ समझा जा सकता है कि विषयप्रियता से जन्म लेने वाला दुःख यही लिया गया है। यहां प्रश्नवाचक कृदन्त नहीं है। यहां प्रश्न और उत्तर दिए गए हैं। १. जो शारीरिक या मानसिक नाराजगी प्रगट करता है यह मानसिक प्रियता या अप्रियता का परिणाम है। (वह ज्यादा उपयोगी नहीं है।) २. जिसे इस प्रकार का प्रत्याघात लगता है, वह पूरी तरह से दुःख से आबूत है। ३. इस दुःख को हम कर्म का असर कह सकते हैं। गद्य का मूल लेख नवम अध्ययन की ही भांति कर्म फिलोसोफी के अनुरूप है। ओ कर्म अशान्त अस्पन्दन शील हैं, वे ही उदय में आते हैं । अतः उन्हें उदीरित करने की आवश्यकता नहीं है। संत तुक्षी दुक्खं उदीरेइ । असंतं दुक्खी दुक्खं उदीरेति । संत दुक्खी दुक्ख उदीरे । साता. दुक्खेण अभिभूतस्य उदीरेति णो असंतं दुक्खी दुक्खं उदीरेछ । मधुरायणेण अरहता इसिणा बुहयं । अर्थः-प्रश्न:--दुःखी व्यक्ति शान्त बाधा रहित दुःख की उदीरणा करता है या असान्त दुःख की ? उत्तर:-दुःखी व्यक्ति शान्त दुःख की ही उदीरणा करता है। क्योंकि उदी रित की उकीरणा निरर्थक है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि - भासियाई शांत दुःखों से ही अभिभूत व्यक्ति के कर्मों की उदीरणा होती है। अशान्त दुःखी दुःख की उदीरणा नहीं करता। क्योंकि कर्म की उदीरणा से हीरा का कोई नहीं उठता, ऐसा मधुराज अतर्षि बोले । ८० गुजराती भाषान्तर :-- પ્રશ: - દુઃખી વ્યક્તિ શાન્ત આધારહિત દુઃખની ઉદ્દીરા કમૅ છે કે અશાન્ત દુઃખની ? જવાબ: – દુઃખી વ્યક્તિ શાન્ત ખાધારહિત દુઃખની જ ઉદીરણા કરે છે. કારણકે ઉદીરિત ઉદીરણ્ણા નિરર્થક છે. શત દુઃખોથી જ અભિભૂત વ્યક્તિના કર્મીની ઉદીરા થાય છે. અશાન્ત દુઃખી દુઃખની ઉદીરણા નથી કરતો. કારણ કે કર્મની ઉદીરણાથી જ તે દુ:ખી થયો છે, તેથી ફરીથી ઉદીરશાના કોઈ પ્રશ્ન જ ઉપસ્થિત થતો નથી, એમ મધુરાજ અર્જુને ઓલ્યા. कर्म प्रदेश आत्मा के साथ बद्ध होते हैं। कुछ काल तक निवल पते रहते हैं। उन्हें 'शान्त कर्म' कहा जाता है। शान्त कर्म ही शान्त दुःख है । उसी के संबन्ध में यहाँ प्रश्नोत्तर किए गए हैं। प्रश्न :- जिनके कर्म शान्त और निश्चल अवस्था में पडे हुए हैं ऐसा आत्मा मी भविष्य की अपेक्षा से दुःखी है, वह शान्त दुःख की उवीरणा करता है या अशान्त दुःख की ? । अर्थात् निश्चल कर्म की उदीरणा होती है या चलित कर्म की है। उत्तर :- शान्त दुःख की ही उरीरणा हो सकती है। क्यों कि जो कर्म चलित हो चुके हैं, उदीरणा में आ चुके हैं, उनकी उदीरणा ही क्या होगी ? | शात दुःख और अशात् दुःख की उदीरणा का प्रश्न पहले चर्चा गया है उसका ही उपसंहार करते हुए मधुराज अतर्षि कहते हैं - ज्ञाता दुःख से अभिभूत आत्मा के कर्मों की उदीरणा होती है। अशान्त दुःखी दुःख की उदीरणा नहीं करता टीका :- पुनः पृच्छा था- किं शान्तं बाधारहितं दुःखं दुःखी उदीरयत्युत्तरशान्तम् ? इति । शान्तमेवेत्युत्तरमुदीरितस्योदीरणाः, निरर्थकत्वात् । गतमर्थम् । दुक्खेण खलु भो अपहीणेण जीप आगच्छंति हत्थच्छेषणाएं पादच्छेयणाई एवं णमज्झयणं गमपणं यध्वं जाथ सासतं नित्र्वाणमम्भुषगता चिट्ठेति णवरं तुक्खाभिलाषो । अर्थ :- दुःख से अविमुक्त आत्मा संसार में पुनः आता है और उनका हस्त-दन होता है, पाद छेदन होता है । शेष नवम अध्ययनवत् समझना चाहिए, यावत् शाश्वत निर्वाण प्राप्त करते हैं विशेष वह जीव की सकर्मक दशा को दुःख का मूल बताया गया है। मां दुःख युक्त आत्मा का निरूपण है। गुजराती भाषान्तरः દુઃખથી મુક્ત ન થયેલો આત્મા સંસારમાં ફરીથી આવે છે અને તેના હાથ કપાય છે, પગ છેદાય છે. નવમા અધ્યયન મુજબ સમજવું જોઈ એ શાશ્વત ( હંમેશનું ) મૃત્યુ પ્રાપ્ત કરે છે. વધુ ત્યાં જીવની સકર્મક ( કર્મસાથેની ) દશાને દુઃખનું મૂળ કહેવાયું છે. અહીં દુઃખથી ભરેલ આત્માનું નિરૂપણ છે. पात्रमूलमणियाणं संसारे सध्वदेहिणं । पावाणि दुक्खाणि पात्रमूलं च जम्मणं ॥ १ ॥ अर्थ :- संसार के समस्त देहधारियों का अनिर्वाण भव-भ्रमण का मूल पाप है और समस्त दुःखों की सृष्टि भी पापमूलक ही है, जन्म एवं च शब्द से प्राय मृत्यु पापमूल है। गुजराती भाषान्तर: સંસારના દરેક દેહધારીઓનું ભવભ્રમણનું મૂળ પાય છે અને દરેક કુંઃખની સૃષ્ટિ પણ પાપજ છે, જન્મ એવા શબ્દથી ગ્રહણ કરાયેલું મૃત્યુ પાપનું મૂળ છે. मिलाइए अध्ययन २ गाथा ७। केवल मोह शब्द विशेष है। संसारे दुक्खमूलं तु पार्व कस्मं पुरेकडं । पावकम्मणिरोधाय सम्मं भिक्खू परिव्यय ॥ २ ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदश अध्ययन अर्थ:-संसार में दुःख का मूल पूर्वभव मृत पाप है । कर्म के निरोध के लिए मिक्षु सम्यकू प्रकार से विचरण करे। गुजराती भाषान्तरः-- આ સંસારમાં દુઃખનું મૂળ પહેલા (પૂર્વે) કરેલા પાપ છે. પાપકર્મના અટકાવ કરવા માટે સાધુ સારી રીતે આચરણ કરે. सभावे सति कंदस्स धुवं वल्लीय रोहणं । बीए संबुज्झमाणमि अंकुरस्लेव संपदा ॥३॥ अर्थ:-वृक्ष के स्कंध का सद्भाव होने पर लता उस पर अवश्य ही चदेगी। बीज के विकसित होने पर अंकुरों की संपदा अवश्य आएगी। गुजराती भाषान्तर: વૃક્ષના ખભા( ડાળીઓ)નો સદ્દભાવ હોવાથી વેલો તેના ઉપર અવશ્ય ચઢશે. બીજના વધવાથી અંકુરી १२२टशे. ___ लता का स्वभाव ऊपर चढना है। यदि उसे वृक्ष-स्कंध का आश्रय मिल जाता है वह ऊर्वमुखी होकर प्रगति करती है। चीज में हलचल आना अंकुर संपनि का हेतु है। यदि पाप का स्कंध है तो दुःस की लता उस पर जरूर आरोहण करेगी और बीज है तो उसके विकसित होने पर नए अंपुर मावेंगे ही। टीका: स्कंधस्वैवं सति स्वभावे प्रवं निःशंक बहयारोहणं भवति। बीजे समुह्यमानेऽप्यकुरस्येव संपद भविष्यति । गतमार्थम् । सभावे सति पावस्स धुधं दुक्ख पसूयते । णासतो मट्टिया पिंडे णिवत्ती तु घडादिणं ॥ ४ ॥ अर्थ:-पाप का सभाष दोने पर निश्चित ही उसमें से दुःख की उत्पत्ति होगी। मृत्तिका पिंड के अभाव में घटादि की रचना संभव नहीं । मृरियड है इस लिए घटादि उत्पन्न हो सकते हैं। पाप है इसलिए दुःख की सृष्टि है । गुजराती भाषान्तर: પાપનું અસ્તિત્વ (હાજરી) હેવાથી ચોકકસ તેમાંથી દુઃખની ઉત્પત્તિ થશે. માટી જ ન હોય તે ઘડા વગેરે બનાવવાનું જ બનશે નહીં. ___दर्शन के क्षेत्र में पदार्थों की उत्पत्ति के संबन्ध में दो प्रकार की विचार-धाराएं हैं। प्रथम वह है जो कारण में कार्य का सद्भाव मानती है। इसे हम सत्कार्यवायी के नाम से पुकारते हैं। दार्शनिक जगत् सांख्य वादी दर्शन कहता है। उसका तर्क है कि कार्य अपने कारण में सत् रूप से उपस्थित है। किन्तु निमित्त उसको मूर्त रूप देता है । यह दर्शन कार्य और कारण में सभेद मानता है। कारण में कार्य पहले से ही उपस्थित है, पर वह अव्यक्त रूप में है। पट तेतु में उपस्थित है, वह अव्यक्त रूप में था; किन्तु संतुओं के संयोग से व्यक्त हो गया। यदि पट तंतुओं में घा ही नहीं तो आया कहां से। क्योंकि असन की उत्पत्ति हो ही नहीं सकती। ___ दुसरी और असत् कार्य बाधी नैयायिक दर्शन है। इसका अपना पक्ष है। कारण और कार्य दो भिक्ष वस्तुएँ हैं। कारण से कार्य होता है। दोनों पूर्वापरवर्ती है। अतः दोनों में भेद भी निश्चित है। तम्तुओं से पट बनता है, तो तंतु एक भिन्न वस्तु है और पट एक स्वतंत्र वस्तु है। लबा-निवारणादि जो कार्य पट से हो सकता है, वह तन्तुओं से नहीं हो सकता। यदि पट में तन्तु पहले से ही विद्यमान हैं तो फिर वह हमें दिखाई क्यों नहीं देता और उससे शरीराच्चदनादि किया क्यों नहीं होती? साथ ही तंतु में पट मौजूद है ही तो वस्त्र-निर्माण की प्रक्रिया ही ध्यर्थ जाएगी। जैन दर्शन दोनों के समन्वय में विश्वास रखता है, क्योंकि वह एकान्त का उपासक है। सत्कार्य-वाद की अपेक्षा कहा जा सकता है कि मृत्तिका के पिंड में यहा प्रकृति रूप में मौजूद है। आकृति का वहां अभाष है। इसी प्रकार जहां अशुभ वृत्ति है वुःख उसी में मौजूद है। किन्तु उसका सभाव मानना ही होगा, भले ही वह अध्यक रूप से ही क्यों न हो । अतः दुःख के मूलोच्छेद के लिए आत्मा को पाप प्रवृत्ति का ही भूलोच्छेद करना होगा । ११ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई सभावे सति कंवस्स जहा वल्लीय रोहणं । बीयातो अंकुरो चेष दुक्खं बल्लीय अंकुरा ॥ ५ ॥ अर्थ:-जैसे कंद के सद्भाव में ही लता पैदा होती है और बीज से अंकुर फूट पड़ते हैं, उसी प्रकार पाप रूप लता से दुःख अंकुरित होते हैं। गुजराती भाषान्तर: જેવી રીતે કંદ હોય તો જ વેલ પેદા થાય છે અને બીજથી અંકુર ફૂટે છે તેવી જ રીતે પાપ રૂપ વેલથી દુઃખ અંકુરિત થાય છે. जहां कंद होगा वहां लता अवश्य होगी और बीज को मिट्टी और पानी का सहयोग मिला तो उसमें से अंकुर फूट पड़ेंगे। इसी प्रकार जहाँ पाप की उपस्थिति है वहां दुःख की लता अवश्य ही पैदा होगी। पायघाते हृतं दुक्खं, पुप्फघाप जहा फलं। विद्धाप, मुद्धसूई कतो तालस्स संभवे ? ॥६॥ अर्थ:-जैसे फल को कुचल देने पर फल स्वतः नष्ट हो जाता है, इसी प्रकार पाप को नष्ट कर देने से दुःख भी समान हो जाता है। सूई के द्वारा ताड के ऊर्च भाग को दिध दिया जाए फिर ताट वृक्ष का विनाश निश्चित ही है। गुजराती भाषान्तर:रेपीशत बने उस मारा : द ते ५: 1.1. तi: पोतानीभग જ નષ્ટ થાય છે. સોઈથી તાડના ઝાડની ઉપલા ભાગને વાંધી દેવાથી તાડનો નાશ થયા વગર રહે નહી. टीका:-पापघाते हवं दुक्खं यथा फलं हतं पुष्पधाते कृते । कुतस्सालफलस्य संभवो बिवायां सस्यां मुर्धसूच्या इते तालपादपस्य शिखरे तालफलानि दुमस्थाने पच्यन्ते इति प्रसिद्धं । पाप के नष्ट कर देने पर दुःख उसी प्रकार से नष्ट हो जाता है जिस प्रकार कि फूल को नष्ट कर देने पर फल । यदि ताड के शिखर भाग को विंध दिया जाय तो ताट का फल कभी नहीं पैदा हो सकता, क्योंकि ताड फल वृक्षान पर ही पकते है जो कि प्रसिद्ध है। मूलसेके फलुप्पत्ती, मूलघाते हतं फलं । फलस्थी सिंचप मूलं, फलघाती न सिंचति ॥ ७ ॥ अर्थ:-जड़ के सिंचन करने पर फल प्राप्त होता है और मूल पर प्रहार करने से फल स्वतः नष्ट हो जाता है। कलार्थी फल को सींचता है फल-घातक मूल का सिंचन नहीं करता है। विशेष देखिए अध्ययन २ गाथा। गुजराती भाषान्तर :-- મૂળનું સિંચન કરવાથી ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે અને મૂળ પર પ્રહાર કરવાથી ફળ સ્વતઃ નાશ પામે છે. ફલને ચાહનાર મળને સીંચે છે, ફળઘાતક મૂળનું સિંચન કરતો નથી. વધારે! માટે જુઓ અધયયન ૨ ગાથા . दुखितो दुक्ख घाताय, दुपवावेत्ता सरीरिणो। पडियारेण दुक्खस्स दुषखमण्णं णिबंधई ।। ८॥ अर्थ:-दुःख की अनुभूति करते हुए दुःखाभिभूत देहधारी दुःख का विघात चाहते हैं। किन्तु एक दुःख के प्रतिकार करने पर दूसरे दुःख का निबन्धन कर लेते हैं। गुजराती भाषान्तर: દુઃખના અનુભવ કરવાવાળા દુઃખથી પીડિત પ્રાણી દુઃખના નાશ માટે ઈચ્છા રાખે છે, અને એક દુઃખને નાશ કરતાં બીજા દુઃખોને નોતરે છે. दुःखवेदन शील आत्मा दुःख-मुक्ति के लिए प्रति क्षण प्रयत्नशील रहता है। किन्तु होता यह है कि एक दुःख से मुक्त होने के लिए किया गया उपचार नए दुःस का द्वार बन जाता है। आज प्रायः यही होता है। एक बीमारी को दबाने के लिए डॉक्टर इन्जेक्शन देता है वह पूर्ण रूप से दबती भी नहीं है कि दूसरी बीमारी के अंकुर फूट निकलते हैं। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदश अध्ययन आध्यात्मिक दृष्टि भी बताती है, कि अज्ञानाभिभूत आत्मा एक दुःख से मुक्त होने की चेष्टा करती है तभी वह शतशः दुःखों की नई परम्परा के द्वार खोल देता है । असाताबेदनीय से मुरू होने के लिए वह हिंसात्मक उपचार करता है फलतः कर्मों की नयी जंजीरों से पुनः आबद्ध हो जाता है। टीका:-दुःखितो दुःखवावार्थमन्य कंचिच्छीरिण पुरुष दुःखीकृत्वा वेदना प्रापयिस्वा एकस्य दुःखस्य प्रतिकारेणान्यव दुःख निबनातीति विरोधः । दुःखी व्यक्ति दुःख-नाश के लिए किसी अल्प शरीरधारी पुरुष को दुःख का दाता मान कर उसे वेदना देकर एक दुःख का प्रतिकार करना चाहता है, किन्तु उस के द्वारा दूसरे दुःख का बन्धन करता है, किन्तु यह विरोध है। दुषवं मूलं पुरा किचा, दुक्खमासज्ज सोयती । गहितम्मि अणे पुछि अदइत्ता ण मुबइ ॥९॥ अर्थ:-आत्मा दुःख के बीज को पहले मोता है, फिर दुःस्त्र को प्राप्त करने के बाद शोक करता है। पहले ऋण लिया है तो उसको लौटाए बिना वह मुक्त नहीं हो सकता है। गुजराती भाषान्तर: આત્મા દુઃખના બીજને પહેલાં વાવે છે અને પછી દુઃખ પ્રાપ્ત કરે છે અને શોક કરે છે. પહેલાંનું ત્રણ બાકી છે તે પછી તે ચૂકવ્યા પહેલાં મુક્ત થઈ શકતો નથી. मात्मा मन के खेत में हजारों बीज प्रति क्षया डाल रहा है। किन्तु वह भुलकई माली है जो बीज डाल कर फिर उस पर ध्यान नहीं देता है। किन्तु बीज डाला है तो वह अवश्य ही एक दीन विशाल वृक्ष बन कर तैयार होगा, विष वृक्ष के कटु फल जब उसके सामने आते है तम वह हाय हाय करता है, रोता और तडपता भी है। किन्तु एक बार ऋण लिया है तो उसको लौटाए बिना मुक्ति नहीं है। आहारत्थी जहा बालो, वही सप्पं च गेण्हती। तहा मूढो मुहत्थी तु, पावमपणं पकुव्वती ॥ १० ॥ अर्थ:- यदि बुभुक्षित बालक आग और सर्प को पकडता है तो वह संकट को ही निमन्त्रण देता है । इसी प्रकार सुख चाहने वाला अज्ञानी आत्मा नए पाप करता है। गुजराती भाषान्तरः-- જે ભૂખ્યો (અજ્ઞાની) બાળક જે આગ કે સપને સ્પર્શ કરે છે તે આફતને જ નોતરે છે. તેવી જ રીતે સુખ મેળવવા માટે કોશિશ કરનાર અજ્ઞાની આત્મા નવા પાપ કરે છે. • नन्हा जालक यदि अनार का दाना समझ कर अंगारों को खाना चाहे तो वह कष्ट ही पाएगा। चूहा पिटारे को देखता है और सोचता है इसमें अवश्य ही मोदक होंगे और वह अपने दांतों से पिटारे को कुतर कर उसमें प्रवे जाता तो है लस् खाने, परन्तु स्वयं साँप का भक्ष्य बन जाता है । इसी प्रकार अज्ञान के अन्धकार में भटकता हुआ आत्मा सुख मानकर जिसको अपनाता है वही उसके लिए कष्ट दायी बन जाता है और वह सुख की मृग-तृष्णा में दौड़ता हुआ अगणित पापों को एकत्रित कर लेता है जो कि दुःख के बीज होते हैं। पावं परस्स कुब्र्वतो हसती मोहमोहितो। मच्छो गलं मसंतो या विणियात ण परसती ॥ ११ ॥ अर्थ:-जब मोह-मोहित आत्मा दूसरे (की हानि) के लिए पाप करता है, उस समय आनन्द का अनुभव करता है। मछली आटे की गोली गले में उतारती हई भानन्द पाती है, किन्तु उसके पीछे छिपी हुई अपनी मौत को वह नहीं गुजराती भाषान्तर: જ્યારે મોહમુગ્ધ આત્મા બીજને (નુકસાન પહોંચાડવા માટે પાપ કરે છે તે સમયે તે તે આનંદ અનુભવે છે. જેમ માથ્વી પકડવાના આંકડા ઉપરના લોટની ગોળી ગળામાં ઉતારતા આનંદ પામે છે, પરંતુ તેની પાછળ પાએલી પોતાની મોતને તે છેતી નથી. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई प्राचीन काल में धीवर लोग मछली पकड़ने के लिए एक प्रकार का कोटा बनाते ये, और उस पर आटे की गोली लगा देते थे। जब वह कोटा पानी में डाला जाता तो आटे को खाने के लिए मछली आती थी, किन्तु ज्यों ही वह गोली को निगल जाना चाहती खो ही आटे में छिपा हुआ आटा उसके गले को विध देता। इसी प्रकार मोह युक्त आत्मा स्वजन परिजन के लिए अनीति और अत्याचार के द्वारा सम्पत्ति का संग्रह करता है। किन्तु भोला मानव उसी भूखी मछली की भांति है जो आटे को देखती है, कांटे को नहीं । वह व्यक्ति सम्मुख रहे हुए आनन्द को ही देखता है किन्तु उस क्षणिक आनन्द के पीछे आने वाली दुःख की परम्परा को नहीं देखता है। पच्युप्पण्णरसे गिखो मोहमल्लपणोल्लितो। दिस पावति उच्चंट चारिमझे व वारणा ॥ १२ ॥ अर्थ:-मोहमल्ल से प्रेरित आत्मा वर्तमान भोग के आनन्द में लुब्ध होता है और पानी में रहे हुए हाथी की भौति वह मोह-मोहित आत्मा दीप्त उत्कंठा अथवा उत्कृष्ट उतेजना को प्राप्त करता है। गुजराती भाषान्तरः મોહરૂપી મત્વ (પહેલવાન ) થી પ્રેરિત આત્મા ભગના તાત્કાલિક આનંદમાં લુબ્ધ થાય છે. અને પાણીમાં રહેલા હાથીની માફક મેહમોહિત આત્મા દીન ઉત્કંઠા અથવા ઉત્કૃષ્ટ ઉત્તેજનાને પ્રાપ્ત કરે છે. मोह-गृद्ध व्यक्ति केवल वर्तमान के सुख में आनन्द मानता है । भविष्य में होने वाले कट परिणामों की ओर से आंख मूंद लेता है। जिस प्रकार हाथी पानी में रह कर मद-मस्त हो जाता है, उसी प्रकार मोह के कीचह में फंस कर आत्मा अधिक मोहान्ध हो जाता है। परोवघाततल्लिच्छो दप्प-मोह-मलुद्धरो। सीहो जरो दुपाणे वा गुण-दोसं न विदती ॥ १३॥ सई----दर्पसहगल लरकीही गतरे के घात में आनन्दित होता है। जैसे युद्ध सिंह उन्मस हो कर विवेक खो बैठता है और निर्जल प्राणियों की हिंसा करता है। इसी प्रकार मोहोन्मन मानर गुण-दोष का विवेक भूल जाता है। गुजराती भाषान्तरः પપી ધમથી ઉદ્ધત થયેલી વ્યક્તિ બીજના નુકસાનમાં આનંદ પામે છે. જેવી રીતે વૃદ્ધ સિંહ ઉન્મત્ત બનીને વિવેક ખોઈ બેસે છે અને નિર્બળ પ્રાણીઓને નાશ કરે છે, તેવી જ રીતે મોહોન્મત્ત માનવી ગુણોને વિવેક ભૂલી જાય છે. मोह विवेक की ज्योति को बुझा देता है, मोह-मदिरा है, जो पीता है उसे पागल बना देता है। उसका मन मइंकार के मद से मत्त हो उठता है। अहंकारी ब्यक्ति अपने में बहुत मड़ी शक्ति मानता है और दूसरे को सदैव निर्यल मानता है। जब कभी उसके अहं पर ठेस लगती है वह भूखे मेदिए की तरह उस पर टूट पड़ता है। जैसे विक्षिम वृद्ध व्याघ्र दुष्प्राण दुर्बल प्राणियों का संहार करता है इसी प्रकार मोह-मन मानव विवेक भूल कर दूसरों के व्याघात के लिए तत्पर हो जाता है। टीका:-परोपघातपरो दर्पमोहमलैरुदुरो उद्धृतो गुणदोषान् न तिति । यथा वृद्धः सिंह उद्याने गतः प्राणिनो इम्ति बिवेकमवत्या यदि घा यथा सिंह एकविंशाध्ययनकथितः परं जिघांसते । गतमर्थम् । विशेष इक्कीसवें अध्ययन में भी सिंह का रूपक आया दै कि किसी प्राणी के शिकार में वह किस प्रकार अपने प्राण खो देता है। सषसो पावं पुरोक्रिया दुक्खं वेदेति दुम्मती । आसत्तकंठपावो(सो) वा मुकधारो दुहडिओ ॥ १४ ॥ अर्थ :-पूर्व कृत पाप के वशीभूत हो कर दुर्बुद्धि आरमा दुःख का अनुभव करते हैं। आकंठ पाप में आसक्त रहने वाला कष्टों और विपदाओं की धारा में अपने आप को छोड़ देता है। -- -.- १ ।१ देखिये अध्ययन २१ गाथा ६ । . . -.- - Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदश अध्ययन गुजराती भाषान्तर: પૂર્વ ભવમાં કરેલા પાપને વશ થઈને દુર્બદ્ધિ આત્મા દુઃખને અનુભવ લે છે. ગાઢ પાપમાં આસક્તા રહેનાર કષ્ટ અને વિપત્તિના પ્રવાહમાં સ્વયે પોતાને નાંખી દે છે. आत्मा स्त्र-वश हो कर पाप करता है। पाप-प्रवृत्ति के लिए उसे दूसरा कोई प्रेरित नहीं करता है। किन्तु उसकी अशुभ परिणति ही उसे उस ओर प्रेरित कर देती है। वह चाहे तो दुर्वासनाओं को रोक सकता है। किन्तु उसकी स्वार्थ बुद्धि उसे ऐसा करने से रोकती है। परिणामतः वह दुर्वासना के प्रवाह में वह जाता है और पाप-कर्म का बन्धन कर लेता है। किन्तु उसके प्रतिफल भोगने में वह स्वतंत्र नहीं है। वह चाहे या नहीं चाहे, किन्तु उसको फल भोगने के लिए तैयार रहना ही होगा। पायं जे उपकुवंति, जीया साताणुगामिणो। वङ्गती पायकं तेसि अणम्माहिस्स या अणं ॥ १५॥ अर्थ:-सुखेच्छु आत्माएँ सुख के लिए पाप करते है, किन्तु जैसे ऋण लेने वाले पर ऋण बढ़ता ही जाता है वैसे ही सुखार्थी आत्मा का पाप भी बढ़ता जाता है। गुजराती भाषान्तर! - સુખ ચાહનારા આત્માઓ સુખ મેળવા માટે પાપ કરે છે. પણ જેવી રીતે કરજ લેવાવાળા પર દરરોજ દેવું વધતું જ જાય છે, તે જ પ્રમાણે સુખાર્થી આત્માનું પાપ પણ દરરોજ વધતું જાય છે. आत्मा अनन्त युग से सुख के लिए परिश्रम करता है। उस स्वार्थ 'जन्य सुख की प्राप्ति के लिए जघन्य से जघन्य कृत्य भी करता है। अतः उसकी शप परम्परा सुरसा के मुँह की भांति बढ़ती ही जाती है। वह एक ऐसा ऋणी है जो ऋण लेता ही जाता है। अथवा लौटाता भी हो तो एक हजार लौयता है और दस हजार पुनः ले आता है। तो वह कर ऋणमुक हो सकता है। अणुबद्धमपस्संता पच्चुप्पण्णगधेसका। ते पच्छा दुषखमच्छति गलुच्छिन्ना मसा जहा ॥ १६ ॥ अर्थ:-जो केवल वर्तमान सुख को ही खोजते हैं किन्तु उस से अनुबद्ध फल को देखने से इनकार कर देते हैं, वे (आत्माएँ) बाद में उसी प्रकार से दुःख पाते हैं- जैसे कि गला विधी हुई मछली। गुजराती भाषान्तर: જેઓ ફક્ત વર્તમાન મુખને જ શોધે છે પરંતુ તેથી અનુબદ્ધ (તેને સાથે જોડાયેલ) ફળને માટે લાંબો વિચાર કરતા નથી, તે આત્મા-ગળું વિંધાયેલી માછલી જેવી રીતે પાછળથી દુઃખી થાય છે–તેવી જ રીતે દુઃખી થાય છે. ____ कुछ आत्माएँ वर्तमान तक सीमित होती हैं, अतीत अनागत से उपेक्षित होते हैं । वर्तमान सुख पर उनकी दृष्टि होती है। किन्तु उस सुख के साथ बंधी हुई दुःख की परम्परा को वे नहीं देखते । आँख मूद लेने मात्र से ही कष्ट के काटे नष्ट नहीं हो आते हैं। मछली केवल आटे को देखती है किन्तु उसके पीछे छिपे हुए कांटे को नहीं देखती । इसीलिए तो वह भोली मछली अपना गला छिदवा लेती है। आताफहाण कम्माणं, आता भुंजति जं फलं । सम्हा आतस्स अट्टाप, पावमादाय वजप ॥ १७ ॥ अर्थ:-आत्मा ही कर्मों का कर्ता है और आत्मा ही उसका भोक्ता है। अतः साधक आत्मा के अभ्युदय के लिए पाप को छोड़ दे। गुजराती भाषान्तरः . આમાં જ કમીને કર્તા છે અને આમા જ તેનો ભોક્તા છે; માટે સાધકે આમાની આબાદી માટે પાપ કરવાનું જ છોડવું જોઈએ. Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ इसि-भासियाई जैन दर्शन कर्तत्व और भोक्तृत्व दोनों प्रकार की शक्तियां आत्मा में खीकार करता है। दूसरा कोई आत्मा को बांध नहीं सकता । तो विश्व की कोई भी शक्ति आत्मा को मुक भी नहीं कर सकती है। अब आत्मा की सोई हुई चेतना जाग्रत होगी और अपनी शक्ति का उसे परिज्ञान होगा तो एक क्षण में संजीरों को तोडकर मुक्त हो जाएगा। संते जम्मे पसूर्यति वाहि-सोग-जरादओ। नासंते डहते वही तरुच्छेता ण छिदति ॥ १८॥ अर्थ:-जन्म के सदभाव में व्याधि, मोम और वार्थक्य भादि भिमदा होती है। जम्मा का अभाव होने पर समस्त उपाधियाँ समान हो जाती है। यदि आग में जलने योग्य वस्तु का अभाव है तो आम जलाएगी किसे ? । अथवा यदि आग का अभाव है तो वह जलाएगी भी नहीं और यदि वृक्ष काटने वाले का अभाव है तो अकेली कुल्हाडी वृक्ष को नहीं काट सकती। गुजराती भाषान्तरः-- જન્મની હયાતીમાં વ્યાધિ, શોક અને ઘડપણ આદિ ઉપાધિઓ આવી પડે છે. જન્મ પ્રાપ્તિનો અભાવ થતાં સમસ્ત ઉપાધિઓ નષ્ટ થઈ જાય છે, જે આગમાં બળતણ ન જ હોય તો આગ બળશે કોને? અથવા જે ભાગને અભાવ હોય તે તે બાળશે પણ નહીં અને જો વૃથા કાપવાવાળો જ ન હોય એકલી કુહાડી વૃક્ષને કાપી શક્તી નથી. मानव जन्म तो चाहता है कि व्याधि और उपाधि हो नहीं, यह किन्तु असंभव है, क्योंकि जन्म स्वयं उपाधि है। यह तो वैसा ही हुआ, जैसे कोई आग तो चाहता है किन्तु उसकी उष्णता को नहीं चाहता है। उष्णता को समाम करने के लिए आग को ही समास करना होगा। यदि वृक्ष को कटने से बचाना है वृक्ष के काटने वाले को ही समाप्त-दूर करना होगा। फिर हजारों कुल्हाडियां क्यों न पड़ी हों, वृक्ष के एक अंश को भी नहीं काट सकती। यदि जन्म-जन्य व्याधियों से बचना है तो जन्म से ही बचना होगा । आदमी मौत से डरता है और जन्म से प्यार करता है। किन्तु यदि मौत से बचना है तो जन्म से ही बचना होगा। जहां जन्म है यहां मौत अवश्य है। आत्मा सराग वृत्ति से हट जाए, क्योंकि वीतराग दशा आने के बाद जन्म भी समाप्त हो जाता है और मौत पहले ही मर जाती है। दुक्खें जरा य मच्चू य, सोगो माणावमाणणा। जम्मघाते हता होती, पुष्फधाते अहा फलं ॥ १९ ॥ अर्थ:-दुःख जरा (बुढापा), शोक, मान और अपमान ये सब उसी क्षण समाप्त हो जाते हैं जब जन्म समाप्त हो जाता है। जैसे पुष्प के नष्ट कर देने पर फल स्वतः नष्ट हो जाता है। गुजराती भाषान्तरः દુખ, ઘડપણ, શોક, માન અને અપમાન આ બધું તેજ ક્ષણે નાશ પામી જાય છે કે જ્યારે જન્મને જ છે આવી જાય છે. જેવી રીતે ફૂલને નાશ થતા ફળ આપોઆપ જ નાશ પામે છે. जन्म, मृत्यु, मानापमान सभी दुःख ही है। किन्तु ये जन्म के पैर से बंधे हुए हैं । जन्म के समाप्त होते ही सभी समाप्त हो जाएंगे। पत्थरेणाहतो कीयो, खिप्पं डसह पत्थरं । मिमारि ऊसरं एप्प, सरूपत्ति व मग्गति ॥ २० ॥ तहा बालो दुही वरथु, बाहिर र्णिदती भिसं । दुपचुप्पत्ति-विणासं तु सिगारि व्ध ण पप्पति ॥ २१ ।। अर्थ:-पत्थर से आहत कुसा पत्थर को ही काटने दौडता है 1 किन्तु जब सिंह को बाण लगता है तन वह बाण को छोड़ कर बाण के उत्पत्ति (छुटे हुए) एथल पर झपटता है। इसी प्रकार अज्ञान शील आत्मा कष्ट के आने पर बाहरी वस्तु पर आक्रोश करता है। किन्तु सिंह के सदृश दुःखोत्पत्ति के हेतु को नष्ट करने का प्रयास नहीं करता है। गुजराती भाषान्तर: પથરથી ઘવાયેલ કુતરો પથરને જ બટકું ભરવા દોડે છે. પરંતુ જ્યારે સિંહને બાણ લાગે છે ત્યારે તે બાણને છોડીને બાણ જ્યાંથી છુટયો હોય તેજ જગ્યા પર હુમલો કરે છે. તે જ પ્રમાણે અજ્ઞાનશીલ આત્મા કષ્ટ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदश अध्ययन ८७ આવતાં બહારની વસ્તુઓને જ ઠપકો દે છે, પરંતુ સિંહની જેમ દુઃખની ઉત્પત્તિના અસલ કારણને નષ્ટ કરવા પ્રયત્ન तो नश्री. विश्व के रामस्त पदार्थ कार्य कारण के रूप से विमान है । जब किसी कार्य को समाप्त करना है तो प्रजाशील विचारक उसके कारण को समाप्त करता है। कारण के समाप्त होने पर कार्य अपने आप ही समाप्त हो जाएगा। यदि विष फल नहीं चाहते है तो पहले उसके विषैले घुष को ही समाप्त कर देना होगा । फूल नष्ट होने पर फल नष्ट हो ही जाएगा। यदि पंखे को बंद करना है तो पहले बटन को दबाइए। पंखा खतः बंद हो जाएगा। किन्तु यदि सीधे पंखे को हाथ लगाया तो अंगुली ही कट जाएगी। अतः विचारक वगे कारण और कार्य की मुष्टि को बन्द करने के लिए पहले कारण को रोकता है। कुत्ते को कोई मारता है तो वह मारने वाले को नहीं पन्धर को ही काटता है। किन्तु शेर पर कोई बाण छोड़ता है तो वह वाण पर नहीं बाण चलाने वाले पर झपटता है । ज्ञानी और अज्ञानी की दृष्टि में इतना ही अंतर होता है । अज्ञानी आत्मा पर जब कभी दुःख आता है तब वह बाहरी निमित्चों को दुःख का मूल हेतु मान कर उस पर आक्रोश करता है, मूल पर उसकी दृष्टि आती ही नहीं है । जब कि विवेक शील आत्मा पत्तों पर नहीं मूल पर ही आपात करता है। टीका:-पाषाणेनाहतः किवः पक्षिविशेषः क्षि पाषाण दशति मुगारि:-सिंह उपरं प्राप्य शरउत्पत्तिस्थानमेव मार्गति किवसिंही निरर्थकं कुरुत इति भावः । टीकार्थ:-पत्थर से आहत किव पक्षिविशेष शीघ्र पत्थर को काटता है जब कि सिंह बाण के उत्पति स्थान को खोजता है। किव सिंह निरर्थक करता है, यह भाव है। टीकाकार का कहना है, कि किव पक्षिविशेष का नाम है। जबकि अन्य स्थान पर शिव अर्थात पण अथवा क्लिक अर्थात् कुत्ता प्रहण किया गया है। किव पक्षी को पत्थर मारने का विशेष संबन्ध नहीं आता है । क्योंकि पक्षी तो आइट पाते ही उड जाता है । श्वान वृत्ति प्रसिद्ध है वह पत्थर मारने वाले को नहीं पत्थर को ही काटता है। टीका:-तथा नेनैव प्रकारेण वालो दु:खी दुःखपीडिनो बाहिरं वस्तु भृशं निन्दति, नतु दुःखोत्पत्तिविनाशी प्राप्नोति सिंह इचेति हे पदे मतिरिक्त । गतार्थः । चणं वहि कसाय. य अणं जं या यि दुट्टितं । आमगं च उब्यहता दुक्खं पावंति पीवरं ॥ २२ ॥ अर्थ:-त्रण अग्नि और कषाय तथा और भी जो दुष्ट कार्यों को करके बीमारियों को दोते हुए व्यक्ति महान् दुःख प्राप्त करते है। गुजराती भाषान्तरः કણ, અગ્નિ અને કષાય તથા બીજા પણ દુષ્ટ કાર્યો કરીને બિમારીને વહોરી લેવાવાળી વ્યક્તિ મહાન દુઃખને પ્રાપ્ત કરે છે. सुग्वेच्छु व्यक्ति भोग और वासना में ही आनन्द देखता है। किन्तु वे ही भोग रोग का निमंत्रण बन कर आते हैं। तब वह व्यक्ति शरीर से पुष्ट रह कर भी मनःशाकि और स्वास्थ्यशक्ति से क्षीण होकर दुःख और अशान्ति का अनुभव करता है। टीका:-बण-अग्नि-कषामान फर्ण चामर्ग ति रोग । यद् वाप्य अन्यद् दुस्थितं तदुद्वदन्तोऽनुभवतः पीपरं महद् दुःखं प्राप्नुवन्ति मानुषाः । अर्थ:-व्रण, अग्नि, कषाय और रोग तथा अन्य दुःखों का अनुभव करते हुए मनुष्य महान दुःख को प्राप्त करता है। गुजराती भाषान्तरः વાણુ, અગ્નિ, કથાય અને રામને પ્રાપ્ત કરીને તથા અન્ય દુઃખોનો અનુભવ કરતા મનુષ્ય મહાન દુઃખને प्रास रे छे. वही अणस्स कम्मरस, आमकस्स बणस्स य । णिस्सेस घायिण सेयो, छिण्णो यि रहती दुमो ॥ २३ ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-मासियाई अर्थ:-अपि चार लार की होती है-रण की आग, कर्म की आग, बीमारी की आग और बन की भाग । दुःख की जड संपूर्ण रूप से ही नष्ट करना चाहिए, क्योंकि ऊपर से काट डालने पर भी वृक्ष फिर से उग आता है। गुजराती भाषान्तरः અગ્નિના ચાર પ્રકાર છેઃ બાણની આગ, કર્મની આગ, બિમારીની આગ અને વનની આગ, દુઃખની જડ સંપૂર્ણપણે નાશ કરવી જોઈએ, કારણકે ઉપરથી કાપી નાખવા છતાં વૃક્ષ ફરીથી ઉગી નીકળે છે. चार प्रकार की आग है-ऋण की आग मी एक प्रकार की आग ही है, जो हिमालय में मी मनुष्य को जलाती रहती है। कभी ऋण दाता उसे वचनों की आग से भूनता है। घर में बालक भूख की आग में जलते हैं, दिन-रात मेहनत कर के कुछ कमाता है; वर्ष भर खून का पसीना कर के कमाया गया पैसा सेठ एक ही दिन में ले जाता है । अतः ऋण की आम दूर रह कर भी मनुष्य के तन और मन दोनों को जलाती है। कर्म की आग आत्मा के दिव्य गुणों को भस्म कर डालती है। वही कर्म की आग तो नरक की ज्वाला का हेतु बनती है। वेदना अर्थात् भीमारी की आग मी एक आग है तो वन की मी एक आग है। दुःख की लता को जड मूल से उखाड़ फेंकना चाहिए । क्योंकि आधे काटे हए वृक्ष में से भी नई नई कोंपले निकल पाती हैं। टीका:-बहिस्स ति बढ: ऋगकर्मणः भामकस्स ति रोगस्य व्रणस्य च निःशेषं वातिनां यथासंख्य निवारयितुर्दातुश्चिकित्सकस्य च श्रेय मानन्दो भवति गतमिति वसवादीनि तु कालेन प्रत्यागमिष्यन्ति यथा दुमश्रियोऽपि पुनरारोहति । अर्थ:-अमि, ऋण, कर्म, रोग और व्रण को संपूर्ण नष्ट करने वाले को आनन्द मिलता है और क्रमशः अग्नि बुझाने वाला, अगदाता और विक्रेत्सक को श्रेय मिलता है। यह ठीक है, किन्तु अग्नि आदि समय पा कर पुनः लौट सकते हैं। भासच्छण्णो जहा बण्ही, गूढ कोहो जहा रिपू ।। पाधकम्मं तहा लीणं, दुक्खसंताणसंकडं ॥ २४ ॥ अर्थ:-भस्माच्छादित अनि और निगूट कोधी शत्रु जैसे छिपा घात करता है, उसी प्रकार पाप कर्म में दुःख की परंपस और संकट छिपे रहते हैं। गुजराती भाषान्तरः રાખોડીમાં ઢાંકેલો અગ્નિ અને ક્રોધી શત્રુ જેવી રીતે છૂપે હુમલો કરી શકે છે તે જ પ્રમાણે પાપકર્મમાં દુઃખની પરંપરા અને સંકટ છુપાયેલા રહે છે, प्रत्यक्ष आग से भस्माच्छादित आग अधिक भयंकर होती है। यदि शत्रु के वैष में आता है तो उतना नुरा नहीं होता जितना कि मित्र के वेष में आया हुआ शत्रु । उसका आधात गहरा होता है, क्योंकि मित्र के वेष में आए हुए शत्रु को हम जल्दी से पहचान नहीं सकते । इसी प्रकार पाप जब कटु रूप में आता है तब वह शीघ्र ही पहचाना जा सकता है। किन्तु सुख के रूप में आया हुआ पाप मित्र के रूप में आया हुआ शत्रु है। और दुःख एक चतुर बहुरूपिया है, जो हमेशा सुख के ही रूप में आता है। जनता उसका खागत करती है, किन्तु पीछे से बह दुःखों और संकटों की परंपरा छोड जाता है। टीका:-यथा बलिभस्माच्छनो बा यथा रिपुहक्रोधो धा तथा लीने गूढ़ पापकर्म दुःखसंतानसंकटं भवति । गतार्थः । पत्तिधणस्स पहिस्स, उहामस्स विसस्स य । मिच्छत्ते यावि कम्मरल, दित्ता बुद्धी दुहावहा ॥ २५॥ अर्थः-अग्नि को जब प्रचुर इंधन प्राप्त हो जाता है विष जब उनाम हो जाता है और कर्म जब मिथ्यात्व में प्रवेश करता है तो तीनों प्रचंड हो जाते हैं। इस अभिवृद्धि का परिणाम आत्मा के लिए दुःख रूप ही होता है। गुजराती भाषान्तरः અમને જ્યારે પ્રચર ઈધન (બળતણ ) પ્રાપ્ત થાય છે; વિષ જ્યારે સર્વત્ર (શરીરમાં) ફેલાઈ જાય છે; અને કર્મ જ્યારે મિથ્યાત્વમાં પ્રવેશ કરે છે ત્યારે ત્રણે ઘણું ભયંકર થઈ જાય છે. આવી રીતે તેઓની અભિવૃદ્ધિનું પરિણામ આત્મા માટે દુઃખરૂપ થઈ જાય છે. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदश अध्ययन इंधन प्राप्त अग्नि शीघ्र शान्त नहीं हो सकती । विष जब शरीर के हर एक अवयवों में प्रवेश कर जाता है तब उसको दूर करने की शक्ति न तो वैद्य की पुड़ियाओं में होती है, न डाक्टरों के इंजेक्शनों में । इसी प्रकार कर्म जब मिथ्यात्व मोह के साथ बंधता है तब वह दीर्य स्थिति और अशुभ विपाक को लेकर आता है। शीघ्र ही उरसे मुक्ति पा जाना संभव नहीं। इसीलिए मिटयारव को समस्त पापों में प्रथम स्थान प्राप्त है। हिंसा का पाप निकृष्टतम है, किन्तु फिर भी हिंसा से हिंसा का विश्वास अधिक बुरा होता है । हिंसा का विश्वास मिथ्यात्व है। धूमहीणो य जो वण्ही, छिण्णादाणं च ज अणं । मंताहतं विसं जं ति, धुयं तं खयसिच्छती ॥ २६ ॥ छिण्णादाणं धुर्ष कम्म, झिजते तं तहाहतं । आदित्त-रस्सित्तत्तं व, छिण्णादाणं जहा जलं ।। २७ ।। अर्थ:-धूमहीन अग्नि, आदान अर्धात लेना बन्द कर दिया गया है ऐसा ऋण और मंत्राहत विष जिस प्रकार निश्चित ही समाप्त होजाता है उसी प्रकार जम कर्म का आदान अर्थात् ग्रहण चा आश्रव जब समाप्त हो जाता है तब कर्म भी निर्जरित हो जाता है । जैसे सूर्य की प्रखर किरणों से पानी तप्त होता है, किन्तु जब किरणों का साहचर्य छूटता है तब वह प्रकृ तिस्थ हो कर स्वाभाविक शीतलना प्रान कर लेता है, इसी प्रकार कर्म के संयोग से आत्मा विभाष दशा में आकुल होकर परिभ्रमण करता है। किन्तु कर्म का साहचर्य छूटते ही वह स्वभाव में स्थित हो कर सहज रूप को प्राप्त कर लेता है। गुजराती भाषान्तर :-- ધુમાડાવગરને અગ્નિ, આદાન સ્થત લેવું બંધ કરી દેવામાં આવ્યું છે તેવું ષ્ણુ, અને મંત્રથી નાશ પામેલું ઝેર જેવી રીતે નિશ્ચિત ( અવશ્ય) જે નાશ થઈ જાય છે તે જ પ્રમાણે ક્યારે કર્મનું આદાન અર્થાત્ ગ્રહણ અથવા આશ્રવ જ્યારે સમાપ્ત થઈ જાય છે ત્યારે કર્મ પણ નિર્જરિત થઈ જાયે છે. જેવી રીતે સૂર્યના પ્રખર કિરણોથી પાણી તપી ઊઠે છે પરંતુ જ્યારે કિરણોને સંબંધ છૂટી જાય છે ત્યારે તે હમેશ મુજબનું થઈ સ્વાભાવિક શીતળતા પ્રાપ્ત કરી લે છે, તે જ પ્રમાણે કર્મને સંયોગથી આત્મા વિભાવદશામાં આકુળ થઈને પરિભ્રમણ કરે છે, પરંતુ કર્મનું સાંનિધ્ય (સંબંધ) છૂટતાં જ તે હંમેશ મુજબ (અસલ ૫) નું થઈને સહજ રૂપને પ્રાપ્ત કરી લે છે. जिस आग में से धुआ समाप्त हो जाता है वह आग शीघ्र ही समाप्त हो जाती है। ऋणी यदि ऋण लेना बन्द कर दे फिर यदि वह अल्प मात्रा में भी ऋण चुकाता रहे तो वह ऋण-मुक्त हो जाएगा । इसी प्रकार आत्मा जब कर्म का प्रहाण करना बन्द कर देता है तो वह एक दिन अवश्य ही कर्म-मुक्त हो जाता है । किन्तु उसके लिए आत्मा के साथ कर्म का साइचर्य समान होना चाहिए । पानी जब तक चूल्हे पर रहेगा तब तक बह गर्म होता ही रहेगा। अधवा जब तक सूर्य-किरणों का पानी के साथ संयोग है तब तक पानी की उष्णता दूर नहीं हो सकती है। पानी में शीतलता लाने के लिए उष्णता के बाहरी संयोगों को दूर करना ही होगा । इसी प्रकार आत्मा को खभावस्थ बनाने के लिए विभाव दशा से मोडना होगा। तम्हा उ सव्वदुक्खाणं, कुजा मूलविणासणं । वालग्गाहि व सप्पस्स, विसदोसविणासणं ॥२८॥ अर्थ :-अतः साधक संगी दुःखों के वैसे ही जड मूल को समाप्त करे । जैसे कि सपेरा सौंप के विष-दोष को दूर गुजराती भाषान्तर : તેથી સાધક બધા દુઓની મૂળનો તેવી જ રીતે નાશ કરે, જેવી રીતે સાપનો મદારી સાપના ઝેરની કેથળી) भाजपनदी नछि. . साधक आत्म-शान्ति के लिए अशान्ति के मूल को ही समाप्त करे। साधना के क्षेत्र में शरीर को मारने का महत्त्व नहीं है, मारना ही है तो उन वृत्तियों को मारे, जिनके द्वारा आत्मा अशुभ की ओर जाता है और पाप कर्मों में लिप्त होता है। वही अशान्ति की जट है । सपेरा सौष को नही उसके जहर को निकाल देता है। फिर सर्प एक भयंकर जन्तु नहीं, बल्कि कौडा का एक सुकोमल प्रसाधन हो जाता है। सर्प बुरा नहीं है, बुरा है उसका जहर । सर्प को मारमा मी गलत होगा। इसी १२ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई प्रकार साधक को-शरीर को नहीं-उसके विष को याने वासना को मारना है । अनुचित वृत्ति को मारना है। सोमल विष है, किन्तु उसे मार दिया जाए, अर्थात् पका दिया जाए तो वही अमृत बन जाएगा। इसी प्रकार अशुभ वृति समाप्त हुई तो यहीं स्वर्ग है और यहीं मोक्ष है। म. महावीर की भाषा में कहा जाए तो: भया नई चेयरणी अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा घेणू अप्पा मे नंदणं वर्ण ।। -उत्तरा० अ० २० गा० ३६ मेरी आत्मा ही वैतरणी नदी और कूटशाल्मली वृक्ष (काली सेमल) दोनों ही है। किन्तु भूलो नहीं, कामदुधा धेनु भी मेरी ही आत्मा है। और देवों की रमणीय भूमि नन्दन-वन भी मैं ही हूं। बाहर कहाँ खोज रहे हो? । यदि खोजना है तो अपने आप में खोजो । वहीं सब कुछ है!। एवं से सिद्धे युद्धे । गतार्थम् । मधुररायपि मज्झयण मधुराजर्पिभाषित पंचदशाध्ययनम् - - - - सोरियायण-अर्हतर्षि-भाषित षोडश अध्ययन श्रेष्ठ कौन है ! जिसके पास वैभव है। विशाल अहालिकाओं में सौन्दर्य नाचता है । सौन्दर्य के पायल के झंकार से जिसका मन झंकृत होता रहता है। भारतीय संस्कृति भोग में नहीं, त्याग में विश्वास करती है। उसने भोगियों के नहीं, त्यापियों के सामने मस्तक झुकाया है। जिसका मन और इन्द्रियों पर शासन है वही महान है। पदार्थों का चंचल सौन्दर्य जिसके मन को चलित नहीं मनाता है, वहीं पुरुषोत्तम है । इन्द्रियों का दमन और उसके साधन का प्रस्तुत अध्ययन में निरूपण है। सिज । जस्स खलु भो विसयायारा ण य परिस्सपंति इंदिया वा दवेहिं से खलु उत्तम पुरिसे त्ति सोरियायणेण अरहता इसिणा बुहत । अर्थ:-जिसके इन्द्रियों का वेग द्रचित वस्तु की तरह विषयाचार की ओर नहीं दौडता है वही आत्मा श्रेष्ठ है। इस प्रकार सोरियायण अतिर्षि बोले। गुजराती भाषान्तर: જેના ઈન્દ્રિયોનું ધ્યાન (આકર્ષણ) પ્રવાહી પદાર્થની જેમ વિષયોના ઉપભોગની તરફ દોડતું નથી તે જ આત્મા श्रेष्ठ थे. मे प्रमाणे सोरियाय अतर्षि गोट्या. जो इन्द्रियों का गुलाम है वह दुनियां का गुलाम है। इन्द्रियों पर जय पाने वाला साधक विश्व-विजयी है। पानी का स्वभाव है दलकान की ओर बहना। ऐसे ही इन्द्रियों का स्वभाव है विलय की ओर दौडना । किन्तु जिसके पास ज्ञानाकुश है वह इन्द्रियों पर स्वामित्व पा सकता है। टीका :--यस्य स्खलु भो इन्द्रियाणि विषयानारा न परिवन्ति द्रवैरिव स खलु भवष्युत्तमः पुरुषः । गतार्थः । तं कहमिति? मणुण्णेनु सहेसु सोय विसयपत्तेसु णो सज्जेजा णो रजेजा णो गिज्झेजा णो विणिवायमावजेजा। मणुण्णेसु सद्देसु सोत्तविपयपत्तेसु सन्जमाणे, रजमाणे, गिज्झमाणे सुमणो आसेवमाणे विप्पवहतो पायकम्मस्स आदाणाप भवति । तम्हा मगुण्णासु सद्देसु सोय-बिसय-पत्तेनु णो सज्जेजा, पो रजेजा णो गिझेजा णो सुमपो अण्णे अवि एवं रूबेसु, गंधेसु, रसेसु, फासेसु एवं विवरीएसु णो दूसेजा। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडश अध्ययन अर्थ:-परित्रवण (बहाव) किस प्रकार होता है। इसके उत्तर में अतिर्षि बोलते हैं कि श्रोत्र विषय प्राप्त मनोज्ञ शब्दों में साधक आसक्त न हो, अनुरक्त न हो, और न उन मधुर शब्दावली में गृद्ध ही हो। उन शब्दों के द्वारा साधक अपनी खभाव स्थिति में व्याघात का भी अनुभव न करे । श्रोत्र विषय प्राप्त शब्दों में आसक्ति, विरत्ति और गृद्धता की अनुभूति करता हुआ सुमनशील सुन्दर मन बाला श्रमण मन से उनकी श्रासेवना करता हुआ, उसकी मधुरिमा के रम प्रवाह में बहता हुआ पाप कर्म को ग्रहण करता है। अतः साधक श्रोत्र विषय प्राप्त मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दों में आसक्त-न हो, अनुरक न हो और न उसमें लालची ही हो । इसी प्रकार सुमनशील श्रमण रूप गंध रस और स्पर्श में मन को आकर्षित करने वाले अंश पर रागानुभूति न करे और विपरीत अमनोज्ञ रूपादि पर द्वेष न करे। गुशहाली भाषान्त': તે પરિભ્રવણ (પ્રવાહ) કઈ રીતે થાય છે? તેના જવાબમાં અહર્ષિ ઓલે છે કે કાન તરફ આવેલા મીઠા શબ્દોમાં સાધક આસક્ત ન થાય, અનુરક્ત ન થાય અને એ મધુર શબ્દાવલીમાં પણ મોહિત ન થાય. તે શબ્દો દ્વારા સાધક પોતાના સ્વભાવમાં વ્યાઘાત પડ્યું અનુભવ ન કરે. સાંભળવા આવેલા શબ્દોમાં આસક્તિ, અસુરક્તિ અને લાલચનો અનુભવ કરતા કરતા સુમન શીવ સુન્દર મનવાળા શ્રમણ મનથી તેમાં રસ લેતા તેની મધુરિમાના રસપ્રવાહમાં વહેતા પાપ કર્મોને ગ્રહણ કરે છે, આથી સાધક સાંભળેલા મીઠા અને મધુર શબ્દોમાં આસક્ત ન રહે, અનુરક્ત ન રહે, અને તેમાં લાલચુ પણ ન થાય. એ પ્રમાણે સુજ્ઞ શ્રમણ રૂપ, ગંધ, રસ અને પશેમાં મનને આકર્ષિત કરવાવાળા પદાર્થ ઉપર લોભી બને નહીં તેમજ વિપરીત બદસકલ પર છેષાદિ કરે નહીં, आत्म-साधना में लीन साधक की इन्द्रियों के आकर्षण से परे रहने के लिए संकेत किया गया है । पदार्थों का एक रूप मधुर होता है। पदार्थों का एक रूप मधुर होता है। दूसरा कटु । मन की स्थिति कुछ ऐसी है कि वह मधुर रूप पर आकर्षित होता है और कटु रूप पर वेष-भाव रखता है । यह आसक्ति ही कर्मबन्ध का मूल हेतु है । अन्यथा केवल पदार्थ को देखना और जानना मात्र कर्मबन्ध का हेतु नहीं है, क्योंकि आत्मा ज्ञाता और द्रष्टा है। वही जानने की शक्तिभी रखता है। आत्मा नहीं जानेगा तो क्या पत्थर जानेगा? । ज्ञान कभी भी बन्ध का कारण नहीं हुआ है, किन्तु उस पदार्थ को देखने के बाद यह संकल्प आया-यह सुन्दर है, यह असुन्दर है। इन्ही में रागानुभूति और देषानुभूति के बीज निहित हैं। अतः इन्द्रियाकर्षक वस्तु पर न साधक की अनुरक्ति-हो न विपरीतरूपा पर विरक्ति ही । आत्मा की यह स्थिति बन्ध हीन होगी । टीका:-तद् परिस्रवणं कथमिति पृच्छा । मनोज्ञेषु, शब्देषु, रूपेषु, गंधेषु, रसेषु, स्पर्शेषु श्रोत्र-चक्षु-नांसा-तालुस्वविषयमालेषु न सजेत न रज्येत न गृध्येत नाण्युपपद्यत न विनिधातमापयेत । मनोज्ञेषु चान्दादिषु श्रोत्रादिषिषयं प्रासेषु सजमानो रज्यमानो गृस्यमानोऽध्युपपद्यमानः सुमना सदभिप्रायवानस्तानासेवमानो विप्रवाहसः पापकर्मणो भवस्यादानाय तत्कर्माददातीत्यर्थः । तस्मात तेनु मनोज्ञेषु प्रागुकेषु न सजमानित्यादि न सुमना हत्याधुक्तपापकर्मणा न दुष्येत । गतार्थः । साधक इन्द्रियों को साधे । मारना अलग चीज है और साधना अलग है। घोडे को साधा जाता है मारा नहीं जाता। विपथ-गामी घोडे को मोड कर प्रशस्त पथ की ओर प्रेरित करना ही कुशल बालक का कार्य है। कुशल साधक विपथगामी इन्द्रियों को प्रशस्त पथ की ओर मोडे। मारना है तो मन को मारे । इन्द्रियाँ तो अनेक बार मारी गई हैं। उन्हें मारने से तो कोई मतलब नहीं निकलता है। दुवंता इंदिया पंच, संसाराए सरीरिणं । ते चेव णियमिया संता, णेजाणाए भवति हि ॥१॥ अर्थ:-देहधारियों की दुर्दान्त बनी हुई पांचों इन्द्रियाँ संसार का हेतु बनती हैं। वे ही संवृत होने पर मोक्ष का हेतु बन सकती है। गुजराती भाषान्तर: શરીરી માનવની અજેય બનેલી પાંચ ઇન્દ્રિયો સંસારની હેતુ બને છે. તે તાબે થયા પછી જ મોક્ષનો હેતુ બની શકે છે. इन्द्रियो अपने आप में न मोक्ष का हेतु है, न संसार का। क्योंकि वे तो जड हैं। उनके पीछे रही हुई शुभाशुभ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ इसि - भासिया भावना ही मोक्ष और संसार का हेतु होती है। आत्मा जब इन्द्रियों पर शासन करता है तब इन्द्रियां मोक्ष-हेतुक बनती हैं और जब इन्द्रियां ही आत्मा पर शासन करती हैं तब वे भव-हेतुक होती हैं । दुर्वते इंदिप पंच, रागवोसपरंग मे । कुम्मो विवस अंगाई, सर वेहम्मि साहरे ॥ २ ॥ अर्थ :- राग और द्वेष चेतना में प्रवृत्त पांचों इन्द्रियां दुर्दान्त बनती है। अतः बाहरी आघात की आशंका होते ही जैसे कछुआ अपने अवयवों का संगोपन कर लेता है उसी प्रकार साधक आश्रम की ओर प्रवृत्त इन्द्रियों का संवरण करे 1 गुजराती भाषान्तर : રાગ અને દ્વેષ ચેતનામાં પ્રવૃત્ત થયેલી પાંચ ઇન્દ્રિયો અજેય અને છે. માટે બહારના આઘાતની આશંકા થતાં જ જેવી રીતે કાચો પોતાના અવયવો સંકોચી લે છે તેવી જ રીતે સાધક આશ્રવ (ઉલ્લંધન ) તરફ પ્રવૃત્ત ઈન્દ્રિયોનું સંવરણ કરે. अप्रशस्त पथ की ओर प्रवृत्त इन्द्रियों का साधक किस प्रकार संवरण करे इसका सुन्दर रूपक प्रस्तुत गाथा में है । कछुआ जब तक अपने आप को सुरक्षित मानता है तब तक वह चलता रहता है, किन्तु जब उसे खतरे का अनुभव हुआ वह अपने अवयवों को समेट लेता है। साधक भी ऐसा ही करे । इन्द्रियाँ स्वाध्याय आदि प्रशस्त पथ में जाएं तो उन्हें जाने दे | किन्तु जब वह अप्रशस्त पथ की ओर जाने लगे तो उन्हें अविलम्ब ही संवृत कर ले। वही सरीरमादार जहा जोपण गुंजती । इंदियाणि य जोर य तहा जोगे वियाणसु ॥ ३ ॥ अर्थ :-- जैसे अमि आहार और शरीर को यथास्थान पर जोड़ती है। वैसे ही इन्द्रियां बाहरी पदार्थों को आत्मा से जोड़ती है और योग को सक्रिय बनाती हैं। गुजराती भाषान्तर : જેવી રીતે અગ્નિ, આહાર અને શરીરને પોતપોતાના સ્થાન પર જોડી દે છે, ઈંદ્રિયો બહારના પદાર્થોને આત્મા સાથે જોડે છે, તે જ પ્રમાણે ઈન્દ્રિયો જ યોગને સાંક્રય બનાવે છે. अग्नि के द्वारा पक अन्न शरीर के लिए उपयोगी हो सकता है । अथवा उदरगत अभि खाए हुए भोजन का पाचन कर के शरीर के विभिन्न अवयवों को शक्ति प्रदान करती है। इसी प्रकार इन्द्रियां और योगत्रय अर्थात् मनोयोग, वचनयोग और काययोग पदार्थों को आत्मा तक पहुंचाते हैं । इन्द्रियाँ पदार्थ और आत्मा का योग करती है । परोक्ष ज्ञान युक्त आत्मा पदार्थों को इन्द्रियों के ही माध्यम से जानता है। अतः परोक्ष शान इन्द्रिय सापेक्ष होता है । शब्द-रूपादि-रूप में परिणत द्रव्यों को आत्मा तक पहुंचाने का काम इन्द्रियों का हैं । टीका :- वह्निः परिणाम - तेजः शरीरमाहारं ति आहारेण यथा युनक्ति योगेन कारणेन तथा योगान् विज्ञानीहीन्द्रियाणि तत् प्रयोगश्च युअत इति श्लोकस्योत्तरार्धस्य शंकनीयोऽर्थः । जैसे जठराम आहार को शरीर में परिणत करती है, क्योंकि खाद्य पदार्थ को शरीर के लिए उपयोगी बनाने वाली अमि है इसी प्रकार योगों को सक्रिय बनाने वाली इन्द्रियां हैं। उनके प्रयोगों को वह जोड़ती है। इस पर श्लोक के उत्तरार्ध का अर्थ टीकाकार की दृष्टि में संदेहास्पद है । पर्व से बुद्धे० । गतार्थः । सोरियायण - णामायणं ॥ इति सोरियायण अर्हता- भाषितं वडाध्ययनम् । | Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विलु अर्हतर्षि प्रोक्त सप्तदश अध्ययन - “सा विद्या या विमुक्तये एक ऋषि की पट्ट वाणी विद्या का लक्ष्य बता रही है। जो मानवीय चेतनाओं को बंधन से मुक्ति की ओर ले जाए, अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए, देह की संकीर्णताओं से उपर उठा कर आत्मा के विराट रूप का साक्षात्कार कराए और स्वार्थ, संप्रदाय तथा मिथ्यामिनिवेशों के घेरे को तोडने की पुनीत प्रेरणा दे वही विद्या है । इंग्लिश विचारकों की दृष्टि में ज्ञान का ध्येय है कि The great end of education is to discipline of the mind. विचार शक्ति को विकसित करना ही शिक्षा का महान् उद्देश्य है । विद्या और विज्ञान की व्याख्या आप प्रस्तुत अध्ययन में पाएंगे। इमा विजा महायिजा सब्बविजाण उत्तमा । जं विज साहहत्ताणं सव्वदुक्खाण मुश्चति ॥ १॥ अर्थ:-वह विद्या महाविद्या है और समस्त विद्याओं में श्रेष्ठ है, जिस विद्या की साधना करके आत्मा समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है। गुजराती भाषान्तर: તે વિદ્યા મહાવિદ્યા છે અને સમસ્ત વિવાઓમાં શ્રેષ્ઠ છે, જે વિદ્યાની સાધના કરીને આમાં સમસ્ત દુખોથી મુક્ત થઈ જાય છે. शिक्षा जीवन.मैं नई रोशनी देती है। शिक्षा और साक्षरता में बहुत बड़ा अंतर है । विशाल साहिब राशि को पढ़ लेना केवल साक्षरता है । साक्षरता शिक्षा नही, आशिक्षा का शरीर है। शिक्षा वही है जो मानव को बंधन से मुक्ति की ओर लेजाए । वह मंधन फिर विचार, समाज, प्रान्तीयता और राष्ट्रीयता का ही क्यों न हो बंधन अपने आप में बंधन ही है । वह मानव की बुद्धि, मन और चेतना को सीमित कर देता है । और यही अविधा है। अहंता और समता के क्षुद्र धेरों को तोड कर मानव मन को जो विराट बनाती है वही विद्या है। जो ज्ञान आत्मा की शान्ति-पिपासा को न बुझा सके, उसकी दुःखपरंपरा को समाप्त न कर सके वह शान नहीं अज्ञान है । आत्मा को दुःख से मुक करे वही ज्ञान है । जेण बंधं च मोक्वं च जीवाणं गतिरागति। आयाभावं च जाणाति सा विजा दुक्खमोयणी ॥ २॥ अर्थ:-जिसके द्वारा आत्मा के बन्ध और मोक्ष गति और अगति का परिज्ञान होता है और जिसके द्वारा श्रात्मभाव का अवबोध होता है वही विद्या दुःख से विमुक्त करने में सक्षम है। गुजराती भाषान्तर: જેની દ્વારા અમાના બધ, મોક્ષગતિ અને અગતિનું પરિણામ થાય છે અને જેની દ્વારા આત્મભાવનું જ્ઞાન થાય છે તે જ વિદ્યા દુઃખથી મુક્ત કરવામાં સમર્થ છે. रोटी का सवाल हल करना विद्या का लक्ष्य नहीं है। रोटी की विद्या तो पशु संसार बिना सीखे ही जानता विद्या का लक्ष्य है कि वह मानव को मानव बना दे। दूसरे शब्दों में भात्मा को अपनी पहचान करा दे। जिसके द्वारा आत्मा अपना परिज्ञान कर सकता है वही विद्या विमुक्ति की ओर ले जा सकती है आत्म-भाव का परिज्ञाता जब अपनी शुद्ध स्थिति का अभाव पाता है। तब वह बंधन को महसूस करता है और अगले क्षण मुक्ति की राह लेता है। जिसके द्वारा आत्मा परिश्रम का हेतु शोधता है । वही विद्या दुःख-विमोचक है। टीका :- यया बंध च मोक्षं च जीधानां गत्यागतादात्मभावं च जानाति सा विद्या दुःखमोचनी । इर्य विद्यार भवति महाविद्या भवति सचिधानामुत्तमा, या विद्या साधयित्वा सर्वदुःखेभ्यो मुच्यते । गतार्थः । टीकाकार ने गाथा के क्रम में परिवर्तन किया है। दूसरी के बाद प्रथम गाथा का होना अन्वय की दृष्टि से वे उचित मानते हैं। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-भरसियाई विदुणा अरहता इसिणा दुइतं सम्म रोग-परिणाणं, ततो तस्स विणिच्छितं । रोगोसह परिगणाणं, जोगो रोगतिगिच्छितं ॥ ३ ॥ सम्म कम्मपरिणाणं ततो तस्स विमोक्खणं । कम्म-मोपख-परिणाणं, करणं च विमोक्खणं ॥४॥ अर्थ:-विदु अईनर्षि इस प्रकार कहते हैं, रोग मुक्ति के लिए सर्व प्रथम रोग का परिज्ञान होना चाहिए। तत्पश्चात् उसका निदान हो । साथ ही रोग के औषध की गी पहचान चाहिए। तभी उसके रोग की चिकित्सा संभावित है। यही बात कर्म विमुक्ति के लिए भी है। पहले सम्यक रूप से कर्म का परिज्ञान हो, बाद में उसके विमोक्ष का ज्ञान अपेक्षित है। कर्म और मोक्ष का परिज्ञान और उसका आवरण आत्मा को मुक बना सकता है। गुजराती भाषान्तर:- વિદુ અતિર્ષિ આ પ્રમાણે કહે છે કે રોગથી મુક્ત થવા માટે સર્વ પહેલાં રોગનું પૂર્ણ જ્ઞાન કરી તે પછી તેનું નિદાન થાય. સાથે સાથે રોગનાશક ઔષધના ગુણધર્મનું જ્ઞાન હોવા જોઈએ, ત્યારે જ રોગની ચિકિત્સા કરી શકાય. આ જ વાત કર્મ-વિમુક્તિ માટે પણ અગત્યની છે. પહેલા કર્મનું જ્ઞાન સારી રીતે કરી લેવા જોઈએ. પછી તેનો વિમોક્ષ એટલે છુટકારો મેળવવાનું જ્ઞાન સદંતરરૂપ છે. કર્મ અને મોક્ષનું ઊંડું જ્ઞાન અને તેનું આચરણ આમાને भुशी मनावीशले. रोगोपशमन के लिए सर्व प्रथम यह आवश्यक होगा कि व्यक्ति को इस बात का अनुभव हो, कि मेरे देह में किसी प्रकार का रोग है। उसके बाद दूसरा कदम होगा रोग की पहचान का। रोग है तो वह कौन-सा है ? साथ ही रोग के औषध का भी शान अपेक्षित है। कर्म से विमुक्ति के लिए भी चार चातें आवश्यक हैं । सर्व प्रथम यह विश्वास कि “कर्म है, कर्म से मोक्ष हो सकता है। कर्म और मोक्ष का स्वरूप विज्ञान और उस ज्ञान को जीवन में आचरण । जिसे यही अनुभूति नहीं है कि मैं बीमार है, वह आरोग्य की ओर बढ़ ही कैसे सकता है और जिसे यह अनुभूति नहीं है कि मैं कर्म से बद्ध हूं वह मुक्ति की राह पर कदम नहीं रख सकता है। साथ ही उसे यह भी विश्वास होना चाहिए कि आत्मा और कर्म पृथक हो सकते हैं । यही विश्वास आत्मा को इस दिशा में प्रयक करने के लिए प्रेरित करेगा। बौद्ध दर्शन के चार आर्य सत्य इसी से कुछ मिलते-जुलते हैं। पहला दुःख है और दूसरा दुःख का हेतु है। तीसरा हान दुःखों का अन्त संभव है और हानोपाय दुःखों के अन्त करने का उपाय है। मम्मं ससल्ल-जीचं च, पुरिसं या मोहयातिणं । सलुद्धरणजोगं च, जो जाणइ स सल्लहा ॥५॥ अर्थ:-जो ममत्व और सशल्य जीव को जानता है और दूसरी ओर विगत मोह पुरुष को जानता है और शल्य को नष्ट करने का योग जानता है वहीं शल्य को नष्ट करता है। गुजराती भाषान्तर: જે મર્મસ્થળ અને સશક્ય છવને જાણે છે અને બીજી બાજુ વીતરાગ પુરુષને પણ જાણે છે અને શક્યને નષ્ટ કરવાના ઉપાય જાણે છે તે જ શકયને નષ્ટ કરે છે. साधक एक ओर शस्य युक्त आत्मा को देखता है जिसके अन्तरतम की गुत्थियो दुर्भेद्य हैं जो न अपने प्रति स्पष्ट हो सकता है, न दूसरे के प्रति । दूसरी ओर मोह मुक्त पुरुष को देखता है जिसकी अन्तर्मुत्थियां बुल तुकी हैं, उसका सरल निश्छल वृदय साधक को आकर्षित करता है। साधक उन्हें देख कर अपने अन्तर्मन की गूढ ग्रन्थियों को निकाल कर निष्कपट हृदय से आलोचना करता है। निःशल्य साधक के मन, वचन और कर्म में एक रूमता आती है । शल्य नष्ट करने की साधना है ही निःशल्य बनती है। टीका:-मर्म सशस्यजीवं च पुरुष वा मोहघातिनं गुरुं शल्योद्धरणयोगच यो जानाति स शल्यहा। गतमर्थम् । बंधणं मोयणं चेव तहा फलपरंपर । जीवाण जो विजाणाति, कम्माणं तस कम्महा ॥६॥ अर्थ:-आत्मा के बन्धन और मोक्ष को तथा उसके फल की परंपरा को जो जानता है वही कर्म-श्रृंखला को तोड सकता है। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदश अध्ययन गुजराती भाषान्तर:આ આત્માના બન્ધન અને મોક્ષને તથા તેના ફળની પરંપરાને જે જાણે છે તે જ કર્મની સાંકળ (બેડી) ને તેડી શકે છે, आध्यात्मिक पथ में आगे बढ़ने के लिए बन्ध और मोक्ष का ज्ञान सर्वप्रथम आवश्यक है। वे कौन से हेतु है जिनके द्वारा प्रात्मा क्रमबद्ध होता है। जब तक उन हेतुओं का परिज्ञान नहीं होगा तब तक आत्मा बन्ध से मुक्त नहीं हो सकता। अतः बन्ध क्या है, द्रव्य बंध क्या है और भाव बंध क्या है। इसका परिझान सर्वप्रथम अपेक्षित है । आत्मा का सराग स्पन्दन भाव बंध है जिसके द्वारा कर्म द्रव्य आकर्षित होते हैं । सिद्धान्त चक्रवती आचार्य नेमिचंद्र बोलते हैं. किः बज्झदि कम्म जेण दुचेवणभावेण भावबंधो सो कम्मादपदेसागं अण्णोषण-पवेसण इदरो ध्यसंग्रहमाथा ३२ । आत्मा की बह दुश्वतन परिणति जो कर्म-बन्ध का हे। है वही भाव बंध है। क्योंकि उसी के द्वारा तो द्रव्य कर्म आत्मा से चिपक सकते हैं। कर्म और आत्मप्रदेशों का लोह पिंड में अमि प्रवेशवत् एक दूसरे में प्रवेश होना ही द्रव्य-इंध है। कर्म क्या है ? उसका वैध क्यों होता है ? और उससे मुक्ति कैसे संभव है ? इतना जान लेने के बाद ही आत्मा कर्मों को नष्ट कर सकता है। सावजजोगं णिहिलं विदित्ता तं चैव सम्म परिजाणिऊणं । तीतस्स गिलमुशिाह सावमा तिमाहेश ७॥ अर्थ:-साक्य योग को निखिल रूप में जान कर उसका सम्यक् प्रकार से परिज्ञान कर के अतीत की निन्दा के लिए उपस्थित आत्मा सावध वृति पर श्रद्धा न करे। गुजराती भाषान्तर:-- સાવદ્ય વેગને સંપૂર્ણ રૂપથી જાણીને તેનું જ્ઞાન મેળવી અતીત એટલે બની ગયેલાની નિંદા માટે પ્રાપ્ત થએલા આત્મા સાવદ્ય વૃત્તિ પર શ્રદ્ધા ન કરે. साधक सावध योग का विवेक करे। प्रथम चरण में सावध योग जान लेने के बाद द्वितीय चरण में उसके परिज्ञान के लिए कहा गया है 1 आगम में परिज्ञा के दो प्रकार बताए है-झपरिज्ञा और प्रत्याख्यान-परिशा। ज्ञ-परिज्ञा के द्वारा साधक सावध प्रवृत्ति को जाने और प्रत्याख्यान-परिज्ञा के द्वारा उसका प्रत्याख्यान करे । अतीत काल में जो सावध योग की प्रवृत्ति हुई है उसके लिए आलोचना के लिए तत्पर रहे। क्यों कि वर्तमान सावध योम का ही त्याग हो सकता है। अतीत का नहीं, उसके लिए तो श्वासाप ही संभव है। किन्तु सायद्य वृत्ति की श्रद्धा का त्याग अवश्य करे, क्योंकि हिंसा से हिंसा का विश्वास अधिक पतन करता है। __ सज्झायझाणोवगतो जितप्पा संसारवासं बहुधा विदित्ता। सावज्जबुत्तीकरणे ठितप्पा निरयजवित्ती उ समाहरेज्जा ॥ ८ ॥ अर्थ:-बाध्याय-ध्यानरत जितेन्द्रिय आत्मा संसार वास को सर्व प्रकार से जान कर रिचतारमा सावध प्रवृत्ति के कार्य में निरवद्य वृत्ति को स्वीकार करे। गुजराती भाषान्तर: સ્વાધ્યાય અને ધ્યાનમાં તન્મય, અને ઈન્દ્રિય પર કાબુ મેળવેલ આત્મા સાંસારિક જીવનને દરેક રીતે, જાણીને સ્થિતામા થઈ સાવધ પ્રવૃત્તિના કાર્યમાં નિરવઘ વૃત્તિને સ્વીકારે. स्वाध्याय भी एक तप है। स्वाध्याय के माध्यम से साधक अतीत के महा पुरुषों से मिलता है। उनके दर्शन और चिंतन का साक्षात्कार करता है और वह जीवन और जगत् को पहचानता है। जितेन्द्रिय साधक सब दूर ख का ही अध्ययन करता है। पार्थिव संसार में अपार्थिव का दर्शन करता है। विध-व्यवस्था का सही दर्शन उसे स्वाध्याय के द्वारा ही होता है। किसी पुस्तक या अन्ध का पारायण कर जाना खाध्याय नहीं है। वह तो केयल वाचन ही है। किन्तु उसके साथ जब आत्मा का स्वरूप-दर्शन पाता है विश्व-व्यवस्था का अनुबंध केसे बिगडा? उसके प्रभंजक कौन से तत्व हैं ? इन सबका अनुचिंतन ही स्वाध्याय है। स्वरूप में लीन हो जाना ध्यान है। वृत्तियों को बहिर्मुखता से मोड कर अन्तर्मुख बना देना; आत्म-स्वरूप का साक्षात्कार करना ध्यान है। स्वाध्याय और ध्यान साधक को जोवन और जगत् का सही दर्शन कराते हैं। स्वरूप दर्शन Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - --- - - एसि-भासियाई के बाद साधक बरूप स्थिति में लीन होता है। फिर पररूप पौलिक सौन्दर्य उसकी अन्तर्वृत्ति को चंचल नहीं बना सकता है। खात्म-परिणति में स्थित गाधक सावध प्रवृत्ति से मुक्त हो जाता है । निज रूप में लीन साधक पररूप में जाएगा ही नहीं। फिर हिंसा का वह अक्काश ही कहां? । यही गीता का स्थिति-प्रज्ञ-दर्शन है। जिसकी प्रज्ञा स्थिर हो चुकी है उसे इन्द्रियां और मन की विकारात्मक दशा चलित नहीं कर सकती- यही स्थितप्रज्ञता है। परकीय-सभ्य-सावज-जोग, इह अज दुश्चरियं णायरे। अपरिसेसं णिरचज्जे ठितस्स णो कप्पति, पूणरवि सावज सेवित्तए॥ अर्थ:-परकी इति सभी सदा योग है । यह जान लेने के बाद साधक दुश्चरित्रता का संपूर्ण रूप से वर्जनकरे । निरनद्य स्थिति में स्थित आत्मा को पुनः सावध वृत्ति में जाने की कल्पना तक नहीं करता है । अर्थात ऐसा करना अनुचित है। टीका:--परकीय सर्वसावधयोगं दुश्चरित इदाद्य नाचरेत् । अपरिशेष सर्वथा निरवये घरि स्थितस्य न कल्पते। . पुनरपि सावयं सेवितुम् । गत्तार्थः । एतानि गग्रपयानि विदुनामऋषेर्माधिसमिति रश्यते । पूर्वगतास्तु तृतीयादयः कोकाः शेषभाषितानां कल्पेन तद्विवरणवाद' गधानुबद्धव्याः । ये गदा-पय चिदु भईतर्षि भाषित हैं ऐसा दिखाई देता है, किन्तु पूर्व अध्ययनों में तीसरे या अन्य श्लोकों में शेष रूप में कहे गये श्लोकों के अनुरूप उसका विवरण रहता है । अतः गद्य में उसका अनुबन्ध होता है। निज रूप में सानद्य योग का परित्याग आवश्यक है। प्रस्तुत गाथा में सावद्य योग की परिभाषा दी गई है । आत्मा की खभाव दशा से परे समस्त प्रवृति परकीय है और परकीयता ही सावधता है । आत्मा जब स्वभाव दशा से हट कर परभाष में जाता है वहीं बंध गराग बुत्ति और पर में स्त्र का आभास ही अज्ञान की जद है। आत्मा का स्त्र में स्थित्त होना ही चारित्र है । दर्शन जान चारित्र की परिभाषा देते हुए आचार्च कहते हैं कि दर्शन तस्व-विनिश्चितिः आत्म-विनिच्यने बोधः। स्थितिरात्मनि चावि कुत एतेभ्यो भवति बंधः ।। आचार्य नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती व्यवहार चारित्र और निश्चय चारित्र का भेद बतलाते हुए कहते हैं कि : असुहादो विणिवत्तो सुहे पवित्तिय जाण चरितं । बद समिति गुत्ति स्वं ववहारणया दु जिण भाखियं ॥ द्रव्यसंग्रह गाथा ४५ अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति चारित्र है। जो कि व्यवहार नय से बात समिति और गुप्ति रूप है । ये जिनेश्वर के वचन हैं । आचार्य निश्चय चारित्र का निरूपग करते हुए कहते हैं कि : पहिरमंतर-किरिया-रोहो भव कारणपणासहूँ। पणिस्सजे जिणु तं परमं सम्म चारितं ॥ -द्रध्य-संग्रह गाथा ४६ । भव-परस्पर के हेतु को नष्ट करने के लिए बाध और आभ्यंतर समस्त प्रकार की क्रियाओं का अवरोध ही जिनोक परम सम्यक् चारित्र है। स्वरूप स्थिति प्राप्त साधक सादा वृत्ति से विरक्त हो ही जाएगा। निरखद्य बृत्ति में स्थित आत्मा के लिए पुनः सावध में भाना उसके कल्य की सीमा के बाहर की बात है। आत्मा सावध से निरवद्य की ओर प्रगति करता है, किन्नु पूर्ण निरवद्य स्थिति में पहुंचने के पश्चात् साक्य में नहीं लौट सकता है । पूर्ण निरवद्य स्थिति में पहुँचने के पश्चात् व्रत-मर्यादा भी पीछे छूट जाएगी। किन्तु इसका अर्थ यह न होगा, कि वह अत्रत में ही लौट जाएगा। एक आचार्य आत्मा की स्वरूप स्थिति का चित्रण करते हुए कहते हैं अवतानि परित्यज्य तेषु परिनिष्ठितः। स्वजेत्तामपि संप्राप्य परमं पदमात्मनः॥ -समाधिशतकम् । साधक अव्रत से व्रत में आता है और उस परम स्थिति को पा लेने के बाद व्रत को भी छोड़ देता है। ख स्थिति पा लेने के बाद व्रत का भी धन क्यों है। पर्व से बुद्धे । गताः । इति विदुअर्हतर्षिमोकं सप्तदर्श विद्याअध्ययनम् Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरिसवकृष्ण अर्हतर्षि प्रोक अष्टादश अध्ययन म्वच्छंदी मानव पाप की और कदम बढाता है। विवेक-घटता ही पाप का पहला कदम है। पाप की कल्पना प्रारम्भ * गो - को हो , जो लगे तो बहुत ही सुन्दर लमही, किन्तु अन्त में अफीम की ही तरह कटु होती है। पर काम सुझाना है। प-मणिधर मानव को मृत्यु के गोद में भी शान्ति से नहीं सोने देते हैं। पश्चिमी विचारक चॉल्टर स्कॉट वोलते हैं कि: When we think of dentli, a thousandsins, which we huve trolden as worms beneath our foct, rise up against usus fanning Serponts. “जब हम गृत्यु का स्मरण करते हैं तो हजारों पाप जिन्हें हम कीड़े-मकोड़े की तरह पैरों के नीचे मसल चुके हैं, हमारे विरुद्ध फणिधर राप की मांति खड़े होते हैं। पाप का डंक बिच्छू से अधिक तीखा और सर्प से भी अधिक घातक होता है।" प्रस्तुत अध्ययन में पाप से पीछे हटने की प्रेरणा है। सिद्धि । अयते खलु भो जीवो वज्ज़ समादियति से कहमेतं ? । पाणातिवाएणं जाव परिग्गहेणं अरति-जाघ मिच्छा दंसणसल्लेणं वजे समाइत्ता हत्थच्छेयणाई, पायच्छेयणाई जाव अणुपरियटृति णवमुद्देसगमेणं | प्रश्न:-जो आत्मा पाप का सेवन करता है वह संसार में परिभ्रमण करता है, वह कैसे ? उत्तर:-प्राणातिपात, यावत् परिग्रह और अरति माका मिथ्या-दर्शन-शल्य के द्वारा आत्मा पाप का उपार्जन करता है। पश्चात् उसके प्रतिफल में हस्तछेदन पादछेदनादि नवम उद्देशकवत् असीम दुःखों का अनुभव करता हुआ परिभ्रमण करता है। गुजराती भाषान्तर: પ્રશ્ન:-જે આત્માએ પાપ કર્યું હોય તે સંસારમાં પરિભ્રમણ કરે છે તે કેવી રીતે ? જવાબ:-પ્રાણાતિપાત હિંસાથી લઈને પરિગ્રહ અને અરતિથી લઈને મિયા દર્શન સુધીના શયથી આત્મા પાપનું સંપાદન કરે છે; પાછળથી તેનું ફળ મળે છે, હસ્તનું છેદન, પગનું છેદન વગેરે અસહ્ય દુઃખો તેને અનુભવ કરતો તે સંસારમાં ફર્યા કરે છે, प्याज खाकर इलाइची की डकार लेने की बात मिथ्या हैं। इसी प्रकार पाप करके सुख की कल्पना करना भी मिथ्या ही है। As you sow, so you rean 'जैसा बोओगे वैसा ही काटोगे'। पाप परिणति का अशुभ विषाकोदय प्रस्तुत अध्ययन में बतलाया गया है। प्राणातिपात आदि राभी पाप हैं। अज्ञान के द्वारा मानव बहुत पाप अर्जित कर लेता है । यत्नाविवेक ममृत है तो अयत्ना अविवेक विष है जो कि साधक की साधना को दूषित कर देता है। टीका:-अयते त्यक्तयनः खलु भो जीवः पुरुषो वने हिंसां समादाति । कथमेतत् ? प्राणातिपातादिना रत्यरतिभ्यां मायाया मिथ्यादर्शनशल्येन वनं समादाय इस्तच्छेदनादीनि प्रत्यनुभवमानाः संसार-सागरमनुपरिवर्तन्ते जीवा यथोक्तं नवमाध्ययने । गतार्थम् ।। टीकाकार 'वज' का अर्थ वन करते हैं और वज्र से हिंसा का अभिप्राय निकालते हैं। जो कि उचित नहीं जान पड़ता है। वज्र इन्द्र का एक विशेष आयुध है । इसका दूसरा अर्थ है वन जैसी कठोर खील । -अर्द्धमागधीकोष पृ. ३२४ जे खलु भो जीवे णो वजं समादियति से कहमेत? । वरिसवकण्हेण अरहता इसिणा धुइतं । पाणपतिवातरमणेणं जाव मिच्छादसणसल्लबेरमणं सोइदियणिग्गहेणं णो वजं समजिणित्ता हत्थच्छेयणाई, पायच्छेयणाई जाव दोमणस्साई वीतिवतित्ता सिवमचल-जाव चिटुंति। . प्रश्न:-जो आत्मा पाप का उपार्जन नहीं करता है उसका जीवन कैसा होता है? उत्तर:-वरिसव कृष्ण अतिर्षि बोले-पाप से उपरत आत्मा प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशस्य से विरक्ति श्रोत्रेन्द्रिय विषय के निग्रह के द्वारा पाप का वर्जन करके हम्तच्छेदन पादच्छेदन यावत् दुर्मनता आदि दुःखसमूह को व्यतिक्रान्त करके शिव अचल रूप आत्म-स्थिति को प्राप्त करता है। १'बज' का दूसरा अर्थ है अवद्य पाप, अर्द्धमागधी कोष मा.४.पृ०३२५वज का यही अर्थ यहाँ पर अभिप्रेत है। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई गुजराती भाषान्तर: પ્રશ્ન:-જે આત્મા પાપ કરતો જ નથી તેનું જીવન કેવું હોય છે? જવાબ:-વરિસવ કૃષ્ણ અહેતર્ષિ બોલ્યા-પાપથી વિરકત થએલા આત્મા કાન, નાક અને આંખના વિષયોનો યાગ તેના નિરહદ્રારા કરી શકે છે, અને તેથી હસ્તદન પાદ છેદનથી લઈને માનસિક કલેશ સુધીના દુઃખસમૂહને ઓળગી જઈ મુક્તિના સ્થાનને પ્રાપ્ત કરે છે. पाप से विरक्त मारमा दुख का अन्त करता है । असत् विचार पाप की भूमि है । पुण्य का संबन्ध जैसे हृदय से है वैसे ही पाप का संबन्ध भी हृदय से ही है । असत्संकल्पों से दूर रहने वाला पाप और उसके प्रतिफल से बरता है। टीका:-यः खलु भो जीवो धनं न समाइदाति । कथमेतत् । अस्यास्तु पृछाया उत्तरादवियोजनीयवाद् ऋषिनाम भयत इत्यादि प्रथमवाक्यमनुसारयिव्यं । उत्तरं तु यथा प्राणातिपातादिविरमणेन श्रोत्रादीन्द्रियनिग्रहेण वनं असमर्म इस्लादियदनानि व्यतिपत्य शिवं स्थानमभ्युपगतास्तिष्ठन्ति । मतार्थः । सकुणी संकुप्पघातं च वेरत्तं रज्जुगं तहा। वारिपत्तधरो श्वेव विभागम्मि विहावए ॥१॥ अर्थ:-जैसे शकुनी पक्षी वन-सी तीखी चोंच से फल को छेद देता है । वैर भाव राज्य को विभाजित कर देता है और वारिपत्रधर-कमल पानी को अपने से दूर कर देता है। उसी प्रकार प्रबुद्ध आत्मा कर्म और आत्मा को पृथक कर देता है। अर्थात् पाप परिणति का परित्याग कर के आत्मा को शुद्ध में स्थित कर देता है। गुजराती भाषान्तर: જેમ શકુની પક્ષી વક્ર જેવી તીવણ ચાંચથી ફળને છેદે છે, વેરભાવ રાજ્યના ભાગ પાડી દે છે અને જન્મ પામેલ કમળ, પાણીને પોતાનાથી દૂર કરી દે છે. તેવી જ રીતે પ્રબુદ્ધ આત્મા કર્મ અને આત્માનું પૃથકકરણ કરે છે. અર્થાત્ પાપના પરિણામને ત્યાગ કરી આત્માની શુદ્ધ સ્થિતિમાં સ્થિર કરી દે છે. पहले बताया गया है कि सावधवृत्ति भात्मा की विभाव दशा है और वह भव-परम्परा की हेतु भी है । उसका प्रत्याख्यान करने वाला साधक "पर" से हट कर "ख" में स्थित हो जाता है। यहा तीन उदाहरण देकर उस विषय को स्पष्ट किया गया है। पक्षी अपनी तीक्ष्ण चंचु के द्वारा फल को छेद देता है और कभी कभी गुठली तक को मी मेद देता है। फिर वह उग नहीं सकती । राज्य-नायकों का आपसी वैर विरोध राज्य को टुकडे टुकड़े कर देता है और जैसे कमल जल में पैदा होकर भी जल से अलग रहता है और अपने पत्र पर से जल बिन्दुओं को पृथक् कर देता है, उसी प्रकार प्रबुद्ध आत्मा अनादि कर्म पुद्गलों को आत्मा से पृथक् कर देता है। आचार्य कुमुदेन्दु इसके लिये सुन्दर रूपक देते हुए कहते हैं कि: अन्तः सदेव जिन! यस्य विभाध्यसे स्त्र भन्यः कथं तदपि नाशयसे शरीरम् । एतत् स्वरूपमथ मध्यविवर्तिनो हि, यदविग्रह प्रशमयन्ति महानुभावाः ॥ -कल्याणमंदिरस्तोत्र श्ोक १६ हे ज्योतिर्मय देव| जिस देहन्मंदिर में आप विराजित हैं, फिर भव्यात्मा अपने देह का परित्याग क्यों करते हैं? इसके उत्तर में आचार्य स्वयं बोलते हैं-कि सज्जन पुरुषों का यह कार्य है कि जहां वे रहते हैं, जिनके मध्यस्थ बनते हैं उनका संघर्ष खतम कर देते हैं। अतः अंतःस्थित प्रभु मी आत्मा और शरीर के अनादि संघर्ष को खतम कर देते हैं। साधक आत्मा शरीर और आत्मा का संघर्ष समाप्त कर के निज रूप में आ जाता है। यह निज रूपही जिन रूप है। टीका-शकुनी संचु(कु)प्रघात तथा बारि-पानधरो बरनं रस्तुं व विभज्य विभावयेताम् । गतार्थ प्रोफेसर शुत्रिंग कुछ भिन्न मत रखते हैं। उनका कहना है कि जैसे पक्षी अनुकूलता पा कर ही अपने चंच का उपयोग करता है और पखाली पट्टे तथा रस्सी का उपयोग करता है, उसी प्रकार जो साधक अपने आप को वश में नहीं रखता है, उसे भी शान्ति के लिए प्रबल पुरुषार्थ करना पड़ता है। एवं से सिद्ध बुद्धे । गतार्थः। परिसवणामज्झयणं॥ इति वरिसव-अर्हतर्षिप्रोक्तं अष्टादशाध्ययनम् Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! : आरियान अतर्षिप्रोक्त उन्नीसवाँ अध्ययन आर्य कौन है ? | क्या जिसने आर्य जाति में जन्म लिया है वह आर्य है । यदि ऐसा है तो आर्यत्व केवल खून में ही रह जाएगा। आचार और विचार उससे शून्य रहेंगे ! वस्तुतः जिसके विचारों में आर्यता है, जिसके आचार संस्कारी हैं, वही व्यक्ति 'आर्य' कहने लायक है। यदि आर्यत्व को पैत्रिक मान लिया गया तो साधन का कोई मूल्य न रह जाएगा । आचार की पवित्रता विचारों की पवित्रता पर अवलम्बित है और विचारों की पवित्रता महापुरुषों के सानिध्य से सुरक्षित रहती है। एक कहावत है 'जैसा है संग जैसा रंग' ननुष्य जिसके साथ रहता है वैसा ही बन जाता है। एक पश्चिमी विचारक कहता है कि Tell me with whom thou art found and I will tell thee where thou art मुझे बताइए कि आप के संगी-साथी कौन हैं और में बता दूंगा कि आप कौन उसकी रक्षा के उपाय बताना ही इस अध्याय का उद्देश्य है । सव्वमिगं पुराऽऽरियमासि आरियायणेणं अरहता इसिणा बुझतं । यज्जेज अणारियं भावं, कम्मं शेव अणारिथं । अणारियाणि य मित्राणि आरियत्तमुचट्टिए ॥ १ ॥ अर्थ :- पहले यहां आर्यत्व ही था; इस प्रकार आरियायण अर्हतर्षि बोले । साधक अनार्य विचार और अनार्य आचार का परित्याग करे। इसके लिए अनार्य मित्रों का भी साथ छोड़ दे और आर्यत्व में प्रवेश करने के लिए तैयार हो जाए । गुजराती भाषान्तरः જુના જમાનામાં અહીંયા આર્યત્વ જ હતું, આમ આરિયાયણ અદ્વૈતર્ષિ બોલ્યા. સાધક અનાર્યું વિચાર અને અનાર્ય આચારનો ત્યાગ કરે. આ માટે અનાર્ય મિત્રોનો પણ સાથ છોડી દ્યો અને આર્યત્વમાં પ્રવેશ કરવ 1 માટે તૈયારી કરો. — महाकवि गेटे हैं। आर्यत्व की परिभाषा और भारत पहले भार्य भूमि थी। जिसके विचारों में आर्यत्व था, उसके आचार में आर्यत्व बोलता था। पर आज भारत से आर्यत्व विदा ले रहा है। भारतीय मानस में अनार्य विचार पनप रहे हैं। उसके कर्मों में अनार्यत्व की छाया है। आर्थिक और सामाजिक शान्ति के लिए मानव सब से पहले आर्य बने । अनार्य विचार और अनार्य कर्म का परित्याग करे । इसके लिए साधक अनार्य व्यक्तियों का साथ छोड़ दे। फिर चाहे वे उसके अभिन्न मित्र ही क्यों न हों। यदि साथी अनार्य है तो जीवन में अनार्य वृत्ति प्रवेश अवश्य करेगी। एक कॉलेजियम स्टूडेन्ट यदि मांसाहारी मित्र के साथ लबों में घूमता हैं तो निश्चित ही कुछ दिनों में मुर्गी के अंडों को वेजिटेबल के रूप में उसकी बुद्धि स्वीकार कर लेगी। अतः अनार्यत्व के परिहार के लिए साथी का आर्य होना आवश्यक I आय की परिभाषा देते हुए अर्धमागधी कोश में शतावधानी रत्नचंद्रजी यह लिखते हैं किः "आरात् सर्वहेयधर्मेभ्यो यातः प्राप्तो गुणैरित्यर्थः " । सभी निन्दनीय और अहितकारी कार्यो को छोड कर व्यक्ति और समाज के लिए हितप्रद गुण प्राप्त करना आर्यल है । जिसके द्वारा सामाजिक शान्ति भंग न हो ये समस्त कार्य आर्यत्व की सीमा रेखा के अन्दर आ सकते हैं। गुजराती भाषान्तरः जे जणा अणारिए णिचं कम्मं कुव्वंत अणारिया । अणारिहि य मित्तेहि सीदंति भव सागरे ॥ २ ॥ अर्थ :---जो अनार्थ मानव हैं, वे अनार्य मित्रों के साथ मिल कर हमेशा ही अनार्थ कर्म करते रहते हैं । वे अनार्य जन भव-सागर में दुःखों को प्राप्त करते हैं। गुजराती भाषान्तर : જે અનાર્ય માનવી છે તેઓ અનાર્ય મિત્રોને મળીને હંમેશા અનાર્ય કર્યાં જ કર્યાં કરે છે તેઓ અનાર્યે જન ભવસાગરમાં દુઃખોને પ્રાપ્ત કરે છે. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई जिनका जीवन अनार्य है और जिनके मित्र भी अनार्य ही हैं । अनार्य मित्र की प्रेरणा अनार्य कर्म की ही ओर ले जाएगी। किन्तु ये अनार्य कर्म उन्हें संसार करा के सागर में डाल देते हैं। ___ संधिज्जा आरियं मग, कम्मं जे वा वि आरियं । आरियाणि य गिताणि, सारियलमाहिए। ३ ॥ - अर्थ:-इसी लिए मानव भार्य मार्ग और आर्य कर्म को ग्रहण करे। आर्य साथी की खोज करे और आर्यत्व के लाए तत्पर रहे। गुजराती भाषान्तर: માટે માનવ, આર્યમાર્ગ અને આકર્મને ચાહણ કરે, આર્ય મિત્રની શોધમાં જ રહે અને આત્વ માટે शीश ४३. आर्यत्व के लिए सर्व प्रथम आर्योपदिष्ट आर्यमार्ग की खोज करे। उसके आर्यत्व का परिरक्षण करे, अन्यथा आर्यत्व की ओर में यदि कहीं अनार्यत्व पनप रहा है तो पहले डूबेगा । महामुनि चित्त-चक्रवती सम्राट ब्रह्मदत्त को कहते है कि ठीक है, निदानकृत तप के कारण तुम आर्य मुनिधर्म को नहीं अपना सकते तो आर्यधर्म तो खौकार कर सकते हो। जइ त सि भोगे चइड असत्तो मजाइ कम्माइ करेहि राय । धम्मे हिलो सम्वपयाणुकंपी तो होहिसि देवो इओ विजयी ।-उत्सरा, अ. १३ गा. ३२ सम्राट | यदि तूं भोगों को त्यागने में अपने आप को असमर्थ पा रहा है तो कम से कम आर्यकर्म तो अपना ही लो। धर्म में स्थित हो कर सर्व प्राणिमात्र पर करुणा की धारा बहाओ तो भी तुम देव तो बन ही सकते हो। इसमें आर्य-कर्म की व्याख्या बहुत कुछ आ ही गई है। विश्व के प्राणिओं पर करुणा तथा प्रेम बरसाना उनके साथ आत्मीयता और बन्धुता जोड़ना 'आर्य कम है। जे जणा आरिया णिचं, कम्म कुपति आरियं । आरिपतिय मिसेहि, मति भवसागरा ॥४॥ अर्थ:-जो जन आर्य है और सदेव आर्य मित्रों के ही साथ रहते हैं, तथा आर्य-कर्म करते हैं, वे ही भव-सागर से मुक्त हो सकते हैं। गुजराती भाषान्तर: જે લોકો આર્ય છે અને હંમેશા આચૈમિત્રોના સમાગમમાં જ રહે છે તથા આકર્મ કરે છે, તેઓ જ ભવસાગરથી મુક્ત થઈ શકે છે. एक कहावत है कि "जैसा संग वैसा रेग"। इसी को किसी कवि ने कहा है: "कदली सीप भुजंग मुख, स्वाति एक । गुन तीन । जैसी संगति बैठिए तैसाई गुन दीन' । खाति नक्षत्र का जल यदि केले का संग पाता है तो कपूर बनता है, यदि वह सीप में गिरता है ती मोती होता है और वही जल बिन्दु जब सर्प का साहचर्य पाता है तब विष का रूप पाकर प्राण घातक बन जाता है। कोयले के व्यापारी के हाथ काले हमेशा रहते हैं। इसके विपरीत अतारी के हाथ हमेशा खुशबू से महकते रहते हैं। पानी जब दूध का साथ करता है तो उसकी कीमत बढ़ जाती है। नदी की जल धारा से मिला हुआ तिनका सागर से जाकर मिल जाता है। इसी प्रकार महापुरुषों का साहचर्य पाने वाला परमात्मा से जा मिलता है। हजारों शिक्षा की अपेक्षा एक दलील श्रेष्ठ है, हजारों दलील की अपेक्षा एक दृष्टान्त दिल में जा बैठता है, किन्तु महा पुरुषों का संग जीवन को बदलने के लिए हजारों दृष्टान्तों से भी अधिक सक्षम है। आरियं गाणं साहू, आरियं साहु दसणं । आरियं चरणं साह, तम्हा सेवय पारिय॥५॥ अर्थ:-आर्य का ज्ञान श्रेष्ठ है, आर्य का दर्शन श्रेष्ठ है और आर्य का चरित्र श्रेष्ठ है । अत एव सदैव आर्य की ही उपासना करनी चाहिए। गुजराती भाषान्तर: આનું જ્ઞાન શ્રેષ્ઠ છે આર્યનું દર્શન શ્રેષ્ઠ છે, અને આર્યનું ચારિત્ર કોણ છે, તેથી હંમેશા આર્યની જ ઉપાસના કરવી જોઈએ. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अध्ययन १०१ जिस ज्ञान में आर्य है वही सम्यक् ज्ञान है, जिस दर्शन में आर्यत्व है वही सम्यक् दर्शन है और जिस आचरण में आर्यत्व है वही सम्यक् आचरण है। 'आर्य' शब्द के प्राकृत में दो रूप मिलते हैं। पहला 'अज' और दूसरा है 'आरिय' आगम में 'अज' शब्द का बहुतायत से प्रयोग हुआ है। साधु के लिए भी 'अज' शब्द का व्यवहार हुआ हैं । अजो समणे भगवं महावीरे बहुये समणे निग्गंथे इ निग्गंधीओ व आममंसेत्ता एवं वयासी ।-स्थानांग; उपासक दशांग अ. २ महावीर भ्रमण निर्प्रन्थों को आर्य शब्दों से संबोधित करते हैं। आचार्य के लिए भी 'अज' शब्द बहुतायत से प्रयुक्त हुआ है। L अम सुम्मे समोसटिए । -ह. भु. २ अ. १ । बाद के आचार्यों के लिए भी 'अज' शब्द काफी समय तक प्रयुक्त होता रहा है। अब संडिक, अज मद्दागिरी, अज वर आदि अनेक आचार्यों के नाम के आगे भी यही 'अज' शब्द जुड़ा हुआ मिलता है। वहीं आर्यत्व यहां अपेक्षित है। टीका :- किं रूपं तु तदार्यमिति भायं साधु ज्ञानादित्रयं तस्मादार्थ सेवस्य । गतार्थम् । एवं से सिद्धे बुद्धे णो इत्थं पुणरवि त्र्यं आगच्छति ति बेमि । गतार्थः । आरियाणज्यणं ऋषभाषितेषुआरियायण- अर्ह तर्षिप्रोक्तं एकोनविंशतितममध्ययनम् उत्कल वा द अतर्षि प्रोक्त वीसवाँ अध्ययन भारतीय दर्शन में कुछ दार्शनिक जडाद्वैतवारी है। जिनका विश्वास है कि विश्व में केवल जड तत्व ही काम कर रहा है। ये दर्शन कार प्रत्यक्ष वादी होते जीवन और जगत् का रहस्य खोजने चले । स्थूल आँखें कह उठीं कि जो कुछ सामने है वही सब कुछ है । स्थूल देह ही काम कर रहा है। इसके अतिरिक्त कहीं भी आत्म लक्ष्य अवभाषित नहीं हो रहा है। अतः वे देवात्मवादी ही रह गए हैं। देह के अतिरिक्त कोई आत्म-तत्व है ऐसा उनकी बुद्धि स्वीकार ही न कर सकी है। यह देहात्मबाद आत्म-तत्त्व का उच्छेद करता है । उसके विभिन्न रूप है । कोई अल्प रूप में तो कोई संपूर्ण रूप में आत्म तत्व का स्वीकार करता है। यही उत्कट बाद है । प्रस्तुत अध्याय देहात्म वादियों की कहानी कहता है । सिद्धि | पंच उकला पत्रश्वा तं जहा-१ दंडुकले २ रजुकले ३ तेयुकले ४ लुकले ५ सबुकले | अर्थ :- पांच प्रकार के उत्कल अर्थात् धर्म रहित चोर बतलाए गए हैं। दंड उत्कल, रज्जु उत्कल स्तेन उत्कल, देश उत्कल और सर्वं उत्कल । गुजराती भाषान्तर: પાંચ પ્રકારના ઉત્કલ એટલે ધર્મ વગરના ચોર કહેવામાં આવ્યા છે. દંડ ઉત્કલ, રજ્જુ ઉત્કલ, તૅન ઉલ દેશ ઉત્કલ, અને સર્વ ઉત્કલ. स्थानांग सूत्र में पांच उत्कलों का निरूपण आता है। पंथ उक्ला पण्णता से अड्डा दंडकले रजुले ० । ठा० सू० अ० ५ ० ३ । प्रोफेसर झुनिंग लिखते हैं कि यह संपूर्ण प्रकरण हेतुपूर्वक नहीं है । अतः असंगत लगता है। क्यों कि उसमें न तो ऋषि का नामोल्लेख है और न सुद्रालेख उद्देश्य ही बतलाया गया है। साथ ही जो भौतिक बाद यहां पर प्रतिपादित किए Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૨ इसि-आसियाई गए जब तक उनके परित्याग का सूचना नहीं किया जाता तब तक प्रस्तुत सूत्र में मूलभूत दृष्टि के साथ सामंजस्य नहीं बैठ सकता है। स्थानांग सूत्र में पंच उत्कलों का नामोटेख मिलता है। वहां पर उसका विस्तार नहीं है और न ऐसी परम्परा ही है। किन्तु टीकाकार मलयगिरि परम्परा के अभाव में उसके भावार्थ से इतना खल्प परिचय रखते हैं कि उत्कलति के साथ उत्कल को प्रस्तुत करते हैं । और बुद्धियति तथा रज का रैम के साथ फिर से लिखते हैं। जो यथार्थतः कहा गया है वह निःसंदेह उत्कल है। टीका:- उत्कटाः पंच प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-दंदोत्कटो रजस्कटः स्तेनोरकटः देसोत्कटः सर्वोत्कटः । गतार्थः । से कि त दंडकले । दंडकले नाम जेणं दंउदिटुं तेणं आदिलमज्झवसाणाणं पण्णवणाए समुदय मेसाभिधाण णस्थि सरीरातो परंजीयोसि भयगतियोच्छेय वदति, से तं दंडकले। अर्थ :-प्रश्न:-हे भगवन् । दंड तत्कट किसे कहते है। उत्तर:-दंड-उत्कट उसे कहते है जिसके द्वारा आदि, मध्य और अन्त में रहे हुओं की प्ररूपणा अर्थात् निरूपण की जाती है। यह समुदय मात्र अमिधान है शरीर से भिन कोई आत्मा नहीं है। इस प्रकार जो भव-परंपरा के उच्छेद की बात कहता है वह दंडोत्कट है। प्रश्न:- सन् ! नेपामा भावे छ ? ઉત્તર:–ડ ઉત્કલ તેને કહે છે જેનાથી પૂર્વ, મધ્ય અને અન્તમાં રહેલાનું નિસ્પણ કરવામાં આવે છે. આ સમુદાયાત્મક નામ છે. શરીરથી કોઈ બીજે આત્મા નથી. આ પ્રકારે જે ભવપરંપરાના નાશની વાતો કરે છે તે ડોસ્કલ છે. देवात्म वादी दर्शनकार देह में ही आत्मा का अस्तित्व मानते हैं। उससे परे नहीं । जीवन क्या है? इसके उगर में वे यही कहते हैं कि मानव | तूं कुछ नहीं पंच भूतों का समुदाय मात्र है । विराट् सागर ने कुछ जल कण दिए, अग्नि तत्व ने तुझे ऊष्मा दी, वायु ने तुझे प्राण दिये, वनस्पति तेरा आहार है, आकाश तेरा वितान है और पृथ्वी तेरी शय्या है। यही सब मिल कर तूं है। इससे परे तेरा कुछ अस्तित्व नहीं है। देह के विकास के साथ तेरा विकास है और देह के बिनाश के साथ तेरा बिनाश है। देह के भस्म होने के बाद कौन है? क्या है। इसे आज तक कोई पता नहीं पाया है। शास्त्रों के नाम से जो कुछ लिख दिया गया है वे रंगीन कल्पना के महल है। खप्न के सुनहरे महलों से अधिक उनमें सच्चाई नहीं है । और ताश के महल से अधिक उनमें स्थिरता नहीं है। खाओ पियो और मौज करो। चार्वाकदर्शनकार की वाणी बोलती है: "यावजी सुखं जीवेत् मणं कृत्वा घृतं पिबेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमन कुतः" । - "जब तक जीओ तब तक सुख से जीओ" इस में किसी के दो मत नहीं हो सकते । कोई भी दर्शनकार यह नहीं कहता है कि रोते रोते जीवन बिताओ। किन्तु किसी ने चार्वाक दर्शनकार से यह पूछा, कि सब कोई सुख से ही जीना याइता है, किन्तु यह कैसे संभव है ? पेट में तो चूहे कृदे और सुख की छह में लेटे रहें 1। उसने कहा कि ऋष्ण लाओ और घी पिओ।" य मी ठीक है, पर ऋणदाता मांगने आएगा तो? "उसको उत्तर देगी तुम्हारी लाठी; घी खा पीकर पुष्ट बनो और जो पैसा मांगने आवे तो उससे लाठी से बात करो। दुबारा फिर कभी वह तुम्हारी तरफ देखेगा भी नहीं।" यह तो ठीक है, यहो पर तो साठी फैसला कर देगी । पर एक दिन जीवन-लीला समाप्त होने पर जब हम रवाना होंगे तब कौन फैसला करने आएगा। चार्वाक प्राचार्य बोले कि बस, यही तो तुम्हारा अज्ञान है । कैसा परलोक और कैसी दूसरी दुनियो। । सब झूठे सपने हैं।। छास्तव में देह की राख बनने के साथ देही की भी राख बन जाती है। फिर कौन आता है और कौन जाता है । यह देहात्म-वाद ही है । जैन दर्शन इसे तज्जीव तच्छरीर वाद के नाम से पहचानता है। राजा प्रदेशी पूर्व जीवन में इसी वाद में विश्वास करता था। यहां इसी देहात्म-दाद का निरूपण है । कुछ दार्शनिक दंड के दृष्टान्त से देहात्म-वाद से प्रतिपादित करते हैं। सति पंच महभूता इह मेगेसि आहिता । पुढकी आऊय तेऊ य तहा वाउ मागास पंचमा। एए पंचमहन्भूया सेम्भो एगोत्ति आहिया । अह सेसि विणाग विणासो होह देहिणो । सूय. शु. १ अध्ययन १ गाथा १५ । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धीसवाँ अध्ययन जैसे दंड के आदि मध्य और अन्त है, इसी प्रकार शरीर की आदि है, मध्म है और अन्त है । अथवा दंड के आदि मध्य और अन्त में रही हुई प्रन्थियौँ ही उसके विकास की हेतु है । इसी प्रकार शरीर के आवि मध्य और अन्त में रही हुई विशेष प्रन्थियाँ ही उसके विकास की हेतु हैं। इसके अतिरिक्त और कोई तय नहीं है। इस प्रकार देह को ही सब कुछ मान लेने पर भव-परम्परा का स्वतः उच्छेद हो जाता है। क्योंकि देह हमारी आंखोंके सामने ही चिता में भस्म हो जाती है । उससे परे दूसरा कोई तत्व नहीं है। फिर शुभाशुभ कर्म जैसी कोई वस्तु नहीं रहेगी। आत्म-तत्व को अस्वीकार कर ही पुग्य, पाप और साधनाद समस्त किया एक विना की शून्य हो जाती है। उसका कोई मूल्य ही नहीं रह जाता है । इसीलिये देहात्मवाद समस्त अदृष्ट तत्वों को मानने से इन्कार करता है। टीका:-इंडोस्कटो नाम यो दंष्टान्नाच-मध्या-चसानानां प्रज्ञापनया समुदयमानं शरीरमित्येताभ्यभिधानानि क्याहरन् नास्ति शरीरात् परंजीयेस्येतेन प्रवादेन च भवगतिव्यवच्छेदं वदति । गतार्थः । प्रोफेसर शुचिंग लिखते हैं कि जो लकडी का दृष्टान्त देता है, लकडी का आरम्भ मध्य और अन्त बतलाता है, वह केवल समुदय मात्र है बह शरीर में आत्मा को भिन्न नहीं मानता है। अतः नष्ट जन्म रूप में पुनर्जन्म के व्यवच्छेद का प्रतिपादन करता है। से किं तं रजुकले ? । रजुक्कले णाम जे णं रजुदिटुंतेणं समुदयमेत्तपण्णायणा | पंचम भूत-खंडमेत्तभिधाणाई; संसारसंसतीवोच्छेयं वदति, से तं रज्जुकले ॥२॥ अर्थः-प्रश्नः रजूरकल क्या है। उत्तर:-रजत्कल बह है जिसके द्वारा जो रज के दृष्टान्त से समुदय मात्र की प्ररूपणा करता है। यह जीवन पंचमहाभूतों के स्कन्ध का समूह मात्र है। इस प्रकार जो संसार संमृति परंपरा का उच्छेद करता है वह रज्जुत्कट है। प्रश्न:-२ शुंछ ? ઉત્તર:–૨ાજીકલ એ છે. જેના મારફત રજાના દાત્તથી સમૃદય માત્રની પ્રરૂપણાં કરે છે આ જીવન પાંચ મહાભૂતોના સ્કલ્પને સમુહ છે, આ રીતે જે સંસાર પરંપરાનો ઉછેર કરે છે. તે જિજૂઉત્કલ છે. कुछ दार्शनिक आत्मवाद के प्रतिपादन के लिए रजु का उपमान दिया करते हैं । रजु रस्सी क्या है ? धागों का समूह ही रज है। इसके अतिरिक्त रस्सी का अस्तित्व ही कहां है। इसी प्रकार जीवन क्या है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पंच महाभूतों का समुदय (समूह) ही जीवन है । जब तक ये समवेत है तब तक ही जीवन है । घडी के छोटे बडे सभी पुर्जे मिल कर चलते हैं तभी तक कहा जाता है कि घही चलती है । उसमें से एक नन्ही-सी खील भी निकल जाती है तो घडी बन्द हो जाती है । इस प्रकार यह उत्कट वादी संसार संसृति का उच्छेद करता है। किन्तु उसके सामने हमारा यह तर्क है कि पंच महाभूत हैं, तभी तक जीवन है । तो मृत शरीर में कौन-सा तत्त्व कम हो गया है। यह क्यों नहीं खाता, क्यों नहीं बोलता ? आप कहेंगे कि वायु तल नहीं है, तो पंप से हवा भर दीजिए: वायु है फिर तो वासप्रक्रिया चालू हो जानी चाहिए । यदि आप कहते हैं, कि तेज तत्व का अभाव हो मया है तो बिजली का करेट छोड दीजिए। फिर तो उसे चल देना चाहिए 1 बिजली के करंट से शव का चलना तो दूर रहा बह करवट भी नहीं बदलेगा। बिजली उसे जला भले ही इाले, पर उसमें जीवन नहीं डाल सकती है। फिर कौन मर गया? कौन-सा तत्व निकल गया जिसके अभाव में आप उसे मृत घोषित करते हैं । शरीर के रूप में पृथ्वी तत्व उपस्थित है, पानी है ही, आकाश सर्वव्यापी है, फिर अभाव किस चीज का है? आप कहेंगे कि वह सूक्ष्म प्राण वायु चला गया, जो कि समस्त जीवन शक्ति का केन्द्र या तो आप जिसे सूक्ष्म प्राण वायु मानते हैं वही हमारी दृष्टि से अतीन्द्रिय आत्मा है। जिसके अभाव में जीवन की क्रिया बन्द हो जाती है। पर देहात्म-बादी इस मध्यान्ह के सूर्य की भांति चमकते हुए सत्य को स्वीकारने से इन्कार कर देते हैं। टीका:-रज्जूरकटो नाम रज्जुस्याम्तेन समुदयमानशरीरप्रज्ञपनया पंचमहाभूतस्कन्धमानं शरीरमित्येताम्यभिधानानि व्याहरन् संसारसंसृतिष्यबस्छेदं पदति । गतार्थः । · · से कि त तेणुकले ? । सेणुक्कले णाम से णं अण्णसत्यदिटुंतगाहेहिं सपाखुभावणाणिरए "मम से पत"मिति परकरुणच्छेदं चदति, से तं तेणुकले। अर्थ :-प्रश्नः भगवन् । तेणुकूल स्नोत्कट किसे कहते हैं । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस - भासियाई उत्तर :- स्नोस्कट उसे कहते हैं, कि जिसके द्वारा अन्य शास्त्रों की दृष्टान्त गाथाओं से जो अपने पक्ष की उद्भावना में निरत रहता है। शास्त्र मेरे ऐसा कह कर दूसरे की करुणा को नष्ट करने वाली बात कहता है वहा स्टेनोत्कट कहलाता है । २०४ गुजराती भाषान्तर : प्रश्नः - भगवन् । तेस्तेनोट होने थे ? ઉત્તર:—સ્તનોત્કટ તેને કહે છે કે જેનાથી ખીન્ત શાસ્ત્રોની દ્રષ્ટાન્તગાથાઓથી જે પોતાના પક્ષના પ્રતિપાદનમાં હંમેશા તત્ત્પર રહે છે. આ શાસ્ત્ર મારાં છે આમ કહીને આજની કાને, નાશ કરનારી વાત કહે છે. તે સ્તનોત્કટ કહેવાય છે. दूसरे की वस्तु का अपहरण स्तेनवृष्टि अर्थात् चोरी है। चोरी वस्तु की ही नहीं विचारों की भी होती है। दूसरे के साहित्य को अपने नाम से प्रकाशित कर देना यदि साहित्यिक चोरी है तो दूसरे के विचारों को तोड़-मरोड़ कर रखने, उसके वचनों का गलत आशय निकालना भी एक प्रकार की चोरी ही है। कुछ देहात्मवादी व्यक्ति दूसरों के सिद्धान्तों और गाथाओं को विकृत रूप में लेकर अपने सिद्धान्तों की पुष्टि करना चाहते हैं। यह सब भोली जनता को भुलावे में डालने के तरीके हैं। तुम्हारे मुनि भी तो ऐसा कह कर विचारकों के विचारों को गलत रूप में रखते हैं। यह भी एक प्रकार की चोरी ही है । जिन शास्त्रों से दूसरों के प्रति करुणा भाव समाप्त हो जाता है, हृदय से कोमलता के अंकुर मिट जाते हैं उन शास्त्रों को अपना कहना स्वेनोत्कट है। देहात्मबाद अपने मिथ्या सिद्धान्तों के प्रतिपादन के लिए करुणा शील महापुरुषों के वचनों का उपयोग करता है। सैतान भी अपना काम बनाने के लिए शास्त्रों की दुहाई देता है। साथ ही देहात्मबाद कोमलता के अंकुर को समाप्त कर देता है। क्योंकि आत्मा के अस्तित्व के सद्भाव में अहिंसा और दया का सद्भाव हैं। टीका :- स्तेनोको नाम यो अन्यशास्त्रष्टान्तमाह्मस्वपक्षसाचनानिरतो ममैरादिति व्याहरन् करुणच्छेदम् क्षति । गतार्थः । प्रोफेसर शुविंग मिन्न मत रखते हैं तीसरा उत्कट पैसे व्याज से रखने वाला है। अपना दृष्टिबिन्दु दृष्टान्त के साथ भार पूर्वक प्रस्तुत करना उसे प्रिय लगता है। दूसरे के मूल ग्रन्थों में से कुछ लेता है उसके लिए गर्वोकि कर सम भाव का उच्छेद करता है । प्रश्नः - से किं तं देसुकले ? | उत्तरः- देसुक्कले णामं जेणं अत्थिन एस इति सिद्धे जीवस्स अकसादिपहिं गाहेहिं देसुच्छेयं वदति, से तं देसुक्कले । अर्थ :- प्रश्नः - प्रमो1 देशोत्कट क्या है ? उत्तर :-- देशोत्कट वह कहा जाता है जो आत्मा के अस्तित्व को मान कर भी आत्मा को अकर्ता आदि बताता है। वह आत्मा के एक देश का उच्छेद करता है, वह देशोत्कट है । गुजराती भाषान्तर: प्रश्न:---भगवन् ! हेथोस्ट छ ? ઉત્તર:-દેશોડ્કટ તેને કહે છે. જે આત્માના અસ્તિત્વને માનીને આત્માને અકર્તા માને છે તે આત્માના એક દેશનો નાશ કરે છે તે દેશોદ્ર છે. कुछ दार्शनिक आत्मा का अस्तित्व तो स्वीकार करते हैं, किन्तु उसके स्वरूप के संबन्ध में मतभेद रखते हैं। आत्मा को मानते हुए भी सांख्य दर्शन उसे कर्ता नहीं मानता है । वह आत्मा को नहीं प्रकृति को कर्ता मानता है । यद्यपि जैनदर्शन भी शुद्ध निश्वय दृष्टि के अनुसार आत्मा को पुद्गलादि का कर्ता नहीं मानता है। फिर निश्चय दृष्टि भी स्वभाव परिणति का तो कर्ता मानती है। सांख्य दर्शन आत्मा के भोक्तृत्व रूप को तो स्वीकार करता है किन्तु उसके कर्तृत्व रूप को अस्वीकार करता है। यह देशोत्कट कहलाता I १] अमूर्तश्वतन भोगी नित्यः सर्वगतोऽक्रियः । अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म आत्मा कपिलदर्शने । T Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ atest अध्ययन १०५ टीका :- देशो को नाम यो अस्ति न्वेष जीवेति सिद्धे सत्यकत्रदिकै ग्रहैर्जीवस्य देशोच्छेदमपूर्णच्छेदं वा वदति । गतार्थः । प्रोफेसर शूविंग लिखते हैं, कि चतुर्थी उत्कट उधार ली हुई दलीलों से आत्मा के अस्तित्व के लिए संघर्ष करता है । शरीर से भिन्न आत्मा का अस्तित्व सिद्ध हो जाने पर भी उसके रामस्त गुणों को स्वीकार नहीं करता । प्रश्नः - से किं तं सब्बुकले ? | उत्तर :---सबुकले णामं जेणं सव्वतो सव्वसंभवाभावा णो तयं सव्वतो सव्वहा सव्वकालं च पत्थिति सम्बध से सम्बुले । अर्थ :- प्रश्न :- भगवन् ! सर्वोत्कट क्या है ? उत्तर :-- सर्वोत्कट उसे कहते हैं जो समस्त पदार्थ सार्थ को सर्वथा ही असल मानता है । सर्वथा सर्वकाल में पदार्थ सार्थ का अभाव हैं। इस प्रकार सर्व विच्छेद की बात करता है वह सर्वोत्कट है । गुजराती भाषान्तर: પ્રશ્ન:— ભગવન્ ! સર્વોત્કટ શું છે ? ઉત્તર:સર્વોત્કટ તેને કહે છે કે જે બધા પદાર્થોને હંમેશા અસત્ય માને છે. હંમેશ સર્વકાલમાં પદાર્થોનો અભાવ છે. આ રીતે અષ્ઠી વિચ્છેદની વાતો કરે છે તે સર્વોત્કટ છે कुछ दार्शनिक सर्वोच्छेद-वादी होते हैं। वे आत्मा के गुण धर्मों में से एक को भी नहीं स्वीकार करते। जिस व्यक्ति को आत्मा पर विश्वास नहीं है वह परमात्मा पर भी विश्वास नहीं कर सकता है, क्योंकि आध्यात्मिक साधना का प्रथम सोपान आत्म-तत्र की स्वीकृति है। जिसे यह भी पता नहीं कि मैं कौन हूं, मेरा स्वरूप क्या है, वह साधना के क्षेत्र में क्या गति करेगा। पर सर्वोच्छेद-वारी आत्मा और उसके समस्त पर्यायों के अस्तित्व से इनकार करता है। उपायतला अहे केसग्गमत्वका एस आता पजवे कलिणे तय परियंते जीत्रे, एस जीवे जीवति । एतं तं जीवितं भवति, से जहा णामते दढेसु बीएसु ण पुणो अंकुरूप्पत्ती भवति एवमेत्र वडे सरीरेण पुणो सरीरुत्पत्ती भवति । अर्थ :- ऊपर से पद तल तक और नीचे से मस्तक के केशाम तक आत्मा के पर्याय है। शरीर की त्वचा पर्यन्त जीव है । यह जीव का जीवन है । उन को जीवित कहा जाता हैं । जैसे जले हुए बीजों में फिर से अंकुर नहीं निकल सकते, इसी प्रकार शरीर के नष्ट हो जाने पर पुनः शरीर की उत्पत्ति नहीं हो सकती हैं । गुजराती भाषान्तर : ) ઉપરથી પગસુધી અને નીચેથી માથાના દેશાય સુધી આત્માનાં પર્યાય છે. શરીરની ત્વચા ( ચામડી) સુધી જીવ છે, આ જીવનું જીવન છે. તેને વિત ( ચેતન કહેવામાં આવે છે, જેમ બળેલાં બીજોમાં ફરીથી અંકુરી નથી નીકળી શકતા, તેવીજ રીતે શરીરનો નાશ થઈ જવાથી ફરીથી શરીરની ઉત્પત્તી નથી થઈ શકતી. इसी नाविक बाद की विशेष व्याख्या दी गई है। अनात्मवादी दार्शनिक स्थूलप्राही होता है। वह यह कहता है। कि पद तल से कैशाल तक आत्मा है यहीं जीव है। देह के अतिरिक्त आत्मा नाम की कोई दूसरी स्वतंत्र वस्तु भी है ऐसा वह नहीं स्वीकार करता हैं । देहात्मवादियों के अनुसार भव- परम्परा संभव नहीं हैं। इसका हेतु वे इस रूप में देते हैं । बीज से वृक्ष पैदा होता है यह निश्चित सिद्धान्त है, किन्तु जब बीज ही जल गया तो अंकुर कैसे फूटेंगे? इसी प्रकार अगले जन्म का बीज शरीर है। जब शरीर ही जल गया तो अगला जन्म कैसे संभव है ! । देह को बीज मानने वाले कुछ दार्शनिक ऐसा भी मानते हैं कि पुरुष मर कर पुरुष होता है और स्त्री मर कर स्त्री होती है। 'जैसा बीज वैसा फल यह ध्रुव सिद्धान्त । पंचम गणधर सुधर्म स्वामी भगवान् महावीर के परिचय में आने के पूर्व इसी फिलॉसॉफी में विश्वास रखते थे। भगवान् महावीर ने उनका समाधान करते हुए कहा था कि यह निश्चित है कि जैसा बीज होगा वैसा ही फल होगा। किन्तु श्रीज की व्याख्या में अन्तर है । स्थूल देह बीज नहीं है। मीज तो है वेह में रहे हुए आत्मा के शुभाशुभ अध्यवसाथ 1 वें ही भीज हैं और उन्हीं के अनुरूप आत्मा अगला जन्म पाता है । १. जो जीडे वि म याणई अजीवे यागर 1 जीवाजीव अयाणती कई सोणादिइ संजम । - दशबै० ४० ४. छह्र मेगेसिं 'यो सण्णा भवर के अहं आसी के वा शत्रुओ इह पेच भविरसामि । मचारांग सूत्र । १४ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · इसि भासियाहं देहात्मबादी स्थूल देह को ही बीज मानते हैं। परन्तु देह तो चिता में भस्म हो जाता है अतः आत्मा बीज के अभाव में नया जीवन पा नहीं सकता। १०६ टीका :- एवं नास्तिकवादमुदाहरति यथा कर्ध्व पादतलेऽधः केशाप्रमस्त कैशत्म पर्यायः कृष्णस्त्वक्पर्यम्सो जीवः । एष जीओ जीवति एतज्जीवितं भवति यथा दग्धेषु श्रीजेपु न पुनरंकुरोत्पत्तिर्भवति, एवमेव दग्धे शरीरे न पुनः शरीरोपतिर्भवति । गतार्थः । तम्हाणमेव जीवितं णत्थि परलोए, णत्थि सुक्कड दुक्कडाणं कम्माणं फलवित्तिविसेसे णो पश्चायंति जीवा, गो फुसंति पुण्ण-पावा, अफले कल्लाण पावर, तम्हा एतं सम्मं ति मि। उ पायतला आहे. केसग्गमत्थगा एस आया प(ज) क(सिने) तया परितं ते एस जीवे, एसा मडे णो पतं से जहा णामते हे वीरसु ण पुणो अंकुरोत्पत्ति भवति पवमेव दहे सरीरे णो पुणो सरीरुपपत्ती भवति । तम्हा पुण्ण पाचग्गहणा सुह- दुक्ख संभवाभाग शरीरं दहेसा पावकम्माभावा शरीरं इहेत्ता णो पुणो सम्पत्ती भवति । अर्थ :- अतः यही जीवन है। पर लोक जैसी कोई वस्तु नहीं है । सुकुल और दुष्कृत कर्मों का कोई फल भी नहीं हैं। आत्मा पुनः आता भी नहीं है। पुण्य और पाप आत्मा को स्पर्श नहीं करते। पुण्य और पाप वस्तुतः निष्कल ही है। इस लिए मैं ठीक कहता हूं कि ऊर्ध्व पाद तल से मस्तक के केशाम तक यही आत्मा है। यही वचा पर्यन्त जीव है । यह इस्तामलकवत् ज्ञात है। जैसे दव ( जली हुए ) में पुनः अंकुरोत्पत्ति नहीं होती। इस प्रकार दुग्ध शरीर से पुनः शरीरोपत्ति नहीं हो सकती । अतः पुण्य पाप के ग्रहण करने से सुख-दुःख का अभाव है और शरीर को जला देने पर पाप कर्म का अभाव है। अतः शरीरी और आत्मा को जला देने पर पुनः शरीर की उत्पत्ति संभावित नहीं है। गुजराती भाषान्तर : भाटे मन छे, परओ केवी श्रेध वस्तु नधी सुत ( झुठायें) भने अमृत ( रा स ) भौनुं કઈ પશુ ફળ નથી. આત્મા અહિંયા ફરીથી આવતો પણ નથી, પુણ્ય અને પાપ આત્માને સ્પર્શ ( અડકતાં ) પશુ નથી. પુણ્ય અને પાપ વસ્તુતઃ નીષ્ફળ જ છે. આથી હું ઠીક કહું છું કે ઉબ્ને પગના તલીયાથી માથાના કેશામ (चायना आगणना छेडा) सुधी या आत्मा ले मा त्वया (आभडी) सुधी बछे मा हस्तामलक्तू ( हाथभां રાખેલા આંબળાની માફ્ક) જોવાય છે જેમ અળેલા બીજોમાં ફરીથી અંકુરની ઉત્પત્તિ નથી થતી તેજ પ્રમાણે અળી ગએલ શરીરથી ફરી શરીરની ઉત્પત્તિ થતી નથી. અતઃ પુણ્ય પાપના ગ્રહણ કરવાથી સુખદુઃખનો અભાવ છે. અને શરીરને બાળી નાખવાથી કમોનો નાશ થાય છે. અતઃ શરીર અને આત્માને બાળી નાખવાથી ફરીથી શરીરની उत्पत्ति थती व नथी. देहात्मबाद स्वीकार कर लेने के बाद पुण्य और पाप जैसी कोई वस्तु नहीं रहती है। क्योंकि पुण्य-पापादि कर्म चैतन्य से संबन्धित रहते हैं। क्योंकि आत्मा के शुभाशुभ अभ्यवसाय ही पुण्य पाप के मूल हेतु हैं। देहात्मबाद के सिद्धान्त में देह के भम्म हो जाने पर सब कुछ भस्म हो जाता है। फिर दूसरे तत्त्वों की संभावना ही कैसे होगी ? । टीका :--- तस्मादिदमेव जीवितं नास्ति परलोको नाम्ति सुकृतदुष्कृतकर्मणां फलघृत्तिविशेषः । न प्रत्यायान्ति जीवा न स्पृशन्ति पुण्यपापे अफलं कल्याणपापकं । तस्मादेतत् सम्यग् इति ब्रवीमि यथोमित्यादि यावत् पर्यन्तो जीवः । एष मृतो नैतजीवितं भवति । यथा नाम दग्धेषु श्रीजेष्वन्यां कुरोत्पत्तिर्भवति । एवमेषाऽदग्धे शरीरेऽन्यांकुरोत्पत्तिर्भवति । तस्मात्तपः संयमाभ्यां मूळे शरीरं वन्ध्या न पुनः शरीरोत्पतिर्भवतीति । | विहितपुस्तकानुसारेणाध्याहार्यम् । नास्तिकं प्रयुक्तं तस्मात् पुण्य-पापग्रहणात् कर्मलब्धसुखदुःखसंभवाभावाच्छरीरवाई पापकर्माभावाश्च शरीरं दग्ध्वा न पुनः शरीरोत्पत्तिर्भवति । सरकटाध्ययनम् । यही जीवन है। परलोक सुकृत, दुष्कृत और कर्म फल जैसा कोई तत्व नहीं है। आश्मा पुनः लौट कर नहीं आता है । पुण्य पाप आदि कर्म आत्मा को स्पर्श नहीं करते हैं । अतः कल्याण अर्थात् पुण्य और पाप निष्फल हैं। इसी लिए सम्यक् प्रकार से कहता हूं कि त्वचा पर्यन्त ही जीव है। ऋषि देहात्मबाद का खंडन करते हैं कि, यह शरीर तो मृत है। अतः यह व्याख्या गलत है। ऐसा जीवन नहीं हो सकता। जिस प्रकार बिना जले हुए बीजों से दूसरे अंकुर फूट पड़ते हैं, उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर के नहीं जलने से दूसरे शरीर की उत्पत्ति हो जाती है। अतः तप और संयम के द्वारा मूल शरीर को जला देने पर पुनः दूसरे शरीर की उत्पत्ति नहीं हो सकती। दूसरी चिन्हित प्रति के अनुसार यहां यह पाठ अध्याहार्य Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवां अध्ययन है। इस प्रकार नास्तिकवाद का खंडन किया गया है। अतः पुण्य पाप के प्रहण से होने वाले कर्मजन्य सुम्ख-दुःख का अभाव होता है और शरीर के जलने पर पाप कर्म का अभाव होता है, तभी दग्ध देही अतः पुनः शरीर को नहीं उत्पन्न 'FT- प्रस्तुत अध्ययन में देहात्मवाद का ही निरूपण है। सूत्र के शैली के अनुरूप ही अर्हता का नाम भी नहीं है। अतः सूत्र की शैली से इस अध्ययन की शैली भिन्न पड़ जाती है। साथ ही संपूर्ण अध्ययन देहात्मवाद चार्वाक दर्शन के ही सिद्धान्तों का प्रतिपादन कर के रह जाता है । उसका प्रतिवाद नहीं करता है। प्रोफेसर शुटिंग भी प्रस्तुत अध्याय की इन कमियों की ओर लक्ष्य खींचते हैं। टीकाकार प्रस्तुत अध्ययन के अन्त में अन्य पुस्तकों का आधार लेकर देहात्मवाद का खंडन करते है। उनका कहना है कि स्थूल वेह लो चिता में रास्त्र की देर हो जाता है। किन्तु सूक्ष्म देह आत्मा के साथ रहता है। जैन दर्शन के अनुसार कार्मण्य शरीर भवस्थ आत्मा के साथ सदैव रहता है । स्थूल आग उसे जला भी नहीं सकती है। और वही शरीर अन्य शरीर की उत्पत्ति का हेतु है। साधक तप और संयम के द्वारा सूक्ष्म देह को भस्म कर देता है, तो पुनः शरीर की उत्पत्ति नहीं होती। एवं से घुद्धे० । गतार्थः । उत्कल-बाद नामकं विशतितममध्ययनम् - गाहावती-पुत्र तरुण अर्हतर्षि प्रोक्त इक्कीसवां अध्ययन एक आगम का वाक्य है कि "जावंति अविजा पुरिसा सब्चे ते दुक्लसभवा"-भगवान महावीर। जब तक अज्ञान है तब तक दुःख रहेगा ही। साधक जीवन का लक्ष्य है अन्धकार से । प्रकाश की ओर आए अज्ञान ले ज्ञान की ओर आना ही हमारी साधना का लक्ष्य है। ज्ञान जलती हुई मशाल है, उसके प्रकाश में हम प्रशस्त पथ की और आगे बढ़ते हैं। ज्ञान अनुभव की बेटी है। किसी अंग्रेजी विचारक ने ठीक कहा है कि Wisdom is to the soul what health is to the body आत्मा के लिए ज्ञान उतना ही आवश्यक है जिनुना शरीर के लिए खास्थ्य 1 गीता में कर्मयोगी श्रीकृष्ण स्वयं कहते है कि: यथैधांसि समितोऽनिर्भमसात् कुरुतेऽर्जुन । ज्ञामानिः सर्षकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा ॥