________________
इसि-भासियाई
टीकाकार का अभिप्राय कुछ भिन्न है । शान्त दान्त ब्राण, पांचों इन्द्रियों पर जिन्होंने विजय पाई है उनके लिए दे ही इन्द्रियो गोरूप हैं । अर्थात् इन्द्रियो यदि अनिगृहीन है तो चे साधनसी है, किन्तु जब उन पर ज्ञान का अंकुधा है आत्मा का शासन है तो वे गौवत्स के सहश है और खेती के लिए सर्वप्रथम गौ-वत्स की ही आवश्यकता है।
तयो बीयं अवंझं से, अहिंसा णिहणं परं।
ववसातो घणं तस्स, जुत्ता गोणा य संगहो ।। १२ ॥ अर्थ:-तप ही उस स्नेनी का हमध्य तथा निष्फल न जाने वाला पीज है और चूसरे के हितों को हनन न करने बाला अहिंसामय व्यवसाय आचरण ही उसका धन है । अहिंसा की साधना भै जुते हुए (लगे हुए) मैल ही उसका संग्रह है। गुजराती भाषान्तर:--
તપ જ તે ખેતીનું અવધ્ય એટલે નિષ્ફળ ન જાય એવું બીજ છે. અને બીજાના હિતોનું હનન (નાશ) ન કરવાવાળા અહિંસામય વ્યવસાયનું આચરણું જ તેનું ધન (મુડી) છે. અહિંસાની સાધનામાં લાગેલો બળદ જ તેને सं4६ (साधनसंपत्ति) छे.
इस अपर्थिव खेती का बीज तप है जो कभी भी निष्फल नहीं जाता है। प्राणिमात्र के लिए अभयदात्री अहिंसा ही उसका धन है। जिसमें सभी जीवों की रक्षा का आश्वासन है। किन्तु इस व्यवसाय के लिये क्षमा और दमन के शषभ तथा धैर्य की जोत-( रस्सी) की सर्व प्रथम आवश्यकता है। क्योंकि क्षमा और धैर्य की भूमि इन्दिय-दमन है।
टीका:-तपस्तस्प नियाजस्य ब्राह्मणस्यावंध्य बीअमहिंसा परमं निधनं गोत्रं, व्यवसायस्तस्य धन संग्रह संयमयुक्तौं बलीबदौं ।
___ अर्थात् उस निष्काम साधक के लिए तप ही अवन्ध्य बीज है। अहिंसा ही उस का परम श्रेष्ठ गोत्र है। उसका व्यवसाय है पार्थिव धन का संग्रह । संयम में जुड़े हुए विचार और व्यवहार ही दो बैल है । टीकाकार का मत बुछ भिन्न है।
धिती बलंबसुहिक्का, सदा मेढी य णिश्चला।
भाषणा उ बती तस्स, इरियादारं सुसंवुडं ॥ १३ ॥ अर्थ:-अबलम्बन के लिए धैर्य हिका के सदृश है। निश्रल श्रद्धा मेदी है। भावनाओं से ईर्यापथ का द्वार भी सुसंवृत है। गुजराती भाषान्तर:
અવલખન માટે ધર્મ હિક્કાની જેવી છે, નિશ્ચલ શ્રદ્ધા થાંભલા જેવી છે. ભાવનાથી ઈપથનું બારણું પણ ઢાંકેલું છે.
साधक की अहिंसा की फसल पक चुकी है। फसल कट जाने के बाद वह खलिहान में आती है। ऊपर का छिलका साफ करना होता है, इसके लिए हिके का अवलम्बन लिया जाता है। धैर्य ही वह हिक्का है 1 बाद में खलिहान में स्तंभ गाडा जाता है। जिसके चारों ओर बैल घूमते हैं और अनाज का छिलका दूर होता जाता है । साधक की निश्चल श्रद्धा ही मेढी अर्थात् संभ है। श्रदा साधना की रीढ है। यदि श्रद्धा की भूमि ठोस है तो अध्यात्म के आकाश में उड़ान भरी जा सकती है, क्योंकि पक्षी को उड़ने के लिए रुई का नरम हिप नहीं; कठोर भूमि चाहिए । ऐसे ही साधना के लिए श्रद्धा की ठोस भूमि चाहिए । चंचल श्रद्धावाला व्यक्ति किसी भी कार्य में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता।
अहिंसा की मधुर फसल उसके जीवन में पवित्र भावनाओं का संचार करती है मन की गति शुभ की और बडती है और एक दिन वह भी आता है जब कि वह पूर्ण शुद्ध स्थिति में पहुंच कर ोपथ की क्रिया को भी रोक देता है । आमा जब विकास की ग्यारहवीं श्रेणी पर पहुंचता है तब सभी क्रियाए समाप्त हो जाती है । केवल ऐर्यावधिक क्रियाशेष रह जाती है जोकि योग प्रवृत्ति की देन है । जब तक मन वाणी और कर्म की प्रवृत्ति रहती है वहाँ तक क्रिया चालू रहती है। किन्तु उससे कषाय भाव चला जाता है तो कमाँ की बधशक्ति समाप्त हो जाती है। योग के कारण कर्म आते अवश्य है, किन्तु दे प्रथम समय में आते है द्वितीय समय में भोगे जाते हैं और तीसरे समय में निर्जनित हो जाते है । निश्चल नय की दृष्टि
१-जान सजोगी भयर ताव ईरियावधियं कम्म नियंधः । तुहफरिस दुसमयठिश्यं । तं पढमसनचे बद्ध विश्यसमये वेद्यं तश्यसमये निजि 1-उत्तरा. अ० २१. सूत्र ७१ ।