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________________ ५६ i इस - भास्सियाई हर पदार्थ प्रतिक्षण उत्पत्ति और विलय में परिवर्तित हो रहा है। किन्तु उसके परिवर्तन का यह नर्तन ध्रुव के धुरी पर ही अवस्थित है । आचार्य सिद्धसेनदिवाकर भी कहते हैं । -- उष्पजति दियंति भावा नियमेण पजवणयरस । दवसि सवं लया अणुमविण ॥-सन्मतितर्क अ. १ गा. १० नय की अपेक्षा से प्रत्येक पदार्थ उत्पन्न भी होता है और नष्ट भी होता है । किन्तु अभ्यार्थिक दृष्टि पदार्थ अनुत्पक्ष और विनष्ट देखती हैं। इस घत्र सिद्धान्त में सिद्धिस्थित आत्मा भी उत्पाद और व्ययशील है। ध्रुव तत्व का प्रतिपादन तो पूर्व गाथाओं में वर्णित है । किन्तु द्रव्यक्षेत्र काल और भाव जन्य स्थूल परिवर्तन देहधारियों में ही परिलक्षित होते हैं। मुक्त आत्मा में नहीं । . मुक्तात्माओं में सूक्ष्म परिवर्तन है । स्वभाव स्थित आत्मा भी निज गुणों में रमण करता है। यह रमणता मी सूक्ष्म परिवर्तन की परिचायक है। साथ ही सिद्ध प्रभु अनंत उच्च पर्यायों को युगपत् जानते हैं । जाता और जेय कथंचित् अभी भी हैं, अतः ज्ञेय का परिवर्तन ज्ञान और ज्ञाता में परिणति होता है । समस्त द्रश्य उत्पादव्यय-धौग्य युक्त है। उनका पर्याय परिवर्तन सिद्धात्माओं का पर्याय परिवर्तन है। गंभीरं सवओभदं सव्वभाव विभावणं । धण्णा जिणाहितं मर्ग सम्मं वेदेति भावओ ॥ ३३ ॥ अर्थ :- गंभीर सर्वतोभद्र, सदा सब के लिए कल्याणकारी, समस्त भात्रों का प्रकाशक, अन्तर की गुफाई को प्रकाशित करने वाले सर्वज्ञ निरूपित धर्म को जो सम्यक् प्रकार से अनुभव करते या जो उसे सम्यक् प्रकार रूप में पहचानते हैं वे आत्माएं धन्य हैं। गुजराती भाषान्तर : ગંભીર શીતળભોળા, હંમેશને માટે બધાનું કલ્યાણ કરનારા, બધીજ જાતના ભાવોના પ્રકાશક, અન્તરની ગુફાએને પ્રકાશિત કરનાર સર્વજ્ઞ દ્વારા નિરૂપિત ધર્મને સમ્યક્ પ્રકારથી જે ઓળખે છે. અથવા જે તેને સમ્યક્ રૂપમાં જાણે છે તે આત્માઓ ધન્ય છે. एवं से बुद्धं गतार्थः । नवमं महाकासवञ्झयणं इति महाकाश्यप अर्हत त्रिप्रणीतं नवमं अध्ययनं समाप्तम् ***WERTRA दशम अध्ययन तेतलिपुत्त अक्षयणं सेत लिपुत्र- अर्हताप्रोक्तं प्रस्तुत अध्याय में अतर्षि तेतलिपुत्र स्वयं अपनी आत्म-कथा बोलते हैं। उनके जीवन के उत्थान-पतन की यह सजीव कहानी है । वे स्वयं अमाल मंत्री थे। स्वर्णकार की पुत्री पोट्ठिला पर अनुराग हुआ और उसके साथ पाणिग्रहण भी हुआ । समय के प्रवाह में राग का रंग धुल गया और वही पोहिला उनके लिए अप्रिय बन गई। तभी सती साध्वी सुनता शिष्याओं के साथ तेतलिपुर में आती है। पोहिला पति का प्रेम सम्पादन के लिए उनसे मंत्र लेना चाहती है, किन्तु साध्वी ने जब इसे मुनि-मर्यादा के बाहर कह कर उसे करने से इनकार कर दिया तब वह भी चरित्र की ओर बढती है । वेतलिपुत्र उसे इस शर्त पर आज्ञा देते हैं, कि यदि वह देव बने तो उन्हें वीतराग के धर्म की ओर मुड़ने की प्रेरणा दे । पोटिला उसे स्वीकार करती है। दीक्षित होकर संयम का यथाविध पालन कर वह स्वर्ग में दिव्य रूप प्राप्त करती हैं और प्रतिज्ञा के अनुरूप वीतराग के धर्म की ओर मोडने को आती है ।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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