________________
छत्तीसवां अध्ययन
समझाये कि तैने अपने ही आठाने विगाये हैं साथ ही राष्ट्र की संपत्ति को भी क्षति पहुंचाई है1। क्रोध आँस्त्र मूंद कर चलता है । इसीलिये तो बह ठोकर खाता है और ऐसा गिरता है कि पृथ्वी भी उसे रोक नहीं सकती । क्रोध की आग नरक की आग लेकर ही आती है। इसीलिये अहंतर्षि साधक को बार बार सचेत कर रहे हैं। कोबाविद्धाण याणंति मातरं पितरं गुरुं । अधिक्खिवंति साधू य रायाणो देवयाणि य ॥ १४ ॥
अर्थः-शोधाविष्ट प्राणी माता पिता और गुरु को भी नहींसमझते। वे साधु राजा या देवता का भी अपमान कर सकते हैं। गुजराती भाषान्तर:
ક્રોધાધીન માનવ માતા, પિતા અને ગુરુને પણ માનતા નથી; તે સજન, રાજા કે દેવતાને પણ અપમાન કરી શકે છે.
मायावी का कोई मित्र नहीं है। अहंकारी के लिये कोई बडा नहीं है। क्रोधी का तो वह खुद ही नहीं है । शोधका शैतान जन मानन के दिमाग में प्रवेश करना है तो उसकी भौखें मुंद जाती हैं और ओंठ खुल पडते है । उस समय वह न माता को देखता है, न पिता को, न गुरू को, वह साधु को भी अपमानित कर सकता है। राजा और देवता का भी तिरस्कार कर सकता है। कोवमूलं णियच्छति घणहाणि बंधणाणि य । पिय-विप्पओगे य वह जम्माई मरणाणि य ॥१५॥
अर्थ:-क्रोध धन हानि और बन्धनों का मूल है। प्रिय वियोग और अनेक जन्म मरणों का मूल भी वही है। गुजराती भाषान्तर:
દ્રવ્યનાશ અને બંધનનું મૂળ ધ જ છે. વહાલાનો વિયોગ અને અનેક જન્મ તેમજ મરણનું કારણ પણ और छे.
क्रोध सारी विपत्तियों के लिये निमंत्रण है। क्रोध में धन और जन दोनों हानियां हैं। दषा की जमी जमाई नौकरी को क्रोध एक क्षण में बिगाड़ देता है और उफान शान्न होने पर फिर वह नौकरी के लिये चकर लगाता है। मनुष्य समझता है मैं क्रोध से काम निकाल लूंगा किन्तु कोष से काम लेना ऐसा ही है जैसा कि घडी का पेंडुलम हिलाकर उस घडी से काम लेता है। जिसकी कमान टूटी हुई है कोष से काम बनते नहीं निगडते जरूर हैं। प्रिय वियोग उसमें है बहुत से व्यकि आवेश में आकर घर छोडकर ऐसे मये कि फिर घर की ओर झांका तक नहीं । जन्म और मृत्यु सो कोष के साथ लगे हुए हैं ही।
जेणाभिभूतो जहती तु धम्म, विद्धंसती जेण कतं च पुण्णं ।
स तिव्यजोती परमप्पमादो, कोथो महाराज | णिरुहियन्यो ।। १६ ॥ अर्थ:--जिसके द्वारा अभिभूत होकर यह आत्मा धर्म को छोटता है और जिसके द्वारा कृत पुण्य नष्ट होता है। हे महाराज । वह तीव अग्नि और परम प्रसाद रूप कोष निग्रह करने योग्य है। गुजराती भाषांतर :
જેને કારણે માણસ પરાજય પામીને ધર્મને ત્યાગ કરે છે અને જેને લીધે પુણ્યનો લોપ થઈ જાય છે, તે મહારાજ ! અગ્નિ જેવા ભયંકર અને ચાલાખ એવા ક્રોધનો સંયમ કરવી જ જોઈએ.
क्रोध से होनेवाली दो बड़ी हानियों बताई गईहे। पहली है उसके द्वारा आत्मा का स्व-धर्म समाम करना। क्षमा भारमा का वधर्म है और क्रोध पर धर्म। दूसरा यह कृत पुण्य को नष्ट करता है। क्रोध हमारा हाथ तो इस दंग से पकडता है, मानों वह हमारा हक बहुत बडा माथी हो किन्तु वह इतना चालाक है कि काम हमसे ही कराता है इसीलिये तो क्रोध उतारने के बाद हम दूनी थकान का अनुभव करते है।
अत्तर्षि कह रहे हैं यह क्रोध तीव्र ज्योति अग्नि रूप है और परम प्रमाद है। अर्थात् पंच प्रमादों में इसका स्थ प्रमुख है। अतः यह सदैव निरोध करने योग्य है। क्रोध विजय का एक अलग तरीका है। क्रोध की आग मिट्टी के तैलसे लगी आग है । वह पानी से काबू में नहीं आ सकती । उसे बुझाने के लिये मिट्टी चाहिये । वह मिट्टी है मृत क्रोध की
.