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इसि-भासियाई अर्थ:-ध्यान और अध्ययन में लीन मुनि मेह बन्धन का परित्याग करे । मन के विकारों को धोकर मति को निर्वाण के पथ में जोडे । गुजराती भाषान्तर:
ધ્યાન અને અધ્યયનમાં લીન થયેલા મુનિએ સ્નેહબંધનને પરિત્યાગ કરવું જોઈએ. મનના વિકારોને જોઈ નાખી મતિને નિર્વાશ્વના રસતે સ્થિર કરવી,
ध्यान मन की शक्तियों को केन्द्रित करता है। उसके केन्द्रीयकरण में एक बहुत ही शक्ति आ जाती है । शीसे के द्वारा सूर्य की किरणें केन्द्रित होती हैं। उनमें तेज और प्रकाश के साथ ज्वाला फूट पड़ती है। यही बात मन की किरणों के संबन्ध में भी है। वे केन्द्रित होती है तो उसकी ज्वाला में मन की वासना और विकार भस्म हो जाते हैं।
निर्जन के एकान्त कोने में साधना में लीन हुवा मुनि जब लेह के पाश में बंधता है तो सचमुच ही उसकी साधना में बाधा आ जाती है। उसके ध्यान, निदिध्यास, चिन्तन, मनन और भनुशीलन तभी संभव है जब कि वह लेह-बन्धन से उपरत हो कर चले। इसीलिये प्राचीन युग का सन्त शहरों के जीवन को पसन्द नहीं करता था। शहरों से दूर वन में वह रहता था। भिक्षा के लिये गांव में आता और पुनः वन की शान्त भूमि में आत्मसाधना के लिए चल पड़ता था। प्रकृति का स्वच्छ वायुमंडल उसकी चित्तवृत्तियों का शुद्ध रखने में सहायक बनता । साथ ही यह अल्पकालीन परिचय गृहस्थ केदय में सन्त के प्रति श्रद्धा के दीप जलासा । हृदय की सच्ची जिज्ञासा को लेकर वहां पहुंचता । और यह एक मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त है, जो वस्तु जितनी दूर है उसका आकर्षण भी उतना ही अधिक रहता है। यदि वह हमारे समीप हो जाती है तो उसका खिंचाव भी कम हो जाता है।
निर्वाण का पथिक अपनी युछिको निर्वाण के पथ में तभी स्थिर रख सकता है जब कि वह गृहस्थ के बेह बन्धन से दूर रहे।
टीका:-बेहबन्धनं प्रजाहाय ध्यानाध्ययनपरायणो भवति । निहितम वशीकृतेन सदा अपि चेतसा निर्वाणाय मति समध्यते ।
साधक मेहबन्धन को छोड़ कर ही ध्यानाध्ययन में लीम हो सकता है, क्योंकि लेह साधना तथा अध्ययन के लिए सबसे बड़ा विघ्न है। यदि एक विद्यार्थी मी किसी के प्रेम-पाश में बंच जाता है तो वह ठीक ढंग से अध्ययन नहीं कर सकता । क्यों कि उसकी मनःशक्ति अध्ययन में केन्द्रित नहीं हो सकती है। चित्त का निरोध करने पर ही बुद्धि निर्वाण की ओर अभिमुख हो सकती है।
जे भिक्खु सखेयमागते, वयण कण्णसुहं परस्स बूया ।
सेऽणुप्पियभाषाए, हुमुळे आतडे पियमा तु हायती ॥ ३॥ अर्थ:-जो भिक्षु मित्रता के बन्धन में आकर दूसरे कर्ण के लिए सुखप्रद-मीठे वचन कहता है और वह गृहस्थ मी प्रिय भाषी में मुग्ध हो जाता है, किन्तु आत्मा के अर्थ को के दोनों ही खो बैठते हैं। गुजराती भाषान्तर:
- જે શિક્ષક મિત્રના બંધનમાં આવીને બીજાના કાનમાં સુખપ્રદ (મીઠી) વાતે કરે છે અને તે ગૃહસ્થ પણ પ્રિયભાષાથી મુગ્ધ થઈ જાય છે, પરંતુ આત્માના અર્થને તે બંનેને ખોઈ બેસે છે,
अति परिचय से संभावित दोषों का निरूपण करते हुए अतिर्षि कहते हैं कि परिचय प्रेम में बदलता है और मैत्री के पाश में बंध कर भिक्षु गृहस्थ को मीठी लगने वाली बात कहता है। नम सत्य कहने की शक्ति ससमें नहीं रहती और वह गृहस्थ भी प्रियभाषी मुनि की मीठी बातों में मुग्ध बनता है । जब उसके मतलब की बातें मिलेंगी तो अवश्य ही मुनि उसके लिए प्रिय पन मार्यमा । किन्तु यह रागात्मक श्रद्धा मुनि और धात्रक दोनों के आत्महित को ठेस पहुंचाता है।
मोह सत्य का प्रतिद्वन्द्वी है। मोहपाश में बद्ध व्यक्ति कभी भी नगसत्य नहीं बोल सकता, क्योंकि वह जानता है कि नमसत्य सुनते ही भक्तगण वैसे ही उठ जाएंगे, जिस प्रकार फटाकों के घड़ाकों से पक्षीगण । वे मोह विजेता भगवान् महावीर थे जो कि अनन्य उपासक कोणिक जैसे सम्राट को भी कह सके, कि कौणिक! तूं मर कर नरक की ज्वाला में