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________________ १८४ इसि - भासियाई उसे सोना नहीं बन सकती। मिश्री की डली गंगा के तट पर खाएं तब भी मीठी है और सूने जंगल में खाएं तब भी मीठी ही रहेगी। स्थान बदल देने से उसका मिठास नहीं बदला जाएगा। शुभ कर्म सर्वत्र शुभ रहेंगे देश काल की सीमाएं उन्हे शुभ से अशुभ में या अशुभ से शुभ में बदलने में समर्थ नहीं है । कुछ लोगों का विश्वास है अमुक स्थान पर चले जाने पर पाप पुण्य में बदल जाएगा और अमुक स्थान पर पुण्य भी पाप हो जाएगा। किन्तु यह अर्ध सल है। मानो कि व्यक्ति के मन को स्थान भी प्रभावित करता | जब तक स्थित प्रज्ञ दशा नहीं आई तब तक समय और स्थान उसके मन पर असर डालते रहते हैं किन्तु तथ्य यह है समय और स्थान में पवित्रता हम स्वयं पूरते हैं। हमारी मनोभावना ही उस दिन को पवित्रता का बाना पहनाती हैं अन्यथा यदि दिन ही पवित्र होता तो उसकी पवित्रता सबके दिल में पवित्रता का संचार करती, किन्तु ऐसा होता नहीं है जो दिन एक संप्रदाय वालों की दृष्टि में पवित्र है दूसरी संप्रदाय वालों की दृष्टि में वह दिन दूसरे दिनों की अपेक्षा कोई विशेष महत्व नहीं रखता । हां तो स्थान और समय की पवित्रता हमारी कल्पना पर आधारित है। वह पवित्रता हमारे मन को प्रेरणा भले दे दे किन्तु किसी कार्य को पवित्र या अपवित्र नहीं बना सकती। यदि एक मलेरिया का बीमार स्वर्ण महल में पहुंच जाए तब भी उसे शान्ति सो नहीं मिल सकती। शान्ति तभी मिलेगी जबकि वह रोग मुक्त होगा । टीका :- मकानि मकानीति मन्यन्ते जनाः, मधुरं मधुरं फरुसं फरूसमिति मनुते, कटुकं कटुकमिति भणितत् ॥ गतार्थः । फलाणं ति भगतस्स कलाणा एडिस्सुया । पावकं ति भणतस्स पावया एपडिस्सुया ॥ ७ ॥ अर्थ :- कल्याण इस प्रकार बोलनेवाला पुनः कल्याण सुनता । "पाप" इस प्रकार बोलनेवाला पाप की ही प्रतिध्वनि पाता है । गुजराती भाषान्तर : જે માસ મીઠું બોલે છે તેને જ મીઠા શબ્દો સાંભળવા મળે છે. બુડી વાતો કરનારને પરિણામે ભુંડી વાતો જ સાંભળવી પડે છે. विश्वव्यवस्था व्यति प्रतिध्वनि के सिद्धान्त पर आधारित है। किसी गिरि कंदरा के निकट जाकर हम सुन्दर शब्द कहेंगे तो उसकी प्रतिध्वनि सुन्दर ही आएगी और गंदे शब्द कहे तो प्रतिध्वनि भी गंदे शब्दों को लौटाएगी। जीवन में गी प्रतिध्वनि का सिद्धान्त है । यदि हम किसी के प्रति सत्संकल्प रखते हैं तो अगले व्यक्ति के हृदय में सत्संकल्प उठेंगे। टीका :- कल्याणामिति भणतः कल्याणैतस्प्रतिश्रुत्तपापकमिति पापकाः । गतार्थः । पहिस्सुयासरिसं कम्मं णचा भिक्खू सुभासुर्भ । तं कम्मं न सेवेजा जेणं भवति णारए ॥ ८ ॥ अर्थ :- कर्म को साधक प्रतिश्रुति (प्रतिध्वनि) के सदृश जाने, तथा उन कर्मों का सेवन न करे जिनके द्वारा आत्मा नरक रूप प्राप्त करता है। गुजराती भाषान्तर : સાધકે કર્મને પ્રાંતશ્રુતિ એટલે પ્રતિધ્વનિ જેવા જ સમજવા જોઇએ, અને તેવા કર્મોનું આચરણ કે સેવન પણ કરવું ન જોઇએ જેથી આત્માને નરકની પ્રાપ્તિ થાય. साधक प्रतिध्वनि के सिद्धान्त को जीवन में स्थान दे और उन कमों का परित्याग करे जिनके द्वारा आत्मा को नरक में जाना पड़ता है। ! प्रतिध्वनि को सुन्दर बनाने के लिये पहले ध्वनि को सुन्दर बनाना होगा। नारक पर्याय अशुभ कर्मों की प्रतिध्वनि है। यदि नरक से बचना है तो उसके हेतुभूत कर्मों से बचना होगा । कार्य को समाप्त करने के लिये कारण को मिटाना होगा 1
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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