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________________ सत्ताईसवां अध्ययन १६१ निःसंगता मुक्तिपदं यतीनां, संगावशेषाः प्रभवन्ति दोषाः। आरूढयोगोऽपि निपात्यतेऽधा, संगेन योगी किमुताल्पसिद्धिः । साधक के लिए निःसंगता ही मुक्ति का द्वार है। क्योंकि संग से अनेक दोष पैदा हो सकते हैं। बड़े बड़े अध्यात्मयोगी मी संग के द्वारा पतन के गर्त में गिर गए हैं, फिर साधारण साधक की बात ही क्या । । प्रस्तुत अध्याय अनासक्ति योग की ओर प्रेरित करता है। सिद्धि । साधु सुचरितं अचाहता समणसंपया धारत्तपणं अरहता इसिणा बुइतं । ___ अर्थ :-साधु की सम्पत्ति उसका चरित्र है । और जो साधक जरा सम्पनि से युक्त है उसकी गति अव्याबाध रहती है। ऐसा वारवयक अर्हतर्षि बोले। गुजराती भाषान्तरः સાધુની સાચી સમ્પત્તિ તેનું પવિત્ર ચરિત્ર છે અને જે સાધક તે સંપત્તિથી યુક્ત છે, તેની ગતિ નિબંધરહિત રહે છે એવું વાત્રક અહંતષિ ક્યા. चरित्र ही साधक की सबसे बड़ी सम्पति है। इंग्लिश बिचारक फ्रेडरिक सान्डर्स कहते हैं कि Character is the governing element of life and is aborogenious चरित्र जीवन में शासन करनेवाला तत्त्व है और वह प्रतिमा से उच्च है। क्योंकि चरित्र समस्त गुणों की प्राथमिक भूमिका है। उसकी उपस्थिति में ही सभी सद्गुण ठहर सकते हैं। चरित्र की शक्ति दुनिया की समस्त शक्तियों पर विजय पाती है। एक विचारक कहता है There is no substitute for beauty of mind and strength of character-जे एलन. मन के सौन्दर्य और चरित्र पल की समानता करने वाली कोई दूसरी बस्नु नहीं है। टीका:-साधु साधोः साधु वा सुचरितमभ्याइतऽशाधिताश्रमणसंपच्यूमणैः सह संवासः । साधु का चरित्र अव्यायाध है। श्रमणों का सहवास ही उसकी सम्पत्ति है। न चिरं जणे संबसे मुणी, संवासेण सिणेनु वद्धती। भिक्खुस्स अणिचचारिणी, असढे कम्मा दुहायती ॥ १ ॥ अर्थ:-मुनि गृहस्थों के बीच अधिक समय तक न रहे 1 क्योंकि अधिक परिचम से बह बढता है, ओ कि अनित्यचारी भिक्षु की आत्मा के लिए कर्म का रूप लेकर दुःख की सुष्टि करता है। गुजराती भाषान्तर: ગૃહસ્થોના સહવાસમાં મુનિએ ઝાઝા સમય સુધી રહેવું ન જોઈએ. કારણકે વધારે પરિચયથી બન્ને વચ્ચે સ્નેહ વધે છે, જે અનિત્યચારી ભિક્ષુના આત્મા માટે કર્મ થઈને દુઃખની ઉત્પત્તિ કરે છે. जनता का अधिक परिचय स्नेह बन्धन करता है। परिणाम में रागात्मक वृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है । गृहस्थ अपने स्वार्थ के लिए मुनि को उचित अनुचित सभी वृत्तियों में बाल सकता है और लेह बन्धन में बद्ध मुनि भी प्रलोभनों को टकरा नहीं सकता, नील गमन में स्वतंत्र उसान भरने वाले पक्षी की मांति अप्रतिबद्ध विहारी मुनि जब परिचय के पास में बंध जाता है तो उसकी स्वतंत्रता की पाखें कट जाती हैं और मोह की बछ धारा अपने पीछे असंख्य कष्टों को परम्परा को लेकर आती है। इसी लिए आगम में मुनि के लिए नौ कल्पी विहार का विधान है। टीका:- चिर लौकिकजनेन संवसेन्मुनिः। संवासेन हि स्नेहो वर्धते । मनिस्य चारिणो मिझोः कर्मणो हेतोरात्मार्थों दुःखायते दुःखमापद्यते । काकार कुछ भिन्न मत रखते हैं। उनका कहना है कि मुनि संसारी आदमियों में अधिक न रहे, क्योंकि उनके साहचर्य सेनेह की वृद्धि होती है। जोकि साधक के लिए कर्म का हेतु बन कर दुःस्व को निमन्त्रण देता है। पयहितू सिणेहबंधणं, झाणप्रयणपरायणे मुणी।। णिण सया वि चेतसा, णिग्वाणाय मतिं तु संदधे ॥ २॥
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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