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इसि-भासियाह
गुजराती भाषान्तर:- જેમ અગ્નિ અને પવનના સંયોગથી (મદદથી) સોનું નિર્મળ બને છે તેમ જ સમ્યકદર્શન અને સમ્યકજ્ઞાન સાથે સંયોગી પાપ-વિશુદ્ધ બને છે.
दर्शन और सम्यग ज्ञान के द्वारा आत्मा कर्म-भक्ति की राह पर आगे बढ़ता है। जब तक मिश्श्याल है तब तक अशान है। जो अमृत को ही जहर मान कर उससे धृया करता है और जहर का अपत मान कर पीता है बह दुःख के दावानल को निमंत्रण देता है।
सम्यग् दर्शन के आने पर ही ज्ञान सम्यम् बनता है। अन्यथा ज्ञान तो मिथ्यात्व दशा में भी होता है। किन्तु उसका ज्ञान तत्व का शुद्ध रूप नहीं देखता। यह केवल वर्तमान रूप को ही देखता है। उसके अनंत अनंत भूत और अनंत अनंत भविष्य पर्यायों को स्वीकार नहीं करता है । अतः बह वस्तु को जानता हुआ भी नहीं जानता है। ऐसे तो मिथ्यात्वी भी गी को गौ और अश्व को अश्व देखता है। वह भी गाय को घोटा नहीं कहता। किन्तु सम्यक्त्वी जहाँ गाय में एक शाश्वत अनंत गुण, अनेत अतील, अनागत पर्याय वाला आत्म-तत्व मानता है। आज निरीह दीन रूप में उपस्थित आत्मा एक दिन भाव बन कर चक्रवती के सिंहासन पर भी बैठ सकता है।
जीबाविसहइण समत्तस्वमप्पणो।
दुरभिणिवेसमुक सम्म खु होदि सहि जम्हि । जीवादि तत्वों पर श्रद्धा सम्यक्त्व है। वही आत्मा का निज रूप है । जिसके आने पर ज्ञान दुरभिनिवेश-हवाग्रह से मुक्त हो सम्यक् बनता है। व्य संग्रह कभी इन्द्र के सिंहासन पर भी बैठ सकता है, और कमी समस्त कर्म जंजीरों को तर शुक भी रातःहै: सु दर्श
गाय में चक्रवती और इन्द्र का अस्तित्व स्वीकार करता है, जब कि मिथ्यात्वी केवल उसे गाय के रूप में देखता है। अतः सम्यग दर्शन पाते ही आत्मा दर्शन विशिष्ट की शचि पाता है जिसके द्वारा ख--पर का मेदविज्ञान कर सकता है। और यही पाप-विशुद्धि के लिए प्रयलशील होता है।
तवसंतसं वत्थं सुज्झइ चारिणा।
सम्मत्तसंजुतो आप्पा तहा झाणेण सुज्झती ॥ २५ ॥ अर्थ:-जैसे धूए से तप्त वन पानी के द्वारा शुद्ध होता है। वैसे ही सम्यक्त्व से युक्त आत्मा ध्यान से शुद्ध होता है। गुजराती भाषान्तर:
જેમ તડકાથી તપેલું વસ્ત્ર પાણીથી શુદ્ધ થાય છે. તેવી જ રીતે સમ્યકત્વથી યુક્ત આત્મા ધ્યાનથી શુદ્ધ બને છે.
धूप से तप्त वस्त्र पानी से शुद्ध होता है। पानी से तो कपडा भीगता है, फिर यह शुद्ध कैसे है। धूप से पसीना आता है उसके द्वारा कपड़ा अशुद्ध हो जाता है। मैला कपडा पानी से साफ हो जाता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व समवेत श्रात्मा ध्यान के द्वारा शुद्ध होता है। ध्यान के चार प्रकार हैं, जिसमें आर्त और रौद्र कर्म पाश को मुहद्ध करने वाले हैं। धर्म
और शुक्ल ध्यान आत्म-विशुद्धि के लिए उपयोगी हैं। शुद्ध थान के दो पद पृथक्त्व वितर्क और एकच वितर्क केवल ज्ञान के हेतु है और शेष दो सूक्ष्मकियाप्रतिपत्ति और व्युपरतक्रियानिवृत्ति द्वारा आत्मा शैलेशीकरण अवस्था प्राप्त करता है। सर्व संवरशील आत्मा क्रिया रहित स्थिति में पहुंच कर ही पूर्ण निर्वाण को पाता है। आचार्य समन्तभद्र मल्लिनाथ प्रभु की स्तुति में कहते हैं :
यस्य घ शुक्ल परमतपोग्नि,-निमनंत दुरितमधाक्षीत् ।
त जिनसिई कृसकरणीय, मलिमशल्यं शरणमितोऽस्मि ॥ जिनके शुम ध्यान की परम तपाग्नि में अनंत पाप भस्म हो जाते हैं, उन कृतकृत्य निःशल्य जिनसिंह मशिनाथ प्रभु का मैं शरण ग्रहण करता हूं। प्रस्तुत स्तुति काव्य में भी शुक्र ध्यान को आत्मशुद्धि का हेतु बतलाया गया है।
कंचणस्स अहा धाऊ जोगेणं मुच्चए मलं।
अणाईए वि संताणे तवाओ कम्मसंकरं ॥ २६ ॥ अर्थः-धातु के संयोग से स्वर्ण का मैल दूर होता है । इसी प्रकार अनादि कर्म सन्तान भी तप से नष्ट हो जाते हैं।
जहा आत