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छब्बीसवां अध्ययन
१५९ सेतो स्थिति का कोई अलग समय नहीं है। कर्म आते हैं और चले जाते है। क्योंकि स्थिति और रसु, बन्ध कषाय सापेक्ष हैं' । किन्तु जब आत्मा आयोगी अवस्था में पहुंच जाता है तब ऐयोपथिक क्रिया भी समाप्त हो जाती है। अहंतर्षि बौदहवें गुण-स्थान प्राप्त आत्मा की अयौगिक स्थिति का वर्णन कर रहे हैं। दीका:-सिस यसुधैका श्रद्धा च निश्चला च मेथिधुरोबष्टंभः भाषमा तु सस्य वृत्सिर्या सुसंवतं द्वारं । गसार्थः ।
कषाया मलणं तस्स, कित्तिवातो य तपसमा ।
णिजरा तुल वामीसा, इति दुक्खाण णिक्खति ॥ १४ ॥ अर्थः कषायों का मर्दन ही उसके धान्य का मर्दन है। उसकी क्षमा ही कीर्तिवाद है। निर्जरा ही उसका (खेती का) काटना है। इस प्रकार साधक दुःखों से मुक्त होता है। गुजराती भाषान्तर:
કષાયોનું મર્દન એજ તેના ધાન્યનું મર્દન છે. તેની ક્ષમાજ કીર્તિવાદ છે, નિર્જરા જ તેની ખેતીનું કાપવું છે, આ પ્રમાણે સમજી વર્તનારા) સાધક દુઃખોથી મુક્ત થાય છે.
अनाज के खलिहान में आने के बाद उसका मर्दन किया जाता है। ताकि धान्य से उसके छिलके पृथक् हो जाय । साधना में कषाय का मर्दन अपेक्षित है। उसके बिना कर्म के छिलके आत्मा से पृथक् नहीं हो सकते । क्षमा ही उसका कीर्तिवाद है। किन्तु कीर्तिवाद खलिहान से असंबद्ध लगता है। हाँ, उसे उफनने के लिए इवा की अवश्य ही आवश्यकता होती है। क्षना ही ऐसी वायु हो सकती है जोकि कर्म के छिलके को दूर कर सकती है। निर्जरा कटाई है, किन्तु यह भी अप्रासंगिक लगता है। क्योंकि कटाई तो मर्दन के भी पहले की क्रिया है। अतः छिलके का एक दम दूर हो जाना निर्जरा है जो सप्रसंग सी रहता है। ऐसी खेती करने वाला साधक समस्व दुःखों का अन्त करता है।
टीका:-कषायास्तस्य मर्दन कीर्निबादश्च तत्क्षमा, निर्जरा तु इयां लुनामि एवं दुःखाना निष्कृति विष्यतीति तदभिप्रायः । गतार्थः।
एतं किसि क्रिसित्ताणं, सव्वसत्तश्यावई ।
माहणे खत्तिए, वेस्से, सुद्दे वा पि विमुमति ॥ १५ ॥ अर्थ:-प्राणिमात्र पर दया का झरना बहाते हुए जो इस प्रकार की खेती करता है वह ब्राह्मणकुलोत्पन्न हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शूद्र हो तो भी विशुद्ध होता है। गुजराती भाषान्तर:
પ્રાણિ માત્ર પર દયાનું ઝરણું વહાવતા જે આ પ્રમાણે ખેતી કરે છે, તે બ્રાહ્મણ કુળમાં જન્મેલ હોય, ક્ષત્રિય વંશમાં જન્મેલો હોય છે વૈશ્ય (વાણીયા) નાં કુલમાં જન્મેલ હોય કે પછી શદ્ર વંશમાં જમ પામેલો હોય તે પણ વિશુદ્ધ થાય છે,
टीका:-पुतां कृषि कृष्ट्वा सर्व-सखदयावहाँ बालाणा क्षत्रियो वैश्यः शूदो वाऽमि विशुध्यति । गताः ।
जिसमें दया का झरना वह रहा हो अनन्त अनन्त प्राणियों के प्रति दया की गंगा बह रही हो ऐसी आत्मिक खेती ही आत्मविशुद्धि कर सकती है। अहिंसा की नंगा सबको पवित्र बनाती है। फिर वह ब्राह्मण हो या क्षत्रिय, वैश्य हो या शुद्र बद्द सभी के जीवन को उज्ज्वल और समुज्वल बनाती है।
प्रोफेसर घॉल्टर शुत्रिंगू लिखते हैं कि लोक से लेकर १५ तक सोगरूपक संपूर्ण और रूप में प्रस्तुत किया गया है। मात्मा को खेत बता गया है और अनिच्यना से उसे बोना है। फिर भी बहुत सी उपमाएँ स्पष्ट नहीं हैं। "कुवे शुम कुत" हल का एक भाग बताया गया है। गोच्छनवो अपरिचित है, फिर भी महत्व पूर्ण है। बारहवें श्लोक का अर्थ शंकास्पद है। १३ वे श्लोक में हलेश अवलंब के स्थान पर विलंब की संभावना की जा सकती है । निर्जरा जखेड डालने को खराब स्थिति
२-जोगापयशीपपसा, ठिह-अशु-भागा कसायदो होन्ति । -दम्य संग्रह ।