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________________ सिरिगिरि अतिषिप्रोक्त सीसवां अध्ययन तत्त्वचिन्तक के मन में एक प्रश्न खड़ा होता है हम जिस विराद सृष्टि में रहते हैं उसकी उत्पत्ति कैसे हुई? कोई दर्शन इसे अंडे से उत्पन्न मानता है इसे वराह के द्वारा समुद्र से बाहर लाई मानता है। किन्तु ये समाधान तर्क की तुला पर ठहर नहीं सकता। जिस अंडे से यह सृष्टि उत्पन्न हुई वह अंडा कितना बड़ा होगा और वह रहा कहाँ ? होगा? जब पृथ्वी पानी आदि कोई तत्व ही नहीं थे तो अंडा आया कहाँ से और कहां टिका होगा। जैन दर्शन इसका राही समाधान देता है । यह विश्व की रंग-स्थली अनादि है। यह विराद विश्व न कभी उत्पन्न हुआ है,न कभी पूर्ण रूप से विलय ही होगा। क्योंकि हग यदि उत्पत्ति वाद स्वीकार करते है तो हमारे सामने प्रश्न आता है पहले बीज या या वृक्ष । यदि बीज पहले श तो क्ष बिना श्रीज आया कहाँ से और वृक्ष पहले था तो बीज विना वृक्ष कैसे मह ऐसी अनबूझ पहेली है। जिसे आज तक कोई सुलझा नहीं पाया। अतः जैनदर्शन कहता है बीज भी उतना ही पुराना है जितना कि वृक्ष । यीज से वृक्ष और वृक्ष से पोज यह क्रम अनादि है। न कभी यह क्रम टूटा है न कभी टूटनेवाला है। इसी रूप में सृष्टिचक घूम रहा हैं। आजका विज्ञान सृष्टि की उत्पत्ति के लिये विकासवाद को मानता है। विकासवाद के प्रणेता हार्विन कहता है यह पृथ्वी करोड़ों वर्ष पहले इतनी गर्म थी कि उस पर कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह सकता था, फिर उसकी ऊपर की परत शीतल हुई तो कुछ छोटे जन्तुओं ने जन्म लिया। उनके द्वारा कुछ की आदि पैदा हुए । फिर उन्होंने विकास किया तो बड़े रेगनेवाले प्राणी जन्मे। उन्होंने विकास किया तो चौपाये जन्मे। उनमें से बुद्धि पटुता लेकर बन्दर जन्मा और बन्दरों का विकसित रूप माना है। यह विकासवाद का संक्षिप्त रूप । लास्तों करोड़ों वर्षों के पूर्व कुछ बन्दर मानव बने थे। उसके बाद लाखों की संख्या में जो बन्दर थे उन्होंने विकास क्यों नहीं किया। माना कि सब विकास नहीं कर सकते तो सौ वर्ष के बाद या हजार वर्ष के बाद एक बन्दर तो मनुष्य होना चाहिये। फिर मनुष्य का भी तो विकास होना चाहिये वह भी तो कुछ बनाना चाहिये। डार्विन का यह विकासवाद भी तक की तुला पर ठीक नहीं बैठता । हो, आत्मा विकारा करती है और यह चोला बदलकर दूसरे रूप में आ सकती है किन्तु उस वर्ग के प्राणी विकसित होकर अन्य रूप ले यह संभव नहीं है। प्रस्तुत अध्याय में सृष्टि की उत्पत्ति के प्रश्न की चर्चा की गई है। __ सवामिण पुरा उदगमसीति सिरिगिरिपा माहणपरिवायगेण अरहता इसिणा बुइतं । अर्थ:-कुछ दार्शनिक ऐसा मानते है कि यहां पहले सब पानी ही था। इस प्रकार प्रामण परिव्राजक सिरिगिरी अर्हतर्षि ऐसा बोले । गुजराती भाषान्तर :--- કેટલાક દાર્શનિકો એમ માને છે કે અહિયાં પ્રથમ બધું જવમય (પાણીથી વ્યાપ્ત) જ હતું એમ બ્રાહ્મણ પરિવ્રાજક સિરિગિરિ અહંતર્ષિ બોલ્યા. ___ष्टि-कर्तृत्व के सम्बन्ध में पूर्वपक्ष बताते हुए अर्हतर्षि कहते हैं कुछ दार्शनिक ऐसा मानते हैं कि पहले यह केवल जल तत्त्व था। एत्थ अंडे संतत्ते पत्थ लोए संभूते । पत्थं सासासे । इयं णे वरुणविहाणे । उभयोकालं उभयोसंझं खीरं णवणीयं मधुसमिधासमाहारं खारं संखं च पिंडेता अग्निहोराकुंड पडिजागरमाणे विहरिस्समीति तम्हा एवं सब्बं ति बेमि । अर्थ:-वहाँ अण्डा आया और फूटा उससे लोक उत्पन्न हुआ और सारी सृष्टि उत्पन्न हुई। किन्तु कोई यह बोलते हैं कि यह वरुणविधान हग मान्य नहीं है। वे उभय काल दोनों संध्या को क्षीर नवनीत ( मम समिधा ( लकडिया) इनको एकत्र करके क्षार और शंखको मिलाकर अग्निहोत्र कुंड को प्रति जाग्रत करता हुआ रहूंगा इसलिये मैं यह सब बोलता है। ने पीर बनीत माल ) प (आर
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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