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________________ पंचदश अध्ययन इंधन प्राप्त अग्नि शीघ्र शान्त नहीं हो सकती । विष जब शरीर के हर एक अवयवों में प्रवेश कर जाता है तब उसको दूर करने की शक्ति न तो वैद्य की पुड़ियाओं में होती है, न डाक्टरों के इंजेक्शनों में । इसी प्रकार कर्म जब मिथ्यात्व मोह के साथ बंधता है तब वह दीर्य स्थिति और अशुभ विपाक को लेकर आता है। शीघ्र ही उरसे मुक्ति पा जाना संभव नहीं। इसीलिए मिटयारव को समस्त पापों में प्रथम स्थान प्राप्त है। हिंसा का पाप निकृष्टतम है, किन्तु फिर भी हिंसा से हिंसा का विश्वास अधिक बुरा होता है । हिंसा का विश्वास मिथ्यात्व है। धूमहीणो य जो वण्ही, छिण्णादाणं च ज अणं । मंताहतं विसं जं ति, धुयं तं खयसिच्छती ॥ २६ ॥ छिण्णादाणं धुर्ष कम्म, झिजते तं तहाहतं । आदित्त-रस्सित्तत्तं व, छिण्णादाणं जहा जलं ।। २७ ।। अर्थ:-धूमहीन अग्नि, आदान अर्धात लेना बन्द कर दिया गया है ऐसा ऋण और मंत्राहत विष जिस प्रकार निश्चित ही समाप्त होजाता है उसी प्रकार जम कर्म का आदान अर्थात् ग्रहण चा आश्रव जब समाप्त हो जाता है तब कर्म भी निर्जरित हो जाता है । जैसे सूर्य की प्रखर किरणों से पानी तप्त होता है, किन्तु जब किरणों का साहचर्य छूटता है तब वह प्रकृ तिस्थ हो कर स्वाभाविक शीतलना प्रान कर लेता है, इसी प्रकार कर्म के संयोग से आत्मा विभाष दशा में आकुल होकर परिभ्रमण करता है। किन्तु कर्म का साहचर्य छूटते ही वह स्वभाव में स्थित हो कर सहज रूप को प्राप्त कर लेता है। गुजराती भाषान्तर :-- ધુમાડાવગરને અગ્નિ, આદાન સ્થત લેવું બંધ કરી દેવામાં આવ્યું છે તેવું ષ્ણુ, અને મંત્રથી નાશ પામેલું ઝેર જેવી રીતે નિશ્ચિત ( અવશ્ય) જે નાશ થઈ જાય છે તે જ પ્રમાણે ક્યારે કર્મનું આદાન અર્થાત્ ગ્રહણ અથવા આશ્રવ જ્યારે સમાપ્ત થઈ જાય છે ત્યારે કર્મ પણ નિર્જરિત થઈ જાયે છે. જેવી રીતે સૂર્યના પ્રખર કિરણોથી પાણી તપી ઊઠે છે પરંતુ જ્યારે કિરણોને સંબંધ છૂટી જાય છે ત્યારે તે હમેશ મુજબનું થઈ સ્વાભાવિક શીતળતા પ્રાપ્ત કરી લે છે, તે જ પ્રમાણે કર્મને સંયોગથી આત્મા વિભાવદશામાં આકુળ થઈને પરિભ્રમણ કરે છે, પરંતુ કર્મનું સાંનિધ્ય (સંબંધ) છૂટતાં જ તે હંમેશ મુજબ (અસલ ૫) નું થઈને સહજ રૂપને પ્રાપ્ત કરી લે છે. जिस आग में से धुआ समाप्त हो जाता है वह आग शीघ्र ही समाप्त हो जाती है। ऋणी यदि ऋण लेना बन्द कर दे फिर यदि वह अल्प मात्रा में भी ऋण चुकाता रहे तो वह ऋण-मुक्त हो जाएगा । इसी प्रकार आत्मा जब कर्म का प्रहाण करना बन्द कर देता है तो वह एक दिन अवश्य ही कर्म-मुक्त हो जाता है । किन्तु उसके लिए आत्मा के साथ कर्म का साइचर्य समान होना चाहिए । पानी जब तक चूल्हे पर रहेगा तब तक बह गर्म होता ही रहेगा। अधवा जब तक सूर्य-किरणों का पानी के साथ संयोग है तब तक पानी की उष्णता दूर नहीं हो सकती है। पानी में शीतलता लाने के लिए उष्णता के बाहरी संयोगों को दूर करना ही होगा । इसी प्रकार आत्मा को खभावस्थ बनाने के लिए विभाव दशा से मोडना होगा। तम्हा उ सव्वदुक्खाणं, कुजा मूलविणासणं । वालग्गाहि व सप्पस्स, विसदोसविणासणं ॥२८॥ अर्थ :-अतः साधक संगी दुःखों के वैसे ही जड मूल को समाप्त करे । जैसे कि सपेरा सौंप के विष-दोष को दूर गुजराती भाषान्तर : તેથી સાધક બધા દુઓની મૂળનો તેવી જ રીતે નાશ કરે, જેવી રીતે સાપનો મદારી સાપના ઝેરની કેથળી) भाजपनदी नछि. . साधक आत्म-शान्ति के लिए अशान्ति के मूल को ही समाप्त करे। साधना के क्षेत्र में शरीर को मारने का महत्त्व नहीं है, मारना ही है तो उन वृत्तियों को मारे, जिनके द्वारा आत्मा अशुभ की ओर जाता है और पाप कर्मों में लिप्त होता है। वही अशान्ति की जट है । सपेरा सौष को नही उसके जहर को निकाल देता है। फिर सर्प एक भयंकर जन्तु नहीं, बल्कि कौडा का एक सुकोमल प्रसाधन हो जाता है। सर्प बुरा नहीं है, बुरा है उसका जहर । सर्प को मारमा मी गलत होगा। इसी १२
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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