-धीकृष्ण-गीता । हे अर्जुन ! जिस प्रकार जलती हुई अग्नि इंधन को भस्म कर देती है, उसी प्रकार से ज्ञानामि सभी कर्मों को भम्म कर देती है। शान का ध्येय सत्य है और सत्य ही आत्मा की भूख है। The aim of knowledge is truth, and trutli is need of soul-लेसिंग । स्वज्ञान जीवन की वह अंधेरी रात है जिसमें न चदि है, न तारा । कन्फ्यू सस कहते हैं: Ignorance is night of the mind but a night without inoon or stars. प्रस्तुत अध्याय में तरुण अईतर्षि "गाथापतिपुत्र" अज्ञान से मुक्त होने की प्रेरणा देते हैं। सिद्धि । णाई पुरा किंचि जाणामि सध्यलोकमि गाहावतिपुतेण तरुणे अरहता इसिणा युइतं । अर्थ:-मैं पहले समस्ख लोक में कुछ भी नहीं जानता था । इसप्रकार “गाथापतिपुत्र" तरुण अईतर्षि बोले। गुजराती भाषान्तर: હું પહેલા આ વિશાલ નિયામાં કંઈ જ જાણતું ન હતું. આ પ્રમાણે “ગાથા પતિપુત્ર” તરુણ અદ્વૈતર્ષિ બોલ્યા. प्रस्तुत अहंतर्षि के संबन्ध में तहण विशेष महत्त्वपूर्ण संकेत देता हैं। उठता हुआ तारुण्य में युवक 'गाथापतिपुत्र' ने अपने जीवन को भोग से योग की ओर मोड दिया । यौवन के निर्बन्ध प्रवाह में हजारों युवक वह जाते है । जब माया Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई पति पुत्र वह कुशल इंजिनियर था कि जिसने उस प्रवाह की गति को दूसरी ओर मोड दिया । "गाथापति-पुत्र' शब्द पारिवारिक संपन्नता का ध्वनि रखता है । यौवन के प्रांगण में प्रवेश करते हुए लक्ष्मी के पायलों की झंकार उसकी आत्मा को वासना से बांधने के लिए पर्याप्त थी। किन्तु साधना की लहरों ने उन्हें बंधने नहीं दिया। इसीलिए आगमकार ने तक्षण विशेषण के साथ अहंता का स्मरण किया है। अपणाणमूलकं खलु भो पुध्वं न जाणामि न पासामि नोऽभिसमावेमि नोऽभिसंयुज्झामि, नाणमूलकं खलु भो इयाणि जाणामि पासामि अभिसमावेमि अहिसंवुज्झामि । अर्थ:--पहले मेरा जीवन जान अन्धकार में था, अत: पहले मैं नहीं जानता था, न देखता ही था, न मैं सम्यक प्रकार से जानता ही था, न मुझे उसका अनमोध ही था। अब ज्ञान के प्रकाश से मेरी आत्मा आलोकित है। अतः मैं अभी जानता हूं, देखता हूं, पदार्थ सम्यक अवबोध रखता है, और उसका यथार्थ ज्ञान भी मैं रखता है। गुजराती भाषान्तर: હમણા સુધી મારું જીવન અજ્ઞાનના અંધકારમાં હતું, આથી પહેલાં હું જાણતો ન હતો, જે ન હતું, ન હું સારી રીતથી જાણતો હતો, ન મને સમજાણ હતી. પણ હવે જ્ઞાનના પ્રકાશથી મારો આત્મા પ્રકાશિત થયો છે. હવે હું જાણું છું, જેઉં છું, પદાર્થોનું સમ્યકુ સારી રીતે જાણું છું અને તેનું યથાર્થ જ્ઞાન પણ મને થયું છે. अज्ञान यह अंधेरी रात है जिसकी कालिमा में हीरे की चमक और कंकर की बदरूपता एक समान हो जाती है। अन्धकार में पत्थर भी हीरा है और हीरा भी पत्थर है। दोनों का एक मोल है, एक तोल है। उजाले में परख संभव है। असली और बनावट हीरे का मेद प्रकाश ही बताता है; इसी लिए जहां अज्ञान है, वहां अन्धकार है और अन्धकार अपने आप में एक विपदा है। टीका:-नाई पुरा क्रिचिजानामि सर्वलोके-अज्ञानमूलं ज्ञानं कारणं यथा तथा खलु भो पूर्व न जानामि न पश्यामि नाभिसममि नाभिमबोधामि । ज्ञानमूलं खलु भो इवानी नामानि यावदभिसंबोधामि । गतार्थः। ___ अण्णाणमूलयं खलु मम कामे हिं कि करणिज, णाणमूलयं खलु मम कामेहिं अकिश्चमकरणिज । अण्णाणमूलय जीवा चाउरतं संसारं जाव परियसि, णाणमूलयं जीवा चाउरंतं जाच बीयीवयंति, तम्हा अगणाण परिवन णाणमूलकं सब्बदुक्खाणं अंतं करिस्सामि, सम्वदुक्खाणमंत किच्चा शिवमचल जाव सासतं चिट्ठिस्सासि । अर्थ:-ज्ञानविहीन अवस्था में मैं ने काम के वश में होकर कार्य किए हैं । ज्ञानमूलक अवस्था में मेरे लिये काम से प्रेरित होकर कोई भी काम अकरणीय है । उस ज्ञान विहीन आत्माएँ चातुरन्त संसार अरण्य में परिभ्रमण करते है। शानमूलक आत्माएँ चातुरन्त संसार की कंटीली राह को पार करते हैं। अतः अज्ञान का परित्याग करके में ज्ञान द्वारा समस्त दुःखों की परिसमाप्ति करूंगा और समस्त दुःखों का अन्त कर के शिव अचल यावत् शाश्वत स्थान को प्राप्त करूंगा। गुजराती भाषान्तर: અજ્ઞાનાવસ્થામાં શું કામને વશ થઈને ઘણુ કાર્યો કર્યા છેજ્ઞાનયુક્ત અવસ્થામાં મારે માટે ક્ષમથી પ્રેરિત થઈને કોઈ પણ કાર્ય કરાય (નકરવા યોગ્ય) છે. જ્ઞાન વગર આત્માઓ ચાતુરન્ત સંસારરૂપી અરણ્ય ( ગહન ર) માં ફરે છે. જ્ઞાનમૂલક અભિઓિ ચાતુરન્ત સંસારના કાંટાવાળા રસ્તાને ‘પાર કરે છે. અજ્ઞાનને ત્યાગ કરીને હું જ્ઞાન દ્વારા બધાં દુઃખોની સમાપ્તિ કરીશ અને બધા દુ:ખોને અંત (નાશ) કરીને શિવ (કલ્યાણ) અચલ શાશ્વત સ્થાનને મેળવીશ, जो अज्ञान है वहां वासना है। शान विहीन आत्मा काम के इशारों पर नाचता है। जब कि ज्ञानी की इच्छाएँ उसके इशारों पर चलती है। दोनों में इतना ही अन्तर है। एक वासना का गुलाम है, दूसरे के लिए वासना सेविका है। यही कारण है, कि वासना के संकेत पर कदम उठाने वाला आत्मा अपने हर कदम के साथ अशान्ति को निमन्त्रण देता है। उसका प्रत्येक कार्य भव-परम्परा की विषैली लता का एक बीज है। जहाँ ज्ञान है, वहां वासना का अभाव है, दुःखों का उपशमन हैं । ज्ञानी आत्मा के शाश्वत सुख का वह सम्राट है, और वह समस्त दुःख-परम्परा का मूलोच्छेद करके शिव शाश्वत आत्मस्थिति को प्राप्त करता है। टीका:-अज्ञानमूलं खलु मम कामैः कृत्य कारणीयम् , ज्ञानमूल खलु मम कामरकृत्यं अकारणीयम् । भशानमूल जीवाश्चातुरंतसंसार परिवर्तन्ते, ज्ञानमूलं जीवास्तं व्यतिपतनित, तस्मादज्ञान परिवयं ज्ञानमूलं सर्वदुःखानामन्तं करिष्यामि, कृया शिवमचलं यावपळाश्वतं स्थानमभ्युपगतः स्थास्यामि । गतार्थः । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवां अध्ययन. १०९ अण्णाणं परमं दुक्खं, अण्णाणा जायते भयं । अण्णाणमूलो संसारो, विविहो सयदेहिणं ।। १॥ अर्थ:-अज्ञान ही बहुत बड़ा दुःख है । अज्ञान से ही भय का जन्म होता है । समस्त देहधारियों के लिए भवपरम्परा का मूल चिदिक अप में व्याः पर उहा है। गुजराती भाषान्तर: અજ્ઞાન જ મોટું દુઃખ છે, કેમકે અજ્ઞાનથી જ ભયને જન્મ થાય છે; બધા માનવોને માટે ભવપરંપરાનું મૂળ જુદા જુદા રૂપમાં વ્યાપી રહેલ આ અજ્ઞાન જ છે, अज्ञान ही यथार्थ दुःख है। स्वप्न में एक व्यक्ति-सर्प देखता है और भयभीत हो कर भागता है। किन्तु तमी उसकी निद्रा भंग हो जाती है, उसका भय समाप्त हो जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जब तक अज्ञान की निद्रा है तब तक दुःख और भय अवश्य ही रहेगा। मिगा बसंति पासेहि, विहंगा मत्तयारणा । मच्छा गलेहिं सासंति, अण्णाणं सुमहरभयं ॥ २॥ अर्थ:-अज्ञान के द्वारा ही हरिण, पक्षी और मन गजेन्द्र पाश मैं बंधते हैं, और मत्स्यों के कंठ विधे जाते हैं, अज्ञान ही संसार का सब से बड़ा भय है। गुजराती भाषान्तर: અજ્ઞાનને લીધે જ હરણ, પક્ષી અને મદોન્મત્ત હાથી પાશમાં બંધાય છે અને માછળીના કંઠ વિંધવામાં આવે છે. સંસારમાં અજ્ઞાન જ સૌથી મોટો ભય છે. पूर्व गाथा में अज्ञान को ही दुःख का आद्य हेतु बतलाया गया है। प्रस्तुत गाथा उसी की सोदाहरण' व्याख्या प्रस्तुत करती है। एक शिकारी जब बंशी की मीठी तान छेड़ता है तब हिरण दौडता हुआ उसके पास चला आता है। संगीत की स्वर-लहरी में वह मुग्ध हो जाता है। और शिकारी के बाण संगीत में लीन हरिण के शरीर को विंध देते हैं। उस भोले हरिण को क्या पता था कि वह स्वर-लहरी उससे प्राण को ले बैठेगी। आकाश में स्वच्छन्द मान करने वाला पक्षी दाने को देख कर धरती पर लौट आता है। आने के साथ ही वह जाल में फंस जाता है। दूसरी ओर विशाल-काय गजराज उस कल्पित हस्तिनी के मोह में दौडता है और गहरे गर्त में गिर जाता है, जहां पर सात दिन तक भूखा रहने पर उसके सुदृढ़ दंतशूल जिसके बल पर वह अपने यूथ का आधिपत्य करता था और मानव जिसे देख कर कांप उठता था वे ही दंत कर मानव द्वारा उखाड लिए जाते हैं। दूसरी ओर भोली मछली आटे की गोली खाने के लिए आती है। पर उसमें छिपा हुआ कांटा उसके कंठ को विध देता है। कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मा का यह अनान ही समस्त विडंचना का मूल है। टीका:-अज्ञानवशान्मृगविहंगाः पक्षिणो मत्तवारणाश्च पाशध्यन्ते। मत्स्या आमिषेभ्यः सन्ति, प्रज्ञानं सुमहद् भयं भवति ।गतार्थः । जम्मे जरा य मञ्च य, सोको मागोवमाणणा। अण्णाणमूलं जीचाषा, संसारस्स य संतती ॥ ३ ॥ अर्थः -जन्म, जरा और मृत्यु, शोक, मान और अपमान सभी आत्मा के अज्ञान से ही पैदा हुए हैं । संसार की विष-वेल अज्ञान के जल से ही सींची गई है। गुजराती भाषान्तर: જીવને જન્મ, ઘડપણ, મરણ, શોક, માન અને અપમાન એ બધું આત્માના અજ્ઞાનને લીધે જ જન્મ પામ્યું છે. સંસારની ઝરી વેલ અજ્ઞાનના જળથી જ સીચવામાં આવી છે. संसारी जीवों के लिए अनिवार्य जन्म, जरा और मौत के दुःख अज्ञान के ही कारण पैदा होते हैं। अपने ही अज्ञान के कारण मानव ऐसी समस्या पैदा कर लेता है, फिर उसे शोक, मान और अपमान के जहरीले पूंट पीने पड़ते हैं। अन्नान Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० हसि भासियाई का अर्थ ज्ञान का अभाव ही नहीं है, बल्कि अयथार्थ शाम हो अज्ञान है । आमा वरवस्तु में अपनी आत्मीयता का विस्तार करता है जब उसका वियोग होता है तम शोक के सागर में हूमता है। 'पर' वस्तु में 'सर' का अबोध ही अज्ञान है, अन्यथा - ज्ञान आत्मा का स्वभाव है, वह कभी भी उससे पृथक नहीं हो सकता है। किन्तु आत्मा की राग-द्वेषात्मक परिपतियाँ ही ज्ञान को अज्ञान में परिणत करती हैं। अण्णाण अहं पुण्यं दीहं संसारसागरं । जम्म- जोणि-भाव से सरंतो दुक्खजालकं ॥ ४ ॥ " अर्थ:- प्रश्न: अन्न के द्वारा ही मैंने दुःखजाल में फंसकर जन्म योनि के भय रूप आवर्तील दीर्घ संसार में भ्रमण किया । गुजराती भाषान्तरा - અજ્ઞાનના કારણે જ હું દુઃખરૂપી જાળમાં ફસાઈને જન્મ-યોનીના મય રૂપ ભમરાવાળા દીષે (લાંબા ) સંસાર-સાગરમાં ભમતો રહ્યો છું. रूप युक्त आत्मा संसार में परिभ्रमण क्यों जन्म लेता है। किन्तु भेड के साथ रह कर वह आत्मा का रूप और बंधनाती है फिर न होगा कि शुद्ध करता है ? इसका उत्तर है अज्ञान । सिंह का बच्चा सिंह का वीरत्व ले कर अपने आप को भेट मान बैठता है और दिन रात मेडों के साथ घूमता गहरिया भेटों के साथ उसे घुमाता है। मेटों को जब पीटता है तो कभी कभी दो चार डंके सिंह शाक्य पर भी जमा देता है। वह चीखता है और आगे जाने वाले मेटों में जा मिलता है। सिंहशावक को ठंडे इस लिए खाने पडे कि उसे अपने निज रूप का पता नहीं है। सिंह क तक अपने आप को भेड मानता रहेना, गजरिए के डंडे उस पर पढते ही रहेंगे। पर जिस क्षण का मान हो जाता है कि "मैं इधर उधर भटकने वाला और गडरिये के डंडे से चलने वाला राजा हूं" इतना समझ लेने के बाद वह एक ही दहाक मारेगा तो सभी भेजें भाग नहीं होंगी छूटकर गिर जाएगा और वह भाग कर घर का राखा लेगा। उसको अपने निज रूप नहीं में वन का गरिए के हाथ से डंडा 1 है 1 आत्मा जब तक अपने आप को कूकर शंकर के रूप में देखता रहता है तब तक उसके ऊपर दुःख और दारिद्र्य के डंडे पड़ते ही रहते हैं। जब तक वह अपने आप को गुलाम मानता रहेगा तब तक कठोर शासक का डंडा उसके मस्तक पर पड़ता ही रहेगा। किन्तु जिस क्षण आत्मा अपने वास्तविक रूप को जान लेता है कि कर-कर रूप मेरा नहीं है। देह मी मैं नहीं हूं मौत देह को मार सकती है मुझे नहीं मेरा स्वरूप शुद्ध बुद्ध है परिणतियों की भेजें भाग खड़ी होंगी और वह स्वतंत्रता होकर स्वभाव परिणति का दीवे पातो पर्यगस, कोसियारस्स बंधणं । किंपाकलणं चैव अण्णाणस्स णिदंसणं ॥ ५ ॥ I 1 इस एक ही दहाड से समस्त विकारी भोक्ता हो जायगा । अर्थ :- उत्तर :- पतंग का दीपक पर गिरना, और कोशिकार रेशमी कीडे का बंधन और किंनाक फल का भक्षण अज्ञान को ही प्रकट करता है । गुजराती भाषान्तर : પતંગિયાનું ક્રિયાપર પડવું, અને કોશિકાર-કોરીઢા નામનું રેશમી કીડાનું બંધન અને કિંપાક (એવી ) ફળનું લક્ષણ એ બધાં કાર્યો કર્યાં પ્રકટ કરે છે. जलती हुई दीपशिखा पर पतंग गिरता है और निठुर दीपक उसकी राख बना देता है। रेशमी कीडा अपने ही रेशमी तारों से बंधता है और फिर उससे युक्त होने के लिए छटपटाता है। मोला मानव जीव को मीठे लगने वाले किपाक फल को प्रेम से खाता है किन्तु केही मीठे फल चार घंटे के अन्दर उसके रंग में जहर फैला देते हैं और कुछ क्षण 1 में ही उसका जीवनदीप बुझ जाता है। ये कहानियां आत्मा के अज्ञान को ही अभिव्यक्त करती है १ टीकाकार कोशिकार को विशेष मानते है पर यह केशिकारीसार अर्थात् रेशमी फिदा है प्रस्तुत सूत्र के आठवें अध्ययन में भी यह पद आता है । " कोसारीडेव कीडेव जहार बंध" आठवां अध्ययन | : Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ इक्कीसयां अध्ययन टीका:-दीपे पातः पतंगस्य कौशिकारः पक्षिणो अन्धन किंपाकफलमक्षणं च त्रीण्येताम्यज्ञानस्य निबन्धमानि भवन्ति । गतार्थः। बितियं जरी दुपाणथं, दिट्टो अपणाणमोहितो। संभग्गगातलट्ठीउ, मिगारी णिधणं गओ ॥६॥ अर्थ:-अज्ञान में मोहित सिंह पानी में दूसरे सिंह को देख कर कूप में कूद पडता है। परिणामतः देह के भन्न होने पर मृत्यु को प्राप्त करता है ।। गुजराती भाषान्तर: અજ્ઞાનથી મહાન્ય થએલો સિંહ પાણીમાં બીજા સિંહને (પિતાને જ પડછાયો) જોઈને કુવામાં કુદી પડે છે, પરિણામે શરીર ભાંગવાથી મરણ પામે છે. ___अज्ञान के कटु परिणाम के रूप में पूर्व माथा में कुछ उदाहरण दिए गए हैं। यहां पर भी अईतर्षि एक लोक प्रसिद्ध उदाहरण देते हैं। जो कि हितोपदेश में भी आया है। संक्षेप में वह इस प्रकार है : एक बार एक वृद्ध सिंह समस्त बन के हिरण और शुगाल वृन्द का संहार करने लगा । पशुओं की सभा ने एक दिन यह प्रस्ताव वनराज के सामने पेश किया कि उनके लिए प्रति दिन एक पशु मेज दिया जाएगा। ताकि पशुमष्टि शीघ्र ही समाप्त न हो सके । एक दिन एक शुगाल (सियार) की बारी आयी। उसने सोचा कि पीडा की जल को ही समाप्त कर देना चाहिए। वह जानबूझ कर ही कुछ देर से पहुंचा । वृद्ध सिंह ने क्रोधाक्रान्त हो तीन स्वर में पूछा, कि "हेर क्यों हरे गई। चालाक शृगाल बोला कि मैं तो शीघ्र ही आरहा था, किन्तु राह में एक दूसरा सिंह मिल गया। उसने मुझे रोकते हुए पूछा कि कहां जा रहा है? मैं ने कहा कि 'मैं वनराज के यहाँ जा रहा हूं। वह शेला कि 'वह तो बूढा हो गया। बनराज तो मैं हूं। सिंह इन शब्दों को सुनते ही आगबबूला हो गया। उसने कर्कश शब्दों में कहा कि 'कौन नया वनराम प्रकटा है ! चलो, मुझे दिशा में एक ही पार झालंगा। चतुर शुगाल आगे हो लिया। पीछे पीछे धनराज महोदय उमडते, फड़कते और एक ही ग्रास में अपने प्रतिद्वन्द्वी को उतार जाने का स्वप्न देखते हुए चले जा रहे थे । शमाल ने कुछ दूर जाकर झाडियों में झांका और पूंछ हिला कर कहा कि 'यहा पर तो नहीं है। मया कहां? मैं अभी देख कर बात कर के गया हूं। ऐसा लगता है कि हमारे आने की भनक उसके कानों में पड़ गई और वह कहीं छिप गया है । भाप के नाम को सुन कर ही सन के प्राण झोपते हैं।' सिंह के अहंकार में नया वट आगया । बोला कि 'शेखी तो खूब बधारी पर अप दुम दबा कर निकल गया। इस बूढे के पंजों में कितना बल है इसका बच्चू को पता नहीं है ! । एक ही पंजे से चीर दूंगा।' झाडिया में इधर उधर घूम कर इसमाल लौट आया। वापस आकर खुशामद के शब्दों में बोला कि 'आप के डर से ऐसा छिप गया है, कहीं पता ही नहीं लग रहा है। पर आज उसे छोड़ना नहीं है।' उसी समय पास के कुए के निकट भाकर सफलता के आवेग में चिल्लाया "मिल गया, मिल गया" । माता कहां । देखिए, इस कुएं में जाकर छिप गया है। आखिर जान सब को ही प्यारी होती है।' सिंह एक ही छलांग में कुएं के निकट आ गवा । कुएं में झोका लो शेर की-सी भाकृति दिखाई दी। बह गर्जा कि 'कामर कहीं का, निकल बाहर, क्या कहा कि नहीं निकलँगा पर आज तुम को मैं पाताल तक भी नहीं छोडूंगा। अभी आया' ऐसा कह कर वनराज ने कुएं में छलांग मार ही हो । शुगाल मुस्करा दिया और कहा कि अपनी छाया को मिटाने चला और वनराज स्वयं ही मिट गया। टीका:-भज्ञानमोहितो वृद्धसिंहः कथाप्रसिद्धो विसीयसिंह उदपानस्थं उधमान् संभमगात्रयष्टिर्निधनं गतो मृतः । गताः । मिगारी य भुथंगो य, अण्णाणेण विमोहितो। गाहादसाणिवातेणे, विणासं दो वि से गता ॥७॥ अर्थ :-अज्ञान से विमोहित सिंह और सर्प पंजे की पकड और देश के प्रहार से नष्ट हो गये। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि भासियाई મ गुजराती भाषान्तर : અજ્ઞાનથી મોહિત સિંહ અને સાપ પક્ષની પકડ અને એકબીજાના દંશથી ખન્નેનો નાશ થયો. अतर्षि एक के बाद एक अज्ञान की विनाशकता के चित्र दे रहे हैं। पूर्व गाथा में अज्ञानी सिंह की कथा का संकेत किया था। यहां पर भी सिंह और सर्प का उदाहरण दिया गया है। सर्प के बिल के निकट सिंह सो रहा था। अचानक बिल में से सर्प निकला और उसने सिंह को उस लिया । इधर पीडा से उत्तेजित होकर सिंह ने भी अपने नुकीले पंजों से सर्प को नोंच डाला । सर्प समाप्त हो गया। इधर सिंह के शरीर विष फैलने लगा। कुछ देर के बाद ही उसने दम तोड दिया । मन का अज्ञान ही दोनों को ले बैठा । अज्ञानी आत्माएँ हिंसा और प्रतिहिंसा के द्वारा दोनों ही विनाश को प्राप्त करते हैं । टीका :- सिंहश्च भुजंगश्श्राज्ञानविमोहितो माहदेश निपातेन द्वावपि विनाशं गताविति । का कथेति न ज्ञायते । अज्ञान से विमोहित सिंह और सर्प ग्राह और देश के निपात से दोनों ही विनाश को प्राप्त हुए। किन्तु यह कथा अज्ञात है । सुप्रियं तणयं भद्दा, अण्णाणेण विमोहिता । माता तस्सेव सोगेण, कुछ तं चेत्र खादति ॥ ८ ॥ अर्थ :- वह सुप्रिय की माता भद्रा अज्ञान से विमोहित बनती है। माता उसी शोक से क्रुद्ध होकर उसका भक्षण करती है । गुजराती भाषान्तर : તે સુપ્રિયની માતા ભદ્રા અજ્ઞાનથી મોહ પામે છે, માતા તેનાજ શોકથી ક્રુદ્ધ બનીને તેનુંજ લક્ષણ કરે છે. अज्ञान के अन्धकार में मटकती हुई आत्मा किस कण क्यों कर डालती है, के लिए कुछ भी कहा नहीं जा सकता है। एक क्षण पहले जिसके अभाव से शोक में आकुल हो रहा था जब वही वस्तु सामने आ जाती है वह उससे नफरत करने लगता है। अब उसकी उपस्थिति ही उसके लिए असह्य हो जाती है। कितने इलके हैं मानव के सुख और दुःख । इंग्लिश का विचारक बोलता है: shall see that When you are sorrowful, look again in your heart, and you in trath you are weeping for that which has been your delight. -खलील जिब्रान । जब तुम शोक में डूबे हुए हो तो अपने अन्तर में झांको, तब तुम को ज्ञात होगा कि तुम उसी के लिए रो रहे हो जो एक दिन तुम्हारे प्रसन्नता का हेतु बनी हुई थी । इससे बढ़ कर अज्ञान क्या होगा ? जिसके अभाव में रो रहे थे उसके सद्भाव में भी रोने लगे। पार्थिव पदार्थों का आकर्षण ही अजीम होता है । मनुष्य उसके अभाव में आकुल रहता है, उसके प्राप्ति को तड़प रहता है। पर जब वह वस्तु मिल जाती है तब वह आकर्षण उसमें नहीं रह जाता है । कभी कभी तो मनुष्य उससे घृणा भी करने लगता है। भईवर्षि मानव मन की इसी वृत्ति को कहानी द्वारा समझाते हैं । 1 माता भद्रा अपने प्रिय पुत्र के वियोग में इतनी विठ्ठल हो जाती है कि आत्म हत्या कर लेती है। और वह अगले जन्म में सिहिंनी बनती । जब उसी का पुत्र उसके सामने आता है तब कुपित हो कर पंजे से चीर कर उसका भक्षण कर जाती है । यह अज्ञान की ही विडंबना हैं कि एक दिन भी जिसका वियोग नहीं सहन कर सकी थी, आज उसी का खून पीने मैं एक रोम में भी नहीं कंपकंपी छूटती है । यह भद्रा कौन है और उसका पुत्र कौन है, इसका पता नहीं चलता है। किन्तु इसी रूप में सुकोशल और उसकी माता सहदेवी की कथा प्रसिद्ध है। नाम परिवर्तन के साथ यह वही कहानी है। कछू नहीं जा सकती है। टीका :- सुप्रियं तनुजं मावा भद्रा नामाऽज्ञानविमोहितात् प्रतिबोधशोषं नात्मघातं कृत्वा व्याधी भूता । क्रुद्धा सत्यभिरपाखादीदिति । सुकोशलमासह देवीकथा, सा तु किमिहाधिक्रियते म देति शक्यते । गतार्थः । विष्णासो ओसहीणं तु, संजोगाणं व ओयणं ! लाहणं या वि विजाणं, अण्णाणेण ण सिज्झति ॥ ९ ॥ 1 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाइसवां अध्ययन अर्थ:--औषधियों की रचना, सैयोग मिलाना और विद्याओं की साधना अज्ञान के द्वारा इन सभी कार्यों में सफलता नहीं मिल सकती है। गुजराती भाषान्तर:આ દવાની યોજના, દર્દીની હાલતને પરિચય કરી લેવો અને વિદ્યાની સાધના કે બીજું ગમે તે કામ હોય (પણ તે વસ્તુનું જ્ઞાન ન હોય તો) અજ્ઞાનથી આ કેઈપણ કાર્યમાં સફળતા નથી મળી શકતી. एक बीमारी के लिए सौ दवाएं होती हैं । कौन-सी औषधि किस रोगी को शीघ्र लाभ पहुंचा सकती है, इसका ज्ञान हुए बिना चिकित्सक की चिकित्सा सफल नहीं हो सकती। संयोगों की सैयोजना में भी ज्ञान की आवश्यकता रहती है । विश्व की प्रत्येक नस्पति औषधि के लिये उपयोगी है। वर्णमाला का प्रत्येक अक्षर मंत्र-मय है। किन्तु उसकी संयोजना का ज्ञान न होने के कारण अमृत भी बिष बन सकता है । स्वर और व्यंजनों के उन्ही अक्षरों से कमनीय कविता की सृष्टि हो सकती है। जब कि किसी के अपमान और तिरस्कार में भी वे ही अक्षर प्रयुक्त होते हैं। संबोजना में ही तो चमत्कार है। विद्याएँ सब कुछ उपलब्ध हैं, किन्तु साधना के परिज्ञान के अभाव में कमी सिद्धि नहीं मिल सकती । सफलता को असफलता में बदल देने वाला अज्ञान ही है। टीका:-औषधानां बिन्यासः, संयोगाना योजनं, मेषजाना मिश्रण, विद्यान व साधनं अशानेन न सिध्यति, सिध्यति तु ज्ञानयोगेम । विण्णासो ओसहीणं तु, संजोगाणं घ जोयणं । साहणं वा विविजाण, णाणाजोगेण सिज्मति ॥१०॥ अर्थ:--औषधियों का निर्माण तथा औषधियों की व्यवस्था, संयोगों की संयोजना, और विधाओं की साधना ज्ञान के द्वारा ही संभवित है। गुजराती भाषान्तर: દવાનું નિર્માણ તથા દવા આપવાની યોજના, સંયોગને ખ્યાલ કરી તેનો ઉપયોગ અને વિદ્યાની સાધના જ્ઞાન દ્વારા જ સંભવિત છે. ___ सफलता का द्वार ज्ञान है। साध्य की ओर कदम बढाना है, किन्तु साधन का परिज्ञान नहीं है, तो यह साध्य तक पहुंच नहीं सकता है। जिले गांव का नाम याद रह जाए परन्तु उसका रास्ता भूल जाए तो वह अपने लक्ष्य तक पहुंच नहीं सकता। पर्व से सिद्ध बुद्ध० गतार्थम् । __ गाहाचइज नामज्झयणं समत्तं गाथापति अतिर्षि प्रोक्त एकविंशतितमं अध्ययन दगभाली-अहंतर्षि-प्रोक्त बाइसवां अध्ययन मुक्ति का लक्ष्य बनाने वाला साधक बंधन को पहचाने । जो वासना से बंधा है वह पाश में बद्ध है। वासना से हटने के लिए प्रथमतः मन को अनुशासित करना होगा। घासना से बचने के लिए साधकों ने नारी की भर्त्सना की है। कोई कवि तो उसे नागिन बता गए हैं। प्राचीन कबि का एक पथ है कि "नागिनी-सी नार जानी। पुरुष कवि नारी को नागिन" बना सकता है तो नारी कवियित्री पुरुष को नाग बना सकती है। वास्तव में न तो नारी नागिन है, न पुरुष नाग है। किन्तु मन में जो वासना पैठी है वही नागिन है। उसका डसा हुआ व्यक्ति कमी उठ नहीं सकता है। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस - भासियाई ११४ 1 नारी को नागिन बताना भारत की पवित्र सतियों का अपमान करना है। मशिनाथ भी तो नारी थे। नारी को नागिन कहनेवाले क्या तीर्थंकरदेव का अपमान नहीं करते ! नारी ने पुरुष को पतन के गड्डे में डाला है, तो क्या पुरुष नारी को कभी पतन की ओर प्रेरित नहीं किया हैं ? । सीता-सी सतियों की कहानी क्या कह रही है ? । इतिहास उठाइए तो नारी के चरित्रों से चमकते हुए चित्र आप को प्राप्त होंगे। नारी ने साधना से गिरते हुए साधक को ऊपर उठाया है। पुरुष को प्रतारण दे कर संयम के पथ पर स्थित करने वाली नारी ही है। राजनती का इतिहास इस बात का प्रमाण प्रस्तुत कर रहा है। हिन्दी के महाकवि बोल रहे हैं: नारी ! तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत नग पद त में । -जयशंकरप्रसाद कामासती पीयूष खोत सी बहा करो जीवन के सुन्दर समतल में ॥ - पुरुष विजय का भूखा है, तो नारी समर्पण की पुरुष लूटना चाहता है तो नारी छुट जाना चाहती है। जीवन के क्षेत्र में नारी पुरुष का साथ देना चाहती है, वह पुरुष की प्रेरणा हैं, किन्तु इस दौर में वह अपनी मातृत्व को न भुल सकती है। क्यों कि ममता सगता और करुणा की त्रिवेणी में नारित्व वहता है । वह सत्ता और संपत्ति की प्यासी बनती है तो उसमें उसका मातृत्व लुट जाता है। प्रस्तुत अध्ययन में नारी के दोनों चित्र दिए गए हैं । सिद्धि । परिसाड़ी कम्मे, अपरिसाडिणो बुद्धा, तम्हा खलु अपरिसाडिणो बुद्धा गोवलिप्यंति रणं खरपत्तं व वारिणा द्गभालेण अरहता इसिणा बुझतं । अर्थ :--- साधक कर्मों को पृथक करे। कर्मों का परिवादन न करने वाले अबुद्ध होते हैं। कर्मों को पृथक करने वाली प्रबुद्ध आत्माएँ कर्म रज से वैसे ही अलिप्त रहती है जैसे कि कमल पानी से । इस प्रकार दयाल अतर्षि बोले । गुजराती भाषान्तर: સાધકોએ કર્મોનું પૃથક્કરણ કરવું. કૌનું પૃથક્કરણ ન કરનારાઓ બુદ્ધિવગરનાં હોય છે. કર્મોને પૃથડ્ કરવા વાળા પ્રબુદ્ધ આત્માઓ કર્મ-રજથી તેવીજ રીતે અલિપ્ત રહે છે જેમ કે કમળ પાણીથી. આ પ્રમાણે ગભાઙ અહેાિબે ઓલ્યા. टीका :- परिशाति हिंसकं कर्म अपरिशातिनो बुद्धाः, तस्मात् खलु परिशातिनो बुद्धा नो या लिप्यन्ते रजसा पुष्करपत्रमिव चारिणा । कर्मों का परिशोधन और परिज्ञातन करना हर एक साधक का जीवन लक्ष्य है। जिसने कमों का परिशातन किया वह आत्मा संसार में रह कर भी संसार मुक्त है । कमल- पत्रवत् अलिप्त रहता है । पुरिसादीया धम्मा, पुरिसप्पारा पुरिसजेडा, पुरिसकप्रिया पुरिसपज्जोषिता पुरिससमण्णागता पुरिसमेव अभिउंजियाणं चिति । से जहा णामते अरती सिया सरीरंसि जाता सरीरंसि धड्डिया सरीरसमण्णागता सरीरं चेच अभिउंजियाण निट्टति । एवमेव धम्मा वि पुरिसादीया जाय चिद्वैति । अर्थ :- पुरुषादि का धर्म हैं वह पुरुष प्रवर पुरुष ज्येष्ट, पुरुषकल्पिक पुरुष प्रद्योतित पुरुष समन्वागत पुरुषों को आकर्षित करके रहता है। जैसे कि अलसिये अथवा ग्रंथि विशेष शरीर में पैदा होता है, शरीर से वृद्धि पाते हैं, शरीर में समन्वागत और शरीर में आकर्षित हो करके रहते हैं। इसी प्रकार धर्म आदि पुरुषादि को घेरे रहते L गुजराती भाषान्तरः પુરુષાદિનો ધર્મ છે તે પુરુષપ્રવર, પુરુષજ્યેષ્ઠ, પુરુષકલ્પિક, પુરુષપ્રદ્યૌતિત, સમન્વાગત પુરુષોને આર્ષિને જ રહે છે, જેવી રીતે કે અસિયા અથવા ગ્રંથિવિશેષ ( ગાંઠ) શરીરમાં પૈદા થાય છે, શરીરને સાથે વૃદ્ધિ પામે છે, શરીરમાં સમન્વાગત અને શરીરમાં આકર્ષિત થઈને જ રહે છે. તે જ પ્રમાણે ધર્મ આદિ પણ પુરુષત્વાદિને ઘેરીને રહે છે. दुगभाल अतर्षि महाराज पार्श्वनाथ की परंपरा के प्रत्येक बुद्ध हैं। अतः पुरुषादानी महाराज पार्श्वनाथ के धर्म की प्रस्तावना कर रहे हैं। जिस प्रकार से महाराज महावीर के लिए श्रमण विशेषण आता है उसी प्रकार महाराज पार्श्वनाथ के लिए पुरुषादानी विशेषण आता है। भगवान पार्श्वनाथ के लिए पुरुषप्रवर आदि विशेषण दिए गये हैं I Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाइसा अध्ययन ११५ टीका:--- धर्मा इति ग्रामधर्मा मैथुनाभिलाषा: ग्रामधर्माः पुरुषादिका पुरुषप्रवराः पुरुषज्येष्ठाः पुरुषवाधिकृत्य कल्पिताः प्रयोतिताश्च पुरुषं समन्वागता भवन्ति । पुरुषमेवाभियुज्य पुरुषमवेक्ष्यमाणास्तिष्ठति, यथा नामारती ति गंडविशेषः म्याच्छरीरे जाता शरीरे वृद्धाः शरीरं समन्यागता शरीरमेवाभियुज्य तिष्ठति । धर्म अर्थात् प्रामधर्म विषयाभिलाषा पुरुषादिक पुरुषप्रमर पुरुषज्येष्ट ऐसे पुरुष को लक्षित करके ने ग्रामधर्म कहे गए हैं। वे पुरुष के निकटवर्ती कहे गए है। चे प्रामधर्म पुरुष को नियोजित कर के उसकी अपेक्षा करते हैं। जैसे अरतिग्रंथि विशेष शरीर में पैदा होती है और शरीर में ही वृद्धि पाती है। टीकाकार का मत भिन्न है, वे धर्म से यहां पर प्रामधर्म अर्थात् विषय की अभिलाषा लेते हैं। एवं गंडे वम्मीके थूमे रुक्खे वणसंडे पुक्खरिणी णवरं पुढवीय जाता भाणियन्धा, उदगपुक्खले उदगं णेतब्बं । अर्थ:-इसी प्रकार गोठ प्रथि बाल्मिक स्तूप वृक्ष-वन खंड पृथ्वी में पैदा होते हैं, पृथ्वी में रक्षण पाते है और पृथ्वी से वृद्धि पाते हैं । पुष्करणी कुवाँ आदि पानी से संबंध रखते है।। गुजराती भाषान्तर :__ प्रमाणे २is (40-4) पानि , ! - Pun , alihi x २६ पाने છે ને પૃથ્વીમાં જ વૃદ્ધિ પામે છે. પુષ્કરણ વાવડી આદિ પાણી સાથે સંબંધ રાખે છે. टीका:-एवं गई स्फोटो शरीरे जात इत्यादि वाल्मोकः स्तूपो, वृक्षो वनखंडपृथ्वीका जातः पुष्करिणी पृथिव्यां जाता पुष्करोदके जातः । से जहा णमते अगणिकाए सिया अरणीय जाते जाव अरणि चेव अहिभूय चिट्ठति एवमेव धम्मा वि पुरिसादिया तं चेव । अर्थ:-जैसे अनि अरणी में पैदा होती है और अरणी का राहारा लेकर रहती है। इसी प्रकार धर्म पुरुषादि के आश्रित रहता है। गुजराती भाषान्तर: જેવી રીતે અગ્નિ અરણીમાં પેદા થાય છે અને અરાણીને આશ્રય કરીને જ રહે છે, તે જ પ્રમાણે ધર્મ પુરુષત્વાદિને આશ્રિત થઈ રહે છે. ___ जैसे आग अरणी के काष्ठ में व्यापक रूप में रहती है, इसी प्रकार धर्मपुरुषादानी महाराज पार्श्वनाथ के आश्रित रहता है। ____ अथवा जैसे बीज में विराट वृक्ष समाया रहता है और अग्नि अरणी में समाई हुई रहती है इसी प्रकार मानव मन में वासना छुपी रहती है। कहा जाता है कि बालक निष्पाप रहता है । यह ठीक है, क्योंकि उसके मन में उस समय किमी प्रकार की वासना नहीं रहती है, फिर भी शासना के बीज तो वहां मौजूद ही रहते हैं। वे ही बीज समय पाकर विशाल रूप लेते हैं। वह वयस्क होता है तब सब प्रकार के हल प्रपंच सीख जाता है। उसकी वृत्नियाँ स्पष्ट हो जाती हैं। वृतियाँ मानव मन में सुप्त रहती हैं। अनुकूल संयोग को पाकर जागृत हो जाती हैं। टीका :-अग्निकायो अरण्याजातो अरणिमेवामिभूय तिष्ठति एवमेव धर्मास्तिष्ठन्ति । धिसेसिं गामणगराण, जेसिं महिला पणायि । ते यावि घिकिया पुरिसा, जे इस्थिणं चसं गता ॥१॥ अर्थ:- ग्राम और नगर विकार के पात्र हैं, जहां पर नारी शासिका है। वे पुरुष भी धिक्कार के पात्र हैं. जो नारी के वश में हैं। जो देश स्त्रियों का गुलाम है,सुरा और सुन्दरी ही जहां का जीवन-लक्ष्य है वह देश निश्चय ही पतन के कगारे पर है । जहा के जन-जीवन में वासना के दौर चलते है, जन-मानस पर स्त्रियों का शासन है, जहां के निवासी वासमा के गुलाम बन चुके हैं, फिर उन्हें दूसरी गुलामियां को निमन्त्रण-पत्र भेजने की आवश्यकता नहीं रहेगी। यहां पर अतिर्षि Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ इसि भासियाई जिस नारी के शासन की ओर से करते है, मन के अध्ययन से यह मालूम होता है कि एक बार रोम में इतनी वासना बढ़ गई थी कि वहाँ का भक्त कलाकार प्रभु की मूर्ति बनाता था तब भी उसके लिए छबि की सर्व क्षेत्र नर्तकी या वेश्या की रहती थी । इसी लिए रोम जैसा देश इतनी जल्दी पतन के गर्त में गिर गया । स्त्री भी शासन कर सकती है, यदि उसमें योग्यता है। राज्य व्यवस्था का उत्तरदायित्व निभाना भी एक कला है । अतर्षि का उसले विरोध नहीं है। विरोध जनता के दिल और दिमाग में स्त्री और वासना के एकाधिपत्य से है। क्यों कि जो देश वासना का गुलाम है वह सारे विश्व का सचमुच गुलाम है । टीका:-धिक तेषां ग्राम-नगराणां येषां स्त्रियः प्रणायिकाः, ते चापि धिक्कृताः पुरुषा ये स्त्रीणां वशंगताः । मतार्थः ॥ १ ॥ गाहाकुला सुदिव्वा व, भावका मधुरोदका । फुल्लाच पडमिणि रम्मा बालककंता व मालवी ॥ २ ॥ हेमा गुहा ससीहा वा, माला वा वञ्झकपिता । सविसा गंधजुती या, अंतोदुट्ठा व वाहिणी ॥ ३ ॥ गन्ता मदिरा वा वि, जोगकण्णा व सालिणी । णारी लोगम्मि विष्णेया, जा होजा सगुणोदया ॥ ४ ॥ अर्थः- नारी सुदिव्य कुल के गाथा के सदृश है, वह सुवासित मधुर जल के सदृश है, विकसित रम्य पद्मिनी के सदृश है और व्यालाकान्त मालवी के सदृश है । वह स्वर्ण की गुफा है, पर उसमें सिंह बैठा हुआ है । वह फूलों की माला है, पर विष पुष्प की बनी हुई हैं। दूसरों के संहार के लिए वह विध मिश्रित गंध-पुटिका है। वह नदी की निर्मल जलधारा है, किन्तु उसके बीच में भयंकर भंवर है, जो प्राणापहारक है। वह मत्त बना देने वाली मदिरा है । सुन्दर योगकन्या के सहश है । यह नारी है, स्वगुण के प्रकाश में यथार्थ नारी है। गुजराती भाषान्तर : નારી સુદિય્ કુલની કીર્તિ જેવી છે; સુગંધયુક્ત મધુર જળ જેવી છે, વિકસિત રમ્ય પદ્મિનીની જેવી છે આમ છતાં તે સાપથી વિંટાયેલ માલતી વેલડી જેવી છે. તે સ્વર્ણની ગુફ ા છે, પરંતુ તેમાં સિદ્ધ ભેડી છે. તે ફૂલોની માળા છે, પરંતુ તે ઝેરી પુષ્પોની અનેલી છે. ખીજાઓના સંહાર માટે તે ઝેરમિશ્રિત ગંધયુટિકા છે. તે નદીની નિર્મળ જળધારા છે. પરંતુ તેની વચમાં ભયંકર ભ્રમરો છે, જે પ્રાણગ્રાતક છે. તે ઉન્મત્ત અનાવી દેનાર મદિરા છે. સુન્દર યોગકન્યા સમાન છે, જેને નારી કહેવાય છે. સ્વગુણના પ્રકાશમાં યથાર્થ નારી છે. टीका :- सुदिष्या भावका प्रेक्षणीया मधुरोदका पुष्पिता रम्येष पद्मिनी माहाकुला मालतीय, ग्यालाक्रान्ता, हैमगुहेव साहा, मालेव बध्यपिता, गन्धयुक्तिरिय सविषा वाहिनीव मदी सेना चाष्टा, मदिरेष गरान्ता, योगकश्या स्वीरिव योगपरा शालिनी गृहिणी, एवं नारी लोके बिज्ञेया भवेत् स्वगुणोदया प्रकटीकृता श्रीदोषाः ॥ २-४ ॥ नारी कठोरता और कोमलता का समन्वय है । अतर्षि नारी के विविध रूपों का चित्रण बाहरी सौन्दर्य निम है। वह सुवासित जल-धारा खिलती हुई पद्मिनी है। बद मालती भी है लिपटा हुआ है। वह स्वर्ण गुफा-सी है उसका बाहरी आकर्षण बहुत ज्यादा है, किन्तु उसमें सिंह बैठा हुआ है। करते हैं । नारी का किन्तु उस पर सर्प यहां स्त्री के दोनों रूप बताए गए | नारी पद्मिनी और मालती की माला के समान है। वह गुफा-सी है, जिसमें क्रूरता का साक्षात् रूप सिंह दहाड़ रहा हैं। सुशिक्षित और सदाचारिणी नारी सुवासित पद्मिनी के समान है। उसके जीवन और स्वभाव से शील की सौरभ फैल रही है। वह माता मातृभूमि सी पवित्र है। वह पृथ्वी की भांति सर्वंसहा है। पृथ्वी पर कोई गंदगी कर रहा है, कोई उसको खोद रहा है, कोई उसपर अणुबम के धड़ाके कर रहा है, फिर भी वह मौन हो कर सब कुछ सहन कर रही है। इतना ही नहीं, मनुष्य उसको खाद के बदले में गंदे पदार्थ देता है । किन्तु धरित्री उसके बदले में जीवन-दायी खाद्य पदार्थ देती है। यही माता का कार्य हैं। वह तिरस्कार और अपमान सहती है तथा उसके बदले में सेवा और प्यार करती है । • Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाइसवां अध्ययन यदि नारी के हृदय में वासना है और वह असदाचार की ओर कदम रखती है तो वह सर्पको लिपटती हुई मालती है। चह असंस्कारी और अशिक्षित है तो वह उसी प्रकार भयंकर होगी जिस प्रकार स्वर्ण की गुफा में भीषण गर्जना फरता हुआ सिंह। उच्छायणं कुलाणं तु, दवहीणाण लाधवो। पतिट्टा सम्वदुक्खाणं, णेिढाणं अज्जियाण य ॥५॥ गेहं वेसण गंभीर, बिग्धो सद्धम्मचारिणं । दुवासो अखलीणं व, लोके सूता किमंगणा ॥ ६॥ अर्थ:-असंस्कारी नारी कुल का नाश करती है, उसकी प्रतिष्ठा समाप्त करती है और दीन दुर्बलों का अनादर करती है। वह सब प्रकार के दुःखों की प्रतिष्ठा रूप है। अर्थात् समस्त दुःखों की जद्ध है। वह आर्यत्व को भी समाप्त कर देती है। वह गंभीर से की घर है । स्त्री सद्धर्मचारियों के लिए विघ्नभूत है। गुजराती भाषान्तर -- સંસ્કારહીન નારી કુલનો નાશ કરે છે, તેની પ્રતિષ્ઠાને નાશ કરે છે અને દીન-દુબળાઓને અનાદર કરે છે. તે બધા પ્રકારના દુઃખોની પ્રતિકારૂપ છે. અર્થાત્ સમસ્ત દુખોનું મૂળ છે, તે આર્યત્વને પણ નષ્ટ કરે છે. તે ગંભીર વિરોનું ઘર છે. સંસ્કારરહિત સ્ત્રી સદ્ધર્મનું આચરણ કરનારાઓ માટે વિન્ન સમાન છે. दुष्ट खभाव की नारी का यहां पर चित्रण दिया है। जिस नारी के स्वभाव में स्वाथै, कठोरता और दुराचार है तो बहू समाज और देश दोनों को ही नष्ट कर देती है । सुन्दर स्वभाव को नारी-कुल की रजत बढ़ाती है । वहा कुत्सित्त स्वभाव की नारी कुल की प्रतिष्ठा को समाप्त कर देता है। चेटक और कोशिक की महायुद्ध की ज्वाला में चिनगारी का काम करने वाली कौणिक की रानी पद्मा थी। उसी के स्वार्थी हृदय ने दोनों कुलों को युद्ध की माला में ढकेला था। स्वार्थिनी नारी पैसे को सम्मान देती है। अपने पारिवारिक जनों को भी वह पैसे के ही गज से नापती है। जो पैसेदार होता है उसका अधिक सम्मान करती है। उसका निकटतम पारिवारिक जन उसके आंगन में आया हो, पर यदि दुर्भाग्य से उसके पास संपत्ति नहीं है तो वह उसको आदर नहीं देगी। उसके खागत में भी भेदभाव करेगी। जिस नारी का स्वभाव क्षुद्र है उसके घर की शान्ति को वह नष्ट करेगी । सुन्दर स्वभाव की नारी घर को स्वर्ग बना देती है । मुंदर श्री खमाव की नारी स्वर्ग को मी नरक का रूप दे देती है। वह घर की आर्यता और पवित्रता को नष्ट कर देती है। कमी कमी वह परिवार के ही श्रीज गंभीर वैर की खाई खोद देती है। धर्मरत आत्माओं की शांति में वह विघ्नभूत भी बनती है। जब उसके हृदय में प्रतिहिंसा की भावना जागृत हो जाती है तो वह दुष्ट अव की भाति बलवती हो कर बदला लेने पर उतारू हो जाती है। पर यदि नारी अपने स्वभाव की सहज कोमलता और करुगा लिए रहती है तो वह देवी बनती।। इसीलिए आगम में स्त्री के लिए 'देवी' शब्द भी आया है । स्वभाव की दुर्जेनत नारी में ही हो पुरुष में न हो ऐसी बात नहीं है। पुरुष तो कमी नारी से भी अधिक क्रूर बन सकता है, और इसी लिए सातवीं नरक के द्वार को खटखटाता है। किन्तु यहाँ नारी का ही खभाव का वर्णन चल रहा है, इसलिए उसी के बुरे स्वभाव का चित्रण दिया गया है। टीका:-कुलानां तूस्सादनं, द्रव्यहीनानां लाघवमनाइरः सर्वदुःखाणां प्रतिष्ठा निहा निधनं चार्यिकाणां वैराणां मंभीरं गुप्तं ग्रहं सद्धर्मचारिणां विघ्नो दुष्टाश्वो मुक्तखलिनः एवंधुता लोके किर्मगना कुस्त्री, लाओ अखलीगं बलवं ति पंचमघष्ठश्लोकयोः पदेष लिंगविपर्ययः। गताः ।।५-६॥ विशेषतः पांचवे और छ? श्लोकों में लिंग विपर्यय है। इस्थिउ बलवं अत्थ, गामे सु णगरेसु था। अणस्सवस्सं हेसं तं अप्पव्वेसुय मुंडणं ॥७॥ घित्तेसिं गामणगराणं सिलोगो॥८॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि भासियाई अर्थ :- जिस ग्राम या नगर में स्त्रियाँ ही बलवती हैं बेलगाम घोडे की समान है। जहां पर स्त्रियों का शासन है वह ग्राम धिक्कार का पात्र है। वाच्य हैं । ११८ हिनहिनाइट या अपने दिनों में मुंडन के प्रस्तुत अध्ययन का प्रथम श्लोक यहां भी जिस ग्राम और नगर में त्रियों का शासन है, जहां का विलासी पुरुष स्त्रियों का गुलाम है वह छोटा ग्राम हो या बडा नगर कभी भी प्रगति के पथ पर नहीं चल सकता है। वह नगर पौरुषहीन हो जाता है। वह बेलगाम के घोडे की हिनहिनाइट की भांति शब्द करता है । पर उसकी राणी में पौरुष का तेज नहीं है । वह अपनी दिशा को बदल नहीं सकता उसके कार्य-कलाप वैसे ही होते हैं। जिस प्रकार से बिना पर्व का मुंडन | स्त्रियां अपने स्वाभिमान और सदाचार की रक्षा में बलवती हों यह किसी भी देश के अपमान या कलंक की बात नहीं है । अपि तु कलंक की कहानी तब होगी जहां पर्दे में गुडियाँ-सी बनी नारियों अपने शील की रक्षा में असमर्थ होती हैं गुंडे और मव्वालियों के भय से घर के बाहर न निकल सकती हो। अपनी रक्षा के लिए जिनके पास आंसू की दो बडी बूंदों के अतिरिक्त दूसरा कोई साधन न रह गया हो और जिस के देश कार्य के लिए यह कहना पड़े कि "अछा जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में हैं दूध और भांखों में पानी ॥" - यशोधरा - मैथिलीशरण गुप्त | देश की यह हालत गौरव की नहीं, अपि तु रौरव की होगी। देश की नारियां शेरनी हो, उनकी आंखों में इतना तेज हो कि मव्वाली उनको देखकर ही कांप उठे। जिस दिन से भारत की रमणियों का यह तेज गया, उसी दिन यह देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा गया || क्योंकि कायर माता की संतान चूहों से भी डरती हैं। शेरनी का पुत्र ही शेर से खेल सकता है ! | पर यहां पर अतर्षि द्वारा किया गया स्त्रियों का विरोध यही अभिप्राय रखता हैं कि जहां का पुरुष समाज वासना के दल दल में फंस कर स्त्रियों का गुलाम बन गया है यह देश कभी भी उन्नति नहीं कर सकता हैं। टीका :- यत्र तु प्रामेषु नगरेषु वा स्त्री बलवती तदनश्वस्य गुन। देषाशब्देव पर्वरहितेषु वा दिनेषु मुंडनमिव भवति । गतार्थः ॥ ७-८ ॥ घिर्सि वाला प्रथम यहां भी चाच्च है । डाहो भयं ता सातो विसातो मरणं भयं । छेदो भयं च सत्यातो, चालातो दसणं भयं ॥ ९ ॥ अर्थ :-- अभि से जलने का भय है। विष से मरने का भय है। शस्त्र से छेदन का भय है। और सर्प से उसने का भय है । गुजराती भाषान्तर :--- અગ્નિથી બળવાનો ભય છે, ઝેરથી મરવાનો ભય છે, શસ્ત્રથી કાપવાનો ભય છે અને સર્ષથી કરડવાનો ભય છે. टीका :- हुताशा भयं दाहो, विषान्मरणं शस्त्राच्छेदो प्याला दशनं । गतार्थः ॥ ९॥ चारों वस्तुएँ भयप्रद हैँ । आग जलाती हैं, विष मारता है, शत्र छेदन करता है और सर्प डस लेता है । जो इन यों पर विजय पाता है वहीं अभय हो सकता है। जिसने आत्मा की अमरता को यथार्थरूप से समझ लिया है वह शरीर की मृत्यु से कभी भी नहीं डर सकता और वह दुनियां की किसी भी शक्ति से नहीं डर सकता है। संकीणीयं जं वत्थु अपडिकारमंच य । तं वत्युं सुड्डु जाणेजा, जुजंसे जे गु जोइता ॥ १० ॥ अर्थ :- जो वस्तु शंकास्पद है और साथ ही उसका प्रतिकार में भी शक्य नहीं है, उस वस्तु के उपभोक्ता को उसका ठीक ठीक परिज्ञान होना चाहिए । गुजराती भाषान्तर : જે વસ્તુ શંકાસ્પદ છે, અને સાથે સાથે તેનો પ્રતિકાર પણ અશક્ય છે, તે વસ્તુનો ઉપભોગ લેનારને તેનું ફીક ડીક બાન હોવું જોઈ એ. i -b Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाइसवां अध्ययन जीवन में ऐसे भी प्रसंग आते हैं जब कि संदेहास्पद वस्तु का उपयोग भी अनिवार्य हो जाता है। किन्तु उसके सेवन के समय बड़ी सतर्कता की आवश्यकता रहती है। सबसे पहले उस वस्तु को जानना होगा और साथही उसका परिणाम भी जानना आवश्यक होगा । यदि यह न जाना तो वह वस्तु विधात भी कर सकती है। जब आवश्यकता देखता है तो वैद्य रोगी को सोमल भी देता है। किन्तु उसके परिणाम का परिज्ञान सर्वप्रथम आवश्यक है। यदि परिणाम का ज्ञान है तो विष भी अमृत होगा और यदि परिणाम नहीं जाना तो अमृत भी चिप का काम कर देता है । अतः उसके उपभोक्ता को सावधानी के साथ उसका उपयोग करना चाहिए। टीका:-शंकनीयं च यद्वस्तु यशाप्रतीकारं तत् सुष्टु त्यक जानीयात् यो युज्यमानानि युज्यमानानां वस्तूना अनुयोजयिता भवति । गतार्थः ॥१०॥ जस्थस्थि जे समारंभा, जेवा जे साणुबंधिणो। ते वत्थु सुट्ट जाणेजा, णेय सम्वविणिच्छप ॥ ११ ॥ अर्थ:--जहां पर जो समारेभ और जो सानुबंध है उस वस्तु को ठीक ठीक जाने वही परिज्ञान सभी पदार्थों के निश्चय में सहायक हो सकता है। गुजराती भाषान्तर: માં જે સમારંભ (એટલે હિંસારૂપી કોશીશ) અને સાનુબન્ધ (અનુસરણ કર્તા) છે તે વસ્તુને જે ઠીક ઠીક પ્રમાણમાં જાણે તેનું જ પૂર્ણ જ્ઞાન બધા પદાર્થના નિયમાં મદદગાર થઈ શકે છે. जो समारंभ और अनुबन्धक कारण है सम्यग-दर्शन-सेपन्न आत्मा उस समारंभ और अनुबन्ध का यथार्थ ज्ञान करे। श्रावक समारंभ करता नहीं है, किन्तु उसे करना पड़ता है। किन्तु कटु औषधि की भांति उसका सेवन करता है। जो कि उचित प्रमाण में होने से उसके लिए प्रगाढ बंध का हेतु नहीं होता है। श्रावक को जब आरम्भ के पथ से गुजरना पड़ता है तब वह महारंभ से न जाकर अल्पारम्भ का मार्ग चुनता है । वह महापथ से न जाकर गोपच नुनता है। टीका:-यत्र ये समारंभा ये वैतेषां सानुबन्धा भवन्ति । तानि पनि सुक्षु जानीयात् । नैतत् सर्वविनिश्चये नैसनिवाहिते अनादस्य निश्चयनीयम् ॥ ११ ॥ जहां ये आरम्भ हैं और जहां उसके सानुबन्ध होते हैं। साधक उन समस्त वस्तुओं को ठीक ठीक जाने । जिसे वस्तु स्वरूप का ज्ञान नहीं है, वह सैचर के स्थान पर आधः उपार्जित करेगा । किसी भी प्रकार को निश्चय करने के पूर्व साधक अपनी बिबेक दृष्टि खुली रखे। जब उसकी बुद्धि पूर्वग्रहों से मुक्त नहीं है और उसकी बुद्धि का खार्थ और ममत्व ने घेर रखा है तब किसी भी प्रकार का निश्चय किया जाएगा वह दूषित निश्चय होगा। जेसि जहिं सुपपत्ती, जेवा जे साणगामिणो । विणासी अविणासी चा, जाणेज्जा कालवेयवी ॥१२॥ अर्थ:-जिसके लिए जहां पर मुखोत्पत्ति है और जो जिसके अनुगामी है, कालविद् उसके विनाशी और अविनाशी रूप को अवश्य ही देखें। गुजराती भाषान्तर: જેને માટે જ્યાં સુખની ઉત્પત્તિ થાય છે, અને જે જેના અનુગામી છે કાલવિદે તેના વિનાશી અને અમર રૂપને અવશ્ય જોવું જોઈએ. मानव के मन में सुख के लिए बहुत बड़ी प्यास है। अनन्त युग से ही वह सुख का अनुगानी है। कुछ वस्तुओं में वह सुख की उत्पत्ति देखता है और उस वस्तु का अनगामी हो जाता है। विचारक देखेगा कि वह वस्तुज स्थिरत्व लेकर आया है। पदार्थों में सुख की एक क्षणिक किरण आती है और उस सुख के पीछे विशाल दुःस की परम्पर। खड़ी रहती है । सुख कुछ मिनटों के लिए आया किन्तु कितना विकराल है उसका क्षणिक रूप ।। अतः समयज्ञ शाश्वत मुख का शोधक बने । टीका:-यत्र येषां समारंभाणां सुखोरपतिर्भवति, ये बँतेषां सानुगामिनोऽनुगमसहिता चिनाशिनो वा विपरीत वा भवन्ति तान् जानीयात् कालवेदविदः । देतीह लौकिकं ज्ञान ॥ १२ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० इसि-भालियाई अर्थ:-जहां जिन समारंभों अर्थात् हिंसात्मक प्रयत्रों द्वारा सुख खोजा जाता है और जो उसके अनुगमनकर्ता होते हैं ये विनाश के पथिक है। अथवा चे विपथ-गामी है । समयज्ञ तथा वेदज्ञ ऐसा जाने। यहां पर वेद से लौकिक ज्ञान अभिप्रेत है। गुजराती भाषान्तर: જ્યાં જે સમારંભો અર્થાત્ હિંસાત્મક કાળા દ્વારા સુખ દીધવામાં કરે અને જે ન અનુગામનકર્તા હે છે, તે વિનાશના માર્ગના મુસાફીર છે. અથવા તે વિપથગામી છે. સર્ફ તથા વેદ એવું જાણવું અહીંયા વેદથી લૌકિક જ્ઞાન અભિપ્રેત છે. सीसच्छेदे धुवो मच्चु, मूलच्छेदे हतो दुमो। मूल फलं च सव्यं च, जाणेजा सब्ववत्थुसु ॥ १३ ॥ अर्थ:--शीस के छेदन से मृत्यु निश्चित है । नूल के छेदन से वृक्ष का विनाश निक्षित है। इसी प्रकार सभी वस्तुओं में विचारक मूल और उसके फल का विचार करे। गुजराती भाषान्तर : માથું કાપી નાખવાથી મૃત્યુ નિશ્ચિત છે, જડ-મૂળથી જ ઝાડ કાપી નાખવાથી તેને વિનાશ નિશ્ચિત છે. તે જ પ્રમાણે બધી વસ્તુઓમાં બુદ્ધિમાન મનુષ્ય મૂળ અને તેના ફળને વિચાર કરવો જોઈએ. किसी भी वस्तु के दो रूप होते हैं। एक उसकी जड़ और दूसरी उसकी शाखा। यदि किसी वस्तु को नष्ट करना है तो उसकी शाखा प्रशाखाओं नहीं बल्कि उसके मूल पर प्रहार करना होगा । यदि किसी वस्तु का विकास करना है तो भी उसके मूल का ही अभिसिंचन करना होगा। यदि दुःख को नष्ट करना है तो उसके लिए उसके निमित्त पर नहीं, उसके उपादान पर प्रहार करना होगा । दुःख की जड अशुभ भाव कर्म को ही रामाम करना चाहिए। सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स य । सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहाशाणं विधीयते ॥ १४ ॥ अर्थ:---जो स्थान शरीर में मस्तक का है और वृक्ष के लिए मूल का है, वही स्थान समस्त मुनि धर्मों के लिए ध्यान का है। गुजराती भावान्तरः - દેહમાં માથાનું જેટલું મહત્ત્વ છે અને વૃક્ષને મૂળનું મહત્ત્વ છે, તેટલું જ સ્થાન સમસ્ત મુનિ-ધમને માટે ધ્યાનનું છે. शरीर में मस्तक का स्थान सर्वोच्च है और वृक्ष के लिए उसकी जड़े महत्व रखती है। साधना में वही स्थान ध्यान का है। चित्तवृत्तियों का निरोध ध्यान है। योगशास्त्र इसी ध्यान की धुरी पर केन्द्रित है। उमास्वाति भी तत्वार्थसूत्र में ध्यान की परिभाषा देते है उसमसंहननस्सैकाप्रचिन्ता निरोधो ध्यानम् ।-तत्त्वार्थ सूत्र अ० ९ सू० २७ । मन की बिखरी हुई किरणें जब किसी एक तत्त्व पर केन्द्रित हो जाती है तो उसकी शक्ति में प्रखरता आ जाती है। जब यह मन की संग्रहित शक्ति शुभ की तरफ अग्रसर होती है तभी वह आत्म-साधना का द्वार खोलती है। शुभ अभ्यवसाय ही अमण साधना का मूल है। टीका:-नवमश्लोकादारभ्य परिसादिकम्मेयादृषिभाषितं पुष्करपत्रोपमान्तमनुबध्यतेति व्यक्तं 1 गभालाध्ययनम् । गर्दभालीयेत्यपरनामकम् । नवम श्लोक से लेकर परिषाडि क्रम्म पर्यन्त प्रषि भाषित है । यह पुष्कर पर्यन्त अनुबच्य है जो कि व्यक्त है। इस प्रकार दगभालाध्ययन जिसका अपर नाम गर्दभालीय भी है समाप्त हुभा । एवं से सिद्धे युद्धे० । गतार्थम् । ऋषिभाषितेषु वगभाली-गर्दभीयं द्वाविंशत्यध्ययनम् । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामपुत्र अर्हता प्रोक्त बीसवाँ अध्ययन मानव अपने जीवन के लिए सौ सौ विचार रखता है। वकील बनना है उसके बाद यह करना है वहाँ जाना है । किन्तु कभी भी अपने मृत्यु के विषय में नहीं सोचता है। जो कि सृष्टि का अनिवार्य नियम है। मृत्यु से राव डरते किन्तु मृत्यु डरने की बदलने की वस्तु नहीं है। उससे हम अपना जीवन बदल सकते हैं। भारत के प्रधान मंत्री कहते हैं कि मृत्यु से नया जीवन मिलता है। जो व्यक्ति या राष्ट्र भरना नहीं जानते हैं वे जीना भी नहीं जानते हैं । - जवाहरलाल नेहरू 1 ओ मरना जानता है उसके लिए मौत भयंकर भी नहीं होती है। विश्वकति रवीन्द्रनाथ ने जीवनदर्शन में ठीक ही कहा है: Death's stamp gives value to the coin of life, making it possible to buy with life what is truly precious - विश्वकवि रवीन्द्रनाथ. जीवन के सिक्के को मौत की छाप मूल्यवान बना देती है। इसी लिए जीवन देकर वास्तव में मूल्यवान वस्तु खरीदना संभव हो जाता है । मृत्यु का तत्वदर्शन ही प्रस्तुत अध्ययन का विषय है । सिद्धि || दुबे मरणा असि लोए एवमाहिति तं जहा - सुहमतं चैव दुहमतं प्येव । रामपुवेण अरहता हसिणा इतं । अर्थ :- इस लोक में दो प्रकार की मृत्यु बताई गई है । जैसे कि सुख रूप मृत्यु और दुःख रूप मृत्यु । राम पुत्र इस प्रकार बोले । गुजराती भाषान्तर: આ લોકમાં મરણુના એ પ્રકાર માનવામાં આવે છેઃ સુખરૂપી મૃત્યુ અને દુઃખરૂપી મૃત્યુ, રામપુત્ર અદ્વૈતષ आम मोल्या. जन्म लिया हुआ प्राणी मरता है। सिद्धान्तों में मतभेद हो सकते हैं, परन्तु मौत में दो मत नहीं होते हैं । किन्तु मृत्यु की भी कला होती है। एक की मृत्यु दुनियां के लिए आशीर्वाद रूप बनती है जब कि दूसरे का जीवन भी अभिशाप होता है। जिसके जीवन में खुशबू है, वह जब मरता है तो कोटि कोटि हृदय से पड़ते हैं। दूसरे भी एक प्रकार का व्यक्ति है जो कि जब अपनी जीवन लीला समाप्त करता है तम जनता के मुंह से सहसा निकल पढता है कि 'अच्छा हुआ, गांव की उपाधि दूर हो गई !' यहाँ पर जिन दो प्रकार की मृत्यु का निरूपण किया गया है एक सुख रूप मृत्यु और दूसरी दुःख रूप मृत्यु है । जिसका जीवन सुखमय रहा है जिसने अपने जीवन में शान्तिमय कार्य किया होगा, दूसरों के पथ में भी जिसने शान्ति के फूल बिछाए होंगे उसकी मौत भी सुखरूप होगी। इसके विपरीत जिसने दूसरे के जीवन में आग लगाई होगी और स्वयं मी जीवन भर उसी आग में जलता रहा होगा, अतः उसका जीवन दुःखमय है और उसकी मृत्यु भी कभी सुखमय नहीं होगी । आगम की परिभाषा में इसको 'पंडित मरण' और 'बाल मरण' का नाम दिया गया है। संरिमेय दुवे ठाणा अक्खाया मरणंतिया । कारणं चैव सकाममरण सहा । - उत्तरा० अ० ५ गाथा २ संसार में दो प्रकार के मानव होते हैं। एक तो वे हैं ओ मौत को देख कर रोए, चिल्लाए और मर गए। दूसरे वे है, जिन्होंने मौत को देखते ही वीरता के साथ उसका स्वागत किया और अभय की प्रतिमा बन कर मौत की गोद में सो गए। स्थूलभाषा में दोनों ही मरे हैं । किन्तु चिन्तक की आंखों में एक को मौत ने मारा हैं और दूसरे ने मौत को मारा है । संसार के महापुरुष इसी अर्थ में मृत्युजेता हैं। टीका :- द्वे मरणे सिलोके एवमाख्यायते, तद् यथासुखमृतं चैव दुःखमृतं चैत्रात्र विज्ञप्तिं व्याख्यानं बवीमि । गतार्थः । प्रोफेसर विंग् लिखते हैं कि मत और मृत में शब्द की कीड़ा है। जो कि जान बूझ कर ही रखे गए हैं। १६ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ इसि-भासियाई इमस्स खलु ममाइस्स असमाहियलेसस्स गंडपलिघाइयस्स गंडबंधणपलियस्स गडबंधणपरिघात करेस्सामि, अलं पुरेमरणं । तम्हा गंड-बंधण-पडियातं करेता णाणदसणचरित्ताई पडिसेविस्सामि । अर्थ:-मैं असमाधित लेश्या वाला है। अर्थात मेरी लेश्या शुभ नहीं है । राग द्वेष की प्रन्यि ने मुझे पराजित कर रखा है। उस ग्रन्थि से मेरी आत्मा बद है। अब मैं प्रन्थि बन्धन को तोड फेकुंगा। पहले मैं दुःख-मृत्यु अर्थात अकाम मृत्यु से मरा वही बहुत है । अब मैं प्रधिच्छेद कर के ज्ञान दर्शन चारित्र की आराधना करूंगा। गुजराती भाषान्तर: હ અનુચિત લેશ્યાવાળો છું. એટલે મારી લેગ્યા શુભ નથી. રાગ-દ્વેષની થિએ મને પરાજિત બનાવ્યો છે, તે જ ગ્રન્થિથી મારો આત્મા બંધાયેલો છે. હવે હું ચન્થિ બંધનને તોડીને ફેંકી દઈશ. પહેલા હું દુઃખ મૃત્યુ અર્થાત્ અકામ મૃત્યુથી મર્યો તે જ ઘણું છે. હવે હું ચન્વિચ્છેદ કરીને જ્ઞાન દર્શન ચરિત્રની આરાધના કરીશ. अप्रशस्त लेश्या और राग द्वेष की परिणति ही दुःख मूलक मृत्यु के मूल हेतु हैं। एक कहावत है कि 'जैसी मति वैसी गति' । जिसने अपने जीवन में जिसने अशुभ कर्म ही किए हैं, दूसरों की शान्ति भंग की है, अपनी शान्ति के लिए दूसरों को रुलाया है वह आत्मा कमी भी शान्ति पूर्वक नहीं मर सकती है। मृत्यु जीवन की परीक्षा का परीक्षा-फल है । अध्ययन और उत्तर पुस्तिका के ही आधार पर परीक्षा-फल आता है। जिसके जीवन की उत्तर कापियो गलत है उसका परीक्षा-फल कमी भी अच्छा नहीं आ सकता है। राम और देष की अन्थिया प्रगाद हैं । आत्मा राग-द्वेषाग्नि में झुलस रहा है। मृत्यु की पत्तियों में मी मन के उद्गार शान्त नहीं हुए हैं, इस अवस्था में मृत्यु सुन्दर नहीं हो सकती है। जिसका मन निर्वेर है वह मृत्यु की गोद में इस प्रकार सोएगा मानो निद्रा की गोद में सोया है । मन जर की अमि है, लता मह शान्त निदा भी नहीं पा सकता है। इस अवस्था में शान्त-मृत्यु उसके नसीब में कहाँ ! मृत्यु भी एक प्रकार की निद्रा है। उस निद्रा से श्रादमी जाग सकता है जब कि इस महानिद्रा में सोनेवाला पुनः नहीं उठ सकता है। इतना ही तो अन्तर है दोनों में। मृत्यु के क्षणों में स्मृति स्वच्छ हो जाती है। सारा जीवन फिल्म की तरह उसके सामने आ जाता है। यदि जीवन का इतिहास भलाई का इतिहास है तो मृत्यु के मुँह मे पहुंचते हुए भी उसके मुख पर सन्तोष की रेखा रहेगी। उसके लिए मौत मानो मो की गोद रहेगी। मौत उसके लिए वॉरन्ट नहीं, मान पत्र ले कर आएगी । । पर जिसके जीवन के इतिहास के पनों पर बुराई के काके निशान पडे हैं उसके लिए मौत मानो वॉरन्ट लेकर आई है। उसको देखते ही वह कांप उठता है। शान्तिपूर्ण नींद पाने के लिए चिन्ताओं को कोट की भौति उतार कर खूटी पर रोग देना चाहिए। इसी प्रकार शान्तिपूर्ण नींद पाने के लिए घर की गठरी को दूर करनी चाहिए। केवल निर्वेर मन ही शान्ति पा सकता है। इसीलिए ऋषि बोलते हैं कि मैं आज तक अशुभ लेझ्या और राग द्वेष की गठरी को सिर पर लेकर घूमता रहा हूं। वह गठरी मौत के समय भी मेरी छाती पर शिला की भाँति पड़ी है और में शान्ति पूर्वक मर भी नहीं सकता। भतः अब मैं उसको एक ओर पटक कर मेरे निज-भाव, ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करूंगा। टीका:-इमस्स खलु ममीकारिणो भसमाहितलेश्या असमाहितमनोवृत्तिकस्य गंड इति प्राथ्यार्थे तेन परिधातितस्य बाधितस्य बंधनपरिघातस्येति पाठा शकीयैव गरबंधनप्रतिघातं करिष्यामि। भर्स पुरोमतेन दुःखं मरणमिति तस्मात् । पूर्वोक्तं कृत्वा ज्ञान-दर्शनधारिवाणि प्रतिसेमिष्ये । गतार्थः । गंड शब्द पंथी के अर्थ में आया है। तथा बंधन परिघात का पाठ शंकास्पद है। प्रोफेसर शुबिंग लिखते हैं कि: 'इमस्स करेस्सामि' बतलाता है कि वह सभी कठिनाइयों से दूर रहना चाहता है । आत्मा के बंधनों से भी दूर रहना चाहता है और ऐसा लगता है कि दूसरा गंड शब्द निकाल देना चाहिए। गेड शब्द उत्तराध्ययन की टीका में प्रन्थि अर्थ में आया है। आचारांग सूत्र में भी यह शब्द आया है। किन्तु उसका अर्थ यहाँ ठीक नहीं लगता है। पलिघाएइ शब्द यहां पर विशेष रूप से जोवने में आया है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : चौबीसवाँ अध्ययन १२३ पासिता संजमेणं संजसिय तत्रेण अट्टविहकम्मरयमले विधुणित विसोहिय अपादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं वाउरंतसंसारकं तारं श्रीतिवत्तित्ता सिवम यल- मध्य मुख्य मन्या याहमणरावत्तियं, सिद्धिगतिणामधिजं ठाणं संपते अणामतद्धं सासतं कालं चिह्निस्सामिति । अर्थ :- ज्ञान से जान कर, दर्शन से देखकर और संयम से संग्रमिल होकर तुम से अष्टविध कर्मरज रूप मल को लाग कर आत्मा को विशुद्ध बना करें अनादि अनन्त दीर्घ मार्गवाले चातुरन्त संसार की वन वीथि को पार कर शिव अचल अ अच्रोगरहित अक्षय न्याबाध पुनरागमन निरपेक्ष, सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त करूंगा और भविष्य में शाश्वत काल तक रहूंगा गुजराती भाषान्तरः જ્ઞાનથી જાણીને, દર્શનથી જોઈ બે અને સંયમથી સંમિત થઈને તપથી વિધ કર્મ રજ રૂપી મળમે ત્યજીને આત્માને વિશુદ્ધ અનાવીને, અનાદિ અનન્ત દીર્ઘ માર્ગ વાળા ચાતુરન્ત સંસારની વન માર્ગને પાર કરીને શિવ, અચલ, અજ=રોગરહિત અક્ષય, અભ્યાબાધ પુનરાગમન નિરપેક્ષ, સિદ્ધિગતિ નામના સ્થાનને પહોંચીશ અને ભવિષ્યમાં અનંત કાળ સુધી રહીશ. टीका :- ज्ञानेन शाख्या दर्शनेन दृष्ड्डा संयमेन संयम्य तपसाऽष्टविधकर्मरजोमलं विधूय विशेोध्यानादिकं नवदीर्घाध्वानं चातुरन्त संसारकान्तारं व्यतिपत्य शिवमित्यादिविशेषितं सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तो अनागतध्वानं शाश्वतं काले स्थास्यामीति प्रतिबोधितस्य कस्यचिदध्यवसायः । आत्मा वासना को मन में लिए अनन्त बार मरा हैं किन्तु सम्यग् ज्ञान दर्शन और चारित्र को लेकर यदि देव का ब्याग करता है तो भन्न परम्परा की शृंखला को तोड देता है और शात शान्ति का पथिक हो जाता है । एवं से सिद्धे बुद्धे । गतार्थः । रामपुक्तीयज्झणं रामपुत्र - अर्हतर्षिप्रोक्तं त्रयोविंशतितमं अध्ययनं हरिगिरिभवर्षि प्रोकचौबीसवां अध्ययन विश्वरूपी रंगमंच पर आत्मा नए नए अभिनय लेकर आता है। यद्यपि उसका स्वभाव ज्ञाता और ऋष्टा है, किन्तु वह स्वयं ही अभिनेता बन गया है और अभिनेता भी ऐसा जो रंग भूमि को निज भूमि मान बैठा है। यही मिथ्या विचार उसकी मंजिल को दूर ढकेलता जाता है और उसका हर कदम पथ को बढाता जाता है। जिस क्षण उसकी तंद्रा भंग होती है तब वह समझ लेता है कि मैं विश्व रंगमंच का अभिनेता नहीं, द्रष्टा मात्र हूँ । - कषाय और वासना की गठरी सिरपर ले कर द्वार भटकना मेरा खभाव नहीं हैं। यह सारा नाटक ही गलत रूप से खेला जा रहा है। जिस क्षण आत्मा स्वरूप का बोध कर लेता है। उसी क्षण सारा दृश्य बदल जाता है। यही सब कुछ प्रस्तुत अध्ययन का विषय है । सव्वमि पुरा भइदाणिं पुण अभवं । हरिगिरिणा अरहता इसिणा बुझतं ॥ अर्थ :--- पहले यह सब कुछ भवितव्यतापेक्ष था । अब भवितव्य भावी भाव से अनपेक्षित है। हरगिरि अर्द्धतर्षि इस प्रकार बोले । १. नाणेण जागई भावे दंसणेण सह । चरितेण व गिष्टाइ तत्रेण परिसुदाई उत्तर अध्यय २८ गाथा ३५ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ हसि-भासियाई गुजराती भाषान्तर: પહેલા આ બધાને ભવિષ્યકાલ ઉપર જ આધાર હતો. હવે ભવિતવ્ય ભાવી ભાવથી અનપેક્ષિત છે. હરગિરિ અહર્ષિ એમ બોલ્યા. आस्मा अनादि का यामी है। यात्रा के पथ में इसने कहाँ कहाँ विश्राम किया है। कितने रूप बदले हैं या कौन कह सकता है ?। पहले जो रूप था वह रूप आज नहीं है और आज जो रूप है वह रूप कल रहेगा या नहीं कह नहीं सकते। कभी यही आत्मा देव बन कर म्वर्ग के सिंहासन पर बैठा है, तो कभी नरक की काल कोठरी में कैद भी रहा है। कमी इन में नहाया है तो कमी गन्दी नाले का कीड़ा बन कर कुलकुलाया है। जैनदर्शन आस्तिक दर्शन है। वह यह खीकार करता है कि आत्मा अपने पिछले जन्म में अनन्त रूप बदल कर आया है। अनन्त अनन्त जन्म और अनन्त बार की मौत को देख कर वह आया है। फिर किसका सौन्दर्य शाश्वत रहा। टीका :-सर्वमिदं पुरा भास्यं भवितव्यापेक्षमिवानी पुनरभव्य मषितम्यानपेक्ष भवति । पहले भवितव्य के अनुरूप ही प्रवाह था । अब भवितव्य से अनपेक्षित होता है । अतीत में जो कुछ हुआ वह हमा भवितव्य के अरूप था । अम वर्तमान हमारे भवितव्य के अनुरूप नहीं है । इसका अर्थ यह हुआ कि पहले हम नियतिवाद के अधीन थे। अब नियतिषाद से मुक्त है । यह भाव ठीक नहीं लगता है। तथ्य यह हो सकता है कि हम वर्तमान में जो कुछ भी है वह हमारे पूर्व कृत कर्म के अनुरूप है। अतीत में हमने जो कुछ किया है वर्तमान उसी के अनुरूप है। किन्तु भविष्य हमारे पुरुषार्थ पर अवलम्बित है। यदि अतीत हमारा निर्माता है तो भविष्य के निर्माता हम हैं । अतः हम जैसा बनना चाहते हैं वैसा बन सकते हैं। प्रोफेसर शुबिम् लिखते है कि, 'इसके पहले भी दुनियां थी, किन्तु मैं इसका क्षण-स्थायी रूप नहीं जानता था. किन्तु अब मेरे लिए इस के प्रति अल्प भी आकर्षण नहीं है। संसार स्वभाव का ज्ञान मुझे है। फिर भी मेरी आत्मा ज्ञान आदि में रमण करती है। संसार की प्रियता मुख लेकर आती है किन्तु साथही उसकी विरुद्ध दिशा भी मेरे सामने रहेगी। क्योंकि उसका सुख शाश्वत नहीं है। दुनिया उसके हानि और लाभ के साथ संसार की निस्सीमता को प्रकट करेगी। गोश.के विश्लेषण के लिए इतना विवरण पर्याप्त है । यदि इसको सही रूप से समझना है तो आगे आनेवाले पद भनिटि अथवा नियष्टि को भी समझने का प्रयास करना चाहिए। चयति खलु भो य णेरइया रतियत्ता, तिरिक्खा तिरिक्खत्ता, मणुस्सा मणुरुसत्ता देवा देवचा, अणुपरियट्ठति जीवा बाउरंतं संसारकतारं कम्माणुगामिणो तथा वि मे जीवे इथलोके सुझुप्पायके परलोके दुप्पाद अणिप. अधुवे अणितिए अणिधे असासते सजति रजति गिजाति मुज्झति अमोअवजति विणिघातभावाति।। अर्थ:-लारक नारकत्व को, तिर्यग्यौनिक तिर्यक् योनि को, मनुष्य मनुष्यत्व को, देव देवत्व को छोरते है। कर्मानुगामी जीव चातुरन्त संसार वन में परिभ्रमण करते हैं। तथापि मेरी आत्मा इस लोक में सुख का उत्पादक है । परलोक में दुःखोत्पादन करता है। अनियत, अध्रुव, अनित्य और अशाश्वत लोक में यह आत्मा आसक्त और अनुरक्त होता है, गृह होता है, विषयासक बनता है और व्याघात प्राप्त करता है। गुजराती भाषान्तर :-- નારક નારકન, તિલૈનિક તિર્થક યોનિને, મનુષ્ય મનુષ્યત્વને, દેવ દેવત્વને છોડે છે. કમનુગામી છવ ચાતુરન્ત સંસાર વનમાં ભમતો રહે છે. તથાપિ મારો આતમાં આ લેકના સુખનું ઉત્પાદન કરનાર છે. પરલોકમાં પણ દુઃખ સર્જે છે. અનિયત, અદ્ધવ, અનિય અને અશાશ્વત લેકમાં આ આતમા આસક્ત થએલા અને અનુરા હોય છે, લોભી હોય છે, વિષયાસક્ત અને છે અને વ્યાઘાત પ્રાપ્ત કરે છે. नारक नारकस्य को छोडकर कभी पशु योनि पाता है। पशु कभी पशु योनि को छोड कर मनुष्य और कमी देश भी बनता है। किन्तु परिवर्तन का यह नर्तन कभी भी समाप्त नहीं हो सकता है। देव बन कर देवों का वैभव पाया, सागरों तक यहा का सुख लिया, परन्तु एक दिन वहीं से भी धक्का मार कर निकाल दिया गया। किन्तु यह भुलकाड पथिक आत्मा जहां कहीं जाता है वहीं अपना डेरा डाल कर रहने लगता है, मानो वहां से उसको कमी घटना ही नहीं है ।। इतना ही नहीं वह Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ attent अध्ययन १२५ अशाश्वत को शाश्वत बनाने के लिए हजारों प्रयत्न करता है। परिणाम में उसके वे प्रयत्न वर्तमान क्षणतक ही सीमित रह जाते हैं। वह वर्तमान के सुख को लक्ष्य में रख कर चलता है, किन्तु गुल के वे अल्प क्षण परलोक के अनन्त दुःखों को जन्म देते हैं। फिर आत्मा वहां रहता है। उसमें आसक्त होता है किन्तु एक दिन उसके सुख का महल ताश के पत्तों का महल हो जाता है । और वह सब कुछ वहीं छोड़ कर आगे चलने के लिए बाध्य हो जाता है । टीका :- खलु भो नैरयिका नैरयिकत्वात् तिर्यग्योनयस्तिर्यग्योनित्वात् मनुष्या मनुष्यत्वात् देवा देवावनुपरिवर्तन्ते जीवाचा तुरंत - संसारकंसारं कर्मानुगामिनः, तथापि मम जीव इहलोके सुखोत्पादकः, परलोके दुःखोम्पादकोनिजोsवोऽनित्यः, अणितिए अणिवेति पदे समस्युत्पत्ती' सजति यावत् मुल्यस्यभ्युपपद्यते विनिधात मापद्यते । गतार्थः । पडण - विकिरण- विद्धंसण धम्मं अग जो गक्खेम समायुक्तं जीवस्स अतारेhi संसारनिकरेति, संसारणिच्छेद करेता शिवमचल० चिट्टिस्तामिति । अर्थ :- यह उन पडन, विकीर्ण और विध्वंस धर्मयुक्त-संसार अनेक योगक्षेम और समत्व से रहित जीव के लिए दुस्तरणीय है । वह संसार की वृद्धि करता है। संसार प्रपंच में फंस कर यह दावा करता है कि शिव अचल स्थान को प्राप्त करूंगा। गुजराती भाषान्तर: આ સડન પાન, વિકીર્ણ અને વિધ્વંસ ધર્મયુક્ત સંસાર અનેક યોગક્ષેમ અને સમત્વથી રહિત જીવને માટે દુસ્તરીય છે. તે આ સંસારની વૃદ્ધિ કરે છે. સંસાર પ્રપંચમાં ફસાઈને આ દાવો કરે છે કે શિવ અચલ સ્થાન प्राप्त उरीश, जब तक संसार की आसक्ति नहीं समाप्त हो जाएगी तब तक भव-परंपरा भी नहीं समाप्त होगी । जो तप और साधना करता है और बोलता है कि में भव-समाप्ति के निकट हूं वद भ्रान्ति में है। जब तक जिसने योग और क्षेम को नहीं पहचाना है और समता का पाठ नहीं पढ़ा है तब तक उसकी साधना भव- परम्परा को समाप्त करने में सहायक नहीं हो सकती है । समता साधना का अन्तःप्राण हैं । साधना चलती रही, और कषाय की मात्रा बढ़ती रही उस साधना का कोई मूल्य नहीं है । एक आचार्य ने ठीक ही कहा है पेय और वेष में मुक्ति नहीं हैं तब के उलझन और तर्क के छिलटे निकालने में भी मुक्ति नहीं है, अपि तु कषाय मुक्ति ही यथार्थ मुक्ति है । 4 नाशम्वरत्वेन सितम्बरत्वे न तस्ववादे न च तर्कवादे । न पक्षसेवाश्रयणेन मुक्तिः, कषाय मुक्तिः किल एव मुक्तिः । टीका :- इमां च पुनः शटन, पटन, विकिरण, विध्वंसन, धर्ममनेक, योगक्षेम, समायुकजीवख्यातीय संसारनिष्टि करोति लोकप्रपंच सेवते, इमां च संसार निर्व्यष्टि कृत्वा संसारकांतारमनुपरिवर्तते तन्त्वनुवृत्य संवेगनिर्वेदौ गता इत्यर्थपूर्णार्थमध्याहार्थं परन्तु शिवमित्यादि याचत् चिट्टिस्लामित्ति अपास्यं मिथ्येह निवेशितत्वात् । योग, क्षेम और समभाव से रहित मात्मा के लिए दुस्तीये शन, पढन, विकिरण और विध्वंसन गुण युक्त संसार निर्वयष्टि अर्थात् उलझी हुई गुत्थी है। समभाव रहित साधक संसार की छोर रहित गुत्थी को सुलझाने के लिए विश्व में भटकता रहता है | उस गुल्मी में उलझा हुआ आत्मा संवेग निर्वेद को प्राप्त करता है। यह अपूर्ण अर्थ वाली बात है । किन्तु शिव इत्यादि विशेषण युक्त स्थान में ठहरूंगा यह खंडित हो जाता है | अतः यह पाठ मिध्या रूप में यहां आगया है । प्रोफेसर बिंग भी लिखते हैं कि मोक्ष में परिवर्तन संभव नहीं है। अतः ऐसा लगता है कि वे शब्द गलत ढंग से बिठा दिए गए हैं। तुम्हा अधुवं असास मिणं संसारे सव्वजीवाणं संसतीकरणमिति णचा णाणदंसणचरिताणि सेविस्लामि, णाण - सण-चरिताणि सेविता अणदीयं जाव कंतारं वितियतित्ता सिवमचल जाच ठाणं अभुगते चिट्टिस्वामि । अर्थ :- अतः अनुष अशाश्वत संसार में सभी आत्माओं के लिए संसकि और दुःख ही है । यह जान कर में शान दर्शन चरित्र स्वीकार करूंगा और इस प्रकार अनादि यावत् भव-वीथिका का अतिक्रमण कर शिव शाश्वत स्थान को प्राप्त करूंगा। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ इलि-भासियाई गुजराती भाषान्तर: અતઃ અબ્રુવ, અશાશ્વત સંસારમાં બધા આત્માઓને માટે સંસક્તિ અને દુઃખ જ છે. તે જાણીને હું જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર સ્વીકાર કરીશ અને આ પ્રકારે અનાદિ યાવતુ ભવમાર્ગનું ઉલ્લંઘન કરીને શિવ, શાશ્વત સ્થાનને પ્રાપ્ત કરીશ. टीका:-तस्मादधुवमशाश्वतमिदं संसारे सर्वजीवानां संसृतिकारणमिति ज्ञात्वा हान-दर्शन-चारित्राणि सेविष्ये। तानि सेचित्वा संसारकांतारं व्यतिपत्य शिवस्थानमभ्युपगतः स्थास्यामीत्यत्र निश्चयः । कतारे वारिमझे वा, दित्ते वा अग्गिसंभमे । तमंसि वाडधाणे या सया धम्मो जिणाहितो ॥१॥ अर्थ:-वन में, पानी में या अग्नि की ज्याला में अंधकार में या छोटे गांव में सर्वत्र सर्वज्ञ कथित धर्म साथ होना चाहिए। गुजराती भाषान्तर:-- વનમાં, પાણીમાં કે અગ્નિની જવાળામાં, અંધકારમાં કે નાના ગામમાં સર્વત્ર સર્વ કથિત ધર્મ સાથે હોવો જોઈએ. साधना की धारा सर्वत्र एक रूप से ही वहनी चाहिए । साधक गांव में हो या नगर में। उसके जीवन में एकरूपता होनी ही चाहिए। ऐसा नहीं है कि गांव की साधना कुछ दूसरी हो और शहर की कुछ दूसरी; तथा वन की साधना इससे भी निराली हो। शहर के चतुर श्रावकों के सामने हमारी साधना का स्वर तीन हो उठे। गांवों में ग्रामीणों की अबोधता का लाभ उठा कर अपने साधना को नीचे खर पर ले आए और धन की सूनी वीथिका में स्वतंत्र हो जाए। भगवान महावीर दशकालिक में साधक जीवन में एकरूपता लाने के लिए निर्देश करते हुए कह रहे है कि:से भिक्खु वा भिक्षुणी वा गामे वा नगरे वा रणे वा मरणे वा पुगो वा परिसागओ चा सुते वा जागरमाणे वा। साधक या साधिका गांव में हो या नगर में अथवा जंगल के वीरान प्रदेशों में हो, अथवा बह विशाल परिषद में ही क्यों न बैठा हो, वह सुषुप्ति में हो या जागरण में उसकी आत्म-साधना की धारा एक रूप से ही प्रवाहित रहे। अथवा प्रस्तुत गाथा का एक अर्थ यह भी हो सकता है कि साधक सूने जंगल में हो, सागर की जल धारा में फेंक दिया गया हो अथवा आग की लपटों में ही उसे फेंक दिया गया हों तब भी सर्वज्ञ कथित धर्म से वह विमुख हो जाना कदापि स्वीकार नहीं करेगा। . टीका:-बाधाणेत्ति पदस्पार्थो न जायते । “वाधान" इस पद का अर्थ अज्ञात है। प्रोफेसर शुकिंग लिखते हैं कि “तमंसि पाठ के आधार पर तम्मि होना चाहिए 1" परन्तु तमसि पद भी व्याकरणसम्मत है। "वटवन" शब्द यहां विशेष नाम के रूप में आया है, जब कि प्रस्तुत गाथा में वह विशेष नाम योग्य नहीं लगता है। साथ ही कान्तार वारि अग्गि और तमो शब्द केवल सामान्य विचार को लेकर आए हैं। ऐसी स्थिति में उसका अर्थ वाडे की अग्रह के रूप में होना चाहिए । कहीं पटचन का चन्द्राल अर्थ लिया गया है। परन्तु वह अर्थ कहीं भी व्यवहत नहीं है। धारंणी सुसहा चेव, गुरू मेसज्जमेव वा । सद्धम्मो सध्यजीवाणं, णि लोप हितंकरो॥२॥ अर्थ:-सर्वसहा पृथ्वी और महान् औषधिको प्राणिमात्र के लिए हितकर हैं। इसी प्रकार सद्धर्म भी समस्त प्राणियों के लिए सदैव हितप्रद है। प्रोफेसर जेकोबी ने अपनी पसंद की हुई कहानियों की अनुक्रमणिका में संशोधन भी किया है। गुजराती भाषान्तरः - સર્વસાહ પૃથ્વી અને મહાન ઔષધિઓ પ્રાણીમાત્રને માટે હિતકર છે, એ જ પ્રમાણે સારો ધર્મ પણ સમસ્ત પ્રાણીઓ માટે સદૈવ હિતપ્રદ છે, १. चारपेन्टियर की प्रत्येक बुद्ध कहानियाँ । ५.१५१ । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां अध्ययन १२७ रोग अस्त-मानव के लिए पौषधि पिय है, एक किसान के लिए खेत की मिट्टी प्रिय है। क्योंकि बही तो उसे जीवन का आधार है। इसी प्रकार जीवन में प्रकाश की प्रेरणा देने वाला धर्म मानव के लिए हितावह है। क्योंकि आत्मा का स्वभाव ही धर्म है। आचार्य कुन्दकन्द ने धर्म की परिभाषा देते हुए लिखा है कि “वयु सहावो धम्म ।" पर भाज धर्म धर्मस्थानकों में है। मन्दिर और मस्जिदो में है, किन्तु वह आत्मा में नहीं है। जोकि उसका अपना स्थान है। इसीलिए धर्म की विडंबना है। सिग्घघट्टिसमायुत्ता, रचनाके जहा अरा। फडंता वल्लिच्छेया वा सुनुवरखे सरीरिणो ॥३॥ अर्थ :-जैसे रथ-चक्र में रहा हुआ शीघ्र घूमने वाला आरा सारे रथ को गति देता है अथवा जिस प्रकार से लता के छेद नष्ट होते हैं, इस प्रकार देहधारियों के सुख दुःख भी होते हैं। गुजराती भाषान्तर: જેવી રીતે રથના ચક્રમાં રહેલો ઝડપથી ઘુમાવતો આરો આખા રથને ઝડપથી લઈ જાય છે, અથવા જેવી રીત લતાનો છેદ નષ્ટ થાય છે, તે જ પ્રમાણે પ્રાષ્ટ્રિમાં સુખ-દુ:ખ પણ હોય છે. मुख एक ऐसा शब्द है जिसको समस्त देहधारी चाहते हैं। दुःख से सब कोई भागना चाहते हैं। सुख के पीछे प्राणी दौड़ता है और प्राणी के पीछे दुःख दौड़ता है। मुख की छाया में दुःख विश्राम करता है। भौतिक दुनिया में सुख अकेला ही नहीं आता है वह अपने साथी दुःख को भी अपने साथ छिपा कर ले आता है। मनुष्य सुख का स्वागत करता है, किन्तु उसके पीछे छिपे हुए दुःख की ओर उसकी दृष्टि ही नहीं जाती है। अहंतर्षि इसी सभ्य को रूपक द्वारा प्रकट करते हैं। रथचक मैं आरा लकड़ी के खंड लगे रहते हैं। जब रथ चक देश से घूमता है तो आप भी एक के बाद एक आता रहता है। इसी प्रकार जीवन के चक्र में सुख और दुःख आरा है। जीवन रथ चलता है और सुख दुःख का आरा भी घूमता रहता है । लता के छेद से संबन्धित अर्थ समझ में नहीं आता है । सुखदुःखे शब्द संस्कृत में द्वि वचन के अनुरूप है । टीका:-वृत्तित्ति वृत्ति:-परिवर्तः, शीघ्रया तया समायुक्ता रथचके यथारा स्फटन्तो वा भंगुरा घल्लिच्छेदास्तथा शरीरिणः पुरुषस्य " सुदुःखे" ति द्विवचनं संस्कृतकापं । गताः । संसारे सध्यजीवाणं, गेही संपरियसते। उदुम्यकतरूणं वा, वसणुस्सषकारां ॥४॥ अर्थ:-संसार की समस्त आत्माएँ आसक्ति-को लेकर परिभ्रमण करती हैं। जैसे कि उदुम्बर वृक्षों का प्रसव दोहद व्यसनोत्सब का हेतु बनता है। गुजराती भाषान्तर: સંસારના બધાં પ્રાણ આસક્તિના કારણે વપરંપરામાં ફરે છે. જેવી રીતે ઉદુમ્બર વૃક્ષોના પ્રસવના દોહદ આફતને નોતરું આપવાનું કારણ બને છે, आसक्ति-भव-परम्परा का मूल है। जैसे सूत्रधार समस्त पात्रों को नचाता रहता है वैसे ही आसक्ति-समस्त आत्माओं को परिभ्रमण कराती है। संसार की व्याख्या करते हुए एक संत ने लिखा है कि "कामानां हृदये वासः संसार इति कीर्तितः ।" हृदय में कामनाओं का वास ही संसार है। जैसे उदुम्बर वृक्षों का प्रसव-दोहद व्यसनोत्सव का कारण बनता है अर्थात् उदुम्बर को पुष्पित होने पर मदनोत्सव मनाया जाता है। उसका पुध्यित होना विकारोत्तेजक है। इसी प्रकार सासक्ति-भव-परम्परा का मूल कारण है। संसारे सर्वजीवाना गृद्धिः संपरिवर्तते। उदुम्बरतरण प्रसबदोहदो यथा म्यसनोत्सवकारणं मयंगचेष्टादीनां देतोः गावार्थः । अहि रवि ससंकंच, सागरं सरियं तहा। इंदज्र्य अणीयं च, सजमेहं च चिंतए ॥ ५॥ अर्थ 1-अभि, सूर्य, चन्द्र, सागर और सरिता इन्द्रध्वज सेना और नए मेघ का चिन्तन करना चाहिए। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૮ यदि गरीब के झोपवे में जलाया और शीतलता को ग्रहण करे, मावा और सेना से प्रेरणा और इसि-भासियाई गुजराती भाषान्तर : અમિ, સૂર્ય, ચન્દ્ર, સાગર અને સરિતા, ઈન્દ્રધ્વજ સેના અને નવા મેનું ચિન્તન કરવું જોઈએ. साधक चिन्तन के क्षणों में संसार की प्रमुख वस्तुओं के स्वरूप को अपने सामने रखे तो उसको प्रेरणा मिलती रहेगी। अग्नि तेजस्वी है, तेज और प्रकाश उसका गुण और धर्म है। रसको राज-महलों में जलाया जाय तब भी प्रकाश देगी और यदि गरीब के झोंपड़े में जलाया जाय तब भी प्रकाश ही देगी। साधक को चाहिए कि वह प्रकाशत्व और तेजस्विता अभि से 'प्रहण करे, सूर्य और चन्द्र से प्रशः तेजस्विता और शीतलता को ग्रहण करे, माथ ही कर्तव्य में नियमितता का पाठ सीखे। सागर और सरिता से गंभीरता और जीवन का कण कण लुटा देने का स्वभाव प्रहण करे। इन्द्रध्वज और सेना से प्रेरणा और . पुरुषार्थ पाये और नए मेघ से क्षणिक आभा और परहित में संपत्ति व्यय करने की प्रेरणा पाये। यदि साधक के पास खुली दृष्टी है और उसका मस्तिष्क चिन्तनशील है तो दुनिया का हर एक पदार्थ उसे कर्तव्य की प्रेरणा दे जाएगा। टीका:-पक्षिमित्यादि सबो मेघमित्र चिन्तयेदकाण्डागमनगमनशीलम् । टीकाकार का कथन है कि साधक बडिमादि सभी को सम मेष की भांति समझे । क्यों कि ये सब अकारण ही माने और जाने वाले है। जोधणं रूवसंपत्ति, सोभाग्मं धणसंपदं । जीवितं वा वि जीचाणं, जलघुग्घुयसंमिमं ॥६॥ अर्थ:-यौवन, रूप सौन्दर्य, सौभाग्य, धन, संपति और प्राणियों का जीवन जल बुद्धद के सदृश है। गुजराती भाषान्तर: ચૌવન, રૂપનું દર્ય, સૌભાગ્ય, ધન, સંપત્તિ અને જીવોની જીંદગી પાણીના પરપોટા જેવી છે. यौवन और सौन्दर्य, सौभाग्य और सम्पत्ति मानव मन में छपे हए अहंकार के बीज है । यह दर्प का सर्व मानव मन को डसता भी है। किन्तु रूप का अहंकार क्यों ।। जरा रूप और यौवन सब को एक ही सांस में समेट ले जाएगी। जीवन पानी का बुलबुला है, फिर इतमा अहकार क्यों है। विकसता मुना-ने को फूल, उदय होता छिपने को चन्द । शून्य होने को भरसे मेघ, दीप जलता होने को मन्द । यहां किसका स्थिर यौवम, अरे ! अस्थिर छोटे जीवन । -महादेवी वर्मा । देविदा समाहिड्डीया, दाणविंदा य विस्सुता । परिंदा जे य विता, संखयं षिषसा गता ॥७॥ अर्थ:-दिव्य महदि से युक्त-देवेन्द्र, प्रख्यात दानवेन्द्र और महान् बलशाली नरेन्द्र एक दिन विवश होकर समाप्त हो गए। गुजराती भाषान्तर: સ્વર્ગીય વૈભવથી (કાશક્તિને) યુક્ત દેવેન્દ્રો, પ્રખ્યાત દાનવેન્દ્રો અને મહાન બળી નરેન્દ્રો એક દિવસ વિવશ થઈ લુપ્ત થઈ ગયા. देवेन्द्र, दानवेन्द्र और एक मानवेन्द सत्ता और शक्ति के प्रतीक है, एक दिन जो सिंहासन पर बैठकर सिंह की भांति गर्जते थे, सम्पत्ति और वैभव जिनके आंगन में नाचा करते थे उन देवेन्द्रों को भी अपना सिंहासन त्याग कर एक दिन बल देना पड़ा। काल की कराल शक्ति ने शस्त्रों की छाया में बसने वाले सम्राटों को भी चल पाने के लिए विवश कर दिया। कौन अमर बन कर आया है और किसका यौवन अनन्त काल तक स्थिर रहा है। सम्वत्थ गिरणुकोसा, णिब्धिसेसप्पहारिणो। सुत्त-मत्त-पमसाणं, एका जगति ऽणिश्चता ॥८॥ अर्थ:-अनित्यता जगत् में सर्वत्र निरुत्कृष्ठ और निर्विशेष रूप से सुप्रमत्त सुप्त मत्त-और प्रमत्तों पर प्रहार करती है गुजराती भाषान्तर: નશ્વરપણું જગતમાં સર્વત્ર નિસત્કૃષ્ટ અને નિર્વિશેષ રૂપથી સુપ્રમત્ત, સુખ અને પ્રમત્તપર ફટકો મારે છે. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां अध्ययन १२९ अनित्यता सर्वत्र समान रूप से प्रहार करती है। निद्रा मद और प्रमाद जीवन को तीन कैंचियां जो कि नामच के गुणों को काटती रहती हैं। अनित्यता सब के लिए समान है। जो निद्रा की गोद में खुर्राटे भर रहे हैं, जो मदिरा के प्यालों में ही जीवन की वास्तविक मस्ती देख रहे हैं और जो वाराना की लहरों में बह रहे हैं उनके ऊपर मौत अहास है। सर और जीवन को विजय प्राप्त कर विजय सदैव अप्रमत्त का ही साथ देती है । देविंदा दाणविंदा य, परिंदा जे य विस्तुता । पुण्णकम्मोदयम्भूतं, पीर्ति पार्वति पीवरं ॥ ९ ॥ अर्थ :- देवेन्द्र, दानवेन्द्र और मानवेन्द्र पुण्य कर्म के उदय से जनता का प्रचुर प्रेम प्राप्त करते हैं । गुजराती भाषान्तर : દેવેન્દ્ર, દાનવેન્દ્ર અને માનવેન્દ્ર પુણ્ય કર્મના ઉદયધી જનતાનો પૂરો પ્રેમ પ્રાપ્ત કરે છે. देवेन्द्रों के रन सिंहासन और नरेन्द्रों के स्वर्णसिंहासनों पर बैठनेवाला अपने आप को कभी भी न भूले । शक्ति के भद में वह वह न बोल उठे कि मेरी तलवार ने सिंहासन को स्थिर रखा है। यदि उसको पुण्य तत्व पर विश्वास है तो वह कभी भी अहंकार की भाषा में बात नहीं करेगा पुण्य तत्व उसको मिथ्या अहंकार से दूर रखेगा और दूसरों के प्रति कोमल बनाएगा | आऊ धणं बलं रूवं, सोभागं सरलत्तणं । निरामयं च तं च दिसते विविहं जगे ॥ १० ॥ अर्थ :---आयु, धन, बल, रूप, सौभाग्य, सरलता और नीरोगता और प्रियता विश्व में विविध रूपों में दिखाई देती है । गुजराती भाषान्तर: आयुष्य, 'धन, मण, ३५, सौभाग्य, सरणता, तंदुरस्ती ने प्रियता विश्वमां विविध उपमां वामां आयेछे. आयु, धन, बल, सौभाग्य, सरलता, नीरोगता और लोकप्रियता ये सभी एक साथ एक ही स्थल पर प्राप्त नहीं हो सकते। किसी का जीवन लम्बा है तो उसके पास धन का अभाव है। कहीं बल है तो रूप का अभाव है। यदि सभी वस्तुएँ एक साथ ही मिल जायँ तो मानव कर्म जैसी वस्तु को मानने के लिए तैयार न होगा। जहां पर विशाल सम्पत्ति है वहां पर चार पैसे भी खर्च करने का दिल नहीं है और जिसका दिल उदार है, समाज के विकास के लिए जिसके पास उत्साह है, कार्य करने की क्षमता है, तो उसकी स्थिति इतनी गिरी हुई है कि उसके लिए अपना निर्वाह भी एक समस्या बन गई है। सदेवरगंधब्बे, सतिरिक्खे समाणुसे । शिव्या णिविसेसा, य जगे वसेय अणिश्चता ॥ ११ ॥ अर्थ:-सूट, गंध, तिथेच और मनुष्यष्टि इनमें अनिलता सर्वत्र समरूप से निर्भय हो कर घूमती है । गुजराती भाषान्तर : દેવÁષ્ટ, ગંધર્વ, તિર્યંચ અને મનુષ્યસૃષ્ટિમાં અનિત્યતા સર્વત્ર સમરૂપથી નિર્ભય બનીને ફરે છે. देवसृष्टि हो या दानवसृष्टि मानव जगत् हो या पशु-जगत् अनित्यता सर्वत्र निर्भय संचरण करती है। स्वर्ण- भवनों में रहने वाले यह सोचते हैं कि हम अमर हैं । किन्तु देव कुमारों का भी यौवन शाश्वत नहीं है । अमुक काल तक दिव्य भवनों में रहने के बाद एक दिन उन्को भी वहां से चल देना पडता है । पर्याय नय की दृष्टि से विश्व की कोई भी वस्तु शाश्वत नहीं है। वह प्रतिक्षण बदलती रहती है। अनित्यता की धुरी पर परिवर्तन का नर्तन चल रहा है। विश्व की कोई भी ताकत सृष्टि के इस नियम में परिवर्तन नहीं ला सकती है । एक सूक्ष्म अणु भी अपने पर्यायों में प्रतिक्षण परिवर्तित हो रहा है और विराट् गुमेह भी अपने पर्याय में परिवर्तित हो रहा है। वाणमाणोवयारेहिं साममेयक्कियादि य । ण सक्का संणिवा रेड, तेलोक्केणाविऽणिश्वता ॥ ६२ ॥ १७ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० इसि-भासियाई अर्थ :-दान, मान, उपचार, साम और मेद आदि क्रियाएँ तो क्या तीनों लोक की शक्ति मिल कर भी अनित्यता को रोकने में सक्षम नहीं हैं। गुजराती भाषान्तर: દાન, માન, ઉપચાર, સામ અને ભેદ આદિ ક્રિયાઓ તે શું ત્રણે લોકની શક્તિ ભેગી થઈ જાય તો પણ - અનિત્યતાને રોકવામાં સમર્થ થશે નહીં, विशालकाय बाँध जल की तीन धारा को रोक सकते हैं 1 किन्तु दुनिया में आज तक कोई भी ऐसा बांध नहीं बनाया जा सका है जो समय की धारा को रोक सके । पैसा देकर आप मान खरीद सकते हैं, मान देकर उपकार कर सकते हैं। किन्तु समय शक्ति और सम्मान देकर भी आप समय को नहीं खरीद सकते 1 । साम और भेद की नीति विध के नक्शे को बदल सकती है, किन्तु अनित्यता के नक्शे को बदल देने की ताकत उनमें भी नहीं है। क्योंकि समय देकर आप पैसा पा सकते हैं, किन्तु पैसा देकर आप समय नहीं पा सकते। ' उच्छ वा जति था णीय, देहिणं वा णमस्सितं । जागरतं पमत्तं वा, सव्वत्था णाभिलुप्पति ॥ १३ ॥ अर्थ :-उच्च हो या नीच जागृत, हो या प्रमत्त अनियता सर्वत्र सबको समाप्त करती है । गुजराती भाषान्तर: ઉચ્ચ હોય કે નીચ, સાવધાન અથવા મોહ પામેલ હોચ અનિયતા સર્વત્ર બધાનો નાશ કરે છે. आरा लकढीको काटता है, किन्तु उसके विषय में एक सिद्धान्त र आराया है तब कारता है, आता है तब नहीं, किन्तु मानव के हर श्वास और प्रश्वास उसकी आयु काटते ही जाते हैं। प्रतिक्षण मानव की आयु कम हो रही है चाहे प्रमत्त हो अथवा अप्रमत्त, अनित्यता सब पर होती है । "एवमेतं करिस्लामि, ततो एवं भविस्सती" | संकप्पो देहिणं जो य, णं तं कालो पडिच्छती ॥ २४ ॥ अर्थ:-"मैं यह इस प्रकार करूंगा, उससे यह होगा"। मनुध्य के मन में इस प्रकार के अनेकों संकल्प चलते रहते हैं । किन्तु कराल काल उसके संकल्पों को स्वीकार नहीं करता है। गुजराती भाषान्तर: હું આ રીતે કરીશ, તેથી આ થશે”, એ પ્રકારના અનંત સંકલ્પ મનુષ્યના મનમાં ચાલ્યા જ કરે છે. પણ ભયાનક કાળ તેના અરમાનેને જરા પણ વિચાર કરતો નથી. मानव के मन में नए नए संकल्प पैदा होते रहते हैं। यह कार्य यदि इस ढंग से किया जाय तो इससे यह होगा । यह करेंगे फिर यह करेंगे किन्तु काल मानव के इन संकल्पों को उसी प्रकार से विध्वंस कर देता है जिस प्रकार से उत्तरी इवा उपवनों को नष्ट भ्रष्ट कर डालती है। भगवान् महावीर स्वामी मानव मन की इसी स्थिति का चिमण पावा-पुरी के अन्तिम प्रवचन में देते हैं इमं च मे अस्थि इमं च स्थि, इमं मे क्रिश्चं इममकिय। तं एवमेव लालप्पमाणं, हरा हरंति ति कहं एमाए ॥-उत्तरा. अ. १४ गाथा १५ । इतना मुझे प्राप्त है और इतना मुझे और प्राप्त करना है, यह मैं कर चुका हूं और इतना करना शेष रह गया है । ये ही वे विकल्प है-जो मानव को मोह पाश में बांधे रहते हैं, पर अनित्यता उसके रंगीन स्वप्नों को चूर चूर कर देती है। जा जया सहजा जा बा, सधस्थधाऽणुगामिणी।। छाय व्च देहिणो गूढा, सध्यमाणेतिऽणिवता ॥ १५॥ अर्थ:-प्राणी कहीं भी जाए अनित्यता छाया की भांति सर्वत्र साथ रहती है। छाया पृथक् परिलक्षित भी हो सकती है। किन्तु यह अनित्यता तो कभी दिखाई भी नहीं पड़ती है। . . Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां अध्ययन गुजराती भाषान्तर :-- પ્રાણી ક્યાંય પણ જાય અનિત્યતા પડછાયાની માફક બધે ઠેકાણે તેના સાથે જ ફરે છે. પડછાયો તો જુદો જોઈ શકાય છે. પરંતુ આ અનિત્યતા તો કયારે દેખાતી પણ નથી. મચ્છુ मानव जब सुख के क्षणों में रहता है तब वह समझ बैठता है कि में अमर हूं। जब कोई मकान खरीदता है तब वह रजिस्ट्री में लिखवाता है कि जब तक चन्द्र और सूर्य है तब तक इस मकान पर मेरा अधिकार रहेगा। पर ओ भोले इन्सान ! जब तक चन्द्र और सूर्य रहेंगे तब तक तूं रहेगा या नहीं ? । १३१ झूठी अमरता के स्वभ उसे हजार हजार पाप करने के लिए प्रेरित करते 1 दस पीढी आराम से रहे इतनी विशाल सम्पत्ति होने पर भी मानव का लोभी मन ग्यारहवीं पीढी के लिए चिन्तित रहता है । अतर्षि बार बार अनित्यता का प्रतिपादन करते हैं। उसका तात्पर्य यह नहीं है कि संसार में नित्यता पदार्थ ही नहीं हैं । जैन दर्शन अनेकान्त वादी दर्शन है। उसकी एक आंख पदार्थ की अस्थिरता पर रहती है तो दूसरी आंख उसकी स्थिरता पर जमी रहती है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर पदार्थ की नित्यानिलता का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि: उपपतिषियंतिय भावा पियमेण पजवण्यस्स । दवट्टियस्स सच्च सया अणुष्पसमणि ॥ - सम्मति प्रकरण अध्याय १ गाथा ११ । पर्यायास्तिक की दृष्टि से प्रलेक पदार्थ उत्पन्न भी होता है और नष्ट भी होता है। द्रव्यास्तिक नथ की दृष्टि से पदार्थ अनुत्पस और अविनष्ट है। दूसरे शब्दों में वह भुव है। अतः प्रत्येक पदार्थ नित्यानित्यात्मक है। फिर भी यहां पर अर्हतर्षि बार बार जो अनित्यता को ही सामने ला रहे हैं उसका कारण यह है कि अनित्यता मानव के मस्तिष्क में रही तो वह बुराई से बचेगा। वह उन नाजुक क्षणों में भी बुराई से बचेगा, जब कि सम्पत्ति की चमक उसको अपनी ओर खींच रही होगी । वह सोचेगा कि छोटी सी जिन्दगी के लिए पाप की इतनी बढी गठरी क्योंकर बांधी जाय ? | कम्मभावेऽणुवती, दीसंति य तथा तथा । देहिणं पकति चेच, लीणा वत्तेय अनिश्चता ॥ १६ ॥ अर्थ :---कर्म के सद्भाव में हो जो ( अनित्यता ) आत्मा के साथ रहती है और अनेक रूपों में परिलक्षित होती है। इस प्रकार देहधारियों की प्रकृतियों को अनियता ने लीन कर रखा है । गुजराती भाषान्तर : કર્મના અસ્તિત્વમાં જે જે અનિત્યતા આત્માની સાથે રહે છે અને અનેક રૂપોમાં પરિલક્ષિત થાય છે, આજ પ્રમાણે પ્રાણિઓના પ્રકૃતિને નશ્વરતાએ લીન કરી રાખી છે. माना कि जो वृत्तियाँ हैं और जो प्रवृत्तियां हैं वे सभी कर्म के सद्भाव में ही रह सकती है। मानव की विविध रूपता और संसार की विचित्रता जो कुछ भी दिखाई दे रही है ये सभी कर्मजन्य हैं। कोई डॉक्टर बनने का स्वप्न देखता हैं, तो कोई वकील बनना चाहता है, कोई इंजिनियर बनने के लिए अमेरिका पहुंच जाता है, तो कोई मिनिस्टर बनने की साथ रखता है। किन्तु यह अनित्यता सबको अपने में लीन कर लेती हैं। एक ही प्रहार में सब आशाओं का चूर करती हुई कहती है तुम्हारे सभी सपने झूठे होंगे । जं कडं देहिणा जेणं, णाणावण्णं सुहासुहं । पाणावत्थंतरोवेतं सव्यमण्णेति तं तहा ॥ १७ ॥ अर्थ :- देहधारी नानाविध जो शुभाशुभ कृत्य करते हैं और मनुष्य नाना प्रकार के वस्त्रों से युक्त होता है और वह उसी को पूर्ण मान बैठता है । गुजराती भाषान्तर : પ્રાણિઓ જે અનેક શુભાશુભ કૃત્યો કરે છે અને તે મનુષ્ય નાના પ્રકારના વોથી યુક્ત થાય છે અને તેને જ તે સંપૂર્ણ માની બેસે છે. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ li १३२ इसि - भासियाई मानव की अच्छाई और बुराई उसके शुभ और अशुभ आचरण पर ही निर्भर रहती है। किन्तु स्थूल दृष्टा केवल बाहरी वस्त्रों को अच्छाई और बुराई नापने का मज बना लेता है। श्रेष्ठ वारियों को पवित्र आत्मा मानने को तैयार हो जाता है । किन्तु ऐसा मानने वाला यह क्यों भूल जाता है कि बुराई भी अच्छाई के वस्त्रों को पहन कर दूसरे को धोखा दे सकती है । और कभी अच्छाई भी बाहरी दुनियां से तिरस्कृत होकर बुराई के गंदे वस्त्र पहन सकती है, तो क्या गंदे वस्त्रों में लिपटी हुई अच्छाई से प्रेम नहीं करेंगे ? अथवा कोषकार 'छत्थ' का एक दूसरा ही अर्थ देते हैं " हां तो सफेद कपड़ों के नीचे कभी काळे दिल के रहते हैं। बस हो अच्छाई और बुराई नापने चलने वाला अभी जीवन की राहों में आंखें गूद कर चल रहा है। अनुभव की ठोकर उसकी पलकों को खोल भी सकती है। भिन" ( पाइअ सहमाओ ) इस अर्थ को मान्य करने पर गाथा का अर्थ दूसरा होगा । आत्मा शुभाशुभ जो भी कार्य करता है उसीसे वह अच्छा या बुरा बनता है । मनुष्य विविध रूपता युक्त है। समस्त मानव सृष्टि को हमें इसी प्रकार स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि मानव की श्रेष्ठता और अता शुभाशुभ कार्यों पर निर्भर है। कंती जे वयोवस्था, जुज्जंते जेण कम्मुणा । गिव्वती तारिसे तीसे, वाया व पडिका ॥ १८ ॥ अर्थ : :- जिस वय और अवस्था में जिस कर्म से कान्ति प्राप्त होती है उसकी वैसी ही रचना हो सकती है और वाणी से ऐसा ही सुना जाता है । गुजराती भाषान्तर: જે ઉમર અને હાલતમાં જે કર્મની ક્રાન્તિ પ્રાપ્ત થાય છે. તેની તેવી જ રચના થઇ શકે છે. અને વાીિથી તેવું જ સાંભળવામાં આવે છે. मनुष्य के जीवन में एक अवस्था ऐसी भी आती है जिसमें गर्म खून कुछ नया सर्जन करता है । वह पुरानी निष्प्राण परम्पराओं को तोड़ कर नई दृष्टि प्राप्त करना चाहता है। उसका नया जोश सृष्टि में नया परिवर्तन लाने के लिए अकुलाता है। समाज में नया आदर्श स्थापित न करके उसको नवा मोड देना ही नये खून का काम है । वृद्धावस्था में होश तो रहता है, किन्तु नया कुछ काम करने के लिए जोश नहीं रहता है। कोरा होरा यदि कुछ नहीं कर सकता है तो कोरा जोश भी कुछ नहीं कर सकता। कोई नया काम करने के लिए होश और जोश दोनों चाहिए । साथ ही वाणी में बल भी चाहिए कि वह अपने विचारों को दूसरों के हृदय में बैठा सके। यदि विचारों के अन्दर क्रान्ति नहीं है तो आचार कान्ति कभी संभव नहीं है। कान्तिका प्रादुर्भाव सर्वप्रथम विचारों में होता । जिनके विचारों की दुनिया सोलहवीं सदी में रहती हो. जिन्हें नया कुछ भी करने में हो और जो अपने दिमाग पर नये विचारों के लिये 'प्रवेश नहीं' का बोर्ड लगाए घूमते रहते हैं उनके पास विचार कान्ति के बीज ही नहीं है। वे नए युग की नई चेतना को समझ नहीं सकते हैं। पर भूलना नहीं होगा जिसने युग की आवाज को ठुकराया है युग उनका साथ कभी नहीं दे सकता । युग भी उसी के सामने सिर झुकाता हैं जो दुनिया के अपमानों का विष पी कर भी अमृत बरसाते हैं । टीका :- या कान्तियोऽवस्था वा येन कर्मणा युज्यते तादृशी तस्या निर्वृतिर्भवति वाचः प्रतिश्रुदिव । गतार्थः । ता हूं कडोदयुग्भूया, नाणा गोर्यविकपिया । गोदावर्त्तते, संसारे सध्वदेहिणं ॥ १९ ॥ अर्थ : नानाविध गोत्रों के विकल्प आत्मा के कार्यों से बनते हैं। संसार के समस्त देहधारी भन्नियों से उनमें रहते हैं । गुजराती भाषान्तर : નાનાવિધ ગોત્રોના વિકલ્પ આત્માના કાર્યાંથી થાય છે. સંસારના સમસ્ત મનુષ્ય વિકલ્પથી તેમાં રહે છે. उच्च और नीच गोत्र की सृष्टि आत्मा ही करता है। उसके शुभ और अशुभ आचार और विचार उच्च और नीच गोत्र के हेतु है । गोत्र कर्म के संबन्ध में जैन संसार पर वैदिक दर्शन की छाया है, इसी लिए वैदिक दर्शन की जन्मजात उच्चता और नीचता को उसने स्वीकार कर लिया है। उसके आधार के लिए गोत्र कर्म को आगे कर दिया जाता है। किन्तु जैन १. 'गाय', Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां अध्ययन १३३ दर्शन ने हमेशा जन्मज पवित्रता का निषेध किया है। उसका विश्वास क्रम में है । अतः मानव की श्रेष्ठता का उसने जन्म से नहीं कर्म से स्वीकार की है। यदि जन्म से ही किसी व्यक्ति में पवित्रता आ जाती है तो कर्म की फिलासफी ही समाप्त हो जाती है । साथ ही जीवन की साधना के लिए सारी बातें व्यर्थ होंगी। 'गोय' का पाठान्तर गाय मिलता है, यदि हम गाय को अनुलक्षित करेंगे तो गाथार्थ ही भिन्न होगा। कान्ति और वय के द्वारा ही आत्मा शरीर की सृष्टि करता है और विकल्प से रहता है। अतः संसार में यह अनिखता सर्वव्यापी है। दीका:-ताई तासां इह संबन्धे तु ताभ्यां कान्तिनयोभ्यां कृतोनोदयोद्भूता नानागानविकल्पिता अनेकगानेषु कृता भग्योदयाः संसारे सर्वदेहिनामनुपरिवर्तन्ते ताभ्यामनित्यत्वात् । टीकाकार गान राठ को अनुलक्षित करके गाथा का अर्थ प्रस्तुत करते हैं । ताह यहाँ कान्ति और उस से सम्बन्ध रखता है । वय और कान्ति के द्वारा जो कुछ भी कर्म करता है, उसके अनुरूप ही शरीर का निर्माण करता है। शुभ अध्यवसायों से वह शुभ देह प्राप्त करता है और अशुभ से अशुभ देह । किन्तु इतना निश्चित है कि वह दोनों में एक साथ नहीं रह सकता। कंदमूला जहा वल्ली, वल्लीमूला जहा फलं । मोहमूलं तहा कम्म, कम्ममूला अणिधया ।। २०॥ अर्थ:-कन्द से लता पैदा होती है और लता से जिस प्रकार से फल पैदा होते हैं इसी प्रकार मोहमूल से कर्म आते हैं और कम से अनित्यता। गुजराती भाषान्तर:--- કન્ટથી વેલ ઉત્પન્ન થાય છે અને લતાથી જે પ્રકારે ફલ ઉત્પન્ન થાય છે, તે જ પ્રકારે કર્મ મોહથી ઉત્પન્ન થાય છે અને અનિયતા કર્મથી ઉત્પન્ન થાય છે. कन्द से लता और लता से फल पैदा होता है इसी प्रकार मोह से कम पैदा होता है और ये कर्म ही अनित्यता को जन्म देते हैं। बुझंते बुज्झए चेब, हेउज्जुत्तं सुभासुभ। कंदसंदाण-संबद्धं, पल्लीणं व फला-फलं ॥२१॥ अर्थ :--बोध देने पर साधक शुभ और अशुभ का विवेक करने का बोध प्राप्त करे। जिस प्रकार से स्ता के फल और अफल (बुरे फल) कन्द की परम्परा से संबद्ध है, अर्थात् जैसा कन्द होगा वैसी ही लता होगी और वैसे ही अच्छे या बुरे उसके फल भी होंगे। गुजराती भाषान्तर: બોધ આપ્યા પછી સાધકે શુભ અને અશુભનો વિવેક કરવાનો બોધ પ્રાપ્ત કરવું. જે પ્રકારથી લતાનું ફળ અને અફળ કદની પરંપરાથી સંબંધ છે અર્થાત્ જે કંદ એવી જ લતા હશે અને એવા જ સારા અથવા ખરાબ તેના ફળ પણ હશે. तत्त्यदशी उपदेश करते हैं। माधक शुभ और अशुभ में परित्याग का विवेक प्राप्त करे। साधक अशुभ का परित्याग करे और शुभ की ओर आए । इतना ही नहीं शुद्ध को प्राप्त कर के शुभ को भी छोड दे। लता के अच्छे या बुरे फल कन्द की अच्छाई या बुराई पर निर्भर करते हैं। ___टीका:-अथ कर्मोच्यते बुध्यते चैव फर्महेतुयुक्त शुभाशुभं यथा वल्लीनां फलाफले पर्याप्तफलान्यपर्याप्तफलानि च बुध्यन्ते । आत्मा कर्म का बन्ध कसा करता यह जानना है तो उसका मूल हेतु जानना होगा। यदि उसका मूल सुद्ध मध्यवसाय है तो क्रर्म भी शुम ही होगा। और यदि हेतु ही अशुभ है तो कर्म अशुभ होगा ही। यदि कर्म को हम फल कहें तो हम अध्यवसाय को हम बीज कह सकते हैं। कर्म का हेतु ही अशुभ नींव पर खडा है । ऐसी अवस्था में कर्म कमी शुभ नहीं Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ इसि-भासियाई हो सकता है । एक कार्य बाहर से शुभ दिखाई पडता हो, परन्तु यदि उसका उद्देश्य बुरा है तो सारा कार्य ही बुरा होगा। दूसरी ओर एक कार्य बाहर से देखने में तो अशुभ लगता है, किन्तु उसका हेतु शुभ है तो वह कार्य शुभ होगा। फल की मधुरता और करता उसके कन्द पर आधारित है। कन्द यदि मधर है तो लता भी सुन्दर होगी और उसके फल भी रसप्रद होंगे। यदि कन्द ही बुरा है, तो लता फल विहीन होगी या कटु फल से युक्त होगी। छिण्णादाणं सयं कम्म, भुजाए तं न बजए। छिन्नमूलं व वल्लीणं, पुथ्थुप्पणं फलाफलं ॥ २२ ॥ अर्थ:-संकृत कम के आदाम अर्थात् द्वार को छेदन करके प्राप्त कर्मों को भोगे। प्राप्त का त्याग शक्य नहीं है, लता का मूल नष्ट कर दिया है, कि पूर्व के उत्पन्न हुए फलाफल का उपभोग तो करना ही होगा। गुजराती भाषान्तर: પોતે કરેલા કામોનું આદાન અર્થાત ગ્રહણનો જ રસ્તે નષ્ટ કરીને પ્રાપ્ત કમને ભોગવે. કેમકે પ્રાણને છોડવું શકય નથી. વેલના મૂળને નાશ કર્યો છે, પરંતુ પૂર્વના ઉત્પન્ન થયેલા ફળાફળનો ઉપભોગ તો કરવો જ જોઈએ. साधक कर्माश्रव का द्वार बन्द करे और जो उदयावलि का प्राप्त कर्म हैं उनको भोग कर क्षय करे । क्योंकि आश्रष द्वार का चिरोध हो जाने से भविष्यकालीन कर्म-परम्परा समान हो सकती है, किन्तु पूर्वपद्ध को तो भोगना ही होगा। लता का मूल काट देने से उसमें नए फल नहीं आसकते हैं, किन्तु पूर्वोत्पन्न शुभाशुभ फलों का उपभोग करना ही होगा । टीका:-स्वयमात्मप्रयलेन रिसदानमप्युपादाने छि यस्य तत्कर्म भुज्यते न तद् वज्यंते अवश्यं वेदनीयं भवति यथा वल्लीना फलाफलमिति पूर्षवत् पूर्वोत्पछिसमुलमपि भुग्यते। गतार्थः ।। छिन्नमूला जहा चल्ली, सुकमूलो जहा दुमो । नमोहं तहा कम्म, सिण्णं वा हयणायकं ॥ २३ ॥ अर्थ:-जिसकी जड छिन्न हो चुकी है ऐसी लता और जिसका मूल सूख गया है ऐसा वृक्ष दोनो ही नष्ट होने वाले हैं। इसी प्रकार मोह के नष्ट होने से आठों कर्म नष्ट हो जाते हैं। जैसे सेनापति के हटते ही सारी सेना के पैर उखड़ जाते हैं। गुजराती भाषान्तर : જેનું મૂળ કપાઈ ગયું છે એવી લતા અને જેનું મૂળ સૂકાઈ ગયું છે એવું ઝાડ બંનેનો નાશ નિશ્ચિત જ છે. જેવી રીતે સેનાપતિની પીછેહઠથી સારી સેના લડાઈનું મેદાન છોડી નાસી જાય છે, તેજ પ્રમાણે મોહ નાશ પામતાં આઠે આઠ કર્મ નાશ પામે છે, जबतक मोह कर्म की २८ प्रकृतियो समाप्त नहीं होती हैं तम तक एक भी कर्म आत्मा से पृथक नहीं हो सकता है। जिस प्रकार से सेनापति के हटते ही सेना मैदान को छोड़ कर भाग जाती है उसी प्रकार मोह के हटते ही समस्त कर्म समाप्त हो जाते हैं। क्योंकि कर्म बन्ध का मूल हेतु राग चेतना और द्वेष चेतना है। और ये चेतना ही अन्य कर्मों के बन्धन में हेतुभूत बनती हैं। अतः कर्म-परम्परा की समाप्ति के लिए मोह की जड पर ही प्रहार करना होगा। पहले दर्शन -मोह और बाद में चारित्र-मोह क्षय होगा । इनके क्षय हो चुकने पर शेष तीन घनघाती कर्मों को क्षय करने में अन्त मुहर्त से अधिक समय की आवश्यकता भी नहीं रहेगी। अप्पारोही जहा बीयं, धूमहीणो जहाऽनलो। छिन्नमूलं तहा कम्मं, नट्ठसण्णोवरेसओ ।। २४ ॥ अर्थ:-विनष्ट गीज और धूमहीन अनि जिस प्रकार शीघ्र समाप्त हो जाते हैं, इसी प्रकार मूल के नष्ट होते ही कर्म भी विनष्ट हो जाते हैं। जैसे नष्ट संज्ञा वाला उपदेशक समाप्त हो जाता है। गुजराती भाषान्तर: નાશ પામેલું બીજ અને ધુંવાડાવગરને અગ્નિ જેવી રીતે તુરંત નાશ પામે છે. અને જેવી રીતે નષ્ટ સંજ્ઞાવાળો (એટલે આગમનું જ્ઞાન ભૂલી ગયેલ) ઉપદેશક પિતાના ફામમાં અસમર્થ બની જાય છે તે જ પ્રમાણે મૂળ નાશ પામતાં જ કર્મો નાશ પામે છે. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां अध्ययन . जिसकी जड नष्ट हो गई उसका सब कुछ नष्ट है । पूर्वगाथा में इसके बहुत उदाहरण दिये गये हैं। उसी के अनुरूप यहां भी है। जो बीज नष्ट हो गया है फिर उसको चाहे कितना भी खाद और पानी प्राप्त हो वह ऊग नहीं सकता और धूमरहित अग्नि शीघ्र ही बुझ जाती है । यद्यपि यह उपमा सार्वत्रिक नहीं है जैसे कि लोहपिंड में अमि होने पर भी उसमें धुवो नहीं होता। फिर भी अन्य अग्निओं के लिए यह ठीक हो सकती है, साथ ही जिस उपदेशक की संज्ञा नष्ट हो चुकी है अर्थात् जो अफ्ना अनुभव आगम सब कुछ भूल चुका है वह भी विद्यार्थियों की ज्ञान-पिपासा शान्त नहीं कर सकता । इसी प्रकार जिस कर्म का मूल नष्ट हो चुका है वह आगे भवपरंपरा के रूप में फलित नहीं हो सकता। टीका:-अमरोही यथा श्री धूमहीन इवानको नष्टसंज्ञो भ्रष्टोपदेश इव देशको गुरुस्तथा कर्म किनमूलम् । गतार्थः । जुजए कम्मुणा जेणं, वेसं धारेर तारिसं । वित्तकंतिसमत्था वा, रंगमज्झे जहा नडो ॥ २५ ॥ अर्थ:-जैसे कर्म होंगे वैसा ही वेष धारण करना उपयुक्त होगा और उसी के अनुरूप आत्मा सम्पत्ति सौन्दर्य और सामयं पाता है। जैसे रंगमंच पर नट विविध वेष धारण कर लेता है, अर्थात् जिस पात्र का जैसा कार्य होता है वैसा ही उसे देषधारण करना पड़ता है। गुजराती भाषान्तर: પિતાનાં કમીને શોભે તે જ વેશ ધારણ કરવો યોગ્ય છે અને તેને જ અનુરૂપ આત્મા સંપત્તિ, સૌંદર્ય અને સામર્થ્ય પ્રાપ્ત કરે છે. જેવી રીતે રંગભૂમિ પર નટ વિવિધ વેષ લઈ પોતપોતાનો ભાગ ભજવે છે, અર્થાત જે પાત્રનું જેવું કાર્ય હોય છે તેને તેવોજ વેષ ધારણ કરવો પડે છે. सूत्रधार के संकेत पर विाचंध वेष में अभिनेता जिस प्रकार से रंगमंच पर उपस्थित होता है उसी प्रकार से आत्मा कर्म के संकेत पर विविध शरीर को धारण कर लेता है। सम्पत्ति, शक्ति और सौन्दर्य की न्यूनाधिकता कर्मों पर निर्भर करती है। नाटक के पान की जैसी योग्यता है अथवा जैसा अभिनय उसको करना है वैसी ही वेष-भूषा उसको सजानी पड़ती 1 में कार्य के अनुरूप पान को वेष आदि प्राप्त होते हैं । उसी प्रकार आत्मा को भी कर्म के अनुरूप वस्त्र, संपत्ति, कान्ति और शक्ति प्राप्त होती है। कर्म के अनुरूप आत्मा को वस्त्र मिलते है, वन का एक अर्थ शरीर भी हो सकता है, क्योंकि भारतीय दर्शन शरीर को वस्त्र मानते हैं। "वासांसि जीर्णानि यथा बिहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यम्यानि संपानि नयानि देही।" गीता अध्याय २ श्लोक २२ ॥ एक वर्ष के बाद मनुष्य पुराने वत्रों को छोड़कर नए वन ग्रहण करता है, ऐसे ही आत्मा पुराने शरीर को छोड़ कर नए शरीर धारण करता है। अतः आत्मा कर्मानुरूप शरीर, वस्त्र, कान्ति और शक्ति को प्राप्त करता है। टीका :- येन कर्मणा युज्यते पुरुषः तादर्श बेषं धारयति नटो यथा रंगमध्ये वृत्तकान्तिसमर्थः । गतार्थः । संसारसंतई चिता, देहिण विविहोदया। सवा दुमालया चेव, सब्वपुष्फफलोदया ॥२६॥ अर्थ:-विश्व संतति की विचित्रता देहधारियों को विविध रूप में उपलब्ध होती है। समस्त वक्ष और लता विविध पुष्प और फलों से युक्त होते हैं, क्योंकि उसके वीज विभिन्न है। गुजराती भाषान्तर : આ ભવના અનેક પ્રાણએ બહુરંગી અનેક પ્રકારના વિવિધ રૂપોમાં મેવામાં આવે છે. સમસ્ત વૃક્ષ અને લતા તરહતના પુષ્પ અને ફળોથી યુક્ત છે; કારણકે તેના બીજ તદ્દન જુદા છે. सृष्टि में विविधतासे भरा सौन्दर्य है। हर आत्मा के खऋत शुभाशुभ कर्म ही इस विश्व विचित्रता के मूल है। वृक्ष और लता के पुष्प और फल विविध होते हैं । विविधता का हेतु उनकी जड़ों की विमिलता है । बीज की विविधता फूल और फलों की विविधता का हेतु है। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ इसि-भासियाई टीका :-चित्रानामा प्रकारा विविधोइया च देहिनां संसारसंततिसर्वदमालया बनानीव भवन्ति सर्वपुष्पफलोदया । गतार्थः। पावं परस्स कुवंतो, हसप मोह-मोहिओ। मच्छ गलं गसंतो वा, विणिग्धायं न पस्सई ॥ २७ ॥ अर्थ:-मोह मोहित आत्मा दूसरों के लिए पाप करके हंसता है। मच्छ आटे की गोली को निगलना है, परन्तु उसके पीछे छिये विनिघात (पास) को यह नहीं है। गुजराती भाषान्तर: લોભથી હિત થએલો જીવ પોતાના લાભ માટે બીજાનું નુકસાન કરીને હસે છે, જેમ સાક્ષી લેટની ગળીને ગળે છે પરંતુ તેની પાછળ છૂપાયેલા વિનિઘાતક (પ્રાણઘાતક કાંટા)ને તે જોતી નથી. मोहित व्यक्ति दूसरों के लिए पाप के प्रसाधनों का निर्माण करता है। परिवार के संकुचित प्रेम के लिए दूसरे के हरेभरे जीवन को उजाड़ देता है। दूसरे के मुंह का कयल छीन कर इंसता है। अपने नन्हे मुन को हंसते देखने के लिए दूसरे के नन्हे मुन्ने को मलाता है। किन्तु यह मच्छ की मूढता है जो आटे की गोली को ही देखता है, पर उसके पीछे छिपे हुए कांटे को नहीं देखता है। स्थुल द्रष्टा केबल वर्तमान के ही मुखों को देखता है । पर उसके पीछे छिपे हुए कांटे को नहीं देखता। परोषनायतलिच्छो, दप्प-मोह-चलुगुरो। सीहो जरो दुपाणे धा, गुणदीसं न विदई ॥ २८ ॥ अर्थ:-दूसरे के विनिधात में तन्मय होने वाला व्यक्ति दर्प, मोह और बल का प्रयोग करता है। वृद्ध सिंह दुष्प्राण दुर्घल जीनों की हिंसा करता है । उसी प्रकार खार्थी मनुष्य बृद्ध सिंह की भांति दुर्थल प्राणिओं का शिकार करता है। गुजराती भाषान्तर: બીજાના વિનિઘાતમાં તન્મય થયેલ આમા દઉં, મેહ અને બળના પ્રયોગ કરે છે. જેમ વૃદ્ધ સિંહ દુપ્રાણુ દુબળા જીવોની હિંસા કરે છે, તે જ પ્રમાણે સ્વાર્થી મનુષ્ય વૃદ્ધ સિંહની જેમ દુળ પ્રાણીઓના શિકાર કરે છે. अहंकारी मानव अपने वल का उपयोग दुर्यलों की रक्षा में नहीं, अपितु शक्तिहीनों को कुचलने में करता है और उसे देख उसका अहंकार हंसता है । आसुरी तत्व का सिद्धान्त है Might is right शक्ति ही सत्य है। सभी क्षेत्रों में यही हो रहा है। शक्तिशाली राष्ट्र निबल राष्ट्रों को दबोचना है। उनके शक्तिस्रोतों को अपने हाथ में लेकर उनके साथ मनमाना खिलवाड़ करता है । उसकी अपनी राष्ट्रीय संपत्ति पर ही उन (छोटे राष्ट्रों)का अधिकार नहीं रह गया है। यह उपनिवेश वाद है। एक दबता रहे, कुंचलता रहे और दूसरा उसे कुचलता रहे । यद्द मानवता का सिद्धान्त नहीं है। प्रत्येक मानव को स्वतंत्रता से जीने का अधिकार है। अपनी शक्ति के सही विकास का सवको सुअवसर प्राप्त होना चाहिए। भूट के नीचे दूसरे के प्राणों को दबोचे रहना दानवता का नियम है। सयल ने सदैव ही निर्बल को दबोचा है, पर उन्हें कुचल कर आप दानव वन जाते हैं । तो निर्बलों की रक्षा में अपनी शक्ति समर्पित कर आप देव बन जाते हैं। परन्तु मानव मानवता के सिद्धान्त को भूल चुका है । अर्हतर्षि सिंह के उदाहरण द्वारा उसे पुष्ट करते हैं । अईनर्षि वृद्ध सिंह द्वारा दुष्प्राण दुर्थल प्राणी की हिंसा का संकेत करते हैं । ऐसी ही मेड और मेखिये की कहानी भी प्रसिद्ध है। नी के ढलाव की और एक भेड का बच्चा पानी पी रहा था । उपर की ओर मेडिया पानी पीने आया। मेड के बच्चे को देखा तो उसके मुंह में पानी भर आया । परन्तु सोचा कि बिना अभियोग के किसी को भार देना इस बीसवीं सदी की सभ्यता के प्रतिकूल होगा। उसने अभियोग के स्वर में कहा "क्यों जी : क्या तुम को पता नहीं है कि मैं पानी पी रहा हूं। तुम मेरा पानी जूला कर रहे हो।" "चवा : जूठा पानी तो मैं पी रहा हूं, क्योंकि मैं तुलाव की ओर हूं!"। भेड ने नम्रता से जबाब दिया 1 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां अध्ययन १३७ "अच्छा, तो एक साल पहले तुमने मुझे गाली क्यों दी थी ?" अपना पहला निशाना खाली जाते देख कर ये भेडिये ने दूसरा तीर छोड़ा। "चचा ! मैं सात महीने का हूँ, फिर साल भर पहले मैं ने तुम को गाली कैसे की ?" भेड के प्राण सुख रहे थे, फिर भी उसने कोमल शब्दों में उत्तर दिया । "अच्छा, तो तुम्हारी मां कल हमारे सामने गुर्रा रही थी उसका ठीक जवाब मैं तुमको दूंगा ।" भेडिया गुर्राते हुए बोला। "पर साहब ! मेरी अम्मा को मरे आज तीन महीनों हो गये, कल कहीं ख्वाब में तो नहीं देखी थी ?।" सब तीर खाली जाते देखकर मेडिया झलाया और बोला, कि "कल के छोकरे ! मेरे सामने जबान चलाता है ? । " इतना कहकर एक ही छलांग में भेडिए ने उस मालूम मेद के बच्चे को धर दबोचा। सभ्य दुनियाँ की यही कहानी है। बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है ! । पत्रप्पण्णरसे गिद्धो, मोहमलपणोलिओ । दिसं पावइ उकंड, वारिमज्ये व चारणो ॥ २९ ॥ अर्थ :- मोह मऊ से प्रेरित आत्मा मात्र वर्तमान के रस में आसक्त होता है। मोह की प्रदीप्त ज्वाला से उद्दी आत्मा मोह का तीव्र बन्धन करता है जैसे कि पानी के बीच रहा हुआ हस्ति तीव्र उत्तेजना प्राप्त करना है । गुजराती भाषान्तरः મોહરૂપી થી કોણ પસેલા બા માન સ્વૈરિ સુખમાં વ્યક્ત થાય છે. જેવી રીતે પાણીની વચ્ચે રહેલો હાથી ઘણો ઉત્તેજીત થાય છે તેવી રીતે મોહની પ્રદીપ્ત જ્વાળાથી ઉદ્દીપ્ત આત્મા મોહના મજબુત બંધનથી બંધાય છે. मोह की मदिरा से मत्त बना आत्मा केवल वर्तमान के सुख को ही देखता | वर्तमान को ही पूर्ण मान लेना सबसे बडी नास्तिकता है। " इहैकपरो नास्तिकः " वर्तमान क्षण को ही जो पूर्ण मान लेता और अनागत पर्यायों से इन्कार करता है, वह बहुत बड़े अन्धकार में है । है, आत्मा की अनन्त अनन्त अतीत सवल पाय पुरा किया, दुखं वेपर दुम्माई | आससकंटपासी वा, मुकघाओ दुहट्टिओ ॥ ३० ॥ } अर्थ :- दुर्बुद्धि आत्मा पहले स्ववश रूप में पाप करता है और बाद में दुःख का संवेदन करता है। जिस प्रकार मनुष्य आवेश में आकर गले में फांसी लगा कर मृत्यु को निमन्त्रण देता है और याद में वेदना के कारण उससे बचना चाहता है । गुजराती भाषान्तर : દુષ્ટ મુદ્ધિવાળો આત્મા પહેલાં પોતાને હાથે પાપો કરીને પછી દુઃખ અનુભવે છે. જે પ્રમાણે મનુષ્ય આવેશમાં આવીને ગળામાં ફાંસો નાંખી મૃત્યુને નિમંત્રણ આપે છે, અને પછી તેની વેદનાથી બચવા ચાહે છે. आत्मा क्रिया करने में स्वतंत्र है किन्तु उसके फल भोगने में स्वतंत्र नहीं हैं। अमुक कर्म करें या न करें यह हमारी इच्छा पर निर्भर है, किन्तु एक बार जो कार्य कर लिया है उसके प्रतिफल से इन्कार नहीं कर सकते हैं। एक किसान अपने खेत में बीज बोने के लिए स्वतंत्र है, वह गेहूं या बाजरा जो चाहे जो सकता है, किन्तु एकबार गेहूं बो देने के बाद वह बाजरा नहीं पा सकता 1 आत्मा मन के खेत में शुभ या अशुभ कर्म के बीज डालने में स्वतंत्र है, किन्तु एक बार जो बीज पड़ चुके हैं उनकी फसल तो तैयार हो कर ही रहेगी। परम्परारूप से कर्म अनादि है । परन्तु व्यक्ति रूप से वे अनादि नहीं हैं। एक कर्म अपनी अमुक काल सीमा को लेकर आता है और प्रतिफल देकर आत्मा से पृथक् भी हो जाता है । बन्ध के पूर्व आत्मा स्वरा | रामात्मक परिणति को रोक कर गन्ध को समाप्त भी कर सकता है, किन्तु बन्ध के बाद फिर कर्म की शृंखला से बंध कर दुःख का वेदन ही करता है । टीका :--१५ वे अध्याय में ११ से १४ श्लोक के रूप में आ चुका है। चंचलं सुहमादाय सत्ता मोहम्म माणवा । आइश्वरस्सित था, मच्छा झिज्जतपाणियं ॥ ३१ ॥ १८ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई अर्थ:-वचल सुख को प्राप्त करके मानव मोह में आसक्त हो जाता है। किन्तु सूर्य की किरणों से तप्त पानी के क्षय होने पर मछली कि भौति तड़पते हैं। गुजराती भाषान्तर: નાશવંત મુખને પ્રાપ્ત કરીને માનવ મેહમાં આસક્ત બની જાય છે, પરંતુ સૂર્યના કિરણેથી ગરમ થયેલ પાણીનો શ્રેય થતાં માછલીની માફક તે પોતે તડકડે છે, पार्थिव सुख छाया की ही भांति चंचल है। सूर्य घूमता है तो छाया भी बदल जाती है। मानव मोह की मदिरा पी कर बोलता है कि मेरा सुख शाश्वत है, किन्नु पुण्य के सूर्य के ढलते ही मुख की छाया भी ढल जायेगी। सोने के सिंहासनों को भी हिलने देर नहीं लगती। जिनके घर में इत्र की दीपदानियों जला करती थीं उनकी किस्मत ऐसी रूठ गई कि उन बेचारों को मिट्टी का भी तेल नसीब नहीं होता है, शुभ पुण्य का सरोवर भरा है तब तक ठीक है। परन्तु जिस क्षण अशुभ की तेज धूप लगेगी, पुण्य का जल सूख जाएगा और उस अहंकारी की स्थिति ठीक वैसी ही होगी जैसे जल के स्त्र जाने पर तडपती हुई मछली की। टीका:-चंचल सत्रमादाय सक्ता मोहे मानवा भवन्त्यादित्यरश्मितसा इव मरस्याः क्षीयमाणपानीयाः । गताः । अधुर्व संसिया रज्ज, अवसा पावंति संखयं । छिज्ज व तरुमारूढा, फलस्थीव जहा नरा ॥ ३२ ॥ अर्थ:-अध्रुव राज्य में आधित रहा व्यक्ति विवश हो कर एक दिन अवश्य ही क्षय होता है। फलेच्छु मानव यदि कटे हुए वृक्ष पर आरूढ होता है तो परिणाम में दुःख ही पाता है। गुजराती भाषान्तर :-- અસ્થિર રાજયમાં દિન જયેલી પદિ નિગર . એક દિવસ અને ક્ષય પામે છે. ફળની ઈચ્છા કરનાર માણસૂ કુપાયેલા વૃક્ષની ડાળીને પકડનાર માણસની જેમ અંતમાં દુઃખ જ પામે છે. मानव क्षणिक राज्य के शरण में जाता है, किन्तु एक दिन ऐसा आता है जब कि उसे विवश हो कर विशाल साम्राज्य को छोड़ देना पड़ता है। मानव अनन्त काल तक सत्ता से चिपटा रहना चाहता है । किन्तु परिस्थितियां अलग टने के लिए उसे विवश कर देती हैं। फलार्थी मानव वृक्ष पर चढता है और कटी हुई डाल को पकडता है फल तो जरूर हाय लगता है किन्तु दूसरे ही क्षण वह अधकटी शाखा टूट आती है और उसको भूमि पर आ जाना पड़ता है। टीका:--मधुवं राज्य संश्रिता नरा अवशाः संक्षयं प्रामुवन्ति फलार्थिन इच सछेय तस्मास्याः । गतार्थः । मोहोवप सयं अंतू, मोहंतं चेय खिसई ।। छिण्णकपणो जहा कोई, इसिजा छिन्ननासिय ॥ ३३ ॥ अर्थ:-मोहोदय में आत्मा बुथा ही एक दूसरे से द्वेष करता है। जैसे कटे कान वाला व्यक्ति कटी नाकवाले व्यक्ति को देख कर हंसता है । गुजराती भाषान्तर: ત્યારે મોહ ઉપન્ન થાય છે ત્યારે માણસ એક બીજાને સાથે વર કરે છે. જેવી રીતે કપાયેલા કાનવાળા કપાયેલ નાકવાળી વ્યક્તિને જોઈને હસે છે. मोह की तीन परिणति में मानव एक दूसरे पर रेप करता है। मोह की जिस ज्वाला में स्वयं जल रहा है मोह के उस क्षेत्र में दूसरा प्रवेश करता है तो मीषण प्रतिशोध की ज्वाला उसके अन्तर में जल उठती है। लेकिन यह विद्वेष की आग व्यर्थ है। क्योंकि वह स्वयं भी उसी की लपटों में है। जिस प्रकार कटेकान वाला कटी माकवाले व्यक्ति को देख कर हंसता है। किन्तु अपनी ओर देखने की वद्द चेष्टा ही नहीं करता है। किन्तु दोनों ही एक समान है। मोहोदई सय जंतू, मंद-मोहं तु खिसई। हेम-भूषणधारी व्य, जहा लक्खविभूषणं ॥ ३४॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . चौबीसयो अध्ययन १३९ अर्थ :--मोहोदयी आत्मा मन्द मोह शील व्यक्ति का उपहास करता है जैसे सोने के आभूषण पहनने वाला लाक्षा (लाख) के आभूषण पहनने वाले की मजाक करता है । गुजराती भाषान्सर: અતિ મોહથી અંધ બને પ્રાણી મદ મેહશીલ વ્યક્તિની મશ્કરી કરે છે. જેવી રીતે સોનાના ઘરેણાં પહેરેલા મનુષ્ય લાખના ઘરેણા પહેરનારની મશ્કરી કરે છે, मोह की तीव्र पारेणति में रहा हुआ आत्मा अल्प मोह वाले व्यक्ति का उपहास करता है। जैसे सोने के गहने पहनने वाला मानव दुसरे के लाख के आभूषणों का उपहास करता है। वह समझता है कि ये बेबारे इन बातों को क्या जाने । । किन्तु तथ्य यह होता है कि जिनका उपहास किया जारहा है वे उन बातों से कितनी मंजिल आगे पहुंच चुके हैं। मोही मोहीण ममि, कीलप मोहमोहिमओ। गहीणं य गहीमज्झे, जहत्थं गहमोहिओ ॥ ३५॥ अर्थ:-मोह-मुग्ध आत्मा मोह वाले व्यक्तिओं के बीच ही क्रीडा करता है। जैसे ग्रह मोहित व्यक्ति घर में ही मुग्ध रहता है। गुजराती भाषान्तर :-- મોહમુગ્ધ આત્મા મોહવાળી વ્યક્તિઓ વચ્ચે જ મશ્કરી કરે છે. જેવી રીતે પોતાનાં રહોથી મોહિત બનેલો માણસ ઘરમાં જ મુગ્ધ રહે છે, गुवरेला मोबर का एक कीड़ा होता है। वह गोबर में पनपता है और उसी में जीता है। मुलाब की सुवास में उसका दम घुट जाता है और यदि उसे मुळाब में छोड़ दिया जाय तो वह समाप्त भी हो जाता है। ऐसे ही वासना के दूषित वातावरण में रहने वाले को यदि त्याग की स्वच्छ भूमि में आने की प्रेरणा दी जाय तो वह उसे बन्धन समससा है। मोह के संकरे घेरे में क्सनेवाले को यदि वीतरागता के शान्त मुक्त वायु में आनन्द नहीं मिलता है। टीका:-मोहमोहितो मोहिना मध्ये क्रीडत्ति अथा ग्रहोणां ग्रहवां ग्रहगृहीताना मध्ये ग्रही यथार्थ ग्रहमोहितः । मोह युक्त आत्मा मोह शील आत्मा में आनन्द पाता है। जैसे ग्रह से गृहीत मनुष्य ग्रह गृहीतों के बीच आनन्द पाता है। जो जिन संस्कारों में पला है उसे उन्ही संस्कारों में रहना पसन्द आता है। एक व्यक्ति कृषणता के संस्कार में रहता है तो उसको उदार वृति वाले व्यक्तियों के साथ रहना रुचिकर नहीं होता है। कृपण कृपण के साथ रहना चाहता है। क्योंकि उसके साथ ही उसके विचार मेल खाते हैं। हर एक व्यक्ति अपने सम-विचार के साथियों में ही रहना पसन्द करता है। बंधंता निरंता य, कम्म नाऽण्णंति देहिणो। वारिग्गाह घड़ीउ ब्य, घडिजंत निबंधणा ॥३६॥ अर्थ:-देहधारी आत्मा कर्म बांधता है और निर्जरा भी करता है, किन्तु केवल इस प्रक्रिया से ही कर्म परम्परा समाप्त नहीं हो सकती। पानी की घडी के सदृश उसका कम चलता रहता है। गुजराती भाषान्तर: દેહધારી પ્રાણી કર્મ સંચય કરે છે અને નિર્જરા પણ કરે છે. પરંતુ કેવળ આ પ્રક્રિયાથી જ કર્મપરંપરા સમાપ્ત થઈ શક્તી નથી, પાણીની ઘડીની જેમ તેને ક્રમ ચાલતો જ રહે છે. आत्मा प्रतिक्षण अनन्त अनन्त नए कर्मों का बन्ध करता है और उसी क्षण अनन्त अनन्त कर्म पुगलों की निर्ज। भी। किन्तु यह निर्जरा उसकी भवपरम्परा को समाप्त करने में समर्थ नहीं हो सकती, क्योंकि आत्मा विषाकोदय में प्राप्त जितने कर्मों को भोग कर क्षय करता है किन्तु निमित्त पर राग और द्वेष परिणति लाकर उससे अनन्त गुण अधिक क्रमों को पुनः बांध लेता है। इस अनादि क्रम के लिए अईतर्षि एक सुन्दर रूक देते है। जिस प्रकार जल-घटिका में पुराना पानी समान होते ही नया पानी आता रहता है और वह कटोरी कभी भी खाली नहीं होती इसी प्रकार आत्मा के साथ क्रमों की परम्परा चालू रहती है। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलि - भासिवा टीका :- नान्यव कर्म नान्येषां देहिनां कर्म यतो निर्जरयन्तश्च भवन्ति देहिनः किन्तु स्वकीयमेव यथा पारि माहा घटीतो धव्यमान निबन्धना भवन्ति, गृहीतं वारिमा घटीमात्राचीनं भवतीति भावः । १४० टीकाकार कुछ भिन्न मत रखते हैं संसार के पानियों में एक का कर्म दूसरा नहीं बांधता है और निर्जरा भी नहीं करता है। किन्तु आत्मा स्वकीय कर्म को बांधता है और खबद्ध कमों की निर्जरा भी करता है। जो आत्मा शुभाशुभ परिणति में रहता है वह अपनी परिणति के अनुसार कर्म बांधता है। स्वयं ही उनसे मुक्त हो सकता है जैसे कि पानी की घडी से समय का निबन्धन होता । अर्थात् घड़ी से पानी का साप होना है और पानी से घड़ी का और उस रूप में समय का परिज्ञान होता है । सम्पूर्ण पानी घडी में प्रवेश करता है और पुनः रिक्त होता है। यही क्रम सदैव चलता रहता है । यही क्रम आत्मा और कर्म का भी हैं। जब तक संसार स्थिति है तब तक यही क्रम चालू रहता है । बज्झर मुच येव, जीवो चित्तेण कम्मुणा । चो वा रज्जुपासेहिं, ईरियंतो पभोगसो ॥ ३७ ॥ अर्थ :- आत्मा विचित्र क्रमों के द्वारा बद्ध होता है और मुक्त भी होता है अथवा रस्सी के पाश में बंधा हुआ प्रयोग से प्रेरित होता है । गुजराती भाषान्तरः પ્રાણી જુદા જુદા પ્રકારના કર્મોના વડે અંધન પામે છે અને મુક્ત પણ થાય છે. અથવા રસ્સીના પાશમાં છંધાયેલો પ્રાણી કોઈ પ્રયોગથી ચલિત થાય છે. कर्म तो पुल द्रव्य है । किन्तु जब आत्मा में राग द्वेष के स्पन्दन होते हैं तब कर्म परमाणु आत्मा से चिपक जाते हैं। पुल द्रव्य आत्मा के स्वभाव से बिलकुल भिन खभाव रखता है । अतः वह आत्मा की शक्ति का अवरोध करता है। आत्मा से संबद्ध होने के बाद कर्म के परमाणुओं में ऐसी शक्ति होती है कि आत्मा भिन्न भिन्न गुणों को रोक सकते हैं । कोई चेतना को अवरुद्ध करते हैं, तो कोई उसकी विशुद्ध दृष्टि को ही मलिन करते हैं और शुद्ध प्रवृत्ति को रोकते हैं। पुलों का स्वभाव मेद अनुभव सिद्ध है। श्री निग्ध तत्त्व वाला है तो मिर्च तीखास तत्व वाली है। ऐसे कर्म परमाणु विभिन्न स्वभाव के होते हैं। प्रस्तुत गाथा में एक और तथ्य बताया गया है कि जबतक कर्म आत्मा से पृथक् होते हैं तब तक दोनों स्वतंत्र हैं । किन्तु जब वे आत्मा से बद्ध हो जाते हैं तब आत्मा की स्वतंत्र शक्ति अवरुद्ध हो जाती है। फिर कर्म द्रव्य उन्हें अपनी शक्ति के अनुरूप परिभ्रमण कराता है। जैसे रस्सी से बंध जाने पर आदमी को उसी की दिशा में गति करनी पड़ती है । टीका :- बध्यते मुय्यते चैव जीवश्चित्रेण नाना प्रकारेण कर्मणा । यथा रजुपाशैर्बद्धाः कश्चिदन्यस्य प्रयोगेण ईर्यते चाल्यते । गतार्थः । I कम्मस्स संत चित्तं, सम्मं नचा जिईदिए । कम्मसंतापमोक्खाय, समाहिमभिसंघ ॥ ३८ ॥ अर्थ :- जितेन्द्रिय आत्मा कर्म संतति की विचित्रता को सम्यक् प्रकार से जाने और कर्म सन्तान से मुक्त होने के लिए समाधि को प्राप्त करे । शुजराती भाषान्तर : જીતેન્દ્રિય આત્મા કર્મ-સંતતિની વિચિત્રતાને સમ્યક પ્રકારથી જાણે અને કર્મસંતાનથી મુક્ત થવા માટૅ સમાધિને પ્રાપ્ત કરે. कर्म संतति की चित्रविचित्रता का साधक सम्यक् प्रकार से परिज्ञान करे। कर्म संतति से मुक्ति के लिए साधक समाधि को प्राप्त करे। क्योंकि समाधिस्थ साधक विभाव दशा प्रवृत्त आत्मशक्ति को रोकता है और कर्मपरम्परा को तोडता है। दओ खेतओ चेष, कालओ भावओ तदा । निश्चानिष्यं तु विष्णाय संसारे सव्वदेहिणं ॥ ३९ ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचीसवां अध्ययन अर्थ:-विश्व के समस्त वेद धादियों को न्योता द र भाव से नित्य और अनिय रूप से जाने । गुजराती भाषान्तर: વિશ્વના સમસ્ત જીવોને દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર કાળ અને ભાવથી નિત્ય અને અનિત્ય રૂપથી જાણવા. प्रत्येक पदार्थ द्रव्य और पर्यायात्मक है। वसु का एकत्व प्रतीतिरूप सामान्य धर्म व्यास्तिकता है। जब वस्तु को पूर्ण और अखण्ड रूप में देखते हैं, तब हमारी दृष्टि अमेदगामिनी होती है और वह दृष्टि द्रध्यास्तिक दृष्टि कहलाती है। किन्तु जब हम वस्तु के भेद रूप अंश में प्रवेश करते हैं और भेद के रूप में उसकी विशेषताओं से परिचय करते हैं, तब वह भेदगाभीष्टष्टि पर्यायास्तिक दृष्टि कहलाती है। वस्तु की गहराई में जितना ही प्रवेश मिलता जाएगा वस्तु तत्त्व उतना ही निखरता जाएगा। __ द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि में वस्तु एक अविभाज्य और निय है, जब कि पर्यायनय की दृष्टि में शाश्वतता जैसी कोई वस्तु ही नहीं है। पर्यावनय की दृष्टि में पदार्थ प्रतिक्षण उत्पन्न हो रहा है तो विनष्ट भी। जब कि द्रव्यार्थिक नय पदार्थ को अनुत्पन्न और अविनष्ट मानता है। समस्त देहधारी आत्माएँ भी वन्य क्षेत्र काल और भाव पर्याय के अनुरूप परिवर्तन गामी हैं तो ष्य रूप से शाश्वत भी है। निश्चलं कायमारोगग, थाणं तेल्लोकसक्यं ।। ___सवण्णुमग्गाणुगया, जीवा पावंति उसमं ॥ ४०॥ अर्थ :-सर्वज्ञ मार्ग के अनुगामी जीत्र त्रैलोक्य से संस्कृत आरोग्यकृत अचल उत्तम स्थान को प्राप्त करते हैं । गुजराती भाषान्तर: સર્વજ્ઞ માર્ગના અનુયાયી છવ ત્રણલોકથી સંસ્કૃત, આરોગ્યકૃત, અચલ, ઉત્તમ સ્થાનને પ્રાપ્ત કરે છે, वीतरागता का पथिक एक दिन बीतरागत्व प्राप्त करता है। साधना के क्षणों में वीतरागत्व ही हमारा लक्ष्यबिन्दु होना चाहिए। मन की रागात्मक दशाओं पर अधिक से अधिक वीतराग स्थिति प्राप्त करना ही हमारी साधना है। सम्पूर्ण वीतरागता ही निथल आरोग्य है और वही त्रिलोक का संस्कृत स्थान है। टीका:-निश्रलं कृतारोग्यं त्रैलोक्यसंस्कृतं स्थानमुत्तम प्राप्नुवन्ति जीवाः सर्वज्ञमागौनुगताः । मतार्थः । एवं से सिद्ध बुद्ध० । गतार्थः । इति हरगिरिअईतर्षिप्रोक्त चौबीसवां अध्ययन समाप्त । अम्बड़ अर्हतर्षि प्रोक्त पच्चीसवां अध्ययन आत्मा का युद्ध स्वरूप देहातीत है। फिर वह क्यों पुनः पुनः संसार में आता है और यह चक्र कपसे चल रहा है, क्यों चला और कब तक चलता रहेगा। इन प्रश्नों का समाधान ही प्रस्तुत अध्यन का प्रमुख विषय है। अर्हतर्षि अम्बड और अहंतर्षि योगन्धरायण की विचार-चर्चा के रूप में यह अध्यन प्रारम्भ होता है । महर्षि योगन्धरायण कौन थे? उनके परिचय के विषय में आगम मौन है। किन्तु हाँ, अम्बड अहंतर्षि जैन संसार के परिचित व्यक्तियों में हैं। प्रथम उपांग औपपातिक सूत्र में अंबड परित्राजक के नाम से एक संन्यासी का विशद वर्णन आता है। अंबड भगवान महावीर के वैदिक उपासकों में से थे। उनकी वेष-भूषा संन्यासियों जैसी थी और उनके व्रत नियमों का भी वे दृश्टता से पालन करते थे। किन्तु अन्तर से वे प्रभु महादोर के अन्य उपासक थे। अपने नियमों को इस कठोरता से पालन करते हैं कि वे और उनका शिष्य परिवार उसके लिये जीवन को उत्सर्ग कर देते हैं। जीवन की संच्या में वे विचार और व्यवहार दोनों से ही प्रभु महावीर के सर्ववती शिष्य बन गए। उसके पूर्व उनकी वैकिय लन्धि विविध रूप प्राप्त करने वाली शक्ति के संबन्ध में गौतम गणधर देव भी प्रभु से प्रश्न करते है। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई पर अम्बर परिव्राजक ही अतिर्षि अम्बड है या दूसरे कोई अम्मड है? यह विचार का प्रश्न अवश्य है। प्रस्तुत सूच की. संग्रहिणी गाथा के अनुरूप अम्बड प्रभु महावीर के नहीं प्रभु पार्श्वनाथ की परम्परा के होने चाहिए। संग्रहिणी के अनुसार बीस अईतर्षि भगवान नेमिनाथ के शासन काल के हैं। पंद्रह प्रभु पार्श्वनाथ के शासन काल के है और शेष दश प्रभु महावीर के शासन काल के हैं। क्रम के अनुसार ये पच्चीसवें अहवर्षि हैं। अतः भगवान पार्श्वनाथ की ही परम्परा के होने चाहिए। साथ ही ये चतुर्थ और पंचम महाव्रत का एक साथ निरूपण करते हैं। अतः यह परम्परा भी उन्है भगवान महावीर के शासन से अलग करती है। तप णं अंबडे परिवायप. जोगंधरायणं एवं बयासी:-- मणे मे विरई भो देवाणुप्पिओ गम्भवासाहि कह न तुमं यंभयारी ? । अर्थ:-अंबड़ परियाजक योगन्धरायण को इस प्रकार बोलते हैं कि मुझे-भर्भवास से विरक्ति है। हे ब्रह्मचारी1 तुम्हे विरक्ति क्यों नहीं है । गुजराती भाषान्तर : અંખડ પરિવ્રાજક ચન્દરાયણને આ પ્રમાણે કહે છે કે હું ગર્ભવાસથી કંટાળી ગયો છું, હું બ્રહ્મચારી તને સંસારના ભોગવટાથી વિક્તિ શા માટે થતી નથી ? टीका:-तनश्नाम्यटः परिमाजको योगन्धरायणमेवमवाद् यथा देवानुप्रिय ! मनसि मे गर्भवर्षाभ्यो मैथुनाद् चिरतिः कथं न स्वं ब्रह्मचारी भवसीति । बाद मैं अम्बड परिव्राजक योगन्धरायण से ऐसा बोले कि मुझे गर्भवास से विरक्ति हैं। गर्भवास से यहा-पुनः पुनः संसार में परिभ्रमण करना गृहीत है। रीकाकार गर्भवारा से विरक्ति का अर्थ लेते हैं। गर्म वर्षा अर्थात मैथुन से विरक्ति और इसी अनुसंधान में वे बोलते हैं कि तुम भी ब्रह्मचारी क्यों नहीं होते हो। टीकार्थ से ऐसा ध्वनित होता है कि योगन्धरायण सन्त नहीं है। इसलिए अम्बद्ध परिव्राजक उनको प्रेरणा देते है। प्रोफेसर शुलिंग प्रस्तुत अध्ययन के विषय में मिन्न मत रखते हैं। पच्चीसो प्रकरण भी बीसवें प्रकरण की ही भांति मौलिक नहीं है। बल्कि उधार लिया हुआ लगता है, किन्तु उसके प्रसिद्ध, व्यक्ति बीसवें अध्ययन की अपेक्षा ज्यादा निर्णयात्मक है। किन्तु ऐसा लगता है कि प्रस्तुत अध्ययन किसी बड़े ग्रन्थ का एक अंश है। किन्तु उसका पूर्वापर संबन्ध विच्छिन्न है। क्योंकि उसका प्रारम्भ तएण से होता है। जोकि बताता है कि इसके पूर्व फुछ चला गया है। अम्बड से हम उदवाइय सत्र में परिचित है। किन्तु वहा परित्राजक के रूप में प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। उनके हिस्सेदार योगन्धरायण हैं । वस्तुतः प्रस्तुत अध्यायन उन्हीं के नाम के साथ होना चाहिए था। क्योंकि प्रस्तुत अध्याय के प्रमुख वक्ता वे ही हैं। ये योगन्धरायण उदयन के समकक्ष लगते है। ये मंत्री हैं। ब्राह्मण हैं। पर यहां जैन सावक की भांति बोलते हैं। अभिधाम राजेन्द्र के अनुसार आवश्यक नियुक्ति की कथाओं में उनका उलेख आता है। अम्बड उन्हे पूछते है कि चे भी उनके ही तरह ब्रह्मचारी के रूप में क्यों नहीं रहते है ? । क्योंकि उन्होंने भी वासनाजन्य आनन्द को छोड़ दिया है। तपणे जोगंधरायणे अंचर्ड परिवायगं एवं वयासी-हारिया पहि या पहिता आयाणेहि, जे खलु हारिता पावेहि कम्मे हिं अधिप्पमुका ते खलु भो गम्भघासाहिं सजंति ते सयमेव पाणे अतिवातेति ! अण्णे वि पाणे अतिवातेति । अर्थ:- तब योगन्धरायण अम्बड परियाजक को ऐसा बोले कि हारित पाप कर्म से बद्ध पुरुष इन कर्म के द्वारों से पाप कर्म एकत्रित करते हैं । चे पाप कमों में अविप्रमुक्त बद्ध आत्मा गर्भवास में जाते हैं। वे स्वयं प्राणियों की हिंसा करते हैं और दूसरों के प्राणों की हिंसा करवाते हैं। गुजराती भाषान्तर: ત્યારે યોગધેરાયણ અમ્બડ પરિવ્રાજકને એવું કહ્યું કે હારિત વખત પાપકર્મથી બદ્ધ પુરુષ આ કર્મો દ્વારા પાપ કર્મ ભેગું કરે છે, પાપ કર્મોથી વીંટાળેલી પ્રાણું ફરી ગર્ભવાસને સ્વીકાર કરે છે. તે સ્વયં પ્રાચિની હિંસા કરે છે. અને બીજાના પ્રાણોની હિંસા કરાવે છે, Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीसवां अध्ययन २४३ गर्भ में पुनरागमन के कारण मानव की हिंसात्मक प्रवृत्ति है। पाप वृत्तियों के द्वारा जिनका मन पराजित रहता है, अथवा जो वासना के प्रवाह में वह जाते हैं तथा अपने ऊपर अंकुश नहीं रख सकते हैं। इन्द्रियां अपने विषय की ओर दौड़ती हैं। उनकी दौड़ पर विवेक का ठोकुश न रहा तो वे स्वच्छंद हो जाएगी। अंकुश का अर्थ यह नहीं है कि उनको बलपूर्वक दबाए रखना । वासना को दबाने का अर्थ यह हुआ कि बाहरी वातावरण या सामाजिक भय मन की वासना को बाहर नहीं आने देते हैं, किन्तु वह भीतर ही भीतर दबी रहती है और यह दबाब कभी कभी अनुचित परिणाम ला देता है। वासना का प्रवाह कभी कभी बांध तोड देता है और उसमें साधक तथा उसकी साधना डूबती उतराती सी जान पडती है। किन्तु तथ्य यह है कि वासना की बाड नई नहीं । पहले वह दमी हुई थी और अब वह खुले रूप में आगई है और दबाव ने उसके वेग को विद्रोह करने के लिए प्रेरित कर दिया है। अतः दमन का अर्थ दबाना नहीं, विवेक पूर्वक वासना की जल राशि क्षय करना है। आगम की भाषा में पहला तरीका उपशमन का है। जो साधक वासना को दवाता गया और ग्यारहवाँ गुण श्रेणी तक पहुंच गया, किन्तु वहां पहुंचने के बाद दबी हुई वासना विद्रोह कर उठती है और संयम का बांध ढह जाता है, इसीलिए कहा जाता है कि इतना बड़ा सावक भी पतन की गहरी खाई में पहुंच गया। उसके बोध के सीमेन्ट और कॉकोट के बांध के प्लास्टर के नीचे कोरी माटी श्री । अतः टकर लगते ही बांध ढह गया। दूसरा तरीका है क्षय का वासना का संपूर्ण क्षय करके साधक मुक्त होता हैं किन्तु जो उसे क्षय न करके उसके प्रवाद में वह जाता है वह अपनी वासना के पोषण के लिए प्राणियों की हिंसा भी करता है। टीका :-तत्रो योगन्धरायणो अंबटं परिवाजकमेवमवादीद् यथा हारिताः पुरुषा एभिरेभिश्च वाषदादानैः कर्मोंपादानैः । ये खलु हारिताः पापैः कर्मभिरचिताभितितन्त्यन्यानपि प्राणिनो अतिपालयन्ति । गतार्थः । जानू ! अण्णे व पाणे अतिवातावेंते या सतिजंति समगुजाणंति, ते सयमेव भुसते भासति सतिछंति समगुज्जाणंति अविरता उप्पडिता पश्चक्खातपावकम्मा मणुजा अदत्तं आदियंति... सातिअंति समणुजाणंति सयमेव अभपरिग्गहं गिण्हंति मीसयं भणियव्वं जाव समणुजाणंति । अर्थ : :- जो दूसरे प्राणियों का वध करते हैं उसके लिये प्रेरणा देते हैं। उसका अनुमोदन करते हैं। वे यंभूषावाद बोलते हैं। दूसरे को उसके लिए प्रेरित करते हैं जो अविरत हैं साथ ही पाप परिणति को रोकने के लिए प्रयाख्यान नहीं करते हैं अदत्तादान का भी सेवन करते हैं। दूसरों को उसके लिये प्रेरणा देते हैं और उसका अनुमोदन भी करते हैं। इसी प्रकार स्वयं परिग्रह और अब्रह्मचर्य का ग्रहण करते हैं। इस प्रकार मैथुन और परिग्रह का मिश्रित वक्तव्य । यावत् वे उसकी प्रेरण भी देते हैं। गुजराती भाषान्तरः અને જે બીજા પ્રાણીઓનો વધ કરે છે અગર તે ફામમાટે પ્રેરણા આપે છે. અગર તેનું અનુમોદન કરે છે, તે સ્વયં મૃષાવાદ બોલે છે. બીજાને તે કામ માટે પ્રેરિત કરે છે, જે અવિરત છે. સાથે સાથે પાપના પરિણામને રોકવા માટે મનાઇ કરતા નથી, અદત્તાદાન જે આપ્યું નથી તેનો સ્વીકાર કરવો તેને પણ સેવે છે. સ્ત્રીઓને તે કામ કરવા સારું પ્રવૃત્ત કરે છે અને એનું અનુમોદન પણ કરે છે. એજ પ્રમાણે પોતે પરિગ્રહ અને અબ્રહ્મચર્ય સાંસારિક ભોગનું સેવન કરે છે. એ પ્રમાણે મૈથુન અને પરિગ્રહનું મિશ્રિત વક્તવ્ય છે. જ્યાં સુધી તેઓ તેની પ્રેરણા પણ આપે છે. टीका :- अन्यानपि जनान् प्राणिनोऽतिपातयत्यतोऽनुमोदयन्ति समनुजानंति एवमेव मृपा भाषन्त इत्यादि कारणग्रिकम् | अविरतामतिताऽप्रत्याख्यातपापकर्मणो मनुजा इत्येतरक्षणात् पठितव्यस्वा दिद्दापास्यम् । ने स्वयमेवादसमाददते अपरिग्रही गृहन्तीत्यालापकः पूर्ववत् । गतार्थः । विशेष :--- अब्रह्मचर्य और परिग्रह का संयुक्त निर्देश भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का ध्वनित कर रहा है। गर्भवास के दूसरे हेतु हैं मृषावाद, अशुभ से अविरति । साथ ही जिसने प्रत्याख्यान के द्वारा अपनी वृति को अशुभ की ओर जाने से रोका नहीं है और जो चौर्यकर्म में प्रवृत होता है, वासना और परिग्रह में लिप्त होता है और इसके लिए दूसरे को भी प्रवृत्त करता है वह भव-परम्परा की वृद्धि करता है। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई एवमेव ते अस्संजता अविरता अप्पडिहता पञ्चपखाता पावकम्मा सकिरिया असंवुत्ता एकंतदंडा एकंवबाला यशुपावं कम्म कलिकलुसं समजिणित्ता इतो चुता दुमातिगामिणो भवति । पहि हारिता आयाणेहि। अर्थ:-इस प्रकार वे असंयत अविरत अप्रतिहत प्रत्याख्यात पाप कर्मशील सक्रिय असंवृत आत्माएँ जो एकान्त की होती हैं और एकान्ततः अशानशील होते है विपुल पाप कर्म के लिए कलुष में डूबता है और यहां से मारने के बाद दुर्गतिगामी होता है। यही आत्मा की सबसे बड़ी पराजय है। अथवा ये आत्माएँ आत्मा की शुद्ध परिणतिओं की अपहारक वृत्तियों से हारित है चुराई हुई है। अर्थात् ये अशुभ वृत्तियों में लीन हैं। गुजराती भाषान्तर: એ પ્રકારે તેઓ સંયમરહિત, અવિરત અપ્રતિહત અપ્રત્યાખ્યાત પાપકર્મશીલ સક્રિય અસંવૃત આત્માઓ પણ જે એકાત નિશ્ચિત દંડવાળા હોય છે અને એકાન્તત; અજ્ઞાની હોય છે. વિપુલ પાપકર્મના કલિ કલબની અંદર રહે છે. અને અહીંથી મરીન દગતિમાં જાય છે. એ જ આત્માને સૌથી મોટો પરાજય છે, અથવા આ પ્રાણીઓ આત્માની શુદ્ધ પરિણામોની અપહારક વૃત્તિઓથી હારિત છે, ચોરાયેલી છે, અર્થાત્ તેઓ અશુભ વૃત્તિઓમાં બી अछ. 'आत्मा गर्भ में पुनः क्यों आता है ? इस प्रश्न के उत्तर में योगन्धरायण इस तथ्य को सामने रख रहे है। जो आत्मवासना से विमुक्त नहीं है वह हिमा आदि पाँचों पाप कर्म करती है, वही उसके सगुणों को अपहरण करने वाले चोर है। वे पाणी दुराचरण में रत रहते हैं और उसके लिए दूसरे को प्रेरित भी करते हैं और उसकी प्रशंसा भी करते है। पाप का हो जाना एक चीज है और पाप का करना दूसरी चीज है। होने और करने में उतना ही अन्तर है जितना कि ट्रस्टीशिप और स्वामित्व में। एक में कर्तव्य निभाना है जब कि दूसरे में आसक्ति हैं। यह आसक्ति ही समस्त पाप परिणतियों की जड़ है। प्रोफेसर शुनिंग अम्बड परिमाजक के प्रश्न के उत्तर में बोलते है कि मनुष्य प्राप्त वस्तुओं से ही आकर्षित होता है। भ कृत्य और वासना आत्मा की स्वतंत्रता का अभाव दिखाते हैं । इस रूप में वे अम्ब को यह सूचित करना चाहते हैं कि केवल व्रत ही; जिनके लिए कि आप गौरव ले रहे हैं वे ही पर्याप्त नहीं है। किन्तु वासना विमुक्ति के लिए आश्रम के आचार शास्त्र का अध्ययन और चिन्तन भी आवश्यक है। सकिरिया जैन परिभाषा में किया वह वृत्ति कहलाती है जिसके द्वारा भात्मा कर्मों का बन्ध करता है। सावध व्यापार किया है। - भगवती सूत्र २० १७.३, १. कायिकी शरीर संभक्ति, अधिकरण की शस्त्र संभावित, प्राद्वेषिकी अर्थात् द्वेष के द्वारा होने वाली परितापिनिकी दूसरों को संत्रस्त करने से आने वाली किया। प्राणातिपातिकी आदि क्रिया के २५ प्रभेद है। ये क्रियाएँ और असंबर है। दंड है। किया से प्रेरित आत्मा दंड और अज्ञान में निरत रहती है। पाप की कलुषितता में निमम रहकर दुर्गति के पथिक होते हैं और यही जीवन की सब से छी पराजय है। दंड भी एक जैन पारिभाषिक शब्द है, आत्मा की वह अशुभ परिणति जिसके द्वारा वह दंडित होता है 'दंड' कहलाता है। उसकी खार्थ और कवाय अन्य प्रवृत्ति दूसरे के लिए दंड प्रयुक्त करती है। किन्तु उसको वह अशुभ ही उसे दंडित करती है। टीका:-पूवमेव ते भसंयता भचिश्ता मप्रतिक्षता प्रत्याख्यातपापकर्मणः क्रियावन्तोऽसंवृता एकांतदेवा एकांतमाला बदुपापं कर्म कलिकलुषं समर्येिताश्युता दुर्गतिगामिनो भवम्येभिारितादानैः। गतार्थः । जे खलु आरिया पावेहिं कस्मेहिं विप्पमुक्का ते खलु गम्भवासाहि णो सजति ते णो सयमेव पाणे अतिवातिति एवं राधेष विपरीतं जाव अकिरिया संवदा, एकतपंडिता, वधगतरागदोसा तिगुत्तिगुत्ता तिदंडोवरता णीसल्ला आयरक्ली वगयचउकसाया, चउविकहविवजिता पंच महाव्यया तिगुत्ता पंचिंदियसंवुडा छजीवनिकायसुटुणिरता, सत्समयविप्पमुक्का, अट्ठमयट्ठाणजदा, णवबंभचेरजुत्ता, दस समाहिट्ठाणपयुत्ता, बहुं पावं कम्म कलिकलुसं खबहत्ता हतो चुया सोग्गतिगामिणो भवति । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चीसवां अध्ययन १४५ - - - - अर्थ:-जो आर्य आत्माएँ पाप कर्म से विमुक्त हैं, वे गर्भ घास में नहीं आती है। वे स्वयं प्राणों को परिताप नहीं देते हैं। पूर्वोक्त वर्णन के ठीक विपरीत उनका जीवन होता है। यावत् किया रहित होते हैं, वे एकान्ततः पंडित होते हैं। राम द्वेष से उपरत रहते हैं । त्रिगुप्तियों से गुम होते है । मनादि त्रिदंडों से गुप्त रहते हैं । आगम में वर्णित माया निदान और मिथ्यादर्शन के शल्य से विरत होते हैं । वे आत्म स्वभाव के रक्षक होते हैं। जिन्होंने चारों कषायों पर विजय पाई है, वे चारों विकथाओं से विवर्जित, महावतों से युक्ता, पंच इन्द्रियों को सुसंकृत रखने वाले षट्-जीव-निकाय की सुरक्षा में श्रेष्ठ रूप से निरत हैं। सप्त भयों से रहित और अभयदी है। आठ मद स्थान से विवर्जित ब्रह्मचर्य के नौ प्रकारों से जिनका जीवन सुरक्षित है साथ ही इस प्रकार के समाधि स्थानों के द्वारा जिनका मन समाधिस्थ है, ऐसी आत्माएँ पापकर्मों को और कलिकालष्य को क्षय करके यहां से च्युत होकर सद्गति के गामी होते हैं। गुजराती भाशान्तर: જે આર્ય આત્માઓ પાપકર્મવગરના છે તે ગર્ભવાસમાં ફરી આવતા નથી. તે સ્વયં પ્રાણોને પરિતાપ દેતા નથી, પૂર્વોક્ત વર્ણનથી ઉલટું જ વિપરીત તેમનું áન હોય છે. યાવત્ ક્રિયારહિત હોય છે, તે એકાન્તતઃ પંડિત હોય છે રાગદ્વેષર્થી પર હોય છે. ત્રિગુપ્તિઓથી ગુપ્ત હોય છે, મનદિ ત્રિદંડોથી ગુમ રહે છે, આગમમાં વર્ણન કરેલા માયા નિદાન અને મિથ્થા-દર્શનના શલ્યથી રહિત હોય છે, તે આત્મા પોતે જ સ્વભાવના રક્ષક હોય છે. જેઓએ ચારે કષાય પર વિજય મેળવ્યો છે, તે ચારે વિકથાથી રહિત, મહાવ્રતોથી યુક્ત, પાંચ ઇન્દ્રિયોને સુસંવૃત રાખવાવાળા, છકાય જીવની સુરક્ષામાં શ્રેષ્ઠ રૂપથી નિરત છે સાત ભયોથી રહિત અભયદશી છે. આ મઠ સ્થાનથી રહિત અને, બ્રહ્મચર્યના નવ પ્રકાર જેવું જીવન સુરક્ષિત છે, સાથે જ પ્રકારની સમાવે-સ્થાનો દ્વારા જેનું મન સમાધિસ્થ છે, એવા આત્માઓ પાપકમીને અને કલિયુગના દોષોને નાશ કરીને આ લોકથી મુક્ત થઈ સદ્ગતિ મેળવે છે. 'संसार चक्र का अन्त कौन करता है। इस प्रश्न का उत्तर यहाँ दिया गया है। जिसने विकारों पर विजय पाई है, छोटी छोटी भूलों पर भी जो बारीकी से दृष्टि रखता है, जिसके मन नाणी और कर्म में एकरूपता है, जिसकी इन्द्रिय विपथ-पामिनी नहीं हैं, जिसने कषायों पर विजय पाई है, ब्रह्मचर्य की प्रभा से जिसका मुख आलोकित हो रहा है और जिसका मन समाधि में लीन है वहीं साधक भव-परम्परा को समाप्त कर सकता है। जिसका अन्तःकरण पवित्र है वही परमात्म-पद प्राप्त कर सकता है। साधना की भूमि मन्दिर और उपाश्य नहीं है अपि तु मानव का अन्तःकरण है। एक इंग्लिश विचारक ने ठीक ही कहा है कि Man's conscienco is the ored of God. मानव का अन्तःकरण ही ईथर की वाणी है। हमारे कदम ठीक राह पर हैं या गलत राह पर । इसका निर्णय हमारा अन्तर्मन देता है । शुद्ध अन्तःकरण से जो आवाज आए उसी पर चल पड़ो वही आत्मा की आवाज होगी । जिसमें केवल तुम्हारा ही हित हो और तुम्हारे पडोसी का अहित छिपा हुआ हो वह आवाज आत्मा की नहीं, शरीर की है। उसमें देदाध्यास की छाया है। यही कारण है कि कमी कमी हमारी चेतना में द्वन्द्व होता है। हम शीघ्र निर्णय पर नहीं आ सकते । इसका कारण शरीर और मन की आवाज भिन्न भिन्न होती है और दोनों में संघर्ष होता है। एक विचारक कहता है Conscience is the voice of the soul as the pussions are the voice of the body. No wonder they often contradict cach other. अन्तःकरण आत्मा की आवाज है जैसे वासना शरीर की । इसमें आश्चर्य ही क्या है ! यदि वे एक दूसरे का खंडन करती है। जिसने आत्मा की आवाज को पहचाना है वह बहिरात्मा से हट कर अन्तरात्मा की ओर आएगा और अन्तरात्मा से परमात्मा की ओर कदम बढ़ाएगा । यहाँ पर उन वृत्तियों को गिनाया गया है जो आत्मा की शुद्ध स्थिति में पहुंचने से रोकते हैं। उन पर विजय पाए बिना साधक परमात्म-स्थिति को प्राप्त नहीं कर सकता है। -मन वचन और काया की प्रवृत्ति को अशुभ की ओर जाने से रोकना 'गुप्ति' है। १ सम्यम्योगनिग्रहो गुप्ती । तत्वार्थसूत्र अध्याय ९ सूत्र४1 १२ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई त्रिदंड:-मन वाणी देह स्व तथा पर के उत्पीड़क बनते हैं तब 'दं' कहे जाते हैं। शस्य:-शुद्ध स्थिति में जो वृत्ति कोटे-सी चुभती है उसे 'शल्य' कहा जाता है। विकथा:-ईर्ष्या और कलह प्रेरित कथाएँ 'विकथा' या व्यर्थ कथाएं हैं। जो राज्य देश, भक भोजन और श्री संबन्धित हो कर चार प्रकार की है। महावत:-हिंसा, असल्य, स्तेय, वासना और परिप्रह से सम्पूर्ण रूप से विरत होना ही महावत है। कपाय:-भव परिभ्रमण की पृद्धि करने वाली आत्मा की वैभाविक दशा । कोथ, मान, माया और लोभ जिसके ये चार भेद है। भय:-भयजन्य वृशि; इग लोक से संबन्धित, परलोक का डर, आदान लेने का हर अकस्मात् आजीविका अपयश और मृत्यु के रूप में भय के सात प्रकार हैं। मद:-आत्मा की गलत अहंपत्ति । उसके आठ रूप हैं:-जाति, कुल, बल, रूप, लाभ, तप, सूत्रज्ञान और सत्ता। इन सब पर विजय पाने वाला ही ब्रह्मचर्य की साधना कर सकता है। वही समाधि-भाष में रह सकता है। इस जीवन के बाद मुगति को प्राप्त कर सकता है। टीका:-ये खल्वायर्याः पापैः कर्मभिर्विमुक्का भवन्ति ते खलु गर्भावर्षासु न सजन्ति; ते न स्वयमेव प्राणिनोऽतिपतन्ति इत्यादि विपरीतं पूर्व याववक्रियावन्तः संवृता पुकान्तपंडिता, व्यपगतरागद्वेषाः, त्रिगुप्तिगुप्ताः, त्रिदोपरता निःशल्याऽऽस्मरक्षिणो, व्यपगतचतु:कषायाश्चतुर्विकथाविवर्जिताः, पंचमहाव्रतधरा धरति परित्याज्य, पुस्तकेषु तु न श्यते। तिगुसत्ति त्रिगुप्ता न यथासंख्यं पंचेन्द्रियसंवृताः पद्जीवनिकायसुधुनिरताः ससमय विप्रमुक्ताः भष्टमवस्थानहीमा, नवनामचर्ययुकादशसमाधिस्थानसंप्रयुक्ता बहु पाप कर्म कलिकलुष क्षपयित्वेतभ्युताः सुगतिगामिन्यो भवन्ति । गतार्थः । विशेष पंच महाव्रत के साथ धरा पाठ यद्यपि पुस्तक में नहीं है । तथापि आवश्यक है। ते णं भगवं सुसमग्गाणुसारी खीणकसाया दंतेंदिया सरीरसाधारणट्ठा जोगसंधाणताए णवकोडीपरिसुद्धं दसवोसविष्पमुक उम्गमुप्पायणासुद्धं इतराइतरेहिं कुलेहिं परकडं परिणिहितं विगसिंगालं विगतधूम पिडं सेनं उवधिं च गवेसमाणा संगतविणयोवगारसालिणीयो कल-मधुररिभितभासिणीओ संगत गत हसित-भणित-सुंदर-थण-जण-पहिरुवाओ इत्थियाओ पासित्ताणो मणसा घि पाउन्माचं गच्छति। अर्थ:-हे भगवान् अम्बड ! सूत्रमार्ग का अनुसरण करने वाले वे साधक क्षीण कषायी और दान्तेन्द्रिय होते हैं। शरीर धारण के लिये योग-साधन के लिए नद कोटि परिशुद्ध आहार ग्रहण करते हैं। साथ ही वह आहार भिक्षावरी के दस दोषों से रहित होता है। सोलह उद्गमन और सोलह उत्पाद के दोषों से विवर्जित है । अन्यान्य कुलों में पर-कृत परिनिष्ठित (दुसरों के लिए निर्मित) है। जिसमें अग्नि बुझ चुकी है और धुवाँ भी उपशान्त है, ऐसे ही निर्दोष आहार, शय्या और उपधि को खोजने वाले मुनिगण सुन्दर नारियों में आरक्त नहीं होते हैं। जोकि समुचित विनयोपचार में कुशल है, सुन्दर, मधुर और रिमित अर्थात् खर के माधुर्य से युक्त संभाषण करने वाली, सुन्दर स्तन और जंघाओं से सुशोभित निरूपम रूपशालिनी अवसर पर हास्य और संभाषण करने वाली नारियों को देख कर उनके मन के एक कोने में भी बासना का उद्भव नहीं होता है। गुजराती भाषान्तर: હે ભગવાન અખ્ખી સૂત્રમાર્ગનું અનુસરણ કરનાર સાધક ક્ષીણ કવાયી અને દાનેન્દ્રિય (ઇન્દ્રિય પર કાબુ રાખનાર) હોય છે. શરીરને વ્યવહાર ચાલુ રહે તે માટે યોગસાધના માટે નવ કોટિ પરિશુદ્ધ આહાર ગ્રહણ કરે છે. તે આહાર ભિક્ષાથરીના દશ દોષથી રહિત હોય છે, સોળ ઉદ્દગમન અને સોળ ઉત્પાદના દોષોથી રહિત છે, જુદા જુદા કળોમાં પર કાપરિનિષ્ઠિત (બીજાઓ માટે નિર્મિત છે), જેમાં અગ્નિ કરી ગયો છે. અને ધુવાડો પણ નાશ પામ્યો. છે. એવી રીતે જ નિર્દોષ આહાર શમ્યા અને ઉપધિને શેધવા વાળા મુનિગણ સુંદર નારીમાં આસક્ત થતા નથી. हिंसानृतस्तयाग्रहापरिग्रहेन्यो बिरतिनतम् । अ०७-१ । देश सर्वतोऽणु महती-तत्वार्थ. म०७ १-३। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - . 4 पचीसो अध्ययन જો કે ઉચિત નમ્રતાપૂર્ણ વ્યવહારથી કુશળ છે. સુન્દર, મધુર અને રિમિત અર્થાત્ સ્વરના માધુર્યથી યુક્ત સંભાષણ કરવાવાળા, મુદા સ્તન અને જાંગથી સુશોભિત ને અનુપમ રૂપથી શોભા પામેલ અમુક સમય જોઈને હાસ્ય અને સંભાષણ કાર્ય કરવાવાળી એવી સ્ત્રીઓને પણ જોઈને તેઓના મનન એક ખૂણામાં જરા પણ વાસના ઉત્પન્ન थती नथी. जो साधक काम विजेता है उसका आहार-विहार नियमित होता है । वह आहार लेता है, क्योंकि शरीर को टिकाए रखना है। पर बह आहार मी तमी लेता है जब वह उसके नियमों के अनुकूल हो । उसके लिए बनाया गया भोजन वह रहण नहीं करता है भजन गालिबासस्या हो वह भी अमि और धूम रहित हो। ऐसा निर्दोष आहार शव्या और स्थान तथा वनादि के ग्राहक साधक मधुरभाषिणी और सौन्दर्यशालिनी नारियों के नेत्र कटाक्ष से घायल नहीं होते हैं।। नध कोटि परिशुद्ध-मन, वाणी और कर्म से अशुद्ध आहार का न प्रहण करना न करवाना और न अनुमोदन करना यह नव कोटि परिशुद्ध कहलाता है। टीका:-हे भावसम्बट! ते सुत्रमार्गानुसारिणः क्षीणकषाया दान्तेन्द्रियाः शरीरसंधारणार्थ योगसंधानाय नवकोरिपरिशुद्धत्यादि प्रसिद्धलक्षण पिंड सादी मिक्षां शर्म चोपधि च गवेषमाणाः साधवः संगत-गत-हसिस-भणितैः सुन्दरस्तनजवनैश्च प्रतिरूपा रूपवत्यः खियो दृष्ट्वा न तेषां मनसापि प्रादुर्भाव गच्छन्ति मैथुनार्था प्रामधर्माः । गताथैः । एतावदेव ऋषिभाषितमित्यंबटस्य संबोधितावादनुमेयम् । शेषाणां ऋषिभाषितानां वाग्वृत्ति स्त्रनुसृत्य हारितेत्यादि कधुवास्य यौगन्धरायणभाषितमिति। अम्बई के संबोधन से ऐसा अनुमान होता है कि इतना ही ऋषिभाषित है। शेष ऋषिभाषित की वाग्वृत्ति का अनुसरण करने पर शात होता है कि हारित आदि लघुवाक्य योगन्धरायण द्वारा कह गये हैं। से कथमेत ? विगतरागता सरागस बियणं अधिक्ख हतमोहस्स, तत्थ तत्थ इतराइतरेसु फुलेसु परकडं जाव पडिरूयाओ पासिचा णो माणसा वि पादुभावो भवति, त कहमिति ? । मूलयाते हतो रुक्खो, पुप्फत्रासे इतं फलं। छिण्णाए मुजूसूईए, कतो तालस्स रोहणं ? ॥१॥ अर्थ:-यह वीतरागता कैसे हुई? क्योंकि बहुत से सराग आत्मा ऐसे भी होते है जिन्होंने मोद को पराजित कर दिया है, मोह को उपशान्त कर दिया है। वे यहाँ वहां अन्यान्य कुलों से परकृत आहार आदि का उपभोग करते हैं। और रूपचती सुन्दर नारियों को देख कर भी जिनके मन में पाप का उद्धव नहीं होता है। प्रश्न:-हे भगवन् ! ऐसा क्यों होता है। उसर:-जैसे जड़ नष्ट कर देने पर वृक्ष नष्ट हो जाता है और फुल के समाप्त कर देने पर फल स्वयं नष्ट हो जाते हैं। यदि ताब के मूर्द्धन्य भाग को सूई से छेद दिया जाय फिर उसकी वृद्धि कमी संभवित है? जिसने वासना की जड़ को नष्ट कर दिया है उसके मन में बासना के अंकुर फूट नहीं सकते हैं। गुजराती भाषान्तर: આ વીતરાગતા વિષયોગ માટે તિરસ્કાર કેવી રીતે થઈ? કારણકે ઘણા વિષયાસક્ત જીવ એવા પણ &ય છે કે જેઓએ મહને પરાજીત કરી દીધું છે કે મોહનું શમન કરી દીધું છે. તેઓ અહીયાં ત્યાં અન્યાન્ય કલોથી બીજાઓએ કરેલા આહારદિકનો સ્વીકાર કરે છે. અને રૂપવતી સુંદરીઓને જોઈ જેના મનમાં ખરાબ ખ્યાલ આવતો જ નથી. *:-भगवन् ! शामारे थाय छे ? ઉત્તર –જેવી રીતે મૂળ કાપી નાખતાં વૃક્ષ નષ્ટ થઈ જાય છે અને ફૂલને ચડાવી દેતાં ફળ પોતે નાશ પામે છે. બે તાડના ઉપરના ભાગને સોઈથી છેદી દેવામાં આવે તો પછી તેની વૃદ્ધિ કેવી રીતે થઈ શકે? જેણે વાસનાને જડમૂળથી ના કરી છે તેના મનમાં વાસનાના અંકૂર ફૂટ શક્તા નથી, Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૮ इसि-आसियाई टीका:-कथमेतदिति कथं सा क्षीणकषायता दानतेन्द्रियतेत्युच्यतेसा भवति विगतरागता । सरागस्याप्यपेक्ष्येति केवले खीविषये न तु सर्वथा हतमोहस्येत्यर्थेव दयते तत्र तोतरेषु कुलेषु पिंड गवेषमाणेत्यादि पूर्ववत् सा प्रादुर्भावः कथमिति मूलधातेत्यादि पंचदशाध्ययनवत् । टीकाकार का भिन्न मत इस प्रकार हैप्रश्न :-वह क्षीण कषायता और दान्तेन्द्रियता कैसे संभव है। उत्तर :-वह विगतरागता सराग मात्मा में भी होती है । केवल सर्वदा मोह विजेता में ही यह नहीं होती है। यही अर्थ यहां देखा जाता है। प्रश्न:-तत् तत् विशिष्ट कुलों में पिंड-भोजन की गवेषणा-खोज करने वाले साधक के मन को वासना क्यों नहीं स्पर्श करती है । उत्तर:-मूल के नष्ट होने पर फलादि नहीं होते हैं । पन्द्रहवें अध्ययन में प्रस्तुत श्लोक आ चुका है। प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि साधक वीतरागता का पथिक है । सम्पूर्ण मोह विजेता ही काम विजेता होता है। किन्तु सराग आत्माएँ भी इस प्रकार काम पर विजय पाते हैं कि नारी का अनिन्ध सौन्दर्य उनके मन के एक अणु को आकर्षित नहीं करता है। साधना का सही उद्देश्य भी यही है कि यह वृत्तियों पर विजय पाए । से कथमेत ? हत्थि महारुक्खणिरिसणं तेल्लापाउधम्म किंपागफलणिदरिसणं से जथा णाम ते साकडिए अक्खमक्षेजा पस में जो भजिस्सति भारं च मे वहिस्सति एवमेओवमाए समणे निग्गंथे हिंडाणेहिं आहारं आहारेमाणे या णो अतिकमेति, वेदणा वेयावच्चे तं चेव । अर्थ:--प्रश्न:-बह साधना कैसे संभव है ? उत्तर:-जिस प्रकार से इखि महाक्ष को गिरा सकता है उसी प्रकार काम साधनारूप वृक्ष को नष्ट कर सकता है। अतः साधक उससे बन कर तेलपात्र धारक की भांति अप्रमत्त हो कर घूमता है । और भौतिक सुखों में किंपाक कल की छाया देखता है। जैसे कि एक सारथी धुरा के लिए बोलता है कि यदि यह नहीं टूटेगा तो मेरा बोभ भी हो सकेगा। इसी रूपक से मुनि का आहार उपमित है। श्रमण निर्ग्रन्थ छः स्थानों से छ: कारणों से भोजन करते तो ये अपने मुनि धर्म की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते हैं। ये ये हैं वेदना, वैयाघृत्य, ईरियासमिति, संयम, प्राणनिर्वाह और धर्म चिन्तन । गुजराती भाषान्तर: પ્રશ્ન-એ સાધના કેવી રીતે થઈ શકે છે? ઉત્તરઃ-જેવી રીતે હાથી મોટા ઝાડને પાડી શકે છે તે જ પ્રમાણે કામ સાધનારૂપ વૃક્ષને નષ્ટ કરી શકે છે. માટે સાધક જેના હાથમાં તેલથી ભરેલું વાસણ હોય તેવા માણસમુજબ સંભાળીને સાવધાનથી ચાલે છે. અને ભૌતિક સુખોમાં ક્રિપાક (જહરી) ફળની છાયા જુએ છે. જેવી રીતે એક સારથી ધુરા માટે કહે છે કે જે આ તૂટશે નહીં તો મારો ભાર પણ ઉપાડી શકશે આ રૂપકથી મુનિના આહારનો દાખલો આપ્યો છે. શ્રમણ નિથ છ સ્થાનોથી છ કારણોથી ભોજન કરે છે, તે તેઓ પોતાના નિધર્મનું ઉદ્ઘઘન કરતા નથી. તે આ પ્રમાણે છે. (1) ना, (२) वैयार (3) रियासमिति (४) संयम, (५) नियहि भने (६) धर्म-चिन्तन. साधक ग्राम और नगरों में घूमता है । ओलों का खभाव देखने का है । सौन्दर्य उसके सामने आता है । तब भी वह देखता है और कुरूपता पर मी उसकी दृष्टि जाती है। फिर भी साधक अपने मन पर विवेक का अंकुश रखे । वासना के कटु विपाक उसकी आँखों के सामने रहेगे, तो वह अपने मन को साधने में सफल हो सकेगा । जिसप्रकार मन गज एक ही प्रहार में विशाल वृक्ष को उसाब देता है, इसी प्रकार काम भी साधना को उखेद सकता है। इस घुव सत्य को साधक अपनी आंखों के सामने रथे । तेल पात्र धारक जिसकी कहानी इसी सूत्र के पैंतालीसवें अध्ययन में आती है उसकी भांति अप्रमत्त रहे । मीठे लगने वाले भोगों में वह किंपाक फल की छाया देखता रहे । इस प्रकार वह मन को साथ सकेगा। किन्तु मन के साथ ही तन की भी कुछ समस्या है। साधना का यह तो अर्थ नहीं होता कि चारित्र लेते ही वह संथारा करके मृत्य की उपासना करे। अतः उसके पास तन है तो उसकी समस्या को भी हल करता रहे। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां अध्ययन वह आदार भी ग्रहण करे किन्तु उसके भोजन में भी विवेक ही आगे रहे । उसका भोजन इस लिए नहीं है कि शरीर पुष्ट बने और वृत्तियों खुल कर खेलें । वह भोजन इसलिए करता है कि शरीर से उसको काम लेना है। शरीर एक रथ है, आत्मा उसका सारथी है। सारथी का कर्तव्य हो जाता है कि रथ को सुरक्षित रखे। क्योंकि शान्त शरीर में ही शान्त दिमाग रह सकता है Sound mind found in a sound body. __ अतः साधक जीवन रथ को चलाने के लिए आहार ग्रहण करता है। जिस प्रकार शक्ट बाइक सारथी यह सोचता है कि रथ यदि तुरक्षित है तो मेरा बोझ यथा स्थान पहुंच सकता है । इसी भावना से अनुप्राणित हो कर साधक भोजन करता है। आगम में इसके वेदनादि छ कारण दिए गये हैं। टीका:-स शुद्धपिंडः कथमिति हस्तिमहावृक्षनिदर्शनं पाउत्ति पात्रं तैरुपानधर्ममप्रमादगुणवर्णनगर्भपंचत्वारिंशदध्ययनस्य द्वाविंशे श्लोके सूचित किंपाकफलैनिदर्शनमूढावप्रकाशकं च । अपरं च यथा नामैकः शाकतिकोऽयं म्रक्षेदेष मम न भक्ष्यति भारं च मे वाहिष्यति चिन्तयश्चेतयोपमया श्रमणो निम्रन्थः षट्स स्थानेष्वाहारं आहारयजातिकामति तद्यथा-वेदनावैयावृत्यैर्या प्राणवृत्तिधर्मचिन्त्येत्येतेषामर्थाय । गतार्थः । से जधा पामते जतुकारए इंगालेसु अगणिकायं णिसिरेया पस मे अगणिकाए णो विज्साहिति जतुं च ताघिस्सामि, एवमेवोक्माप समणे निग्गंथे छहि ठाणेहिं आहार आहारेमाणे पो अतिकमेति वेदणा वेयावचे तं चेव । अर्थ :--जैसे एक लावाकार अर्थात राम का नाम करने वाला कोयलों में अपि प्रज्वलित करता है और विचार करता है कि यह अग्नि बुम न जाए उसके पहले ही मैं लाख को तपा लूंगा। इसी उपमा से मुनि को आहार उपमित किया गया है। श्रमण निर्ग्रन्थ छः स्थानों से आहार करते हुए मुनिधर्म का अतिक्रमण नहीं करते हैं। वे कारण है वेदना वैयावत्य आदि। वेयण बेयायचे, हरियट्ठाए य संजमाए । तह पाणवत्तियार, छटे पुण धम्मचिंताए। -उत्तरा० अध्ययन २६ गाथा ३३ ॥ गुजराती भाषान्तर: જેવી રીતે લાક્ષાકાર એટલે કે લાખનું કામ કરનાર કોળસાને અગ્નિ પ્રજવલિત કરે છે, અને વિચાર કરે છે, કે આ અગ્નિ ઠરી જાય એ પહેલાં જ આ લાખને તપાવી લઈશ. એ જ ઉપમાથી મુનિનો આહાર ઉપમિત કરવામાં આવ્યો છે. નિગ્રંથ, શ્રમણ છ સ્થાનથી આહાર કરતાં મુનિધર્મનું અતિક્રમણ કરતા નથી, તે કારણે છે-વેદના, વૈયાવૃત્ય વગેરે. __ मुनि आहार ग्रहण करता है। उसका लक्ष्य शरीर पोषण का न रह कर शरीर निर्वाह का रहता है। जैसे लाक्षाकार इंधन को प्रज्वलित करता है और सोचता है कि यह इंधन न त्रुझ जाय उसके पहले मैं अपना कार्य सम्पन कर लू । इसी प्रकार साधक भी यह सोचता है कि जब तक यह शरीर है मुझे अपनी आत्मसाधना कर लेनी है। टीका:-अपरं च यथा नामैको जतुकारकोऽमगारेष्वाकाय निःमजेदेष मेऽग्निकायो न विक्षापयिष्यति नतुं । तापयिष्यामीति चिसयौतयोपमयेत्यादि पूर्ववत् । मन्यच गतार्थम् । से जथा णामते उसुकारए तुसेहिं अगणिकाय णिसिरेजा एस मे अगणिकाए णो विज्झातिस्सति उसुं च तास्सामि एचमेवोवमाए समणे निग्गंथे० सेधे तेथेव । अर्थ:-जैसे कि एक इक्षुकार तुस के द्वारा अग्नि प्रज्वलित करता है और सोचता है कि यह आग बुझ न जाए तब तक इचरस को गर्म करूया। इसी प्रकार श्रमण निन्य आहार का सेवन करते हैं। गुजराती भाषान्तर: જેવી રીતે એક ઈસુકાર અનાજનું ભૂરું મૂકી અમને પ્રજવલિત કરે છે અને વિચાર કરે છે કે આ આગ હરી ન જાય તે પહેલા ક્ષ-રસને ગરમ કરીશ, એ જ પ્રમાણે શ્રમણ નિઐથ આહારનું સેવન કરે છે, Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि - भासियाई सुनि आहार करता है । उसके लिए आहार का विधान है। सारथी अक्ष के द्वारा नित्र स्थान पर पहुंचना चाहता है। लाक्षाकार और इक्षुकार ( को लहू पीलने वाले ) आग के द्वारा अपना लक्ष्य सिद्ध करना चाहते हैं। इसी प्रकार मुनि भी साधना करना चाहता है। उसके लिए शरीर का सहयोग आवश्यक है। जब तक शरीर स्वस्थ है मुनि साधना में स्थित रहेगा । आहार के द्वारा शरीर समाधिस्थ रहता है। यदि तन की समाधि समाप्त हुई तो मन की समाधि उसके पहले ही समाप्त हो जाएगी । समाधि के अभाव में साधक आर्त ध्यान करेगा | अतः मुनि योग्य कारणों के उस्थित होने पर आहार अवश्य ही करे। - १५० टीका :- यथा नामीको इपुकारकः तृषेण्यसिकार्य शेषं तदेव केवल मिषु तापविष्यामीति । गतार्थः । अध्ययनस्य यौगन्धरायणअध्ययनमिति युक्ततरं नामं भवेत् । अम्बड अध्ययन का यौगन्धरायण अध्ययन नाम योग्य होगा । एवं से सिद्धे बुद्धे विरप विपाके० ॥ इति पंचविंशतितमं अंबडाध्ययनम् । मातंग अतर्षि प्रोक्त छब्बीसवां अध्ययन मानव को अशुभ से शुभ की ओर मोड़नेवाली एक वृति है उसका नाम है धर्म धर्म क्या है, उसका स्वरूप क्या ? क्या अमुक प्रकार के क्रियाकांड का लेना धर्म है ? नहीं, वह धर्म नहीं, धर्म का शरीर है। आत्मा का खभाव ही धर्म है। आचार्य कुन्दकुन्द ने धर्म की परिभाषा दी है- "वत्थु सहाओ धम्मो" । वस्तु का भाव ही धर्म है। यहां पर एक प्रश्न होगा कि चोर का स्वभाव चोरी करना है, तो क्या चोरी करना भी धर्म है ? यह गलत है, क्योंकि चोरी स्वभाव नहीं विभाव है । अन्यथा कोई भी चोर चोरी करके भागता नहीं । आत्मा अपने स्वभाव में आए, अपने सहज गुणों को विकसित करे वही धर्म है। धर्म आत्मा में रहता है; मन्दिर मस्जिद और उपाथ्र्यों की दीवारों में नहीं । धर्म का असली मन्दिर हृदय है । यदि वह हृदय में स्थित है तो साधनाओं द्वारा उसका चिकास होगा और साधनाओं में उसका प्रकाश होगा तथा जीवन की प्रत्येक क्रिया उससे आलोकित रहेगी । आचार और व्यवहार शुद्ध बनेगे । मिना विचार शुद्धि का धर्म भी अधूरा रहेगा। एक विचारक ने कहा है कि: A religion without reality is tree without root, and a reality without religion is root without tree शेक्सपीयर नीति बिना धर्म का बिना जय का वृक्ष है और धर्म बिना की नीति वृक्ष बिना की जब है। दोनों ही अधूरे हैं। धर्म के साथ जीवन का संबन्ध स्थापित करना ही प्रस्तुत अध्ययन का विषय है । कतरे धम्मे पण्णत्ते, सव्वा महाउसो ! सुणेह मे । किणा भणवण्णाभा, युद्धं सिक्खति माहणा ॥ १ ॥ अर्थ :- उस महामुनि ने कितने प्रकार के धर्म बतलाए हैं ? हे आयुष्मानो। तुम लोग मुझसे सुनो। ब्राह्मण वाले माह श्रावक क्यौं युद्ध सीखते हैं ? । गुजराती भाषान्तर: એ મહાન મુનિએ કેટલા પ્રકારના ધર્મ બતાવ્યા છે ? હે આયુષ્યમાન 1 તમે મને સાંભળો, બ્રાહ્મણુ વર્ણવાળા शाभे छ ? માણુ શ્રાવક શા માટે युद्ध Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छब्बीसी अध्ययन - - - - जो साधक धर्म-साधना करते है उनके मन में एक सहज प्रश्न उठता है कि धर्म क्या है और उसके कितने प्रकार है। इसके उत्तर में ऋषि बोलते हैं कि हे आयुष्यमान साधकों! धर्म के उन सभी प्रकारों को मेरे से सुनो। अतिर्षि धर्म की व्याख्या और उसका प्रकार बताते हुए सीधा एक प्रश्न कर देते हैं कि बाहाण वर्णवाले नाग युद्ध क्यों मीरखते हैं ! उनका अध्ययन अध्यापन और तत्वचिन्तन करना और मनन का मक्खन जगत को देना उनका कार्यक्षेत्र है फिर वे युद्ध कार्य क्या सीखते हैं. १ टीका:-कतरो धर्मः प्रशसः मैं न सम्यग् जानीयेति भाषः। हे आयुष्यमतः सर्व धर्म यदि वा हे सर्वाथुष्यमन्तो धर्म मम मत्तो वा गुणुत । केनार्थेन ब्राह्मणवर्णाभा न बामणाः सन्तो महाणति मा तेति श्लोका युद्ध शिक्षन्ते हिंसो प्रकुर्वन्ति । ___ अर्थात् कितने धर्म कहे गए है। इससे यह ध्वनित होता है कि प्रश्नकर्ता धर्म के मर्म को समझता नहीं है। हे दीर्घजीवियों ! सभी धर्मों को अथवा सभी आयुष्यमानों धर्म को मेरे द्वारा सुनो। ब्राह्मण वर्ण की आमा वाले अर्थात् ब्राह्मण जैसा दिखाई देने वाले किन्तु यथार्थ में जो ब्राह्मण नहीं है अर्थात् शरीर से जो ब्राह्मण हैं और प्रकृति से क्षत्रिय हैं वे हिंसा क्यों करते हैं। इस तरह श्लेष रूप से युद्ध की शिक्षा देते हैं अर्थात् हिंसा का प्रसार करते हैं। रायणो वणिया जागे, माहणा सत्थजीविणो । अंधेण जुगणद्धे घि-पल्लत्थे उत्तराधरे ॥२॥ अर्थ:-राजा गण और वणिक लोग यदि अन्न बाग में प्रवृत्त हों और ब्राह्मण शास्त्र जीबी हो तो ऐसा होगा मानो अंधे से जुड़े हुए हैं। गुजराती भाषान्तर:- રાજોગણ અને વણિક જે યજ્ઞ-યાગાદિ ક્રિયાઓમાં પ્રવૃત્તિ રાખે અને બ્રાહ્મણ લોકો સમરાંગણમાં ઉતરે તે એવું થશે જાણે કે આંધળાઓ ભેગા જોડાયેલા છે. जिसकी जो वृत्ति है उस वृत्ति के अनुसार यह काम करता है तो वह उसमें सफल हो सकता है और यही उसका धर्म है। राजा क्षात्रवृत्तिशील होता है उसमें बीरत्व और तेज होता है उसका कार्य है देश की रक्षा करना । वैश्य का कार्य है विनिमय राष्ट्र की संपत्ति की आवश्यकतानुरूप वितरित करने का दायित्व वेश्य के ऊपर है और शास्त्र का अध्ययन अध्यापन करना ब्राह्मण का कार्य है। यह समाज में चक्षु का स्थान रखता है पर यह एक स्थूल व्यवस्था है। हर एक मनुष्य की अपनी अपनी वृत्ति होती है। उसी के अनुरूप उसे कार्य करना चाहिए । ब्राह्मण वृत्तिवाला ही ब्राह्मण है। परशुराम ब्राह्मण कुल में जन्म ले कर भी क्षत्रिय थे। जब कि भगवान महावीर क्षत्रिय हो कर भी ज्ञान-साधक थे । अतः वर्णव्यवस्था का यह तो मतलब नहीं होता है कि उस वर्ण में जन्म लिया हुआ व्यक्ति उसी वृत्ति के अनुरूप हो । अपनी वृत्ति के अनुरूप वर्ण चुनने में स्वतंत्र है। फिर भी जो व्यक्ति में जो वृत्ति है उससे विपरीत वृत्ति कार्य करता है तो वह कार्य उसके लिए शान्तिदायक नहीं हो सकता। ब्राह्मण यदि पठन-पाठन त्याग कर शस्त्र हाथ में लेता है और क्षत्रिय तथा वैश्य यज्ञ याग में आते हैं तो यह कार्य उनकी वृत्ति के विपरीत होगा । अतः उसमें उनको लाभ नहीं अपितु हानि ही होगी। टीका:-पास्त्रजी विनो हि यागे भवन्ति ब्राह्मणाः, लौकिकव्यापारेषु तु राजानः क्षत्रियवाणिजो वैश्यांच स्वधामानि स्वगृहाणि स्वात्मनो वा पिनिदधति निरुंधन्ति विवेकात् ब्रह्मपालनाचेति तृतीयछोकस्योत्तराध द्वितीयस्य पूर्वार्धन संवन्धनीयम् । टीकाकार कुछ भिन्न मत रखते है। ब्राह्मण यज्ञ में शास्त्रजीवी होते हैं। क्षत्रिय गण लौकिक व्यापार में रत रहते हैं। तू, ब्रह्मचर्य के पालन के लिए अपने घरों को बन्द रखते हैं। यहां तीसरे लोक का उत्तरार्ध दूसरे लोक के पूर्वार्ध से सम्बन्धित है। आरूढा रायरहं, अडणीए युद्धमारभे । सधामाई पणिद्धति, विवेता बभपालने ॥ ३॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई अर्थ: कुछ बाह्मण राजरथ पर आरूढ हो कर सेना के साथ युद्ध आरंभ करते हैं। किन्तु ब्रह्मवृत्ति के पालक विवेक साथ अपने गृहों को बन्द कर लेते हैं। गुजराती भाषान्तर: કેટલાક ડાહ્મણો રાજરથ પર આરૂઢ થઈને સેના સાથે યુદ્ધ આરંભ કરે છે. પરંતુ બ્રહ્મવૃષ્ટિના પાલક વિવેકથી પોતાના ઘરો બંધ કરે છે, कुछ ब्राह्मण विप्रवेश में जन्म लेकर भी क्षत्रिय बृत्ति लेकर आते हैं इसीलिए वे युद्ध के मैदान में उतर आते हैं। किन्तु जो ब्रह्मति वाले हैं उनमें ज्ञान की ज्योति जगमगाती रहती है। अतः हिंसात्मकवृत्ति के लिए अपने द्वार बंद कर देते है। प्रोफेसर शुबिग लिखते हैं कि जो ब्राह्मण और वैश्य की भांति एक रक्तरेजित धार्मिक क्रिया करता है वे सदसद का विवेक को बैठते हैं। यहां तीसरी पंक्ति-आवश्यकतानुरूप पहली से जोड़ी गई है। क्योंकि दोनों पंक्तियाँ बहु बचन में हैं। अंधी जोड़ी के संबन्ध में यहां “अंधो संबंध पह निन्ते" की असर दिखाई देती है। फिरभी दोनों पंक्तियों में अस्पष्टता शेष रह जाती है। टीका:-अन्धेन युगेना चक्षुष्मता वाहयुग्मेन विपर्यस्तोसराधरमिषध्वनि राजपथमारूदेव भादानैप्ति मार्गे युन्नमारभते नतु युद्धभूमौ सो ब्रह्मणो यद् यद्धिंसनं कर्म प्रकरोति तत्सर्व सर्षया हतपुडेरिव निरर्थकमिति भावः । टीकाकार का मत भिन्न है। वे लिखते हैं कि जैसे दो अंध युगल मार्ग में मिलते हैं और यदि वे विरोधी हैं तो वहीं राजपथ में लद पड़ते हैं। यह युद्ध राज पथ में होता है, युद्ध भूमि में नहीं। इसी प्रकार जो ब्राह्मण हिंसा कर्म में प्रवृत्त होते हैं उनका कार्य हतबुद्धि व्यक्ति की भांति निरर्थक हैं। दो विपरीत दिशा से आने वाले अंधों में टकर हो सकती है और वे राजमार्ग को युद्ध भूमि बना सकते है। किन्तु जिनकी दोनों आंखें खुली हैं वे भी यदि टकराने लगे तो उनको क्या कहा जाय ? यही कि स्थूल आँखें खुली हैं परन्तु अन्तर्चक्षु अभी नहीं प्राप्त हुए है। इसी प्रकार तत्व को न जानने वाला हिंसा करता है। वह अज्ञानी है पर शास्त्रों को रटनेवाले और तत्वज्ञान का दावा रखने वाले भी यदि हिंसा के क्षेत्र में उतरने लगे तो समझना होगा कि शास्त्रों को रटा है, पर समझा नहीं है । रटन तो एक पोपट भी कर सकता है किन्तु उसको कोई ज्ञानी नहीं कह सकता है । रट लेना अलग चीज है, पर उसका तत्व समझ लेना अलग चीज है। यदि सही विश्वास के साथ समझा है तो गलत कदम उठ ही नहीं सकता । इसीलिए भगवान महावीर कहते हैं कि 'णाणस्स फलं विरतिः'। ज्ञान का फल विरक्ति है। प्रसिद्ध विद्वान् कनफ-यूशस् शान और आचरण का साहचर्य बताते हुए कहता है कि The essonce of knowledge is having it, to apply it not having it to confese ignorance-कन्फ्यू शस ।। ज्ञान का सार यह है कि ज्ञान रहते उसका प्रयोग करना चाहिए । और उसके अभाव में अपनी अज्ञानता स्वीकार लेनी चाहिए। दूसरा विचारक सेनका कहता है कि Wisdom teaches us to do as well ss talk to make our words and actions all of a colour ज्ञान हम को करना और बोलना सिखाता है। हमारे शब्दों और कार्यों को एक रंग में रंग देता है। संत विनोबा भी कहते हैं कि मनुष्य जितना ही ज्ञान के रंग में घुल गया हो उतना ही वह कर्म आचरण के रंग में रंग जाता है । ण माहणे घणुरहे, सत्थपाणी ण माहणे। __ण माहणे मुसं बूया, चोज कुज्जा ण मारणे ॥ ४॥ अर्थ :-धनुष और रथ से युक्त ग्राह्मण नहीं हो सकता । ब्राह्मण रामधारी भी नहीं हो सकता । ब्राह्मण मृषावाद भी न बोले और चौर्य कर्म भी न करे । गुजराती भावान्तर:' ધનુષ અને રથથી યુક્ત બ્રાહ્મણ હોઈ શકે નહીં. બ્રાહ્મણ શસ્ત્રધારી પણ થઈ શકતા નથી. બ્રાહ્મણ મૃષાવાદ (1) पर मानही अने योरी (न मामा मयु) ५ अरे नही, Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छब्बीसवां अध्ययन १५३ ब्राह्मण के हाथ में धनुष बाण शोभ नहीं सकते हैं। उसकी जीभ पर सूषावाद शोमित नहीं होता और उसके आचरण में चौर कर्म शोभा नहीं पा सकते । सर्वहितकर साहित्य उसके हाथ में शोभित होता है। सम के लिए हितप्रद और मधुर घाणी उसके मुख को शोभित करती है। जयघोष मुन्ने ब्राह्मण कर्म का परिचय देते हुए कहते हैं कि: जो क्रोध में या इंसी में, लोभ से अथवा भय से कभी भी असत्य भाषण नहीं करता उसी को में ब्राह्मण कहता हूं। सजीव यश निर्जीव, अल्प या अधिक किसी भी रूप में बिना ही हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करता है उसी को मैं ब्राह्मण कहता है। टीका :-यथार्थनामा माहाणो न घम्वी न रथी न शस्त्रपाणिः स्थान भूषा श्रूयान चौयं कुर्यात् । गतार्भः। मेहुणं तु ण गच्छेजा णेच गेण्हे परिम्गह। धम्मंगेहिं णिजुत्तेहिं, झाणज्मयणपरायणो॥५॥ अर्थ :-ब्राह्मण अब्रह्मचर्य का सेवन न करे । और परिग्रह को भी ग्रहण न करे । धर्म के विविध अंगों में नियुक्त हो ध्यान और अध्ययन में सदैव परायण बने । गुजराती भाषान्तर: બ્રાહ્મણ શ્રદ્ધત્વને વિરોધક કામ કરે નહીં અને પરિગ્રહ(દાન)ને પણ પ્રહણ કરે નહીં. ધર્મના વિવિધ અંગોમાં નિયુક્ત અને અને ધયાન અને અધ્યયનમાં સતત ગ્યાસંગ કરે. कोहा या जड़ वा हासा लोहा वा जड वा भया । मूसं न वयई जोउ तं वयं बूम माइणं । चिसमंतमचिनं वा अप्पं वा जइ वा बहुं। न गिपर अदत जे तं वयं बूम माहणं ।। -उत्तराध्ययन २५ गाथा २५, २५ ब्राह्मण के वैभाविक कमा में मैथुन और परिप्रह का भी समावेश है। जो कि ब्रह्म वृत्ति के अनुकूल नहीं रहते । अत उसके लिए यह मी त्याज्य है । दया, करुणा, तेज, क्षमा और निर्लोभता आदि जो गुण धर्माग हैं वे ही उसे शोभते हैं। अतः वह धमांगों में प्रवृत हो कर भ्यान और अध्ययन में परायण बने । टीका:-- मैथुनं गच्छेन परिग्रहं गृह्णीयात् , स्यात्तु नियुक्तानामाज्ञापितानां दशानामपि धर्मापानां ध्यानाध्ययनपरायणः। ब्रह्मवृतिशील साधक वासना और परिग्रह से दूर रहे। तथा उसके लिए निर्दिष्ट दशौ धर्मों में बह प्रवृत्त रहे । इन दश धर्मों के नाम इस प्रकार हैंक्षमा, मृदुता, सरलता, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, अकिंचनता और ब्रह्मचर्य, सर्दिवदिपहिं गुत्तेहिं, सचप्पेही स माहणे। सीलंगेहिं णिउत्चेति, सीलप्पेईही स माहणे ॥ ६॥ अर्थ :-जिसकी इन्द्रियाँ निग्रहीत हैं और जो सत्यप्रेक्षी हैं वही ब्राह्मण है। शील के विविध अंगों में जिसने अपने मन को नियुक्त कर रखा है यह शील प्रथा ही ब्राह्मण है। गुजराती भाषान्तर: જે ઈન્દ્રિય પર પૂર્ણ સંયમ (કાબુ) રાખે છે અને જે સત્ય પ્રેક્ષી છે તે જ બ્રાહ્મણ છે. શીલના જાણકાર તે જ બ્રાહ્મણ છે. શીલના વિવિધ અંગોમાં જેણે પોતાના મનને નિયુક્ત કરી રાખ્યું છે, શીલન જણકાર તેજ બ્રાહ્મણ છે, जिस पर इन्द्रियों का शासन नहीं है, जिसकी इन्द्रियां दुर्वासना की ओर नहीं जाती है वह सत्य द्रष्टा ब्राह्मण है। साथ ही सदाचार के अंगों को जिसने आत्मसात् किया है वह सदाचार शील व्यक्ति ब्राह्मण है। पांच शीलोग बताए गए है। दया, सत्य, प्रामाणिकता, सन्तोष और मद्य वस्तु का परित्याग। ... .. .. ... ... ... ..... .... १ उत्तमक्षमामार्दपार्जवशी ससत्यसंयमतपस्त्यागकिंधन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः। --तरवार्थस्त्र अध्याय २ सूत्र ६...... २० Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ इसि मासियाई टीका :- गुप्तैः सवैः सत्यप्रेमी स्याच्छीलप्रेक्षी च सप्तस्वपि शीलांगेषु नियुकेषु । गतार्थः । छज्जीवकाय हितए, सब्बस सदयावरे । स माहति घत्तव्त्रे, आता जस्स विमुज्झती ॥ ७ ॥ अर्थ:-पद-जीव - निकाय के प्रति जिसके मन में कल्याण कामना है, प्राणी मात्र पर जो दया की धारा बहाता है और जिसकी आत्मा विशुद्ध हैं वहीं त्राह्मण कहलाता है। गुजराती भाषान्तरः છ કાય જીવ પ્રત્યે જેના મનમાં કલ્યાણુની કામના છે. પ્રાણી માત્ર પર જે દયાની ધારા વહાવે છે અને જેનો આત્મા વિશુદ્ધ છે તે જ બ્રાહ્મણ કહેવાય છે. - प्रस्तुत गाथा सप्तक के द्वारा ब्राह्मणत्व का परिचय दिया गया है। क्योंकि ब्राह्मण संस्कृति और श्रमण संस्कृति की धारा हजारों वर्षों से साथ साथ बहीं है। अतः एक दूसरे के साहित्य में या संस्कृति में उसकी छाया उतरना सहज हैं। यह तो संभव ही नहीं है कि हजारों वर्षों से साथ में बहने वाली संस्कृति की दो धाराएँ सदा दूर रहे। या साहित्य में एक दूसरे का नाम ही न मिले। आगम में जहां जहाँ श्रमण संस्कृति का नाम आया है उतने ही गौरव के साथ ब्राह्मण संस्कृति का भी स्मरण किया गया है। आगम की पाठावली देखे तो स्पष्ट अनुभूति होगी । "तहा रूवं समणं वा माहणं," - स्थानांगसूत्र, भगवतीसूत्र, सुखविपाक | जैन दर्शन ने द्राह्मण संस्कृति का विरोध नहीं किया है। किन्तु ब्राह्मणत्व की ओट में पनपने वाले जातिवाद, पंथवाद और पूजावद का उसने डट कर विरोध किया है। तमाम सड़ी गली निष्प्राण रूढियों की विकृत स्नायुओं का ऑपरेशन करके उसने शुद्ध ब्राह्मण की प्रतिष्ठा की है। उत्तराध्ययन सूत्र के पचीसवें अध्याय में इसी शुद्ध ब्राह्मत्व का परिचय दिया गया है। जैन दर्शन व्यक्ति-पूजक नहीं, अपितु गुणपूजक हैं । इसने एक दिन आघोष किया था कि- “गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिंगं न च वयः ।" गुणपूजक संस्कृति ने शुद्ध ब्राह्मणत्व को आदर दिया हो तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा । स्थूल क्रियाकांडों में श्रमणत्व और ब्राह्मणत्व को सीमित माननेवाली विचारधारा का जैन दर्शन ने विरोध किया है । उसने कहा है कि द्रव्यसाधना शरीर है जब कि भावसाधना उसका प्राण हैं । अतः केवल स्थूल गन से न माप, फिर वह श्रमणत्व हो या ब्राह्मणत्व उसका प्रखर आघोष निम्न विचार में सुना जाता है। केवल सिर मुंडा लेने से ही कोई भ्रमण नहीं हो जाता है। केवल कार का जाप मात्र ही किसी के ब्राह्मण के लिए पर्याप्त नहीं है। केवल अरण्यवास ही किसी को मुनि नहीं बना सकता है। ( अन्यथा तमाम वनवासी पशु पक्षी मुनि होते और केवल वल्कल वस्त्र ही किसी को तपखी नहीं बना सकता। तात्पर्य यह है कि इन सभी क्रियाओं के साथ अन्तःसाधना चाहिए । समत्व का साधक ही श्रमण हो सकता है। और ब्रह्मचर्य का धारक ब्राह्मण हो सकता है। ज्ञान से ही कोई मुनि कहला सकता है। और तप का साधक ही तपखी कहला सकता है। टीका :- पजीव निकायहितः सर्वसत्वदयापरः स ब्राह्मण इति वक्तव्यो यस्यात्मा विशुद्ध्यति । गतार्थः । दिव्वं सो किसि किसेजा, वन्निनेजा, मातंगेण अरहता इसिणा बुझतं । अर्थ :- ब्राह्मण दिव्य खेती करे, किन्तु पानी की क्यारियां न बनाए या उसे छोड़े नहीं । मातंग अर्हतर्षि इस प्रकार बोले ।' गुजराती भाषान्तर : બ્રાહ્માણુ દિવ્ય ( શ્રદ્ધા, પ્રેમ, દયા અને જ્ઞાનરૂપી ) ખેતી કરે, પરંતુ પાણીની ક્યારીઓ મનાવે નહીં અથવા તેને છોડે નહીં. માતંગ અર્હતર્ષિ આ પ્રમાણે બોલ્યા. - १ नवि मुंडियण समणो न ॐकारेण भगो । न मुणी रणवासेण कुसचीरेण तावसो । समयाद समणो होड बंभचेरेण बंभो । णाणेण य मुखी हो तवेण हो ताली । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छब्बीसवां अध्ययन १५५ प्राचीन युग में ग्राह्मण खेती करता था। प्रस्तुत पाठ यह अभिव्य के करता है जनता की पूजा और प्रतिफल पाने वाले ब्राह्मण ने जब अपने आप को उच्च धरासल से नीचे ला पटका हो और जनता की ओर से मिलने वाली पूजा प्रतिष्ठा के स्रोत सूखने लगे, तब विवश कर इसने ऋमिर्ग अपनाया होगा। नई नापने मायण संस्कृति को पुनः उद्बोधन दिया है। खेती करना है तो करुणा और दया की खेती की ओर बटो। यह पानी की खेती है, यदि इसमें श्रद्धा और ज्ञान का अभाव है तो तुम्हारी खेती तुम्हें धान्य का उपहार नहीं देगी। आत्मा की खेती करो और उसमें प्रेम का बीज डालो, दया के जल से सींचो फिर आनन्द की फसल काटो। निम्न माथाओं में इसी दिव्य खेती की प्रेरणा दीगई है। टीका:-दिव्यां स कृषि कृष्णार्प येन तां मुश्चेत् । गतार्थः । आता छत्तं तवो बीयं. संजमो जमणंगलं। झाणं, फालो निसित्तोय, संवरो य बीयं दद ॥ ८॥ अर्थ :-आत्मा क्षेत्र है, तप बीज और संयम रूप हल से युक्त है । ध्यान रूप फलक लेकर संवर रूप मीष शेए । गुजराती भाषान्तर: આત્મા ખેતર છે, તપ બીજ અને સંયમ રૂપ હળથી યુક્ત છે. ધ્યાનરૂપી પાટિયું લઈને તેમાં સંવરરૂપ બીજ વાવવું. आत्मिक खेती का सुन्दर रूपक यहा पर दिया गया है। आत्मा ही क्षेत्र है, उसमें संबर रूप बीज बोना है। उस खेन को साफ करने के लिए संयम रूप हल है। ध्यान फलक है। बीज के विकास के लिए धूप चाहिए। मुनि की तपःसाधना तेज है। जो कि फसल को परिपक्व बनाता है। टीका:-'भारमा क्षेत्र सपो बीज संयमो युगलांगले। ध्यानं च फालो निशितः संयमन र बीज मिति पाटः संदिग्धपाठः पौनरुक्त्याच्छन्दसोऽशुद्धरवाच । आत्मा क्षेत्र है, तप गीज है, संयम युग लागल है, ध्यान फलक है और संयम दृद्ध बीज है। किन्तु यह पाठ अशुद्ध जात होता है । इसके दो कारण हैं । प्रथम तो इसमें बीज की पुनशक्ति है । दूसरा छन्द भी अशुद्ध है। 'तपो बीयं' पाठ टीकाकार तथा प्रोफेसर शुमिंग को मान्य है। इसीलिए इसमें पुनरुक्ति दोष आता है। जब कि अन्य हस्तलिखित प्रतियों में तथा रतलाम से प्रकाशित प्रति में “तपो पीतं" पाठ है। पी: का अर्थ तेज होगा । खेती के लिए धूप भी तो आवश्यक होगा। अतः पीतं पाठ लेने पर द्विक्ति हट जाती है। अकुडतं व कूडे सुं, विणर णियमेण ठिते । तितिक्खा य हलीसा तु, यागुत्तीयपग्गहा ॥९॥ अर्थ:--मायाशीलों में माया रहित होकर रहना और नियमतः जो विनय में स्थित है तितिक्षा जिनके लिए हलीसा है । दया और गुप्ति प्रग्रह अर्थात् रस्सी है। गुजराती भाषान्तर: માયાશીલોમાં માયારહિત થઈને રહેવું અને નિયમથી જે નમ્રતાયુક્ત રહે છે તિતિક્ષા જેમની હલસા છે. દયા અને ગુણિ પ્રહ અથૉત દોરડી છે. आध्यात्मिक खेती का सांग रूपक देते हुए अईतर्षि साधक की स्थिति और उसके प्रसाधन बता रहे हैं । आध्यात्मिक खेती करने की प्रथम शर्त है जीवन में सरलता होनी चाहिए। सरलता आध्यात्मिक कान्ति का प्रथम सोपान है । इदय सरल और स्वच्छ होना चाहिए। जिसके बाणी विचार और बर्ताव में द्वैत ( मेल नहीं) है वह साधना के उच्च शिखर पर पहुँच नहीं सकता है। एक विचारक बोलता है कि:-A. good face is a letter of recommendation, a good heart is a lotter of erodit यदि सुन्दर मुख खिफारिश का प्रमाण है सो सुन्दर हृदय विश्वास पत्र । १ पीतं. २ संजमो. Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि भासियाई महर्षि वेदव्यास भी कहते है कि: "तीर्थानां हृदयं तीर्थ शुनीना हृदय शुचिः॥" ती में सर्वश्रेष्ठ तीर्थ हृदय है और पवित्रताओं में विशुद्ध हवय पवित्रतम है। जब तक हृदय में सरलता और पवित्रता नहीं आती तब तक साधना जलधारा पर चित्र का आलेखन है। वाचक मुख्य उमायाति साधक की परिभाषा देते हुए कहते है" निःशल्यो प्रती"तत्वार्थसूत्र गाथा १३ अ०७ व्रती कौन है, कितने व्रत लिए हो, कितनी तपःसाधना कर चुका हो, उसे व्रती कहना चाहिए। इसके उत्तर में आचार्य कहते है कि यह सब बाद की वस्तुएँ हैं। व्रती वही है जिसके अन्तर और बाहर में दैत की खाई मिट चुकी हो। जीवन के मैदान में सरलता सर्वत्र विजय पाती है। उसके सामने कूटनीति को भी पराजित होना पड़ता है। एक विचारक ने ठीक ही कहा है: Nothing more completely buffles who is full of trick and duplicity than stright reward and simple intogtity in another. चालाक और दुहरी नीति रखने वाले की इससे ज्यादा पूर्ण पराजय अन्यत्र न होगी । असी कि सीधे और सादगी पूर्ण आदमी के सामने । ___अतः साधक सरल आत्माओं के साथ ही सरलता का व्यवहार सीमित न रखें, अपि तु जो चालाक और कूटनीति वाले हैं उनके साथ भी सरलता की नीति रखे। 'शठे शाठ्यं समाचरेत्' यह पुरानी कहावत है अब तो 'शळं प्रति सत्यं समाचरेत होना चाहिए । सापक विनय शील हो। हृदय सरल होगा तो आचरण में विनम्रता अवश्य ही आएगी। सहन शीलता हलेषा है । दया और गुप्ति-मनादि को अशुभ से रोकना, प्रसंग अर्थात् रस्सी है जो कि खेती के आवश्यक उपकरण है। टीका:-कूटेषु बचकेषु पुरुषेवकूटस्वं सरलत्वमंगीकरोति, भसिंस्तु पादे कृप्युपमा न दृश्यते। विनये नियमनमिष स्थितः तितिक्षा पहलेषा श्या गुप्ती च प्रमहौ । गतार्थः । विशेषः छली व्यक्तियों में सरलस्य धारण करना चाहिए । किन्तु वहाँ पर कृषि उपमा नहीं दिखाई देती है। समत्तं गोच्छणवो, समिती उ समिला तहा। घितिजोत्त सुसंघद्धा, सव्वण्णुवयणे रया ॥ १०॥ अर्थ:-सम्यक्त्व का गोब्णव है और समिति शमिला समोल है । धृति की जोत वह रस्सी जो बैल या घोडे को वाहन में जोतने के उपयोग में आती है उस से सुसंबद्ध है । और सर्धन के बचनों में अनुरक्त है। गुजराती भाषान्तर: સમ્યકત્વનું ગોલ્ડણવ (છાણ) છે અને સમિતિ શમિલા-સમોલ છે. ધતિની જીત તે દોરી કે જે બળદ અથવા ઘોડાના વાહનમાં જોડવાના ઉપયોગમાં આવે છે, તે થી સુસંબદ્ધ છે અને સર્વગના વચનોમાં અનુરક્ત છે. खेती के लिए खाद आवश्यक है। अच्छी बाद अच्छी फसल पैदा करती है। आध्यात्मिक शान्ति की फसल प्राप्त करने के लिए सम्यक्त्व रूप खाद की आवश्यकता है। समस्त आध्यात्मिक शान्ति का मूल है सम्यक्त्व । एक आचार्य योलते हैं कि: सम्म घ मोक्खनीय तं पुणभूयस्थ सदहणावं । पसमाह लिंग-ाम्म सुहाय परिणाम स्वं तु ॥ -आचार्य देवमुप्त नव-तत्व-भाष्य । सम्यक्त्व मोक्ष का बीज है । उसका स्वरूप है तख श्रद्धा और वस्तु के यथार्थ स्वरूप का अवबोध । प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और श्रद्धा उसके बाव चिन्ह है जिसके द्वारा बह जाना जाता है । आत्मा का शुद्ध म्वरूप ही नैश्वयिक सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व की परिभाषा तीन प्रकार से की जाती है। १ व्यापहारिक २ दार्शनिक ३ नेश्वयिक । सुदेव, सुगुरु और सुधर्म पर विश्वास रखना 'व्यावहारिक सम्यक्ल' है । प्राथमिक कक्षा के साधकों के लिए यह सुगम व्याख्या दी गई है। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छब्बीसवां अध्ययन २ तत्वार्थ श्रद्धा ही सम्यक्त्व है। यह 'दार्शनिक और आध्यात्मिक व्याख्या है जोकि तत्वज्ञ जिज्ञासु साधकों के लिए है। अथषा यह व्याख्या उन विराद पुरुषों के लिए भी है जोकि शान की अन्तिम किरण तक पा चुके हैं । उन तीर्थकर देवों के लिए देख कौन गुरू, कौन और धर्म क्या है। वे स्वयं ही देव है और स्वयं ही गुरु हैं, उनकी वाणी ही धर्म है । अतः प्रथम व्याख्या उनके लिए उपयुक्त नहीं हो सकती है । अतः तत्वार्थ श्रद्धान रूप सम्यक्त्व वहां घटित होती है। ३ तीसरी व्याख्या के अनुरूप आत्मा की शुद्ध परिणति ही सम्यक्त्व है, क्योंकि प्रथम दोनों प्रकार की व्याख्याएँ वहाँ घटित नहीं होती है। साथ ही वहां शम, संवेगादि सम्यक्स के चाय चिन्ट भी नहीं मिलते है। फि क्षायिक सम्यक्त है। वहाँ निज रूप में रमणता रूप सम्यक्त्व के अतिरिक्त और कोई भी परिभाषा नहीं घटित होती है। शुद्ध निश्चयनय के अनुसार आत्मा का शुद्ध स्वरूप सम्यक्त्व है और वही खाद के रूप में गृहीत किया है। ईर्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेप और परिस्थापन रूप पंचविध समितियां शमिला है। योगों की शुभ में प्रवृत्ति समिति है । धृति रूप रस्सी से जो सुसम्बद्ध है और जो वीतराग के वचनों में अनुरक्त है वही साधक श्रेष्ठ खेती कर सकता है। टीका:- सम्यक्वं गोच्छणवोत्यज्ञासाथैः । समितिस्तु शमिला, धृतियोक्त्रसुसंबद्धास्ते ये सर्वज्ञवचने रताः। गतार्थः। विशेष गोच्दरणवो पद का अर्थ अज्ञात है। पंचेष इंदियाणि तु, खंता देता य णिज्जित्ता। माहणेर तुलेनगर, नीर शपले किर्ति" ११ ॥ अर्थ:-क्षान्त, दान्त और इन्द्रिय जेता ब्राह्मणों के लिए दमन की गई उसकी पांचों इन्द्रियां ही उसके लिए गो-वत्स हैं । जिनके द्वारा बह गंभीर दिव्य खेती करता है। ब्राह्मण का पुत्र खेती करता है। किन्तु उसकी खेती अपार्थिव होती है क्षमा और इन्द्रिय-जय उसके वृषभ हैं। जिनके द्वारा यह दिव्य खेती करता है। ___साधना क्षमा और इन्द्रिय जय उतने ही आवश्यक है जितने कि खेती के लिए रेल । क्षमा हृदय को निर्वैर बनाती है। वर्षों का पैमनस्य और कानुष्य क्षमा का स्पर्श पाते ही धुल जाता है। क्षमा हृदय की देन है । अब हृदय शुद्ध होता है तब क्षमा का जन्म होता है, केवल हाथ जोड़ना ही उसके लिए पर्याप्त नहीं है। हाथ तो एक की भी जोड़ता है। जब तक मन नहीं जुड़ता है तब तक क्षमा का मूल्य नहीं चूकता । जिसमें हृदय जुड़ता है वही क्षमा मन के मैल को घो सकती है। ऐसी क्षमा और इन्द्रिय-जय साधक के दो वृषभ हैं जिनके द्वारा वह खेती करता है। यह रूपक प्राचीन भारतीय कृषि पद्धति को बताता है। साथ ही उसके आवश्यक अंग बैल को भी बता रहा है। आज की बीसवीं सदी में ट्रैक्टर आ चुके हैं, फिर भी आज भारतीय किसान के सखा हलधर ही है। किन्तु जब वे ही अमदाता हलधर वृद्ध हो जाते हैं तो उन्हें कसाई के हाथों बेच दिया जाता है जहां कि कर कसाई का विकराल छुरा उनको मौत के घाट उतार देता है। यह कैसा अपराध है। वर्षों तक जिसका सेवा ली जब सेवा देने का प्रसंग आया तो उसे चंद चांदी के टुकड़ों के लिए कसाई के हाथ बेच दिया यह कसा ऋठोर पाप है। पर इस अपराध की पृष्ठभूमि में दरिद्रता और मभाव की भी छाया है, जिसके चंगुल में भारत का अनदाता कृषक समाज आज भी फंसा हुआ है । गरीबी पापों की जननी है।। गरीबी के पापों में एक यह भी है तो इसका हिस्सा अमीरी के पल्ले चिलकुल ही नहीं पष्ठता ऐसा नहीं मान सकते । गरीबों का शोषण करने वाली अमीरी ही सब पापों की जद्ध है, जिससे छली जाकर भोलीभाली गरीबी जघन्य कर्म करने पर उतारू हो जाती है। अहिंसा का उत्तराधिकारी बननेवाला सराज जब परिग्रह में गले गले तक डूबता है तो वह अप्रत्यक्ष रूप से अहिंसा के मौत के वॉरन्ट पर हस्ताक्षर करता है । क्यों कि परिग्रह और हिंसा भाई-बहन है। अहिंसक समाज क्या इस तथ्य को समझने की कोशिश करेगा? टीका :-पंचेन्द्रियाणि तु क्षान्तानि दान्तानि निर्जितानि च यानि मामणेषु तानि गोरूपाणि गंभीरं कृषि कृषन्ति । १ तत्वार्धश्रद्धानं सम्यग् दर्शनम् । तत्यार्थपूत्र अध्याय ५ सूत्र । २बैलों के कन्धों पर रहने वाले युग जुआ की कील । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई टीकाकार का अभिप्राय कुछ भिन्न है । शान्त दान्त ब्राण, पांचों इन्द्रियों पर जिन्होंने विजय पाई है उनके लिए दे ही इन्द्रियो गोरूप हैं । अर्थात् इन्द्रियो यदि अनिगृहीन है तो चे साधनसी है, किन्तु जब उन पर ज्ञान का अंकुधा है आत्मा का शासन है तो वे गौवत्स के सहश है और खेती के लिए सर्वप्रथम गौ-वत्स की ही आवश्यकता है। तयो बीयं अवंझं से, अहिंसा णिहणं परं। ववसातो घणं तस्स, जुत्ता गोणा य संगहो ।। १२ ॥ अर्थ:-तप ही उस स्नेनी का हमध्य तथा निष्फल न जाने वाला पीज है और चूसरे के हितों को हनन न करने बाला अहिंसामय व्यवसाय आचरण ही उसका धन है । अहिंसा की साधना भै जुते हुए (लगे हुए) मैल ही उसका संग्रह है। गुजराती भाषान्तर:-- તપ જ તે ખેતીનું અવધ્ય એટલે નિષ્ફળ ન જાય એવું બીજ છે. અને બીજાના હિતોનું હનન (નાશ) ન કરવાવાળા અહિંસામય વ્યવસાયનું આચરણું જ તેનું ધન (મુડી) છે. અહિંસાની સાધનામાં લાગેલો બળદ જ તેને सं4६ (साधनसंपत्ति) छे. इस अपर्थिव खेती का बीज तप है जो कभी भी निष्फल नहीं जाता है। प्राणिमात्र के लिए अभयदात्री अहिंसा ही उसका धन है। जिसमें सभी जीवों की रक्षा का आश्वासन है। किन्तु इस व्यवसाय के लिये क्षमा और दमन के शषभ तथा धैर्य की जोत-( रस्सी) की सर्व प्रथम आवश्यकता है। क्योंकि क्षमा और धैर्य की भूमि इन्दिय-दमन है। टीका:-तपस्तस्प नियाजस्य ब्राह्मणस्यावंध्य बीअमहिंसा परमं निधनं गोत्रं, व्यवसायस्तस्य धन संग्रह संयमयुक्तौं बलीबदौं । ___ अर्थात् उस निष्काम साधक के लिए तप ही अवन्ध्य बीज है। अहिंसा ही उस का परम श्रेष्ठ गोत्र है। उसका व्यवसाय है पार्थिव धन का संग्रह । संयम में जुड़े हुए विचार और व्यवहार ही दो बैल है । टीकाकार का मत बुछ भिन्न है। धिती बलंबसुहिक्का, सदा मेढी य णिश्चला। भाषणा उ बती तस्स, इरियादारं सुसंवुडं ॥ १३ ॥ अर्थ:-अबलम्बन के लिए धैर्य हिका के सदृश है। निश्रल श्रद्धा मेदी है। भावनाओं से ईर्यापथ का द्वार भी सुसंवृत है। गुजराती भाषान्तर: અવલખન માટે ધર્મ હિક્કાની જેવી છે, નિશ્ચલ શ્રદ્ધા થાંભલા જેવી છે. ભાવનાથી ઈપથનું બારણું પણ ઢાંકેલું છે. साधक की अहिंसा की फसल पक चुकी है। फसल कट जाने के बाद वह खलिहान में आती है। ऊपर का छिलका साफ करना होता है, इसके लिए हिके का अवलम्बन लिया जाता है। धैर्य ही वह हिक्का है 1 बाद में खलिहान में स्तंभ गाडा जाता है। जिसके चारों ओर बैल घूमते हैं और अनाज का छिलका दूर होता जाता है । साधक की निश्चल श्रद्धा ही मेढी अर्थात् संभ है। श्रदा साधना की रीढ है। यदि श्रद्धा की भूमि ठोस है तो अध्यात्म के आकाश में उड़ान भरी जा सकती है, क्योंकि पक्षी को उड़ने के लिए रुई का नरम हिप नहीं; कठोर भूमि चाहिए । ऐसे ही साधना के लिए श्रद्धा की ठोस भूमि चाहिए । चंचल श्रद्धावाला व्यक्ति किसी भी कार्य में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता। अहिंसा की मधुर फसल उसके जीवन में पवित्र भावनाओं का संचार करती है मन की गति शुभ की और बडती है और एक दिन वह भी आता है जब कि वह पूर्ण शुद्ध स्थिति में पहुंच कर ोपथ की क्रिया को भी रोक देता है । आमा जब विकास की ग्यारहवीं श्रेणी पर पहुंचता है तब सभी क्रियाए समाप्त हो जाती है । केवल ऐर्यावधिक क्रियाशेष रह जाती है जोकि योग प्रवृत्ति की देन है । जब तक मन वाणी और कर्म की प्रवृत्ति रहती है वहाँ तक क्रिया चालू रहती है। किन्तु उससे कषाय भाव चला जाता है तो कमाँ की बधशक्ति समाप्त हो जाती है। योग के कारण कर्म आते अवश्य है, किन्तु दे प्रथम समय में आते है द्वितीय समय में भोगे जाते हैं और तीसरे समय में निर्जनित हो जाते है । निश्चल नय की दृष्टि १-जान सजोगी भयर ताव ईरियावधियं कम्म नियंधः । तुहफरिस दुसमयठिश्यं । तं पढमसनचे बद्ध विश्यसमये वेद्यं तश्यसमये निजि 1-उत्तरा. अ० २१. सूत्र ७१ । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छब्बीसवां अध्ययन १५९ सेतो स्थिति का कोई अलग समय नहीं है। कर्म आते हैं और चले जाते है। क्योंकि स्थिति और रसु, बन्ध कषाय सापेक्ष हैं' । किन्तु जब आत्मा आयोगी अवस्था में पहुंच जाता है तब ऐयोपथिक क्रिया भी समाप्त हो जाती है। अहंतर्षि बौदहवें गुण-स्थान प्राप्त आत्मा की अयौगिक स्थिति का वर्णन कर रहे हैं। दीका:-सिस यसुधैका श्रद्धा च निश्चला च मेथिधुरोबष्टंभः भाषमा तु सस्य वृत्सिर्या सुसंवतं द्वारं । गसार्थः । कषाया मलणं तस्स, कित्तिवातो य तपसमा । णिजरा तुल वामीसा, इति दुक्खाण णिक्खति ॥ १४ ॥ अर्थः कषायों का मर्दन ही उसके धान्य का मर्दन है। उसकी क्षमा ही कीर्तिवाद है। निर्जरा ही उसका (खेती का) काटना है। इस प्रकार साधक दुःखों से मुक्त होता है। गुजराती भाषान्तर: કષાયોનું મર્દન એજ તેના ધાન્યનું મર્દન છે. તેની ક્ષમાજ કીર્તિવાદ છે, નિર્જરા જ તેની ખેતીનું કાપવું છે, આ પ્રમાણે સમજી વર્તનારા) સાધક દુઃખોથી મુક્ત થાય છે. अनाज के खलिहान में आने के बाद उसका मर्दन किया जाता है। ताकि धान्य से उसके छिलके पृथक् हो जाय । साधना में कषाय का मर्दन अपेक्षित है। उसके बिना कर्म के छिलके आत्मा से पृथक् नहीं हो सकते । क्षमा ही उसका कीर्तिवाद है। किन्तु कीर्तिवाद खलिहान से असंबद्ध लगता है। हाँ, उसे उफनने के लिए इवा की अवश्य ही आवश्यकता होती है। क्षना ही ऐसी वायु हो सकती है जोकि कर्म के छिलके को दूर कर सकती है। निर्जरा कटाई है, किन्तु यह भी अप्रासंगिक लगता है। क्योंकि कटाई तो मर्दन के भी पहले की क्रिया है। अतः छिलके का एक दम दूर हो जाना निर्जरा है जो सप्रसंग सी रहता है। ऐसी खेती करने वाला साधक समस्व दुःखों का अन्त करता है। टीका:-कषायास्तस्य मर्दन कीर्निबादश्च तत्क्षमा, निर्जरा तु इयां लुनामि एवं दुःखाना निष्कृति विष्यतीति तदभिप्रायः । गतार्थः। एतं किसि क्रिसित्ताणं, सव्वसत्तश्यावई । माहणे खत्तिए, वेस्से, सुद्दे वा पि विमुमति ॥ १५ ॥ अर्थ:-प्राणिमात्र पर दया का झरना बहाते हुए जो इस प्रकार की खेती करता है वह ब्राह्मणकुलोत्पन्न हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शूद्र हो तो भी विशुद्ध होता है। गुजराती भाषान्तर: પ્રાણિ માત્ર પર દયાનું ઝરણું વહાવતા જે આ પ્રમાણે ખેતી કરે છે, તે બ્રાહ્મણ કુળમાં જન્મેલ હોય, ક્ષત્રિય વંશમાં જન્મેલો હોય છે વૈશ્ય (વાણીયા) નાં કુલમાં જન્મેલ હોય કે પછી શદ્ર વંશમાં જમ પામેલો હોય તે પણ વિશુદ્ધ થાય છે, टीका:-पुतां कृषि कृष्ट्वा सर्व-सखदयावहाँ बालाणा क्षत्रियो वैश्यः शूदो वाऽमि विशुध्यति । गताः । जिसमें दया का झरना वह रहा हो अनन्त अनन्त प्राणियों के प्रति दया की गंगा बह रही हो ऐसी आत्मिक खेती ही आत्मविशुद्धि कर सकती है। अहिंसा की नंगा सबको पवित्र बनाती है। फिर वह ब्राह्मण हो या क्षत्रिय, वैश्य हो या शुद्र बद्द सभी के जीवन को उज्ज्वल और समुज्वल बनाती है। प्रोफेसर घॉल्टर शुत्रिंगू लिखते हैं कि लोक से लेकर १५ तक सोगरूपक संपूर्ण और रूप में प्रस्तुत किया गया है। मात्मा को खेत बता गया है और अनिच्यना से उसे बोना है। फिर भी बहुत सी उपमाएँ स्पष्ट नहीं हैं। "कुवे शुम कुत" हल का एक भाग बताया गया है। गोच्छनवो अपरिचित है, फिर भी महत्व पूर्ण है। बारहवें श्लोक का अर्थ शंकास्पद है। १३ वे श्लोक में हलेश अवलंब के स्थान पर विलंब की संभावना की जा सकती है । निर्जरा जखेड डालने को खराब स्थिति २-जोगापयशीपपसा, ठिह-अशु-भागा कसायदो होन्ति । -दम्य संग्रह । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 १६० इसि भासियाई को दूर करने के साथ उपमित किया है । पन्द्रहवे टोक में इस" शब्द दूसरी विभक्ति में होना चाहिए । अर्हतर्षि नैतिक जीवन को ही दिव्य खेती कहते हैं । प से सिद्धे बुद्धे० । गतार्थः । इति मागिहाणं 1 इति मातंग अर्हर्षि प्रोक्त षर्विशसि अध्ययन समाप्त | वारतक अर्हता प्रोक्त सत्ताईसवां अध्ययन साधक निवृत्ति का पथिक है। अतः उसके जीवन में अनासक्ति योग आना चाहिए। वह अपने जीवन को इस प्रकार बनाए कि मोह अपनी सारी शक्ति के साथ भी उसे न बाध सके। निवृति का अर्थ निष्क्रियता नहीं है । निवृत्ति और निष्क्रियता स्थूल दृष्टि में भले ही समानार्थक लगते हो परन्तु दोनों में उतना ही अन्तर है जितना कि जीवित और मृत में । निवृत्त साधना का पथ है, जिसमें साधक अनासक्त हो कर किया करता है। जब कि निष्क्रियता जड़ता है। जड़ता जीवन की मौत है । निवृत्ति का पथिक यदि यह सोचता है कि मुझे अपना ही सब कुछ देखना है, समाज और संघ से मेरा कोई वास्ता नहीं है, तो वह निवृत्ति शब्द के साथ न्याय नहीं करता है। अपनी रोटी दाल की क्रिया में उलझे रहने की विचारधारा निवृत्ति की नहीं, स्वार्थी वृति की देन है। साधक एकान्ततः निवृतिवादी है ऐसा भी नहीं कहा जासकता है। आगम बाणी बोलती है कि: एमओ निव्यति कुता एमओ य पव्वत्तणं । साधक एक और से निवृत्त हो कर दूसरी और प्रवृत हो अर्थात अशुभ मे निवृत्त हो कर शुभ में प्रवृत्त हो। क्योंकि एकान्ततः निरृत्ति जड़ता है और वह जड़ता चैतन्य के स्वभार से विरुद्ध है। इसी लिए स्वयं सिद्ध प्रभु एकान्ततः निवृत्ति नहीं है, वे भी शुद्धोपयोग और अपने निजगुणों में रमणशील है अर्थात् प्रवृत्त है । निवृत्ति और प्रकृति दो पथ हैं। साधक का लक्ष्य है आत्मशुद्धि। यदि वह लक्ष्य भुला दिया गया तो एकान्ततः निवृत्ति निष्क्रियता में परिणत हो जायगी या बाहर से निवृत्ति का ढोंग रख कर भीतर से भयंकर प्रवृतिशील बन जायेगी। दूसरी ओर प्रवृत्ति में भी विवेक न रह जाएगा तो वह भी पतन के गड्डे में ढकेल देगी। चोगा तो सेवा का रहेगा पर सत्ता स्थान हथियाने लगेगी, संग्रह की वह भूख जागेगी कि त्याग पिछले दरवाजे से भाग खड़ा होगा । यों उसका बोगा वहीं छोड़ जाएगा। अतः साधक सावधानी के साथ कदम रखे। एक संस्कृत कवि ने ठीक ही कहा है किः— वनेऽपि दोषाः प्रभवति रागिणां गृहेऽपि पंचेन्द्रियनिग्रहं तपः । कुपिते कर्मणि यः प्रवर्तते, निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम् ॥ चित्त की राग दशा समाप्त नहीं हुई है तो बन में भी दोष पैदा हो सकते हैं। दूसरी और इन्द्रियनिग्रह की तपःसाधना घर में भी संभव है । उसमें जो सफल हो चुका है और जो कर्म में प्रवृत्त है उस बीतराग-स्थिति-प्राम साधक के लिए घर भी तपोवन है । युगद्रष्टा आचार्य विनोबा लिखते हैं कि संन्यास लिया पर संन्यास की वृत्ति नहीं आई तो वह वन में दूना घर जमाने की कोशिश करेगा। अतः मूल वस्तु अनासकि है उसके बिना पतन के सौ सौ द्वार खुले रहेंगे। एक और संस्कृत कवि कहता है कि: M + Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्ताईसवां अध्ययन १६१ निःसंगता मुक्तिपदं यतीनां, संगावशेषाः प्रभवन्ति दोषाः। आरूढयोगोऽपि निपात्यतेऽधा, संगेन योगी किमुताल्पसिद्धिः । साधक के लिए निःसंगता ही मुक्ति का द्वार है। क्योंकि संग से अनेक दोष पैदा हो सकते हैं। बड़े बड़े अध्यात्मयोगी मी संग के द्वारा पतन के गर्त में गिर गए हैं, फिर साधारण साधक की बात ही क्या । । प्रस्तुत अध्याय अनासक्ति योग की ओर प्रेरित करता है। सिद्धि । साधु सुचरितं अचाहता समणसंपया धारत्तपणं अरहता इसिणा बुइतं । ___ अर्थ :-साधु की सम्पत्ति उसका चरित्र है । और जो साधक जरा सम्पनि से युक्त है उसकी गति अव्याबाध रहती है। ऐसा वारवयक अर्हतर्षि बोले। गुजराती भाषान्तरः સાધુની સાચી સમ્પત્તિ તેનું પવિત્ર ચરિત્ર છે અને જે સાધક તે સંપત્તિથી યુક્ત છે, તેની ગતિ નિબંધરહિત રહે છે એવું વાત્રક અહંતષિ ક્યા. चरित्र ही साधक की सबसे बड़ी सम्पति है। इंग्लिश बिचारक फ्रेडरिक सान्डर्स कहते हैं कि Character is the governing element of life and is aborogenious चरित्र जीवन में शासन करनेवाला तत्त्व है और वह प्रतिमा से उच्च है। क्योंकि चरित्र समस्त गुणों की प्राथमिक भूमिका है। उसकी उपस्थिति में ही सभी सद्गुण ठहर सकते हैं। चरित्र की शक्ति दुनिया की समस्त शक्तियों पर विजय पाती है। एक विचारक कहता है There is no substitute for beauty of mind and strength of character-जे एलन. मन के सौन्दर्य और चरित्र पल की समानता करने वाली कोई दूसरी बस्नु नहीं है। टीका:-साधु साधोः साधु वा सुचरितमभ्याइतऽशाधिताश्रमणसंपच्यूमणैः सह संवासः । साधु का चरित्र अव्यायाध है। श्रमणों का सहवास ही उसकी सम्पत्ति है। न चिरं जणे संबसे मुणी, संवासेण सिणेनु वद्धती। भिक्खुस्स अणिचचारिणी, असढे कम्मा दुहायती ॥ १ ॥ अर्थ:-मुनि गृहस्थों के बीच अधिक समय तक न रहे 1 क्योंकि अधिक परिचम से बह बढता है, ओ कि अनित्यचारी भिक्षु की आत्मा के लिए कर्म का रूप लेकर दुःख की सुष्टि करता है। गुजराती भाषान्तर: ગૃહસ્થોના સહવાસમાં મુનિએ ઝાઝા સમય સુધી રહેવું ન જોઈએ. કારણકે વધારે પરિચયથી બન્ને વચ્ચે સ્નેહ વધે છે, જે અનિત્યચારી ભિક્ષુના આત્મા માટે કર્મ થઈને દુઃખની ઉત્પત્તિ કરે છે. जनता का अधिक परिचय स्नेह बन्धन करता है। परिणाम में रागात्मक वृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है । गृहस्थ अपने स्वार्थ के लिए मुनि को उचित अनुचित सभी वृत्तियों में बाल सकता है और लेह बन्धन में बद्ध मुनि भी प्रलोभनों को टकरा नहीं सकता, नील गमन में स्वतंत्र उसान भरने वाले पक्षी की मांति अप्रतिबद्ध विहारी मुनि जब परिचय के पास में बंध जाता है तो उसकी स्वतंत्रता की पाखें कट जाती हैं और मोह की बछ धारा अपने पीछे असंख्य कष्टों को परम्परा को लेकर आती है। इसी लिए आगम में मुनि के लिए नौ कल्पी विहार का विधान है। टीका:- चिर लौकिकजनेन संवसेन्मुनिः। संवासेन हि स्नेहो वर्धते । मनिस्य चारिणो मिझोः कर्मणो हेतोरात्मार्थों दुःखायते दुःखमापद्यते । काकार कुछ भिन्न मत रखते हैं। उनका कहना है कि मुनि संसारी आदमियों में अधिक न रहे, क्योंकि उनके साहचर्य सेनेह की वृद्धि होती है। जोकि साधक के लिए कर्म का हेतु बन कर दुःस्व को निमन्त्रण देता है। पयहितू सिणेहबंधणं, झाणप्रयणपरायणे मुणी।। णिण सया वि चेतसा, णिग्वाणाय मतिं तु संदधे ॥ २॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ इसि-भासियाई अर्थ:-ध्यान और अध्ययन में लीन मुनि मेह बन्धन का परित्याग करे । मन के विकारों को धोकर मति को निर्वाण के पथ में जोडे । गुजराती भाषान्तर: ધ્યાન અને અધ્યયનમાં લીન થયેલા મુનિએ સ્નેહબંધનને પરિત્યાગ કરવું જોઈએ. મનના વિકારોને જોઈ નાખી મતિને નિર્વાશ્વના રસતે સ્થિર કરવી, ध्यान मन की शक्तियों को केन्द्रित करता है। उसके केन्द्रीयकरण में एक बहुत ही शक्ति आ जाती है । शीसे के द्वारा सूर्य की किरणें केन्द्रित होती हैं। उनमें तेज और प्रकाश के साथ ज्वाला फूट पड़ती है। यही बात मन की किरणों के संबन्ध में भी है। वे केन्द्रित होती है तो उसकी ज्वाला में मन की वासना और विकार भस्म हो जाते हैं। निर्जन के एकान्त कोने में साधना में लीन हुवा मुनि जब लेह के पाश में बंधता है तो सचमुच ही उसकी साधना में बाधा आ जाती है। उसके ध्यान, निदिध्यास, चिन्तन, मनन और भनुशीलन तभी संभव है जब कि वह लेह-बन्धन से उपरत हो कर चले। इसीलिये प्राचीन युग का सन्त शहरों के जीवन को पसन्द नहीं करता था। शहरों से दूर वन में वह रहता था। भिक्षा के लिये गांव में आता और पुनः वन की शान्त भूमि में आत्मसाधना के लिए चल पड़ता था। प्रकृति का स्वच्छ वायुमंडल उसकी चित्तवृत्तियों का शुद्ध रखने में सहायक बनता । साथ ही यह अल्पकालीन परिचय गृहस्थ केदय में सन्त के प्रति श्रद्धा के दीप जलासा । हृदय की सच्ची जिज्ञासा को लेकर वहां पहुंचता । और यह एक मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त है, जो वस्तु जितनी दूर है उसका आकर्षण भी उतना ही अधिक रहता है। यदि वह हमारे समीप हो जाती है तो उसका खिंचाव भी कम हो जाता है। निर्वाण का पथिक अपनी युछिको निर्वाण के पथ में तभी स्थिर रख सकता है जब कि वह गृहस्थ के बेह बन्धन से दूर रहे। टीका:-बेहबन्धनं प्रजाहाय ध्यानाध्ययनपरायणो भवति । निहितम वशीकृतेन सदा अपि चेतसा निर्वाणाय मति समध्यते । साधक मेहबन्धन को छोड़ कर ही ध्यानाध्ययन में लीम हो सकता है, क्योंकि लेह साधना तथा अध्ययन के लिए सबसे बड़ा विघ्न है। यदि एक विद्यार्थी मी किसी के प्रेम-पाश में बंच जाता है तो वह ठीक ढंग से अध्ययन नहीं कर सकता । क्यों कि उसकी मनःशक्ति अध्ययन में केन्द्रित नहीं हो सकती है। चित्त का निरोध करने पर ही बुद्धि निर्वाण की ओर अभिमुख हो सकती है। जे भिक्खु सखेयमागते, वयण कण्णसुहं परस्स बूया । सेऽणुप्पियभाषाए, हुमुळे आतडे पियमा तु हायती ॥ ३॥ अर्थ:-जो भिक्षु मित्रता के बन्धन में आकर दूसरे कर्ण के लिए सुखप्रद-मीठे वचन कहता है और वह गृहस्थ मी प्रिय भाषी में मुग्ध हो जाता है, किन्तु आत्मा के अर्थ को के दोनों ही खो बैठते हैं। गुजराती भाषान्तर: - જે શિક્ષક મિત્રના બંધનમાં આવીને બીજાના કાનમાં સુખપ્રદ (મીઠી) વાતે કરે છે અને તે ગૃહસ્થ પણ પ્રિયભાષાથી મુગ્ધ થઈ જાય છે, પરંતુ આત્માના અર્થને તે બંનેને ખોઈ બેસે છે, अति परिचय से संभावित दोषों का निरूपण करते हुए अतिर्षि कहते हैं कि परिचय प्रेम में बदलता है और मैत्री के पाश में बंध कर भिक्षु गृहस्थ को मीठी लगने वाली बात कहता है। नम सत्य कहने की शक्ति ससमें नहीं रहती और वह गृहस्थ भी प्रियभाषी मुनि की मीठी बातों में मुग्ध बनता है । जब उसके मतलब की बातें मिलेंगी तो अवश्य ही मुनि उसके लिए प्रिय पन मार्यमा । किन्तु यह रागात्मक श्रद्धा मुनि और धात्रक दोनों के आत्महित को ठेस पहुंचाता है। मोह सत्य का प्रतिद्वन्द्वी है। मोहपाश में बद्ध व्यक्ति कभी भी नगसत्य नहीं बोल सकता, क्योंकि वह जानता है कि नमसत्य सुनते ही भक्तगण वैसे ही उठ जाएंगे, जिस प्रकार फटाकों के घड़ाकों से पक्षीगण । वे मोह विजेता भगवान् महावीर थे जो कि अनन्य उपासक कोणिक जैसे सम्राट को भी कह सके, कि कौणिक! तूं मर कर नरक की ज्वाला में Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्ताईसवां अध्ययन १६३ पहुंचेगा । सत्य के प्रखर वक्ता ने उत्तर देते समय मगध के साम्राज्य को बीच में न आने दिया, न उसकी उपासना और भक्ति को ही सत्य के लिए व्यवधान बनने दिया । "यह मेरा भक्त है और मगध का सम्राट है यदि यह रूठ गया तो । " मन की दुर्बलता के ये विचार भगवान् महावीर को सत्य का उद्घोष करने से रोक न सके । उन्होंने अपने साधक शिष्यों से कहा, तुम्हारे मीतर सात्विक तेज प्रकट होना चाहिए कि तुम्हारे सामने दर दर भटकने वाला भिक्षुक आये या लक्ष्मीपति आए अथवा सम्राट भी क्यों न आए, सत्य प्रकट करते समय तुम्हारे मन का एक अणु भी काँपना नहीं चाहिए ।" नम सत्य कहने के लिए बहुत बढ़े साहस की अपेक्षा रहती हैं। क्योंकि हर कान इतना मजबूत नहीं रहता जो नम सत्य सुन सके। लेबनान का प्रसिद्ध विचारक खलील जिब्रान कहता है कि एक यार तुमने नम सत्य कहा तो तुम्हारे सभी संगी साथी तुम्हें छोड़ कर चल देंगे । यदि तुमने दुबारा नम सत्य का प्रयोग किया तो तुम देश से निकाल दिये जाओगे। और यदि तुमने तीसरी बार नम सत्य कहा तो तुम फांसी के फंदे पर लटका दिये जाओगे और तुम्हारी जीवन लीला समाप्त हो जाएगी !" । जिसमें नम सत्य कहने का साहस नहीं होता है वह चापलूस बन जाता है, उपन्यास सम्राट श्री. प्रेमचन्दजी लिखते हैं कि " चापलूसी जहरीका प्याला है। वह तब तक आप को ऋष्ट नहीं पहुंचाएगी जबतक कि आप अमृत समझकर उसको पी न जाये" एक इंग्लिश विचारक बोलता है कि: Flattery is counterfeit, and like counterfeit mouey, it will eventually get you in to trouble if you try to pass it डेल कारनेगी । चापलूसी एक नकली सिक्का है और नकली सिक्के की भांति यह अन्ततः आप को कष्ट में डाल देगी, यदि आप इसको चलाने का प्रयत्न करेंगे। किसी ने पूछा कि किन जानवरों का काटना अधिक खतरनाक होता है ? इसके उत्तर में विचारक ने कहा कि जंगलियों में निन्दकों का और पालतुओं में चापलूसों का । चापलूसी सरलता और निष्कपटता को रंग मार कर भगा देती है। एक और विचारक कहता है कि: Flavory cits in the padour, chen dealing is picked out of door. जब चापलूसी बैठक में आकर बैठ जाती है तो निष्कपट व्यवहार को ढकेल कर बाहर कर दिया जाता है । वास्तव में साधक की यह कामना रहे कि न तो में किसी की सस्ती प्रशंसा करूं और न दूसरों से अपनी सस्ती प्रशंसा सुनूं । साधक के जीवन में जब मुँह मीठी बात करने की वृत्ति आसकेगी तो वह गृहस्थ को सत्य बात न कह सकेगा। और गृहस्थ को भी मुँह देखी बात कहने वाले सन्त प्रिय बनेगे । ऐसे साधक और गृहस्थ दोनों ही पतन के पथ पर हैं। टीका :- यो भिक्षुः परेण सत्यमागतस्तस्य कर्णसुखं वचनं श्रूयात् सोऽनुप्रियभाषकचाटुकार। खलु मुग्धात्मार्थे हीयते नियमात् । गतार्थः । जे लक्खणमिण, पहेलियाउ अक्खाई याद य कुतूहलाओ । तहा दाणाहं णरे पउंज‍, सामण्णस्स महंतर खु से ॥ ४ ॥ अर्थ :- जो कुतूहल से लक्षण, स्वप्न और प्रहेलिका बोलता है और मनुष्य ( उसके लिये ) दान आदि का प्रयोग करता है, किन्तु यह श्रामण्य भाव से बहुत दूर की वस्तु है । गुजराती भाषान्तर : જે આશ્ચર્યથી લક્ષણ, સ્વર, અને પ્રહેલિકા બોલે છે, જે મનુષ્ય દાનાદિનો પ્રયોગ કરે છે. પરંતુ આ શ્રાઞણ્ય ( साधा ) आनथी बाहूरनी वस्तु छे. पिली गाथा में कहा गया है कि मंत्री के मोह में गृहस्थ से भिक्षु मुंहदेखी बात कहता है। उसी प्रस्तुत गाथा स्पष्ट करती है। सेह-बद्ध सन्तु आपने ही गृहस्थों को लक्षण विद्या बतलाता है खम के प्रतिफल बताता है। पहेलियां बुझाता है और भी ऐसे ही कौतूहल पूर्ण काम करता है। कार्यसिद्धि के लिए भक्तगण दान का भी प्रयोग करता है। यह दान का प्रवाह मुनि के संकेतों पर बहता है । किन्तु उसका लक्ष्य दान के द्वारा अधिक संपत्ति बटोरना रहता है। और यह प्रपंच वन में रहने वाले मुनि के साधक जीवन से बहुत ही दूर की वस्तु है । १- जहा पुण्णरस कत्थद तदा तुच्छरस कथा । जहा तुच्छरस कस्थह, तहा पुण्णस्स कत्थद आचारांग सूत्र. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i ર इस - भालियाई टीकाः यो लक्षणत्वम प्रहेलिका कुतूहलादाख्याति तस्य नरो जमो दानानि प्रयोजयेत् तत् ता करण श्रामण्याम्महदन्तरं भवेत् विपरीतं भवेदित्यर्थः । गतार्थः । स्वप्न और लक्षणावि का बताना भौतिक विद्याएं हैं। आत्मा के प्रशस्त पथ के पथिक के लिए अग्राह्य है। ये भौतिक विद्याएं आत्मशान्ति के लिए विनभूत हैं । भगवान् महावीर बोलते हैं कि ताजोगं कार्ड भूकम्भं च जे पतंजति । सायरस्व इडिक हे अभिभोगभाषणं कुणइ ॥ मंत्र योग करके जो भूतिकर्म का प्रयोग करता है उसके पीछे शारीरिक सुख और ऋद्धिप्राप्ति की कामना है। ऐसा साधक अभियोग भाव करता है । जे लवणयसु चा वि, आयाह-विवाहयधूवरेसु य । जुंजेर जुज्झेसु य पत्थिवाणं, सामण्णस्स महदंतरे खु से ॥ ५ ॥ अर्थ :- जो साधक चूडोपनयन आदि संस्कारों में तथा वर वधू के आवाह विवाह प्रसंगों में सम्मिलित होता है। और राजाओं के साथ युद्ध में भी जुड़ता है, किन्तु साधक की इन समस्त क्रियाओं और श्रमण भाव के बीच बहुत बड़ा अन्तर है। गुजराती भाषान्तर : જે સાધક ચૂડા, ઉપનયન આદિ સંસ્કારોમાં તથા વરવધૂના આવાહ-વિવાહ પ્રસંગોમાં સમ્મિલિત હૅય છે અને રાજાઓ સાથે યુદ્ધમાં પણ ભાગ લે છે, એવા સાધકની આ બધી ક્રિયાઓ અને શ્રમન્નુભાવની વચ્ચે ઘણું જ અંતર છે. 1 | साधक पतन ही किस सीमा तक पहुंचता है उसी का चित्र प्रस्तुत गाथा में दिया गया है गृहस्थ के आँगन में चूकोपनयन संस्कार आता है तो अन्ध-भक्ति से प्रेरित गृहस्थ उसमें सम्मिलित होने के लिए मुनि से प्रार्थना करता है और लेह से बंधा साधक वहां पहुँच जाता है तो आवाद-विवाद के प्रसंगों पर वर वधू को आशीर्वाद देने के लिए भी मुनि पहुंच जाते हैं। यदि नेह की धारा किसी राजा की ओर बढ़ रही है तो अपने साथी राजा की सहायता के लिए वह युद्ध में भी पहुंच जाता है। या उनको विजय के प्रसाधन बताते हैं । किन्तु यह सब श्रमण जीव जीवन को बाधा पहुंचाने वाली शक्तियाँ हैं । टीका :- चेति चेटको दासो यश्चेकोपनयनेष्ववादविवादेषु षधूवरेषु च पार्थिवानां युद्धेषु चायमानं योजयति तान्युपतिष्ठति । गत 1 विशेष - टीकाकार चेल का अर्थ चैटक- दास के रूप में करते हैं। जे जीवाण हेतु पूर्वणट्ठा, किंचि लोकसुहं पउंजे । अविस पाहिणे से, सामण्णस्स महंतरं खुले ॥ ६ ॥ अर्थ :- जो जीवन के लिए, पूजन के लिए और इस लोक के किंचित् सुख के लिए युक्ति का प्रयोग करता है, अर्थात् अपनी साधना का प्रयोग इन तुच्छ वस्तुओं के लिए करता है वह मानो अर्थी की प्रदक्षिणा करता है । अथवा वह खार्थी पुरुष विषयों की प्रदक्षिणा करता 1 गुजराती भाषान्तर: જે જીવન માટે, પૂજન માટે આને આ લોકના નજીવી સુખ-પ્રાપ્તિ માટે યુક્તિનો ઉપયોગ કરે છે, અર્થાત્ પોતાની સાધનાનો પ્રયોગ આ તુચ્છ વસ્તુઓ માટે કરે છે, તે શવની પ્રદક્ષિણા કરે છે અથવા તે સ્વાર્થી પુરુષ વિષયાની પ્રદક્ષિણા કરે છે. साधक के सामने सदैव उच्च आदर्श रहना चाहिए। उसके अनुरूप अपना जीवन निर्माण करे। यदि उसके सामने से यह आदर्श हट जाता है तो उसके सामने अपनी पूजा प्रतिष्ठा और तारका लिंक सुख के छोटे आदर्श आते है और वह उन तक पहुंचने की कोशिश करता है और उनके लिए अपनी आत्मसाधना को एक ओर रख देता है और मन्त्र तत्र आदि का " } 3 ! Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्ताईसवां अध्ययन १६५ प्रयोग करता है। लोभी गृहस्थ भी उसका साथ दे कर अपनी स्वार्थ साधना करना चाहता है । किन्तु ऐसा करनेवाला साधक अपने सही आदर्श तक न पहुंच कर बीच में ही रुक जाता है। उसकी सारी क्रिया केवल विषयों की प्रदक्षिणा है । भौतिक विषयों को केन्द्र बना कर वह उसके चारों ओर घूमता है । टीका: यो वा जीवनहेतोरात्मनः पूजनार्थं किंचिदिहलोकसुखमिह लोकस्य मनोज्ञं प्रयुनक्ति प्रकरोत्यर्थिविषयेषु प्रदक्षिणः उभयेषां ताशे करणं श्रमणस्य विपरीतम् । गलार्थः । कुसले संणिसोते पेज्ज्ञेण दोसेण य विव्यमुको । पियमयि सहे अनि य आ ण जहेज धम्मजीवी ॥ ७ ॥ अर्थ :- जो मन्त्र तन्त्र आदि की कुशलता से पूवक हो चुका जिसने भत्र परम्परा के स्रोत का छेदन कर दिया और जो प्रेम और द्वेष से विमुक्त है । वह धर्मजीवी महामुनि अकिंचन बन कर प्रिय और अप्रिय का सहन करे । किन्तु आत्मा के अर्थ - लक्ष्य का परित्याग न करे । गुजराती भाषान्तर : જે મન્ત્ર, તંત્ર આદિની કુશલતાથી જુદો થઇ ચૂકયો, જેણે ભવપરંપરાના પ્રવાહનું છેદન કરી નાખ્યું અને જે રાગદ્વેષથી વિમુક્ત છે, તે ધર્મજીવી મહાનિ અચિન બનીને પ્રિય અને અપ્રિયને સહન કરે પરંતુ આત્માના અર્થલક્ષ્યને છોડે નહીં. सन्त जीवन बिताने वाला साधक वासना और मोह के स्रोत को समाप्त करे। राग और द्वेष से उपरत रहकर विचरे । दुनिया जिसको कुशलता समसती है ऐसे मंत्रादि के प्रयोग साधना के लिए शूल है । अतः साधक उनसे बचे और वह अकिंचन हो कर आगे बढे । जीवन क्षेत्र में आगे बढ़ते हुए कड़वे मीठे घूंट मिले तो उनको भी सहर्ष पी जाय । निन्दा और प्रशंसा के शूल और फूल में साधक उलझे नहीं। किसी भी प्रसंग पर किसी भी परिस्थिति में भय और प्रलोभन के आंधी-तूफानों में साधक आत्म लक्ष्य को न भूले । टीका :- ध्यपगत कुशलस्तु संहिस्रोतः शोको वा प्रेम्णा द्वेषेण च चिप्रमुक्तः प्रियाप्रियसी मार्कचन वारमार्थे नाजीवी । गतार्थः । एवं से सिद्धे बुद्धे गतार्थः । इति वार तक अर्हतर्षिप्रोक्तं वारत्तय णाम सप्तविंशतितमं अध्ययनं समाप्तम् । आई अप्रि अट्ठाईसवां स्रोत अध्ययन I "कामो विजेता, जगतो विजेता" वासना का विजयी विश्वविजयी है। और वासना का गुलाम विश्व का गुलाम है क्योंकि वासना जीवन की सबसे बडी दुर्बलता है। काम मी एक पुरुषार्थ हैं, किन्तु वह गलत मार्ग दर्शक है। जो राही को हिमालय के बदले ज्वालामुखी पर ले जाता | थक्क कर चूर चूर होने वाला परीने से भीगा हुआ राही ठण्डी हवा के लिए ज्वालामुखी पर चढ कर क्या पाएगा ? ठण्डी हवा के बदले ज्वालामुखी की भीषण लपटें और धू धू करती हुई सर्व स्वाहा ज्वालाएं । एक इंग्लीश विचारक कहता है कि : A life merely of pleasure or chiefly of pleasure is always a poor and worthless life, not worthy the living, always unsatisfactory in its course, always miserable in its end. — थियोडोर पारकर | Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई भोगी या विलासी जीवन पामर जीवन है। जिसका कोई मूल्य नहीं है। ऐसा जीवन अयोग्य है । विलासी मनुष्य को सदैव ही अगन्तोष रहता है । जो अन्त में दुःख में परिणत हो जाता है। प्रस्तुत अध्ययन में वासना पर विजय की प्रेरणा की गई है। छिण्णसोते भिसं सन्वे, कामे कुणह सब्बसो। कामा रोगा मणुस्साणं, कामा दुग्गतियणा ॥१॥ अर्थ:-साधक वासना के सभी स्रोतों को रोक दे। क्योंकि मानव के लिए काम रोग के सदृश है और काम दुर्गति के वर्दक है। गुजराती भाषान्तर: સાધક વાસનાના બધા માગોને અટકાવી બંધ કરી દે. કારણકે માનવ માટે કામ-વિષયવાસના રોગસમાન છે, અને તે દુર્ગતિ તરફ ખસેડનાર છે. साधक काम विजेता बने । काम ने जिस व्यक्ति के उपर विजय पाई वह सबसे बडा अभागा है। इंग्लिश विचारक बोलता है कि The Worst of stares in he whom passion rules. साधक साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए सर्च प्रथम वासना की रस्सी को तोड दे। क्योंकि दासना ही मानव को पतन के मार्ग में ढकेलती है । वासना विदूषित चित्त आत्म-शान्ति का बहुत बडा माधक है। टीका:-छिमस्रोतसो निरुद्वाश्रवान् भृशं कुरुत सर्वान् कामान् सर्वशः कामा मनुष्याणां रोगा भवन्ति । कामो दुर्गतिवर्धनः। गताः । णासेवेजा मुणी गेहिं, एकंतमणुपस्सतो। कामे कामेमाणा, अकामा जति दोग्गाई ॥२॥ अर्थ:-निर्जन वन का वासी मुनि गृहस्थी का आसेवन न करे । काम की कामना करने वाला आत्मा काम का सेवन म करने पर मी दुर्गति का पथिक बनता है। गुजराती भाषान्तर: નિર્જન જંગલમાં રહેતા મુનિ ગ્રહસ્થીનું આસેવન (ઉપભોગ ન કરે. કામની કામના કરવાવાળો આત્મા કામનું સેવન ન છતાં પણ દુર્ગતિનો પથિક અને છે. साधक जीवन निर्जन वन में महकने वाला पुष्प है । गृहस्थ के संचित दायरे में उसकी मक्त आत्मा अंधती है। तो उसके विकास की गति अवरुद्ध हो जाती है। घर का वातावरपा उसके मन को वासना की ओर मोडेगा । एक बात और भी है कि जिसके मन में वासना की रंगीन तस्वीरें घूम रही हैं पर सामाजिक बन्धन या और दूसरे बन्धन उनको ऐसा करने से रोक रहे हैं। किन्तु यह मानसिक वासना उसको दुर्गति में ढकेलती है। कोरा कायिक संयम संयम नहीं है । बह तो कैरी-जीवन है । ऐसे साधक के लिए 'इतो श्रयस्ततो भ्रष्टः' वाली उक्ति फलितार्थ होती है। "गेही" से यहां गृहस्थ के भोग ही अपेक्षित है । आचारांग सूत्र में भगवान महावीर की तपस्साधना में सागारिय" शब्द माया है "सय गेहि वितिमिस्सेहि इस्थियो तस्थ से परिण्णाय सागारियं न सेवइय से सर्व एसियाझाइ। -माधु.. म. ९ गाथा । भगवान् वैषयिक अभिलाषा की सेवन नहीं करते हैं। यहां गेही शब्द भी उसी अर्थ में आया है। टीका:-ना सवेत मुनिर्गछिमेकान्तमनुपश्यने । अकामाः पुनः कामान् कामयमाना दुर्गतिं यान्ति । गतार्थः । साधक कामनाओं से विरत हो निष्काम बने । गीता कहती है--- विहाय कामान्यः सर्वान् पुमांश्वरति निःस्पृहः । निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥ -कर्मयोगीश्नीकृष्ण (गीता) Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवां अध्ययन जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को छोड़ कर निःपृह हो जाना है और ममता तथा अहंकार को छोड देता है वही शान्ति पाता है। करुणा के अजस्र स्रोत महात्मा बुद्ध कहते है कि "जैसे कभी छत में जल भरता है वैसे ही अशानी के मन में कामनाएँ जमा होती हैं। जे लुभंति कामेसु, तिविहं हवति तुच्छ से। अज्झोचवण्णा कामेसु, बहवे जीवा किलिस्संति ॥ ३ ॥ अर्थ:-जो कामों में लुब्ध होता है वह टीन कार से अ1ि , पो ... भागा साग लग होता है। काम में आसक हुए बहुत से प्राणी दुःख प्राप्त करते हैं। गुजराती भाषान्तर: જે વિષય-વાસનામાં લુબ્ધ હોય છે તે ત્રણે પ્રકારથી અર્થ, મન, વચન અને કર્મ દ્વારા સત્વહીન બને છે. કામમાં આસક્ત બનેલા ઘણા પ્રાણીઓ દુઃખ અને આપત્તિઓ ભેગે છે. __ जो साधक वासना के चक में गिर जाता है वह अपना तेज खो बैठता है । मन, वाणी और शरीर तीनों से वह निःसत्व बन जाता है। इक्षुदंड में से जय रस निकल जाता है तो वह निःसत्व कहलाता है। ऐसे ही जब जीवन में से ब्रह्मचर्य का तेज समाप्त हो जाता है तब मानव के जीवन का भी इस समाप्त हो जाता है । जो व्यक्ति अपनी शक्ति को वासना के अधीन कर देता है वह मानो निकृष्ट प्रबन्धक के हाथ में अपनी शासन व्यवस्था सौंप देता है। एक विचारक बोलता है कि: Passion thougli k bud regulator, is 8. powerful spring. काम यद्यपि निकृष्ट शासक है तथापि यह शक्तिशाली स्रोत है। --एमर्सन् । स्वामी विवेकानन्द मी कहते हैं कि कामना सागर की भांति अतृप्त है । इम ज्यों ज्यों उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करते जाते है त्यो यो उसका कोलाहल बनता है। टीका:-ये कामेषु लुभ्यन्ति तेषां त्रिविधं जगत् तुरममिव भवति कामेश्वध्युपपना बाहवरे जीवाः क्लियन्ति । काम में आसक्त आत्मा सम्पूर्ण जगत को तुच्छ मानता है । वह अपनी प्रिय वस्तु को पाने के लिए सामाज्य तक को छोड़ देता है। किन्त परिणाम में वासना का गर्त उसे अधिक से अधिक नीचे ही ले जाता है। सलं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा । बहुसाधारणा कामा, कामा संसारवहुणा ॥४॥ अर्थ :--काम शल्य रूप है और काम ही विष रूप है । काम आशीविष सर्प के सदृश भयंकर है । काम बहुत साधारण है और काम संसार के वधक है। गुजराती भाषान्तर :-- કામ શલ્યરૂપ છે અને કામ જ વિષરૂપ છે અને અને કામ કાળા નાગની જેમ ભયંકર છે. કામ બહુ જ સાધારણુ છે અને કુમ સંસારનું વર્ધનકર્તા છે. ___काम का बाहरी रूप तो मोहक है, किन्तु उसके अन्तर में धोर हलाहल विष है । वे मोहक और सुरूप दिखलाई पडने वाले काम एक बिन इतने विद्रूप हो कर सामने आते हैं कि कूरता भी शर्मा जाती है। प्रस्तुत गाथा का पूर्वार्ध और दूसरी गाथा का उत्तरार्ध दोनों ही उत्तराध्ययनसूत्र के नवम अध्ययन की ५३ वी गाथा में आश्चर्य जन रूप से साथ मिलते हैं जब कि राजर्षि नाम देवेन्द्र को उत्तर दे रहे हैं। सहल कामा विसं कामा कामा मासीबिसोचमा । कामे य पश्येमाणा अकामा जति दोग्गई। —उत्सरा. अ. ९ गा. ५३ पत्थति भावी कामेजे जीवा मोहमोहिया। दुग्गमे भयसंसारे, ते धुवै दुश्खभागिणो ॥५॥ अर्थ:- जो मोहमोहित आत्म। भाव से काम की प्रार्थना करते हैं, दे इस दुर्गम भयावह संसार में अवश्य ही दुःख के भागी बनते हैं। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ । इसि-भासियाई गुजराती भाषान्तर: જે મોહથી મોહિત બનેલા આત્મા ભાવથી કામની પ્રાર્થના કરે છે. તે આ દુર્ગમ ભયાવહ સંસારમાં અવશ્ય g:मना सोभने छे. जो व्यक्ति बाहर से निष्काम है किन्तु जिसके मन में वासना का ताण्डव नृत्य हो रहा है । संसार की सबसे बरी दुःखी आत्माएँ वे ही हैं। कामसल्लमणुद्धित्ता, जंतयो काममुच्छिया । जरा-मरपा-कतारे, परियत्सत्यवक्रम ॥६॥ अर्थ:- काम में आसक्त आत्माएँ जब तक काम के शल्य को चित्त से उखाड नहीं फेकती हैं तब वे जरा और मृत्यु के बन में वक्रता के साथ परिभ्रमण करती रहती हैं। गुजराती भाषान्तर: કામમાં આસક્ત આત્માઓ જ્યાં સુધી કામના શલ્ય ચિત્તથી ઉખેડીને ફેકતાં નથી, ત્યાં સુધી જરા અને મૃત્યુના વનમાં વક્રતાની સાથે પરિભ્રમણું કરતા રહે છે. जब तक वासना की रस्सी तोड़ी नहीं है तब तक भव परम्परा मी समाप्त नहीं हो सकती । आससि संसार की यह लता है जिस पर जरा और मरय के विषफल लगा करते हैं। सदेवमाणुसा कामा, मय पत्ता सहस्ससो। न याहं कामभोगेसु, तित्तपुब्यो कयाइ चि ॥ ७ ॥ अर्थ:-देव और मानव के ये भोग भने हजार हजार वार प्राप्त किए हैं। अतः इन पहले छोडे हुए काम भोगों से मैं फिर से आसक्त न होगा। गुजराती भाषान्तर: દેવ અને માનવના આ લોગો હજાર હજાર વખત ભગ્યા છે. માટે આના પહલે જે કામ ભોગે મેં છોડી દીધા છે તેમાં હું ફરીથી આસો નહીં બનું. बासना की आधी साधक के ज्ञान दीप को बुझाने लगे तब वह सोचे आत्मा शाश्वत है और मैंने अनन्त काल की इस सुदीर्घ यात्रा में अनेक बार गानय के और देव के स्टेशन किये हैं। वहां हजारों बार इन (भोगी) को चाहा, देखा और लिया भी। किन्तु क्या इससे शाश्वत शान्ति पा सका हूं? क्षणिक सुखों बाद अनन्त अनन्त दुःखों की परम्परा इनके द्वारा मुझे प्राम हुए है । अतः इन त्यक्तपूर्व भोगों को फिर से प्राप्त करना मेरे तेजोमय आत्मा का अपमान है। तिति कामेसु णासज, पत्तपवं अणंतसो। दुक्खं यहुविहाकार, कक्कसं परमानुभं ॥ ८॥ अर्थ:-ये भोग अनन्त बार प्राप्त हुए हैं। किन्तु यह आत्मा तृप्ति प्राप्त नहीं कर सकी । अपि तु इनके द्वारा बहुविध कर्कश और परम अशुभ दुःख प्राप्त किए हैं। गुजराती भाषान्तर: આ ભોગ અનંત વાર પ્રાપ્ત થયા છે. પરંતુ આત્માને તૃપ્તિ થઈ નથી, પરંતુ તે દ્વારા બહુવિધ ભયંકર અને પરમ અશુભ દુઃખ પ્રાપ્ત કર્યા છે. शाश्वत आत्मा ने एक ही नहीं, अनेक बार वर्ग के सिंहासन प्राप्त किये है। किन्तु सागरोपमों के वे असीम भोग भी यरिआत्मा को तुप्त नहीं कर सके तो सौ पचास वर्ष के सीमित भोग क्या तृप्ति दे सकेंगे। कामाण सग्मणं दुक्खं, तित्ती कामेसु तुलभा। विजुजोगो परं दुक्खं, साहक्खय परं सुहं ॥९॥ अर्थ:-कामों का अन्वेषण दुःश्च रूप है । काम में तो तृप्ति दुर्लभ ही है। और उनके वियोग के क्षणों में उससे भी अधिक दुःख है। अतः सदा सुख तो तृष्णा के क्षम में ही है। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवां अध्ययन गुजराती भाषान्तर: સાંસારિક વિષયોના ઉપગને શોધ જ કુખરૂપ છે, અને કામમાં તે તૃપ્તિ દુર્લભ છે, અને તેના વિયોગમાં તેનાથી પણું અધિક દુઃખ છે. માટે સાચું સુખ તે વિષયભોગની ઇચ્છાના સ્થમાં જ છે. भोगों की प्राप्ति स्वयं कटप्रद है। जब कि उनके वियोग के क्षण उनसे भी अधिक दुःख प्रदान करते हैं। जिनके सम्मिलन में दुःख है उनका विमोग गी दुखभरा हुआ है फिर उसने तृप्ति तो असंभव है। सृष्य काश्य ही सुख का मार्ग है। मिलाइए भगवान् महावीर की वाणी से "बुक्ख इयं जस्स न होइ मोहो"। उत्तरा० अध्ययन ३२ । काममोगाभिभूतप्पा, विच्छिण्णा वि णराहिया। फीति कित्ति इमं भोचा, दोग्गति यियसा गया ॥१०॥ अर्थ:--काम भोग से अभिभुत सम्राट सम्पूर्ण पृथ्वी को भोग कर विवश हो एक दिन उनसे विच्छिन्न होकर दुर्गति के पथिक बने । गुजराती भाषान्तर: વાસનાના ભોગથી અભિભૂત બનેલા સમ્રાટ સંપૂર્ણ પૃથ્વીને ભેગા કરીને વિવશ થઈ એક દિવસ તેનાથી વિચ્છિન્ન થઈને દુર્ગતિના પંથે વયા. बडे बड़े सम्राट जो कि एक दिन कहते थे कि मेरा एक बार हजारों वीरों को पृथ्वी पर सुला सकता है और उन्होंने तलवार के बल पर साम्राज्य कायम किया, दुनियों ने उनका दबदबा माना । किन्तु नलवार के बल पर स्थिर किया गया साम्राज्य तलवार के द्वारा ही विलीन हो गया । इतिहास ने देखा, मुस्कराया और बोला कि तुम तलवार के धनी हो पर ऐसे हजारों तलवार के धनी आए और गए उनकी रेखा भी काय नहीं रही। वही राह तुम्हारे लिए भी है और इतिहास अपगे नवनिर्माण के खागत में जुट गया । जो केवल अपने लिए ही जिमें हैं, अपना ऐशाआराम ही जिनका लक्ष्य रहा है. दुनियाँ बहुत जल्दी उनको भूल गई । परन्तु दूसरों के लिए जीने वाले लाग के पथिका को आज तक नहीं भूल पाहे है। काममोहितचित्तेणं, विहाराहारकंखिणा। दुग्गमे भयसंसारे, परीतं केसभागिणा ॥ ११॥ अर्थ-कामामिनिविष्ट अात्मा मोह की मदिरा में आहार विहार का आकांक्षी बनता है । और इस दुर्गम भय प्रद संसार में चारों ओर से फेश का भागी बनता है। गुजराती भाषान्तर: વિષયોના ઉપભોગમાં આસક્ત બનેલા મામા મોહના નશામાં જ મસ્ત રહેવા ઈચ્છે છે અને તેવો જ આહાર વિહાર તેને ગમે છે, તેથી જ આ દુર્ગમ ભયપ્રદ સંસારમાં ચારો તરફથ્રી કલેશના ભાગીદારીથી ઘેરાયેલો જણાય છે. सन्त का भोजन शरीर निर्वाह के लिए होता है। जब कि वासना प्रिय व्यक्ति का आहार विहार वासना की अभिवृद्धि के लिए होता है। कामासक्त आत्मा सुन्दर मनोज्ञ वस्तुओं का उपभोग चाइता है। किन्तु उसके ये मनोरम आहार और विहार ही उसके लिए अशान्ति के निमित्त बनते हैं। क्योंकि यदि मन को प्रिय लगने वाला भोजन सीमा से अधिक खा लिया गया तो बही रोग का निमश्रण हो जाएगा। ___ अप्पकत्तावराहोऽयं, जीवाणं भवसागरो। सेओ जरग्गवाणं वा अवसाणमि दुत्तरो॥ १२ ॥ अर्थ:-प्राणियों का अल्प अपराध म. भव सागर की वृद्धि करता है । वह पाप वृद्ध बल की भांति अन्त में दुरुत्तर होता है। गुजराती भाषान्तर: પ્રાણુઓનો નવો અપરાધ પણ ભવસાગરની વૃદ્ધિ કરે છે. તે પાપ વૃદ્ધ બળદની જેમ અન્તમાં મુશ્કેલી ભર્યું બને છે. मानव जब बासना की लहरों में बहा है तब वह न करने वाला काम भी कर डालता है। उसका परिणाम गलत आता है । अईतर्षि वही बतला रहे हैं । जैसे वृद्ध बैल के लिए जीवन की संख्या में यात्रा करना दुष्कर है। छोटी यात्रा भी Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० दी-लासिता उसके लिए हिमालय की चढाई होती है। अथवा वृद्ध वेल जिस प्रकार से प्रारम्भ में ठीक चलता है, किन्तु अन्त में उसकी बूढी रांग जबान देती हैं। उसके द्वारा यात्रा सुरक्षित नहीं हो सकती है । इसी प्रकार अशुभ परिणति प्रारम्भ में तो ठीक गति करती है और मानव उसके पीछे दौड़ता है। किन्तु अन्त में वह परिणति उसके लिए विघातक बन जाती है । अप्पकताऽचपहेहिं, जीवा पार्वति घेवणे । अप्पक्वतेहि सल्लेहिं, सल्लकारी व बेदणं ॥ १३ ॥ अर्थ:-आत्मकृत अपराधों के ही द्वारा आत्मा वेदना को प्राप्त करता है । आन्मक़त शल्यों के द्वारा ही शल्यकारी वेदना को पाता है। गुजराती भापान्तर: પોતે ( આત્માએ) કરેલા અપરાધની દ્વારા જ આત્મા વેદના(હુ)ની પ્રાપ્તિ કરે છે. આત્મકૃત શો દ્વારા શલ્યકારી વેદનાને પામે છે. हम अपनी ही गलतियों के द्वारा दुःख पाते हैं। इस मोटे सिद्धान्त को मानव आज तक समझ नहीं सका है। यदि इतनी सी समझ उसको आ जाती तो दुनिया की आधी अशान्ति समाप्त हो जाती । पर इस ज्ञान चेतना के अभाव में हम अपने दुःखों की जड़ दूसरे में खोजते है और उस व्यक्ति को ही दुःख का प्रमुख हेसु मान कर हम उसको नष्ट कर देना चाहते हैं। यह अज्ञान ही संघों का मूल है। मानव ! अपने सुख दुःख का विधाता तू स्वयं ही है। सुख के लिए तू क्यों दूसरों से मील मोगता है और दुःख के लिए क्यों दूसरों पर रोष ठेलता है। भगवान महावीर ने आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व पात्रा पुरी के अन्तिम प्रवचन में एक दिन इसी महान सत्य को जनता के सामने रखा था अप्पा कसा विकत्ता स सुहाण य दुहाण य। अप्पा मित्तममितं च बुटियो सुपहियो । -उत्तरा० अध्ययन । मेरे सुस्त दुःख का उत्तरदायित्व में स्वयं ले कर चलता हूं। दुनिया की कोई भी बाहरी ताकात न मुझे सुख दे सकती है और ने उसमें इतना साहस ही है कि मेरे एक अणु को भी दुःखी कर सके । निश्चयनय की यह भाषा मानव को आत्मविश्वास की अपूर्व ज्योति दे जाती है। जीवो अप्पोवघाताय, पउते मोहमोहितो। बद्धमोग्गरमालो वा, णवंतो बहुवारियो ॥ २४ ॥ अर्थ:-मोह मोहित आत्मा अपने ही उपघात के लिए पतन करता है । बन्ध स्प मुद्गल को ग्रहण करके बहुधा विश्व के रंगमंच पर नृत्य करता है। गुजराती भाषान्तर: મોહથી મોહિત બનેલો આત્મા પોતાના જ ઉપઘાતને માટે પતન કરે છે, અધરૂપ મુળને ગ્રહણું કરીને ઘણીવાર વિશ્વના રંગમંચ પર નાચે છે. मोह स्वयं ही एक बंधन है। मोह के तार सूक्ष्म है किन्तु उनकी पकड महरी होती है। भ्रमर कठोरतम सीसम को तोड सकता है, किन्तु कोमल कमल में वह बंध जाता है । कठोर सीसम को तोड़ देने वाला कोमल कमल को नहीं तोड सका इस प्रश्न का उत्तर होगा कि मोह के धागों ने उसकी शक्ति को कठोरता से आबद्ध कर रखा है। मोह के तारों से अंधा व्यक्ति अपनी शक्ति को कुंठित कर देता है। कभी वह स्वयं अपने आप को पतन के गहढे में डाल देता है । मोह बन्धनों से बद्ध प्राणी मुद्गल हाथ में लेकर विश्व रेग-मंच पर अनन्त काल से नृत्य करता चला आ रहा है। युग बीत गए पर नृत्य नहीं समाम हुआ। भारत का एक भक्त कवि कह रहा है कि: अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल। काम क्रोध को पहिरि चोसना कण्ठ विषय को माल । महाकवि सूरदासजी जिन्होंने आँख वालों को दृष्टि दी है, वे कहते हैं कि, हे प्रमो ! काम कोध का चोला पहन कर दुनिया के रंग-मंच पर मैं बहुत नाच चुका हूं, परन्तु अब विश्राम याहता हूं। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! अट्ठाईसवां अध्ययन असम्भावं पवति, दीणं भाति वीकवं । कामग्गदाभिभूतप्पा, जीवितं पहयंति य ॥ १५ ॥ अर्थ :--जो असद्भाव की प्रवर्तना करते हैं और दीन भाषा बोलते हैं ऐसे कामग्रहों से अभिभूत आत्मा जीवन को नष्ट कर देते हैं। गुजराती भाषान्तर:--- જે અસદ્ભાવની પ્રવતૅના કરે છે, અને દીન ભાષા બોલે છે. એવા કામગ્રહોથી હારેલો આત્મા જીવનને નષ્ટ उरी हे छे. १७१ कामाभिनिविन आश्मा पतन की इस सीमा तक पहुंच जाती है कि वासना के प्रति बाधक बनने वाले के प्रति उसके मन मैं दुर्भावनाएं रहती हैं। और उसका वाणी तेज समाप्त हो जाता है। हर समय दीन वाणी का प्रयोग करता रहता है। किसी के सामने निर्भीक हो कर बोलने का शौर्य वह खो बैठता है। एक दिन वह सिंह की भांति दहाड़ता है किन्तु जब वह किसी वासना के कुचक्र में पक जाता है तो सारे गर्जन और तर्जन भूल जाता है। उसकी राणी इतनी नम्र हो जाती है कि एक सन्त के जीभ से भी इतनी नम्रता नहीं टपकेगी। हिंसापति, कानसी केति माणया । विसं गाणं स विष्णाणं, फेइर्णेति हि संखयं ॥ १६ ॥ अर्थ :- कामप्रेरित आत्मा हिंसा और चोरी का भी आश्रय लेता है। ऐसे व्यक्ति संपत्ति, ज्ञान और विज्ञान सब कुछ खो बैठते हैं। गुजराती भाषान्तर:-- કામથી પ્રેરિત આત્મા હિંસા અને ચોરી પણ કરે છે. આવી વ્યક્તિઓ સંપત્તિ જ્ઞાન અને વિજ્ઞાન બધું मोहा मेसे छे. वारानाप्रेरित मन अपने पथ के माधक को दूर करने के लिए हिंसा को अपनाता है। बहुत-सी ऐसी घटनाएं हुई हैं कि काम के प्रस्ताव को ठुकरा देने पर प्रतिहिंसा की ज्वाला उसके हृदय में भभक उठी और उसने अपने प्रेमी को समाप्त भी कर दिया 1 कामी आत्मा चोरी से भी पीछे नहीं रह सकती है। क्योंकि वासना के क्षेत्र में अधिकार अनधिकार का प्रश्न ही नहीं उठता है। अनधिकार प्रवेश एक प्रकार की चोरी ही है। ऐसा व्यक्ति अपनी सम्पत्ति, ज्ञान और विज्ञान सब कुछ खो बैठता है, इसके लिए रावण को छोड कर दूसरे किसी के उदाहरण की आवश्यकता ही नहीं होगी। वासना की आंधी ने उसके विज्ञान के दीए को तुझा तो सोने की लंका उसकी आंखों के सामने ही रास्त्र की देरी हो गई । सदेवोरगगंध वं, सतिरिक्खं समाणुसं । कामपेजर संबद्धं, किस्सते विधेहं जगे ॥ १७ ॥ अर्थ :-- देव, उरग-सर्प, गंधर्व, पशु-संसार और मानवसृष्टि सभी काम के पंजर में यंत्र कर दुनिया में विविध कष्टों का अनुभव करते । गुजराती भाषान्सर : દેવ, ઉરણ—સર્જ, ગંધર્વ, પશુ–સંસાર, અને માનવસૃષ્ટિ અધા વાસનાના પિંજરામાં બંધાઈને દુનિયામાં વિવિધ કોને અનુભવે છે. बासना की शृंखला में देव, दानव और मानव सभी दलता से बद्ध हैं, पशु संसार भी उससे मुक्त नहीं है। चारों ओर के कष्टों को सहन कर भी मानव वासना का परित्याग करने के लिए तैयार नहीं होता है । कामग्गह विणिमुक्का, धण्णा धीरा जिर्तिदिया । वितरति मेणि रम्मं, सुद्धप्पा सुद्धवादिणो ॥ १८ ॥ अर्थ :- कामग्रह से विनिर्मुक्त घोर जितेन्द्रिय आत्माएँ धन्य हैं ऐसी शुद्ध शदी शुद्ध आत्माएँ इस रम्य लगने वाली मेदिनी-- पृथ्वी को पार कर जाते हैं। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R गुजराती भाषान्तर: કામગ્રહથી છુટા પડેલા ધીર, તેંદ્રિય આત્માઓ ધન્ય છે. એવા શુદ્ધવાદી શુદ્ધ આત્માઓ આ સુંદર દેખાવવાળી મેદિની-પૃથ્વીને પાર કરે છે. इसि - भासियाई वासना की लहरें जिस आत्मा को छू नहीं सकर्ती । यथार्थतः वे आत्माएँ धन्य हैं। वे ही शुद्धात्माएँ इस चमक भरी पृथ्वी को पार कर सकती हैं। सौन्दर्यभरी दुनिया मानव मन का सबसे बडा नागपाश है। जिसमें वासनालिप्त आत्मा के लिए बहुत बडा बन्धन | जो रेशमी तारों से बना है पर छोह शृंखलाओं से भी अधिक दुर्भव है । जिसने वासना की रस्सी को तोड़ कर फेंका है उसके लिए दूसरे बंधन को तोडना कथे श्रागे को तोड़ने के समान है। मिलाइए भगवान महावीर के अन्तिम प्रवचन एए य संगे समइक भित्ता, सदुत्तरा खेव भवंति सेना । जहा महासागरमुत्तरिता, न भवे अवि गंगासमाणा । 1 - उत्तरा० अध्ययन ३२ गाथा १८ । जिसने काम राम पर विजय पा लिया है उसके लिए दूसरे परिषदों पर विजय पाना ऐसा ही है जैसा कि महासागर तैर कर आने वाले के लिए गंगा को पार कर देना । जे गिद्धे कामभोगे, पाबाई कुरुसे नरे । से संसरति संसारं, चाउरंतं महन्भयं ॥ १९ ॥ अर्थ -- जो मानव भोगों में गिद्ध हो कर पाप करते हैं वे मद्दाभयशील चतुरंग संसार में भटकते हैं और परिभ्रमण करते हैं। गुजराती भाषान्तर : જે માનવ ભોગોમાં આસક્ત થઈને પાપ કરે છે તે મહાલય શીલ ચતુરંગ સંસારમાં ભટકે છે અને પરિ ભ્રમણ કરે છે. वासना-सत मानव के लिए संसार का पथ विशाल है। वासना के कीचड में ही पाप के पौधे लगते हैं । जहा निस्साचिणीं नाथं, जाति-अंधो दुरुहिया | इच्छते पारमार्ग, अंतरे चिय सीदति ॥ २० ॥ अर्थ :--- जैसे निखाविणी अर्थात्-छिद्र रहित नौका पर जन्मान्ध बैठता है यदि वह पार पहुंचना चाहता है किन्तु चीन में ही वह कष्ट पाता हैं। गुजराती भाषान्तरः नौका यदि ठीक भी है किन्तु उसका यात्री (कर्णधार) ही मानव शरीर सुन्दर हैं किन्तु यदि उसको स्वामी के पास विवेक का सकता है । साधन सुन्दर है किन्तु यदि उसका उपयोग कर्ता कुशल सुरक्षा साधन की विवेकशीलता पर निर्भर करती है। જેવી રીતે નિસાવિષ્ણુી અર્થાત્ છિદ્રત નૌકા (ભલે હોય) પણ જન્મથી જ આંધળો માણસ તેનો ખલાસી (કર્ણધાર) હોય અને તે પાર પહોંચવા માગતો હોય તો પોતાના અંધત્વને લિધે તે વચમાં જ આફતનો ભોગ થઈ પડે છે. अन्धा है तो उसकी यात्रा विडंबनापूर्ण ही होगी । प्रकाश नहीं है तो वह अपने लक्ष्य पर नहीं पहुंच नहीं है तो साधन की सुन्दरता व्यर्थ है । साधन की अहपण अरहता इसिणा बुझतं काले काले य मेहावी, पंढिए य खणे खणे । कालातो कंत्रणस्सेव, उबरे मालमपणो ॥ २१ ॥ अर्थ :- मेघावी पंडित प्रति- समय और प्रतिक्षण-त्वर्ण की भांति अपना मैल दूर करे। आर्द्रक अर्हतर्षि इस प्रकार बोले । गुजराती भाषान्तर : બુદ્ધિમાન પંડિત હરઘડી અને પ્રતિક્ષણ સોનાની જેમ ( પોતાની શાંતિથી ) મેલ દૂર કરે. આક અર્હત્તષિ આ પ્રમાણે બોલ્યા, T Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवां अध्ययन १७३ केशर का व्यापारी प्रतिक्षण सावधान रहता है। कार में धूल पड़ती है तो उसका मूल्य कम हो जाता है। मेधावी प्रतिक्षण जीवन के मल का दूर करने के लिए सचेष्ट रहता है। स्वर्ण का मैल उसकी कौति को दूर करता है और स्वर्णकार म्वर्ण की मैल को दूर करता है, इसी लगन के साथ साधक आत्म मल को दूर करे। अंजणस्स खयं दिस्त, वम्भीयस्स य संचयं ।। मधुस्स य समाहार, उज्जमो संजमे रो॥२२॥ अर्थ:-अंजन का क्षय वल्नीक का संचय और मधु का समाहार-संग्रह देख कर निचित होता है कि संयम में ही पुरुषार्थ करना चाहिए। गुजराती भाषान्तर: કાજળ નાશ, ફડાનું નિર્માણ, મધનો સંગ્રહ આ વસ્તુઓને ઉો વિચાર કરીએ તો નિશ્ચિત થાય છે કે સંયમમાટે જ પ્રયત્ન કરવો જોઈએ. दीपक जल जल करके अपनी आहुति दे कर काजल को तैयार करता है। किन्तु वह काजल आंखों में जाते ही समाप्त हो जाता है । वल्मीक कीड़ा विशेष अत्यन्त मेहनत के साथ अपना घर बनाता है किन्तु उस श्रमसाधना द्वारा बनाया गया घर भी पशु या मानव के एक ही पाद-प्रहार से समाप्त हो जाता है । मधुमक्षिकाएं इधर उधर से मधु बिन्दु लेकर मधु-छन का निर्माण करती हैं। किन्तु क्रूर मधुग्राही धुवां छोडता है और सभी मधु मक्खियां अपनी जान बचा कर बढ़ जाती है। इधर महीनी की श्रमसाधना से एहत्रित मधु को मानव एक घंटे में ही लेकर चला जाता है। दूसरे के पुरुषार्थ से निर्मित वस्तु का अपहर्ता चोर है। ऐसा करना शोषण में समाविष्ट होता है, क्योंकि वह दूसरे के श्रम का अनुचित लाभ उठाता है। इसी प्रकार से एक किसान वर्ष भर से धूप और वर्षा में खेती करता है, जेठ की धूप में भूमि को साफ करता है, वर्षा की झडियों में खेल की कीचड़ भरी भूमि में वीज चोता है, वर्ष भर तक श्रमसाधना करता है और उसका लेनदार साहूकार एक ही दिन में धान्य राशि को लेकर चल देता है। किसान के नन्हे नन्हे बच्चे आंसू भरी आंखों से देखते ही रह जाते हैं : यह क्या बोरी नहीं है ? ऐस्त करने वाला शोषक है । दूसरी दृष्टि से देखा जाय तो सब का पुरुषार्थ निकम्मा गया। क्योंकि उसका परिणाम मलत आया। क्योंकि वह पुरुषार्थ भौतिक के लिए किया गया था । जरध्यात्म-साधना के लिए किया गया पुरुषार्थ कभी निष्फल नहीं जाता है, क्योंकि आध्यात्मिक सद्गों को अपहरण करने की ताकत किसी में नहीं है। अतः अहत ऋषि कहते हैं कि इन रामी परिणामों को देख कर साधक को चाहिए कि वह संयम में पुरुषार्थ करे। टीका:-अंजनस्य कज्जलस्य क्षयं वल्मीकस्य च संचयं मधुनचाहारं चिरकालीनमहला पुरुषस्य संयमोघमो बरः श्रेयान् भवेत् , नतु कामः । गतार्थः। उचादीयं यं विकल्पं तु, भावणाए विभावए । ण हेमं दंतकट्ठ तु, चमवट्टी चि खादप ॥ २३ ॥ अर्थ:-उच्च आदि के विकल्प केवल भायना पर आधारित है। चक्रवत्ता भी वर्ण दन्तकाष्ट नहीं खाता है। गुजराती भाषान्तरः ઉચ્ચ નીચ વિગેરે ભેદભાવ કેવળ ભાવના પર જ આધારિત છે, કેમ કે ચક્રવર્તિ પણ સોનાના દાંતણથી મે साई ४२ता नथी, उच्चता और नीचता सम्पति और विपत्ति की भूमि मानव का मन ही है। बकवी भी अमाज की ही रोटियां खाता है । आज तक इतिहास में कोई भी राजा या चकवर्ती मोती या स्वर्ण की रोटी या भान नहीं खाए हैं । किन्तु यह तो मानव मन की तृष्णा ही है कि जिसके द्वारा रात दिन सम्पत्ति के अर्जन में लगा रहता है और सम्पत्ति दालों को प्रथमश्रेणी का मानव समझता है। १ दंतकट्ठ-दातीन का एक अर्थ कट या यूष ओषामन या घी में भून कर चावल की कांजी भी किया गया है। उपासक दशा अ० १ उपभोग परिमाण विधि। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ इसि-भासियाई टीका: उच्चावचं गोत्रमधिकृत्य विकल्प भावनायानुप्रेक्षादिना विभावयेत् न हैमका खादेत खादित कामयेत् चक्रवत्यपि । गतार्थः । खण-थोव-मुघुतमंसरं, सुविहित पाउणमप्पकालियं । तस्सवि विपुले फलागमे, किं पुण जे सिद्धि परक्कमे ॥ २४ ॥ अर्थ:-क्षणस्तोक और मुहूर्त मात्र अल्प समय भावी शुभ क्रिया विपुल फल दे जाती है। फिर जो सिद्धं स्थिति के लिए पुरुषार्थ करते हैं उनकी साधना का तो कहना ही क्या।। गुजराती भाषान्तर: કોઈ પણ સારું કાર્ય એક ક્ષણ સુધી પણ કરે છે તે સારું કામ ઘણું જ મોટું ફળ જરૂર આપે છે, અને જે સિદ્ધ સ્થિતિ મેળવા માટે જ પ્રયત્ન કરે છે તેનું શું કહેવું ? शुभ क्रिया यदि एक क्षण के लिए भी जीवन में आती है तो बह फलवती होती है। फिर जिन साधकों का सारा जीबन सिद्ध-स्थिति पाने के लिये है वे तो तथ्यरूप से सिद्धि के निकट पहुंच ही जाते हैं। टीका:-हे सुविहितपुरुष! भल्पकालकमन्तरं क्षणोकमुहर्तमान प्राप्त तस्य विभावतोऽपि विपुलः फसागमे किं पुनस्तस्य यः सिद्धि प्रति पराक्रमेत् । गतार्थः । एवं से सिद्धे बुद्धे ॥ गतार्थः । अद्दबज नाम अष्टाविंशतितमं आईकीयं अध्ययनम् । वर्द्धमान अर्हतर्षि प्रोक उनतीसवां अध्ययन साधन के क्षेत्र में इन्द्रिय-निग्रह महत्व का स्थान रखता है। क्योंकि इन्द्रियों के घोड़े आत्मा के रथ को खींचते हैं। यदि अश्व बेलगाम हुए तो रथ अवश्य पथभ्रष्ट होगा और उसका यात्री क्षतिग्रस्त होगा । अतः कुशल सारथि अश्व की लगाम अपने हाथ में रखता है और सदैव जागरुक रहता है कि अश्व कहीं विषयगामी न बने । पर आत्मा के इस रथ का सारथि मन है। मन जिस और प्रेरणा देगा इन्द्रियो उसी ओर दौड़ जाएंगी अतः अश्व के साथ उसका सारथि मी प्रशिक्षित होना चाहिये । संयमित मन ही इन्द्रियों पर शासन कर सकता है और वहीं कर्म लोत को सुखा भी सकता है। . किसी तालाब को सुखाना है तो सर्व प्रथम उसके आगमन द्वार को रोक कर जलस्रोत सुखाना होगा। ऐसे ही यदि मन के तालाब को सुखाना है उसे वासना की जलराशि से मुक्त करना है तो पहले वासना के आगमनद्वार को रोकना होगा। जब तक जलराशि के स्रोत को रोक नहीं दिया जाय तब तक उसे मुखाने के समस्त प्रयत समय और श्रम का अपव्यय ही कहे जायेंगे। वे स्रोत क्या है और उनके निरोध के उपाय क्या है यही बताना प्रस्तुत अध्ययन का विषय है। सर्वति सव्वतो सोता किंण सोतोणिचारण ?। पुढे मुणी आढने कहं सोतो पिहिजाति ? ॥१॥ अर्थ:-सभी ओर के स्रोत बह रहे हैं, क्या उस स्रोत का निरोध नहीं हो सकता? इस प्रकार पूछे जाने पर मुनि बोले कि किस प्रकार स्रोत को रोका जा सकता है। गुजराती भाषान्तर: ચારો બાજુના સ્ત્રોતો વહે છે, ત્યારે તે સ્ત્રોતનો અટકાવ કરવો અશક્ય છે કે ? એમ પુછતાંજ તો કેવી રીત અટકાવ થવો સંભવ છે તે મુનિ બોલવા લાગ્યા. + १ जहा महातलायरस समिरुले जलागमे । उसिलवणाए तवणाए क्रमेण सोसणा भये ॥ -दत्तराध्ययन भ. ३० गाथा ५ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनतीसवां अध्ययन टीकाः सति सर्वतः स्रोतांसि, किं न स्रोतो निवारणम् ? कथं स्रोतः विधीयत इति पृष्टो मुनिराख्यायत् । सभी ओर स्रोत बह रहे हैं। जब तक आत्मा संसार स्थिति में है सम तक वासना उसके साथ है और बही वासना कर्मस्रोत को चालू रखती है। वह स्रोत क्या है उसका निरोध कैसे किया जा सकता है वर्धमान अर्हता उस पर विस्तृत प्रकाश डाल रहे है। बद्रमाणेण अरहता इसिणा युइयं पंच जागरओ सुत्ता पंच सुत्तस्स जागरा। चाहिं रयमादियांत पंचहिरयं टए॥२॥ अर्थ:-जिसकी पांचों इन्द्रियो जागृत हैं बह सुन है और जिसकी पांचों इन्द्रियां सुप्त हैं वह आत्मा जायत है। पांचों इन्द्रियों के द्वारा ही आत्मा कर्म रजको प्रहण करता है और अप्रमत्त मुनि उनके द्वारा कर्म रज को रोकता है। ऐसा पर्दमान अर्हतर्षि बोले। गुजराती भाषान्तर: જે માણસની પાંચે ઈદ્રિયો જાગ્રત છે. તે માણસ સુખ (મુતેલો) છે, અને જેના પાંચ ઇંદ્રિય સુH (વાસનાથી રહિત એટલે સુતેલી) છે, તે આત્મા જાગ્રત છે એમ સમજવું). કારણ પાંચે ઈદ્રિયોની મદદથી જ આત્મા કર્મરાજનો સ્વીકાર કરે છે અને શિયા મુનિ પીચ છ मईतर्विगोमा पूर्व माथा में बताया गया है कि स्रोत बह रहे है क्या है प्रस्तुत माथा में उसे स्पष्ट किया है। पांच इन्द्रियां ही वह स्रोत है जिसके द्वारा आत्मा कर्म रज को ग्रहण करता है। जिसकी इन्द्रियां जानते हैं वह मुप्त है। इन्द्रियां जिसके घश में हैं वह साधक है और जो इन्द्रियों के वश में वह वासना का गुलाम हैं। उसकी स्थिति उस सबार जैसी होती है जिसके हाथ में लगाम नहीं है। उत्तके इशारे पर घोड़ा नहीं चलता अपि तु घोड़े के इशारों पर उसे चलना पड़ता है। इन्द्रियों के संकेतों पर चलनेवाला व्यक्ति सही लक्ष्य पर पहुंच नहीं सकता । गीता भी कहती है 'वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिधिता' ।-गीता अपनी इन्द्रियो जिसके वश में हैं उसी की बुद्धि स्थिर है। आगम में साधक के लिये निर्देश आया है उसकी इन्द्रियां प्रशस्त पथ की ओर है तो वह उन्हें चलने दे किन्तु जब वे अपशस्त्र पथ में जाने लगे तभी उनकी गति को रोक दे, जैसे कछुआ जब अपने आपको सुरक्षित समझता है तब तक माजादी से घूमता है किन्तु जिस क्षण उसे प्रहार की आशंका होती है उसी क्षण अपने अंगों को समेट लेता है। साधक प्रशस्त पथ का उपासक है वह प्रशस्त पथ में ही गति करे। दक्षिण के महान संत तिरुवल्लूर भी अपने विरल में लिखते हैं जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को उसी तरह अपने में खींचकर रखता है जिस तरह कछुआ अपने हाथ पांव को खींचकर भीतर छिपा लेता है, उसने अपने समस्त आगामी जन्मों के लिये खजाना जमा कर रखता है। टीका: जागरतोऽप्रमत्तस्य मुनिरिन्द्रियाणि पंच सुप्तानि, सुसस्थामुनेस्तु पंच जागरति । पंचभिः सुप्ते रज आदी. यते, पंचम्यो जाग्रद्भिः रजः स्त्राप्यते ।। अप्रमत्त साधक की पांचों इन्द्रियां सुप्त हैं जब कि प्रमत्त साधक की पांचों हन्द्रियां जागृत रहती हैं। सप्त साधक पांचों इन्द्रियों के द्वारा कर्म रज ग्रहण करता है जब कि जाग्रत साधक पांचों इन्द्रियों के द्वारा कर्म रज को रोकता है। सई सोतमुपादाय मणुपण वा वि पावगं । मणुण्णम्मि ण रजेज्जा ण पदुसेजा हि पावए ॥ ३॥ मणुण्णम्मि अरजते अदुढे इयरम्मि य । असुत्ते अविरोधीणं पवं सोप पिहिजति ॥ ४॥ १ जहां कुम्मो विवस अंगाई स देहे समाहरे । यदा संहरते चामं कूर्मोकानीच सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता। गीता अं० २ श्लो०२८ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासिया अर्थ:-श्रोत्र के द्वारा मनोज्ञ अधवा अमनोज्ञ शब्द को पाकर साधक समचित्त रहे । मनोज्ञ शब्द में अनुरक्त न हो और अमनोज्ञ पर द्वेष न करे । मनोज शब्दों में अनुरदक न हो और अमनोज्ञ में देष न करता हुआ साधक अविरोधी में जाप्रत रहकर कर्म स्रोत को रोकता है। गुजराती भाषान्तर: સાધકે સુંદર કે મીઠા શબ્દો કે ખરાબ શબ્દો સાંભળીને ( ચલિત ન થના) સમચિત્ત રહેવા જોઈએ. મીઠા શબન્ને આકર્ષિત થવું ન જોઈએ ને ખરાબ શકોપર પણ દ્વેષ કર ન જોઈએ. મીઠા શબ્દોમાં અનુરાગ ન કરતા અને દિલ દુખાવનાર શબ્દોમાં દુખની ભાવના ન રાખનાર સાધક અસંરક્ષણ અને સાવધાન રહી કર્મોતને બંધ शश छे. / कर्णेन्द्रिय का स्वगाव है शब्द को प्रहण करना । अच्छे या बुरे मधुर या कटु, जो मी शब्द आते हैं कान उसको ग्रहण करेगा ही। साधक कान को बन्द करके चल नहीं सकता और चलना चाहिए भी नहीं । उसका काम इतना ही है कि वह मधुर शब्दों पर अनुरक्त न होकर उसमें अपने कर्तव्य को भूल न जाए। मधुरता के प्रवाह में न बह जाए और कटु शब्द कान पर आवें तब भी वह अपना विवेक न खो बैठे। क्योंकि किसी भी मूल्यवान वस्तु को खोकर भी मनुष्य इतना नहीं खोता जितना कि वह अपना विवेक खोकर सोता है। हजार रुपये होकर आपने कुछ नहीं खोया हैं किन्तु जब आप अपना मिजाज खो देते हैं तब आप समझ लीजिए कि आपने सब कुछ खो दिया। श्रवणेन्द्रिय अपना काम करे और साधक अपना काम करे, उसके बहाव में वह अपनी समभाव की साधना न सोये । रूचं चक्खुमुवादाय मणुण्णं चावि पायगं। मणुणमि पा रज्जेज्जा पदुज्मा हि पावर ।। ५ ।। मणुणमि अरज्जंते अदुढे इयरम्मि य । असुरते अधिरोधीणं एवं सोप पिहिज्जति ॥ ६॥ अर्थ:--चक्षु के द्वारा सुन्दर या असुन्दर रूप को ग्रय करके साधक मनोज्ञ में रक्त न हो और अमनोज्ञ पर प्रद्वेष न करे। मनोज्ञ में आसक्त न हो और अमनोज्ञ में ट्रेप न करे । साथ ही अधिरोधी रूप में जाग्रत रह कर साधक स्रोत को रोक सकता है। गुजराती भाषान्तर: * આંખોથી ખબસૂરત કે બદસૂરત જોઈને સાધકના મનનાં સુંદર માટે આસન કે ખરાબ માટે દેવ ઉત્પન્ન થવો ન જોઈએ. સુંદર રૂપમાં અનાસક્ત અને ખરાબ સ્વરૂપમાટે તિરસ્કાર ન છતાં પણ અવિરોધી પોતાની ભૂમિકામાં જાગૃત રહી સ્ત્રોતને રોકી શકે છે. मनोज और अमनोज्ञ रूप में साधक रामस्थिति रखे। जो रूप उसके साधना पथ में अविरोधी है उसमें सदैव जाग्रत रहे । ऐयापन, देव और गुरु के दर्शन, खाध्याय आदि में चक्षु का उपयोग आवश्यक है और वह साधना में अविरोधी है अतः उसके लिये साधक सदैव जाग्रत रहे । गंध घाणमुवादाय मणुण पावि पावगं । मणुगणं मि ण रज्जेज्जा ण पदुसेजा हि पावर ॥ ७ ॥ मगुण्णमि अरजते अदुठेयरम्मिय। __ असुत्ते अविरोधीणं एव सोप पिहिज्जति ॥ ८॥ अर्थ:- नासिका के द्वारा सुगंध या दुर्गध को ग्रहण करके साधक सुगन्ध में आसक्ति न रस्से और दुर्गन्ध पर प्रद्वेष न करे । मनोज्ञ गंध में आसक न हो और अमनोज्ञ में प्रद्वेष न करे और अविरोधी गंध पर सजग रहे । इस प्रकार साधक स्रोत को रोक सकता है। गुजराती भाषान्तर: નાકથી ખુશી કે ખરાબ વાસ લઈ લેવો, પણ) સાધકે સુગંધ ઉપર આસક્તિ રાખવી નહી કે પરાબ વાસને ષ પણ નહી કરવો. સુગંધ ઉપર મોહિત ન બનવું અને દુર્ગધ તરફ જરાપણ તિરસ્કાર કરવો નહી અને એવી રીતે પિતાના અવિરોધ વૃત્તિ રાખી સાધક સ્રોત (ઈદ્રિ) પર નિર્બધ રાખી શકે છે. Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनतीसवां अध्ययन रसं जिन्भमुपादाय मण्णुणं वा वि पावगं । मणुष्णंमिण रज्जेज्जा पण पदुज्जास्से हि पावर ॥ ९ ॥ मिरज अड्डे इयरम्मिय । असुत्ते अविरोधीणं एवं खोप पिहिजति ॥ १० ॥ अर्थ :- जीभ मधुर या कटु रस को ग्रहण करती है । किन्तु साधक मधुर रस में आसक्त न हो और कटु रस पर द्वेष न करे । मनोज्ञ रस में आसक्त न हो और थमनोज्ञ रम पर द्वेष न रखे तथा अविरोधी रस पर सजग रहे। इस प्रकार वह स्रोत को रोकता है। गुजराती भाषान्तर: જીભ મીઠો કે કડવો સ્વાદ લે છે. પણ સાધક મનુષ્ય મીઠા રસમાં લોલુપ ( આતુર ) કે કડવા રસમાં તિસ્કાર ( અણુગમો ) કરવો નહીં, મનગમતા મીઠા સ્વાદમાં અભિરુચિ અને બદબૂ (ખરાબ વાસ) પર તિરસ્કાર કરવો નહીં. અને એવી અવિરોધી વૃત્તિપર ગૃત રહે, એવી રીતે સાધક ઓતનો અઢકાવ કરે છે. फासं तयमुचादाय मणुष्णं वा वि पावगं । मशुण्णसि ण रज्जेजा ण पदुलेजा हि पाश्र्व ॥ ११ ॥ म अरजंते अकुडे इथरम्मिय । असुत्ते अविरोधीणं एवं सोए पिजिति ॥ १२ ॥ अर्थ: खचा के द्वारा कोमल या कठोर स्पर्श का ज्ञान होता है । साधक कोमल स्पर्श पर अनुरक्त न हो और कठोर स्पर्श पर प्रद्वेष न करे । मनोज्ञ स्पर्श पर राग न करे और अमनोज्ञ स्पर्श पर द्वेष न करे और अविरोधी स्पर्श में सदैव सजग रहे । इस प्रकार वह स्रोत को रोक सकता है। १७७ गुजराती भाषान्तर : ચામડીથી ( પદાર્થને અડકવાથી), વસ્તુ કોમલ છે કે કઠણ છે તેનું જ્ઞાન થાય છે. સાધકે કોમલ સ્પર્શ માટે લોલુપતા કે કઠણુ સ્પર્શ માટે નાપસંદગી દેખાડવી એ તેને માટે અયોગ્ય છે. સાધકને કોમલ સ્પર્શમાં આસક્તિ અને કાણુ સ્પર્શમાં તિરસ્કાર ન હોવો જોઈ એ તેમજ અવિરોધી સ્પર્શમાં સાધકે હંમેશા સાવધાન રહેવું જોઇએ; જેથી તે ઓતોને અટકાવ કરી શકે. 1 टीका :- स्रोतं रूपं चक्षुगंध घ्राणं, रसं जिन्दा स्पर्श त्वगुपादाय मनोज्ञं वा पापकं वा । मनोशे न रज्येद पापके न प्रदुष्येत् । मनोज्ञ अरज्यति मुनौ इतरस्मिन् अमनोज्ञे न दुष्टे अविरोधिषूदासीनेषु वस्तुष्पसुसो भवेनानुयात् एवं स्त्रोतः पित्रीयते । गतार्थः । २३ दुदंता इंदिया पंच संसाराय सरीरिणं । ते चैव नियमिया सम्मं व्वाणाय भवति हि ॥ १३ ॥ अर्थ :- दुर्दान्त बनी हुई पांचों इन्द्रियां आत्मा के लिये संसार की हेतु होती हैं। जब वे ही इन्द्रियां सम्यक् प्रकार से संयमित होती हैं तो निर्वाण का कारण बनती है । गुजराती भाषान्तरः પાંચે દ્રિયો સંયમનગરના જ્યારે થાય છે ત્યારે તે ઇંદ્રિયોજ સંસારના કારણુ અને છે, અને જ્યારે તે ઇંદ્રિયો ઉપર સારી રીતે કાબુ મેળવશો ત્યારે તે જ નિર્વાણુ-પ્રાપ્તિના કારણુ બની જાય છે. विषय पथ की ओर दौड़नेवाली इन्द्रियाँ आत्मा के लिये भव वृद्धि का कारण बनती हैं। किन्तु जब उन पर ज्ञान का अंकुश रहे और ने सुपथ-गामिनी होती हैं तो वे ही इन्द्रियां आत्मा को निर्वाण की दिशा में भी ले जा सती हैं । दुहिंदिपहा दुप्पहं हीरण बला । दुर्दतेहिं तुरंगे हिं सारही वा महापहे ॥ १४ ॥ इंदिप हि सुतेहिं ण संचरति गोयरं । विधेयेहिं तुरंगे हिंसारहि व्वा व संजय ॥ १५ ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-आसियाई अK:-.. दुध इनिस आत्मा चलपूर्वक दुष्पथ में ले जाया जाता है जैसे कि दुर्दान्त घोचे के द्वारा सारथी महापथ में (विकट पथ) में ले जाया जाता है। मुनि की संयमित की हुई इन्द्रियाँ विषय की ओर वैसे ही नहीं जाती जैसे कि शिक्षित अश्व सारथि को सुपथ में ले जाते हैं। गुजराती भाषान्तरः રાંયમરહિત ઈકિ પોતાની શક્તિથી આત્માને ખોટા માર્ગે લઈ જઈ તેફાની (કાબૂમાં ન રહે તેવા). ઘોડાની જેમ ખાડાર્વતારી દે છે. સંયમી મુનિની સંયમિત ઈદ્રિયો કેળવાયેલ ઘોડા મુજબ આડે રસ્તે લઈ भवानी संभव नथी. इन्द्रिय संयम की आवश्यकता बताते हुए ऋषि ने एक सुन्दर रूपक दिया है। जिस साधक की इन्द्रियां संयमित हैं तो वे उसे सदैव शान्ति के पक्ष में ले जाएंगी और यदि साधक इन्द्रियों का गुलाम है तो उस पर शासन करेंगी और साधक को अपने इशारों पर चलने के लिए बाध्य कर देंगी, इसके लिये अश्व का रूप दिया गया है। यदि अश्व अधिक्षित है तो वे साररि को गलत मार्ग पर ले जाएंगे। घोड़े की लगाम आदमी के हाथ में नहीं है तो फिर आदमी की लगाम घोड़े के हाथ में आ जाती है और फिर उसे घोड़ों के इशारों पर चलने को बाध्य होना पकता है। पर कुशल सारथि के शिक्षित घोड़े उसके इशारों पर चलते हैं और वह शीघ्र अपने लक्ष्य पर पहुंच जाता है। साधक को यदि अपने लक्ष्य पर पहुंचना है तो उसे इन्द्रियों के श्वों को शिक्षित और संयमित बनाने का अभ्यास करना होगा। पूर्व मणं जिणित्ताणं चारे विसथगोयरं। • विवेयं गयमारूढो सूरो धा गहितायुधो ॥ १६ ॥ अर्थ:-साधक पहले मन पर विजय पाये, फिर विवेक रूपी गज पर आरूल होकर शव सब पीर की भांति इन्द्रियों को विषय की ओर जाने से रोके । गुजराती भाषान्तर: પહેલા સાધક પોતાના મન ઉપર કાબુ મેળવે અને ત્યાર પછી વિવેકાપી હાથી ઉપર સવાર થઈ જાય અને ત્યાર પછી તે હથીયારોથી સજજ યોદ્ધાની માફક વિષયોતરફ ઘસડાતા ઈદ્રિયોને અટકી શકે છે. इन्द्रियों पर विजय पाने के पूर्व साधक को मन पर विजय पाना होगा, क्योंकि मन ही शक्ति का केन्द्र है। वही इन्द्रियों को प्रेरित करता है, अन्यथा इन्द्रियां तो जड़ हैं । वेग से घूमते हुए पंखे को रोकना है तो पहले बटन बन्द करना होगा, अन्यथा चूमते हुए पंखे को पकड़ने जायेंगे तो अंगुलियां भले कट जावें, पन्ने की गति कम नहीं हो सकती। इन्द्रियों के पंखे को रोकना है तो पहले मन के खीच को दबाना होगा। प्रस्तुत गाथा इन्द्रियों को साधने की दिशा में महत्त्वपूर्ण संकेत दे रही है। इन्द्रियों का मारना नहीं है, उन्हें साधना है और उसका तरीका है पहले मन पर विवेक का अंकुश रखनः । प्राचीन कहानियों में मुना गया है किसी साक्क की अखि किसी रमणी की रूप मधुरिमा में उलझ गई तो उसने अपनी आंख फोर डाली, किसी के हाथों ने अनधिकार के फल ले लिये तो उसने अपने हाथ ही काट डाले। किन्तु यह सब तो वैसा ही हुआ कि कोई लड़का पैंसिल से गन्दे शब्द लिखता है तो पैसिल छीन ली जाए और वह फाउन्टन से गन्दे चित्र खींचता है तो फाउन्टन पेन को तोड़ डाला जाय; पर यह समस्या सही हल नहीं है । फाउन्टन या पैन्सिल तोड़ कर लड़के की आदत को बदला नहीं जा सकता, उसकी वृत्ति को बदलना होगा। उसके मन में उल्कान्ति लाना होगा क्योंकि वे तो बाहिरी उपकरण है, उनका कोई खास महत्व नहीं है। ऐसे ही इन्द्रियाँ भी बाहिरी उपकरण हैं और एक रूप में वे जब हैं। मन ही उनके द्वारा ज्ञान करता है। अतः इन्द्रियों को नहीं मन को जीतना होगा। ___ कैशी गौतम संवाद में महामुनि गौतम शत्रुविजय के लिये सर्व प्रथम एक महान् शत्रु पर विजय पाने का निर्देश करते है-एक को जीत लेने पर पांच [इन्द्रियां] को आप काबू में कर सकते है और पांच के जीत लेने पर दस शत्रु पर विजय पा सकते हैं और दस पर विजय पा लेने के बाद समस्त शत्रुओं पर विजय पा सकते हैं। तं नो हाई जं अचेयणाई जाणंति न घडोव ।। -विशेषावश्यक भाष्य Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनतीसर्वा अध्ययन एगे जिए जिया पंच, पंच लिए जिया वस । सहा मिर्ग, सम्वाससजिनामई ॥ -सराध्ययन २३ ।, गाथा ३६ मानव का मन भी एक युद्धभूमि है। जहा हमेश शुभ और अशुभ का युद्ध चलता है। हमारे भीतर राम भी है और रावण भी। विजय उसी की होती है जिसके पास सेना विशाल है। सदनिया राम की ओर से लड़ती है ओर असदतियां रावण के नेतृत्व में युद्ध करती है। अन्तर के इस युद्ध में विजय पाने के लिये विवेक रूपी इस्ति पर आरूढ़ होना होगा। शुभ संकल्प और प्रशस्त अध्यवसाय रूप शन्नों को ग्रहण करना होगा और युद्ध में उतरे हुए सैनिक का अदम्य उत्साह होगा तो विजय हमारे साथ है। जिसा मणं कसाए या जो सम्म कुरुते तवं। संविप्पते स सुद्धप्पा अग्गी वा विसाहुते ॥ १७ ।। अर्थः-मन और कषायों पर विजय पाकर जो साधक तप करता है वह शुद्धात्मा हविष ( होम के योग्य पदार्थो) से आहुत अग्नि की भौति देदीप्यमान होता है। गुजराती भाषान्तर: જે મન અને કષાય ઉપર કાબુ (જય મેળવીને સાધક તપસ્યાનું આચરણ કરે છે તે પવિત્ર આત્મા હવિસ (યનમાં અર્પણ કરવાના દ્રવ્યો)થી હવન કરેલા અગ્નિની જેમ તેજ:પુંજ બની જશે. इन्द्रिय-जय के लिये साधक तपः साधना करता है, किन्तु उसकी साधना में फल तमी लग सकते हैं जब कि वह कषाय और मन पर विजय पा ले। कषाय और साधना दोनों साथ चल नहीं सकते। क्योंकि तप और कषाय का मेल नहीं होता। पर आज तो बळी गंगा बह रही है। तपस्वी मधकों का मन भी एकदम-तप अहता है और लोग भी कह उरते हैं, तपस्या के साथ तेजोलेल्या होती है, दोनों का.मेळ है। पर यह तो गलत-जोष है। दूध और शक्कर का मेल हो सकता है पर दूध और नमक का भी कहीं मेल हुआ है ? आठ आठ उपवास करने के बाद भी जरा सी ठेस लगती है उबल पड़े और कहने लगे पाठ उपवास हुए तो क्या हुआ? आठ को तो पढाइ सकता हूं तो कहना होगा तन को तपा है, साथही मन मी तप गया पर साधना उम्मल नहीं हुई। तप के साथ समता का साहचर्य हो तभी साधक की साधन मैं फलवती हो सकती है और साधक की धात्मा हवि की आहृति प्राप्त अभि की भांति उज्वल और समुज्वल हो सकती है। सम्मस-गिरतं धीरं दंतकोहं जिर्ति दियं । देवा वि ते णमंसंति मोक्खे घेव परायणं ॥ १८ ॥ अर्थ:-सम्यक्त्व में निरत धैर्यशील क्रोध विजेता और जितेन्द्रिय और मोक्ष ही जिसका एक मात्र लक्ष्य है ऐसे साधक को देवता भी नमस्कार करते हैं। गुजराती भाषान्तर:-- સમ્યકત્વમાં મગ્ન, ધીરજવાળા અને ક્રોધ ઉપર કાબુ મેળવેલા, જિતેંદ્રિય તેમજ જેનું એકમેવ એય મોક્ષ છે એવા સાધકને દેવતાઓ પણ પ્રણામ કરે છે. जिस साधक ने सत्य का प्रकाश पा लिया है और तत्व का रहस्य पा चुका है, ऐसा सम्यक्त्वशील साधक कोष पर विजय पा सकता है और इन्द्रियों का संयम कर सकता है और जिसकी साधना एक मात्र मोक्ष को लक्ष्य में लेकर हो रही है ऐसे साधक के चरणों में देवगण भी नत मस्तक हो जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। __ सब्वत्थविरये दंते सध्वचारीहिं वारिए । सव्यदुक्खप्पहीणे य सिद्धे भवति णीरये ॥ १९॥ अर्थ:-सर्वार्थों से अयवा सर्वत्र विरत दमनशील साधक, सर्वत्र घूमने वाली इन्द्रियों को रोक कर समस्त दुःखों से मुक्त होता है और कमरज रहित सिद्ध होता है। १बारीहि. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस भासियाई १८० गुजराती भाषान्तर : બધા પદાર્થોમાં કે અધા વિષયોમાં ઉપરતિ (વૈરાગ્ય) થએલા, દમનશીલ સાધક ચારો તરફ ભ્રમતા ઈદ્રિયોન અટકાવીને દુ:ખોથી પોતાનું સંરક્ષણુ કરી મુક્ત અની શકે છે તેમજ પોતે કર્મરજથી પણ મુક્ત બને છે. जिस दमनशील साधक ने भोगासति से विरत होकर सभी और दोड़नेवाली मनोभावनाओं को केन्द्रित किया है और इन्द्रियों पर विजय पाया है वही साधक वीतकषाय होकर शाश्वत सुख स्थिति रूप सिद्ध रूप को प्राप्त करता है । अथवा सवारी का एक अर्थ यह भी होता है कि अपने अनंत ज्ञान के द्वारा त्रिभुवन गत समस्त पदार्थ सार्थ में विचरण करनेवाले वीतराग देवों ने जिस (वासना) के पथ में जाने से रोका है उस वासना- चिदूषित पथ से इन्द्रियों को रोक कर सर्वज्ञों द्वारा प्रतिष्ठित व्रत मर्यादा में जो साधक स्थित रहता है वह निर्वाण को प्राप्त करता है । प्रोफेसर शुमिंग् लिखते हैं प्रस्तुत अध्ययन के मुद्रालेख में उस साधक का वर्णन मिलता है जिसने बाहर की वासना से मुक्त हो कर स्रोत के प्रवाह को रोक दिया है। लोक नं. ३ में स्रोत का उल्लेख है पाँच, सात, नव और ग्यारह संख्य के श्लोक भी उसके अनुसंधान में हैं। वसव शब्द असाधारण है । बारवें और दसवें श्लोक में यह वसव आवश्यक भी नहीं है और हस्ति के अंकुश का यह छोटा रूप है । टिप्पणी- प्रस्तुत प्रति के १२ वें और दसवें श्लोक में दसव शब्द आया नहीं है। फिर किस आधार पर प्रोफेसर शुटिंग ने यह टिप्पणी की है कहा नहीं जा सकता एवं से सिद्धे बुद्धे० ॥ गतार्थः । इति वद्धमाण नाम एकोनत्रिंशतितमं अध्ययनम् वायु अतर्षि प्रोक्त तीसवां अध्ययन हजारों माइलों का यह विस्तृत भूखंड विचित्रताओं का आगार है । विविधता और विचित्रता में ही सृष्टि की सुषमा है। पर प्रश्न है विश्व को विचित्रता दी किसने ? श्रद्धालू, मानस बोल उठेगा यह सृष्टि का विचित्रता भरा सौन्दर्य उस अनंत शक्तिमान करुणामय विराट पुरुष की देन हैं । किन्तु यह उत्तर जितना सरल है तर्क की तुला पर उतना ही पेचीदा बन जाता है, क्योंकि इसके सामने पहला ही प्रश्न आता है उस विराद शक्तिमान करुणामय ने एक ओर अपनी सृष्टि में सुन्दर भव्य आकृतियां सजाई हैं तो उसे दूसरी ओर काली कुरूप और बीभत्स आकृतियां रखने की आवश्यकता ही क्या थी ? विकृत आकृतियों को रखने में करुणामय की करुणा पर प्रश्न चिह्न लग जाता है। विश्व की विचित्रता का रहस्य जानने के लिये हमें उसे दो रूप में बांटना होगा। एक प्राकृतिक दूसरी प्राणिजन्य । प्रकृति का विचित्रता भरा सौन्दर्य स्वभावगत है । सूर्य दिन को ही आता है, रात को क्यों नहीं ? पूर्व में ही उदित होता है पश्चिम में क्यों नहीं ? आम ग्रीष्म में ही आता है, शीतकाल में क्यों नहीं ? गेहूं की फली ही लम्बी और बालवाली होती है ऐसी जुआर की क्यों नहीं, मथुर के जैसे पंख रंगे गये हैं वैसे कुक्कुट के क्यों नहीं, इन सबका समाधान तर्क के पास नहीं है, वह स्वभावगत है । प्राणिजन्य विचित्रता का समाधान स्वभाव से नहीं हो सकता। क्योंकि सभी मनुष्यों का स्वभाव समान होने पर भी बुद्धिकृत भेद हैं । एक व्यक्ति एक घंटे में दस श्लोक रट लेता है, जबकि दूसरा दस घंटे में भी श्लोक याद नहीं कर सकता । एक ही प्रकार की बीमारीवाले, दो रोगियों को एक ही डॉक्टर एक ही प्रकार की दवा देता है फिर भी एक स्वस्थ हो जाता है, जबकि दूसरा रोग में वृद्धि पाता है। इसका रहस्य क्या है ? इसका समाधान खभाव के पास नहीं कर्मवाद के पास है । 1 1 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ सीसा अध्ययन बुद्धिकृत मेद का उत्तर कर्मवाद यो देता है-चेतनाशक्ति समान होने पर जिस व्यक्ति ने ज्ञान की अवहेलना की है, ज्ञान के साधनों का तिरस्कार किया है, उसके कार्य कर्मवर्गणा के सूक्ष्म परमाणुओं को आकर्षित करते हैं और वे कर्म पुद्रल उसकी ज्ञान चेतना को अवरुद्ध कर देते हैं, यही है बुद्धिकृत मेद का रहस्य ।। ___ इसी प्रकार जिस व्यक्ति ने दूसरे को रुलाया है, उसके हितों को कुचला है, उसे उत्पीरित किया है, वह भी तजन्य, ऋर्मों को एकत्रित करता है और फिर जब तक वे कर्म रहते हैं। उसे स्वास्थ्य लाभ प्राप्त नहीं होता । फिर चाहे कितने भी इंजेक्शन क्यों न ले लिये जाय । इसी कर्मवाद का निरूपण प्रस्तुत अध्याय का विषय है : अधासच्चं इणं सवं वायुणा सच्चसंजुसेणं अरहता इसिणा वुइयं । अर्थः—यह विराट विश्व सत्य है । सत्य संयुक्त वायु अहंतर्षि ऐसा बोले । गुजराती भाषान्तर: આ વિશાલ વિશ્વ સાચું છે. સત્યયુક્ત વાયુ અહંતર્ષિ એમ બેલ્યા. विचित्रता भरा यह विराट विश्न एक सत्य है। कुछ दान मागा या कल्पना कहकर इस बिराट्र मुष्टि को खप्न बताते है। पर स्वप्न तो किसी अनुभूत पदार्थ का ही आता है। न देखी न सुनी किस ऐसी वस्तु का स्वप्न कभी नहीं आता और यह माया क्या है कोई तत्त्व है या नहीं ? यदि कोई तत्व नहीं है तो दिखाई क्यों देती है और यदि तत्व है तो फिर माया (अवास्तव कल्पना) कैसी? यह तो वैसा ही हुआ जैसे किसी स्त्री को माता भी बताना और वंध्या मी। ___ अतः अर्हतर्षि बोलते हैं यह विश्व व्यवस्था खप्न नहीं सत्य है। यदि यह विश्वव्यवस्था सत्य है तो इसके साथ ही दूसरा प्रश्न आता है यह विचित्रता क्यों है उसका समाधान महतर्षि निम्न गाथाओं के द्वारा दे रहे हैं। इध ज कीरते कम्मं तं परतोषभुजह । , मूलसेकेसु रुक्लेसु फलं साहासु दिस्ससि ॥१॥ अर्थ:-जो कर्म यहां किये जाते हैं। आत्मा उन्हें परलोक में अवश्य भोगता है। जिन वृक्षों का मूल सिंचित किया गया है उसका फल शाखाओं पर दिखाई देता है। गुजराती भाषान्तर: જે કમ આ લોકમાં માણસ કરે છે તેનો ઉપભોગ તે આત્માને પરલોકમાં ફરજીયાત કરવું જ પડે છે. જે વૃક્ષોના જડનું પાણીથી સિંચન કરવામાં આવે છે તેનું ફલ તેના ડાળીઓ ઉપર જોવામાં આવે છે, आत्मा शुभाशुभ अध्यबसायों के द्वारा कर्मबन्ध करता है उसका प्रतिफल अमुक काल मर्यादा के बाद उदय में आता है । कर्म फिलासफी के अनुसार बद्ध-कर्म उसी क्षण उदय नहीं आते। उसे प्रतिफल देने के लिये कुछ काल अवश्य लगता है। इस बीच के काल को अबाधा काल या विपाक काल कहा जाता है। बद्ध कर्म जिस समय तक बाधक नहीं होता उस समय को अबाधाकाल कहा जाता है । यह काल मर्यादा अल्प रूप में अन्तर्मुहूर्त है तो उत्कृष्ट रूप में तत् तत् कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति के अनुसार मिन मिन्न होती है। अबाधाकाल इस लिये माना गया है कि जो कर्म जिस क्षण बांधे जाते हैं उसी क्षण उनका भोग नहीं हो सकता । बोधने और भोगने का समय अवश्य ही भिन्न होना चाहिए । पर उसका विपाक इतने समय तक क्यों रुका रहता है । यह दूसरा प्रश्न है। उसका एक कारण यह हो सकता है कि अब आत्मा स्वर्गादि में शुभ कर्मों का सुखानुभव रूप शुभ प्रतिफल भोग रहा हो तब शुभोदय में अशुभोदय नहीं हो सकता और उतने समय तक अशुमोदय का रहता है । यही विपाक काल है। १. अधासन्न । १. माया सती चेत् यतत्वसिद्धिः, अथासती इन्त कुतः प्रपंच: । मायैर चेदर्थसहा च चक्कि माता व पन्ध्या च भवेरपरेपाम् । -आ० हेमचन्द्र, अन्ययोगव्यवच्छेविका, Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलि - भालियाई आत्मा जो भी शुभ या अशुभ का अनुभव करता है यह उसके पूर्वबद्ध कर्मों का ही प्रतिफल है। वर्तमान दुःख का कारण हमें वर्तमान में न दिखाई दे किन्तु इसका यह मतलब नहीं हो सकता कि उसका कारण है ही नहीं। जिस आम को खा रहेका न बता सकें, किन्तु इतना तो सुनिश्चित है वह आम किसी न किसी द्वारा एक दिन अवश्य बोया गया था और आज वह फल और पतों से समृद्ध हुआ है। यही कार्यकारणपरंपरा हमारे सुख दुःख के सम्बन्ध में भी है। १८२ टीकाः यथा सत्यं इदं सर्वं । इह यत् क्रियते कर्म तत् परतः परलोके न युज्यते । मूलसिक्तेषु तेषां शाखासु फलं ते । गतार्थः । जारिसं कुप्पले बीयं तारिसं भुज्जप फलं । णाणासंठाण संबद्धं णाणासण्णाभिसविणतं ॥ २ ॥ जारिसं किज्जते कम्मं तारिसं भुज्जते फलं । णाणापयोग णिश्वतं तुखं वा जई वा सुहं ॥ ३ ॥ अर्थः- ( खेत में ) जैसा भीज बोया जाता है वैसा ही फल आता है। जोकि नानाविध आकृतियों में होता हैं और नानाविध संज्ञाओं से अभिहित होता है। जैसा कर्म किया जाता है वैसा ही फल भोगा जाता है । नानाविध प्रयोगों से कर्म निर्मित होते हैं। वह कर्म सुखरूप या दुःखरूप होता है । गुजराती भाषान्तर: ખેતરમાં જેવું બીયાણું વાવવામાં આવે છે તેવું જ ફળ મળે છે; જે અનેક પ્રકારોનું હોય છે અને તેઓની અનેક સંજ્ઞાઓ પણ હોય છે, જેવું કર્મ કરવામાં આવે છે. તેવું જ ફેલ ભોગવું પડશે, અનેક પ્રયોગોથી કર્મોનું નિર્માણ થાય છે તે કર્માં સુખદાયી કે દુઃખદાયી થાય છે. यह निश्रित सिद्धान्त है जैसा बीज होगा वैसा ही प्रतिफल होगा । बाजरी को बोकर कभी चावल की फसल काटी न जा सकी । प्याज खाकर इलाइची की डकार ली नहीं जा सकती । ध्वनि के अनुरूप प्रतिध्वनि अवश्य आयेगी । इंग्लिश विचारक शेक्सपीयर कहता है - What is done cannot be undone किये हुए कर्म को मिटाया नहीं जा सकता । आचार्य विनोबा भी कहते हैं-कर्म वह आइना है जो हमारा स्वरूप हमें दिखा देता है अतः हमें उसका एहसान मानना चाहिये । कर्म हमारे जीवन के निर्माता है, पर कर्म के निर्माता हम हैं । जब तक कर्म नहीं किये जाएं तब तक हम स्वतंत्र हैं, पर एकबार शुभाशुभ अध्यवसाय के द्वारा जो कर्म एकत्रित कर लिये जाते हैं उन्हें भोगना ही होता है। दूसरा एक ओर इंग्लिश विचारक भी कहता है- Our riches may be taken away by fortune, our reputation by malice, our spirits by calamity, our health by disease, our friends by death; but our actions must follow us beyond the grave. दुर्भाग्य हमारा चन छीन सकता है। नीचता हमारा जोश, रोग स्वास्थ्य और मृत्यु हमारे मित्र छीन सकती है किन्तु हमारे कर्म तो हमारी मृत्यु के बाद भी पीछा करेंगे, उन्हें कोई छीन नहीं सकता । - कोल्टन । कलाणा लभति कल्लाणं पाचं पावा तु पावति । हिंसं लभति इतारं जस्ता य पराजयं ॥ ४ ॥ अर्थः- आत्मा कल्याण से कल्याण प्राप्त करता है और पाप श्रील विचारधारा के द्वार वह पाप को ( कटु फल को ) प्राप्त करता है। हिंसक व्यक्ति हिंसा के द्वारा हिंसा को प्राप्त करता है। वह विजय पाकर मी पराजित हो जाता है। गुजराती भाषान्तर : આત્મા કયાણવડે કલ્યાણુની પ્રાપ્તિ કરે છે, અને પાપસ્વભાવની વિચારપરંપરાથી તે પાપ ( કરનાર તેના ફી) ને મેળવે છે. હિંસા કરનાર માણસ હિંસાના કારણે જ હિંસાનો ભોગ અને છે, ક્દાચ એને વિજય પ્રાપ્ત થાય તો પશુ તે વિજય પણ પરાજયસ્પર્શી જ બને છે. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसवां अध्ययन રા आत्मा की कल्याण मय भावना आत्मा को उसे कल्याण मय बनाती है। और पापशील भावना उसे पापशील । दोनों के मधुर और कटुरूप भी उसके सामने आये बिना नहीं रहते। हिंसा के द्वारा मनुष्य कुछ देर के लिये जय भी पा खेता है किन्तु यह भूलना न होगा कि तलवार के बल पर पाई गई विजय एक दिन पराजय में बदल जाती है। दूसरों की चिता भस्म पर जिन्होने अपने महल चुने हैं किन्तु एक दिन वह राख महल और महल की अट्टालिका में अट्टहास करने वाले सत्ताधीशों की राख बनाकर छोड़ेगी । सूणं सुदत्ताणं णिदिशा विय दिणं । अक्कोसचा अकोसं णत्थि कम्मं णिरत्थकं ॥ ५ ॥ अर्थ :- एचानेवाले को एक दिन पकना होगा। दूसरे की निन्दा पर मुस्कुरानेवाले को एक दिन निन्दित होना पड़ेगा | आकोश करनेवालों पर दूसरे आक्रोश किये बिना नहीं रहेंगे, क्योंकि कोई भी कर्म निरर्थक नहीं जाता । गुजराती भाषान्तरः રાંધનારને પણ પોતે કોઇપણ સમર્ચે (તેના અદલામાં ) પાકવું પડશે, બીજાની મશ્કરી કરવાવાળાનો પણ એક દિવસે પોત નિંદાપાત્ર થવું પડશે, રાડ પાડનાર પર કોઈ એ માણસ રાડ પાડયાવગર રહે નહીં. કેમ કે કોઈપણ अाम निरर्थ (भुं ) अनी तु नथी. ध्वनि के अनुरूप प्रतिध्वनि होती है। क्योंकि सभी कर्म अपने साथ प्रतिफल लिये रहते हैं। दूसरों की फजिहत पर जिनके मन में गुदगुदी चलती है उसके लिये प्रस्तुत गाथा में कड़ी चेतावनी ची हैं, जिन्हें आज दूसरों की आलोचना में रस आ रहा है कल उनकी आलोचना में दुनिया र लेगी और जो आज बोलते हैं हम ऊंचे हैं, दूसरे नीचे, हम अच्छे हैं, दूसरे बुरे हैं। मन का अहंकार आज उनके मुंह से यह बुलवा रहा है किन्तु कल जब बाहर की सफेद चदरिया उब जाएगी और दुनिया के सामने उनका सही रूप आयेगा उस दिन दुनियां देखेगी कि आचार और क्रिया का दंभ रखनेवाले कितने गहरे पानी में थे । आज हम अपने इस मिथ्या विश्वास को अपनी ढाल बनाते हैं कि हमें कोई देख नहीं रहा है । हमारे पर्दे के पीछे की लीला को कोई जानता नहीं है। पर सत्य की प्रखर किरणें एक दिन इस मिथ्या विश्वास के पर्दे को घिरती हुई दुनियाँ के सामने तुम्हें उसी रूप में ला देगी जिसमें कि तुम हो। एक पाश्चात्य विचारक भी बोलता है Foul deeds will rise, though all the earth overwhelm them to men's eyes. अर्थात् बुरे कार्य अवश्य प्रकट होंगे। मनुष्य की आंखों से उन्हें छिपाने के लिये भले सारी पृथ्वी उन पर इक दी जाए, फिर भी प्रकट हुए बिना नहीं रहेंगे। भगवान् महावीर के शब्दों में सुचिमा कम्मा सुचिण्णा फला भवंति । चिणा कम्मादुचिणा फला भवति । सुम्दरमा का प्रतिफल सुन्दर होता है और बुरे कर्मों का प्रतिफल सदैव असुन्दर ही रहेगा । मति भद्दा भाइ, मधुरं मधुरंति माण ति । कडुयं कडुयं भणिर्य ति फरूस फरूस ति माणति ॥ ६ ॥ अर्थ मन्त्र कार्यों को दुनिया भर मानती है। मधुररूप में स्वीकार करती है। कड़वे को कहना कहा जाता है और कठोर को कठोर कहा जाता है। गुजराती भाषान्तर : ભદ્ર (સારાં) કામોને દુનિયા સારાં જ કહેછે, મધુર પદાર્થોને મધુર છે એમ લોકો કબુલ કરે છે, તેમજ કડવી વસ્તુને કડવી અને કઠોરને કઠોર જ માને છે, समग्र और स्थान बदल देने से कार्य नहीं बदल जाता । सुन्दर वस्तु सर्वत्र सुन्दर रहेगी। सोना महल में सोना रहे और शमसान में पीतल बन जाए तो उसे सोना कौन कहेगा । सोना सर्वत्र सोना रहेगा और पीतल पीतल मंदिर की छाया Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ इसि - भासियाई उसे सोना नहीं बन सकती। मिश्री की डली गंगा के तट पर खाएं तब भी मीठी है और सूने जंगल में खाएं तब भी मीठी ही रहेगी। स्थान बदल देने से उसका मिठास नहीं बदला जाएगा। शुभ कर्म सर्वत्र शुभ रहेंगे देश काल की सीमाएं उन्हे शुभ से अशुभ में या अशुभ से शुभ में बदलने में समर्थ नहीं है । कुछ लोगों का विश्वास है अमुक स्थान पर चले जाने पर पाप पुण्य में बदल जाएगा और अमुक स्थान पर पुण्य भी पाप हो जाएगा। किन्तु यह अर्ध सल है। मानो कि व्यक्ति के मन को स्थान भी प्रभावित करता | जब तक स्थित प्रज्ञ दशा नहीं आई तब तक समय और स्थान उसके मन पर असर डालते रहते हैं किन्तु तथ्य यह है समय और स्थान में पवित्रता हम स्वयं पूरते हैं। हमारी मनोभावना ही उस दिन को पवित्रता का बाना पहनाती हैं अन्यथा यदि दिन ही पवित्र होता तो उसकी पवित्रता सबके दिल में पवित्रता का संचार करती, किन्तु ऐसा होता नहीं है जो दिन एक संप्रदाय वालों की दृष्टि में पवित्र है दूसरी संप्रदाय वालों की दृष्टि में वह दिन दूसरे दिनों की अपेक्षा कोई विशेष महत्व नहीं रखता । हां तो स्थान और समय की पवित्रता हमारी कल्पना पर आधारित है। वह पवित्रता हमारे मन को प्रेरणा भले दे दे किन्तु किसी कार्य को पवित्र या अपवित्र नहीं बना सकती। यदि एक मलेरिया का बीमार स्वर्ण महल में पहुंच जाए तब भी उसे शान्ति सो नहीं मिल सकती। शान्ति तभी मिलेगी जबकि वह रोग मुक्त होगा । टीका :- मकानि मकानीति मन्यन्ते जनाः, मधुरं मधुरं फरुसं फरूसमिति मनुते, कटुकं कटुकमिति भणितत् ॥ गतार्थः । फलाणं ति भगतस्स कलाणा एडिस्सुया । पावकं ति भणतस्स पावया एपडिस्सुया ॥ ७ ॥ अर्थ :- कल्याण इस प्रकार बोलनेवाला पुनः कल्याण सुनता । "पाप" इस प्रकार बोलनेवाला पाप की ही प्रतिध्वनि पाता है । गुजराती भाषान्तर : જે માસ મીઠું બોલે છે તેને જ મીઠા શબ્દો સાંભળવા મળે છે. બુડી વાતો કરનારને પરિણામે ભુંડી વાતો જ સાંભળવી પડે છે. विश्वव्यवस्था व्यति प्रतिध्वनि के सिद्धान्त पर आधारित है। किसी गिरि कंदरा के निकट जाकर हम सुन्दर शब्द कहेंगे तो उसकी प्रतिध्वनि सुन्दर ही आएगी और गंदे शब्द कहे तो प्रतिध्वनि भी गंदे शब्दों को लौटाएगी। जीवन में गी प्रतिध्वनि का सिद्धान्त है । यदि हम किसी के प्रति सत्संकल्प रखते हैं तो अगले व्यक्ति के हृदय में सत्संकल्प उठेंगे। टीका :- कल्याणामिति भणतः कल्याणैतस्प्रतिश्रुत्तपापकमिति पापकाः । गतार्थः । पहिस्सुयासरिसं कम्मं णचा भिक्खू सुभासुर्भ । तं कम्मं न सेवेजा जेणं भवति णारए ॥ ८ ॥ अर्थ :- कर्म को साधक प्रतिश्रुति (प्रतिध्वनि) के सदृश जाने, तथा उन कर्मों का सेवन न करे जिनके द्वारा आत्मा नरक रूप प्राप्त करता है। गुजराती भाषान्तर : સાધકે કર્મને પ્રાંતશ્રુતિ એટલે પ્રતિધ્વનિ જેવા જ સમજવા જોઇએ, અને તેવા કર્મોનું આચરણ કે સેવન પણ કરવું ન જોઇએ જેથી આત્માને નરકની પ્રાપ્તિ થાય. साधक प्रतिध्वनि के सिद्धान्त को जीवन में स्थान दे और उन कमों का परित्याग करे जिनके द्वारा आत्मा को नरक में जाना पड़ता है। ! प्रतिध्वनि को सुन्दर बनाने के लिये पहले ध्वनि को सुन्दर बनाना होगा। नारक पर्याय अशुभ कर्मों की प्रतिध्वनि है। यदि नरक से बचना है तो उसके हेतुभूत कर्मों से बचना होगा । कार्य को समाप्त करने के लिये कारण को मिटाना होगा 1 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकतीसवां अध्ययन १८५ हमें कैसा बनना है यह हमें सोचना है। अपने निर्माता हम स्वयं है। हमारे कर्म हमको यह रूप देते हैं जैसा कि हम करते हैं हमारे अच्छे कार्य इसको अच्छा बनाते हैं। एक विचारक के शब्दों में Good uctions enable us and we aue the sons of our deeds. हमारे अच्छे कर्म हमको अच्छा बनाते हैं क्योंकि हम अपने कार्यों के पुत्र हैं। हमारे जीवन की कीमत भी हमारे कार्य करते हैं। किसने जिंदगी अच्छी है यह वर्षों की गणना के द्वारा नहीं बता सकते । याँ तो मानव की अपेक्षा बाघ और चीतों की जिन्दगी लंब हो सकती है किन्तु लम्बाई जिन्दगी की अच्छाई का मानदंड नहीं हो राकती । एक दूसरा विचारक भी कहता हैः A life spent worthily should be mensured by deeds and not years, जीवन कितना कमी रहा है यह वर्षों से नहीं कार्यों से भाषा जाता है। एवं से सिद्धे बुद्धे ॥ गतार्थः । प्रोक्त एक प्रति इति वा तीसवाँ अध्ययन | पार्श्व अर्हता प्रोत एकतीसवां अध्ययन मनुष्य ने जब पहली भर्खा इस दुनियां को देखें तभी से उसके मन में जिज्ञासा पैदा हुई जीवन क्या है और जगत् क्या है ? यह विराट विस्तृत भूखंड क्या है ? इसका नियामक कौन है ? किन तत्त्वों से इसका निर्माण हुआ है । यह सान्त हैं या अनंत है। इसके कितने रूप हैं। यह जीवन क्या है, मैं कौन हूं, गर्भ में आता कौन है, कौन जन्म लेता है और कुछ वर्ष यहां बिताकर फिर कहां चला जाता है। वह कौन सा लोक है जहां आत्मा चिर शान्ति पा सकता है उसे न फिर आने की आवश्यकता रहती है न कहीं अपने की। ये सभी प्रश्न अनादि से मानव के मन को मथ रहे हैं उन्हीं में से कुछ प्रश्नों का यहां समाधान दिया गया है। ३ ) कस्स वा लोप ? ( ७ ) कस्स वा गती ? (४) के चा लोयभावे ? ( ८ ) के वा गति (१) कैसे लोए ? (२) कवि लोप ? ( (५) केण वा अद्वेण लोए पच्चाई ? ( ६ ) का गती ? भावे ? (९) केण वा अद्वेण गती पतुञ्चति ? अर्थ :- (१) लोक क्या है ? ( २ ) कितने प्रकार का लोक है ? भाव क्या है और ( ५ ) किन अर्थ में लोक कहा जाता है ? ( ६ ) मति (८) गति-भाव क्या है और ( ९ ) किस अर्थ में गति कही जाती है । गुजराती भाषान्तर :( १ ) सोङ शुं छे ? ( २ ) या प्रकारा सोछे ? (५) या चाय थे ? ( ६ ) गति छ ? અને (૯) કયા અર્થમાં ગતિ કહેવાય છે? यहां लोक और गति के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न किये गये हैं। मानव मन की जिज्ञासा को यहाँ प्रश्न के रूप में व्यक्त किया गया है। लोक क्या है ? उनका हम क्या है ? उसकी आधार स्थिति क्या है । कुछ प्रक्ष गति से सम्बन्धित हैं । गति क्या है, उसका किसने सम्बन्ध है ? गति क्यों होती है ? गति का अस्तित्व किस पर आधारित है ? गति शब्द किस अर्थ में प्रयुक्त होता है ? । २४ (३) लोक किसका है ? ( ४ ) लोकक्या है ? ( ७ ) किसकी गति होती है ? ( 3 ) लो ना ? ( ४ ) बोडलाव शुं छे ? ने ( ७ ) होनी गति होय छे ? ( ८ ) गतिभाव शुं छे ? Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि - भासियाई पासेण अरहता इसिणा बुद्दतं । ( १ ) जीवा चेच अ जीवा चेव ( २ ) चडविहे लोग विवाहिते, दव्यतो लोए, खेतओ लोर, कालओ लोप, भावओ लोप | ( अत्तभावे लोप) (३) सामित्तं पहुच जीवणं लोप । पिवति पहुच जीवाणं चेव अजीवाणं चेव ( ४ ) अणादीप अणिहणे परिणासिए लोयभावे ( ५ ) लोकतीति लोको । ! अर्थ :- अतर्षि बोले- लोक जीव और अजीव रूप है। यह चार प्रकार का बताया गया है । द्रव्य लोक (२) क्षेत्रलोक ( ३ ) काललोक और ( ४ ) भावलोक । लोक अपने आत्मभाव में है। खामित्व की अपेक्षा यह जीवों का लोक है और निति अर्थात् रचना की अपेक्षा यह लोक जीवों का भी है और अजीवों का भी यह लोक अनादि अनंत हैं और पारिणामिक भाव में स्थित है। दूसरी अपेक्षा से यह लोक अपने स्वभाव में स्थित है। जो आलोकित होता है उसे लोक कहते हैं । १८६ ટ્ गुजराती भाषान्तरः --- પાર્શ્વ અદ્વૈતષિ ગૌણ્યા-લોક જીવ અને અજીવરૂપ છે. તેના ચાર પ્રકાર છે. ( ૧ ) દ્રવ્યલોક ( ૨ ) ક્ષેત્રલોક ( 3 ) असतो ( ४ ) आवबोड खोड तो पीतानांमांग होय छे. भाडीनी दृष्टि था सो वोनो छे. अने निवृत्ति એટલે રચનાની દ્રષ્ટિએ આ જીવોનો લોક છે, અને નિવૃત્તિ એટલે રની દૃષ્ટિએ તો આ જીવોનો લોક છે અને જીવતરનો પણ છે. આ લૉક આદિરહિત અને અંતરહિત છે. તેમજ પરિણામસ્વરૂપમાં અધિષ્ઠિત છે. આજી વસ્તુની અપેક્ષાથી વિચાર કરીએ તો આ લોક પોતાનાંમાંજ અધિષ્ઠિત છે. જે આલોક્તિ ( દષ્ટિથી જોવાય ) છે તે લોક उपाय छे. मानव मन में घुमड़ती जिज्ञासा का समाधान करते हुए पार्श्व अर्हता ने लोक से सम्बन्धित प्रश्नों का समाधान दिया है । नद और चैतन्य की यह विराट् सृष्टि ही लोक है। ऐसे तो लोक पंचान्तिकायात्मक है। धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और पुलों की अर्थ-सृष्टिलोक है । दूसरा प्रश्न लोक के प्रकार के सम्बन्ध में है। लोक के चार प्रकार हैं। हव्य क्षेत्र काल और भाव । भगवती सूत्र में इस प्रश्न पर काफी विस्तृत रूप में चर्चा की गई है। लोक चार प्रकार का है -द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक काललोक और भावलोक द्रव्यलोक एक और सान्त है। क्षेत्रलोक की लम्बाई और चौड़ाई असंख्य कोटाकोटी योजनों की है। इसकी परिधि भी असंख्य कोटाकोटी योजनों की है फिर भी यह शान्त हैं, अनंत नहीं । काल लोक अनादि अनंत है । काल की अपेक्ष से यह लोक कभी नहीं था, कभी नहीं रहेगा ऐसी बात नहीं है, लोक था ही और रहेगा 1 काल- कृत लोक व नियतशाश्वत अक्षत अक्षय अव्यय और नित्य है । यह भाव लोक अनंत वर्णे पर्याय, अनंत गंध रस और स्पर्श पर्याय रूप हूँ । अनंत संस्थान पर्याय, अनंत गुरु लघु पर्याय और अनंत अगुरु लघु पर्याय रूप है । इस प्रकार द्रव्य लोक और क्षेत्रलोक सान्त है काललोक और भावलोक अनंत हैं । तीसरा प्रश्न लोक के स्वामित्व से सम्बन्धित है। उसके उत्तर तीन रूप में दिये गये हैं। पहला उत्तर है लोक आम भाव में स्थित हैं, उसका कोई स्वाभी नहीं है; क्योंकि चतुर्दश रज्जनात्मक इस विराट्र लोक का कोई एक अलग खामी नहीं हो कता । अपने तत्व का नियंता स्वयं है। दूसरा उत्तर हैं लोक का स्वामी आत्मा है, क्योंकि वहीं एक तत्व ऐसा है जो चेतना सम्पन्न है और वही स्वामित्व प्राप्त कर सकता । अतः स्वामित्व की अपेक्षा से जीवों का यह लोक है । निरृत्ति अर्थात रचना की अपेक्षा से यह लोक जद और चैतन्य दोनों का है, क्योंकि दोनों के द्वारा ही यह लोक व्यवस्था है । स्थिति की अपेक्षा लोक अनादि अनंत है और भाव की अपेक्षा यह लोक पारिणामिक भाव में स्थित है। वस्तु का अनोपाधिक शुद्धभाव परिणामिक हैं । द्रव्य मात्र निज भाव में लीन है । अन्तिम पद में अर्हतर्षि लोक शब्द की व्याख्या देते हैं । लुक्यतेति लोकः अर्थात् जो आलोकित होता है देखा जाता है वहीं लोक है। टीका: पार्थीयाध्ययनस्य पृच्छा इह योग्यन्ते व्याकरणैः । कोऽयं लोकः ? जीवाचैवा जीवाश्चैवेति लोकः । कतिविधो लोकः ? चतुर्विधो लोकः ? व्याख्यातस्तयथा जन्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतः । कस्य वा लोकः ? आत्मभावात्मना १. स्कंदन पक्ष "भगवतीसूत्र प्रथम शतक उद्देशक १०१ । + Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकतीसवां अध्ययन भवति लोक इति योज्यं । स्वास्थमुद्दिश्य जीवानां लोको निवृत्ति लिष्पत्तिमुद्दिश्य जीवानां चाजीवानां च । को वा लोकभावः ? समाविकोऽनिधनः पानिमिझो लोकमान! ! रेन वाईन फोक इति प्रोज्यते ? लोक्तीति लोकः । गताः। (७) जीवाण पुरंगलाण य गतीति आहिता । (६) जीवाणं चेच पुग्गलाण चेव गती। दव्यतो गती, खेत्तओ गती, कालओ गती, भावओ गती(८)अणा दीए अणिहणे गति भावे (९)ग गति । उद्धगामी जीया अहगामी पोग्गला, कम्मप्पभवा जीवा, परिणाम प्पभवा पोग्गला । कम्मं पप्प फल यिवाको जीवाणं । परिणाम पप्पफल विचाको पुग्गलाणं ।। अर्थ:-जीव और पुद्गलों की गति बताई गई है। जीव और पुद्गलों की गति के चार प्रकार हैं-द्रव्य से गति, क्षेत्र से गति, काल से गति और भाव से गति । गति भाव अनादि और अनंत है। जाया जाता है उसका नाम गति है। जीव ऊर्ध्वगामी होते हैं और पुल अधोगाभी होते हैं। जीवों की गति कर्म-प्रभावित है और पुदलों की गति परिणाम प्रभावित है। जीवों की गति कर्म मल के विपाक से होती है जब पुद्गलों की गति परिणाम के फल विपाक से होती है। गुजराती भाषान्तर : - જીવ અને પુદગલોની ગતિ જણાવી દિધી છે. જીવોની અને પુદગલીની ગતિના ચાર ભેદ છે. દ્રવ્યથી ગતિ, ક્ષેત્રથી ગતિ, કાલથી ગતિ અને ભાવથી ગતિ. આ ગતિભાવ આદિ૨હિત તેમજ અંતરહિત છે. જે પસાર થઈ જાય છે તેનું નામ ગતિ છે. જીવ ઉર્ધ્વગામી (નિસર્ગતઃ ઉપર જવાને ટેવાયેલા છે, અને યુગલે અધોગામી (નીચે જવાને ટેવાયેલા છે. જીવનની ગતિ પોતપોતાના કર્મોના પ્રભાવથી પ્રાપ્ત થાય છે અને પુદ્ગલીની ગતિ પરિણામથી પ્રભાવિત થાય છે, જીવોની મતિ કર્મફલના પરિણામથી થાય છે જયારે પુગીની ગતિ પરિશ્રમના ફલવિપાકથી થાય છે. गतिसम्बन्ध में किये गये प्रश्नों का यहाँ समाधान दिया गया है। पाइन्व्यों में गतिधर्मी केवल दो ही द्रव्य हैं, जीव और पुनल । गति चार प्रकार से होती है-श्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । मतिभाव अनादि अपर्यवसित है। क्योंकि जीव और पुद्गल अनादि हैं और वे गतिशील है। जीव और पुतलों का आकाश प्रदेशों से दूसरे आकाश प्रदेशों में जाना ही गति है। जीव जगामी हैं । पुतुल अधोगामी हैं। 'अर्थगतिधर्माणो जीवाः, अधोगतिधर्माणो पुद्गलाच' । जीवों की ऊर्च अधः और तियेच गति कर्म-जन्य है। जन कि पुद्गलों की गति परिणाम-प्रभावित है। टीका:-का गतिः ? जीवानां च पुतलानां च गतिः। द्रव्यतः क्षेत्रतः कालसो भावतः। व्याकरणस्य तु पाठान्तर यथा जीवाश्चैव गमनपरिणता पुलाचैत्र गमनपरिणता इति । कस्य वा गतिः।। जीवानो च पुद्गलानां च गतिरित्याख्याता । अर्थ:-गति क्या है? जीच और पदलों की गति है। वह द्रव्यक्षेत्र काल और भाव रूप से चार प्रकार की है। इस गति व्याकरण अर्थात् गति का से सम्बन्धित विवेचन का दूसरा पाठ मिलता है उसके अनुसार पुद्गल और जीव ही गति परिणत हैं। किराकी गति है इसके उत्तर में कहा गया है जीव और पुद्गलों की गति होती है। व मा पया क्यार अवाबासहरीसिया कसं कसाविता । जीवा दविहं वेदपां वेदेति पाणातियातविरमणेणे जाव मिच्छादसणविरमणेणं किन्तु जीवा सातणं वेदणं वेदेति । अस्सहाय विहेति, समुच्छिजिस्सति अट्ठा समुच्छिडिस्सति णिद्वितकरणिजे संसे संसारमग्गा भडाई नियंठे विरुद्ध पवंचे वोच्छिषणसंसारे, पोषिपणसंसारदणिजे पहीणसंसारे, पहीणसंसारवेयणिजे णो पुणरवि इच्छत्थं हवभागच्छति । अर्य:..-कोई भी आत्मा कष अर्थात् कषाय अथवा हिंसा को करके अध्यावाध सुख प्राप्त नहीं कर सकता। जीव दो प्रकार की वेदना, अनुभव करते हैं। (एक सुख रूप वेदना दूसरी दुःखरूप वेदना) किन्तु प्राणातिपात से विरक्ति यावत् मिथ्यादर्शन सत्य से विरक्ति पाकर आत्मा सातवेदनीय का अनुभव करता है। किन्तु प्राणातिपात आदि के द्वारा यह आत्मा जिससे भयभीत होता है वही उत्पन्न होता है । अर्थ रूप से वहां ठहरेगा। किन्तु जिसने अपने कार्य निश्चित कर लिये हैं ऐसा अचिशमोगी निन्ध प्रपंच को रोक देता है 1 संसार का छेदन करके संसार की वेदना को विनष्ट करके संसार. रहित और संसार की वेदना रहित हो वह लौकिक वृत्ति में ( संसार में) पुनः नहीं आता है। - - - १ अहगामी, २ ममतिथिग्जिस्लति, समविच्छिशम्सति । सम्मत्तिच्छिवास्सति । ३ संति संसारभगा । ४ अमाइ । ५ इत्य। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ इसि-भासिथाई गुजराती भाषान्तर: કયો પણ આમા કલ એટલે કષાય એટલે હિંસા કરીને રાખંડિત સુખ મેળવી નહીં શકે. વો એ તરહની. વેદનાને અનુભવે છે. (એક છે મુખરૂપી વેદના અને બીજી છે દુઃખરૂપી વેદના) પ્રાણાતિપાતાદિ વિરક્તિસુધી અઢાર મિથ્યાદર્શન સત્યથી વૈરાગ્ય પ્રાપ્ત કરી આત્મા સાતવેદનીય ? સાચા સુખને અનુભવો મેળવી શકે છે. પરંતુ પ્રાણાતિપાત ઈત્યાદિ જેનાથી આ આતમાં ગભરાયેલ છે ત્યાંજ જન્મ પામે છે, અર્થરૂપથી ત્યાં રહેશે. પણ જે આત્માએ પોતાનું કામ નકી કરી રાખ્યું છે એ અચિત્ત ભોગ ભોગવા નિર્ચથ પ્રપંચન અટકાવી શકે છે. સંસારનો છેદન કરી શારિક કેળના વિના કરી શકે છે તેમજ કારહિત અને સંસારના તાપરહિત બની લોકિક વૃત્તિ(એટલે આ સંસારરૂપી જંજાળ) માં ફરી આવશે નહીં. अतिर्षि गति का निरूपण करते हुए सोपाधिक गति को कारण बता रहे है । मुक आत्मा की लोकान्त तक की ऊर्य गति ही निरुपाधिक है शेष सभी गदियां सोपाधिक है। उराका कारण है क्व-हिंसा ! जव तक कप की आय ६५ काय मौजूद है। तब तक आत्मा की सौपाधिक गति बन्द नहीं हो सकती। नारक और तिर्यन आदि में परिभ्रमण करते रहना होगा। यह परिभ्रमण स्वयंवेदना है। सांसारिस आत्मा की वेदनानुभूति दो रूप में होती है-कभी वह सुखरूप होती है कभी दुःखरूप । किन्नु जब आत्मा प्राणातिपातादि अठारह अशुभ तृतियों से विरत होता है तो सुखानुभूति करता है। उसके अभाव में उने अनिच्छित स्थानों में भी उत्पन होना पड़ता है और वेदना का अनुभव करना पड़ता है। जिरा माधक ने अपना लक्ष्य पहचाना है और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता के साथ कदम बढ़ा रहा है यह संसार और उसकी पेदना से मुक्त होनेज स्थिति में पहुंच सकता है। उसकी गति निरूपाधिक होती है। टीका:--उत्तरगामिणामपि सूत्राणां स द्वितीय पाठ इति वक्ष्यते। ऊर्वगामिनो जीवाः अधोगामिनः पुनला। कर्म"प्रभवा जीवाः, परिणामप्रभवाः पुतलाः। कर्म प्राप्य फलनिपाको जीवानां परिणाम प्राप्य पुदलाना। द्वितीयपाठस्तु पापकर्मकृतो जीवानां परिणामः स एव पुतलानामिति। नकवाचिदियं प्रजा मनुष्यादिकाव्यायाधसुखमनुपरुई सुखं एषेत । कशा कशयित्वा-हिंसा कृत्वा। द्वितीयपाठस्तु • यथा-न कदामित् प्रजा प्राकार्षीददुःखमिति । जीवा द्विविधां चेदनां वेदयन्ति अनुभवन्ति । तद्यथा-प्राणातिपातेन यावत् मिध्यादर्शनेन । विरमणपदं स्विहन युज्यते । अस्येश्यमानत्वादवृद्धलेखकदोषेण विस्मृतानि कानिधित् सूत्राणीत्यनुमीयते । पूरितं चिदं छिद्रम् । पुस्तकेन यथा पूर्व यावत् मिथ्यादर्शनशल्येन कृत्वा जीवाः शातनां वेदना वेदयन्ति । प्राणातिपा. तविरमगन तु यावन् मिथ्यादर्शन-शल्य-विरमणेन कृत्वा जीवा अशातनां येदनां चेदयन्ति । एतेनैव प्रकारेण द्विनीयपाठेन पूरित रि यथा-श्रात्मकृतो जीवा भवन्ति, कृत्वा कृत्वा यद् यद् कृतवन्तस्तद् तद् वेदयन्ति । तद् यथा-प्राणातिपाते यावत्परिग्रहेणेति। अर्थात पूर्व सूत्रों की भांति आगे के सूत्रों में भी पाठान्तर है। जीत्र ऊर्ध्व गतिशील हैं, पुद्गल अधोगामी है । जीवों की गति कर्म-जन्य है, जबकि पुदलों की गति परिणामजन्य हैं। जीवों की गति कर्म फल के विपाक को लेकर होती है और पुद्गल की गति परिणाम विपाक को लेकर । दूरारे पाठ के अनुसार पापकर्भ-कृत जीवों के परिणाम से गति होती है और वही परिणाम पुद्गल की गति के लिये निमित्त होना है। यह मनुष्याद्रि प्रजा हिंसा करके कभी बाधारहित सुख नहीं पा सकती । दृग़रे पाठ के अनुगार बह प्रजा कभी भी दुःखमुक्त नहीं होगी। आत्मा दो प्रकार की वेदना का अनुभव करते हैं। जैसे कि प्राणातिपात यावत् , मिध्यादर्शन शल्य से । "विरमण"पद यहां आया है वह अनुपयुक्त है। इनके यहां होने से ऐसा लगता है वृद्ध लेखक स्मृति दोष के कारण कुछ सूत्र भूल गये हैं। दूसरे नंबर की पुस्तक ने इस कमी को पूरी करने की कोशिश की है। जैसे कि इस प्रकार मिथ्यादर्शन शल्य के द्वारा क्रिया करके जीव सातवेदनीय का अनुभव करते है। प्राणातिपात विरक्ति यायत. मिथ्यादर्शन शल्य चिरति से किया करके जीव असात वेदनीय का अनुभव करते हैं (1) इसी प्रकार द्वितीय पाठ से भी छिद्र को पूरा गया है। जैसे कि आत्मा म्वकृत कमी को भोगते हैं। जो जो वे करते हैं उराको भोगते है-जैसे कि प्राणातिपात यावत् परिग्रह से । टिप्पणी:-प्रस्तुत अध्याय में अनेक पाठान्तर है। भूलसूत्र में दो पाठ मिलते हैं, जबकि टीकाकार अन्य पाठान्तर भी उपस्थित करते हैं। साथ ही प्रस्तुन सूत्र की एक कमी को और भी दे इंगित करते हैं कि जहां जीव को दो प्रकार की वेदना बताई गई है। उसके कारणरूप प्राणातिपान विरमग यावत् मिथ्यादर्शन झाल्य घिरमा दिया गया है। टीकाकार की Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकतीसवां अध्ययन दृष्टि में चिरमण शब्द यहां अनुपयुक्त है। और उस शब्द की यहाँ उपस्थिति बताती है कि कुछ पाठ छुट गये हैं और वे बताते हैं उसकी पूर्ति दूसरी पुस्तक में की गई है। किन्तु उस पुस्तक के पाठ की टीका जो यहाँ दी गई है वह कुछ प्रम उत्पन्न करती है । क्योंकि वहां बताया गया है प्राणातिपात आदि के द्वारा मति करके जीव सातवेदनीय का अनुभव करता है और उगसे विरमण अर्थात चिरति के द्वारा असातवेदनीय का अनुभव करता है। यह तो सिद्धान्त के विपरीत जाता है । क्योंकि प्राणातिमान आदि के द्वारा आत्मा असातवेदनीय का अनुबन्ध करता है । और उससे विपरीत के द्वारा मातवेदनीय का अनुभव करता है। कार ने कापसा आराय मासे 46 समना नई जा सकता। हा; यह हो सकता है, आत्मा जब प्राणातिपात आदि क्रिया करता है उस समय सुस्न का अनुभव करता है अथवा टीकाकार शातनवेदनीय का दृसरा अर्थ करते ही यह भी संभव है। आगे चलकर टीकाकार लिखते हैं शातना नाशन वेदना वैदयन्ति अर्थात शातमा नष्ट होनेवाली वेदना को अनुभव करते हैं। यहां शातन अशातन से सुख दुःखानुभूति न लेकर नश्वर और अनश्वर अनुभूति लिया जाय तत्र तो अर्थ ठीक हो सकता है। प्रोफेसर शुबिंग लिखते हैं पार्थ के वचनों के सम्बन्ध में वहां केवल प्रश्न है । उनके उत्तर के एकीकरण में मुद्रालेख तैयार करते हैं। गति के सम्बन्ध में छठ्ठा प्रश्न जो कि सबसे भिन्न है उसे संक्षिप्त किया गया है । छठे प्रश्न के उत्तर के स्थान पर सातवें प्रश्न का उत्तर आ जाता है। आगे की पंक्तियां कुछ स्पष्टीकरण देती हैं। दुनिया के पीछे की स्थिति पर अवलंबित (परिणाम ) १-५ तक के उत्तरों में आत्मा और अनात्मा का दहरे रूप में विश्लेषण किया गया है। धर्म उपदेश में प्रान्तीय भाषा के अनुसार पुनः पुनः निर्देश किया गया है । और वे अपनी प्रणालिका के अनुसार उसका पुनः पुनः समर्थन करते हैं और उस स्पष्टीकरण को जीवन की स्टेज के साथ जोड़ते हैं। गति के मूल अर्थ में वाक्य का अक्षरशः अर्थ निजगुणों के द्वारा आत्मा को ऊर्ध्वगामी सिद्ध करता है। क्योंकि और उससे अवगति बताई जाती है । उसके सामने अजीबकाया के गुण आत्मा से भिन्न है। अतः उसे अधोगामिन कहा गया है । मानव देव आदि गति के भेद दीर्घ दृष्टि सूचित करते हैं। जोकि व्यक्ति पर होनेवाली कर्म की अच्छी या बुरी असर को लक्ष्य करके कहा गया है। पृथ्वी पर का मानव कमी अबाधित सुख प्राप्त नहीं कर सकता । उसे खैर बिहार की छुट्टी दे दी गई है। "कसं क्राइत्ता” (आचारांग १५) उसे हानिकारक बताता है। कुछ रूप व्याकरण सम्मत नहीं होने पर भी इसमें रखे गये हैं। कहीं कहीं विरोधाभास गी है जैसे कि मनुष्य दुःख के सिवाय सब उत्पन्न कर सकता है। (प्रकार्षित )। गति वागरणगंथाओ पभिति समाणितं इमं अज्झयर्ण ताव इमो बीओ पाठो दिस्सति, संजहा जीवागमणपरिणता, पोगाला चेव गणपरिपाता। अर्थ:-पतिव्याकरण प्रेथ आदि से यह अध्ययन लिया गया है। वहां द्वितीय पाठ भी देखा जाता है। जैसे कि जीव गतिशील है और पुद्गल भी गतिशील । गुजराती भापान्तर: ગતિનિરૂપક ગ્રંથ આદિથી આ અધ્યયન લઈ લીધું છે. ત્યાં બીજો પાક પણ લેવામાં આવે છે. જેમ કે જવ પણ ગતિશીલ છે અને પુદગલ પણ ગતિશીલ છે. ऋषिभाषित सुत्रकार बोलते हैं कि प्रस्तुत अध्ययन गतिनिरूपक के ग्रन्थ से लिया गया है। वहां दूसरा पाठ भी दिखाई देता है। इससे यह फलिरा होता है कि पार्वीय अध्ययन पार्थ अतिर्षि का न होकर किसी दूसरे का है। किन्तु पार्श्व अहंतर्षि के मुंह से कहलाया गया है । इससे दूसरा तथ्य सामने आता है। ऋषिभाषित सूत्र ऋषियों के द्वारा कहलाया गया है, पर इसका संकलन कर्ता कोई दूसरा है। वह कौन है, कब हुए कहा हुए आदि सभी विषय इतिहास के गर्भ में है। उनका समाधान पाने के लिये बहुत बड़ी शोध की आवश्यकता है। दुविधा मती पयोगगती य बीससागती य । जीवाणं चेव, पोग्गलाणं चेय । उदइय, पारिणामिर गतिमाथे। गम्ममाणा इति गति । उढंगामी जीवा अधगामी पोग्गला । पावकम्मकडेणं जीवाणं परिणामे, पावकम्मकडेणं युग्गलाण । णक्रयातिपया अदुक्खं पकासी ति । असकडा जीवा १ इसिभासियाई जर्मन संस्करण पृ० ५६७-५२८. