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________________ नवम अध्ययन गुजराती भाषान्तर :| ( સિદ્ધની સ્થિતિમાં પહેલા સંસારી દશા) ના દેહ વાણી અને મન જન્મભાવથી જુદો એકજ આત્મિદ્રવ્ય રહે છે. કર્મ જન્મ ભાવોનો ત્યાં અભાવ હોય છે. આત્માના શાયિક રમ્યત્વ, કેવલ જ્ઞાન, કેવલ દર્શન અને અનંત સુખ અને સત્વમેયતત્વ આદિ પરિણામિક ભાવોજ ત્યાં હોય છે. દચિક, ઔપશમિક અને યોપશમિક ભાવોનો ત્યાં અભાવ હોય છે. સાથે જ ત્યાં ભવ્યત્વરૂપ પરિણામિક ભાવનો પણ ત્યાં અભાવ હોય છે. આગમમાં સિદ્ધ પ્રભુનો ભયાભવ્ય છે, તેમ કહ્યું છે. કારણકે તે સિદ્ધસ્થિતિ પામેલા છે. તેથી હવે ભવ્યત્વ અવશેષજ ક્યાં રડ્વો, ઉપરામિક આદિ ભવ્યાત્વ ભાવત્વાન્યત્ર કેવળ સમ્યક જ્ઞાન દર્શન સિદ્ધવેભ્યઃ. टीका:-पूर्वयोगेनासंगतानि भवन्ति; कायो वाङ्मन इति वैकान्तेन कर्माभाषादिह लोकामतिर्न विद्यते । सिद्ध दशा में योगों का अभाव होता है। क्योंकि कर्मागमम का मुख्य हेतु योग ही है। योगों के सद्भाव में ही कर्म आते हैं। ग्यारहवे से तेरहवें गुण स्थान तक केवलयोग ही हैं। अतः ईर्यापथिक क्रिया है। सकषायाकयाययोः सांपरासिकेर्यापथयोः ।-तत्त्वार्थमा अ. ६,स्, ५, प्रस्तुत गाथा में मुक्तात्मा के पुनरागमन का निषेध किया है, क्योंकि भवपरम्परा का हेतु कर्म है और कारण के अभाब से तज्जन्म कार्य का भी अभाव है। परं णावग्गहाभावा, सुही आवरणक्खया। अस्थिलपखणसभावा निश्चो सो परमो धुर्व ॥ ३१ ॥ अर्थ:-सिद्धारमा लोकार में स्थित है। उससे आरमा आगे नहीं जा सकता क्योंकि उपर अवग्रह स्थान का अभाव है। समस्त आवरण के क्षय होने पर परम सुख में अवस्थित है। अस्ति-लक्षण से सद्भाव शील है और वह परम नित्य और शाश्वत है। कर्मभुक्त आरमा ऊर्चलोकान्त तक जाती हैं । आत्मा लोकाग्र से उपर क्यों नहीं जा सकता इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत गाथा में दिया है । यद्यपि आत्मा ऊर्ध्वगति-धमी है, फिर भी उराकी गति धर्मास्तिकाय सापेक्ष होती है। धर्मास्तिकाय लोकव्यापी होता है। अतः उसके अभाव में आत्मा लोकाय से ऊपर नहीं जा सकता। सुख के प्रतिबन्धक समस्त आवरण क्षय हो चुके हैं। अतः सिद्धात्मा परम सुखी है। वैशेषिक दर्शन मुक्ति को आनंद शन्य मानते हैं। कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र भी कहते हैं-"न संचिदानंदमयी च मुक्तिः ।। सुसूत्रमासूत्रितमत्यदीयैः । अन्ययोग-व्यवच्छेदिका ८ गाथा के द्वितीय चरण से वैशेषिक दर्शन के उक्त मत का खंडन किया गया है। क्योंकि सुख प्रतिबन्धक मोहनीय कर्म है। उसका वहां अभाव है। प्रतिबन्धक के अभाव में मुख विद्यमान है । हा; वह मुख पार्थिव नहीं, अपार्थिव है। साथ ही सिद्धात्मा में अस्तिलक्षण का सद्भाव है। क्योंकि बौद्ध दर्शन आत्मा संतति का सर्वथा उच्छेद ही निर्वाण मानता है। जैसे दीपक कलिका का जब तक प्रवाह है तब तक उसमें जलन भी है। वह जलन तभी समाप्त होगी जब दीपनिर्वाग हो जाय । किन्तु जैन दर्शन मोक्ष में आत्मा का उच्छेद नहीं, उसका सद्भाव मानता है; उसकी विभावदशा-जन्य विकृतियां समान होती हैं। सर्वथा आत्मा नहीं। यदि आत्मा ही समाप्त हो जाय तो फिर साधना किस लिए ? अतः सिद्धिमान आत्मा शाश्वत रूप में स्थित रहता है। टीका:-नावाग्रहाभावाझानदर्शनावरणक्षयाच पति परम सुखी भवति पुरुषः, ध्रुवं असंशयं स निस्यः परमश्रास्युक्तलक्षणसहायात् । अयं गतम् । दबतो खित्ततो चेव कालतो भावतो तहा। णिचाणि तु विष्णेयं संसारे सयदेहिणं ।। ३२ ।। अर्थः -संसार की समस्त देहधारी आत्माओं को इन्य क्षेत्र काल और भाव से नित्य और अनिल जानना चाहिए। गुजराती भापान्तर: સંસારનાં દરેક શરીરધારી આત્માઓને દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવથી નિત્ય અને અનિત્ય જાણવા જોઈએ. विध के समस्त पदार्थ सार्थ द्रव्य रूप में नित्य है और पर्याय परिवर्तन की अपेक्षा निल भी हैं। वाचक उमाखाती भी कहते हैं-"उत्पादश्यबधौव्ययुकं हि सत् ।" तत्त्वार्थ- अ. ५-सू. २८
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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