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________________ इसि भासियाई महर्षि वेदव्यास भी कहते है कि: "तीर्थानां हृदयं तीर्थ शुनीना हृदय शुचिः॥" ती में सर्वश्रेष्ठ तीर्थ हृदय है और पवित्रताओं में विशुद्ध हवय पवित्रतम है। जब तक हृदय में सरलता और पवित्रता नहीं आती तब तक साधना जलधारा पर चित्र का आलेखन है। वाचक मुख्य उमायाति साधक की परिभाषा देते हुए कहते है" निःशल्यो प्रती"तत्वार्थसूत्र गाथा १३ अ०७ व्रती कौन है, कितने व्रत लिए हो, कितनी तपःसाधना कर चुका हो, उसे व्रती कहना चाहिए। इसके उत्तर में आचार्य कहते है कि यह सब बाद की वस्तुएँ हैं। व्रती वही है जिसके अन्तर और बाहर में दैत की खाई मिट चुकी हो। जीवन के मैदान में सरलता सर्वत्र विजय पाती है। उसके सामने कूटनीति को भी पराजित होना पड़ता है। एक विचारक ने ठीक ही कहा है: Nothing more completely buffles who is full of trick and duplicity than stright reward and simple intogtity in another. चालाक और दुहरी नीति रखने वाले की इससे ज्यादा पूर्ण पराजय अन्यत्र न होगी । असी कि सीधे और सादगी पूर्ण आदमी के सामने । ___अतः साधक सरल आत्माओं के साथ ही सरलता का व्यवहार सीमित न रखें, अपि तु जो चालाक और कूटनीति वाले हैं उनके साथ भी सरलता की नीति रखे। 'शठे शाठ्यं समाचरेत्' यह पुरानी कहावत है अब तो 'शळं प्रति सत्यं समाचरेत होना चाहिए । सापक विनय शील हो। हृदय सरल होगा तो आचरण में विनम्रता अवश्य ही आएगी। सहन शीलता हलेषा है । दया और गुप्ति-मनादि को अशुभ से रोकना, प्रसंग अर्थात् रस्सी है जो कि खेती के आवश्यक उपकरण है। टीका:-कूटेषु बचकेषु पुरुषेवकूटस्वं सरलत्वमंगीकरोति, भसिंस्तु पादे कृप्युपमा न दृश्यते। विनये नियमनमिष स्थितः तितिक्षा पहलेषा श्या गुप्ती च प्रमहौ । गतार्थः । विशेषः छली व्यक्तियों में सरलस्य धारण करना चाहिए । किन्तु वहाँ पर कृषि उपमा नहीं दिखाई देती है। समत्तं गोच्छणवो, समिती उ समिला तहा। घितिजोत्त सुसंघद्धा, सव्वण्णुवयणे रया ॥ १०॥ अर्थ:-सम्यक्त्व का गोब्णव है और समिति शमिला समोल है । धृति की जोत वह रस्सी जो बैल या घोडे को वाहन में जोतने के उपयोग में आती है उस से सुसंबद्ध है । और सर्धन के बचनों में अनुरक्त है। गुजराती भाषान्तर: સમ્યકત્વનું ગોલ્ડણવ (છાણ) છે અને સમિતિ શમિલા-સમોલ છે. ધતિની જીત તે દોરી કે જે બળદ અથવા ઘોડાના વાહનમાં જોડવાના ઉપયોગમાં આવે છે, તે થી સુસંબદ્ધ છે અને સર્વગના વચનોમાં અનુરક્ત છે. खेती के लिए खाद आवश्यक है। अच्छी बाद अच्छी फसल पैदा करती है। आध्यात्मिक शान्ति की फसल प्राप्त करने के लिए सम्यक्त्व रूप खाद की आवश्यकता है। समस्त आध्यात्मिक शान्ति का मूल है सम्यक्त्व । एक आचार्य योलते हैं कि: सम्म घ मोक्खनीय तं पुणभूयस्थ सदहणावं । पसमाह लिंग-ाम्म सुहाय परिणाम स्वं तु ॥ -आचार्य देवमुप्त नव-तत्व-भाष्य । सम्यक्त्व मोक्ष का बीज है । उसका स्वरूप है तख श्रद्धा और वस्तु के यथार्थ स्वरूप का अवबोध । प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और श्रद्धा उसके बाव चिन्ह है जिसके द्वारा बह जाना जाता है । आत्मा का शुद्ध म्वरूप ही नैश्वयिक सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व की परिभाषा तीन प्रकार से की जाती है। १ व्यापहारिक २ दार्शनिक ३ नेश्वयिक । सुदेव, सुगुरु और सुधर्म पर विश्वास रखना 'व्यावहारिक सम्यक्ल' है । प्राथमिक कक्षा के साधकों के लिए यह सुगम व्याख्या दी गई है।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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