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दशम अध्ययन
इधर अमात्य तेतलिपुत्र राजा कनकध्वज से सम्मान और सम्पत्ति पा कर विलास में डूब रहे थे। अतः विवश हो कर पोलिदेव को राजा और परिजन को तेनालिपुत्र से विमुग्न करना पड़ा। इधर मंजी विष पान, कुरान और अमिस्नान द्वारा प्राण देने को उद्यन हो जाते हैं । पर वे जब उसमें सफल नहीं होते तो जीवन के प्रति की आस्था हिल उठती है । और वे श्रद्धा विहीन बन जाते हैं । तत्र पोहिल देव संसार की भयानकता का चित्र उनके सामने रखते हैं तब स्वयं अमात्य बोल उठसे हैं कि भीत व्यक्ति के लिए प्रत्रज्या श्रेयस्कर है। तभी पोहिल देव यह कह कर चल देते हैं, कि तुम्हारे विचार सत्यभूत बने ।
इधर तेतलिपुत्र विचारों की गहराई में दुबकी लगाते हैं। जाति-स्मरण ज्ञान पा कर उन्हें अपने पूर्व जन्म-महा विदेह में चरित्र ग्रहण और पूर्व के ज्ञान की स्मृति हो जाती है और वे वहीं दीक्षित होते हैं। पूर्व का ज्ञान भी स्मृतिपटल पर आ जाता है। और कुछ क्षणों में अपूर्व करण गुण श्रेणी और शुक्र भ्यान पा कर केवल ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। यह कहानी ज्ञाता पत्र में विस्तृत रूप में दी गई है। प्रस्तुत सूत्र में उसका कुछ अंश ही दिया है। परिवार से तिरस्कृत हो वह अश्रद्धावादी बनता है। उसी प्रसंग का चिन यहाँ दिया गया है। कुछ अंश ज्ञातासूत्र से पृथक् भी है।
इसमें कुछ तथ्य सामने आते है। यह वर्णन उस समय का है जब उन्हें केवल ज्ञान ही नहीं, जातिस्मरण भी नहीं हुआ था।
ये जातिस्मरण या स्वयं दीक्षित होते है । जो कि प्रत्येक बुद्धों की खाग विशेषता है।
महा क्तों की संख्या नहीं दी गई है । अतः यह निश्चित नहीं कहा जा सकता कि यह घटना किस तीर्थंकर के शासन काल की है।
को कं ठावेश अण्णस्थ सगाई कम्माई इमाई?। अर्थ :-कौन किसको रोकता है ? मेरे इन कर्मों के अतिरिक्त मुझे कौन रोक सकता है । गुजराती भावान्तर :
કોણ કોને રોકી શકે છે ? મારા આ કમની અતિરિક્ત મને કોણ અટકાવી શકે છે?
आत्मा अपने निज स्वभात्र में आने के लिए छटपटाता है। उसे अपने निज रूप में आने के लिए कौन रोक सकता है ? मानत्र अपने दोषों का उसरदायित्व दूसरे पर टेलता है। किन्तु जैन-दर्शन कहता है कि अपने बन्धन और मुक्ति का विधाता तूं स्वयं है। तूं स्वयं ही अपनी वृत्तियों के द्वारा पन्धता है और उनसे मुक्त होने की शक्ति तुझमें ही है। बाहरी शक्ति न तुझे बांध सकती है, न मुक्त कर सकती है।
प्रस्तुत सूत्रवाक्य में अईतर्षि अपने जीवन का रहस्य बतला रहे है-मित्र और बन्धु जनों। मैं ने दोष दिया कि वे मुझे संसार के बीच से निकलने नहीं देते, किन्तु तथ्य यह है कि मेरे कर्मों ने ही मुझे बांध रक्खा है।
टीका:-कः के स्वस्थाने नाम गोत्रादिलक्षणे स्थापयति नान्यत्र स्वकीयानीमानि कर्माणि। तेतलिपुत्रास्तार्षिणा भाषितमित्यत्रैव प्रवेशनीयम् , अदेय मित्यादिवाक्यानां पूर्वगतेनासंबद्धत्वात् ।
टीकाकार का मत कुछ भिन्न है। कौन किसको नाम गोत्रादि लक्षण रूप पर स्थापित करता है। ये हमारे अपने कर्म ही वहां स्थापित करते हैं। यहां पर तेतलिपुत्र अतिर्षि बोले ऐसा दाक्य जोडना चाहिए, अन्यथा श्रद्धेय आगे आने वाले वाक्यों में प्रस्तृत वाक्य सम्बद्ध नहीं रहेगा। प्रोफेसर शुजिंग इसे दूसरे ढंग से लिखते हैं:-मनुष्य आज जिस स्थिति में है उसे वहां तक लाने वाला कौन है ? 1 स्थिति तो उसे लाई नहीं, क्योंकि उस स्थिति में तो वह स्वयं अभी उपस्थित है। उनके कार्य ही उसे इस स्थिति में लाए। इस प्रकरण का अन्तिम भाग इसे स्पष्ट करता है। जबकि अतिर्षि तेतलिपुत्र बोलते हैं कि भयभीत व्यक्ति को दीक्षित होना चाहिए। जो दूसरे को कलता है उसे छिपने को तैयार रहना चाहिए । जो घर पहुंचने की उत्सुकता रखता है उसे स्वदेश की ओर प्रयाण करना चाहिए ... ...।
सञयं खलु भो समणा वदंती, सद्धेयं खलु
माहणा, अहमेगो असद्धेयं वदिस्सामि ।
- सेतलिपुत्तेण अरहता इसिणा बुइयं ॥ अर्थ:-श्रमण नर्म बोलता है कि श्रद्धा करना चाहिए। ब्राह्मण वर्ग जोर-शोर से पुकार कर कहता है कि श्रद्धा करो। किन्तु मैं अकेला कहूंगा कि श्रद्धा नहीं करना चाहिए । इस प्रकार तेतलिपुत्र अतिर्षि बोले ।