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________________ इसि-भासियाई गुजराती भाषान्तर: શ્રમણવર્ગ કહે છે કે શ્રદ્ધા રાખવી જોઈએ, બ્રાહ્મણ વર્ગ પુકારી પુકારીને કહે છે કે શ્રદ્ધા રાખો, પરંતુ તે એકલે કહીશ કે શ્રદ્ધા રાખવી ન જોઇએ, એ પ્રમાણે તેતલિપુત્ર અહંત બોલ્યા. समस्त संप्रदायें श्रद्धा में जीती है। समस्त पंथ और मतों की जड़ श्रद्धा है। यदि पंध में से अदा निकल गई तो सारा सम्प्रदाय-बाद ताश के पत्तों का ढेर हो जाएगा । इसी लिए श्रमण-संस्कृति और ब्राह्मण-संस्कृति में श्रद्धा का महत्व दिया गया है-"सद्धा परमदुलहा"। चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाय्याह जैतुगो । माणुसत्तं सुई सखा संजमम्मि य वीरियं ॥ -उत्तरा० अ० ३ गाथा १ दूसरी ओर ब्राह्मण संस्कृति ने भी श्रद्धा का नारा दुवा है - "मन वामाना" "यो यच्छ्रद्धः स एव सः" के रूप में श्रद्धा का आशेष सुनाई देता है। अतिर्षि देतलिपुत्र का प्रस्तुत वाक्य तब का है जब कि वे सामाजिक वातावरण से ऊब चुके थे। अपमान से त्रस उनका मन बोल उठा-दुनियां श्रद्धा के गीत गाती है ऋषि और मुगि भी श्रद्धा के लिए वोलते हैं। किन्तु मैं कहता हूं कि दुनियां के इन संबन्धों पर कोई विश्वास न करे। क्योंकि से संबन्ध स्वार्थ के धागे से बचे हैं। इसके उदाहरण में वे अपनी ही कहानी कह रहे हैं: सपरिजणोति णाम ममं अपरिजणोत्ति को मे तं सद्दहिस्सति? सपुत्तं पि णाम मम अपुत्तेति को मे तं सदहिस्सति । एवं समित्तं पि पाम ममं अमित्त सि को मे तं सदहिस्सति? । सवित्तं पि णाम ममं अदिति को मे सहहिस्सति ? । सपरिग्गरं पिणाम ममं अपरिग्ग त्ति को मे तं सहहिस्सति ? । दाण-माण-सकारोवयारसंगहिते ति को मे तं सद्दहिस्सति। अर्थ:-"परिजन के साथ होते हुए भी मैं परिजन परिवार रहित हूं" ऐसा कहने पर कौन श्रद्धा करेगा? पुन होने पर भी मैं पुत्र रहित हं, तो मेरे इस कथन पर कौन विश्वास करेगा? इसी प्रकार मित्र और स्नेही जनों के साथ होते हुए भी मुझे कौन मित्र विहीन मानेगा? मेरे पास धन होने पर भी मेरी धनहीनता पर कौन श्रद्धा करेगा ? परिग्रह होने पर भी मेरी अपरिग्रहता को कौन राच मानेगा? दान, मान, सत्कार, उपचार या उपकार से युक्त होने पर मुझे इन सब में पृथक कौन स्वीकार करने को तैयार होगा। गुजराती भाषान्तर : પોતાનાં સગા-વહાલાંઓ સાથે હોવા છતાં પણ હું સગા-વહાલાંને નોકર-ચાકર રહીત છું એમ કહું તો તે કોણ સાચું માનશે? ( શ્રદ્ધા કરશે), પુત્ર હોવા છતાં પણ હું પુત્રરહિત છું એમ કહું તો મારા એ ચન પર કોણ વિશ્વાસ કરશે ? તે જ પ્રમાણે મિત્ર અને સ્નેહિ સાથે હોવા છતાં કોઈ પણ મને મિત્રવિહીન માનશે? મારી પાસે ધન લેવા છતાં પણ મારી ગરબાઈ પર કોણ શ્રદ્ધા કરશે? ( કોણ સાચું માનશે ?) પરિગ્રહ લેવા છતાં પણ મને અપરિગ્રહી કોણ કહેશે? દાન, માન, સત્કાર, ઉપચાર અથવા ઉપકારથી યુક્ત હોવા છતાં પણ મને એ બધાથી પૃથ સ્વીકારવા કોણ તૈયાર થશે? त्याग का एक वह भी रूप है जहाँ बाहर में विलास और वैभव के प्रसाधनों के रहते हुए भी आत्मा अन्तर से अलित रहता है। यह है अन्तस्यागी बहिस्संगी। जिसे वैदिक संस्कृति में देह में रहते हुए विदेह' कहा जाता है और जैन संस्कृति में 'भावचारित्री' कहा गया है। गीता जिसे "स्थित--प्रज्ञ' के नाम से पहचानती है। और जैन आगम जिसे 'अलिप्त पद्म' कहता है। जहा पोम जले जायं नोबलिप्पइ वारिणा । एवं मलिन्त कामेहिं तं वयं घूम माइणं ॥ -उत्तरा. अ. २५ गाथा २०
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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