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छब्बीसवां अध्ययन
२ तत्वार्थ श्रद्धा ही सम्यक्त्व है। यह 'दार्शनिक और आध्यात्मिक व्याख्या है जोकि तत्वज्ञ जिज्ञासु साधकों के लिए है। अथषा यह व्याख्या उन विराद पुरुषों के लिए भी है जोकि शान की अन्तिम किरण तक पा चुके हैं । उन तीर्थकर देवों के लिए देख कौन गुरू, कौन और धर्म क्या है। वे स्वयं ही देव है और स्वयं ही गुरु हैं, उनकी वाणी ही धर्म है । अतः प्रथम व्याख्या उनके लिए उपयुक्त नहीं हो सकती है । अतः तत्वार्थ श्रद्धान रूप सम्यक्त्व वहां घटित होती है।
३ तीसरी व्याख्या के अनुरूप आत्मा की शुद्ध परिणति ही सम्यक्त्व है, क्योंकि प्रथम दोनों प्रकार की व्याख्याएँ वहाँ घटित नहीं होती है। साथ ही वहां शम, संवेगादि सम्यक्स के चाय चिन्ट भी नहीं मिलते है। फि क्षायिक सम्यक्त है। वहाँ निज रूप में रमणता रूप सम्यक्त्व के अतिरिक्त और कोई भी परिभाषा नहीं घटित होती है। शुद्ध निश्चयनय के अनुसार आत्मा का शुद्ध स्वरूप सम्यक्त्व है और वही खाद के रूप में गृहीत किया है।
ईर्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेप और परिस्थापन रूप पंचविध समितियां शमिला है। योगों की शुभ में प्रवृत्ति समिति है । धृति रूप रस्सी से जो सुसम्बद्ध है और जो वीतराग के वचनों में अनुरक्त है वही साधक श्रेष्ठ खेती कर सकता है।
टीका:- सम्यक्वं गोच्छणवोत्यज्ञासाथैः । समितिस्तु शमिला, धृतियोक्त्रसुसंबद्धास्ते ये सर्वज्ञवचने रताः। गतार्थः। विशेष गोच्दरणवो पद का अर्थ अज्ञात है।
पंचेष इंदियाणि तु, खंता देता य णिज्जित्ता।
माहणेर तुलेनगर, नीर शपले किर्ति" ११ ॥ अर्थ:-क्षान्त, दान्त और इन्द्रिय जेता ब्राह्मणों के लिए दमन की गई उसकी पांचों इन्द्रियां ही उसके लिए गो-वत्स हैं । जिनके द्वारा बह गंभीर दिव्य खेती करता है।
ब्राह्मण का पुत्र खेती करता है। किन्तु उसकी खेती अपार्थिव होती है क्षमा और इन्द्रिय-जय उसके वृषभ हैं। जिनके द्वारा यह दिव्य खेती करता है। ___साधना क्षमा और इन्द्रिय जय उतने ही आवश्यक है जितने कि खेती के लिए रेल । क्षमा हृदय को निर्वैर बनाती है। वर्षों का पैमनस्य और कानुष्य क्षमा का स्पर्श पाते ही धुल जाता है। क्षमा हृदय की देन है । अब हृदय शुद्ध होता है तब क्षमा का जन्म होता है, केवल हाथ जोड़ना ही उसके लिए पर्याप्त नहीं है। हाथ तो एक की भी जोड़ता है। जब तक मन नहीं जुड़ता है तब तक क्षमा का मूल्य नहीं चूकता । जिसमें हृदय जुड़ता है वही क्षमा मन के मैल को घो सकती है। ऐसी क्षमा और इन्द्रिय-जय साधक के दो वृषभ हैं जिनके द्वारा वह खेती करता है।
यह रूपक प्राचीन भारतीय कृषि पद्धति को बताता है। साथ ही उसके आवश्यक अंग बैल को भी बता रहा है। आज की बीसवीं सदी में ट्रैक्टर आ चुके हैं, फिर भी आज भारतीय किसान के सखा हलधर ही है। किन्तु जब वे ही अमदाता हलधर वृद्ध हो जाते हैं तो उन्हें कसाई के हाथों बेच दिया जाता है जहां कि कर कसाई का विकराल छुरा उनको मौत के घाट उतार देता है। यह कैसा अपराध है। वर्षों तक जिसका सेवा ली जब सेवा देने का प्रसंग आया तो उसे चंद चांदी के टुकड़ों के लिए कसाई के हाथ बेच दिया यह कसा ऋठोर पाप है।
पर इस अपराध की पृष्ठभूमि में दरिद्रता और मभाव की भी छाया है, जिसके चंगुल में भारत का अनदाता कृषक समाज आज भी फंसा हुआ है । गरीबी पापों की जननी है।।
गरीबी के पापों में एक यह भी है तो इसका हिस्सा अमीरी के पल्ले चिलकुल ही नहीं पष्ठता ऐसा नहीं मान सकते । गरीबों का शोषण करने वाली अमीरी ही सब पापों की जद्ध है, जिससे छली जाकर भोलीभाली गरीबी जघन्य कर्म करने पर उतारू हो जाती है। अहिंसा का उत्तराधिकारी बननेवाला सराज जब परिग्रह में गले गले तक डूबता है तो वह अप्रत्यक्ष रूप से अहिंसा के मौत के वॉरन्ट पर हस्ताक्षर करता है । क्यों कि परिग्रह और हिंसा भाई-बहन है। अहिंसक समाज क्या इस तथ्य को समझने की कोशिश करेगा?
टीका :-पंचेन्द्रियाणि तु क्षान्तानि दान्तानि निर्जितानि च यानि मामणेषु तानि गोरूपाणि गंभीरं कृषि कृषन्ति ।
१ तत्वार्धश्रद्धानं सम्यग् दर्शनम् । तत्यार्थपूत्र अध्याय ५ सूत्र । २बैलों के कन्धों पर रहने वाले युग जुआ की कील ।