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नवम अध्ययन
आत्मा का धुव धन धर्म है। यह धर्म संप्रदायों से ऊपर रहने वाला आत्म-खभाव रूप धर्म है। क्योंकि वस्तु का स्वभाव ही धर्म है।
कम्मायाणेऽवरुद्धंसि सम्म मग्माणुसारिण ।
पुब्बाउत्ते य णिजिणे खयं दुक्खं णियच्छती ॥ २२ ॥ अर्थ :-कर्म ग्रहण को रोक कर सम्यक मार्ग का अनुसरण करने वाला आत्म' पूर्वार्जित कर्मों की निर्जरा करके समस्त दुःखों का क्षय कर देता है। गुजराती भाशन्तर:
કર્મ-ગ્રહણને રોકીને સમ્યફ માગનું અનુસરણ કરવાવાળો આત્મા પૂર્વાર્જિત કર્મોની નિર્જરા કરીને સમસ્ત કોનો ક્ષય કરી નાખે છે.
२२ वी गाथा में दिए गए दृष्टांत का यह गाथा निगमन ( उपसंहार) करती है। व्याधि से मुक्त होने के लिए दोषों का अवरोध, वैद्यक शास्त्र के नियमों का पालन, और पूर्व बीमारी का निष्काशन आवश्यक है। उसी प्रकार यहाँ आत्मा कर्म-मुक्ति के लिए नवीन कर्मों के आगमन के हेतु रूप आश्रव का निरोध करना होगा। उसे सम्यक् रूप से या सम्यक्त्व समवेत चारित्र का मार्गानुसारी बनना पड़ेगा। ऐसा करने से आत्मा पूर्ववद्ध कर्मों को भी क्षय करता है और समस्त दुःखों से मुक्त होता है।
कर्मादान और मार्गानुसारी जैन पारिभाषिक शब्द हैं। श्रावक व्रत लेने के बाद शावक को जिन हिंसात्मक व्यापारों को बन्द करना पड़ता है, उन्हें कर्मादान कहा जाता है। मार्गानुसारित्व सम्यक्त्व प्राति के पूर्व के वे गुण जो आत्मा को सम्यक्त्वामिमुख बनाते हैं उन्हें मार्गानुसारी के गुण कहे जाते हैं। जिनकी संख्या ३५ हैं। किन्तु यहाँ दोनों शब्द अपेक्षित अर्थ से भिन्न रूप में प्रयुक्त हुए हैं। कर्मादान का मतलब कमी के ग्रहण से है । रग द्वेषाभिभूत आत्मा क्रमों को अपनी ओर आकृष्ट करता है वह कर्मादान है। मार्गानुसारी से मतलब बारित्र-मार्ग में वर्तमान आत्मा है। क्योंकि कर्म क्षय में विशिष्ट योगदान उसी का है। पूर्वोक्त मार्गानुसारित्व तो सम्यक्त्व के पूर्व की अवस्था है और यहाँ सम्यक्त्व समवेत मार्गानुसारित्व का निर्देश है। जिससे चारित्र ही विवक्षित है।
पुरिसो रहमारूढो जोग्गाए सत्तसंजुतो।
विपक्वं णिहणं णेइ सम्मविट्ठी तहा अणं ॥ २३ ॥ अर्थ:-विपक्षी को हनन करने योग्य शक्ति से संपन्न स्थारूड पुरुष शत्रु को समाप्त कर देता है, इसी प्रकार सम्यम् दृष्टि अनंतानुबंधी कषाय को समाप्त करता है। गुजराती भाषान्तर:
વિપક્ષીને હવાયોગ્ય શક્તિથી સંપન્ન પુરષ શત્રુનો નાશ કરે છે તેવી જ રીતે સમ્યક્ દષ્ટિ અનંતાનુબંધી કષાયને સમાપ્ત કરે છે,
शत्रु पर विजय पाने के लिए दो बातें अपेक्षित है। शक्ति और बचाव का साधन । आत्मा का शत्रु अनंतानुक्न्धी बनुष्क है, क्योंकि अनंतानुबन्धी और मिथ्यास्त्र सहभावी है। एक के सद्भाव में दूसरा आ ही जाता है। जो कषाय सारे जीवन तक आत्मा को जलाता रहता है और उस आग की लपटों में दूसरों को भी झुलसाता है, जीते जीते जो कषाय अन्तर की आग में जलता है और मरने के बाद नाक की आग में पटकता है, वह कषाय है अनंतानुबन्धी । आत्मा सम्यक् दर्शन की शक्ति पाकर मिथ्यात्व शत्रु का संहार करता है। अन् यह अनंतानुबन्धी कातः संक्षिप्त रूप है।
वह्निमारुय-संयोगा जहा हेमं विसुज्झती।
सम्मत्त-नाण-संजुत्ते तहा पावं विसुज्झती ॥ २४ ॥ अर्थ:-जैसे अमि और पवन के प्रमोग से स्वर्ण विशुद्ध हो जाता है, वैसे हि गम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान से युक्त आत्मा पाप से विशुद्ध होता है।