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इसि-भासियाई टीकाः-वच्छतेच्छा वाछेष्यते अनिच्छन्नपि तामिच्छति तस्मादित्यादि पूर्ववत् । गतार्थः ।
दव्यओ खेत्तमओ कालओ भावो जहा थामं जहा
यलं जधाविरियं अपिगूहतो आलोयज्ञालिन्ति ॥ ५॥ अर्थ-साधक प्रत्यक्षेत्र काल भाव और माने धैर्यबल शक्ति को न छिपाकर आलोचना करे । गुजराती भाषांतर:
સાધકે ધન, ક્ષેત્ર, કાલ, ભાવ અને પોતાની ધીરજશક્તિને ન સંતાડતાં સમાલોચન કરવું જોઈએ,
साधक द्रव्य क्षेत्र काल और भाव को देखता हुआ चले । अपने आपको तोलना भी सर्वप्रथम आवश्यक है। पहली धृति साहस और बल को देखकर ही साधना के क्षेत्र में कदम रखना उचित है । अन्यथा पीछेहर करने का प्रसंग उपस्थित हो सकता है। साथ ही गाथा के उत्तराध में एक महत्वपूर्ण पान कही गई है यदि साधक में शफिी है तो उसका संगोपन न करे । शक्ति होते हुए उसका उपयोग न करना एक प्रकार का परिग्रह है। दूसरे शब्दों में चोरी भी है। जैसे शक्ति होते हुए डुबते हुए को न बचाना पाप है तो शक्ति हुए साधन के क्षेत्र में कदम न बडाना भी पाप है।
टीका:-हे साधो! इख्यतः क्षेत्रसः कालतो भावतो यथास्थाम यथावलं यथावीर्यमनिग्रहणालोचयेरिति श्रीमि ।
एवं से सिद्धे बुद्ध० ॥ णो पुण रवि इचथ हव्वमागच्छति ॥ तिमि । गतार्थः॥
इति द्वैपायन अईसर्षिमोक्तम् चत्वारिंशदध्ययनम्