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० इसि - भासियाई किया किया वेति । तं जहा पाणातिवातेणं जाव परिगणं । एस खलु असंवुद्धे असंतुडकम्मं बाउजा में नियंठे अट्ठविहं कम्मगंदि गगरेति । सेय चउहिँ ठाणेहिं विचागमागच्छति । तं जहाइहि तिरिक्खजोणीहिं, माणुस्सेहिं देवेहिं । अर्थ :- गति के दो प्रकार हैं। प्रयोगगति और बिमागति, जोकि जीव और पुद्गल दोनों की होती है। औदयिक और पारिणामिक रूप गतिभाव में गति होती है उसे गति कहते हैं । जीव ऊर्ध्वगामी होते हैं जब कि पुद्गल अधोगामी होते हैं। पान कर्म करनेवाले जीनों के परिणाम में जीवों की और पाप कर्म उत्त आत्मा पुगलों की गति में भी प्रेरक होता है । यह प्रजा कभी भी अदुःख अवस्था को पार नहीं करेगी। आत्मा स्वाधीन अवस्था में कमों को करके स्वकृत कर्मों को भोगता है। जैसे कि यात्सेन्तथा चातुर्याम से रहित अष्टविध कर्म की है। वहीं कर्म चार प्रकार से विपाक रूप प्राप्त करता है। जैसे कि नरक के द्वारा तियंन योनियों के द्वारा मनुष्यों के द्वारा और देवों के द्वार। । गुजराती भाषान्तर: ગતિના બે ભેદ છે. એક પ્રયોગતિ અને બીજી વિઅસામતિ, જે જીવ અને પુદગલ બંનની હોય છે, આદાયિક અને પારિણામરૂપને ગતિભાવમાં ગતિ હોય છે તેને જ ગતિ કહેવાય છે. જીવ ઉર્ધ્વગામી હોય છે અને પુદ્ગલ અધોગામી હોય છે. પાપ કર્મો કરવાવાળા જીવોના પરિણામમાં જીવોની ગતિમાં અને પાપકર્મ કરનાર આત્મા પુદ્દગલોની ગતિમાં પણ પ્રેરક બને છે. આવી પ્રત્ન કદી પણ દુઃખરહિત અવસ્થાને પામી શક્તી નથી. આત્મા સ્વાધીન અવસ્થામાં કર્યાં કરે છે અને પછી કે કર્મોના શુભાશુભ પરિણામને લાગે છે. જેમ કે પ્રાણાતિપાતથી પરિગ્રહસુધી. તે અસદ્ધ, સંવૃત્ત કમાન તેમજ ચાતુર્યંમરહિત ચાર તરહના કર્મધિઓને બાંધે છે. નરકદ્વારા, તિર્યંચયોનિદ્વારા, મનુષ્યદ્વારા અને દેવો દ્વારા એમ ચાર તરહી વિપાકલ્પ કર્મ પ્રાપ્ત કરૅ છે. गति के दो प्रकार हैं । प्रायोगिक गति और प्रायोगिकगति है । जब ये अन्य द्रव्य की प्रेरणा के स्वाभाविकगति कहलाती है । विगति । दूसरे के द्वारा आत्मा और पुल गति करते हैं वह बिना ही स्वयं ही गति परिणत होते हैं तब वह गति विवसा अर्थात् गति हैं, क्योंकि उसमें कर्म की प्रेरणा रहती है। मुक्तामा की गति, करता है उसमें किसी की भी प्रेरणा नहीं होती । कर्मबद्ध कर्म बद्ध आत्मा जो भी गति करता है वह प्रायोगिक वैसिक है, क्योंकि कर्म से मुक्त होकर आत्मा जब ऊ आत्मा की गति औदयिक होती है। क्योंकि कमदय के कारण ही उसे चतुर्गति में भटकना पड़ता है। पाप कर्मशील आत्मा गति करता है और वह स्वयं पुलों को मति के लिये प्रेरित करता है। जीव स्वकृत कर्मों को ही भोगता है। भगवतीसूत्र में भी महान संत गौतम प्रभु महावीर से प्रश्न करते हैं- प्रभो। आत्मा स्वकृत कर्म भोगता है, परकृत भोगता है यादुभयकृत उत्तर में सर्वज्ञ भ० महावीर बोले- यह आत्मा स्वकृत कर्मों को ही भोगता है, परकृत या तदुभयकृत नहीं । आचार्य अमितगति भी बोलते हैं:-- स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दक्षं यदि लभ्यते स्फुटं स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं सदा । प्रार्थनापंच विंशति आत्मा पूर्वबद्ध कृतकमी के ही शुभाशुभ फल की प्राप्त करता है। यदि वह परकृत कर्मों को भोगता है तो स्वत कर्म निरर्थक हो जायेगा। इतना ही नहीं अपना नियामक यह स्वयं न रहेगा। अपने सुख दुःख के लिये वह स्वयं उत्तरदायी न रहेगा । सुख के लिये उसे दूसरे से भीख मांगनी होगी, यह कितनी बड़ी गुलामी होगी । आत्मा जो भी शुभाशुभ कर्म करता है वह नरकादि चार गति के रूप में भोगता है । टीका ः– केचित्तु पठन्ति द्विविधा गतिस्तद्यथा - प्रयोगगतिः स्वेच्छया गतिः चित्रसागतिस्तद्विपरीता जीवानां च पुलानां चेति । को वा गतिभावः अनादिको निधनो गतिभावः । पाठान्तरं तु यथौदयिकपारिणामिको गतिभाव इति । १ ( १० ) जीवा भन्ते ! अत्तक दुक्तं वेद्यंति परक दुक्खं वेदवति तदुभयकडे दुक्खं वेदयन्ति (१०) गोयमा जीवा अत्त कई वैदति णो परको तदुभयकई दुकाने वेदयति । मंगवती सूत्र- Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकतीसवा अध्ययन केन वार्थेन गतिरिति ? प्रोच्यते गम्यत इति गतिः । अन्ये तु गम्यमाना इति गतिरिति पठन्ति । इमानि चत्वारि पाठान्तराप्यस्याध्ययमस्यान्ते गतिव्याकरणग्रन्थात् प्रमृति सामिनं ति यावदयं द्वितीयपाटो दृश्यते इति प्रवेशितानि । स एवं द्वितीयः पाठोडनुबध्यते यथेष खरवसंबुद्धोऽसंवृतकर्मान्तः सचनुामिको निम्रन्थोऽष्टविधं कर्मप्रन्यि प्रकरोति, सच चतुपु स्थानेषु विपाफमागच्छति तद् यथा गैर्य केषु तिर्यक्क्षु मनुजेषु, देवेषु । गतार्थः । विशेष टीकाकार ने विविध पाठान्तर के साथ प्रस्तुत प्रकरण को स्पष्ट किया है। असकडा जीवा नो परकड़ा किया किचा वेदेति । तं जहा पाणातिवातवेरमेणेणं जाय परिग्गहवेरमणेणं । एस खलु संघुड़े कम्मते चाउजामे नियंठे अट्टविहं कम्मगठिं नो पकरेति । से य चउहिं ठाणेहिं णो विपकमागच्छति । तं जहा जेरइए हिं निरिक्खजोणिहि माणुस्सएहिं देवेहि। अर्थः-जीव स्वाधीन रूप से खऋत शुभाशुभ कर्मों को करके उसका प्रतिफल वेदन करते हैं। किन्तु परकृत कर्मों का वेदन नहीं करते । प्राणातिपात विरकि यावत् परिग्रह विरक्ति के द्वारा यह सेवृत, कर्मों का अन्त करनेवाला चातुर्याम धर्म का आराधक निर्ग्रन्थ अष्टविध कर्म अन्थि को बांधता नहीं है और वह कर्म चार रूप में विपाक को भी प्राप्त नहीं करता जैसे कि नारकों के द्वारा तिर्यचों के द्वारा मनुष्यों के द्वारा और देवों के द्वारा। गुजराती भाषान्तर: જીવ સ્વાધીનરૂપથી પતે (શુભાશુભ) કમો કરે છે ને તેનો પરિણામ પણ ભોગે છે. પણ બીજાએ કરેલ કર્મોને ગ કર નથી. પ્રાણાતિપાત વિરક્તિયાવત્ પરિગ્રહ વિરક્તિથી જ આ સંવૃત કમનો અંત કરનાર ચાતુર્યામ ધર્મનો આરાધક નિગ્રંથ, આઠ તરહની કર્મગ્રંથિને બાંધતો નથી, અને તે કર્મ ચાર૫માં વિપાકને પણ પામે નહી, જેમ કે નારક કે તિર્યંચો કે મનુષ્ય કે દેવો દ્વારા.. पूर्वसूत्र में असंयत साधक का रूप बताया गया था। जिस साधक ने कपदे त्यागे हैं किन्तु वासना नहीं त्यागी वह अपनी वृत्तियों को काबू में नहीं ला सकता और वह सही रूप में व्रतों की मर्यादा में भी नहीं रह सकता, परिणामतः कर्मी का अम्ल करके आत्मा की शुद्धि स्थिति को भी नहीं पा सकता। उसे पुनः पुनः भारकावि रूप ग्रहण करने होंगे। प्रस्तुत सूत्र में उसका विरोधी चित्र है। जो साधक रूप और राग दोनों का स्वामी है जिसने वनों की भांति वासना भी त्याग दी है वह अपनी इन्द्रियों पर और मन पर विजय पा सकता है। कर्मों का अन्त कर आत्मा के निज घर में पहुंच राकता है उसे किर नारकादि रूप धारण करने की भावश्यकता नहीं रहती। टीका:-आयमकृतज्जीवा न परकृताः कृत्वा कृत्वा वेदयन्ति, तद् यथा प्राणातिपातचिरमणेन यावत् परिग्रहविरमणेन । एष खलु संबद्धाः संवृतकान्तिश्रातुर्यामिको निर्गन्धोऽपविध कर्ममान्थिन प्रकरोति । स च प्रागुक्तेषु चतुर्प स्थानेषु न चिपाकमागच्छति । श्रादिपाठस्तु मिथ्यावर्शनविरमणेनेति प्रभूत्यनुबध्यते । गतार्थः । विशेष प्रस्तुत पाउ मिथ्यादर्शन विरमण से सम्बन्धित्त है। लोय. ण कताई णासी, ण कताई ण भवति, ण कताई ण भविस्सति, भुर्विच भवति य भविस्ताति य धुवे सासए, अक्खर, अन्धग अविट्रिप णिच्चे कयातिणासी जावणिचा एवामेघ लोके यि ण कयाति णासी जाणिवे। अर्थ-यह लोक कभी नहीं था, ऐसा नहीं है । यह कभी नहीं है ऐसा भी नहीं है । कभी नहीं रहेगा यह भी संभव नहीं है । यह लोक पहले था वर्तमान में है और भविष्य में भी रहेगा। क्योंकि यह लोक ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित और नित्य है। जैसे कि पंचास्तिकाय कभी नहीं थे ऐसा नहीं है । यावत् लोक नित्य है। इसी प्रकार लोक मी कमी नहीं था ऐसा नहीं है यावत् नित्य है । गुजराती भाषान्तर: આ લોક (ભૂતકાળમાં) કદીપણું ન હતો, એવું નહીં આ કદીપણ નથી એમ પણ નહીં અને ભવિષ્યમાં ) પણ રહેશે એવો સંભવ પણ નથી. આ લોક પ્રથમ હતો, આજે છે, અને ભવિષ્યકાળમાં પણ રહેશે; કારણ આ લેક ધ્રુવ (નિત્ય) છે, નિયત છે, શાશ્વત છે, અક્ષય છે, અય છે, અવસ્થિત છે અને નિત્ય છે. એવી જ રીતે લેક પણ કદી પણ ન હતો એમ નહીં, તે હમેશા નિત્ય છે. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. इस - भासियाई प्रस्तुत पाठ में टोक की शाधतता बताई गई है। यद्यपि पर्याय की अपेक्षा से तो लोक प्रतिक्षण विनष्ट भी हो रहा है और नया उत्पन्न भी हो रहा है किन्तु यहां इनकी की गई है। अनंत अनंत काल पूर्व भी लोक लोकभाव में विद्यमान था। वर्तमान में भी उपस्थित हैं और अनंत अनंत युग बीत जाने पर भी लोक विद्यमान रहेगा । लोक पंचास्तिकायात्मक है । धर्माधर्म आकाश पुल और जीन के अतिरिक्त कोई लोक नहीं हैं। पंचास्तिकाय नित्य है तो लोक भी नित्य है । । १९२ टीकाः यथा किन्तु जीवाः शातनां नाशनां चेदनां वेदयन्ति । यो यद् अर्थ यद्वस्तुनो विभेति तत् तेन समुच्छेअर्थात् स एव समुत्थास्यति निष्ठितकरणीयः । महादत्ति मृतादी माशुकमोजी, उपलक्षणत्वादेणीयादीति व्याख्या प्रज्ञप्तिस्यनुसारेण व्याख्येयं । गतार्थः । स्पर्शुकेति स्थाने सु प्राशुकत्ययुक्तं प्रवदन्ति वृत्तिकारानुयायिन्दः । मृतादिनिर्ग्रन्थो निरुद्रप्रपंचो व्यवच्छि संसारो संसारवनीयः । प्रहीणसंसारः प्रहीणसंसारवेदनीयो संसारमार्गान् न पुनस्यत्रयं समागच्छति पार्श्वयमध्ययनम् । तार्थः । द्वितीयास्तु समाप्यते यथा लोको न कदाचिन्नासीत् न कदाचिन्न भवति, न कदाचिन्न भविष्यति अत्रभवति च भविष्यति च ध्रुवो नित्यः शाघतोऽनमोऽव्ययोऽवस्थितो नित्यो भत्रति यथा नाम पंचास्तिकायः न कशाविवासन इत्यादि । एवमेव लोकोपि । समास पाठान्तरम् ॥ गतार्थः । विशेष भडाई निर्वठे के प्रकरण में स्पर्श के स्थान पर प्राक शब्द है किन्तु टीकाकार के अनुयायी उने अयुक्त समझते हैं। टिप्पणी : इस सूत्र के समस्त अध्ययनों की अपेक्षा प्रस्तुत अध्ययन में सर्वाधिक पाठान्तर हैं। मूलकार की अपेक्षा टीकाकार ने और भी अधिक पाठान्तर दिये हैं। अतः मूलकार और टीकाकार दोनों साथ नहीं चल सके हैं । परिणामतः कहीं कहीं टीका मूल से बहुत दूर जा पड़ी है। प्रोफेसर शुगि टिप्पणी देते हुए लिखते हैं प्रस्तुत प्रकरण के प्रारंभ में कुछ भार हैं । दुहरे इन्द्रिवज्ञान के लिये वहां अवकाश है । आध्यात्मिक असर का निश्चित प्रारंभ है । आत्मा स्वयं ही अपने द्वारा सुखादि उत्पन्न करता है। कोई भी बाहरी वस्तु उसे मुख या दुःख देने में असमर्थ हैं । ( आत्मकृतः जीवः, न परकृतः ) पंक्ति नं. ४२ के बाद प्राणातिपात शब्द के बाद खोज करने पर ऐसा लगता है कि वहां कुछ रिक्त स्थान हैं। उसके बाद शीघ्र ही "वैरमण " शब्द आ जाता हैं। जो कि ठीक नहीं है। दूषित कार्य और उनका त्याग ३६ वीं पंक्ति में दिखाई देता है । किन्तु वह प्रामाणिक किये गये सिद्धान्त के विरुद्ध है और प्राणी दुःख का अनुभव करता है । ( सतन ) ऐसे विरोधाभास से संबंधित है जोकि मूल पाठ में नहीं है । यदि धारे हुए क्रियापद ( समुच्स्यित्ति और समुत्थित्स्यति ) ठीक है तो उनका अर्थ यह होगा कि जिससे वह डरता है उनको दूर करेगा। किंतु "ते" शब्द वहां नहीं है । और अपने आपको उच्च स्थिति में लाएगा। यहां हम पंचमी विभक्ति संसार मार्गात का जोड़ सकते हैं। किन्तु व्याख्या प्रशमि सूत्र बताता कि "निति करणले महा” पाठ उससे म नहीं कर सकते। टीका के अनुसार मडाई मृतादी है, जोकि मृतक को निर्जीव को खाता है। अपने जीवन के लिये किसी की हिंसा नहीं करता और धर्म क्रिया अनुरूप चलता है। किन्तु "मडाई" का "म" हम कहां से खोज सकते हैं यह समझ मैं नहीं आता। शायद ही हम अम्मड ( अम्बड ) का अन्त में विचार कर सकें 1 "लोए" आदि यहां फिट नहीं बैठता। वह चौथे पक्ष के उत्तर में ठीक रहता । एवं से सिद्धे बुद्धे । गतार्थः । इति एकतीसवां अध्ययन समाप्त 40+ १ मडाई णाम यिण्टे निरुद्धभवे, बेयणिज्ज, गिडिंय अटके मिडिय भट्ट करणिज गो पुणरति इत्थत्थं हन्यमागच्छति । २ प्रतिभासिया जमैन प्रति ५ पृ० १६८ निरुद्धमनपर्वचे, पहीणसंसारे पहीणसंसारवेज, तोणिसंसारे संसार - विवाह १-१-६. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 पिंग अर्हतर्षि प्रोत बत्तीसवाँ कृषि - अध्ययन शरीर और आत्मा अनादि के सहयात्री हैं। शरीर के लिये भोजन आवश्यक हैं तो आत्मा गी भूखा नहीं रह सकता । "उसे भी भोजन तो चाहिये । किन्तु हो, आत्मा का भोजन शरीर के भोजन से भिन्न अवश्य होगा। किसी विचारक ने ठीक कहा है 'शरीर का भोजन अन है, तो आत्मा का भोजन अहिंशा है'। शरीर की खुराक के लिये खेती आवश्यक है तो आत्मा के भोजन के लिये भी खेली चाहिये; किन्तु वह खेती मिट्टी की नहीं मन की होगी । फिर भी मानव मिट्टी को भूल कर जी नहीं सकता। क्यों कि शरीर की भूख मिट्टी ही मिटा सकती हैं। उसके लिये जुआर के दाने चाहिये, स्वर्ग के मोती नहीं । शरीर और आत्मा साथ रह सकते हैं तो अहिंसा और खेती साथ क्यों नहीं रह सकते ? जो खेती को एकान्ततः पाप बताते हैं उनके लिये रोटी खाना भी पाप हैं। खेती यदि महारंभ है वो मांसाहार क्या होगा ? खेती संस्कृति का निर्माण करती है। वह सात्विक अन्न देकर मानव के मन को सात्विकता की ओर मोड़ती है। खेती अकेला व्यक्ति नहीं कर सकता, उसमें दूसरे के सहयोग की आवश्यकता अनिवार्यतः रहती है। इस रूप में वह सहयोग का पाठ भी पढ़ाती हैं। जिस देश में खेती नहीं है वहां के निवासी भांसाहार की ओर ही बढ़ेंगे। पशुबध के द्वारा प्राप्य मांस मानव मन की सहज कोमलता को छीन लेता है और करुणा के अंकुरों को नष्ट कर डालता है। पशुओं की गर्दन पर प्रतिदिन चलनेवाला छुरा आवेश में मानव की गर्दन काटते हिचकता नहीं है। दूसरी ओर उसमें सहयोग भाव का प्रसार भी नहीं हो सकता। क्योंकि शिकार के लिये दूसरे के लिये दूसरों की आवश्यकता भी कम रहती है। खेती का विकल्प मांसाहार ही हो सकता है दूसरा नहीं और खेती को पाप ( महारंभ ) बताने वाले इस तथ्य से आंख नहीं मूंद सकते । भ० महावीर ने कभी भी खेती को महारंभ नहीं बताया, अन्यथा वे अपने उपासकों को कृषि कर्म के परित्याग की प्रेरणा देते। क्योंकि श्रावकत्व और महारंभ में मूलभूत विरोध है, इसीलिये उन्होंने अपने उपासकों को महारंभ के व्यवसायों के परित्याग की प्रतिज्ञा दिलवाई थी । फोडी कम्मे (स्फोटि कर्म ) के आधार पर खेती को महारंभ कहनेवाले अभी ऊपरी सतह पर ही हैं, क्योंकि हल के द्वारा हल की रेखा स्फोटकर्म है तो सुरंग आदि में होनेवाले धड़ाकों को क्या कहेंगे ? । किन्तु कुछ तो पुराने तत्वज्ञ दाल पीसने के को भी स्कोरकर्म में गिनकर अपनी प्रतिभा का परिचय देते हैं। किन्तु इस यंत्रयुग में बेचारी विधवाओं के दाल पीसने के धंधे को महारंभ कहकर वास्तव में अपनी बुद्धि का प्रदर्शन ही करते हैं । खेती करना पाप ( महारंभ ) है तो रोटी खाना भी पाप है। फिर भी हमें इतना विवेक तो रखना होगा कि हम शरीर को खुराक में आत्मा का भोजन न भूल जाने मानव रोटी दाल का यंत्र न रह जाय । मिट्टी में पलकर भी हमें अमरत्व की ओर बढ़ना है, पृथ्वी पर रहकर भी अपार्थिव से प्रेम करना सीखना है। इसी संकेत पर अर्द्धतर्षि दिव्य खेती का संदेश देते हैं। दिवं भो किसि किसेजा, णो अपिणेजा पिंगेण महणापरिष्वायपणं अरदता इसिणा बुद्दते । अर्थ :- हे साधक ! तू दिव्य खेती कर उसे छोड़ नहीं । ब्राह्मण परिवाजक पिंग अर्हतर्षि ऐसा बोले । गुजराती भाषान्तर : સાધક ! તું દિગ્ન્ય ખેતી કરવા શરૂ કર્યા પછી કોઈ પણ કારણને લીધે છોડો નહીં. એમ ગ્રાહ્નણ પરિવ્રાજક पिंग तर्षि मो. पिंग अर्ष के सम्बन्ध में वहां एक परिचय सूत्र मिलता है। वे ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे और बाद में परिमाजक बने थे। परिव्राजक के रूप में अहत्य प्राप्त क्रिया था । १ पनसरकम्मादाणाई जाणियचा न समायरियच्वा । उपासक दशा । २५ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ इसि मासियाई जिसे नष्ट प्राप्त हो चुकी है फिर बाहरी देश उसके विकास में बाधक नहीं हो सकता। जैनधर्म ने एक दिन आघोषित किया था कि कोई भी लिंग या वेश सत्यपि पाने में बाचक नहीं हो सकता । वह देश या रूप को नहीं पूछता; वह तो इतना ही पूछता है क्या आपको सत्यदृष्टि मिल चुकी हैं ? फिर किसी भी रूप में रहो तुम साधना के पथ पर हो । तिद्विप्राप्ति के पन्द्रह मार्गों में अन्यलिंग सिद्ध को स्वीकार कर जैन दर्शन बहुत बड़ी विचार क्रान्ति का परिचय देता है | स्वयं भगवान् महावीर के युग में बहुत से ऐसे साथ थे जिनका वेश और क्रियाकाण्ड दूसरी संप्रदाय का था, किन्तु अन्तर से प्रभु महावीर के भक्त थे, इसी लिये अन्तर्दृष्टा भगवान् महावीर ने उन्हें अपनाया ही नहीं श्रावक के रूप में स्थान भी दिया। अखंड पाराजक ऐसा ही साधक था जिसने परित्राजक के रूप में ही भगवान महावीर की उपासना की थी । भगवान महावीर की देशना ने इन्हें काफी प्रभावित किया था, फिर भी वे अपने परंपरागत वेश का मोह छोड़ नहीं सक को भगवान महावीर ने कहा मुझे मिलने में वेश दीवार नहीं बन सकता । अपंग भी ब्रह्मण परिव्राजक थे और उन्होंने उसी रूप में दृष्टि भाई थी, इसीलिये सूत्रकार ने निशेष रूप से दन गरिचय दिया है जोकि जनदर्शन की विशालता का परिचायक हैं। ही अतर्षिपिंग दिव्य खेती की प्रेरणा दे रहे हैं। अनंत युग बीते पार्थिव खेती करते, अब जरा आश्मिक खेती की ओर लक्ष्य दे। वह सूनी पड़ी है। एक कण भी उसमें बोया नहीं गया है। छच्चीसवें अध्ययन में मातंग अर्हतषि गी इन्हीं शब्दों में दिव्य कृषि का उपदेश देते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र के बारहवें अध्ययन में भी आत्मिक खेती का संकेत मिलता हैं। पाक कुलोत्पन्न हरिकेशी मुनि ब्राह्मण कुमारों को कहते हैं कृषक जिस भावना को लेकर उब भूमि में बीज बोते हैं उसी भावना से निध भूमि में भी बीज डालते हैं, इसी था से तुम मुझे भी दो और इस पुण्य क्षेत्र की आराधना करो। टीका - दिव्यां भो कृषि कृषेत् नापयेत् । गतार्थः । कतो छेकतो वीयं कतो ते जुगणंगलं । गोणा वि तेण परसामि, अजो ! का नाम ते किसी ? ॥ १ ॥ अर्थ :- तुम्हारा क्षेत्र ( खेत ) कहां है, तुम्हारे नीज कहां हैं और तुम्हारे युगलांगल कहां है ? तुम्हारे पास गोकस भी दिखाई नहीं देते। फिर आर्य । तुम्हारी खेती क्या है ? गुजराती भाषांतर : તમારું ખેતર ક્યાં છે? તમારું બીજ ક્યાં છે? અને તમારો યુગલોંગલ ( લંગર ) ક્યાં છે કે તમારે પાસે તો ગાયનું વાછરડું પણુ ક્યાંય દેખાતું નથી. ત્યારે હું આયે ! તમારી ખેતી હૈવી છે? पिंग ने जब दिव्य खेती निमण किया तो कृषक ने प्रश्न किया तुम्हारी खेती क्या है, तुम बोलते हो मैं दिव्य खेती करता है, किन्तु खेती के अयोगी एक भी प्रसाधन तुम्हारे पास दिखाई नहीं देता, न खेत है न बैल, न युगलांगल और न बीज है, फिर तुम कौनसी खेती करते हो ? टीका :- कुतः क्षेत्रं कुतो बीजं कुतस्तव युगांगले ? मा अपि तत्र न पश्यामि हे आर्य ! का नाम तत्र कृपिरिति प्रभाः । गतार्थः । आध्यात्मिक खेती के प्रसाधन बताते हुए अर्हता धोलते हैं - १ बीया उत्तरा० अ० १२० १२. आता छेत्तं तत्रो बीयं संजमो जुगणंगलं । अहिंसा समिती जोजा एसा धम्मंतरा किसी ॥ २ ॥ 1 अर्थ :- आत्मा क्षेत्र है, तप बीज है, और संगम ही युगलांगल है | अहिंसा और समिति जोड़ने लायक (सुन्दर बैल) हैं, यह धर्मान्तर कृषि है । कासगा तब निन्ने आसयाए । यहि सुद्धा हि दलाहि मां आराह पुण्ग मिणं सुखिर्त्त Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीसवाँ अध्ययन १९५ गुजराती भाषान्तर: પોતાનો આત્મા જ યુગલાંગલ ( લંગર છે, હિંસા અને સમિતિ જોડવા લાયક ( પુષ્ટ એલ ) છે, અને આ धर्मांतर कृषि (खेती) छ. आध्यात्मिक खेती के प्रसाधन भी आध्यात्मिक ही होंगे। भौतिक साधनों से आत्मा की खेती नहीं हो सकती । अत उसी आत्मिक खेती का निरूपण करते हुए कहते हैं आत्मा ही मेरा क्षेत्र है, तप बीज है, संयम ही युगलांगल रहता है | अहिंसा और मंच समिति खेती के लिये पुष्ट वृषभ हैं, यही मेरी आध्यात्मिक खेती ( की सामग्री ) है । साधना का मूल प्राण आत्मा है। आत्मा ही वह तत्व है जिसके आधार पर धर्म का भवन टिक सकता है, आत्मा को स्वीकार नहीं किया जाय फिर कैसा धर्म, किसकी शुद्धि के लिये साधना की जाय । आत्मा है तो प्रश्न होगा उसका रूप क्या है ? देव के गुणधर्म आत्मा के गुण के धमों से निश्चित ही भिन्न है। क्योंकि देव से आत्मा मिन्न' है । फिर वह शुद्ध बुद्ध आत्मा संसार के कीचड में क्यों फंसा है और वह पुनः शुद्ध स्थिति पा सकता है या नहीं ? यदि पा सकता हैं तो उसके उपाय क्या है ? इन सभी प्रश्नों के समाधान में अध्यात्म फिलासॉफी आई है और वह कहती है आत्मा का शुद्ध स्वरूप भिन्न है, किन्तु वासना के कारण वह संसार के कीचड में लिप्त हैं । वह शुद्ध स्थिति पा सकता है उसका साधन है तप, संयम, अहिंसा और पंत्र समितियों। यहां रूपक के द्वारा अतर्षि इसी तत्व का प्रतिपादन करना चाहते हैं । टीका :- आत्मा क्षेत्र तपो बीजं संयमो युगलांगले । अहिंसा समितिश्च योग्या, एषा धर्मान्तर धर्म- गर्भा कृषिः । गतार्थः ॥ एसा किसी सोभतरी अलुइस्स विवाहिता । एसा बहुसई होइ परलोकसुहावा ॥ ३ ॥ अर्थ :--- यह खेती शुभत्तर हैं, किन्तु निर्लोभ व्यक्ति ही इसे कर सकता है। यह खेती अतिसुन्दर है और परलोक में सुखप्रद है । गुजराती भाषान्तर : આ ખેતી વધારે શુભ (શુદ્ધ) છે, પરંતુ ક્ષોભવગરનો માણસ જ આવી ખેતી કરી શકે છે, આ ખેતી આ લોકમાં ઘણી જ સુંદર છે, અને પરલોકમાં પણ સુખ આપનાર છે. आत्मिक खेसी शुभ या शुद्ध है, किन्तु इसे करने के लिये तृष्णा विहीन मन चाहिये । क्योंकि लोमी बहरा है, आत्मा के स्वर नहीं सुन सकता है। एक विचारक ने कहा है - लोभी का मन रेगिस्तान की उस बंजर भूमि जैसा होता हैं जो तमाम बरसात और जोस को सोख लेती है किन्तु कोई फलम, जड़ी या बूढी नहीं उगाती । उसके मन के रेगिस्तान में शान्ति की लता ऊग नहीं सकती। आँस से कुआ नहीं भरता । ऐसे धन से लालची की आंख नहीं भरती । जब पैसे में सुख देखनेवाला चैतन्य की लक्ष्मी नहीं पा सकता । आध्यात्मिक खेती चैतन्य की लक्ष्मी है। उसे संतोषी मन ही पा सकता है। पार्थिव खेती शरीर की भूख मिटाती है जब कि आत्मिक खेती आत्मा की भूख मिटाती है। पहली खेती इस जीवन के लिये सुखप्रद है, तो दूसरी खेती परलोक में हितप्रद है । अहिंसा की खेती परलोक में अवश्य सुखप्रद होती है इसमें किसी के दो मत नहीं हो सकते । किन्तु इससे यह तात्पर्य निकालना गलत होगा कि अन्न की खेती परलोक में दुःखप्रद होगी । आगम साक्षी हैं, भगवान् महावीर के उपासक स्वयं खेती करते थे और उनका पारलौकिक जीवन भी उतना ही सुखप्रद था जितना कि इहलौकिक जीवन | खेती का निषेध करने का यह मतलब होगा कि मांसाहार को प्रोत्साहन देना जोकि निश्रयतः दुःखावह है । टीका :- एषा कृषिः अन्धस्य पुरुषस्य शुभतराऽतिशुभा व्याख्याता । एषा बहु-सती अतिसाध्वी परलोके सुखावहा च भवति । १ नलिन्यो व थथा नीरं मित्रं तिष्ठति सर्वदा । अयमात्मा स्वभावेन देहे तिष्ठति सर्वदा परमानंदपं वविंशति २ या भाषैणादान-निक्षेपोत्सर्गाः समितः । - तत्वार्थ सूत्र अ, ९ सू. ५. ३ शुद्धतारा. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 १९६ इसि - मालियाई एयं किसि फसित्ताणं सव्वसप्तदयावहा । माहणे खत्तिए वेस्से सुने वा वि य सिज्झति ॥ ४ ॥ अर्थ :- प्राणिमात्र पर दया का झरना बहाने वाली इस खेती को करके ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी सिद्ध स्थिति को पा सकता है । गुजराती भाषान्तर : હરએક પ્રાણી પર દયાનું ઝરણુ હંમેશા ચાલુ રાખનારી આ ખેતીને કરી ગ્રાહ્નણુ, ક્ષત્રિય, વૈશ્ય અને શુદ્ધ પણુ સિદ્ધપદને પ્રાપ્ત કરી શકે છે. जिसके मन के कोने में प्राणि मात्र के प्रति दया और प्रेम का झरना फूट पड़ा है। जिसका करुणा निर्झर देश, काल पंथ और संप्रदायों के गड्ढ़ों में कैद नहीं होता, अपि तु मानव मात्र नहीं, प्राणिमात्र के लिये मुक्त रूप में बहता है । वहीं सिद्धि-स्थिति पा सकता है। फिर वह चाहे किसी भी जाति में जन्मा हो, किसी भी पंथ में पला हो जिसने आत्मा के क्षेत्र में करुणा के बीज डाले हैं वह बन्धनातीत है। एक इंगलिश विचारक भी बोलता है - Paradise is open to all kind hearts. दयालु हृदय के व्यक्ति के लिये स्वर्ग के द्वार सदैव खुले दया ही एक ऐसा तत्व है जो मानव में मानवता की प्राण प्रतिक्ष कर सकता है। उसी पर हमें गर्व होना चाहिये । मानव यदि यह अहंकार करे कि मैं श्राकाश में उड़ सकता हूं किन्तु आकाश में उड़ना कोई चमत्कार नहीं है । एक गन्दी मक्खी भी आकाश में उड़ सकती हैं । यदि वह अहंकार करे कि मैं विशाल काय महासागरों को पार कर सकता हूँ यह भी उसका मिथ्या अहंकार है, क्योंकि एक मछली भी पानी में तर सकती है । किन्तु यदि वह बोलता है मेरे दिल में दया का झरना बढ़ रहा है तो सचमुच वह उसके गौरव की वस्तु होगी । जिसके दिल में दया है वहीं दिल का अमीर भी है। उसका हृदय सदैव प्रसन्नता से भरा रहता है। एक विचारक बोलता है A kind heart is a fountain of gladness, making overything in its vicinity freshness into smiles. -1 इर्निंग दयाल हृदय प्रसन्नता का फौव्वारा है जोकि अपने पास की प्रत्येक वस्तु को मुस्कानों में भरकर ताजा बना देता है । वास्तव में आज हम एक दूसरे के इतने निकट हैं एक दूसरे के प्रति विश्वास और निशा है वह सत्र दया की देन है, क्योंकि क्या वह सुनहरी चेन ( अंजीर ) है जो समाज को संगठित रखती है । Kindness is the golden chain by which society is bound together. वास्तव में जिसके हृदय में दया का झरना बह रहा है स्वर्गीय आनंद उसके हृदय में नृत्य करता है । टीका :- एतां कृषि ऋष्ट्वा सर्वसत्वदयाव । बाह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रोऽपि वा सिध्यति । पिंगाध्ययनम् शिस्य द्वितीयपाठ । गतार्थः । प्रस्तुत अध्ययन में छब्बीसवें अध्ययन के द्वितीय पाठ के समान है । एवं से सिद्धे बुद्धे० ॥ गतार्थः । इति पिंगअतर्षिप्रोक्त बत्तीसवां अध्ययन | 114X3 1 | Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महासाल पुत्र अश्ण अर्हतर्षि प्रोक्त तेंतीसवां अध्ययन मानव के पास दो शक्तियां हैं - एक जीभ और दूसरा जीवन । जीभ तो यद्यपि पशु को भी मिली है किन्तु पशुओं की जीभ उनके भावों को स्पष्टतः अभिव्यक करने में असमर्थ है । जवकि मानव को कुदरत की यह देन है कि वह अपने विचारों को वाणी के द्वारा अभिव्यक्त कर सकता है। देखना यह है वाणी का वरदान पाकर मानव उसका उपयोग किस ढंग से करता है। वाणी के द्वारा हम दूसरों के हृदय के घावों को भर सकते है और उसके जीभ के द्वारा दूसरे के दिल में घाव भी कर सकते है। किन्तु यह भूलना न होगा कि जीभ के द्वारा किया गया जस्म तलवार से भी गहरा होता है। महान् विचारक पाइश्वेगोरस ने कहा है- A wound from a tongue is worse than th wound from it aword, for the latter affects only the body, the former the spirits. जिला का घाव तलवार के शव से बुरा होता है, क्योंकि तलवार शरीर पर आधात करती है जब कि जिला आत्मा पर । एक जापानी कहावत भी है 'जीभ केवल तीन इंच लंबी है जब कि वह छ: फूट ऊंचे आदमी को समाप्त कर सकती हैं। किन्तु जिला का गरगोग माननीयता क रता है। एक वैद्य जीभ को देखकर भीतर का हाल बता सकता है। इसी प्रकार जीभ के द्वारा व्यक्ति की भीतरी अच्छाई और बुराई का पता लग सकता है। यह विद्वाम् है या मूर्ख है यह वाणी के द्वारा जाना आ सकता है । मूर्ख के सिर पर सिंग नहीं होते और विद्वान् के हाथों में कमल नहीं खिला करते, किन्तु जब वे मुंह खोलते हैं तभी उनकी कुलीनता का परिचय होता है। वाणी के साथ आचरण आता है । वाणी सुन्दर है और आचरण दृषित है तब भी जीवन में सुन्दरता नहीं आ सकती । संपति का भी प्रभाव होता है। वक्तृत्व कला में भी जादू होता है। सौन्दर्य में भी एक आकर्षण होता है. किन्तु समस्त प्रभाव उसी क्षण समाप्त हो जाते हैं जब कि जीवन का प्रभाव समाप्त हो जाता है। एक विचारक के शब्दों में A beautiful behaviour is better than a beautiful form, it gives a higher ploasure thun statues and pictures, it is the finest of the fine arts. सुन्दर आकृति की अपेक्षा सुन्दर आचरण श्रेष्ठ है । क्योंकि यह मूर्तियों और फोटूओं से भी अधिक आनंद देता है। यह समस्त कलाओं में श्रेष्ठ कला है। जिसने वाणी और वर्तन (आचरण) की कला पाई है वही विद्वान है। प्रस्तुत अध्याय इसी भित्ति पर खड़ा है। दोहिं ठाणेहिं यालं जाणेजा दोहि ठाणेहिं पंडितं जाणेजा । सम्मापओएणं; मिच्छा पोतेणं कम्मुणा भासणेण य । अर्थ:-दो स्थानों से मानब का बाल रूप प्रकट होता है और दो स्थानों से पंडित जाना जाता है । घम्यक् प्रयोग और मिथ्या प्रयोग से; कर्म से और भाषण से । गुजराती भाषान्तर: માણસનું બાલરૂપ બે કારણોથી સાફ સાફ () જણાય છે, અને એ કારણથી પંડિતને ઓળખી શકાય छ. ते ॥ -सभ्य प्रयोग, मिथ्या प्रयोग, र्भ भने मापथी. ज्ञानी और अज्ञानी की पहचान क्या है ? उसके उत्तर में अहर्षि कहते हैं-हर आत्मा में अनंत शक्ति है । उस शक्ति का वह उपयोग किस रूप में करता है उसी आधार से बताया जा सकता है कि यह विद्वान् है या मूर्ख । शक्ति राषण को मिली थी तो शक्ति हनुमान को भी मिली थी। एक ने अपनी शक्ति का उपयोग असदाचार में किया तो दूसरे ने अपनी शक्ति एक महापुरुष की सेवा में समर्पित कर दी । इसीलिये एक ने विश्व से घृणा पाई जबकि दूसरे को दुनिया ने पूजा है। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि भासिया शक्ति का सम्यक् प्रयोग करने पर मानव का पंडित रूप व्यक्त होता है और जब कि आत्मा की शक्ति मिथ्या प्रयोग की और होती है तब वह बाल कहलात । यह सम्यक् और मिथ्या प्रयोग वाणी और कर्म दोनों प्रकार का होता है। दीका :- द्वाभ्यां स्थानाम्यां वाले जानीयात्, द्वाभ्यां स्थानाभ्यां पंडितं जानीयात् यथा सम्यक् प्रयोगेन व मियायोगेन च कर्मणा भावयेन चेति श्लोकार्थम् । गतार्थः । १९८ उस दुकडेण य कम्मुणा । बालमेतं वियाजा कजाकज-विणिच्छा ॥ १ ॥ अर्थ : – दुवचैन वोलने, कुकूच करने तथा कार्याकार्य के विनय के द्वारा यह बाल ( अज्ञानी है ) ऐसा समझा जा सकता है। गुजराती भाषान्तर : ખરાબ વાતો કરવાથી, ખરાબ કામ કરવાથી અને કાર્ય અને અકાર્યના નિર્ણય ( કેવી રીતે કરે છે તે ) થી આ માણસ આલ એટલે અજ્ઞાની છે એમ સમજી શકાય છે, वाणी मन का चित्र है। जीभ के द्वारा जीवन परखा जाता है। जब मानव के मुंह से कटु शब्द निकलते हैं तो समदा लेना होगा भीतर का मरी | शीशी में इन भरा है या गटर का पानी यह निर्णय उसी क्षण हो जाता जबकि उसका दफन ( वुच ) खोला जाए। ऐसे ही यह विद्वान है या मूर्ख यह निर्णय भी उसी क्षण हो जाता है जब कि उसके मुंह का ढक्कन खुलता है । किन्तु हमें यह भी याद रखना चाहिये कि कटु और तीखे शब्द कमजोर पक्ष की निशानी है । मनुष्य हंसी और मजाक में कभी व्यंग के बाण छोड़ता है । किन्तु वे व्यंग के विष वुझे बाण हृदय की प्रसन्नता छीन लेते हैं। अतः ऐसी मजाकों से हमें बचना चाहिये जो हमारे मित्र के लिये तीर का काम दे । एक इंग्लिश विचारक बोलता है-Give yourself to be merry, but lot your mirth be ever Void of all icurre lity and biting words to any mann for a wound given by a word is often times harder to be cared than that which is given with the sword. तुम अपने आपको विनोद में रखो, किन्तु असभ्य भाषा और काटनेवाले शब्दों से तुम्हारे विनोद को दूर रखो, क्योंकि किसी भी मनुष्य पर किये गये शाब्दिक घाव का भरना तलवार के घाव से भी अधिक कठिन होता हैं । अतः हमारे व्यंग विनोद भी मधुर हों किसी के दिल में छेद है ऐसा नहीं होना चाहिये। साथ ही हमारे कार्य भी सुन्दर होने चाहिये । मधुर हैं किन्तु कार्यक है तो ऐसी मधुर शब्दावलि कोई महत्व नहीं रखती । वह तो "विषकुंभं पयोमुखं" है । अतः वाणी का माधुर्य जीवन में उतरना चाहिये। साथ ही हमारी विवेक दृष्टि रात्र खुली रहनी चाहिये । यदि विवेक का प्रदीप बुझ गया तो जीवन की अंधेरी रात में कर्तव्य की प्रेरणा नहीं मिल सकती। हां, तो हमें याद रखना है जिसकी वाणी से अशुभ शब्द निकलते हों, जीवन दुष्कृत्यों से दूषित हो और जिसका विवेकदीपक बुझ गया हो वह अज्ञान से आवृत है, फिर उसने चाहे जितने शास्त्र क्यों न रट रखे हों । टीका :- दुर्भाषितया भाषया दुष्कृतेन च कर्मणा, कार्याकार्यविनिश्चये बालमेतं विजानीयात् । सुभासियार भासा सुकडेण य कम्मुणा । पंडितं तं वियाणेजा धम्माधम्म- विणिच्छप ॥ २ ॥ अर्थ :- सुभाषित वाणी, सुन्दर नृत्य और धर्माधर्म के विनिश्चय के द्वारा पंडित की पहचान होती है। गुजराती भाषान्तर :-- વિદ્વાન માણસની સાચી ઓળખાણ તેના મોલવા-ચાલવા ઉપરથી, ` સારા કાર્યો અને ધર્માધર્મના નિર્ણય ઉપરથી તરતજ થઈ જાય છે. व्यक्ति की अच्छाई बुराई की पहचान उसकी वाणी और कार्यों के द्वारा होती है। स्थूल माप दंडों के द्वारा व्यक्ति मापा नहीं जा सकता | आज व्यक्ति पैसे के गज से मापा जाता है और सोने के पाटों द्वारा तोला जाता है। जिसके पास अधिक संपत्ति और वैभव विलास के प्रसाधन हैं वह श्रेष्ठ माना जाता है, किन्तु व्यक्ति को इस रूप में तोलकर हम अप्रत्यक्ष Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसवां अध्ययन १९९ रूप से उस सोने का शासन स्वीकार कर लेते हैं, जोकि अनुभव हीन है। उसे शासक बनाकर समाज में से अच्छाईयों को देश निकाला देते हैं। पैसा नौकर अच्छा है किन्तु उसे स्वामी बनाकर तो हम अपने आपको मानसिक गुलामी की जंजीरों में जल देते हैं। Money is a good servant but & bad master पैसा नोकर अच्छा है किन्तु स्वामी के रूप में पैश्वा बहुत बुरा है । व्यक्ति की अच्छाई पैसे के द्वारा न मापी जाकर उसकी मधुर वाणी और अच्छे कार्यों द्वारा मापी जानी चाहिये । दुभालियार भासा दुकडेण य कस्मणा । जोगक्लेमं वहतं तु उसु वायो व सिंचति ॥ ३ ॥ अर्थ :- दुर्भाषित वाणी और बुरे कार्यों के द्वारा जो योगक्षेम का वहन करना चाहता है वह मानो देख को वायु से सिंचन करता है । गुजराती भाषान्तरः ખરાબ (ભૂંડ) બોલી, અને ખરાબ કામો કરી પોતાની જીંદગીની ગુજણુ ફરવા ચાહનાર માણસ પવનથી शेरीन (सिंचनशी ) बता शमचा भागे है. ५ मधुर वाणी में शक्ति बसती है और सुन्दर आचरण में पवित्रता रहती है। किन्तु जिनके पास दोनों का अभाव है वह मन का दरिद्री हैं । उसके पास योग और क्षेम दोनों ही नहीं आ सकते । असभ्य वाणी और बुरे कार्यों के द्वारा ओ व्यक्ति रोगक्षेम चाहता है उसका कार्य वायु के द्वारा इक्षु के सिंचन सा निष्फल है। टिप्पणी- 'उतुवायो' शब्द अप्रचलित है। कोश में भी परिलक्षित नहीं होता। उसका एक संभावित अर्थ ऊपर दिया जा चुका है। दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है-पात के पत्रों का सिंचन; यह भी एक निष्फल किया ही हैं । सुभासिया भासाव सुकडेण य कम्मुणा । पणे कालवासी वा जसं तु अभिगच्छति ॥ ४ ॥ अर्थ:-सुभाषितवाणी और सुन्दर कृत्यों के द्वारा मानव समय पर बरसनेवाले मेघ के सदृश यश को प्राप्त करता है । गुजराती भाषान्तर : સીડી વાણી બોલી અને સારા કૃત્યો કરનાર માણુસ સમય પર આવેલા મેઘરાજની જેમ સર્વત્ર વખાય છે, जिसकी वाणी में अमृत बरसता हो और जिसके जीवन में सदाचार की सौरभ है उसका जीवन उतना ही यशस्वी होता है जितना कि समय पर बररानेवाला मेघ । टीका :-- सुभाषितया भाषया सुकृतेन च कर्मणा । पर्जन्यः कालत्रयौन यशोऽभिगच्छति । गतार्थः । य बालेहि संस रिंग णेत्र वालेहिं संथवं । धमाधम्मं च वालेहिं गेच कुन कडाइ यि ॥ ५ ॥ अर्थ :-- साधक अज्ञानियों का संसर्ग न करे और न उनसे परिचय ही रखें। उनके साथ धर्माधर्म की चर्चा भी न करें ! गुजराती भाषान्तर : સાધકે અજ્ઞાની માણુસૌથી છેટે જ રહેવું જોઈ એ. અને તેવા માસો સાથે પોતાનો સંબંધ પણ રાખવો નહીં અને તેવા માણુસો સાથે ધર્મ-અધર્મની ચર્ચા પણ કરવી નહી. प्रस्तुत गाथा में साधक को अज्ञानियों के संसर्ग से दूर रहने की प्रेरणा दीगई है। क्योंकि मूर्ख व्यक्तियों का परिचय भी कष्टप्रद होता है। कोयले का व्यापार करनेवाले के हाथ काले हुए बिना नहीं रहते। ऐसे ही अज्ञानियों से अति परिचय रखनेवालों का जीवन भी उज्वलता को खो बैठता है । “जैसा संग चैंसा रंग" मनुष्य जिसके साथ रहता है पैसा बन जाता है। एक कहावत है यदि तुम मेड़िये के साथ रहोगे तो गुर्राना भी सीख जाओगे । यह तो देखा गया है कि बकरी चरानेवाला वकरी की भांति झुककर पानी पीता है। इंग्लिश विचारक बोलता है- Tell me with whom thou art fond and 1 will tell thee who thou art. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलि-भासियाई यदि मुझे मालूम हो जाय कि तुम किसके साथ रहते हो तो में बता सकता हूं कि तुम कौन हो। प्याज का साथ करनेवाली थेली से प्याज की बास आयेगी और गुलाब के फूलों का साथ करनेवाली शैली में फूलों की सौरभ आयेगी। यद्यपि निश्चय दृष्टि में एक प्रात्मा न दूसरे को सूधार सकती है, न उभे बिगाड़ ही सकती है। यदि उसमें विकृति भाने का गण है तो पहीलो र साहै। लबाड़ में जलने का स्वभाव है तभी तो आग उसे जलाती है। पत्थर में वैसा स्वभाव नहीं है अतः दुनिया की कोई भी आग उसे जला नहीं सकती। इसी प्रकार जिसमें चिकृत होने का स्वभाव है उसे ही बाहरी संयोग विगाड़ सकते हैं। साथ ही उसके पतन का समय है तभी उसे ऐसा संयोग मिलता है। यदि उसका उदयकाल है तो उसे निमित्त भी सुंदर मिलेंगे। फिर भी भावी भाव का ज्ञान न रखनेवाला जन सामान्य निमित्त से प्रभावित हो ही जाता है । हां, जिनकी चेतना जागृत है और जो विशिष्ट स्थिति तक पहुंच चुके है फिर वाहरी निमित्त उन्हें प्रभावित नहीं कर सकते हैं । गौशालक का निमित्त पाकर भी भगवान् महावीर की आत्मा विकृत नहीं हो सकी, क्योंकि वे निम्न भूमिकाओं को पार कर गये थे और विकारों पर विजय पाने की उनमें क्षमता भी थी। इसीलिये अशुम वातावरण भी उनकी शुभवृत्ति को अशुभ में मोड़ नहीं सका। फिर भी जन साधारण को चाहिये कि जब तक उच्च स्थिति पर पहुंच न जाए तब तक सुन्दर निमित्तों के बीच रहे, ताकि सुन्दर संस्कार मिलते रहें । क्योंकि यदि शरीर स्वस्थ और सबल है तो बाहर के कीटाणु उरा पर आक्रमण नहीं कर सकते। उसके शरीर के कीटाणु रोग के कीटाणुओं से लड़ सकते हैं, किन्तु यदि शरीर दुर्बल है और हार्ट कमजोर है तो रोग के कीटाणु बहुत जल्दी असर कर सकते हैं। इसीलिये तो डाक्टर रोगी को स्वच्छ वातावरण में रहने की खास हिदायत देते है। इसीलिये जन साधारण को भी चाहिये, कि जबतक चेतना पूर्ण विकसित न हो तब तक दूषित वातावरण से अवश्य बचता रहे। इटेवाकित्ति पावेहि पेश्या गच्छेइ दोग्गति । सम्हा बालेहि संसगिणेव कुन्जा कदावि वि ।। ६॥ अर्थ:-रानों के द्वारा यहां भी अपयश मिलता है और बाद में आत्मा दुर्गति को जाता है। अतः साधक अज्ञानी आत्माओं का संसर्ग कमी न करे। गुजराती भाषान्तर : પાપો (ખરાબ કામ) કરવાથી આ ભવમાં પણ અપયશ મળે છે અને પછી તે આમા દુર્ગતિને પ્રાપ્ત કરે છે, માટે સાધકે અજ્ઞાનની આત્માઓને સાથે કોઈ તરહનો સંબંધ કોઈ પણ સંજોગમાં ન કરવું જોઈએ. पूर्व गाया में माधक को अज्ञानी आत्माओं से दूर रहने की प्रेरणा दी गई थी । यहां उराका प्रतिफल बताया गया है। मूखों का संग यहां भी अयश को दिलाता है। जो मून्दी के परिचय में रहता है और उनके इशारों पर काम करता है दुनियाँ उसे भी कभी सम्मान नहीं देती । साथ ही जब वह यहां से विदा लेता है तो परलोक में उसे सुन्दर स्थान नहीं मिलता । अतः वह उभयतो भ्रष्ट होकर अशान्ति पाता है। अनः विचारशील साधक अज्ञानियों के संसर्ग से दूर रहे। भगवान महावीर मे साधक को प्रेरणा दी थी : अज्ञानियों के संग से दूर रहो। साहहिं संगम कुजा साहहिं चय संथ । धम्माधम्मं च साहहिं सदा कुश्विज पंडिए ॥६॥ अर्थ:-साधक साधु पुरुषों का संगम करे और साधु पुरुषों का ही संस्तव करे । प्रज्ञाशील पुरुष धर्म की चर्चा भी साधु पुरुषों के साथ ही करे। गुजराती भाषान्तर:- સાધકે સજજને સાથે સંબંધ રાખવું જોઈએ, અને સાધુ પુરૂષોની જ સ્તુતિ કરવી. તેમજ બુદ્ધિમાન પુરૂષ ધર્મની ચર્ચા સજજનો સાથે જ કરવી, ___ साधुपुरुषों का परिचय जीवन का निर्माण करता है। बवूल की छाया में काटे मिलते हैं और नीम के निकट जाने पर शुद्ध वायु मिलती है। ऐसे ही जीवन के कलाकारों के पास जीवन-निर्माण की प्रेरणा मिलती है और अज्ञानियों के निकट जीवन को गिराने की बातें मिलती हैं। १न जारजातस्य ललाटगं कुले प्रसूतस्य न पाणिपाम् ॥ यदा यदा मुत्रति वाक्यबाण सदा तदा जातिकुलप्रमाणम् ।। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीसवां अध्ययन २०१ यद्यपि हमारे उत्थान और उत्थान का दायित्व हम पर ही है फिर भी निमित्त मी एक चीज है। अतः जब तक हमें जीवनधारा का सार्वभौम ज्ञान नहीं है तब राक अशुभ निमित्तों से बचना आवश्यक हो जाता है । अतः साधक सदैव कुत्सित 'युस्यों के संग से बचकर राज्जनों का साहचर्य करे। भले ही ये उपदेशन दें, किन्नु सजनों का संग ही शास्त्र है। महापुरुष वाणी की अपेक्षा जीवन से अधिक उपदेश दे देते है। और धर्माधर्म की चर्चा भी साधु पुरुषों के साथ ही करना योग्य है। क्योंकि नूखों के साथ की गई चर्चा में कभी तत्त्व नहीं मिल सकता। उनके पास अपशब्द एवं गालियों का अजस्त्र प्रवाह गेला रहता है और वह सबके लिये समानरूप से बहता रहता है। अतः उनसे दूर रहना ही श्रेयस्कर है। विचारकों के साथ तत्वचर्चा में उनके मस्तिष्क का चिन्तन सिलता और नवे विचार मिलते हैं। टीका:-साधुभिः संगमं च संस्तवं च धर्म च कुर्यादिति स्पष्ट, कुतस्तु धर्मस्य विपरीतमधर्म कुर्यादिति न झायसे । अर्थात् साधुओं के साथ संगम, संरतव और धर्म करे यह तो स्पष्ट है । किन्तु धर्म से विपरीत अधर्म क्यों किया जाय यह समझ में नहीं आता। टीकाकार को सज्जनों के साथ धर्माधर्म करने में संदेह हो रहा है। यदि यह केवल धार्मिक क्रिया से सम्बन्धित बात हो तब तो यह प्रश्न योम्प है, किन्तु धर्माधम से यहां धर्म चर्चा के साथ अधर्म-चर्चा भी आवश्यक बताया गया है। क्योंकि जब तक अधर्म को न समझा जायेगा तब तक धर्म का स्वरूप भी पूर्णतः समझा नहीं जा सकता । अहिंसा स्वरूप शान प्राप्त करने के लिये हिंसा को समझ लेना भी आवश्यक हो जाता है तो धर्म के साथ अधर्म का प्रश्न भी लगा रहता है। हेव कित्ति पाउणति पेशा गच्छह सोगति । सम्हा साधूहि संसम्गि सदा कुधिज पंडिप ॥ ८ ॥ अर्थ:-साधु स्वभाषी पुरुषों के संग के द्वारा आत्मा यहाँ पर यश प्राप्त करता है और परलोक में शुभ गति को प्राम करता है। गुजराती भाषान्तर: સારા સ્વભાવના માનવોના સહવાસથી આત્માને આ લેકમાં ફી મળે છે અને પરલોકમાં પણ રદ્દગતિની आशियाय छे. लन का मुन्दर साधी मानव को ऊर्यमुखी बनाता है। पानी नीग की जड़ों में पहुंचता है तो कट रूप लेता है और दृढ के खेत में पहुंचता है तो मधुर रस का रूप लेना है। न्वागी नक्षत्र की वे ही बूंदें सांप के मुख में निरकर विष बनती हैं तो गाय के दारीर में दूध के रूप में परिणत होती हैं । जब कि सीप उसे मोवी का रूप देनी है, साथी की अच्छाई और बुराई जीवन में भी अच्छाई और बुराई लाती है। खइणं पमाणं वत्तं च देजा अज्जति जो धणं । सद्धम्म-वक-दाणं तु अक्खयं अमतं मतं ॥९॥ अर्थ:-जो मनुष्य धन एकत्रित करता है काल उसके लिये संदेश देशा है कि यह मर्यादित है और एक दिन नष्ट होनेवाला है । 'नय कि सद्धर्म का वाक्य का दान तो अक्षय और अमृत तुल्य है। गुजराती भाषान्तर: જે માણસ દ્રવ્ય (પૈસા)ને સંઘરે છે તેને કાળ એવો સંદેશો આપે છે કે આ ધન મર્યાદિત (અમુક સમય સુધી જ ટકનાર) છે અને કોઈ એક દિવસે એનો નાશ તો થવાનો જ છે. જ્યારે સદ્ધર્મના વાળનું દાન તે લાંબા સમય સુધી ટકે એવું અને અમૃત જેવું મીઠું છે. अहिईष्टि मानब के लिये प्रस्तुत गाथा में महत्वपूर्ण संदेशा है । वह धन एकत्रित करता है । मानता है अनंत काल तक के लिये यह मेरे साथ रहेगा । किन्तु वह बहुत बड़ी भूल करता है । संपत्ति मानव की छाया है, किस क्षण उसके पुण्य रूप सूर्य पर अगुभोदय के बादल आ जाएंगे यह कद्दा नहीं जा सकता, किन्तु बादल आते ही संपत्ति की छाया सर्व प्रथम १ अलं नालस्स संग-आचारांग सूत्र । २ परिचरितव्याः सन्तो यथापि कथवन्ति नो सदुपदेशम् । यास्तेषां स्वैरकथा ता एव भवन्ति शारागि। ३पन्छा. ४ सद्धम्मचकदाणं । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ इसि-भालियाई साथ छोड़ देगी । इसीलिये एक विचारक ने कहा है-शरीर की सजावट करनेवाले पर मृत्यु मुस्कराती है । यौवन के अणों में इठलाने पर जरा इंसती है । धन को पृथ्वी में गाड़नेवाले पर पृथ्वी इंसती है। यह एक मिथ्या धारणा है हि संपति के द्वारा हम सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं। इंग्लिश विचारक बोलता है-Money will not buy everything पैसा प्रत्येक गोल नहीं खरीद सका। उसके द्वारा फाटन गेन खरीद सकते हैं, पर लेखनकला नहीं मिल सकती। पसे से रोटी खरीदी जा सकती है, लेकिन भूख नहीं मिल सकती । पैसा आपको मा दे सकता है, लेकिन आंसदेने में असमर्थ है। हो, तो अतिर्षि उसी संपत्ति की तुझ्छता बता रहे हैं कि वह संपत्ति इलते सूर्य की छाया सी सीमिन और क्षणिक है। संपत्ति के अर्जन करनेवाले की काल यही संदेश देता है । अथवा यदि संपत्ति का संग्राहक अपनी संपूर्ण संपत्ति भी आपको दे देता है तब भी वह आपको एक नाशवान वस्तु ही दे रहा है। दुनियां की नजरों में वह महान दानी है, किन्तु तत्वष्टा कहता है तू ने ही क्या एक सड़ी गली चीज ही न? कोई शाश्वत वस्तु तो तू. ने न दी। दूमरी और एक संत विचार की किरण देता है वह विश्व को एक महान देन दे जाता है । महर्षियों का चिन्लग और मनन विश्व को नई दिशा देता है और वह विश्व की अमूल्यतम संपत्ति होता है। किसी को संपति देने के बजाय उसे विचारों का दान देना उसके लिये सर्वश्रेष्ठ दान है। टीका:-क्षर्यि प्रमाण वाता च दयाद् यो धनमर्जयति । सबर्मवाक्यदान त्वक्षयममृतं च मतं भवति ॥ गतार्थः । पुणं तित्थं उवागम्म ऐया भोजा हितं फलं । सद्धम्मवारिदाणेणं खिप्पं सुज्झति माणसं ॥१०॥ . अर्थ:-जिस पुण्य तीर्थ को पावर परलोक में जिस फल को तुम मोगोगे उरा फल की प्रसव भूमि हृदय सद्धर्म के पानी देने से जल्दी शुद्ध होता है। गुजराती भाषान्तर: જે પુણ્યભૂમિને મેળવ્યા પછી પરલોકમાં જે ફળ તમે ભગશો તે ફળની પ્રસવભૂમિરૂપી શુદ્ધ હૃદયને સારા ધર્મનું પાણી આપવાથી તે તરત શુદ્ધ થાય છે, मानव पुण्य के भी फल खाना चाहता है। किन्तु जब तक उसकी जड़ों को सिंचन न मिले तब तक पुष्पलता फलवती नहीं हो सकती । हृदय व भूमि है जहां कि पुण्य की लता फैलती रहती है । सद्भग रूप जल देने से हृदयशुद्धि होती है और पुण्यस्ता की जड़ें मजबूत होती है। साधना के क्षेत्र में आँख की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि आंख के अभार में भी साधक साधना कर सकता है । साधना के पथ में जीन की भी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि गूक व्यक्ति गी साधना कर सकता है। वहां पैर की भी आवश्यकता नहीं है और हाथ भी आवश्यक नहीं है। क्योंकि पंगु और टूले व्यक्ति साधना कर सकते हैं । किन्तु वदयकता है छोटे शुद्ध हृदय की । हृदय की पवित्रता समस्त पवित्रताओं में श्रेष्ठ है । वेदव्यास बोलते हैं 'तार्थानां हृदयं तीर्थ शुबीनां हृदय शुचि' तीर्थों में श्रेष्ठ तीर्थ हृद्य है और पवित्र वस्तुओं में पवित्रतम हृदय ही है । एक इंग्लिश की विचारक भी बोलता है - If a good face is a letter of recommendation, I goal heart is uleiter of credit. __ यदि सुन्दर मुख सिफारिश पत्र है तो सुन्दर हृदय विश्वास-पत्र । पवित्र हृदय में धर्म के फूल खिलते है। भगवान महावीर कहते हैं सरल आत्मा ही शुद्ध होता है और धर्मशुद्ध हृदय में ही ठहरता है। ऐसा साधक परम शान्ति को उसी प्रकार पाता है जैसे कि तसिक अनि तेजस्विता को। टीका :--पुण्यं तीर्थमुपागम्य प्रेत्य मुंज्यादितं फलं । सद्धर्मयारिदानेन शिमं तु शुद्धति मनः । सम्भाववकविचेसं सावजारंभकारकं । दुम्मित्तं तं विज्ञाणेजा उभयो लोगविणासणं ॥ ११॥ १ सोही उज्जुय भूयल्स धम्मो सुद्धस्स चितुर । निवागं परने जाइ धमसितेज पात्र । उत्सरा. अ. ४ २ विसेसं. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीसवां अध्ययन २०३ अर्थ:---अपने वक स्वभाव से विवश होकर सावध आरंभ करनेवाले को दुर्मिन समझनाचाहिये। क्योंकि वह दोनों लोकों का विनाश करता है। गुजराती भाषान्तर: પોતાના ઉદ્ધા સ્વભાવને વશ થઈ સવા વ) કાભ કરનારને શમન સમજો, કેમ કે તે બંને (એટલે આ દુનિયા અને પર) લોકોનો નાશ કરે છે. प्रस्तुत गाथा में दुमित्र की पहचान बाई गई है, जिसके जीवन में वना है, जिसके विचारों में कोई दूसरी वस्तु है तो वाणी दूसरी ही बात बोलती है और आचरण दोनों से भिन्न है । ऐसा मित्र अपने साथी के दोनों लोक विगाड़ा है। उसकी वाणी में माधुर्य है, पर हृदय में हालाहल की लहरें हैं। ऐसा व्यक्ति अपने साथी को जीवन के गंभीर क्षणों में धोत्रा देना है। परिणाम में उसका साथी संकल्प और विकल्पों से उत्तरंगा । फिर परलोक के लिये तो उसने सैयारी ही कर की है। साथी की ओर से उसे सदैव सावध कर्मों की ही प्रेरणा मिली है। आत्मा को भूलनेवाला परमात्मा को क्या बाद करेगा? और जिसका यह लोक सुन्दर नहीं है उसके लिये परलोक की सुन्दरता केवल स्वप्न है ।।। अतिर्षि बुरे मित्र से सावधान रहने की प्रेरणा दे रहे हैं । मित्रता जीवन की सबसे बड़ी कला है और मित्र जीवन का अभूल्य खजाना है। जीवन में मित्र बहुत हो सकते हैं 1 किन्तु मित्रों से सावधान रहो जो पक्षी के समान तुम्हारे फलों से लदे जीवन वृक्ष के चारों और मंडराते हैं। याद रखो उस दिन एक भी मित्र तुम्हारे पास नहीं आयमा जबकि तुम्हारे संपत्ति के फल समाप्त हो जाएंगे। इंग्लिश विचारक बोलता हैFriends are plouty wlicn your purse is ful. जब तुम्हारा बटुवा तर है तो तुम्हारे पास नियों की कोई कमी नहीं है। ऐसे मित्र संख्या में हजार भी हैं तब भी तुम्हारे संकट में एक भी साथ नहीं दे सकता । किन्तु संकट में साग दे उसे मित्र कहना मित्रता का अपमान करना है। दूसरा विचार क बोलता है The worst friend is die wo frequents you in prosperity and deserts in misfortune, सबसे निकृष्ट मित्र बह है जो अच्छे दिनों में पास आता है और गुसीबत के दिनों में त्याग देता है। "न स सखायो न ददाति सख्ये" (१०.११७,४) ऋग्वेद का वह वाक्य बोलता है वह मित्र ही क्या जो अपने सहायता नहीं देता और सबसे निकट मित्र वह है जो तुम्हारी चापलूसी करता है और तुम्हारे अवगुणों पर पर्दा डालता मित्र को है। बहेतपि ऐसे मित्रों से दूर रहने की प्रेरणा दे रहे हैं। सम्मत्तणिरय धीरं सायज्जारंभवज्जकं । तं मित्तं सुटु सेवेजा उभओ लोकसुहावहं ॥ १२ ॥ सम्यक्त्त्र निरत सावध आरंभ के त्यागी ऐसे धैर्यशील मित्र का अच्छी तरह साथ करना चाहिये । उसका साथ उभयलोक में सुखप्रद है। गुजराती भाषान्तर: સમ્યકત્વરિત (જ્ઞાની), સાવધ આરંભ ત્યાગ કરનાર અને ધીરજવાળા દોસ્તને સાથે સારો સંપર્ક રાખવા જોઈ એ, કેમકે તેને સહવાસ બંને લોકોને માટે સુખપ્રદ છે. जिसके पास सम्यक्त्व का प्रकाश है ऐसा पवित्र जीवन जीनेवाला साथी यथार्थतः कल्याणप्रद साधी है। इंग्लिश विचारक के शब्दों में - Life has no blossiny like a prudent friend. १. गोभीर २, मुइ, मह। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ इसि-भासियाई ज्ञानी मित्र के सहा जीवन में दूसरा कोई वरदान नहीं है । ऐसा साथी जीयन के उन कटु प्रसंगों में जब कि तुम्हारा धैर्य जवाब दे बैठेगा और तुम अपने कर्तव्य की मांजल से गिर रहे होंगे तब तुम्ह जीवन की सच्ची राह दिखाएगा। क्योंकि उसके मन में स्वार्थ की छाया नहीं है। अतः वहां तुम्हें प्रकाश की ही प्रेरणा मिलेगी। पाश्चात्य विचारक बेकन ने कहा है'सच्चा मित्र आनंद को दुगना और दुःख को अधा कर देता है। मनुष्य जी दे उसे भूल जाय और दूसरे से ले उसे सदैव याद रखे यही मित्रता की जर है। और ऐसी मित्रता में । उत्तम वैद्य की सी निपुणता और परसा होती है, और अच्छी से अच्छी मातका-सा धैर्य और कोमलता होती है। संसग्नितीसूर्यातदोला या अहवां गुणा। वाततो मारुतस्सेव ते ते गंधा सुहावहा ॥ १३॥ अर्थ :-शेष और गुण संसर्ग से पैदा होते हैं। वायु जिस ओर बहती हैं वहां की गंध को ग्रहण कर लेती है। गुजराती भावान्तर : દોષ અને ગુગ એક બીજાના સંસર્ગથી જ પેદા થાય છે; પવન જે દિશાતરફ વહે છે, ત્યાંની સુગંધ કે દુર્ગધને પણ સાથે લઇ વહે છે, वायु यदि बुरभित स्थान से गुजरती है तो वहां की सौरभ लेकर आगे बढ़ती है और यदि वह गंदगी से गुजरती है तो वायु भी इषित हो जाती है । जीवन भी एफ वायु है । जो सजन पुरुषों के माहचर्य में रहता है तो वहां सद्गुणों की सुवारा प्राप्त करता है और बुरे व्यक्ति के पास पहुंचता है वहां से बुराई ही ग्रहण करता है। संपुग्णवाहिणीओ वि आचना लवणोदधि । पप्पा खिप्पं तु सब्बा वि शचंति लवणतणं ॥१४॥ अर्थ:-सभी नदियां लवणसमुद्र में मिलती हैं और वहां पहुंचते ही सभी अपनी स्वाभाविक मधुरता को छोड़कर खारापन प्राश कर लेती हैं। गुजराती भाषान्तर: બધી (મીઠા પાણીવાળી, નદી રમુંદરામાં મળી જાય છે, અને ત્યાં મળી જતાં જ બધી નદીઓ પાણીની કુદરતી મધુરતા (મીઠાસ ) ને મુકી દઈ ખારા સ્વાદને લઈ લે છે. एक संस्कृत उक्ति है "संसजा दोषगुणा भवन्ति" मनुष्य दूसरों के सङग देर से ग्रहण करता है किन्तु दोष तो बहुत जल्दी ले लेना है। मानव ही नहीं प्रकृति का भी यही गुण है। इत्र की शीशी में दो बून्द मिट्टी का तेल गिर जाता है तो उसमें सौरभ स्थान पर मिट्टी के तेल की गंध आने लगेगी। अईनर्षि सोदाहरण यही बता रहे है-नदियां मधुर जाल राशि लेकर सागर में पहुंचती हैं और मिलन के प्रथम पण में अपनी सारी मधुरिमा खो बैठती है। उनकी मारी जलराशि क्षार मिश्रित हो जाती है। समस्सिता गिरि मेलं णाणावणा वि पक्खिणो । सचे हेमप्पभा होति तस्स सेलरस सो गुणो ॥ १५ ॥ अर्थ:-विविध वर्ण-वाले पक्षिगग जब सुमेह पर्वत पर पहुंचते हैं तो समी स्वर्ण प्रभा युक्त हो जाते हैं, यह उस पर्वत का ही विशिष्ट गुण है। गुजराती भाषान्तर: અનેક વર્ણવાળા પક્ષીઓ જ્યારે સુમેરુ પર્વત ઉપર જાય છે, ત્યારે તેઓને રંગ સોના જેવો જ બની જાય છે તે પર્વતનો આ એક ખાસ ગુણ છે. दोष और गुण संसर्ग से आते है। प्रस्तुन गाथा इसी तथ्य को स्पष्ट कर रही है। पूर्व माथा में संसर्ग जन्य दोष बताया गया था। प्रस्तुत माथा उसके विपरीत संसर्गज गुण का निरूपण करती है। किसी भी वर्ण का पक्षी सुमेह के निकट पहुंचता है तो उसकी प्रभा से सभी स्वर्णप्रभ हो जाते हैं। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेंतीसवां अध्ययन २०५ कलाणमित्तसंसगि संजओ मिहिलाहियो । फीतं माहितलं भोशा तं मूलाक दिवं गतो॥१६॥ - अर्थ :--कल्याणमित्र के संसर्भ में निथिलाधि५ संजय संपूर्ण पृथ्वीतल को भोगकर उगते सूर्य की प्रभावाले दिव्य लोक को प्राप्त हुआ। गुजराती भाषान्तर:-- કલ્યાણમિત્રના સંપર્કમાં રહેવાથી મિથિલાના રાંજય નામનો રાજા સંપાઈ પAી ઉપર રાજય કરી ત્યાંના બધા ભોગો ભોગીને ઉદય પામતા સુરજની જેવી પ્રભા મેળવી સ્વર્ગમાં સીધાવ્યા હતા. पूर्वगाथा में अच्छे साथी की आवश्यकता पर बल दिया गया था । प्रस्तुत गाथा उसकी सोदाहरण ब्याख्या करती है। मिथिलानगरी के सम्राट् संजय ने कल्याण मित्र के द्वारा ही विजय पाई थी और उसी की सत्प्रेरणा के द्वारा वह निवृत्ति माग में प्रविष्ट होकर दिग्ध लोक में पहुंचा। यह मिथिलाधिप संजय कौन है और उसकी पूरी कथा क्या है यह ज्ञात नहीं हो सका। किन्तु हो, प्रस्तुत गाथा उस कथा की ओर संकेत करती है। टीका:-कल्याणमित्र संसर्ग कृत्वा संजयो मिथिलाधिपः । स्फीतं महीत, भुक्त्वा तन्मूलं भोजनं मूलं भवति यथा तथा दिवं गतः। अर्थात् कल्याणमित्र के संसर्ग को पाकर मिथिलाधिप संजय संपूर्ण पृथ्वीतल को भोगकर स्वर्ग गया जैसे शरीर के लिये भोजन कायाणप्रद है ऐसे जीवन के लिये कल्याण मित्र आवश्यक है। प्रोफेसर शुस्मिन् लिखते हैं: सत्य और असख काओं और वचन के द्वारा चतुर और मुर्ख की परीक्षा हो सकती है। किसी अज्ञात कारण से इस विद्वत्ताभरे लेख का लेखक स्पष्टीकरण के अन्तिम श्लोक में अपना नाम देता है । मिथिला नरेश संजय विशेष परिचित नहीं है। अरुणेण महासालपुत्तेण अरहता इसिणा बुइतं सम्मतं च अहिंसं च सम्म णचा जितिदिए। ___ कल्लाणमित्तसंसगिंग सदा कुव्येज पद्धिप ।॥ १७ ॥ अर्थ :-महाशाल पुत्र अर्हतर्षि अरुण इस प्रकार बोले-जितेन्द्रिय और प्रशाशील साधक सम्यक्त्व और अहिंसा को सम्यक् प्रकार से जानकर सदैव कल्याण मित्र का ही साथ करे । गुजराती भाषान्तर:--- મહાશાલ-પુત્ર અતર્ષિ અરણ એમ બોલ્યા કે જીતેન્દ્રિય બુદ્ધિવાન સાધકે સમ્યકત્વ અને અહિંસાને સારી રીતે જાણી હમેશા હિતેચ્છુ સજજનના સમાગમમાં રહેવું જોઇએ. आरम विकास तक पहुंचने के दो साधन है-एक बाध साधन दुसरा आभ्यन्तर । बाल साधन में कल्याण मित्र आता है । कुशल और योग्य साथी जीवन की नैया को तीर पर ले जाने में सहायक होता है। लक्ष्य तक पहुंचने का आभ्यंतर साधन अहिंसा और सत्ल का सम्यक् अवबोध है । अहिंसा और सत्य के सम्यक् अवबोध के लिये साधक विचारक पुरुषों का राहयोग प्राप्त करे । एवं से सिद्धे धु० ॥गतार्थम् । आरुणिज्जणामायण इति यत्रिंशत्तमं आरुणीयाध्ययनम् ।। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसिगिरि अर्हतर्षि प्रोक्त चौंतीसवाँ अध्ययन जीवन उजले और काले धागों से बुना है। जीचन के हर क्षेत्र में कइये और मीठे छूट मिलते हैं। दुनिया के हर विचार को पहले शल मिले हैं और जब वह शलों से भी प्यार करता है तो दुनियाँ उस पर फूल बरसाती है, किन्तु जो शूलों को देखकर घबरा जाता है, दुनियां की आलोचनाओं से जिसका धैर्य समाप्त हो जाता है और जिसकी अपने कार्य से आस्था हिल उठती है वह कभी भी सफलता का दर्शन नहीं कर सकता । सफलता कायरों का साथ कभी नहीं करती। दुनिया की आलोचना से घबरा कर हम अपनी कर्तव्य निष्ठा से अलग न हो जाए। क्योंकि दुनियां की आने केवल बाहरी रूप देखती हैं। विचारक ने ठीक कहा है। Mon in general jadve more from upperincos than from reality. All men have eyes but few hare thogift of penetration.-मेकियावेली साधारणतः मनुष्य सत्य की अपेक्षा बाहरी आकार से ही अनुमान लगाते हैं। अखि तो सभी के पास होती है किन्तु विवेक की माखो का वरदान किसी को ही मिलता है। अतः जन साधारण हमारा विरोध और आलोचना करता है तो हमें उससे घबराना नहीं चाहिये । मैं तो कहूंगा जब हमारे कार्यो का विरोध हो नभी समझना चाहिये काम में निखार आ रहा है। विचारक बर्क ने ठीक कहा है 'जो हमसे क्रुदती लखता है वह हमारे अंगों को मजबूत करता है हमारे गुणों को सेज करता है । विरोधी हमारी मदद ही करता है।' शिलार कहता है Opposition always intends the enthusiast, never converts him, विरोध उत्साहियों को सदेव उत्तेजित करता है, उन्हें बदलता नहीं । विरोध को सद्द लेने की भी एक कला होती है उसमें मन को साधने की आवश्यकता होती है 1 सेनिक का शिक्षित घोड़ा टोफों के गोलों से भी नहीं चमकता, जबकि गधा पटान्ये की आवाम से ही बेकाबू हो जाता है । अतः विरोध सह लेने के लिये मन को साधने की आवश्यकता होती है। अहेतर्षि उसी साधना की ओर साधक का ध्यान खींचने के लिए प्रस्तुत अध्ययन को उपस्थित कर रहे है - पंचेहिं ठाणेहिं पंडिसे बालेग परीलहोयसम्गे उदीरिजमाणे सम्म सहेजा खमेजा तितिखेजा अधियासेजा। अर्थ:-पांच स्थानी से पंडित बालपुरूषों ( अज्ञानियों)द्वारा उदीर्ण किये जानेवाले परीवह और उपसर्गों को सम्यक् प्रकार से सहन करे, उनको धारण करे उसको क्षमाभाव रखे और उन पर विजय प्राप्त करे । गुजराती भाषान्तर: પાંચ સ્થાનેથી પંડિત બાલ પુનષ ( અજ્ઞાની) વડે થનાર પરીવહ (ખ) અને ઉપસર્ગ (ત્રાસ કે કષ્ટ) એઓનું સહન કરે, તિતિક્ષા (ખમવાની શક્તિ થી ક્ષમા કરવી અને એવી રીતે તેના ઉપર વિજય (કાબુ મેળવવો. यदि अज्ञानी किसी सेतु पर प्रहार करता है तो साधक पांच प्रकार के विचारों से उन कष्टों का स्वागत करे और उन्हे समभाव के साथ सहे । टीका:-पंचेषु स्थानेषु पंडितो बालेन परीषहोपसर्गान् उदीयमाणान् सम्यक् सहेत् क्षमेत् तितिक्षेत अधिवालवेत् । गतार्थः। बाले खलु पंडित परोक्ख फरसं वदेजा, ते पंडिते बहु मण्णेजा: 'दिट्ठा मे पस हाले परोक्खं फरसं वदति, णो पञ्चपखं । मुक्खसभाषा हि बाला, णं किंचि बालेहितोण यिजति । तं पंडिते सम्म सहेज्जा खमेजा सितिखेजा अधियासेज्जा। अर्थ:--यदि एक अज्ञानी प्राणी किसी पंडित पुरुप को परोक्ष में कठोर बचन बोले तो पंडित उसे बहुत माने और वह सोचे कि यह प्रत्यक्ष में तो कुछ नहीं बोल रहा है। वे अज्ञानी व्यक्ति मूर्ख स्वभाव वाले होते हैं । अज्ञानियों से कुछ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौंतीसवां अध्ययन २०७ भी अछूता नहीं है यह सोचकर विद्वान् पुरुष चिन्दात्मक वचनों को सहन करे उनके प्रति क्षमाभाव रखे, मन के समाधिभाव को नष्ट न होने दे । गुजराती भाषान्तर : જો એક ાણ્યો માણસ કોટપણ પાંડેત પુરુષને પરોક્ષ (તેની ગેરહાજરી) માં કાંઈપણ ભૂંડી વાતો ઓલે તો પંડિતે તે અજ્ઞાની માણુને સંમાન કરવો અને માની લેવું જોઈએ કે તે માણસ જે કાંઈ ખોલ્યો છે તે મારી ગેરહાજરીમાં જ ખોલ્યો છે, મારે સામેતો ખોલ્યો જ નથી. કારણ કે અજ્ઞાની માઝુસ મૂર્ખ સ્વભાવનો હોય છે. અજ્ઞાની માણસ તો હરએક વિષયની, કે હરએક વ્યક્તિની ( પોતે જાણકાર સમ) વાતો કરે છે, એ ધ્યાનમાં લઈ તેના નિંદાત્મક વાક્યોનું સહન કરે અને તેને ક્ષમા કરે તેમજ પોતાના સમાધિભાવમાં ખલલ પડવા ન દે. दुनिया ने हर विचारक का विरोध ही किया है। क्योंकि वह समाज की सड़ी गली परंपरा को तोड़कर नया मार्ग प्रस्तुत करता है तो समाज चीखता है और चिलाता है। विचारविहीन लोग उसकी अप्रत्यक्ष आलोचना का आश्रय लेते हैं । उनमें इतना साहस नहीं होता कि वे प्रवक्ष में आकर कुछ कह सकें। ऐसे प्रसंगों में भी प्रज्ञाशील अपने विचार के प्रदीप को सुझते न दे और न उन पर आक्रोश ही करे। वह सोचे कि ये बेचारे अज्ञानशील हैं, इनकी आत्मा अंधकार में भटक रही है। ज्ञान की किरण का इन्हें दर्शन नहीं हुआ है। फिर भी ये बेचारे परोक्ष में मेरी आलोचना करके ही रद्द जाते हैं, प्रत्यक्ष में आकर बोलने का साहस नहीं करते । साथ ही ये मूर्ख स्वभाव वाले हैं यदि बातों का जवाब दिया जायगा तो इनकी आलोचना को बल मिलेगा । साथ ही हर मूर्ख अपने आपको सबसे बड़ा बुद्धिमान मानता है। उसकी जीभ से तो वह भगवान भी नहीं बचा है फिर हम जैसों की तो कहानी ही क्या है! ये विचार भी मानव की मनःस्थिति को सम रखने में सहायक होते हैं और निन्दा और अपमान के कढ़वे घूंट उतार जाने का साहस भी देते हैं और फिर विचारक दृढ़ता पूर्वक अपने मार्ग पर आगे बढ़ जाता है । टीका :- यथा बालः खलु पंडित परोक्षं परुषं वदेत् तत्पडितो बहु मध्ये यथा ष्टष बालो मे परोक्षं परुषं वदति न प्रत्यक्षं । मूर्खम्वभावा हि बालाः न किंचिद् बालेभ्यः कर्तृभ्यो न विद्यत इति तद् पंडितः सम्यक् सहतीत्यादि । मतार्थः ॥ चाले खलु पंडितं पचखमेव फरसं चदेजा, तं पंडिए बहु मण्णेज्जा : 'दिट्ठा मे एस वाले पश्चखं shirt, णो वा लडिया या लेडुणा वा मुट्टिणा वा वाले कवालेण वा अभिहणति, तजेति तालेति परितालेति परितावेति उद्वेति, मुक्खसभावा हि बाला, पण किंचि वाले हिंतो ण विज्जति' तं पंडिते सम्पं सहेजा खमेज्जा तितिक्खेज्जा अधियासेज । । अर्थः- यदि अज्ञानी व्यक्ति किसी प्रज्ञाशील पुरुष को प्रत्यक्ष में कठोर वचन कहे तब भी विद्वान उसे बहुत समझे और सोधे । मैंने देखा है यह अज्ञानी व्यक्ति प्रत्यक्ष में कठोर वचन कह रहा है। किन्तु किसी डंडे से, लाठी से पत्थर से मुठे से या छोटे कपाल ( घड़े का टुकड़ा ठीकारो ) आदि से मारता नहीं हैं, तर्जना नहीं करता है। लाइना और परिताड़ना भी नहीं करता है न परिताप ही पहुंचाता है। ये अज्ञानी मूर्ख स्वभाव के होते हैं; ये न करें नहीं कम है। अतः विद्वान् उन कष्टों को सम्यक् प्रकार से सहन करे, क्षमाभाव रखे, शान्ति रने और मन के समाधिभाव को चलित न होने दे | गुजराती भाषान्तर: જો અજ્ઞાની માણસ કોઈ બુદ્ધિમાન માણસના મોઢા ઉપર અપમાન કરે તો પણ પંડિત તેનો ગંભીરતાથી વિચાર કરવો જોઈ એ કે આ અજ્ઞાની માણુસ શ્ત કઠોર વાણીથી લે છે પરંતુ લાઠીથી, લાકડીથી, પથ્થરી અમર કપાલથી મારતો નથી, પીડા આપતો નથી કે મર્મ વચનથી કે અન્ય સાધનોથી સંતાપ કરાવતો નથી, અજ્ઞાની માણસો એવાજ હોય છે, તે લોકો જે એવું કામ ન કરે તેટલુંજ ઓછું; માટે બુદ્ધિમાન માણસે ગમે તે રીતે તેવા કષ્ટોનું સહન કરવું જોઈ એ, ક્ષમાભાવ (બુલ કરનારને ખમવું), શાંતિ અને સમાધિભાવ ( ધ્યાનસ્થ વૃત્તિ) થી अभिशु असे व्यक्ति ( अस्थिर ) थवा हेधुं नखी. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 1. “२०८ इसि-भासियाई - यदि मूर्ख जनता विचारकों का अपमान करती है तो बेचारक के लिये वह दया की ही पान है। जब वालक की आँखों का जाला दूर करने के लिये डॉक्टर आपरेशन करना है तो बालक दद के मारे चौबता है और उन्हें गालियां भी देता है किन्तु डॉक्टर के मन में बालक के प्रति रोप नहीं आता। ठीक इसी प्रकार जर परंपरा और रूटियों के जाले आंखों में बढ़ जाते है और साल देखने की शक्ति लुप्त होती है तब विचारक तीखे तम्तर से ऑपरेशन करता है तो अज्ञानी नीखता है, चिलाता है, उन्हें गालियां भी देना है। परोक्ष में ही नहीं की कमी प्रत्यक्ष में भी उन पर ईर्ष्या और घृणा के शोरे कराता है।। निन्दा और अपमान के कइये बूंट उतारते रामय विचारक मोचेगा ये बेचारे अंधकार में भटक रहे हैं। इनकी आत्मा पर अज्ञान का आवरण है फिर भी ये केवल गालियां देकर ही संतोष मान रहे हैं, लाठी और ईडे से तो नहीं पीट रहे हैं। यही इनकी मेहरबानी है। टीका:-बालः खलु पंडित प्रसव परुष देर तडित इत्यादे यावत् प्राय वदनि न दंडेन यष्ट्या चा लेटना वा मुध्या वा बाला कपालेन वाऽभिहन्ति तर्जयति तात्ति परिताडत्ति उद्वापयति च्यापादयति । मूर्ख इत्यादि पूर्ववत् । गताः । बाले य पंडितं दंडेण वा लहिणा वा लेटुणा वा मुट्ठिणा वा कवालेण वा अभिहणेज्जा एवं चेव णधरं अगण तरेणं सत्थ जातेणं अग्ण यरं सरीर जायं अच्छिदई वा विचिंछदइ वा मुक्खसभाषा हि बालाण किंचि बालेहिंतो ण विजति' तं पंडिसे सम्म सहेजा, खमेशा तितिकाजा अहियासेजा। अर्थ:- यदि अज्ञानी किसी प्रज्ञाशीन पर अन्य उपरोक प्रकारों से प्रहार करता है, तब भी पंडित गोचे ये केवल दंडादि से प्रहार करके ही रह जाते है किन्तु किन्हीं शस्त्रादि से मेरे शरीर का छेदन नहीं करता और वह सोचे अज्ञानी मूर्ख स्वभाव वाले होते हैं । अतः पंडित उनके प्रहारों को सम्यक् प्रकार से सह। જે અજ્ઞાની માણસ કોઈપણ બુદ્ધિમાન માણસ પર કોઈપણ કારણે ઉપર કહેવા મુજબ પ્રહાર કરે તો તત્વજ્ઞ માણસે એવો વિચાર કરવો ઘટે છે કે મૂરખ લોકો સેટથી જ મારે છે પાણુ શસ્ત્રો ( જીવલેણ પ્રહાર) કરીને મારા શરીરનું છેદન કરતા તે નથી, અને અજ્ઞાની તદ્દન મુરખ જ હોય છે એમ રામજી તે પ્રહારોનું સહન કરવું. जब क्रान्ति आगे बढ़ती है और परंपरा की दीवारें बहने लगती है तब परंपरा के पुजारी चीख उठते हैं। क्योंकि उनकी दुकानदारी छट रही है और जब परंपरा की नींव डगमगाती है तो बड़ी बड़ी शक्तियां भी क्षुब्ध हो उठती है और उनके संप्रदायवाद की सुरा पिये हुए मतांध अनुयायी नही की रक्षा के लिये लाठियां लेकर निकल पड़ते हैं और क्रान्तिकारी विचारकों पर अविचारकों की रोषमरी लाठियां बरस पड़ती हैं। किन्तु उन दालना और तर्जना के क्षणों में भी विचारक अपने विचार सत्य से एक इंच पीछे नहीं उठता। साथ ही वह अपनी मन की शान्ति भी भंग नहीं होने देता। वह सोचता है इनके सिंहासुन डोल गये हैं, बेचारों की रोटी और रोजी लिनी जा रही है, फिर उनका बोलना अस्वाभाविक भी नहीं है, फिर भी ये बेचारे केवल दंड ले प्रहार करके ही रह जाते हैं, शस्त्र प्रहार तो नहीं करते, यही गनीमत हैं। ये ही उदात्त विचार विचारक की आत्मा को लाठी बरसनेवाले पर भी क्षमा बरसाने के लिये प्रेरित करते हैं। टीका:-बालश्नति संयोजने चेदर्थे वा पंडित दंडनेत्यादि यावद्वापयेत तत् पंडित इत्यादि यावद् उद्वापयति न केनचित्र जातेन किंचिच्छरीरजातं शरीरभागमाछिनत्ति घा विच्छिनति वा । मूख इत्यादि पूर्ववत् । गतार्थः । बालेय पंडितं अण्णतरेण सत्थजातेणं अगणतरं शरीरजायं अच्छिन्देजा वा विच्छिन्देजा वा, ते पंडिर बहु मण्णेजाः "दिट्ठा मे एस बाले अपणतरेणं सत्यज्ञातेणं अन्छिन्दति वा विच्छिन्दति वा, णो जीवितातो ववरोवेति । मुक्खसभावा हि बाला ण किंचि वालेहिंतो ण चिजति' तं पंडिप सम्म सहेजा खमेचा तितिक्खेजा अहियासेजा। अर्थ:-यदि अज्ञानी व्यक्ति किसी पंडित पुल के किसी अवयव का किसी शस्त्रादि से छेदन करता है भेदन करता है तब भी पंडित उनको बहुत समझे। वह सोचे मैंने देखा है वह पाल जीव किसी शस्त्रादि से छेदन भेदन ही करता है किन्तु मेरा जीवन तो रामाप्त नहीं करता । अज्ञानी का जीवन मुखता से भरा रहता है । अज्ञानी जो न करे वहीं कम है। अतः साधक उराको सम्यक् प्रकार से सहन करे। ६ अण्णास सत्था म अदिविहि. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौंतीसवां अध्ययन २०९ गुजराती भाषान्तरः સમજો કે અજ્ઞાની માણસ સજ્જન પર કોઈ શસ્ત્રથી પણ હુમલો કરે તો તત્ત્વજ્ઞ માણસે બહુ શાંતિથી તેનો આવી રીતે વિચાર કરવો જોઈ એ કે આ અજ્ઞાની ( ખાલક જેવી) માણસ શસ્ત્રથી મારા ઉપર હુમલો કે થા કરે છે, પણ મને મારી નાખતો નથીને? બસ,, આ માસ સાવ મૂરખ છે જે એ ન કરે તેટલું ઓછું છે, એમ સમજી શાંત રહેવું. एक सम्त की सीधी और सच्ची बात भी कभी कभी स्वार्थी सत्ताधीशों की दुनियां में भूकंप मचा देती है। क्योंकि नम सत्य सुनने के लिये दुनियां के पास कान नहीं है । लेबनान के प्रसिद्ध विचारक खलील जिमान ने कहा है "यदि तुम एक बार नग्न सत्य बोलोगे तो तुम्हारे स्नेही साथी तुम्हें छोड़ देंगे। यदि दुबारा तुमने नम सत्य उच्चारा तो तुम देश की सीमाओं से बाहर कर दिये जाओगे और यदि तीसरी बार नन सल कहने के लिये तुम्हारी जीभ खुली तो फोसी का लटकता रस्सा गले में झूल जाएगा और दुनियां से तुम्हारा अस्तित्व समाप्त कर देगा। दुनियां के काम कये हैं। और सत्य की ओच सहनी पड़ती है"। एक विचारक ने कहा है Truths and roses have thorns about them. सत्य और गुलाब के पुष्प के चारों ओर कांटे होते हैं। विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ने कहा है “सत्य अपने विरुद्ध एक अभी पैदा कर देता है और वही उसके बीजों को दूर दूर तक फैला देती है"। हर विचारक को अभि परीक्षा से गुजरना पड़ता है। गालियां और उपहास तो सुधारक के लिये सर्व प्रथम उपहार हैं, किन्तु जव वे कामयाब नहीं होते तो स्वार्थ और सत्ता का आक्रोश हाथ में तलवारें लेकर निकल पड़ता है। किन्तु शस्त्र प्रहार के समय भी साधक अपनी अपनी समस्थिति को मंध न होने दे। वह गोचे ये बेवारे अज्ञान की अंधेरी गलियों में भूले भटके राही मेरे शरीर पर भावात करके ही रह जाते हैं। मेरा जीवन तो समाप्त नहीं करते। मैंने इनके विचारों पर प्रहार किया है और ये तो शरीर पर प्रहार करके रह जाते हैं; पर यह निश्चित हैं कि शरीर के प्रहार की अपेक्षा विचार की देह का आघात मार्मिक होता है। चिन्तन की यह धारा साधक की मनःस्थिति को द्वेष से विकृत होते बचाती ही है, साथ ही शान्ति के वे शीतल छींटे उनकी आत्मा में कषाय को प्रवेश नहीं करने देते और इसीलिये वह अपने प्रहार कर्ता को भी क्षमा कर सकता है। इसी पवित्र विचारों की प्रेरणा ने तेजोलेश्या के द्वारा मार्मिक वेदना देनेवाले गौशालक को भगवान महावीर के मुंह से क्षमा कराया था। दोका :- बालश्चेति संयोजने वेद् अर्थे वा पंडितं केनविला जातेन किंचिच्छरीरजातं शरीर भागमाच्छिनत्ति विच्छिनत्यादि यावश्वविच्छिन्द्यात् तत् पंडिता इत्यादि यावत् विच्छिनत्ति वा न जीविताद्व्यपरोपयति मूर्ख इत्यादि पूर्ववत् । गतार्थः । बाले य पंडितं जीवियाओ बबरोवेजा, तं पंडित बहु मण्णेजा, "दिट्ठा मे एस वाले जीविताओ चवरोवेति णो धम्माओ भंसेति मुक्खसभावा हि बाला ण किंचि बालेहिंतो ण विजति तं पंडिते सम्म सहेजा खमेजा, तितिक्खेजा, अहिया सेज्जा । अर्थ :- यदि कोई अज्ञानी व्यक्ति किसी पंडित का जीवन समाध करता है तब भी पंडित उसे बहुत माने और सोचे, मैंने देखा है वह अज्ञानी मेरा जीवन ही समाप्त करता है किन्तु मुझे धर्म से पृथकू नहीं करता। अज्ञानी मूर्ख खभाव वाले होते हैं, वे जो न करे यही कम है। अतः पंडित उसको सम्यक् प्रकार से सहन करे, क्षमाभाव रखे, शान्ति रखे, और मन को समाधि भाव में रखे । गुजराती भाषान्तर: એક અજ્ઞાની માસ કોઈપણુ બુદ્ધિમાન માણસનો પ્રભુ લઈ લે તો પણ્ તેની છેલ્લી ઘડી સુધી એવું સમજવું જોઈ એ કે આ મૂરખ મારો તો જીવ જ લે છે, મારા ધર્મશ્રી મને જુદો પાડતો નથીને ? અજ્ઞાની માસ હંમેશા મૂરખવૃત્તિના જ હોય છે. માટે સમજુ માણસે તેનું નૃત્ય ગમે તેમ કરી સહન કરવું, ક્ષમા અને શાંતિ ટકાવવી અને સમાવિભાવને જરાપણુ ખલલ ન પડૅ એવી રીતે વર્તવું. २७ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० इसि-भासिया जब अज्ञान का आवेग तूफान पर होता है तो कभी कभी ना सत्य के वक्ता को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ता है और आशय नहीं यदि अज्ञानी मानव विश्व प्रकाश पुंज को अपने ही हाथों चुना दे। इतिहास साक्षी है मानव के विकास के लिये जिन्होंने नया प्रकाश दिया, क्रान्ति की नई लहर दी, उसके जीवन को नया मोड़ दिया, पर उस मानव ने उन्हें क्या दिया ? किसी युगद्रष्टा महापुरुष को उराने फांसी पर चढ़ाया तो किसी सत्य के प्रखर वा को जहर का प्याला पिलाकर दुनियां के लेटफार्म से हट जाने को विवश कर दिया तो किसी को गोली से वींध दिया। पर उस महापुरुष में क्या दिया। उसने दुनियां का विष पिया और बदले में अमृत दिया। दुनिया ने उसे या •और तिरस्कार दिया तो उसने दुनियों को प्रेम और करुणा दी। सत्वद्रष्टा विचारक मौत की एड़ियों में भी अपने मारनेवाले के प्रति आशीर्वाद बरसाता । लाउन जोगको नाभर देता है जो जोदते है, इभी प्रकार महापुरुष अपने हृदय में उन्हें भी आश्रय देते हैं, जो उन्हें सताते हैं । उर्दू का शायर बोलला है "कातिल का इरादा है चिसिमल को मिटा देंगे। विस्मिल का तकाजा है कासिल को नुक्षा देंगे।" और राच बात यह है अपने मिटाने वाले के प्रति आशीर्वाद बरसाकर ही मानव महामानव बनता है। क्रोध का बदला क्रोध से लेने में क्या आनंद है? सारी दुनियां जानती है किन्तु क्रोध को क्षमा से जीतने का आनंद महापुरुष ही जानता है। दक्षिण के महान संत तिरुवल्लूर बोलते हैं-घमंड में चूर होकर जिन्होंने तुम्हें हानि पहुंचाई है उन्हें तुम अपनी मलमनसाहत से विजय कर लो-बदला लेने की खुशी केवल एक दिन रहती है, मगर जो पुरुष क्षमा कर देता है उसका गौरव सदा स्थिर रहता है। एक और महत्त्वपूर्ण बात ये कह गये हैं-अतिथिसत्कार से इन्कार करना ही सबसे अधिक गरीबी है तो मूखों की बेहूदगी को सहन करना सबसे बड़ी बहादुरी है। एक विचारक अपने प्राण विधातक को भी इसलिये क्षमा कर देता है कि वह सोचता है इसने मेरे प्राण के दीप को घुझाया है किन्तु मेरे राज्य विचारों के प्रदीप को नहीं बुझाया और इसी विचारसृष्टि ने क्रूस पर चढे ईसा से मुंह से कहलवाया था परमात्मा इन्हें क्षमा करना ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। इसी विचार ज्योति को पाकर गजसुकुमार की आत्मा ने सोमिल को क्षमा किया था और स्कंधक ने अपनी चमड़ी उतारनेवाले से कहा था- भाई : तुझे कष्ट तो नहीं हो रहा है। और इसी प्रकाश को पाकर राष्ट्रपिता गांधीजी की आँखों ने गोडसे को क्षमा किया था।। यह पूरी विचार सृष्टि समत्व साधना की है । अज्ञानियों के कष्टों को हम सह सकें और मन में उनके प्रति दुर्भावना न आने पाएँ, उसकी यह साधना है इसके द्वारा हम कपाय पर विजय पा सकते हैं। एक रूपक बौद्ध साहित्य में गी मिलता है। एक भिक्षु भगवान बुद्ध से अनार्य देश में विचरण की अनुमति मांगता है । तब करुणावतार बुद्ध बोले मिक्षु । अनार्य लोक तुम्हें गालियां देंगे और तुम्हार। अपमान करेंगे तो? भन्ते । मैं सनझंमा ये केवल गालियां ही देते है, ६ आदि रो प्रहार तो नहीं करते ! भिक्षु । यदि उन्होंने इंटे से प्रहार किया तो? भन्ते में समझूगा इन्होंने दंडे से ही प्रहार किया है, शस्त्र से शरीर पर आत्रात तो नहीं किया ! मिनु ! यदि किसी ने तुम्हारे शरीर पर शस्त्र से प्रहार किया तो? भन्ते । मैं सोचूंगा इन्होंने मेरे प्राण तो विसर्जित नहीं किये। भिक्षु | यदि वे प्राण लेने पर उतारू हो गये तो मन्ते । म सोचूंगा इन्होंने मुझे आत्महत्या के पाप से बचाया है ! दुर्जन पर सज्जनता की विजय की ऐसी कहानियाँ थोडे परिवर्तन के साथ जैन, नीद्ध और वैदिक साहित्य में मिल जाती है। टीका:-बालश्च पंडित जीविता ज्यवरोपयेत् तद् पंडित इत्यादि यावत् ध्यपरोपयति न धर्माद् भ्रश्यति । मूर्ख इत्यादि पूर्ववत् । गताः । इसिगिरिणामाण परिवायेणं अरहता इनिणा बुइतं. जेण केणइ उवापर्ण पंडिओ मोहज्ज अप्पकं । बालेण उदीरिता दोसा तं पि तस्स हिजं भवे ॥१॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 1 तीसवां अध्ययन २११ अर्थ :- " ऋषिगिरि " नामक ब्राह्मण परिवाजक भर्हतर्षि बोले- पंडित अपने आपको हर प्रकार से प्रमुदित रखे । अज्ञानी के द्वारा किये गये द्वेष प्रयत्न भी उसके लिये हितप्रद होते हैं । गुजराती भाषान्तरः ઋષિગિરિનામક બ્રાહ્મણ પરિવાજક અદ્વૈતર્ષિ મ યા. દુહા છુરો એ તે કલાને સંતુષ્ટ રાખવું જોઈ એ. કેમકે મૂરખ માણસે કરેલા દ્વેષ વિગેરે પ્રયત્નો પણ તેને માટે સહાયક અને હિતપ્રદ બને છે. ऋषिगिरि में दूसरे ब्राह्मण परिवाजक हैं। वे साधक को लक्ष्य करके कह रहे हैं तेरे भीतर आनंद का स्रोत बह रहा है तो दुनियाँ का हर कम तुझे आनंदित करेगा। अज्ञानियों के द्वेषभरे कार्य क्या तेरे भीतर की शान्तिधारा को खुश कर राकेंगे ? क्या वे तेरे भीतर द्वेष की आग प्रज्वलित कर सकेंगे ? यदि हां, तो तेरे भीतर तेरा अपना कुछ नहीं रहा ! तेरी शान्ति का तूं नियामक नहीं रहा । किन्तु भूल रहा है नापक | वास्तव में तेरी शान्ति का स्रोत तेरे भीतर ही है । इंग्लिश विचारक बोलता है- If you can rest yourself in this coean of peace all the usual noises of the world can hardly affect you. यदि तुम अपने भीतर की शान्ति के सागर में आराम करते रहोगे तो दुनियाँ के शोक तुम्हारे पर असर न डाल सकेंगे। यदि भीतर शान्ति का स्रोत फूट पड़ा है तो अज्ञानियों के द्वेष जन्य प्रयत्न भी आनंद देंगे जैसे कि चालक के कार्य माता को आनंद देते हैं। साथ ही उन प्रयत्नों से तुम्हारा तेज कम न हो सकेगा। गोशालक ने भगवान महावीर की अवनता के लिये कितने प्रयत्न किये, किन्तु वे सभी प्रयत्न म महावीर के जीवन को अधिक से अधिक उज्ज्वल बनाते गये। विचारकों के लिये विरोध तो विनोद है उसी में वे चमकते हैं। एक विचारक ने कहा है Hardship and opposition are the native rail of manhood and self reliance. कठिनाई और विरोध वह देशी मिट्टी है जिनमें पराक्रम और आत्मविश्वास का विकास होता है। जैसे कोई भी सरकार प्रबल विरोधी दल के बिना अधिक दिन टिक नहीं सकती, ऐसे विरोध के बिना व्यक्ति चमक नहीं सकता। पर आवश्यकता है। उस विरोध को सह लेने की। जिसने विरोध सह देने की कला सीख ली हैं वह जीवन के मैदान में विजय लेकर ही लौटेगा । टीका -- येन केनचिदुपायेन पंडितात्मानं मुंचेत् दोषालालेनोदी रिवाद् तदपि स दोष एव तस्य पंडितस्य हितं भवेत् । टीकाकार कुछ भिन्न अभिप्राय रखते हैं- पंडित किसी भी उपाय से अज्ञानियों द्वारा उदीरित दोषों से अपने आपको मुक्त करे तो भी वह दोष ही पंडित के लिये हितप्रद होगा । अपडिण्णभावाओ उत्तरं तु पण विज्जती । सई कुब्बइ वैसे णो, अपडिष्णे इह माहणे ॥ २ ॥ अर्थ :- अप्रतिभाव से उत्तर नहीं दोता है। साधक स्वयं अनेक में नहीं पडता, अर्थात् भविष्यकालीन संकल्पविकल्पों से गुस्सा नहीं होता। साधक स्वयं द्वेप नहीं करता है और जो अप्रतिज्ञ होता है वही यथार्थ ब्राह्मण होता है। गुजराती भाषान्तर: અપ્રતિજ્ઞ( રાગ-દ્વેષવિહીન )ભાવથી જવાબ મળવાનો સંભવ નથી. સાધક પોતે અનેક વસ્તુઓની વિચાર કરતો નથી. એટલે ભવિષ્યકાલમાં થવાના કાર્યોનો સંકલ્પ ( ઉગાઉ વિચાર ) વિકલ્પ ( કામ થશે કે નહીં એને માટે સંશય ) એના વિચારોમાં મગ્ન રહેતો નથી. સાધક કોઈનો દ્વેષ કરતો નથી અને જે માજીસ પ્રતિજ્ઞ ( પ્રેમ કે દ્વેષથી રહિત ) હોય છે તેજ બ્રાહ્મણ કહેવાય છે. अप्रतिज्ञ भाव रागद्वेष रहित माव है। उसके सामने कितने भी परिषद् आवे, अज्ञानी उम्र पर कितने भी प्रहार क्यों न करे वह उत्तर न देगा। अतः साधक अप्रतिज्ञात भाव में रहे और प्रद्दार कर्ता पर भी आशीर्वाद बरसाये । यद्यपि यह एक कठिन साधना है। दक्षिण के प्रसिद्ध विचारक तिरुवर बोलते हैं-भूखे रहकर तप करनेवाले निःसंदेह महान् हैं, किन्तु उनका दर्जा उन लोगों के बाद ही है जो अपनी निंदा करनेवालों को क्षमा कर देते हैं। वास्तव में जो बदला न लेने की भावना से उपरत है वही यथार्थ है । अप्रतिज्ञ भाव का अर्थ है जो क्रोध का उत्तर क्रोध से देने की प्रतिज्ञा नहीं करना । वदला या प्रतिहिंसा की भावना हृदय की नीचता की द्योतक है। प्रसिद्ध विचारक बेकन बोलता है- He that studieth rovenge keepeth his own wounds green which otherwise would heal and do well, Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ इसि-भासियाई जो बदला लेने की सोचा है वह अपने ही घाव को हरा रखता है जोकि अब तक कमी का अच्छा हो गया होता । एक दुसरा विचारत भी बोलता है: In taking revenge a mun is but cqual to bis enemy; but in passing it over bu is superior. बदला लेने से मनुष्य शत्रु के समान हो जाता है, किन्तु बदला न लेने से उससे महान अनता है। अतः अईतर्षि साधक को अप्रतिज्ञ भाव से रहने की प्रेरणा दे रहे हैं। टीका:-अप्रतिजभाषादुत्तरं न विद्यते स्वयं पंडितो वेशान् अनेकरूपान् भविष्यद् भावान् न प्रकरोति। यदि का वैसेत्ति दोषे दो ति स्थाने लेखकभ्रमात् । मप्रतिज्ञ इहलोके भवति यथार्थों प्राह्मणः । गसाथैः । कि कज्जते उदीणस्स णण्णत्थ देहकखणं । कालस्स कखणं वा वि णण्णत्थं वा वि हायती ॥३॥ अर्थ:-दीन व्यक्ति देह कक्षा के अतिरिक्त क्या करता है? अथवा कमी मृत्यु की आकांक्षा करता है किन्तु उसके अतिरिक्त दूसरे तत्व को नष्ट करता है। गुजराती भाषान्तर: સામાન્ય માણસ પોતાના શરીરને ટકાવવા માટે જરૂરી ચીજોની અપેક્ષાથી વધારે શું કરી શકે છે? તે કદાચ જીંદગીના અંતનો ખ્યાલ પણ કરે, પરંતુ ખરી રીતે તે તેના સિવાય બીજા તવોનો નાશ કરે છે. सामान्य मानव जब तक आराम में होता है तब तक वह जीवन चाहता है और जब संकट के क्षणों से गुजरता है तब वह मौत मांगता है। वह दीनता लेकर चलता है। जीवन की कला ले वह अनभिज्ञ है तो मौत की मधुरिमा से भी वह अपरिचित है। मुसीबत से घबराकर मौत मांगना जीवन की बहुत बड़ी पराजय है। यह ठीक है मृत्यु से जब तक बन सके बचे रहना जीवन का पुरुषार्थ है। किन्तु साथ ही यह भी न भूलना होगा कि मृत्यु का यथार्थ वरण ही जीवन का चरम विकास है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो मनुष्य जीने का भरसक प्रयत्न करे, किन्तु जहां उसे मनुष्य की तरह जीने का अवसर मिले तो वह न चूके। मृत्यु मनुष्य की विवशता नहीं एक कला मी है। मुत्यु की गोद में सोकर सुकरात साधारण प्रचारक से बढकर अमर विचारक हो गया। माराम में जीवन की चाह और संकट में मौत की चाद मह दीनता की भाषा है। विचारक न सुख में जीना चाहता है न दुःख में मौत मांगता है वह अपने लक्ष्य के लिये जीता है। यदि उसे मौत में लक्ष्य की सिद्धि दिखाई देती है तो वह मृत्यु को भी इंसते हुए वरण करेगा। टीका-सामान्येन पुरुषेण किं क्रियते देहकांक्षणात् सि अन्यत्र न किंचिदित्यर्थः, दीनस्य कालकांक्षण प्रायोपगमनादिना मृत्युप्रतीक्षण या लोकादन्यत्वं वात्मस्वभाषवं हीयते न ज्ञायते। अर्थात् सामान्य पुरुष देवकांक्षा के अतिरिक्त क्या करता है। ? " णणध" अन्यत्र अर्थात् दूसरा कुछ नहीं जानता है। दीन व्यक्ति की कालकांक्षा अर्थात् प्रायोगमनादि के द्वारा मृत्यु की प्रतीक्षा करना भी संभव है, यह लोक से अनन्यत्व एकरूपता अथवा आत्मस्वभाव की हानि है कहा नहीं जा सकता। णाचा आतुरं लोकं णाणावाहिहि पीलितं । जिम्ममे णिरहंकारे भवे मिक्खु जितिदिये ॥४॥ अर्थ:--लोक को आतुर और नानाविध व्याधियों से पीड़ित जानकर भिक्षु ममत्व और अहवार रहित होकर जितेन्द्रिय बने। गुजराती भाषांतर : લોકોને આતુર (પીડાથી દુખત) જોઇને તેમજ નાનાવિધ દરથી પીડાયેલા જોઈને સાધકે મમત્વ અને અહંકારને ત્યાગ કરી જિતેન્દ્રિય (ઇન્દ્રિયોનું દમન કરવું) જોઈએ. लोक आतुर है। दुनियां अपने स्वार्थों के पीछे भाग रही है। किन्तु यह आतुरता ही भय और रोग की परंपरा लिये खड़ी है। क्योंकि कोई भी भोग रोगशुन्य नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को भोग का मूल्य रोग के रूप में चुकाना पड़ता है। १ काले अपयलं माणे विहरइ । उपासकदना अ० १, Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौतीसवाँ अध्ययन एक विचारक ने ठीक कहा हैPlcsuro 's coach is a virtue's grave. भोग का सिंहासन सद्गुण की कम है। क्षणिक तुष्टि के पीछे आनेवाली संकटों की बाढ़ को साधक अपनी आंखों से देखता है। अतः जन मानल की उस अशान्ति में भी साधक प्रेरणा के मीज खोजे और आतुरता का परित्याग कर ममकार और अहंकार से विहीन हो जितेन्द्रिय बने । गंयमस्वपुणे जनहासितो। से हु दंते सुहं सुयति णिरुषसग्गे य जीवति ॥५॥ अर्थ:-पंचमहावतों से युक्त, कषाय रहित, जितेन्द्रिय और दमनशील साधक सुख से सोता है और उपसर्ग रहित जीवन जीता है। गुजराती भाषांतर : પંચ મહાવતેથી યુક્ત, કષાય વગર, ઇન્દ્રિય પર કાબૂ મેળવેલ અને દમનશીલ સાધક સુખથી નીંદ લે છે અને કિરવગરનું જીવન ગુજારે છે. आत्मिक शान्ति कौन पा सकता है और किसका जीवन कठों और पीड़ाओं से मुक रहता है इसका उत्तर प्रस्तुत गाथा दे रही है । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के पंच महावत जिसकी आत्म-शान्ति की सुरक्षा कर रहे हैं । इच्छाओं की रस्सियों को जिसने तोड़ डाला है और कपाय की ज्वाला जिसकी शान्त हो चुकी है। वही आत्म दमनशील साधक सही अर्थों में सुख की नींद सोता है । वासना जन्य कष्ट उसके जीवन में प्रवेश नहीं पा सकते। "सु सुयति" यह एक मुहावरा है। मानष जब किसी बड़े कट से मुक्ति पाता है राब बोल उठता है-अब मैं सुख की नींद सोऊंगा। इसी प्रकार जो साधक इच्छाओं की पीड़ा से मुक्त हो जाता है वही पूर्ण सुख की अनुभूति करता है। जे ण लुभति कामेहि चिण्णसोते अणासवे । सध्ध-दुक्ख-पहीणो उसिद्ध भवति णीरए । अर्थ-जो कामों में लुब्ध नहीं होता है और जो छिनस्रोत है और अनाश्रित होता है, वह समस्त दुःखों से मुक हो कर्मरज रहित सिद्ध होता है। गुजराती भाषांतर : જે માણસને વાસનાઓ આકર્ષિત કરી શકતા નથી, સ્ત્રોતોને છેદી નાખી અનાશ્રિત બની ગયો છે તેજ માણસ બધાં દુઃખોથી મુક્ત બની કર્મરજથી રહિત સિદ્ધ બને છે. वासना मैं जिसे लुभा नहीं सकती वही वासना के स्रोत को सुखा सकता है और कर्मालव को रोक सकता है। जो आखव रहित है वही दुःख-परंपरा को रोक सकता है और वही आत्मा कर्म-रज-रहित हो, शाश्वत सिद्ध स्थिति पा सकता है। प्रोफेसर शुनिंम् लिखते हैं तेहतीसवें अध्याय की भांति ही यहां पर की घटनाओं का निश्चित संख्या के रूप में वर्णन करते हैं। स्थानोग सूत्र में भी यह संख्या के रूप में आया है, किन्तु वहां इतना स्पष्ट नहीं है। श्रद्धावान् को अज्ञानी के सामने रखा है और विद्वान् पुरुष अज्ञानियों के प्रहार से अपने आपको कैसे मुक्त करे यह इसमें बताया गया है। जो उस पर प्रहार होते हैं सद्विचारों के द्वारा उन्हें अच्छे रूप में स्वीकार करता है, क्योंकि बह समस्त बंधनों से मुक्त है । आवारोगसूत्र में “ अनदिन" शब्द अनेक बार आया है। उसमें बताया गया है कि वैर के कार्यों का परिणाम सुन्दर नहीं आता है। तृतीय श्लोक में दीन शब्द छठौं विभक्ति में आया है जिसका मतलब यह है कि वह ( साधन) शरीर को टिकाये रखने के लिये वह जीता है, पश्चात् इच्छाओं की समाप्ति एवं ज्ञान प्राप्ति के बाद वह आत्मा संसारी जीवों के साथ नहीं रहता। एवं से सिद्ध बुद्ध गतार्थः । इति इसिगिरिअईतर्षि प्रोक्त चौतीसमं अध्ययन १ वेराज वैरं वरहा। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदालक अतर्षि प्रोक्त पैंतीसवां अध्ययन अनंत युग से पाएगा सान्ति की खो के लिये ज्वालामुखी पर आरोहण से हो रहे मेंनटक रहा है। किन्तु शान्ति के लिये किये गये वे सभी प्रयत्न शीतल हवा हिमालय के बदले आलामुखी को चुनकर शान्ति की आशा केवल स्वप्न । वृध के बर्तन को आग पर रखकर उसे उबालने से बचाना संभव नहीं है, इसी प्रकार कषाय की ज्वाला के निकट रहकर शान्ति की सांस लेना भी संभव नहीं है। हैं। मानव मुक्ति के लिए सो सो प्रयत्न करता है किन्तु जब तक वह अपने हृदय से कषाय मुक्ति नहीं पा सकता । मुक्ति न वेष बदलने में है, न किसी संप्रदाय विशेष के लुंटे से मुक्ति है कपाय विजय में । को दूर नहीं करता तब तक बंध जाने में ही मुक्ति है। विश्व के हर महापुरुष ने क्रोध की निन्दा की हैं । आचार्य विनोबा कहते हैं - संपूर्ण संसार को एकता के सूत्र में बांधने की योजनाएं बनाना सरल हैं, किन्तु अपने हृदय में रहनेवाले क्रोध पर विजय पाना अत्यन्त कठिन है। क्रोध की मानव का मनोबल । क्रोध मानव की विचार शक्ति को दुर्बल बनाता हैं, इसीलिये तो उसका अम्ल सर्व प्रथम उसके चालक को ही घायल करता हैं । खुराक आग ठंडे पानी से भी मुझ सकती है और गरम से भी। किन्तु विश्व के तीन मानत्रों में एक भी ऐसा सूर्ख न होगा जो आग लगने पर पानी को गरम करने बैठे। ठीक ऐसे ही समाज या परिवार की समस्या शान्त दिमाग से भी दल होती है. और कभी गर्म दिमाग भी उसको सुलझा देता है किन्तु जो समस्या को सुलाझने के लिये पहले क्रोध के द्वारा मस्तिष्क को उबालने लगे उसे क्या कहा जाय ? । को पाप का जनक और पुण्य का भक्षक है। एक विचारक ने कहा है Anger blows out the lamp of the mind को मन के दीपक को बुझा देता है । हमें सोचना है क्रोध क्यों आता है ? क्रोध की जड़ अहंकार में है। जब मनुष्य के "अहं" पर चोट लगती है तो दर्प का सर्प फुफकार उठता है। उसके खून में उबाल आ जाता है और मस्तिष्क की दिशा सूचक मुई भी घुम जाती है। चद्द सही रास्ता नहीं दिखाती । उसकी जीभ भी ठीक काम नहीं देती। वाणी और देव की यही विकृति क्रोध है । प्रकृतिस्थ होने के लिये विकृति को समाप्त करना होगा। प्रस्तुत अध्याय कषाय-विजय की प्रेरणा देता है । उहिं ठाणेहिं खलु भो जीवा कुप्पंता; मज्जयंता गुहता लुम्भंता वज्जं समादियंति, वज्रं समादित्ता चाउरंत संसारकनारे पुणो पुणो अत्ताणं परिविद्धंसंति, तं जहा कोहेणं माणेणं मायाए लोमेणं । अर्थ- को करते हुए, मद करते हुए, छिपाते हुए और लोभ करते हुए जीव इन चार स्थानों से पाप को करते हैं और पाप प्रण करके चातुरन्त संसार वन में पुनः पुनः अपनी आत्मा को ( आत्म गुणों को ) नष्ट करते हैं । ये हैं क्रोध के द्वारा, मान के द्वारा, माया के द्वारा और लोभ के द्वारा । गुजराती भाषांतरः ગુસ્સાવાળો, મદથી ઉન્મત્ત, છુપાવનારો અને લોભી માસ પોતપોતાના ચાર કૌશી પાપોનો સંગ્રહ કરે છે. પાપોનો સંચય કરી ચાતુરન્ત સંસારરૂપી જંગલમાં આવી ઘડી ઘડી આમ( ના ગુણો )ને નાશ કરે છે. तेर्ता (उशवनार ) आहे. ोध, मान, माया, अने बोल भेटले या चारथीन यापनो संचय थात्र हो. htra मान माया और लोभ ये आत्मा की विभाव परिणतिय | आत्मा स्वभाव से हटकर जब इन विभाव परिगतियां में जाता है तब सावय को ग्रहण करता है। वह सावय पाप आत्मा को पुनः विभाग की ओर ले जाता है और इस रूप में आत्मा की भवपरंपरा की लता सदैव पवित और पुष्पित रहती हैं। दशवेकालिक सूत्र में भगवान महावीर की वाणी गूंज रही है। १ कषायमुक्तिः किल एव मुक्तिः २ पि Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतीसवां अध्ययन कोहो य माणो य मणिग्गहिया माया य लोभा व पपमाणा ।। एए य चत्तारि कसिणा कसाया, सिंचन्ति मूलाई पुणभवस्स-दशबैक। यदि क्रोध और मान निग्रहित नहीं है गाया और लोभ की ज्वाला धधक रही है तो यह कयाय चतुष्क भवपरंपरा की जड़ को सदैव सींचना रहेगा। क्योंकि जन्म परंपरा के मूल कैम हैं और कर्म रागद्वेष प्रेषित होते है। रामद्वेष ऋषाय में अंतमुक्त हैं। स्थूल दृष्टि से कोच और मानदेष प्रेरित हैं और माया और लोभ रामप्रेरित हैं। श्रीजिनभमुगणि 'क्षमाश्रमण'नय विचार से राग और द्वेष में कषाय का विभाजन करते हुए कहते है : कोहं मार्ण वऽप्पीह, जाइओ बेह संगहो दोसं । माया लोभेय सपीइ, जाइ सामपणो राग । माय पिजं दोसमिच्छ धबहारो परोवघायाय । नाओ वा दाणेचिय मुख्छा लोमोति तो राग । उज्मुसय मयं कोहो दोसो सेसाण मय गन्तो। रागो तिव वोसो ति व परिणामबसेण उविसेको। विशेषावश्यक भाष्य २६६६-२६७१. संग्रह नय के विचार से क्रोध और मान द्वेष रूप है जब कि माया और लोभ राग हैं। क्योंकि प्रथम दो में दूसरे की अहित भावना है और अन्तिम दो में अपनी स्वार्थ साधना का लक्ष्य है । व्यवहार नय की दृष्टि से कोष मान और माया तीनों द्वेष रूप हैं, क्योंकि माया में भी दूसरे की विघात के ही विचार है। केवल लोभ ही अकेला रागात्मक है, क्योंकि उसी में ममत्व भाव है। ऋजुसूत्र नय केवल क्रोध को ही द्वेयरूप मानता है। पानिकके जन्म में कान्ताः एमा स्वीकार नहीं करता है, कि वे केवल राग प्रेरित है या केवल देष प्रेरित । अध्यवसाय विशेष से प्रेरित मानादिक भी द्वेषात्मक प्रवृत्ति करते हैं तो कमी राग की ओर भी सकते है, जब वे स्वहित की सुख में प्रयुक्त हों तब इनका स्वार्थप्रेरित रूप रागात्मक यूति का योतक है और जब वे दूसरे के विनाश में प्रवृत होते हैं तब द्वेष रूप है। ऋजु सूत्र नय वर्तमान क्षणग्राही हैं, अतः वह क्रोध और मान को द्वेष रूप एवं माया और लोभ राग रूप हैं ऐला भेद मानने को वह तैयार नहीं हैं। शब्दादि वीनों नय इनसे भिन्न मत रखते हैं। उनकी दृष्टि में कोध, मान, माया और लोभ जव स्वगुण उपकारसत्मक उपयोग में होते हैं तब तीनो मूत्मिक मात्र में हैं, अतः राग ही है । और जब वे दूसरे की अनिष्ट भावना से प्रेरित होते हैं तम धेष रूप है। कराय चाहे रागरूप हो या द्वेषरूप, अन्ततः ये सभी भवपरम्परा की वृद्धि करते हैं। टीका - सुषु स्थानेषु स्खलु भो जीयाः कुष्यन्तो माद्यन्तो गृह्यन्तो लुभ्यन्तो बज्र समादयन्ति वन समादाय चातुरन्तसंसारकान्तारे पुन:पुनरात्मानं प्रतिविध्वंसंति, तत् तथा क्रोधेन मानेन मायया लोभेन । गताः । .. तेसि च णं अहं परिधातहेर्ड, अकुर्णते, अमज्जते, अगृहंते, अलुम्भंते, तिगुत्ते, तिदंड-विरते, णिस्सल्ले, अगारवे, चउविकविजिए, पंचसमिते समिप, पंचेंदियसंवुडे, सरीर सद्धरणट्ठा जोगसंघणट्ठा, णयकोडीपरिसुद्धं दसदोसधिष्पमुक उम्गमुप्पायणलुद्धं तत्थ तत्थ इतरा इतरा कुलेहि परकर्ड परणिहितं विगतिंगालं विगतधूम, सत्थातीतं, सत्थरिणतं, पिई सेज्ज उचाहिं च एसे भावमित्ति अहालेणं अरहता इसिणा बुइतं ।।। अर्थ:-अब मैं कषायों के प्रतियात के लिये क्रोध नहीं करता, मान नहीं करता, छल से दूर रहता और लोभ नहीं करता । त्रिपितरों से गुप्त त्रिदंष्ट से विरत शल्प-रहित, गर्ब-रहित, चार विकथाओं से विवर्जित, पंच समितियों से युक्त, पंच इन्द्रियों से सेवृत होकर, शरीर धारण के लिये और योगों के संधान के लिये, नवकोटि परिशुद्ध दस दोषों से विप्रमुक्त उद्रम और उत्पाद के दोषों से शुद्ध यहां वहां अन्यान्य कुलों से दूसरों के लिये बनाया हुवा अग्नि और धूम रहित शलातीत और शस्त्र परिणत आहार शय्या और उपाधि को प्रहण करता हूं और आत्मा को भावित करता हूं। उहालक अहंतर्षि ऐसा बोले । १ कर्म च जाह मरणस्स मूलं । दुखं च जाइ मरण वयति ।। उत्तरा० अ०३२ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलि - भासियाई गुजराती भाषान्तर: હુમણાં હું કષાયો ( પર વિજય મેળવી તે )નો નાશ (ઘાતક પ્રવ્રુત્તિ) કરવા માટે ગુસ્સો કરતો નથી, માન કરતો નથી, છલથી દૂર રહું છું અને લોભ કરતો નથી. ત્રિગુણિયોથી ગુપ્ત ત્રિદંડ (મન, વાણી અને દેહ ) થી વિત, શય ( भाया निधान, सनी अभिलाषा, अपने मिथ्यादर्शन) रहित, अभिमान रहित, यार ( खीनी, हेरानी, रानी अने भोजननी) याशोथी रहित, पाय ( हर्या, भाषा, भेषशा, माहान, निक्षेय, उभ्या असणा) समितिमोथी युक्त, પાંચ ઇન્દ્રિયોથી સંવૃત, દેહધારણ માટે અને યોગના સંધાન માટે નવકોટિ પરિશુદ્ધ દોષોથી પરિમુક્ત, ઉદ્ગમ અને ઉત્પાદના દોષોથી શુદ્ધ, અહીંયા અગર ખીંચે કાણું ખીન્ન ફુલોથી બીજાઓને માટે મનાવેલા અગ્નિ અને કુંવા ડાથી રહિત, શસ્ત્રતીત અને શસ્ત્રપરિત, આહાર, શય્યા અને ઉપાધિને હું સ્વીકાર કરું છું અને આત્માને ભાવિત કરું છું એમ ઉદ્દાલક ઋષિ બોલ્યા. कषाय पर विजय पाने के लिये साधक को कषाय की परिणति से दूर रहना चाहिये । उसे क्षमा विनय सरलता और निर्दोभिता के भात्रों में रत रहना चाहिये। साथ ही उसकी आहार और व्यवहार शुद्धि भी आवश्यक है। समिति और मियाँ उसे साधना में लीन रखती है। मन, वाणो और काया की शुभ से हटकर शुभ को ओर प्रवृत्त करना गुमि है। त्रिदंड :-मन वाणी और काया की आत्म विघातिनी प्रवृत्ति है । निःशल्य : – माया निदान = फलासकि और मिथ्यादर्शन चे शल्य हैं, इनसे विश्त निःशल्य कहा जाता है। चडविकहा :- स्त्री कथा, देश-कथा, राज कथा, भात = भोजन कथा ये चारों विकथा व्यर्थ कथाएं हैं । = पंचसमिति :- ईय विवेकपूर्वक चलना, भाषा विवेकपूर्वक सीमित बोलना, एषणा शुद्ध भोजन की शोध, आदान निक्षेप निजी सीमित सामान को यत्न के साथ लेना और रखना. २१६ / उच्चार प्रस्त्रवणादि = परिस्थापन एकान्त स्थान में विवेकपूर्वक मल मूत्रादि विसर्जन करना । ये पांचों समितियां हैं। उपयुक्त प्रवृत्ति समिति हैं। गुप्ति निवृत्ति हैं तो समिति प्रवृत्ति है। साधक जीवन निवृत्ति और प्रवृत्ति के दो तटों के बीज बहता है, किन्तु दोनों में ही उसका विवेक जागृत रहना चाहिए। मूल और उत्तर गुणों से संयमित जीवनवाले साधक को भी भोजन की आवश्यकता होती है, किन्तु भोजन नवकोटि शुद्ध हो। एषणा गवेषण भोजन प्राप्ति के दोषों से रहित तथा उद्गम और उत्पादक के दोषों से मुक्त हो। जिस भोजन के निर्माण और उसके संस्थापन में मुनि का संकल्प हो वह सुनि के लिये अग्राहा है। उद्गम और उत्पादन के क्रमशः सोलह दोष हैं। विशुद्ध भोजन भी मुनि एक ही घर से ग्रहण न करें, किन्तु विविध कुलों में जाकर शुद्ध भोजन ले । की मिक्षा भ्रमरवृत्ति है । दशवेकालिय सूत्र के प्रथम अध्याय में मुनि की भिक्षा-विधि का सुंदर निरूपण किया गया है । जैले भ्रमर पक्ष के फूलों का रस ग्रहण करता है, किन्तु वह इतना कुशल है कि उस के रस प्रहण से न पुष्पों को पीदा होती हैं, न वह स्वयं ही अतृप्त रहता है। साधक की भिक्षा भी ठीक इसी प्रकार की हो। वह समाज उद्यान में पहुंचे गृहस्थ पुष्पों से रस ले किन्तु उसके द्वारा वे फूल सुसन भी नहीं चाहिये ।. भोजन दूसरों के लिये बनाया गया हो अग्नि और धूर्व से रहित हो। भोजन शस्त्र परिणत हो साथ ही शत्र से रहित भी हो । १ सम्यग्योग निग्रही तत्त्वार्थ अ" ९ सू० ८ २. जो भोजन मुनि ने बनाया न हो, न दूसरे से बनवाया हो और न उसके लिये अनुमोदन ही किया हो । जो काय मन वाणी और देह तीन्हों से पृथक् है वह नवकोटि शुद्ध कहलाता है, भन से न करना, न करवाना, न अनुमोदन करना ऐसे ही क्षणी और काया के द्वारा ये नव कोटियां है। ३ जहा दुम्गस्स धुके भगरी भा' वियर रसं । पुष्प फिलामे सोय पींगइ अध्ययं ।। एमए समणामुत्ता जे कोष संति साइगो । विश्गभाव पुण्फेसु क्षण भत्तेस रही ॥ अ १. गाथा २-३ xश से यहां चाकू आदि अभिप्रेत नहीं है किन्तु एक द्रव्य में विजातीय द्रव्य का मिश्रण; जिस माघात को द्रव्य जीव सह न सके जैसे शाक आदि में नमक मिश्रण हो वह द्रव्य शस्त्रपरिणत है । ५ उस द्रव्य के साथ नमक। दि शस्त्र पृथक रूप में उपस्थित न हो। अन्यथा वट सचित एवं अनेषणीय होगा । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " पैंतीसवां अध्ययन टीका - तेषां च कषायाणामहं एरियात हेतोर कुप्यममाद्यन्न गुलुभ्यं स्त्रिगुप्त स्त्रिदंड-विरतो, निःशल्पोऽगारवः स्त्री-भक्त-देश-राज विशेषितत् चतुर्विकथा विवर्जितः पंचसमितः पंचेन्द्रियसंवृतः शरीरसंधारणार्थं योगसंधानार्थं नवदोषकोटिपरिशुद्धं दशदोष - विप्रमुक्तं, उद्गमोत्पादनशेषशुद्धं तत्र तथेतरेषु क्रुदेषु परावं कृतं निष्ठितं, बिगतांगार, विगतसरसाधारधनदद् दातृवर्णनं, विगतधूमं जिरसाहारकृपणदातृ निम्न वर्जितं शस्वाती शस्त्रपरिणतं पिंडे यावधि चैषा भावयामीत्यर्षिणा भाषितं । गतार्थः । २१७ विशेष विगत्तागारं और विगत धूम के साथ कुछ विशेषण और जोड़े हैं। सरमा आधार और धनवान दाता का वर्जन करना चाहिये। क्योंकि धन का पूजारी गुण पूजा को महत्व नहीं देता और वह अपने यहां आगंतुक संत को भी रसलोलुप भिक्षुक ही समझता है । कृपण के यहां भी मुनि भिक्षा के लिये न जाए, क्योंकि जिसका दिल संकुचित है उसके पास भी कुछ नहीं मिल सकता | कृपण का दूसरा अर्थ गरीब भी होता है। दीन-दुःखियों के उद्देश्य से बनाये गये भोजन को गुनि ग्रहण न करे। साथ ही मुनि निन्दित गृह में भी प्रवेश न करे । अण्णा विप्पमूढप्पा पच्चुप्पण्णाभिधारण | Pahli किया महायाणं अप्पा विधह अप्यकं ॥ १ ॥ अर्थ :-- अज्ञान से घिरा हुआ महात्मा केवल वर्तमान को ही देखता है क्रोध को महाबाण बनाकर उसके द्वारा अपने आपको बांध डालता है । गुजराती भाषान्तर : અજ્ઞાનથી ઘેરાયેલો મૂઢ માનવ કેવલ ચાલુ હાલત તરફ જ ધ્યાન આપે છે. ગુસ્સાને મહાબાજી (શસ્ત્ર) બનાવી તેનાથી જ પોતે ઘાયલ અની જાય છે. अज्ञानशील आत्मा की दृष्टि केवल वर्तमान तक ही सीमित रहती है । इसीलिये उसके वर्तमान तुख में जरा भी कमी होती है, या उसके स्वार्थ को ठेस लगती है तो उसका को उबल पड़ता है। कोध मानव का विवेक दीपक बुझा देता है। एक इंग्लिश विचारक ने कहा है : An angry man opens his wonth and shuts his eyes. क्रोधी मनुष्य आंखें मूंद लेता है और मुंह खोल देता है । वह यह नहीं सोचता कि मेरे इन शब्दों का परिणाम क्या आयेगा | कोध के प्रारंभ में मूर्खता है और उसके अन्त में पश्चाताप रहता है। कोष जब अलग दरवाजे से प्रवेश करता है तो विवेक पीछे की ओर से भाग खड़ा होता है । क्रोधी मानव कोष के बाण से स्वयं अपने आपको बींध लेता है। हजारों की संख्या में होनेवाली आत्महत्याएं इसी की साक्षी है। दूसरे को जलाने के लिए जो आग फेंकने की चेष्टा करते हैं, उस आग से दूसरा जलेगा या नहीं यह दूर की बात है किन्तु आग अपने फेंकने वाले के हाथ को जरूर जलाती है । क्रोध पर विजय पाने के लिये क्रोध विजेताओं को स्मृतिपथ में लाना चाहिये। आग बुझाने के लिये फायर ब्रिगेड को बुलाया जाता है तो कोष के उपशमन के लिये क्षमा के देवता गजसुकुमाल को याद करना चाहिये। उनका उज्वल इतिहास क्षमा की पुड़ियां दे जाता है। साथ ही क्रोध के उपशमन के लिये क्रोध आने बाद विचार करना चाहिये 1 को क्यों आया है उसमें गलती किसकी थी ? यदि मेरी गलती थी और उसने बताई तो फिर कोध की आवश्यकता क्या थी ? यदि गलती दूसरे की थी फिर भी उसे गुस्सा आयगा तो मुझे शान्त रहना था । मण्णे बाणेण विद्धे तु भवमेकं विणिज्जति । कोषाणेण विद्धे तु गिती भवसंतति ॥ २ ॥ अर्थ :- बाप से बीधे जाने पर एक भव विधड़ता है। कोष बाण के प्रविष्ट होने पर भव-परंपर ही बिगड़ जाती हैं ऐसा मैं मानता हूं। गुजराती भाषान्तर : મીંજા ખાણુથી ત્રાયલ થયા પછી એકજ ભવ બગડે છે. ગુસ્સાનો બાણ વાગ્યા પછી ભવપરંપર' (અનેક ભવ) लगाडे छे, खेभ हुं भानुं धुं. २८ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई दूसरे बाण शरीर को लगते हैं, शरीर धराशायी हो जाता है और जीवन की यात्रा समाप्त हो जाती है। किन्तु कोष का बाण हजारों भनों को विकृत करता है। यह कोध का ही परिणाम था कि गौशालक ने भ. महावीर जैसे पवित्र सन्त पर तेजोलेश्या की। विश्व के महायुद्ध और संहार का इतिहास भी कोष की कलम से लिखा गया है। विपाक सूत्र की धाएं भी कषाय का परिणाम बता रही हैं। अण्णाणविप्पमूढप्पा पच्चुप्पण्णाभिधारण। माणं किया महावाणं अप्पा विधह अप्पर्क ॥३॥ मण्णे याणेण यिद्धे तु भवमेकं विणिजति । माणयाणे विद्धे तु णिज्जती भवसंतति ॥ ४॥ अर्थ:-अज्ञान से घिरा हुआ आत्मा वर्तमान को ही पकड़ कर रखता है और मान को महावाण बनाकर आत्मा अपने आपको वींध लेता है। बाण से नौधा हुआ व्यक्ति एक ही भर को नष्ट करता है, किन्तु मान के बाण से वींधा हुआ व्यक्ति अनेक भनों को विकृत करता है, ऐसा मैं मानता हूं। गुजराती भाषान्तर:-- અજ્ઞાનથી ઘેરાયેલો માણસ ચાલૂ હાલત ને પકડી રાખે છે અને અહંકારને મહાબાણ બનાવી પોતે જ પોતાને माय ( मोटो स्या)री छ. બીજા બાણથી ઘાયલ થયેલ માણસ એકજભવને નાશ કરે છે, જ્યારે અહંકારના બાણથી ઘાયલ થએલો. માણસ ઘણાજ ભવોને બગાડે છે, એમ હું માનું છું. अहंकार मानव-मन का नागपाश है । दर्प का सर्प जब मानर को डसता है तो उसके नशे में अपने आपको सर्वश्रेष्ठ मान बैठता है । मगरूर की हवा उसे फूला अवश्य देती है, किन्तु चैन से कहीं बैठने नहीं देती। यह भी निश्चित है मनुष्य जितना छोटा होता है उसका अहंकार उत्तना ही बड़ा होता है। पश्चिमी विचारक फॅकलिन ने कहा है-घमंडी व्यक्ति भी दूसरे के घमंड से नफरत करता है। फिर भी उसे अहंकार से नफरत नहीं है, क्योंकि वह अपने आपको बहुत बधा मानता है। नम्रता ने शैतान को फरिश्ता बनाया है तो अहंकार ने फरिश्ते को शैतान बनाया है। अहंकार ज्ञान का सबसे बड़ा अवरोधक हैं। बाहुबली को अल्प अहंकार भी उनकी साधना का सबसे बड़ा बाधक बन गया था। अण्णाणविप्पमूढष्णा पञ्चुप्पण्णाभिधारए । मायं किच्चा महावाण अप्पा विधह अप्पकं ॥५॥ मण्णे घाणेण विद्धे तु भवमेकं विणिज्जति । मायावाणेण विद्धे तु णिज्जती भवसंततिं ॥ ६॥ अर्थ:-अज्ञान के आवरण में रहा आत्मा वर्तमान को ही पड़ता है। माया को महाबाण बनाकर आत्मा अपने आपको वींधता है। दूसरे वाण से वीधे जाने पर एक ही भव नष्ट होता है, किन्तु माया के वाण शेत्रींधा गया व्यक्ति भवपरंपरा को विकृत करता है, ऐसा मैं मानता हूं। गुजराती भाषान्तर : અજ્ઞાનના આવરણથી ઢંકાયેલે આત્મા હાલની પરિસ્થિતિને પકડીને જ બેસે છે. તે માણસ માયાનો મહાબાણ બનાવી પોતે જ પોતાને ઘાયલ કરી લે છે. 1. It was ride that changed angels into devils it is humility that makes mern us angels. Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतीसवां अध्ययन २१९ ખીજા માજુથી ઘાયલ થયેલા માણુસનો એકજ ભવ બગડે છે; પરંતુ માયાના બાણથી ઘવાયેલો માસ ભવપરંપરા ( એટલે અનેક નવો )ને બગાડી દે છે, એમ હું માનું છું. सरलता की भूमि में धर्म का पौधा लगता है। जीवन की वकता सरल वस्तु को कपट रखकर कोई भी रोगी स्वस्थ नहीं हुआ है। अध्यापक ने छल कर कोई भी व्यक्ति दुराव छिपा पाकर कोई भी मुवकील विजय नहीं पा सका । विकृत बना देती है। डाक्टर से शिक्षा नहीं पासका। वकील से आलोचना जैसी पवित्र क्रिया भी दूषित हो जाती है । जो आलोचना शुद्ध हृदय से की जाती है तो जिस पाप का एक माका आता है, किन्तु छल के द्वारा की हुई आलोचना करने पर उसी अपराध का दो मास का प्रायश्वित आता है। आगम में मायाशील आत्मा को मिथ्या दृष्ठि बताया गया है। 'मायी मिच्छादिट्टी अमायी सम्मदिनी' । साथ ही माया को तिर्यग्योनि का बन्ध हेतु बताया गया है। जीवन की वक्रता शरीर को भी वक बना देती है । अण्णाणविप्पमूढप्पा पच्चुप्पण्णाभिचारए । लोभं किया महाबाणं अप्या विधह अप्पकं ॥ ७ ॥ मणे बाणेण विद्धे तु भवमेकं विणिजति । लोभवाणेण विद्धे तु गिज्जती भवसंतति ॥ ८ ॥ अर्थ :- अज्ञान से आत आत्मा वर्तमान को ही ग्रहण करता है। लोभ को महाबाण बनाकर उसके द्वारा आत्मा स्वयं को बींध लेता है। अन्य बाथ से बींधा हुआ आत्मा एक भव को ही खोता है, पर लोभ बाण से विन्द्र व्यक्ति अनेक भवों को खो बैठता है । गुजराती भाषान्तर : અજ્ઞાનથી આવૃત ( ઘેરાયેલો ) માનવ ચાલ. પરિસ્થિતીને જ વળગી રહે છે. ચૌલને મહામાણુ ( મોટામાં મોટું સાધન) સમજી પોતાના જ કૃત્યોથી પોતાને ઘાયલ કરી બેસે છે. બીજા બાણુથી ઘાયલ થયેયો આત્મા કદાચ એક ભવને ખોઈ બેસે છે, પણ લોભ પી આણુથી ધાયલ થયેલ આત્મા ઘણા જ ભવોને ખોઈ બેસે છે, I लोभ यह चतुर्थं कषाय है, जिसके लिये आगम बोलते हैं लोहो लध्वविभासणो । ” लोभ समस्त विनाश का हेतु है। इंग्लिश कहावत है- Ararioe is root of all evils, लोभ समस्त पापों की जड़ है । देश और कोणिक के बीच हुए युद्ध और भीषण नरसंहार के पीछे एक हृदय का लोभ ही तो बोल रहा था। विभिन्न राष्ट्रों में होनेवाली रक्त क्रान्तियों की जड़ में लोभ ही बोल रहा है। संग्रह और शोषण वृत्ति के पीछे भी यही काम करता है । टीका :- ज्ञानविप्रमुहारमा प्रत्युत्पन्नाभिधारकः कोपं मानं मायां लोभं कृत्वा महाबाण मारमा विश्वत्यात्मानं । मन्ये वाणेन बि एकमेव भवं विनीयते क्रोधमानमायालोभवाणेन विद्धस्तु भवसंतसिं नीयते जनः । गतार्थः । लम्हा तेसिं विणासाय सम्ममागम्मसम्मति । अयं परं च जाणित्ता चरेऽविसय गोयरं ॥ ९ ॥ अर्थ :- अतः साधक के कपाय के नाश के लिये सम्यक रूप से सम्मति को प्राप्त करे और ख और पर का ज्ञान करके भविषय गोचर वातावरण में रहे. । गुजराती भाषान्तर : માટે સાધકના કષાયનો નાશ કરવા માટે સારી રીતે સતિ મેળવી લેવી જોઈએ અને સ્વ તથા પરનું જ્ઞાન કરી લઈ અવિષયગોચર ( જ્યાં વિષયોનું જ્ઞાન દ્રિયોને થાય નહી એવા ) વાતાવરણમાં જ રહેવું જોઈએ. ? जे भिक्खु मासियं परिहारं ठाणं परिसेवित्त आलोएज्जा आपलियेचियं आलोयमाणरस मासि, पलिओनिय आलोय माणस दोमासि । व्यवहारसूत्र ३० १ सू० १. २ माया तैर्यग्योनमस्य । तत्त्वार्थे अ. ६ सू. १७ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० सास-मासिचाई साधक कषाय के स्वरूप का परिज्ञान करे । जन्म उसकी विघातक शक्ति का ठीक ठीक अबोध होगा तभी आत्मा उसके विनाश के लिए प्रवृत्त होगा। क्याय मेरी स्वभाव-परिणति नहीं है, वह मेरे निज गुणों का विघातक है। इतना निश्चय होने के बाद ही साधक विभाव परिणति को दूर कर सकता है । अत एव वर्तमान सुख के लिये आकुल त्रुद्धि की चंचलता को दूर करना होगा। किसी वस्तु की प्राप्ति और उसके संरक्षण के लिये मनुष्य कोध के हथियार का उपयोग करता है। उसके लिये दो बातों का चिन्तन आवश्यक है। जिस वरतु को पाने के लिये क्रोध किया जाता है वह खद्रव्य है या परद्रष्य ? यह निक्षित है आत्मा के अतिरिर सभी वस्तुएं परगव्य हैं, फिर पर के लिये इतना आक्रोश क्यों ? दूसरी बात कोष के द्वारा किसी वस्तु का संरक्षण हम कर सकें ग्रह भी संभव नहीं है। क्योंकि वसु स्वयं विनाशधर्मी है और अशाश्वत को शाश्वत बनाने की ताकद किसमें है ? अतः साधक ख और पर का भेद विज्ञान करे। यह भेदविज्ञान उसे कषाय-विजय के लिये बहुत बड़ा सहाय्यक होगा। कषाय-विजय के लिये मेदविज्ञान के साथ अन्तनिरीक्षण भी आवश्यक है। क्रोध के उतार के क्षणों में आत्मनिरीक्षण करें । हरएक व्यक्ति दूरारे की मस्ती देखता है। इसीलिये तो उसे कोध आता है यदि उसका आत्म-निरीक्षण जारी रहा तो वह अपनी भूल भी देखेगा और फिर क्रोध का स्थान सहज सुलभ लज्जा ले लेगी। शोधोपशमन के लिये विपथोपरति भी आवश्यक है। क्योंकि विषयों की ओर घूमनेवाला मन जब अपने प्रिय पदार्थों की प्राप्ति में किसी को बाधक पाता है तभी उन्हें दूर करने के लिये क्रोध का आश्रय लेता है। जेसु जायते कोधाती कम्म-बंधा महाभया । से वत्थू सबभावे, सव्वहा परिवज्जए ॥१०॥ अर्थ:-जिन व्यक्तिओं अथवा वस्तुओं में कर्म बन्च के हेतु और महा भयोत्पादक क्रोधादि उत्पन्न होते है साधक उन समस्त वस्तुओं को सर्व भावों से सर्वथा छोड़ दे। गुजराती भाषान्तर: જે માણસમાં અગર પદાર્થોમાં કર્મબંધના કારણે મોટું ભય ઉત્પન્ન કરનાર ક્રોધ જેવા વિકાર પેદા થાય છે; સાધકે ગમે તેમ કરી તેવા પદાર્થોને સદંતર છોડી દેવા જોઈએ. पुदल यद्यपि जड़ है उसमें कषाय भाव नहीं है, फिर भी कषायोत्पादन में चे निमित्त हो सकते हैं । यदि आत्मा में कषायभाव है तो पदार्थ मी कसाय के लिये निमित्त हो सकता है। अतः साधक कषाय के निमित्त से बचता रहे। यद्यपि निमित्तों से बना बाहिरी दवा है, अन्तर की औषधि तो आत्मा में से कयाय की परिणति का क्षय कर देना है। फिर भी जब तक मोह क्षय नहीं हो जाता तब तक कषाय के निमितों से बचते रहना आवश्यक हैं। भगवान महावीर ने कहा है - मेकिलेशकर ठाणं दूरओ परिवाए। -दशवकालिक सूत्र, साधक | कषायोत्पादक बातावरण को दूर से ही छोड़ दे। सत्थं सल्लं विसं जंतं मज वालं दुभासणं । वज्जेतो तं निमिसेणं दोसेणं ण यि लुप्पति ॥ ११ ॥ अर्थ:-शस्त्र, शल्य, विष, अंत्र, मद्य, सर्प और कटुभाषण का वर्जन करने वाला व्यक्ति उस निमिस से आनेवाले दोषों से लिप्त नहीं होता है। गुजराती भाषांतर : હથિયાર, શલ્ય, જહર, યંત્ર, દાસ, સાપ અને ન ગમે તેવી વાતોથી દૂર રહેનાર માણસને તેને કારણે આવનાર કોઈપણ દોષને સંસર્ગ ( જવાબદારી) તે માણસને થતું નથી. पूर्व गाथा में बताया गया है कि साधक कषाय से बचने के लिये उसके निमित्तों से दूर रहे, यहां उन निमितों का निर्देश किया गया है। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतीसवां अध्ययन २२१ शस्त्र हिंसा का बहुत बड़ा साधन है । कोध आया और पास में शस्त्र है तो वह शीघ्न हिंसा के लिये तैयार हो जायगा। पर यदि आवेश के क्षणों में शस्त्र पास में नहीं है जो वह उस समय प्राणघात से बच जाएगा । संभव है कुछ देर बाद उसके आवेश का तुफान ही शान्त हो जाए। शल्य वह अन्तःशस्त्र है। जो भीतर ही प्रहार करता है। विष नी कोध को उत्तेजना देनेवाला है। आवेश में बहत से अविवेकी जन आत्मघात की सोच लेते हैं और विष का प्रयोग करते हैं अथवा उराका उपयोग दूसरे की हत्या में करते हैं। इसी प्रकार यंत्र, मद्य, सर्ग और दुर्वचन कथाम के प्रमुख निमित हैं । आत्मशान्ति के गवेषक को इनसे बचते रहना चाहिये। आतं परं च जाणेजा सबभावेण सम्बधा। आयटुं च परटुं च पियं जाणे तहेव य ॥ १२ ॥ अर्थ:-साधक 'स्व' और 'पर' का सर्वभाव से सर्वथा परिज्ञान करे, साथ ही आत्मार्थ और पदार्थ को भी जाने । गुजराती भाषान्तर:-- સાધકે “સ્વ” અને “પરનું સર્વભાવે (સારી રીત) જ્ઞાન કરી લેવું જોઈએ અને સાથે સાથે આત્માર્થ તેમજ પદાર્થનું જ્ઞાન પણ કરી ફેવું જોઈએ. कषायों से उपरत होने के लिये साधक ख और पर का भेद विज्ञान प्राप्त करे । जब तक यह भेदविज्ञान नहीं आयेगा तब तक संषों का अन्त नहीं हो सकता । क्योंकि पर में स्त्र की बुद्धि ही संघर्षों की जड़ है। साथ ही स्वहित और परहित का भी विवेक आवश्यक है । केवल खहित को आगे रखकर चलनेवाला दूसरों के हितों को कुचलता है और इस प्रकार वह परोक्ष रूप से कषाय की ज्वाला भडकाने काही काम करता है। दूसरे के अधिकार छीनकर उनकी संपत्ति दबाकर शान्ति की बात करना शान्ति का उपहास है। सप गेहे पलित्तम्मि किंधावसि परातक?। सयं गेहं णिरित्ताणं ततो गच्छे परातकं ॥ २३ ।। अर्थ:-जब अपना घर जल रहा है फिर दूसरे के घर की ओर क्यों हो रहे हो स्वयं के घर का निराकरण करने के बाद दूसरे की ओर जाओ। गुजराती भाषान्तर: જ્યારે પોતાનું જ મકાન સળગવા માંડ્યું છે ત્યારે તમે બીજના ઘેર તરફ કેમ દોડો છો ? પોતાના ઘરનું નિરાકરણ (આગથી સંરક્ષણ કર્યા પછી જ બીના ઘેર તરફ આવો. कषायोत्पत्ति के हेतुओं में एक प्रमुख हेतु परनिन्दा का है। दूसरे के बालोचना बहुत सस्ती होती है, क्योंकि हमारे आंख की काली कीकी दूसरों की कालिमा बहुत जल्दी देख लेती है। मानव की आंखें देखती है उस किन्तु एक क्षण भी मुड़कर अपनी ओर नहीं देखता कि मेरे पैरों के नीचे भी आग जल रही है। भारत के भक्त कवि सूरदास बोलते हैं पगतर जरत न जानत मूरख । पर वर जाय बनाये। मर्चमा इन लोगन को भाये। दूसरे की आग बुझाने के लिये आप दौर पडे है, आपकी इस परोपकारिता का स्वागत है। आपके दिल में दूसरों के उद्धवार के लिये बहुत बड़ी बेचैनी है, किन्तु जरा रुकिये, आपने अपना उद्धार तो कर लिया है न! आपका अपना घर तो कहीं आग की लपटों में नहीं है ? पहले अपने घर का फैसला कर लें फिर दूसरे के घर की ओर कदम बढ़ाएं। टीका:-स्वस्मिन् गृहे प्रदीप्ते किं परं गृह धावसि खमेव गृहं निरिस्य ततो गच्छेत् परं गृहम् । एक इंग्लिस विचारक बोलता है-Don't couplain about the snow on your neighbour's Yoof when your own doorstep is unclearn. जब आपके अपने द्वार की सीदियो मैली हैं तो अपने पड़ोसी के छत पर पड़ी हुई गंदगी का इलाहना मत दीजिये। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि भासिय आतडे जागरो होही परद्वाहिधारण । आतट्ठो हाच तस्स जो परट्ठाहिधारय ॥ १४ ॥ अर्थ :- आत्मार्थं लिये जागृत बनो, परार्थ को धारण न करो जो दूसरे के अर्थ ( कार्य ) को अपनाता है वह अपना अर्थ ( कार्य ) खो बैठता है । ર गुजराती भाषान्तर:-- આત્માર્થ પોતાના ( કલ્યાણ માટે હમેશા જાગ્રત રહો, બીજાની ફીકરમાં પડીને તમે પોતે નબળા મનો નહીં, જો તમે બીજાની ચિંતામ્ કાકર )માંજ હૂ રહેશો તો પરણામે તમારૂં હિત હું ક←ાણુ ) તમે ખોઈ બેસશો. साधक तुम अपने कल्याण के लिये जागृत बनो। दूसरों की चिन्ताओं से दुबले न बनो। यदि दूसरों की चिन्ताओं में बे रहोगे तो अपना हित खो बैठोगे । प्रस्तुत गाथा साधक को स्वहित के लिये जागृति का संदेश दे रही किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि साधक स्वार्थी बनकर अपने आप में विश्व के हित को भूल जाए। यदि वह केवल अपने हित को ही आगे करके चलता है तो वह अपने उत्तरदायित्व से अलग हटता है । किन्तु प्रस्तुत गाथा का हार्द कुछ दूसरी कहानी कह रहा है। यहां उन साधकों के लिये करारा व्यंग है जो दूसरों के उद्धार के लिये चल पडे हैं, पर जिनका अपना कोई ठिकाना नहीं है। दूसरों के उद्धार की फिक्र में आज का सावक साधना का तत्व खो बैठा है। उसकी शक्ति का मोह पर के सुधार की ओर है, आज का श्रमण वर्ग चला है गृहस्थों को सुधारने और श्रावक समुदाय चला है साधुओं को सुधारने, पर इस पर सुधार की उयेक चुन में घर उजश जा रहा है। दूसरे के कल्याण की चिन्ता में वह अपना खो बैठा है। यह जैनदर्शन का मूल बर रहा है कि हर आत्मा अपने पतन और विकास के लिये स्वयं उत्तरदायी है । अनंत तीर्थं को मिलकर भी अन्य आत्मा के एक कर्मप्रदेश को कम नहीं कर सकते । निश्चय की यह भाषा अपने आपमें बहुत बड़ा सत्य रखती है। व्यवहार की दृष्टि में दूसरे के विकास में आप निमित्त भले बन सकें, किन्तु उसके लिये भी पहले अपने आपको विशुद्ध बनावें फिर दूसरे की आत्मा का फैसला करने वलें । टीका :- भारमा जागृहि मा भूः परार्थाभिधारकः तादृश्यात्मार्थी हीयते । गतार्थः । जह परो डिसेवेज पावियं पडि सेवणं । तुज्झ मोणं करेंतस्स के अट्ठे परिहायति ? ॥ १५ ॥ अर्थ :- यदि दूसरा कोई पाप की प्रतिसेवना कर रहा है तो तुझे मौन करने में क्या हानि होती है ? । गुजराती भाषान्तरः - એ કોઈ બીજો માળુણ્ય પાપનું આચરણ કે પ્રતિસેવના કરતો હોય તો તને ચુપચાપ રહેવામાં શું વાંધો છે? / अतर्षि आलोचकों को बहुत बड़ी फटकार बता रहे हैं। माना दूसरा व्यक्ति गलत कदम उठा रहा है वह पाप या अनाचार की ओर बढ़ रहा है और आपकी आंखों ने देख भी लिया है। फिर भी आप मौन रह जाइये। क्योंकि सारी दुनिया को सुधारने का ठेका आपने नहीं लिया है। फिर उसके पुण्य पाप की जिम्मेदारी आप पर नहीं है। जैनदर्शन बोलता है प्रत्येक आत्मा स्वकृत कर्म को ही भोगता है परकत नहीं । फिर आप दूसरे के जीवन की आलोचना करके कौनसा पुण्य कर्म कर रहे हैं ? । यदि दूसरे की आलोचना पुण्य कर्म होता तो आगम पिट्टीमंसं न खाएञ्जा का पाठ न होता नहीं तो स्पष्ट शब्दों में पर निन्दा का निषेध किया गया है। इतना ही नहीं पर निन्दा को नीचे गोत्र का बन्ध हेतु बताया है। परात्मनि प्रशंसे सदसद्गुणाच्छादने नोद्भावते च नीचे गात्रस्य । तत्वार्थ अ० ६ सू० २४. दूसरों की निन्दा और आत्म-प्रशंसा, दूसरों के सद्गुणों को ढकना और तुर्गुणों को प्रकट करना नीच गोत्र का बन्धहेतु है । आज मानव दूसरों को खुला करता है अपने दोषों पर पर्दा डालता | आगम कहता है अपने दोषों की आलोचना करो और गुणों पर पर्दा डालो, किन्तु आज उल्टी गंगा बह रही है; वह दान का शिलालेख लगाता है और दोषों पर शिला चड़ता। उसके शिलालेख भी अधिकांशतः अपने पापों को शिला के नीचे दबाने के लिये ही होते हैं । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतीसवां अध्ययन २२३ यों तो दूसरों के पाप पुण्य की जिम्मेदारी हम पर नहीं है तो उसकी आलोचना करने का अधिकार भी नहीं है। विचारक टेल कारनेगी कहते है - Criticisur is futile because it puls u mun on the defensive and usually makes him strive to justify himself critcism is dungerous because it wound a man's precious pride hurts his sense of importance and are uses his sentiment. - डेल कारनेगी. ___ आलोचना व्यर्थ होती है क्योंकि इससे दोषी प्रायः अपने को निर्देष सिद्ध करने का प्रयत्न करता है। आलोचना भयावह भी है। क्योंकि वह मनुष्य के बहुमूल्य गर्व पर ध्यान करती है । जसकी महत्ता के भाव को पीड़ा पहुंचाती है और उसके क्रोध को भड़काती है। __अतः विवेकशील साधन आलोचना से बचें; आलोचना वृक्ष की शाखा से फूल और किड़े दोनों को पृथक् कर देती है। कभी कभी आलोचना के द्वारा हम अपने मित्र को भी शत्रु के शिविर में भेज देते हैं। भातहो णिजरायंतो परटो कम्मबंधणं । अत्ता समाहिकरणं अपणो य परस्स य ॥ १६॥ अर्थ :-आस्मार्थ ( स्व की ओर दृष्टि) निर्जरा का हेतु है और परार्थ ( दूसरे की ओर दृष्टि ) कर्मबन्धन का हेतु है आत्मा ही ख और पर के लिये समाधि का करनेवाला है। गुजराती भाषान्तरः આત્માર્થ એટલે સ્વાર્થનો વિચાર નિર્જરાનું કારણ બને છે, અને પાચ એટલે બીજાને માટે વિચાર કર્મબંધનનું કારણ બને છે. આત્મા જ “સ્વ” અને પર' માટે સમાધિ કરનાર છે. ख की आलोचना विकाश का लेत है तो पर की आलोचना आत्मा को विनाश के पथ पर ले जाती है। विश्व की प्रत्येक वस्तु गुण और दोषों से रहित नहीं हैं । जैसी किरकाप चलेंगे, वैसी तत्प सा दोष ष्टि लेकर चले तो सर्वत्र दोष दिखाई देंगे । गुलाब की डाल पर तीखे-शूल भी है तो महकते फूल भी । कांटे की दृष्टि लेकर चलेंगे तो काटों में उलझ जाएंगे पर फूल की मधुर सुवास नहीं पा सकेंतो। हमारी दोषदृष्टी दूसरों के दोष हमारे पास लाती है। स्वामी रामतीर्थ ने एक बार कहा था जब तक तुममें दूसरों के दोष देखने की दृष्टि मौजूद है तब तक तुम्हारे लिये ईश्वर का साक्षात्कार करना कठिन है । एक इंग्लिश विचारक भी यही कहता है The fower faults we possess ourselves the less interest we have in pointinj out the fulls of other people. अपने मन के दोष कम होने पर ही हमारे छिद्रान्वेषण की प्रवृति कम हो सकती है। अर्थात् हम दूसरों पर दोषारोपण तभी करते है जब स्वयं हमारी ही मनोवृत्ति दृषित होती है। इसीलिये अर्हतर्षि पर की आलोचना से परे हटने की प्रेरणा दे रहे हैं। हम अपनी आलोचना करके आत्मिक शान्ति पा सकते हैं और पर की आलोचना कर्म बन्ध करते हैं । क्योंकि आत्मा स्व और पर के बीच समाधिकारक है। अपणातपम्मि अट्टालकम्मि कि जग्गिएण चीरस्स। णियगम्मि जन्गियब्वं इमो हु बहुचोरतो गामो ॥ १७ ॥ अर्थ:-अज्ञात अइटालिका में वीर के जागने से क्या होगा। स्वयं को जागना होगा। क्योंकि यह प्राम चोरों का है। गुजराती भाषान्तर: અજાણ્યા કિલ્લામાં સેનિક જાગતો રહે તે શું થાય? પોતાને જ ઉજાગર થશે. કેમ કે આ ગામ તે ચોરીનો જ છે. Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ इसि-भासिया अज्ञात कोट में घिर जाने पर हमें स्वयं को जागृत रहना चाहिये। एक वीर जग रहा है उसके विश्वास पर सब छोड़ा नहीं जा सकता। हमें स्वयं को जगना चाहिये, क्योंकि यह तो चोरों की नगरी है । जैनदर्शन का स्वर है हजार युग की सुषुप्ति की अपेक्षा जागृति का एक पल श्रेष्ठ है। किन्तु वह जागृति की आत्मा जागृति हो । भगवान् महावीर की आत्मा जागृत है, किन्तु उनकी जागृति हमारे घर को नहीं बचा सकती। जम तक आत्मा की जाति नहीं होती सम्यग्दर्शन की ज्योति प्राप्त नहीं करता तब तक कथाय और वासना के तस्करों से दुनिया की कोई ताकत हमें बचा नहीं सकती। जग्गाहि मा सुधाहि माते धम्मचरणे पमत्तस्स । का हिंति यहुं चोरा संजमजोगे हिडाकम्मं ॥ १८ ॥ अर्थ :--जामत बनो, या, धर्माभन पत्त होने का गरे नंगम योग में बहुत से चोर लूट न करें। गुजराती भाषान्तर: જાગૃત રહો, બેદરકાર રહો નહીં, ધર્મના આચરણમાં બેદરકાર રહેવાથી સંયમ યોગમાં ઘણા ખરા શેરો (પાંચ ઈદ્રિયો) લૂંટફાટ કરી શકે નહી એની કાળજી રાખો. साधक (धार्मिक अनुष्ठानों में प्रमाद न करो) आत्मिक जागृति के क्षेत्र में प्रमाद के चोर को प्रवेश न पाने दो क्योंकि आत्मिक साधना के लिये प्रमाद बहुत बम लुटेरा है। एक विचारक ने कहा है 'आलस्य जीवित मनुष्य की कम है। प्रमाद जीवन का जंग है। जंग लोहे को साजाता है ऐसा ही प्रमाद जीवन को नष्ट करता है'। एक विचारक ने कहा है Idleness is only thi: refuge of weak minds and holiduy of fools. आलस्य दुर्बल मनवालों का एक मात्र शरण हैं, और गूों का अवकाश दिवस है। -चेस्टर फील्ड टीका:-जागृहि मा स्वपिहि मा धर्माचरणे प्रमासस्य तव चोरा पंचेम्ब्यिादयः कषायान्ताः संयमयोगयोदुंगतिगमने वा यह कर्म कार्पः । हीत्ति कर्मविशेषणं स्वज्ञातार्थम् । अर्थात् - जागो, सोओ नहीं; धर्म कार्यों में प्रमत्त होने पर तुम्हारी पंचेन्निया और कवाय तक के चोर संयम और योग का अपहरण करते हैं और दुर्गति गमन के लिये बहुत कर्म करोगे । हीड यह कर्म का विशेषण है, उसका अर्थ अज्ञात है। पंचेंदियाइ सण्णा दंडे सल्लाइ गारवा तिषिण । बाबीसं च परीसहा चोरा घत्तारि य कसाया ॥ १९ ॥ अर्थ:-यांच इन्द्रियाँ, संज्ञा, दंड, शल्य, तीनों गर्व, बावीस परीषह और चारों कषाय समी चोर हैं। गुजराती भाषान्तर: पांय दियो, (मार विगैरे) पांय संज्ञाओ, ( मन विगैरे) , शल्य (भाया, निदान भिध्यादर्शन) (ઋદ્ધિ, રસ અને સુખનો ગર્વ તેમજ બાવીસ પરીષહ અને ક્રોધાદિ ચાર કષાય આ બધા ચોર છે. पूर्वगाथा में साधक को आत्मनिधि के अपहर्ताओं से सावधान रहने की प्रेरणा दी गई थी। प्रस्तुत गाथा में उन्हीं आत्मतस्करों का उल्लेख किया गया है । पाँचों इन्ट्रिया आहारादि बार संज्ञाएं, मनादि तीन दंड, माया, निदान और मियादर्शन के शल्य, बुद्धि रस और सुख के गर्य, बाईस परिषह और क्रोधादि चार कषाय ये हैं आत्मनिधि के प्रमुख तस्कर । जरा सी असावधानी चोरों को रास्ता दे देती है। विभाग दशा ही आत्मा को पतन की ओर ले जानेवाली प्रमुख वृत्ति है, उसी के द्वारा आत्मा स्वभाव को छोड़कर पुतलों में आसक होता है । इंद्रियादि का निरूपण क्रमबद्ध रूप से श्रमण सूत्र में आता है। जहां पर कि एक से तेहतीस तक की संख्या के पद दिये गये हैं। उत्तराध्ययन सूत्र के चरण विधि नामक इकतीसवें कमबद्ध आता है। १ माहुते. २हिंकाकम्म. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंतीरूपान २२५ दाणं गारवाणं व मल्लाणं च तियं तियं । जे भिक्खू चयई निच्चं से न मच्छइ मंडले । बिहगाकसायसन्माण झाणाणं च दुयं तहा। जे भिक्खू बजई निच्च से न अरछद मंडले ॥ उत्तर अ० ३१ गा०४-५. संशा :-जन की मूल अमिप्याएं संज्ञा कहलाती हैं जो अयाधिक रूप में समा संझारी आत्माओं में व्याप्त हैं। ने आहार, भय, मैथुन और परिग्रह की नियां संज्ञा है। गौरव:- याहिरी संगधाएं जिनको पाकर जन सामान्य गर्व की अनुभूति करना और दूगरों को हीन मगता है। जागरह णरा णिच्चं मा भेधम्मचरण पमत्ताणं । काहिंति बहाचोरा दोग्गतिगमणे हिडाकम्मं ॥ २० ॥ अर्थ:-गानयो । सदैव जान रहो । धर्माचरण में प्रमत्त न वनो : तुम्हारे ये बहुत से चोर दुर्गति गमन के लिये निकट कर्म करते है। गुजराती भाषान्तर: માનવો ! હરહમેશા સાવધાન રહો. ધર્માચરણમાં ઉદામ ( પ્રવૃત્તિ) રાખો. તમારા આ ઘણા ખરા ચોર દુર્ગતિનગમનને માટે હીન કૃત્યો કરે છે, साधक को सजग रहने को पिर प्रेरणा दी गई है। चतुर चोर कोने में दुबक जाते है और रात्रि के निस्तथ क्षणों में जब कि नालिक गहरी नींद में होता है तब वे बाहर आते है और संपत्ति का अपहरण करने हैं । ठीक इसी प्रकार वासना के चोर जागति में आते नहमने हैं। सामाजिक गय या वजा परिजनों का भय उन्हें बाहर आने से रोकता है और दृप्तीलिये चे अवचेतन मन की अंधेरी गुफा में जा छिपते हैं, किन्तु रात्रि के प्रशान्त क्षणों में जब कि व्यक्ति निद्रा की गोद में होता है। समाज का भय रहता है न खजन परिजनों के सामने खुले जाने का ही उस समय अप्न के रूप में वाराना के चोर प्रवेश करते है। स्वान क्या है ? मन के छुपे चोरों की कीड़ा ही हो । हमारे खप हमें अपने आपको परखने का मौका देते है। यदि जन में बासना के चित्र आने हैं तो समझना होगा मन के भीतर काम का चौर बैठा है। यदि स्वर में भोजन का दृश्य आता सताना होगा मन अभी मिठाईयों से अनुप्त है। ये दृश्य राद करते है कि याराना के गोरी को दबाया गया निकाला-नहीं गया । जैसे कश्य आर्डर के समय सुना के चौराहे पर आसे ही उपद्रवी तत्व गली पूत्यों में दुबक जाते है और उसके हरते ही पुनः सुलकर खेलने लगते हैं। ऐसे ही संयम के जीवन के चौराहे पर आते ही वासना और विकृतियों के चोर मन की अंधेरी गुहाओं में दुबक जाते हैं और मौका पाते ही पुनः मंच पर आ जाते हैं। अतः भाधक राजग रह । जागृति की भांति निद्रा में भी उसका विकारों पर अनुशासन रहे। स्वान उसके जीवन का सही चित्र देते हैं कि विकारों के साथ संघर्ष में उसे विजय ने कहां तक साथ दिया है। वह अप्रमत्त रहकर साधना करे। अनुचित ढंग से दान न करे । अन्यथा वे मन में घुटती हुई अतृप्त कामनाएं साधक को दोनों ओर से ले बैटगी । अगमवाणी है कामे व पत्थमाणा मकामा जति दोरगई। उत्तरा० अ०९ बाहर से निष्काम बना साधा अन्तर से काम की अभ्यर्थना करता है तो वे अतृप्त इच्छाएं उसे दुर्गति का पथिक बना देंगी। अण्णायकम्मि अट्टालकमि जग्गंत सोयणिजोसि । णाहिसि वणितो संतो ओसहमलं अविदे तो ॥२१॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ į २२६ इसि भासियाई अर्थ :---इस अज्ञान भट्टालिका में तू जागता हुआ शोचनीय है। जैसे कोई निर्धन व्यक्ति घाव हो जाने पर भी औषध के मूल्य को न जानता हुआ औषध खरीदने में असमर्थ रहता है, उसी प्रकार तुम भी समझो कि भाव जागृति अभाव में तुम तत्व को पा न सकोगे। गुजराती भाषान्तर :-- આ આ અતયા કિલ્લામાં તૂ જાગે છે (ખરો, પણ તે તારે કૃત્ય દિગિરીભર્યુ છે. જેમ એક ગરીબ માણસને વાગ્યું હોય કે તેને થા પડ્યો હોય તો પણ તેની દવાની કીમત માલુમ ન હોવાથી દવા ખરીદવામાં અસમર્થ અને છે તેમજ બાવ નગૃતિનો અભાવ હોય તો તૂ તત્ત્વને મેળવી શકીશ નહીં, प्रस्तुत गाथा में अर्हर्षि भाव जागृति के लिये प्रेरणा दे रहे हैं, केवल आंखें खुल रहना ही जागृति नहीं है। भाव जागृति का मतलब है वस्तु के स्वरूप का ज्ञान जब तक वस्तु तव को नहीं पहचाना तब तक देख लेना कोई महत्त्व नहीं रखता। वनस्पति को देख लेने मात्र से वह औषध के रूप में काम नहीं दे सकती गुण न जाना जाय तब तक नाग दमनी (विषनाशक बेल ) भी केवल जब मात्र है । अतर्षि सोदाहरण इस तथ्य को पुष्ट कर रहे हैं। एक पीड़ित व्यक्ति जिसके शरीर में चारों ओर घाव हो रहे हैं, वह औषधिविक्रेता के पास भी पहुंचता है, किन्तु औषधि का मूल्य वह जानता नहीं है और वह पहले ही घबरा जाता है मुझे निर्धन के पास इतने पैसे कहा कि मैं इसे खरीद सकूं ? यह औषधियों के नादार के निकट बहकर भी खास्थ्य लाभ प्राप्त नहीं कर सकता। अतः साधक वस्तु तस्व को समते वही भाव जागृति है और अज्ञात अट्टालिका में दही रक्षण दे सकती है। ठीका : अज्ञाताहालिके आम्रच्छतोचनीयोऽसि नहिसिसि यथा कश्चिदनहीनो मतिः समीपथ मूल्यमचिन्छन् दातुं न शक्यः । गतार्थः । जागरह णरा णिच्वं जागरमाणस्स जागरति सुतं । जे सुचति न से सुहिले जामरमाणे सुही होति ॥ २२ ॥ अर्थ :- मनुष्यों | सदा जाग्रत रहो । जागृत रहनेवाले के लिये सूत्र भी जागृत रहता है, जो सोता हैं उसके लिये सुख नहीं है। जागृत रहनेवाले पास ही मुख है I गुजराती भाषान्तर:— માનવો 1 હમેશા સાવધાન રહો. જાગૃત રહેનારને માટે સૂત્ર પણ જાગૃત રહે છે. જે માણસ સુએ છે તેને સુખ મળશે નહી, જે જાગૃત રહે છે. તેને પાસે સુખ હંમેશા રહે છે. साधक को जाति का संदेश देते हुए अतर्षि ने एक महत्व पूर्ण बात कही है कि सूत्र भी उसी के लिये जानत है जिसकी आत्मा जागृत है। आचार्य संपदागणि व्यवहारमाप्य में 'सूत्र' शब्द की व्याख्या करते हुए एक स्थान पर लिखते हैं सुख का एक रूप सुप्तं भी बनता है । अर्थात् सूत्र तो सुप्त रहता है उसे जगाने की आवश्यकता है। सूत्र को वही जगा सकता है जिसकी आत्मा खयं जागृत हो । दूसरी ओर जागृत बारमा को ही सूत्र प्रकाश दे सकता है। किन्तु जिसकी आमा सुप्त है उसके लिये सम्य शाख भी प्रकाश नहीं दे सकते खप्रकाश के अभाव में पर प्रकाश का कोई महत्व भी नहीं है। अंधे के हाथ में रही हजार पावर की बैटरी भी कोई उपयोगी नहीं है, वह उसे कांटों और कंकरों से बचा नहीं सकती क्योंकि उसके पास स्वतः प्रकाश नहीं है। ठीक इसी प्रकार प्रकाशहीन दृष्टि लेकर आप आम के पास पहुंचेंगे तो वहां भी प्रकाश प्राप्त न होगा। साथही यदि दृष्टि प्रकाशमती है तो आगम ही नहीं । आगमोत्तर साहित्य भी आपको सम्यग्ज्ञान प्रकाश देगा, क्योंकि प्रकाश के अभाव में सम्यक् श्रुत भी मिथ्याभुत है म महावीर के विचार सूत्रों में यह तय दिन के उजाले की मोतिर है। सम्मविद्विरस सम्म सुबाई मिच्छादिस्सि मिच्छा सुयाई - नंदीसूत्र सम्यक दृष्टि संपश्न के लिये सम्यक है और मिध्यादृष्टि के लिये यही त मिया भी है। रसश हृदयवाले व्यक्ति के लिये ही मुला एक महकता पुष्प है तो जब कि गुबरेले के लिये गुलाब सभी गन्ध देनेवाला पदार्थ मात्र है। अतः अत कह रहे हैं खुली दृष्टि लेकर चलें तो सर्वत्र प्रकाश मिलेगा । 1 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतीसवां अध्ययन २२७ तह सुनिल मही नगरि निद्रा विश्राम के लिये आवश्यक है, क्योंकि विश्रान्तिकाल में नायुतंत्र नये काम करने के लिये शक्तिसंचय करता है, किन्तु टुसरी दृष्टि से निद्रा अल्पकालीन मृत्यु भी है। वह कोई सच्चा सुख क्योंकि उसमें अज्ञान है। वधार्थसून जागृति में है, इसीलिये तो छ: या आठ घंटे निद्रा लेकर हम फिर से जागृति में आ जाते हैं। टीका :-- हे नराः! जाग्रत नित्यं । जाग्रतो हि सुझं स्वप्नमेव जागर्ति । धर्मे जानतोऽप्रमत्तस्यालस्यं न विद्यते खनकरूपमित्यर्थः । यः स्वपिति न स सुखी, जानतु सुखी भवति ।। अर्थात् - हे माननो : सदैव जागृत रहो। भाव जागृति के अभाव में जागते हुए भी सुप्त है। धर्म में जागृति है वही यथार्थ जागृति है। जो यथार्थतः जागृत होता है वह धर्माचरण में अप्रमत्त होता है। आलस्य उसके पास फटकना भी नहीं है। जो सोता है वह सुखी भी नहीं है, जो जागृत है वही सुखी है। जागरंतं मुणिं वीर दोला वजेति दूरओ । जलं जातवेयं या चबुसा दाहभीरुणो ॥२३॥ अर्थ:-जामृत चीर मुनि को दोष उसी प्रकार दूर से छोड़ देते हैं जैसे कि जलने से डरनेवाले जाज्वल्यमान अग्नि को आंखों से देखते ही दूर हट जाते हैं। गुजराती भाषान्तर: જાગૃત સાવધાન) રહેનાર મુનિને દોષ તેજ પ્રમાણે છોડી જાય છે જેમ કે અગ્રીને ભડકો જોઈને અગ્નિદાહની દહેશત જેને હોય તેવો (બીકણ) માણસ તરતજ નાસી જાય છે. अहंतर्षि जागृत्ति का फल बता रहे हैं। जागृत आत्मा के निकट दोष कमी नहीं आते, वे उनसे उतने ही डरते हैं, जितना कि एक दाहमीस ज्वलंत अमि से। जिसकी आत्मा में तेज है दोष उसके निकट आने का साहस नहीं कर सकता। क्योंकि वह जानता है उनके निकट पहुंचा कितप की आग में भस्मदेह हो जाऊंगा। विचार की दीपशिखा सदैव प्रज्वलित रहे तो बासना और मिया विश्वासों के जुगनू उनके निकट नहीं पहुंच सकते। प्रोफेसर शुकिंग प्रस्तुत अध्याय पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं। स्थानांगसूत्र के चौथे स्थानपर जीवन की भूलों के संबंध में जो चार उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं उनमें समर शब्द जिस समस्या को खडी करता है प्रस्तुत अध्यवन भी हमें उसी तरफ ले जाता है। धार्मिक नियमों के अनुसार जीवन में परिवर्तन हो सके तो इन मूलभूत दूषणों को रोका जा सकता है। इस विषय का स्पष्टीकरण प्रस्तुत विषय को पुष्ट करता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपना घर साफ रखना चाहिये। जिससे कि बाहर की असर उसकी नैतिक निधि का अपहरण न कर सके। अट्ठारही और बीसीं गाया में “ हिडा" कम्म शब्द आया है, उसके लिये शुर्बिम् लिखते हैं हित्यम की भांति ८ कर्म और अधस्तात् क्रर्म का अर्थ नीच कम होना चाहिये। २१ वी गाथा में णाहिसि शब्द आया है वह नज्जसि का ही एक टुकड़ा लगता है। पउमवर्य (जेकोधी की भविस्सतकहा ६१) के ज्ञायते के अर्थ में प्रस्तुत कर्मणि वाच्य आया है। भविष्य के क्रमणि प्रयोग अथवा सामान्य भविष्य के विकल्प के रूप में भी ऐसा पाठ आता है। जाहिसि आरे को परम सूयगड़े" १२, १, ८ में भी पाहिति शम आता है। जेकोबी ने शिलाकाचार्य के अनुसरण कर इस पद की जरा भिन्न रूप में व्याख्या की है। इसिभासियाई जर्मन प्रति पृ. ५६९ एवं से सिद्धे बुद्धे (गतार्थः) ।। इस अद्दालक अर्हतर्षिभाषित पंचत्रिंशत्तम अध्ययनं समाप्तम् - - - Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तारायण अर्हता प्रोत छत्तीसवां अध्ययन है पूर्व अध्ययन में कषाय का रूप बताकर भाव-जागृति का संदेश दिया गया था प्रस्तुत अध्ययन में कषाय विजय की प्रेरणा है। जब तक मोह तब तक फोन आता रहेगा, फिर भी उस पर विजय पाने के प्रयत्न आवश्यक हैं। को आया और लड़ लिये और मिल गये यह मानव का चित्र हैं, किन्तु क्रोध आया और लड़े और क्रोध शान्त होने के बाद एक दूसरे को मिटाने में जुट गये गढ़ किये का है। लड़ाई शत्रुओं की अपेक्षा मित्रों में ज्यादा होती है। मित्रों में आये दिन उसई होती है जबकि शत्रु एक बार लड़ते हैं। शत्रु लड़कर जिन्दगी भर के अलग हो जाते हैं जब कि मित्र लड़कर भी एक हैं। में भी एक बाग है और जितनी जल्दी हो सके उस आग को बुझा देना ही ठीक है, क्योंकि वह शुद्ध ग नहीं, ज्वर की विकृत गर्मी है। शरीर में गर्मी तो आवश्यक है किन्तु एक सौ सात डिग्री की गर्मी मृत्यु का वारंट है। इसी प्रकार आत्मा में शुद्ध तेज तो आवश्यक है किन्तु कोष की गर्मी नमी है और वह नरक की माँ है। लवार को देखकर नीर की याद आ जाती है। राजू को देखकर व्यापारी की याद आ जाती है। इसी प्रकार म की को देखकर विचारकों को नरक की जनता की याद आ जाती है उस नरक की आग से भी क्रोध की आग अधिक भयावह है जो जीवन भर क्रोध की आग में झुला है, जहां पहुंचा वहाँ सर्वत्र जिसने लाग लगाने का कार्य किया है उस आग में परिवार समाज और राष्ट्र भी झुलसा है क्या उसके नसीब में स्वर्ग के फूल हैं ? नहीं, आग लगानेबाले के भाग्य में भाग है। नरक की आग उसका मूर्त रूप हैं 1 अतः साधक अपने कोष पर विजय पाये इस रूप में वह अपने गीतरी तेज को बश कर सकता है और उसके द्वारा महान सफलता पा सकता है। विज्ञान की सफलता आज तेज तत्व पर निर्भर है। बिजली को काबू में करके अनंत गगन में रॉकेट और उपग्रह छोड़ने में सफल हो सका है। चह इसी प्रकार साधक अपने भीतरी तेज को काबू में रखकर आध्यात्मिक उपग्रह छोड़ सकता है। भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने एक बार कहा था A heat conserved is trashanted into energy 80 anger controlled can be transunted into a power which en move the world. जैसे ताप सरचित रहकर शक्ति में परिवर्तित दिया जा सकता है जो विश्व को हिला दे। अईत उसी को पर विजय पाने की प्रेरणा दे रहे हैं उप्पतंता उप्पतता उप्पयंत पितेण वोच्छामि । किं संतं बोच्छामि ? ण संतं वामि कुकसया, वित्तेण तारायमेण अरहता इसिया बुतं ॥ + अर्थ :उम्र रूप में उत्पन्न होने से कोष से उबलते हुए व्यक्ति को प्रिय वचनों से योगा क्या शान्त मचन सेकुरित होकर (फोध में जल भुन कर ) कुल्लित वचन कहूंगा इस प्रकार आध्यात्मिक लक्ष्मी से युक्त तारायण अवधि पो गुजराती भाषांतरः ઉગ્ર સ્વરૂપમાં પેદા થએલ ગુસ્સાથી ગરમ થયેલા માણસામે મીઠી વાતો કરું, કે શાન્તુ વચનોથી સમઝાનું કે ગુસ્સાના જુસ્સામાં છૂટ્ટી વાતો કરું ? આ પ્રકારે આધ્યાત્મિક-લક્ષ્મીસંપન્ન તારાયણ તર્ષિ બોલ્યા. शब्द की टक्कर लगते ही को उबल उठता है । क्रोध के क्षणों में मनुष्य सोचता है जिसके प्रति को आ रहा है। उसको अधिक से अधिक पीड़ा पहुंचाई जाय और इसीलिये वह मर्मवेधी शब्दों का प्रयोग करता है किन्तु सोचना यह कि क्या यह जरूरी है। क्रोधी को देखकर हम भी कीन में उबल जावें। दूसरे को धूलिधूसरित देखकर हम तो अपने ऊपर धूल नहीं दाते। दूसरे को निर्धन देशकर हमें निर्धन बनने का स्वप्न नहीं आता, फिर दूसरे को क्रोधी देखकर हमें क्यों फोन आ जाता है ? इसका मतलब यह हुआ क्रोध हम में भरा है यह तो एक बहाना है " कि उसे कोषित देखकर मुझे गुस्सा आ गया । " १ एस मारे एस न रथे ।-भाचारांगसूत्र, Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवां अध्ययन आवश्यकता यह है हम अपनी शान्ति उसके भीतर जगा दें। यदि दीपक अपने सामने 'कले अनंत अंधकार को देखकर स्वयं भी अंधकार रूप हो जाय फिर डरा दीपक की कीमत क्या है? उसका मूल्य वहीं है वह अंधकार में भी अपनी ज्योति को कायम रखता है । दूसरे को गुस्से में देखकर हमने अपनी शान्ति छोड़ दी तब फिर हमारी शान्ति का कोई मूल्य नहीं है। यदि हमारे पास शान्ति की सुपा है तो उसका उपयोग हम क्रोध के क्षगों में करें। मधुर एवं शान्त वचनों के द्वारा उसकी कोच की आग को शान्त कर सकें तभी हम उसके नीचे चिकित्सक हो सकेंगे । अन्यथा यदि उसकी अशान्ति हममें प्रवेश कर जाय तो यह जीवन की विडंबना होगी। यदि ज्वरमस्त रोगी को देखकर डॉक्टर को पचर चढ़ जाय तरतो हो चुका । अहंतर्षि इसी लिये प्रेरणा दे रहे हैं कि हम आत्म-निरीक्षण करें की आवेश के क्षणों में लिखे शब्दों के द्वारा उसकी ज्वाला को बढ़ाई है, या मिटे शब्दों के द्वारा आग में पानी का काम किया है। विचारशील तो यही चाहेगा कि गर्म वातावरण में भी मेरा दिल और दिमाग्त शान्त रहे और मैं दूसरों के गर्भ विभाग को ठंडा कर स। टीका:- भृशं उत्पत्तता क्रोधेनेति शेषः । उत्पतंत कंचित् प्रियेण प्रियवचनेम वक्ष्यामि कि शान्त पापमिति सान्त्वनं वक्ष्याम्युत पा संसति अशान्तं न पुरुषमिति शेषो वक्ष्यामि यथाह-"तुष-नुष कल्प"मिःसारजनेति । पुतत्त मुनेन गुज्यत इति भावः। अर्थात् प्रबल उत्पल होते हुए कोध से फुफकारते हुए किसी व्यक्ति को प्रिय से अर्थात् प्रिय व वनों से कहूंगा क्या पाप शान्त है इस प्रकार उसे सांत्वनाभरे शब्द कहंगा अथवा 'न शान्त' अर्थात उस अशान्त पुरुष को यह कहूंगा कि यह सुप समान निःसार है। ऐसा समझो अर्थात् यह मुनि नको योग्य नहीं ऐसा कहूंगा। टीकाकार कुछ भिन्न भिप्राय रखते हैं। प्रोफेरार शुचिंग लिखते है कषाय की थियरी में सैज्वलन क्रोध जो स्थान है वही यहां उत्पन शब्द का है। उग्रता सेोध प्रकट होता है किन्तु मैं उसके साथ प्रेम भरे शबद ही बोलूंगा । किन्तु शान्त पुरुष के लिये क्या कहना? जगार होगा नहीं। प्रत्तस्स मम य अन्नेसि मुक्को कोवो दुहावहो। तम्हा खल उप्पतंतं सहसा को गिगिण्हितब्बं ॥१॥ अर्थ-कोच-पात्र ( व्यक्ति) के इस प्रति छोड़ा गया कोष मेरे और उसके लिये दुःखरूप होता है इसलिये उत्पन्न होते हुए शोध को सहना ( जल्दी दी) रोक देना चाहिए। गुजराती भाषान्तर: ક્રોધ અમુક વ્યક્તિ પ્રત્યે થયો હોય તે તે માણસ માટે અને તેના તરફ ગુસ્સો કરનાર માટે ત્રાસદાયક બને છે, માટે કોધની ઉત્પત્તિના વખતેજ (સમય ગુમાવ્યા વગર) તેને અટકાવવા જોઈએ, कोधी व्यक्ति कोष के द्वारा प्रतिपक्षी को दुःख में डालना चाहता है। इसीलिये तो वह क्रोध का उपयोग करता है और ऐसे विष बुझे बाग जैसे तीखे शब्दों के द्वारा प्रतिपक्षी के हृदय को वींच देना चाहता है और जब वह तिलमिला उठता है तो उसके दिल में प्रसन्नता की लहर दौड़ पड़ती है, अपने प्रतिपक्षी के दुख में उसे आनंद मिलता है। किन्तु यह निरी भूल है कि कोच एक पक्ष को ही दुःखी करता है। वह दोनों को झुलसाता है। जिसके दिल में उसने प्रवेश किया है उसे भी वह चैन से नहीं बैठने देता। उसके मन में भी संकल्य-विकल्पों का जाल छागा रहता है। उसके मन की शान्ति मी लुप्त हो जाती है। पड़ौसी के झोपले में आग लगानेवाला मन में इठलाता है। आग की लपटों में उपका अहंकार हंसता है, किन्तु कभी उन्हीं लपटों में उसकी अपनी झोपड़ी के साथ अहंकार भी भस्म हो जाता है । इसीलिये अहंतर्षि साधक को प्रेरणा दे रहे हैं यह न समझो कि क्रोध की आंच तुम्हारे प्रतिपक्षी को ही हलमा के रह जाएगी यदि उल्टी हवा चली तो उसकी झोपड़ी बच जाएगी और तुम्हारा महत्व राख की देरी हो जायगा। अतः क्रोध को उसके उत्पत्ति केक्षण में ही रोक देना नाहिये, क्योंकि नन्हीं-सी निमारी उपेक्षित होकर ज्वाला का रूप ले सकती है। टीका:-मम चान्येषां च कोपः पात्र प्रति-कन्धित् पुरुष मुको दुःखावहो भवति । तस्मात् खलूरपनन्त सहसा कोएं निगृहन्तु मुनयः! यदि वा उत्पतन कोपो निगृहीलन्यः ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 इसि - भासियाई अर्थात् कोप पात्र किसी पुरुष के प्रति छोड़ा गया क्रोध मेरे और उसके लिये दुःखावह होता है । अतः हे मुनिगण | उत्पन्न होते हुये क्रोध का एकदम निग्रहीत कर लो। अथवा आते हुए कोध का निग्रह करना चाहिये । २३० प्रोफेसर शुचिंग लिखते हैं कि अतर्षि बता रहे हैं को मेरा और उसका दोनों का नाश करता है। यद्यपि इस श्लोक में तीन छडी विभक्तियां आई है, किन्तु यहाँ दीर्घ के स्थान पर एक सालवी और दो तिसरी विभक्तियाँ अपेक्षित हैं। गद्य के मूलपाठ की रचना भी ठीक नहीं है । " निगिणिस्सामि " अथवा निगिण्छामि के लिये कोवं दूसरी विभक्ति में आवश्यक है। कोबो अग्गी मो मच्चू विसं बाधी अरी रयो । जरा हाणी भयं सोगो, मोहं सलं पराजयो ॥ २ ॥ अर्थ :- को अभि है, अंधकार हैं, मृत्यु है, विष है, शत्रू, रज, व्याधि, जरा, हानि, भय, शोक, मोह, शल्य और पराजय है । गुजराती भाषान्तर: शेष व्यक्ति छे, धार ले, मृत्यु छे, कर छे, हुश्मन, २०४, रोग, चार्धस्य, हानि, लय, शो, भोड, शस्य અને પરાજય છે. कोध को चौदह उपमाओं से उपमित किया गया है। कोध में आग की ज्वाला । अंधकार की चिटबना है तो मौत की विभीषिका है। कोध स्वयं एक विष और व्याधि है। आत्मा का वह सब से बडा शत्रु । उसमें जरा की दुर्बलता है तो उसकी बहुत सी हानियां भी हैं। क्रोध में भय और शोक भी है। क्योंकि क्रोध के प्रारम्भ में मूर्खता है । अन्त में पश्चात्ताप है। भय और शोक अज्ञान के ही पुत्र है। कोष रजरूप है। वैज्ञानिकों ने खोज परिणामों में बताया है कि क्रोध के क्षणों में शरीर से तलवार और बछ आदि की आकृतिवाले शस्त्र निकलते हैं साथ ही कर्म रज को लाता है। सूक्ष्म दृष्टि से क्रोध स्वयं कर्म है और आपस में उसे भावकर्म कहा गया है। क्रोध में मोह भी काम करता है | मोह का तो वह पुत्र है। वह शल्य है। क्योंकि शल्य की भांति चुभता है। साथ ही वह जीवन की सबसे पराजय है। क्रोध की खुराक आत्मा का सात्विक बल । जब आदमी का बल समाप्त हो जाता है तो वह अपनी दुर्बलता को कोध के आवरण में दबाना चाहता है। पर यह पारदर्शी है । उरामै पराजय स्पष्ट प्रतिविम्बित होती है । "जरा हाणी" का पाठान्तर "जग हाणि " मिलता है । उसका अर्थ होगा क्रोध ने सारे विश्व को हानि पहुंचाई है । विश्व की आधी से अधिक समस्या कोध ने खड़ी की है। 1 वहिणो णो बलं छितं कोहमिस्स परं बलं । अप्पा गती तु वहिस्स, कोवग्गिस्स रमिता गती ॥ ३ ॥ अर्थ :- अति का मल महान है। पर क्रोधासि का बल उससे भी अधिक है। अभि की गति अल्प हैं पर क्रोध की गति अमर्यादित है । गुजराती भाषान्तर: – અગ્નિનું બવ મોટું છે, પણ તેનાથી ક્રોધના અગ્નિનો ભડકો ઘણોજ ભયંકર છે. અગ્નિની ગતિ સ્વરૂપ ( सीमित) छे, पशु होधनी गति तो अमर्यादित . प्रस्तुत गाथा में अभि से क्रोध की तुलना की गई है। मनुष्य आग से डरता है । उसे स्वप्न में भी कहा जाय आग में हाथ डाल दे तुझे चक्रवर्ती का पद मिलेगा किन्तु उसके लिये वह तैयार नहीं होगा, क्योंकि वह जानता है आग मुझे जला डालेगी। जितना विश्वास आग पर है उतना क्रोध पर नहीं है । अन्यथा मनुष्य अभि से भी अधिक कोध से बचता । अभि को सर्वभक्षी कहा जाता है फिर भी उसका बल सीमित है । पर क्रोध का बल तो उससे भी अधिक है । अभितो निकटवर्ती को ही जलाती है। जबकि क्रोधामि निकट और दूरवर्ती सबको जलाती है। अग्नि की गति सीमित है। जब कि क्रोध की गति असीम है। पानी के निकट पहुंचते ही आग की गति रुक जाएगी किन्तु क्रोध की आग पानी भी नहीं बुझा सकती । 1 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ? छत्तीसवां अध्ययन अतर्षि अगली गाथा के द्वारा प्रस्तुत विषय को सुन्दर ढंग से रख रहे हैं। टीका:- बलेबलं न क्षितं नावमन्तव्यं श्रोधास्तु बलं परं परमं । वह्नेरल्पा गतिः क्रोधानेरमिता । गतार्थ: । सका चण्ही निवारेतुं वारिणा जलितो व हि । हिजणाच कोवम्गी दुण्णिवारओ ॥ ४ ॥ अर्थ :- बाहर की जलती हुई आग पानी से बुझाई जा सकती है पर क्रोध की आग सभी समुद्रों के जल से भी बुझाई नहीं जा सकती । २३१ गुजराती भाषान्तर: અળતા અગ્નિનો ભડકો પાણીથી શમી (દરી) શકે છે. ગુ ક્રોધની જ્વાલા અધ્રાં સમુદ્રોના પાણીથી ખુઝવી શકાય નહી. द्रव्य आग पर काबू पाना सरल है। पानी की एक बाल्टी उसे बुझा सकती है, किन्तु वह भाव अभि को जिसमें तन और मन दोनों जल रहे हैं उस आम में सारा परिवार झुलस रहा है, सारे समाज में उसकी चिनगारियां उद रही है। राष्ट्र क्या विश्व तक उस ज्वाला में धधक रहा है। यदि उस कोध की आग पर बाल्टीभर पानी डाल दिया जाय तो क्या परिणाम आयेगा उसका ? आप अधिक भड़क उठेगी। एकं भवं दहे वही दहस्स वि सुहं भवे । इमं परं च कोवग्गी णिस्संकं दहते भवं ॥ ५ ॥ अर्थ :- अभि केवल एक भव को जलाती है और दग्ध व्यक्ति बाद में ठीक हो सकता है पर यह क्रोधाभि तो निःशंक होकर यह लोक और परलोक दोनों को जलाती है । गुजराती भाषान्तर: આંચે ફક્ત એકજ ભવને બાળી શકે છે, અને દગ્ધ (દાઝી ગયેલ ) માણુસ પાછળથી સારો થઈ જાય છે; पशुधा तो भरेर या सोने अने परवड ( ना अव ) ने खाणी ( नाश उरी) नाणे छे. अम्भि और क्रोधाग्नि की तुलना करते हुए अर्हत िनया तथ्य सामने रख रहे हैं। अभि केवल एक ही भव को जलाती है और जलनेवाला भी उपचार के द्वारा स्वस्थ होकर शान्ति का अनुभव करता है, किन्तु क्रोधामि तो न यहां शान्त होती है न वहां । इस जन्म की ज्वाला जन्म जन्म तक साथ जाती है । अर्थ देते हैं । अग्गणा तु इहं दहा संतिमिच्छति माण धा । गिणा तु दाणं दुक्खं संति पुणौ विहि ॥ ६ ॥ :- आग से जलनेवाला मानव शान्ति चाहता है पर कोभाभि से जले हुए पुनः उस दुःख को निमंत्रण गुजराती भाषांतर : અગ્નિથી દાઝેલો મહુસ શાંતિની અપેક્ષા કરે છે, પણ ક્રોધાગ્નિથી દાઝેલો. માણસ ફરી (દ્વેષ કરી ) તેજ દુઃખને નોતરું આપે છે. आग से जला मरहम चाहता है और क्रोध से जला फिर उस ज्वाला के पास पहुंचता है। कितना अबोध है आत्मा । जिस चीज को उसने सौ सौ बार जो देखा उसकी असफलता पाकर पछताया फिर भी विश्वास उसी का करता है । जीवन में सौ सौ बार उसके क्रोध का उपयोग किया है पर कभी क्षमा का भी उपयोग करना नहीं चाहा । उसने क्षमा के गीत गाये हैं। क्षमा श्रमणों के जयनाद से आकाश गुंजाया है। क्षमा पर उसने बड़े बड़े भाषण दिये हैं। बड़े बड़े ग्रन्थ रचे हैं, पर जब कोई समस्या उलझी तो उसने क्षमा को दरवाजे से बाहर धकेल दिया और क्रोध को भीतर बुला लिया बाहर खड़ी क्षमा अपने साथी के व्यवहार पर सिसक रही हैं और को मुस्कुरा रहा है। वह बोल रहा है मुझे लाख छुटकारा, बुराभला कहा, गालियां भी दीं, जीभर कर कोसा, पर अब तो तुम्हारे ऊपर मेरा शासन है । जब तक दिल में शैतानियत भरी है तब तक मन भर कोष का शासन रहेगा । इसीलिये तो मानव ने उसे ऐसा अपने सीने से लगा रखा कि उसे क्रोध छोड़ने की बात कही जाय तो लड़के भिडन को तैयार हो जायगा । आदमी 1 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ इसि-भासियाई मा छोड़ सकता है. बीटी सिगारेट भी छोड़ सकता है और कभी कभी रोटी भी छोड़ देता है पर क्रोध नहीं छोड़ शकता । कोध छोड़ने को कहनेवाला क्रोध का भाजन बन जायगा । वह ऐसे चिढ़ जायगा मानों किसी हिंदूबा मुसलमान से कह दिया हो कि तुम हिन्दू या इस्लाम धर्म छोड़ दो।। सका तमो णिवारेतुं मणिणा जोतिणा वि या। कोयं तमं तु दुज्ञेयो, संसारे सब्बदेहिणं ॥ ७ ॥ ससं बुद्धि मती मेधा, गंभीरं सरलत्तणं । कोहग्गहाभिभूत रस सञ्चं भवति णिप्प॥८॥ अर्थ:-गि और ज्योति के द्वारा अंधकार का निवारण किया जा सकता पर कांध का अंधकार संसार के समन्त देहयारियों के लिये भजेग है। शोध रूप अद से अभिभूा व्यक्ति के सत्व बुद्धि मति नेघा गमीर्य और सरलता रागी निष्प्रभ हो जाते हैं । गुजराती भाषांतर:1 રને અને જ્યોતિ અંધકારનું નિવારણ કરી શકે છે. પણ જો અધિકાર સંસારના બધાં પ્રાણીઓ માટે : 74 (निबा२३ १२वा अशय). કોલરૂપી મહા પરાજય પામેલા માણસની સાવક બુદ્ધિ, મતિ, મંધા, ગાંભીર્ય અને સરલતાપણું નિપ્રભ ( मुं) मनी नय छे. कोध की अग्नि व तुलना के बाद अब कमारा अंधकार से अम उमिन किया जा रहा है। छोटा। झीपक पर के अंधकार को दूर कर सकता है, पर कोर का अंधकार गेला अंधकार है जिसे संसार का कोई दीपक दूर नहीं कर सकता कोच एक राक्षा दे, पन आना हे नथ तुफान मात्र लाता है। आप बुलाते हैं तभी वह आता है, आते ही वह खुराक मागता है। उसका गोलर सदसदी विचक शुद्धि, तत्वग्राहिणी प्रज्ञ', याणी की प्रवरना और दारीर की कार्यक्षमता। वेवारी के सरलता और गंभीरता तो उसके आने ही भाग खड़ी होती है। एसा कहा जाता है कि खटमल सा खून लगते ही हीरे की चनक समार हो जाती है। यही कहानी आत्मा की है। उस पर कोष का दाग लग जाता तो उसकी सारी चमक भमान हो जाती। पर आश्चर्य तो यह है इतना सब कुछ जानकर भी मानव कोर से चिपटा हुवा है, आज घर अगा की नहीं-क्रोध की पाठशाला हो गया है। पुत्र गलती करता है नो पिता उसे क्षमा के बदले कोध की भाषा में समझाना है। छोटा भाई गलती पर हैं तो यहाभाई कोत्र का उपयोग करता है। यह दे कोध का फैलाव । मनुष्य समझता है में क्रोध की भाषा से रोगमझा इंगा पर यह भ्रांति है। कोध की कहारा शिक्षा की मधुरिमा मिलनी है तो शिक्षा की मिठास खा जाती है, और फिर मारी शिक्षा विष मिले दूत की गाति फेंकने काम की रह जाती है। प्रसिद्ध विचारक महात्मा भगानदीन जी ने लिखा है काँध की गई हमने यालकों को क्षमा का पाठ दिश होता और क्षमा का प्रयोग सिम्बाया होता गरे न अवतारों की जरूरत होती न रमूल पैगम्बरों की न महापुरुषों की। गंभीरमेरूसारे वि पुवं होऊण संजमे ।। कोउगमरयो धूते असारत्तमतिच्छति ॥९॥ अर्थ:-- पहले संया सुमेह के समान गंभीर वारशील रहा हो फिर भी क्रोधोत्पत्ति की रज से आवृत होकर निःसार हो जाता है। गुजराती भाषांतर : પ્રધમ સંયમ મેસ્પર્વતની જેમ ગંભીર (અડગ) રહ્યો છે, તો પણ કીધોસ્પત્તિની એક ચિનગારીથી ભસ્મીભૂત થઈ જાય છે. गीत शरीर को मारती है, तो क्रोध संयम की मौत है। मेरा विशाल और मारशील संग्रम को क्रोध की नहीं चिनगारी भस्म कर सकती है। रुई के देर के लिये न चिनगारी पाप है। चंयुकौशिक की जीवन कहानी इराका ज्वलंत उदाहरण हैं। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवां अध्ययन २३३ कोव आग हैं । आग का काम है जलाना । दुर्गुण सद्गुणों की राख है और वह रात्र आई है क्रोध की चिनगारी से । टीका: पूर्व मेरुवद् गंभीरलारेऽपि संयमे भूत्वा स्थित्वा कोपोमरजला धूत भावृतोऽसारत्वमतिच्छेत्यभिगच्छति । गतार्थः । मावि वाडही दिले घरे कुयये । चिट्टे चिट्ठे स रूसते णिन्वितमुपागते ॥ १० ॥ एवं तवोबलत्थे विणिच्चं कोहपरायणे । अचिरेणावि काले तोरित्तत्तमिच्छति ॥ ११ ॥ अर्थ : :- जैसे महाविषवर सर्प अहंकारित में होकर वृक्ष को इस लेना है, और उसमें अंकुर भी नहीं फूटने देता, अथवा किसी महापुरुष को सता है और उन्हें जब रोमांच भी नहीं होता है तब वह कोवित होकर रह जाता है, क्योंकि उसका विष या चला गया और अब वह निर्विष बन गया। उसी प्रकार महान् वल शाली तपस्वी भी नित्य क्रोध करत हैं तो शीघ्र ही उसका तप समाप्त हो जाता है। જેમ ચકર જહરી કૃષ્ણસ" પોતાના ર્પને કારણે ઝાડને પણ દંશ કરે છે, પરિણામે તેને અંકુર પણ પૈદા થઈ શકતા નથી, અને જો કોઈ વીતરાગને દંશ કરે છે. અને તે મહાપુરુષ ઉપર જરા પણ અસર થતી ન હોય તે ગુસ્સાથી ઉશ્કેરે છે અને નિશ્ચેતન અની જાય છે; કેમ કે તેના જહેરની જરા પણુ તે મહાપુરુષપર અસર થઈ નથી ને તે પોતે નિશ્ર્વિત્ર બની જાય છે તે જ પ્રમાણે ખલવાન્ તપસ્વી પુરુષ પણ જો હરહંમેશા ક્રોધ કરે તો થોડાજ સમयमां तेनुं तत्र समाप्त (वास) या लय प्रस्तुत गाथाओं में कोम को महा चित्रघर सर्प उपमित किया गया है। सर्प का दर्प जय किसी वृक्ष को डसता है किन्तु उसका परिणाम उसे शून्य मिलता है तो और भी क्रोधित हो उठता है । किन्तु बादमें उसकी विष की शक्ति भी समाप्त हो जाती है । अब उसे हर कोई राजा सकता है। तपस्वी साधक कुपित होकर दूसरे को भस्म करने के लिये कोष का उपयोग करता है तो उसका तप और तेज दोनों नष्ट हो जाते है। गोशालक ने भगवान महावीर को भस्म करने के लिये तेजोलेश्या का उपयोग किया। परिणाम यह आया गौशालक अपनी वर्षों की साधना से अर्जित तपःशक्ति को खो बैठा। इतना ही नहीं वह उलट चली तेजः शक्ति ने उसी पर आक्रमण कर दिया। भयंकर दाह ज्वर ने उसे अशान्त कर डाला और उसे तेजोहीन होकर लौट जाना । प्रसिद्ध दार्शनिक सौना ने कहा है कोन में पहले जोश होता है शक्ति की अधिकता का अनुभव होता है पर उसका कुमार डटने पर मनुष्य शराबी की भांति कमजोर हो जाता है। न्यूयॉर्क में वैज्ञानिकों ने कोच के परिणामों की जांच के' लिये एक कोधी व्यक्ति का खून चुहे के शरीर में डाला। बाइस मिनिट के बाद वह चूहा मनुष्य को काटने दौदा, ३५ मिनिट पर अपने आपको काटने लगा और एक घंटे में तो सिर पटक पटक कर मर गया। एक दूसरे वैज्ञानिक ने बताया है की पन्द्रह मिनिट के कोष से शरीर की उतनी शक्ति क्षीण हो जानी है जितनी कि नौ घंटे की मेहनत के बाद | क्रोध के प्रारम्भ में मनुष्य अपने में शक्ति से भी दस गुना बल का अनुभव करता है किन्तु उसके बले जाने पर शिथिलता का अनुभव करता है। मानों नशा उत्तर गया हो। इसका अर्थ हुआ कोच के क्षणों आई गरभी ज्वर की गरमी है जो अपने उतार के साथ नस नस को ढीला कर देती है। 1 टीका :- महाविष इवाहि सर्पो हप्तोऽदसां कुरोट्र्योऽकुरायाप्युदयो न दत्तो येन स तथा खरेत् सत्यंस्तिछति विषं व वृथा मुक्तवान् निर्विषत्वमुपागतो भवति । एवं तपोबलस्थोऽपि नित्यं क्रोधपरायणोऽचिरेणापि कालेन तपोरिक ऋच्छति गतार्थः । "F प्रोफेसर शुबिंग लिखते हैं- ( अ ) "दत्तं कुरो -दयो - चिंटु" के स्थान पर शब्दावलि अधिक उपयुक्त हैं। १ देखिये भगवती सूत्रशतक १५. २ सभासियाई जर्मन प्रति पृष्ठ ५७. ३० 'अंकुरायाप्युदयो न दत्तो येन विद्धे JA Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૪ इसि भासियाई गंभीरो वि तवोरासी जीवाणं दुखसंचिओ अक्खेविण दवग्नि वा कोवग्गी न दहले खणा ॥ १२ ॥ अर्थ: गंभीर तपोराशि जिसे कि प्राणी महान क साधना के बाद एकत्रित कर पाता है या उसे उसी क्षण उसी प्रकार भस्म कर डालती है जैसे प्रज्वलित दावानि सूखे लकडों को जला डालती हैं। गुजराती भाषान्तर: મહાન્ પ્રયત્નોથી સાધ્ય કરેલી તપશ્ચાંને શુદ્ર ક્રોધામીથી તેજ હું અને ત્યાં જ નષ્ટ કરે છે કે જેમ જંગલમાં ફેલાયેલો આ જંગલના લાંકડોનું ભસ્મ ટુંક સમયમાંજ કરી નાખે છે. पूर्व गाथा में बताया गया था कि कषाय की ज्वाला तपकी साधना को नष्ट कर डालती हैं । प्रस्तुत गाथा उसी की पुष्टि में आई है। यहां अतर्षि उसके लिये सुन्दर मा रूपक भी दे रहे हैं । जैसे दावानल वन के सूखे वृक्षों को अविलंब भस्म कर देता है । इसी प्रकार को की आग साधककी कष्ट साधना की मिनिटों में भस्म कर डालती है । महान कष्ट और परीषहों के सहने के बाद जो साधना की संपत्ति अर्जित की उसे राख मौल राख बनते देख अर्हन का दिल अकुला उठा और वे कह उठे साधक तेरी संपत्ति को यों न जाने दे एक गरीब धूप और भूख की मार सहकर पहली तारीख को उसे धम के प्रतिफल में तीस काये मिलते हैं वह जब घर आता है पर सड़क पर दौड़ते है। मन वनों में दोड़ता है यह दाना है वह लाना है पर पहुंचा ये पत्नी के हाथों में धमाये और दूसरे कमरे में जान करने के लिये गया है । पत्नी भोजन बनाने के काम में व्यस्त थी, रुपये लिये और पास ही रख दिये। इधर चार वर्ष का नन्हा मुना आया और खेल में उसने नोट उठा और जलने की आने में दिये। मां से देखा यह अपटी उन्हें बाहर निकाले इतने में तो वे राख की ढेर हो गये। वह चिकाई पति बाहर आया नोटों की राख देखी तो उ दिल डबल पड़ा | आवेश में कांपते हाथों उसने बालक को भी पकड़कर चूल्हे में झोंक दिया। वह रोया चिळाया। माँ उसे बाहर निकली तब तक आग कपड़े पकड़ चुकी थी। अघ झुलसा बालक बाहर निकाल व दवाखाने पहुंचा तो पिता जेल की काली कोठारी में। फिर कितनी रोई थी पिता की आत्मा । यदि दीवार को भांखे होती तो वह भी सिसक उठती । ..यह सब क्या हुवा ! किसने किया। बालक के अज्ञान ने नोट की आग की लपटों में झांक दिया। कठिन थम से अर्जित संपत्ति कितनी होती है। प्रस्तुत पढ़ना दोनों तथ्यों को स्पष्ट करती है। टीका :- गंभीरोऽपि तपो - राशिजवानां साधुभिः पुरुषैर्दुः स्वेन कृष्छ्रातः संचितः, कोपाझिस्वापिर्णा आकर्षतां तयः काष्ठानि दहति क्षणाद् वनकाष्ठानीव दावाग्निः । " रास्त्र की तो पिता के कोष ने नन्हें बालक को प्रिय होती है तो काय परिणति कितनी बुरी कोण अयं दहती परं च अर्थ च धम्मं च तद्देव कामं । तिध्वं च वरं पि करेंति कोधा अधरं गतिं वा वि उविंति कोहा ॥ १३ ॥ अर्थ : फोन से आत्मा स्व और पर दोनों को जलाता हैं। अर्थ, धर्म और क्रोध को भी जलाता है। कोध तीव्र पैर भी करता है और कोष से आत्मा अधोगति प्राप्त करता है। गुजराती भाषान्तर: ક્રોધથી આત્મા ‘રવ” અને “પરને બાળે છે. તેમજ અર્થને, ધર્મને અન ગુસ્સાને ખાળે છે. અને પોતે પણ મુળી ાય છે. ક્રોધ ભયંકર વેર ફરે છે અને તેને કારણે આત્માને અધોગતિ પ્રાપ્ત થાય છે. प्रस्तुत गाथा में कोभ के द्वारा संभावित दानियां बताई गई है। कोष से आत्मा और पर दोनों खाता है। एक जलता हुआ कोय खुद को भी जला रहा है और उसके निकट जो भी आता है उसे भी जाता है और वह जहां पहुंचता है या जो भी उसके निकट आता है उसे भी यह जलाता है। फोन की आग में जलता हुआ व्यक्ति सबका शान्ति भन करता है। क्रोधी का दिमाग मानों बारूद का कारखाना है, जरा सी कर लगते ही भवाका होते देर नहीं लगती। में दूसरे को जलाने के लिये चलनेवाला स्वयं भी पहले उस आग उसके बाद ही वह दूसरे को जला सकती है। क्रोधित में व्यक्ति अपने यह तो आम तौर पर देखा जाता है, गुस्से में आकर आदमी कांच की झुलसता है । दिया सलाई पहले स्वयं जलती है, अर्थ धर्म और काम की भी हानिकर बैठता है। ग्लास दे भारता है। उस भले आदमी को कौन I Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवां अध्ययन समझाये कि तैने अपने ही आठाने विगाये हैं साथ ही राष्ट्र की संपत्ति को भी क्षति पहुंचाई है1। क्रोध आँस्त्र मूंद कर चलता है । इसीलिये तो बह ठोकर खाता है और ऐसा गिरता है कि पृथ्वी भी उसे रोक नहीं सकती । क्रोध की आग नरक की आग लेकर ही आती है। इसीलिये अहंतर्षि साधक को बार बार सचेत कर रहे हैं। कोबाविद्धाण याणंति मातरं पितरं गुरुं । अधिक्खिवंति साधू य रायाणो देवयाणि य ॥ १४ ॥ अर्थः-शोधाविष्ट प्राणी माता पिता और गुरु को भी नहींसमझते। वे साधु राजा या देवता का भी अपमान कर सकते हैं। गुजराती भाषान्तर: ક્રોધાધીન માનવ માતા, પિતા અને ગુરુને પણ માનતા નથી; તે સજન, રાજા કે દેવતાને પણ અપમાન કરી શકે છે. मायावी का कोई मित्र नहीं है। अहंकारी के लिये कोई बडा नहीं है। क्रोधी का तो वह खुद ही नहीं है । शोधका शैतान जन मानन के दिमाग में प्रवेश करना है तो उसकी भौखें मुंद जाती हैं और ओंठ खुल पडते है । उस समय वह न माता को देखता है, न पिता को, न गुरू को, वह साधु को भी अपमानित कर सकता है। राजा और देवता का भी तिरस्कार कर सकता है। कोवमूलं णियच्छति घणहाणि बंधणाणि य । पिय-विप्पओगे य वह जम्माई मरणाणि य ॥१५॥ अर्थ:-क्रोध धन हानि और बन्धनों का मूल है। प्रिय वियोग और अनेक जन्म मरणों का मूल भी वही है। गुजराती भाषान्तर: દ્રવ્યનાશ અને બંધનનું મૂળ ધ જ છે. વહાલાનો વિયોગ અને અનેક જન્મ તેમજ મરણનું કારણ પણ और छे. क्रोध सारी विपत्तियों के लिये निमंत्रण है। क्रोध में धन और जन दोनों हानियां हैं। दषा की जमी जमाई नौकरी को क्रोध एक क्षण में बिगाड़ देता है और उफान शान्न होने पर फिर वह नौकरी के लिये चकर लगाता है। मनुष्य समझता है मैं क्रोध से काम निकाल लूंगा किन्तु कोष से काम लेना ऐसा ही है जैसा कि घडी का पेंडुलम हिलाकर उस घडी से काम लेता है। जिसकी कमान टूटी हुई है कोष से काम बनते नहीं निगडते जरूर हैं। प्रिय वियोग उसमें है बहुत से व्यकि आवेश में आकर घर छोडकर ऐसे मये कि फिर घर की ओर झांका तक नहीं । जन्म और मृत्यु सो कोष के साथ लगे हुए हैं ही। जेणाभिभूतो जहती तु धम्म, विद्धंसती जेण कतं च पुण्णं । स तिव्यजोती परमप्पमादो, कोथो महाराज | णिरुहियन्यो ।। १६ ॥ अर्थ:--जिसके द्वारा अभिभूत होकर यह आत्मा धर्म को छोटता है और जिसके द्वारा कृत पुण्य नष्ट होता है। हे महाराज । वह तीव अग्नि और परम प्रसाद रूप कोष निग्रह करने योग्य है। गुजराती भाषांतर : જેને કારણે માણસ પરાજય પામીને ધર્મને ત્યાગ કરે છે અને જેને લીધે પુણ્યનો લોપ થઈ જાય છે, તે મહારાજ ! અગ્નિ જેવા ભયંકર અને ચાલાખ એવા ક્રોધનો સંયમ કરવી જ જોઈએ. क्रोध से होनेवाली दो बड़ी हानियों बताई गईहे। पहली है उसके द्वारा आत्मा का स्व-धर्म समाम करना। क्षमा भारमा का वधर्म है और क्रोध पर धर्म। दूसरा यह कृत पुण्य को नष्ट करता है। क्रोध हमारा हाथ तो इस दंग से पकडता है, मानों वह हमारा हक बहुत बडा माथी हो किन्तु वह इतना चालाक है कि काम हमसे ही कराता है इसीलिये तो क्रोध उतारने के बाद हम दूनी थकान का अनुभव करते है। अत्तर्षि कह रहे हैं यह क्रोध तीव्र ज्योति अग्नि रूप है और परम प्रमाद है। अर्थात् पंच प्रमादों में इसका स्थ प्रमुख है। अतः यह सदैव निरोध करने योग्य है। क्रोध विजय का एक अलग तरीका है। क्रोध की आग मिट्टी के तैलसे लगी आग है । वह पानी से काबू में नहीं आ सकती । उसे बुझाने के लिये मिट्टी चाहिये । वह मिट्टी है मृत क्रोध की . Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ इसि भासियाई नकली क्रोध की । कोशी व्यक्ति को भाप शान्ति से नहीं समझा सकते उसके लिये नकली कोम की आवश्यकता है। गरमी से गरमी दवती है किन्तु ध्यान रखे वह क्रोध की आग आपके दिल में न आ जाय, अन्यथा वह दबेगी नहीं भटक उठेगी 1 दो लड़ते हुए व्यक्तियों की लड़ाई रोकने के लिये पहले उनकी लडाई को कुश्ती में बदल देना होगा, फिर भहयुद्ध को खेल में बदल दें। कुछ देर में आप देखेंगे ने हास्य की सरिता के निकट आ गये हैं। क्रोध के हंसी में बदलते ही कान्ति शान्ति में बदल जाएगी । युद्ध टीका :- महाराज त्ति संबोधनं श्लोकस्यान्यस्मात् कस्माचिदन्यायादिाचत रितत्वं प्रकटीकरोति । प्रस्तुत श्लोक में आया हुआ महाराज का संबोधन यह प्रकट करता है कि यह श्लोक अन्य किसी स्थान से लिया गया है । प्रोफेसर शुक्रिंग भी लिखते हैं- पदवें श्लोक में आया हुआ महाराज का संबोधन का मूल दूसरे अनुसंधान में होना चाहिये, क्योंकि प्रस्तुत प्रकरण के श्लोकों में यह संबोधन ठीक नहीं बैठता। माणो भासं करोतीह विमुच्यमाणो । भासं च सक्खि पण्णे, कोथं गिरंभेज सदा जिता ॥ १७ ॥ e करेतीह अर्थ ः – जो निरोषित किये जाने पर मनुष्य को हृष्ट करता है और छोड़े जाने पर प्रकाश ( भड़का ) करता है । समीक्ष्य प्रज्ञाशील जितात्मा साधक हृष्ट और प्रकाशित दोनों प्रकार के क्रोध को सदैव रोके । गुजराती भाषान्तर: ક્રોધ ( અપ્રકટ ) સંયમિત થયા પછી માત્રુસને તે સંતોષ આપે છે અને ક્રોધ (પ્રકટ ) છોડી પીધા પછી તે ભડકે છે. બુદ્ધિવાન અને વિચારી માણુસે હૃષ્ટ અને પ્રકાશિત (એટલે પ્રકટ પ્રકટ ) બેઉ તરહના ક્રોધનો સાધકે હંમેશા અટકાવ કરવો, क्रोध के दो रूप हैं- एक प्रकट, दूसरा अप्रकट | पहला प्रज्वलित आग है, दूसरा दबी हुई आग है। क्रोध का एक वह रूप है जबकि उसकी ज्वालाएं बाहर फूटती दिखाई देती है, दूसरा एक वह क्रोध है जिसकी ज्वालाएं बाहर तो नहीं दिखलाई पड़ती किन्तु जो भीतर ही भीतर अनवुझे कोयले की भाँति सुलगता रहता है। कभी कभी ऐसा भी होता है दो यकियों के बीच झगड़ा हो जाने पर दोनों बोलना बन्द कर देते हैं। परन्तु दोनों के बोलना बन्द कर देने मात्र से क्रोध की ज्वाला रामाप्त हो गई ऐसा नहीं समझा जा सकता। हो, इतना हुआ बाहर की ज्वाला भीतर पहुंच गई । यह भीतर की आग बाहर की आग से अधिक भयानक होती है। क्योंकि बाहर की आग तो दो मिनिट में जलकर शान्त हो जाती है। पर भीतर की आग कब किस क्षण विस्फोट करेगी कुछ कहा नहीं जा सकता । इसीलिये तो उष्ण युद्ध की अपेक्षा शीत युद्ध अधिक भयावह होता है और शीतयुद्ध की पृष्ठभूमि पर ही उष्ण युद्ध की विभीषिका खड़ी होती है । प्रज्ञाशील साधक बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के क्रोध को निरुद्ध कर कषाय विजयी बने । टीका :- करोति पुरुषमनिरुध्यमानः कोपः विमुच्यमानस्तु भस्म करोति । भस्मी करोति, हृष्टं च भस्म च समीक्ष्य प्राशी जितात्मा सदा कोपं निरुध्यात् । तारायणीयमध्ययनम् । व्यनिरुध्यमान क्रोध मनुष्य को दृष्ट करता है और विमुच्यमान कोध उसे भस्म करता है । अतः प्रशाशील जितामा और भस्म को देखकर को सदा रोकता रहे । टीकाकार का अभिप्राय कुछ भिन्न पड़ता है । १ इसि भासियाई जमेन प्रति पृष्ठ ५७. एवं से सिद्धे । गतार्थः ॥ पटूत्रिंशत्तममध्ययनम् 0<-- 1 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिगिरि अतिषिप्रोक्त सीसवां अध्ययन तत्त्वचिन्तक के मन में एक प्रश्न खड़ा होता है हम जिस विराद सृष्टि में रहते हैं उसकी उत्पत्ति कैसे हुई? कोई दर्शन इसे अंडे से उत्पन्न मानता है इसे वराह के द्वारा समुद्र से बाहर लाई मानता है। किन्तु ये समाधान तर्क की तुला पर ठहर नहीं सकता। जिस अंडे से यह सृष्टि उत्पन्न हुई वह अंडा कितना बड़ा होगा और वह रहा कहाँ ? होगा? जब पृथ्वी पानी आदि कोई तत्व ही नहीं थे तो अंडा आया कहाँ से और कहां टिका होगा। जैन दर्शन इसका राही समाधान देता है । यह विश्व की रंग-स्थली अनादि है। यह विराद विश्व न कभी उत्पन्न हुआ है,न कभी पूर्ण रूप से विलय ही होगा। क्योंकि हग यदि उत्पत्ति वाद स्वीकार करते है तो हमारे सामने प्रश्न आता है पहले बीज या या वृक्ष । यदि बीज पहले श तो क्ष बिना श्रीज आया कहाँ से और वृक्ष पहले था तो बीज विना वृक्ष कैसे मह ऐसी अनबूझ पहेली है। जिसे आज तक कोई सुलझा नहीं पाया। अतः जैनदर्शन कहता है बीज भी उतना ही पुराना है जितना कि वृक्ष । यीज से वृक्ष और वृक्ष से पोज यह क्रम अनादि है। न कभी यह क्रम टूटा है न कभी टूटनेवाला है। इसी रूप में सृष्टिचक घूम रहा हैं। आजका विज्ञान सृष्टि की उत्पत्ति के लिये विकासवाद को मानता है। विकासवाद के प्रणेता हार्विन कहता है यह पृथ्वी करोड़ों वर्ष पहले इतनी गर्म थी कि उस पर कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह सकता था, फिर उसकी ऊपर की परत शीतल हुई तो कुछ छोटे जन्तुओं ने जन्म लिया। उनके द्वारा कुछ की आदि पैदा हुए । फिर उन्होंने विकास किया तो बड़े रेगनेवाले प्राणी जन्मे। उन्होंने विकास किया तो चौपाये जन्मे। उनमें से बुद्धि पटुता लेकर बन्दर जन्मा और बन्दरों का विकसित रूप माना है। यह विकासवाद का संक्षिप्त रूप । लास्तों करोड़ों वर्षों के पूर्व कुछ बन्दर मानव बने थे। उसके बाद लाखों की संख्या में जो बन्दर थे उन्होंने विकास क्यों नहीं किया। माना कि सब विकास नहीं कर सकते तो सौ वर्ष के बाद या हजार वर्ष के बाद एक बन्दर तो मनुष्य होना चाहिये। फिर मनुष्य का भी तो विकास होना चाहिये वह भी तो कुछ बनाना चाहिये। डार्विन का यह विकासवाद भी तक की तुला पर ठीक नहीं बैठता । हो, आत्मा विकारा करती है और यह चोला बदलकर दूसरे रूप में आ सकती है किन्तु उस वर्ग के प्राणी विकसित होकर अन्य रूप ले यह संभव नहीं है। प्रस्तुत अध्याय में सृष्टि की उत्पत्ति के प्रश्न की चर्चा की गई है। __ सवामिण पुरा उदगमसीति सिरिगिरिपा माहणपरिवायगेण अरहता इसिणा बुइतं । अर्थ:-कुछ दार्शनिक ऐसा मानते है कि यहां पहले सब पानी ही था। इस प्रकार प्रामण परिव्राजक सिरिगिरी अर्हतर्षि ऐसा बोले । गुजराती भाषान्तर :--- કેટલાક દાર્શનિકો એમ માને છે કે અહિયાં પ્રથમ બધું જવમય (પાણીથી વ્યાપ્ત) જ હતું એમ બ્રાહ્મણ પરિવ્રાજક સિરિગિરિ અહંતર્ષિ બોલ્યા. ___ष्टि-कर्तृत्व के सम्बन्ध में पूर्वपक्ष बताते हुए अर्हतर्षि कहते हैं कुछ दार्शनिक ऐसा मानते हैं कि पहले यह केवल जल तत्त्व था। एत्थ अंडे संतत्ते पत्थ लोए संभूते । पत्थं सासासे । इयं णे वरुणविहाणे । उभयोकालं उभयोसंझं खीरं णवणीयं मधुसमिधासमाहारं खारं संखं च पिंडेता अग्निहोराकुंड पडिजागरमाणे विहरिस्समीति तम्हा एवं सब्बं ति बेमि । अर्थ:-वहाँ अण्डा आया और फूटा उससे लोक उत्पन्न हुआ और सारी सृष्टि उत्पन्न हुई। किन्तु कोई यह बोलते हैं कि यह वरुणविधान हग मान्य नहीं है। वे उभय काल दोनों संध्या को क्षीर नवनीत ( मम समिधा ( लकडिया) इनको एकत्र करके क्षार और शंखको मिलाकर अग्निहोत्र कुंड को प्रति जाग्रत करता हुआ रहूंगा इसलिये मैं यह सब बोलता है। ने पीर बनीत माल ) प (आर Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ इसि-भासिया वैदिक-परंपरा के अनुगामी ऐसा विश्वास करते हैं कि विश्व की उत्पत्ति अंडे से हुई है। महासागर में एक अंडा तैरता हुआ आया । वह फूटा और दो खंडों में विभक्त हो गया। पहले से अबलोक बना और निम्न खंड से अधोलोक बन गया। उसी से यह सचराचर सृष्टि पेदा हुई है। सृष्टि उत्पत्ति के सम्बंध में और भी विभिन्न बाद है। सूत्रवृत्तांगसूत्र में उसका उल्लेख है । कोई ऐसा मानते हैं कि यह लोक देवों ने बनाया है। दूसरे ऐसा कहते हैं कि यह मटि ब्रह्मा ने बनाई है। कोई यह मानता है कि यह सृष्टि ईश्वर ने बनाई है। इस विराट् विश्व में ईश्वर अकेला था किन्तु अकेलेपन से वह कम पाया और उसने अपने को दो हिस्सों में विभक्त कर दिया। एक था पुरुष दूसरी श्री नारी और इस रूप में सृष्टि का निर्माण हुआ। कुछ लोग इस विश्व को प्रति की कृति मानते है। कोई इसे खभावकृत मानते हैं। मयूर के पंखों को किसने चित्रित किया है। कांटों को किसने तीखा बनाया है। उत्तर होगा यह सब खभाव की देन है। उसी स्वभाव ने सृष्टि का निर्माण किया है। महर्षि ऐसा कहते है वह मृष्टि ब्रह्मा ने रची है। फिर उन्होंने सोचा कि यदि सृष्टि का निर्माण ही होता गया तो उसका समावेश कहाँ होगा, अतः उन्होंने यमदेव की रचना की और उसने माया का निर्माण किया यही माया लोक का संहार करती है। प्रद्मा और त्रिदही आदि श्रमण ऐसा बोलते है-यह विश्व अंडे से बना है। इस प्रकार सृष्टि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेकवार प्रचलित हैं। अतिर्षि अंडे से विश्व की उत्पत्ति माननेवाले सिद्धान्त का वर्णन कर रहे है। साथ ही उस मत के अनुगामियों की दैनंदिनी गाना भी बता रहे हैं कि वे दोनों समय दोनों संध्या को क्षीर और नवनीत और मधुके द्वारा अग्निहोत्र करते है। नैदिक परंपरा के अनुगामी अंडे से विश्व की उत्पत्ति मानते हैं और अग्निहोत्रादि यज्ञयागों में विश्वास करते है। टीका:--सर्वमिदं जगत् पुरा उदकमासीत् । भन्नाण्ड संतप्तम् , अन लोकः संभूतः। भन्न साश्वासो जातः, इदं नोऽस्माकं मते वरुणविधानं इति केचित् । अग्ये सूभयतः कालमुभयतः संध्यं क्षीरं नवनीत मधु समित्, समाहार मार शंख च पिंडविस्थाऽग्निहोत्रकुण्डं प्रतिजागरयमाणो विहरिप्यामीति तस्मादेतत् सर्वमिति प्रषीमीति । तार्थः । प्रोफेसर शुझिंग लिखते हैं - यह एक ही प्रकरण ऐसा नहीं है कि छन्द रूप में जिसकी भूमिका नहीं है। अध्ययन १०,१४ और २१ में भी ऐसा ही हुआ है । वर्षों पहले इस विध में केवल पानी ही था। यह गुद्रा लेख है। इसके बाद आनेवाला अध्ययन भी इसी शेली का प्रमाण है। ऊपर के दावय का स्पष्टीकरण निम्न रूप से है-अंठा पटा और दुनिया बाहर आई और उसने श्वास लेना शुरू किया। यहां ब्रह्म के बदले वरूण का निर्देश उचित हैं। क्योंकि जल का देवता वरूण माना जाता। अतः यह सृष्टि वरुण की कृति है। दूसरे वैदिक सिद्धान्त के अनुसार इस विश्व की उत्पति यश से हुई है। उभी काल वगैरे से यही ध्वनित होता है। किन्तु उसमें प्रमाण रूप से कोई कल्पित मेद नहीं बताया गया है। इसके सामने दो ब्राह्मण के बताये गये हैं किन्तु उसमें विरोध नहीं दिखाया गया है। ण वि माया ण कदाति णालि ण भवति ण कदाति ण भविस्सति य । अर्थ:-यह लोक माया नहीं है। कभी नहीं था ऐसा नहीं है. कमी नहीं है ऐसा भी नहीं है और कभी नहीं रहेगा ऐसा भी नहीं है। -- - १स एकाकी न रेमे। २ मत्व रज और तम की साम्यावस्था प्रकृति है। ३ णमन तु अन्ना मेगेसि माहियं । देव उत्ते अयं लोए यंभउत्तेति आबरे ।। ईसरेण कडे लोए पहाणाश्तहावरे । जीवा-जीव-समाउत्ते सुदुक्खसमन्निष्ट । संयंभुणा कडे लोए. इथुत्तं महेसिणा । मारेण सेथुया माया तेण लोए. असास ।। सूयगड अ०१०३ गा०५-६-७. ४ माहणा समण गे आइ अंड कडे जने । सूबमठ १,उ०३, गा० ८. Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैंतीसयां अध्ययन गुजराती भाषांतर: આ લોક માયા (એટલે સ્વ જેવો ખોટો નથી, ક્યારે પણ નહોતું એમ નથી, જ્યારે પણ નથી એમ પણ નથી, અને ભવિષ્યમાં પણ રહેશે એમ પણ નથી. अर्हर्षि पहले मृष्टि उत्पत्ति के सम्बन्ध में वैदिक परंपरा दिखाकर बाद में जैनदर्शन रख रहे हैं । जैनदर्शन के अनुसार अह विश्व सस्य है। और यह लो संपूर्ण रूप से नश्वर भी नहीं है। इस सारी सृष्टि को माया मानने पर भी बहुत बड़ी आपत्ति आती है। यदि यह माया है फिर आत्मा जैसा कोई तत्व भी नहीं है। फिर पुण्य पाप साधना आदि सभी निष्फल हैं। यदि संसार को स्वप्न माना जाय तो स्वप्न मी एकदम मेथ्या है ऐसा नहीं कहा जा सकता। हमारी जाति का ही प्रतिबिम्ब स्वप्न हैं। जागृति में है और अनुभून वस्तुएं वासना रूप में हमारी स्मृति में रह जाती है और वे ही स्वम रूप में दिखाई देती है | अदि जागृति भी कोई वस्तु नहीं है तो फिर स्वम भी नहीं आ सकता। सीप में चांदी की प्रांति होती है. पर विश्व में सीप और चांदी है भी तो भ्रान्ति होती है; अन्यथा आकाश कुसुम की तो भ्रान्ति नहीं होती। अतः विश्व व्यवस्था सत्य है, किन्तु उसे हम गलन रूप में देखते हैं तो हमारी दृष्टि में भ्रांति है। पर को व देखना और उसमें आत्मीयता की बुद्धि रखना यह भ्रान्ति है किन्तु वस्तु या यह विश्व-भ्रान्ति नहीं है। साथ ही त्रिकामा : महक नहीं का ऐसा भी नाही है। कभी नहीं है ऐमा भी नहीं है, कभी नहीं रहेगा ऐसा भी नहीं है। हा पर्याय रूप से प्रतिक्षण बदल रहा है किन्तु द्रव्य रूप से यह लोकशाश्वत है। क्योंकि लोक का संपूर्ण नाश मानने पर उसकी उत्पत्ति भी माननी होगी और ऐसा मानने पर अनेक तर्क उपस्थित होता है। साथ ही जैनदर्शन यह मानता है विश्व मत् है और सत् उत्पक्ष भी होता है नष्ट भी होता है फिर भी तत्व रूप से ध्रुव रहता है। उसका रूप बदलता है पर स्वरूप नहीं बदलता है। गीता भी कहती है असत् कमी उत्पन्न नहीं होता और सत का कभी नाश नहीं होता, फिर सृष्टि की उत्पत्ति कैसी? अंडे आदि से उत्पत्ति मानना और भी युक्ति विरुद्ध है। सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया है सहि परियाएहि लोय चूया कडेत्ति य । तत्तं तेण विजरणति ण विणासी क्यापि || -सूत्रकृतांग अ० १ उ. ३ गा-६. अपने विचारों से वे थोलते है लोक बनाया मया है। किन्तु वे तत्व को जानते नहीं हैं, क्योंकि लोक विनाशी नहीं है। टीका:-वयं तु न बित्ति माया नैवादभुतऽविधान मन्तव्यम्, किन्तु न कदाचिन्नासीक कदाचिन भविष्यति च लोक इति वदामः । गताः । प्रोफेसर शुकिंग लिखते हैं कि नवि माया आदि के द्वारा जैन सिद्धान्त बताया गया है और वह दुनिया की शाधतता और वास्तविकता की मांग करता है। पडप्पणमिणं सोच्चा सूरसहगतो गच्छे । जत्थ व सूरिये अस्थमेजा खेतसि वा पिणंसि वा तत्थेव णं पादुप्पभायाय, रयणीप जाव तेयसा जलंते । एवं खलु से कप्पति पातीणं वा पडीणं चा दाहिणं वा उदीणं वा पुरतो जुगमेतं पेहमाणे आहारीयमेव रीतित्तप। अर्थः-प्रत्युत्पन्न अर्थात् वर्तमान इस तथ्य को सुनकर साधन सूर्य के साथ जाए! जहां सूर्य हो वहीं रुक जाए, फिर यहां खेस हो या ऊंची नीची भूमि हो । रात्रि के व्यतीत हो जाने पर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के उदय होनेपर ( साधर्क को) पूर्व पश्चिम उत्तर या दक्षिण किसी भी दिशा में युग मात्र भूमि देखते हुए चलना करपता है। उस प्रकार चलनेवाला साधक कर्म क्षय करता है। गुजराती भाषान्तर: પ્રત્યુત્પન્ન એટલે વર્તમાન રચવને સાંભળીને સાધકે સૂર્યને સાથે જ ચાલવું જોઈએ. સૂર્યને અસ્ત થતાં જ તે પોતે પણ થોભી જાય, ભલે ત્યાં ખેતર હોય કે રૂચી કે ની જગ્યા હોય. રાત વીતી ગયા પછી કે તેજસ્વી સૂર્યનો ઉદય થયા પછી સાધકે પૂર્વ, પશ્ચિમ, ઉત્તર કે દક્ષિણ કે કોઈ દિશા તરફ યુગમાત્ર ભૂમિ જોઈને ચાલવું એ એક કલ્પના છે. તેવી રીતે ચાલનાર સાધક કર્મને ક્ષય કરે છે. १ उत्पादव्ययात्रौव्ययुक्त हि सत् ।।-तवार्थ ० ५ सू० २६. नसतो जायते भावो नाभायो विद्यते सतः।।- गीता Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० इसि-भासियाई साधक सत्य को पहचाने और फिर सूर्यविहारी बने । भय उदय होने पर उसकी पति आरंभ हो और गूर्य अस्त हो वहाँ रुक जाए, फिर भले वह खेत हो था निम्न भूमि हो । रात्रि व्यतीत हो जाने पर ही वह आगे बढे। क्योंकि वह प्रकाश का पथिक है, वह प्रकाश व्य और भाव दोनों रूप में अपेक्षित है, द्रव्य से सूर्य का प्रकाश अपेक्षित है, तो भाव से ज्ञान प्रकाश प्राह्य है। भाव शब्द से यही - सूर्य के कुछ विशेषण प्राहा हैं । जोकि औषपातिक सूत्र में मिलते है। टीकाकार उन्हें दे रहे हैं, अतः यहाँ पृथक् नहीं दिये गये। साधक युग मात्र भूमि देखता हुआ चले। ताकि वह जीवादि विराधना से बच सके। उसके मन में करुणा की धारा बह रही है यह सब की रक्षा करने की कामना लेकर चल रहा है। अतः चलते हुए भी उसे सावधानी रसना आवश्यक है । जागृत साधक ही गृहीत को रित्ता कर रहा है । इसके दो रूप हैं द्रव्य में वह लक्ष्य की दूरी की रिक्त कराता काट रहा है। दूसरी ओर गृहीत क्रमों को क्षय कर रहा है। टीका:-- 'पदुप्पा इणं सोच' ति प्रत्युत्पन्न वर्तमानभिदश्रुत्चेति श्रीणि पदानि इलोकपाद इव दृश्यन्ते । नच पूर्वगतेन न चैव पङ्चाद्गतेन संबई शक्यानि । सूर्यसहगतो निम्रन्थो भर्थात् यात्रेव सूर्योऽस्तमियास क्षेत्रे वा निम्ने वा तत्रैवोषित्वा प्रादुः प्रभातायां रजन्यामतीतायो राबावुरियने सूर्ये सहमरश्मी दिनकरे कीदृशे - तदीपपातिकपाटेनोच्यते विकसितोपले चोन्मीलितकमलकोमलेच पांडुरप्रमे रक्ताशोकप्रकाशे च किंशुक- शुकमुख- गुजारागसपशे व कमलाकरपण्डबोधके तेजसा ज्वलति सति एवं तत्क्षणमेव प्राची वा दक्षिणा वा उदीचीनां वा दिशि पुरतो युगमात्रमेव प्रक्षमाणे यथारी ये तस्य कल्पते निग्रन्थस्य । श्रीगिरीयमध्ययनम् । 'पडा पन्न, इण, सोच्च' आदि तीनों पद श्लोक के पाद समान दिखाई देते हैं, किन्तु वे न पूर्व के साथ जोड़े जा सकते हैं, न पीछे के साथ । मुनि सूर्य के साथ जाये इसका अर्थ है जहाँ सूर्य अस्त हो वहाँ क्षेत्र खेत था निम्नभूमि हो वहीं उसे ठहर जाना चाहिये। रजनी के बीत जाने पर सहस्ररश्मि सूर्य के उदय होने पर पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण किसी भी दिशा में आगे युग-मात्र भूमि देखते हुझे गति करना मुनि को कल्पता है। वह सूर्च कैसा है उसका वर्णन औषपातिक के आधार पर दिया जा रहा है। उत्पल (कमल को विकसित कर दिया है और कोमल कमल को खिला दिया है जिसने ऐसा पाण्ड प्रभाववाला रक्त (लाल) अशोक के सदृश प्रकाशवाला, किंशुक शुकमुख (पोपट की चंचु) और गुंजा के सदृश लाल कमलाकर (समूह) सरोवर को जगानेवाला तेजस्वी जाज्वल्यमान सूर्य है। उसके उदय होने पर भुनि विहार पथ में आगे बढ़े। प्रोफेसर शुब्रिग् लिखते हैं आगे जो पाठ ( प्रस्तुत ) दिया गया है उसमें कुछ नया वर्णन है। साधुओं के प्रतिदिन का कार्यक्रम दिया गया है जो कि सूर्य की गति के साथ संगत है। जिसकी तुलना कल्पसूत्र ५-६-८ और निशीथ १०,३१,६४ और दशवें 4-२८ के साथ की जा सकती है। घोदी शुभेच्छाओं के साथ एक फूल पुनः विश्व की ओर खींच जाता है। "पप्पणं इणं सोच" श्लोक पद यह बताता है कि उसने जाना है दुनियां नहीं है और ऐसा लगता है वहां थोडा कुछ छुट गया है। इसीलिये उसकी पुनरुक्ति मी होती है । क्षितिज में सूर्य अस्त होता है यह वाक्य मी कुछ बाहर का लगता है उसे पूर्णता को आवश्यकता है जोकि मुनि बिहार की पूरी मर्यादा जताता हो। औपपातिक में जो सूर्योदय की काव्यात्मक पदावलि मिलती है वहाँ भी ऐसा लगता है कि वेद की नीति प्राश मिलाने के लिये कुछ शब्दों का योग दिया गया है। वहाँ जो पाउप्पमायाररमणीए पाट है वहां निनोक्त पाठ होना चाहिए फूलुप्पल उम्मिलिय कोमल कमलम्मि अहा पंडुरप्पभायाए स्से एवं खलु। देसो आचारांग ८३-१। अतः वहाँ उपोद्धात का वाक्य होना चाहिए उसकी पूरी संभावना । ___ एवं से सिद्धे वुद्धे । गतार्थः । इति श्रीगिरीयं सप्तत्रिंशत्तममध्ययनम् - - . - ... - - . १ कलं पा उम्पमाए रमणीय. फुल्लुम्पलकमल कोमलउम्मीलियामि अहा पंडुरे पहाए रत्तासोगप्पगास किं तुथ - सुव-नुहागुंजडरागसरिरो कमलायरसंबोहए. उत्थियम्मि भूरे सहस्सरिसम्गि दिणधारे त्यता जलते। -औषपातिकसूत्रम् २ अत्यं गम्मि आइन्च पुरस्थायभगुग्गए । आहारमाश्यं सव्वं मणमा बिण पत्थए ।। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध अर्हतर्षि सातिपुत्र भाषित अडतीसवाँ अध्ययन वह सुख क्या है जिसके पीछे सारी दुनियां पागल है। खाना पीना और मौज करना जिसे इंग्लिश दुनिया Eat drink and be merriod यही मुख है तो फिर जिनके भवन आकाश से बातें कर रहे है, जिनके बंगले के सामने चार बार कारें घूम रही हैं वे दुःख के निःश्वास छोड़ते हैं। इसका मतलब हुआ सुल की सजी चाभी उनको भी नहीं मिली है। सुख के दो रूप है एक इन्द्रिय-निष्ठ दूसरा आत्म-निष्ठ । इन्द्रियों को जो प्रिय लगता है जिस ओर इन्द्रिया दोस्ती है। भोला मन उसे सुख की संज्ञा दे देता है और उसके पीछे बेहताशा भागता है। किन्तु यहां उसे क्षणिक उत्तेजना और हल्की तृप्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता और उसके बाद फिर वही चिर अत:, वहीं दाड, पह) संघर्च और दुःख की अनंत परंपरा । दूसरी और आत्म-निष्ट सुख में प्रेय का नहीं श्रेय का आग्रह है। वस्तु की क्षणिक मधुरिमा में आत्मा का असीम सुख नहीं बसता वह तो रहता है अपने निज रूप की प्राप्ति में। यहां रागरहित सात्विक आनंद है जिसके पीछे न दुःख की चिनगारी है म सुख के सूर्य के वाद दुःख की रजनी आने की संभावना ही रहती है । एक इंग्लिश विचारक कहता है: The happiness of a man in this life not consist in the absence but in the mastery of his passions, इस जीवन में मनुष्य का मुख (बाहरी रूप से) वामनाओं के अभाव में नहीं; अपितु उनपर शासन करने में है। प्रस्तुत अध्ययन मानव को सुख की राही राह दिखाता है। इस अध्ययन के प्रवक्ता हैं घौद्ध अर्हतर्षि सातिपुत्र । विगत सैंतीस अध्ययनों में हम विभिन्न अतिर्षिों से परिचित हो चुके हैं। उनमें कुछ क्षत्रिय रहे हैं तो कुछ ब्राह्मण भी है। उन्होंने उस परेपरा में जन्म लिया था, किन्तु तत्व दृष्टि मिलते ही उन्होंने आईती-देशना में प्रवचन दिये थे। अब यहाँ नई परंपरा आ रही है जो कि करीब ढाई हजार वर्ष पूर्व भारत में जन्मी थी उस बौद्ध परंपरा से आनेवाले सातिपुत्र अतिर्षि के विचार सूत्र यहां दिये गये हैं। प्रस्तुत सूत्र के प्रथम निबन्धक उनके प्रवचन की भूमिका के साथ उनका बुद्धेण विशेषण जोडना नहीं भूले हैं। ऐसे तो बुद्ध शब्द जैन आगमों में भी आया है किन्तु वह तीर्थकर देवों की प्रबुद्ध आत्मा का विशेषण बनकर आया है और सातिपुत्र शब्द स्वयं बौद्ध-भिक्षु के नाम सा लगता है साथ ही प्रस्तुत अध्ययन की चतुर्थ गाथा के अन्तिम चरण में एक शब्द पाता है वह भी इस कमन की पुष्टि करता है वह है यह एवं बुद्धक्षण सासण । जं सुहेण सुहं लद्धं अञ्चंतमुहमेव तं। जं दुहेण दुहं लद्धं मामे तेण समागमो ॥१॥ सातिपुत्तेण बुद्धेण अरहता इसिणा बुइतं । अर्थ:-जिस सुख से सुख प्राप्त होता है वही आत्यंतिक सुख है । किन्तु जिस सुख से दुःख की प्राप्ति हो उससे मेरा समागम न हो । सातिपुत्र बौद्ध अर्हतर्षि ऐसा बोले। गुजराती भाषान्तर: જે સુખથી સુખનો લાભ થાય છે તે જ સાચું આત્યંતિક સુખ છે. પરંતુ જે સુખથી દુઃખની પ્રાપ્તિ થાય છે તેવા સુખને સાથે હું સંપર્કમાં ન આવ્યું. એમ સાતિપુત્ર બીજી આહુતર્ષિ લ્યા. एक सुख वह है जो आदि में मीठा है तो अन्त में भी मीठा है। सुख का एक रूप वह भी है जो पहले मीठा है फिर कड़वा बन जाता है। भौतिक पदार्थों का सुख दूसरे प्रकार का सम्व है। नह उस मल्सी का सुख है जो शहद देखती है उसका मिठास देखती है, किन्तु यह नहीं देखती कि इसमें गिरने के बाद मेरी क्या हालत होगी ।। स्थानांग सूत्र की एक चौभंगी है जिसमें बताया गया है जिसकी आदि में सुख है और अन्त में भी सुख है दूसरा जिसकी आदि में सुख है और अन्त में दुःख है। तीसरी जिसके आदि में दुःख है अन्त में तुख है जिसके आदि में भी दुःख है और अन्त में भी दुःख है । उसमें प्रथम तृतीय ग्राह्य हैं और शेष दो अग्राह्य हैं। ३१ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ इसि-भासियाई टीका:-- यत् सुखं सुखेन लब्धं तद् अत्यन्तसुखमेव, यस् दुःख दुःखेन लग्धं मा मम तेम समागमो भूविति बौद्धर्षिणा भाषितम् । मणुण्णं भोयणं भोचा मणुगणं सयणासणं । मणुगणंसि अगारंसि झाती भिक्खू समाहिए ॥२॥ अर्थ :-- मनोज्ञ भोजन करके और मनोज्ञ शयनासन पाकर मनोज्ञ भवनों में भिक्षु समाधिपूर्वक ध्यान करता है । गुजराती भाषान्तर: મનગમતું જમણ, મનગમતું શયનનું સુખ કે આસનનું સુખ મેળવીને મનગમભવનમાં બૌદ્ધ ભિક્ષ સમાધિપૂર્વક ધ્યાન કરે છે. टीका:- मनोझं भोजनं भुक्त्वा मनोज्ञे शयनासने मनोशेऽपारे धुवभिक्षुः समाहितो ध्यायति । गताः । मिशेष टीकाहार मिश्न, शब्द को मौत परंपरागत मिक्ष के अर्थ में व्यवहत मानते हैं। अमणुषणं भोयणं भोच्चा अमणुण्णं सयणासम् । अमणणंसि गेहंसि दरखं भिक्ख झियायती॥३॥ एवं अणेमवण्णानं तं परिचज पंड़िते।। णण्णत्थ लुभई पण्णे पय वुद्धाण सासणं ॥४॥ अर्थ:-अमनोज्ञ भोजन करके अमनोज शयनासन पाकर अमनोज्ञ घरों में भिक्षु दुःख का ध्यान करता है। इस प्रकार अनेक वर्णवालों का विचार है किन्तु उसे छोड़ कर प्रज्ञाशील कहीं पर भी नहीं होता है यही बुद्ध कि ( प्रवुद्ध आत्मा की) शिक्षा है। गुजराती भाषान्तर: ન ગમે તેવું ભોજન કે શયન અથવા આસનનો અનુભવ કરીને ન ગમતા ઘરમાં રહી શિશુ દુઃખનો વિચાર કરે છે. આ પ્રમાણે અનેક વર્ણવાળા માનવીનો વિચાર છે. પરંતુ તેને છોડીને બુદ્ધિમાન માણસા ક્યાંય પણું આસક્ત થતો નથી. આ જ બુદ્ધ (પ્રબુદ્ધ) આત્માની શિખામણ છે. साधक मन के प्रवाह में न बहे । मन अपने पसंद के पदार्थों को पाकर आनंदित होता है और उसके प्रतिकूल पाकर दुःखानुभूति करता है। किन्तु यह स्थिति साधक को सम रसता का भंग कर देती है। अर्णययष्णाणे से चानत होता है यह मात पादांपत्यो के लिये कही गई है अथवा बौद्ध परंपरा के साधुओं के लिये। क्योंकि भगवान महावीर के शासन के मुनि तो केवल ही रणे ते वस्त्र पहनते हैं। पार्श्वनाथ प्रणु की परंपरा में पांचों वर्ण के वस्त्रों का विधान है और बौद्ध परंपरा में भी काषाय रंग के वस्त्रों का विधान हैं और वे प्रासादों में ठहरते भी थे। मध्ययुग का इतिहास तो बताता है बौद्ध भिक्षु उत्तरवर्ती युग में राज्याश्रम पाकर किस प्रकार भवनों में प्रवेश कर गये थे। ___ साधक मन को साधे। भवन हो या वट वृक्ष मिष्टान्न हो या रूखी रोटी दोनों के लिये उसके मन में एक स्थान होना चाहिये । मिष्टान्न उसे लुभा न सके और रूखी रोटा उसके हृदय में तिरस्कार न पा सके। टीकाः- स एवामनोज भोजन मुक्त्वा शयनासने यामनोज्ञे गृहेऽमनोज्ञे दुःख ध्यायत्यातमपभ्यान करोतीत्यर्थः । तं ताशमेवमनैकवर्णकमन्यतीर्थकं भिक्षु नानागुणपदार्थ वा परित्यज्य पंडितः प्राज्ञो नान्यन्न लुभ्यति एतद् यथार्थबुद्धय शासनम् । मतार्थः। जाणावणेसु सद्देसु सोयपत्तेसु चुजिभ । गर्हि वायपदोसं वा सम्म वजेज पंडिय ॥ ५॥ एवं रूपेसु गंधेसु रसेसु फासेसु अप्पप्पणाभिलावणं । अर्थः-श्रोत्र प्राप्त नानाविध शब्दों में गृद्धिभाव और वाक् प्रदोष को बुद्धिमान प्रज्ञाशील साधक सदैव छोडे । रूप गंध रस और स्पर्श आदि में भी साधक आसक न बने । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अडतीसवाँ अध्ययन २४३ गुजराती भाषांतर : કાનથી સાંભળેલા અનેક પ્રકારના શબ્દોનો લોભ અને વાણિવને બુદ્ધિમાન સાધકે હમેશા છોડી દેવું જોઈએ. રૂપ, રસ, ગંધ અને સ્પર્શ વગેરેમાં પણ સાધકે આસક્ત થવું ન જોઈએ. __प्रस्तुत गाथा में साधक को अनापक्ति भाव की प्रेरणा दी गई है । कान से शब्द टकराते हैं और टकरायेंगे मी उन्हें रोका नहीं जा सकता, किन्तु हो, शब्द टकराने के बाद ये बहुत श्रन्छे हैं मन में गुद्गुड़ी पैदा करनेवाले इन शब्दों को एक बार और सुनना चाहिये । इस आसक्ति भाव को हम रोक सकते हैं। जल में रहकर भी जल से निर्लिप रहने की कला है अनासक्ति । नदी में डूबकी लगाकर भी कोई सूखा निकल आये तब चमत्कार है । किनारे पर बैठकर ही कोई यह दावा करे कि हम सूखे है तो वह हास्यास्पद होगा । रूप रस और गंध के शुभ पर्याय हमें प्राप्त हो फिर भी वे हमारे मन के भीतर प्रवेश न पा सकें। उनकी प्राप्ति के लिये तड़प न उठे और उनके विदाई के क्षणों में पलक मीने न हों तो समझना होगा इसने अनासक्ति का पाठ सीखा है। आसक्ति हमें बांधती है वह कहती है जरा रुक जाओ, फूलों की मधुर भीठी सुवास आ रही है । अनासक्ति मुक्ति का द्वार खोलती हुई कहती है आगे बढ़ते चलो, तुम्हारे पथ में हमेश फूल खिलते रहेंगे। __ अनासक्ति योग के साथ प्रस्तुत गाथा में माधक को वाणी के दोषों से बचने की भी प्रेरणा दी गई है। अति बोलना, कठोर बोलना, असमय पर बोलना ये समी वाणी के प्रदोष है, पञ्च इसलिये दु:खी है कि वह बोल नहीं सकता । मनुष्य इसलिये दुःखी है कि वह बोल सकता और उसकी अति कर सकता है 1 एक इंग्लिश विचारक ने ठीक कहा है-The your tongue keep it with in the banks, i rapidly flowing river soon collects mud. अपनी जीभ को तुम तुम्हारे होठों के बीच बन्द रखो । क्यों कि जो नदी वेग से वहती है वह जल्दी गन्दी हो जाती है। मनुष्य ने बोलकर दुःख पाया है, पर मीन ने कगी एक दुःख पाया हो सुना नहीं गया है। अति मोलना भी एक छूत की बीमारी है। लोग उससे ही डरते हैं जिनने कि ए सके रोगी है। दूसरा एक विचारक भी कहता है -Open your mouth und purze cautiously and your stock of wealth & reputation shall ut least in repute be great. तुम अपना मूह और पर्स सावधानी से खोलो ताकि तुम्हारी संपत्ति और कीर्ति बढ़े और तुम यश्चरखी और मद्दान् बन सको। साधक आगक्ति और वाचालता दोनों बचे। टीका:- नानावर्णेषु, शब्देषु, रूपेषु, गन्धेपु, रसेपु, स्पर्शेषु, श्रोत्रातिप्राप्लेषु शदि वाक्प्रदोष वा सम्यक वर्जयेद बुद्धिमान पंडितः । गताः। पंच जागरओ सुत्ता चप्पमुक्खस्स कारणा। तस्सेष तु विणासाय पण्णे यहिज्ज संतयं ॥६॥ अर्थ:-जागृत-अप्रमत मुनि की पांचों इन्द्रिया अल्प दुःख का हेतु बनती है किन्तु प्रज्ञाशील साधक ( उनके विषय के) विनाश के लिये प्रयत्न करे । गुजराती भाषान्तर: જીગૃત, એટલે વિનયશીલ એવા મુનિની પાચે ઇન્દ્રિયો થોડાઘણા દુઃખનો હેતુ બને છે; પરંતુ બુદ્ધિમાન સાધકે (તેના) નાશ માટે કોશિશ કરવી ઘટે છે. जिराकी इन्द्रिय जागृत उसकी आत्मा सुम्म है और जिसकी आत्मा जागृत हो उसकी इन्द्रियां सुन है। जब तक वनराज सोया रहता है तबतक शृगाल उछलते हैं, मृग चौकड़ी भरते हैं किन्तु जब बनराज जागृत होता है और उसकी दहाड़ से गिरिकंदराएँ गुंजित हो उठती है तो मृग चौकड़ी भूल जाते हैं, शगाल जान लेकर झादियों में दुबक जाते हैं। ठीक इसी प्रकार जबतक आत्मा भाव-निद्रा में सोया रहता है नबतक इन्द्रियों अपने विषयों की और दोस्ती है किन्तु जिस क्षण आत्मा जागृत होता है और ज्ञान के प्रकाश को पाता है तो इन्द्रियों के मृग चौककी भरता भूल जाते हैं। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल - २४३ इसि-भासिया अतिर्षि वात्मजागृति की प्रेरणा देते हुए हैं :- जागृत धारमा की पांचों इन्द्रियां सुन रहती है वे अल्प दुःख की कारण होती है। प्रज्ञाशील साधक उनकी अल्प विकृति भी दूर करे। टीकाः- जानतोऽप्रमत्तस्य मुनेरिन्द्रियाणि पंचसुसान्यामदुःखस्य कारणानि हेतकः कारणाद् वा दुःखस्योत्पायमानस्वात् तस्यैव पिनाशाय संततं सदा प्राझो वर्तेत । गतार्थः । प्रोफेसर शुमिंग लिखते हैं-३७ अध्ययन की भांति इस अध्ययन का मुद्दालेख मी पृथक है। वह इस दुनिया का वर्णन करता है। भौतिक सुख दुःख आनंद प्रमोद को दूर करने की प्रेरणा देते हैं। प्रस्तुत अध्ययन बौद्ध ऋषि के मुख से कहलाया गया है। दूसरे श्लोक द्वारा हम इस तथ्य को समझ सकते हैं। सूयगडांग सूत्र के १, ३, ६ गाथाओं से साम्य रखता है। जो जेकोची के द्वारा शीलांक की टीका से हम जान सकते हैं और इसे बुद्धि के सामने रखा गया है। चतुर्थ श्लोक में आया हुआ बुद्ध शब्द जैन अर्थपरक है। वाहिक्खयाय दुक्खं वा सुहं या णाणदेलिय। मोहक्खयाय एमेव सुहं वा जइ वा सुहं ॥७॥ अर्थ :-- व्याधि के क्षय के लिये दुःखरूप या सुखरूप जो औषधियां होती हैं (वैद्य के) ज्ञान से चे उपविष्ट है । इसी प्रकार मोह के क्षय के लिये जो भी सुखरूप साधना है वह गुरु से उपदिष्ट है। गुजराती भाषांतर: દરદ મટાડવા માટે દુઃખરૂપ કે સુખરૂપ જે જડીબુટ્ટી છે તે (વૈદ્યરાજે પોતાના જ્ઞાનથી જ ભલામણ કરેલી છે. આ જ રીતથી મેહનો નાશ કરવા માટે પણ જે કંઈપણ દુઃખરૂપી કે સુખરૂપી સાધના છે તે ગુરુના ઉપદેશનું ફળ છે. शरीर में व्याधि है तो मनुष्य उसे दूर करने के लिए वैद्य की शरण लेता है फिर वह जो भी कडवी या मीठी औषधी देता है उसे पी जाता है। इसी प्रकार मोड़ के क्षय के लिये हमें सद्गुरु के निकट जाना ने जो मी मव या कठोर साधना बताएं नसे अपनाना होगा। मोह स्वयं एक व्याधि है। उसके अपने तक ही सीमित रहती है। "दूसरे एक हजार भर जाएंगे तो भी उसका रोम नहीं हिलेगा, किन्तु उसके अपने एक पर भी जहां प्रहार हुआ तो वह तिलमिला जायेगा। जज अपनी कलम से दूसरे के लिये फांसी का हुक्रम लिख देता है, किन्तु अब उसी का पुत्र हत्या के अपराध में फसता है और अपराध सिद्ध हो जाता है और उसके लिये फांसी का आदेश लिखते उसकी कलम कांप जाती है। उस सौसो दलीलें याद आती हैं। वह बोल उठता है यह कैसा भी अमाननीय कानून है उसने आवेश में दसरे के प्राण लिये कानन जान बूझकर उसके प्राण ले रहा है। एक में पागलपन था दूसरे के पास ज्ञान का दावा है। आखिर काम तो दोनों एक ही कर रहे है। किन्तु यहां जो भी दलीलें याद आ रही है. यहां ज्ञान के शिखंडी बनकर पीछे से मोह बाण छोड़ रहा है। ___ जब दूसरे मर रहे थे तब एक भी दलील याद नहीं आई । अब जो मानवता के प्रति हमदर्दी दिखाई जा रही है वह मानवता से नहीं; मोह से प्रेरित है। जहां मोह है वहाँ दुःख मैठा है। टीका :- व्याधिक्षयाय दुःखं वा सुत्रं यद् यदौषधं भवति तद् बैग्रस्य शानेन देशितं दिष्टं, एवमेव मोइशयाय दुख सुखं वा मोय उपायो दिष्ट गुरुणा । गतार्थः । ण बुषवं ण सुखं वा वि जहाहेतु तिगिच्छिति। तिमिच्छरसु जुत्तस्स दुपत्रं वा अइ वा सुहं ॥८॥ मोहमखए उ जुत्तस्स दुक्खं वा जइ था सुदं । मोहपखए जहाहेउन दुखं न वि वा सुहं ॥ ९॥ अर्थः—जिस हेतु को लेकर चिकित्सा की जाती है वहाँ सुख भी नहीं है और दुःख भी नहीं है। चिकित्सा में युवा व्यक्ति (रोमी) को सुख और दुःख हो सकता है। .