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इसि-भासियाई आलस्संतु परिणाय जाती-मरण-बंधणं ।
उत्तिमवरग्गाही बीरियातो परिव्यय ॥५॥ अर्थ:-प्रमाद जन्म-मृत्यु के बंधन रूप में परिज्ञात है । श्रेष्ठ ग्राही आत्मा श्रेष्ठ अर्थ के लिये शक्ति के साथ विचरण करे। गुजराती भाषान्तर:
પ્રમાદ તે ભૂલ ) જન્મ, મૃત્યુના બને ૨૫માં પરેશાત છે. શ્રેષ્ઠ ગ્રાહી માએ શ્રેષ્ઠ અર્થ માટે શનિની સાથે ચાલવું જોઈએ.
प्रमाद खयं एक मौत है। अतः मापक उससे सावधान रहे। अच्छाई का ग्राहक व्यक्ति के साथ घूमें । विहार करे। श्रम संस्कति पुरुषार्थ में विश्वास करती है। उसके आराध्य देव स्वयं श्रमण भगवाम थे। उन्होंने गौतम जैसे साधक को अप्रमत्त रहने के लिये उद्बोधन दिया है। अतः आलस्य से पाप में न जावे यह ठीक है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि आलस्य अच्छा है। इसीलिये प्रस्तुत गाथा में साधक को अपमत रहकर विचरण करने की प्रेरणा दी गई है।
काम अकाम कारी अत्तत्ताप परिव्यए ।
सावज मिरवज्जेणं परिणाए परिब्धएजासि ॥६॥ अर्थ:-साधक काम को अकाम बनाकर अर्थात् कामपर विजय पाकर विचरण करे। सावध को निरवच से परिज्ञात कर विचरे। गुजराती भाषान्तर:
સાધકે કામને અકામ બનાવીને (એટલે કે ) કામ પર વિજય મેળવીને ચાલવું જોઈએ. સાવઘને નિરવદ્યથી પરિજ્ઞાત કરીને ચાલવું જોઈ એ.
परिज्ञा के दो प्रकार बताये गये हैं। ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा । साधक ज्ञपरिज्ञा से सात्रय मैं को जाने और प्रत्याख्यान से उसका परित्याग करे 1 आचारोग सूत्र में यह पाठ बहुत स्थानों पर आया है।
पिछली माथा में बताया गया है कि साधक पुरुषार्थ-वादी बने । पुस्त्रार्थ चार हैं-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष । श्रमण . संस्कृति में अर्थ, काम हेय है और धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ उपादेय है। उसी की ओर इंगित करते हुए बताया है साधक काम को अकाम अर्यात उसे विफल करे ।
वासना का त्यागी मुनि केवल आत्म-शुद्धि के लिये ही साधना करे । स्वर्ग के फूल और नरक के शूल उसके मन में आकर्षण और भय पैदा न कर सके। तत्त्वज्ञ की साधना स्वर्ग के वैभव के लिये न वह नरक की आग से बचने के लिये भी साधना करेगा। वह इसलिये तप नहीं करता कि यहां एक दिन भूखा रहने से अगले जन्म में इसके बदले में हजार गुना खाद्य सामग्री मिलेगी। दशवकालिककार बोलते हैं (अ. ९ उद्देश ४-)
नो इहलोगट्टयाए तय महिद्विजा। नो परलोगट्टयाए तव महिडिजा। नो कित्ति-यण्णासद्दसिलोगट्टयाए तब महिछिज्जा ।
नमत्थ निजरयाप तब महिडिजा।' साधक इम लोक के भौतिक टुकड़ों को लक्ष्य में रखकर भी तप न करे। म अगले जन्म के लिये ही वह शरीर को सुखाचे । प्रशंसा के फूल उस के मन को न टुभाव। किन्तु केवल आत्मा को कर्मबन्धन से विमुक्त करने के लिये ही वह साधक तप का आराधन करे।
टीका-काम भकामकारी परिवजेत् । अत्तत्तेत्ति प्रास्मस्वार्थ भात्महितार्थ सर्व सावध परि ज्ञाय प्रत्याख्याय निरवधन चरितेन परिप्रजेत् ।
काम को निष्काम बनाकर साधक विचरे। साधक आत्महित के हित को प्रमुखता देकर सावध प्रवृत्ति परिज्ञात कर उसका परित्याग कर निरवद्य चारित्र को लेकर विचरे।
पवं से बुद्धे० ॥ गतार्थ । सत्तम कुम्मापुत्तणामज्झयणं
सप्तम कु नामक अध्ययन समाप्त ॥ १-समयं गोयममा पमायए-उत्तरा० अ० १०. .