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________________ २३६ इसि भासियाई नकली क्रोध की । कोशी व्यक्ति को भाप शान्ति से नहीं समझा सकते उसके लिये नकली कोम की आवश्यकता है। गरमी से गरमी दवती है किन्तु ध्यान रखे वह क्रोध की आग आपके दिल में न आ जाय, अन्यथा वह दबेगी नहीं भटक उठेगी 1 दो लड़ते हुए व्यक्तियों की लड़ाई रोकने के लिये पहले उनकी लडाई को कुश्ती में बदल देना होगा, फिर भहयुद्ध को खेल में बदल दें। कुछ देर में आप देखेंगे ने हास्य की सरिता के निकट आ गये हैं। क्रोध के हंसी में बदलते ही कान्ति शान्ति में बदल जाएगी । युद्ध टीका :- महाराज त्ति संबोधनं श्लोकस्यान्यस्मात् कस्माचिदन्यायादिाचत रितत्वं प्रकटीकरोति । प्रस्तुत श्लोक में आया हुआ महाराज का संबोधन यह प्रकट करता है कि यह श्लोक अन्य किसी स्थान से लिया गया है । प्रोफेसर शुक्रिंग भी लिखते हैं- पदवें श्लोक में आया हुआ महाराज का संबोधन का मूल दूसरे अनुसंधान में होना चाहिये, क्योंकि प्रस्तुत प्रकरण के श्लोकों में यह संबोधन ठीक नहीं बैठता। माणो भासं करोतीह विमुच्यमाणो । भासं च सक्खि पण्णे, कोथं गिरंभेज सदा जिता ॥ १७ ॥ e करेतीह अर्थ ः – जो निरोषित किये जाने पर मनुष्य को हृष्ट करता है और छोड़े जाने पर प्रकाश ( भड़का ) करता है । समीक्ष्य प्रज्ञाशील जितात्मा साधक हृष्ट और प्रकाशित दोनों प्रकार के क्रोध को सदैव रोके । गुजराती भाषान्तर: ક્રોધ ( અપ્રકટ ) સંયમિત થયા પછી માત્રુસને તે સંતોષ આપે છે અને ક્રોધ (પ્રકટ ) છોડી પીધા પછી તે ભડકે છે. બુદ્ધિવાન અને વિચારી માણુસે હૃષ્ટ અને પ્રકાશિત (એટલે પ્રકટ પ્રકટ ) બેઉ તરહના ક્રોધનો સાધકે હંમેશા અટકાવ કરવો, क्रोध के दो रूप हैं- एक प्रकट, दूसरा अप्रकट | पहला प्रज्वलित आग है, दूसरा दबी हुई आग है। क्रोध का एक वह रूप है जबकि उसकी ज्वालाएं बाहर फूटती दिखाई देती है, दूसरा एक वह क्रोध है जिसकी ज्वालाएं बाहर तो नहीं दिखलाई पड़ती किन्तु जो भीतर ही भीतर अनवुझे कोयले की भाँति सुलगता रहता है। कभी कभी ऐसा भी होता है दो यकियों के बीच झगड़ा हो जाने पर दोनों बोलना बन्द कर देते हैं। परन्तु दोनों के बोलना बन्द कर देने मात्र से क्रोध की ज्वाला रामाप्त हो गई ऐसा नहीं समझा जा सकता। हो, इतना हुआ बाहर की ज्वाला भीतर पहुंच गई । यह भीतर की आग बाहर की आग से अधिक भयानक होती है। क्योंकि बाहर की आग तो दो मिनिट में जलकर शान्त हो जाती है। पर भीतर की आग कब किस क्षण विस्फोट करेगी कुछ कहा नहीं जा सकता । इसीलिये तो उष्ण युद्ध की अपेक्षा शीत युद्ध अधिक भयावह होता है और शीतयुद्ध की पृष्ठभूमि पर ही उष्ण युद्ध की विभीषिका खड़ी होती है । प्रज्ञाशील साधक बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के क्रोध को निरुद्ध कर कषाय विजयी बने । टीका :- करोति पुरुषमनिरुध्यमानः कोपः विमुच्यमानस्तु भस्म करोति । भस्मी करोति, हृष्टं च भस्म च समीक्ष्य प्राशी जितात्मा सदा कोपं निरुध्यात् । तारायणीयमध्ययनम् । व्यनिरुध्यमान क्रोध मनुष्य को दृष्ट करता है और विमुच्यमान कोध उसे भस्म करता है । अतः प्रशाशील जितामा और भस्म को देखकर को सदा रोकता रहे । टीकाकार का अभिप्राय कुछ भिन्न पड़ता है । १ इसि भासियाई जमेन प्रति पृष्ठ ५७. एवं से सिद्धे । गतार्थः ॥ पटूत्रिंशत्तममध्ययनम् 0<-- 1
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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