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सप्तम अध्ययन
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इच्छा जन्य दुःख पर साधक विजय पाए, किन्तु उसके बाद भी शारीरिक वेदना कभी सता सकती है। दुःख आना यह एक बात है, किन्तु उसके साथ दीन मनोवृत्ति का आना दूसरी बात है। दुःख शरीर के तेज को समाप्त करता है, तो हीन मनोवृत्ति आत्मा की चमक को समाप्त करती है। इसलिये गरीबी बुरी नहीं है, दीनता कुरी है। गरीबी में सुखी रोटी चटनी के साथ खाकर भी आदमी के चेहरे पर मुस्कान बनी रह सकती है, किन्तु दीनता में दूसरों की गुलामी है । दीनता में भी विनम्रता है, किन्तु स्वार्थ भावना से दूषित है। इसीलिये दुःख आने पर भी साधक दीनता न आने दे । उत्तराध्ययन में परिसह अध्ययन में क्षुधा पीडित होने पर भी साधक भोजन की याचना करे, किन्तु याचना भी दीन वृत्ति से दूर रहे "श्रवीणमणसो चरे" उत्त. अ. २..
जणवादोण तारजा अस्थित्तं तवसंजमे।
समाहिं च विराहेति जेरिटुचरिय चरे ॥३॥ अर्थ:-तप-संयम के अस्तित्व में जनवाद आत्मकल्याण नहीं कर सकता । जो देशाचार में पड़ता है बद्द समाधि को भी खो बैठता है। गुजराती भाषान्तर:
તપ-સંયમના અસ્તિત્વમાં જનવાદ આત્મ-કલ્યાણ કરી શકતો નથી, જે દેશાવામાં પડે છે તે સમાધિને પણ ખોઈ બેસે છે. -
विश्लेषणा से उपरत होने के बाद भी मानव लोकैषणा की ओर हाथ बढ़ाता है। यश की भूख मी मानव के मन में सुरक्षित स्थान रखती है। आगे आने के लिये हर संभव प्रयत्न करता है, सेवा भी करता है, किन्तु सेवा का तोल वह यश से करता है। उसका लक्ष्य सेवा न रह कर यश-लिप्सा होगा। यश का मोह इसे राष्ट्रीय क्षेत्र में मी पटकता है, वहाँ भी ख्याति के प्रवाह में औचित्य का विचार भी न करेगा और आत्मसमाधि को भी खो मैठेगा ।
टीकाकार कुछ भिन्न मत रखते हैं:
पाक्षिप्त निन्दितं पुरुष जनवादोन त्याजयेत् । तपःसंयमी समाधि च विराधयति स हिनस्ति योरिष्टाचारियं अपूर्णतपथरियं घरति।
आक्षिप्त अर्थात् निन्दित पुरुष को जनवाद त्यागता नहीं है। अर्थात् जो साधक संयम पथ से गिर जाता है । जन साधारण उसकी तीय निन्दा और भर्त्सना करता है। परिणाम यह आता है साधक गिर कर संभलने के बजाय तप संयम और समाधि भाव सब कुछ खो देता है। साथ ही जो अपूर्ण तप करता है वह कभी हिंसा के लिये भी तत्पर हो जाता है।
आलस्सेणावि जे के उस्सुअत्तं ण गच्छति।
क्षणाषि से सुही होइ किं तु सिद्धि परकमे ॥४॥ अर्थ :--आलस्यवश भी कोई मानव उस्तुकता-इच्छा के पंथ में नहीं जाता है। उससे भी वह सुखी हो सकता है यदि श्रद्धावान् सही पुरुषार्थ करे तो फिर क्या ? अवश्य सफलता पा सकता है ।
सिद्धि का पाठान्तर सद्धी भी है उसका अर्थ श्रद्धी या सधीर श्रद्धाशील या धैर्ययुक्त पुरुष पराक्रम करे, आलस्य न करे। गुजराती भाषान्तर:
આળસુ મનુષ્ય પણ ઉત્સુક્તા-ઇચ્છાના પંથે જાતે નથી, તેનાથી પણ તે સુખી થઈ શકે છે, જે શ્રદ્ધાવાન હોય અને પુયાર્થ કરે તો પછી શું? જરૂર વિજય મેળવી શકે છે. સિદ્ધિનું પાઠાન્તર સહી પણ છે, તેનો અર્થ શ્રદ્ધી અથવા સધીર, શ્રદ્ધાશીલ અથવા ઘેર્યયુક્ત પુરૂષ પરાક્રમ કરે, પણ આળસ ન કરે.
प्रमाद की गणना पांच पापों में है, किन्तु वह प्रमाद यदि आत्मा को अशुभ से रोकता हैं तो दृश्य प्रमाद इतना अनिष्ट कारक नहीं होता. क्यों कि यदि आलस्य को लेकर भी मानव पाप की ओर प्रवृत्त नहीं होता है तो भी वह नारक से तो बन जाता है। किन्तु आत्मा यदि विचार पूर्वक अपने पुरुषार्थ को आत्मसिद्धि की ओर मोड़ देता है तो अपने लक्ष्य को पा लेता है।
टीका:—यः कश्चिदालन कारणतोत्सुकत्वं न गच्छति तेनापि स सुखी भवति इ. भ, किन्नु परन्तु श्रदी सधीर धीमान् वा पराक्रामेवालस्यं न गच्छेत् ।
आलस्य से भी जो कोई पापक्रिया में उत्सुकता नहीं रखता है वह भी सुखी होता है । फिर भी श्रद्धावान् धैर्यशील साधक पुरुषार्थ वादी बने। आलस्य का परित्याग कर शुभ में प्रवृत्ति के लिये उठ खवा हो ।