इस प्रकार मो क्षय में युक्त (प्रवृत्त) व्यक्ति को सुख और दुःख हो सकते है किन्तु मोह क्षयका हेतु सुख और दुःख नहीं है। दुकाव हय जस्सन होई मोहो । - उसरा अ०३२ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अडतीसवाँ अध्ययन २४५ गुजराती भाषान्तर: જે કારણને માટે ચિકિત્સા કરવામાં આવે છે ત્યાં સુખ પણ નથી અને દુઃખ પણ નથી, ચિકિત્સા કરવા માટે યોગ્ય (દદ) વ્યક્તિને સુખ કે દુઃખની પ્રાપ્તિ થઈ શકે છે. આ પ્રમાણે મહાયમાં યુક્ત (પ્રવૃત્ત) વ્યક્તિને સુખ અને દુઃખ પણ થઈ શકે છે, પરંતુ મોહના નાશનું કારણ સુખ અને દુઃખ નથી, एक अस्वस्थ व्यक्ति औषधि लेता है उसका लक्ष्य है स्वस्थ होना । खास्थ्य और सुख दो भिन्न वस्तुएं हैं। हां, अखस्थता एक दुःख अवश्य है और इसीलिये स्वस्थ व्यक्ति बोल भी पड़ता है 'अब मैं रोग मुक्त हो सुख का अनुभव कर रहा हूं, फिर भी हमें ध्यान रखना होगा स्वास्थ्य ही सुख नहीं है, बहुत से स्वस्थ व्यक्ति भी आंसू बहाते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि सुखी नहीं है अखस्थ व्यक्ति सबसे पहले स्वास्थ्य चाहता है। अन्यथा अच्छा स्वाना सोना संपत्ति इच्छापूर्ति सभी जो सुख माने गये हैं रोगी इनमें से एक भी नहीं चाहते। वह मिठाइयों को करा देगा, सोने के सिंहासन से उत्तर जायेगा। इसलिए कि उसे स्वास्थ्य चाहिये। ____ अथवा यहा सुख और दुःख का यह भी अर्थ हो सकता है कि रोगी कडवी या मीठी औषधि में नहीं लुभाता। उसका लक्ष्य है स्वस्थ होना । औषधि कटु है तब भी उसे लेना है और मीठी है तो वरच होने बाद उसे छोड़ना है। हा, चिकित्सा करनेवाले व्यक्ति को सुख दुःख हो सकता है, किन्तु उसके लक्ष्य में सुख और दुःस्त्र नहीं है। ठीक इसी प्रकार मोह क्षय की साधना में प्रवृत्त साधक के सामने दुःख और सुख आ सकते हैं कभी मोह रौद्र रूप लेकर भी आता है। जब उसकी बात कराई जाती है तो वह राक्षसी रूप लेकर भी प्रकट होता है। प्रदेश के सम्मुख मोह का यही तो भाया था और साधना के पधिक के सामने मोह मोहिनी का रूप लेकर भोग की भिक्षा भी मांगता है, किन्तु साधक दोनों से परे रहता है और बोलता है। मैंने तुम्हारा वह रूप भी देखा है अर्थात मेरी आखें तुम्हारी सुन्दरता के साथ रौद्रता मी देख चुकी; अत: अब तुम्हारा जादू मेरे ऊपर चला नहीं सकता। साधक का लक्ष्य मोह क्षय कर आत्मा का निजरूप प्राप्त है । भौतिक सुख और दुःन्त्र उसके लक्ष्य नहीं हो सकते। एक तर्क उपस्थित किया जाता है मोक्ष में मुस्त है और उसकी प्राप्ति के लिये भाविक आत्मा प्रयत्नशील है किन्तु सुख पाने की लालसा भी एक प्रकार की आसक्ति है और फिर जब तक यह आसक्ति है तब तक मोक्ष कैसा है यहाँ उसका दिया गया है मोह से मुक्ति ही मोक्ष है। मोह से विमुक्ति अपने आपमें सुख या दुःस्वरूप नहीं है। मुख में राग है और दुःस में शेष है, जबकि मोक्ष दोनों से परे हैं। जैसे रोग मुक्त व्यक्ति को हम सुखी या दुःखी न कहकर स्वस्थ कहते हैं। ठीक इसी प्रकार मोह मुक आत्मा स्वस्थ है निज रूप में स्थित है। एक प्रश्न और है-आगम में सिद्ध प्रभु को अनंत मुख बताया गया है । उसका क्या समाधान होगा! । उसका उत्तर 'यह होगा कभी कभी हम स्वास्थ्य को सुख कड् बैठते हैं जैसे कि रोग से मुक्त हो अब में सुखी हूं। बम ठीक इसी प्रकार मुक्तात्मा की खात्मस्थिति को आगम में सुख कहा गया है। इसी आस्मिक मुख की भौतिक सुख से तुलना करते कहा गया है। समस्त देनों और इन्द्रों से भी सिद्ध प्रभु का सुख अनंतगुना है। इसी आत्मस्थिति को सुख मानकर कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने निरानंदमयी वैशेषिकी मुक्ति का उपहास करते हुए कहा था - सतामपि स्यात् कचिदेव सत्ता चैतन्पमोपाधिकमात्मनोऽन्यत् । न संचिदानंदमयी घ मुक्तिः, सुसूत्रमासूनितमरखदीयैः ॥ -अन्ययोगव्यवच्छेदिका इलो०६ वैशेषिक दर्शन के कुछ सिद्धान्तों की चर्चा यहां की गई है । न संविदानंदमयी च मुक्तिः " में एक छुपा ध्यंग है। आदि नौ गुणों के सर्वथा क्षय होने को मुक्ति मानती है। तथा मुक्ति को सुख निरपेक्ष मानते हैं। महर्षि गौतम भी वृन्दावन की कुंजगलियों में शूगाल होकर रहने में प्रसन्न है, किन्तु वैशेषिकी मुक्ति में जाने को तैयार नही है। बहुध वैशेषिक दर्शन बुद्धि आदि चौ गुण १. यावदात्मा गुणाः सर्वे नोटिनवासेनादयः । तावदास्यन्तिकी दुःखव्यावृत्तिन कस्स्थते ।। २. वर वृन्दावने रम्ये कोष्ठत्वमभिवाचितम् । न तु वैश्ौमिकी मुक्तिगाँतमो गन्तुमिच्छति ।। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ इसि-भासियाई जैन दर्शन मोक्ष को भौतिक सुख दुःख से परे मानता है, पर आत्मा की स्वरूप स्थिति में एक सात्विक आनंद है उसमें इन्कार नहीं किया जा सकता। टीका:-न चिकित्सति कुवैथो यदि वा न चिकित्स्यसे कुवोन दुःख सुख वा पाहेत हेतुविशेषं विभज्य, किन्तु सामान्यचिकित्सिते वैवशास्त्रे सुयुक्तस्य कोधिदस्य दुःखसुखे भवतः सुज्ञाते । एवमेव मोहक्षयेऽर्थेऽप्रज्ञानमार्गे मुकस्य मे सुशाते नश्वयुक्तस्य हेतुविशेषणेऽनयोः श्लोकयोरां ग्रहीतुमम्मत्प्रयत्रः। अर्थात् टीकाकार का मत कुछ मिल पाता है। कुय योग्य चिकित्सा नहीं करता। अर्थात् जैसे अनाड़ी वैद्य रोगी के दुःखदर्द को न जानकर रोग की ठीक चिकित्सा नहीं करता है। किन्तु आयुर्वेद का ज्ञाता निषण वैद्य रोगी के सुख को समझकर योग्य चिकित्सा करता है । इसी प्रकार मोह क्षय में अर्थात् ज्ञान मार्ग में प्रवृत्त व्यक्ति आत्मा सुख दुःख को जानता है। किन्तु आरम-खभाव को न जाननेवाला व्यक्ति सुख और दुःख के सही रूप को भी जान नहीं सकता। तुच्छे जणमि संवेगो निवेदो उत्तमे जणे। अस्थि तादीण भाषाणं विसेसो उवदेसणं ॥ १०॥ अर्थ :-तुच्छ मनुष्यों में संवेग रहता है और उसमें मनुष्य में निर्वेध रहता है । दीन भात्रों के अस्तित्व में विशेष रूप किया जाता है। गुजराती भाषान्तर : હીન મનુષ્યમાં સંવેગ (મેક્ષ પ્રાપ્તિ માટે ઈચ્છા હોય છે, અને ઉચ્ચ માનવોમાં નિર્વેદ (વિષયોમાં આસક્તિ) હોય છે. દીનબાના અસ્તિત્વમાં છે વિશેષરૂપથી) ખાસ ઉપદેશ આપવામાં આવે છે, ___आत्मा का मोक्षाभिमुख प्रयत्न संवेग है। अनंत अनंत युग से आत्मा गति कर रहा है। भौतिक पदार्थों के पीछे दोच रहा है। किन्तु इसका वेग विषम है। उसके प्रयत्न उसे दुःख की और ही ले जाती है। किन्तु जब वह खात्मोपलब्धि के लिये प्रयत्न करता है वही उसका संवेग है। विषयों के प्रति अनामुक्ति निर्वेद है। आचार्य सिद्धसेन सवंग और निवेद की व्याख्या करते लिखते हैं-नरकादि गतियों को ( उनके दुःखों को) देखकर मन में एक भय पैदा होता है। बह संवेग है और विषयों में अनासक्तिभाव निद है। प्रस्तुत व्याख्या के अनुरूप यहां पर अहतर्षि बता रहे है कि तुच्छ जनों निर्धन प्राणियों में संवेग प्रमुख रहा है। क्योंकि उन्हें यह भय रहता है कि कहीं बुमति में चला नहीं जाऊं पहले के अशुभ कमी के उदय से मैं साधन विहीन घर में आया हूं और यदि अब भी अशुभ कर्मों में लिप रहा तो दुर्गति का पथिक अनूंगा। जो साधनसंपन हैं। लक्ष्मी के पायलों की झंकार के साथ जहां सुरा और सुन्दरियों की कीष्ठा होती है। किन्तु एक दिन उनके मन में उसके प्रति घृणा हो जाती है और वे कह उठते हैं इन मधुर गीतों में रुदन की ध्वनि आ रही है। समी नाटकों के पीछे विडम्बना को मेरी आंखें देख रही है । सभी अलंकार मेरे लिये भार रूप है और सभी सुख के साधन मुझे कांटे से चुभ रहे हैं और वह उनसे अलग हो निर्जन वन की शीतल शान्ति में आश्रम खोजता है। यद्यपि संवेग और निवेद ऐसे नहीं हैं कि उन्हें गरीब और अमीर में विभक्त किया जा सके फिर भी बाहुल्य और परिस्थिति के प्राधान्य को लक्षित करके ऐसा कहा जाता है। साथ ही गरीबी के अस्तित्व में उपदेश विशेष दिया जाता है और उसका असर मी जल्दी होता है। क्योंकि वैराग्य की प्रसव भमि दुःख ही है। भीम ग्रीन में ही आम रसदार बनता है। दुःख के भीष्म ग्रीष्म में ही मानव में माधुर्य आना है। जब तक बांस तीखे चाकू के प्रहर को सह नहीं लेता तच तक उसमें से मधुर स्वर जहरी निकल नहीं सकनी । एक इंग्लिश विचारक बोलना है: Is not the lule that scothes ylille spirit the very vuod tllat was hallowed with knives - खलील जिब्रान यह वासुरी जो दिल के दर्द को हर लेता क्या वही बरा का टुकहा नहीं है जिसमें चाकू से छेद किये गये थे? १, संत्रेगो मोक्षामिलाघा. २. संवेगो नाकादिंगल्यवलोकनातू संगीतिनिर्देदो विषयेष्वनभिधम रति सिद्धसेनः । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 अडतीसच अभ्ययम I दुःखों के प्रहार सहकर ही मानव में मृदुता आती है और वही उपदेश को श्रवण कर सकता टीका:- संवेगो नरकादिगत्यवलोकनात् संभीनिर्निवेो विषयेश्वनभिरंग इति सिद्धसेनः । तुच्छे निःसारे जने संवेग इत्युत्तमे तु निर्वेद इत्येतौ दीनानां जनानां भात्रों यदि वा दीनी च भवतो भावा चेति दीनभावो तयोर्विशेषस्तयो विशेषसमधिल तादुपेश शलोकानामध्या सविश्रारूपं विना नास्त्युपदेश इति भावः । अर्थः- संवेग निर्वेद की व्याख्या ऊपर आ चुकी है। शेषार्थ इस प्रकार है तुच्छ / निःसार मनुष्य में संवेग और उत्तम मनुष्यों में निर्वेद होता है। ये दोनों शीन मनुष्यों के भाव हैं, अथवा वे दोनों दीनभाव हैं उनकी विशेषता को लक्ष्य करके उपदेश दिया गया है। अध्यात्म विद्या-रूप ज्ञान के अभाव में उपदेश नहीं हो सकता । सामण्णे गीतणीमाणा विसेसे मम्मवेदिणी । सवण्णु-भासिया वाणी णाणावत्थोदयंतरे ॥ ११ ॥ अर्थः- सर्वेश भाषित वाणी नाना अवस्था और उदय ( कर्मोदय ) के भेद से सामान्य पुरुषों में गीत रूप बनकर रह जाती है; जबकि विशेष पुरुषों के मर्म को वेध देती है। अर्थात उनके हृदय को स्पर्श कर जाती है । अथवा नाना अवस्था और उदय के अन्तर से बीतराग की वाणी सामान्य होती हैं और विशेष में सर्म वैधिनी होती है। २४७ गुजराती भाषान्तर : સર્વજ્ઞભાષિત વાણી અનેક અવસ્થા અને ઉદય (હૃદય) ના ભેદલી સામાન્ય મનુષ્યોમાં ગીતરૂપ અનીને રહે છે; જ્યારે વિશેષ માનવોના માન વધે છે. એટલે તેના હૃદયને સ્પર્શ કરી જાય છે. અગર અનેક અવસ્થા અને હૃદયના અંતરથી ભીતરની વાણી સામાન્ય પમાં થાય છે; અને વિશેષમાં મર્મવેધિની હોય છે, पूर्व गाया में बताया है दीनावस्था में उपदेश का असर विशेष होता हैं। ऐसा क्यों होता है ? तीर्थंकर देव की वाणी समरूप से बहती है फिर परिणाम में अन्तर क्यों आता है ? उसी का उत्तर यहां दिया गया है। सर्वज्ञ देवों कि वाणी सब सुनते हैं, किन्तु जो केवल श्रवण का माधुर्य पाने के लिये पहुंचते हैं उनके लिये वह संगीत बनकर ही रह जाती है; किन्तु जो विशेष भूमिका पर पहुंच चुके हैं उनके लिये वह वेधिनी है । यही दो कारण है गजसुकुमार जैसे ने एक ही देशना सुनी थी, किन्तु आत्मा जागृति की वह लद्दर आई कि भोग और वासना के बन्धन तोड़कर वे चारित्र्य के पथ पर चल पड़े । वाणी का असर होने के लिये व्यक्ति की भूमिका और कमोदन भी कारणी भूत होता हैं। भूमिका शुद्ध है तो सामान्य से बीज और हलकी सी वर्षा भी काम कर जाएगी । भूमि ऊसर है तो न नीज काम कर सकते हैं, न वर्षा ही कुछ कर सकती है । उपादान शुद्ध हो, अन्तर की जागृति हो तथा वाणी के बीज प्रतिफलित हो सकते हैं । यही कारण हैं कि आज के बहुत से श्रोता प्रवचन सुनते हैं। उसमें भीगते भी हैं और प्रवचन हॉल से बाहर निकलते हैं तब बोल उठते हैं महाराज ने बहुत सुंदर कहा ऐसी बात कही कि श्रोता हिल उठे। किन्तु जीवन में परिवर्तन का प्रश्न आता है ast श्रोता एक कदम पीछे हट जाते हैं। प्रवचन प्रतिदिन सुनना मधुर कंठ से दिया गया प्रवचन उन्हें सुनना है। वह इसलिये कि कानों को प्रिय लगता है। इसका मतलब यह हुआ आज प्रवचन केवल कानों के लिये है, जीवन के लिये नहीं। दूसरे शब्दों में वह श्रवणेन्द्रिय का व्यसन मात्र रह चुका है। प्रस्तुत गाथा की दूसरी व्याख्या के अनुसार जब तीर्थंकर देव देशना देते हैं जब उनकी देशना कभी सामान्य वस्तुतत्त्व का स्पर्श करती है तो कभी विशेष का विश्लेषण करती है । सामान्य और विशेष के दोनों तटों को छूकर ही देशना की धारा बहती है। वस्तु का केवल वस्तु रूप में परिचय सामान्य दर्शन कहलाता है और उसकी भीतरी विशेषताओं का परिचय दर्शन की भाषा में विशेष कहलाता है। भवन को भवन के रूप में देख लेना सामान्य दर्शन है पर उसके खंड उपखंड प्रकोष्ठ उनमें रही हुई वस्तुएं उसका स्वामी आदि का परिचय प्राप्त करना विशेष है । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर भी कहते हैं तीर्थंकर देवकी देशना संग्रह ( सामान्य ) और विस्तार ( विशेष ) के मूल को बतानेवाली है। संग्रह नव स्पर्शक देशना द्रव्यास्तिक नयों का उद्भव स्थल है तो विशेष वादक अंश पर्यायनयों की प्रसव भूमि है। शेष नय उन्हीं के विकल्प हैं' । १ तित्यथरवयणसंमपत्धारमूलबागरण । दव्वयि पज्जवणनाथ सेसापियप्यासि । ----सन्मतिप्रकरण काण्ड १ कोक ३. Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ इसि-भासिया तीर्थकर देवों की देशना सामान्य रूप मेंगीति प्रधान है किन्तु विशेष में मर्मस्पशौं है। किन्तु उसकी मर्मस्पर्शिता श्रोता की पात्रता और उसकी क्षेत्र विशुद्धि पर आधार रखती है। टीका:-- नानावस्योदयान्तरे पुरुषाणां निनावस्था अनुसृत्य सर्वहस्सीकरैर्भाषिता पाण्युपदेवाः सामान्यन गीतनिर्माणोपविष्टारमपरिणामा भवति, विशेषे तु मर्म-वेधिनी प्रत्येकपुरुषस्त्र छिभित् । गताः। सव्व-सत्त-क्ष्यो बेसो, णारंभो णपरिम्गही। सतं तवं दयं वेव भासंति जिणसतमा ॥१२॥ अर्थ:-जिनेश्वर देव समस्त प्राणियों पर दया. चेश-मुनि कालप और अनारंभ अपरिग्रह सल सद्भाव, तप और दया का उपदेश करते हैं। गुजराती भाषान्तर: જિનેશ્વરદેવ બધા જીવો ઉપર દયા, વેષ (મુનિનું ૫) અને અનારંભ, અપરિગ્રહ સત્વ સદ્દભાવ, તપ, અને દયાનો ઉપદેશ કરે છે. पूर्व गाथा में बताया गया है कि तीर्थकर देव की देशना सामान्य रूप में गीत रूप है और विशेष में मर्मबोधिनी है। वह मर्मघोषित यहाँ स्पष्ट की गई है। उस शुद्ध आत्मा से प्रस्फुटित वाणी में सबके प्रति दया की पवित्र भावधारा यह रही है । सबका हित और सबका विकास चाहनेवाली वाणी वीतराग की वाणी है। सर्वोदय की यह पवित्र देशना हजारों युग पहले जिनेश्वर के मुख से प्रवाहित हुई थी। आचार्य संमतभद्र भी कहते हैं-ओ वीतराग! आपका शासन ही सर्वोश्य की प्रेरणाभूमि है । राजतंत्र में प्रजा की उपेक्षा हे प्रजातंत्र मत पक्षित है, किन्तु जिनेश्वर के शासन में एकेन्द्रिय तक के आविकसित जीवों के हित मुरक्षित है। उस सुरक्षा का दायित्व दिखाता हुआ मुनिवेष उन्होंने निर्धारित किया है। साथ ही सर्वोदय की प्रतिज्ञा लिये चलनेवाले साधक को आरंभ और परिग्रह से भी दूर रहना होगा । क्यों कि आरंभ अल्प विकसित जीवों को कुचलता है। महारंभ गरीबों की रोटी रोजी छीनता है । परिग्रह शोषण करता है, अतः वीतराग के सर्वोदय शासन में इनको स्थान नहीं है । वीतराग देव तप और दया के द्वारा आत्मिक शक्ति को जागृत करने की प्रेरणा देते हैं। उनकी वाणी में सत्य दया और तप की त्रिपथमा ( गंगा) बहती है। खतत्व का अवबोध उसका ध्येय है। तप आदि उस स्वरूप स्थिति तक पहुंचने के सोपान है। टीका:-- सर्वसत्वदयो वेषो लिंगलक्षितं मुनित्वं भवस्यनारंभो परिग्रहश्च सर्व सद्भाचं तपो दानं चैव जिनसत्तमा भाषते । गताः । देतिदियस्स धीरस्स कि रपणेणास्समेण वा । जत्थ जत्थेय मोडेजातं रगणं सो य अस्समो॥ १३ ॥ अर्थः-दसितेन्द्रिय वीर के लिये अरण्य और आश्रम से क्या प्रयोजन है। जहां जहां मोह का अन्त है वहीं अरण्य है और यही आश्रम है। गुजराती भाषान्तर: જેના ઇંદ્રિયો પર સંચમ છે તેવા વીરને માટે અરણ્ય અને આશ્રમનું શું કામ છે? જ્યાં જ્યાં મેહનો અંત છે, ત્યાં જ અરય છે અને ત્યાં જ આશ્રમ છે. यह कोई जरूरी नहीं है कि आत्मा साधना के लिये वन में ही जाना चाहिये । यदि वन में पहुंचकर भी वृत्तियों पर विजय करते नहीं आया तो वन में भी वासना उभर सकती है । वासना का पिपासु वन में भी भात्मशान्ति नहीं पा सकता। जमकि इन्द्रियजेता साधक महलों में रहकर मी केवलज्ञान पा सकता है। पर इसका मतलब यह नहीं है कि केवलज्ञान पाने के लिये महलों में रहना अवश्यक है। जैनदर्शन स्थान को नहीं स्थिति को महत्व देता है उसका यह भी आग्रह नहीं है कि आप वन में ही रहें। वहां रहेंगे तभी कैवल्य पा सकेंगे। वह यह भी नहीं कहता कि आप महलों में वासना की लहरों में छूम रहें। वह तो चाहता है आप अपने में रहें। अपने निज घर में पहुंचे । आत्मा पर घर में भटक रहा है, इसी लिये तो विडम्बना है। ऋवि बनारसी दासजी भी कहते हैं: १ सर्योदयमिदं शासन सवैष।-भाचार्य समन्समद, Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अडतीसवाँ अध्ययन हम तो कबहुं न निज घर आये। पर घर फिरस बहुत दिन बीते नाम भनेक धराये। पर पद निज पद मानी मगन हैं। पर परिणति लिपटाये। मोह दशा ही आत्मा की स्वस्थिति में पहुंचने के सबसे बड़ी बाधक शक्ति है । जहां मोह का अन्त है वहीं मोक्ष है, फिर मोक्ष के लिये एक इंच भी इधर उधर हटने की आवश्यकता नहीं है । क्यों कि जितना बहा मानव-क्षेत्र है उतना ही विशाल सिक्षेम है । अतः स्थान नहीं, किन्तु वृत्तियों को बदलने की आवश्यकता है। किमुदंतस्स रपणेणं तस्स चा किमस्समे। णातिवंतस्स भेसज्जं ण चा सत्थस्स मेज्जता ॥ १४ ॥ अर्थ:-इन्द्रिय जेता के लिये जंगल क्या और दान्त (दमनशील) व्यक्ति के लिये आश्रम क्या? अर्थात् उसके लिये वन और आश्रम दोनों सम हैं। रोम से अतिक्रान्त-मुक्त व्यक्ति के लिये औषध की आवश्यकता नहीं है और शस्त्र के लिये अभेद्यता नहीं है, वह सबको भेद सकता है। अथवा मर्यादाहीन के लिये कोई औषध नहीं है। और स्वस्थ व्यक्ति को औषत्र की आवश्यकता नहीं है। गुजराती भाषान्तर: ઇદ્રિય ઉપર જય પામેલા વીરને માટે જંગલ શું અને દાન્ત (દમનશીલ) માસ માટે આશ્રમ શું? એટલે બંને માટે વન અને આશ્રમ એ બંને સરખાજ છે. માંદગી અતિક્રાંત મુક્ત પેલા માણસ માટે દવાની જરૂરી જ નથી અને શસ્ત્રને માટે અભેદ્યતા નથી; કેમ કે તે બધાંને ભેદી શકે છે. અથવા મદારહિત માનવને માટે કંઈજ ઈલાજ નથી, અને તેવા માણસને માટે દવાની જરૂરી પણ નથી, बन में जाने मात्र से इन्द्रियों पर काबू हो जायगा यह धारणा गलत है, क्योंकि जंगल का हिमालय में ऐसी जड़ीबुट्टी नहीं है जो मन पर विजय दिला सके । उद्विग्न चित्तवाले व्यक्ति के लिये वन का शान्त वातावरण भी शान्ति नहीं दे सका । मन में शान्तिधारा वह रही है, तो मनोहर बनस्थली उसमें पवित्रता का संचार कर सकती है। अन्यथा मन ही दूषित है, बनस्थली उसे रोक नहीं सकती । रावण वन से ही तो सीता को ले गया था । अतः वन में आत्मशान्ति मिल ही जायेगी ऐसा नहीं कहा जा सकता । अन्यथा वनविहारी सभी हिंस्र पशु भी सन्त होते। भगवान महावीर ने अपने अंतिम प्रवचन में कहा था न मुंडिएष समणो न ओंकारेण बंभणो। न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण तावसो। केवल मुंडित होने मात्र से कोई श्रमण नहीं हो जाता और ॐकार के जाप से कोई प्राह्मण नही हो जाता । जंगल में रहने मात्र से कोई मुनि नहीं कहला सकता। वल्कल वस्त्र धारण करने मात्र से कोई तापस नहीं हो जाता। अतः कपरे नहीं; मन बदलने की आवश्यकता है.। स्थान नहीं स्थिति बदलिये। टीका:-किम दान्तस्यारण्येनाश्रमेण वा? न किंचिदित्यर्थः । यथातिकान्तस्य रोगाविमुक्तस्य पुरुषस्य भैषज्य नास्ति । न च शस्त्रस्याभेवता, तन्ति स्वभावादभेद्यमेव । गतार्थः । . 'सुभाव-भावितप्पाणो सुपणं रपणे धणे पि वा। सब्वं एतं हि झाणाय सल्ल-चित्तेव सलिणो ॥१५॥ अर्थ:--स्वभाव से भाचित आत्मा के लिये शून्य बन और धन सभी एक समान है। वे सभी वस्तुएं उसके लिये उसी प्रकार धर्म ध्यान की निमित्त होती हैं जैसे कि सशल्यचित्त वाले के लिये आर्तध्यान की। -- - १ वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणां, गृहेऽपि पंचेन्द्रियनिग्रहं तपः । अकुत्सिने कर्मणि यः प्रवर्तते निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम् ।। ३२ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० इसि-भासियाई गुजराती भाषान्तर: સ્વભાવથી ભાષિત આત્મા માટે નિર્જન જંગલ અને ચૂનું જંગલ અને ધનથી પૂર્ણ બંગલે એકસરખાંજ છે. તે બધી વસ્તુઓ તેને માટે તે જ રીતે ધર્મધ્યાનના નિમિત્ત થાય છે જેમ કે સશલ્ય અંતઃકરણના માણસ માટે આર્તધ્યાન, जिसकी आमा खभाव से भाधित है, मागम की भाषा में जिस निसर्ग चिसंपन कहा जाता है वह सूने वन के एकान्त कोने में रहे या स्वर्ण प्रासादों में रहे वह सभी स्थलों पर आत्म-साधना में लीन हो सकता है। जिसने मन को साध लिया है भौतिक राग के बन्धन उसे चांध नहीं सकते । उसके लिये वन क्या और प्रासाद क्या? उसके लिये मिट्टी का पात्र भी खर्ण-पात्र है और वर्ण-पात्र भी मिट्टी से अधिक मुल्यवान् नहीं है। गीता की भाषा में यह स्थित-प्रज्ञता है। वह सब में रहकर सब से परे रहता है। वह समस्त विचारों से दूर रहकर अपने द्वारा अपने आप में संतुष्ट रहता है।' जिसके मन में वासना की दाह अवशेष है वह धन में पहुंचेगा तब भी वासना के प्रसाधन ही जुटाएगा। ये वन और धन उसके लिये आर्तध्यान के हेतु बनेंगे। स्थान का भी महत्व है पर वह साधना की प्राथमिक भूमिका तक सीमित है, अक्षाय की भूमिका पर पहुंचने के बाद साधक कहीं भी रहे उसके चित्त में विकृति प्रवेश नहीं पा सकेगी। टीका:-सुभाचेन भावितास्मानः शुन्यमिव दृश्यतेऽरपयं प्रामे वा धनं सर्वमतद्धि जगद धर्मध्यानाय तस्य भवति यथा शल्यवतश्चित्ते शक्ष्यमार्तध्यानाय । अर्थात् सुन्दर भावों से भाक्ति आत्माएं आकाश वत् निर्लिप्त रहती हैं 1 वम धाम और धन सारा विश्व उसके लिये धर्म ध्यान हेतु होता है, जैसे कि सशल्यचित्त वाले के लिये आर्तध्यान का। दुहरूवा दुरंतस्स णाणावत्था वसुंधरा । कम्मा-दाणाय सव्वं पि कामचित्ते व कामिणो ॥ १६॥ अर्थ:-नाना रूप में स्थित सुन्धरा दुरन्त व्यक्ति के लिये दुःख रुप और कर्मादान की हेतु है। जैसे कामी व्यक्ति के लिये सारी सृष्टि कामोसादक होती है। गुजराती भाषान्तर : નાના રૂપમાં રહેલી આ પૃથ્વી દુરન્ત વ્યક્તિને માટે દુઃખરૂપી અને કર્માદાનમાં કારણ બને છે. જેમ કે કામી, વ્યક્તિને માટે તો આખું વિશ્વજ કામોત્પાદક બને છે, विचित्रताओं से भरी विशाल सृष्टि में माधुर्य है किन्तु जिसका मन-वेदना से पीडित है उसके लिये दुःखद ही हैं । ज्वरग्रस्त व्यक्ति के लिये शीतल सुरमित पवन भी कष्टप्रद ही है। सृष्टि न अपने आपमें सुख रूप है, न दुःख रूप। जिस दृष्टि को लेकर चलेंगे उसी रूप ढलती हुई दिखाई देगी। चकोर के लिये चन्द्र माधुर्य का आगार है तो चकवे के लिये चन्द्र की बञ्चल चन्द्रिका भी दुःख की सृष्टि करती है। दृष्टि का भेद है। दृष्टि बदलिये तो सृष्टि बदल जाएगी। अहेतर्षि इसी सत्य का उद्घाटन कर रहे हैं । वेदना से छटपटाते व्यक्ति के सारी सृष्टि उसी प्रकार दुःख का संदेश देती है जैसे कि कामी के लिये सारी सृष्टि काम की प्रेरणा देती है। टीकाः- दुरन्तस्य तु चिक्ते नानावस्था वसुन्धरा-पृथिवी दुःखरूपा सर्वच कर्मादानाय भवति, यथा कामिनश्चित्ते कामः । गताः । सम्मतं च इयं चेव णिणिदाणो य जो दमो। तको जोगो य सम्वी वि सब्वकम्मखयंकरो ॥१७॥ अर्थः- सम्यक्त्व, श्या, निदान-रहित संयम और उससे होनेवाला समस्त (शुभ) योग सभी कर्मों को क्षय करने वाला है। गुजराती भाषान्तर: સમ્યકત્વ, દયા, નિદાન રહિત સંયમ અને તેનાથી થાય એવા બધા (ગુણ) ગ બધાં કર્મોને નાશ કરે છે. १. प्रजाति यदा कामान् सर्वान् पाथै ! मनोगतान् । आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रशस्तदोच्यते ।। गीता. Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अडतीसवाँ अध्ययन પર पूर्व गाथा में दृष्टि बदलने की प्रेरणा दी गई है यदि दृष्टि बदल चुकी है बाह्य से हटकर अंतर की ओर मुड चुकी है तो साधक सत्य को पा चुका है। अब उसकी दृष्टि सम्यष्टि है । वह वस्तु के प्राणता का पारखी है। उसके हृदय में प्राणिमात्र के प्रति दया का निर्झर बह रहा है। उसकी साधना निदान = फलासफ रहित होती है। फिर उसकी समस्त शक्ति कर्मक्षय करने में प्रवृत्त हो जाती है' सात्थकं यवि आरंभ जाणेजा य णिरत्थकं । पाडिहत्थिस्स जो पतो तडं वातेति चारणो ॥ १८ ॥ अर्थः-- आरंभ सार्थक भी होता है और निरर्थक भी प्रति हस्ति के लिये हाथी कभी तट को तोड़ देता है । गुजराती भाषांतर : કાર્યની શરૂઆત સાર્થક (ફળદાયક ) પણ બને છે. અને નિરર્થક (ફ્ાયદાવગરનું ) પશુ બને છે. કેમકે પોતાના પ્રતિદ્વંદી (હરીફ્ ) હાથીને લીધે હાથી કિનારાને પણ તોડી નાંખે છે. जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये किया जानेवाला आरंभ सार्थक आरंभ है, दूसरे शब्दों में अर्थ दंड हैं, किन्तु मनोरंजन के लिये दूसरे का उत्पीवन निरर्थ हिंसा है-अनर्थक दंड है। उपेक्षा और प्रमाद के द्वारा होनेवाली हिंसा अनर्थ दण्ड हैं | साथ ही आवश्यकता से अधिक संग्रह भी अनर्थदंड के अन्तर्गत आता है । अहिंसा का उपासक श्रावक अर्थदंडों से नहीं बच सकता तो उसे अनर्थ दंड से अवश्य बचना चाहिये । गृहस्थ जीवन की जबाबदारी निभाते हुए श्रावको कभी कभी अन्याय के प्रतिकार के लिये आततायी को दंड देना पडता है । इस रूप में वह स्थूल हिंसा का समाश्रय लेता है फिर भी वह अपनी व्रत मर्यादा से पीछे नहीं हटता क्योंकि उसके मन में अहिंसा की भावधारा बह रही है । अतर्षि बता रहे हैं प्रति हस्ति विरोधी यूथ के आक्रमक हस्ति को हटाने के लिये हाथी कभी कभी अपने तट को तोड़ देता है । इसी प्रकार श्रावक भी अपने परिवार की रक्षा के लिये प्रतिकारात्मक हिंसा का आश्रय लेता है, श्रावक निरपराधी व्यक्तियों को द्वेष भुद्धि से मारने का प्रत्याख्यानी है । सापराध के लिये वह मुक्त है । यदि कोई उसके परिवार पर आक्रमण कर रहा है और वह कायर की भांति भगोडापन दिखाता है तो अपने कर्तव्य से भ्रष्ट होता | कायरता स्वयं एक पाप है । क्योंकि उसमें मानसिक हिंसा छिपी हुई है । कायर हिंसा नहीं करता है ऐसी बात नहीं है वह हिंसा कर सकता। चूहा बिल्ली को मार नहीं सकता तो क्या वह अहिंसक है ? कायर को मारना क्या मरना भी नहीं आता । जीवन के मैदान में बीर एक बार मरता है तो कायर अनेक बार मरता है । एक विचारक भी कहता है- Cowards die many times before their death the valiant taste death but once. जैनदर्शन में कायरता को स्थान नहीं है। फिर मी श्रावक को सहेतुक और निर्हेतुक आरंभ का विवेक तो रखना ही चाहिये और महारंभ से हटकर अल्पारंभपूर्वक जीवन जीने की कला सीखना चाहिये । टीका:- सार्थकमर्थसहितमिवारम्भं करणं निरर्थकं जानीयात् । यथा प्रतिद्दस्तिनं पश्यंस्तं घातयति वारणः । जस्स कजस्त जो जोगो साहेतुं जेण पचलो । कजं वज्जेति तं सव्वं कामी वा जग्ममुंडणं ॥ १९ ॥ अर्थः- जो जिस कार्य के लिये योग्य है वह उसी काम को करे, किन्तु जिस कार्य में जिसका विश्वास नहीं है वह उस कार्य को छोड देता है। जैसे कि कामी पुरुष नमत्व और मुण्डनत्व को छोड़ देता है । गुजराती भाषान्तर : भे માણસ કામ માટે લાયક છે તે તે જ કામ કરે, પરંતુ જે કામમાં જેનો વિશ્વાસ નથી તે તે કામને છોડી દે છે; જેમ કામાસક્ત માણુસ નચૈત્વ અને મુડનત્વને છોડી દે છે. जो व्यक्ति अपने बल और योग्यता के अनुरूप कार्य का चुनाव करता है वह उसमें सफल हो सकता है। हर व्यक्ति के मन में महत्वाकांक्षा होती हैं ऊर बडे बडे काम करना चाहता है। महत्वाकांक्षा रखें और महान काम भी करें, किन्तु प्रत्येक कार्य के प्रारंभ करने के पूर्व अपने आपको तोल लेना चाहिए। चल पडे तो परिणाम में निराशा ही प्राप्त होगी। हमारी महत्त्वाकांक्षाएं पत्थर उठाने की ताकत नहीं है और पहाड़ उठाने शक्ति से संतुलित हो । पहाड फिर पहले पत्थर उठाने १. असमीक्षिता किरणोपभोगाधिकत्वानितत्वार्थ सूत्र अ० ७ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ इति-भासियाई की कोशिश करें तभी हमारी महत्वाकांक्षाएं यथार्थ की धरती पर उतर सकेंगी। अन्यथा ऐसी महत्वाकांक्षाएं केवल मनोहर स्वम बनकर रह जाती हैं । एक विचारक ने कहा है:-Ambition is so powerful a. passion in the human breast that however high we aro lever satisfied."महत्वाकांक्षा मान शक्तिशाली अभिलाषा है कि हम कितने ही ऊंचे पद पर पहुंचे संतुष्ट नहीं होते।" मेक्यिविली. भगवान महावीर ने साधक को प्रेरणा दी-हर साधना प्रारंभ करने के पूर्व तू अपनी शक्ति को तोलना । अपनी स्थिति का स्पष्ट अवलोकन करने के बाद ही आगे कदम रखना, ताकि तुझे आधे मार्ग से वापिस न लौटना पैडे 1 जाणेज्जा सरणं धीरो ण कोडि देति दुग्गतो। ण सीरिय छेटी की मोजाओ ।। ९ ।। अर्थ:-धीर, पुरुष जो शरण दे सकता है १६ (अजेय) किले से युक्त कोरि-पर्वत शिखर भी शरण नहीं दे सकता । दृप्त सिंह कुशल हाथी को मार नहीं सकता और जम्बूक शूगाल उसे खा नहीं सकता। गुजराती भाषांतर :* ઘેર્યશાલી માણસ જેટલું રક્ષણ આપી શકે છે, તેટલું રક્ષણ જીતી ન શકાય એવા કિલાથી યુક્ત કરોડો પહાડોના શિખર પણ રક્ષણ આપી શકતા નથી. મદોન્મત્ત સિંહ ચાલાક હાથીને મારી શકતો નથી અને શિયાળ તેને ખાઈ શકતો નથી, प्रस्तुत गाथा में अईतर्षि बता रहे हैं साधक धीर पुरुष का ही शरण ग्रहण करे। धैर्यशील महापुरुष ही दूसरे को शरण दे सकते हैं। यदि सर्प पीछा कर रहा है तो शक्तिशाली गरुड ही बचा राकता है, किन्तु मेंढक की शरण में गये तो वह क्या शरण दे सकेगा ? महापुरुष का जीवन विशाल वृक्ष का जीवन है जो दुःख की धूप को अपने ऊपर सेलते हैं, किन्तु अपने शरण में आये हुए को शीतल छाया ही प्रदान करते हैं। भगवान् महावीर को शरण लेकर ही चमरेन्द्र प्रथम स्वर्ग लोक तक पहुंच सका और उसने शकेन्द्र को युद्ध के लिये ललकारा और जय शकेन्द्र बज ज्वालाएं छोडता हुआ उसके प्राण लेने आया तो भगवान महावीर की शरण ही उसे बचा सकी। यह घटना उस समय हुई जब कि भगवान महाबीर सुसुमार बगर में दीक्षा सेने के बाद ग्यारहवें वर्ष में तप कर रहे थे। महापुरुष की शरण जिस ढंग से रक्षा कर सकती है वैसी रक्षा विशाल पर्वत के उच्च शिखर पर स्थित कोट भी नहीं कर सकता। प्रस्तुत गाथा की द्वितीय पंक्ति में दर्पित सिंह कुशल हाथी और जम्बूक का वर्णन आता है, किन्तु उसका अभिप्राय स्पष्ट नहीं हो सका । दर्पित सिंह कुशल हस्ति को मार नहीं सकता। पर जम्बुक क्या करता है वह हाथी को नहीं खाता तो वह खा भी कैसे सकता है ? इसके पीछे कोई कहानी होनी चाहिए जोकि उस युग में प्रसिद्ध होगी। अर्थात धीर को शरण भूत समझना चाहिये। अजेय दुर्ग से मुक्त गिरिशिखर शरण मी नहीं दे सकता । दृप्त सिंह अथवा कुशल हस्ति को शुगाल कुपित न करे। यहा "भोज्य पाठ निरर्धक है, क्योंकि शुगाल सिंह को कभी या नहीं सकता। वेसपच्छाणसंबद्ध संबद्धं पारए सदा । णाणा-अरतिपायोग्गं णाले धारेति बुद्धिमं ॥ २१ । अर्थ:-वेश प्रच्छादन-वस्त्रादि से सम्बद्ध युक्त मुनि, मुनि भाव से निरूद्ध पियाओं को रोकता हुआ मिथ्यात्वादि क्रियाओं से असम्बद्ध रहे। बुद्धिमान साधक के लिये अरति-प्रायोग्य वस्तुएं धारण करना ही पर्याप्त नहीं है अपितु उसे मुनि भाव के विरुद्ध क्रियाओं से भी बचना आवश्यक है। गुजराती भाषान्तर: વેષપ્રછાદન એટલે મુનિના વસ્ત્રોથી આચ્છાદિત (યુક્ત) મુનિ, મુનિસહજ આચાર-વિચારોથી વિરુદ્ધ ક્રિયાઓને રોકી મિથ્યાત્વ આદિ ક્રિયાઓથી છેટે (સંસરહિત) રહે. બુદ્ધિમાન સાધકને માટે આસક્તિ ને વિરોધ કરનારો બહિષ જ રાખી ચાલે એમ નથી, મુનિભાવથી વિરુદ્ધ જે ક્રિયા છે તેનાથી પણ બચવું સદંતર જરૂરી છે. १ बलं थामं च पहाए सद्धा मारुग्ग-मपणो । खेत कालं च विनाम तह पाणं निझुंजए-दशवै. अ. ह.-गा. ३२ २ देखो भगवतीसूत्र शतक ३, Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अउतीसवाँ अध्ययन २५३ प्रज्ञाशील साधक संसार की वासना से विरक्त होता है तब उसे अन्नर की उत्क्रान्ति करना आवश्यक है 1 मुमित्व की साधना के लिये केवल बाह्य वेश आदि का परिवर्तन ही नहीं हृदय का परिवर्तन भी आवश्यक है। आज वेश की पूजा हो रही है। मुनिवेश को मुनिल समझ लिया गया है। वेश अपने आप में जड है चैतन्य का पुजारी बेश को झुकता है तो उसकी चतन्य पूजा की सबसे बड़ी पराजय है । वेश में मुनिव नहीं वसता। वेश मुनि-जीवन का उपजीवन है, वह साधन है, जनता के विश्वास की आधार भूमि है । और यहीं तक वेश उपयोगी है, किन्तु उसे ऊपर जलाकर पूजा की वस्नु समस लेना बहुत बड़ी श्रान्ति है। मुनिवेश में रहा हुआ साधक वेश की रक्षा के साथ अपने अन्नर मुनि जीवन की रक्षा के लिये और सदेव जागृत रहे । उसकी वृत्तियाँ और प्रवृत्तियाँ मुनि भाव को क्षत विक्षत हो सके इसके लिये वह संमम के विरुद्ध किसी भी विचार और व्यवहार को वह प्रश्रय न दे।। टीकाः- वेशपच्छादनसंबद्धो रजोइरणादिलिंगसहितो नवतत्वरतो संपद्धं तत्वविरुद्धं, पुरुष सदा वारयेत् नाल भवति धारयितुं बुद्धिमान् नानारतिप्रयोजकम् । अर्थात-वैशपच्छादन चहर आदि से यक रजोहरणादि चिन्हों से युक्त नव तत्व का , विरुद्ध गानी पुरुष से सदा दूर रहे । नानाविध अरतिः प्रयोजक = अर्थात् मानसिक शान्ति को भंग करनेवालों का साथ करना योग्य नहीं होता । अथवा संसार से अगति प्रयोजन वखादि का धारण करना ही पर्याप्त नहीं है, उसके लिये संयम साधना मी चाहिये। यंभचारी जति कुद्धो वजेज मोहदीवर्ण । __ण मूढस्स तु वाहस्स मिगे अप्पेति सायकं ।। २२॥ अर्थः- ब्रह्मचारी यति कुद्ध होकर भी मोहोद्दीपक वस्तुओं का परित्याग करे। क्योंकि मूर्ख शिकारी के बाण मृगको वेष नहीं सकते। गुजराती भाषांतरः બ્રહ્મચારી થતિ ક્રોધાધીન થયા પછી પણ મોહને ઉદ્દીપન કરે એવી વસ્તુઓનો ત્યાગ કરે. કેમ કે મૂર્ખ (મહુમાં પડેલા) શિખારીની બાણુ મૃગને વીધી નહી શકે. अाचारी मुनि कभी कुपित न हो। क्योंकि क्रोध आत्मा की विभाव-परिणति है, फिर भी यदि क्रोध आभी जाए तब भी वह मोहोद्दीपक कार्य कभी न करे । कोध में यद्यपि साधक अपनी साधना को भूल जाता है फिर ब्रह्मचारी के लिये निर्देश है कि वह मोह से सदा बबता रहे । अथवा इसका एक रूप यह भी हो सकता है कि ब्रह्मचारी क्रोध में मोहोहोषक वस्तुओं का परित्याग करे, किन्तु आवेश के क्षणों में किया गया त्याम अप्रशस्त है, क्रोध में आकर मनुष्य भोजन का परित्याग कर देता है, किन्तु वह उपवास ज्ञान-प्रेरित नहीं है, अतः ज्ञानियों को वह स्वीकार नहीं है। फिर भी साधक इतना सावधान तो रहे कि क्रोध के पागलपन में कहीं मोह प्रहार न करदे, क्योंकि क्रोध क्षणिक होता है, किन्तु भोह का प्रहार स्थायी होता है। फिर मोड़ के कीचड़ में फंसा साधक अपनी साधना को उसी प्रकार व्यर्थ नष्ट कर देता है जैसे कि भूखं शिकारी अपने वाणों को। वह अपने लक्ष्य को वेध नहीं सकता। इसी प्रकार मोदशील साधक की साधना निर्माण के लक्ष्य से भ्रष्ट हो जाती है। टीकाः-- सर्वदा न कुष्येन्मुनियंदि तु केनचित्कारणेन ब्रह्मचारी पतिः क्रुद्धः संज्वलेत तदात्मनो मोहदीपन वर्जयेत् मूउस हि व्याधस्य सायको मृगान् न विध्यति एवं मूछो मुनिन मवेज्ञानभाक् । गताथैः । पेच्छाणं चेष रूवं च णिच्छमि विभावए । किमत्थं गायते वाहो तुहिका वावि पश्खिता ।। २३ ।। अर्थः-मुनि देश और रूप का निश्चय से विचार करे । व्याध किस लिये गाता है और पक्षी चुप क्यों है ? केली गौतम चर्चा में मनामुनि केशीकुमार ने देश के प्रश्न को उठाया तब महान साथय गौतम उसका इसी रूप में समाधान करते है:पचयस्थ च लोगरस पाणा विह विगप्पण, लताध गणत्वं न लोगे लिंगमओयर्ण । उत्तरा० अ० २३ गा० ३२.. २ पत्भाणं. Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ इसि-भासियाई गुजराती भाषान्तर:-- મુનિના વેવ અને રૂપને ખાસ વિચાર કરવો આવશ્યક છે. પારધી શું કારણ ગાય છે અને પક્ષીઓ શાને માટે છાનામાના છે? साधक देखे-मनि के वेश और उसकेप अर्थात् मुनि भाव में कहां तक साहचर्य है। वह केवल स्थूल द्रष्य बनकर ऊपरी गज से हीन मापे । उसे भीतर की गहराइयाँ तक प्रवेश करना चाहिए। वह बेश का पूजक बनकर न रह जाए। वह यह भी देख्ने मुनि के वेश के साथ मुनिच भी है या नहीं 1 कोरी वेश पूजा अनाचार की परंपरा बढ़ाती है । वैयक्तिक राम और सांप्रदायिक अभिनिवेश बुद्धि वेश-पूजा को महत्व देती है । मेरी परंपरा और मेरे संप्रदाय का वेश जिसने पहन लिया है यह मेरे लिये पूज्य है। इसका अर्थ यह हुआ मेरा पीतल भी सोना है, और दूसरे का सोना भी पीतल है। धर्म की ओट में जब यह संप्रदायवाद खेलता है तन धर्म का रस सूख जाता है, उसमें दरारें पड़ती है ये दरारें और टुकड़े ही संप्रदाय हैं। यह सांप्रदायिक बुद्धि ध्यक्ति और वेष, पूजा को प्रोत्साहन देती है, गुण-पूजा को दरवाजे से बाहर धकेल देती है। जनदर्शन का मूल स्वर मुज-पूजा हो रहा है,श-दूजा की कमीजसने अपना लक्ष्य नहीं बनायान उसने कभी आपको सांप्रदायिक दीवारों में केद ही किया है। पूर्ववर्ती आचार्यों ने यहाँ तक घोषणा की थी कि मुझे भगवान महावीर के प्रति आग्रह नहीं है। और अन्य दार्शनिकों के प्रति मेरे मन में द्वेष भाद नहीं है। जिसके विचार तर्क की तुला पर ठीक उत्तरते हैं उन्हें ही मेरी बुद्धि ग्रहण करेगी। अहतर्षि वेष-प्रतिमा के स्थान पर गुण-प्रतिष्ठा को विकसित करने की प्रेरणा दे रहे हैं । उसके लिये सुन्दर हपक दे रहे है। वह आकाश में उड़नेवाली चिचिया भी व्यक्ति के बाा को नहीं अन्तर को जानती है शिकारी जब गाता है तब वह चुप हो जाती है। वह शिकारी के संगीत पर मुग्ध नहीं होती, किन्तु उसके हिंसात्मक भावनाओं को परस्वती है। तो श्रावक मुनि के वेश और माझ साधना को न देग्ने, मैले वस्त्रों की आचार का प्रतीक न समझे, न मधुर संगीत को आत्मा की स्वर लहरी न मान वे। कभी कभी मैले कपड़ों में जीवन का मैल छुपता है तो कभी भीषण बाह्याचार के नीचे अत्याचार कसकता है। अतः यह वेष नहीं साधना को देखे । रूप नहीं, गुण का पारखी बने । टीका:-प्रस्छादनं येष रूपं लिंग निश्चयमेव विभावयेत् । किमर्थ गायति ख्याधस्तूष्णीका भवन्ति पक्षिणः? गायतोऽपि छ्याधस्य हननाभिन्नार्य वेषाच लिंगाचानुमान्ति विहगा इति भावः । गतार्थः । “विशेष=नेष और लिंग से पक्षीगण गाते हुए शिकारी के मारने की भावना को समझ लेते हैं।" कजणिचत्तिपाओग्गं आदेयं कजकारणं । मोक्खपिणव्यतिपाओग्गं, विण्णेयं तु विसेसओ ॥२४॥ अर्थ:-किसी कार्य की रचना के लिये उचित कार्य कारण अपेक्षित है। किन्तु मोक्ष की निवृत्ति के रचना के लिये विशिष्ट कार्य कारण अपेक्षित है। गुजराती भाषान्तर: કોઈ પણ કાર્યોની રચના માટે યોગ્ય કાર્યકારણની અપેક્ષા હોય છે, પરંતુ મોક્ષની રચના માટે ખાસ કારણુની આવશ્યકતા રહે છે. कार्य की सफलता के लिये हमें कार्य कारण भाव को समझना चाहिए। यदि कारण निर्बल है तो कार्य भी निर्बल रहेगा। क्योंकि कार्य की प्रसवभूमि कारण है । यदि तन्तु-धागे स्वराब हैं तो कपडा सुन्दर नहीं बन सकता । एक तर्क है-साध्य ठीक होना चाहिए, साधन फिर कैसे मी हो तो चलेगा। किन्तु यह तर्क लचीला है। यदि कार्य और कारण दो भिन्न वस्तुएं है तब ठीक है; अन्यथा कार्य कारणों का परिपक्क रूप है तब साधनों को तुच्छ गिननेवालों की मिट्टी खिसक जाएगी। यदि इंट के प्रति उपेक्षा की गई तो भादन की जलधारा मकान को ढेर कर देगी। क्योंकि इंटों ज्यवस्थित समूह ही तो मकान है। गुणाः पूजास्थान गुणिपु नच सिंग नच चयः । -उत्तररामचरित. २ पक्षपातो न मे दीरे, नपः कपिलादिषु । । युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।। हरिभद्र सूरि. Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अडतीसवाँ अध्ययन २५५ बाह्य या आन्तरिक कार्य सबके लिए साधनों का ठीक चुनाव करना होगा । साधन अनुचित है तो साध्य गठबया जाएगा । सीधी सी बात है। घड़ा मिट्टी से बन सकता है, धागों से नहीं, क्योंकि घट निर्माण के लिए धागे अनुचित कारण हैं । मोक्ष प्राप्ति के लिये समुचित कारण अपनाने होंगे। मोक्ष प्राप्ति का उद्देश्य बना लेने पर भी यदि उसके प्रसाधन अयोग्य हैं तो भी विडम्बना होगी। मोक्ष के पागलों ने काशी में सिर कटवा लिये पर क्या उन्हें मोक्ष मिल गया! 1 जब तक पुद्गल संसक्ति और विभाव दशा की आसक्ति समाप्त नहीं होती तब तक मुक्ति केवल कल्पना है। उसके लिये सम्यगदर्शन सम्यग्ज्ञान औद सम्यक् चारित्र ही सुयोग्य प्रसाधन है। अतः साध्य की सिद्धि के लिए योग्य साधनों की ठीक ठीक पहवान आवश्यक है। टीकाः---लौकिककार्यनिवृत्तिनयोजके कार्यकारणे मादेये ते एव मोक्षनिर्वृतिप्रयोजके विशेषतो बिशेये । गताः । परिवारे व वेसे य भावितं तु विभायए । परिवारे यि गंभीरे ण राया णीलजंधुओ ॥ २५ ॥ अर्थ:-परिवार में हो या मुनि वेश में भावित आत्मा ही विशिष्ट भाव दशा पा सकता है । विशाल परिवार में होने पर भी नील जम्बूक राजा नहीं हो सकता। गुजराती भाषान्तर: પોતાના પરિવારમાં ગૃહસ્થ હોય કે મુનિષમાં હોય તે પણ ભાવિત આત્મા જ વિશિષ્ટ ભાવદશા મેળવી શકે છે. મોટા પરિવારમાં રહેનાર નીલ અંબૂક (વાદળી રંગમાં રંગાયેલી શિયાળ) રાજા બની શક્તો નથી. कोई भी व्यक्ति परिवार में रहता है या गुनिवेश में । यह प्रश्न उतना महत्व नहीं रखता जितना कि उसका आत्मविकास । यदि वेश बदलकर भी गान नहीं बदला तो उस वेश बदलने का कोई अर्थ नहीं है। परिवार में भी ऐसी बहुत सी आत्माएं मिल आवेगी, जोकि गंभीर साधना कर रही है। जब कि मुनिवेश में भी विपथगामी आत्माएं मिल सकती है, अतः वेश को संयम का प्रतीक मान लेना अपने आप में एक गंभीर भूल है । इसीलिये महा श्रमण भ. महावीर पाबापुरी की अपनी अन्तिम देशना में इस सत्य का उद्घाटन करते हुए कहा था-कतिपय साधुओं से गृहस्थों का शील और संयम श्रेष्ठ हो सकता है। फिर भी हमें यह भी न भूलना होगा कि समस्त गृहस्थों से साधुओं का संयम श्रेष्ठ होता। विशाल परिवार के बीच भी ऐसी आत्माएं मिल सकेंगी जिनका जीवन उनसे भी श्रेष्ठ है कि जिन्हें कि हमारी आंखें पवित्र देखती हैं। दूसरी ओर विशाल शिष्य-परिवार के द्वारा किसी की साधना को मापना भी गलत होगा । आज विशाम शिध्य-परिवार को देखकर उन्हें विशिष्ट पद दिये जाते हैं । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने कहा तत्व विनिश्चय और अध्यात्ल साधना के अभाव में यदि शिष्य-समुदाय बढ़ता है तो वह साधक को सिद्धान्त का अनुगामी नहीं, प्रतिगामी अनाता है। तः पारिवारिक विशालता किसी को महत्वपूर्ण पद बिठा नहीं सकती। फिर आज के युग में जबकि बढ़ती हुई संख्या एक अभिशाप मानी जा रही है। अतिर्षि कहते है परिवार से घिरा हुआ और रंगा हुआ शुमाल राजा नहीं माना जा सकता। यह एक लोकप्रसिद्ध वार्ता है। एक शगाल एक वार नगर में आया रेग के बर्तन में मिल गया। अपने रंग रूप को देखकर उसने अपने आपको वन का राजा घोषित किया । वनपशुओं की विशाल सभा जुडाकर बैठा भी किन्तु उसकी शाही शान उसी क्षण मिट्टी में गई जबकि वनराज आ पहुंचा। अतः साधना के पथ में बढ़ने के लिये कपड़े नहीं आत्मा को भदलने की आवश्यकता है। यदि आत्मस्थिति बदल चुकी है और कपड़े न भी मदले तब भी वे कपड़े आपकी मुक्ति में बाधक नहीं हो सकते । गृहस्थलिंग सिद्धा को खीकार कर जनदर्शन ने इस सस्य का उद्घोष किया था। माता मरदेवी और उनके पति चक्रवर्ती भरत इस कथन के ज्वलत प्रमाण हैं। १ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। -तत्वार्थ: अ०१ सू०१. २ संति पगेहि भिक्खुहि गारस्था संजमुत्तरा । गारत्येहि सन्देहिं साहयो संगमुजरा || -अप्सरा० अ०५ गा० २०, ३ जह जह बहुस्सुओ सम्पनीय सिरसगण संपरिबुद्धो म । अविणिच्छिो य सनग्ये तह तह सिवन्त परिणीओ।। -सन्मतिप्रकरण ३-६६, Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ इसि-भासियाई टीकाः- परिवारेण च घेषेण च यद्भावितं सन् विभावयेन च ताम्यां यञ्चयेत परिवारेणाऽपि गंभीरेण परिवृतो नीलजम्बका कथाप्रसिद्धो न राजाऽभवरष्टापदानामवंचनीयत्वात् । गतार्थः । भत्थादाई जणं जाणे णाणा-चित्ताणुभासकं । अत्थादाईण वीसंगे पासंतस्स अत्थसंततिं ।। २६ ॥ अर्थ:-अर्थ (धन) का लोभी व्यक्ति नानाविध रूप में चित्तहारी मधुरभाषा-भाषी समझना चाहिये । अथना ज्यादा मधुरभाषी को अर्थ का इच्छुक समझना चाहिए और उगकी अर्थ-परंपरा को देखकर लोभी व्यक्ति से दूर रहना ही श्रेष्ठ है। गुजराती भाषान्तर: અર્થ એટલે દ્રવ્યને લોભી માણસ અનેક રૂપમેં મીઠા મીઠા શબ્દોથી આપણા તરફ બીજાનું અતઃકરણ ખેચી લઈ લે છે. બીજા શબ્દોમાં એમ કહી શકાય કે મીઠા શબ્દો બેલનારો માણસ ધનને અભિલાષી હોય છે, તેથી આવા માણસથી છેટે રહેવું જ એ પ્રશસ્ત છે. जिसके मन में संपत्ति की भूख लगी है वह किसी से बात करता है तो उसका बोलने की शैली इतनी मीठी होगी कि वाणी कला के द्वारा वह उसके हृदय में प्रवेश कर जाता है और अपनी इच्छित वस्तु निकलवा लेता है। दूसरी ओर यह भी ध्यान रखना चाहिए जो आपसे बहुत मीठी बातें कर रहा है उसकी मीठी बातें भी कोई अर्थ प्रती हैं । किसी प्रयोजन से ही आपसे इसना मीठा बोल रहा है। अतः लोभी के दिल को समझना चाहिये उसकी अर्थ पिपासा को देखना चाहिये । उसे अर्थ नहीं, अर्थ संतति चाहिये, अर्थात यदि जसका न चले तो अपनी पीलियों के लिये भी संपत्ति माग ले, अतः उसके मन की विशाल तृष्णा की पूर्ति करना कठिन है। एक विचारक ने ठीक कहा है-Apoor man wants some thing, scorentous mutn all things. गरीब थोड़े से संतुष्ट हो सकता है जबकि अमीर की मांग सदैव ज्यादा होगी। अतः अतर्षि कहते हैं तृष्णालू व्यक्तिसे सदैव दूर रहो। "पाखेतरस" का पाठान्तर दासंतस्स । उसका अर्थ यह होगा कि जो लोभी का संग नहीं करता अर्थ संतति उसके लिये दासवत् रहेगी । लक्ष्मी छाया-सी है उसके पीछे दौड़ेंगे वह आगे दौरेमी और यदि आपने उससे मुंह मोड़ लिया फिर यह आपके पीछे दौड़ेगी। आचार्य मानतुंग आदिनाथ स्तोत्र की परिसमाप्ति पर एक मार्मिक उक्ति कह गये हैं-प्रभो ! जिसने आपके गुण रूप पुष्पों से प्रथित यह स्तोत्र रूप माला जो पहनेगा लक्ष्मी उसके पास अरबस चली आएंगी। टीका-अर्थाशमिनमर्थलोभिनं जनं जानीयात् नानाचित्तानुभाषकमन्यमानानुगामिनम्, तस्माद् अर्थ-संतात 'निरन्तरार्थलोभं पश्यतः श्रेयान् भवत्यर्थादायिभिर्विसंगो वियोगः । भतार्थः । उंभ-कप्पं कत्तिसम्म णिकछयम्मि विभावर। णिखिलामोसा कारितु उवचारम्मि परिनछती ॥ २७ ॥ अर्थ:- दम्भपूर्ण आचरण निश्चय में सिंह के चर्म से आवृत शुपालवत् समझना चाहिये । संपूर्ण रूप से असत्या. चरण करनेवाला उपचार से परखा जाता है। गुजराती भाषान्तर: દંભથી પૂર્ણ એવું આચરણ સિંહના આમડામાં છુપાએલ શિયાળના જેવું છે, એમ સમઝવું. હરએક રીતનું બનાવટ આચરણ કરનારા માણસની ઓળખાણ તેના આચાર-વિચાર તેમજ સંભાષણથી કરી શકાય છે. . जिसके अन्तर और बार दोनों में वैषम्य है ऐसा दम्भी साधक वह उस शृगाल जैसा है जो सिंह की खाल में घूमता है और पशुओं का राजा होने का स्वप्न देखता है। किन्तु जिस क्षण वह कार्य करता है या बोलता है तमी उसकी परीक्षा हो जाती है। मुनि के वेश में घूमनेवाले मिथ्याचारी व्यक्ति जनता के समक्ष अपने भापको महान पहुंचे हुए १ दासंतस्स. २ स्तोत्रम सब जिनेन्द्र गुणौनियाम् माला मया चिरवर्णविचित्र पुष्पाम् । धत्ते जनो इह कंठगतामजन सं मानतुनमवशा समुपैति लक्ष्मी: 11 भक्तामरस्तोत्र कोक० ४८. Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अडतीसवाँ अध्ययन सन्तसिद्ध करना चाहता है । मैले वस्त्र, वाह्य क्रियाकाण्ड और दूसरों को शिथिलाचारी बताना ये हैं। उनके प्रसाधन, जिनके द्वारा वे अपने आपको महान आचारशील मुनि सिद्ध करते हैं और भोली स्थूलदशी जनता उन्हें उस रूप में मान भी लेती है, किन्तु जो उनके मीतर उतरता है उसे नहा कुछ दूसरा रूप दिखाई देता है और दम्भ के आधार पर खा किया गया मचल ढेर हो जाता है। टीका:-- दम्भ कल्प कृत्तिसमं कृत्वा जम्बूकसमानं निश्चयेन विभावयेत् निखिलं राजप्रतापस्यामोषं फत्वोपचारे वृतो परीक्ष्यते विज्ञायते । गताः । सन्यभावे दुबल जाणे णाणा-वण्णाणुभास । पुप्फा-दाणे सुणदा वा पधकारधरं गता ॥ २८ ॥ अर्थ-मनुष्य का समाव बहुत दुर्बल होता है । वह अनेक वर्ण ( रूप ) का आभास देता है । पुष्प को लेने के लिये सुनंदा प्लवकार ( नाव बनानेवाले) के घर गई । गुजराती भाषांतर: માણસનો સ્વભાવ ખરેખર ઘણુંજ નબળો હોય છે. તેથી અનેક વર્ષો (રૂપ)ના આભાસ થાય છે, સુનંદા ફૂલો લેવા માટે હોડી બનાવનારને ઘેરે ગઈ. मनुष्य का स्वभाव बड़ा विचित्र होता है। अभी वह सुन्दर रूप में है, किन्तु अगले ही क्षण उनका क्या हप होगा कुछ कहा नहीं जान पन्त गरारी केला कल सती भी हो सकती है ! । नगरवधू कोशा के रूप पाश में बंधे बिलासी कुमार स्थूलभद्र को देखकर कौन कह सकता था कि यह एक दिन काम-विजेता महान सन्त स्थूलिभद्र बनेगा और यह भोग की प्रतिभा के अपने पूरे सौन्दर्य के साथ भी उसे अपने रूप जाल में फंसा नहीं सकेगी : । विराग का पथिक भोग को त्याग की ओर खीच सकेगा । सती के रूप में पूजे जानेवाली नारिया अपने पूर्व जन्मों में किस रूप में रहीं होगी कौन कह सकता है। इसी लिये जनदर्शन कहता है किसी के वर्तमान रूप को देखकर उसके जीवन का फैराला न हो । उस पर घृणा न बरसाओ। संभव है एक दिन चे महान खेत हो सकते हैं और उनके आलोचक उनसे भी नीची भूमि पर जा सकते हैं जिनकी कि आज वे आलोचना कर रहे हैं। दुःख-विपाक की दुःखभरी कहानियां अपने पास एक सत्य रखती हैं। तो भगवती सूत्र में वर्णित गौशालक की कहानी भी एक तथ्य रखती है । भगवान महावीर गणधर देव गौतम प्रभु के समक्ष उन आत्माओं के जीवन पर्द उठाते जाते हैं, उसमें नै दृश्य भी आते हैं जबकि उनके जीवन की काली कहानियों को देखकर उन परिजन और प्रिंय भी घृणा से मुंह फेर लेते हैं। मारकाट हत्याभरा जीवन देखकर ऐसा लगता है इनका जीवन सूना रेगिस्तान है। जहां प्रेम कोमलता और करुणा का छोटा वृक्ष भी नहीं है, किन्तु दृश्य बदलते है और आखिरी पर्दा हटता है तो वह रूप सामने आता हैं कि हमारी अपनी आंखों पर हमें विश्वास नहीं होता ।। क्या यह वही है जो एक दिन बिना प्रयोजन के प्राणियों को मौत के घाट उतार देता था। आज उसका प्राण घातक व्यक्ति उसके सामने उपस्थित है। वह जानता भी है यह मेरे प्राणों की इत्या करने आया है। फिर भी मन के एक कोने में बैर और द्वेष की चिनगारी नहीं निकलती। देखते देखते कैवल्य की अनंत ज्योति से थे जगमगा उठते हैं। जिनके लिये मानव भी धृपा से मुंह फेर लेते थे, आज उन्हीं के लिये देवगण दौड़े आ रहे हैं । अाकाश में देव दुंदुभियां गगहाती हैं । अतः व्यक्ति कम क्रिस क्षण बदल जाएगा कह नहीं सकते। अथवा स्वभाव से दुबेले प्राणी अनेक रूप में बोलता है उसकी मनःस्थिता सम नहीं पड़ती, कभी वह किसी यान को स्वीकार करता है तो दूसरे ही क्षण इन्कार भी कर देता है । इस तथ्य की पुष्टि के लिये अतिर्षि ने सुनन्दा की कहानी दी है जो पुष्प लेने के लिये नौका बनानेवाले के घर जाती है, किन्तु वह प्राचीन कथा अज्ञात है। टीकाः- स्वभावे दुर्यले जानीयात् नानावर्णानुभाषक विविधजात्यनुकारिणम् , यथा सुनन्दा पुष्पाऽऽदाने सव-कारगृहं गता । अस्य तु श्लोकस्वार्थः कथाया अज्ञातवादस्पष्ट एव । गतार्थः । विशेष प्रस्तुत श्लोक के उत्तरार्ध में कथा का संकेत है, किन्तु वह अज्ञात है । अतः जतरार्ध स्पष्ट नहीं हो सका। ३३ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ इसि-भासिया दवे खेत्ते य काले य सव्वभावे य सम्वधा। सम्बेसि लिंगजीवाणं भावणं तु विहायए ॥ २९ ॥ अर्थ :-द्रव्य, क्षेत्र और काल सभी भावों और सभी लिंगों के द्वारा रहे हुए जीवों की भावना को समझना चाहिए । गुजराती भाषान्तर: દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર અને કાળ બધા ભાવ અને બધા લિંગો દ્વારા રહેનારા જીવોની ભાવનાને સમજવા જોઈએ. प्रस्तुत अध्याय का उपसंहार करते हुए अर्हतर्षि बना रहे हैं, इस विराट विश्व में अनंत अनंत आत्माएं हैं और सबका वध्य, क्षेत्र काल भाव लिंग समी पृथक् हैं और सबकी भावनाएं पृथक हैं, अतः साधक विवेकपूर्वक सवको समझने की चेष्टा करे। हर व्यक्ति की अपनी परिस्थिति भिन्न होती है। हर व्यक्ति की भावनाएं पृथक् होती हैं । सबकी शक्ति समान नहीं होती। अतः सबको एक ही गज से नहीं नापना चाहिए। दो व्यक्ति एक समान अपराध करते हैं, फिर भी दोनों को समान दंड नहीं दिया जा सकता। क्योंकि दोनों की परिस्थिति पृथक् पृथक् होती है। एक भूक से पीड़ित होकर चोरी करता है। दूसरा पड़ोसी की संपत्ति देखकर जलता है। उसे भिखारी बनाने के लिये चोरी करता है। पहला पेट भरने के लिये चोरी करता है। दूसरा पेटी भरने के लिए । एकके पास तन की भूमा समस्या है तो दूसरे के पास मन की भूख है। आगम में भी अपराधों की दो गिर गई गई..पत सो ईमान के पोषण लिये लोगों का सेवन करता है, दूसरा संयम साधना के कठिन स्थानों को पार करने के लिए दोष सेवन करता है। ये दोनों दोष विधियों दर्पिका और कल्पिका कही जाती हैं। दोनों के बीच भावनाओं का बहुत बड़ा विभेद है । अतः दोनों की प्रायश्चित्त विधि में भी विमेद है। . कोई अपराधी पकड़ा जाता है । कानून उसका प्रमाण मांगता है, अपराध की स्वीकृति मिलने पर बह दंड दे देता है। किन्तु वह यह नहीं देखेगा कि इसने वह अपराध क्यों किया है। इसी लिये तो कहा जाता है 'कानून अंधा होता है। विचारक के पास खुली आंखें हैं वह देखता है। अपराध हुआ है किन्तु साथ ही वह इसकी पार्वभूमि भी देखना चाहेगा कि किन परिस्थितियों से विवश होकर इसने अपराध किया है। उसके सामने दूसरा विकल्प था या नहीं ? । यदि नहीं था और इसने दोष का सेवन किया है तो आसक भाव से किया है या अनासक भाव से । जितना आवश्यक था उतना ही क्रिया है या उससे ज्यादा या क्रम? | विचारक व्यक्ति और उसकी परिस्थितियां और उसकी भावनाओं को तोलता है और सभी निर्णय देता है। ___अहतर्षि कह रहे हैं किसी भी व्यक्ति के लिये अच्छा या बुरा निर्णय न दो। उसकी स्थिति भावनाएँ सबका अवलोकन करो। टीका:-द्रव्ये क्षेत्रे च काले च सर्वभावे च सर्वथा सर्वेषां लिंगवतां जीवानो भावना विभावयेत् । गतार्थः । एवं से सिद्ध बुद्धेः ॥ गतार्थः ॥ इइ साइपुत्ति मामज्झयणं । इति सातिपुत्र अर्हतर्षिभाषितम ष्टाविंशतितममध्ययनम् ॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजय अहर्षि प्रोन्न । उनचालीसवा अध्ययन मनुष्य हजार बार 'ही' कहता है तो उसे एक बार 'ना' कहना भी सीखना चाहिये । वह पाप के लिए इन्कार कर दे। जब कभी भन अशुभ की ओर जाए उसे रोक दे । मानव पाप से अपने को बचाता है तो वह इन्कार उसे हजार आपतियों से बचाता है। पाप की प्रसवभुमि मानव का मन है। पहले वहीं वह जन्म लेता है तब वाणी उसे बाहर व्यक्त करती है और देह उसको क्रियात्मक रूप देता है। पाप क्या है ? कुछ विचारक कहते हैं-'मनुष्य परिस्थितियों का दाम है, अतः परिस्थिति से प्रेरित ही जो कार्य करता है। दुनियो उसे अपने सांचे में ढल कर पाप पुण्य की संज्ञा देती है। पर यह तर्क की कसोटी पर ठीक नहीं उतरता । यदि मनुष्य परिस्थितियों का खिलौना मात्र है तो उसका अपना अस्तित्व ही क्या रहा? मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं, उसका विधाता है जब वह शुभ संकल्प लेकर चलता है तब उसकी प्रेषित भावधारा पुण्य के परमाणुओं को आकर्षित करती है; वही पुण्य है और भावधारा अशुभ की ओर बहती है तब अशुभ अध्यवसाय पाप के परमाणुओं को आकर्षित करते वही पाप है। खामी रामतीर्थ ने ठीक कहा है- कोई भी कर्म अपने आपमें पुण्य नहीं है, बिन्दु या शून्य का स्वतः कोई मूल्य नहीं होता । व्यक्ति के मन की छाया उस पर गिरती है उसी रूप में बह ढल जाता है। शुभ धारा उसे शुभ की ओर मोड़ देती है और तभी बढ़ता है जब कि मन में पाप होता है । बालक युवाते वृन्द के निकट खेलकर भी निष्पाप रहता है। प्रस्तुत अध्ययन में बताया गया है पाप क्या है और उससे मुक्त कसे हो सकते हैं। जे इमं पावकं कम्मं व कुजाण कारवे । देचा विणर्मसंति धितिम दित्ततेजसं ॥३॥ अर्थ:- जो व्यक्ति इस पाप कर्म को नहीं करता है और दूसरों से नहीं करवाता है उस धृतिमान वीस तेजवी को देवता भी नमस्कार करते हैं। गुजराती भाषान्तर: જે માણસ આ પાપ કર્મને કરતો નથી અને બીજને પાસેથી પણ કરાવતા નથી તેવા ધર્યશાલી, દીપ, અને તેજસ્વીને દેવતાઓ પણ નમસ્કાર કરે છે. साबक पापों से दूर रहे । न स्वयं पाप परिणति में लिप्त हो न अन्य व्यक्ति को उस ओर प्रेरित ही करे । ऐसा निष्पाप साधक दिव्य तेज से आलोकित रहता है। अहिंसा और करुणा की सौम्य भावधारा उसके मानन पर अठखेलियां करती है। इसीलिये देवगण भी उसके चरणों में झुकते हैं। यपि मौतिक वैभव में देव-सृष्टि मानव की अपेक्षा विशिष्ट है, पर आध्यात्मिक क्षेत्र में तो मानव से बहत पीछे हैं। संगमर्मर का फर्श खेत की काली मिट्टी की अपेक्षा अधिक मुरम्य है और वह मन को मोह.भी लेता है पर जीवन के लिये तो संगमर्मर के सुरम्य भवनों से खेत की काली मिट्टी ही अधिक उपयोगी है, क्योंकि एक दाने को हजार गुणित कर मानव को धान्य राशि का उपाहार देने का काम काली मिट्टी ही करती है । सर्वार्थ सिद्ध के विमानवासी देव तेतीस सागर पर्यन्त प्रयत्न करें तब भी केवलज्ञान नहीं पा सकते; जबकि मानव का पुरुषार्थ सही दिशा में गति करे तो अस्तालीस मिनिट में केवलज्ञान पा सकता है। भौतिक वैभव की दृष्टि से महान देवगण भी आध्यात्मिक वैभवशाली मानव के चरणों में झुकता है। टीका:-- य इदं पापं कर्म न कुर्यात् न कारयेद्, देव अपि तं नमस्यन्ति धृतिमहीलतेजसम् । गतार्थः । जे गरे कुव्वती पावं अंधकार मह करे। अणवजं पंडिते किच्चा आदिच्चे व पभासती ॥ २ ॥ अर्थ:--जो मानद पाप कर्म करता है वह अंधकार फैलाता है। जबकि पंडित पुरुष अनक्य कर्म करते सूर्य की भांति प्रकाशित होता है। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० सि-भासिया गुजराती भाषान्तरः જે માણસ પાપનું કામ કરે છે તે દુનિયામાં અંધારું ફેલાવે છે, જ્યારે બુદ્ધિમાન માણસ નિર્દોષ (શુદ્ધ પુણ્યનું કામ કરી સૂર્યના જેવો અજવાળો ફેલાવે છે. अशुभ परिणति स्वयं अंधकार में है। वह जहाँ जायमा सर्वत्र अंधकार फैलाएगा। जिसने प्रकाश पथ पाया है, वह प्रज्ञाशील पुरुष निण्याप जीवन बिताकर पुण्य की प्रभा से पालोकित हो सूर्य की भौति विश्व को प्रकाश किरण देता है। . सिया पावं सई कुजा ण तं कुजा पुणो पुणो । णाणि कम्मं च णं कुजा साधु कम्म विद्याणिया ॥३॥ अर्थः-पाप का प्रसंग उपस्थित हो और एक बार पाप हो जाए तब भी साधक उस पाप को पुनः पुनः न करे। किन्तु ज्ञानी श्रेष्ठ कर्मों को पहिचान कर उन्हीं में सदैव प्रवृत्त हो । गुजराती भाषान्तर:---- કદાચ પાપ થવાને પ્રસંગ આવે અને અમારા હાથે પાપકૃત્ય પણ થઈ જાય તો તે ફરીવાર કોઈપણ હાલતમાં ન થાય એવી કાળજી સાધકે રાખવી. જ્ઞાની માણસે આ ઉગ્ર કાર્યો છે એમ સમને જ હંમેશા તેમાં પોતાની પ્રવૃત્તિ રાખવી. * कभी कभी मानव को अनिच्छापूर्वक भी किसी अनिष्ट प्रत्ति में भाग लेना पड़ता है। किन्तु उस समय भी उसकी शान चेतना खुली रहे । पाप को पाप माने और उसके जल्दी ही अलग हद जाने का विचार रखे । लज्जाशील ग्यरित एक बार कभी कहीं फिसल गया तो उसे वह भूल सदैव कचोटती रहेगी और पुन: कभी भी उस ओर कदम नहीं बढ़ाएगा । गिरना खभाविक है,पर गिरकर वहीं पड़े रहना दुर्वलता है; गिरकर उठ खडे होना बहादुरी है। एक इंग्लिश विचारक कहता है M like it is to fall into ain, friendlike it is to lwell therein, christlike it is or sin to grieve, oldlike it is all sin to live. पाप में पड़ना मानव स्वभाव है, उसमें डूबे रहना शैतान खभाव है, उस पर दुःखित होना सन्त-म्पभाव है और सब पापों से मुक्त होना ईश्वर स्वभाव है ।-~लोगफेलो. ' सिया......कुला तं तु पुणो पुणो णिकाय च णं कुजा साहु भोजो वि जायत्ति रहस्से खलु भो पावं कम्म समजिणित्ता दवाओ खेत्तओ कालओं भाव घेत्तओ कालओ भावओ कम्मओ अज्झवसायओ सम्मं अपलीयंचमाणे जहत्थं आलोपजा! अर्थः-यदि पाप कर्म कमी हो जाय पुनः पुनः उसका आचरण करके उसका समूह न बनावे जिससे कि साधक को पुनः जन्म लेना पड़े। गुप्त रूप से पाप किया हो तब भी उसको द्रव्य क्षेत्र काल और भाव से कर्म (क्रियात्मक रूप से) और अध्यवसाय से सम्यक् प्रकार से किसी से निपट रूप से यथार्थ आलोचना करे । गुजराती भाषान्तर: જે કદાચ ( અજ્ઞાનથી) પાપકૃત્ય પિતાને હાથે થઈ ગયું હોય તે તે ફરી કરી તેની વૃદ્ધી થવા દેવી નહીં, જેને લીધે સાધકને ફરી આ સંસારમાં જન્મ લે પડે. કદાચ પાપકૃત્ય એકાંતમાં થઈ ગયું હોય તો તે પાપને દ્રશ્ય, ક્ષેત્ર, કાલ અને ભાવથી કર્મ ( ક્રિયાત્મક રૂપથી) અને અધ્યવસાયથી સારી રીતે નિષ્કપટ રૂપથી સાચી રીતે આલોચના કરે. । मानव से भूल होना स्वाभाविक है, किन्तु प्रशाशील साधक मूलों की आवृत्ति नहीं होने दे। क्योंकि एक भूल क्षम्य हो सकती है, किन्तु भूलों का समूह भयंकर परिणाम मी ला सकता है। अतः भूलों का परिमार्जन करते रहे। यदि एकान्त में भी पार किया गया है तब भी हृदय-शुद्धि के साथ उसकी आलोचना होनी चाहिए । फिर मी उसमें ट्रय्य क्षेत्र काल और भाव को बिचेक तो रखना ही चाहिए, आलोचना सुनने के लिये पात्र भी खोजना चाहिए। सुयोग्य पात्र मिलने पर शुद्ध अभ्यवसायपूर्वक निष्कपट आलोचना करे। कपट सहित आलोचना से आत्मशुद्धि संभव नहीं है। क्योंकि रोगी डाक्टर से छल करके कमी स्वस्थ नहीं हो सकता । आलोचना में निष्कारता को स्थान है। टीका:- चतुर्थस्य पूर्वाधमपूर्णम् । उत्तरार्ध तु कर्मसंचयधिषयम् । यस्य विपाकेन साधुभूयोऽपि जायते । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उम चालीसवाँ अध्ययन रहस्ये खलु भो पाप कर्म समयं द्रम्यतः क्षेत्रतः कालतः भाकः कर्मलेऽध्यवसायतः सम्यग् अपरिकुंचमानोऽनि गृहमालोचयेत् । चतुर्थी श्लोक का पूर्वार्ध अपूर्ण है और उत्तरार्ध कर्म संचय विषयक है। जिसके परिणाम में साधु पुनः जन्म लेता है। शेष का अर्थ ऊपरवत् है । संजवणं अरहता इसिणा बुहतं ण वि अत्थि रसेहिं भइ एहिं संवासेण य भहरण य । जत्थ मिप काणणोसिते उद्यणामेति बहाए संजय ॥ ५ ॥ अर्थः- :- संजय अर्हतर्षि बोले- मुझे सुन्दर रसों से और सुन्दर निवास स्थानों से कोई प्रयोजन नहीं संजय वन में रहे हुए मृग को मारता है। २६१ । जहां कि गुजराती भाषान्तर : સંજય અદ્વૈતર્ષિ કહેમને મધુર રસ અને સુંદર મોજીલા મંઝિલોમાં રસ નથી, જ્યાં સંજય વનમાં વસતા મૃગોને મારે છે. 1 हिंसा के द्वारा भी थोड़ी देर के लिये मनुष्य भौतिक सुख के प्रसाधन प्राप्त कर सकता है किन्तु उनके द्वारा सभी शान्ति नहीं पा सकता। अपने छोटे जीवन के लिये वह प्राणियों का हिंसा करता है। इस जीभ के लिए हजारों प्राणियों का खून बहता है। सुन्दर निवास प्राप्त करने के लिये भी वह हिंसा करता है, किन्तु ने हिंसा जन्य प्रसाधन उसे चैन से रहने नहीं देते। उसकी मानसिक शांति समाप्त हो जाती है। फिर आध्यात्मिक शान्ति तो उसके बहुत दूर है। संजय अर्द्धतर्षि कह रहे हैं मुझे उन सुन्दर सरस पदार्थों और सुन्दर निवास स्थानों से कोई प्रयोजन नहीं है, जहां कि संजय काननवासी मृगों को मारने के लिये लाता है । यह संजय कौन है ?, पइके संजय, दूरा। शिकार करनेवाला संजय हैं। दोनों एक ही हैं या मिन ? | ऐसा लगता है दोनों एक ही होने चाहिये। अतर्षि अपने पूर्व जीवन की स्मृति कर रहे हैं। उन मधुर आस्खादनों के लिये और सुन्दर भवनों के लिये मेरे मनमें अब कोई रस नहीं रह गया है, जिनके लिये मैंने मृगों की हिंसा की थी। उन्हें अपने हिंसात्मक कृत्यों के लिये मार्मिक वेदना हो रही है। यह मृग वध के लिये जानेवाला संजय उत्तराध्ययन सूत्र के कम्पिल नरेश संजय से मिलता है। वह भी मृगया के शौकिन है। वन में एक मृग को बाणों से वीं देता है। किन्तु जब आहत मृग मुनि गर्गभात्रि के निकट जाकर गिरता है। उधर अश्वारूढ राजा भी वहाँ आता है और सोचता है मैंने आसक होकर ऋषि के मृग का वध कर दिया है। ध्यानस्थ मुनि जग उसे स्वागत नहीं देते हैं तब राजा और भयभीत हो जाता है और उसने क्षमा प्रार्थना करता है, तत्र मुनि कहते तुम अभय हो और स्वयं अभयदाता बनो। उसके अहिंसा और अनिलता भरे उपदेश से वह भी राज्य को छोड़कर प्रवजित हो जाता 1 दोनों संजय ऋषि एक हैं या भिन्न यह तो कहा नहीं जा सकता, किन्तु दोनों में साम्य अवश्य है । १. देखिये उत्तराध्ययन सूत्र अ० १८ गाथा १-१८. टीकाः - भवन व संवासेन लौकिक जीवितेन नास्ति मे कार्यः कीटशेन संवासेन १ यत्र संजयः काननबासिनो मृगान् वधायोपनामयति = व्यापादयति इति संजयीयमध्ययनम् । गतार्थः । प से सिद्धे बु० । इति संजय अर्हता प्रोत एकोनचत्वारिंशदध्ययनम् । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीवायण अर्हता प्रोक्त चालीसवाँ अध्ययन मानव का मन एक विरार सागर है। जहां प्रतिक्षण सैकड़ों लहरें उठती और विलीन होती हैं। उनकी रंगिनियों में मानव मन लुमा जाता है। मनुष्य अपने मन में सौ सौ सत् संकल्प करता है किन्तु इच्छाओं की लहरें उन्हें महा ले जाती हैं। मानन विवश हो उन्हें देखता हो रह जाता है। वह सोचता है इच्छा की पूर्ति के बाद में संतुष्ट हो जाऊंगा किन्तु याद रखना होना हर इच्छा की पूर्ति अतृप्ति का नया द्वार खोलती है । एक इंग्लिस विबारक ने ठीक कहा है-The thirst of desire is never filled uor fully satisfied, इच्छाओं की प्यास कगी नहीं बुझती, न पूर्ण रूप से संतुष्ट ही होती है ।-सिसरो. इच्छाओं के संकेत पर चलनेवाले मानव की स्थिति वैसी है जैसी सागर की लहरों की गति के अनुरूप चलनेवाले नाविक की। पश्चिम के प्रसिद्ध विचारक शेक्सपियर ने कहा है यदि इच्छा ही धोडा बन जाती तो प्रत्येक मनुष्य वुड सवार होता। पर आज तो घोडा आदमी पर सवार है, फिर उसे चैन कैसे मिले ? इच्छाओं पर ब्रेक लगाने की कला सीखामा प्रस्तुत अध्ययन का विषय है। हरुकमणिन्छ पुरा करेजा दीवायणेण अरहता इसिणा बुातं इच्छा बहुबिधा लोए जाए यो किलिस्सति । तम्हा इच्छमणिच्छाए जिणित्ता मुहमेधती ॥१॥ अर्थ-दीवायन अतिर्षि बोले-(साधक) पहले इच्छा को अनिच्छा के रूप में बदले। लोक में अनेक प्रकार की इच्छाएं हैं। जिनमे बद्ध होकर आत्मा संक्लेश पाता है। साधक इच्छा को अनिच्छा से जीतकर सुरत्र पाता है। गुजराती भाषाम्तर: દીવાયન અહર્ષિ કહે છે કે પ્રથમ ઈચ્છાને અનિચ્છામાં બદલી નાખો, આ દુનિયામાં અનેક તરહની ઇચ્છાઓ છે જેને કારણે જીવ કા થઇને દુઃખ પામે છે. જે સાધક અનિચ્છાદ્વારા ઈછાને જીતી જાય તો સુખ पाभी श. मानव के मन पर शासन करती है । इसछाओं से शासित ध्यक्ति अपनी सभी आजादी को खो बैठता है। यद्यपि महार से वह स्वतंत्र दिखाई देता है फिर भी गहराई में उतर कर देखें तो ज्ञात होगा, वह आशा और इच्छाओं के धागों से बना है। वे धागे जितने सूक्ष्म हैं उतने मजबूत है। एक संस्कृत के कवि ने सुन्दर चुटकी लेते हुए कहा है-श्राशा नामक एक विचित्र शृंखला है जिससे बद्ध प्राणी दौड़ता है और उससे मुक्त पशुवत् स्थिर रहता है। एक विचारक ने ठीक ही कहा है—Desire is burriing fire, he who falls into it nover rises again. इच्छा जलती हुई आग है। उसमें गिरा हुआ कमी उठता नहीं है । -'जेम्स ऑफ इस्लाम"-चम्पतराय टीका:-पुरा अधिरादेव प्रवजितः सन् साधुरिच्छो यदि वा पुरा प्रवज्यायाः पुरस्ता दिग्छशभिलाषवान निकछी कुर्यादास्मसंतोषमंगीकुर्यात् । इच्छा बहुविधा भवति लोके यथा बद्धः विनश्यति, तस्मादिच्छामानिन्छया जिस्वा सुखमेधते । पुरा अर्थात् शीघ्र दीक्षित हुआ मुनि इच्छा को अनिच्छा से जीने अथवा पुरा अर्थात चरित्र ग्रहण के पूर्व साधक के मन में जो अभिलाषाएं थी उन्हें समाप्त कर दे और आत्म-संतोष को प्राप्त करे। शेषार्थ ऊपरवत है । इच्छामिभूया न जापति मातरं पितरं गुरूं। अधिपिखवंति साधू य रायाणो देवयाणि य ॥२॥ अर्थ-इच्छाभिभूत व्यक्ति न माता को जानते हैं न पिता को, और गुरु को ही वे साधु राजा और देवता को तिरस्कृत कर सकते हैं। १भाशा नाम मनुष्याणां काचिदाश्चर्यशेखला । यया बद्धाः प्रधावन्सि मुक्तास्तिष्ठन्ति पंगुबत् ।। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चालीसवाँ अध्ययन २६३ गुजराती भाषान्तर: ઇચ્છાથી પરાજય પામેલી વ્યક્તિ ન માતાને કે પિતાને જાણતા નથી, અને ગુરુને જ સાધુને, રાજાનો અને દેવતો વિરહાર કરે છે, इच्छा का गुलाम अपनी इच्छा को ही सापरि मान देता है। उसकी इच्छापूर्ति के मार्ग में कोई अवरोधक बनकर आता है तो उसे अपमानित करने में जरा भी नहीं हिचकिचाता । फिर भले वे माता पिता हो या गुरु के पद पर हो। वह साधु राजा और देवता तक को भी कुछ नहीं समझता । टिप्पणी-मिलाइये प्रस्तुत सूत्र के ३६ वें अध्याय की १४ वीं गाया से केवल प्रारंभ के एक ही शब्द का भेद है। इच्छामूलं नियच्छति धणहाणि बंधणाणि य । पियविपओगे य बल जम्माई मरणाणि य ॥ ३॥ अर्थ-इच्छा के मूल में धनहानि और बन्धन रहे हुए हैं। साथ ही प्रिय विप्रयोग और बहुत से जन्म और मृत्यु भी हैं। गुजराती भाषान्तर:-- ઇચ્છાનું જડ દ્રવ્યનાશ અને બંધનમાં જ છે, અને તેને સાથે પ્રિયવ્યકિતને વિયોગ અને ઘણા જ -मृत्युना ३१ प . मनुष्य ने सुख की एक व्याख्या की है। इच्छापूर्तिजन्य सुख । मन में किसी प्रकार की इच्छा पैदा हुई और उसकी पूर्ति के साधन उपलब्ध हो जाते हैं तब मानद बोल उठता है "मैं सुखी हूं"। किन्तु इच्छापूर्ति सुख नहीं, सुखाभास है। मुख नहीं सुख के स्थान पर दुःख बन्धन और केशों की विशाल परम्परा है सही मिलेगी । रावण मी तो सुख प्राप्ति के लिये सीता को ले गया था। कीचक और जरासन्ध भी तो सुख प्राप्ति के लिये गये थे । क्या पाया उन्होंने ? आखिर दुःख क्लेश और चूगा और तिरस्कार ही उन्हें मिला है। क्या अच्छा होता यदि वे अपनी बुरी इच्छाओं को ऊगने के साथ ही कुचल देते । पश्चिमी विचारक फ्रेंकलिनेन ठीक ही कहा है बाद में उत्पन्न होनेवाली सारी इच्छाओं की पूर्ति करने की अपेक्षा पहली इच्छा का दमन कर देना कहीं अधिक साल और श्रेयस्कर है। टिष-प्रस्तुत गाथा भी क्रोध के शम्द मेद के साध ३६ में अध्ययन में यथाक्त मिलती है। इच्छते इच्छसे इच्छा अणिच्छं ते पि इच्छति । तम्हा इच्छामणिच्छाप जिणित्ता सुहमेहती ॥ ४॥ अर्थ-इच्छा अपने चाहनेवाले को नहीं चाहती, किन्तु इच्छा रहित को चाहती है। अतः इच्छा को अनिच्छा से जीतकर सुख प्राप्त होता है। गुजराती भाषान्तर: ઈચ્છા, પોતાને ચાહનાર માણસને ચાહતી નથી, પરંતુ જે માણસને ઈચ્છા નથી તેને જ ચાહે છે. માટે ઈચ્છાને અનિચ્છાથી જીતીને જ સુખ મેળવી શકાય છે. इच्छा का एक अनोखा स्वभाव है वह उसे नहीं चाहती जो इच्छा के गुलाम है । गुलामों से भी कभी प्रेम किया जाता है ? और यह भी देखा गया है हर व्यक्ति की इच्छाएं मिन्न होती हैं। की यह भी होता है जिसे हम चाहते हैं। वह हमें नहीं चाहता और जो हमें चाहता है हम उससे नफरत करते हैं। यही तो मानत्र की विवशता है। दूसरी ओर उसकी इच्छाएं सदैव अतृप्त रहती हैं । स्वामी विवेकानंद ने कहा है “कामना सागर की भांति अतृप्त है। ज्यों ज्यों हम उसकी आवश्यकता पूर्ति करते हैं यो त्यो उसका कोलाहल बढ़ता है। अतः साधक इच्छाओं को अनिच्छा से जीते। तभी वह शान्ति पा सकता है। कर्मयोगी श्री कृष्ण भी कहते है-जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को छोड़कर नि स्पृह हो जाता है तथा ममता और अहंकार को छोड़ देता है वही शान्ति पाता है। एक इंग्लिश विचारक भी कहता हैIn moderutiny, not is satifying desires lies peace, इच्छाओं की शान्त करने से नहीं, अपितु उन्हें परिमित करने से शान्ति प्राप्त होती है। १ विहाय कामान्यः सर्वान् एमांश्चरति निःस्पृहः । निर्भमो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति । गीता, Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई टीकाः-वच्छतेच्छा वाछेष्यते अनिच्छन्नपि तामिच्छति तस्मादित्यादि पूर्ववत् । गतार्थः । दव्यओ खेत्तमओ कालओ भावो जहा थामं जहा यलं जधाविरियं अपिगूहतो आलोयज्ञालिन्ति ॥ ५॥ अर्थ-साधक प्रत्यक्षेत्र काल भाव और माने धैर्यबल शक्ति को न छिपाकर आलोचना करे । गुजराती भाषांतर: સાધકે ધન, ક્ષેત્ર, કાલ, ભાવ અને પોતાની ધીરજશક્તિને ન સંતાડતાં સમાલોચન કરવું જોઈએ, साधक द्रव्य क्षेत्र काल और भाव को देखता हुआ चले । अपने आपको तोलना भी सर्वप्रथम आवश्यक है। पहली धृति साहस और बल को देखकर ही साधना के क्षेत्र में कदम रखना उचित है । अन्यथा पीछेहर करने का प्रसंग उपस्थित हो सकता है। साथ ही गाथा के उत्तराध में एक महत्वपूर्ण पान कही गई है यदि साधक में शफिी है तो उसका संगोपन न करे । शक्ति होते हुए उसका उपयोग न करना एक प्रकार का परिग्रह है। दूसरे शब्दों में चोरी भी है। जैसे शक्ति होते हुए डुबते हुए को न बचाना पाप है तो शक्ति हुए साधन के क्षेत्र में कदम न बडाना भी पाप है। टीका:-हे साधो! इख्यतः क्षेत्रसः कालतो भावतो यथास्थाम यथावलं यथावीर्यमनिग्रहणालोचयेरिति श्रीमि । एवं से सिद्धे बुद्ध० ॥ णो पुण रवि इचथ हव्वमागच्छति ॥ तिमि । गतार्थः॥ इति द्वैपायन अईसर्षिमोक्तम् चत्वारिंशदध्ययनम् Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = इन्द्रनाग अतर्षि प्रोक्त एकचालीसवाँ अध्ययन कुछ आत्माएं गद्दिर्दृष्टि लेकर चलती हैं। वे केवल वर्तमान सुख को ही देखती हैं, किन्तु उसके पीछे आनेवाली दुःख की परम्परा को नहीं देखती। मछली केवल अपने ग्रास को देखती है, किन्तु उसके पीछे छुपे कांटे को नहीं । यहीं बहिष्टि मिथ्या हो जाती है | वह मानव को देहाभ्यास में उलझाये रहती है, किन्तु देह से ऊपर उठकर देहातील को देखने नहीं देती । जबकि अन्तर्दृष्टि आत्मा को बाहर से हटाकर अन्तर को देखने की प्रेरणा देती है। वह शरीर के नहीं आत्मा के सौन्दर्य को निरखने की प्रेरणा देती है । वह नश्वर से टकर अनश्वर से प्रेम करने की पवित्र देशना प्रस्तुत अध्ययन का प्रमुख विषय है । जेसिं आजीवतो अप्पा पराणं बलदंसणं । तवं ते आमिस किच्चा जणा संणिश्वते जणं ॥ १ ॥ अर्थ -- जो आत्माएं अपनी आजीविका के लिये प्रदर्शन करती हैं। वे तप दुषित करके मनुष्यों को एकत्रित करते हैं। गुजराती भाषा જે જીવો પોતાની ગુજરાણુ માટે પોતાના સામર્થ્યનું પ્રદર્શન કરાવે છે તે પોતાની તપશ્ચર્યાંને નકામી બનાવી આમ જનતાનો ખ્યાલ ( પોતાની તરફ ) ખેંચી લઈ શકે છે. तप आत्मशोधन का एक पवित्रतम प्रसाधन है। कोयले की कालिमा को साबुन नहीं धो सकता, उसे तो आग की ज्वाला हीं उजबल बना सकती है। इसी प्रकार सुख सुविधाओं के प्रशाधन आत्मा की कर्मजन्य कालिमा को यो नहीं सकना, किन्तु यह पस्तेज में ही शक्ति है जो आत्मा को उज्वल बना सकता है। A तप का उद्देश्य -शोधन हो होना चहिए। यश और प्रतिष्ठा की कामना या भौतिक की चाह तपः साधना को दूषित करती हैं। इस में साधक अपनी शक्ति को मिट्टी के मोल बेच देता हैं। इसे जैन आगमों में निदान तप कहा गया है। यहां उससे ने की प्रेरणा दी गई है। ओ तप को आजीविका का साधन बनाते हैं वे अपने बल का प्रदर्शन करते हैं; इसके द्वारा संग्रह कर सकते हैं। बाहिरी जनता के दिल पर ने अपने तप की छाप अंकित कर दें, किन्तु वे अपने तप की सही शांत को नहीं पा सकते । टीकाः येषामामारूपमाजीवा द्वेतोर्नराणां बलवर्शनं तोष-दर्शनाय भवति, ये आजीवनार्थमात्मनस्तपोबलं मरान् दर्शयन्ति ते जनाः स्वतप भामित्रं कृत्वा जनं संचीयन्ते मेलयन्ति । गतार्थः । विकीतं सेसि सुकडं तु तं च णिस्साए जीवियं । कम्मा अजाता वा जाणिजा ममका सढा ॥ २ ॥ अर्थ -- उनका ( कामनासहित तप करनेवालों का ) सुकृत मानो खरीदा हुआ होता है। और उस सुकृत पर ● आधारित उनका जीवन भी मानो बिका हुआ है। उनकी क्रियाएं अनार्यवत होती हैं; वे ममत्वशील और शठ होते हैं । गुजराती भाषांतर: જે માણસો પોતાની અમુક કામના પૂર્ણ થવા માટે તપ કરે છે, તેઓનું પુણ્ય તો બીજાએ ખરીદી લીધું છે એમ સમજવું, અને તે સુકૃત ઉપર આધાર મુકી રહેલ માસોની જીંદગી તો ખરેખર વેંચી નાખેલી જ ગણાય. તેઓના કામો અનાર્ય માણુસ જેવા જ થાય છે. તે માણસોનો સ્વભાવ સ્વાર્થી અને કપટી હોય છે. जो साधक किसी फच्छा को लेकर काम करता है वह मानो अपनी साधना को क्षेत्र डालता हैं । गृहिणी दिनभर काम करती है, किन्तु कभी वह अपने धम का मूल्य नहीं चाहती; जबकि दासी आठ घंटे काम करके मूल्य मांगती है। परियाम में एक घर की स्वामिनी बनती है; जबकि दूसरी को केवल मजदूरी के बारह आने मान मिल पाते हैं । शावक फलासक्ति को अपनी साधना के बीच न आने दें; अन्यथा फल की उधेड़बुन में वह लक्ष्य से भ्रष्ट हो जाएगा। फलासक्ति तो मोक्ष की भी नहीं होनी चाहिए। साधक बनने की कामना की तो अगले जीवन में साधक बन सकेंगे, किन्तु सिद्ध नहीं पा सकते । ३४ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दी ३ P ₹ द २६६ इस - भासियाई महात्मा बनने का संकल्प किया तो महात्मा। उन सकेंगे, किन्तु परमात्म-तत्व दूर रह जाएगा। इसलिए गीती कहती है:"कर्म में ही तुम्हारा अधिकार है. फल की ओर न जाओ" । एक इंग्लिश बिचारक भी बोलता है - Thy business is with the action only never with its fruits, so let not the fruit of action be thy motive nor be thou to in action attached. तुम्हारा प्रयत्न केवल कार्य के लिये होना चाहिये, उसके फल के लिये कभी नहीं, कार्य के फल को तुम अपना लक्ष्य न बनने दो । यहाँ फलक व्यक्ति का जीवन बताया गया है उसके जीवन की मस्ती छिन जाती है। उसकी साधना बिक्री हुई है। ऐसा व्यक्ति फल पाने की जल्दी में साधन का विवेक भी खो सकता है। अतः अद्देवर्षि साधक को फलासक्ति से दूर रहने की प्रेरणा देते हैं । टीका:- तेषां सुकृतं तपो विक्रीतं भवति । तच सुकृतमाश्रित्य जीवितं । चिक्रीतं कर्मचेष्टा व्यापारवन्तो जना भजात्यानार्या वा मामकाः शठा भवन्ति, एतादृशां ताजानीयात् । गतार्थः । गलुच्छिना असोते वा मच्छा पावंति वेधणं । अणामतम पस्संता पच्छा सोयंति दुम्मती ॥ ३ ॥ अर्थ - अस्रोत (निर्जल स्थल ) में अथवा कंठ छिया हुआ मत्स्य वेदना को प्राप्त करता है। इसी प्रकार अनागत ( भविष्य ) को न देखनेवाला दुर्मति बाद में शोक करता है। गुजराती भाषांतर: જેવી રીતે પુરાકની આશાથી અસ્રોત ( =નિર્જલ એટલે પાણી જ્યાં ન હોય તે જગ્યા) માં ગયેલી માછળીને કે ગળું કપાયેલ માછળીને ઘણું જ દુ:ખ થાય છે, તેવી જ રીતે મોહરૂપી મન્ને ઉંચે ફેંકેલો પ્રાણી ભાવી કાળનો ખ્યાલ ન કરી ચાલુ સુખમાં મગ અની અંતે દુઃખી થાય છે. केवल वर्तमान सुख को देखनेवाला मानव उस मछली जैसा हैं जो मांस की आशा में जलस्रोत से बाहर आजाती है। अथवा मांस के प्रलोभन में फंसकर केवल मोस को देखती है, उसके पीछे छिपे कांटे को नहीं देखती। परिणाम में वह अपना कंठ लिखवा लेती है। सीमित बुद्धिवाले प्राणी परिणाम की ओर दृष्टि नहीं डालते । असंज़ी भी केवल वर्तमान इपेक्षी होता है। इसी प्रकार बहुत-सी आत्माएं तात्कालिक लाभ के पीछे बहुत बड़ी हानि को निमंत्रण दे देती हैं । मस्स्या वेदनां प्राप्नुवन्ति तथाऽनागतमपश्यन्तो दुर्मतयः टीकाः – यथोच्छिन्नगला अत्रोतसेि शुष्कस्थले वा पश्वाच्छोचन्ते । गतार्थः । मच्छा व झीणपाणिया कंकाणं वासमागता । पच्चुप्पण्णर से गिद्धो मोह मल्लपणोल्लिया ॥ ४ ॥ अर्थ- जैसे मत्स्य पानी से रहित ही कंकास के घास में फँस जाती है। इसी प्रकार मोद रूप मल्ल से उद्वेष्टित प्राणी केवल वर्तमान के दुख में गृद्ध होते हैं। गुजराती भाषांतर: જેમ માછળી અમુક લોભને કારણે પાણીરહિત જગ્યામાં આવી ઘાસ કે કાંકરામાં ફસાઈ મુસીમતનો ભોગ બને છે તેવી જ રીતે વિષયના મોહમાં આસક્ત થયેલો પ્રાણી વર્તમાન સુખમાં જ ઘેલો અહી બેસે છે (ને તેના માઠા પરિણામને ભુલી જાય છે ). अपने खुराक के पीछे दौडनेवाली मछली पानी से बाहर आकर समुद्र के तटवती कंकास घास में फंस जाती है और तप कर प्राण छोड़ देती है । इसी प्रकार मोह से उद्वेलित आत्मा वर्तमान रस में आसक्त होकर दुःखी होता है। पूर्व अध्ययनों में वर्तमान सुख के लिये मछली का उदाहरण अनेक बार भी चुका है। टीकाः - मरस्या यथा क्षीणपानीयाः कंकानां घासमागता इति लोकार्थ पूर्वगतेन वा संबन्धनीयं, लेखकदोषेण वा गलितमुत्तरार्थं । प्रत्युत्पन्नरसे गृद्धा मोहमलमणुश्वा इस बलयतीमुत्कंठां प्राप्नुवन्ती वारिमध्ये वारण इव । १ कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन-गीता. Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकचालीसवाँ अध्ययन " २६७ अर्थात् जैसे पानी रहित मत्स्य कंक घास में आजाती है यह श्लोका पहिले के श्लोक से सम्बन्ध रखता है । लेखक के दोष से उत्तरार्ध नष्ट हो गया है। वर्तमान के रस में गृद्ध बने हुए प्राणी मोह रूप मल से उद्वेलित होते हैं और पानी में रहे हुए हस्ति की भांति या अर्थात् बलवती उत्कंठा को प्राप्त करते हैं । चतुर्थ गाथा का उत्तरार्थ, पंचम गाथा का पूर्वार्ध है। यह माथा अविकल रूप में पन्द्रहवें अध्ययन के बारहवें क्रम में स्थित है। दित्तं पावंति उक्कंठं वारिमझे व वारणा । आहारमेत्तसंबद्धा कजाकजणिमिलिता ॥५॥ अर्थ जैसे पानी में रहा हुआ हस्ति उत्कृष्ट दृष्टि को अथवा दैन्य को प्राप्त करता है वैसे ही आहार मात्र से सम्बन्ध रखनेवाला कार्याकार्य से आंखें मूंद लेता है। गुजराती भाषांतर: જેમ પાણીમાં રહેલો હાથી મદમસ્ત બને છે અને ત્યાં જ અવિવેકથી આસક્ત બની પોતાની સ્વતંત્રતા ગુમાવી બેસે છે, તેમ એક વિષયમાં આસક્ત બનેલો માણસ પોતાની વિવેકશક્તિને ગુમાવી પરતંત્ર બની જાય છે. वर्तमान भोगों की आसक्ति में फंसा हुआ व्यक्ति सचमुच दयनीय है। वह अपनी स्वतंत्रता को खो बैठता है। हाथी पानी में रहता है तो बड़ा भारी मद को प्राप्त करता है। इसी प्रकार भोगों के बीच फंसा हआ अधिकाधिक दर्य का अनुभव करता है। केवल आहार पर ही उसकी दृष्टि होती है, किन्तु भोजन के साथ विवेक भी आवश्यक है, इस तथ्य से यह आस मूंद लेता है। देह के साथ भोजन का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है, किन्तु वह भी कार्याकार्य का विवेक चाहता हैं । हमारा भोजन शुभ के द्वार से आना चाहिए। दूसरी ओर भोजन हमारे जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकता। मानव रोटी दाल का यंत्र मात्र नहीं है, वह उससे ऊपर उठकर भी सोचता है। कुछ व्यक्ति भले भोजन के लिये जीते हों किन्तु विचारशीलों के लिये यह बात नहीं है। इंग्लिश विचारक कहता है:-Eat too live and don't live to eat. जीने के लिये खाओ खाने के लिये न जीओ। भोजन को तुम खाओ, किन्तु कहीं ऐसा न हो भोजन तुम्हें खाजाए। इसके मोह में पड़कर हबल खा गये और अगले दिन बिस्तर पकरने का समय आ गया, तो समझना होगा भोजन हमने नहीं खाया, भोजन हमें खा मया है। भोजन ही नहीं; कोई भी कार्य हो कार्याकार्य का विवेक हम न खोएं। प्रस्तुत गाथा की दूसरी यह भी व्याख्या हो सकती है कि हाथी एक बलवान् प्राणी है, किन्तु जलधारा में फंसकर बह दीन दुर्घल बन जाता है। क्योंकि वह तट को देखकर भी वहां तक पहुंच नहीं सकता। ऐसे ही भोगासक प्राणी आत्म-शान्ति के पथ को देखकर भी वहां तक पहुंचने में अपने आपको असमर्थ पाते हैं। चक्रवती सम्राट ब्रह्मदत महामुनि चित्त के अध्यात्म संदेश के उत्तर में यही तो कहता है कीच में फंसा गजराज तर को देखकर भी वह तक जाने में असमर्थ रहता है। ऐसे ही में भी अध्यात्म पथ को देखकर वहां तक पहुंचने में असमर्थ है। ऐसा लगता है यह चक्रवर्ती की नहीं कोई क्षयग्रस्त दुर्बल व्यक्ति की भाषा हो । यही मानव के पौरुष की पराजय है। पक्विणो घतकुंभे या अवसा पायंति संखयं । मधु पात्रेति दुर्बुद्धी पवातं से ण पस्सति ॥ ६ ॥ अर्थ-बी के घड़े में पड़ी हुई मक्षिका विवश हो मृत्यु को प्राप्त करती है। इसी प्रकार शहद के लिये वृक्षाप्रपर स्थित दुर्बुद्धि प्राणी सोचता है, मैं मधु प्राप्त करूंगा किन्तु वह यह नहीं देखता कि मैं गिर जाउंगा। गुजराती भाषांतर: - જેમ ઘીના ઘડામાં પડેલી માખી પરાધીન થઈ મરણ પામે છે તેવી જ રીતે મધ મેળવા માટે ઝાડના ચપર ચઢી બેઠેલ મુરખ પ્રાણું વિચાર કરે છે કે મને મધ મળશે, પણ એ વિચાર નથી કરતો કે હું નીચે પડી મરી જઈશ. १ नागो जहा पंकजलायसन्नो ददर थानाभिसमेह तीरे । एक वर्ष कामगुणेस गिद्धा न मिखुणो मगमगुल्वयागो ।। -उत्तरा० ज० १३ गा०३० Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ हसि-भासियाई केवल वर्तमान मुख को देखने वाले को विष्टम्बना के दो चित्र ग्रहो दिये गये हैं। श्री पाने की आशा से त्री के घले में कूदनेवाली मक्षिका के भाग्य में केवल मौत का वारंट है। यही कहानी उस मानत्र की है जो मधु बिन्दु की आशा से वृक्ष की अधकटी शाखा पर बैठा है; वह मधु चिन्न देखता है, किन्तु नीचे अंध कूप में पान को नहीं देखता। यदि कहा जाए कि मक्खी में बुद्धि कहां है तो बुद्ध का निधि कहे जानेवाला मानब भी अदि मधुमिन्दु को ही देखता है तो कहना होमा स्थूल रूप में भले उसने विकास किया है, किन्तु अन्तर दुनियां में वह मक्षिका से एक इंच भी आगे नहीं बढ़ा है। टीका:-आहारमात्रसंबद्धाः कार्याकार्येभ्यो निमीलिसचक्षुषः पक्षिणां विहगाः घटकुंभ धात्रशाः पाशेन संक्षयं प्रामुन्ति । मधु प्राप्नोति दुर्बुद्धिः कथाप्रसिद्धः, प्रपातं नु स न पश्यतीति । इलोकाध पूर्ववत् । टीकाकार कुछ भिन्न मन रखते हैं:- दुर्बुद्धि व्यक्ति मधु को प्राप्त करता है। किन्तु प्रपात को नहीं देखना । यह कथा प्रसिद्ध है। दलोकार्ध पूर्ववत्र है। आमीसत्थी झसो चेव मग्गते अप्पणा गलं । आमीसत्धी चरितं तु जीवे हिंसति दुग्मती ॥ ७ ॥ अर्थ-मसार्थी मत्स्य अपना आहार खोजता है। आमिषार्थी के चरित्रवत दुर्मति व्यक्ति प्राणियों की हिंसा करता है। गुजराती भाषांतर : भांस मा4n alg५ मे मा . २ ( 2105) सोले भा-२१ भाएसना ચરિત્રમુજબ ભૂખ પ્રાણુ બીજા પ્રાણીઓની હિંસા કરે છે. मांभार्थी मत्स्य केवल गौस के टुकड़े को देखना है, किन्तु उसके पीछे लगे कांटे को नहीं देखता। इसी प्रकार हिंसाप्रिय मानब मत्स्य की कहानी को चरितार्थ करता हुआ प्राणिव की ओर प्रेरित होता है, वह आरंभ के मिठास को देखता है पर उसके विपाक को नहीं देखता । टीकाः -मांसार्थी झष भात्मना स्त्रैरै गलं दिशं मार्गति, धुर्मतिस्त्वामिषार्थी जीवः पुरुषो वा जीविते सम्यक चरित्र हिनस्ति । टीकार्थ:-मांसाों मत्स्य स्वयं ही अपना शिकार खोजता है। ऐसे दुर्बुद्धि मराथों प्राणी जीवन के लिये सम्यक चरित्र की हिंसा करते हैं। अणग्धेयं मणि मोनुं सुत्तमत्ताभिनंदती । सवण्णुसासणं मोतुं मोहादीपहिं हिंसती |॥ ८॥ अर्थ-अल्पबुद्धि व्यक्ति अमूल्य मणि को फेंककर केवल सूत से क्रीडा करता है। वैसे ही अज्ञानी आत्मा सर्वज्ञ के शासन छोड़ कर मोहशील पुरुषों के साथ हिमा करना है। गुजराती भाषांतर: જેમ અપબુદ્ધિવાળો માણસ કીમતી રત્તને ફેંકી દઈ સૂતરના ધાગા સાથે રમે છે, તેમજ અજ્ઞાની વ સર્વસનું શાસન છોડી દઈ વિષયના મોહમાં ડુબી ગએલ માણસો સાથે હિંસા (પાપનું આચરણ કરે છે, यदि वानर को हार दिया जाए जिसमें कि अमूथ मणियां गूंथी हुई हैं, पर वह मुख बन्दर मणि को फेंक देता है और सूत से खेलता है। यही कहानी मोहशील व्यक्तियों की है जो मणिवत् अमूल्य सर्वज्ञ के शासन को छोड़कर मोह मोहित भ्यक्तियों के साथ केडा करते हैं। वह आत्म-साधना को भूल कर संसार साधना में लग जाता है । उमकी क्रिया टस बालक जैसी है-जो मिठाई के प्रलोभन में अपना बहुमूल्य आभूषण दे देता है। भोगों की तुन्छ लिम्मा में आत्मा के निन स्वभाव का याम करनेवाला उससे अधिक बुद्धिमान नहीं है। टीका:--अनय मणिं मुक्स्चा सत्रेण गुणेन केघलेनाभिनन्दति दुर्मतिः, स सर्यज्ञशासन मुक्त्वा मोहादिकः कषाय: खचरित्र हिनस्ति । गतार्थः । सोअमत्तेण विसं गेज्झं जाणं तत्थेव जुंजती । आजीवत्थं तवी मोत्तुं तप्पले विविहं बटुं॥९॥ अर्थ-श्रोत्र मात्र से ही विष ग्राम्य है। यह जानकर भी अज्ञानी वहीं अपने आपको जोकना है। आजीवन के लिये तप को छोड़कर विविध तप करता है। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . एकचालीसवाँ अध्ययन २६९ गुजराती भाषांतर: જહુર (જો માણસને જીવ લે છે તે નો પરિચય અમે કાનથી સાંભળીએ છીએ; પણ જે અજ્ઞાની માણસ એમ સમજીને પણ તેને (પ્રાશન કરી) લઈ લે છે, તે માણસ શાન નહી કહેવા. નિંતી છેદી માટે અને ત્યાગ કરી અને બીજા અનેક પ્રકારનું તપ કરવા શરૂ કરે છે. विष का नाम ठीक है, किन्तु उसका पान बुरा है। यह सुनकर भी जो विष का सेवन करता है तो समझना है उसने जानकारी प्राप्त की है किन्तु बह शानी है ऐसा नहीं कहा जा सकता। ज्ञान और जानकारी मैं बहुत बड़ा अन्तर होता है। ज्ञान भीतरी होता है, जानकारी ऊपरी भाव। ज्ञान होने के बाद आत्मा बुरी वृत्तियों से अलग हट जाता है। जबकि जानकारी के लिये ऐसा नियम नहीं है। आगमवाणी है ज्ञान का फल विरक्ति है । जिराने केवल कानों से ही नहीं से भी भुना है वह अपने आपको साधना में जोड़ देता है, फिर उसका तप आजीविका के लिये नहीं आत्मशुद्धि के लिये होता है। यह विविध प्रकार की तपःसाधना के द्वारा आत्मा को शुद्ध करता है। अभि सोने को शुद्ध करती है, ऐसे ही तप आत्मा को शुद्ध करता है। टीका:-प्रोत्रमात्रेण न सु मुखेन ग्राह्यं विषं जातन्त्र पत्र तत्रैव प्रोग्रेणैव युनक्ति गृहाति, भाजीवार्थः तपो मुषत्वा सत्यश्य विविध बहुप्रकारेण तप्यति । तप आश्रिस्य जीवस्तप माजीवेन जीवति । गताः । तवणिस्साए जीवंतो तवाजी न जीवती। पाणमेवोवजीवंतो परिसं करणं तहा ॥ १० ।। अर्थ-तप का आश्रय करके जीनेवाला तपोजीवन को जीता है। कोई शान से जीवन पाते हैं। कुछ वरण करण रूप चारित्र क्रिया को उपजीवन बनाते हैं। गुजराती भाषांतर :ન તપનો આશ્રય કરી જીવનાર માણસ તપોવનને જીતે છે. કેટલાક લોકો જ્ઞાનથી જ જીવન પામે છે. કેટલાક તો ચરણકરપી ચારિત્રક્રિયા ઉપરજ ગુજરણ ચલાવે છે. साधना की दो श्रेणियां हैं। एक ज्ञान और दूसरी तप । कुछ साधक साधना में केवल तप को सर्वोपरि स्थान देते हैं। इसीलिये वे अहर्निश तपःसाधना में रत रहते हैं। वे देखते हैं तप के द्वारा ही हमारी आत्मशुद्धि है, परन्तु आत्मा क्या है, उसकी अशुद्ध दशा क्यों है ! शुद्ध स्थिति कैसे संभव है ! इसका ज्ञान उन्हें नहीं है । वे साधना के क्षेत्र में दौडना जानते हैं, दौड भी रहे हैं, न उने लक्ष्य का पता है न राह की पहचान है । दूसरे साधक ज्ञान की मशाल लिये हुए आगे बढ़ते है। उनकी साधना में ज्ञान का प्रकाश है वे सही लक्ष्य को जानते हैं। यह जिस ज्ञान साधना का उल्लेख है वह केवल ज्ञानवादियों को किया शून्य ज्ञान साधना है, जिन्हें क्रिया से इन्कार है। उसका मस्तिष्क चलता है पर पैर नहीं चलते। वे केवल वाणी विलास मात्र से अपने मन को सेतोष देते है। पर सम्यक् ज्ञान संपन्न गायक ज्ञान के साथ चारित्र को भी उपजीवन के तौर पर स्वीकार करता है। उसका स्वर है पढमं नाणं तपो दया एवं चिट्टा सम्घसंजए । अनाणी किंवा काही किंवा नहिह संजमं ॥ -दशवै. ०४ ज्ञान की मशाल हाथ में है तो उसके प्रकाश में अहिंसा का अनुपालन भी संभव है, जिसे ज्ञान नहीं है तो वह क्या करेगा? जिसने साधना पथ को पहचाना नहीं है वह उसपर कदम कैसे बढ़ाएगा । टि. मूल गुण चरण हैं और सामति आदि उत्तर करण हैं। टीका:-यो ज्ञानमेवोपजीवति चरित्रं करण सिंग च जीवनार्थमुपजीवन्तं विशुद्धं जीवति । गतार्थः । लिंगं च जीवणट्टाए अविसुद्धं ति जीवति । विजामंतोपदेसेहिं दूतिसंपेसणेहिं या ॥ ११ ॥ भावी तबोवदेसेहिं अविसुद्धं ति जीवति । अर्थ-जिन्होंने वेश को जीवन का साधना बनाया है ये अशुद्ध जीवन जीते हैं। विद्या और मंत्र के उपदेश एवं संदेश वाहिका को भेजना है। भाची तप या भवितव्य के उपदेश से जीना भी अशुद्ध जीवन है। १ णागस्त काल विरतिः। ३ बायावीरियमण समासासेति अपयं-उत्तरा, अ, ६ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० इसि-भासियाई गुजराती भाषान्तर: જેઓએ સાધુવેરનો ઉપયોગ સમાજમાં પ્રભુત્વ અને પોતાની જીવિકા મેળવવા અર્થે કરે છે તેઓ પોતાનું જીવન બગાડી નાખે છે એમ સમજવું. ભોતિક જ્ઞાન અને મંત્રોપદેશ એ તે દતિકાચે (સંદેશ પહોંચવાના કામો જેવું છે. ભાવી તપ કે ભવિષ્યને ઉપદેશ કરી જીવવું સિંધ (મુનિમર્યાદાને ન શોભે એવું ) છે. जनता के विश्वास के लिये लोक में मुनिवेश का विधान है, किन्तु जिन्होंने मुनिवेश को आजीविका का साधन बनाया है वे उस देश के प्रति वफादार नहीं है। जिसका लक्ष्य भटक चुका है, साधना का सही उद्देश्य जिसे पाना नहीं है वह अपनी साधना को बाजी पर लगा देता है। उसके द्वारा चंद चांदी के टुकडे एकत्रित करने में अपनी सफलता मान बैठता है । फिर वह कर्तव्या-कर्तव्य का विवेक भी खो देता है। वह मुनि कप के बाहर के तमाम कार्यों में रस लेता है। भौतिक विद्या और मंत्र का उपदेश दतिकार्य करना । भवितव्यता का उपदेश ये सभी मुनि-मर्यादा के बाहर हैं। इसलिए कि इनके द्वारा साधक आत्म-विद्या को भलकर देहाध्यास में पड़ता है। जिसके पास साधना का सच्चा रस नहीं है फिर वह भौतिक विद्याओं के बल पर जन समाज में प्रभुत्व जमाना चाहता है। कुछ भावुक भक्त अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये उनके बहकावे में आ जाते हैं और जब के उनके द्वारा संपत्ति अर्जन में सफल होते हैं तो उसकी कुछ भेंट गुरु के चरणों पर भी चढ़ा देते हैं। इस प्रकार दोनों लोभ की दुनिया में भटक जाते हैं और संयम के सम्यक् पथ से बहुत दूर जा गिरते हैं। ____ ऐसा साधक कुछ देर के लिये भौविक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सफल हो सकता है, किन्तु आत्मिक आनंद उसके पास नहीं है। टीका:-विधामंत्रोपदेशैः तूतिसंप्रेषणैर्वा भाविभवोपदेशे चाविशुद्धिमति जीवति । गताः । मूलकोबुयकम्मेहिं भासापणाइपहिं या ॥१२॥ अक्खाइओवदेसेहि अविसुद्धं तु जीवति । .................... ॥१३॥ अर्थ-कुछ भूल कौतुहल पूर्ण कर्मों के द्वारा, भाषा चातुर्य से आग्यायिका अथवा अक्ष=पासे आदिक के उपदेश से जीनेवाला अशुद्ध जीवन जीता है। गुजराती भाषान्तर: કેટલાક સાધુએ સમાજમાં અજાયબી લાગે એવા કામથી કે પોતાના વાચાતુર્યથી અને એવા જ બીજા દુનિયાદારીના ઉપદેશ કરી નિષિદ્ધ જીવન જીવે છે. प्रस्तुत अध्ययन आनी विका अध्ययन है। विभिन्न मानव जीवन-यापन के लिये विविध प्रसाधनों का उपयोग करते . हैं। कोई शरीरबल को जीविका के साधन बनाते हैं। कुछ लोग तपजीवी होते हैं, वे तप के प्रदर्शन के द्वारा या कठोर तप के द्वारा जनता आतङ्कित करके अर्थप्राप्ति करते हैं। कुछ लोग साधुवेश का जीविका के साधन के रूप उपयोग करते हैं। विद्यामंत्रों उपदेश के द्वारा आवश्यकता पूर्ति करना भी आजीविका का साधन है। कोई ज्ञानीवि है तो कोई क्रिया-जीवि तो कोई नियतिवाद के उपदेशक हैं। भगवान महावीर के युग में नियतिवाद का समर्थक एक दर्शक था; उसका नेतृत्व गौशाला के हाथों में था। भगवान महावीर ने उसे आजीवक पन्थ के नाम से घोषित किया था 1 क्योंकि वे नियतिवाद का आश्रय लेकर जीवनयापन करते थे। किन्तु आजीविका के ये सभी प्रसाधन अशुद्ध है। टीका:-मुलकर्मभिः कौतुककर्मभिः भाषया प्रणयिभिचाख्यायिकोपदेशैरविशुवमिति जीवति । नागेण अरहता इसिणा बुहतं भासे मासे य जो पालो कुसग्गेण आहारय । ण से सुयक्षाय धम्पस अग्धगति सतिम कलं ॥ १४ ॥ १ तेथे कालेणं तेणं समरण गोसालए मखलीपुत्ते चवीसवासपरियाए. कुंभकारिए कुंमकारावर्णसि आजीविमसंघसंपरिबुडे आजीवियसमयेणं अप्पाणं भावे माणेविहरद | भगवतीसूत्र शतक १५, Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकचालीसवाँ अध्ययन अर्थ:-इन्द्रनाग अहंतर्षि ऐसा बोले जो अज्ञानी सा महिने महिने में बुश म त खस्ता है, किन्तु ला श्रुताख्यात शाख निरूपित धर्म की सौवीं काला मी प्राप्त नहीं करता। गुजराती भाषान्तर: ઈન્દ્રનાગ અહર્ષિ એમ બોલ્યા: જે અજ્ઞાની માણસ હર મહિનામાં કુશાશમાત્ર ભોજન કરે છે પણ તેને કૃતાખ્યાત શાસ્ત્રનિરૂપિત ધર્મની શાંશ કુલા પણ મળી શકતી નથી, साधना का मूल प्राण है दृष्टि की विशुद्धि। साधना करते गये। कठोर साधना के द्वारा शरीर को सुख भी दिया परन्तु जब तक वृत्तियों पर विजय नहीं पाई तब तक वह साधना फल शून्य होगी । घाणी में जुता हुआ वेल भी दिन भर चलता है, सोचता है मैं आज लम्पी मंजिल तय कर चुका हूं नस नस ढीली हो गई है। सुबह से चल रहा हूं, पैरों ने जबाब दे दिया है, अवश्य आज पच्चीस कोस चल लिया होऊंगा, किन्तु जब पइटी खुली देखा जहां से चले थे वहीं हैं एक इंच भी आगे नहीं बढ़े। यही कहानी उन साधकों की है. जो बलना जानते हैं, कठोर तप करते हैं शरीर सुखकर काटा हो जाता है, किन्तु वे सोचते है हमारी साधना बहुत लम्बी चौड़ी है, हमने इतना त्याग किया है, इतने व्रत उपवास किये हैं, किन्तु जब विवेक दृष्टि का प्रकाश में देखा जाय तो ज्ञात होता है दुनियां की आंखों भले ऊँचे उठ चुके हैं किन्तु अध्यात्म के सही पथ पर अभी एक कदम भी आगे नहीं बढ़े। विवेव दृष्टि के अभाव में कठोर तप केवल काया-कष्ट मात्र रह जाता है। महीने महीने के उपवास के पारणे के दिन कुशाग्र जितना भोजन करनेवाला साधक भी सम्यग्दर्शन के अभाव में श्रुताख्यात धर्म की साची कला भी प्राप्त नहीं कर सकता। राजर्षि नमि ने देवेन्द्र को उत्तर देते हुए अजान साधना की व्यर्थता दिखाते हुए सरे विचार रखे थे वे यहां शब्दशः मिल जाते हैं; केवल इतना भेद है। वहाँ अज्ञान साधना को धर्म को सोलहवीं कला के तुल्य भी नहीं माना गया है, यहाँ सौवी कला से भी अल्प माना है। टीका:-यो बाल भाजीचको मासे मासे कुशाग्रेणैवाहारमाहरति स स्वख्यातधर्मस्य न शततमा कलामइति । गताः। माममं जाणउ कोयी माहं जाणामि कंचि पि । ऊण्णातेणत्थ अण्णात चरेजा समुदाणियं ॥ १५ ॥ अर्थः—कोई मुझे नहीं जाने और में किसी को नहीं जान । साधक अज्ञात के साथ अज्ञात होकर समाज में (भिक्षा के लिये ) विचरे। गुजराती भाषान्तर: કોઈ માણસ મને ઓળખે નહીં અને હું પણ કોઈને પિછાણું નહીં; સાધક (એજ પોતાને પરિચય કર્યા વગર રીતે) અજ્ઞાત માસુસ સાથે અજ્ઞાત બનીને (ભિક્ષા માટે) સમાજમાં હરે. साधक साधना के पर बल जिये । कुल गोत्र या अपने पिता के इतिहास पर जीवन म बिताए । साधक जन-संपर्क at में आता है तब जब कभी कोई परिचय मांगता है तब वह अपने गोत्रादि से अपना परिचय देता हैं, तो गलती करता है। त्रादि बताकर मिक्षा भी न ले, अन्यथा साधक की यह भी आजीविका हो जाएगी। गोत्रादि के परिचय से संभवतः कोई सका सगोत्री निकल आए और गोत्र-प्रेम को लेकर मुनि के लिये आहारादि बनाकर दे। - मुनि अपना परिचय क्या है ? । उसका परिचय वह स्वयं होता है । गृहस्थ दशा के परिचय पत्रों के आधार पर बह साधना के क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ सकता । उनका उपयोग करने पर कदम कदम पर मोह उसे घेर लेगा । साधक की साधना बहिमुखी न होकर अन्तर्मुखी हो । उसकी पाचन क्रिया इतनी तेज हो कि वह साधना के रस को भी पचा जाए। १ माले मासे उजोबाले कुसग्गेण तु भुंजए ।न से तुयक्खायधम्मरस कलं अग्वेह सोलसिं 11 उत्तरा० अ० ६ गा० ४४ २ रागो य दोसो विय कम्मवीय कम मोइप्पभवं वयन्ति । कम्मं च जाई मरणस्त मूल दुम् च जाई मरण पयन्ति ।। उत्तरा० अ० ३२ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૨ इसि-भासियाई साधना का रस पचाने की कला जानी श्री भगवान महावीर ने । जब चे मुनि बनकर वन में घूम रहे थे उनसे पूछा जाता आप कोन हैं। तव जनका छोटा सा उतर होता"-मैं मिश्च हूँ"। उनके पास अपने परिचय के इतिहास की कमी नहीं थी। वे बता सकते थे" में क्षत्रिय कुंड के राजा सिद्धार्थ का पुत्र हूँ।" क्षात्रय कुण्ड के वर्तमान राजा नन्दिवर्धन का में अनुज हूं। वे यह मी कह सकते थे कि वैशाली के राजा चटक का मैं दोहिन है। आज वे गणनायक है, उनकी किस्मन मक रहा है। परिचय इतनी विस्तृत सामग्री होने पर भी उनका वहीं छोटा सा उर होता था-'में भिक्षु हूँ। यहाँ तक की गुमचर के अभियोग में वे एकबार बांध दिये गये। कुए में भी उत्तर दिये गये। फिर भी पूछा गय तुम कौन होता तब भी वही उत्तर था " मैं भिक्षु हैं " । यदि वे कह देते कि मैं महाराजा सिद्धार्थ का राजकुमार हूँ, तो एक क्षण में बन्धन मुक्त हो सकते थे, पर उन्हें आत्नविज्ञापन नहीं करना था । साधना के रस को बाहर नहीं बिखेरना था। साधक जब मिक्षाचरी के लिये जाए तब स्वयं भी अज्ञात रहे । और न उन बुटलों के विशेष परिचय में उतरे। उसे उनके इतिहास से मतलब नहीं है; वह देखे कि भोजन शुद्ध है या नहीं । शुद्ध विधिपूर्वक दिया गया शुद्ध आहार उसे प्रहण करना है और इसी रूप में मह समुदाय में विचरे। टीका-परंतु मा मां कश्चित् जानातु माचाई कंचिजानासीत्यज्ञानाज्ञातमधसमुदानिक भिक्षालब्ध चरेत् । गताः । पंचयणीमगसुद्धं जो भिक्खं एसणार एसेजा। तस्स सुलद्धालामा हणणादी विप्पमुक्कदोसस्स ॥१६॥ अर्थ:-जो साधक भिक्षु श्वान आदि पांच वनीपक से शुद्ध भिक्षा को एपणा विधि के साथ ग्रहण करना है। कर्म हनन के लिये भोजन करनेवाले अथवा निर्जीव भोजन करनेवाले दो रहित साधक के लिये लाभ सुलभ है। गुजराती भाषान्तर: જે સાધક સુત્રો વિગેરે પાંચ વનીય કથી શુદ્ધ ભિક્ષા એજણાવિધી સાથે સ્વીકાર કરે છે. કર્મનાશ માટે ભોજન કરનારા અગર નિર્જીવ ભજન કરનાર એવા એ રહિત સાધકોને માટે લાભ અત્યંત સહેલો છે. साधक पहले बताई हुई अशुद्ध आजीविकाओं को छोड़कर जीवन निर्वाह के लिये शुद्ध भोजन ग्रहण करे उसके लिये आत्मिक लाभ सुलभ है। प्रस्तुत गाथा में भोजन विधि की शुद्धि के लिये निर्देश दिया गया है। प्रस्तुत माथा और आगे आनेवाली १५ वी गाथा बारहवें अध्ययन की प्रथम द्वितीय गाथा के रूप में विस्तृत अर्थ के साथ आचुकी है। जहा कवोता य कजिल्ला य गावो चरंती इह पातडाओ। एवं मुणी गोयरियं चरेजा णो वील्वे णो विय संजलेजा ॥ १७ ॥ अर्थ:-जैसे कपोत काजिल (जंगली कबूतर) और गायें अपने प्रातः भोजन के लिये जाती हैं, गोचरी के लिये गया हुआ मुनि उसी प्रकार जाए । न अधिक बोले और इच्छित आहार की प्राप्ति न होने पर मन में जळे नहीं। गुजराती भाषान्तर: જેમ કપિલ (કબૂતર) અને ગાયો પોતાના સવારને ખોરાક શોધવા કે મેળવા માટે સવારે નિકળે છે તેવી જ રીતે ગોચરી માટે ગયેલ સાધુએ પણ તેનું જ અનુકરણ કરવું જોઈએ, વધારે ઓલવું નહી, અને મનગમતો આહાર ન મળવાને લીધે મનમાં જ સાધકે બૂલવું ન જોઈએ, साधक भिक्षाचरी में शैन्त मन से रहे । सरस पदार्थों का आकर्षण से उसे लुभाए नहीं और निरस पदार्थ उसके मन को उद्विग्न न करे । आगम में पाठ आता है असंभंतो अमुच्छिओ। असंभ्रान्त और अमूर्छित हो गोचरी करे। एवं से सिद्ध बुद्धे । गतार्थः । इति इन्द्रनाग अतिर्षि प्रोक्त एकचत्वारिंशत् अध्ययन જ १ लामालाने सहे दुकाले जीविधमरणे तदा। समो निन्दापसंसासु ता माणावमाणवे | उत्तरा अ० १६ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोम अर्हतार्ष प्रोक्त बयालीसवाँ अध्ययन बयालीस, तेंतालिस और चवालीस ये तीनों अध्ययन केवल एक एक गाथा के हैं। संभव है काल के महाप्रवाह में अन्य गाथाएं लुप्त हो चुकी हो और आज ये नामशेष रह गये हों। पर अभी हम यह नहीं कह सकते कि तीनों अध्ययन किस रूपमें थे और प्रत्येक में कितनी गाथाएं थीं। आज तो हमें ऋजुत्र नय वृष्टि को मानते हए इसने मात्र संतोष करना होगा। तीनों अध्ययन में क्रमशः सापद्यवृत्ति का त्याग, समय की उपासना और रागद्वेषविजय पर विचार मिलते हैं। अप्पेण बहुमसेजा जेट्टमज्झिमकण्णसं । णिरवजे ठितस्स तु णो कप्पति पुणरवि साधजं सेवित्तए । सोमेण अरहता इसिणा चुइतं । अर्थः-साधक ज्येष्ठ मध्यम और कनिष्ठ किसी भी पद पर हो वह अ५ से अधिक प्राप्त करने की चेष्टा करे । निरवद्य में स्थित साधक को पुनः सावध सेवन कल्पना नहीं है। सोम अर्हतर्षि इस प्रकार बोले । गुजराती भाषान्तर: સાધક ઉચ્ચ, મધ્યમ અગર કનિશ એમાંથી કોઈ પણ પદ પર હોય તે વિચાર અને જ્ઞાન ક્ષેત્રમાં વધારે આગળ વધી વધુ સફળતા મેળવવાની કોશિશ કરતા રહે; નિરવલ્લમાં રહેલ સાધક સાવસેવનનો વિચાર પણ કરતા નથી, એમ સોમ અતર્ષિ લ્યા. साधक किसी भी रूप में हो। वह चाहे प्राचार्य के रूप में हो, श्रुतधर के रूप में हो या लघु मुनि के रूप में क्यों न हो सदैव उसका एक मात्र प्रयत्न रहे कि वह अल्प से बहुत्व की ओर जाए। ज्ञान की अल्प किरण को विराट रूप दे। विचार के क्षेत्र में वह आगे बढे । मैं और मेरे के क्षुद्र घेरे को तोडकर विराट बने । अपने निकटवती साधको ही नहीं दूरवती साधकों को भी अपना माने । संप्रदायोकी दीवारों को समाप्त कर दूसरी संप्रदाय के मुनियों को स्नेह का माधुर्य प्रदान करे। संघ में सभी मनियों का मनोबल समान नहीं हो सकता । कोई महीने तक तप करते हैं तो कोई प्रतिदिन भोजन करते है कोई धूल आचार में दृढ होते हैं तो कोई बाह्य आचार का इतनी करता के साथ इतना विशाल हो कि वह सबको किन्तु संघ का नायक या श्रुतधर का विचार क्षेत्र इतना विशाल हो कि वह सबको लेकर चले | विचार की इसी विशालता को प्राप्त करने का साधक के मन में संकल्प हो । भारतीय आचार्य जब अपने शिष्यों को विदा काते थे। तब विदाई संदेश में उनका यही आशीर्वचन होता था 'धर्म ते धीयता बुद्धिः मनस्ते महादस्तु ब । 'शिष्य ! किसी भी क्षेत्र में तुम जाओ, तुम्हारी बुद्धि धर्म के शासन में रहे। तुम अपने आपको न भूल जाओ और तुम्हारा मन विशाल दो। इतना विशाल हो कि उसमें तुम्हारे शत्रु का शवत्व भी समा । जाए। इसी विशालता साधक को प्राप्त करना है। साधना के क्षेत्र में साधक चारित्र की नन्ही चिनमारी विशाल कर्म समूह को क्षय करे और लघु जीवन से सिद्ध स्थिति के विराट संकल्प को पूर्ण करे। साधक जितने अंश में निरवद्य स्थिति को प्राप्त करता है उतने अंश में सम्यक् चरित्र की समाराधना करता है। अतः साधक सावध से निरवय की ओर जाए । निरमद्य से सावध की ओर आना पतन की दिशा है। एवं से सिद्ध बुद्धे । गतार्थः । इति सोम अर्हतर्षि प्रोत बयालीसवाँ अध्ययन ३५ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पम अर्हतर्षि प्रोक्त तेंतालीसवाँ अध्ययन लाभमि जे ण सुमणो अलाभे णेव दुम्मणो। से हु सेट्टे मणुस्साणं देवाणं सयजऊ ॥१॥ जमेण अरहता इसिणा बुइतं । अर्थ-लाभ में जो सुमन ( प्रसन) नहीं है और अलाभ में दुर्भन ( अप्रसन्न ) नहीं है। वहीं मनुष्यों में वैसा ही श्रेष्ठ है जैसा कि देशों में शतक्रतु ( देवेंद्र ) यम अईतर्षि ऐसा बोले। गुजराती भाषान्तरः જે માણસ લાભ થયા પછી સંતુષ્ટ થતા નથી અને હાનિ થયા પછી નારાજ પણ ન થાય તે સાધક દેવોમાં શતક્રતુ (દેવેન્દ્ર) જેમ શ્રેષ્ઠ છે તેમજ તે સાધક માણસોમાં પણ શ્રેષ્ઠ છે એમ થમ અહંતષિએ કીધું. जन सामान्य की मनः स्थिति कुछ इरा दंग की होती है कि इच्छित वस्तु की प्राप्ति होने पर आनंद की अनुभूति करता है और इच्छित वस्तु का अमात्र उसके मन की प्रसन्नता छीन लेता है। किन्तु साधक की मनःस्थिति इससे सर्वथा भिन्न हो। अपने मन पर उसका इतना शासन हो कि प्रिय वस्तु उसके मन को हर्षित न कर सके, उसका वियोग उसकी मुस्कान छीन न सके। लाभ और अलाभ में जिसकी सम स्थिति रहती है वह मानव समाज में महा मानवता प्राप्त करता है। वह समाज में ऐसा शोभता है जैसा कि देवराभा में देवेन्द्र । एवं से सिद्धे बुद्धे । गतार्थः। इति यम अतिर्षिप्रोक्त त्रिचत्वारिंशध्ययन। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरुण अर्हतर्षि प्रोक्त चैवालीसवाँ अध्ययन दोहिं अगेहिं उपपीलतेहिं आताजस्मण उप्पीलती रागंगेय दोसेय सेटु सम्म णियच्छति ॥ १॥ वरुणेण अरहता इसिणा चुइतं। अर्थः-राग और द्वेष की उत्पीड़ना से जिसकी आत्मा उत्पादित नहीं होती, नही सम्यक निश्चय करता है। ऐसा वम्ण अर्हनर्षि ऐमा बोले । गुजराती भाषान्तर: રાગ અને દેશની સંવેદનાથી જેનો આત્મા દુઃખી થતો નથી તે સાધક સારી રીતે નિશ્ચય કરે છે એમ વરુણ અદ્વૈતષિ બેલ્યા. राग और द्वेष उत्पीडनाओं की विषवेल के कटु फल हैं। दूसरा तो कटु हो ही पर पहले की कहवास भी कम नहीं है। वह मधुलित विष है। रागी दोष नहीं देखता है और दोषी गुण नहीं देखता । जिसके प्रति रागदृष्टि है उसके सौ सौ दोष भी हमारी अखि देखती नहीं है और जिसके प्रति द्वेष है उसके सौ गुण में से एक भी नहीं दिखाई देता। बीड़ी पीनेवाले को उसका एक भी दोष नहीं दिखाई, देता । सास को बहू का एक गुण नहीं दिखाई। देता। बेटी के हाथ का बुरा काम मा की दृष्टि में अच्छा है। जबकि बहू के अच्छे काम में भी वह कोई एब जरूर निकालेगी। राग और द्वेष से प्रेरित दृष्टि वस्तु के स्वरूप का सही मूल्यांकन नहीं कर सकती। इसीलिये कहा गया है जो राग और द्वेष से परे है बेही वस्तु का स्वरूप समझ सकते है। राग द्वेष से रहित बुद्धि ही ठीक निर्णय ले सकती है और वही निर्णय ठीक होता है जब कि हमारा मन स्वस्थ और शान्त होता है। इसीलिये एक इंग्लिश विचारक ने कहा है Never make a decision when you are down-hearted, जब तुम खिन्न मन हो तब किसी प्रकार का निर्णय न लो। क्योंकि आवेश के क्षणों में लिया हुआ निर्णय ठीक नहीं होता । वस्तु के स्वरूप को समझने के लिये या सही निर्णय लेने के लिये हमें राग द्वेष रहित होना चाहिए। प्रभु महावीर ने कहा है 'राम और द्वेष कर्म के बीज हैं । कर्म का जन्म मोह से होता है, क्योंकि मोह स्वयं भावकर्म है और भावकर्म ध्यकर्मों का प्रवेश द्वार है। द्रव्यकर्म जन्म और मृत्यु की परम्परा के मूल हैं और दुःख क्या है ? जन्म और मृत्यु के ही तो दूसरा नाम हैं।' ___वीतराग आत्मा राग और द्वेष के पास से मुक्त है। रागानुभूति की मोहक लहरें जिसकी आत्मदशा को स्वभाव स्थिति से विचलित नहीं कर सकती। एवं से सिद्धे बुद्धे । गतार्थः । प्रोफेसर शुकिंग लिखते है ४२ ३ ४ ५ अध्ययन में स्पष्टीकरण विना के प्रकरण हैं। बयालीसवाँ अध्ययन का प्रथम पद बताता है जो अल्प से बहल की ओर जाता है वह ईश्रीय रूप का आभास पाता है। वह व्यक्ति प्रेवेय पदवियों भी प्राप्त कर सकता है। इति वरुण अर्हतार्षिप्रोक्त वासलीसवाँ अध्ययन Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैश्रमण अर्हतर्षि प्रोक्त पैंतालीसवाँ अध्ययन दृष्टिया दो होती है। एक अन्तरष्टि और दूसरी बहिर्दृष्टि । अन्तर्दष्टि साधक आत्मिक सुख की परिधि को मानकर चलता है। बहिष्टि मानव बाहर के सुख को प्रमुख मानकर चलता है। अन्तर्दष्टा साधक के हृदय में बाहरी पदार आसक्ति नहीं होती । वह व्यक्ति के बाहरी रूप को ही नहीं, अन्तर को भी देखता है । मानव का बाहरी रूप असुन्दर ही सकता है, किन्तु वह हमेशा के लिये वैसा ही रहेगा। यह स्वीकार नहीं करता। इसी लिये पापी से पापी मानव में भी वह दिव्य मानवता का दर्शन करता है। उसके अन्तर की सोई हुई मानवता को जगाता है। करुणा के कोमल हाथों से औरत को घोरेट कर है राटा हाथ केदय में करुणा का स्रोत रहता है। सत्र पर अपनी करुणा की धारा बहाता है । प्रस्तुत अन्तिम और सबसे बड़े अध्ययन से अन्तर्दर्शन की प्रेरणा प्राप्त होती है। उसका प्रथम श्लोक है: अप्पं च आउं इह माणवाणं सुचिरं च कालं णरयेसु वासो।। सब्वे य कामा णिरयाण मूलं को णाम कामेसु बुहो रमेजा ॥१॥ अर्थ:-यहां मनुष्यों की आयु अल्प है और नरक में सुदीर्घ काल तक वास होता है और सभी काम नरक के मूल हैं। फिर कौन बुद्धिमान् काम वासनाओं में आनंद मानेगा ।। गुजराती भाषांतर: આ દુનિયામાં મનુષ્યના આયુષ્યની મર્યાદા ઘણીજ ઓટ્ટી ( કંકી) છે અને નરકમાં રહેવાની કલમર્યાદા ઘણું લાંબી છે; અને બધી વાસનાઓ નરકને લીધે છે. એમ જાણીને કયો ડાહ્યો માણસ કામવાસનામાં આસકત રહેશે? मानव मन की भोगासक्ति दूर करने के लिये वासना विरक्ति के संदेश के साथ प्रस्तुत अध्ययन का आरंभ होता है। मानन के अल्प सुख को नरक के अनंत दुःखों के साथ उपमित किया गया है। मानव की क्षणिक सुखानुभूति अपने पीछे नरकों की सागरोपमों की दुःखपरम्परा लिये चलती है। नहर को देख नदी की याद आ जाती है, फल को देख कर फूल की स्मृति हो आती है, ऐसे ही वासना मरे चित्त देखकर नरक की स्मृति हो उठती है। काम की ज्वाला से कम भ्यानक नहीं है। अन्तर इतना ही है एक स्थूल आग है, दूसरी सूक्ष्म है। भगवान महावीर ने काम को मार और नरक बताया है। अतिर्षि कह रहे हैं सभी कामों का पर्यवसान नरक में होता है। का:--मरूपं च भायुरिह मानवाना सुचिरं च कालं यावझरकेषु वासः । सबै च कामा नारकाना मुलं को नाम बुधः कामेषु रमत् । गताः । पाचं ण कुजाण हणेज पाणे, अतीरसे व रमे कवायी। उद्यावएहिं सयणालणेहिं वायु ब्व जालं समतिक्कमेजा ॥२॥ अर्थः-साधक न पाप करे न प्राणियों की हिंसा ही करे | विषयों से उपरत साधक, उच्च नीच शयनासनों में आनंदित न हो, किन्तु हवा की भौति जालका अतिक्रमण करदे। गुजराती भाषान्तर: સાધકે કોઈ તરહનું પાપ ન કરવું જોઈએ, ન કે જીવોની હિંસા પણ કરવી જોઈએ. વિષયોથી વૈરાગ્ય પામેલા સાધકને ઉચા કે નીચા શયન અગર આસનમાં આનંદ કે દુ:ખ ન થવું જોઈએ. જેમ જાળમાંથી હવા આરપાર નીકળી જાય છે તેમ આસક્તિથી પાર થઈ જવું જોઈએ. प्रस्तुत गाथा में पाप और उसः कारणों से दूर रहने की प्रेरणा दी गयी है। मनुष्य पाप करता है और हिंसा मी करता है । उस हिंसा के प्रेरक तत्व है मनुष्य के मन के लोभ और मोह । आखिर वह ईिसा क्यों करता है। किसी पदार्थ या व्यक्ति प्रति उसके मन में लोभ रहता है, उसे पाने की चेष्टा रहती है। अतः उसके विघ्नभूत जो भी व्यक्ति होते है उन पथ के अवरोधको को बह दूर करना चाहता है। उसके लिये यह हथियार का भी आश्रय लेता है। अतः मानव के मनके भीतर घुसकर देखा जाय तो ये लोभ और मोह के कीटाणु ही हिंसा को जन्म देते हैं। अतः विचारकों ने मोह को हिंसा का सूक्ष्म रूप बताया है। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतालीसवाँ अध्ययन २७७ साधक को स्थूल हिंसा से बचना है तो सर्वप्रथम उसे मन में पैदा होने वाली सूक्ष्म हिंसा को रोक देना होगा। उसके लिये आसक्ति के पशि को छेदना होगा। यह समत्व का उपासक बने उसके सामने मनोज्ञ या अमनोज्ञ कैसा भी भोजन आए उसे वह समभाव के साथ ग्रहण करे। सोने के लिये सुन्दर भवन मिले या वृक्ष की सूनी छांव, दोनो के प्रति उसके मन में एकधारा रछे । समभाव की साधना के द्वारा साधक बायुमा अप्रतिबद्ध होगा और मोह की जाल को पारकर जाएगा फिर जाल पानी को भी नहीं रोक सकती, तो साधक तो हवा है दुनियां के जाल उसकी प्रगति में बाधक नहीं हो सकते। 'अतीरसे णेव' का पाठान्तर 'अतीरमाणेव' गी मिलता है, उसका अर्थ होगा तीर तट को प्राप्त किये बिना आनंद न पाए । क्यों कि साधक के जीवन का लक्ष्य है भवसागर के तट पर पहुंचना। बिना तट पर पहुंचे बीच में आनंद कैसा? सागर की असीम जलराशि में पड़े हुए मानव का एकमात्र लक्ष्य होता है तट पर पहुंचना । टीकाः--पापं न कुर्यात प्राणिनो हन्यादतिगतरसः न कदाचिदुचावचेषु शयनासनेषु रमेत् , किन्तु तान् समतिक्रमेद्, वायुरिव जालम् । गतार्थः । वेसमणेणे अरहता इसिणा बुइतं जे पुमं कुरुते पावं ण तस्सऽप्पा धुवं पिओ। __ अप्पणा हि कई कर्म अप्पणा चेव भुजती ॥ ३॥ अर्थ:-वैश्रमण अर्हता कोळे-जो पुरुष पाप करता है उसे निश्चयतः अपनी आत्मा प्रिय नहीं है, क्योंकि वकृत कर्म को आरमा स्वतः भोगता है। गुजराती भाषान्तर: શ્રમણ અહંતર્ષિ બોલ્યાઃ—જે માણસ પાપ કરે છે તેને પોતાનો આત્મા પ્રિય નથી; કેમ કે તે આત્મા પોતે કરેલ કૃત્યોનો ભોગ પોતે જ બને છે. पूर्व गाथा में पाप प्रवृत्ति के लिये निषेध किया था। यहां अतिर्षि उसका हेतु बता रहे हैं। जो पुष्प पाप प्रवृत्ति कर रहा है, गहराई से देखा जाए तो उसे अपनी आत्मा से प्रेम नहीं है. क्योंकि यह निश्चित है वकृत कर्म अवश्य उदय में भायेंगे और उस दिन उसे उनका प्रतिफल भोगना होगा, इन रूप में देखा जाए तो वह स्वयं अपने लिये कांटे बिछा रहा है। अथवा पापशील आत्मा के लिए पाप निश्चित रूप से प्रिय नहीं हो सकते । पाप परिणति कटु परिणाम लेकर आएगी। तब के पदार्थ जिसके अभाव में वह जीना दूभर समझ रहा है उनके सनुभाव में जीमा कठिन हो जाएगा। साथ ही अशुभ प्रवृत्ति आत्मा लिये भी प्रिय न ही हो सकती, क्योंकि वह विभाव दशा है और हर बुरे काम के लिये अन्तर्मन इन्कार करता है। पावं परस्स कुव्वंतो हसते मोहमोहितो। मच्छो गलं गसंतो वा विणिधायं ण पस्सति ॥४॥ पचुप्पण्णरसे गिद्धो मोहमल्लपणोल्लितो । दित्तं पाचति उकंठं चारिमाझे व वारणो ॥५॥ परोवघाततल्लिच्छो दप्पमोहबलुदूरो। सीहो जरो दुपाणे वा गुणदोसं न विदति ॥ ६॥ सबसो पावं पुरा किया दुक्खं घेदेति दुम्मती । आसत्तकंठपासो वा मुकधारो दुट्टिओ ॥ ७॥ पावं जे उपकुति जीया सोताणुगामिणो। वडते पावकं तेसि अणगाहिस्स वा अणं ॥८॥ अणुबद्धमप्पसंता पघुप्पण्णगवेसका। ते पच्छा दुश्वमच्छेति गलुच्छिसा जहा झसा ॥९॥ आताकडाण क्रम्माणं आता भुंजति जं फलं । तम्हा आतस्य अट्ठा पपायमादाय वजय ॥ १०॥ १. मोर्वे, Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ इसि भासियाई ये सातों गाथाएं पन्द्रहवें अध्ययन में कमशः ग्यारह से सत्रह के क्रम पर स्थित हैं। वहीं पर विस्तृतार्थ के साथ इनका विचार भी किया गया है । जं हंता जं विद्यजेति जं विसं वाण भुंजति | जंणं गेहति वा बाल णूणमत्थि ततो भयं ॥ ११ ॥ अर्थः- जिसे हिंसक छोड़ देता है, जिसको जो नहीं खाता है और जिस सर्प को जी पकड़ता नहीं हैं, उसे उसको भय अवश्य है । गुजराती भाषान्तरः જેને હા !?નાર (પ્રભુ કે કોરી દે છે. જે રન (જે માણસ ) ભક્ષણ કરતો નથી અને જે સાપને ( भाणुस ) पछतो नथी ( ते भाणुसने ) ते वस्तुनी भीड़ (लय ) रह्या वगर न रहे. अशुभ प्रवृत्ति की कभी उपेक्षा नहीं करना चाहिये। रोग की उपेक्षा की जाए तो वह एक दिन उग्ररूप ले लेता है और फिर उसका प्रतिकार दुःशक्य हो जाता है। विष बेल को समाप्त करना है तो उसकी जड़ को समाप्त करना होगा । हिंसक व्यक्ति जिसको मारता नहीं है, किन्तु यदि हिंसक की हिंसा वृत्ति नहीं मिटाई गई तो संभव है किसी अवसर को पाकर उसकी सोई हुई हिंसावृत्ति में उभार आ सकता है और वह फिर से हिंसा करने के लिये आतुर हो जाए । घर में विष रखा हुआ है, यद्यपि खाया नहीं है पर उसे अलग नहीं किया; तो संभव है भूल से उसका उपयोग हो सकता है और वह अपनी मारकशक्ति का उपयोग कर देगा। दवा के बदले भूल में टिंक्चर पीने वाले अनेक पाये गये हैं दुसरी ओर घर के एक कोने में सांप बैठा है तो रात्रि को सारा घर साँपों का घर लगेगा । अथवा छुपा हुआ सर्प एक दिन प्रहार कर सकता है। अतः सर्प को जब तक दूर न किया जाय तब तक उसका भय बना रहेगा। इन तीनों वस्तुओं का सर्वेथा परिहार आवश्यक है, इसी प्रकार पाप की प्रवृत्ति का समूल पारेहार करना चाहिये । टीका: -- पं हन्ता अभियोक्ता विचर्जयति, यविषं नशे न भुनक्ति, यं वा स्याकं गृह्णति नास्ति तसो भयम् । 1 टीकाकार भिन्न मत रखते हैं उनके अभिप्राय से जिसे मारनेवाला = अभियोक्ता छोड़ देता है । जिस विष को मनुष्य खाता नहीं है और जिस सर्प को पकड़ लेता है उससे उस व्यक्ति को भय नहीं रहता । टीकाकार का आशय भी ठीक है किन्तु 'गुणमत्थि' में एक न और कहाँ से लाएंगे ? | धावतं सरसं नीरं सच्छं दार्दि सिंगिणं । दोसभी विचक्षैति पावमेवं विवज्जए ॥ १२ ॥ अर्थ::- स्वच्छ मधुर जल की ओर दोड़नेवाले डाढ़ और सींगवाले पशुओं का दोष भीरु व्यक्ति वर्जन कर देते हैं । ऐसे ही पाप को रोकना चाहिए। गुजराती भाषान्तरः સ્વચ્છ મીઠા પાણી તરફ દોડી જનાર દાઢ અને સીંગવાળા પશુઓને ડરપોક માથુસ બીએ છે અને તેથી જ છેડેથી ાય છે. તેવી જ રીતે પાપને પશુ દુરથી જ (અટકાવવા માટે ) વર્જ કરવા જોઈ એ. पिपासा कुल सर्प या सींगवाले पशु जब पानी की ओर दौड़ते हैं तब उनके बीच नहीं पड़ना चाहिये। क्योंकि वे अपने बाधक के ऊपर प्रहार कर सकते हैं, इसलिये दोष भीस व्यक्ति उनको दूर से ही छोड़ देता है। इसी प्रकार विचार वाले साधक पापों को छोड़ दें | पाप से दूर होने के लिये पहली शर्त है पाप को पाप माना जाए। दोष को दोष न मानना सबसे बड़ा दोष है। रोग को रोग न मानना सबसे बड़ा रोग है । क्षय केम्सर आदि बड़े रोग हैं, परन्तु उन पर काबू पाया जा सकता है, किन्तु जो रोग को जनता नहीं है या उसे स्वीकार नहीं करता उस रोगी का कोई इलाज नहीं है। इसी प्रकार पाप के प्रति उपेक्षा करनेवाला या उसे स्वीकार न करनेवाला एक नया पाप और करता है । पश्चिमी विचारक ल्यूथर ने कहा है The recognition of sin is the beginning of salvation ल्यूथर पाप की स्वीकृति मुक्ति का श्रीगणेश है। पाप पाप चाहे वह किसी भी रूप में आये और वह हमारे मन की पवित्रता को उसी प्रकार हर लेता है। जैसे नदिशों की उछलती हुई लहरें तट की हरियाली को । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ पैंतालीसवाँ अध्ययन यदि हाथों से पाप हो गया है तो उसके प्रति पश्चात्ताप होना चाहिये और पाप की प्रवृत्ति से दूर ऊपर उठने की प्रवृत्ति होनी चाहिये । पशु भी पानी में गिर जाता है तो वह भी उससे निकलने के लिये छटपटाता है, किन्तु जो मानन होकर भी अशुभ प्रवृत्ति के बीच से निकलने की चेष्टा न करे वह पशु जगत से ऊपर नहीं कठा है फिर आकृति भले मानव की क्यों न हो। एक और इंग्लिश विचारक बोलता है Manlike it is to fall into sin, findlike it is to dwell the rein, Christlike it is, For sin to grieve, Godlike it is all sin to leave-लाँगफेलो. पाप में पहना मानव समाव है, उसमें डूबे रहना शैतान स्वमात्र है, उस पर दुःखित होना संत स्वभाव है और पापों से मुक्त होना ईथर स्वभाव है। अईतर्षि उसी ईश्वर खभान हैं कि प्राप्ति के लिये पाप के त्याग की प्रेरणा देते हैं। टीका:-सरसं नीरं स्वच्छ प्रति धावन्तं वष्ट्रिणं शृंगिणं श्वापदं दोपभीरुणो विवर्जयनित एवं पापं विवर्जयेत् । गतार्थः । बारकम्मोरयंप मुक्ताले मुस्खायणं दोसादोसोदथी चेय पापकजा पसूयति ॥ १३ ॥ अर्थः—पाप कौनयको प्राप्त करके आत्मा दुःख से और दुःख प्राप्त करता है। दोषी व्यक्ति और दोषों को प्रहण करनेवाला पाप कायों को जन्म देता है। गुजराती भाषान्तर: પાપકોના ઉદયને પ્રાપ્ત કરી જીવ દુઃખથી બીજા દુઃખને પામે છે, દોષી માણસ બીજા દોનો સ્વીકાર કરનાર પાપકર્મોને જન્મ આપે છે. अशुभ विपाकोदय के रामय आत्मा दुःख का अनुभव करता है, पर एक दुःख नये दुःखों की परम्परा लेकर आता है। दुःख आने पर यदि मन शान्त है तो कर्मों का और तज्जन्य दुःख का क्षय करता है, किन्तु विपाकोदय के समय मन अशान्त हो गया और वह निमित्तों पर आकोश करने लगा तो दुःख भोग के समय नये कर्मों का उपार्जन कर लेता है साथ ही भविष्य के दुःखों की नींन डाल देता है। इसीलिये कहा गया है कि दोषी व्यक्ति नये दोषों को ग्रहण करता है और इस रूप में वह पाप कार्यों को जन्म देता हैं। टीका:-पापकर्मोदयं प्राप्य दुःखेन दुःखभाजन दोषेण च दोषोदयी पापकर्माणि प्रसूयते । गत्तार्थः । उन्विवारा जलोहंता तेतणीय मतोद्रुितं । जीवितं वा वि जीवाणं जीवंति फलमदिरं ॥१४॥ अर्थ-भूकंप से, जल सगृह से, आग से अथवा तृण समूह से मरकर 'मी पुनः जीवों का जीवन आरंभ हो जाता है। फल का आश्रयस्थान कर्म यदि विद्यमान हैं तो जीवन भी चालू रहेगा। गुजराती भाषांतर: ભૂકંપશી, પાણીના પૂરથી, આગથી, ઘાંસના રાશિથી (બળીને પણ) જીવોનું જીવન ફરીથી શરૂ થાય છે. ફલનું આશ્રયસ્થાનરૂપી કમ જે અસ્તિત્વમાં હોય તે જીવન પા ચાલુ રહેશે. सौ पचास वर्ष का जीवन विताकर प्राणी जब चिरनिद्रा में सो जाता है, तो स्थूल दृष्टि में ऐसा लगता है, कि जीवन समाप्त हो गया और ऐसा भी अनुभव होता है। भलाई की जिन्दगी बितानेवाले के भाग्य में दुःख ही दःख है और दूसरों को सतानेवाला उनके आसुओं से क्रीला करनेवाला मौज की जिन्दगी बिताता है। तय प्रश्न होता है, फिर पाप और पुण्य जैसी वस्तु कहां रही। और शुभ का प्रतिफल शुभ रहेगा और अशुभ का अशुभ इस सिद्धान्त की सत्यता पर भी प्रश्न चिह्न लग जाता है। इसी प्रश्न का समाधान प्रस्तुत गाथा में दिया गया है। भूकम्प, जल या अग्नि के द्वारा जीवनलीला समाप्त हो जाती है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं होता है कि जीवन तत्व समाप्त हो गया। जीवन के नाटक का एक दृश्य समाप्त हुआ है पर पूरा नाटक नहीं । एक दृश्य को देखकर किसी निर्णय पर पहुंचना गलत है। सीता हरण के दृश्य को देखकर अच्छे कार्यों के Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० इसि-भासियाई प्रति विश्वास खो देना एक गलती है। दृश्य बदलते हैं पर दृष्टा नहीं बदलता। इसीलिये एक जन्म के कृत पुण्य और पाप अन्य जन्मों में भोगने पड़ते हैं और इसीलिये अच्छी जिन्दगी बितानेवाले को ऋदम कदम पर दु:ख सहना पड़ता है। यह दुःख वर्तमान जीवन का नहीं, वियत जन्म का है। . अतः अर्हतर्षि कह रहे हैं दुर्घटनाओं से जीवन समान हो जाए पर आत्मा समारा नहीं होता और जन्म मृत्यु की परम्परा तब तक चलती रहेगी जब तक कि 'फलामन्दिर कम मौजूद रहेंगे। टीका:-बापाराजलौघान्तात् तेजन्या वा दग्धात् तृणागुच्छामृलोस्थित उक्तस्थानेभ्यो मृत्वा प्रस्थागतमनश्वरं जीवानां जीवितं जीवादेष भवति फलमन्दिरं धान्यागारं कर्मफलभाजनमिति इलेषः । अर्थात्-पृथ्वी के पार से जलराशि में अग्नि से जल कर तृप गुच्छ आदि शे मृत्यु पाकर पुनः आये हुए अनश्वर जीवों का जीवन चालू रहता है 1 बह जीरन फल का स्थान धान्यागार कर्म फल का पात्र होता है जब तक फल का स्थान धान्यागार मौजूद है तब तक उससे धान्य की समाप्ति नहीं होती। उसमें धान्य डाला जाता है और निकाला जाता है अथवा उस धान्य को बोने पर वह सहस्राणित प्रतिफलित होता है और इस रूप में वह धान्यागार कभी भीण नहीं हो सकता। इसी प्रकार आत्मा कर्म बांधता है उन्हें क्षय भी करता है, किन्तु अपनी रागात्मक परिणतियों के द्वारा पुनः कर्म का बन्धन करता है इस रूप में कर्म का धान्यागार अक्षय रहता है यह एक क्षेष है। देजा हि जो मरंतस्स सागरंतं वसुंधरं । जीवियं वा वि जो देजा जीवितं तु स इच्छती ॥ १५ ॥ अर्थ:-मरनेवाले को सागर पर्यन्त पृथ्वी या जीवन दिया जाए तो वह ( मरनेवाला) जीवन ही चाहेगा । गुजराती भाषान्तर: મરનારને (છેલ્લી હાલતમાં) એમ પૂછીએ કે દર્યા ના છેડા સુધી પૃથ્વી તને જોઈએ કે જીવવું પસંદ છે તે તે ( મરનાર માણસ પણ) બેમાંથી જીવન (મારે જીવવું જ ) પસંદ છે એમ કહેશે, - हर प्राणी में एक महत्वपूर्ण इच्छा है, वह है जीने की। यह एक ऐसी कामना है जो मृत्यु के प्रथम क्षण तक प्राणी को छोडती नहीं है। मौत की सजा प्राप्त व्यक्ति को ससागरा पृथ्वी और जीवन दो में से एक का चुनाव करने के लिए कहा जाए तो यह जीवन ही चाहेगा। आगमवाणी बोलती है-प्राणिमात्र जीना चाहते हैं, मरना कोई भी नहीं चाहता, अतः निन्थ घोर प्राणि का परित्याग करते हैं। प्रस्तुत गाथा महाभारत के निम्नलिखित श्लोक से कितना साम्य रखती है। मर्यमाणस्य हेमादि राज्यं चापि प्रयतु । सदनिष्ट परित्यज्य जीवो जीवितुमिच्छति ॥-महाभारत । टीका:-यदि यो म्रियमाणस्य वसुन्धरा पूथ्वीं सागराम्तां दद्याज्जीवितं बाइनयोरेकतरं वियस्वेति ततः स मरणभीरु वितमिच्छति ।। गतार्थः । पुत्त-दारं धणे रजं विजा सिप्पं कला गुणा। जीविते सति जीवाणं जीविताय रती अयं ॥१६॥ अर्थ:-पुत्र, पत्नी, धन, राज्य, विद्या, कला और गुण ये सभी प्राणियों के जीवित होने पर उनके जीवन को आनंद दे सकते है। गुजराती भाषान्तर: છોકરો, બેરી, ઘન, રાજ્ય, વિદ્યા, કલા અને ગુણ એ બધાં પ્રાણિઓ જીવતા હોય ત્યાં સુધી તેના જીવનને આનંદ પહુંચાડે છે. पूर्व गाथा में बताया गया था कि प्राणी ससागर। पृथ्वी को छोडकर भी जीना पसन्त करता है । उसका हेतु यहां दिया है। पुत्र धन विशाल साम्राज्य का सभी जीवन के लिये है 1 जीवन है तभी तक इनका सद्भाव है। दो आखें मूंद जाने पर चक्रवती के साम्राज्य का भी क्या मूल्य है। इसीलिये मानव संपत्ति और जीवन के तोल में जीवन को महत्व देता है। १. सन्चे जीवा वि इच्छन्ति जीविउंन मरिजिउं 1 सम्हा पाणिवहं धार निर्गथा बजयन्ति ।। उत्तरा. अ. ३५ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ पैंतालीसयाँ अध्ययन आहारादि तु जीवाण लोए जीवाण दिजती! पाणसंधारणट्ठाय दुक्खणिग्गहणा तहा ॥ १७ ॥ अर्थः-लोक में प्राणियों के द्वारा दूसरे जीवों को आहारादि इसलिए दिये जाते हैं ताकि वे प्राण रक्षा कर सकें और दुःस्त्र का निग्रह कर सकें। गुजराती भाषांतर: આ દુનિયામાં જીવ વડે બીજી જીવોને અહિાર વિગેરે એ જ ઈરાદાથી અપાય છે કે તેઓના પ્રાણોનું સંરક્ષણ થઈ શકે અને દુઃખને પ્રતીકાર કરી શકે. मानव एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में जीता है। समाज से कुछ लेता है तो यह आवश्यक हो वह कुछ दे भी । जो केवल लेना ही जानता है वह राक्षस है, भले ही वह किसी भी कुल में पैदा हुआ हो और जो देना ही जानता है किन्तु मानद दे और ले के बीच पलता है। वह कुछ देता है तो कुछ लेता भी है। यह दे और ले की क्रिया श्वासप्रक्रिया है। हम श्वास के रूप में अच्छी हवा लेते है तो बदले में हवा छोड़ना न चाहे तो कब तक जीएमा हम दूसरे का सहयोग लेते हैं तो सहयोग देना भी आवश्यक है ।। __ मानव का पहला कर्तव्य है वह पीड़ित का सेवा के लिये हाथ आगे बढ़ाये । दूसरे को गिरते हुए देखकर जो हंसता है तो वह रोम के पास बादशाह का वंशज है जो रोम को जलजा देख रहा था और बांसरी बजाए जारहा था। यदि खडे रहे ही तो मिट्टी के ढेले हैं और घेरकर खडे हो जाते है। पशु है, क्योंकि गाय भी घेरकर खडी हो जाती है, किन्तु जब हम गिरते हुए को थामने के लिये द्वाय आगे बढ़ाते हैं तभी मानब हैं। पाचकमुख्य उमास्वाति भी लिखते हैं। एक ठूसरे के लिए सहायक होना जीवों का लक्षण है। सत्येण बहिणा वा वि खते दहे व वेदणा । सर देहे जहा होति एवं सम्वेसि देहिणं ॥ १८॥ अर्थ:--शस्त्र और अग्नि से जैसे अग्ने देह में आघात, दाह, वेदना होती है, धैसे ही सभी देहधारियों को भी होती है। गुजराती भाषांतर: જેમ શસ્ત્રોથી, આગ અને આઘાતથી બળતરો કે દુખાવા જેવા દરદો શરીરમાં થાય છે તેવી જ રીતે હરએક શરીરધારી (જીવ) ને થાય છે. विश्व की समस्त आत्माएं एक हैं, क्योंकि सबकी सुख और दुःस्त्र की अनुभूति एक जैसी है। मेरी अंगुलि में कोई सुई चुभता है तो पीडा होती है तो दूसरे की देह में सुई चुमेगी तो पीडा हुए बिना न रहेगी। इसीलिये आगमवाणी बोलती है-सभी आत्माएं एक है । सभी आत्माएं सुस्त्र चाहती हैं और दुःख से दूर रहना चाहती है से ही विश्व की अनंत अनंत आत्माएं शान्ति चाहती हैं । इंग्लिश विचारक भी बोलता है-All blood is of one colour-सभी प्राणी एक है। पाणी य पाणिधातं च पाणिणं च पिया दया। सध्यमेत विजापिता पाणिघातं विवज्जए ॥ १९॥ अर्थ:--प्राणियों को प्राणिघात अप्रिय है और समस्त प्राणियों को दया प्रिय है । इस सबको समझकर साधक प्राणिघात का परित्याग करे। गुजराती भाषान्तर :-- જીવોને જીવોની હિંસા ગમતી નથી અને બધા જીવોને (ભૂત) દયા કુદરતી રીતે ગમે છે. આ વસ્તુ ધ્યાનમાં રાખી સાધકે વની હિંસાનો ત્યાગ કર જોઈએ, समस्त प्राणि अहिंसा आत्मा का अपना स्वभाव है। अतः वह सभी को प्रिय है। पशु के सामने एक व्यकि घास ले जाता है और दुसरा छुरा लेकर खडा है। उसे पूछा जाय कि तुझे कौन प्रिय है। यदि कुदरत ने उसकी बोलने की शक्ति दी होती तो वह कह उठता मुझे घास लिये खडा व्यक्ति प्रिय है। फिर भी उसकी जीम न बोले, किन्तु उसकी खे तो बोल १. परस्परो ग्रहो जीवानाम् -तत्वार्धसूत्र अ. पू मू, २१ २. 'अहिंसा गूतानां जगांत विदित ब्रह्म परमं न सा लत्यारंभोऽस्यपुरपि नं यत्रामविधी ३६ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “इसि-भासियाई ही देती है। हिंसा आत्मा का खभाव नहीं है। इसीलिये तो दूसरे को पेट में छुरा भोंकनेवाला भाग खडा होता है जब कि करुणा प्रेरित मानत्र उसके पेट पर पट्टी बांधता है वह हजारों के सामने खडा रह सकता है। हिंसा मन का विष है, तो अहिंमा आत्मा का अमृत है । साधक इस तत्व को समझे और हिंसा का परित्याग करे। तत्व समझकर अहिंसा का अनुपालन ही श्रेष्ठ है, अन्यथा एकेन्द्रिय भी स्थूलरूप से हिंसा नहीं करता फिर भी अहिंसक नहीं कहला सकता । अहिंसा तत्त्व को समझने वाला प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों हिंसाओं से बचेगा। आज हम प्रत्यक्ष हिंसा से बचते हैं, किन्तु परोक्ष हिंसा के द्वार कितने खुले हैं। चमकीले बुट पहननेवाला उसके लिये नारे जानेवाले पशुओं की हिंसा से बच नहीं सकता। सी प्रकार महासकों का उपभोक्ता सरोक्ष हिंगा का भागी होता है। भले ही हम मन को संतोष दे दें यह हिंसा हमारे लिये नहीं हुई है। एक कम्पनी हिंसात्मक वस्तुओं का निर्माण करती है वह निर्माण उपभोक्ताओं के लिये ही होता है, न कि अपने लिये । इस प्रकार अहिंसा की गहराइयों में जितना उतरते जाएंगे उतने ही हिंसा से दूर हटते जाएंगे। टीका:-ये प्राणिनस्ताश्च घातं च, प्राणिनां च प्रिया दया, सर्वमेतद् विज्ञाय प्राणिघातं विवर्जयेत् । गतार्षः। अहिंसा सध्वसत्ताणं सदा णिव्येयकारिका ।। अहिंसा सव्यसत्तेतु पर बंभमणि दियं ॥२०॥ अर्थः-अहिंसा समस्त प्राणियों के लिपे शान्तिदायिका है । अहिंसा समस्त प्राणियों में अतीन्द्रिय परब्रह्म है । गुजराती भाषान्तर: અહિંસા (એટલે કોઈ પણ જીવને ઘાત ન કરવો) બધાં પ્રાણિઓને (મરણનું ભય ન હોવાથી) શાન્તિ આપનારી છે. તેથી જ બધાં પ્રાણુઓમાં એક (અતીન્દ્રિય) ઇન્દ્રિયોથી ન અનુભવાય એવું બ્રહ્મ છે. अहिंसा आयात्मिक जगत का अमृत है, उसकी आनंदानुभूति अन्तरिक्ष यात्रा के आनंद से कम नहीं है। मक्खन दही का सार है, इसी प्रकार अहिंसा तत्व विचारक महान सन्तों के विचार मन्थन का मक्खन है। अहिंसा का अतीन्द्रिय ब्रह्म प्राणिमात्र में व्याप्त है। आचार्य समन्तभद्र बोलते हैं ऋषियों की कल्पना भूमि में रमनेवाला परब्रह्म अतीन्द्रिय है, उसका केवल मानम प्रत्यक्ष हो सकता है, किन्नु यह अहिंसा का ब्रह्म हम सबकी आत्माओं में बोलनेवाला ब्रह्म है और यह सरस है, सुन्दर और साकार भी है। देविदा दाणविंदा य गरिंदा जे वि विस्तुता। सव्यसत्तदयोवेतं मुणीसं पणमंति ते ॥ २१ ॥ अर्थः समस्त प्राणियों के प्रति दयायुक्त मुनीश्वर को देवेन्द्र दानवेन्द्र और ख्याति प्राप्त नरेन्द्र मी नमस्कार करते हैं। गुजराती भाषान्तर: બધાં પ્રાણિયો માટે જેના અંતઃકરણમાં દયા વસે છે તે માણસને દેવેન્દ્ર, દાનવેન્દ્ર અને પ્રસિદ્ધિ પામેલા મહાન નર પા પ્રણામ કરે છે. जिस साधक के हृदय में दया का झरना बह रहा है, देश और काल की दीवारों से ऊपर उठकर जिन्होंने आत्मा को देखा है उसके चरणों में देवेन्द्र और मानवेन्द्र श्रद्धा से झुक जाएं तो आश्चर्य न होगा। हमारी दया का स्रोत प्राणिमात्र के लिये उन्मुक्त रूप से बद्दना चाहिये। मैं और मेरेपन को उस दया के योत के बीच चटूटान नहीं बनने देना चाहिए। यह 'मेरा है, मेरी समाज का है, मेरे प्रान्त और मेरे देश का है, इसलिये वह मेरी करुणा के कण पा सकता है, अन्य नहीं। मन की ये दीवार करुया की पवित्र धारा को अशिय बना देती है; जिस मारक का चिन्तन इन दीवारों से ऊपर उठता है जिसके हृदय में करुणा का सागर लहलहा रहा है वही विश्ववन्ध हो सका है। तम्हा पाणदयटाप. तेल्लपक्षधरो जधा। पगग्गमणीभूतो दयत्थी विहरे मुणी ॥२२॥ अर्थ:-दयाची ( दयाशील) मुगि प्राणियों पर दया के लिये तेलपात्र धारक की भांति एकाग्र मन होकर बिबरे। गुजराती भाषान्तर: દયાશીલ (દયાળુ) મુનિ જીવવષે દયાને માટે તેવી જ રીતે સમતોલ ચિત્તથી વર્તે જેમ કે છલછલ તેલથી ભરેલો ઘડો માથા ઉપર મુકી ચાલનાર માણસ રસ્તામાં ન ઢોળાય એ હિસાબે) એકાગ્રચિત્ત થઈ ચાલે છે. १. पगे अया-स्थानांग सूत्र अ०१ ० १. २, सभ्चे सुह साया दुक्खपडिकूला । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतालीसवाँ अध्ययन २८३ करुणा से अमिभूत साधक प्राणी दया के लिये सदैव सावधान रहे, क्योंकि कदम पर हिंसा का साम्राज्य है। हिंसा प्रसाधन जिनने भवानक बनते जाएंगे अहिंसा को उसका मुकाबला करने के लिये उतना ही सजग रहना होगा। उपग्रह के इस युग में अणुप्रमों का प्रतिकार अशुबन नहीं, अहिंसा ही कर सकती है। अहिंसक को पूरी सावधानी के साथ चलना होगा और पूरे जोश के साथ विश्व को संदेश देना है। Live fund let live जीओ और जीने दो। केवल ही नहीं देता है अहिंसा का अनुपालन करके प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत करता है । अहिंसा दे, सिद्धान्टनम में नहीं, व्यक्तियों में जीते हैं। सिद्धान्त चाहे जितने ऊंचे हों किन्तु उनकी श्रेष्ठता उसके पालनकर्ताओं से व्यक्त होती है। क्योंकि जनता सिद्धान्त नहीं जीवन देखती है और जीभ की अपेक्षा जीवन का स्वर ऊंचा होता है। अहिंसा के लिये साधक उतना ही सावधान रहे जितना कि तेल पूर्ण पात्र को ले जानेवाले । जैन कथा साहित्य में चक्रवर्ती भरत की कहानी आती है। जब अयोध्या के उपवन में भगवान आदिनाथ ने विशाल परिषद के समक्ष देशना दी कि महारंभी और महापरिग्रही मरकर नरक में जाता है। तब एक व्यक्ति ने प्रश्न किया "प्रभो। ये बकरती मरकर कहां जाएंगे। प्रभु ने उत्तर दिया "यह अल्पारंमी चक्रवती इसी भव में संपूर्ण कर्म क्षय कर निर्माण प्राप्त करेंगे।" प्रभु का उमर पाकर बेटते हुए व्यक्ति के मुंह से निकल गया "हाँ; पुत्र को मोक्ष न मिलेंगा?" अस्फुट शब्द चक्रवर्ती के कानों से टकराये। उन्होंने सोचा इसे अभी भी प्रभु की बात पर विश्वास नहीं है। अगले दिन अनुचर को मेजकर प्रश्नकर्ता को बुलाया । अनुचर को देखते ही उसके सामने मौत का चित्र घूम गया। सोचा चक्रवता के सम्बन्ध में प्रश्न करके कितनी मूर्खता की । रोती हुई पत्नी मी बोल उठी "तुम् ही क्या पड़ी श्री प्रश्न करने की है।” का अनुचर ने उसे चक्रवर्ती के समक्ष उपस्थित किया । तो चक्रवर्ती ने तेल का पूरा भरा कटोरा हाथ में देकर कहा-"जाओ तुम अयोध्या में घूमो।" और रक्षकों को आदेश दिया कि "सावधान रहना, तेल एक बून्द गिरते ही तो तुम्हारी तलवार इसका सिर धड़ से अलग कर देगी।" प्रश्नकर्ता ने सोचा मारना ही तो था और अभियोग भी ढूंढ लिया गया है। आज मौत शिर पर है। तेल कटोरा लेकर चला-तो कदम कदम पर मौत वात्र रही थी। पर पूरी सावधानी के साथ तेल ऋटोरा लिपे अयोध्या के बाजारों में घूमा । संध्या को जब सकुशल महलों में लोटा तो सोया अत्र खतरा टला। तेल कटोरा नीचे रखकर संतोष की सांस ली । तो चक्रवती ने पूछा "अब बताओ, अयोध्या के बाजारों में तुमने क्या देखा ?" वह बोला "क्षमा करें, अयोध्या के सारे भाजार इस तेल कठोरे में थे। जब सिर पर मोत मंडरा रही हो तब बाजारों के रंग में क्या रस होगा।" चक्रवर्ती ने कहा "अब तुम्हें अपने प्रश्न का समाधान मिल गया होगा।" उसने पूछा "यह कैसा समाधान? मेरा तो प्राण सूख गये थे।" हंसते हुए चक्रवर्ती ने कहा "मैंने तुम्हें समाधान देने के लिये बुलाया था, मारने को नहीं । प्रभु वीतराग के जिन शब्दों के प्रति तुम्हें अविश्वास था उन्हें ही मुझे सिद्ध करना था। अयोध्या के राग रंग तुम्हें क्योंकि मौत सिर पर झूम रही थी1। ठीक इसी प्रकार छः खंड का विशाल साम्राज्य भी मुझे लुभा नहीं सकता । भले ही मेरे चारों ओर भोग और विलास नृत्य कर रहा हो।" तेलपान धारक की यह कहानी एक ओर अनासक्ति का संदेश देती है दूसरी ओर सावधानी और एकाग्रता का देती है । अर्हतर्षि हिंसा की साधना में उसी एकाग्रता की आवश्यकता पर बल दे रहे हैं। टीका:-सस्मात् माणिदयार्थमेकाग्रमना भूरवा दयार्थी मुनिरप्रमत्तो बिहरे यथा कश्चित्तलपात्रधरः । गतार्थः । आणं जिणिंदभणितं सव्यसतानुगामिणिं । समचित्ताभिणंदिता मुझंती सध्वबंधणा ॥ २३ ॥ अर्थ-साधक प्राणिमात्र का अनुगमन करनेवाली जिनेन्द्र कथित आज्ञा को रामचिन से स्वीकार कर सभी बन्धनों से मुक्त होता है। गुजराती भाषान्तर: સાધક પ્રત્યેક પ્રાણિ ઉપર દયા કરનારી છને નિરૂપિત આજ્ઞાને એકચિત્ત બની અંગીકાર કરીને બંધનોથી મુક્ત બને છે. वीतराम देव की वह आज्ञा जिसमें कि साधक को प्राणिमात्र पर अनुकम्पा रखने का आदेश दिया गया है। साधक उसका राम्य रूप से अभिनंदन करे और उसका अनुगमन कर सभी दुःखों से मुक्त हो सकता है। जिनेश्वर देव की आज्ञा Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ इसि-भासियाई किसी प्राणिविशेष पर अनुकम्पा रखने की प्रेरणा नहीं देती। कोई व्यक्ति हमारी आति समाज या प्रान्त का है, इसलिये हम इसपर अनुकम्पा करें और दूसरा इसलिये हमारी करुणा का कण न पा सके कि वह हमारी जाति से बाहर का है। क्षुद्रता की ये दीवारें वीतराग-शासन में प्रवेश के लिये अवरोधक दीवारें बनकर खड़ी होती हैं। क्योंकि वहां तो अनंत अनंत प्राणियों के प्रति एक रूप में एक भाव से करुगा धारा बहाने का रमादेश है। बीतमोहस्स दंतस्स धीमंतस्स भासितं जए । जे णरा णाभिदेति ते धुर्व दुस्वभायिणो ॥२४॥ अर्थः-वीत मोह (वीतराम) दान्त प्रज्ञाशील की बात को जो मनुष्य स्वीकार नहीं करते, वे निश्चयतः दुख के भागी होते हैं। गुजराती भाषांतर: વીતરાગ એટલે સુખ, દુઃખ, મમત્વની આસક્તિથી રહિત, દમનશીલ અને બુદ્ધિમાન માણસની વાતોનો જે માણસ સ્વીકાર કરતા નથી તે માણસ ખરેખર દુઃખી બને છે. वीतराग देव की समस्त विधिनिषेधात्मक आज्ञाएँ साधक के लिये हितप्रद है। उन आज्ञाओं के पीछे वीतराग की कोई वैयक्तिक स्वार्थ आकांक्षाएँ नहीं हैं, क्योंकि वे स्वयं मोहातीत हैं, जहा मोह की प्रेरणा है वहीं पर स्वार्थ की सृष्टि है। साथ ही वेदान्त इन्द्रियजेता है, उन्होंने स्वयं पहले उन आज्ञाओं का अनुपालन किया है। उसके बाद ही साधक के लिये विधान किया है। वे अनेन प्रज्ञाशील हैं। केवलज्ञान के प्रकाश एज में उन्होंने साधक के लिये ज्ञान किरण दी है। उनके आदेश को कराकर हम उन्हें तो कष्ट नहीं दे सकते, क्योंकि वे तो चीतराग है; पर हो, उनके आदेशों की अवहेलना करके हम अपने आपको दुःस्त और बन्धनों की श्रृंखला में बांध देते हैं। जेमिणंदति भावे जिणाणं सेसि सव्वधा । कल्लाणाई सुहाई च रिधीओ यण वुल्लहा ॥ २५ ॥ अर्थः-जो जिनेश्वरों की आज्ञा का भाव पूर्व सर्वथा प्रकार से अभिनंदन करता है, उसके लिये कल्याण और सुख स्वयं प्राप्त है। ऋद्धियों मी उसके लिये दुर्लभ नहीं है। गुजराती भाषान्तर: જે માણસ જિનેન્દ્રની આજ્ઞાને શ્રદ્ધાથી માનપૂર્વક અભિનંદન (સ્તુતિ) કરે છે, તેને મુખ અને કલ્યાણ કોશીશ ( કશું પણ) કર્યા વગર મળે છે. ઋદ્ધિ અને સિદ્ધિઓ પણ તેને દુર્લભ નથી. जो साधक वीतराग देव के आदेशों का यथोचित पालन करते है। उसके लिये वीतराग की वे कल्याणप्रद आज्ञाएं सुख की शाश्वत राह दिखाती हैं। आत्म शान्ति के साथ उसे अनेक लब्धिया भी प्राप्त हो जाय तो आश्चर्य नहीं, क्योंकि आत्म-तुष्ट के लिये लब्धियाँ चेरी बनकर हाथ जोड़े दोड़ी आती हैं। टीका:-ये भाषेनाभिनंदन्ति जिनाज्ञा तेया कल्याणानि सुखान्यईयश्च सर्वथा दुर्लभा भवन्ति । मणं सधा रम्ममाणं गाणाभावगुणोदयं । फुल्ल व पउसिणीसंडं सुतित्थं गाजितं ॥ २६ ॥ रम्म म जिणिदाणं णाणाभावगुणोदयं । कस्सेयं ण पिपय होजा इच्छियं च रसायण ? ॥ २७ ॥ अर्थ-जैसे नानाविध भाव और गुणों के उदय से मन आनंद पाता है और जैसे अह (मगर) वर्जित सूतीर्थ विकसित पगिनियों के समूह से शोभित होता है, इसी प्रकार नानाविध भाव और गुण से उदित जिनेश्वरों का सिद्धान्त सुरम्य है । इच्छित रसायन की भांति जिनेश्वरी का यह दर्शन किसे प्रिय न होगा? गुजराती भाषांतर: જેમ અનેક તરહના ભાવ અને ગુણોના ઉદયથી ચિત્તમાં આનંદ થાય છે જેમકે ચાહ (મગર) ૨હિત શ્રેષ્ઠ તીર્થ વિકાસ પામેલા કમલોથી સુશોભિત બને છે; તેમ જ નાના તરાહના ભાવ અને ગુણોથી વિકાસ પામેલી નેશ્વરને સિદ્ધાન્ત અત્યંત રમ્ય છે. ઇચ્છેલા રસાયાની માફક જીનેશ્વરનું આ દર્શન કરીને પ્રિય ન થશે? १. माणं, Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतालीसवाँ अध्ययन २८५ मधुर सौरभ सबका मन हर लेती है । इसीलिये खाद्य पदार्थों में और स्वागत समारंभों में सुरभित द्रव्यों का उपगयो होता है। पर यह बाहर की सुवास है, किन्तु मन की पवित्रता सत्य और शील के गुण अन्तर की सौरभ है । अन्तर सौरभ से सुरभित व्यक्ति सर्वत्र प्रिय होता हैं और जिस तुन्दर तीर्थ में मगर आदि नहीं है और पचिनी समूह से जो खिल रहा है यह सबके लिये प्रिय पात्र होता है। इसी प्रकार जिनेश्वर देव के शासन के जिस उद्यान में नानावित्र भाव सद्गुणों के फूल महक रहे है वह किसे प्रिय नहीं होगा। हर को हृदय के व्यक्ति और श्रद्धा मर भित हृदय को वह आकर्षित करता है। हिन को इन्छिन रसायण प्राप्त होती है तो वह कितना आनंदित होता है। वैसे ही जो विभाग दशाओं की व्याधि से पीड़ित हैं उसे आत्म-शान्ति की रसायन क्यों न प्रिय होगी? अपहातोव सर रम्मं वाहितो वा स्याहरं । उछुहितो व जहाऽऽहारं रणे मूढो व येदिय ॥२८॥ वहि सीताहतो वा वि णिवायं बाणिलाहतो। तातार वा भउविग्गो अणसो वा धणागमं |॥ २९ ॥ अर्थ:--अस्नात (स्मान नहीं किये हुए व्यक्ति ) के लिये जैसे सरोवर रम्य है, रोगपीडित के लिए रोगहारक (वैद्य) का घर (औषधालय) प्रिय है। अधित व्यक्ति के लिये आहार प्रिय है। युद्ध में मू माकुल व्यक्ति सुरक्षित स्थान पसन्द करता है। शीत से पीड़ित व्यक्ति के लिए अग्निप्रिय है। वायु से पीडित निर्वात स्थान चाहता है 1 भयोद्विग्न रक्षण को चाहता है और ऋण से पीडित व्यक्ति धनप्राप्ति माहता है। गुजराती भाषांतर : અઆત (એટલે સ્નાન ન કરેલા માણસને માટે સરોવર રમીય હોય છે. દરદથી હૈરાણ થયેલા (માદા) માણસ માટે દરદને મટાડનાર (વૈદ્ય) ના ઘેર (દવાખાનું) પ્રિય છે, ભૂખ લાગેલા માણસને આહાર ગમે છે, જંગ (લડાઈ) માં બીએલો માણસ સુરક્ષિત (જ્યાં મરણનું ભય નહી એવા સ્થાનને પસંદ કરે છે. ટાઢથી કંટાળેલા માણસને અગ્નિ (ગરમી) બહુ ગમે છે. પવનથી પીડિત માણસ પવન વગરનું સ્થળ પસંદ કરે છે. ભયથી ઉદ્વિગ્ન (ભયભીત) માણસ કોઈ રક્ષણ કરનારને ચાહે છે અને દેવાદાર માણસ ક્યાંથી (કોઈ પણ સાધનથી) દ્રવ્યપ્રાપ્તિ થાય તે માટે કોશિશ કરે છે. पुर्व गाथा के अनुसन्धान में प्रस्तुत दो गाथाएं आई हैं। जिनेश्वर देव का शासन सम्यक्त्वशील आत्मा को उतना ही प्रिय है जितना कि अस्नात व्यक्ति को सरोवर, रोगी को औषधालय, क्षुधित' को भोजन, युद्ध में कायर व्यक्ति को सुरक्षित स्थान । दूसरी गाथा में भी ऐसे ही मन के प्रिय पदार्थों का निरूपण है। ठंड से ठिठुरते व्यक्ति को अमि प्रिय लगती है। घायु से पीडित व्यक्ति को निर्वात वायु रहित स्थान प्रिय होता है। भय से उद्विग्न बालक के सम्मुख उसके त्रायक अभिभावक आजाते हैं तो उसे कितने प्रिय होते हैं ? और अग्ण से दवा व्यक्ति जम चारों और से असहाय हो तब अचानक कहीं से उसे संपत्ति की प्राप्ति हो जाय तो वह धन उसे कितना प्रिय होगा. इसी प्रकार जन्म और मृत्यु की परम्परा से पीडित व्यक्ति को वीतराग का शासन प्रिय होता है। अपहातो का पाठान्तर ताहातो मिलता है, उसका अर्थ है तृष्णात प्यास से आकुल व्यक्ति के लिये सरोवर कितना सुरम्य होता है ।। टीका:-अस्नातो वा रम्य सरो च्याधितो घा रोगहरं वैद्य, धितो वाऽऽहार, रणे मूडो ज्याकलोवारन्दि लुण्ठित वहिं शीताहतो वापि नित्रात बाऽनिलाइतस्त्रातारं वा भयोद्विप ऋणार्थी वा धनागमम् । ___ गंभीरं सब्बतोम हेतुभंगणयुज्जलं । सरणं पयतो मणे जिर्णिदवयणं तहा ॥ ३० ॥ अर्थः-गंभीर सर्वतोभद्र हेतु मंग नय से उज्ज्वल जिनेन्द्र देव के वचनों के शरण जानेवाला मी ऐसा ही आनंद पाता है जैसे कि तृपति व्यक्ति पानी मिलने से आनंदित होता है। गुजराती भाषान्तर: ગંભીર, સર્વકલ્યાણપ્રદ એવા નયથી ઉજવેલ જિનેન્દ્રદેવના વચનને માન આપનાર માણસ તરસ લાગેલા માણસને પાછું મળ્યા પછી જેમ અચાનક સંતોષ થાય છે તેવી તે જ રીતે સંતુષ્ટ બને છે. १, तहातो। णण्हातो। २. अमृत शिशिरे बहि: अमृन क्षीरभोजनम् ।। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ इसि भासिवाई वीतराग देव का शासन आसनभवी को वैसा ही प्रिय होता है जैसा कि सात दिन के भूखे को मिष्टान्न भोजन । पूर्व माथा के अनुसंधान में हुई यह गाना की रनको कर रही है। पहले बताया गया है कि तृषार्त को सरीवर, व्याधि पीड़ित को वैद्य का घर और क्षुभित को आहार प्रिय है। इसी प्रकार मुमुक्षु को जिनेन्द्र देव की वाणी प्रिय है। २८६ प्रस्तुत गाथा में जिनेन्द्र देव की वाणी की विशेषताएँ बताई गई हैं। वाणी गंभीर है सर्वतो भद्र है। सबके लिये सब ओर से कल्याण प्रद हैं और वह वाणी हेतु भंग और नय से उज्ज्वल है । उसमें आत्मा के बन्ध और मोक्ष के यथार्थ हेतु बताये गये हैं । वीतराग की देशना हेतुपुरःसर होती है। || देशना की धारा विविध भाव भंगिमा की तरंगों से लहराती है । वस्तु तत्व के विविश्व रूपों का विविध अपेक्षाओं से निरुपण करते हैं । अपेक्षा मेद से की गई व्याख्या भंग कहलाती है । स्यादस्ति, स्यानास्ति स्यादस्ति नास्ति, स्थाद वक्तव्यम्, स्यादस्ति अवतव्यम्, स्यामास्त्यवतव्यम्, स्यादस्ति नास्ति अयम्- ये सप्तभंग हैं । वस्तु स्वरूप की व्याख्या कभी विधेयात्मक होती है कभी निषेधात्मक। इन्हीं के अपेक्षा मेद से समभंग निर्मित होते हैं। आत्मा स्वरूप की अपेक्षा से अस्तित्व शील है तो जबादि पररुप की अपेक्षा से नास्तित्वशील है। दोनों की साथ विवक्षा करनेपर अस्तिनास्ति का तीसरा भंग तैयार होता है किन्तु चतुर्मुखी ब्रह्मा भी अस्तित्व नास्तित्व की एक शब्द में विवक्षा नहीं कर सकता, अतः अवक्तव्य हो जाता है। अवतथ्य साथ अस्ति, नास्ति और अस्ति, नास्ति के विकल्प जोड़ने से सप्तभंग तैयार होते हैं। नय-वस्तु के एक स्वरूप का विचार नय है और वस्तु के संपूर्ण स्वरूप का निरूपण प्रमाण है। जब हम विचार करते हैं तो कभी हमारी दृष्टि वस्तु के मूल स्वरूप पर जाती हैं, तो कभी हम उसकी बाझ पर्यायों पर विचार करते हैं। वस्तु के मूल स्वरूप का विचार द्रव्यास्तिक नय कहलाता है और उसके अवस्था मेद का विचार पर्याय:स्तिक नय कहलाता है। अमेददृष्टि द्रव्यार्थि नय है और मेदगामी दृष्टि पर्याय नय है वस्तु का सामान्य विशेषोभयात्मक निरूपण नैगम नभ्य है, वस्तु के सामान्य अंश को स्वीकार करनेवाला संग्रह नय है । व्यबहार नय वस्तु के विशेष स्वरूपांश को ही प्रय करता है । उसकी सृष्टि में सामान्य जैसा कोई तत्व नहीं है। वर्तमान और स्व को ग्रहण करनेवाली दृष्टि का नाम ऋतु सूत्र नय है। यह दृष्टि पर द्रव्य और उसकी अतीत अनागत पर्याय को असत् मानती है। एक ही वस्तु को लिंग भेद किया कारक भेद से भिन्न माननेवाली दृष्टि शब्द नय I समभिरूद और एवंभूत उसकी सूक्ष्मताओं को बताते हैं । पर्याय भेद से वस्तु में भेद माननेवाला समभिहद नय है जो मुनि की साधु यति सभी पर्यायों को वह मिल मानता है। "एवं भूत " नय कार्य में प्रवृत पर्याय को ही वस्तु मानता है । मुनिवृति में प्रवृत्त को ही वह मुनि मानता है। मुनि प्रवृत्ति से निरपेक्ष को वह मुनि स्वीकार नहीं करता । गम संग्रह और व्यवहार नय द्रव्यास्तिक नय के अन्तर्गत है । ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूठ और एवंभूत नय भेदगामी पर्यायनय की दृष्टि को लेकर चलते हैं । इस प्रकार हेतु भंग और नथ से उज्ज्वल जिनेन्द्र देव की वाणी की शरण जानेवाली असीम आत्मिक आनंद की अनुभूति करता है । १. अंतर भूपहिं व विपति दोषि समयमा हिं. विसेसादमवतव्य पढइ ॥ असो सम्भावे सोऽसम्भावपज्जवे थियो । तं दबिय मत्थि गत्थिय आएस विसेसियं जम्बा || सम्भावे आरो देसो य उभयइ जस्स । ते अथि अव्वतयं न होइ दवियं विययवसा - भ० सिद्धसेन दिवाकर, सन्मतिप्रकरणकाण्ड, कारिका ३६-३८. २. सर्वाग्राहि ज्ञानं प्रमाणम्, अस्वाशमाहि शशनं नयः । ३. तित्थयरवयणसं गइपरथारमूलवागरणी, दनदिओ य पजवणयो य रोसा नियप्पासी । सन्मति प्रकरणकाण्डकारिका ३ ४. नैगमो मन्यते वस्तु तदेतद्भयात्मकम् । निर्विशेषं न सामान्यं विशेषोषि न तद्विना संग्रहो मन्यते वस्तु सामान्यात्मकमेव हि । सामान्यव्यतिरिक्तोऽस्ति न विशेषो पुष्पवत् ॥ विशेषात्मकमेवार्थ व्यवद्वारस्य भन्यो । विशेषभिनं सामान्यमसत् खरविषाणवत् ।। नमो वस्तु नातीतं नाप्यनागतम् । मन्यते केवलं किन्तु वर्तनानं तथा निजम् || भर्थ शब्दनयानकैः पर्यायेरेकमेव च । एकार्थाः कुम्भकलशघयः घटपटादिवत् । जूते समभिरूडो भित्र पर्यायमेदतः । भिन्नार्थाः कुम्भकलशपटाः घटपटादिवत्। एकपर्यायाभिषेयमपि वस्तु चमन्यते कार्य स्वकीयं कुर्वाणो एवंभूतनयो भुवन् । -श्रीविनय विजयजी नयकणिका, Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | २८७ पैंतालीसवाँ अध्ययन सारदं या जलं सुद्ध पुण्णं वा ससिमंडलं । जच्च-मणि अपई वा थिरं वा मेतिणी तलं ॥ ३१ ॥ साभाषियगुणोपेतं भासते जिणसासणं । ससीतारापच्छिणं सारदं वा णभंगणं ॥ ३२ ॥ अर्थ-शरद अरनुका जल शुद्ध होता है पूर्णचन्द्र मंगल रम्य है। प्रकाश करती हुई मणि और विस्मृत मेदिनी तल स्थिर है। इसी प्रकार म्वाभाविक गुणों से युक्त जिनशासन शोभित होता है। जैसे चन्द्र और तारागण से व्याप्त शारदीय नभोजन शोभित होता है। गुजराती भाषान्तर: શરઋતુનું પાણું ઘણું શુદ્ધ હોય છે. પૂર્ણચંદ્રમંડલ પણ ઘણું જ રમ્ય દેખાય છે. પ્રકાશથી ચળક્તા રો અને વિશાલ પૃથ્વીતલ પણ રિથર છે. જેમ ચમા અને નક્ષત્રગણુથી વ્યાસ શરઋતુમાં આકાશ શોભે છે તે જ પ્રમાણે કુદરતી ગુણોથી યુક્ત જનશાસન સુશોભિત છે. अतिर्षि जिनेन्द्र देव के शासन को विविध उपमाओं से उपमित करते हैं । जैसे शारदीय जल शुद्ध होता है और मणि चमकती स्थिर पृथ्वी विविध वन उपवन साग और उपखंडों से शोभित होती है । इसी प्रकार पीतरागदेव का शासन नय और प्रमाग से शोभित है। दुसरी गाथा में वीतराग क्षेत्र के शासन को चन्द्र और तारिकाओं से व्याप्त शरद के स्वच्छ गगन से उपमित किया गया है। प्रस्तुन गाथाएं अर्हतर्षि की काव्यात्मक प्रतिमा को अभिव्यक्त करती है। उसमें प्रकृति के मनोहर रूप के साथ वीतराग. देव के शासन को रखा गया है। शरद का शान्त नभांगन सरसवधा वर्षाचन्द्र और मनोहारि नक्षत्रों से शोभित होता है। इसी प्रकार दर्शनादि आत्मा के म्वाभविक गुणों से जिनेन्द्र प्रभु का शासन शोभित होता है। सवण्णुसासणं पप्प विण्णाणं पधियंभते। हिमत गिरि पप्पा तरुणं चारु वागमो ॥ ३३ ॥ सत्तं बुद्धी मती मेधा गंभीरत्तं च बढ़ती। ओसर्घ वा सुई कन्तं जुज्जर बलवीरियं ॥ ३४ ॥ अर्थ-जिसने सर्वज्ञ का शासन प्राप्त किया है, उस आत्मा का विज्ञान वैसा ही विकसित होता है जैसा कि हिमालय में पृक्ष का सौन्दर्य बढ़ जाता है और जैसे पवित्र और तेजपूर्ण औषधि से बल और वीर्य की वृद्धि होती है इसी प्रकार जिनेन्द्र देव के शासन से ) सत्व बुद्धि मत्ति मेधा और गांभीर्य की वृद्धि होती है। गुजराती भाषान्तर: જે માણસે સર્વસનું શાસન મેળવ્યું છે, તે આત્માનું વિજ્ઞાન પણ તેજ રીતે વિકાસ પામે છે, જેમ કે હિમાલયમાં વૃક્ષોની નિસર્ગસુંદર રમીયતા વધે છે અને જેમ પવિત્ર અને તેજ પૂર્ણ વિધિ (જડીબુટી) થી બલ અને વીર્યની વૃદ્ધિ થાય છે તેવી જ રીતે (જીવના શાસનથી) સત્વ, બુદ્ધિ, મતિ, મેધા અને ગાંભીર્યની વૃદ્ધિ થાય છે, सर्वज्ञ के शासन की एक महती विशेषता यह है कि उसमें ज्ञान के विकास का अवसर प्राप्त होता है वह इसलिये कि इसमें अंधविश्वास को अवकाश नहीं है और धर्म अंध विश्वासों में नहीं पलता । अंधविश्वास को धर्म कहना मुरा को अमृत बताना है । धर्म और अंधविश्वास दो अलग राह पर जानेवाली दो चीजें हैं। मैं तो कहूंगा धर्म का सबसे बड़ा प्रतिद्वन्द्वी कोई है तो अंधविश्वास ही । धर्म की पवित्र देह को दूषित किसी ने किया हो तो वह रंध विश्वास ही है। अंधविश्वास ने धर्म की रक्षा करने का ठेका अवश्य लिया था, पर बह रक्षक मूर्ख बन्दर जैसा था जिसने राजा के शरीर पर बैठी मक्खी को उड़ाने के लिये राजा को ही मार डाला। अंधविश्वास ने भी वही किया अश्रद्धा की मक्खी को उड़ाने के लिये तलवार से धर्म के टुकड़े कर दिये उसकी आत्मा को विदाकर के उसके शरीर से चिपका हुआ है। आगमवाणी मी बोलती हैपण्णासम्मिक्खिए धम्म तत्तं तत-विणिठियं ॥ ___ -उत्तरा० अ० २३. १. जन्ममाणि. २. आज साईस पृथवी को स्वधुरी पर घुमती दुई मानता है। जैनदर्शन के अनुसार दर वस्तु वपर्याय मे परिणमनशील है फिर भी जैन भूगोल पृथ्वी को स्थिर मानता है। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसिभासिन्याई जैन दर्शन अंधविश्वासियों के नहीं अपितु अनंत ज्ञानियों के धर्म को स्वीकार करता है। इसीलिये मंगलपाठ में बोला जाता है केवलप्रज्ञप्तिधर्म को स्वीकार करता हूँ। जो धर्म बुद्धि की तराजु पर तुला हुआ होता है वही तत्व और अतत्व का निश्चय कर सकता है जैसे हिमालय पर हुआ वृक्ष चारों ओर बहते हुए झरनों की तरी पाकर विकसित होता है। अथवा बर्फ सह करी के बीच खेदा वृक्षर हरितिम सौन्दर्य में मुस्कुरा ऊठता है हिमालय की तेजोमयी औषधिय मानव को नवीन स्फूर्ति और तेज प्रदान करती है इसी प्रकार वीतराम देव के शासन के निकट रहा हुआ आत्मा सात्विक बुद्धि और निर्मल प्रज्ञा के द्वारा आत्मा स्वरूप को पहचानता है। जैसे शुद्ध और तेजपूर्ण औषध शरीर को स्वस्थ और पुष्ट बनाती है इसी प्रकार हृदय की विशुद्धि प्रज्ञा में विशुद्धि लाती है और स्वस्थ बुद्धि में गंभीरता प्रवेश करती है। टीकाः-सर्षशासन पुरुषेण प्रा यदि तदा प्रतिजम्भते-प्रकटीभवति यथा तरूणां चारुरागमो मनोहःप्रादुर्भाषो दृश्यते पुरुषैः हिमयम्त मासवभिः। सत्वादीनि वर्धनो यथा सुधाक्रान्तं सुप्रयुक्तमोषधं अलवीय योजयति शरीरेपोति शेषःगता:। पयंडस्स णरिवस्स कतारे देसियस य। आरोग्गकारणो चैव आणा-कोहो दुहावहो ॥ ३५ ॥ सासणं जं परिंदाओ कंतारे जे य देसगा। - रोगुग्घातो य वेज्जातो सध्वमेत हिप हियं ॥ ३६॥ अर्थ-प्रचण्ड राजा का तथा कान्तार अर्थात् संसार में गुरु का और आरोग्यकारक वैद्य की आशा का पालन न करना दुःख का कारण है। राजाओं का शासन, वन के मार्गदर्शक अथवा संसार बन के मार्गदर्शक गुरु उपदेश और वैद्य मे रोग का उपचार यह सब हितप्रद है। गुजराती भाषान्तर: બલવાનું રાજાને હુકમ, કાન્તાર એટલે આ ભવય જંગલમાં ગુસની અને આરોગ્ય-દાયક વૈદ્યરાજની અજ્ઞાનું પાલન ન કરવું એ દુઃખનું કારણ થાય છે. રાજાઓનું શાસન, જંગલમાં માર્ગદર્શન કરનાર, સંસારરૂપી જંગલમાં ગુનો ઉપદેશ અને વૈદ્યની (દરદની) સારવાર તેમજ પરહેજીની સૂચના આ બધી વસ્તુઓ હિતપ્રદ છે. तेजस्वी राजा का आदेश न पालना दुःख को निमंत्रण देना है। शान्त प्रकृति के राजा का मात्रा भंग इतना कष्ट प्रद हरा नहीं होता अब कि उग्र खमावी राजा अपनी आशा को विफल जाते देख उप्रतर बन सकता है और कठोर दंड दे सकता है। बीहक वन में मार्गदर्शक का आदेश न मानना अपने आपको विडम्बना में डालना है। इसी प्रकार वैद्य के पथ्यापथ्य का आदेश न मानकर हम रोग को दूना कर लेते हैं। इसी प्रकार स्वार्थ रहित जीवन बितानेवाले सस्तों के उपदेश की अबहेलना करके हम उनका कुछ न बिगाड़ेंगे, किन्तु अपने जीवन की सीधी राह में कांटे बिखेर लेंगे। दुनिया ने महापुरुषों को पूजा है, उन्हें सुस्वादु भोजन दिया है, सुन्दर वस्न्च दिये हैं, रहने के लिये विशाल भवन दिये हैं। मरने के बाद उनकी मूर्ति बनाकर पूजा है. उनकी चरण धूल को मस्तक पर चढ़ाया है। उनके पैर छ पिया है। उनके उपदेशों को शास्त्र वाक्य मानकर कंठस्थ किये हैं। उनकी स्मृति में मसे ग्रन्थ तैयार किये हैं। उनके लिये मानव लड़ा गिड़ा भी है। उसने सब कुछ किया किन्तु एक नहीं किया वह पथा कि उसकी बात नहि मानी। और इसी लिये तो विश्व की अशान्ति समाप्त नहीं हो सकी। रीका:-प्रचण्डस्य फरम्य नरेन्द्रस्य कान्तारे संसारे च देशिकस्य गुरोस्तथा वैद्यस्यारोग्यकारण भाशा क्रोधारोग्याच प्रशस्तोग्राज्ञा दुःखावहा भमनोज्ञा दृश्यते परन्तु यन् नरेन्द्राद यच्च ये संसार देशिकास्तेभ्यः शासन वधावा रोगोदातो रोगोम्मूलनं सर्वमेतद्धिते हितमतिहितं भवति । गतार्थः । १. केवलिपण्णत्तं धम्म सरणं पवजामि। -मंगलपाठ, आवश्यक सूच। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतालीसवाँ अध्ययन आणाकोवो जिर्णिदस्स सरण्णस्स जुतीमतो || संसारे दुषखसंबाहे दुत्तारो सञ्चदेहिणं ॥ ३७ ॥ तेलोकसारगरुअं धीमतो भासित इमं ॥ सम्म कारण फासत्ता पुणो ण घिरमतशी ॥२८॥ अर्थ-पुण्यशील द्युतिमान जिनेन्द्र देव की आज्ञा की अवहेलना इस दुःख पूर्ण संसार में सबके लिये दुःखप्रद होगी। त्रैलोक्य के सारभून महान प्रज्ञाशील महापुरुषों ने जो कहा है और जीवन के लिये सम्यक् है उसका जीवन से स्पर्श करके फिर उससे पीछे न हटे। गुजपती भाषान्तर:- પુણવાન દેદીપ્યમાન નિંદ્રદેવની આજ્ઞાની અવહેલના (અપમાન) આ દુઃખમય સંસારમાં બધાને માટે દુઃખદાયક થશે. વલોક્યના સારભૂત શ્રેષ્ઠ બુદ્ધિમાન મહાપુરૂષોએ કહ્યું છે અને જે વનયાત્રા માટે અત્યંત ઉશ્ક છે એનો જીવનને સ્પર્શ કર્યા પછી તેનાથી પાછળ ખસી જવાય નહી. वीतराग देव द्वारा निर्दिष्ट पथ जीवन शान्ति का शाश्रत पथ है । मोहातीत महापुरुष, जीवन पथ के यथार्थ दृष्टा है। हम क्या हैं हमारा स्वरूप क्या है। यह आत्मा चतुर्दिक संसार में परिभ्रमण क्यों कर रहा है? आत्मा का शुद्ध स्वरूप क्या है वह कैसे प्राप्त किया जा सकता है। इन सब प्रश्नों का समाधान वीतराग देव ने मोह और पाय विजय के पवित्र संदेश में दिया है उसका अनुपालन न करके हम मोह की जाल में फंसते है और दुःख की परम्परा को निमंत्रण देते हैं। अतिर्षि बता रहे है विश्न के मारभूत अनंतज्ञानी महापुरुषों का संदेश है जो जीवन के लिये श्रेय स्वरूप है उसे ग्रहण करें 1 इन्द्रियों के लिये जो प्रिय है वह प्रेय कहलाता है । इन्द्रियो उसी ओर दौड़ती हैं, किन्तु आत्मा को विकासोन्मुस्त्र बनानेवाली प्रवृत्ति श्रेय है। साधक धेय को पहचाने और हद मनोयोग के साथ उसका पालन करे। फिर कितने भी प्रलोभन सामने आवें, कितनी भी कठिनाइयाँ आएँ उरासे पीछे न हटे । मुसीबतों और प्रलोमनों को देखकर साधना से भटक जामेवाला सावक आत्मविकास नहीं कर सकता। टीका:-जिनेन्द्रस्य शरण्यस्य धुतिमतः संसारे दुःखसंबाहे सर्षदेहिना दुस्तारो भवत्याझाकोप उग्राज्ञा, तथाऽपि त्रैलोक्य सारगुरुधीमसो भाषितमिदं कायेन श्रोत्रेण सम्यक् स्पृष्ट्वा गृहीत्वा यदि वा भाषितमाशावन मस्तके गृहीत्वा न पुनस्तस्माद् विस्मेत् । टीकाकार कहते हैं -- शरण्यभूत वीतराग देव की आज्ञा कठोर होने पर भी उसका अनुपालन आवश्यक है। आज्ञा उन होने पर भी उसे सम्यक रूप से काया के द्वार अनुपा लित करे । उससे विरत न हो। पद्धचिंधो जया जोधो वम्मारूढो थिरायुधो। सीहणायं विमंचित्ता पलायंतो ण सोमती ॥ ३९ ॥ अगंधणे कुले जातो जघा णागो महाविसो। मुंचित्ता सविसं भूतो पियंतो जाति लाघवं ॥ ४० ॥ अर्थ:-राज चल चांधकर रथ में आरूढ़ स्थिरायुध योद्धा सिंहनाद करके यदि रणभूमि से पलायन करता है, तो वह शोभास्पद नहीं हो सकता: अगंधन कुल में पैदा हुआ विषधर यदि महा विष को छोड़कर पुनः उसे ग्रहण करता है तो हीनता को प्राप्त होता है। गुजराती भाषान्तर:ને રાજચિન્હયુક્ત થઈ રથ ઉપર ચઢીને સ્થિરાયુધ થએલો લૉ સિંહનાદ કર્યો પછી (રણભૂમી છોડી) જે ભાગી જાય છે તેની કીર્તિને છાજે નહીં, અગંધન કુલમાં જન્મેલ ભયકર ઝેરી નાગ ઝેરને બહાર ફેંકી દઈ જે પાછું તેને લઈ લે તો તે (સાપના વંશ) ને હીનત્વ પ્રાપ્ત થાય છે. जधा सप्पकुलोन्भूतो रमणिशं पि भोयणं! वंतं पुणो सा भुजतो घिधिकारस्त भायणं ॥ ४९ ॥ पूर्व जिणिवआणाए सल्लुशरणमेव य । . णिग्गमो य पलित्ताओ सुहिओ सुहमेव तं ॥ ४२ ॥ अर्थः-जैसे रुक्मि कुल में उत्पन्न सर्प मुन्दर भोजन कर उसे दमन कर पुनः उसको साता है तो धिक्कार का पात्र होता है, इसी प्रकार जिनेन्द्र देव की आज्ञा का यथावत् पालन करने से आत्मशल्यों का उद्धार होता है । संसार की आग से निकलकर वह सुखी होता है और यथार्थ में वही सुख है। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० इसि - भासियाई गुजराती भाषान्तर : સાપ જેમ ક્રિમવંશાં જન્મેલ મનગમતો ખોરાક લઈ તેની ઉલટી કરે છે અને તે ( વમન કરેલું ) જ ફરી ખાઈ નાખી પોતે ધિક્કારનો ભોગ થઈ પડે છે, તેજ પ્રમાણે જીનેન્દ્રદેવની આજ્ઞાનું પાલન કરવાથી આત્મશલ્યોનો ઉદ્ધાર થઈ જાય છે. સંસારના તાપથી છુટી જઈ ને સુખી બની નય છે તે જ સાચું સુખ કહેવાય છે. साधक भ्रमण जीवन को अपनाकर आगे जीव की पदार्थों के आकर्षण को लेकर पुनः संसार की संसक्ति में न फँसे। क्योंकि साधना से वासना की ओर लौटन साधक जीवन की बहुत बड़ी पराजय है । एक योद्धा बुद्ध के लिये तैयार होता है। कटिबद्ध होकर कवच धारण कर सिंहनाद करता है। इतनी वीरता से आगे बढने बाद यदि वह युद्ध भूमि से पलायन करता है तो उसके लिये बहुत बुरी पराजय होगी I साधक गंधकूल का सर्प न बने, जो उगले हुए विष को पुनः निगल जाए। वह अगंधन कुल का नाग हैं जो वाराना के विष को उगल देने के बाद हजार यंत्रणा देने पर भी यक विष को ग्रहण करने को तैयार नहीं होता। अगंधन कुल के सर्प का रूपक उत्तराध्ययन सूत्र में भी आता है। सती माथी राजमती साधना पथ से चलित रथनेमि को फटकार के स्वर में कहती हैअमं नाम को जाज्वल्यमान धूमकेतु के सदृश दुःसह आग में गिरकर भस्म होना स्वीकार है । किन्तु वह षमन किये हुए विप को वह पुनः स्वीकार नहीं करता। अतः तुम गन्धन कुल के सर्प बनकर वामित वासना को पुनः स्वीकार न कर' । यदि अगंधन कुल का सर्प भी अपने वमित विश्व को पुनः ग्रहण करले है तो वह अपने कुल गौरव को समाप्त करता है । इसी प्रकार रुक्निकुलोत्पन्न सर्प भी यदि सुन्दर भोजन करके उसका त्रमन करके पुनः खाता है वह धिकार का पात्र होता है । साधक अधनकुल का सर्प हैं। वह आग की ज्वाला में झुलसना मंजूर करेगा पर साधना के पथ से विचलित न होगा; क्योंकि उसने भोग उन पदार्थों को अशिव समझकर परित्याग किया है। यदि वह उन्हें पुनः स्वीकार करता है तो वह वमित पदार्थों का ग्रहण है । जिनेन्द्रदेव की आज्ञा से योद्धरण संभव है। साधक इसका सम्यक् परिशलन करके इस दावानल अथवा प्रलिप्तता (संसक्ति) से निकल शाश्वत शान्ति पा सकता है । टीकाः पथा योधो वज्र-चिह्नो वर्मारूढः स्थिरायुधः सिंहनादं विमुच्य पलायमानो न शोभते किन्त्ववमन्यत । गच्छति, यथा नागो भुजंगो महाविषोऽगन्धनकुले जातः स्वविषं मुषावा भूयस् तत् वियन् लाघवं याति यथा च सर्पकुलोद्भूतो रमणीयमपि भोजनं वान्तं पुनर्भुजन् धिक् धिक्कारस्य भाजनं भवति । अगन्धानास्तु नागा मरण व्यवस्यन्ति न वान्तमापिवन्तीति विपरीतमाविशति जिनदासो दशबैकालिक चूण; एवं जिनेन्द्राशया "सन्वक्ष्यमात्मतस् तपसा शल्योरणमेव तथा प्रदद् गृहासितं सुखी सुहित वा भवति । सुखं पुत्र तत् । गतार्थः । इंदासणी ण तं कुज्जा दित्तो वण्ही अणं अरी । आसादिज्जत संबंधो जं कुज्जा रिद्धिगारवो ॥ ४३ ॥ अर्थः- इन्द्र का वज्र, प्रज्वलित अभि ऋण और शत्रु इतनी हानि नहीं पहुँचा सकते जितना कि मन से आस्वादन लिया जाता हुआ ऋद्धि का गर्व । गुजराती भाषान्तर: ઈન્દ્રનું વસ્ત્ર, પ્રવલિત અગ્નિ, ઋણ અને દુશ્મન આટલું નુકસાન કરી નહીં શકે, જેટલો કે મનથી સ્વાદ લઈ લીધેલો લક્ષ્મી નૉ અહંકાર ! कहा जाता है इन्द्र का बज्र मत्यों की मृत्यु की शरण पहुंचाता है और अमर्त्य को दारुण दाद पहुँचाता है। प्रदीप्त आग ऋण और शत्रु ये सभी व्यकि को संकट के सागर में डाल सकते हैं, पर अतर्षि कह रहे हैं कि ये सभी आत्मा को उतनी पीड़ा नहीं पहुंचा सकते जितना कि मन में घुसा हुआ ऋद्धि का गौरव । गौरव का रौरव जिसके मन में धधक रहा है उसके गुणों की राख बना देती है। संभुम चकती और रावण जैसे इस गौरव की आग में ही तो राख होगये । हिटलर और मुसोलिनी के गर्व ने जर्मन और इटली का पतन करवाया था । 1 एक विचारक ने ठीक कहा है ऐ नदी तेस पूर तीन दिन में उत्तर जाएगा, किन्तु अपनी संपत्ति के मद में तूने जो विनावालीला खड़ी की है वर्षों तक दुनिया उसे भूल न पाएगी। फुटबल इसी लिये ठोकरें खाता है कि उसके पेट में मगरूर की हवा भरी रहती हैं। बाहुबली के छोटे से गर्व ने उनके लिये कैवल्य के दरवाजे बन्द कर दिये थे। उनके अहंकार की तुलना मैं हमारा अहंकार हजार गुना अधिक होगा और फिर हम ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं । प्रभु महावीर से एक बार गौतम खामी ने पूछा था : 'प्रभो ! आपके अनुग्रह से मुझे चौदह पूर्व और चार ज्ञान प्राप्त हैं, केवलज्ञान में अब कितना शेष है ?' तत्र प्रभु ने कहा था 'गौतम! असंख्य योजन विस्तृत स्वयंभूरमण सागर में से एक १ पत्र दे जलियं जीवं धूमकेचं दुरासयं । नेच्छन्ति वन्तयं भोत्तुं कुले जाया गंधणे 1 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतालीसवाँ अध्ययन चिडिया अपने चंच में पानी लेती है बाद में वह सांचे अब सागर में कितना जल शेष स बस, विडियों के नोंच में जितना जल आता है उत्तने ये तेरे चार ज्ञान और चौदह पूर्व है। केवल ज्ञान शेष असीम जलराशि है। जब शान की संपत्ति का गर्व मन में आने लगे तब इस लघुकथा को स्मृतिपथ में ले जाना चाहिए।' गौतम स्वामी को यह उत्तर मिला है व उनके सामने हमारा ज्ञान कितना है। फिर हमारे ज्ञान की यह हालत है नैयाकरणों की सभा में तार्किक बन जाते हैं, तार्किकी की सभा में पेशाकरण बनते हैं। जहां दोनों नहीं है वह वैयाकरण और तार्किक दोनों बन जाते हैं और जहां दोनों सामने हों तो न वैयाकरण रहते हैं, न तार्किक ही। एक इंग्लिश विचारक कहता हैVen are of four kinde. 1 He who knows not and knows not be knows not, he is a fool, shun hini. He who knows not and knows he kolf not. He is simplo teach Flien; 3 He wllo knows und knows not he knows, He is asleon,-wake. him; 4 He who knows and mowy he know, he is wise follow him! १. जो जानता नहीं है और जो यह भी नहीं जानता कि वह जानता नहीं है वह मूर्ख है, उसे छोड़ दो। २. जो जानता नहीं है पर वह अपने अज्ञान को समझता है वह साधारण पुल है उसे सीखाओ। ३. जो जानता है पर उसे भान नहीं है कि वह जानता है, वह सो रहा है उसे जाग्रत करो। ४, जो जानता है और उसे ज्ञान है कि वह जानता है वह बुद्धिमान् है उसका अनुसरण करो । विकास के इमाटुक को सत्ता संपत्ति और ज्ञान सब प्रकार के अहंकार से दूर रहना चाहिए। टीका-इन्द्राशनिदीप्तो बहिर मरिन तत् कुर्युर्यत् कुर्यादास्थाद्यमान-सम्बन्धनमृदिगौरव ऋद्धीनां बहुमानः । गताः । विस गाह सरद विसं वामाणुजोजितं । सामिसं बा णदीसोय यं साताकम्म दुईकर ॥५४॥ अर्थः-विष और ग्राह-मगर आदि से व्याप्त सरोवर, विध मिश्रित नारी (विष कन्या) और मांस युक्त नदी स्रोत की भौति मुख के कर्म भी अन्त में दुःखकारक होते हैं। गुजराती भाषांतर: ઝેર અને મગર વિગેરે હિસ્ત્ર પ્રાણિઓથી વ્યાસ સરોવર અને ઝેરી નારી (વિષકન્યા), માંસયુક્ત નદીસ્રોતની જેમ સુખના કમી પણ છેવટે દુખપર્યવસાયી (દુઃખમાં જ પરિણામ થાય એવા) થાય છે. कर्म के दो प्रकार होते हैं। एक सातवेदनीय, दूसरा अतिवेदनीय । एक का विपान शुभ रूप में होता है दूसरे का अशुभ । प्राणी मुख रूप कर्म चाहता है। दुःखरूए नहीं । किन्तु कर्म चाहे सुखम्प हो या दुःखरूप उसका अन्तिम परिणाम दुःखरूप होता है। दुःख तो कटु है ही, किन्तु सुस्वरूप कर्म भी दुःख से मुक्त नहीं है। माता मरुदेवी को पूर्ण साइवेदनीय का उदय था और वे अपनी सुदीर्घ आयु में एक दिन भी अस्वस्थ नहीं हुई, फिर भी जन्म और मृत्यु का दुःख तो था ही वियोग का मनस्वाप भी कहीं नहीं गया था, अतः सम्यग्दर्शनसंपन्न साधक न अशुभ कर्म चाहे न शुभ कर्म । वह तो सभी का अन्त चाहे। अर्हतर्षि इसी कथा की सोदाहरण व्याख्या करते है-सुरम्य सरोवर को देख भीष्म के ताप से क्लान्त मानव उसमें डुबकी लगाना चाहता है, किन्तु यदि उसका पानी विष मिश्रित है अथवा उसमें भयंकर ग्राहमगर है तो उसमें प्रवेश करने का कोई साहस नहीं करता और उसकी सारी बार सुषमा असुंदर हो जाती है। अथवा विषकन्या बाहर से अनिय सुन्दरी होती है, किन्तु उसका स्पर्श प्राणापहारक होता है और जिल नदी के प्रवाह में मास के टुकड़े डाले गये हैं वहां भी मत्स्य। दि का आगमन अधिक होता है, किन्तु मांस-लोग से आई मछलियां जाल में फंस जाती है। ये सभी वस्तुएं बाहर से गुन्दरता लिये हुए रहते हैं, किन्तु अंत में इनका परिणाम प्राणघातक हो सकता है। इसी प्रकार शुभ कर्म भी अशुभ विधाक लेकर आता है। सुख की घड़ियाँ मानव को कर्तव्यभ्रष्ट बना देती हैं। कहा जाता है कि मनुष्य दुःख में पागल हो जाता है, किन्तु मनुष्य दुःख में नहीं मुख में पागल हो जाता है। मुख की अत्यधिकता उसकी विवेक ज्योति लुप्त कर देती है। दुर्योधन राबण और कोणि सुख के ही पागल थे । दुःख मानव की विवेक ज्योति को कायम रखता है। जैसे टेनीमेढी सड़क पर डायवर सावधान हो जाता है। इसी प्रकार दुःख के क्षणों में आत्मा सावधान हो जाता है। दुःख में मेरे तेरे के क्षुद्र घेरे समान होकर आत्मीयता का प्रसार होता है। जैसे रात्री के सधन अंधकार में सभी वस्तुएं एक हो जाती हैं। सुख व्यक्ति के मन में अहंकार पैदा करता है। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ इसि भारियाई जबकि दुःख अहंकारी को भी नत्र बनाता है। वैराग्य जन्मभूमि भी बैराग्य ही है। दो सम मुखियों में ईर्ष्या जन्म लेगी, जबकि दो समदुःखियों में सहानुभूति पैदा होती है । इस लिये अतर्षि कह रहे हैं साधक सुख के मोहक रूप में न उलझे । टीका:- सातकर्मे करणं दुःखकरं दुरन्तं भवति यथा समाई - शिंशुमारादिगर्भ सरो बुद्धं विकसितोपलं, मया स्त्रिया वा कामिनोनुयोजितं विषं सामिषं वा नदीस्रोतो मरस्य प्लवन योग्यम् । साताकर्म=अर्थात इच्छित=स रूप कर्म तुरन्त होता है जैसे जिस सरोवर में कमल खिल रहें किन्तु उसके भीतर बड़े मगर हैं। स्त्री की सुन्दरता में भी कभी विष छिपा रहता है। रूपलिप्सा में आकुल कामान्ध व्यक्ति को वह कभी कभी अपने हाथों से विष दे देती हैं और रूप- मधुरिमा मृत्यु का निमंत्रण बन जाती है। जिस नही के स्रोत में मांस के टुकडे बिखेरे गये हैं वह मछलियों की कीड़ा के योग्य है और मछलियाँ मास टुकड़ों से आकृष्ट हो वहां आती है; किन्तु दूसरे ही क्षण वे जाल में फंस जाती हैं। कोसीक व्याsar तिक्खो भासच्छण्णो व पावओ । लिंगवेसपलिच्छपणो अजयच्या तहां पुमं ॥ ४५ ॥ अर्थः- जैसे तीक्ष्ण तलवार कोष म्यान में रहती है और अभि भस्माच्छादित रहती हैं इसी प्रकार अजितात्मा पुरुष भी नानाविध लिंग और वेश में छिपे रहते हैं । गुजराती भाषान्तरः જેમ તીક્ષ્ણ ધારવાળી તલવાર હમેશા કોશ(મ્યાન ) માં રહે છે, અને રહે છે તેજ પ્રમાણે અજિતાત્મા (જેની પન્દ્રિયો પોતાના કાબુ બહાર છે અહારના વેશ અને લિંગોથી સંતાડેલો હોય છે. ગ્ન પણ ભસ્મ (રાખ) થી ઢંકાયેલ તેવો) માસ અનેંક તરહના भ्यान तलवार नहीं है । उस सुन्दर से म्यान के नीचे वीक्ष्ण तलवार छुपी रहती है और राख आग नहीं है, वह तो उसके नीचे दबी हुई है, इसी प्रकार शरीर आत्मा नहीं है। आत्मा शरीर में है पर शरीर से भिन्न है। उपनिषदों में शरीर को रथ बताया गया है और आत्मा को सारथि । यजुर्वेदीय कठोपनिषद में रथ और सारथी का सुन्दर रूपक दिया गया है वह यों है— शरीर रूप रथ में आत्मा रथी हैं, बुद्धी सारथि है, मन लगाम हैं, इन्द्रियां घोडे और विषय उनके विचरने के मार्ग हैं। इन्द्रिय और मन की सहायता से आत्मा भोग करता है। जो प्रज्ञा संपन्न होकर संकल्पवान गन से स्थिर इन्द्रियों को मार्ग में प्रेरित करता है वही मार्ग के अन्त तक पहुंचता है जहां से पुनः लोटता नहीं है'। साधक आत्मा के स्वरूप को समझे । लिंग और वेश के बंधनों से ऊपर उठकर शुद्ध आत्मा के दर्शन करे। सत्य का शोधक लिंग और देश के आचरण को हटाकर पवित्र आत्मा को खोज लेता है । 1 टीका:- कोशीकृतः कोदो निहित इवासिस्तीक्ष्णो भस्माच्छन्न इव पावकस्तथा लिंगवेशपरिच्छन्नः कुसाधु रञ्जितात्मा । टीकाकार कहते हैं - कोश म्यान में तलवार रहती है और भस्म के नीचे जाज्वल्यमान आग रहती है. इसी प्रकार संयम के वेष के नीचे असंयमी आत्माएँ रहती हैं। लिंग और देश तो संयमी साधक का है, जिनके मनमें वासना की ज्वाला शान्त नहीं हुई हैं ऐसे व्यक्ति दुनिया के साथ छल करते हैं और अपने आपको भी धोखा देने की चेष्टा करते दुनिया को धोखा दिया जा सकता है; किन्तु अपने आपको नहीं । जो देश के प्रति वफादार नहीं है वे दुनिया के सबसे बड़े मक्कार हैं। चोर चोर बेश में रहता है तो इतना बुरा नहीं हैं जितना कि बहू एक सभ्य व्यक्ति के वेश में आता है। ऐसे गोमुखी व्याघ्रों से सावधान रहने के लिये अर्हता प्रेरणा दे रहे हैं। कामा मुसामुही तिक्खा, साता कम्मानुसारिणी । तन्हा सातं च सिग्धं च तव्हा छिंद्रति देहिणं ॥ ४६ ॥ अर्थ::- काम तीक्ष्ण मृषामुखी कैची (असत्यवादी ) है सातकर्मानुसारिणी है । किन्तु यह तृष्णा देहधारियों से शांति और तृष्णा शीघ्र काट देती है । गुजराती भाषांतर: કામ એટલે તીક્ષ્ણ વાસન, મૃષામુખી એટલે કાતર ( ખોટું બોલનાર ) આ સાતકર્માનુસારી છે પણુ આ તૃષ્ણા ( તરસ ) શરીરધારીઓની શાંતિ અને તૃષ્ણાને તરત જ નષ્ટ કરી દે છે. मन की वासना वीण मृषामुखी है अथवा काम मृषामुखी है। अर्थात जहां काम है वहां असत्य अवश्य रहता है। कामी व्यक्ति अपने पाप को छिपाने के लिये सो सो झूठ का आश्रय लेता है। तृष्णा सुख चाहती है। तृणाल अपनी सुख और शांति के लिये संपत्ति एकत्रित करता है। अनंत अनंत काल तक के लिये संपत्ति एकत्रित करना चाहता है। किन्तु यह तृष्णा देहधारियों की शांति को अविलम्ब भंग कर देती है। क्योंकि जिस मोटर में ब्रेक नहीं है वह ऐक्सीडेन्ट के खतरे से खाली नहीं है तो १ आत्मानं रथिनं विद्धिं शरीर रथमेव तु । - कठोप० ३।३. Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतालीसवाँ अध्ययन २९३ जिसकी तृष्णा पर चेक नहीं है बह भी अपने जीवन में ऐक्सीडेन्ट (दुर्घटना) करता है। हिरोशिमा कोरिया, लाओस की युद्ध की ज्वाला उसी ऐक्सीडेन्ट से आयी है। दुनियां के आधे से अधिक सेघर्ष तृष्णा ब्रेक के अभाव की कहानी कह रहे हैं। एक इंग्लिश विचारक कहता हैDesire is burniug fire, he who fails into never rises again. 3781 3 SUTTI उसमें जो गिरा है बह फिर कमी उठा नहीं है।-'जेम्स आफ इस्लाम' चम्पतराय. स्वर्णमृग के मोह ने सीता को हजार हजार विपत्तियों बीच पटका था ! सोने ने भाई के भाई चारे को भुलाया था। एक विचारक और बोलता है।-I despise gold, it bus persuaded many men in many an evil.-लाटस. मैं सोने को धिकार क्योंकि उनने भोर मनु को पाप दाने के लिये फुसलाया है। इसीलिये अर्हतर्षि मृष्णा से शांति के लिये खतरनाक बनाया है । भगवान महावीर ने अन्तिम देशमा में फरमाया था-सम्पत्ति के द्वारा मानव शांति नहीं पा सकता । टीका:-कामा मृषा सुखिनो व्याजशीलाः तीक्ष्णाः साप्तकर्मानुसारिणी तृष्णा चासातं च शीघ्रं च तृष्णा कामश्छिनत्ति देहिनाम् । गतार्थः ।। सदेवोरगगंधव्वं सतिरिक्त्रं समाणुसं। वैत्तं तेहिं जग किच्छ तण्हापासणिबंधणं ॥ १७ ॥ अर्थ--देव नाग, गंधर्व तिर्थच, मानव के साथ संपूर्ण लोक का उसने परित्याग कर दिया है जिसने तृष्णा का बंधन तोड़ दिया है। गुजराती भाषान्तर:- જે માણસે તૃષ્ણા (વિષયાસક્તિ) નું બંધન તોડી નાખ્યું છે તે માણસે દેવ, નાગ, ગંધર્વ, તિર્યંચ માનવીને સાથે આ સંપૂર્ણ લકનો ત્યાગ કરી દીધો છે, तृष्णा का गुलाम सारी दुनियां का गुलाम है, क्योंकि मन की तृष्णा उसे दुनियां की गुलामी करने के लिये प्रेरित करती है। अध्यात्म योगी कवि आनंदघनजी अपने आध्यात्म पदमें कहते हैं आशा दासी के जे जाया, ते सिहं जग के दाला । जिसने तृष्णाएर विजय पाई है उसने देव गंधर्व तिर्यच और मानव संपूर्ण लोक पर विजय पाई है। 'निःस्पृहस्य तण जगत् ।' निस्पृह के लिये सारी दुनिया तृण तुल्य है । अक्खोवंगो बणे लेखो, ताच जं जउस्स य । णामणं उसुणो जे च, जुत्तं तो कज्ज-कारणं ॥४८॥ अर्थः- आंख में अंजन लगाना, वण ( घाब) पर लेप करना जतु-लाख का तपाना और बाण का झुकाना इन सब के पीछे ठीक ठीक कार्यकारण परंपरा काम कर रही है । गुजराती भाषान्तर: આંખમાં અંજન જવું, ત્રણ (ઘા) ઉપર લેપ લગાડો, જતુ એટલે લાખ તપાવી ગરમ કરવી અને બાણ વાંકો વાળવો એના પાછળ એક મોટી કાર્ય-કારણ પરંપરા કામ કરી રહી છે. तृष्णाशील व्यक्ति का जीवन सदैव भौतिक प्रवृत्तियों में बीतता है, प्रातःसूर्य की प्रथम किरण के साथ उसकी निद्रा खुलती है और वह अपने बनाव सजाव में जुट जाता है। खाध्याय और ध्यान के महत्वपूर्ण समय का उपयोग वह भृगार प्रसाधनों में रामार करता है। कोई अपने समय का उपयोग दैनिक पत्र पड़ने में लगाता है, तो कोई बुट पालिस में तो कोई नेत्रीजन में सुंदर समय को बरबाद करता है। बालों की सजावट और स्नो पाउडर में घंटों लगा देनेवालों के पास प्रार्थना के लिये पाच मिनिट का समय नहीं मिलता। आंख का अंजन गौन्दर्य वृद्धि के लिये है। तो ब्रश लेप भी शारीरिक सुषमावृद्धि के लिये है, व्रण लेप का एक अर्थ घाव पर लेप करना है, वह स्वास्थ्य के लिये अभिप्रेत है, किन्तु यहां उसकी एक दूसरी दान भी निकलती है, चेचक आदि के द्वारा मुंह पर व्रणचिल-मुंहासे हो जाते हैं, उन्हें हटाने के लिये जो लेप किया जाता है वह पतृणा से प्रेरित है। जतुलास का तपाना आजीविका निमित्तक है। किन्तु वह भी कभी कभी लोभ प्रेरित होता है। वाण को झुकाने की क्रिया भी किसी कारण से प्रेरित होकर की जाती है। उद्देश्य बिना की क्रिया पागलों की होती है। बुद्धिमान एक कदम भी जिना उद्देश्य के इधर से उधर नहीं रखता। किन्नु हर व्यक्ति के उद्देश्य विभिन्न होते है । एक ज्ञानी की समस्त क्रियाएं आत्म-साधना को लेकर होती हैं, जबकि रमी व्यक्ति की क्रियाएं अपनी रागपरिणति की पोषक होती हैं। १ वित्तण ताण न लभ पमत्ते। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि भासियाई टीका:- सदेवगन्धर्य सतिर्यक् समानुषं जगत् ताभ्यां शाततृष्णाभ्यां कृच्छ्रे व संभूतं तृष्णापाशनिबन्धनं, के ते! उच्यते परंजनं बणे लेपो यच्च अतुनस्तापनं यत्र वेषोर्नामनं यच्च ततो युक्तं कार्यकारणमिति । युग्मम् । गतार्थः । आहारादीपडी कारो लव्यष्णुव यणाहितो । अप्पा हु तिव्वषहिस्स संजमद्वाप संजमो ॥ ४९ ॥ अर्थ:- तीव्र आग को अल्प बनाने के लिये ( क्षुधा का ) प्रतिकार के लिये किया गया आहार सर्वज्ञ वचनों में से है और वह संयम के लिए है और हितप्रद है । २९४ गुजराती भाषान्तर : ભયંકર અગ્નિને શમાવવા માટૅ( એટલે પેટની ભૂખ શાંત કરવા માટે) ખાધેલો ખુરાક સર્વને અનુમોદન આપેલી છે. તેથી દુર્દમ્ય એના ઈદ્રિયોપર કાજી મેળવવા માટે તે યોગ્ય છે તે ખરેખર હિતકારક થાય છે. पूर्व गाथा में बताया गया है। सराग आल्या की हर क्रिया बन्धन रूप होती है। पन होता है यदि क्रिया में पाप होता है तब संयमी जीवन जीनेवाला साम्रक आखिर करे क्या ? क्या उसे संयम लेते ही संधारा पचब लेना चाहिए ? पर ऐसा हो नहीं सकता । त्याग जीवन की कला सीखाता है, वह मृत्यु का वारंट लेकर नहीं आता। साधक खाता पीता भी है, किन्तु उसका भोजन शरीर के पोषण के लिये नहीं होता अपितु आत्म-विकास के लिये हैं। उसका सिद्धान्त है- जीने के लिये खाता है खाने के लिये नहीं जीता। फिर उसका भोजन क्षुधा के प्रतिकार के लिये और पेट की तीव्र आग को मन्द करने के लिये होता है। संयम की रक्षा के लिये होनेवाला भोजन सर्वेश द्वारा अनुमत है । टीका:- आत्मनो जीवस्य खलु तीनवहेः संयमार्थ संगम आहारादि प्रतीकाररूप सर्वज्ञवचनेनाऽऽख्यातः । गतार्थः । हे वा आयसं वा वि वंधणं दुक्खकारणं । महग्घस्साधि दंडस्स णिचार दुक्खसंपदा ॥ ५० ॥ अर्थः- :- बन्धन लोहे का हो या सोनेका वह दुःख का ही कारण होता है। दंड कितना मूल्य युक्त क्यों न हो उसके पड़ने पर दुःख अवश्य होता है । गुजराती भाषान्तर : અન્ધન (સાંખળ) લોઢાનું હોય કે સોનાનું છેવટમાં તે તો દુઃખનું જ કારણ બને છે. લાકડી કેટલી પણ કીમતની હોય તેનો માર પડે તો દુખ્યા વગર રહે જ નહીં, श्रृंखला की कडिया लोहे की हो या सोने की दोनों बांधने का काम करती हैं। बन्धन आखिर बन्धन ही है। धातु का परिवर्तन उसकी बंधनशक्ति में परिवर्तन नहीं कर सकता। ऐसे ही एक सोने का डंडा है किन्तु वह सोने का हैं, अतः मारने पर उस से दुःख नहीं होगा ऐसा नहीं हो सकता । इसीलिये आगम में पुण्य पाप दोनों बन्धहेतुक माने गये हैं। पुण्य सोने की शृंखला है और पाप लौहे की शृंखला; पर दोनों का कार्य है बांधना । पाप कारागृह की काली कोठरी है तो पुण्य नजरकैद है। नजरकैद में व्यक्ति महलों में रहता है और महलों के पूरे आराम उसे मिलते हैं, किन्तु उसे मुक्ति नहीं मिल सकती । पुण्ध दुनियाँ के पूरे मुख दे सकता है, किन्तु संसार की नजर कैद से मुक्ति नहीं दे सकता। मुक्ति का स्वमा शृंखला को तोड़ना चाहेगा, साधक श्रृंखला से इसलिये प्यार नहीं कर सकता कि वह सोने की है। टीका:- हेमं वा बन्धनमायसं वापि दुःखकारणमेत्र महार्ण्यस्यापि दण्डस्त्र निपाते दुःखसंपद् भवेत् ॥ असज्जमाणे दिव्यम्मि धीमता कज्जकारणं । कतारे अभिवारिता विणीयं देहधारणं ॥ ५१ ॥ अर्थः- दिव्यभूमि में अनासक्त होकर बुद्धिमान कार्य और कारण को पहचाने। कर्ता अर्थात् आत्मा का अनुसरण करके साधक देह धारण को दूर करे। गुजराती भाषान्तर : દિવ્યભૂમિ (એટલે સ્વર્ગ) ના સુખ અને ચેનમાં ડાહ્યા માણસે આસક્ત ન જ રહેવું જોઈએ, અને તેના કાર્ય તેમજ કારણની સમજણ કરી લેવી તેઈએ. पहले बताया गया है कि साधक बन्धन से मुक्त हो । बन्धन लोहे का हो या सोने का आखिर वह बन्धन ही है। अर्हत सोने के बन्धन बता रहे हैं। पुण्य का मीठा फल स्वर्ग है और भौतिक सुख से आकृष्ट मन स्वर्ग पाने के लिये आकुल रहता है । अप्रेरणा के स्वर में कह रहे हैं- साधक ! तूं भूल रहा हैं गुलाब के नीचे कांटे है तो स्वर्ग की रंगीन सुषमा के पीछे दुःख की काली छाया है। तूं दीर्घद्रष्टा वन कार्य कारण की परम्परा को पहचान। आखिर देव भी लोभ और कषाय की गठरी उठाये घूम रहे हैं। वे भी मृत्यु की छाया से बच नहीं सके हैं। अतः जैनदर्शन ने स्वर्ग को कभी महत्व नहीं दिया है। स्वर्ग के १ प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिये की जानेवाली साधना का अपने स्पष्ट शब्दों में विरोध किया है। अतः पुण्य के मीठे सुफल के लिये आफूल न हो। क्योंकि . शूल तोबांधता है और गति को रोकना है किन्तु फूल की पकड़ उससे ज्यादा होती है। शूल तन को बिंधता है जबकि फूल मन को बिंध देता है। लक्ष्य का राही साधक शूल से बचता है तो वह फूल से भी बचता है। दोनों में नहीं उलझता । इसी प्रकार साधक पुण्य और पाप दोनों से बचे। किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि पुण्य और पाप दोनों समान हैं। दोनों में इतना ही अन्तर है जितना लोहे और काठ कि नौका में । पहली तो डूबो देनेवाली है, जबकि दूसरी नौका धर्म के तट पर लाकर छोयुती है । तट पर पहुंचाना उसका काम है किन्तु तट पर पहुंचने के बाद उसे नौका छोड़ देना होगा। नीन परिणतियां हैं, एक अशुद्ध परिणति-दूसरी शुभ परिणति, तीसरी शुद्ध परिणति हैं। पहली गठर का पानी है। दूसरा रंग मिश्रित पानी है, तीसरा शुद्ध पानी है। पहलानो गन्दा है, तो दूसरा रंग मिश्रित है, अतः सदा पेय नहीं होता पर पेय तो शुद्ध पानी ही होता है। पाप अशुद्ध परिणति कप गन्दा पानी है । पुण्य शुभ है पर रंग मिश्रित ह जबकि आत्मा की शुद्ध स्वरूप में रमणता शुद्ध परिणति है। साधक कर्ता अर्थात आत्मा के शुद्ध स्वरूप को पहचाने 1 अशुभ से शुभ में आये और शुभ से भी ऊपर उठकर देह धारणा की परम्परा के मूल का जन्टछेद करे। देहाध्यास समाप्त होगा तभी देह धारण समाप्त होगा। टीका-दिव्ये कर्तसाधमाने ब्रह्मणः प्रतिरूपे क्रियमाणे धीमता मुनिना कार्यकारणमनिवार्य निराकृत्य देहधारफ विनीतं प्रायोपगमादिनाऽपनीतम् । अर्थात, साधक कार्य कारण की परम्परा को रोककर प्रायोपगमनादिके द्वारा देहधारण को समान करे। सागरेणावणिज्जोको आतुरो वा तुरंगमे ॥ भोयणं भिज्जएहिं वा जाणेज्जा देहरफ्रखणं ॥ ५१ ॥ अर्थः -मागर में नाविक नाव का रक्षण करता है। (लक्ष्य प्राति के लिये) आतुर व्यक्ति घोहे की रक्षा करता है भिश्यक ( भूखा ) व्यक्ति भोजन की रक्षा करता है, से ही साधक देह की रक्षा करता है। गुजराती भाषान्तर:--- દયમાં નાવિક (પલાસ) નાવનું રક્ષણ કરે છે તે પોતાનું કથ પૂર્ણ કરવા) વ્યાકુલ માણસ ઘોડાનું રક્ષણ કરે છે; બિદ્યક (ભૂખા માણસ) ભોજનનું રક્ષપ્ત કરે છે, તે જ પ્રમાણે સાધક શરીરનું રક્ષણ કરે છે, साधक देह की आसक्ति नहीं रखना किन्तु देह तो रखता ही है। देह को वह साधन के रूप में स्वीकार करता है। नाविक सागर की लहरों में नौका से प्यार करता है, क्योंकि वह जानता है कि नौका के द्वारा ही उसकी जीवन नैया तैर रही है। पर तट पर पहुंचने के बाद वह स्वयं नौका को छोड़ देता है। इसी प्रकार अपने लक्ष्य परपहुंचने केलिये आतुर व्यक्ति घोडे पर आरूढ़ होता है पर लक्ष्य पर पहुंचने के बाद वह स्वयं घोडे से उतर जाता है। बुभुक्षित व्यक्ति आवश्यकता होने पर भोजन करता है और क्षुधापूर्ति होने बाद स्वयं उससे मुंह मोड लेता है। इसी प्रकार साधक देह की रक्षा करता है पर उसका उद्देश्य देह रक्षण नहीं अपितु आत्म-रक्षा है, जानक देह के द्वारा देही को पोषण मिलता है तब तक बह शरीर की रक्षा करता है जब ३६ लक्ष्य पर पहुंच जाता है तो देह, छोड़ देता है। भगवान महावीर मी उत्तराभ्ययन सूत्र में फरमाते हैं: साधक: कारणों से भोजन लेता है। शुधा की शान्ति, रलाधिकों की सेवा, इयो समिति, संयम मात्रा का निर्वाह प्राणरक्षा और धर्म चिन्सन के साधक भोजन ग्रहण करता है।' टीका:-यथा सागरेणावनेर्योगः भातुरो रोगी पुरुषस् तुरंग मारूढः तृप्तकै जर्म, एवं निरर्थकमनदेयं वा देहरक्षण जानीयात् । गतार्थः।। जातं जातं तु धीरियं सम्म सुज्जेज्ज संजमे । पुप्फादीहि पुष्फाण रक्खेतो आदिकारणं ॥ ५४॥ अर्थ:-साधक अपने भीतर प्रकट होने वाली शक्ति का संयम में सम्यक प्रकार से उपयोग करे । पुष्यों का उपयोग करनेवाला पुष्प के भादिकारण बीज की रक्षा करता है । गुजराती भाषांतर: સાધકે પોતાની અંદર પ્રકટ થનારી શક્તિને સંયમમાં સારી રીતે ઉપયોગ કરવો જોઈએ. કુલ વાપરનારા માણસે કુવનું જે જન્મનું કારણ બીજ તેનું રક્ષણ કરવું ઘટે છે. शक्ति प्राप्त करने के लिए सब मचल रहे हैं और शक्ति ही जीवन है, स्वामी विवेकानन्द ने अपने शिकागो के भाषण में कहा था Strength is life and weakness is death. शक्ति ही जीवन है और कमजोरी ही मौत है। इसीलिये शक्ति प्राप्ति की होड़ लग रही है। विश्व की बड़ी शक्तियां राष्ट्र की शक्ति वृद्धि के करोखों अरबों रुपये खर्च कर रहे हैं। राकेट और उपग्रहों का निर्माण शक्ति प्रदर्शन के लिये ही तो है। १वेयण यावच्च परिचय संजनाए । सह पाणवत्तियार छद पुण धम्मचित्ताए ॥ उत्तराध्ययन अ. २६ गा. ३३ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासियाई कोई हर्ज नहीं है हम सात्विक उपायों से शक्ति प्राप्त करें। किन्तु प्रश्न यह है कि हम शक्ति का उपयोग किस ढंग से करते हैं। शक्ति की प्राप्ति उतना महत्व नहीं रखती जितना कि उसका विवेकपूर्ण उपयोग । शक्ति का सही उपयोग मानव को देवत्व की ओर ले जाता है तो शक्ति का अनुचित उपयोग राक्षसत्व की ओर । शक्ति का गलत उपयोग करके ही तो रावण राक्षस कहलाया और उसका सही उपयोग कर राम ने देवत्व पाया था। अतिर्षि साधक को प्रेरणा दे रहे हैं । तुम्हें शक्ति प्राप्त हुई है उसका उपयोग संथम में करें । श्रीमद् रामचन्दजी के शब्दों में कहूं तो "देह होय तो संयम ने माटे।" संयम के लिये किया गया पुरुषार्थ आत्म-विकास में सहायक होता है पुष्पों का आनंद लेनेवाला माली भी इतनी दुद्धि रखता है बीज-कली की रक्षा करता है। हमें भी अध्यात्मरस कर अनुभव करना है शक्ति को संयम लगाना होगा । बीज जब तक अपने आपको मिट्टी में गला नहीं देता तब तक पौधे और पुष्प के रूप में बदल नहीं सकता। इसी प्रकार जब तक हम अपनी शक्तियों को संग्रम में परिणत नहीं होने नहीं देते तब तक आत्मा आत्मिक शान्ति को नहीं पा सकता। टीका-जातं जातं वीर्य संयमेन सम्यक् योजयेत् तु पुष्पादिभिर् मुकुलपुष्पफले रक्षन्निष पुष्पाणामादिकारणं बीजम् । गतार्थः। पर्व से सिद्ध बुद्धे विरते विपावे दत्ते दविए, अलं ताती णो पुणरवि इश्वत्थं हव्वमागच्छति ति येमि । वेसमणिशं नाम अज्झयनं 1 अस्निगारिया शाताई ॥ इति समाप्तानि ऋषिभाषितानि । डॉक्टर शुचिंग लिखते हैं: इस अन्तिम और विस्तृत अध्ययन में बहुत सी समस्याएं बिन - सुलझी रह जाती हैं। बौदहवी गाथा में बताया गया है कि पृथ्वी के आखिरी छोर से सागर की झालर-सी लहरों से अथवा अग्नि में से प्राणियों का जीवन निर्माण होता है। ऐसा लगता है कि मृत्यु के बाद परिणाम के दिन वे फिर से जीवित होंगे। यह बात अस्पष्ट है और कृत कमों के पश्चात्ताप को रोकती है। आत्मा (कर्म) 'फलों का जीवित भंडार है। इस बात का दूसरी रीति से वर्णन भी संभावित नहीं है । गाथा २२ में तेल पात्र घर की कथा आई है वह जातक १,५०३ में भायी है 1 गाथा ३७ में बहुवचन के स्थान पर एक वचन चाहिये । प्रथम शब्द नरेन्द्र और जिनेन्द्र का उल्लेख करता है । गाथा ३८ का पाठ सम्म कारण फासिसा पुणो न विरमे नती"का साम्य दशवकालिक के निम्न पाठ से मिलता है एवं खलु भिक्षु अहासूर्य सम्म कायेणं फासिता पालित्ता भवई । वहां " बहिया" अर्थ में शारीरिक शक्ति का उल्लेख किया गया है। यहाँ कार्य स्पर्श काया के द्वारा स्पर्शना बताई गई है। गाथा ३९-४० में साधना की सिद्धि के लिये दृष्टान्त दिये गये हैं। दशवे० अ० ५ गा० में उसका साम्य है। किन्तु दशवकालिक सूत्र में जहाँ अगधनकुल के रार्प को अच्छे रुप में बताया गया है। वे गन्धन सर्प की भांति अपने विष को पुनः असते नहीं है। जबकि यहाँ उनके लिये धिक्कार जनक कार्य बताया है, कुप्पिकुल के सर्प के रूप में भी यहां कुछ परिवर्तन हैं। ४३ वें श्लोक में ऋद्धियों को हीन बताया गया है। गर्व और उसके उपयोग को खराब बताया गया है। ४४ बी गाथा में बताया गया है कि प्रेमिका के हाथ से दिया गया विष भी मारक होता है। अथवा प्रेमी स्वी प्रेम में विफल होने पर विष पिला सकती है और प्राश ले सकती है, इसी प्रकार नदी में तैरने के लिये मछली के कुछ गुण नहीं लिए तोएब जागे और विष प्राह की पकड़ में आ सकते हैं। पचासवें श्लोक में बताया गया है बुद्धिशाली और स्वर्ग में जानेवाले प्राणी अपने विचार के अनुसार जीवन का निर्माण करते है और कार्य करने की शक्ति को रोकते हैं। हर रूप में वह ठीक नहीं है । एकावन वे इलोक में भिजएहि पाठ आया है वह अनुचित है उसके स्थान पर तितेहिं चाहिये। .. श्रेपन। लोक में सम्बोधन का समावेश किया गया है। विचारक अपनी शक्ति का संयम में प्रयोग करें, वैसे शनैः शनैः वह विकास करता है और उसके पत्र पुन और फलों का आस्वादन करता है। । . अन्त में डॉक्टर शुनिंग लिखते हैं-"इसिभासियाई" समझने का हमारा प्रथम प्रयास है । इसके प्रकाशन और अनुवाद के लिये थोडी आवश्यक सूचनाएं यहां दी गई हैं। इति वैश्रमण -अर्हताप्रोक्तं पंचचत्वारिंशदध्ययनम् । समाप्त ऋषिभाषितसूत्रम् ॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. ... .... परिशिष्ट नं. १ । इसिभासिय पढमा संगहिणी ___ ऋषिभाषित सूत्र में जिन पैंतालीस अर्हतार्पयों के जीवन-सी संदेश को संग्रहीत किया गया है। प्रस्तुत सिग्रहिणी गाथाओं में उनका नाम निर्देश किया गया है उसके पूर्व एक गाथा के द्वाग यह बताया गया है ये समी अहंतर्षि किनके शासन में हुए हैं । ....... प्रत्तेय वुद्धमिलिणो वीसं तित्थे अरिटुणेमिस्स । पासस्स य पण्णरस वीरम्स बिलीणमोहस्स ।। अर्थ-बीस प्रत्येक, बुद्धः ऋषि प्रभु अरिष्ट नेमि के तीथ में हुए है । प्रभु पाश्वनाथ के शासन में पन्द्रह और शेष विगत-मोह वीरप्रभु के शासन में हुए हैं। - अब पांच साधाओं, से अतिर्षियों के नाम दिये जा रहे हैं। . णारद-वज्जिय-पुत्ते असिसे अंगरिसि-पुष्फसाले य। . वकालकुम्मा केवलि कासव तह तेतलिसुसे य ॥२॥ अर्थः-अर्हतर्षियों के नाम इस प्रकार है-१. नारद २. वज्जिय पुत्र, ३. असित, ४. अंगरिसि, ५. पुष्प साल, ६. वल्कल चीरी, ७. कुर्म, ८. केतलि (पुत्र) 8. काश्यप, १०. तेतलि पुत्र । અહર્ષિયોના નામ નીચે મુજબ છે – १ ना२६, २ परियपुत्र, dirtict, , : 'Y.LA.A, ९. २६३ दुर्भ, enla (Y) ८श्य५, १० तसिपुत्र, मेखली जण्णभयालि बाहुय महु सोरियाण विविंपू । परिसकण्हे आरिय उपकलवादी य तरुणेय ॥ ३॥ अर्थः- ११. मखली, १२. यज्ञ, १३. भयालि, १४. बाहुक महु, १५. सोरियाण, १६. विदू, १७. विपू , १८. वरिस कृष्णा. १९. आय. २०. उत्कटवादी, २१. तरुण ऋषि।। ૧૧ મંગલી, ર યસ, ૧૩ ભચાલી, ૧૪ બાહુક મહુ, ૧૫ સેરિયાણ, ૧૬ વિદુ, ૧૭ વિપૂ, ૧૮ વસિષ્ણ १८ मार्च, २० 82वाही, २१ ता . गहम रामे य तहा हरिगिरि अम्बड मयंग वारता । तंसो य अद्द य वझमाणे वा तीस तीमे ॥ ४ ॥ अर्थः-२२ गर्दभ. २३ राम अर्हतपि. २४ हरिगिरि, २५ अम्बड मातंग. २६ वारसा. २७ शंस, २८ आईक. २९ वर्धमान. ३० वायु । ये तीसवें अहतर्षि है। २२ गई. २३ २४ गतपि. २४ ७२२, २५ २६५3 भातग. २१ पारता. २७ शंस. २८ मा રટ વહેંમાન. ૩૦ વાયુ. આ તીસમા અહર્તાવ છે. पासे पिंगे अरुणे इसिगिरि अदालए य वित्त य । सिरिगिरि सातियपुत्ते संजय दीवायणे चेव ॥ ५ ॥ अर्थः-३१ पार्श्व. ३२ पिंग. ३३ अरुण. ३४ ऋषिगिरि. ३५ अदालक. ३६ वित्त. ३७ सिरिगिरि ३८ सातिपुत्र. ३९ संजय. ४१ द्वीपायन । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसि-भासिया पार्थ, ३२ पिंय. 33 अरु. ७४ पिगिरि. ५२१६. पित्त, ३७ सिरिमिरि. ३८ सातिपुत्र. ૩૯ સંજય. ૪૦ કીપાયન. तत्तो य इंदणागे सोम यमे व होइ वरुणे य । घेसमणे य महप्पा चला पंचेष अक्खाए ॥ ६॥ अर्थः उसके बाद ४१ इन्द्रनाग. ४२ सोम. ४३ यम. १४ वरुण और पेंतालीसवे महात्मा वैश्रवण अर्हतर्षि हैं । इस प्रकार पेंतालीस अहर्षि हैं। તે પછી ૪૧ ઈન્દ્રનાણ. ર સોમ. ૪૩ યમ. ૪૪ વણ અને પિસ્તાલીસમા મહાત્મા શ્રવણ અહર્ષિ છે. એવી રીતે પિસ્તાલીસ અદ્વૈતર્ષિઓ છે. . ऋषिभाषित सूत्र में पैंतालीस अर्हतपि प्राक बुद्धों मापनदाय सूत्र में वास देवलोक व्यक्ति प्रत्येक बुद्धों के नाम हैं। | ઋષિભાષિત સૂત્રમાં પિસ્તાળીસ અદ્વૈતર્ષિ હરએક બુદ્ધના કવચ છે. સમવાયાંગ સૂવમ ચુંમાળીસ દેવલોકમાંથી ચુત થયેલા હરએક બુદ્ધના નામ છે.. Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट नं० २ इसिमासियाई-अस्थाहिगारसंगहिणी प्रस्तुत सूत्र की द्वितीय संग्रहिणी में अध्ययनों के नाम दिये गये हैं। अध्ययमों के नाम करण की विविध शैलियाँ होती हैं । कमी अध्ययन में वर्णित विषय के अनुरूप अध्ययन का नामकरण होती है तो कभी वक्ता के नाम पर भी अध्ययन का नाम होता है। तो कभी अध्ययन की प्रथम गाय के प्रथम शह पर ही अध्ययन का नाम करण कर दिया जाता है। प्रस्तुत सूत्र में तीसरी शैली का आश्रय लिया गया है । अध्ययन के प्रथम शब्द के अनुरूप अध्ययनों का नामकरण किया गया है। द्वितीय संग्रहिणी पंच माथाओं में अध्ययनों के नाम दिये गये हैं। सोय जैस्स अविलेवे, आदाणरक्खि माणे य । तम सँवं आए जाव य सद्धेय जिम्वेय ॥१॥ लोगेसैणा किमत्थं जुस सेतो तन्थेव घिसये। विजा धजे औरिय उकैल गौहंति जाणामि ॥२॥ पडिसाडी वैणा दुबैमरणे सच तहेवं वसे य५ । धम्मे य साँह सोते संबंति अहसवतो सेंमेलोप ॥ ३ ॥ किसी केले य पंडित सहणा सह कुप्पणा य बोद्धव्वा । तपत उदय य सुम्वा पवि तह इच्छणिच्छा य ॥ ४ ॥ अजीवओ य अजेण य एसितध्व बहुयंतु । लोभे दो ठाणेहि य ॲप पापाण हिंसायु ॥५॥ - इसिभासित अस्थाहिगार संगहिणी समत्ता। अर्थः-अविभाषित सूत्र की अर्थाधिकार संग्रहिणी के अनुसार पैंतालीस अध्ययनों के नाम इस प्रकार हैं। १. सोयन्वं, २. जस्स, ३. अभिलेन, ४. पादाण विख, ५. माण, ६. तम, ७. सच्च, ८. आगए, ९. जाव, १०. सदेय, ११. णित्रेय, १२. लोकसणा, १३. किमत्थं, १४. जुलै, १५. साता, १६. विसय. १७. विजा, १८. वज, १९. आरिय, २०. उक्कल, २१, णाहंति जाणामि, २२. पडिसाडी २३. ठवण दुवेमरणे, २४. सव्वं, २५. वंस, २६. धम्म, २७. साहु, २८. सोत, २९. सत्रेति, ३०. अहसयतो, ३१. समेलोए, ३२. किसी, ३३. बाले, ३४. पंडित महणा, ३५. कुप्पणा, ३६. तप्यत, ३७, उदय, ३८. सुब्बा, ३९. पाव, ४०. इच्छाजिच्छ, ४१. आजीवओ, ४२. अप्पजिण, १३. लामे, ४४. दोठाणेहि, ४५. अप्पं पापाण हिंसायु।। - - - १. शस्त्र परिक्षा अध्ययन-आचार।ग प्र० अ० विनय श्रुत अध्ययन उत्तराध्ययन प्रथम अ. २. काविलीयमध्ययनम्. उत्तरा० अ० ८. शकस्तव. ३. लोगस्स, नमोत्थुण, भक्तामर. Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0i0 हसि-भासिया ઋષિભાષિત સૂત્રની અધિકાર સંમહિણી મુજબ પિસ્તાલિસ અધ્યયનોના નામ નીચે મુજબ છેઃ 1. સોવવું, 2. જમ્સ, 3. અરિ , 4. આદાણ રકિખ, પ. માણ 6. તમ, 7. સબ્ધ, 8, આરાએ, 9. જાવ, 10. સદ્ધય, 11. ણિય. 12. લોકેષણ. 13 કિમળ્યું, 14 જાં, 15, સાતા, 16. વિસય, 17. વિજા, 8, વજ, 19. આરિય, 20. ઉકલ. 21. ણાહું ને આમિ . ર૩, પરિસાત, 3. વાત્ર દમણે 24 સવ્યું, 5. સ૨૬. હંમે, 27. સારું. 28, સત, ર૯ મતિ, 30, અહસન્વ. 31, સંમેએ.૩૨ કિસી, 34: ભાલે, ૩૪.'પડિત સહણ, 35. કુપણા, 36. ઉપૂત, 37. ઉદય, 38. સુવ્યા, 39. પાન, 40. ઈચ્છાણરછા, 41. આજીવ, કર, અપજીય, 43. વાભે, 4, દોકાણહિં, 45. અખં પાપણ હિસાથું ! 1" "इस प्रकार सभी अध्ययनों का नाम प्रथम शब्द पर है कहीं कहीं इसका अपवाद भी है जैसे अध्ययन 42 में गाथा का प्रथम पद है अप्पेण बहुमेसेज्जा, जबकि अध्ययन के नाम में कुछ अन्तर है / संभव है वह गाथा पूर्ति के लिये ऐसा करना पड़ा हो / ऐसे ही पैंतालीसवें अध्ययन में गाथा के प्रथम चरण और अध्ययन के नाम में भेद हैं। -તિ સમાવિસણ ગર્જીવિઝા-વંતિ સમાસ છે