________________
इसि - भासियाई
ठीका :- हे पुरुष ! जीवरथस्थ शम्याय हवानिभ इव हिन्दि पापकर्म । श्वशम्या लुप्यमाना गच्छति नश्यति ।
साधक आत्मा रूप रथ के चरण चिन्हवत् पाप कर्म को नष्ट करो। रथं चलता है और पीछे रेखा छोड़ता जाता है । इसी प्रकार आत्मा जो किया करता है उसके अनुरूप शुभाशुभ ग्रन्ध करता है पाप कर्म को नष्ट करो ।
सयं वदिकम्मसंचर्य
कोसार कीडेव जहा बंधणं ॥ ३ ॥
अर्थ :---जैसे रेशम का कीड़ा बंधन को छोड़कर मुरू होता है, इउसी प्रकार आत्म स्वयं ही कर्म दलिकों को त्यागकर मुक्त होता है।
गुजराती भाषान्तर :
જે પ્રમાણે રેશમનો પ્રીડે અંધન તોડીને મુક્ત થાય છે, તેજ પ્રમાણે આત્મા સ્વયં કર્મના બંધનોનો ત્યાગ કરીને મુક્ત થાય છે.
ग्रंथ छेद महामुनि कोशार ( रेशम के ) की की भांति बंधन को छोड़कर स्वयं मुक्त होता है।
कोशार नामक रेशमी कीड़ा होता है। सहतूत खाता है, लोग उसे पालते हैं। कुछ दिनों के बाद वह अपने मुँह से एक तति सी छोड़ता है। उसे अपने शरीर पर लपेटता जाता है । वह तार सैंकड़ों गज लम्बा होता है । उसके द्वारा खयं बंध जाता है । बाद में उसे गर्म पानी में छोड़ा जाता है, उष्णता से सारे तार वह तोड देता है। आत्मा कोशार ( रेशमी किडे ) के सदृश स्वयं अपनी विभावपरिणति के द्वारा कर्म दलिकों का संचय करता है, किन्तु सम्यग्दर्शन पाकर तप की ज्योति लगते ही स्वयं ही कर्मबन्धनों के रेशमी धागे को तोड़कर मुक्त होता है ।
जैन दर्शन इस चीज में विश्वास नहीं रखता है कि हमारी आत्मा को कर्म से विमुक्त करने के लिये कोई अदृश्य शक्ति आएगी। अनन्त काल तक परमात्मा के नाम पर छूटने टेक कर गिड़गिड़ाते रहो। दुनियाँ की कोई दूसरी शक्ति बंधन को तोड़ नहीं सकती। आत्मा की सोई हुई अनन्त अनन्त शक्ति जय जागृत होती है तब वह स्वयं ही कर्म जंजीरों को तोड़कर मुक्त होता है।
टीकाकार इस संबंध में भिन्न मत रखते हैं : उत्तमग्रंथच्छेदको विशिष्टो मुनिर् लोकवन्धनं जहाति कोशाद् रथनिदाद बरकोल इव मत्र प्रथमतृतीयपादयोर्विनिमयो द्वितीयाध्ययनवत् कार्यः ।
राग द्वेष की ग्रंथि का छेदन करने वाला विशिष्ट उत्तम मुनि लोकग्रन्धन का त्याग करता है। जैसे रथ की धुरी में से कील निकल जाने पर रथ भन्न हो जाता है । उसी प्रकार साधक संसार रूप रथ की कील राग द्वेष को नष्ट कर देता है, इस प्रकार वह भवका अंत कर देता है। द्वितीय अध्ययन की भांति यहां भी प्रथम और तृतीय पाद मिल गये हैं ।
प्रोफेसर शुक्रिंग भी लिखते हैं-वाहन के खीले की भांति तुम्हारे दोष संसार के संबंध को बनाये रखते हैं और खीले के निकलते ही रथ की गति बंद हो जाती है। इसी प्रकार पाप हटते ही सांसारिक जीवन समाप्त हो जाता है ।
तम्हा एवं वियायि गंथजालं दुक्खं दुहावहं छिंदिय ठाइ संजमे । से हु मुणी दुक्खा विमुग्रह भुवं सिवं गई उबेइ ॥ ४ ॥ ( प्रत्यन्तरे )
अर्थ :- इस प्रकार अभ्यन्तर ग्रंथि जाल को दुःख का हेतु और दुःखरूप जानकर साधक उसका छेदन करता है। और संयम में स्थित होता है, वही मुनि दुःख से विमुक्त होता है। आयु-समाप्ति के बाद शाश्वत शिवरूप सिद्ध स्थिति को प्राप्त करता है।
गुजराती भाषान्तरः
આ પ્રમાણે અભ્યન્તર ગ્રંથિાળને દુઃખનું કારણુ અને દુઃખરૂપ જાણીને સાધક તેનું છેદન કરે છે અને સંયમમાં સ્થિરતા મેળવે છે, તેજ સુનિ દુઃખથી વિમુક્ત ( પર ) હોય છે. આયુષ્ય પૂર્ણ થયા પછી શાશ્વત શિવરૂપ સિદ્ધસ્થિતિને પામે છે,