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नषम अध्ययन
गुजराती भाषान्तर:
જેમ ધાતુ (તેજબ)ના સંયોગથી સોનાનો મેલ નિકળી જાય છે તેમજ અનાદિ કર્મો પણતપથી નષ્ટ બની જાય છે.
स्वर्णकार जब सोने को विशुद्ध करता है, वह आग में तपाने के पूर्व उसमें दूसरी धातु (तेजाब) मिलाता है जिसके द्वारा तपने के बाद खणं में अधिक दीप्ति आती है और वह मुलायम हो जाता है। इसी प्रकार कर्म मैल आत्मा के साथ अनादि है। फिर भी तप के द्वारा कर्म मैल दूर हो जाता है और आत्मा विशुद्ध होता है। बहुधा प्रश्न किया जाता है कि आत्मा और कर्म का संयोग अनादि है फिर अनादि का अंत कैसे संभव है ? उसके उत्तर में आचार्य ने सोने का रूपक दिया है। जैसे सोना और उसके मेल का संबन्ध अनादि है फिर भी मानव के प्रयका मैल को खर्ण से पृथक् कर सकते हैं, इसी प्रकार तपःशक्ति अनादि आत्म-मैल को दूर कर सकती है।
वत्यादिपसु सुज्झेसु, संताणे गहणे तहा ।
दिदै त देसधम्मितं, सम्ममेयं विभावए ॥ २७ ॥ अर्थ:-खादि के शोधन में और कर्म संतान में दृष्टान्त हा न्तिकमाष है। टीत एकदेशीय है। अतः उसका सम्यक् प्रकार से अध्ययन करना चाहिए । गुजराती भाषान्तर:
કર્મોની ઉત્પત્તિમાં, અને વસ્ત્રોના શોધન (ધુલાઈ) ને દાન આપવામાં આવ્યો છે, આ દષ્ટાંત એકદેશીય છે. એથી તેનું સમ્યફ રીતે પાર પ્રવું જોઈએ.
वनों की सफाई यह एक रूपक है और वह कर्म-संतान की विशुद्धि के लिए आयी है। यह दृष्टांत है और दृष्टांत एकदेशीय होता है। किसी के शान्त भिग्ध मुख को चन्द्र की उपमा वी जाय तो उससे घर में प्रकाश नहीं हो जाए ऐसी आकांक्षा भी पागलपन के सिवा और कुछ नहीं होगी । वहाँ तो चन्द्र की सौम्यता, शान्ति और सुधा ही विवक्षित है। महाकाश्यप अर्हतर्षि मी स्पकों के सम्बन्ध में निर्देश दे रहे है। ये एकधर्मी है, अन्यथा वनों की भांति आत्मा को पानी से धो कर शुद्ध करने के लिए चल पड़ेंगे। क्योंकि पाप का रंग इतना हल्का नहीं है कि यह पानी से धुल जाए।
टीकाकार का मिन्न मत है
साविषु शोध्येषु शुद्धि प्रापयितव्येषु मार्गितम्येषु वः तपश्च संताने षष्ठादिभक्तावलेषां पिस्ग्रहणे च देवाधर्मित्वं अपूर्णानुष्टानं बहुशो इष्टमेलमिस्वं तु सम्पम् लिःशेषं निभावयेत प्राकाश्य नयेत् ॥
जो वस्त्रादि शुद्ध करने योग्य हैं, उनमें और कर्म-संतति के क्षय हेतु की जानेवाली षष्ठभक्कादि तप और आहार प्रहण में देशमित्व अर्यात् अपूर्ण अनुष्ठान देखे जाते हैं। किन्तु साधक उनकी अपूर्णता दूर कर सम्यक् प्रकार से उसका अनुष्ठान करे।
टीकाकार द्वारा प्रस्तुत अर्थ गाथा के हार्द से मेल नहीं खाता है। क्योंकि श्रहंतर्षि ने पहले वस्त्र शोधन और स्वर्ण शोधन के सृष्टांत दिए हैं। दृष्टांत हमेशा एकदेशीय होते हैं। दो वस्तुओं में से कुछ विशेष साम्यता को देख कर एक वस्तु से दूसरी को उपमित किया जाता है। पर इसका यह अर्थ नहीं है कि एक वस्तु के समस्त गुण दूसरी में ही हो । इसी तथ्य को बताने के लिए यह गाथा आई है।
. आवज्जती समुग्घातो, जोगाणं च निरंभणं ।
अनियट्टी एव सेलेसी, सिद्धी कम्मक्खओ तहा ॥२८॥ अर्थ:-आवर्जन-समुद्धात, अनिवृत्ति, योग-निरोध और शैलेशीकरण के द्वारा आस्मा कर्म-क्षय करके सिद्धि प्राप्त करता है। गुजराती भाषान्तर:
આવર્જન, સમુદ્રવાત, અનિવૃત્તિ, યોગનિરોધશિલેશીકરણ આત્મા કર્મ ક્ષય કરીને સિદ્ધ-મુક્તિ પ્રાપ્ત કરે છે.
शुक्ल ध्यान की परम तपोमि के द्वारा चार कर्म क्षय करके आत्मा केवल ज्ञान और केवल दर्शन प्राप्त करता है। उसी का क्रम यहां बतलाया गया है. सर्व प्रथम आवर्जन क्रिया होती है। उदयावलिका में अप्राप्त कर्मों की उदयावलिका में प्रक्षेपण करना आवर्जन क्रिया कहलाती है। जब भाय अप हो और बेदनीय नाम गोत्र कर्म अधिक हों, उन्हें वायु की