________________
.
एकचालीसवाँ अध्ययन
२६९ गुजराती भाषांतर:
જહુર (જો માણસને જીવ લે છે તે નો પરિચય અમે કાનથી સાંભળીએ છીએ; પણ જે અજ્ઞાની માણસ એમ સમજીને પણ તેને (પ્રાશન કરી) લઈ લે છે, તે માણસ શાન નહી કહેવા. નિંતી છેદી માટે અને ત્યાગ કરી અને બીજા અનેક પ્રકારનું તપ કરવા શરૂ કરે છે.
विष का नाम ठीक है, किन्तु उसका पान बुरा है। यह सुनकर भी जो विष का सेवन करता है तो समझना है उसने जानकारी प्राप्त की है किन्तु बह शानी है ऐसा नहीं कहा जा सकता। ज्ञान और जानकारी मैं बहुत बड़ा अन्तर होता है। ज्ञान भीतरी होता है, जानकारी ऊपरी भाव। ज्ञान होने के बाद आत्मा बुरी वृत्तियों से अलग हट जाता है। जबकि जानकारी के लिये ऐसा नियम नहीं है। आगमवाणी है ज्ञान का फल विरक्ति है । जिराने केवल कानों से ही नहीं
से भी भुना है वह अपने आपको साधना में जोड़ देता है, फिर उसका तप आजीविका के लिये नहीं आत्मशुद्धि के लिये होता है। यह विविध प्रकार की तपःसाधना के द्वारा आत्मा को शुद्ध करता है। अभि सोने को शुद्ध करती है, ऐसे ही तप आत्मा को शुद्ध करता है।
टीका:-प्रोत्रमात्रेण न सु मुखेन ग्राह्यं विषं जातन्त्र पत्र तत्रैव प्रोग्रेणैव युनक्ति गृहाति, भाजीवार्थः तपो मुषत्वा सत्यश्य विविध बहुप्रकारेण तप्यति । तप आश्रिस्य जीवस्तप माजीवेन जीवति । गताः ।
तवणिस्साए जीवंतो तवाजी न जीवती।
पाणमेवोवजीवंतो परिसं करणं तहा ॥ १० ।। अर्थ-तप का आश्रय करके जीनेवाला तपोजीवन को जीता है। कोई शान से जीवन पाते हैं। कुछ वरण करण रूप चारित्र क्रिया को उपजीवन बनाते हैं। गुजराती भाषांतर :ન તપનો આશ્રય કરી જીવનાર માણસ તપોવનને જીતે છે. કેટલાક લોકો જ્ઞાનથી જ જીવન પામે છે. કેટલાક તો ચરણકરપી ચારિત્રક્રિયા ઉપરજ ગુજરણ ચલાવે છે.
साधना की दो श्रेणियां हैं। एक ज्ञान और दूसरी तप । कुछ साधक साधना में केवल तप को सर्वोपरि स्थान देते हैं। इसीलिये वे अहर्निश तपःसाधना में रत रहते हैं। वे देखते हैं तप के द्वारा ही हमारी आत्मशुद्धि है, परन्तु आत्मा क्या है, उसकी अशुद्ध दशा क्यों है ! शुद्ध स्थिति कैसे संभव है ! इसका ज्ञान उन्हें नहीं है । वे साधना के क्षेत्र में दौडना जानते हैं, दौड भी रहे हैं, न उने लक्ष्य का पता है न राह की पहचान है । दूसरे साधक ज्ञान की मशाल लिये हुए आगे बढ़ते है। उनकी साधना में ज्ञान का प्रकाश है वे सही लक्ष्य को जानते हैं।
यह जिस ज्ञान साधना का उल्लेख है वह केवल ज्ञानवादियों को किया शून्य ज्ञान साधना है, जिन्हें क्रिया से इन्कार है। उसका मस्तिष्क चलता है पर पैर नहीं चलते। वे केवल वाणी विलास मात्र से अपने मन को सेतोष देते है। पर सम्यक् ज्ञान संपन्न गायक ज्ञान के साथ चारित्र को भी उपजीवन के तौर पर स्वीकार करता है। उसका स्वर है
पढमं नाणं तपो दया एवं चिट्टा सम्घसंजए ।
अनाणी किंवा काही किंवा नहिह संजमं ॥ -दशवै. ०४ ज्ञान की मशाल हाथ में है तो उसके प्रकाश में अहिंसा का अनुपालन भी संभव है, जिसे ज्ञान नहीं है तो वह क्या करेगा? जिसने साधना पथ को पहचाना नहीं है वह उसपर कदम कैसे बढ़ाएगा ।
टि. मूल गुण चरण हैं और सामति आदि उत्तर करण हैं। टीका:-यो ज्ञानमेवोपजीवति चरित्रं करण सिंग च जीवनार्थमुपजीवन्तं विशुद्धं जीवति । गतार्थः ।
लिंगं च जीवणट्टाए अविसुद्धं ति जीवति । विजामंतोपदेसेहिं दूतिसंपेसणेहिं या ॥ ११ ॥
भावी तबोवदेसेहिं अविसुद्धं ति जीवति । अर्थ-जिन्होंने वेश को जीवन का साधना बनाया है ये अशुद्ध जीवन जीते हैं। विद्या और मंत्र के उपदेश एवं संदेश वाहिका को भेजना है। भाची तप या भवितव्य के उपदेश से जीना भी अशुद्ध जीवन है।
१ णागस्त काल विरतिः। ३ बायावीरियमण समासासेति अपयं-उत्तरा, अ, ६