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________________ २६८ हसि-भासियाई केवल वर्तमान मुख को देखने वाले को विष्टम्बना के दो चित्र ग्रहो दिये गये हैं। श्री पाने की आशा से त्री के घले में कूदनेवाली मक्षिका के भाग्य में केवल मौत का वारंट है। यही कहानी उस मानत्र की है जो मधु बिन्दु की आशा से वृक्ष की अधकटी शाखा पर बैठा है; वह मधु चिन्न देखता है, किन्तु नीचे अंध कूप में पान को नहीं देखता। यदि कहा जाए कि मक्खी में बुद्धि कहां है तो बुद्ध का निधि कहे जानेवाला मानब भी अदि मधुमिन्दु को ही देखता है तो कहना होमा स्थूल रूप में भले उसने विकास किया है, किन्तु अन्तर दुनियां में वह मक्षिका से एक इंच भी आगे नहीं बढ़ा है। टीका:-आहारमात्रसंबद्धाः कार्याकार्येभ्यो निमीलिसचक्षुषः पक्षिणां विहगाः घटकुंभ धात्रशाः पाशेन संक्षयं प्रामुन्ति । मधु प्राप्नोति दुर्बुद्धिः कथाप्रसिद्धः, प्रपातं नु स न पश्यतीति । इलोकाध पूर्ववत् । टीकाकार कुछ भिन्न मन रखते हैं:- दुर्बुद्धि व्यक्ति मधु को प्राप्त करता है। किन्तु प्रपात को नहीं देखना । यह कथा प्रसिद्ध है। दलोकार्ध पूर्ववत्र है। आमीसत्थी झसो चेव मग्गते अप्पणा गलं । आमीसत्धी चरितं तु जीवे हिंसति दुग्मती ॥ ७ ॥ अर्थ-मसार्थी मत्स्य अपना आहार खोजता है। आमिषार्थी के चरित्रवत दुर्मति व्यक्ति प्राणियों की हिंसा करता है। गुजराती भाषांतर : भांस मा4n alg५ मे मा . २ ( 2105) सोले भा-२१ भाएसना ચરિત્રમુજબ ભૂખ પ્રાણુ બીજા પ્રાણીઓની હિંસા કરે છે. मांभार्थी मत्स्य केवल गौस के टुकड़े को देखना है, किन्तु उसके पीछे लगे कांटे को नहीं देखता। इसी प्रकार हिंसाप्रिय मानब मत्स्य की कहानी को चरितार्थ करता हुआ प्राणिव की ओर प्रेरित होता है, वह आरंभ के मिठास को देखता है पर उसके विपाक को नहीं देखता । टीकाः -मांसार्थी झष भात्मना स्त्रैरै गलं दिशं मार्गति, धुर्मतिस्त्वामिषार्थी जीवः पुरुषो वा जीविते सम्यक चरित्र हिनस्ति । टीकार्थ:-मांसाों मत्स्य स्वयं ही अपना शिकार खोजता है। ऐसे दुर्बुद्धि मराथों प्राणी जीवन के लिये सम्यक चरित्र की हिंसा करते हैं। अणग्धेयं मणि मोनुं सुत्तमत्ताभिनंदती । सवण्णुसासणं मोतुं मोहादीपहिं हिंसती |॥ ८॥ अर्थ-अल्पबुद्धि व्यक्ति अमूल्य मणि को फेंककर केवल सूत से क्रीडा करता है। वैसे ही अज्ञानी आत्मा सर्वज्ञ के शासन छोड़ कर मोहशील पुरुषों के साथ हिमा करना है। गुजराती भाषांतर: જેમ અપબુદ્ધિવાળો માણસ કીમતી રત્તને ફેંકી દઈ સૂતરના ધાગા સાથે રમે છે, તેમજ અજ્ઞાની વ સર્વસનું શાસન છોડી દઈ વિષયના મોહમાં ડુબી ગએલ માણસો સાથે હિંસા (પાપનું આચરણ કરે છે, यदि वानर को हार दिया जाए जिसमें कि अमूथ मणियां गूंथी हुई हैं, पर वह मुख बन्दर मणि को फेंक देता है और सूत से खेलता है। यही कहानी मोहशील व्यक्तियों की है जो मणिवत् अमूल्य सर्वज्ञ के शासन को छोड़कर मोह मोहित भ्यक्तियों के साथ केडा करते हैं। वह आत्म-साधना को भूल कर संसार साधना में लग जाता है । उमकी क्रिया टस बालक जैसी है-जो मिठाई के प्रलोभन में अपना बहुमूल्य आभूषण दे देता है। भोगों की तुन्छ लिम्मा में आत्मा के निन स्वभाव का याम करनेवाला उससे अधिक बुद्धिमान नहीं है। टीका:--अनय मणिं मुक्स्चा सत्रेण गुणेन केघलेनाभिनन्दति दुर्मतिः, स सर्यज्ञशासन मुक्त्वा मोहादिकः कषाय: खचरित्र हिनस्ति । गतार्थः । सोअमत्तेण विसं गेज्झं जाणं तत्थेव जुंजती । आजीवत्थं तवी मोत्तुं तप्पले विविहं बटुं॥९॥ अर्थ-श्रोत्र मात्र से ही विष ग्राम्य है। यह जानकर भी अज्ञानी वहीं अपने आपको जोकना है। आजीवन के लिये तप को छोड़कर विविध तप करता है।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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