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इसि भासियाई
को दूर करने के साथ उपमित किया है । पन्द्रहवे टोक में इस" शब्द दूसरी विभक्ति में होना चाहिए । अर्हतर्षि नैतिक जीवन को ही दिव्य खेती कहते हैं ।
प से सिद्धे बुद्धे० । गतार्थः । इति मागिहाणं 1
इति मातंग अर्हर्षि प्रोक्त षर्विशसि अध्ययन समाप्त |
वारतक अर्हता प्रोक्त
सत्ताईसवां अध्ययन
साधक निवृत्ति का पथिक है। अतः उसके जीवन में अनासक्ति योग आना चाहिए। वह अपने जीवन को इस प्रकार बनाए कि मोह अपनी सारी शक्ति के साथ भी उसे न बाध सके। निवृति का अर्थ निष्क्रियता नहीं है । निवृत्ति और निष्क्रियता स्थूल दृष्टि में भले ही समानार्थक लगते हो परन्तु दोनों में उतना ही अन्तर है जितना कि जीवित और मृत में । निवृत्त साधना का पथ है, जिसमें साधक अनासक्त हो कर किया करता है। जब कि निष्क्रियता जड़ता है। जड़ता जीवन की मौत है । निवृत्ति का पथिक यदि यह सोचता है कि मुझे अपना ही सब कुछ देखना है, समाज और संघ से मेरा कोई वास्ता नहीं है, तो वह निवृत्ति शब्द के साथ न्याय नहीं करता है। अपनी रोटी दाल की क्रिया में उलझे रहने की विचारधारा निवृत्ति की नहीं, स्वार्थी वृति की देन है। साधक एकान्ततः निवृतिवादी है ऐसा भी नहीं कहा जासकता है। आगम बाणी बोलती है कि:
एमओ निव्यति कुता एमओ य पव्वत्तणं ।
साधक एक और से निवृत्त हो कर दूसरी और प्रवृत हो अर्थात अशुभ मे निवृत्त हो कर शुभ में प्रवृत्त हो। क्योंकि एकान्ततः निरृत्ति जड़ता है और वह जड़ता चैतन्य के स्वभार से विरुद्ध है। इसी लिए स्वयं सिद्ध प्रभु एकान्ततः निवृत्ति नहीं है, वे भी शुद्धोपयोग और अपने निजगुणों में रमणशील है अर्थात् प्रवृत्त है ।
निवृत्ति और प्रकृति दो पथ हैं। साधक का लक्ष्य है आत्मशुद्धि। यदि वह लक्ष्य भुला दिया गया तो एकान्ततः निवृत्ति निष्क्रियता में परिणत हो जायगी या बाहर से निवृत्ति का ढोंग रख कर भीतर से भयंकर प्रवृतिशील बन जायेगी। दूसरी ओर प्रवृत्ति में भी विवेक न रह जाएगा तो वह भी पतन के गड्डे में ढकेल देगी। चोगा तो सेवा का रहेगा पर सत्ता स्थान हथियाने लगेगी, संग्रह की वह भूख जागेगी कि त्याग पिछले दरवाजे से भाग खड़ा होगा । यों उसका बोगा वहीं छोड़ जाएगा। अतः साधक सावधानी के साथ कदम रखे। एक संस्कृत कवि ने ठीक ही कहा है किः—
वनेऽपि दोषाः प्रभवति रागिणां गृहेऽपि पंचेन्द्रियनिग्रहं तपः । कुपिते कर्मणि यः प्रवर्तते, निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम् ॥
चित्त की राग दशा समाप्त नहीं हुई है तो बन में भी दोष पैदा हो सकते हैं। दूसरी और इन्द्रियनिग्रह की तपःसाधना घर में भी संभव है । उसमें जो सफल हो चुका है और जो कर्म में प्रवृत्त है उस बीतराग-स्थिति-प्राम साधक के लिए घर भी तपोवन है ।
युगद्रष्टा आचार्य विनोबा लिखते हैं कि संन्यास लिया पर संन्यास की वृत्ति नहीं आई तो वह वन में दूना घर जमाने की कोशिश करेगा। अतः मूल वस्तु अनासकि है उसके बिना पतन के सौ सौ द्वार खुले रहेंगे। एक और संस्कृत कवि कहता है कि:
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