________________
इसि-भासियाई । सम स्थिति में लाने के लिए केवली प्रभु समुद्धात करते हैं। क्योंकि यदि आयु समाप्त हो जाय और वेदनीयोदि की स्थिति अधिक हो तो पैचिरी स्थिति हो जायगी, क्योंकि आयु के अभाव में आत्मा शरीर में रह नहीं राकला और कर्मक्षय नहीं हुए तो सकर्मक श्रारमा सिद्ध कैसे होगा? ऐसी स्थिति में केवली भगवान समुद्धात करते है। जो अष्टसमय भाषी होती है। आत्म-प्रदेशों को दंड, कपाट, मन्थान और अन्तःपूर्ति के रूप में आत्म-प्रदेशों को लोक थ्यापी-बनाते हैं और चार समय में उसी कम से पुनः प्रदेशों को शरीरस्थ करते हैं। किया रागदाःहै। बेरी महिला व कला देने से जल्दी सूख जाता है उसी प्रकार समुद्धात से आत्म-प्रदेशों को लोक व्यापी बना देने से वेदनीय आदि की स्थिति आयु के तुल्य हो जाती है। उसके बाद केवली क्रमशः काया, वचन और मनोयोग का निरोध करते हैं। स्कूल वचन योग से स्थूल काय योग का निरोध करते हैं। और स्थूल मन योग से स्थूल वचन चोग का विरोध करते हैं। सूक्ष्म काययोग के द्वारा स्थूल मनोयोग का निरोध करते हैं। बाद में क्रमशः सूक्ष्म वचन योग से काम योग एवं सूक्ष्म मनोयोग से सूक्ष्म वचन योग का निरोध करते हैं और सूक्ष्मकियाप्रतिपत्ति नामक शशा ध्यान के चतुर्थ पद से सूक्ष्म मनोयोग का निरोध करते हैं। फिर शैलेशी निष्प्रकप अवस्था को प्रान करता है। अनियट्टी जो मात्र मुक्ति प्रा किया बगर निवृत्त नहीं होता है। जिसे अनियट्टी गुग श्रेणी भी कहते हैं। उराके बाद क्रिया रहित सर्व संबर रूप शैलेशी अवस्था आती है। इस अवस्था में पंचहस्ताक्षर उच्चारण काल तक आत्मा देह में ठहर कर आत्मा देहमुक्त हो सिद्ध होता है।
टीका:-तस्य फलं उच्यते यथा मापद्यते कर्मप्रदेशानां समुद्रातः स्फोटनकल्पः योगाना रूपवाङ्मनःकर्मरूपाणां निरोधः भनिवृत्तिरपुनर्भवः शैलेशीयोगनिरोधरूपावस्था सिद्धि निर्माण तथा कर्मक्षयः ।।
पूर्व गाथा में बताया गया है, कि साधक अपूर्ण अनुष्टान न करे। अपितु साधना को पूर्ण करे। पूर्ण साधना का प्रति फल यहां बतला रहे हैं। जैसे कि कर्म-प्रदेशों का समुद्धात, जिसे स्फोटनकल्प भी कहा जाता है शरीर, वाणी और मन रूप योगों का निरोध अनिवृति अर्थात् पुनः न होने वाली योगनिरोध रूप शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर आत्मा कर्म-क्षय रूप सिदितथा निर्वाण प्राप्त करता है।
णावा व वारिमसंमि, खीणलेवो अणाउलो।।
रोगी वा रोगणिम्मुक्को, सिद्धो भवति णीरओ ॥ २९ ॥ । अर्थ:--जल धारा के बीच में रही नौका के समान कर्म लेपरहित अनाकुल आत्मा सिद्ध होता है। रोगी रोग से निर्मच होने पर आनन्द पाता है। ऐसे ही आत्मा भव-भ्रमणों की व्याधि से मुक्त हो कर आनन्द पाता है। गुजराती भाषान्तर:
પાણીના પ્રવાહની અંદર રહેલ હોડીની જેમ કમળ-રહિત અમા સિદ્ધ બને છે. રોગી રીગથી મુક્ત થવાથી આંનંદીત થાય છે, તેવી જ રીતે આત્મા ભવભ્રમણની રોગથી મુક્ત થઈને આનંદ અનુભવે છે.
नौका अथाह सागर में नैरती है। उसके नीचे असंख्य जलराशि रहती है, फिर भी नौका में एक बूंद भी नहीं रहता। इसी प्रकार मोह युक्त आत्मा संसार में नौका के सदृश रहता है। अनंत अनंत कर्म वासनाएँ उसके चारों ओर रहती हैं। क्योंकि कर्म द्रव्य तो संसार में सर्वत्र व्याप्त है, सिद्ध शिला पर भी कर्म प्रदेश है। किन्तु वे कर्मनिर्मुक्त होते हैं। आत्मा रोगमुक्त व्यक्ति की भांति असीम आनन्द का अनुभव करता है।
पुन्वजोगा असंगता काऊ वाया मणो ह या ।
पगतो आगती चेव कम्माभावा ण विजती ॥ ३०॥ अर्थ:-सिद्धस्थिति में] पूर्व [संसारी दशा] के देव वाणी और मन रूप से पृथक एक ही आत्म द्रव्य रहता है। कर्मजन्य भाचों का वहाँ अभाव है। आत्मा के ज्ञायिक सम्यक्त केवल ज्ञान के याद दर्शन और अनंत सुख रूप और सत्वप्रमेयत्वादि पारिणामिक माद ही बर्दा रहते हैं। औदयिक, औपशमिक और क्षायोपशामिक भावों का वहां अभाव है। साथ ही वहां भव्यत्र रूप पारिणामिक भाव का भी अभाव है। आमम में सिद्ध प्रगु नोभव्याभध्य है कहा गया है। क्यों कि सिद्ध स्थिति पा चुके हैं। अतः अब भव्यत्व अवशेष ही कट्टा रहा 1
१ औषशामिकादिभन्यात्वाभावात्वान्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिकत्वेभ्यः ।