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केतली णाम अट्ठमज्झयणं केतली पुत्र अर्हतर्षि भाषित अष्टम अध्ययन
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मार दुगुणेणं पारं एक गुणेणं ।
(ते) केतलीपुत्तेण इसिणा बुइतं ॥ १ ॥ अर्थ :-इस लोक में जीव दो गुणों से युक्त रहता है । दो गुणों से मतलब ज्ञान और चारित्र हो सकते हैं। परलोक में आत्मा के साथ केवल एक गुण ज्ञान ही रहता है। बारित्र साथ नहीं जाला । भर तीसूत्र में पूछा गया है, कि ज्ञान आत्मा के साथ इस भर में रहता है या पर भव में? इसका समाधान करते हुए प्रभु बोले-गौतम ! ज्ञान इस जन्म में भी होता है और अगले जन्म में भी राध रह सकता है। चारित्र के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है, वह केवल इसी जन्म में रहता है। गुजराती भाषान्तर
આ લોકમાં જીવ એ ગુણોથી યુક્ત હોય છે એ ગુણ એટલે જ્ઞાન અને ચારિત્ર થઈ શકે છે. પરલોકમાં -- તેની સાથે છે જ્ઞ જ છે કે, રિસાદુ નથી. ભાગવતી સૂત્રમાં પૂછયું છે કે આમાની સાથે જ્ઞાન આ ભવમાં રહે છે કે પરભવમાં તેનું સમાધાન કરતા પ્રભુ ક્યા-ગૌતમ ! જ્ઞાન આ જન્મમાં પણ હોય છે અને આવતા જન્મમાં પણ સાથે રહી શકે છે, ચારિત્ર્યના સંબંધમાં આવું નથી, તે માત્ર આ જ ભવમાં જન્મમાં રહે છે.
टीकाकार इस सम्बन्ध में भिन्नमत रखते हैं:-भारं ति इहलो के द्विगुणन द्विगुणपाशेनेव दतर मध्यते जीन इति शेषः । पारं ति परलोकं एकगुणेन सम्यक्त्वेन ।
आरं अर्थात् इसलोक में द्विगुणित पाश से आत्मा बनना है । पान अर्थात् परलोक में एक गुण से अर्थात् से बंधता है। यह अर्थ अस्पष्ट है। द्विगुण से क्या लिया जाय राग या द्वेष ? हों; राग द्वेप से आत्मा बंधता है किन्तु इसके साथ यह भी प्रश्न आता है क्या राग द्वेष इसी भव में बंधन कारक है, अगले जीवन में नहीं ? दूसरा प्रश्न परलोक में एक गुण बंधन कारक है वह एक गुण है. सम्यकच तो क्या सम्यक्स्य मी मन्धन कारक है। सम्यग्दर्शन आत्मा का शुद्ध रूप है, फिर वह बन्धन कारक कैसे हो सकता है ? अतः प्रथम माथा का प्रस्तुत गर्थ उचित नहीं जान पड़ता।
द्विगुण से मतलब ज्ञान और चारित्र का प्रण उपयुक्त है। एक गुण से अभिप्राय ज्ञान से हो सकता है। यह बंध का नहीं, बंधच्छेद का अभिप्राय है। जो कि अगली माथा से स्पष्ट होता है
इह उत्तमगंथचेयए रहसमिया लुप्पंति ।
गच्छती सयं वा छिद पाचप ॥२॥ अर्थ :-इस श्रेष्ट अंथ का ज्ञाता रथ की शम्या ( रखके चक्र से बनी रेखा) की भांति पाप कर्म को नष्ट करना है। गुजराती भाषान्तर:
આ શ્રેષ્ઠ ગ્રંથનો જાણકાર રથની શમ્યા (૨થના ચક્રથી બનેલી રેખા) માફક પાપ કર્મોને નાશ કરે છે,
'गंथ' का पाठान्तर गंध है, उसका अर्थ यदि सौरभ लिया जाय नो जीवन की खुशबू होगा। जीवन की सुगन्ध सर्व श्रेष्ठ सुगन्ध है। धम्मपद वर्ग में भी कहा गया है:
चंदण सगरं वापि उप्पलं अथ वस्सकी। एत संगंधजातानं सीलगंधो अणुतरो !-धम्मपद पुष्पवर्ग ॥
१- भविष्ट भन्ते । णाणे पर भविप. नाणे तदुभविए जाणे? गोयमा इद भविए वि नागे, पर भविर वि नाणे, तदुभविष वि माणे । इह भविए भन्ने चरित्ते पर भविए. चरित्ते तदुभयभविष्ट करते ? गोयमा ! इष्ट भविष्ट चरित्ते, नो पर भविष चरित्त नो तदु भय भविम वारेते। -सहाय परिणाम स्वंतु-नवतत्त्वभाष्य, आत्म विनिश्चयते बोधः दर्शने तरख विनिश्चयते। स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत प्तेभ्यः भवति बन्धः। ३-गंध,