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इसि-भासियाई
साधक सत्य को पहचाने और फिर सूर्यविहारी बने । भय उदय होने पर उसकी पति आरंभ हो और गूर्य अस्त हो वहाँ रुक जाए, फिर भले वह खेत हो था निम्न भूमि हो । रात्रि व्यतीत हो जाने पर ही वह आगे बढे। क्योंकि वह प्रकाश का पथिक है, वह प्रकाश व्य और भाव दोनों रूप में अपेक्षित है, द्रव्य से सूर्य का प्रकाश अपेक्षित है, तो भाव से ज्ञान प्रकाश प्राह्य है। भाव शब्द से यही - सूर्य के कुछ विशेषण प्राहा हैं । जोकि औषपातिक सूत्र में मिलते है। टीकाकार उन्हें दे रहे हैं, अतः यहाँ पृथक् नहीं दिये गये। साधक युग मात्र भूमि देखता हुआ चले। ताकि वह जीवादि विराधना से बच सके। उसके मन में करुणा की धारा बह रही है यह सब की रक्षा करने की कामना लेकर चल रहा है। अतः चलते हुए भी उसे सावधानी रसना आवश्यक है । जागृत साधक ही गृहीत को रित्ता कर रहा है । इसके दो रूप हैं द्रव्य में वह लक्ष्य की दूरी की रिक्त कराता काट रहा है। दूसरी ओर गृहीत क्रमों को क्षय कर रहा है।
टीका:-- 'पदुप्पा इणं सोच' ति प्रत्युत्पन्न वर्तमानभिदश्रुत्चेति श्रीणि पदानि इलोकपाद इव दृश्यन्ते । नच पूर्वगतेन न चैव पङ्चाद्गतेन संबई शक्यानि । सूर्यसहगतो निम्रन्थो भर्थात् यात्रेव सूर्योऽस्तमियास क्षेत्रे वा निम्ने वा तत्रैवोषित्वा प्रादुः प्रभातायां रजन्यामतीतायो राबावुरियने सूर्ये सहमरश्मी दिनकरे कीदृशे - तदीपपातिकपाटेनोच्यते विकसितोपले चोन्मीलितकमलकोमलेच पांडुरप्रमे रक्ताशोकप्रकाशे च किंशुक- शुकमुख- गुजारागसपशे व कमलाकरपण्डबोधके तेजसा ज्वलति सति एवं तत्क्षणमेव प्राची वा दक्षिणा वा उदीचीनां वा दिशि पुरतो युगमात्रमेव प्रक्षमाणे यथारी ये तस्य कल्पते निग्रन्थस्य । श्रीगिरीयमध्ययनम् ।
'पडा पन्न, इण, सोच्च' आदि तीनों पद श्लोक के पाद समान दिखाई देते हैं, किन्तु वे न पूर्व के साथ जोड़े जा सकते हैं, न पीछे के साथ । मुनि सूर्य के साथ जाये इसका अर्थ है जहाँ सूर्य अस्त हो वहाँ क्षेत्र खेत था निम्नभूमि हो वहीं उसे ठहर जाना चाहिये। रजनी के बीत जाने पर सहस्ररश्मि सूर्य के उदय होने पर पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण किसी भी दिशा में आगे युग-मात्र भूमि देखते हुझे गति करना मुनि को कल्पता है। वह सूर्च कैसा है उसका वर्णन औषपातिक के आधार पर दिया जा रहा है। उत्पल (कमल को विकसित कर दिया है और कोमल कमल को खिला दिया है जिसने ऐसा पाण्ड प्रभाववाला रक्त (लाल) अशोक के सदृश प्रकाशवाला, किंशुक शुकमुख (पोपट की चंचु) और गुंजा के सदृश लाल कमलाकर (समूह) सरोवर को जगानेवाला तेजस्वी जाज्वल्यमान सूर्य है। उसके उदय होने पर भुनि विहार पथ में आगे बढ़े।
प्रोफेसर शुब्रिग् लिखते हैं
आगे जो पाठ ( प्रस्तुत ) दिया गया है उसमें कुछ नया वर्णन है। साधुओं के प्रतिदिन का कार्यक्रम दिया गया है जो कि सूर्य की गति के साथ संगत है। जिसकी तुलना कल्पसूत्र ५-६-८ और निशीथ १०,३१,६४ और दशवें 4-२८ के साथ की जा सकती है।
घोदी शुभेच्छाओं के साथ एक फूल पुनः विश्व की ओर खींच जाता है। "पप्पणं इणं सोच" श्लोक पद यह बताता है कि उसने जाना है दुनियां नहीं है और ऐसा लगता है वहां थोडा कुछ छुट गया है। इसीलिये उसकी पुनरुक्ति मी होती है । क्षितिज में सूर्य अस्त होता है यह वाक्य मी कुछ बाहर का लगता है उसे पूर्णता को आवश्यकता है जोकि मुनि बिहार की पूरी मर्यादा जताता हो। औपपातिक में जो सूर्योदय की काव्यात्मक पदावलि मिलती है वहाँ भी ऐसा लगता है कि वेद की नीति प्राश मिलाने के लिये कुछ शब्दों का योग दिया गया है। वहाँ जो पाउप्पमायाररमणीए पाट है वहां निनोक्त पाठ होना चाहिए फूलुप्पल उम्मिलिय कोमल कमलम्मि अहा पंडुरप्पभायाए स्से एवं खलु। देसो आचारांग ८३-१। अतः वहाँ उपोद्धात का वाक्य होना चाहिए उसकी पूरी संभावना ।
___ एवं से सिद्धे वुद्धे । गतार्थः । इति श्रीगिरीयं सप्तत्रिंशत्तममध्ययनम्
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१ कलं पा उम्पमाए रमणीय. फुल्लुम्पलकमल कोमलउम्मीलियामि अहा पंडुरे पहाए रत्तासोगप्पगास किं तुथ - सुव-नुहागुंजडरागसरिरो कमलायरसंबोहए. उत्थियम्मि भूरे सहस्सरिसम्गि दिणधारे त्यता जलते।
-औषपातिकसूत्रम् २ अत्यं गम्मि आइन्च पुरस्थायभगुग्गए । आहारमाश्यं सव्वं मणमा बिण पत्थए ।।