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इसि-भासिया
वैदिक-परंपरा के अनुगामी ऐसा विश्वास करते हैं कि विश्व की उत्पत्ति अंडे से हुई है। महासागर में एक अंडा तैरता हुआ आया । वह फूटा और दो खंडों में विभक्त हो गया। पहले से अबलोक बना और निम्न खंड से अधोलोक बन गया। उसी से यह सचराचर सृष्टि पेदा हुई है।
सृष्टि उत्पत्ति के सम्बंध में और भी विभिन्न बाद है। सूत्रवृत्तांगसूत्र में उसका उल्लेख है । कोई ऐसा मानते हैं कि यह लोक देवों ने बनाया है। दूसरे ऐसा कहते हैं कि यह मटि ब्रह्मा ने बनाई है। कोई यह मानता है कि यह सृष्टि ईश्वर ने बनाई है। इस विराट् विश्व में ईश्वर अकेला था किन्तु अकेलेपन से वह कम पाया और उसने अपने को दो हिस्सों में विभक्त कर दिया। एक था पुरुष दूसरी श्री नारी और इस रूप में सृष्टि का निर्माण हुआ। कुछ लोग इस विश्व को प्रति की कृति मानते है। कोई इसे खभावकृत मानते हैं। मयूर के पंखों को किसने चित्रित किया है। कांटों को किसने तीखा बनाया है। उत्तर होगा यह सब खभाव की देन है। उसी स्वभाव ने सृष्टि का निर्माण किया है। महर्षि ऐसा कहते है वह मृष्टि ब्रह्मा ने रची है। फिर उन्होंने सोचा कि यदि सृष्टि का निर्माण ही होता गया तो उसका समावेश कहाँ होगा, अतः उन्होंने यमदेव की रचना की और उसने माया का निर्माण किया यही माया लोक का संहार करती है। प्रद्मा और त्रिदही आदि श्रमण ऐसा बोलते है-यह विश्व अंडे से बना है।
इस प्रकार सृष्टि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेकवार प्रचलित हैं। अतिर्षि अंडे से विश्व की उत्पत्ति माननेवाले सिद्धान्त का वर्णन कर रहे है। साथ ही उस मत के अनुगामियों की दैनंदिनी गाना भी बता रहे हैं कि वे दोनों समय दोनों संध्या को क्षीर और नवनीत और मधुके द्वारा अग्निहोत्र करते है। नैदिक परंपरा के अनुगामी अंडे से विश्व की उत्पत्ति मानते हैं और अग्निहोत्रादि यज्ञयागों में विश्वास करते है।
टीका:--सर्वमिदं जगत् पुरा उदकमासीत् । भन्नाण्ड संतप्तम् , अन लोकः संभूतः। भन्न साश्वासो जातः, इदं नोऽस्माकं मते वरुणविधानं इति केचित् । अग्ये सूभयतः कालमुभयतः संध्यं क्षीरं नवनीत मधु समित्, समाहार मार शंख च पिंडविस्थाऽग्निहोत्रकुण्डं प्रतिजागरयमाणो विहरिप्यामीति तस्मादेतत् सर्वमिति प्रषीमीति । तार्थः ।
प्रोफेसर शुझिंग लिखते हैं -
यह एक ही प्रकरण ऐसा नहीं है कि छन्द रूप में जिसकी भूमिका नहीं है। अध्ययन १०,१४ और २१ में भी ऐसा ही हुआ है । वर्षों पहले इस विध में केवल पानी ही था। यह गुद्रा लेख है। इसके बाद आनेवाला अध्ययन भी इसी शेली का प्रमाण है। ऊपर के दावय का स्पष्टीकरण निम्न रूप से है-अंठा पटा और दुनिया बाहर आई और उसने श्वास लेना शुरू किया। यहां ब्रह्म के बदले वरूण का निर्देश उचित हैं। क्योंकि जल का देवता वरूण माना जाता। अतः यह सृष्टि वरुण की कृति है।
दूसरे वैदिक सिद्धान्त के अनुसार इस विश्व की उत्पति यश से हुई है। उभी काल वगैरे से यही ध्वनित होता है। किन्तु उसमें प्रमाण रूप से कोई कल्पित मेद नहीं बताया गया है। इसके सामने दो ब्राह्मण के बताये गये हैं किन्तु उसमें विरोध नहीं दिखाया गया है।
ण वि माया ण कदाति णालि ण भवति ण कदाति ण भविस्सति य । अर्थ:-यह लोक माया नहीं है। कभी नहीं था ऐसा नहीं है. कमी नहीं है ऐसा भी नहीं है और कभी नहीं रहेगा ऐसा भी नहीं है।
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१स एकाकी न रेमे।
२ मत्व रज और तम की साम्यावस्था प्रकृति है। ३ णमन तु अन्ना मेगेसि माहियं ।
देव उत्ते अयं लोए यंभउत्तेति आबरे ।। ईसरेण कडे लोए पहाणाश्तहावरे । जीवा-जीव-समाउत्ते सुदुक्खसमन्निष्ट । संयंभुणा कडे लोए. इथुत्तं महेसिणा । मारेण सेथुया माया तेण लोए. असास ।।
सूयगड अ०१०३ गा०५-६-७. ४ माहणा समण गे आइ अंड कडे जने ।
सूबमठ १,उ०३, गा० ८.