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सैंतीसयां अध्ययन गुजराती भाषांतर:
આ લોક માયા (એટલે સ્વ જેવો ખોટો નથી, ક્યારે પણ નહોતું એમ નથી, જ્યારે પણ નથી એમ પણ નથી, અને ભવિષ્યમાં પણ રહેશે એમ પણ નથી.
अर्हर्षि पहले मृष्टि उत्पत्ति के सम्बन्ध में वैदिक परंपरा दिखाकर बाद में जैनदर्शन रख रहे हैं । जैनदर्शन के अनुसार अह विश्व सस्य है। और यह लो संपूर्ण रूप से नश्वर भी नहीं है। इस सारी सृष्टि को माया मानने पर भी बहुत बड़ी आपत्ति आती है। यदि यह माया है फिर आत्मा जैसा कोई तत्व भी नहीं है। फिर पुण्य पाप साधना आदि सभी निष्फल हैं। यदि संसार को स्वप्न माना जाय तो स्वप्न मी एकदम मेथ्या है ऐसा नहीं कहा जा सकता। हमारी जाति का ही प्रतिबिम्ब स्वप्न हैं। जागृति में है और अनुभून वस्तुएं वासना रूप में हमारी स्मृति में रह जाती है और वे ही स्वम रूप में दिखाई देती है | अदि जागृति भी कोई वस्तु नहीं है तो फिर स्वम भी नहीं आ सकता।
सीप में चांदी की प्रांति होती है. पर विश्व में सीप और चांदी है भी तो भ्रान्ति होती है; अन्यथा आकाश कुसुम की तो भ्रान्ति नहीं होती। अतः विश्व व्यवस्था सत्य है, किन्तु उसे हम गलन रूप में देखते हैं तो हमारी दृष्टि में भ्रांति है। पर को व देखना और उसमें आत्मीयता की बुद्धि रखना यह भ्रान्ति है किन्तु वस्तु या यह विश्व-भ्रान्ति नहीं है।
साथ ही त्रिकामा : महक नहीं का ऐसा भी नाही है। कभी नहीं है ऐमा भी नहीं है, कभी नहीं रहेगा ऐसा भी नहीं है। हा पर्याय रूप से प्रतिक्षण बदल रहा है किन्तु द्रव्य रूप से यह लोकशाश्वत है। क्योंकि लोक का संपूर्ण नाश मानने पर उसकी उत्पत्ति भी माननी होगी और ऐसा मानने पर अनेक तर्क उपस्थित होता है। साथ ही जैनदर्शन यह मानता है विश्व मत् है और सत् उत्पक्ष भी होता है नष्ट भी होता है फिर भी तत्व रूप से ध्रुव रहता है। उसका रूप बदलता है पर स्वरूप नहीं बदलता है। गीता भी कहती है असत् कमी उत्पन्न नहीं होता और सत का कभी नाश नहीं होता, फिर सृष्टि की उत्पत्ति कैसी? अंडे आदि से उत्पत्ति मानना और भी युक्ति विरुद्ध है। सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया है
सहि परियाएहि लोय चूया कडेत्ति य ।
तत्तं तेण विजरणति ण विणासी क्यापि || -सूत्रकृतांग अ० १ उ. ३ गा-६. अपने विचारों से वे थोलते है लोक बनाया मया है। किन्तु वे तत्व को जानते नहीं हैं, क्योंकि लोक विनाशी नहीं है।
टीका:-वयं तु न बित्ति माया नैवादभुतऽविधान मन्तव्यम्, किन्तु न कदाचिन्नासीक कदाचिन भविष्यति च लोक इति वदामः । गताः ।
प्रोफेसर शुकिंग लिखते हैं
कि नवि माया आदि के द्वारा जैन सिद्धान्त बताया गया है और वह दुनिया की शाधतता और वास्तविकता की मांग करता है।
पडप्पणमिणं सोच्चा सूरसहगतो गच्छे । जत्थ व सूरिये अस्थमेजा खेतसि वा पिणंसि वा तत्थेव णं पादुप्पभायाय, रयणीप जाव तेयसा जलंते । एवं खलु से कप्पति पातीणं वा पडीणं चा दाहिणं
वा उदीणं वा पुरतो जुगमेतं पेहमाणे आहारीयमेव रीतित्तप। अर्थः-प्रत्युत्पन्न अर्थात् वर्तमान इस तथ्य को सुनकर साधन सूर्य के साथ जाए! जहां सूर्य हो वहीं रुक जाए, फिर यहां खेस हो या ऊंची नीची भूमि हो । रात्रि के व्यतीत हो जाने पर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के उदय होनेपर ( साधर्क को) पूर्व पश्चिम उत्तर या दक्षिण किसी भी दिशा में युग मात्र भूमि देखते हुए चलना करपता है। उस प्रकार चलनेवाला साधक कर्म क्षय करता है। गुजराती भाषान्तर:
પ્રત્યુત્પન્ન એટલે વર્તમાન રચવને સાંભળીને સાધકે સૂર્યને સાથે જ ચાલવું જોઈએ. સૂર્યને અસ્ત થતાં જ તે પોતે પણ થોભી જાય, ભલે ત્યાં ખેતર હોય કે રૂચી કે ની જગ્યા હોય. રાત વીતી ગયા પછી કે તેજસ્વી સૂર્યનો ઉદય થયા પછી સાધકે પૂર્વ, પશ્ચિમ, ઉત્તર કે દક્ષિણ કે કોઈ દિશા તરફ યુગમાત્ર ભૂમિ જોઈને ચાલવું એ એક કલ્પના છે. તેવી રીતે ચાલનાર સાધક કર્મને ક્ષય કરે છે.
१ उत्पादव्ययात्रौव्ययुक्त हि सत् ।।-तवार्थ ० ५ सू० २६. नसतो जायते भावो नाभायो विद्यते सतः।।- गीता